Sahitya Nandini April 2023 (Special Issue on Dr. Kamla Dutt, Georgia, USA )




 समीक्षा

समी. श्री हरिशंकर राढ़ी, वसंतकुंज, नई दिल्ली, मो. 09654030701

ले. डाॅ. कमला दत्त, Georgia, USA


कमला दत्त की यादगारी कहानियाँ

विश्व साहित्य में नाटक या काव्य भले ही सबसे पुरानी और मान्यता प्राप्त विधा रही हो, लोक में कहानियों का अस्तित्व उससे भी पुराना रहा है। लोक से उतरकर कहानियों ने साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया। यह बात अलग है कि चाहे वह विश्व साहित्य हो या हिंदी साहित्य, कहानियों ने अपने कथ्य, भाषा-शैली, प्रारूप, कथानक और चरित्र में बहुत बदलाव देखा है। साहित्य जैसे-जैसे अभिजातवर्ग से पृथक होकर जनोन्मुखी हुआ, किस्सागोई का अंदाज बदलता गया। तमाम बदलाओं में सबसे बड़ा बदलाव उस अंदाज की कहानी का अस्तित्व में आना रहा, जिसे नई कहानी के नाम से जाना गया। नई कहानी अर्थात् मानवमात्र की दुश्चिंताओं, वैयक्तिक एवं पारिवारिक उलझनों, दरकते रिश्तों एवं सामाजिक सरोकारों की कहानी। इस कहानी का एक लंबा दौर रहा है और किंचित परिवर्तन के साथ आज भी जारी है।

नई कहानी की तमाम शख्सियतों में कुछ ऐसे भी नाम हैं, जिन्होंने बहुत कम कहानियाँ लिखीं। कभी अपने समय की प्रसिद्ध पत्रिकाओं के माध्यम से उभरे, ध्यान खींचा किंतु अल्पकाल में ही पटल से गायब भी हो गए। उनमें से कुछ एक लंबे अंतराल के बाद फिर दिखे, तो कुछ नहीं दिखे। कम लिखा लेकिन जो भी लिखा, प्रभावी लिखा। उन्हीं में से एक नाम है कमला दत्त का, जिनकी कहानियों के संग्रह ‘कमला दत्त की यादगारी कहानियाँ’ से अभी गुजरने का मौका मिला। कुल जमा दस कहानियों का यह संग्रह बहुत कुछ कह जाता है और सोचने को भी छोड़ जाता है। पिछली सदी के अंतिम दो दशकों में लिखी गई ये कहानियाँ अपने समय के समाज की टूटन, अकेलेपन एवं दरकते मूल्यों की तो बातें करती ही हैं, साथ में ये मानवमन की गहराइयों के अंतिम बिंदु तक की यात्रा करती हैं।

इस संग्रह की कई कहानियाँ ‘सारिका’ और ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हैं। किसी ऐसी लेखिका का जिसकी कहानियाँ अपने समय की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपती रही हों, साहित्यिक पटल से अचानक गायब हो जाना और सृजन पर विराम लग जाना साहित्य एवं साहित्यकार दोनों के लिए सुखद नहीं है। अपनी संक्षिप्त भूमिका में लेखिका स्वयं इस पर बात करती है। चार दशकों तक देश से बाहर रहना एवं बेहतर जीवन की तलाश में विज्ञान एवं तकनीकी संसार से जुड़ जाने के कारण वह कथालेखन से विरत हो गईं। ‘सारिका’ एवं ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाओं का बंद हो जाना भी साहित्य के लिए अपूरणीय क्षति सिद्ध हुआ। इन्हीं परिस्थितियों के चलते कमला दत्त ने बस गिनी-चुनी कहानियाँ लिखीं। लेकिन यह कहना होगा कि लेखन की गुणवत्ता मात्रा से नहीं, उसके वजन से तय होती है।

यदि इस संग्रह की कहानियों पर एक दृष्टि डाली जाए और समग्रता में टिप्पणी की जाए तो लगभग सभी कहानियाँ आदमी के अकेलेपन और संवेदना के इर्द-गिर्द घूमती हैं। हाँ, इसमें भी बड़ा हिस्सा स्त्री की स्थितियों एवं मनोभावों से जुड़ा है। लेखिका बड़े आराम से दृश्यों, घटनाओं एंव मनोभावों को देखती-परखती है और उसे कागज पर उतार देती है। लगभग हर कहानी में वर्णन एक-एक इंच का मिलता है, पूरी तरह नापा-जोखा हुआ। हाँ, कभी-कभी इस विस्तार में कहानी की रोचकता समाप्त हो जाती है, किंतु थोड़ी दूर बाद लेखिका उसे फिर पकड़ लेती है।

संग्रह की पहली कहानी ‘शुतुरमुर्ग’ है जो आत्मकथा शैली में लिखी गई है। कथा वाचिका समुद्रतट पर लंगर डाले जहाज में बैठी है। वहीं से कहानी पूर्वदीप्ति (फ्लैश बैक) में चलती है। समुद्र किनारे वह आते-जाते लोगों को देख रही है और उनकी गतिविधियों को नोट कर रही है। उसी में बीच-बीच में वह किसी ‘तुम’ को याद कर लेती है जो उसकी करीबी रही है। उस ‘तुम’ का जीवन बहुत बिखरा-बिखरा है। मामला किसी पुरुष से प्यार और बेवफाई का है। उसके दर्द को लेखिका गहराई से महसूस करती है। कहानी ऐसे जीवन की कई पर्तें खोलती है, लेकिन यह भी सत्य है कि अंततः अबूझ-सी रह जाती हैै।

दूसरी कहानी ‘प्रेतात्माएँ’ भी कमोबेश पहली कहानी जैसी है। कहानी का वर्तमान डगशई शहर है जिसमें कथानायक डूबा हुआ-सा है। उसे शिमला, कुल्लू या कसौली से कहीं अधिक प्रिय और शांत लगता है यह शहर। लेखिका ने इस शहर का तो वर्णन किया ही है, शिमला के भूगोल और प्रकृति को भी उकेरा है। मेजर, शुभा और रावी के माध्यम से लेखिका स्त्री-पुरुष के संबंधों की पड़ताल करना चाहती है। एक हद तक मेजर अवसाद में कहा जा सकता है, तो शुभा भाग्य संतोषी किंतु आधुनिक नारी। कदाचित विरोध पर भी उतर आती है। देखा जाए तो यह कहानी उस वर्ग की है जो अच्छे जीवन एवं शांति की तलाश में भटकता हुआ अशांति की ओर बढ़ जाता है।

तीसरी कहानी ‘तुम निहाल दई’ एक पारंपरिक औरत की कहानी है, जिसका जीवन खोने-पाने और जिजीविषा में बीता है। कहा जाए तो यह कहानी एक सामान्य स्त्री के जीवन व जीवटता की कहानी है, हालाँकि उसके साथ जोड़ने के लिए कोई विशिष्ट उपलब्धि या घटना नहीं है। निहाल दई एक ऐसी स्त्री है जो सामान्य होकर भी अपना अस्तित्व एवं परिचय अलग स्थापित किए है। पत्नी, माँ, सास और न जाने कितने संबंधों को जीते हुए भी वह अपने निहाल दई को सुरक्षित रखती है। जहाँ वह एक ओर कर्तव्यनिष्ठ है, जुझारू है, वहीं उसका व्यवहार अपनी बहुओं के प्रति कठोर सास का है। पूरी तरह छूट देना या उनकी सामान्य इच्छा को भी पूरा करने में अपनी हेठी समझती है। परंतु यह भी उसका पूरा सच नहीं है। वह पंजाब की उन तमाम परंपराओं एवं रिश्तों को निभाती है, जो सदियों से निभते आए हैं। कथा वाचिका अमेरिका मेें है और उसके जेहन में निहाल दई की बहुत सारी बातें कुंडली मारकर बैठी हैं। 

हालाँकि इस कहानी में कोई कथानक नहीं है, थीम नहीं है, किंतु सूक्ष्म निरीक्षण के चलते यह कहानी प्रभाव छोड़ जाती है। एक प्रकार से यह परोक्ष रूप से स्त्रीविमर्श की भी कथा है जो निहाल दई के माध्यम से उन्हें अपना अस्तित्व बचाए रखने का संकेत कर जाती है। यह कहानी ‘धर्मयुग’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित है। 

क्योंकि कमला दत्त के जीवन का बड़ा हिस्सा अमेरिका में बीता है, भारत में पढ़ाई-लिखाई के बाद मुख्यतः वह वहीं स्थिर हो गईं, इसलिए उनकी कहानियों में पंजाब और अमेरिका का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है। अप्रवासी भारतीयों की सोच, अमेरिका एवं भारत की जीवन पद्धति में अंतर, बचपन एवं युवावस्था की यादें उनकी तमाम कहानियों में एक दूसरे से लिपटी पड़ी हैं। कहीं न कहीं आप्रवासी भारतीय पश्चिमी जगत में अपनी जन्मभूमि को जीवित रखे हुए हैं तो दूसरी ओर पाश्चात्य सोच को आत्मसात कर रहे हैं। लेखिका को दो देशों की सभ्यता-संस्कृति एवं मानसिकता के बीच पुल बनते हुए देखा जा सकता है।

‘धीरा पंडित, केकड़े और मकड़ियाँ’ भी आधुनिक मानसिकता की लगभग बीस पृष्ठों की लंबी कहानी है। इस कहानी में भी लेखिका ने अपनी उसी सूक्ष्म निरीक्षण एवं वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। कथा नायक डाॅ. जर्सिकी और धीरा की यह कहानी तमाम उधेड़-बुन और सामाजिक ताने-बाने का चित्र खींचती है। कहानी के मूल में विवाह, प्रवासी मानसिकता, अमेरिकी युवक के पंजाबी लड़की से विवाह के बाद उसे साथ ले जाने में आना-कानी और लुका-छिपी के खेल को सजगता से विस्तार दिया है। कमला दत्त की अनेक कहानियों से गुजरते हुए लगता है कि उन्हें घटना एवं स्थितियों के स्पष्ट आख्यान के बदले संकेतों में बात करना अच्छा लगता है। इस कहानी में हिंदुस्तानी, अमेरिकी, कैथोलिक एवं यहूदी जैसी मानव श्रेणियों की परंपराओं एवं मानसिकता का तुलनात्मक अध्ययन भी देखने को मिल जाता है। हिंदुस्तानी कुछ मामलों में बड़े संवेदनशील और वैयक्तिक होते हंैं। खुलेपन को लेकर वे बिंदास कम हो पाते हैं। इस तथ्य का ज्ञान लेखिका को है। एक जगह वह कहती है- ”आप सभी हिंदुस्तानी आलोचनाओं को इतना व्यक्तिगत तौर पर क्यों लेते हैं?“ इस कहानी में पुरुष और स्त्री के विचारों एवं सोच का बहुत महीन विश्लेषण हुआ है।

‘मछली’ शीर्षक कहानी ‘हंस’ के नवंबर, 1989 अंक में छपी है। प्रारंभ बहुत अच्छा और आकर्षक है- ”लड़की घुटनों के बल समुद्र के किनारे बैठी है, और कभी हवा में दोनों बाहें फैला देती है और कभी झुककर समुद्र तट से कुछ उठा लेती है। लड़की जैसे खुद से बातें कर रही है या हवा से बातें कर रही है।“ शुरू में ही संकेत मिल जाता है कि कहानी रोचक होने वाली है। यह भी संकेत मिल जाता है कि या तो इसमें लड़की का बहुत खुश होना है या फिर कदाचित कुछ पागलपन। दोनों ही स्थितियाँ इंगित करती हैं कि इस कहानी में भी परिस्थितियों और मन का विश्लेषण होने वाला है। उसकी उम्र 35 से 50 के बीच है, फिर भी लेखिका उसे लड़की कहती है। उसका एक अध्ययन है। वह लिखती है कि वह उन औरतों में है, जो जवानी में जवान नहीं लगतीं और बुढ़ापे में बूढ़ी नहीं। लड़की उदास है और वह समुद्र तट पर ही बैठी है। कहीं न कहीं उसमेें मछली का सादृश्य है। कहानी में लड़की की सोच के अतिरिक्त कोई मोड़ या संवाद नहीं है। उसी की सोच से कहानी खत्म हो जाती है।

‘गंगामूरती’ विस्थापन एवं बिछड़न के इर्द-गिर्द घूमती एक अकेली औरत की कहानी है, जिसका बहुत कुछ अपना होकर भी बेगाना हो गया। बँटवारे के बाद भटकती-सी वह मद्रासी हिंदी बोलने वाली लछमा के साथ रह रही है। यहाँ भी रोजमर्रा के कामों के माध्यम से जीवन को परिभाषित करने का प्रयास किया गया है। लगभग पंद्रह पृष्ठों की यह कहानी गंगामूरती के फ्लैशबैक में बार-बार ले जाती है। चैदह वर्ष की उम्र में वह यहाँ आती है और तबसे उसके जीवन के अनेक पृष्ठ खुलते हैं। इस कहानी की भी विशिष्टता उन्हीं अनुभूतियों पर प्रकाश डालना है जो एक संवेदनशील मनुष्य की पूँजी होती हैं।

कहानी ‘प्रमथ्यू’ कुछ हटकर है। यह कहानी भी आत्मकथा शैली में चलती है। देखा जाए तो यह कहानी आज के दांपत्य जीवन में समय की कमी, समझौतों, छोटी-छोटी खुशियों की तलाश की कहानी है। लेखिका अमेरिका में बसे एक दंपती की उलझनों, विवाहेतर जीवन एवं मनःस्थितियों की परतें उघाड़ती है। देखा जाए तो यह कहानी कुछ ज्यादा ही बौद्धिक हो जाती है। लेखिका ने इसे विश्व पटल से भी जोड़ने का प्रयास किया है। आज अधिकतर मध्यवर्गीय आबादी अपने बनाए न जाने कितने होलोकास्ट एवं यातना शिविरों में रह रही है। यह कहानी आगे बढ़ने पर एक प्रकार का मेटाफर लगने लगती है। वैसे कहा जाए तो यह अपने आप में एक प्रकार की एकल संवाद यानी मोनालाॅग है।

संग्रह की अंतिम कहानी ‘लूमिस कैटरपिलरी’ भी बहुत लंबी है। बीस पृष्ठों तक फैली कहानी को लंबी ही कहा जाएगा। इस कथा में भी ‘मछली’ कहानी की भाँति एक लड़की है, जो समुद्र तट पर एक जंग लगी नौका की छाया में बैठी है। वह बार-बार मानहीगन लौटती है - पता नहीं किस गुमशुदा शांति और सुख की तलाश में। वह न जाने कहाँ-कहाँ से घूमती हुई यहाँ फिर पहुँची है। लड़की की सोच और मानसिक द्वंद्व के समानांतर सीगल्स की उपस्थिति कहानी को गंभीर या एब्सट्रैक्ट बनाती है। यहाँ एक मृत लड़की का भी जिक्र आता है जो आर्मी आॅफिसर की बेटी थी। प्रछन्न रूप से उस मृत लड़की और इस जीवित लड़की में तुलना है। लड़की का जीवन झंझावातों से भरा है और उसका मस्तिष्क न जाने कहाँ-कहाँ ले जाता है। वह अपना दिमाग कुछ अच्छी जगहों पर लगाना चाहती है, किंतु उसके जेहन में लूमिस कैटरपिलरी के घोंसले घूमते हैं। यह चिड़िया घोंसला बनाने में इतना समय लगा देती है कि उसके पास जीवन जीने के लिए समय ही नहीं बचता। संभवतः यह आज के जीवन का यथार्थ है, जिसमें घोंसले के निर्माण में पूरा जीवन ही निकल जाता है। प्रतीकों के माध्यम से यह कहानी गहरा संदेश छोड़ जाती है।

इन कहानियों से गुजरने पर लगता है कि वाकई कमला दत्त ने कम लिखा है किंतु बहुत गंभीर लिखा है। उच्च शिक्षा, भारत में जन्म एवं युवावस्था तक रहकर अमेरिका में बस जाना, पाश्चात्य एवं प्राच्य जीवनशैली के अंतर, पारंपरिक एवं आधुनिक मानसिकता को गहराई तक प्रभावित किया है। निस्संदेह, उनके पास स्त्री मानस की गहरी समझ है, अनुभूति एवं तदनुभूति है, जिसे वे अपनी कहानियों में पिराते हुए चलती हैं। ऐसी अनेक कहानियाँ हैं जिनके अंत में पाठक कह उठता है कि क्या यही आज का तथाकथित सुखमय आधुनिक जीवन है? यदि यह भौतिकता एवं स्वच्छंदता का सुख है तो फिर मनुष्य सुखी क्यों नहीं है? अब वह किस तत्त्व की तलाश में है?

जहाँ एक ओर कमला दत्त की कहानियों को आधुनिकताबोध की, यथार्थ की और अमूर्त की अच्छी कहानियाँ कहा जा सकता है, वहीं दूसरी ओर ये किंचित अभावग्रस्त भी लगती हैं। कुछ कहानियाँ अपनी लंबाई के कारण बोझिल हो गई हैं तो कुछ अपनी वैचारिक शृंखला के। कहीं-कहीं बौद्धिकता या बौद्धिक एकालाप इतना विस्तृत हो गया है कि पाठक ऊबने लगता है। उसे महसूस होता है कि कहीं कठिन चढ़ाई या घने बियाबान में फँस गया है और वह निकलने का रास्ता तलाशने लगता है। वैसे यह समस्या कमला दत्त के इसी संग्रह में नहीं है, यह नई कहानी आंदोलन की अधिकतर कहानियों में देखा जा सकता है। जहाँ बारीक अन्वेषण और प्रेक्षण कहानियों को धार देता है, अंदर उतरने की दृष्टि देता है, वहीं वह कथागति को मंद कर देता है। यदि इनमें जरा-सी कंजूसी की जाती तो ये कहानियाँ स्वयं को सहजता से पढ़वा ले जातीं।

संग्रह को बोधि प्रकाशन, जयपुर ने प्रकाशित किया है। इसमंे संदेह नहीं कि संग्रह भौतिक रूप से भी अच्छा उत्पाद कहा जा सकता है, किंतु वर्तनी एवं प्रूफ की त्रुटियाँ खटकती हैं। वे इतनी कम नहीं हैं कि उन्हें उपेक्षित किया जा सके। भाषा के स्तर पर लेखिका ने विभिन्न संवादों में अंगरेजी का खूब उपयोग किया है। ये माहौल के अनुसार ठीक भी हैं, किंतु यहाँ भी अनेक अंगरेजी शब्दों के साथ देवनागरी में सही न्याय नहीं हुआ है। एक स्तरीय संग्रह में भाषा के स्तर पर ऐसी गलतियाँ नहीं होनी चाहिए।

कमला दत्त की कहानियों का यह संग्रह हिंदी साहित्य के लिए महत्त्वपूर्ण है। एक तो यह उन लेखिकाओं का प्रतिनिधित्व करता है जो नई कहानी के दौर में अच्छा लिखने के बावजूद त्यागपत्र देकर दौड़ से बाहर हो गईं, दूसरे यह स्त्री विमर्श के वातायन भी खोलता है। इसके आधार पर यह भी कहा जा सकता है बहुत अधिक मात्रा में स्तरहीन लेखन से अच्छा है कि कम ही लिखा जाए, लेकिन स्तरीय लिखा जाए जो अपने साहित्य एवं समाज की थाती बन सके। -समीक्षक 

(31 मार्च, 2023)

पुस्तक: कमला दत्त की यादगारी कहानियाँ  (कहानी संग्रह)/लेखिका: कमला दत्त/प्रकाशक:  बोधि प्रकाशन, जयपुर - 302006 / पृष्ठ: 136 मूल्य: 150 रुपये मात्र। 

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समीक्षा

समी. डॉ श्यामबाबू शर्मा, शिलाँग, मो. 9863531572 

ले. डाॅ. कमला दत्त, Georgia, USA

प्रेम को थहाती मनोविश्लेषक कथा कृति

जब चाँद उगता है

शाम की घण्टियाँ ख़ामोशी में डूब जाती हैं

और अभेद्य रहस्यमय रास्ते दीखने लगते हैं।

(फेदेरिको गार्सिया लोर्का)

प्रेम की अभिव्यक्ति उतनी ही दुष्कर है, जितनी प्रेम को रचने वाले की, संसार सृजित करने वाले की। तभी तो नारद भक्ति-सूत्र, से लेकर आज तक सभी मीमांसा-विशारद प्रेम को अनिर्वचनीय मानते हैं। किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच पाये जाने वाले प्रेम के उत्तरोत्तर विकास भावना प्रेमास्पद के रूप गुण, स्वभाव, सान्निध्य के कारण उत्पन्न सुखद अनुभूति होती है जिसमें सदैव हित की भावना निहित रहती है। मनोविज्ञान के पंडित प्रेम को आदिम सहजवृत्ति मानते हैं। समाज-शास्त्री इसे सामाजिक सम्बंधों का एक आवेशात्मक अंग मात्र समझते हैं। मोबाइल, टेलीविजन, फेसबुक, व्हाट्सएप, यूट्यूब, ओटीटी के अत्याधुनिक काल में प्रेम है बड़ी दुष्कर चीज। और पेपरलेस डिजिटल लाइब्रेरी की अवधारणा जब जोरों पर हो तो पुस्तकें पढ़ना, उन पर संजीदगी से बात करना किसी और के पानी में फेंके गए पत्थर के बाद उठी लहरों को निहारने जैसा है। पल्लव ग्राही अध्ययन के समय में किसी कृति पर सम्यक संवाद प्रायः कठिन होता जा रहा है। अब आलोचना जैसा कुछ है या आलोचना का भ्रम है दोनों में एक भारी संदेह है। समीक्षा की जाय इसके लिए शायद जरूरी है कि कृति का गंभीरता पूर्वक अध्ययन हो। यद्यपि साहित्य की सभी विधाओं में सदियों से सृजन और प्रकाशन होता रहा है परंतु इस स्वतंत्र लेखन और प्रकाशन के बीच कभी-कभार ऐसा लेखन या ऐसी कोई कृति पाठकों के सम्मुख आती है जिसे पढ़कर लेखक आलोचक ही नहीं सामान्य पाठक भी कहने लगता है कि ऐसा तो वाकई में होता है यह प्रश्न तो मेरे भी थे यही तो मैं भी कहना चाह रहा था तब कृति समष्टि से एकाकार कर लेती है और स्वाभाविक रूप में रचनाकार के प्रति हृदय सम्मान और कृतज्ञता से भर जाता है। 

‘कमला दत्त की यादगार कहानियाँ’ कहानी संग्रह की लेखिका कहानीकार डॉ. कमला दत्त हैं। प्रस्तुत कहानी संग्रह में दस कहानियां हैं जो कि हमारे जीवन व समाज के विभिन्न पक्षों में प्रेम का मनोवैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करती हैं। कहानियों में मानवीय संवेदना, विसंगतियां और स्वार्थपरता के भाव हैं। कहानियां मनुष्य में मनुष्य ढूंढ़ती नजर आती हैं। खुद को सुनने व पड़ताल करने की कोशिश है। अधिकांश कहानियों में शहर के गली-मोहल्लों की पृष्ठभूमि है। कहानियों में मनुष्य की संवेदनशून्यता भी है। ये सभी कहानियां धर्मयुग, सारिका, हंस सहित देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। विवेच्य कहानी संग्रह में डॉ कमला दत्त भूमिका में स्पष्ट करती हैं, ‘ये कहानियाँ एक तरह से अपने आप लिखी गईं-अपने आप आईं जहन में और इनका लिखना-एक मायने में जीने की तरह जरूरी हो गया।’ यह जो जरूरी तत्व है प्रेम है जिसके बिना जीवन कहाँ! 

संग्रह की पहली कहानी ’शुतुरमुर्ग’ प्रेम को अनुभूत करने की कहानी है। जो पुरुष व स्त्री के संबंधों में प्रेम ग्रहण व अनैतिक सच झूठ, शुभ अशुभ, आज की जो परंपरागत धारणाएँ रही हैं। उन पर कहानी लिखी गई है। इस कहानी में प्रेम का द्वंद्व है। साथ ही इस कहानी में मनोविश्लेषण की प्रधानता है। यही सच कहानी में मानवीय संवेदनाओं के महत्व के साथ-साथ प्रेम में नारी मन के शाश्वत द्वंद्व पर प्रकाश डाला गया है। लेखिका की कहानी कला की विशेषता है कि कहानी में स्वयं कहानीकार की उपस्थिति होते हुए भी वह दिखाई नहीं देती। सभी पात्र अपना-अपना जीवन चला रहे हैं या भोग रहे हैं। यहाँ जीवन के बीच निस्पृहता और सम्पृक्ति के द्वंद्व चलते रहते हैं। पात्र असमंजस की दशा में हैं और कथाकारा लिखती है, ‘क्या है जो लोगों को बांधे रखता है, उदास चेहरों से उदास शहर से? उदास चेहरा मेरा भी शायद कोई है। बदलूँगी नहीं।’ (पृ 8) लेखिका डॉक्टर हैं और कहानियाँ पढ़ने के दौरान समझ आया कि मनोविश्लेषक भी है। इसी कहानी में आगे, ‘हम अपने बारे में इतनी हीन भावना रखते हैं कि अपने को किसी खुशी के काबिल नहीं पाते और खुशी के मौके पर भी दुख की बातें सोचते रहते हैं।’ यहाँ यह कहा जा सकता है कि कमला दत्त भीतरी अंधेरों की शिनाख्त की रचनाकार हैं, जिनके भीतर सामाजिक चेतना भी पर्याप्त है और कहानी कौशल भी। जिस प्रेम की टूटन और संबंधों की छीजन को उन्होंने छूने की कोशिश की, रिश्ते और समाज उससे एक निश्चित और उदासीन दूरी बनाकर चल रहे हैं। यहाँ एक महत्वपूर्ण सामाजिक चेतनात्मक संदर्भ देते हुए वे देह मुक्ति पर बात रख देती हैं। चाहे वह पुरुष हो या स्त्री।

प्रायः कहा जाता है कि साहित्य ने मानवीय जीवन में संवेदनाओं को फलने-फूलने और अभिव्यक्त होने का रास्ता दिया है। साहित्य मानवीय संवेदना को अभिव्यक्त ही नहीं करता हमें संवेदनशील भी बनाता है। संग्रह की कई कहानियों में मानवीय मन का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है। ‘प्रेतात्माएं’ कहानी में विभिन्न मानवीय संवेदना के ग्राफों से मुक्त होकर व्यापक मनुष्यता के सरोकार हैं। लेखिका  लिखती हैं, ‘कुछ अनकहा सा हवा में छितरा गया था, शहर जिंदा रहेगा। तुम जैसे लोगों को खत्म कर देगा पर जिंदा रहेगा, इस धीमी रफ्तार से जियेगा। दमे-तपेदिक के मरीज की तरह। इस शहर का सम्मोहन इसे बचा लेगा, मरने नहीं देगा।’ (पृ 20) जिस बारीकी से वे अपनी कहानियों के आख्यान बुनती हैं और पात्रों के मानसिक अंतद्र्वंद्वों को उकेरती हैं वह उन्हें कहानी-लेखन की अलग पंक्ति में खड़ा करता है। उनकी अधिकांश कहानियों की थीम उन भारतीयों से संबद्ध थी जो विदेश में जाकर बस गए लेकिन मन से वे हिंदुस्तान से दूर नहीं हो सके और वहाँ भी अपने साथ एक हिंदुस्तान ले गए। कहानियाँ अपने पूर्ण उत्कर्ष को तब पहुँचती हैं जब भारतीय एवं विदेशी जीवन-शैली के अंतर एक ऐसी स्थिति पैदा करते हैं जिनकी टकराहट में मानवीय संवेदना को बिल्कुल अछूते ढंग से छुआ जा सकता है। ये कहानियाँ बार-बार इसी सत्य का एहसास कराती हैं।

अगली कहानी ‘तुम निहाल दई‘ एक बुजुर्ग महिला के जीवन पर आधारित है, जिसमें परिवार में बजुर्गों का महत्व बहुत ही संवेदनशील ढंग से परोसा गया है। परिवार में बुजुर्गों की घटती हैसियत और भारतीय परिवार परंपरा में मूल्यों के ह्रास पर इसे देखा जाना चाहिए। यह कहानी क्थात्मक शैली में लिखी गई है। कथात्मक शैली में लिखी गई कहानियाँ अन्य शैलियों में लिखी गई कहानियों के अपेक्षाकृत अधिक मर्मस्पर्शी होती हैं। कथात्मक शैली में व्यक्ति और परिवेश के साथ-साथ आत्मीयता का बोध 

अधिक होता है। लेखक को सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभवों को साझा करने में सहजता होती है। इस तरह की शैली के माध्यम से व्यक्ति के आंतरिक द्वन्द्वों को अधिक प्रामाणिक ढंग से अभिव्यक्त किया जाता है। इस शैली को संस्मरणात्मक शैली के एक हिस्से के रूप में देखा जाता रहा है। इसके अंतर्गत कहानीकार एक सूत्रधार के रूप में कथावाचक की भाँति पूर्णतः तटस्थ होकर कहानी की सृष्टि करता है। इसके अंतर्गत आवश्यकतानुसार जगह-जगह पर वर्णन, विवेचन एवं विश्लेषण आदि पद्धतियों का सहारा लिया गया है। उदाहरण के रूप में कहानी की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-‘क्या अपने लिए कोरे लट्ठे का सूट सीते वक्त तुम उदास हुई थीं? रोयी थीं?- कि आँसू तुम्हारी सफेद पुतलियों में बस अटके रह गए थे? आखिरी वक्त भी किसी पर बोझा नहीं- सिर्फ एक मलमल का दुपट्टा नहीं है। तुम्हारा बेटा बार-बार कहता है, दुपट्टा खरीद लाओ, दुपट्टा खरीद लाओ। तुम पूरी तरह तैयार थीं मौत के लिए।’ (पृ 35) 

मानसिक संवेगों, आन्तरिक अनुभूतियों, आदि चरित्रगत अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों को लेकर जब कुछ लिखा जाता है तो ‘धीरा पंडित, केकड़े और मकड़ियाँ’ जैसी कहानी पाठकों के सामने आती है। मनुष्य के विक्षुब्ध होने अथवा उदात्त बने रहने के पीछे कुछ अनुवांशिक प्रभाव होते हैं और कुछ स्वभावजन्य विशेषताएँ होती हैं। कहते हैं कि स्त्री भावुक होती है। उसकी भाषा पुरुष भाषा से अलग होती है जिसे उसकी उच्चरित भाषा-ध्वनियों के कंपन में पहचाना जा सकता है। निःसंदेह जैविक दृष्टि से स्त्री कोमल होती है परंतु अनुभूति और भावुकता दोनों में अंतर होता है। पुरुष हो या स्त्री अनुभूति और भावुकता दोनों के लिए जरूरी है। इस दृष्टि से यह कहानी एकांत के मनोविश्लेषण में आत्मविस्तार की भूमिका तय करती हैं। कमला दत्त की प्रश्नाकुल मनःस्थितियों को इसमें देखा जा सकता है। असमंजस और विचित्र रहस्यों को बुनती कहानी में स्त्री-मनोविज्ञान के भीतरी स्पन्दनों को पहचाना जा सकता है। देखिए- ‘जानते हैं, मुझे क्या याद आ रहा है। वह टेलीविजन कार्यक्रम जिसमें दिखाया था कि केकड़े की एक किस्म होती है, जिसमें नर हमेशा घूमता रहता है, ऐसी मादाओं की तलाश में, जिनकी केंचुल उतरी रहती है। वह पहले उन्हें आश्रय देता है। अन्य जानवरों से बचाता है और जब कमजोर मादा उस पर आश्रित हो, सुरक्षित महसूस करने लगती है तो अचानक वार कर उस पर जबरदस्ती कर लेता है और आहत घायल मादा को छोड़ अन्य केंचुल उतारी मादाओं की तलाश में निकल पड़ता है। डॉ जर्सिकी हँसे थे। एक और टीवी प्रोग्राम वह भी था जहाँ मकड़ी की एक किस्म उस जबरदस्ती के बाद नर को जिंदा निगल जाती है। आप चाहते हैं मैं वही मकड़ी बन जाऊँ? नहीं-नहीं केकड़े और मकड़ी के बीच और भी रास्ते हैं।’ (पृ 55) यहाँ प्रतीकात्मकता है और लेखिका की रचनात्मक क्षमताओं का परिचय मिलता है। 

दुनिया की सभी स्त्रियों के जीवन, संघर्ष और स्वप्न हैं, उसी तरह आज की कहानियों में स्त्री के जीवन, संघर्ष और स्वप्न का चित्रण भी देखा जा सकता है। मछली’ कहानी में लेखिका का मनोविश्लेषण अति सूक्ष्म रूप लेता दिखाई देता है। गंध, पुरुष गंध और स्त्री गंध पर इतना बारीक अध्य्यन! कमला दत्त लिखती हैं, ‘औरत सोचती है नई गंधों को जीने के बाद जब यह लोग अपनी बीवियों के पास जाते होंगे तो क्या उन गंधों से मुक्त हो पाते होंगे। औरत अपने को ऐसे रिश्तों से हमेशा बचाए रखती है।’(पृ 65) जिस तरह मछली के दाँतों की कतारे गिन कर उसकी किस्म का अंदाज मिल जाता है, उस तरह का कोई पैमाना इंसानों के लिए क्यों नहीं? लेखिका ‘वीनस फ्लाई ट्रेप’ कहानी में स्त्री के लिए चील का प्रतीक रख उसके चेतन, अचेतन और अवचेतन का मार्मिक आख्यान हमारे सामने रखती है। ये एक ऐसे समाज की पक्षधर हैं जो शोषणहीन वर्ग से रहित हो। जहाँ कोई भी किसी पर अत्याचार नहीं करेगा, ट्रेप नहीं करेगा तथा स्त्री और पुरुष दोनों ही निर्बाध स्वतंत्रता की ओर बढ़ते चले जायेंगे। 

स्त्री का जीवन, संघर्ष और स्वप्न ‘गंगामूरती’ कहानी में मुखर रूप में व्यक्त हो रहे हैं। लोग कहते रहें कि अब स्त्रियां आजाद हैं, अब उन्हें किसी की जरूरत नहीं है, पर बातें बेमानी-सी लगती हैं, जब हम पाते हैं कि स्त्री को आज भी भोग की वस्तु समझा जाता है। जब हम स्त्रियों के जीवन के अनछुए पहलुओं की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि किस तरह वे हर मोड़ पर अपने लिए संघर्ष कर रही होती हैं। साधारण प्रेम स्वार्थी होता है, जिसका मूल 

अज्ञानतापूर्ण इच्छाओं और सन्तुष्टियों में होता है। दिव्य प्रेम में कोई शर्त, कोई सीमा, कोई परिवर्तन नहीं होता। मानव हृदय की चंचलता, पवित्र प्रेम के स्तम्भित करने वाले स्पर्श से सदा के लिए समाप्त हो जाती है। ‘अम्रेम कथा पारो-देवदास’ को पढ़ते ऐसा वायवीय प्रेम पाठक के सामने जीवंत हो उठता है। लेखिका द्वारा प्रेम के उल्लेखनीय और अद्वितीय रूप का रेखांकन है यह कहानी। उन्होंने इसे सांसारिक रूपों और संबंधों से ऊपर रूहानी बनाया है बल्कि इसे निराकार सर्वोच्च पर केंद्रित किया, जो एक गैर-भौतिक, शाश्वत इकाई है। ऐसे में प्रेम उच्चतम और शुद्धतम रूप पा लेता है जिसमें न तो उल्लास के शब्द होते हैं और न ही अलगाव की पीड़ा, बल्कि इसके विपरीत, एक ही समय में शांत, मधुर, निर्मल और दिव्य समर्थन, प्रेरणा और अनुमोदन का एक सदा मौजूद स्रोत रहता है। कथाकारा 

मनोविश्लेषणात्मक शैली में लिखती हैं, ‘उस जमाने में चेहरे पढ़ना या समझना नहीं आता था।’ और ‘लड़का देवदास नहीं बनता, टूटता नहीं। लड़की टूटी पर पारो बन किसी बूढ़े से शादी उसने भी नहीं की।’(पृ 92 व 104) ‘प्रमथ्यू’ और ‘लुमिस कैटरपिलरी’ दोनों में प्रतीकात्मक मायथोलोजी, सूक्तिपरक संवाद पाठकों को पौराणिकता पर आलंबित सहज इंसानी रिश्ते की कथाओं से रु ब रु कराते हैं। 

कमला दत्त की कहानियों के इस संकलन की प्रत्येक कहानी में जो मनोविज्ञान है उनको पढ़ना अनुसंधान की प्रक्रिया से गुजरना है। कथाकारा इन कहानियों में मन के भीतरी तहों में संजोए सच को कहानियों में अभिव्यक्त कर देती है। कहानियों के केंद्र में परिस्थितियाँ या जीवन-स्थितियाँ छोटी-छोटी हैं यानी हमारी रोजमर्रा के जीवन में आने वाली असंख्य स्थितियाँ जो अक्सर हमारी नजर से छूट जाती हैं या जिनको कभी हमने इतना महत्व नहीं दिया कि वह साहित्य के माध्यम से मानवीय सभ्यता के संकट को निर्देशित कर सकें। डॉ कमला दत्त अपनी सूक्ष्म दृष्टि से इन्हीं जीवन स्थितियों को अपने साहित्य में पुनर्जीवित करती हैं और बड़े धैर्य के साथ छोटे-छोटे ब्योरे, छोटे-छोटे प्रसंग जीवन व्यापी प्रश्नों को हमारे समक्ष उपस्थित कर देती हैं। संकलन के नारी पात्र भावुक, स्नेहमयी, संयमी, श्रद्धा-त्याग की मूर्ति, उदार हैं। काव्यत्व, देशज शब्द, माइथोलोजी, संवाद और पात्रानुरूप अंग्रेजी-मेडिकल विज्ञान के शब्द, जानवरों के नाम आदि को प्रतीक बनाकर रची गई ये नायाब कहानियाँ निश्चित ही पाठकों को बांधे रखती हैं।

पुस्तकः कमला दत्त की यादगारी कहानियाँ / लेखिकाः डॉ. कमला दत्त / प्रकाशकः बोधि प्रकाशन जयपुर / मूल्य 150 रुपए/ 

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समीक्षा

डाॅ. कैलाश आहलूवालिया, चंडीगढ़, मो. 9888072599

ले. डाॅ. कमला दत्त, Georgia, USA


‘अच्छी औरतें’ और अन्य कहानियाँ-
एक पाठकीय अनुभव

दो कथा - संग्रहों -‘मछली सलीब पर टंगी (1981) और ‘यादगार कहानियाँ (2014) के बाद, कमला दत्त का तीसरा प्रकाशित संग्रह है- ‘अच्छी औरतें’ और अन्य कहानियाँ (2018)। ये कहानियाँ निस्संदेह असाधारण हैं। इनमें आख्यान जैसा कुछ नहीं है। ये कहानियाँ सोच और दर्शन से उपजी है। ये जीवन की अनेक तहों को परत दर परत उघाड़ती हैं पाठक को उद्वेलित करती हैं, आश्चर्य चकित करती हैं। उलझन में भी डालती हैं और धीरे-धीरे मनोविज्ञानिक सत्य की ओर ले जाती हैं। ये स्त्री की उस मानसिक ऊहापोह को अभिव्यक्त करती हैं जो अन्य अनेक कहानियों में अव्यक्त रह जाती है। यह इस लिए संभव हुआ है कि इन कहानियों की लेखिका में हिम्मत और साहस है वह सब कुछ कहने की, जो प्रायः स्त्री द्वारा अनकहा रह जाता है ।

ये कहानियाँ असाधारण इस लिये भी हैं कि कमोवेश ये चेतना-प्रवाह शैली में लिखी गई हैं। लेखिका के मन- मस्तक में ये इस तीव्रता से दौड़ती हैं कि उनके साथ अगल बगल का पर्यावरण समय तथा अवकाश स्वतः दौड़ने लगता है। एक घटना का जुड़ाव वैसी ही किसी दूसरी घटना से, आज का कल से, और कल का उस से पिछले कल से, किसी एक व्यक्ति का दूसरे किसी व्यक्ति से सहज में होने लगता है। और नदी की भांति सब कुछ एक क्रम के साथ प्रवाहित होने लगता है।

इस प्रवाह को नैरेशन में ढालने के लिये कमला के मस्तक में कई भाषाओं के शब्द एक दूसरे से होड़ करने लगते हैं। ये शब्द अंगरेजी ज़ापानी जैसी अनेक भाषाओं से आते हैं। इन से निस्संदेह कहानियों का आयाम बढ़ता है।

कहानियों के स्वर की बात करें तो ये कहानियां एक लम्बे स्वकथन सी लगती हैं। पर इस चेतना प्रवाह में कितने ही पात्र कितनी ही उनकी कहानियां उभरने लगती हैं। पर मुख्य स्वर एक ऐसी नारी का रहता है जो समय≤ पर इन के साथ आईडेंटिफाई करती है और इन्हें अधिक खुलने के लिये विवश करती है।

कमला अपनी इन कहानियों में इतिहास, साहित्य, विज्ञान और मिथकों का इस तरह प्रयोग करती है कि वह एक प्रभावी नैरिटिब बन जाता है। इस सब में उसके अपने जीवन के अनुभव भी सम्मिलित है। ये अनुभव अद्भुत है, अपूर्व है। वह मूलतः विज्ञान की विद्यार्थी है इस लिए उसके ज्ञान का क्षेत्र व्यापक है। यह अनुभव और ज्ञान अनेक देशों के भ्रमण से अर्जित किया है । उसे जिया है और आत्मसात किया है। उसकी संवेदना भी अद्भुत है। उम्र के साथ उसकी कहिन शैली थी सार्वभौमिक हो गई है । उसने अपने इर्द-गिर्द इतना कुछ बनते बिगड़ते देखा है। आसपास विखण्डन और अस्तव्यस्तता ने उसके रचनाकार को उद्वेलित तथा उत्प्रेरित किया है। वह स्वयं अपने जीवन को उबड़-खाबड़ मानती हैं पर इस सब का सामना करती हुई वह एक समानांतर टेक्सट रचती है।

ये लगभग सभी कहानिया‘ कमला ने अमेरिका में लिखी हैं इस लिये अतिशयोक्ति न होगी कि ये उसके जीवन के संघर्ष की कहानिया भी हैं। ये एक शिक्षित, मननशील, और बौद्धिक वर्ग का भी प्रतिनिधत्व भी करती हैं। बाॅस्टन, कनेब टिकट, हावर्ड अटलांटा आदि नगर उसके कर्मक्षेत्र रहे हैं। पर मूलतः उसके संस्कार भारतीय हैं क्योंकि उसने अपना फार्मेटिव समय यहाँ बिताया है।

अच्छी औरतें और अन्य कहानियां संग्रह में दस कहानियां हैं। जां पां मोह-विमोह व भ्रमात्मक प्रेम की कहानी है यह। इस कहानी की अनेक परतें हैं- मिलन, दुराव। जां पां- फ्रैंच वैज्ञानिक हैं और नायिका का सहकर्मी है। साहित्य में भी रुचि रखता है। वह नायिका को मिलान कुंदरा के उपन्यास पढ़ने की सलाह देता है। संबंध घनिष्ठ होने लगते हैं तो नायिका को पता चलता है कि वह पहले से ही विवाहित है। उसे गहरा आघात पहुंचता है। वह ऐसे पुरुष के संसर्ग से अपने को बचाए रखना चाहती थी। कई बरसों के बाद अपने अनुसंधान से संबंधित कुछ जानकारी उस से लेने के लिये जब वह उसे कंटैक्ट करने का पर्यत्न करती है तो पता चलता है कि उसका देहांत हो गया है। उसे दुख होता है। वह पुरानी बातों और घटनाओं को याद करती है। उसे वह एक बात भी याद आती है जब एक अंतरंग क्षण में वह उससे कहती है- मैं केवल तुम्हारा साथ चाहती हूं, डी.एन.ए नहीं। चट्टानों पर बैठ कर बीरबहुटी के नर मादा होने पर विचार करता है। मोरनियों के हवाले से वह स्त्री-पुरुष नर और मादा होने पर विचार करती है। टिप्पणी करती है-मोरनियां कितनी उदासीन होती हैं। मोर को उस मोरनी की तलाश रहती है जो उसके वंश को ज्यादा से ज्यादा बढ़ा सके। अतीत की कई मीटिंगों के दौरान अपने और जां पां के संबंधों की चर्चा करती है। और अपनी इस विचार यात्रा के अंत में वह पुरुषा पर टिप्पणी करती हैं - आदमी चालाक है। घोसला बना, सजा, सामने लाल फूल को रख, मादा को ललचाता है। पर मादा भी कम नहीं है। वह भी चालाक है। इसी मध्य उसे अपने पति से हुए तलाक की बात याद आती है। इस तरह कहानी अनिश्चितता के बिंदु पर समाप्त होती है। डीएनए को बढ़ाने वाली बात को प्रस्तुत करती हैं- नासूर के साथ जोड़ कर लेखिका एक अद्भुत औवजेक्टिव कोरैलिटिवप्रस्तुत करती है।

विदेश में मरने के डर और विवाद व विडंबना को एक साथ व्यक्त करती कहानी है- ज्याति। ज्योति विदेश में लावारिस मरा। उसकी चीज़ें जो उसने जीवन भर बड़ी साध से एकत्रित की थीं, उसके देहांत के बाद एकदम फिजूल फालतु हो कर तितर बितर हो गईं। उसकी एलवमें गुडी ने इसलिए संभाल कर रख ली थी कि कोई इन्हें लेने नहीं पहुँचेगा। वह उन्हें गराज में रखवा देगी। यह उद्धरण देखिए- हमारी चीजे़ बच्चों को आऊटडेटिड लगेंगी। बढ़िया ड्रिंक्स क्रिस्टल चाइन जूलरी, कपड़े। यही बात औरतों के लिये भी- जो बड़े सूटकेस उठा यहां आती हैं। सामान इकट्ठा करती हैं -एक्वेरियम, पुराने पत्र, किताबें, गिफ्ट्स, कार्ड, रसीदें इत्यादि और सदैव अपनी जड़ों के मोह में लिप्त रही उम्र भर। इस तरह यह कहानी प्रवासी जीवन के अनछुये पल पर एक एक सशक्त टिप्पणी है।

व्यंग और विडंबना का सटीक उदाहरण है कहानी - अच्छी वा सामाजिक कार्यकर्ता के दृष्टिकोण से वेश्याओं और उनके एड्ज़ में ग्रसित होने तक के हालात का जायज़ा लेती कहानी है यह  अपने धंधे को एक लाभकर व्यवसाय सा चलाने वाली एक स्त्री जिसका बात करने का ढंग एकदम विलक्षण, संस्कारहीन खुला खुला। समाज को ठींगा दिखाती हुई अपना कारोबार चलाती है। और विडंबना देखिये कि वह डॉक्टर जिसने सरकार को चैलेंज किया था स्वयं एड्ज़ का शिकार हो गया। वह डाॅक्टर स्वयं बड़ा साधु और इंटरनेशनल गुरु ‘गे’ है। और एडज़ से मर रहा है। स्वीडन में राजनैतिक शरण ले कर अब भी एडेज़ पर काम कर रहा है चुपचाप। और व्यंग, देखिये ‘चुप रहता तो हिंदोस्तान में हैल्थ मिनिस्टर हो सकता था। 

डाॅक्टर उस औरत की उपस्थिति में जिस तरह की बातें करता है उसे देखकर नायिका हैरान है। वह सोचती है - बाहर आदमी कुछ भी हो पर अपने परिवार के संकुचित वातावरण में वह इस क़दर छोटा हो जाता है। वह प्रश्न पूछती है - क्या कभी भारत में ऐसा कोई बिल पास किया जा सकता है जिस से अवैध-धंधे और धंधेबाजों के खिलाफ सख्त कारवाई हो सके। पर विडंबना यह है कि सज़ा पाने वाले, हिंदुस्तान के वे ग्राहक होंगे जो साल में एक बार घर लौटने वाले मजदूर हैं। थोड़े से पैसे जमा कर साफ सुथरे पजामे पहन छोटे छोटे तम्बुओ में घुसते हुये। ऐसे तम्बुओं में जिन में अवैध व्यापार चलता है।

इस दूष्टि से यह सामाजिक कहानी ‘तीन अधजली मोमबतियाँ’ किसी ऐसे बिल से कम नहीं है। निस्संदेह यह एक प्रतीत्मक कहानी है। सेंटर फार न्यू बिगिनिंग के हॉल में कुछ लोग इकट्ठा हो कर मैडिटेशन, ब्रेकफास्ट, योग और अनेक दूसरे व्यायामों में व्यस्त। इन में से कुछेक अकेले यहां आये हैं। कुछ अपने दोस्तों सहेलियों के संग आये हैं। एक-दूसरे के कंधे को सहलाने का अभ्यास करने के लिये। कंधे, गर्दन - जहाँ सारी टेंशन जमा रहती हैं। इस क्रिया के पीछे निशब्द प्रक्रिया को कमला एक अपूर्व ढंग से बयां करती हैं- हम जब दूसरों द्वारा बहुत दबाये जाते हैं तो ज्यादा से ज्यादा झुकते जाते हैं। अपने को सभी से छुपाते, अपने से शर्मिंदा। अपने होने की माफी मागते हुये। क्या हक़ है हमें होने का, जीने का। कुछ भी पाने का।

अजनबियों द्वारा इस तरह सहलाये जाने में कहीं कोई कामुकता नहीं है। यहां एक टिप्पणी देखिये- इस से हम अपने एकान्तों से बाहर आयेंगे और फिर उन्हीं में लौट जायेंगे। एकान्त एक ही रहता है। बांटने से न कम होता है न बढ़ता है। शून्य में शून्य की मिलावट। शून्य से शून्य की तक़सीम। क्या जमा हासिल नायिका को याद आता है पहली बार उसका नेब्रास्का में जाना। वह अपने हैमर्शिया को भुला कर फिर से शक्तिमान होने की चेष्टा करती है। मन में कई तरह की टकराहटें। काले और गोरे में भेद। हिंदुस्तान होने या न होने में फर्क और कालों द्वारा सब से बढ़ा प्रतिकार-गोरी औरतों के साथ सोना। अल्टीमेट रिवेंज। वह कहती है हम सभी इन जगहों पर आते हैं। अपने घरों से भागते हुये। हम चाहते हैं हम इन दिनों की इक्ट्ठी मिठास हम वापस ले जायें। हम अपनी दूसरी जिंदगी में घोल सकें। अजनबियों को छू वहाँ से बटोरा सुख अपने घर वालों, मित्रों, वौसिस, सबौरिडिनेट्स में बांट सकें।

यह तीन दिनों की दोस्ती पर मोहर लगाती तीन अधजली मोमबतियाँ‘।

‘छँटनी‘‘- कहानी यूं तो बुनावट में सीधी और सुगम कहानी पर कितने ही बिंदुओं पर चैकाती है - तुम हर शहर छोड़ते वक्त बहा का कूड़ाकर्कट, अपनी पुरानी कापियां, तकिये, पतीले और कुछ छोटा मोटा सामान वहीं छोड़ आती हो और कुछ दोस्त भी पर तुम्हारा हिसाब कुछ कमजोर है। पुराने बैंक स्टेटमेंट्स, दोस्तों के पुराने ग्रीटिंगकार्ड, दोस्तों के पते, टेलिफोन नम्बर्स जो कब के बदल चुके हैं, साथ लिये फिरती हो। ये सब कुछ पाठक को कहानी के भीतरी संसार तक ले जाता है। यहाँ जादुई यथार्थ का आभास होता है।

‘‘रोमियो जूलियट होमर एमोर्स और शकुंतलाएं‘‘ कहानी उतनी ही कठिन है जितना इसका शीर्षक। यह कहानी जीवन-सत्यों का यत्न से संयोये खूबसूरत गुलदस्ता है। साथ ही इन्हें परखने और सत्यापित करने का कूसिबल भी। लेखकों के एक रिट्रीट में नायिका का मन कहां कहां दौड़ने लगता है। मन ही नहीं, समूचा वजूद खदबदाने लगता है। नायिका लिलियन ई स्मिथ सोचती है- तुम किसी भी पगडंडी पर चल रही हो, वह तुम्हें शिमला, कसौली, डगशई की पगडंडियों तक पहुँचा देता है। इस तरह से अपनी जड़ों की तरफ लौटने का उसकी अचेतन आकांक्षा का आभास होता है। 

कमला इन कहानियों में स्पष्ट्या अस्तित्वादिता की पक्षधर दिखाई देती है। इस लिए उसको नायिकाएं दुख झेलती हैं और उस दुख को बड़ी दार्शनिकता के साथ जीती है। पर ऐसे जीवन के विखण्डन में जो धुआं निकलता है वह दूर-दूर तक दिखाई देता है। 

इसी कहानी में गे का जिक्र आता है। गे लोगों ने हमें मानव के नये मानदण्ड सिखाये हैं। ये लोग कैसे एक दूसरे की देखभाल करते है। घरों से निकाले गये ये लोग। ‘‘ इसी संदर्भ में एक अन्य उद्धरण देखिये ‘गे‘ जीवन का एक समझौते वाला सत्य है । भले ही कुछ समय पहले ऐसी 

धारणा को मान्यता नहीं दी जाती थी, पर आज लगभग सब बड़े देश इस का समर्थन करते हैं।

इस संग्रह की अंतिम कहानी है - सैंडाई जाने वाले रास्ते पर तुम नहीं थे साथ....‘‘ इस कहानी में कई दृश्य उभरते हैं। जापान का ये पहाड़ी शहर सैंडाई। इसका बहुत इस्क्लूसिव बुटिक होटल पेंटिंग की तरह बिखरे पड़े फूल। खिड़कियों से पहाड़िया नज़र आती हैं। कमरों के नफीस परदे। बाथरूम में इतनी तरह के साबुन और शैम्पू कि आप समझ न पायें। शिमला डगशई और कुल्लु की याद दिल में दिलाता है यह शहर। सत्यम शिवम सुंदरम का आभास होने लगता है। यहां रहना अपने आप में एक बाबी साबी मोमेंट है। कुदरत के वे लम्हें, वे बाकये, वे चीज़ें जो परफेक्ट न होते हुये भी परफेक्ट रहते हैं। जैसे पतझर में गिरा पत्ता। पहले लाल पीला । फिर बदरंग होता हुआ छोटेमोटे सुराखों के बावजूद अपने में पूर्ण रहता है। ऐसे कितने ही आभास घटनायें, और दृश्य । नायिका यहां तक पहुँचते पहुंचते बहुत कुछ सीख गई है। वह शादीशुदा, और दिल फंेक अलबेले आदमियों की सब बातों को समझने लगी है। वह जानती है शादीशुदा लोग बिना बीवियों के मीटिंगों में आये, कुछ छोटा मोटा जाल बिछायेंगे। वह अब समझदारी से काम लेती है। जैसे कि साथ बैठना, साथ डिस्कस करना पर थोड़ी दूरी बनाये रखना। इक्का दुक्का लोग कभी कभार पीछे पड़ जाते है जैसे जां पां पड़ा था। कोई सावधान करता है- ‘कनिका इज़ वल्नेरेबल। डू नाट मैस विद हर।’ 

जब जा पां का जिक्र आता है तो विश्वास होने लगता है इन सारी कहानियों में ऐसे ही एक पुरुष से साक्षात्कार अवश्यंभावी है। जगह जगह पर जां पां हैं। और जगह जगह पर अत्याधिक संवेदनशील एक स्त्री है जिस की समस्त प्रतिक्रियाएँ सारे निश्चय जा पा जैसे पुरुषों के सामने रेत के घरौंदों से हरहराने लगते है।

यहा से पीछे की तरफ देखें तो कमला की कहानियों के किरदार अनेक संदर्भों में उसी जैसे लगते हैं। अनेक स्थानों पर वह स्वयं उपस्थित सी लगती है । उसने अपनी लगभग आध शताब्दी के वजन की कथा को गहन संवेदना के साथ बयां करती है।

ये कहानिया निस्संदेह पारम्परिक आकार प्रकार से हट कर अलग संसार रचती हैं। विचारों की बाढ़ सी आ गई लगती है। उन्हीं की तरह भाषा भी तरल और स्वच्छंद हो जाती है इस प्रक्रिया में संवेदनशीलता तिक्तभाव में 

परिणत हो जाती है। कला से अधिक मुखर और आवश्यक हो जाती है। कमला जैसे नायिका के हाथ से जबरदस्ती माईक छीन कर स्वयं आर्गयु करने लगती हैं। एक सोशल एक्टिविस्ट की भांति अधिक तर्कशील हो जाती है। और पाठक को भा जाती थीं। वह एसोटैरिक हो जाती है। इसके  छात्राएं उसके स्पर्श की अपेक्षा करते हैं- डाॅ. दत्त, आई नीड हग। आई रीयली नीड इट। आई एम रेडी टु अच एण्ड वी टचड। पाठक भी अधेरी गलियों में भटकता हुआ लेखिका के टच की अपेक्षा करता है ताकि यह राही रीास्ता पर आ जाए। ,

इन कहानियों के संदर्भ में एक बात और परिलक्षित होती है कि इन कहानियों की ‘तुम’, ‘तुम’ भी है ‘मैं’ भी है, ‘वह’ भी है और ‘हम’ सब है ।

इन कहानियों के विज्ञान और यथार्थ जीवन के सत्यों को एक साथ उपस्थिति को अलग अलग नहीं देखा जा सकता है। दोनों एक दूसरे में गुम्फित है । इन कहानियों का आक्रोश, विरोध, और लम्बी लम्बी व्याख्यायें इन कहानियों का रोमांस है। और एक धरातल पर पहुंच कर लगभग हर कहानी मनोविज्ञानिक आख्यान हो जाती है।

ये कहानियाँ हिंदी साहित्य जगत में ध्वन्यात्मक प्रवेश करती है।

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समीक्षा


मीक्षक डाॅ. रेनू यादव, 

असिस्टेंट प्रोफेसर, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, 

गौतम बुद्ध नगर, ग्रेटर नोएडा, 

ई-मेल- renuyadav0584@gmail.com

ले. डाॅ. कमला दत्त, Georgia, USA


कमला दत्त की कहानियों का समीक्षात्मक अध्ययन

कमला दत्त साहित्य में जाना- पहचाना किंतु कुछ कम नजर आने वाला नाम है, किंतु जितना भी नजर में है उससे उनको दरकिनार नहीं किया जा सकता। ‘मछली सलीब पर टंगी’, ‘कमला दत्त की यादगार कहानियाँ’, ‘अच्छी औरतें’ इनके कहानी संग्रह हैं। इन्होंने नाटक में अपनी गहरी रूचि के कारण टैगोर द्वारा रचित ‘मुक्त धारा’ और ‘नाटेर पूजा’, प्रेमचंद की ‘गोदान’, कमलेश्वर की ‘अधूरी आवाज’ के नाट्य रूपांतरण में मुख्य भूमिका निभायी हैं। मोहन राकेश के ‘आषाढ़ का एक दिन’ में बादल सरकार के ‘पगला घोड़ा’ में स्त्री भूमिका से काफी सराही जाने लगीं। 

लेखिका ने अपनी पुस्तक की भूमिका एवं समर्पण में बार-बार याद दिलाया है कि उन्हें लिखने के लिए डॉ. सुनीता जैन, डॉ. नरेन्द्र मोहन और निरूपमा दत्त ने प्रेरित किया है। सचमुच, इनकी कहानियाँ पढ़ते समय सुनीता जैन का प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है। किंतु सुनीता जैन की कहानियाँ मनौवैज्ञानिक कहानियाँ हैं और कमला दत्त की कहानियों को पूरी तरह से मनोवैज्ञानिक कहानियाँ नहीं कह सकते, लेकिन मनोविज्ञान का बहुत बड़ा भू-भाग अपने अंदर समेटती नजर आती हैं। जो कि ‘मछली’ कहानी में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। कहानी की नायिका खुद को राजकुमारी के समान समझती है उसे सच भी करना चाहती है, लेकिन यह भी सच है कि राजकुमारी हर लड़की नहीं हो सकती। “लड़की वैसे सपनों में अब भी जब-तब राजकुमार तलाशती रहती है। पर राजकुमार से दिखने वाले भेदियों से बचने के लिए सही राजकुमार की तलाश में लड़की ने अपने घर को किले में तब्दील कर लिया है जिसे आम आदमी लाँघ नहीं पाते और राजकुमार नकारते हैं”। (दत्त, कमला. कमला दत्त की यादगार कहानियाँ. पृ. 63)।

ऐसे में जब राजकुमार (जो कभी राजकुमार नहीं होता) लड़की के करीब आता है तब लड़की उसे अपने सपनों का राजकुमार समझ अपना सर्वस्व समर्पण कर देती है। पर लड़की यह भूल जाती है कि राजकुमार भी परियों को धोखा देते हैं। लड़की भी अपने राजकुमार से धोखा खाती है। उसके साथ प्यारे एन्टीक बेड पर बहत्तर घंटे साथ बिताने वाला राजकुमार रेशमी चादर को मरोड़ उसमें हमेशा के लिए सिलवटें डाल कर चला गया और राजकुमारी जो कभी परी होने के एहसास भरी हुई थी अब राजकुमार के गंध को महसूसने और रोने के लिए विवश है। इसलिए वह दर-दर भटकती छोटी-छोटी बात पर रोती-बिलखती और गंधाती रहती है। ये कहानी सुधा ओम ढ़ींगरा की कहानी ‘उसकी खुशबू’ और सचिन कुंडालकर की लघु फिल्म को विस्तृत रूप देने वाले अनुराग कश्यप की फिल्म ‘अइया’ की याद दिलाती है। ‘उसकी खुशबू’ की नायिका अपने प्रेमी से प्राप्त धोखे का बदला लेने के लिए उस जैसे परफ्यूम लगाने वाले लड़कों की हत्या करना शुरू कर देती है तो ‘अइया’ की नायिका रानी मुकर्जी अपने प्रेमी के पीछे बेसुध होकर चल देती है। लेकिन ‘मछली’ की नायिका शार्क मछली के अधनुचे हिस्से को देखकर रोने-धोने के बाद यह समझ लेती है कि हर अधनुचे के पीछे कोई न कोई उससे अधिक ताकतवर है और वह व्यथित होने के बजाय अपनी ताकत को बटोर आगे बढ़ने का फैसला लेती है।   

‘अच्छी औरतें’ कहानी में लेखिका समाज के अच्छे शब्द पर कटाक्ष करती दिखायी देती हैं। देखा जाय तो अच्छा होना अपने आप में सबसे विवादस्पद शब्द है। समाज का वह हिस्सा अच्छा है जहाँ लोग परिवार के साथ इज़्ज़त का नकाब ओढ़े जी रहे हैं और उनके घरों की ही औरतें अनेक अत्याचारों की शिकार हो रही है अथवा वे औरतें जिन्हें इज़्ज़तदार घरों के मर्द ही उन्हें बदनाम करने अथवा वेश्या बनने पर मजबूर कर चुके हैं। उन मर्दों को ऐसे वेश्यालयों में जाने पर यह भी नहीं पता कि पहले जिन औरतों के साथ वे सो चुके हैं अब उन्हीं की बेटियों के साथ सो रहे हैं। विवाह जैसे सामाजिक तमगे को झुठलाती वेश्याओं के जीवन की करूण और क्रूर कथा हैं ‘अच्छी औरतें’। जो एड्स जैसे खतरनाक बिमारियों से बचने के लिए कण्डोम और दवाइयों का इन्तजाम खुद कर लेती हैं इसलिए वे अच्छी हैं या फिर जो चुप्पी का जहर पीकर अपनी मालकिन की बात मान लेती हैं इसलिए अच्छी हैं अथवा मालकिन जिसे पहली बार किसी डॉक्टर ने बहन कहा इसलिए वह अच्छी है अथवा डॉक्टर से इज़्जत के दो बोल सुनकर खुद को अच्छी समझने लगी है, अथवा डॉक्टर उन्हें अच्छी औरतें समझ कर उन पर रहम करता है और मुफ्त में कण्डोम तथा दवाईयाँ उपलब्ध करवाता है। साथ ही सोशल वर्कर के जरिए उनकी स्थिति में सुधार के लिए प्रयास भी करता है। लेकिन यदि ऐसा है तो वह अपनी बेटी को सोशल वर्कर क्यों नहीं बनने देना चाहता और क्यों अचानक से कह उठा, “नहीं सोशल वर्कर कभी नहीं, पांडे विधवा है। जहाँ देखो पाँच-छह मुस्टंडों के साथ होती है। हमेशा आदमियों से घिरी होती है। अच्छी औरत नहीं”। (दत्त, कमला. अच्छी औरतें और अन्य कहानियाँ. पृ. 56)

तो क्या डॉक्टर सोशल वर्कर को सेक्स वर्कर से कम नहीं समझता, इसलिए वह अच्छी औरत नहीं है? 

कमला दत्त लाहौर से हैं और पंजाब विश्वविद्यालय से उच्च-शिक्षा हासिल की हैं। इसलिए वे पंजाब की लड़कियों को विदेश ब्याहने की हालत से परिचित हैं तथा उनकी परिस्थितियों से आहत भी। ‘धीरा पंडित, केकड़े और मकड़ियाँ’ कहानी में कहानी की नायिका धीरा उन नर केकड़ों की किस्म से पीड़ित है जो हमेशा ऐसी मादा की तलाश में रहते हैं जिनकी केंचुल उतरी रहती है, जिनका विश्वास जीतने के बाद वे उन्हें क्षत-विक्षत कर किसी और मादा की तलाश में निकल जाते हैं। धीरा का पति ‘जीत’ भी उन्ही नर केकड़ों की प्रजाति का प्रतीत होता है जो धीरा से विवाह कर उसके साथ कुछ समय के लिए खुश रहने का नाटक कर वापस विदेश लौट जाता है। 

धीरा पंजाब से निकल कर विदेश में अपने पति ‘जीत’ को तो ढूँढ़ लेती है परंतु उसे पाकर भी पा नहीं सकी। जीत अपनी प्रेमिका के लिए पराये देश में धीरा को छोड़ जाता है। ऐसे में वह न तो घर लौट सकती है न ही वह वहाँ रह सकती है। उसने रास्ता चुना स्वावलंबी होने का लेकिन फिर फंस गयी एक अन्य केकड़े के बीच। जहाँ से उसे डॉ. जर्सिकी निकालने का प्रयास करते हैं। सुधा ओम ढ़ींगरा का उपन्यास ‘नक़्काशीदार केबीनेट’ और सुदर्शन प्रियदर्शिनी का उपन्यास ‘न भेज्यो बिदेश’ इस मुद्दे पर आधारित है। मुद्दा एक है पीड़ा भी लगभग एक जैसी है लेकिन सुदर्शन प्रियदर्शिनी की नायिका पीड़ा में ही अपना दम तोड़ देती है और सुधा ओम ढ़ीगरा की नायिका उस चक्रव्यूह से बाहर निकल भागती है। कमला दत्त अपनी नायिका को मकड़ी के माध्यम से बाहर निकालती हैं कि एक मकड़ी ऐसी भी होती है जो नर द्वारा जबरदस्ती के बाद उसे जिन्दा निगल लेती है। लेकिन अत्याचार सहने और बदला लेने के बीच भी एक रास्ता होता है जिसे चयन कर अपनी जिन्दगी को बेहतर बनाया जा सकता है।  

‘तीन अधजली मोमबत्तियां...’ कहानी में ‘सेंटर फॉर न्यू बिगिनिंग’ में आये मालिश के लिए हर अजनबी अपने अपने अकेलेपन को दूर करना चाहता है। 72 घंटे में एक दूसरे को स्पर्श कर मालिश के माध्यम से एक दूसरे की संवेदना समझना, एक दूसरे के दुःख-दर्द को बाँट लेना और तन्हाई को कोसो दूर ढकेल कुछ समय के लिए ही सही, खुश रह लेने की चाह में खुश हो जाना जीवन में एक शुरूआत ही तो हैं। यौनिकता से दूर अजनबियों को सहलाना, छूना, उनके साथ निकटता, अंतरंगता की एक्सरसाइज में संवेदनशीलता मन को शांति देने का एक माध्यम ही तो है। (दत्त, कमला. अच्छी औरतें और अन्य कहानियाँ. पृ. 89) 

लेकिन यदि किसी उन्हीं अजनबियों में से कोई अपना हो जाये... उस अजनबी को पता भी न चले कि जिसे वह स्पर्श कर रहा है वह उसे अंदर तक संजो रही है, स्पर्श का स्पर्श उसे सदियों तक सताये, तब ऐसी हालत में अजनबीपन की तड़प सदियों तक तड़पती है। जिसने तीन अधजली मोमबत्तियों पर तीन दिन की दोस्ती की मोहर जला नायिका के हृदय में ‘न्यू बिगनिंग’ तो कर दिया, लेकिन खुद के हृदय में मोमबत्ती बुझा आगे बढ़ गया। ऐसी ‘बिगनिंग’ को नायिका बरसों बाद भी स्पर्श करते हुए स्मृति में खोई हुई है। 

“मेरे घर की खुली खिड़की / के नीचे से / वो हर रोज / गुजरता है / कभी-कभार / ऊपर / देख भर / लेता है, मेरा सब कुछ / संवर / जाता है।” 

- (दत्त, कमला. कमला दत्त की यादगार कहानियाँ. पृ. 63)  

प्रेम की धार पर चलना इतना आसान तो नहीं, वह भी एक तरफा प्रेम में। ‘अम्रेम कथा पारो-देवदास’ की नायिका ने एकतरफा प्रेम में अपने आपको संवारने की कोशिश किया लेकिन नायक की नकार ने उसे तोड़ कर रख दिया और जब वह संभलने की कोशिश करती है तब विवाहित नायक अपनी पत्नी से उब कर उसे अपनाने का प्रयास करता है। ऐसे में नायिका अपने स्वाभिमान को प्रेम से ऊपर मानते हुए अपने सपनों के राजकुमार से दूरी बना लेती है। वह बिकाऊ नहीं कि जब चाहे नायक उसे खरीद ले और जब चाहे त्याग दे। वह प्रेम में गांधारी की तरह अंधी बनना चाहती बल्कि प्रेम में स्त्री-सशक्तीकरण का मिसाल पेश करती है। वह देवदास की तरह प्रेम तो करना जानती है लेकिन देवदास की तरह मरना नहीं चाहती, वह प्रेम में निछावर होना तो चाहती है लेकिन अपने आपको भूलना नहीं चाहती। 

‘प्रेतात्मा’ कहीं नहीं होती बल्कि अपने ही जीवन के कर्म का भोग होता है और पुनः पुनः लौट आता है। क्यूबेक सिटी में फंसे नायक की गर्भवती बहन प्रिस्ला ने बहुत पहले संखिया-आर्सेनिक लेकर अपने जीवन को समाप्त कर लिया था और जब उसने शुभा को उसके पति द्वारा प्रताड़ित होते हुए देखा तो उसे प्रिस्ला की स्मृत्तियों ने घेर लिया। वह शुभा को बचाकर प्रिस्ला के मौत की ग्लानि से मुक्त होना चाहता था लेकिन शुभा उसी तड़प में जीना सीख गयी थी। शुभा का कुछ न कहकर नीली आँखों का प्यार सब कुछ कह गया। 

‘तुम निहाल दई’ की स्वाभिमानी नायिका राजेश्वरी ने विधवा होकर समाज से संघर्ष करते हुए अपने तीनों बच्चों की परवरिश की किंतु जब उसकी उम्र ने जवाब दे दिया तब बच्चों ने भी साथ छोड़ दिया। राजेश्वरी ऐसी परिस्थिति में भी अपने बच्चों पर आश्रित नहीं रही। उसकी स्वतंत्र विचारधारा ने उसकी पोती को प्रभावित किया और पुराने पीढ़ी और नयी पीढ़ी के अंतर को पाटने का प्रयास किया। कहीं न कहीं राजेश्वरी अपनी नयी पीढ़ी यानी पोती में अपनी बेटियों को देखती थी जिन्हें दहेज के डर से जिन्दा ही मार दिया गया था। पोती की इच्छाओं को पूरा होने की चाह अपनी बेटियों की इच्छा को पूरा करने की चाह थी। पुत्र तो अपने थे लेकिन पोती अपनी आत्मा की राह थी। यह कहानी एक स्त्री के स्वाभिमान, स्वतंत्र विचार और सामाजिक विवशता की कहानी है।      

‘स्टेम सेल’ तथा ‘टिस्यू इंजीनियरिंग’ में अपना विशेष योगदान देने वाली प्रसिद्ध डॉक्टर कमला दत्त की कहानियाँ अति-बौद्धिकता का साथ छोड़ नहीं पातीं, इसीलिए कहानियों में सर्वथा सहज प्रवाह का अभाव दिखायी देता है। ‘जां पां’ और ‘ज्योति’ कहानियाँ इनकी वैज्ञानिकता की प्रमाण हैं। इनकी कहानियाँ कई परतों में मनःसंश्लिष्टता को समेटे होती हैं। कहानी के एक ही पैरेग्राफ में मन की चंचलता कई-कई जगह घूम आती हैं जिससे पाठक भूल-भूलैया में खो जाता है और कहानी का मूल मुद्दा भी। 

लेकिन हमें यह नहीं भूलना होगा कि लेखिका एक डॉक्टर हैं, साहित्य में उनकी अपनी रूचि है। शहर और नगर की समस्याओं को उन्होंने गहरायी से देखा है। यही नहीं, लेखिका की पारखी दृष्टि से पशु-पक्षी, जीव-जन्तुं भी अछूते नहीं रहे। लगभग सभी कहानियों में लेखिका ने पशु-पक्षी, जीव-जन्तुओं के उदाहरण से मानवीय समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया है। इन सबके साथ व्यक्ति-मन की उलझनों के धागों को बड़ी गहराई से महसूस किया है और उन हर धागे को पकड़ कर अपनी कहानी में बुनने का प्रयास करती हैं। शायद इसीलिए किस्सागोई लेखिका की अपनी निजी अनुभूति-सी महसूस होने लगती है। पात्रों के साथ हो रहे हर छोटी-छोटी घटनाओं की उधेड़-बुन कहानी को निबंधात्मक और विवरणात्मक बना देते हैं, जो संवेदना के स्तर पर कमजोर प्रतीत होने लगती हैं, जिसके कारण मजबूत मुद्दा होते हुए भी वे पाठकों के मन पर मजबूत पकड़ नहीं बना पातीं। इन सबके बावजूद ये कहानियाँ विज्ञान में रूचि जगाती हैं। जीव-जन्तु और पशुओं से जुड़ी अनेक जानकारियों से अवगत करवाती हैं। यदि ये कहानियाँ कहानी न होकर कोई मानव-विज्ञान से जुड़ी निबंध होतीं तो शायद ये और 

अधिक सफल होतीं। अनभिज्ञता से भिज्ञता की ओर जा पातीं। 

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छोटी बहन जानी-मानी जर्नलिस्ट निरुपमा दत्त का आभार प्यार से, जो अपने लेखन में जब तब मुझे याद करती रही।

मेरी जीवन की बड़ी उपलब्धि रही, जब उसने चंडीगढ़ प्रेस क्लब में मेरी किताब ‘अच्छी औरतें और अन्य कहानियाँ’ तमसमंेम की और स्टेज पर मेरे अगल-बगल थे डॉ. वीरेन्द्र मेहंदीरत्ता, जिनकी वजह से हिन्दी में लिखना शुरू किया और डॉ. रमेश कुन्तल मेघ, जिन्हें अपनी कहानी ‘महसूस’ सुनाने उनके घर पहुँची थी। वही कहानी- मेरी पहली छपी कहानी- कमलेश्वर जी ने ‘सारिका’ में छापी ! और इस अवसर पर कहानियों का एनालाइसिस करने वाले भी वही थे।

कॉलेज के दिनों के दोस्त-सहपाठी, जाने-माने लेखक, जिनसे थोड़ी अच्छी अंग्रेजी और हिन्दी लिखनी सीखी थी- डॉ. कैलाश अहलुवालिया और माधव कौशिक जी ने कहानियों को क्रीटिक किया, लगा मैं कितनी खुशकिस्मत हूँ। 

-कमला दत्त

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डाॅ. कैलाश आहलूवालिया, चंडीगढ़, मो. 9888072599


डाॅ. वीरेंद्र मेंहदीरत्ता


डाॅ. वीरेंद्र मेंहदीरत्ता: कृतित्व एवं व्यक्तित्व

डाॅ. वीरेंद्र मेंहदीरत्ता विनम्र स्वभाव और उच्च भावेगों के व्यक्ति हैं। दृढ़ विश्वासी और सब के साथ सहानुभूति रखने वाले। अनुशासन प्रिय और जीवन को सुंदर से सुंदरतम बनाने के दर्शन के पक्षधर। अपनी कठिनाइयों में भी साहस और धैर्य रखने वाले दृढनिश्चयी पुरुष। सौहार्दपूर्ण और स्नेह सिम्त व्यवहार। अनेक अवसरों पर अपनी असुविधा को दरकिनार करते हुए, दूसरों की चिंता करने वाले। उनकी सहृदयता और जीवन के प्रति ईमानदारी सर्वविदित है।

डाॅ. मेंहदीरत्ता का जन्म तेईस मई उन्नीस सौ तीस में रावलपिण्डी (पाकिस्तान) में हुआ। उनका पैतृक स्थान झांग मधियाना। अपने आरम्भिक काल के विषय में वे कहते हैं- ‘‘जिस साल भगत सिंह को फांसी दी गई उसी साल मेरा जन्म हुआ था। लगभग सत्रह साल तक देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करते हुए अपने आस पास परिवार, स्कूल कालिज तथा शहर के लोगों को देखा था। सन् उन्नीस सौ सैंतालीस में लाहौर के गवर्नमिंट कालिज में इंटर प्रथम वर्ष कम विद्यार्थी था।‘‘

जनवरी उन्नीस सौ सैंतालीस में अनारकली में आजादी पाने की जैसी छटपटाहट आम लोगों में देखी थी वैसी जोश भरी बेचैनी पिछले साठ बरसों में नहीं देखी। आज़ादी पाने की जो उमंग उस दिन देखी थी उसे मैं भूल नहीं सकता।‘‘

अपने परिवेश को वे बड़े गर्व से याद करते हैं। पर कहीं कहीं अपने आरम्भिक दिनों को स्मरण करते हुए वे पल भर के लिए रुक कर छोटी छोटी उपेक्षाओं और हल्की हल्की कठिनाइयों का जिक्र करते हैं। पर यह भी मानते हैं कि ये कठिनाइयां और विपरीत परिस्थितियां ही व्यक्ति को ऊपर उठाती हैं। रावलपिंडी, लाहौर, मोरैना, इलहाबाद और चण्डीगढ़। अपनी इस जीवन यात्रा के मध्य उन्होंने अनेक उपलब्धियां प्राप्त की। विविध अनुभवों से गुजरते हुए साईंस विद्यार्थी डाॅ. मेंहदीरत्ता, इंजीनीयर बनते बनते प्राध्यापक और लेखक बन गए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी एम. ए. पढ़ते हुए अचानक उनके भीतर लेखक ने जन्म लिया। और वे कहानियां लिखने लगे और कहनियां प्रकाशित होने लगीं। उपेंद्रनाथ अश्क जो उन दिनों इलाहाबाद में ही थे, उनके  प्रेरणास्रोत बन गए। उन्हीं से उन्होंने खुलापन, जिजीविषा और आंधी में संभल कर चलने की कला सीखी। इलाहाबाद साहित्यिक गतिविधियों का भी प्रयाग था। और अनेक साहित्याकार यहां पर थे। जैसे कमलेश्वर, भैरव प्रसाद गुप्त, धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त और उपेंद्र नाथ अश्क। यशपाल के ‘झूठा सच’ और बारह घण्टे ने उनके दृष्टिकोण को बदल डाला और वे प्रगति- शील लेखन की तरफ उन्मुख हुए।

धर्मयुग, सरिता, संगम, मनोहर कहनियां, भारत आदि पत्र-पत्रिकाओं में लगातार उन की कहानियां छपने लगीं। धूप में चटखता कांच, उड़ान, दुपहर इतवार की, एक और द्रौपदी, और बारात जैसी कहानियों के प्रकाशन से उन्हें राष्ट्रीय पहचान मिली।

उन की प्रथम पुस्तक थी - शिमला की क्रीम (कहानी-संग्रह )। उसके बाद अनेक पुस्तकें। पुरानी मिट्टी नए ढाँचें (कहानी संग्रह)। मिट्टी पर नंगे पांव (कहानी संग्रह)। खरोंच (कहानी संग्रह)। सिद्धार्थ से पूछूंगा (कहानी संग्रह)। मोहन-राकेश का साहित्य। मेरी श्रेष्ठ कहानियाँ। आधुनिक हिंदी साहित्य में (1857-1950)। इनके अतिरिक्त अनेक संपादित पुस्तकें।

कुछ कहानियों का जिक्र करना चाहूंगा।‘

‘शिमला की कीम‘ कहानी में संभ्रांत वर्ग के खोखलेपन का चित्रण है। इस वर्ग के सदस्यों में कहीं कोई गर्माहट नहीं। एक प्रश्न उठाया गया है यहाँ कि ये लोग चाह क्या रहे हैं जीवन से ?

‘दुपहर इतवार की‘ में मध्यवर्ग की विशिताओं का चित्रांकन है।

‘बारात कहानी दीर्घायु के लोगों के अकेलेपन और बेचारगी की कहानी है। कैसे धीरे धीरे उनकी जिं़दगी माज्र्नलाइज्ड होती जाती है। बे अपनी साख को कम हुआ देखते हैं पर क्या बोल सकते हैं? विवश हैं। ‘धूप में चटखता कांच‘ उन महिलाओं के जीवन की कहानी है जो घर से बाहर काम काज के सिलसिले में निकलती हैं या निकलने के लिए बाध्य होती हैं। और ऐसा करने से कैसे जीवन मूल्यों का ह्रास होता है और कैसे-कैसे परिवर्तन आते हैं इस सब का सजीव चित्रण है। कहानी के अंत में पूर्व की ओर खिड़की के कांच के टूटने का एक सांकेतिक अर्थ है।

‘पोरफारिया’ डाॅ. मेंहदीरत्ता की एक मार्मिक कहानी है। इस में पंजाब के संताप की रिफलेक्शन है। कहानी में एक बहुत महीन पैरलल है। कहानी का नायक, संजय बीमार हैं और अस्तपताल में बिस्तर पर लेटा है। वह हिलडुल नहीं सकता पर सोच सकता है। उसका शरीर दिन-दिन क्षीण होता जा रहा है। यही कहानी में एक समानांतर है। पंजाब भी आतताइयों के कहर से पस्त होता जा रहा था। वास्तव में सारा देश ही पस्त हो रहा है। पर सब कुछ के रिवर्स होने की संभावना बनी हुई थी। ऐसे ही जैसे संजय की बीमारी रिवर्सिबल है। अंततः संजय बीमारी से उबर आया और ऐसे ही पंजाब भी। पंजाब थोड़े समय के लिए रोग ग्रस्त हो गया था। यह स्थिति स्थाई नहीं थी । यहां डाॅ. मेहदी रत्ता का ‘प्रोफटिक वियन’ शत प्रतिहात सही साबित हुआ ।

‘खरोंच’’ कहानी भी इसी आस्था और विश्वास की कहानी है। संबंधों में खरोंच आ जाती है पर यह चिरस्थाई नहीं है। लेखक की संबधों में विपुल आस्था यहां भी कसौटी पर खरी उतरती है। हिंदु सिख एकता में उन्हें अटूट विश्वास है। खरोंच का प्रतीक यहाँ विशेष अर्थपूर्ण है। खरोंच का निशान धीरे-धीरे मिट जाता है। संबंधों में आ गई बरोच भी धीरे-धीरे मिट गई।

इसी विषय से संबंधित एक और सशक्त कहानी है- ‘ताकि....’। जिस में पंजाब के संकट काल में नवजात शिशु का जन्म होना उसका नाम करना, प्रशांत, एक अर्थपूर्ण संकेत है।

इसी तरह कई और कहानियाँ भी हैं जैसे ‘डायलसिस’ जिसमें लेखक के इस दृष्टिकोण की झलक मिलती है। 

‘एक और द्रौपदी‘ में एक दमित मध्य वर्ग की नायिका की, यौन-आकाक्षाओं पर चोट की गई है। ‘पंखाकुली’ में महानगरों की विषैली घुटन और गांवों की मुक्तता का साफ-साफ चित्रण है।

‘सिद्धार्थ से पूछूंगा’ में डाॅ. मेंहदी रत्ता ने एक बहुत ही जटिल, पर वांछनीय विषय को छुआ है। यहां भी उनका ‘प्रोफैटिक वियन’ देखिए -मृत्यु बड़ी नहीं है। वह तो  अवश्यमभावी महत्वपूर्ण है तो वह है जीवन का परिवर्तन। परिवर्तन मृत्यु से भी बड़ा सत्य है। इसी की खोज और पहचान वास्तव में महत्वपूर्ण है। 

ऐसी अनेक कहानियां है जहां पाठक को यह बोध होता है कि ये कहानियाँ गंभीर हैं। इनके पीछे गंभीर चिंतन और जीवन दर्शन है।

इसी लिए आवश्यकता है इन पर गंभीर चिंतन और विश्लेषण की !!

एक टिपणी में कहा गया है कि डाॅ. मेहदीरत्ता एक जैसे सृजनकर्मी साहित्यकार है जिन्होंने नई कहानी व समृद्ध साहित्यिक आंदोलनों से हट कर अपनी विशिष्ट कथाशिली हिंदी कहानी को एक नया और विश्वसनीय रूप प्रदान किया।

आज की कहानी के प्रति, वे पूर्णतया संतुष्ट और तो आश्स्वत हैं। वे कहते हैं - आज की कहानी का कथ्य बदला हुआ है। पात्र भी बदले हैं। ट्रीटमेंट में बदलाव हुआ है। विश्व में जो बदलाव आ रहे हैं। उन सब का प्रभाव भारतीय लेखन पर भी, विशेष कर कथा के कहिन और कथ्य पर हुआ है। इन कहानियों में बारीक स्थितियों का सुगढ़ निरूपण हो रहा है। स्ट्रक्चर के बारे आज का कहानीकार भले ही उतना सजग न हो पर उसकी कहानियों में रचनात्मक रचाव है। विषयवस्तु में विविधता और चैतन्य का आभास होता है। इसके साथ साथ भाषा भी बदली है। नारी का अपने प्रति और दूसरों का उसके प्रति दृष्टिकोण बदला है। नारी की संपूर्ण मानसिकता में स्पष्ट बदलाव आया है। पुरुष ने भी  अपना ‘स्टैंस‘ बदला है। आज जो जीवन मूल्यों में तेज़ी के साथ परिवर्तन आ रहा है उसका निरूपण कथा साहित्य में दिखाई देता है। कहानियों मे एक मानवीय चेहरा उभर रहा है। आज आदमी तकलीफों का ज़िक्र हो रहा है। नई कहानी में उनका यह कहना भी कितना अर्थपूर्ण रूप है कि हर अच्छा साहित्य ज़िदगी की समझ को बढ़ाता है। जीवन की खूबसूरती के प्रति आस्था जगाता है। और नित नए जीवन का निर्माण करता है। वे यह भी कहते हैं कि हमारे आपसी संबंध बहुत मजबूत हैं। ये टूटने वाले नहीं। भले ही थोड़ी देर के लिए इन का आलोप सा हो गया लगे। पर यह विच्छेद चिरस्थाई नहीं। जरूरी है कि आस्था और विश्वास बना रहना चाहिए। इस आस्था और विश्वास की अभिव्यक्ति पंजाब के संताप को लेकर लिखी गई अनेक कहानियों में  व्यक्त हुई है।

संयोग वश मैं यहां यह कहना चाहता हूँ कि डाॅ. मेंहदीरत्ता की कहानियां महत्वपूर्ण हैं। ये गंभीर अध्ययन की मांग करती हैं। हमें चाहिए कि उन की कहनियों का पुनर्पाठ करें और उनके गहरे अर्थ और महत्व को उजागर करें। और आने वाले दिनों में शीघ्र ही एक ऐसी चर्चा को पुस्तक रूप में प्रस्तुत करें जिस में इन कहानियों को परत दर परत दर परत खोलें और साहित्यिक दृष्टि से इनका सही-सही मूल्यांकन करें। यह उनके प्रति सब से बड़ा सम्मान होगा।

चण्डीगढ़ में उन दिनों जब डाॅ. मेंहदीरत्ता काॅलेज में पढ़ा रहे थे साहित्यिक और नाटक के लिए अनुकूल वातावरण नहीं था। संभ्रांत वर्ग की रुचि स्कूलों में खेले जाने वाले अंगरेजी नाटकों में थी और आम लोग रामलीला की प्रतीक्षा किया करते थे। एकांकी और पूर्णांकों नाटकों में लोगों की रुचि पैदा करने का श्रेय डाॅ० वीरेंदर मेंदीरत्ता को जाता है। तब टैगोर थियेटर जैसी कोई रंगशाला भी नहीं थी। केवल स्कूलों और एकमात्र काॅलिज जो तेईस सैक्टर में स्थित था, रंगशालाएं थीं। समय बीतने पर मंच की कल्पना साकार हुई। बालभवन जैसी संस्थाओं में मुक्ताकाशी मंच बनने शुरू हुए। नाटक की समीक्षा की परम्परा, कम से कम चंडीगढ़ विश्वविद्यालय में थियेटर विभाग खुलने से शुरू हुई। नटरंग में डाॅ० मेहदीरत्ता ने नियमित रूप से यहां हो रहे नाटकों की समीक्षा की शुरुआत की।

नाटक के साथ-साथ डाॅ. मेहदीरत्ता की साहित्यिक गतिविधियां भी ‘निरंतर चलती रहीं। ‘साहित्यिकी’ नाम की साहित्यिक संस्था इन्ही द्वारा आरम्भ हुई। जहां कई जाने माने साहित्याकार आए जैसे अज्ञेय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, इंद्रनाथ मदान, हंसराज रहबर, बाल कृष्ण शर्मा नवीन। उपेंद्र नाथ अश्क, मोहन राकेश, कमलेश्वर, नलिन, सुदर्शन इत्यादि। इस ‘साहित्यिकी’ के सदस्य थे-हरीश भनोत, क्षेमेंद्र गुलेरी, श्रुति प्रकाश, मधुसूदन जोशी आदि। यही साहित्यिकी कालांतर में ‘अभिव्यक्ति’ के नाम से जानी जाने  लगी। अभिव्यक्ति की मासिक बैठके डाॅ. मेहदी रत्ता के घर पर ही आयोजित होती थीं। आज भी हर महीने के प्रथम शनिवार को उन्हीं के घर पर होती हैं। और वे उसी ऊर्जा और रूचि के साथ साहित्यकारों का स्वागत करते हैं। अभिव्यक्ति ने कई नवोदित साहित्याकारों एवं कलाकारों को प्रोत्साहन दिया। ‘अभिव्यक्ति के साथ ही एक रंगमंडली की भी स्थापना इन्हीं के प्रयत्नों से हुई। यह संस्था आज भी सक्रिय है और अब तक लगभग अस्सी नाटकों का मंचन कर चुकी हैं जिनमें अनेक नाटकों का निर्देशन डाॅ. मेंहदीरत्ता ने किया।

हाल ही में उनकी नई पुस्तक आई है - ‘सम्पूर्ण कहानियां।’ स्पष्ट ही है कि इस में उनकी अब तक की सारी कहानियाँ उपस्थित हैं। पुस्तक के अंत में, कुछ असंकलित कहानियां भी हैं। इन कहानियों में जीवन के दुख सुख का विवेचन है और मध्यवर्ग की पीड़ा है। कुछ कहानियां इस में ऐसी भी है जिन में स्थितियों और चरित्रों को मनोविज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषित किया गया है। कुछ कहानियां ऐसी है जिनमें बढ़ती उमर के व्यक्तियों का मार्मिक चित्रांकन है। इन्हें पढ़ कर यह आभास भी होता है कि ये आत्मकथात्मक है। पर एक बात तो स्पष्ट है कि ये महत्वपूर्ण जोड़ है उन सारी कहानियों में जो उन्हों ने आज तक लिखी हैं।

अंत में डाॅ. बीरेंद्र मेंहदीरत्ता के बारे में एक टिपणी उद्धरित करना चाहूंगा- ‘वीरेंद्र मेंहदीरत्ता जीवन के प्रति आस्था और विश्वास के साहित्यकार हैं। वे नए और पुराने, विघटन और संजीवन प्राप्त कर रहे मूल्यों के बीच की लड़ाई के प्रति सचेत है। और आज के मनुष्य के भीतर की तमाम विसंगतियों और अंतर्विरोधों, कुरूप और बदरंग हो रहे मध्यवर्गीय जीवन के प्रति मानवीय चिंता व्यक्त करते हैं।

वे अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से सुशोभित एवं समादरित किए जा चुके है। साहित्य अकादमी चण्डीगढ़ के चेयरमैन रह चुके हैं। साहित्य अकादमी दिल्ली के सम्मानीय सदस्य रह चुके हैं। और पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष अवकाश प्राप्त हैं।

अनेक छात्र छात्राओं को डाॅ. मेंहदीरत्ता ने पी.एच.डी. करबाई। अनेक का हर लिहाज से मार्ग प्रदर्शन किया। अनेक विद्यार्थियों के जीवन के प्रथम प्रेरक रहे हैं। और सब से प्रिय बात जो इन के व्यक्तित्व में स्थाई रूप से विद्यामान है वह यह कि ये लेखक होने के साथ साथ एक योग्य और आदर्श प्राध्यापक और निहायत संवेदनशील व्यक्ति रहे हैं। इन का मानवीय व्यवहार हमेशा हम सब के लिए संजीवनी बना रहा।

सतासी बर्ष की उमर में भी ये उतने ही सक्रिय और सजग हैं जितने अपने यौवन काल में थे। हम ने उन के उस उत्थान-काल को देखा है।

हम सब की कामना और प्रार्थना है कि ये दीर्घायु हों और स्वस्थ रहें ताकि ये भावी संतति के लिए साहित्य की रचना कर सकें। और हमें अवसर मिलता रहे कि हम उनकी स्निग्घ्ता और उदारता से लाभान्वित होते रहें। 

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कमला दत्त की यादगारी कहानियाँ की पुस्तक से भूमिका

कुछ कही अनकही बातें 

ये कहानियाँ एक तरह से अपने आप लिखी गईं-अपने आप आईं जहन में और इनका लिखना - एक मायने में जीने की तरह जरूरी हो गया-ठीक जिस तरह से लैब में, चूहे, गिनीपिग, हैमस्टर - मुर्गियों के बच्चे मारना। कुल मिलाकर स्कूली हिन्दी पढ़ाई बहुत कम - बचपन के बहुत साल बंगलौर में रहना । हिन्दी में लिखना डॉ. मेंहदीरत्ता की वजह-यदि वे मुझे अपने नाटक ‘उत्सर्ग‘ में न लेते तो शायद हिन्दी में न लिखती-घर में अंग्रेजी का बोलबाला-डैडी की आवाज, ‘‘read English newspaper- Hindi and Sanskrit are great languages for scriptures........” खुद पिताजी रामायण का बहुत ही सुन्दर पाठ करते थे । माँ, ताईयाँ लगातार धर्मयुग पढ़ती थीं - शरतचन्द्र पढ़ती थीं। कॉलेज में इक्का-दुक्का कहानियों का, कॉलेज की पत्रिकाओं में छपना, यूनीवर्सिटी में पी एच.डी. (Zoology में) करते हुए अपनी कहानी ‘‘महसूस‘‘ (जो बाद में सारिका में छपी) लेकर डॉ. रमेश कुन्तल मेघ जी के घर पहुँच जाना सुनाने के लिए। डॉ. मेघ जी का बड़प्पन कि उन्होंने कहानी सुनी, प्रोत्साहन दिया ।

अगर वही कहानी कमलेश्वर जी ‘सारिका‘ में न छापते, तो लिखना वहीं खत्म हो जाता - साईंस में उलझकर रह जाती । कमलेश्वर जी का कहना ‘आप साईंस से हैं, कहानियों में कुछ साईंस लाईये‘ मेरी हर कहानी के साथ एनीमल किंगडम की इमोगिली (Imogily) का जुड़ जाना फिर कहानियों का ‘सारिका‘, ‘धर्मयुग‘ में छपना । ‘धर्मयुग‘ के सम्पादक श्री योगेन्द्र कुमार लल्ला और मनमोहन सरल जी की बहुत आभारी हूँ, उन्होंने हाथ की लिखी कहानियों को पढ़ा, मात्रा दोष देखे, कहानियों को सँवारा और छापा। भारती जी की आभारी हूँ, जिन्हें मेरी कहानियाँ पसन्द आईं।

चंडीगढ़ - पंजाब के साहित्यकार डॉ. मेंहदीरत्ता, भगवन्त सिंह जी, नवतेज सिंह (सम्पादक - प्रीतलड़ी) की आभारी हूँ, जिन्होंने हमेशा प्रोत्साहन दिया।

पहले संग्रह के छपने और इस दूसरे संग्रह के छपने में एक जीवन का अन्तराल है। मेरा 44 सालों से बाहर रहना, और पूरी लगन से विज्ञान और तकनीकी संसार से जुड़ जाना, ‘धर्मयुग‘ और ‘सारिका‘ का बन्द हो जाना।

ये कहानियाँ बरसों दोस्तों के पास रही- फिर खो गयीं, फिर मिल गयीं। अगर छप पायीं तो इसका पूरा का पूरा श्रेय डॉ. सुनीता जैन और डॉ. नरेन्द्र मोहन को है।

अब पच्चीस साल के अन्तराल के बाद दुबारा लिखना शुरू किया है। इस का श्रेय अटलांटा के मेरे दोस्त जहरा अहमद, खुर्शीद अहमद, सुचित्रा बैनर्जी और बराबर प्रोत्साहित करने वालों में डॉ. सुनीता जैन, डॉ. नरेन्द्र मोहन, निरूपमा दत्त (छोटी बहन) का नाम अहम है । इन सब को मेरे लिखे पर मुझसे कहीं ज्यादा भरोसा हमेशा रहा है। 

-डॉ. कमला दत्त

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लेखकीय : अच्छी औरतें और अन्य कहानियाँ

यह यात्रा

अरसे के बाद-2011 में रिटायर होने के बाद दोबारा लिखना शुरू किया। 1988-2011 तक केवल साइंस में अपने काम में लगे रहना- कुछ अंग्रेजी की कवितायें, जो अधिकतर वर्कशॉप में लिखी गईं।

लग रहा था हिन्दी में लिखना लगभग भूल चुकी हूं। तब यहां रहते हुये 42 वर्ष हो चुके थे और अब 49वां साल। पर साथ यह भी जानती थी, किसी और की भाषा में लिखना और खुद को ढूंढ़ना कितना मुश्किल है- खासकर अटलांटा शहर में, खुरशीद भाई और जहरा के यहां से टैक्सास जाने के बाद शहर में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं ढूंढ सकी, जो हिन्दी में लिखना-पढ़ना और सुनना चाहे। फिर भी एक जिद सी थी, अगर कुछ छूने वाला लिख पाऊंगी तो हिन्दी में ही। इसी जिद में Decatur Library में साउथ ईस्ट एशियन राइटर्स दिवस पर (Lit Fest) जहां सभी हिन्दुस्तानी- पाकिस्तानी अंग्रेजी में अपना लिखा सुना रहे थे। मैं ऑडिटोरियम में अपनी पुरानी छपी कहानी के कुछ पन्ने हिन्दी में पढ़ गई। ऑडोटोरियम की आधी से ज्यादा ऑडियन्स अमेरिकन थी।

इस संग्रह की सभी कहानियां हर साल भारत लौटने पर सबसे पहले सुनने वाले हैं - हिन्दी के प्रतिष्ठि विद्वान डॉ. नरेन्द्र मोहन और उनकी बेटी सुमन पंडित। डॉ. मोहन ने प्यार से सुना और सराहा। हौसला बढ़ाते हुए, सुमन ने आलोचनात्मक दृष्टि से कभी सराहा, कभी परखा। ये कहानियां यहां तक पहुंची हैं तो इसका श्रेय इन दोनों को है। और उस कमरे को, जहाँ मैं यह सुनाने का साहस कर पाई।

कुछ एक कहानियां अभिव्यक्ति-गोष्ठी चण्डीगढ़ में पढ़ी गईं। आभारी हूं डॉ. मेहंदीरत्ता, डॉ. कैलाश अहलुवालिया, डॉ. अतुलवीर अरोड़ा और श्री कपूर की, उन्होंने अपनी गोष्ठी में मुझे पढ़ने दिया।

जब कहानियां छपवाने की थोड़ी कोशिश कर रही थी, निराश थी कुछ संपादकों के रूखेपन से। ऐसे में बेहद आभारी हूं ‘पाखी‘ के सम्पादक श्री प्रेम भारद्वाज की, जिन्होंने दो कहानियां एक्सेप्ट कीं। साथ ही बहुत आभारी हूं ‘वागर्थ‘ के सुशील कान्ति जी, जिनका व्यवहार सौजन्यपूर्ण था अरसे बाद मेरी छपी कहानी ‘मैन्डाई जाने वाले रास्ते पर तुम नहीं थे साथ‘ अप्रेल 2017 में ‘ वागर्थ‘ में छपी ‘कथादेश‘ की अर्चना वर्मा की आभारी हूं. उन्होंने मेरी कहानी‘ तीन अधजली बत्तियां‘ प्रकाशित की।

आदरणीय ज्ञानरंजन जी को ‘पहल‘ के लिये मेरी कहानियां ठीक नहीं लगीं, पर उन्होंने पढ़ीं, यह मेरे लिये बहुत बड़ी बात है। ओंकारेश्वर पाण्डे जी की बहुत आभारी हूं, जिन्होंने हौसला दिया और कहा आप लिखिये, हम कोशिश करेंगे आपको Visibility मिले। उनका कहना मेरे लिये बहुत अहम रहा प्रसिद्ध लेखिका चन्द्रकान्ता जी की आभारी हूं, उनकी सम्मति के लिये।

मैं लगभग मान चुकी थी कि कोई पढ़े या न पढ़े, मैं लिखूंगी। अपने लिये और केवल तीन-चार लोगों के लिये डॉ. सुनीता जैन (अब स्वर्गीय) के लिये, डॉ. नरेन्द्र मोहन के लिये, छोटी बहन निरुपमा दत्त के लिये।

आभारी हूं मोहन सूर्यवंशी की, जिन्होंने सब कहानियां प्यार से टाइप की और कमलेश सचदेवा जी की, जिन्होंने पढ़ीं। विशेष आभार मायामृग जी का, जिन्होंने मेरा पिछला संग्रह छापा और इसे छापने की जहमत उठाई। विशेष आभार उनकी सम्पादकीय टीम का, जिन्होंने मेरी अंग्रेजी शब्दों से भरी कहानियों का सही रूपांतरण किया।

मैं बहुत कृतघ्न होऊंगी अगर योगेन्द्र कुमार, लल्ला और मनमोहन सरल जी के प्रति आभार व्यक्त करने से चूक जाऊं मेरी पहले की छपी (धर्मयुग में) कहानियां उनकी एडिटरशिप की वजह से ही छप पाई।

कहीं पढ़ा था Flaubert बहुत घबराते थे, शाम को अकेले घर लौटने में बराबर दोस्तों से आग्रह करते थे, थोड़ा और रुको मेरे साथ इस कैफे में मेरे साथ।

छोटी बहनें सरला दत्त, आशा बाली, छोटे भाई अमोद दत्त, प्रमोद दत्त, विजय दत्त, स्व. विनोद दत्त को याद कर रही हूं, जिन्होंने अपने-अपने परिवारों में मुझे प्यार से जगह दी है। मैं बहुत खुशकिस्मत हूं, इन भाई-बहनों की वजह अभी थोड़ा-बहुत अच्छा लिखने की चाह है। अगर कुछ दोस्त और घर वाले साथ देंगे तो शायद लिख पाऊं। ये कहानियां कुछ लोगों तक पहुंच पायेंगी और कोई इन्हें पढ़ेगा, यह मेरा सौभाग्य। 


-कमला दत्त
A Literary Evening in London 
with Kamla Dutt and Urmila Jain

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महानहीगन उपन्यास पुस्तक से दो शब्द

मानहीगन और हारुकी मुराकामी के बीच- लम्बा रास्ता

यह छोटी सी उपन्यासिका (नॉवेला) एक तरह से बेतरतीब तरीके से उभरा। सन् 2012 रिटायरमेंट (त्मजपतमउमदज) के बाद कुछ कहानियां लिखी जो पत्रिकाओं में छप भी गई (वागर्थ, पाखी कथादेश) ।

मायामृग जी की अनुकम्पा से ‘अच्छी औरतें और अन्य कहानियां‘ भी 2018 में छप गयी। इस संग्रह की सभी कहानियां बरसों से साथ रही-साथ चल रही थीं और लिखने में दिक्कत नहीं हुई।

इसके बाद कुछ नया लिखा नहीं जा रहा था-अपने से नाराज यूं ही वक्त बर्बाद कर रही हूँ- एक तरह से आप इसे ‘राइटर्स ब्लॉक‘ कह सकते हैं।

ऐसे में कहीं पढ़ा ‘शम्पा लहरी‘- इटेलियन सीख-एक साल इटली में रह अपना नया उपन्यास-इटेलियन में लिख चुकी है ।

और साथ ही उन दिनों मेरे पसंदीदा लेखक हारुकी मुराकामी बन चुके थे। बरसों से उनकी कहानियां मैं New yorker  में पढ़ती आ रही थी। हारुकी मुराकामी से मेरा सही परिचय मेरी भतीजी दीपिका दत्त कालरा ने करवाया। मुझे हारुकी के चार उपन्यास एक साथ भेंट कर-हिन्दुस्तम में उन्हें दो बार पढ़ आसक्त थी। हरदम हारुकी मुराकामी, हारुकी मुराकामी की रट्ट लगाये हुए।

उससे पहले- सलमान रशदी और मिलान कुन्डेरा को ले कर भी उतनी गहराई महसूस कर चुकी थी, कुछ साल पहले, भारत से लौटने पर हारुकी मुराकामी के पहले दो लघु उपन्यास पढ़े 'Wind Song' और 'Pinn Ball' और जाना कि - उपन्यास पहले हारुकी ने - अंग्रेजी में लिखा और फिर अनुवाद किया।

ठीक जैसे मैं हारुकी मुराकामी से इम्प्रेस्ड थी उसी तरह मानहीगन द्वीप के मोहजाल में बरसों से हूँ। मानहीगन अमेरिका में मेरा ‘हरिद्वार ऋषिकेश‘ है-धर्म को लेकर नहीं -aesthetics of Evening Arti at the Ghat and sunsets of Monhegan के कारण। दोनों जगहें मुझे aesthetically उद्वेलित करती हैं।

इस तरह ‘मानहीगन एक स्वप्निल द्वीप‘ पहले अंग्रेजी में लिखा गया- अप्रकाशित है- प्रकाशक तलाश रही हूँ।
रिटायरमेंट के बाद लगा था कभी कुछ छप नहीं पायेगा। लिखना केवल अपने लिये और कुछ दोस्तों के लिये।

आभारी हूँ- प्रेम भारद्वाज (पाखी), सुशील कान्ती (वागर्थ), अर्चना वर्मा (कथादेश), इला प्रसाद (हिन्दी जगत), आत्मा राम (गर्भनाल), देवेन्द्र बहल (अभिनव इमरोज), जिन्होंने मेरी नयी पुरानी कहानियाँ छापीं और लगभग तीस वर्षों बाद हिन्दी पढ़ने वालों को मेरा थोड़ा परिचय दिया।

तीस वर्षों बाद लिखने की शुरुआत अंजना संधीर, दिव्या माथुर की वजह - जिन्होंने मेरी कहानियाँ अपने संग्रहों के लिये मांगी; और ओंकारेश्वर पांडेय की अभारी, जिन्होंने 111 Women writers of the Century में मुझे शामिल किया और मेरी पुस्तक ‘अच्छी औरतें और अन्य कहानियाँ‘ - International Ambedkar centre पर Indian Dlaspora की Conference  में release भी की।

छोटी बहन जानी-मानी जर्नलिस्ट निरुपमा दत्त का आभार प्यार से, जो अपने लेखन में जब तब मुझे याद करती रही।

मेरी जीवन की बड़ी उपलब्धि रही, जब उसने चंडीगढ़ प्रेस क्लब में मेरी किताब ‘अच्छी औरतें और अन्य कहानियाँ‘ release की और स्टेज पर मेरे अगल- बगल थे डॉ. वीरेन्द्र मेहंदीरत्ता, जिनकी वजह से हिन्दी में लिखना शुरू किया और डॉ. रमेश कुमार मेघ, जिन्हें अपनी कहानी ‘महसूस‘ सुनाने उनके घर पहुँची थी। वही कहानी- मेरी पहली छपी कहानी- कमलेश्वर जी ने ‘सारिका‘ में छापी ! और इस अवसर पर कहानियों का एनालाइसिस करने वाले भी वही थे।

कॉलेज के दिनों के दोस्त-सहपाठी, जाने-माने लेखक, जिनसे थोड़ी अच्छी अंग्रेजी और हिन्दी लिखनी सीखी थी- डॉ. कैलाश अहलुवालिया और माधव कौशिक जी ने कहानियों को क्रीटिक किया, लगा मैं कितनी खुशकिस्मत हूँ।
स्व. सुनीता जैन और डॉ. नरेन्द्र मोहन जी का प्यार हमेशा मिला। अगर थोड़ा लिख पाई हूँ तो इन सब के प्यार की वजह से।

इस नॉवेला की पहली पाठक थी मेरी छोटी बहन आशा दत्त और उसे ठीक लगा।

मायामृग जी की बहुत आभारी हूँ, उन्होंने मेरे पिछले दोनों संग्रह प्यार से छापे और इस नॉवेला को छापने की जहमत भी उठा रहे हैं।

अब यह प्रयास आपके सामने- आदर और आभार सहित !

‘स्वप्निल द्वीप मानहीगन‘ मायामृग जी की  Generosity से कुछ अच्छा ही बन पाया है- आपके सामने है।

हारुकी अब मेरे लिये वैसे हो गये हैं जैसे-‘निर्मल वर्मा‘ की कोई भी किताब जब जी चाहा उठाई और बार बार पढ़ने बैठ गयी या उषा प्रियंवदा की कोई कहानी ।

इस नॉवेला के पात्र और कहानियां काल्पनिक हैं। इनका सच्चाई से उतना ही रिश्ता है, जितना मेरे और ‘हारुकी मुराकामी‘ के बीच। हम जैसे लोग जब किसी को चाह रहे होते हैं - तो पूरी तरह उसी के होते हैं रहते हैं- बसते हैं-

-कमला दत्त

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महानहीगन उपन्यास पुस्तक से

घावों की लंबी फेहरिस्त

अब वो गहरे घाव नहीं है। पर कुछ जख्म बराबर खुल-भर, भर- खुल ज्यादा गहरा गये हैं, कुछ ज्यादा ही।

मेरे मन में जपानियों की तरह अंतिम क्रिया का बोला है। अंतिम क्रिया घर की आम चीजों की। उन चीजों की जो कब की टूट चुकी हैं। काम नहीं करती। पुराने टोस्टर्स, आईपैड, कम्प्यूटर्स, 220 वोल्ट वाली इलेक्ट्रिक इस्त्रियां, टूथब्रश, कॉफी का परकोलेटर और टूटी तश्तरियां, प्यालियां, प्लेटें, सूप बाउल, टूटी तश्तरियां हाथ की चित्रकारी वाली।

मेरे घर के पिछवाड़े में बरसों से एक कब्रिस्तान रहा है। इन टूटी चीजों का, जो अब काम नहीं करती, कर पाती। ‘मडाना‘ यसू, की मां की सीमेंट की मूर्ति के सामने, मैं, मडाना- उन्हें आशीर्वाद देती माफ करती। मडाना टूटी चीजों को माफ करती और मुझे मेरी लापरवाही के लिए।

टूटे गैजेट्स के बीच कुछ बर्तन जिनके तलुए जले हुए। यह खुला कब्रिस्तान है। सभी-की-सभी चीजें दिख रही हैं, बिखरे हुये, टुकड़े, अंग्रेजी चाइना के, उसमें कुछ लोमाजेस। लोमाजेस फ्रांसीसी, अंग्रेजी नहीं लमाज तो फ्रांसीसी ही। उन पर बिखरी फूल-पत्तियां किसी कारीगर की कला, उन पर जमी धूल। मिट्टी, कभी कभार कोई फूटता अंकुर किसी जिद्दी पौधे का। मुझे हमेशा गैजेट्स से डर लगा है। मशीनें मुझे डराती हैं, घर की हो, लेबोरेटरी की, जहां मैंने बरसों काम किया है।

मुझे कबाड़ियों की तरह चीजें इकट्ठी करने की आदत है और मैं टूटी चीजों को बड़ा संभाल कर रखती हूं प्यार से सहेज कर। पुराने टेप रिकार्ड्स, रिकॉर्ड प्लेयर्स जो अब काम नहीं करते। संगीत की मशीनें जिनकी वायर्स अब नये प्लग्स में नहीं फंसती, तारें बेकार, प्लग्स न काम करने वाले। संगीत सुनने की मशीनें जो बरसों पहले पुरानी करार दी गई हैं। मैं सभी को बहुत सहेज कर रखती हूं।

मैं कबाड़न हूं। मुझे टूटी चीजें, बेकार चीजें इकट्ठा करने की आदत है। मैं पुरानी स्मृतियां भी बहुत सहेज कर रखती हूं, जिनकी स्मृतियां मैं सहेजे हूं उनमें से कुछ तो मर चुके हैं, कुछ अभी जीवित। मैं लोगों की कहानियों के जीवन के रिश्तों के टुकड़ो को भी बहुत सहेज कर रखती हूं और जब-तब वहां पहुंच जाती हूं। बार-बार वहां पहुंचती हूं वो यादें जो अब मेरे लिये एक दम बेकार, जिनका मेरी अब वाली जिंदगी से कोई ताल्लुक नहीं, जिनका मुझे कोई फायदा नहीं।

पुरानी इस्त्रियां, जो 110 वॉट्स पर भी काम करें और 220 वॉट्स पर भी एक स्विच के थोड़ा-सा इधर-उधर करने पर। पुरानी इस्त्रियां किसी खास यूरोपियन ट्रिप से पहले खरीदी गई। अब तो हर होटल में हेयर ड्रायर उपलब्ध, इस्त्रियां उपलब्ध। जो मांगे, हाजिर।

तुम्हारे जहन में गुजर रही है उस हैसपैनिक औरत की छवि। उधार ली इस्त्री फ्रंट डेस्क पर लौटाती और साथ याद आ गई उस ट्रिप की स्मितियां, गंदी बस, रुक-रुक कर चलता एयर-कंडीशनर, गंदी हवा, बंद सुराख, हवा के लिये छटपटाते फेफड़े, वो हांफते - हांफते गंदी बस का सफर।

मुझे तो खुली जगहें पसंद हैं पहाड़, झरने, वाटर-फॉल। पहाड़ ऊंचे पर इतने भी नहीं कि आप उन पर चढ़ न पायें। जहां आप गिरें भी तो आपको ज्यादा चोट न लगे। जहां मैं भी गिरूं तो ज्यादा चोट न खाऊं। मुझे काफी चोटें लग चुकी हैं। मैं कई पगडंडियों पर गुम हुई हूं पर रास्ता ढूंढ लिया है। अब और चोटें नही। आसान पगडंडियों पर भी नही। आसान पगडंडियां जहां गहरी खाइयां न हो, बूढ़ी हड्डियां देर से जुड़ती हैं। सावधान। सावधानी के संकेत आज का शब्द ‘सावधान‘।








डॉ. कमला दत्त के प्रकाशक :                                          







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