अभिनव इमरोज मई 2023




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कविताएँ

डाॅ. कैलाश आहलूवालिया, चंडीगढ़, मो. 9888072599


क्या सुधारें बेतुकी इस बुनत को

ठूंस ठूंस

भर लिया हमने

बांसुरी जबां में-

शहरी नाद

कोलाहल

चिलपों

ज़िन्दगी की लूट खसूट

हृदयविदारक चीख-पुकार

नदी का शोर

परिंदों का चीत्कार -

चार बजे की

ये थकी हारी सुबहें-

भर्राए हुए गले में बेसुरी धुनें-

अंधेरे घरों सैरगाहों गली कूचों में

संतप्त प्राणियों की बिलबिलाहट,

अनेक उकताहटें सिसकती हुईं-

इधर उधर

सर्वत्र हाहाकार -

इस व्यवसायिक आहत बुलबुल से,

बेहाल मौसम में-

अनबुझी आग में तड़फती

वीरान बस्तियों को

क्या बुहारें-

बेतुकी इस बुनत को

कहां तक उधेड़ें

क्या बुनें फिर

क्या करें इसका

इसे कैसे संवारें -

चिड़ियाँ जो आ बैठती थीं

आँगन में

चोगा चुनने

धागों में बुनीं रंगीन आशायें

जंगल में साफ-पाक बहती हवाएं

और बाँहें फैलाती दिलकश फिजायें -

सुबह की लालिमा

चली आती थी

बूढ़ी काकी सी

गांव की पगडंडियों पर

टेकती लाठी-

खटखटाती प्यासी लहर सी

पौर के भारी भरकम

किवाड़ से संलग्न 

सदाव्रत रसोईघर में

लपलपाती चाय की प्याली सी -

गौरैया के पंखों की

सिहराती सरसराहट-

घुंघुरुओं की रुनझुन-

किसी झाड़ी से

घुट कर

किसी कीड़े की

बांसुरी की पंच-सुरी धुन -

सभी पर

अजब सी पाबंदियां

अब सिर्फ मेंढकों की टर्र टर्र -

नदी रूठी

सिकुड़ कर बैठी है

कंदराओं में-

कनेर एक दम चुप

बुरांस उदास

मेड़ मेड़ सूखी

घास और माटी की

मीलों तक बिछी

खदरैल चादर -

दूध की खाली मटकियां

सूखी बाउलियाँ सरोवर

शून्य में कुछ

डरावनी भभकियां

भयभीत स्वर -

सुबह के इन बुदबुदाते

अधमिचे भ्रामक क्षणों में

रात के जीर्ण हुए सपनों को

कैसे सियें हम

बेवजह बिखरे हुए जीवन को

कैसे जियें हम -

कांच के इन अनगिनत

टुकड़ों को

बटोर कर

माटी के कूजों में भर-

कैमरे में

कुओं और पगडंडियों की

मनोहर दृश्यावलियों को-

नदी की अकुलाहटों

पंछियों के कलरव को

अर्धचेतन में भर

क्या करें हम -

चले आये हम

परदेस में-

बेच कर

घर द्वार कुएं रास्ते-

बाप- दादाओं के खेत

गेहूं की बालियां

और खलिहान-

लोहे की पतली पटरियों पर 

सेंटीपीड सी रेंगती

मालगाड़ी की छुक छुक

पगडंडियों को रौंदते

नन्हें खुरों की टुकटुक -

मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे

नदी के तीर ,नहरें

छोड़ आये थोड़े से सुख के लिये

पारस्परिक रिश्ते अपने पराये -

बदल कर अपना भेस

घिनौना सा मुखौटा पहन

इंद्रधनुषी सपने संजोकर

आँखों में अब-

जो कुछ भी बचा है शेष ,

उसे छोड़ कर

कहीं और

चीथड़ों में लिपटे

बौराये से

कहां जाएँ हम।


हमने जिया था अपने समय में पूरा गांव

हमने खो दिया सब कुछ

अब है नहीं कुछ पास हमारे

आप को बतलायें क्या-

मित्र जो अब तक

सब के सब हमारे पास थे

हर स्थिति में साथ थे

हम गिर पड़ें तो

थाम लेते थे हमारा हाथ

उठा लेते थे कन्धों पर-

अंगुली पकड़

पहुंचा देते थे घर तक

प्यार इतना था परस्पर -

कभी सोचा न था कि

हालात बदलेंगे तो

चले जायेंगे हम सब

अपने अपने रास्ते-

हम ने बरसों तक

संभाले रखा वह बांस-

टिका था जिस पर

हमारा विश्वास

टिकी थी आस की बुनियाद -

वह सांझा चूल्हा

जब सुलगता था

सांझी आग की

मीठी तपिश में -

बहुत मजबूत था

पक्की दीवारों सा -

दुल्ला भट्टी का वह जादुई गीत

और हरिण की थिरकन

वह रुनझुन पांव नर्तक के

वह मादक चाल दुल्हन की -

हमने जिया था पूरा गांव

पूरा दरिया

पूरा पेड़ पीपल का

पूरा आस्मां

धरा पूरी-

संस्कृति और सभ्यता भी -

कथाओं के वे लम्बे सफर

वे झील के मंजर-

शिखर के पार से आते

झांझोटियों के

मदभरे वे स्वर -

कोई जला के रखता था

कंदील अपने मन की ,

कहीं भटक न जाएं

हमारे मीत बालपन के -

संभाल के रखी है याद

हम ने उन सब की

अपनी पिटारियों में -

उस काल के

दो बहुत प्रिय मित्र

छोड़ गए संसार-

छोड़ गए पीछे

यादें हजार -

खट्टी मिट्ठी बातें

मीरा बाई के गीत

देश के विभाजन की

करुणामयी कहानियां

नहर के किनारे

सैर की बातें

कुछ आम और आड़ुओं

की चोरियों के किस्से

कुछ अनार के दानों सी

फूटती कविताएं -

कुछ क्रांतियों और संधियों की

भेद भरी बातें -

घोंघे और सीपियाँ बीनते

वे नन्हे हाथ

वे रेत पर छपते

पैरों के निशान -

वे रातें घनेरी

वे उलटे पांव चलतीं

भयावनी चुड़ैलें -

वह रास्ता रोके

भूत प्रेत बैताल

वे झिलमिल से

भ्रामक उत्सव-

वे डर , वे संशय

वे झूठ मूठ भ्रांतियां -

वे दिन सुहाने यूं ही गंवा के

इक उम्र यह खरीद ली हमने

हार कर बेपनाह दौलत

मासूमियत खो दी हमने -

जो बच गया था शेष-

इतिहास विश्वास पुराण

वह अब कट रहा है

गाजर मूली समान -

परोसा जायेगा

स्वादिष्ट भोजन सा

किसी दिन हमारे सामने ही -

हम दधीचि नहीं

इस लिए

सह न पाएं गए ये सब -

पर प्रश्न है कि

दुश्मन से सामने खड़े हैं 

क्या करें हम ?

इस भगदड़ में हम ने

हार दिये गांव

हार दिए शहर

कुछ सड़कें

 कुछ पगडंडियां भी

कुछ लेखक और कवि

नहरें और दरिया

कुछ फल और सब्जियां भी

कुछ दोस्त कुछ शत्रु भी

कुछ अपने कुछ पराये भी -

अब गिन रहे हैं

अपने अपने आंगन से

जुगनुओं से चमकते

अनगिन सितारों को -

कौन से हैं इन में से

जो हम से विलग होकर

जा बैठे अजनबियों से

दूर के जहान में -

और हम हैं कि

यहां

उनकी बाट जोह रहे हैं।

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                  संपादकीय



‘‘...कहानी एक बात होती है जो घटना-स्थितियों के कलात्मक संयोजन और तदनुरूप भाषा के ज़रिए कही जाती है। बात को अर्थसक्षम और प्रभावपूर्ण बनाने की प्रतिभा और युक्ति नहीं है तो कथाकार के नए से नए कथ्य और विचारों की पाठक के लिए कोई सार्थकता नहीं रह जाती। भाषा को एक सार्थक बात में तब्दील करने की कला विरले कथाकारों में होती है। 

‘फ़िराक़’ ने ठीक ही कहा है- ‘सब में कहाँ बातों के क़रीने!’

भाषा विचार का साधन है। भाषा का इस्तेमाल लापरवाई से करने का मतलब है विचार में लापरवाई।’’ 

-अलेक्सी टालस्टाॅय

साभार: कहानी: एक संवाद, जानकी प्रसाद शर्मा, यश पब्लिकेशंस, दिल्ली

इस अंक में एक कहानी है- ‘बाडी’ (घर/हवेली) जिसकी लेखिका हैं सुश्री एकता अमित व्यास। इस कहानी में ‘बात’ है, ‘भाषा की मिठास और रवानगी है।’

समर्पण, अपनत्व, ईमानदारी का बखान भावुकता से भरा हुआ है। ‘एंग्लो अमेरकन’ का मुलम्मा लेखिका ने ऐसे उतारा जैसे चितरी वाले केले का छिलका। भारत आने पर भीम जी के परिवार को यहां के लोग गंदे, जाहिल और बेशर्म लगे। भीम जी की गै़रहाजरी में घर की साफ सफाई और रखरखाव देख कर भीम जी की पत्नी, बेटी और दो बेटे हैरान रह गए। लेकिन वह हसमुख को एक नौकर समझते हुए, जिसे तनख्वाह मिलती है, घर बिजली पानी मुक्त है इस लिए उसे काम करना ही होगा। यह भाव भीम जी के परिवार के चेहरों पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था। 

कोरोना के प्रवेश को इस कहानी में हसमुख- केयरटेकर का परिवार ईमानदारी से ओतप्रोत समर्पण भाव के नुक्ते को नुमायां करने में जो मार्मिक दृश्य पेश किया है उससे भीम जी के परिवार के दृष्टिकोण का पलड़ा केवल हसमुख और उसके परिवार की तरफ ही नहीं झुका था बल्कि यहां के अपनत्व से लबरेज परिवेश के प्रति भी बदल गया। और वह हवेली को बेचने के फैसले को भी तर्क करके अमरिका वापिस चले गए।

सेवा और समर्पण भारतीय वैदिक संस्कृति का मूल भााव है जो हसमुख और उसके परिवार के संस्कारों में परिलक्षित होते हुए दिखा है। सुश्री एकता अमित व्यास ने हसमुख को हमारी समृद्ध संस्कृति का महत्वपूर्ण प्रतिनिधि घोषित कर दिया है। 

यही सद्भाव तो हमारे पूर्वज पूरे विश्व में फैलाना चाहते थे। भद्रशीलता के संदेश हमारे शास्त्रों में भी निहित है। 

।। ‘‘कृणवन्तो विश्वमार्यम्’’ ।।

सारे संसार को भद्र (आर्य) बनाओ !


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लघुकथा 

 श्री राकेश गौड़, नई दिल्ली, मो. 9818974184


कन्या पूजन

बचपन में गाँव में माँ को नवरात्रि में अष्टमी के दिन कन्या पूजन करते हुए देखता था। एक बार उत्सुकतावश माँ से पूछा तो उन्होंने बताया कि चैत्र और शारदीय नवरात्रि में कन्या पूजन का महत्व है। नवरात्रि की अष्टमी-नवमी तिथि को कन्या पूजन किया जाता हैं। इसमें छोटी कन्याओं को माता का स्वरूप मानकर इनकी पूजा की जाती है और दक्षिणा देकर आशीर्वाद लिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्रि का व्रत कन्या पूजन के बिना पूरा नहीं होता है। नवरात्रि की अष्टमी - नवमी तिथि के दिन लोग अपने घरों में छोटी कन्याओं को बुलाकर कन्या पूजन करते हैं। इसे कंजक पूजा या कुमारी पूजा भी कहा जाता है। 

कुछ वर्ष बाद पिताजी व्यवसाय के सिलसिले में परिवार सहित दिल्ली आ गए। एक कॉलोनी में मकान किराए पर लिया। जैसे ही नवरात्रि आई तो माँ को यह चिंता सताने लगी कि गाँव में तो सब एक दूसरे को जानते थे, कन्याएँ पड़ोस से ही आ जाती थीं और कन्या पूजन सम्पन्न हो जाता था। अब यहाँ तो पड़ोस में भी कोई नहीं जानता, ऐसे में नौ कन्याएँ कहाँ  से मिलेंगी। माँ ने अपनी चिंता एक पड़ोसन से साझा की तो उन्होंने कहा, “बहन जी, चिंता ना करें अष्टमी- नवमी के दिन तो सोसायटी में मेला सा लग जाता है। नजदीक ही एक जे जे कॉलोनी है, वहाँ से काफी बच्चियाँ आ जाती हैं। आप आराम से कंजकों को भोजन करा कर दक्षिणा दे सकती हैं। कंजक शब्द माँ के लिए नया था पर वह समझ गयीं कि यहाँ दिल्ली में कन्या को ही कंजक कहते हैं। 

ख़ैर, अष्टमी के दिन माँ ने हमेशा की तरह सुबह-सुबह स्नान करके प्रशाद तैयार किया और माता को भोग लगाया। माँ ने मुझे कहा, “बेटा, देख तो अगर बाहर कुछ कन्या हों तो नौ कन्याओं को बुला ले ताकि कन्या पूजन करके दक्षिणा दे दूँ।” मैं बाहर निकला तो देखा कि लगभग पचास बच्चे कॉलोनी में घूम रहे थे। पड़ोस वाली आंटी की बात याद आयी, वास्तव में यहाँ मेले जैसा माहौल ही था। बच्चे अपने सबसे अच्छे कपड़े पहन कर सजधज कर आए थे। सबके हाथ में एक पोलीथीन की थैली थी। जैसे ही कोई आता दिखायी देता, बच्चे उस तरफ दौड़ने लगते। बड़ा मुश्किल था, नौ बच्चों का चयन। मना करने के बाद भी दस-पंद्रह बच्चे साथ हो लेते थे। तभी एक और आंटी दिखाई दी तो बच्चे उनकी तरफ दौड़ लिए। 

उधर पार्क में दूसरा ही नजारा था। जिन बच्चों के पेट और थैली भर चुके थे, वे पार्क में झूले पर झूल रहे थे या एक दूसरे के पीछे दौड़ रहे थे। शायद दूसरे राउंड की तैयारी थी। तभी माली दौड़ता हुआ आया और बच्चों को बाहर जाने के लिए कहने लगा। बच्चे भयभीत होकर भागने लगे। एक छोटी बच्ची गिर गयी और उसकी चप्पल दूर जा गिरी। दुविधा में थी, चप्पल उठाए या माली से बचे। वह रोते हुए चिल्लाई, “ओ भाई, रुक जा”। पर भाई तो खुद माली से ड़र कर भाग रहा था। मैंने माली से कहा, “भैया, खेलने दो ना इनको, ये कोई  रोज-रोज थोड़े ही आते हैं।” माली ने कहा, “बेटा, कमेटी का हुक्म है, मैं क्या करूँ ?” मैं समझ नहीं पाया, क्यों ये बच्चे एक दिन भी पार्क में खेलने का आनंद नहीं उठा सकते। कॉलोनी में नया होने के कारण मैं कुछ नहीं कह पाया किंतु यह मेरी समझ से परे था कि जिन कन्याओं का पूजन कर प्रशाद व दक्षिणा दी जा रही है, वे पार्क में खेल भी क्यों नहीं सकती। 

इतने में माँ खिड़की से झांक कर बोली, “बेटा, कहाँ रह गया, जल्दी से कन्याओं को लेकर आ, देर हो रही है।” माँ की आवाज मेरा ध्यान भंग हुआ और मैं नौ कन्याओं को लेकर घर आ गया। माँ ने उन बच्चियों की ओर देखा। देश के उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम भाग से बच्चियाँ हमारे घर में कन्या पूजन के लिए विराजमान थीं। माँ, जो गाँव में पड़ोस की बच्चियों को ही कन्या पूजन के लिए बुलाती थी, इन बच्चियों को कौतूहल से देख रही थी। कोई चारा न देख कर माँ ने कन्या पूजन किया, भोजन कराया व सबको दक्षिणा दी। मैं मन मुग्ध होकर, इस अनोखे कन्या पूजन को देख कर सोच रहा था, “ यही है हमारी धार्मिक-सांस्कृतिक ‘विविधता में एकता’ का प्रत्यक्ष प्रमाण। इन बच्चियों को ऐसा भोजन यदा-कदा ही मिलता होगा। माँ दुर्गा का असली आशीर्वाद तो शायद इन बच्चियों के पूजन और तृप्ति के बाद ही मिलेगा।” माँ भी मेरी मुस्कान का रहस्य अब तक शायद समझ गई थी।

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सुश्री निरुपमा सिंह, जनपद बिजनौर (उत्तर प्रदेश)

ईमेल: nirupma.singh32@gmail.com


‘‘पलाश के वो फूल’’


पलाश के वो फूल

जो बिखर गए थे 

बेतरतीब होकर 

चारों ओर धरा पर


बन कर सेज सपनों की

लुभाते अक्सर मुझे 

आज अंजुरी में भर कर 

सहेज लिए हैं मैंने सभी 


कोमलता से बटोर कर

बाँध लिए हैं मजबूती से

अपने कोरे आँचल में 

पलाश के सुर्ख-श्वेत फूल


मानों श्वेत-लालिमा युक्त

बेल बूटियों से सुसज्जित  

चद्दर बिछा दी हो प्रेमी ने

प्रेयसी की प्रतीक्षा में ।

वहीं दूसरे छोर पर बेबस

हरसिंगार चला रहा बैन 

बुला रहा इशारे से 

उसकी मोहक अदाएं

बरबस खींच रहीं अपनी ओर


दोनों का ही आकर्षण 

चरम सीमा पर 

दोनों ही मनमोहक 

इत जाऊँ या उत जाऊँ

वाह! प्रकृति के इशारे 

कुछ भी समझ न पाऊँ।।




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संस्मरण


सुश्री नीता व्यास, अहमदाबाद, मो. 94295 21857 


धर्म और संस्कृति के वाहक हिंदू मंदिर द हिंदू टेंपल, अटलांटा 


भारत की पहचान सदा से धर्म एवं संस्कृति ही रही है। यह दोनों एक दूसरे के पूरक है। जहाँ धर्म संस्कृति का आधार है, वहीं संस्कृति धर्म की संवाहिका है। हमारे धर्म एवं संस्कृति ने ही भारतीय मूल्यों को जीवंत रखा है, और इसी वजह से भारत की पहचान पूरी दुनिया में है। भारतीय संस्कृति में धर्म केवल एक प्रतीक नहीं है, बल्कि समग्र चेतना का एक स्तंभ है। धर्म वास्तव में सभ्यता और सुसंस्कृत धीरता का पर्याय है। अत्यंत खुशी होती है जानकर कि विश्व के देशों में भारतीयों ने हमारे धर्म एवं संस्कृति को अपनी पहचान बना कर भारत की गरिमा को गौरवान्वित किया है।

बेटे माधव से मिलने हम पति पत्नी संयुक्त राज्य अमेरिका के जॉर्जिया राज्य में आए हैं। वह अटलांटा शहर में रहता है। उसके साथ हम इस राज्य में धूमने लायक स्थलों की मुलाकात ले रहे हैं। उन स्थलों के बारे में जानने की कोशिश भी कर रहे है। आज अटलांटा महानगरीय क्षेत्र के ‘रीवरडेल’ में स्थित दक्षिण भारतीय स्थापत्य शैली से बने हिंदू मंदिर के दर्शन करने का अवसर प्राप्त हुआ।

सर्व प्रथम ‘रीवरडेल’ के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। इसकी भी एक कहानी है। रिवरडेल के नाम से जाना जाने वाला क्षेत्र गृहयुद्ध से पहले बसा हुआ था। रिवरडेल की स्थापना 1886 में हुई थी, जब रेलमार्ग को उस बिंदु तक बढ़ा दिया गया था। 1908 में इस क्षेत्र को, उसके मूल स्वामी श्री डब्ल्यू.एस। रिवर्स के नाम पर, ‘रिवरडेल’ नाम दिया गया। रिवरडेल अब उपनगर अटलांटा महानगरीय क्षेत्र का एक हिस्सा है। अटलांटा, क्लेटन काउंटी के 

‘‘दक्षिणी क्रिसेंट‘‘ में शहर के दक्षिण में लगभग 10 मील और हर्ट्सफील्ड-जैक्सन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से लगभग पाँच मील की दूरी पर स्थित है। एक संपन्न और बढ़ता हुआ शहर है। 

‘रीवरडेल’ में दक्षिण भारतीय शैली में बने इस अति सुंदर एवं भव्य मंदिर के बारे में कुछ कहने से पहले दक्षिण भारतीय मंदिरों की बात करनी है। पल्लवों ने द्रविड़ शैली को जन्म दिया और चोल काल में द्रविड़ शैली की वास्तुकला में मूर्ति कला और चित्रकला का संगम हो गया। दक्षिण भारतीय, द्रविड़ पद्धति के मंदिर आयताकार होते हैं तथा शिखर पिरामिडाकार। इस शैली के मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये बहुत ऊँचे तथा बहुमंजिला और विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं। मंदिर में अंदर गर्भगृह होता है, जिसमें मुख्य देवता की मूर्ति स्थापित होती है। गर्भगृह के ऊपर टावरनुमा रचना होती है जिसे ‘शिखर’ या ‘विमान’ कहते हैं। दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविड़ शैली कहलाती है। भारत में कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक द्रविड़ शैली के मंदिर पाए जाते हैं।

विदेशी धरती पर ऐसा ही एक भव्य मंदिर देखकर दिल को बहुत सुकून मिला। इस मंदिर की स्थापना 19 अक्टूबर 1984 में की गई थी। मंदिर में दो विभाग है। प्रथम विभाग में भगवान श्री वेंकटेश्वर जी और दूसरे विभाग में भगवान शंकर जी विराजमान हैं। भगवान शंकरजी के मंदिर के सामने नंदी जी की विशाल प्रतिमा स्थापित है। इन मंदिरों में देवी पद्मावती, हनुमान जी, गणेश जी, काल भैरव एवं नवग्रह देवताओं की मूर्तियाँ भी स्थापित की गई हैं। मंदिर के भीतर एक बड़ा सभागृह एवं बाहर प्रांगण विशेष रूप से आकर्षित करते हैं। विशाल प्रांगण में बगीचा भी है। दक्षिण भारतीय शैली में इस मंदिर की मूर्तिकला, दीवारों और स्तंभों के शिल्प की उत्कृष्टता अत्यंत प्रभावशाली है।

आज कोई विशेष त्योहार का दिवस नहीं था और कामकाजी दिवस होने की वजह से मंदिर में इक्का-दुक्का दर्शनार्थी ही मिले। शाम का समय था, इसलिए आरती के दर्शन का लाभ भी मिला।

मंदिर आराध्य देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना के लिए निश्चित किया हुआ देवस्थान है। अपने अहंकार को छोड़कर हम इस पवित्र स्थान ईश्वर की आराधना करते हैं। भारत की प्राचीन स्थापत्य कला में मंदिरों का विशिष्ट स्थान है। भारतीय संस्कृति में मंदिर निर्माण के पीछे यह सत्य छुपा था कि ऐसा धर्म स्थापित हो जो जनता को सहजता और व्यवहारिकता से प्राप्त हो सके। इसकी पूर्ति के लिए मंदिर स्थापत्य का प्रादुर्भाव हुआ। मंदिरों का अस्तित्व और उनकी भव्यता गुप्त राजवंश के समय से देखने को मिलती है। गुप्त काल से हिंदू मंदिरों का महत्व और उनके आकार में उल्लेखनीय विस्तार हुआ तथा उनकी बनावट पर स्थानीय वास्तुकला का विशेष प्रभाव पड़ा।

प्राचीन काल में वैदिक ऋषि जंगल के अपने आश्रमो. में ध्यान, प्रार्थना और यज्ञ करते थे। लोकजीवन में आत्मचिंतन, मनन और शास्त्रार्थ का अधिक महत्व था। फिर मंदिर के निर्माण होने लगे। मंदिर ही सामाजिक केंद्रों के महत्वपूर्ण स्थल बने। अटलांटा में स्थित यह मंदिर भी प्रवासियों, विशेषकर भारतीयों के लिए मुख्य आकर्षण का केन्द्र है।





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संस्मरण


डॉ. मीरारामनिवास, गांधीनगर गुजरात, मो. 9978405694


‘‘नारी गरिमा’’ (बदलते परिवेश के संदर्भ में)

शिवपुराण वायवीयसंहिता में ब्रह्मा द्वारा शिव भगवान के अर्धनारीश्वर रुप की स्तुति का उल्लेख मिलता है। जो श्रेष्ठ नर और सुंदर नारी के रुप में एक ही शरीर धारण करके स्थित थे। उन कल्याणकारी शिव और शिवा को ब्रह्मा ने नमन किया। हम उन्हीं शिव और शिवा की संतान हैं। अर्थात हर नारी शिवा और हर नर शिव है।

हमारी वैदिक सनातन संस्कृति ने नारी को मान देते हुए कहा ‘‘जिस घर में नारी को मान दिया जाता है वह घर देवस्थान बन जाता है। नारी का माता रुप खूब महिमा मंडित किया गया। माता को देव कहा, माता को भूमि से भी भारी और स्वर्ग से भी बढ़कर कहा है।

वैदिककाल में नारी के प्रति भेदभाव नहीं था। विदुषी अपाला और घोषा इसके सुंदर उदाहरण हैं। पौराणिक नारी पात्रों में कुछ नारियां सीता, अनुसूईया सावित्री, वृंदा, तारा, मंदोदरी आदि अपनी गरिमा के लिए जानी जाती हैं।तत्कालीन समाज में ऋषियों, मुनियों, गुरुओं की पत्नियां उनके साथ आश्रम एवं गुरुकुल में रहा करती थीं।

किंतु समय बदला समाज में विसंगतियों का दौर आया और नारी सहगामिनी से कामिनी बन गई। उसे आध्यात्म मार्ग का रोड़ा समझा जाने लगा। यहां तक कि उसे दोयम दर्जा दे दिया गया। आज हालात हमसे छुपे नहीं हैं।

संविधान ने महिलाओं को भारतीय नागरिक के सारे अधिकार पुरुषों के समान ही दिए हैं। किंतु समाज की सोच नारी के प्रति सकारात्मक नहीं है। जन्म से ही उसके प्रति भेदभाव शुरु हो जाता है। लालनपालन, शिक्षा आदि में लड़कों जैसे अवसर नहीं दिए जाते। ससुराल में बहू बेटी में फर्क किया जाता है। दहेज को उसके मान के साथ जोड़ा जाता है। पुत्र और पुत्री के जन्म को भी उसकी कोख के साथ जोड़ा जाता है। सामाजिक गतिविधियों और व्यवहार में पुरुष से कमतर समझा जाता है।

आज समाज ने जिन बेटियों को बेटों की तरह अवसर दिया है उन बेटियों ने प्रतिमान स्थापित किए हैं। हर कार्यक्षेत्र में कदम रखें हैं।नारी घर बाहर दोनों जिम्मेदारी भलि संभाल रही हैं। भाई न होने की सूरत में माता पिता की जिम्मेदारी उठा रही हैं।

बदलते परिवेश में नारी की गरिमा को बहुत ठेस पहुंच रही है। समाज में बनती क्रूरतम घटनाओं से बहन, बेटी अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित रहने लगी हैं। नाबालिग बालिकाओं का शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न, कन्याओं का अगवा होना, उनके साथ दरिंदगी होना, उन्हें मौत के घाट उतारा जाना सब कुछ अति भयावह है। कामकाजी युवतियों संग दफ्तरों में अभद्र व्यवहार, घर में बहू बेटियों पर अत्याचार के आंकड़े निरंतर बढ़ रहे हैं।

आखिर क्यों नारी के प्रति नर के मन में प्रदूषण बढ़ रहा है? वे कौनसी बुराईयां हैं? वे कौनसी नकारात्मक शक्तियां हैं? जिनके चलते नारी अस्मिता खतरे में पड़ी है। हर समाज को मंथन करना चाहिए। समय रहते बच्चों और युवाओं के मन से बुराईयों को दूर करना होगा।

नारी अस्मिता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है समाज में नैतिक मूल्यों की गिरावट और पुरुष के मूल स्वरूप में बदलाव।पुरुष अपने शिव स्वरूप को भूल गया है। पूर्वजों से मिले संस्कार संवेदनशीलता, दया, करुणा आत्मसंयम को भूल गया है। मानव की आत्मिक शक्ति घटने से संस्कारित रुप धूमिल हो गया है। प्रेम और ज्ञान के अभाव में मानव दृष्टि कुत्सित हो गई है। मानवीय मूल्यों का पतन नारी का दुश्मन बना है।हम भौतिक सुख सुविधाओं में आगे बढ़ गये हैं, किन्तु संस्कार, सदाचार से पिछड़ रहे हैं। भौतिकता का भयानक भूत वासना का विकराल वेताल और अश्लीलता का असुर मानव मन पर सवार हो गया है।

 भौतिकता के चलते मनुष्य आध्यात्मिक राह से भटक गया है। सद्गुण, सद् व्यवहार, सद्विचार भूल कर विनाश पर उतर आया है।

भावनाएं, संवेदनाएं खत्म हो रही हैं।मानव उत्श्रृखंल मर्यादाहीन हो चला है।

 चलचित्र, ड्रामा सीरियल, सोशल मीडिया के माध्यम से हो रहे देह प्रदर्शन, अश्लील हरकतों को देख मानव मन विकृत हो गया है। यौन शोषण, बलात्कार जैसी घटनाओं को अंजाम दे रहा है। अपरिपक्व मानसिकता के चलते नारी अस्मिता से खिलवाड़ हो रहा है।

अमर्यादा और गिरते मानवीय मूल्यों के चलते विवाहेत्तर संबंध, तलाक, बलात्कार, शारीरिक मानसिक हिंसा मारपीट अभद्र व्यवहार, प्रेम के नाम पर धोखा, नन्ही बच्चियों संग दरिंदगी, कन्याओं को देह- व्यापार में धकेला जाना जैसी अमान्य घटनाएं सामान्य हो चली हैं।

नर को पूर्वजों की तरह शास्त्र सम्मत सदाचार संस्कार रखना होगा। अध्यात्म की ओर मुड़ना होगा। हर माता पिता को बचपन से ही अपने बेटे बेटियों को मानवीय मूल्यों का पाठ पढ़ाना होगा। बच्चों को बचपन से ही सौहार्दपूर्ण और धार्मिक वातावरण में रखना होगा। माता बहन, बुआ, मौसी, भाभी, आस -पड़ोस सब के प्रति आदर भाव सिखाना होगा। बच्चों को भौतिक सुख संपत्ति के अलावा दया, मैत्री, करुणा, परोपकार, अहिंसा, प्रेम जैसे मानवीय गुणों की संपत्ति देनी होगी।

अपनी संतानों को अच्छे बुरे की पहचान सिखायें।हर तरह के भेदभावपूर्ण व्यवहार से बचायें। हर समाज अपने बेटे बेटियों को बचपन से ही धार्मिक साहित्य के पठन पाठन में रुचि पैदा करे। रामायण, गीता एवं गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित उत्तम साहित्य घर में रखें। खुद पढ़ें बच्चों को भी पढ़ाएं। संस्कार के बीज बचपन से ही डालें जाते हैं। बच्चों की संगत और दोस्तों का ध्यान रखें, सदा अच्छी संगत में रहने की शिक्षा देते रहें। मानवता के कार्य खुद करें, बच्चों से करवाएं।

नारी को स्वयं सचेत रहना होगा। नारी को अपनी गरिमा बचाने के लिए कुछ बातों को ध्यान में रखना होगा। स्वतंत्रता और स्वछंदता में फर्क करना होगा। स्वतंत्रता का मतलब अपनी स्वभावगत मर्यादा को लांघना कतही नहीं है। महिलाओं और बेटियों को वर्तमान परिवेश में बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है। प्रेम और वासना के अंतर को समझना होगा। प्रेम स्वार्थ रहित अलौकिक होता है। स्वार्थ और शारीरिक आकर्षण प्रेम नहीं वासना है। आत्म संयम और अनुशासन का पालन करना होगा। अपने बड़े बुजुर्ग, अपने माता पिता से अपनी गतिविधियों की भागीदारी करते रहना चाहिए, उनसे परामर्श और मार्गदर्शन लेना चाहिए। माता- पिता अपने बच्चों का सदा भला ही चाहते हैं।

सोशल मीडिया पर सतर्कता संतुलन की जरूरत है। अपनी निजता को बचाए रखें। अंजान लोगों पर जरुरत से ज्यादा भरोसा न करें। सकारात्मक सोच वाले अच्छे लोगों की संगत में रहें। सुंदर साहित्य का पठन पाठन करें। अध्यात्म से जुड़ें। अपने जीवन के लक्ष्य को पाने के लिए कभी भी संस्कारों से समझौता न करें।

हर मातापिता को चाहिए कि अपनी बेटी को शिक्षा, आत्म विश्वास, स्वनिर्भरता जैसे शस्त्रों से सुसज्जित करें। नारी को अपनी सुरक्षा हेतु बने कानून के बारे में जानकारी होनी चाहिए। वारदात होने पर पुलिस मदद लेने से हिचकिचाना नहीं चाहिए।



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कहानी

सुश्री एकता अमृत व्यास, गांधीधाम, गुजरात, मो. 9825205804

वाड़ी 

फरवरी 2019, अमरीका के न्यूयॉर्क शहर में सपरिवार बस गए भीमजी भाई बरसों बाद, अपनी अंग्रेजी सभ्यता में पली-बढ़ी और सदा अंग्रेजियत का कवच ओढ़े रहने वाली पत्नी रमा बेन और अपने दोनों बेटों को साथ लेकर गुजरात के कच्छ जिले के गाँव माधापर में अपनी वाड़ी बेचने के उद्देश्य से आए। उस समय भारत समेत कई देशों में कोरोना महामारी ने दस्तक दे दी थी, लेकिन उनके दोनों बेटों और रमा बेन की जिद थी कि हम कच्छ में नहीं रहते हैं, तो वहाँ संपत्ति होने का क्या फायदा? जितनी जल्दी इसे बेच सकें तो पैसा काम आएगा। भीमजी भाई के लाख मनाने के बावजूद भी वे तीनों नहीं माने। अंत में, भीमजी भाई ने हार मान ली और संपत्ति दिखाने और बेचने का वादा कर, वे परिवार को लेकर यहाँ आए। कच्छ और अपने देश भारत की शायद यह उनकी आखिरी यात्रा होगी, यह सोच कर उनका दिल डूबा जा रहा था।

माधापर दुनिया का सबसे अमीर गाँव है। इस गाँव के हर परिवार का कोई न कोई व्यक्ति लंदन, कनाडा, अमेरिका, केन्या, युगांडा, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में बस गया है। विदेशों में ये लोग खूब पैसा कमाते हैं, लेकिन देश में आज तक किसी ने अपना घर या खेत नहीं बेचा। आज भी वे कोई न कोई सामाजिक कार्यक्रम के बहाने देश में आते रहते हैं। भीमजी भाई एकमात्र अपवाद थे जो कई वर्षों तक अपने वतन नहीं आए थे। माधापर स्थित उनका आलीशान घर फलों के पेड़ों से घिरा हुआ था। आसपास की कृषि भूमि में केसर आम, चीकू, खजूर आदि वृक्ष उगाए गए थे, इसलिए इस घर को ‘‘भीमजी भाई की वाडी‘‘ के नाम से जाना जाता था।

इधर भारत पहुँचते ही..। ‘अरे इतने गंदे, जाहिल लोग, बेशर्म लोग....’ बार-बार पत्नी और बेटों के मुँह से सुनकर भीमजी मन ही मन चिढ़ने लगे, फिर भी चुप रहे। जानते थे कि कहने से कुछ न होगा, दस बातें और सुननी पड़ेगी। हसमुख वाडी में स्थित उनकी हवेली की देखभाल करता था, जो अपने परिवार के साथ वहाँ वाडी में ही रहता था। परिवार में दो बच्चे, पत्नी और उसकी माताजी थी। हसमुख की बेटी अपनी माँ के काम में हाथ बँटाती थी। बेटी बड़ी हो रही थी तो उसके लग्न की चिंता करना भी लाजिमी था।

भीमजी भाई और उनके परिवार के आने से पहले, घर की साफ-सफाई हो चुकी थी। गोदडी और पथारी, घर की एक-एक चीज एकदम चोखी। एक बार के लिए भीमजी का परिवार सब कुछ बड़े करीने से सजा हुआ देखकर हैरान रह गया, लेकिन वह नौकर है, उसे तनख्वाह मिलती है, घर, बिजली, पानी सब कुछ मुफ्त है, इसलिए उसे काम करना ही होगा। यह भाव भीमजी भाई के परिवार के चेहरों पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था। 

थके हुये भीमजी भाई किसी और चिंता में डूबे हुए थे। खटिया पर बैठते ही हसमुख की बेटी घर की बनी छाछ ले आई, साथ ही रात का बना बाजरी का ठण्डा रोटला। बरसों बाद छाछ के साथ रोटला खाकर मन तृप्त हो गया। अनायास ही हसमुख की बेटी को आशीर्वाद दे डाला, ‘खुश रहो बेटा, तुम बहुत समझदार हो।‘ रमा बेन और बेटों को हसमुख की बेटी की तारीफ करना पसंद नहीं आया। यह उनके चेहरे से साफ नजर आ रहा था।

भीमजी भाई के कहने पर हसमुख ने ब्रोकर को पहले ही बुला लिया था। उनसे बातचीत हुई, कुछ फाइनल नहीं हुआ। वे दो-चार दिन बाद आने का कहकर चले गए। अब भीमजी भाई का मन इस वाडी से जुड़ी अतीत की मधुर स्मृतियों में गोता लगाने लगा। आज भी यह वाडी कितनी सुंदर है! हसमुख और उसके परिवार ने इसे कितने जतन से संभाला है। सुविधाओं से युक्त यह विशाल भवन, थोड़ी ही दूरी पर वह कुआँ। आसपास की कृषि भूमि में आज भी तरह-तरह की सब्जियाँ, तरह-तरह के फूलों के पौधे उगाए जा रहे हैं। विभिन्न फलों के पेड़ आज भी वैसे ही खड़े हैं, जैसे भीमजी भाई से पूछ रहे हैं, ‘कहाँ थे इतने दिन?’

उनकी आँखें भर आईं। उन्हें याद आया कि कैसे वे वाड़ी में हर मौसम का लुत्फ उठाते थे। मौसम के अनुसार चना, अमरूद, पपीता, पोंक, भुट्टे या उंधिया की पार्टियाँ होती थीं। लोक गीतों को सुनने के लिए आयोजित ‘डायरा’ के कार्यक्रम से मिलने वाले आनंद को कोई कैसे भूल सकता है? बारिश के दिनों में कभी-कभी दोस्त मिलकर चैसर खेला करते थे। कभी देर रात तक भजन या तो कभी डांडिया रास के कार्यक्रम भी होते थे। भीमजी भाई की आँखों से आँसू टपकने लगे। उन्होंने जल्दी से आँखे पोंछ लीं।

रात खाने में मेथी के थेपले और आलू की सूखी भाजी के साथ लहसुन की चटनी और छाछ देख कर भीमजी भाई का मन भर आया। मोहनथाल देख कर तो उनकी आँखें फिर भर आईं। हसमुख की माताजी को अभी तक भीमजी भाई की पसंद याद थी! याद आया कि हसमुख की माताजी जिन्हें वे बा कहते थे, हमेशा उनकी माताजी के साथ रसोई में व्यस्त रहती थीं। क्या दिन थे वे जब पूरी वाड़ी गुलजार रहती थी! बा खाना बनाने की शौकीन और बापू जी खाने के। सो अक्सर दावतें भी होती रहती थीं। 

खाट पर लेटे-लेटे भीमजी भाई को कितनी ही बातें याद आती रहीं। नींद नहीं आई तो उठकर बाहर आ गए। ध्यान से देखा तो घर के बाहर खड़ा नीम का पेड़ कुछ मुरझाया हुआ दिख रहा था। इसके आसपास बना चबूतरा भी टूटा हुआ था। उस पर गिरे सूखे पत्ते मानो उसकी बदहाली ढकने की नाकाम कोशिश कर रहे हों। श्रीनाथजी की हवेली और पास में खड़ें फलों के पेड़ अभी भी उसी मुस्तैदी से खड़े थे मानो शिकायत कर रहे हों, ‘अब क्यों आए हो? जिस मिट्टी में खेल-कूद कर जवान हुए, आज उसी मिट्टी को बेचने आए हो, उसकी महक भूल गए हो? क्या भूल पाओगे इस माटी को, गाँव को, हमें?’ अचानक ‘ओ भईला...‘ की आवाज सुनाई दी, पीछे मुड़कर देखा तो कोई नहीं था! न जाने वो बचपन के दोस्त आज कहाँ होंगे?

कुछ देर इधर-उधर घूमने के बाद वे वापस आकर बिस्तर पर लेट गए। बाड़े में बंधी गायो के गले की घंटियों की आवाज से जागे तो देखा कि पूर्व दिशा में सूर्य उदय हो चुका था और और केसरी उजाला चारों तरफ फैलने लगा था। पत्नी और बेटे तीनों अपनी अपनी चारपाई पर सोये थे। भीमजी भाई ने उन्हें उठाना उचित नहीं समझा। हाथ-मुँह धोकर बैठे ही थे कि हसमुख की बेटी चाय ले आईं, साथ ही रात का बचा हुआ ठण्डा रोटला भी। भीमजी भाई फिर चैंक गए। रात का खाना खाते वक्त उनकी माताजी बापूजी को कहती थीं, ‘मारा भीमजी ने ठण्डो रोटलो भावे छे, एना माटे एक राखजो हों।’ एक ही रोटला बचता तो उनके लिये छुपा कर रखतीं। बा उन्हें कभी भीमजी नहीं बल्कि ‘बाबू भाई’ कहा करती थीं। अपना यह नाम सुने हुए बरसों हो गए। चाय के साथ धीरे-धीरे रोटला चबाते हुए भूली-बिसरी यादों में खो गए।

दिन चढ़ आया, अब तक कोई क्यों नहीं उठा? थोड़ी चिन्ता सी हुई। करीब जाकर देखा तो तीनों को तेज बुखार था। भीमजी भाई को याद आया कि अब मार्च का महीना है और पूरी दुनिया में कोरोना महामारी ने अपनी रफ्तार पकड़ ली है। वे बहुत घबरा गए। डॉक्टर की तलाश में निकल पड़े, पर इस कोरोना काल में डॉक्टर मिलता भी तो कहाँ? करीब दो घंटे तक इधर-उधर भटकते रहे और वापस आ गए। आकर देखा तो हसमुख की बेटी, पत्नी और उसकी माँ, मुँह पर कपड़ा बाँधे तीनों को गर्म काढ़ा पीला रहे थे। रमा बेन की तबीयत कुछ ज्यादा ही ख़राब थी। उनकी साँस फूल रही थी। अब तो उन्होंने उल्टी ही कर दी।

हसमुख की पत्नी ने हाथ में प्लास्टिक की थैली बाँधकर उलटी साफ कर दी। हसमुख ने न जाने कहाँ से डॉक्टर की व्यवस्था कर दी थी। उन्होंने रमा बेन और बेटों के केस की जानकारी लेकर ऑनलाइन ही दवाइयाँ लिखवा दी। हसमुख ने ही दवाइयों का इंतजाम किया। उसका पूरा परिवार सेवा में लगा हुआ था। भीमजी भाई को परेशान देख हसमुख ने कहा, ‘साहेब डरने की कोई बात नहीं। आप चिन्ता न करें। हम सब आपके साथ हैं।

बात फैलते ही आसपास के लोग भी यथासंभव मदद के लिए आगे आने लगे। अपने साथ खाने-पीने की चीजें, फल और देसी दवाइयाँ भी लाए। एक मिनट के लिए भीमजी भाई भूल गए कि वे इस देश को छोड़कर जा चुके हैं। उनके मन में कुछ चुभने लगा। भारतीय संस्कृति जिसे उनका परिवार भूल चुका था। अतिथि देवो भवः की यह भारतीय परम्परा अभी भी अक्षुण्ण देखकर उन्हें एक सुखद अनुभूति हो रही थी। अनपढ़ हसमुख का परिवार नौकरों की तरह नहीं अपनों की तरह भीमजी भाई के परिवार की सेवा कर रहा था।

अमेरिका जैसे देश में व्यक्तिवाद के दृष्टिकोण ने तो सार्वजनिक गुणों को ही छीन लिया है। कोई किसी को नहीं पूछता। यहाँ तो सारे पड़ोसी भी परिवार जैसे लगते हैं। अपने वतन की, अपने लोगों की, अपनी मिट्टी की बात ही अलग है। इस बात को अब भीमजी भाई का पूरा परिवार महसूस कर रहा था। नतीजा यह हुआ कि उनके परिवार ने ही वाड़ी बेचने का इरादा रद्द कर दिया।

बेटों को महसूस हुआ कि इस मिट्टी में कितना अपनापन है, जो विदेश में खोजने पर भी नहीं मिलता। विदा लेते समय हसमुख और उसका परिवार रो पड़ा। हसमुख ने कहा, ‘‘अच्छा किया साहेब, वाडी बेचने का बिचार छोड़ दिया। ये वाड़ी नही आपके बा-बापूजी है।’ र्‘माँ-बाप को कोई बेचता है’ भला!’ भीमजी भाई ने बेटों और रमा की ओर देखा। इससे पहले कि वे कुछ कहते, रमा बोल उठी, ‘सच कह रहे हो हसमुख भाई, हम इस मिट्टी से दूर रहकर इसकी महक भूल गए थे। अब हर साल आएंगे ताकि दोबारा भूल न जाएँ।‘ बेटों ने भी हँसकर हामी भर दी। हसमुख की माताजी के पैर छूकर सभी एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गए। 


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कविता


श्री अमृत पाल सिंह ‘गोगिया’

किचलू नगर, लुधियाना, मो. 99887 98711 

ईमेल: gogiaaps@gmail.com



बूढ़ा हो चुका हूँ


आज मैंने ख़ुद को बड़े करीब से देखा 

मेरी टांगों की चमड़ी पर झुर्रियाँ पड़ चुकी थी 

चमड़ी पर नीले चकत्ते के निशान भी उभर आये थे 

एक-आधा गुल्म भी नजर आया 

नाखून भी अभद्रता से बढ़ते जा रहे थे 

मोजे के निशान और सूजन भी मौजूद थी  

इसका मतलब मैं अब बूढ़ा हो चुका हूँ 

मैंने आईने में खुद को देखा 

बालों का रंग भी सफेद होने को चला था  

बचे-खुचे बाल भी आँख मिचैनी में लगे थे  

आँखों की रोशनी भी जवाब दे रही थी 

कभी-कभी नैन मटक्का भी चल रहा था 

चश्में के अंदर से आँखें कुछ ढूंढ रहीं थी   

इसका मतलब मैं अब बूढ़ा हो चुका हूँ 

सुबह उठकर बैठा तो थोड़ी मुश्किल हुई 

झुकना चाहा तो कमर ने जवाब दे दिया 

थोड़ी कसरत करनी चाही तो हाथ रुक गए 

उठकर चलना चाहा तो पाँव के तलवे चीख पड़े 

उनकी परवाह छोड़ी तो घुटनों ने जवाब दे दिया 

बैठना चाहा तो थकान ने घेर लिया 

इसका मतलब मैं अब बूढ़ा हो चुका हूँ 


किसी की बीबी अब अच्छी नहीं लगती 

अपनी पत्नी का साथ अच्छा लगने लगा है 

मैं उसकी हाँ में हाँ मिलाने लगा हूँ 

बात-बात पर मैं उसको समझाने लगा हूँ 

अगर मैं पहले चला गया तो उसका क्या होगा 

इस बात की चिंता कि कैसा उसका सफर होगा 

इसका मतलब मैं अब बूढ़ा हो चुका हूँ 

जब बच्चे दादू कहकर लिपट जाते हैं 

और अपनी आपबीती मुझको सुनाते हैं 

उनकी चापलूसी पूरी तरह समझ आती है 

फिर भी उनकी हर बात बहुत सुहाती है 

क्या चाहिए यह तो पहले से जानता हूँ 

आखिर दादू हूँ उनके रग-रग को पहचानता हूँ 

इसका मतलब मैं अब बूढ़ा हो चुका हूँ 

जब लोग मिलते हैं तो बड़े सम्मान से बुलाते हैं 

मेरे नाम से परिचित होने पर भी इठलाते हैं 

क्या कहते हैं उसको...

मैं कहना भूल जाता हूँ 

फिर मैं खुद पर ही बहुत गुर्राता हूँ 

चश्मा पहना हुआ होता है और उसे ढूँढ़ने जाता हूँ 

फिर बड़े गर्व से सब को बताता हूँ 

इसका मतलब मैं अब बूढ़ा हो चुका हूँ 

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आयुर्वेद


डॉ. आशुतोष गुलेरी, हिमाचल प्रदेश, मो. 9418049070


स्वास्थ्य एवं आहार 

मानव जीवन में स्वास्थ्य को किस प्रकार परिभाषित किया जाए, इस विषय पर एक अंतिम निर्णय पर पहुंच पाना हथेली पर सरसों उगाने के समान कठिन कार्य है। क्योंकि स्वास्थ्य को परिभाषित करने हेतु हमें उसकी व्याख्या में विज्ञान-सम्मत उन समस्त बिंदुओं को समाहित करना होगा जो समग्र स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण तो हों ही, तथा आवश्यकता पड़ने पर जिनकी समीक्षा भी की जा सके। परंतु स्वास्थ्य एक ऐसा जटिल विषय है जिस की परिभाषा व्यक्तिगत स्वास्थ्य की दृष्टि से परिवर्तित होते रहने की संभावना प्रबल होती है। शायद इसलिए हम स्वास्थ्य की समग्र परिभाषा को लेकर सतत विचारशील हैं। 

इस विषय पर आयुर्वेद में उल्लेखित स्वास्थ्य की परिभाषा मननीय है - 

‘‘समदोषः समाग्नि समधातुमलक्रिया।

प्रसन्नात्मेन्द्रिय मनः स्वस्थ इति अभिधीयते।।’’ सु.सं। 

एक ऐसा शरीर - जिसमें दोषों की समप्रमाण स्थिति विद्यमान है, पचन का महत्वपूर्ण घटक अग्नि, सम्यक रूप में कार्य कर रही है, अर्थात, व्यक्ति को निश्चित समय पर भूख लगती है, जिस प्रमाण में वह भोजन ग्रहण करता है तदानुसार वह भोजन बिना अपाय सुव्यवस्थित तरीके से पच जाता है, तथा शरीर घटकों की स्थिति सम्यक बनी रहती है - ये सब स्थितियां सम्यक अग्नि को दर्शाती हैं; शरीर को धारण करने वाले घटक, धातु - रस, रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा एवं शुक्र - समप्रमाण में विद्यमान हैं; मल, अर्थात मूत्र, विष्ठा, स्वेद - का निष्पादन सुचारू रूप से हो रहा हैं; तथा व्यक्ति की आत्मा संतुष्ट, मन नियंत्रित एवं इंद्रियां अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ हैं - स्वस्थ कहलाता है। समग्र स्वास्थ्य की दृष्टि से इस परिभाषा को स्वास्थ्य की उत्तम परिभाषा कहा जा सकता है। 

आयुर्वेद वास्तव में स्वस्थ जीवन जीने की कला सिखाने का शास्त्र है। जैसे एक भव्य भवन की स्थापना में उपस्तम्भों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, उसी प्रकार जीवन नामक भवन स्वास्थ्य के तीन महत्वपूर्ण उपस्तम्भों पर टिका रहता है। आयुर्वेद में आहार, निद्रा एवं ब्रह्मचर्य को स्वस्थ जीवन के तीन उपस्तंभों की उपमा दी गई है। 

अभिप्राय यह है कि आहार, निद्रा एवं ब्रह्मचर्य के नियमो. का अनुपालन यदि अनुशासनपूर्वक किया जाए तो मनुष्य लंबे समय तक स्वस्थ जीवन का उपभोग अवश्य कर सकता है। इन तीन उपस्तंभों में से आहार को विस्तार से जानने का प्रयास करते हैं। 

आहारः 

आहार शब्द का वास्तविक अर्थ होता है ‘ग्रहण करने योग्य पदार्थ।’ भोजन, जिसे हम शारीरिक धातुओं के संवर्धन एवं पुष्टि हेतु ग्रहण करते हैं केवल उसी को आहार मान लेना उपयुक्त नहीं होगा। भोजन शारीरिक अभिवृद्धि का एक साधन मात्र है, इसकी तुलना में आहार की व्याख्या बेहद व्यापक है। 

शब्द, विचार, भावनाएं, पर्यावरण - ऐसे अनेक घटक हमारे आसपास उपस्थित रहते हैं जिनको हम सतत ग्रहण करते हैं परंतु उस ग्रहण के प्रति या तो सचेत नहीं होते या फिर अज्ञानतावश अनभिज्ञ रह जाते हैं। सामान्य व्यवहार में आहार का अर्थ भोजन, जिसे हम अन्न के रूप में ग्रहण करते हैं, तक सीमित रह जाता है। जो भी हो, आयुर्वेद में वर्णित आहार विषयक उपस्तंभ की परिकल्पना अन्न सहित ग्रहण किए जाने वाले अन्य समस्त द्रव्यों को भी अधोरेखांकित करती है। मगर प्रस्तुत संदर्भ में हम केवल अन्न पर ही विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे। 

वेदों में अन्न की परिकल्पना के संदर्भ में एक सुंदर आख्यान पढ़ने को मिलता है - ‘अन्नो हि वै प्राणिनां प्राणः’ - अर्थात, भोजन ही जीवधारियों का प्राण है। मुंह में रखकर/चबाकर ग्रहण किए जाने वाले पदार्थ को भोजन कहते हैं। ऋग्वेदीय पुरुषसूक्त में उद्धृत परमात्मा विषयक परिचर्चा में पुरुष का लक्षण बतलाते समय मननीय सूक्ति का उल्लेख यहाँ संदर्भनीय होगा - ‘पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् / उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति’ - अर्थात, जो भूत, वर्तमान और भविष्य, तीनों कालखंडों में एक-समान विद्यमान है उस सभी को पुरुष जानो। वह ईश, अमृत तत्व का स्वामी, अन्न से विशेष अभिवृद्धि को प्राप्त होता है। 

उपरोक्त दोनों संदर्भों को जोड़कर देखने पर हम पाएंगे कि वेदों में भी अन्न को शरीरस्थ आत्मा की मूलभूत आवश्यकता बताया गया है। विचारणीय है कि आवश्यकताओं का यदि उपयोगिता के आधार पर उपभोग किया जाए तो सुख की प्राप्ति होती है। परंतु इसके विपरीत, आवश्यकता यदि इच्छा के अनुरूप प्रयोग की जाने लगे तो अपाय होने की संभावना बढ़ सकती है। 

आज के समय में भोजन दुरुपयोग की अवस्था से गुजर रहा है। उस दुरुपयोग का दुष्परिणाम हम बिगड़ते स्वास्थ्य के रूप में अनुभव कर सकते हैं। वैश्वीकरण को भोजन की दुव्र्यवस्था का मूल कारण माना जा सकता है। 

आज हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर चुके हैं जहाँ अपने देश में बैठकर हम विदेश में निर्मित पदार्थों का सहजता से उपयोग कर सकते हैं। विनिर्माण से लेकर तकनीकी तक, समस्त प्रकार का वैश्वीकरण हुआ है। स्थिति यह है कि भोजन का भी वैश्वीकरण हो गया। वस्तुओं के वैश्वीकरण के कारण जीवन जीने के साधन सुलभ बने। परंतु सवाल यह उठता है कि भोजन के वैश्वीकरण से देशज जनता को किस प्रकार का लाभ प्राप्त हुआ? 

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि भौगोलिक परिवेश की अनुकूलता के अनुसार प्रकृति हमें अन्न उगाकर देती है। पर्यावरण के अनुरूप उपजा हुआ वह अन्न उस परिवेश में जन्म लेने वाले प्राणियों की प्रकृति के अनुकूल होता है। प्रकृति के अनुकूल उपजा हुआ अन्न हमारे स्वास्थ्य का  संवर्धन एवं संरक्षण करने में महत्वपूर्ण भूमिका वहन करता है। यही देशज अन्न की विशेषता है। 

आहार की विशेषता के संदर्भ में चरक संहिता, सूत्रस्थान के 28 वें अध्याय में एक सुंदर आख्यान है - ‘आहारसंभवं वस्तु रोगाश्चाहार संभवाः / हिताहितविशेषाश्च विशेषः सुखदुःखयोः।।’ च। सू। 28/45 - अर्थात, आहार से ही शरीरोपयोगी तत्व उत्पन्न होते हैं, तथा रोगों की उत्पत्ति का मूल कारण भी यही आहार है। हिताहार का सेवन सुखकारी होता है, जबकि अहित के सेवन से दुःख की उत्पत्ति होती है। अतः हमें आहार के प्रति सदैव सजग रहना चाहिए। 

प्रश्न प्रस्तुत होता है कि हमारे भोजन की व्यवस्था कैसी हो? अन्न की प्रकृति एवं प्रवृत्ति के आधार पर भोजन की कल्पना के नियम आयुर्वेद में विस्तारपूर्वक बताए गए हैं। आगे हम ‘अष्टौ आहारविधि विशेषायतन’, अर्थात आहारविधि के आठ आवश्यक नियमो. पर चर्चा करेंगे। 

1. प्रकृतिः 

किसी द्रव्य का जो स्वभाव-विशेष होता है उसे प्रकृति कहते हैं। भोजन के संबंध में यह स्वभाव उसमें निहित गुणों, जैसेः पचने में लघु या गुरुय पचन के उपरांत परिणाम - गर्म या ठंडा इत्यादि घटकों पर निर्भर करता है। अतः स्पष्ट है कि अन्न की प्रकृति को समझकर उपभोग किया गया भोजन स्वास्थ्य का अनुशीलन करने वाला होता है। मसलन कुछ भोज्य पदार्थ पचने में जड़ होते हैं, जैसेः उड़द, राजमाष, खोया, पनीर, दही इत्यादि। ऐसे पदार्थों को गुरु आहार कहा जाता है। ये पदार्थ पचन प्रक्रिया में सामान्य से अधिक समय लगाते हैं, तथा पचन के समय में शारीरिक भारीपन, तंद्रा आदि का निर्माण करते हैं। ऐसे पदार्थों के उपभोग का नियम यह है कि इन्हें कम मात्रा में ग्रहण किया जाए। 

कम मात्रा में उपभोग किया गया गुरु भोजन सुगमता से पच जाता है। गुरु भोजन की अधिक मात्रा अग्नि का नाश करती है, तथा पाचन प्रणाली से संबंधित रोगों का कारण बनती है। इसके विपरीत लघु आहार का सेवन यदि अधिक मात्रा में भी कर लिया जाए तो अपाय होने की संभावना कम रहती है। 

इसी प्रकार भोजन के अन्य गुणों को ध्यान में रखते हुए भोजन की कल्पना का विचार किया जाना आवश्यक है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रकृति के विषय पर भोजन के साथ-साथ उसका उपभोग करने वाले व्यक्ति की प्रकृति का भी विचार अवश्य कर लेना चाहिए। 

मनुष्य की साधारण तौर पर तीन प्रकार की प्रकृति होती है। लोग वात-प्रधान प्रकृति के होते हैं। वे कुछ भी खा-पी लें, उन पर वजन नहीं चढ़ता। दुबले पतले इंसान होते हैं ये और शारीरिक क्रियाओं की गति भी तीव्र होती है। वे तेज-तेज चलते हैं। शीघ्र चीजों को ग्रहण कर लेते हैं परंतु उतनी ही शीघ्रता से भूल भी जाते हैं। 

वात-प्रधान प्रकृति की अग्नि हमेशा वेरिएबल होती है, पाचन शक्ति भी स्टेबल नहीं होती। ऐसे लोग यदि गुरु भोजन करें तो उनका पाचन तंत्र हमेशा बिगड़ा ही रहता है। इसीलिए वात-प्रधान प्रकृति के लोगों को सीमित मात्रा में थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करना चाहिए। जब पहले किया हुआ भोजन पच जाए तभी दूसरा भोजन करना चाहिये।

दूसरे पित्त-प्रधान प्रकृति के लोग। इन लोगों का वजन बहुत जल्दी बढ़ जाता है, प्रयत्न करने पर कम भी जल्दी हो जाता है। इनकी त्वचा बहुत संवेदनशील होती है इसलिए त्वचा सबंधी विकारों से पीड़ित रहते हैं। बाल जल्दी सफेद हो जाते हैं और उन्हें गुस्सा भी बहुत जल्दी आता है। ऐसे लोग मांस मदिरा का प्रयोग करें तो शरीर क्रिया प्रणाली संबंधित समस्याएं बढ़ सकती हैं। ऐसे लोगों को मांस मदिरा जैसा भोजन, जो पित्त बढ़ाते हैं, ग्रहण नहीं करना चाहिए। 

तीसरे कफ-प्रधान प्रकृति के लोग होते हैं। साधारण तौर पर मोटे होते हैं। ऐसे लोग अक्सर शिकायत करते हैं कि पानी पीने पर भी उनका वजन बढ़ जाता है। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों को गुरु आहार बहुत सीमित मात्रा में ग्रहण करना चाहिए। लघु आहार ऐसे व्यक्तियों के लिए लाभकारी हो सकता है। 

2. करणः 

भोज्य पदार्थ के नैसर्गिक गुणों में जो संस्कार किया जाता है उसे भोजन नियमावली के संदर्भ में करण कहा जाता है। प्रथम संस्कार को समझ लेते हैं। ‘संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते’ - द्रव्य के नैसर्गिक गुणों में अन्य गुणों को लाने की प्रक्रिया संस्कार कहलाती है। उदाहरण के लिए सत्संग भी एक संस्कार प्रक्रिया है। 

भोजन के संदर्भ में यह संस्कार पानी या अग्निसंयोग से, या फिर मंथन की प्रक्रिया, जैसेः दही का संस्कार (मंथन) करने पर मक्खन पैदा होता है, इत्यादि माध्यमो. से किया जाता है। इसी प्रकार सुगंधित द्रव्यों या मसालों इत्यादि का प्रयोग करके हम भोज्य पदार्थ में भिन्न गुणों का समावेश करते हैं। कुछ द्रव्यों के गुणों में समय बीत जाने से संस्कार होता है, जैसेः दो साल पुराना चावल पचने में लघु बन जाता है। 

संस्कार की प्रक्रिया पाक कला का अभिन्न अंग है। पहले घरों में अन्न-संस्कार प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित की जाती थी। घर की बुजुर्ग महिलाओं को परंपरा एवं संस्कृति के अनुरूप अन्न-संस्कार का विस्तृत अनुभव रहता था। परंतु भोजन के वैश्वीकरण ने हमें पारंपरिक खानपान से दूर कर दिया। 

पारंपरिक खानपान की यही विशेषता थी कि ऋतु के अनुसार आवश्यक पोषक तत्वों के अनुरूप, सुसंस्कृत भोजन पकाया जाता था। भोज्य पदार्थों की प्रकृति को शरीर के अनुकूल परिवर्तित करने हेतु विशेष मसालों का प्रयोग किया जाता था। मगर इधर जबसे मसालों का बेतहाशा उपयोग केवल स्वाद बढ़ाने की दृष्टि से होने लगा है तभी से पेट संबंधित अनेक रोगों में बढ़ोतरी सामने आने लगी है। 

करण या संस्कार किस-किस प्रकार से होता है? जल से संस्कार - जल से हम आहार के गुणों को कैसे परिवर्तित कर सकते हैं? उदाहरण के लिए चावल पचने में भारी होता है परंतु जब उसका जल के साथ संस्कार कर देते हैं, अर्थात चावल को जल से बार-बार धोते हैं तो चावल का स्टार्च निकल जाता है। पकने के बाद अपेक्षाकृत लघु हो जाता है। संस्कार का दूसरा तरीका है अग्नि संयोग। चावल को कुकर या तपेले में पकाने से पहले यदि उसे ड्राई रोस्ट करें तो चावल पचने में हल्के हो जाते हैं। साथ ही, भोज्य पदार्थ में जो बहुत सारी पेस्टिसाइड लगी रहती है, पानी से धो लेने पर वो पेस्टिसाइड्स भी अलग हो जाती हैं। यह भी जल संस्कार है। 

मंथन भी एक संस्कार है, जैसेः दही पचने में भारी होता है। वैसे बता दूँ कि वर्षा ऋतु में दही का प्रयोग नहीं करना चाहिए। हमारे पेट की अग्नि उसे पचा नहीं सकती। परंतु यदि उसी दही में जल मिलाकर मथ लें तो इस क्रिया से मक्खन अलग हो जाता है, तथा छाछ तैयार हो जाती है। छाछ सुपाच्य है, जल्दी पच जाती है। 

संस्कार देश अथवा स्थान से भी होता है, जिसे देश संस्कार कहते हैं। कच्चे सीताफल को तोड़ कर उसे पकाने के लिए चावल के बीच में दबा कर रखते हैं। सीताफल पक जाता है। कांजी बनाने के लिए किण्वन की आवश्यकता होती है। अतः द्रव्यों को मिट्टी के घड़े में रखकर उष्ण स्थान पर रखा जाता है। यह देश संस्कार है। 

एक और संस्कार है - वासना। कुछ खाद्य पदार्थ विशिष्ट गंध के कारण खाने में स्वादिष्ट नहीं लगतीं, उन्हें स्वादिष्ट बनाने के लिए वासना संस्कार किया जाता है। हमारे यहाँ मीठे चावल पकाते समय गुलाब जल का प्रक्षेप दिया जाता है, ताकि उसमें से अच्छी खुशबू आये। वैसे ही सब्जी में हींग का तड़का लगाया जाता है। हींग पाचन क्रिया को सुगम बनाता ही है तथा पेट में गैस भी जमा नहीं होने देता। हींग की सुगंध मुँह में लार का उत्सर्जन करती है। लार एक प्रकार का पाचक एंजाइम है। 

काल या समय भी एक संस्कार है। कुछ भोज्य पदार्थ नैसर्गिक गुरु होते हैं। यदि कुछ समय बीत जाने पर उनका उपयोग किया जाए तो वे लघु हो जाते हैं। जैसे चावल के संदर्भ में कहा जाता है कि नया चावल बहुत गुरु होता है। अतः नया चावल खाने के लिए बेहतर नहीं माना जाता। दो वर्ष पुराना चावल औषधीय गुण युक्त हो जाता है। कोई भी व्यक्ति उसे आसानी से पचा सकता है। यह काल या समय के साथ घटित संस्कार है। अतः भोजन में संस्कार के महत्व को गौण नहीं कहा जा सकता। 

3. संयोगः 

दो या दो से अधिक द्रव्यों को मिलाने की प्रक्रिया संयोग कहलाती है। भोजन के अनेकविध प्रकार संयोग विधि से बनाए जाते हैं। आहार कल्पना में द्रव्यों की संयोग-क्रिया का प्रविधान भोजन की गुणवत्ता बढ़ाने की दृष्टि से किया गया था। मगर संयोग के दुरुपयोग के कारण हम अपने स्वास्थ्य से वियोग कर बैठे हैं। 

भिन्न गुणों को धारण करने वाले द्रव्यों को एक दूसरे से मिलाए जाने पर उनमें से एक तीसरी परिकल्पना बनती है। उस कल्पना में समस्त द्रव्यों के उत्कृष्ट गुणों का समावेश अपेक्षित होता है। परन्तु द्रव्यों का संयोग करते समय भिन्न द्रव्यों के गुणों में विद्यमान नैसर्गिक आकर्षण-विकर्ष का ध्यान रखना अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु है। अन्यथा द्रव्यों के संयोग से अपाय होने की संभावना बढ़ जाती है। 

मैंगो शेक तथा ऐसी ही अनेक आहार कल्पनाओं का उपयोग सामान्य चलन है। दूध और आम को मिलाकर मैंगो-शेक बनाया जाता है। दूध का रस मधुर (मीठा) है जबकि आम अम्लीय होता है। मधुर दूध अम्लीय आम से मिलकर विपरीत आहार बन जाता है। यह संयोग पचने में अत्यंत गुरु तथा अपायकारक है। केले और दूध का संयोग फिर भी चल सकता है क्योंकि दोनों का रस मधुर है। परंतु उसे भी पचाने के लिए प्रखर पचन शक्ति का होना अत्यंत आवश्यक है। 

अधिक मात्रा में गुरु भोजन का उपयोग तथा व्यायाम का अभाव अनेक रोगों का कारण सिद्ध होती है। मोटापा उनमें से एक है। मोटापे के साथ अन्य बीमारियां पीछे-पीछे चली आती हैं। भोजन को कुपाच्य बनाने में बिना सोचे समझे दो द्रव्यों के संयोग का बहुत बड़ा हाथ है। अतः इसका बहुत ध्यान रखना चाहिए। जैसेः मछली और दूध का संयोग त्वचा रोगों को निमंत्रण देता है। ऐसे अनेक विषमाहार हैं जिनके बारे में जानकारी जुटाकर हम स्वास्थ्य का रक्षण कर सकते हैं।

4. मात्राः

मात्रा अर्थात क्वांटिटी। मात्रा के संदर्भ में चरक संहिता में कहा गया है - ‘मात्राशी स्यात्।’ च. सू. 5/3 अर्थात, प्रत्येक व्यक्ति को उपयुक्त मात्रा में ही भोजन ग्रहण करना चाहिए। ऐसे में उपयुक्त मात्रा क्या है, इसका निर्धारण कैसे किया जा सकता है? अतः कहा गया - ‘आहारमात्रा पुनरग्नि-बलापेक्षिणी।’ च.सू. 5/3 - भोजन पचाने की शक्ति (अग्नि) पर आहार की मात्रा निर्भर होती है। 

साधारण नियम निर्धारित करने की दृष्टि से कहा जा सकता है कि आहार की जो मात्रा भोजन करने वाले व्यक्ति की वर्तमान स्थिति में बाधा न पहुंचाए, उसे उपयुक्त मात्रा कहा जा सकता है। जैसेः भोजन करने के बाद बहुत अधिक खट्टी डकारें आना, पेट में अनावश्यक भारीपन तथा खाना मुंह को आना इत्यादि का अर्थ हो सकता है कि भोजन उपयुक्त मात्रा से अधिक ग्रहण किया गया। ऐसे में भोजन की मात्रा को कम कीजिए, लाभ होगा। 

रोगों की चिकित्सा केवल औषधियों से होती है, यह सत्य नहीं। भोजन की उपयुक्त मात्रा का उपयोग अनेक रोगों का अचूक इलाज है। भोजन की मात्रा को कम करना कठिन कार्य नहीं, परंतु हमारा मन हमें अदृश्य बेड़ियों में जकड़े रखता है। 

भोजन के संबंध में हम मानसिक दृष्टि से संतुष्ट होना चाहते हैं, आहार ग्रहण करने की शारीरिक क्षमता एवं उसकी उपयोगिता का हमारा दृष्टि में कोई मूल्य ही नहीं ! मन संतुष्ट नहीं होता इसलिए यह भी खा लो, वह भी खा लो, तब तक सब कुछ खाते जाओ जब तक पेट गले तक न भर जाये। और जब अपाय हो जाए ,तो इलाज के लिए दवा खोजी जाए। बुद्धिमान लोगों को मन की इस प्रवृत्ति से परहेज करना चाहिए। अतः स्वस्थ रहने के लिए भोजन उपयुक्त मात्रा में ही ग्रहण करें। 

5. देशः

देश अर्थात रहने का स्थान। पारिस्थितिकी के अनुसार धरती अनुकूल भोज्य सामग्री का उत्पादन करके देती है। स्थान विशेष के प्राणियों को वातावरण के अनुकूल भोजन ग्रहण करना चाहिए, उत्तम स्वास्थ्य की यही कुंजी है। स्थान के अनुसार भोजन के गुणों में भी परिवर्तन होता है। 

आहार के संदर्भ में देश का अभिप्राय क्षेत्र-विशेष से है। जिस देश में हम पैदा होते हैं, पलते-बढ़ते हैं - आहार की गुणवत्ता तथा उपयोगिता उस स्थान की परिस्थितियों पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए हिमालय की तलहटी में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों की गुणवता श्रेष्ठ होती है, इसीलिए हिमालयी क्षेत्र में उगी हुई औषधियों को प्रामाणिक तौर पर उपयोगी माना जाता है। ऐसे ही मरुस्थल में पैदा होने वाला अन्न सामान्यतः लघु होता है। समुद्री क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियाँ स्थानिक पर्यावरण के अनुकूल होती हैं। अतः भोजन देशज होना चाहिए। 

इसके लिए हमें पुराने जमाने की ओर जाना पड़ेगा। बड़े बुजुर्गों से पूछताछ करनी होगी ताकि हम जान सकें कि हमारे क्षेत्र का मूल भोजन क्या है? वह मूल भोजन हमारे शरीर में कभी समस्या उत्पन्न नहीं करता। आप जिस क्षेत्र के रहने वाले हैं, उस क्षेत्र की परंपराओं के अनुरूप भोजन ग्रहण करना लाभदायक होता है। जैसेः गर्म तासीर की होने के कारण उत्तर भारत में सरसों की बहुतायत उपज होने के कारण इस क्षेत्र में सरसों का तेल उपयुक्त है। जबकि दक्षिण भारत में नारियल का तेल उपयोग किया जाता है। देश आधारित भोजन स्वास्थ्य का अनुशीलन करने वाला होता है। 

6. कालः

काल अर्थात समय। आयुर्वेद में काल दो प्रकार से परिभाषित किया गया है - नित्यग काल एवं आवस्थिक काल। नित्यग अर्थात जो सतत गतिमान है। नित्यग काल की गणना ऋतुओं तथा संवत्सर (साल) के आधार पर की जाती है। आवस्थिक काल मनुष्य की अवस्था को इंगित करता है, जैसेः बाल, युवा एवं वृद्धावस्था। 

आहार के संदर्भ में नित्यग काल का अभिप्राय ऋतु अनुसार भोजन से है। जिस ऋतु में जो वस्तु उगती है, प्राकृतिक दृष्टि से वह हमारे शरीर के लिए लाभदायक होती है। ऐसा भोजन हमारे शरीर के लिये औषधि की तरह कार्य करता है। 

ऋतु विपरीत भोजन हमारे शरीर में रोग उत्पन्न करता है। जैसेः गोभी जिस ऋतु में उगती है उस ऋतु में ही खाई जाय तो वह शरीर को कष्ट नहीं देती। परंतु आजकल बारह महीने हर सब्जी उपलब्ध है। उन्हें खरीद कर खाने की हम क्षमता भी रखते हैं। परंतु अनभिज्ञता में ऋतु विपरीत भोजन ग्रहण करने के कारण पेट की समस्याओं से भी जूझ रहे हैं। ऋतु विपरीत भोजन से अपच होती है। अपचन ही हर बीमारी की जड़ है - ‘रोगाः सर्वेऽपि मन्देऽग्नौ...अ. हृ.। अतः हमें काल को ध्यान में रखते हुए, ऋतु के अनुसार, क्षेत्रीय आहार ही ग्रहण करना चाहिए। 

दूसरा काल आवस्थिक है। आयु की अवस्था के आधार पर भोजन की मात्रा प्रभावित होती है। परन्तु अवस्था की आवश्यकता के अनुरूप भोजन की मात्रा को हम ध्यान देने योग्य विषय नहीं समझते। युवावस्था से लेकर बुढ़ापे तक हम भोजन की एक ही मात्रा तथा एक ही स्वरूप अनवरत ग्रहण करते चले जाते हैं। हम ध्यान नहीं देते कि आयु के साथ शारीरिक श्रम की मात्रा लगातार कम होती जाती है। तदानुरूप भोजन की मात्रा के साथ-साथ भोजन की प्रकृति का नियमन भी आवश्यक है। बढ़ती आयु के साथ घटते शारीरिक श्रम को देखते हुए अवस्था अनुरूप भोजन की मात्रा को कम करते जाना स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद आवश्यक कदम है। 

दूसरी ओर, आयु की अवस्था के अनुरूप स्वास्थ्य के अनुपालन हेतु कुछ विशेष परहेज भी आवश्यक हैं। जैसेः बाल्यावस्था में कफ की विशेष अभिवृद्धि होती है। अतः आयु की इस अवस्था में बहुत अधिक मीठा खाने से परहेज करना चाहिए। युवावस्था में पित्त अभिवृद्ध होता है। इसलिए आयु के इस पड़ाव पर खट्टे-तले एवं मसालेदार भोजन को नियंत्रित रखने की आवश्यकता होती है। वृद्धावस्था में वात दोष अभिवृद्ध हो जाता है। अतः वातकारक आहार, जैसेः उड़द, राजमाष, फलीदार सूखी सब्जियां इत्यादि का परहेज करना चाहिए। इस प्रकार नित्यग एवं आवस्थिक काल को ध्यान में रखकर भोजन की परिकल्पना स्वास्थ्य का अनुशीलन करने वाली होती है। 

7. उपयोग संस्थाः

भोजन ग्रहण करने के नियम उपयोग-संस्था के अंतर्गत सम्मिलित किये गए हैं। स्पष्ट है कि हम भोजन नियमावली पर चर्चा करने वाले हैं। इस विषय पर बहुत कहा जाना आवश्यक नहीं है। हमारा विश्वास है कि भोजन नियमावली से संबंधित अनेक बिंदुओं से हम सब भली प्रकार परिचित हैं। फिर भी प्रसंगवश कुछ बिंदुओं को यहाँ उद्घाटित करना समीचीन होगा। 

भोजन बहुत ज्यादा गर्म नहीं होना चाहिए। बहुत ज्यादा ठंडा भी नहीं होना चाहिए। सामान्य गर्म भोजन सुखदायक होता है। भोजन बहुत धीरे-धीरे भोजन नहीं खाना चाहिये। धीरे-धीरे भोजन करने से खाना भी ठंडा हो जाता है और रुचिकर नहीं रहता। भोजन बहुत जल्दी-जल्दी नहीं खाना चाहिए। जल्दी-जल्दी खाने से अपाय होने का खतरा रहता है। भोजन खड़े-खड़े नहीं खाना चाहिए। पहले किये हुए भोजन के पचने से पूर्व नया भोजन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार किये गए भोजन को आयुर्वेद में अध्यशन कहा जाता है। अध्यशन को अनेक बीमारियों का मूल कहा गया है। प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह कैसे पता लगाया जाए कि पिछला भोजन पच चुका है या नहीं? 

इसका एक साधारण उपाय है। जब आपको भूख लगे तो आप आधा कप उबला हुआ पानी घूंट-घूंट कर पियें। ऐसा करने पर शरीर से डकार की प्रतिक्रिया उत्पन्न होगी। उस प्रतिक्रिया में यदि पिछले खाने का स्वाद उपस्थित हो तो अर्थ है कि पिछला भोजन अभी पचा नहीं है। इस स्थिति में भोजन न करना बेहतर निर्णय होगा। इस प्रकार भोजन नियमावली का अनुपालन करके हम अच्छे स्वास्थ्य का सुख भोग सकते हैं। 

8. उपयोक्ताः

आहार का उपभोग करने वाला व्यक्ति उपयोक्ता कहलाता है। ओकसात्म्य को इस उपयोक्ता के अधीन बताया गया है। समय के साथ अहितकर अथवा निषेध पदार्थों का सेवन करते रहने से प्राप्त हुई सामान्यता को ओकसात्म्य कहा जाता है। जैसेः शराब पीना निश्चित ही हानिकारक है। इसके पीने से नशा होता है। परंतु नित्य शराब का सेवन करने वाले व्यक्ति पर नशे का प्रभाव शीघ्र नहीं होता। यह प्रभाव ओकसात्म्य कहा जाता है। इसी प्रकार अनेक हानिकारक वस्तुओं को ग्रहण करते रहने के कारण हमारे शरीर पर उनका दुष्प्रभाव तत्क्षण नहीं दिखाई देता। अतः ओकसात्म्य को उपयोक्ता के अधीन बताया गया है। ओकसात्म्य के आधार पर व्यसनों को शरीर के अनुकूल बना लेना किसी भी दृष्टि से लाभदायक नहीं है। हमें अपनी आदतों में निरंतर सुधार अवश्य करते रहना चाहिए। 

उपरोक्त आहारविधि विशेषायातनों का अनुपालन करके हम एक स्वस्थ जीवनशैली का अनुशीलन कर सकते हैं। आहार को लेकर आयुर्वेद में बेहद विस्तृत वर्णन विद्यमान है। भारतीय जीवनशैली तथा भारतीय जीवनदर्शन, सभी कालखंडों में मानवता के मार्गदर्शक रहे हैं। इसी प्रकार आयुर्वेद जीवन जीने की कला सिखाने वाला उत्कृष्ट विज्ञान है। भारतीय चिकित्सा पद्धति के अनुसार जीवनशैली से संबंधित महत्वपूर्ण शिक्षाओं को अपनाकर हम लंबे समय तक स्वस्थ रहने की कला सीख सकते हैं। 



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कहानी

श्री ओमप्रकाश मिश्र, बांस, रीवा, मो. 9229991900


प्रेम-नेम


‘वह अब तक क्यों नहीं आई? 

इसी एक सवाल ने मन में खदबदाहट पैदा कर रखी है। ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ, जब वह न आई हो। फिर आज ही क्यों..? जाने क्यों मन में अजीब सा खालीपन महसूस हो रहा है। कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा। बेचैनी भी है। ऐसा लग रहा, जैसे कुछ खो गया हो। 

अकेले में मुंह छिपाकर रोने की इच्छा हो रही है, परंतु घर में सबसे बड़ा व जिम्मेदार होने के नाते, वह भी नहीं कर पा रहा हूं। डर है कि रोते हुए कोई देख लेगा तो क्या कहेगा। रो लेता तो शायद मन भी हल्का हो जाता, खैर, जो नहीं कर सकता, उसके लिए अब सोचना भी क्या? 

खुद को बहलाने के लिए बिस्तर पर जाकर लेट गया और नींद का बुलाने लगा कि - ‘हे निद्रा देवी, मेरी आंखों में आकर मुझे इस छटपटाहट से निजात दिला दो।’ मेरे अनुनय पर भी नींद को नहीं आना था और वह नहीं आई। बाहर किसी की पदचाप सुनता या कोई आहट आती तो उठकर उत्सुकता से बाहर झांकता और जब कोई अप्रत्याशित दिखता तो निराशा के साथ बड़ी कोफ्त होती। 

घर में चहल-पहल थी। तरह-तरह के पकवानों की मंहक फैली हुई थी। सभी सदस्य अपने-अपने काम में मस्त थे। किसी के पास फुर्सत ही नहीं, एक-दूसरे की मनोदशा को समझने की। मैं ही बस परेशान, परंतु सबके बीच यूं खुद को बनाए हुये था कि कोई ‘गेस’ नहीं कर सका कि मेरे दिलोदिमाग में उस वक्त क्या चल रहा है? आखिर वह क्यों नहीं आई? कहा तो था आने को? क्या हो गया? कहीं उसने अपना इरादा तो नहीं बदल लिया? यह भी तो हो सकता है कि वाहन ही न मिला हो..कोई साथी न मिला हो..यही सब सोचते-सोचते शाम के चार बज चुके थे। अब तो उसके आने की रही-सही उम्मीद भी जाती रही। फिर बिस्तर पर आकर लेट गया। एक साहित्यिक पत्रिका उठाकर पलटने लगा लेकिन उसके किसी भी पन्ने की कोई भी लाइन ठीक से नहीं पढ़ सका। पत्रिका जोर से तकिये के पास फेंक दी और टीवी चला लिया। उसमें विज्ञापन चल रहा था। चैनल बदल दिया, उसमें भी विज्ञापन था। फिर चैनल बदला, एक के बाद एक कई चैनल बदलता चला गया -‘अरे यह क्या, जो भी चैनल लगा रहा हूं, सब में एक साथ विज्ञापन ही आ रहे हैं।’ अब क्या था, बेचैनी और बढ़ गई - ‘साले सब एक साथ ही...जैसे आपस में अनुबंध कर रखे हों...’ 

गुस्से से टीवी बंद कर दिया और पोर्च पर आकर खड़ा हो गया। सामने की सड़क से निकलने वाले हर किसी को यूं ही देखने लगा। सभी के चेहरों में चमक भरी खुशी थी-मुझमें छोड़कर। जिसको देखो वही सजा-धजा निकल रहा था। लड़कियां भी क्या खूब बनी ठनी नजर आ रहीं थी। तरह-तरह के फैशन व लिबास, उनकी सुंदरता को चार-चांद लगा रहे थे। परंतु उन्हें देखकर मेरे मन में एक तरह की वितृष्णा जन्म ले रही थी। 

आसमान की ओर देखा तो काले-घने बादल बेखौफ मेरा मुंह चिढ़ाते हुए विचरण कर रहे थे। मुझे याद आया कि पिछले 20 दिनों से बारिश नहीं हुई है। काले कलूटे ये बादल बेवजह ही आसमान के सीने में दाल पीस रहे हैं। जिस मौसम में बारिश होनी चाहिये थी। नदी-नाले, ताल-तलैया उफनाने चाहिये थे, उस मौसम में कहीं कोई गड़ही क्या कहें, गड्ढे तक नहीं भरे हैं। इमरजेंसी आ जाए तो ‘सौंचने’ को पानी न मिले। उफ..!, काफी उमस थी मौसम में। गर्मी से जी बेहाल हो गया। मैं अंदर की तरफ भागा-पंखे के पास। वह भी राहत न दे सका। 

मैं और अधिक परेशान हुआ। जाने क्यों, बेवजह ही परेशान व दुखी था। वह नहीं आई तो नहीं आई। उसकी अपनी जिंदगी है और अपनी व्यस्तताएँ? हर बार तो आती थी, इस बार नहीं आई, तो क्या बिगड़ गया। अगली बार आ जाएगी। नहीं भी आयेगी तो यह उसकी मर्जी, उसकी अपनी जिंदगी, अपना निर्णय और...

हम इसी बात को लेकर दिन भर घर में बैठे रहे। कहीं गए भी नहीं। किसी से मिलना-जुलना भी नहीं हुआ। यूं ही, एक छुट्टी भी चली गई। 

वैसे भी अखबार की नौकरी में कहां छुट्टियां मिलती हैं? आदमी बीमार पड़ जाये या फिर बीमार होने का बहाना कर ले और न जाए, तो ही छुट्टी मिलती है। बहुत कम मौके होते हैं, जब मांगने पर छुट्टी मिलती है। अन्यथा हजार सवाल किये जाएंगे। क्यों चाहिये छुट्टी? कहां जाओगो? क्या काम है? कल चले जाना..अरे, उनका बस चले तो चिता में लेटे रिपोर्टर से भी कह दें कि पहले खबर लिख दो फिर मरना-जलना...यह तो होती है अखबार की नौकरी...

सोचा था कि वह आयेगी तो उसके साथ कुछ समय बिताऊंगा। साथ भोजन करेंगे। फिर उसके मन की खरीदारी कर उसे उपहार देंगे। 

साल का एक ही दिन तो है, जब वह आती है और मैं जी उठता हूं। मचल उठता हूं। मुझे अपने जीवित होने का एहसास होता है। जैसे अषाढ़ में पहली बारिश के बाद जमीन में सूखे पड़े निरर्थक बीज भी अंकुरित होकर बाहर निकल आते हैं। हरियरा कर लहराने लगते हैं।

मैं भी कुछ इसी तरह से भोर के पंछी की तरह फुदकने लगता हूं। वह भी तो कमल की तरह खिली-खिली नजर आती है। उस दिन अपने सारे कार्यों से छुट्टी ले लेता हूं। रिश्तेदारों के अलावा किसी का फोन तक ‘रिसीव’ नहीं करता। पूरे समय उसके आगमन की तैयारी करता हूं। महीनों पहले से छोटी-छोटी बचत कर उसके लिए बजट बनाता रहता हूं। बाजार जाता हूं। कपड़े व मिठाइयां खरीदता हूं और भी बहुत सी जरूरी चीजों को बाजार से लाकर इस एक दिन के लिए सहेज के रखता रहता हूं। 

उसका आना मेरे लिए किसी उत्सव से कम नहीं होता। फिर भी वह नहीं आई। यही बात मुझे साल रही थी। नहीं आना था, तो न आती, एक फोन तो कर देती। मैं भी निश्ंिचत हो जाता। कहीं घूमने-फिरने ही चला जाता या किसी दोस्त के यहां चला जाता। बहुत दिनों से गांव में मम्मी-पापा के पास नहीं पहुंचा। मामा के यहां भी नहीं गया था। पास ही में तो रहते हैं, इसके बाद भी पांच महीने हो गये-उनसे मिले हुये। आखिरी बार मार्च में गया था। तब मामी ने नास्ते में मुगौड़ी बनाया था। फिर दोपहर में इंदरहर की कढ़ी और रात में खीर। चारों मामा के साथ पकवानों का लुत्फ उठाया था। रात भर किस्सागोई, गप्प व यहां-वहां की बातों के साथ ‘तास’ खेली थी। ‘दहला पकड़ और ट्वेंटी नाइन’ की कितनी ही बाजियां हुई थीं। बड़ी मामी बार-बार आकर याद दिलातीं- ‘रात बहुत हो गई है, अब कल खेल लेना..’ 

और फिर समवेत स्वर में यह कहकर खेल चलता रहता -‘बस, एक राउंड..’ 

तब से मौका ही नहीं लगा, वहां जाने को।

खैर, मन भटकता रहा, यहां-वहां। कभी-कभी मेरे चेहरे पर अंदर के भाव आने को आतुर हो जाते तो मैं उन्हें जज्ब कर जाता, क्योंकि मैं यह कतई जाहिर नहीं करना चाहता था कि उसके लिए मैं इतना फिक्रमंद भी हो सकता हूं। लाख चाह कर भी मुझे यह बात नहीं भूल रही थी कि उसने बिना कोई सूचना दिए अपना ‘प्रोग्राम’ कैसे चेंज कर लिया। अब तक तो वह आ जाती थी और हम सब भोजन व आराम करने के बाद बाजार घूमने निकल जाते थे। 

कुछ भी हो, अब मैं और उसका इंतजार नहीं कर सकता -मेरे बस में ही नहीं था। कलाई की ओर देखा, घड़ी में पांच बज रहे थे। दूसरे हाथ की खाली कलाई पकड़ कर जोर से मरोडने लगा। अचानक ख्याल आया, अरे! मैं भी अव्वल दर्जे का मूर्ख ही ठहरा। मेरी अक्ल भी घास चरने चली गई थी। उसने फोन नहीं किया तो क्या हुआ? मोबाइल तो मेरे पास भी है। मैंने ही क्यों नहीं लगाया। मोबाइल पर यह तो पूछ ही सकता था कि कहां हो तुम? आ रही हो कि नहीं? 

अचानक मोबाइल की रिंगटोन बजने लगी। मुझे लगा कि उसी की कॉल होगी। टेबल पर रखे मोबाइल की ओर झपटा, देखा तो स्क्रीन पर एक अनचाहे व्यक्ति का नाम था। एक मन हुआ कि फोन उठा लूं, परंतु दूसरे ही पल लगा कि कहीं कोई काम न बता दे और बचा-कुचा दिन भी खराब हो जाए। मैंने फोन नहीं उठाया। रिंगटोन बजती रही। थोड़ी देर में जब रिंगटोन बजना बंद हुई तो मै नंबर लगाने लगा। जैसे ही नंबर दबा के फुरसत हुआ कि फिर से वही अनचाहा काल। बहुत ही गुस्सा आया और गाली देते हुये फोन काट दिया। अब मैं अपना इच्छित नंबर मिलाने लगा लेकिन हर बार ‘आउट ऑफ कवरेज’ बताता। कभी ‘वीप-वीप’ की आवाज के बाद ‘कट’ जाता। 

अंततः हारकर मैने मोबाइल जेब में रखा और घर से बाहर निकल गया। अब तक वह नहीं आई थी। अब उम्मीद भी नहीं थी लेकिन दिल के एक कोने में यह विश्वास अभी भी था कि वह आयेगी जरूर। आखिर उसने भी तो आज के दिन के लिए इंतजार किया होगा। तैयारियां की होंगी। आज के कामो. को अन्य दिनों के लिए टाला होगा। नहीं आई तो जरूर कोई मजबूरी रही होगी। रात में भी तो आ सकती है? कहीं बीमार तो नहीं पड़ गई? खबर तो देनी ही चाहिए थी? यही सब गुनते-धुनते मैं यूं ही सड़क नाप रहा था। कोई योजना नहीं थी। कोई मक्सद भी नहीं था। बस, चलता चला जा रहा था-किसी भटके हुए पथिक की तरह। जब कदम रुके तो सामने थिएटर था। मैने टिकट खिड़की में हाथ डाल दिया। तभी मोबाइल की रिंगटोन बजी। घर से फोन था। मैं फोन रिसीव कर पाता तब तक मेरे हाथ में कुछ छुट्टे पैसों के साथ एक टिकट आ चुका था। टिकट को मुठ्ठीी में दबाकर खिड़की से हाथ बाहर खींचते हुये दूसरे हाथ से फोन रिसीव किया-‘हैल्लो..!’ 

उधर से जवाब आया-‘कहां हैं, जल्दी आइए.। वो आ गई हैं...।’ वह घर पहुंच चुकी थी और मैं फिल्म देखने के लिए टिकिट ले चुका था। उहापोह की स्थिति में एक कदम थियेटर के हाल की तरफ जाता तो दूसरा कदम घर की ओर बढ़ जाता। आखिर इस स्थिति से खुद को उबारते हुये मैं घर आ गया। वह सचमुच आ चुकी थी। मुझे देखते ही, उसने मेरा हाथ पकड़कर खींच लिया और गले से लिपट गई - ‘ओह मेरे कृष्ण! कहां चले गये थे तुम, कब से इंतजार कर रही हूं।’ 

‘अच्छा, उल्टा चोर कोतवाल को डांटे...लेट आई और इल्जाम भी लगा दिया...’ 

‘खैर, तुम्हारे उलाहने भी तो मुझे प्रिय और सुखद ही लगते हैं। उन्हें मैं सीने से लगा कर रखता हूं...’ 

‘अच्छा, झुट्ठे कहीं के’ 

अभी हमारे गिले-शिकवे चल ही रहे थे कि बीच में मेरी अर्धांगिनी ‘रुक्मी’ आ गईं। उन्होंने बीच में ही बेढ़ही मारते हुए हमें टोका और कहा, ‘अब राधा-कृष्ण मिल चुके हों तो भोजन लगाएं। मुझे भूख लगी है और फिर बाजार भी तो जाना है।’ 

मैं न कृष्ण हूं और न वह राधा। परंतु हमारे बीच स्कूल समय से ही कुछ ऐसा प्रेम-नेम है कि मेरी श्रीमती जी ‘राधा-कृष्ण’ कह कर ही हमें पुकारती हैं। हम तीनों के बीच कोई भेद नहीं है। कोई पर्दा नहीं है। कोई एतराज व शिकायत भी नहीं है। हम मन से एकाकार हैं। एक-दूसरे में समाए हुए हैं। हां, हमारे रास्ते और मंजिलें जरूर अलग-थलग हो गए हैं। वह मुझसे काफी दूर रीवा शहर में बच्चों की नामी गिरामी डॉक्टर है और मैं एक दूसरे शहर के अंदर अखबारों में अपना और अपने बच्चों का भविष्य तलाश रहा हूं। वह जब भी मुझसे मिलती है, तो बच्चों की तरह ही मुझे ट्रीट करती है। पहले खूब मुलाकातें-बातें होती थीं, लेकिन अब साल में सिर्फ एक बार हम मिल पाते हैं- हम दोनों के जन्म दिन पर। हम दोनों एक ही दिन पैदा हुए थे -जैसे ईश्वर ने योजना बनाकर हमें एक-दूसरे के लिए जमीन में उतारा हो। वह दुनिया के चाहे जिस कोने में रही हो, हमारे जन्म दिन पर मिलने जरूर आई है। अब तक तो ऐसा ही होता आया है। आगे कब तक यह निभेगा, भविष्य के गर्भ में है। बहारहाल उसके आने से मेरे पांव जमी पर नहीं पड़ रहे हैं। मैं प्रफुल्लित व आनंदित हूं। उसका सामीप्य पाकर उत्साह के अतिरेक में हमेशा की तरह बिना किसी लाग लपेट के, बिना किसी 

धारा के बहा जा रहा हूं। किशोरावस्था से ही उसके बदन की जो खुशबू मेरे नाक व दिलो-दिमाग में बसी थी, वह उसी ताजगी के साथ आज भी मुझे रोमांचित कर रही है। पहले तो लगा कि हम दोनों की राहें व मंजिल एक ही हैं, लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि यह हमारा एक भ्रम ही था। मैं कुछ-कुछ परंपराओं की बेडियों से जकड़ा हुआ कुड़मुड़ाता रहा और वह किसी परिंदे की मानिंद खुले गगन को नापने उड़ चली। हमारे रिश्तों के बारे में जब मेेरे मम्मी-पापा को पता चला तो उन्होंने एक दिन उसके डॉक्टर पिता से मेरे लिए उसका हाथ भी मांग लिया। वे सहर्ष तैयार भी हो गए लेकिन उसने कहा कि ‘मुझे अभी अपना कैरियर बनाना है, पढ़ाई पूरी करनी है...’ 

मैंने उसके इस निर्णय की सराहना भी किया और कहा कि हम दोनों कैरियर बनाने के बाद ही कोई निर्णय लेंगे। लेकिन यह विडंबना ही थी कि न मेरा कैरियर बना और न ही वह पूरी तरह से मेरी हो सकी। वह तो अपने प्रस्ताव पर अडिग रही परंतु मैं ही ढुलमुल हो गया। या यूं कहें कि मैं परंपराओं की जकडन से नहीं निकल सका। माता-पिता की इच्छा व उनके निर्णय को ही सर्वोपरि माना। उसने तो अभी तक किसी को अपना दूसरा साथी नहीं बनाया। कहता भी हूं तो हंस कर टाल जाती है। कहती है, अभी मुझे शोध करना है। ये करना है, वो करना है, न जाने क्या-क्या करना है उसे, इसी में वह खुद को व्यस्त रखती है। अब किसी की सुनती भी नहीं, मनमानी हो गई है। जिद्दी हो गई है। जाने क्या उसका सपना है? कभी खुलकर कहती भी नहीं। एक दिन हमी हठ करने लगे कि ‘नहीं, बताओ तुम, आखिर कब शादी करोगी?’ 

वह कुछ देर चुप रही और फिर बोली- ‘जब मेरा रिसर्च पूरा हो जायेगा।’ 

मैने फिर पूछा-‘आखिर कब पूरा होगा तुम्हारा रिसर्च?’ 

तो उसने कहा- ‘जिस दिन मैं यह साबित कर दूंगी कि आदमी बिना दिल व गुर्दे के भी जी सकता है...यही मेरे रिसर्च की थीम है...’

उसका जवाब सुनकर मैं निरुत्तर हो गया था। मुझे लगा, जैसे उसने यह बात मेरे लिए ही कही हो। एक पल के लिए यह भी लगा कि कह दूं कि ‘वह व्यक्ति कोई और नहीं, मैं ही हूं, जो बिना दिल व गुर्दे के जी रहा है। तुम्हारा रिसर्च पूरा हुआ और अब तुम अपना जीवन साथी ढूढ़ लो।’ 

लेकिन नहीं कह सका यह सब। रुंध से गये मेेरे होठ। बेजुबान हो गया मैं..। और सब कुछ एक बार फिर से नियति पर छोड़ दिया।

हमने तो परिणय सूत्र में बंधने से पहले रुक्मि से भी पूरी बात बता दी थी। लेकिन रुक्मि ने कोई एतराज नहीं किया। उसने अपनी पूरी स्वीकृति दे दी और कहा,- ‘राधा संग मैं रुक्मि की तरह आपके दिल में रहूंगी।’ तब से मैं अपनी श्रीमतीजी को रुक्मि ही कहकर पुकारता हूं और उन्होंने भी अपना पुराना नाम बदलकर ‘रुक्मि’ ही रख लिया है। राधा, रुक्मि और बच्चे हम सबने साथ-साथ केक काटा, भोजन किया और फिर बाजार के लिए निकल पड़े। मेरी जेब में अब भी थियेटर का टिकट कुड़मुड़ा रहा है। 

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ग़ज़ल


श्री केवल गोस्वामी, दिल्ली, मो. 9871638634



तर्के तआलुक करके किसे मुहं दिखाए गे 

पीछा करेंगी लानतें जिस ओर जाओ गे 


पागल हवा चिढ़ाए गी ताली बजाए गी

किस अंधी गुफा मे अपना मुहं छिपाओ गे


जी की जलन हर पल तुम्हारे साथ जाए गी

जंगल मे जाओ गे या सहरा मे जाओ गे


बरबादियों की दासतां लिखी है हर तरफ 

चेहरा छिपाओ गे या चेहरा दिखाओ गे 


अपनों की आंख में जो गैरत थी मर गई

इन बेशर्म इन्सानो से कैसे निभाओ गे


आती है मौत आए गी अपने हिसाब से

तुम गिड़गिड़ा के मौत को कैसे बुलाओ गे।


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कहानी

श्रीमती दीपक शर्मा, लखनऊ, मो. 98391 70890


शेष-निःशेष 

“तुम मंजू दुबे की बेटी हो?” एक अपरिचिता हमारे घर की सीढ़ियों के गलियारे में खड़ी थीं।

“हाँ,” कहते हुए मैं अपनी साइकिल गलियारे में ले आयी

“तुम्हारी ममी कहाँ हैं?” गलियारा तंग था और वे मेरे साथ सटने पर मजबूर रहीं। 

अपरिचिता एक परिचित द्रव्य लगाए थीं। क्या सभी सुगन्धित द्रव्य समरूप गन्ध रखते हैं? अथवा यह मात्र संयोग था कि पिछले महीने माँ ने वैसा ही द्रव्य खरीदा था?

“तुम्हारी ममी कहाँ हैं?” अपरिचिता की आवाज ने जोर पकड़ा।

“दिल्ली गयी हैं,” मैंने कहा और अपनी जुबान काट ली।

माँ को हवाई अड्डे की बस पर छोड़कर जब पापा सुबह घर पलटे थे उन्होंने मुझे आदेश दिया था: उधर दफ्तर में कोई नहीं जानता कि मंजू दिल्ली गयी है। कोई पूछे तो यही कहना मंजू तुम्हारी नानी के पास गयी है।

माँ और पापा एक ही दफ्तर में काम करते थे और हमारा निवास उसी दफ्तर के पास निर्धारित आवास क्षेत्र में था। माँ के अतिरिक्त इस क्षेत्र की दो अन्य महिलाएँ भी उसी दफ्तर में काम करती थीं, किन्तु जाने कैसे इधर कुछ महीनों से माँ हमारे पास-पड़ोस के लिए विशेष कुतूहल का विषय बन रही थीं?

“क्या हवाई जहाज से गयी हैं?” अपरिचिता काँपने लगीं।

“हाँ,” उस कँपकँपी से मैं डोल गयी।

“कब आएँगी?” अपरिचिता का भावावेग बेकाबू हो चला.

“परसों.” मुझसे कुछ भी छिपाया न गया।

कुछ दूरी पर खड़ी एक लाल मारुति की ओर जैसे ही वे विद्युत गति से बढ़ीं, मैं हैरान हुई। मैंने उनका नाम क्यों नहीं पूछा?

तेरह वर्ष के अपने समस्त जीवन काल में मैंने वैसी तूम-तड़ाक पहली बार देखी थी: आपादमस्तक, अलंकृत एवँ भव्य।

यह कैसा चमत्कार था, जो वे कई ऐसी वस्तुओं से युक्त रहीं, जिनके दाम विभिन्न बड़ी दुकानों की वृहदाकार खिड़कियों में माँ मेरे साथ पढ़ चुकी थीं?

माँ को बाजार करने का बहुत शौक रहा। हर महीने अपनी तनख्वाह पाते ही वे मुझे अपने साथ लेकर कुछ न कुछ ‘नया’ अवश्य ही खरीदतीं। कभी साड़ी तो कभी सलवार सूट तो कभी चप्पल तो कभी शॉल तो कभी कार्डिगन तो कभी हाथ-कान के टूम-छल्ले तो कभी गर्दन की कण्ठी। किन्तु अपनी परिचित तंग दुकानों में मोल-भाव तय करने से पहले तड़क-भड़क वाली दुकानों में प्रदर्शित दाम समेत कई वस्तुएँ वे जरूर देखतीं और मुझे दिखातीं.....

“देखो तो!” इस अपरिचिता की साड़ी का नमूना शहर की सबसे महँगी दुकान के शीशे में माँ मुझे दिखा चुकी थीं, “गहरे सलेटी रंग की इस क्रेप में हल्के गुलाबी फूलकैसा अनोखा प्रभाव दे रहे हैं!”

यहाँ केवल फूल सलेटी रंग के रहे और पृष्ठभूमि गुलाबी। दामः अठारह सौ रुपए.

अपरिचिता के सैंडिल का भाँत भी मेरा देखा हुआ रहा। शो-केस वाली सैंडिल का रंग मगर भूरा था, काला नहीं। दाम आठ सौ रुपए.

जो पर्स अपरिचिता ने अपने हाथ में थाम रखा था, उसके दाम का पता भी माँ लगा चुकी रहीं: बारह सौ रूपया।

हाँ, अपरिचिता के कान के बुन्दों की, उसके नाक की लौंग की, उसके हाथ की अँगूठी की, उसकी एक कलाई की घड़ी की और दूसरी कलाई की चूड़ियों की दमक औरकीमत जरूर मेरे लिए अजानी रही।

अपनी साइकिल में ताला लगाकर मैंने घर की सीढ़ियाँ एक ही साँस में तय कर लीं।

घर के मुख्य दरवाजे पर ताला मैंने अपनी हिचकियों के बीच खोला।

अपरिचिता की छटपटाहट का एक बड़ा अंश मेरे अंदर उतर लिया था।

पिछली रात माँ को दिल्ली जाने से मैंने फिर रोका था, “मैं यहाँ अकेली न रहूँगी,” मैं रो पड़ी थी, “तुम्हारे बिना पापा बहुत दिक करते हैं.....”

अकेली माँ जितनी देर घर से बाहर रहतीं, पापा को देखते न बनता। मानो वे काँटों पर लोट रहे होते। कभी आगे की खिड़की से बाहर झाँकते, कभी पिछवाड़े केरोशनदान तक पहुँचने के लिए नीचे स्टूल पर खड़े होते, कभी सीढ़ियों पर चहलकदमी करते तो कभी बाथरूम में भागते.....

“तुम चिन्ता न करो,” माँ डहडहायी थीं, “वे ठीक रहेंगे। मेरी दिल्ली यात्रा का पड़ता उन्हीं ने बैठाया है।”

“मतलब?”

“तुम्हारे पापा मुझे खुद दिल्ली भेज रहे हैं।”

“मगर क्यों?” चैंककर मैंने पापा की ओर देखा था।

पापा क्षुब्ध लग रहे थे।

माँ के साथ पापा सदैव झूमा-झूमी की अवस्था में रहते। माँ उद्यत होतीं तो पापा विनम्रता दिखाने लगते, माँ मेल का मंत्रोच्चार प्रारम्भ करतीं तो पापा द्रोह कर बैठते।

“मंजू वहाँ सिर्फ दो दिन के लिए जा रही है,” पापा ने माँ को संगति दी थी। पापा को समझना असम्भव था: पिछले कई दिन उन्होंने माँ की दिल्ली यात्रा को असंगत एवँ वीभत्स घोषित करने में बिताए थे, “कल सुबह हवाई जहाज से जाएगी और परसों दोपहर तक हवाई जहाज से लौट आएगी.....”

“मगर क्यों?” मैं झल्लायी थी।

“दिल्ली में उसका एक इन्टरव्यू है। इन्टरव्यू अगर ठीक बैठ गया तोहम दोनों की नौकरी में तरक्की जल्दी होगी.....”

“स्कूल से तुम कितने बजे लौटी थीं?” दफ्तर से लौटते ही पापा ने मुझसे पूछा।

“ग्यारह बजे,” शनिवार होने के कारण मुझे आधी छुट्टी रही थी।

“यहाँ कोई कुछ पूछने आया था क्या?”

“नहीं,” जोखिम उठाने के लिए मैं तैयार न हुई।

“मुझे भूख लग रही है,” पापा ने डबलरोटी और अंडे फ्रिज से निकाले, “क्या चाय के साथ तुम मेरे लिए अंडे वाले टोस्ट बना सकती हो?”

“मंजू घर पर है?” रात आठ बजे दो स्त्रियाँ हमारे घर पर पधारीं, “हम दोनों उसके दफ्तर में टेलीफोन ऑपरेटर हैं.”

“मंजू अपने मायके से गयी है,” पापा तुरन्त बरामदे में चले आए, “उसकी माँ की तबीयत ठीक नहीं।”

“कब लौटेगी?” एक ने पूछा।

“यही दो-चार दिन में,” पापा ने कहा, “कहो, कोई खास बात है क्या?”

“बता दो,” दूसरी ने पहली को कुहनी मारी, “सभी तो जान गए हैं.....”

“जाने दो,” पहली ने कहा।

“बॉस उसे पूछ रहे थे,” दूसरी ने पहली को चिकोटी काटी.

तभी कुछ और लोग आ धमके।

सभी हमारे आवास-क्षेत्र के रहे.

“क्या बात है?” पापा ने पूछा।

“सुना है,” एक पुरुष-स्वर ने ढक्कन खोला, “बॉस के साथ आज एक वारदात हो गयी है.....”

“क्या हुआ?” पापा लगभग चीख पड़े।

“सुना है बॉस की बीवी ने उसे आज शाम खत्म कर दिया.....”

पापा का रंग सफेद पड़ गया।

“अब आपसे क्या छिपाएँ?” पहली स्त्री बोली, “सुनने में तो यह भी आया है कि बॉस की पत्नी ने मंजू को भी खत्म कर दिया है.....”

“जरूर किसी ने झूठी उड़ायी है,” निंधड़क होकर पापा ने अपनी नटसारी शुरू की, “मंजू तो अपनी माँ के पास कस्बापुर में है, दिल्ली गयी ही नहीं.....”

“मैं आपको बताती हूँ,” चिकोटी काटने वाली स्त्री उत्तेजित हो चली थी, “आज दोपहर डेढ़ बजे जैसे ही मैंने अपनी ड्यूटी ज्वाइन की, हेड ऑफिस से बॉस के लिए फोन आया, जरूरी बात है। उन्हें कहिए, फौरन सम्पर्क करें। बल्कि मैंने पहले दफ्तर के दिल्ली वाले गेस्ट हाउस का ही नम्बर मिलाया। वहाँ से जवाब मिला, बॉस अपनी स्टेनो के साथ होटल में रुके हैं। और मालूम, होटल में फोन किसने उठाया? मंजू ने।”

“मेरी भी सुनिए,” पहला पुरुष-स्वर फिर सक्रिय हुआ, “बॉस की बीवी दफ्तर में आज दो बार मेरे पास आयी। पहले सुबह दस पाँच पर: मैं मंजू दुबे से मिलूँगी। जब मैंने बताया मंजू दुबे आज दफ्तर नहीं आई, आज उसकी दो दिन की छुट्टी की अर्जी आई है तो बोली: उसे मिलना जरूरी है। उसके घर का पता दे दो। ग्यारह दस पर वह दोबारा दफ्तर आयी। दिल्ली वाले होटल का पता और कमरा नम्बर दो।”

“मेरा अन्दाजा है,” भीड़ में से एक दूसरे पुरुष-स्वर ने कहा, “बॉस की पत्नी ने यहाँ से तीन बीस वाला हवाई जहाज पकड़ा, चारपचपन पर वह हवाई जहाज सेउतरी, पाँच तीस पर वह होटल पहुँची, पाँच पैंतीस पर लिफ्ट में सवार हुई, पाँच चालीस पर उसने बॉस को मंजू के साथ देखा, पाँच इकतालीस पर उसने बॉस पर गोली चलाई, पाँच बयालीस पर उसने मंजू पर गोली चलाई, पाँच पैंतालीस पर.....”

“माँ मेरी वजह से मरी हैं, पापा,” मैं फट पड़ी, “मैं जब स्कूल से आयी थी तो वह नीचे सीढ़ियों के गलियारे में खड़ी थी। उसे मैंने बताया था माँ हवाई जहाज से दिल्ली गयी हैं.....”

“अजीब बात है,” पापा बौखलाए, “तुमने मुझे नहीं बताया मंजू दिल्ली गई और वह भी हवाई जहाज से.....”

“अब कोई नया तमाशा मत खड़ा करिए,” तीसरे पुरुष-स्वर ने पापा पर लगाम चढ़ायी, “लड़की की माँ मर गयी है। लड़की से अब ऐसे सवाल-जवाब मत करिए.....”

“माँ के भेद लड़कियाँ छिपा लेती हैं,” चिकोटी खाने वाली स्त्री बोली, “उन पर ढक्कन टिका देती हैं.....”

“जाओ, तुम अन्दर जाकर बैठो,” पापा ने दाँत पीसे, “मैं देखता हूँ मुझे अब क्या करना होगा.”

भीड़ के छँटते ही पापा मेरी ओर लपक लिए, “देखा, मंजू का नाम अब बदनाम हो गया है। हम उसके लिए बुरा बोलेंगे तो हमीं फायदे में रहेंगे। तुम्हारी शादी में मुश्किल नहीं आएगी। सब यही कहेंगे, बाप-बेटी तो निर्दोष रहे, सारा दोष उसी औरत का था.....”

पापा के संघ-भाव को मैंने अनन्तकाल तक सम्मान दिया।

अपने नानाविध आख्यानों में माँ के प्रति घोर विमुखता दिखाने में मैं लाभान्वित भी हुई। मेरे साथ की लड़कियों ने मुझसे अपनी साझेदारी तोड़ी नहीं, बनाए रखी

उत्तरवर्ती घटनाओं पर भी मैं पापा के संग ही आशंकित हुई, पापा के संग ही प्रसन्न हुई।

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कविता

सुश्री अरुणा शर्मा, दिल्ली, मो. 92124 52654


शहरी फुटपाथ व रूलती जिदंगी 


स्वार्थ व ईमान का पहरन पहन, इंसानियत का खून करते हैं...

कुछ ठेकेदार हैं, फुटपाथ पर इन्हें सोने को मजबूर करते हैं....

अधिक कमाई का झांसा दे झूठे वायदे करते हैं....

पुशतैनी जड़ों से उखाड़, जाड़ों में शहरी पटरियों पर देह पटकते हैं....                      

तन पर चिथड़े मासूम जिदंगी शहरी सड़कों पर देखने को आम मिलते हैं...

गुब्बारे बेचते बच्चे भूखे प्यासे दिन-रात यहां ठोकरें खाते हैं...

कसूर इनका इतना कि गरीब हैं, सीधे सच्चे ईमानदार ‘‘औ‘‘ भरोसे से पेश आते हैं...  

हैवानियत का आलम इतना सिर्फ और सिर्फ अपनों से लूटे जाते हैं...

जिन पर भरोसा करते हैं उन्हीं के हाथों मजबूर हैं ऐसी जिंदगी जीने के लिए...

कुछ ठेकेदार होते हैं जो शहरी फुटपाथ पर इन्हें रहने को मजबूर करते हैं.....

                                   

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कहानी: लेखक के कहानी संग्रह ‘रोशनाई से साभार’



श्री तेजस पूनियां, गंगानगर, मो. 9166373652



टुकड़ा टुकड़ा मोहब्बत

दिप्ती और मेघा दोनों जुड़वां पैदा हुई थी। अभिषेक उनके पिता अपने खानदान में कुछ हद तक प्रगतिशील विचारों वाले थे इसीलिए उन्होंने इन दोनों के जन्म के बाद पायल की नसबंदी करवा दी थी। कितना कुछ सुनना पड़ा था जब इसकी खबर पायल के सास-ससुर को पड़ी। हॉस्पिटल से जच्चा-बच्चा दस दिन बाद सही सलामत लौट आए थे। पहली बार ऐसा हुआ था जब पिछली सात पीढ़ियों में राममनोहर के यहाँ लड़की पैदा हुई। इस बात से वे बेहद खुश थे पर नसबंदी की बात से उतने ही दुखी। उन्हें दुःख इस बात का था कि उनका बेटा अभिषेक लड़के को जन्म न देकर जैसे मर्दानगी की परीक्षा में चारों खाने चित्त हो गया हो। 

इधर पायल की सास ने उसके अस्पताल से लौटते ही दरवाजे पर अनमने ढंग से जच्चा-बच्चा की नजर उतारी और जब पंद्रह दिन बाद उनका नामकरण रखा गया तब नसबंदी की बात पर बिफर पड़ी। आग में घी डालने का काम किया अभिषेक की बहन और नवजात की ममेरी बुआ रामभतेरी ने।

रामभतेरी - अभिषेक देख ये तूने अच्छा नहीं किया। अभिषेक - क्या अच्छा नहीं किया चाई जी ?

( रामभतेरी को सब चाई जी कहते थे )

रामभतेरी - पायल की नसबंदी करवाकर और क्या .

अभिषेक- तो क्या हुआ चाई जी ?

रामभतेरी - छोटे कम से कम एक लड़का तो और दे देता अपने बूढ़े बाप को.

और लड़कियाँ तो वैसे ही दूसरे घर चली जानी है।

अभिषेक - मेरी प्यारी चाई (रामभतेरी के गाल पर थपकी मारते हुए अभिषेक ने कहा) लड़का-लड़की सब एक से हैं और तू भी तो एक लड़की की माँ है। जरा कुछ तो... सोच समझ...

रामभतेरी- छोटे मैं एक लड़की की माँ हूँ इसीलिए ही कह रही हूँ... फिर तेरे बुढ़ापे में तेरी लाठी कौन बनेगा ?

अभिषेक - अरे चाई ये दो लाठियाँ तो दी हैं भगवान ने। क्या करूँगा तीसरी लाठी का ?

रामभतेरी-गुस्से से गहरी लम्बी साँस निकालते हुए ... हम्म ठीक है जैसी तेरी मर्जी। वैसे भी कौन सा तूने आज तक किसी की सुनी है जो मेरी सुनेगा ?

कह सुनकर बुआ नामकरण संस्कार के आयोजन की अंतिम तैयारी देखने में व्यस्त हो गई। रामभतेरी बुआ के साथ पिता जी और माँ भी जली-कटी सुनाकर चले गये।

अभिषेक की माँ शांतिदेवी नामकरण के बाद धीरे से फुसफुसाई जिसे पायल ने सुन लिया।

शांति देवी - मैं तो नामकरण के साथ ही अंतिम संस्कार भी कर रही हूँ दोनों छोरियों का। 

पायल का चेहरा गुस्से से लाल हो आया पर फिर अपनी और अभिषेक की गोद में परी सी सुंदर दो बच्चियों के चेहरे देख उसने अपने आप को सम्भाला और सास-ससुर से शगुन लिया।

यह शगुन उसने आज सोलह साल बाद दिप्ती और मेघा को उनकी स्कूली शिक्षा पूरा होने पर दिया और उनके जन्म की कहानी से लेकर जब तक दादी-दादी का साया उनके सर रहा सब कह डाला। दिप्ती और मेघा 9-10 बरस की थी। जब वैष्णों देवी जाते हुए एक पहाड़ी खिसकने से एक जोरदार धमाका हुआ और उस धमाके में उनके दादा-दादी चल बसे। 

क्षत-विक्षप्त आधे-अधूरे अंगों के साथ अभिषेक और पायल ने ही उनका अंतिम संस्कार करवाया था। अंतिम संस्कार से पूर्व दिप्ती और मेघा ने भी दादा-दादी के शवों पर फूल चढ़ाए और माथा टिका अंतिम प्रणाम किया। पर वे ज्यादा कुछ जान समझ नहीं पाई कि आखिर उनके दादा-दादी को लोग यूँ कंधों पर लाद, सफेद कपड़ों की गुड़िया सी बना क्यों ले जा रहे हैं। साथ में एक बैंड राम नाम की धुन बजाता चल रहा था। 

कितनी अजीब सी है ना ये दुनिया ! जो सारी जिंदगी झूठ - फरेब के सहारे चलती है और बाग-ए-जन्नत में उनका सब झूठ - फरेब, मोह-माया सब काफूर हो जाता है। दूसरों की जलती चिताओं को देख वे भी अपने-अपने अल्लाह से अपने किए गुनाहों पर तौबा - इस्तकफार करने लगते हैं। वैसे भी जब आदमी का आत्मविश्वास और हिम्मत खत्म हो जाती है तब वह चालाकी सीख जाता है और फिर अपनी चालाकी का शिकार घर के भीतर और बाहर ही नहीं बल्कि खुदा को भी बनाने लगता है। 

खैर पायल के लिए अब ये सब छुपाना व्यर्थ था और एक बार जब भावनाओं का बाँध टूटा तो नदी हर-हराकर चट्टानों से टकराने लगी। जब बोलते-बोलते हलक सूखने और कुछ अटकने सा लगा तब कहीं जाकर वह होश में आई। पास पड़े पानी के गिलास से पानी पी चुकने के बाद दिप्ती और मेघा के नामकरण पर दादी ने शगुन में जो चार चाँदी के सिक्के दिए थे उनको उनकी हथेली पर रखते हुए कहा- 

ये तुम्हारी दादी का तुम्हें दिया पहला और आखिरी तोहफा है जो आज मैं तुम्हें दे रही हूँ। इसे संभाल कर रखना। तुम्हारे जन्म से तो वो खुश नहीं थी पर आज जब तुम दोनों ने पूरे जिले में प्रथम स्थान पाया है उससे वे जरूर खुश हुई होंगीं। सिक्के हथेलियों में रखते हुए पायल ने नसीहत के साथ-साथ जिम्मेदारी का भी अहसास कराते हुए कहा कि- पौधा अपनी ही जमीन पर उगता है बेटा। अपने वैभव को अच्छे से पसारो फिर देखना पूरी दुनिया तुम्हारे कदमो. में होगी। 

बारहवीं के बाद दोनों बहनें दिल्ली पढ़ने आ गई। दिप्ती को दिल्ली विश्वविद्यालय के नार्थ कैम्पस के एक नामी कॉलेज में प्रवेश मिल गया। वह अंग्रेजी की प्रोफेसर बनना चाहती थी इसलिए उसने अंग्रेजी ऑनर्स में एडमिशन लेना बेहतर समझा और मेघा को चीर फाड़ में मजा आता सो उसने बहुत पहले से ही मेडिकल की पढ़ाई में एडमिशन पाने के लिए तैयारी शुरू कर दी थी। उसकी मेहनत रंग लाई और उसे भी दिल्ली एम्स में स्नातक करने का मौका मिल गया। पायल ( उनकी माँ) बेहद खुश थी कि दोनों बच्चियों को उनके मन मुताबिक पढ़ने को मिल गया। दोनों को अलग-अलग हॉस्टल में रखने के बजाए एम्स के पास ही एक निजी महिला छात्रवास में अभिषेक ने दाखिल करवा दिया।

नया शहर, नए लोग, नया संस्थान पढ़ने के लिए इतना सब कुछ नया देख कहीं उनकी बच्चियाँ भटक न जाए इसलिए वे दोनों को एक-एक स्मार्ट फोन भी गिफ्ट दे गये। लौटते समय पायल की आँखों में आँसू थे। उसने उन्हें छुपाने की भरसक कोशिश की पर दिप्ती ने उनमें से एक बाहर मोती की लुड़क आए आँसू को अपनी अंगुली पर लेते हुए कहा-

दिप्ती - माँ तुम चिंता न करो हम बहुत बहादुर हैं ... हमें कुछ नहीं होगा और फिर तुम ये स्मार्ट फोन भी तो दिए जा रही हो। हम रोज आपसे वीडियो कॉल करेंगे। तब उसकी माँ बोली-पायल, बेटा हमें तुम दोनों पर मान है। तुम हमारा गुरुर हो और देखना ये गुरुर कहीं टूटने न पाए। 

दिप्ती और मेघा दोनों माँ के गले लगती हुई बोली - माँ तू भी ना ...!

इतने में बाहर खड़ी गाड़ी में सब सामान रख लेने के बाद अभिषेक ने कहा-

अगर तुम माँ-बेटियों का फिल्मी ड्रामा खत्म हो गया हो तो चलो भाई, हमें देर हो रही है। कहीं ट्रेन छूट न जाए। दिप्ती और मेघा दोनों ने माँ-बाप को तब तक हाथ हिलाकर टाटा, बाय-बाय किया जब तक वे आँखों से ओझल नहीं हो गए। 

कमरे में आकर दोनों अपने बिस्तर पर लुढ़क गई और फोन चलाने लगी। स्मार्टफोन तो वे पहले भी चलाती थी पर अपने पिता का, कोई भी जरूरी चीज देखनी होती तो उन्हीं के फोन में गूगल सर्च कर लिया करती। पर अब दोनों बेहद खुश थीं कि उनके पास अपना-अपना फोन है। दोनों की क्लासें शुरू होने में अभी चार-पाँच दिन थे। वे चार-पाँच रोज पहले ही आ गई थी ताकि दिल्ली को, उसकी गलियों को थोड़ा जान पहचान सके। इसके लिए उन्होंने उन चार-पाँच दिन में दिन डी. टी. सी. बस का सफर भी किया। कुछ ऐतिहासिक इमारतें देखने के साथ-साथ वे एक दूसरे के कॉलेज के चक्कर भी लगा आईं ताकि पता चल सके कौन-कौन से नंबर की बस उनके हॉस्टल से कॉलेज तक जायेगी। इस बीच वे रोज कई सारी फोटो माँ को भेजा करती। 

अब उनके अपने-अपने व्हाट्सएप्प और फेसबुक अकाउंट थे। ठीक पाँच दिन बाद गुरूवार से उनकी क्लासें शुरू हुई और पहले दिन की क्लास पूरी होते ही उन्होंने माँ को वीडियो कॉल किया। पहले ही दिन जिन लड़कियों से उन्होंने दोस्ती की उनमें से एक-दो के साथ अपनी माँ से बात भी करवाई। दिप्ती की पहली ही क्लास में आकांक्षा और पूजा नाम की दो लड़कियों से बहस हो गई। जिसके बारे में भी उसने माँ को बताया। दिप्ती अपनी माँ से कभी कुछ भी नहीं छुपाती थी, कुछ ऐसा ही स्वभाव मेघा का भी था। पर मेघा को उसकी पहली ही क्लास में सुनने को मिला कि एम्स के प्रतिष्ठित डॉक्टर और उनके प्रोफेसर की मौत हो गई है। इसलिए वह गुमसुम सी थी और माँ से भी उसने हाल-चाल के अलावा ज्यादा बात नहीं की। मेघा के एडमिशन में उस प्रोफेसर का बड़ा सहयोग रहा इसलिए भी वह थोड़ा दुखी थी।

इसी तरह दिन बीतते रहे पर दिन में एक मर्तबा वे घर में माँ से जरूर बात करती। करीब एक महीने की क्लास के बाद दिप्ती की पूजा और आकांक्षा से अच्छी दोस्ती हो गई। दिप्ती और मेघा को भी कोई ऐसा सहपाठी और दोस्त चाहिए था जो कभी उनकी पढ़ाई में मदद कर सके। यूँ तो वे पढ़ने में होशियार थी और क्लास टीचर के अलावा किसी से मदद नहीं लेती थी पर कभी किसी कारण से कोई क्लास छुट जाए इसलिए किसी-न-किसी का साथ तो जरूरी था। 

दिप्ती कुछ दिन बीमार होने के कारण कॉलेज नहीं जा पाई पर मेघा का जाना निरंतर बना रहा। करीब एक हफ्ते बाद दिप्ती जब कॉलेज पहुँची तो पूजा और आकांक्षा ने उसके हाल चाल लिए। वे आपस में बतिया रही थी कि पीछे खड़े अकरम जैदी ने उनकी बात सुन ली 

पूजा-अरे दिप्ती तुझे हुआ क्या था ? तू बोल रही थी कि कॉलेज आने पर बताऊँगी।

आकांक्षा ने भी उसके प्रश्न में हामी भरी।

दिप्ती कुछ देर मूक दर्शक बनी रही। जब पूजा और आकांक्षा ने उसे झिंझोड़ा तब वह हड़बड़ा गई और बोली हाँ तो क्या कह रही थी मैं?

पूजा और आकांक्षा दोनों ठस ठसा कर हंस पड़ी और बोली अभी तो तूने एक शब्द भी नहीं कहा। हम भी तो यही पूछ रहे हैं।

दिप्ती - अरे कुछ नहीं बस यूँ ही बीमार थी। 

पूजा और आकांक्षा एक साथ एक स्वर में बोली वो तो हमें भी पता है पर ऐसी कौन सी बिमारी है जो तू हमें भी नहीं बता सकती। 

दिप्ती - (धीरे से फुसफुसाई) अरे, कुछ नहीं वो पीरियड्स की वजह से सिर और पेट दर्द साथ ही उल्टियाँ भी। 

पूजा और आकांक्षा एक-दूसरे को कुछ देर देखती रही और फिर अजीब सा मुँह बनाकर फिर हंसने लगी और कहा अरे बस इत्ती सी बात ! और तू ख्वामखाह परेशान हो रही थी। 

अकरम जैदी पीछे खड़ा अभी तक सुन रहा था। तभी दिप्ती ने उसे अचानक देख लिया और बोली तुम यहाँ खड़े क्या लड़कियों की बातें सुन रहे हो ? कोई काम नहीं !

अकरम - नहीं... मैं... कहाँ सुन रहा हूँ मैं.... मैं तो... और मुस्कुरा दिया। दिप्ती - मैं तो क्या ? मुझे सब पता है तुम लड़कों का ... !

इतने में आकांक्षा बोल पड़ी - अरे तो क्या हुआ ... इतना हौआ क्यों बनाया हुआ है

दिप्ती - हौआ और मैं...?

आकांक्षा-हाँ तू

पूजा-अरे चल छोड़ न... अब सब ठीक है न? तो चल कैंटीन कुछ खाते हैं। तीनों कैंटीन चली गई और अपना मनपसन्द ऑर्डर कर खाली टेबल - कुर्सी तलाशने लगी। 

अकरम जैदी यहाँ भी... इस बार दिप्ती कुछ परेशान हाल सी दिखी।

पूजा को समझते देर नहीं लगी और उसने दिप्ती से कहा अरे यार ये तो नॉर्मल है। फिर भी तुझे परेशानी है तो हम बाहर कहीं बैठ जाते हैं। वैसे भी अगली क्लास शुरू होने ही वाली है...

तीनों सहेलियाँ अपना ऑर्डर साथ ले कॉलेज के लॉन में जा बैठी। 

वहाँ पहुँच उन्होंने देखा अकरम फिर से वहाँ मौजूद था। 

इस बार दिप्ती से रहा नहीं गया और कहा तुम हमारा पीछा कर रहे हो? अकरम-(इस बार वह थोड़ा खुलकर हँसा और बोला ) मैं पीछा कर रहा या तुम लोग?

तब आकांक्षा ने कहा अरे जाने दे न दिप्ती तू भी।

दिप्ती क्लास छूटने के बाद बस स्टैंड पर बस का इंतजार ही कर रही थी कि अकरम भी उसी बस में चढ़ गया। दिप्ती ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया। करीब एक घंटे का सफर कर दिप्ती अपने तय स्टैंड पर उतर गई और अकरम उसे जाते कनखियों से देखता रहा। दिप्ती इतनी परेशान पीरियड्स की वजह से नहीं थी जितना कि अकरम ने उसे परेशान कर दिया था। हॉस्टल के अपने कमरे में दाखिल होते ही दिप्ती को परेशान हाल देख मेघा ने कहा-

अरे क्या हुआ तू इतना परेशान क्यों है?

दिप्ती कुछ नहीं बोली और चुपचाप जाकर बिस्तर पर औंधे मुँह लेट गई। मेघा ने फिर से पूछा तो उसने जवाब में बस इत्ता सा कहा कि उसका सिर दर्द कर रहा है और वह सोना चाहती है।

उस दिन दिप्ती ने माँ से भी बात नहीं की। करीब एक हफ्ते तक अकरम जैदी का व्यवहार ऐसा ही बना रहा। इस एक हफ्ते में उसे दिप्ती के बस में आने-जाने का पता चल गया। दिप्ती चुपचाप उसका ऐसा करना देखती रही। एक दिन उसने जब क्लास में कोई नहीं था तब अकरम से पूछ बैठी कि वह उसका पीछा क्यों करता है?

अकरम ने कहा कि- वह भी उसी रास्ते से आता जाता है। जिससे अगर उसे कोई परेशानी है तो

...

दिप्ती - नहीं कोई बात नहीं...मुझे लगा (थोड़ा रुक कर वह फिर से बोली) अच्छा तुम कहाँ रहते हो?

अकरम - हम्म मैं वसंत विहार और तुम?

दिप्ती - एम्स के पास ... अच्छा तुम रहने वाले दिल्ली के ही हो ? दिप्ती ने अगला सवाल दागा। 

उस दिन करीब आधे घंटे दोनों बात करते रहे वो तो पूजा ने क्लास में आते ही दिप्ती को आवाज दी तब उनकी बातें खत्म हुई। ओके बाय कह दिप्ती पूजा के साथ चली गई। उस दिन कॉलेज में नाटक सोसाईटी में रजिस्ट्रेशन होने वाले थे। पूजा और दिप्ती वहाँ जा नाम लिखवाने लगी। अकरम का रिजस्टर में पहले से नाम मौजूद देख दिप्ती ने नाम नहीं लिखवाया। पर रजिस्ट्रेशन डेस्क पर मौजूद आकांक्षा ने दिप्ती से कुछ नहीं कहा और उसका नाम भी चुपके से लिख दिया। वो तो उसे बाद में पता चला जब नाम लिखवाने वाले बच्चों को ऑडीशन के लिए बुलाया गया। इस बात पर दिप्ती खासी नाराज भी हुई पर फिर वह दोनों सहेलियों के जोर देने पर ऑडीशन देने के लिए चली गई। ऑडीशन में दिप्ती और अकरम दोनों को चुन लिया गया। अब रोज नाटक की प्रैक्टिस के बाद अकरम और दिप्ती घंटों बैठे कॉलेज में यहाँ-वहाँ बतियाते देखे जाते। धीरे-धीरे कब तीन साल बीत गए पता ही नहीं चला। दिप्ती आगे की पढ़ाई और एडमिशन की तैयारी कर रही थी और इधर मेघा की स्नातक अभी भी जारी थी। मेघा भी अपने पाँच साल की चुनावी पढ़ाई के दौरान सुशील जो उसका क्लासमेट था, से प्यार की पींगे बड़ाने लगी थी। दिप्ती कुछ दिन के लिए घर आई हुई थी और एक दिन जब वह नहाने के लिए बाथरूम गई तो उधर से उसका फोन बज पड़ा। 

‘इश्क कीजे फिर समझिए दिलगी क्या चीज है‘ जगजीतसिंह सिंह दिप्ती के पसंदीदा गायक में से थे। कई देर फोन बजने के बाद जब दोबारा बजा तो उसकी माँ ने फोन कान से लगाया। 

दूसरी ओर से अकरम - अरे क्या यार दीपू कब से फोन कर रहा हूँ और तुम हो कि ... अच्छा सुनो मुझे जॉब मिल गई है। एस. एस. सी में सीनियर पोस्ट पर...

जवाब में उसकी माँ कुछ कहती अकरम बोलता ही चला गया। 

और मैं... हमारे सपने ... हमारा घर ... बच्चे ...

अब तो तुम और मैं

ओह मेरी प्यारी दीपू मैं तो खुशी से पागल हूँ। बस अब जल्दी से तुम अपने घर पर बात कर लो... कई देर लगातार एक साँस में बोलने के बाद वह बोला। क्या हुआ दीपू तुम कुछ बोल क्यों नहीं रही ? ... हैल्लो हैल्लो ... हैल्लो... और बीप बीप की आवाज के साथ फोन कट गया। 

इधर से दिप्ती का गुसलखाने से निकलना हुआ। उसने पूछा कौन था माँ ?

पायल कुछ नहीं बोली और सीधा घर के दूसरे काम करने में व्यस्त हो गई। दिप्ती ने जैसे ही फोन चैक किया तो देखा अकरम का फोन था। वह एकदम घबरा सी गई और तुरंत अकरम को फोन लगा दिया। पाँच-सात मिनट बातें कर लेने के बाद उसने कहा ओह अकरम ये तुमने क्या किया ? तुम हमेशा जल्दी में क्यों रहते हो? तुम समझते नहीं कुछ ? मैं कैसे माँ से नजरें मिलाकर बात कर पाऊँगी?

उधर दूसरी तरफ से अकरम उसे समझाने की कोशिश कर रहा था कि तैश में आकर दिप्ती ने फोन को स्विच ऑफ कर दिया और वहीं बैड पर बैठकर दोनों हाथों से माथे को थामे बैठी कुछ सोचती रही। शाम होने को आई ना तो वह माँ से कुछ कह पाई और ना ही उसकी माँ ने आगे बढ़कर उससे कुछ पूछा। बस चुपचाप काम करती रही।

करीब एक सप्ताह की छुट्टियाँ पूरी करके जब दिप्ती जाने लगी तो उसकी माँ ने उससे कहा- दिप्ती बेटा हो सके तो अपने फैसले पर फिर से सोच लो। कहीं ऐसा न हो बाद में ... दिप्ती कुछ नहीं बोली और गाड़ी में बैठ गई...

दिल्ली पहुँच उसने माँ को खैर-खबर सुनाई और साथ ही कहा माँ आप चिंता न करो सब ठीक होगा। 

इधर मेघा सुशील के घर जाकर अक्सर पढ़ाई किया करती थी और देर रात सुशील उसे वापस छोड़ने आया करता। एक दिन यूँ ही जब उसकी परीक्षाएँ सिर पर थी तो वह सुशील के यहाँ ही सो गई और उसने दिप्ती से कह दिया कि घर पर माँ से कुछ न कहना। वो ख्वामखाह परेशान होंगी। सुशील उसका सिर्फ क्लासमेट और अच्छा दोस्त है और फिर उसके मम्मी-पापा भी घर में ही होंगे। दिप्ती ने उसे उसके घर रुकने की इजाजत दे दी। परन्तु उसे क्या मालूम था मेघा उससे झूठ बोल रही है।

सुशील कार में उसे अपने घर ले गया और जाते समय उसने चार-पाँच बोतलें शराब भी खरीद ली थीं। उस रात मेघा और सुशील दोनों ने जमकर शराब पी और सिगरेट के छल्ले बना-बनाकर हवा में उड़ाए। मेघा और सुशील दोनों ने अपने मोबाइल फोन को साइलेंट मोड पर कर दिया था ताकि किसी तरह की परेशानी ना हो। लेकिन पीछे बैकग्राउंड में पुराने फिल्मी गाने बज रहे थे। 

‘मोसे छल किए जाए सैंया बेईमान‘ ‘आपके पहलू में आकर रो दिए‘, ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों‘ बस फिर क्या दोनों एक-दूसरे की बाहों में झूले खाने लगे। मेघा और सुशील दोनों की गर्म साँसे और मेघा की मदमस्त और भरपूर आहें कमरे के वातावरण को और अधिक मादक बना रही थी। मेघा और सुशील के होंठ आपस में टकराने लगे। 

हालांकि मेघा ने पहले-पहल सुशील को इसके लिए मना भी किया था। पर सुशील ने उसे जैसे-तैसे मना लिया और कहा-

सुशील - प्यार करती हो तो जताना भी पड़ेगा। ऐसे कैसे तुम्हारे प्यार पर यकीन कर लूँ?

मेघा ने कहा- मैं सच में तुमसे प्यार करती हूँ लेकिन उसके लिए क्या वाकई मुझे ये सब करना पड़ेगा? तभी मैं अपनी मोहब्बत को साबित कर पाऊँगी ? सुशील - वो मैं सब नहीं जानता पर इसमें हर्ज ही क्या है और हम कुछ भी गलत तो नहीं कर रहे? क्या तुम ये सब नहीं करना चाहती ? अरे कुछ नहीं होगा यार...

मेघा कुछ नहीं बोली और थोड़ी देर बाद अपने आपको पूरी तरह सुशील के सामने समर्पित पाया। सुशील करीब एक घंटे तक उसके शरीर से खेलता रहा। 

करीब एक घंटे बाद दोनों एक-दूसरे के शरीर से अलग हुए और मेघा ने कहा- तुम कितने अच्छे हो सुशील! जी चाहता है बस ऐसे ही सारे दिन, सारी रात तुम्हारी बाहों में झूलती रहूँ और तुम ऐसे ही मुझे प्यार करते रहो! अच्छा एक बात बताओ तुम मुझे छोड़ोगे तो नहीं ?

सुशील - कैसी बातें कर रही हो? पागल हो? तुम्हें कैसे छोड़ सकता हूँ? तुमसे मोहब्बत जो करता हूँ और मोहब्बत से बढ़कर तुम मेरी जरूरत हो और भला कोई अपनी जरूरत पूरी किए बिना रह सकता है?

मेघा - जरूरत? वह एकदम से चिल्लाई...क्या कहा तुमने ? सुशील - अरे नहीं नहीं ... मेरा वो मतलब नहीं था ...

मेघा - तो जरूरत का मतलब क्या समझूँ मैं अब ?

सुशील-कुछ नहीं बस मैं तुमसे मोहब्बत करता हूँ और इसी तरह करता रहूँगा। तुम इस हसीन रात में अब मुझसे लड़ाई करना चाहती हो तो बात अलग है। वैसे लड़ाई करने से प्यार बढ़ता है मैंने सुना है। सुशील की इस बात पर दोनों कई देर तक हँसते रहे।

थोड़ी देर बाद मेघा और सुशील एक बार फिर एक-दूसरे की बाहों में थे। पूरी रात यूँ ही बीती न जाने कितनी बार उनके शरीर एक-दूसरे से टकराए और प्यार की बौछारें हुई। करीब पहले पहर के बाद दोनों की आँख लग गई। सुबह ठीक 9 बजे मेघा की आँख खुली तो उसने देखा सुशील पास में नंगे बदन लेटा हुआ है। उसने एकदम से चद्दर को अपने सीने से चिपका लिया। उसकी धड़कन तेजी से चलने लगी। कुछ पल बाद आनन-फानन में उसने कपड़े पहने और कमरे का दरवाजा बंद करके जाने लगी तो सुशील ने उसका हाथ पकड़कर अपने पास खींच लिया और कहा- कहाँ जा रही हो?

मेघा-अपने घर और कहाँ ?

सुशील-घर? आश्चर्य से !

मेघा- हाँ मेरा मतलब हॉस्टल। 

सुशील - रुको मैं छोड़ आता हूँ।

मेघा-नहीं मैं चली जाऊँगी और दीदी के भी कई मिस कॉल आए हुए पड़े हैं। तुम पागल हो एकदम ... मैं तुम्हारे बहकावे में आई... मुझे यहाँ आना ही नहीं चाहिए था तुम्हारे साथ ... हे भगवान! अब क्या होगा ? दीदी को सब पता चलेगा तो ?

सुशील- दीदी को पता चलेगा? कैसे ? उन्हें बताएगा कौन? 

मेघा-देखो मैं दीदी से कुछ छुपाती नहीं हूँ। 

सुशील - तुम पागल तो नहीं हो गई? तुम बच्चियों जैसी बातें क्यों कर रही हो? ये बातें किसी को बताने की होती है भला?

मेघा कुछ देर शांत खड़ी रही। सुशील ने कपड़े पहने और उसे हॉस्टल तक छोड़ने आया। उस दिन रविवार था। 

दिप्ती ने मेघा से आते ही पूछा- ऐसी क्या पढ़ाई कर रही थी कि फोन ही नहीं उठाया। कब से फोन कर रही थी। 

मेघा बिना कोई जवाब दिए नहाने के लिए चली गई। करीब पन्द्रह दिन बाद जब उसकी तबियत खराब हुई और उल्टी के साथ-साथ उसे चक्कर आने लगे तब वह डॉक्टर के पास चैकअप कराने गई। उसे डर पहले से ही लग रहा था। सुशील भी उसके साथ ही था। वह उसे बराबर हौसला दिए जा रहा था। 

मेघा-मैंने मना किया था ना तुमसे उस दिन ... ( गुस्से में )

सुशील - अरे कुछ नहीं होगा मेरी जान। ये भी तो हो सकता है तुम्हें फूड पोइजन हो गया हो ?

मेघा-नहीं ये फूड पोइजन के लक्षण नहीं है। तुम भी तो मेडिकल के स्टूडेंट हो क्या तुम्हें इतना भी नहीं पता ?

सुशील - अच्छा बाबा...डरो मत...सब ठीक होगा। 

मेघा जैसे ही अंदर से चेकअप करवाकर बाहर आई एकदम रुआंसी सी हो गई और हाथ में रिपोर्ट लिए बुत सी बनी खड़ी रही। सुशील ने उसे कई बार आवाज दी, झिंझोड़ा पर मेघा को जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दिया। फिर एकदम से चैंक उठी और वहाँ से बाहर आ अपने लिए ऑटो ढूंढने लगी। सुशील उसके पीछे-पीछे कई देर तक आया और आवाजें लगाता रहा मगर मेघा ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। अगले एक सप्ताह तक वे दोनों नहीं मिले। मेघा की तबियत नासाज ही बनी रही। दिप्ती ने पूछा भी मगर मेघा ने कुछ नहीं कहा।

एक सप्ताह बाद मेघा जब क्लास में पहुँची तो सुशील ने अकेला पाकर कहा - मेघा मैं तुमसे कब से बात करने की कोशिश कर रहा हूँ मगर तुम अकेली मिली ही नहीं और ना ही इतने दिन तुमने मेरा फोन उठाया।

मेघा ने कहा - सुशील ये सब क्या हो गया ? मैं अब तुम्हारे बच्चे को जन्म देने वाली हूँ? मैं क्या करूं सुशील ... मैं क्या करूं? रोते रोते उसने सब कहा।

सुशील एक बार फिर उसे अपनी बाहों में भरना चाहता था और चाहता था कि इस बच्चे को गिराने का कोई इंतजाम किया जाए। इस तरह एक नाजायज औलाद को जन्म नहीं दे सकती मेघा। मेघा और सुशील कुछ देर चुपचाप बैठे रहे फिर अचानक से वह बोल पड़ा अभी दो-तीन दिन बाद परीक्षाएँ शुरू होने वाली हैं। खत्म होते ही हम कहीं पहाड़ी जगह घुमने चलेंगे और वहीं हम अबोर्शन भी करवा लेंगे। 

मेघा - कितनी सहजता से तुमने कह दिया ना ? सुशील !

सुशील - तो तुम्हारे पास और चारा भी क्या है? क्या तुम इस बच्चे को जन्म दे सकोगी? नहीं ना? तो फिर ?

मेघा को भी लगा कि यही ठीक रहेगा और इस तरह वह सभी मुसीबतों से छुटकारा भी पा लेगी। पर जैसे ही परीक्षाएँ खत्म होने के बाद वे लोग घर पर एम्स ट्रिप का बहाना बना घुमने गए तो वहाँ जिस अस्पताल में उन्होंने चेकअप करवाया वहाँ पहले से साइन बोर्ड पर लिखा था - लिंग जांच करवाना कानूनन अपराध है। 

मगर डॉक्टर साहिबा हम तो अबोर्शन करवाने आए हैं। हमें इससे क्या कि होने वाला लड़का है या लड़की सुशील बोला। 

डॉक्टर एक महिला थी सो उसने सुशील से कहा- तुम क्या जानों माँ बनने का सुख क्या होता है ?

सुशील कुछ बोलता इससे पहले मेघा बीच में बोल पड़ी। देखिए डॉक्टर हम वो नहीं है जो आप समझ रहीं हैं। 

डॉक्टर- क्या मतलब ?

मेघा-ये मेरा बॉयफ्रेंड है और एक दिन हम दोनों बस बहक गए और ये सब। देखिए मैंने इसे मना भी किया था और कहा भी था कि शादी से पहले ये सब मैं नहीं कर सकती। लेकिन ये नहीं माना इसके बाद मैंने इससे सुरक्षित संबंध भी बनाने से कहा मगर...

डॉक्टर एक सज्जन महिला थी और मेघा की परेशानियों को समझ रही थी सो वह अबोर्शन के लिए तैयार हो गई। अबोर्शन से पहले मेघा को डॉक्टर ने साफ-साफ शब्दों में कहा-

हो सकता है मेघा इसके बाद तुम भविष्य में फिर कभी माँ न बन सको। तो एक बार सोच समझ कर निर्णय ले लो। बाकि जैसी तुम्हारी मर्जी। एक डॉक्टर के नाते तुम्हें बताना मेरा फर्ज था। 

सुशील-डॉक्टर साहिबा आप अबोर्शन कीजिए बाकि हम बाद में देख लेंगे। एक बार तो इस मुसीबत से निकले और जो मेघा के दामन पर दाग लगने वाला है उससे उसे भगवान के लिए बचा लीजिए। 

खैर कुछ देर अस्पताल में रहने के बाद मेघा को छुट्टी मिल गई। अब वह काफी हल्का-हल्का महसूस कर रही थी। मेघा और सुशील दोनों वापस दिल्ली लौट आए थे मगर इस सब वाकये के बाद सुशील ने एकदम से मेघा से नाता तोड़ लिया। मेघा ने उसे कई बार कहा भी कि तुम्हारे उन सब वादों और कसमो. का क्या सुशील? जो तुमने मुझसे किए थे।

सुशील ने कहा- देखो मेघा मैं किसी ऐसी लड़की से शादी नहीं कर सकता जो शादी से पहले ही किसी के साथ भी सो चुकी हो ... समझी तुम! (सुशील की आवाज में गुस्सा साफ झलक रहा था )। 

मेघा एकदम हक्की बक्की सी रह गई और एक तमाचा सुशील को रसीद करते हुए कहा- क्या मतलब है तुम्हारा?

इधर दिप्ती के प्यार की भनक उसकी माँ को लग चुकी थी सो उसकी माँ ने उससे कहा- देखो बेटा पहले अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो और एक अच्छी सी नौकरी हासिल करो। 

दिप्ती-जी माँ ... अकरम भी बहुत समझदार और सुलझा हुआ लड़का है साथ ही अच्छे घर से भी। 

दिप्ती की माँ का सोचना था कि एक बार लड़की अपने पैरों पर खड़ी हो जाए उसके बाद उसके पिताजी भी ज्यादा गुस्सा नहीं होंगे और एक समय बाद वे भी दिप्ती और अकरम की शादी के लिए हाँ कह ही देंगे। आखिर बेटी है उनकी। 

इधर सुशील और मेघा के ब्रेकअप की खबरें पूरी क्लास में होने लगी थीं। मेघा सबके जवाब देते देते आजिज आ चुकी थी। वह कई बार बैठे-बैठे सोचती-

कितनी अजीब सी और दोहरी जिंदगी वह जी रही है। जबकि ये क्लास वाले ही उसकी तेज बुद्धि, विवेक और अनुभव का भरपूर फायदा उठाते हैं और साथ ही यह कहना भी नहीं भूलते कि हमने कब कहा तुम हमारी मदद करो? तुम खुद सबके लिए करती रहती हो तो उसमें उनकी क्या गलती है ?

मेघा फिर अपने आप से ही कहती हाँ-वे सब सही कहती हैं। इसमें उनकी क्या गलती है। लेकिन मैंने तो कभी किसी को भला बुरा नहीं कहा और न ही किसी का यों मजाक उड़ाया। मैंने तो सुशील से सच्चा प्यार किया था। क्या मैं सच में उसकी जरूरत ही थी। जैसा की उस रात उसने बिस्तर पर कहा था। ओह ! ओह माय गॉड! मैं समझ क्यों नहीं पाई उस पापी, दुष्ट और नीच इंसान को। हे भगवान! तू मुझे कभी माफ न करना इस गलती के लिए। पूरा एम्स जो उसके बौद्धिक कुशलता के गुणगान करता क्या वह सारी एक अदने से आदमी के लिए काफूर हो गई? मेरी अक्ल को पत्थर क्यों पड़ गये थे? मैं चीख-चीख कर खुद से ही पूछा करती।

मेघा की मानसिक हालत इतनी खराब हो चुकी थी कि उसे लगने लगा जैसे उसे इसी एम्स के पागलखाने के डॉक्टरों से इलाज करवाना पड़ेगा। रातों को वह ठीक से सो नहीं पाती थी और एक अजीब सा भय और आतंक उसके भीतर घर कर चुका था। खुली आँख से वह आसमान को ताकती रहती। पड़ोस में रात में कोई बच्चे के रोने की आवाज उसके कानों में पड़ती तो उसे लगता जैसे उसका बच्चा उसे पुकार रहा है। उस बच्चे का रुदन उसे भयाक्रांत कर जाता। 

महिलाओं के लिए आनन्द हमेशा कलंक के साथ ही आता है। ऐसा उसे भी लगने लगा था। मायका तो सबका छूटता है लड़कियों का शादी के चलते और लड़कों का रोजगार के चलते। मगर उसका मायका तो बिना शादी किए ही उससे छुट रहा था। उसे हर पल लगता जैसे वह अपनी बहन, माँ, बाप इन सबसे बहुत पीछे छुटती चली जा रही है। जैसे तैसे गिरते पड़ते उसकी मेडिकल की पढ़ाई पूरी हुई। लेकिन वह अपने माँ-बाप की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाई। इसकी गुनहगार वह केवल और केवल खुद को ही मानती। 

देखो तो प्रकृति भी चालाक और धूर्त की ज्यादा हिमायती नहीं करती। बल्कि वह तो हिम्मती और ताकतवर को ही ज्यादा सपोर्ट करती है। लेकिन जब हिम्मती और ताकतवर ही बाद में धूर्त निकल जाए तो बात अलग है। भारतीय समाज में पत्नीत्व नाम की एक संस्था है और एक स्त्री को इस संस्था को स्वीकार करना ही पड़ता है। जो स्त्री इसे स्वीकार नहीं कर पाती वह एक अच्छी बेटी, अच्छी माँ, अच्छी बहन कहलाने की भी अधिकारिणी भी नहीं बनती। लेकिन मेघा और दिप्ती दोनों ही इस संस्था को स्वीकार नहीं करती थी और न ही इस संस्था को मानती थी। फिर भी दिप्ती को आखिरकार मानना ही पड़ा। मुस्लिम ही सही अकरम के साथ विवाह बंधन में बंधना ही पड़ा। हालांकि इसके लिए उसे भी एक लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। घर-परिवार में ही नहीं बल्कि उस संस्था के लोगों से भी।

लेकिन इधर बेचारी मेघा का क्या? उसे जानने वालों ने कितनी बार कहा कि वह शादी क्यों नहीं कर 

लेती ? लेकिन मेघा हमेशा कहती क्या सात फेरों से ही सारी वैधता हासिल हो जाती है और कुछ भी करने का लाइसेंस मिल जाता है ?

इस जवाब में भी उसके लिए सामने से प्रश्न तैयार रहते ... और स्त्रियाँ भी तो शादी करती ही हैं तो तुम्हें क्या आपत्ति है? कोई पसंद नापसंद हो तो उससे कर लो।

इस पर मेघा अपने आप को आईने के सामने घंटों देखती रहती उसका मन सुशील के कारण शादी से उचट गया था। वह अक्सर अपने में खो जाया करती और चिन्तन करती कि क्या औरत इस हद तक वस्तु हो जाती है कि अपनी ही देह की एक-एक परत को उतार कर देखे? कि वह उन परतों से पुरुषों की अपूर्णता को पूर्ण कर पा रही है या नहीं? और क्या वह भी उनकी पूर्णता के लिए उनके साथ ऊँ पूर्णमिदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते .... के मन्त्र की आहुति दे ? यह जरुरी तो नहीं ?

इस तरह कई सारे सवाल मेघा के दिमाग में कौंधते रहते। 

हमारा समाज भी अजीब है। जहाँ सबको सिर्फ कुँवारी लड़कियों और पत्नियों की ही आवश्यकता है। बाकियों का क्या हो? कोई नहीं बताना चाहता। विधवा और बूढ़ी तो तीरथ में रह लेती हैं मगर प्रेम में असफल कहाँ जाए? यहाँ मुझे तुलसीदास याद हो आते- ‘केशव, कहि न जाए का कहिए। ‘

मेघा को लगता अब कोई भी पुरुष उससे जितने भी वादे कर ले मगर देर-सबेर समाज उसे उसी नजरिए से देखेगा। पीढ़ियों से स्त्री की जो छवि बन चुकी है उसको बदलने की शक्ति किसी के पास नहीं। पुरुष ही नहीं औरतें भी देह के बदलते इस मौसम को दूसरों के लिए कभी स्वीकार नहीं कर पाती। दिप्ती का जीवन तो सहजता से चल रहा था मगर मेघा ? वह यहाँ-वहाँ भटकती और टुकड़े-टुकड़े सफेद बादलों, नीले आकाश को घंटों एक टक देखती रहती। खाने के समय छुरी से मेज पर आड़ी-तिरछी लकीरें काटती रहती। जैसे शायद वह उस वक्त को काटती जो उसने सुशील के साथ बिताए थे। कभी सबसे हसीन पलों में से रहे उसके ये पल अब उसे ही काटने को दौड़ते।

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कहानी : लेखक के कहानी संग्रह ‘मौत पर हक़ है कफ़न पर शक है’ से साभार 



जनाब सागर सियालकोटी, 


शहरे-ख़मोशाँ


भोला पासवान, शंकर प्रसाद यादव और हरिया पंडित तीनों दोस्त थे उनका गाँव कोसी नदी के किनारे बसे गाँव वा तालुका रामपुर खेड़ी जिला खगाड़िया में वाक्या था। कोसी नदी जो नेपाल से होती हुई बिहार में दाखिल होती है। जब बाढ़ आती है तो ये कई कस्बों गाँवों को अपने आगोश में ले लेती है, और हर साल तबाही की नई कहानी लिख देती है इसकी चपेट में आने वाले चार मुख्य जिले खगड़िया, नौगछिया और सीतामढ़ी, सहरसा। यहाँ बड़े पैमाने पर तबाही का मंजर देखने को मिलता है। बिहार की भौगोलिक स्थिति नदियों से घिरी हुई है और इसलिए बिहार की लेबर दूसरे राज्यों और राजधानी दिल्ली जाने को मजबूर होती है। भोला पासवान, शंकर प्रसाद यादव और हरिया पंडित, बाढ़ की तबाही के कारण रोजी-रोटी के सिलसिले में, एक दिन गाँव की चैपाल पर बैठे सोच रहे थे कि क्यों न हम तीनों दिल्ली चलें, काम धंधा भी मिल जाएगा और बाढ़ से छुटकारा भी। शंकर पर पैसों का बंदोबस्त भी तो करना पड़ेगा। हरिया पंडित सो तो है। भोला, ये सब कैसे होगा। खैर कोई बात नहीं, सोचते हैं। तीनों ही छोटे किसान थे, और गाँव की पाठशाला में कक्षा आठ तक पढ़े थे। हरिया पंडित ने कहा कि मेरे पास एक आइडिया है, भोला क्या ? मेरे पास दो जोड़ी बैल हैं, उनको रामपुर खेड़ी, पशुमण्डी में बेच देते हैं, ये मण्डी इतवार के रोज लगती है। भोला और शंकर हम क्या करें। हरिया पंडित, शंकर और भोला से मुखातिब होते हुए, देखो बचपन से जवानी तक आते-आते, शादी-विवाह और दुख सुख के साथी हैं हम, हरिया माँ कहा करती थी हरिया बेटा बचपन के दोस्त और पला प्रेम गंगाजल की तरह पवित्र होते हैं बस इनको निभा देना। भोला ये बात तो सच है हमारी भाभी लक्ष्मी जी आपके पहले प्रेम की व्याहिता है एक साल हो गया शादी को अपने रिश्ता दिल से निभाया है। हरिया आप दोनों बचपन के बाल सखा है मेरे, मैं इतना भी नहीं कर सकता, देखो भाई हिसाब-किताब माई बाप का न मेरा और न आपका दिल्ली पहुँचकर काम ढूँढ़ेंगे, मेहनत करेंगे, जब आपके पास पैसे आ जाएं- तो मेरा उधार लौटा देना। हरिया आप कान्हा से कम नहीं हो। भोला और शंकर ने एक ही स्वर में कहा- आज सावन माह का पहला इतवार था, हरिया पंडित बैलों की जोड़ी बेचने के लिए सुबह-सुबह रामपुर खेड़ी के लिए निकल पड़ा। मण्डी शुरू होने तक वो वहाँ पहुँच गया। दुपहरी को रोटी खाई, जैसे ही रोटी खाई, दो आदमी आए भाई ये बैलों की जोड़ी बहुत सुन्दर है, कौन है इसका मालिक ? साहिब मैं हूँ। बैलों की अच्छी परवरिश की है, इतनी परवरिश तो आजकल यादव भी नहीं करते, बोलो क्या दाम लोगे हरिया पंडित साहब बापू बोले थे डेढ़ हजार से कम न होई। चलो सौ कम यानी 1400/- चैदह सौ में सौदा पक्का। हरिया ने कुछ देर सोचा और हाँ कर दी। शाम को हरिया घर लौटा तो बोला बाबा 1400/- रुपये में बेच आया हूँ, ठीक है बचुवा। दूसरे दिन सुबह तीनों गाँव की चैपाल पर इकट्ठे हुए और हरिया पंडित ने सारी बात की, पैसा का इंतजाम हो गया है, बस एक दो रोज में दिल्ली जाने की तैयारी करते हैं।

सोमवार सुबह नौ बजे तीनों घर से खगड़िया रेलवे स्टेशन के लिए निकल पड़े, कुछ खाने का सामान भुने हुए चने चावल और गुड़ का चूरा भी सफर के लिए ले लिया। शंकर प्रसाद यादव ने अपनी पत्नी और 2 साल की बेटी निशा को भी ले जाने का फैसला किया। खगड़िया रेलवे स्टेशन से गाड़ी चलने का वक्त शाम तीन बजकर चालीस मिनट था। हरिया पंडित, भोला पासवान और। शंकर प्रसाद अपने परिवार समेत दो बजे स्टेशन पर पहुँच गये। तीनों बहुत खुश थे कि दिल्ली जा रहे हैं। गाड़ी ठीक समय पर चल पड़ी और सारे अपनी-अपनी सीट पर बैठ गये। गाड़ी रात 2 बजे पटना जंक्शन पर रुकी 10 मिनट का स्टापेज था। तीनों ने भुने चने और गुड़ खाया और रेलवे के सरकारी नल से पानी पिया गाड़ी अब पटना से रवाना हो चुकी थी। जैसे ही गाड़ी गंगा के पुल से गुजरी शंकर की पत्नी ने पाँच का सिक्का गंगा माई के चरणों में अर्पित किया और गंगा माँ के आगे सर झुकाया और प्रार्थना की।

मंगलवार शाम सात बजे गाड़ी पुरानी दिल्ली पहुँची, हरिया, भोला और शंकर अपनी पत्नी और बेटी निशा को लेकर स्टेशन से बाहर आये। वहाँ से आजादपुर सब्जी मण्डी के लिए आटो रिक्शा किया। आठ बजे करीब आटो रिक्शा उनको आजादपुर सब्जी मंडी ले गया। वहाँ शंकर प्रसाद यादव का एक परिचित कासिम दर्जी के साथ मिलना हो गया, जो आज से पाँच बरस पहले रामपुर खेड़ी गाँव के साथ लगते गाँव रशीदपुरा से आया था और यहीं पर दर्जी का काम करता था। कासिम दर्जी ने रात उनके रहने का बंदोबस्त किया और दूसरे दिन पास की एक बस्ती में मकान किराए पर ले दिया।

अब तीनों सब्जी मंडी में काम करने लगे। एक साल बाद हरिया पंडित अपने गाँव आया और अपनी पत्नि को भी दिल्ली ले आया। काफी मेहनत मशक्कत के बाद अब तीनों ने अपना अलग-अलग मकान किराए पर ले लिया और अच्छे से गुजर बसर करने लगे। लेकिन तीनों ने कभी कासिम दर्जी को नहीं भुलाया बल्कि होली ईद पर एक-दूसरे से मिलते भी थे। भोला दो साल बाद घर गया और अपनी पत्नी को भी ले आया। अब तीनों परिवार दिल्ली में पूरी तरह सेटल हो गये थे। कासिम दर्जी ने उनके आधार कार्ड तक बनवा दिये थे क्योंकि आजादपुर सब्जी मंडी का कौंसिलर शबीर हुसैन भी बिहारी था तो कासिम दर्जी की उसके साथ पुरानी दोस्ती थी। बहुत अच्छा वक्त गुजर रहा था। अब दिल्ली में इनको पाँच, छः साल हो गये थे, अभी तक दिल्ली खामोश मगर आजादपुर सब्जी मंडी में शोर बराबर था। कहते हैं जब मुसीबत आती है, तो वह अकेली कभी नहीं आती। अचानक दस अप्रैल 2020 रात को कासिम दर्जी शंकर प्रसाद के घर आया और बताया कि कोई करोना नाम की महामारी देस में फैल गई है, जिससे साँस घुटता है और आदमी मर जाता है। हरिया पंडित, शंकर प्रसाद यादव और भोला पासवान बहुत चिंतित हो गये कि अब क्या होगा। घरों से बाहर निकलना बंद हो गया, भूखों मरने की नौबत आ गयी। बिहारी और पूरब की लेबर अपने-अपने गाँव जाने की सोचने लगे। एक रात शंकर को बुखार आ गया, उसके पास कुछ पैसे जमा थे, जो उसकी बीमारी के काम आए मगर शंकर बच न पाया, सभी ने मिलकर किसी तरह उसका दाह संस्कार कर दिया। एक महीना गुजर गया अब सारा काम धंधा ठप हो गया, हर तरफ करोना ही करोना था। लोग बड़ी संख्या में मर रहे थे। शंकर की पत्नी लक्ष्मी ने घर वापसी के बारे में सोचा मगर साथ में सात साल की बच्ची कैसे होगा। प्रदेश में बड़ी मुश्किल आन पड़ी। कोई किसी को इस डर से अपने पास न रखता कि कहीं उसे करोना न हो जाए मरता क्या न करता एक दिन लक्ष्मी ने कासिम दर्जी से गुहार लगाई कि मुझे किसी तरह मेरे गाँव रामपुर खेड़ी, खगाड़ियां पहुँचा दे, तुम्हारा भला होगा। कासिम दर्जी ने कहा एक दो दिन में कोशिश करता हूँ। कासिम दर्जी ने एक ट्रक ड्राइवर से बात की। ट्रक ड्राइवर ने कासिम दर्जी से कहा - शुक्रवार रात लक्ष्मी को भेज देना। ऐसा ही हुआ, लक्ष्मी को लेकर कासिम ट्रक ड्राइवर भैरों सिंह ठाकुर के पास पहुँच गया। ट्रक रात को चला दो दिन बाद पटना पहुँचा, ट्रक में पाँच लोग और सवार थे। रास्ते में चेकिंग के दौरान पाया गया कि सबको कसेना है, सबको पटना में ही चैदह दिन के लिए क्वारनटाइन किया गया। इसी दौरान तीन लोगों की करोना से मृत्यु हो गई। भैरों सिंह ने उनके अभिभावकों को फोन किया कि आपके परिवार के तीन लोग करोना से मर गए हैं। आप पटना सरकारी अस्पताल में आ जाएं, लेकिन कोई नहीं आया, अन्ततः लावारिश घोषित करके पटना में उन तीनों का संस्कार कर दिया गया। लक्ष्मी काफी चिंतित हो गई कि गाँव कैसे पहुँचा जाए और साथ में एक बेटी भी है। उधर हरिया पंडित और भोला पासवान भी चिंता में थे कि लक्ष्मी पहुँची या नहीं। उसका क्या हुआ होगा, आखिरकार 4 दिन बाद लक्ष्मी अपनी बेटी के साथ घर पहुँच गई। अब देश भर में करफू (Curfew) लगा हुआ था लोग घर से बाहर भी चोरी छिपे निकलते, कोई कहीं आ जा नहीं सकता था। काम धन्धे सब ठप हो गये थे। लोगों को अपनी-अपनी जान बचाने के लाले पड़े हुए थे। हरिया पंडित और भोला भी काफी मुश्किल दौर से गुजर रहे थे।

उधर हरिया पंडित की पत्नी 9 महीने के गर्भ से थी। बच्चा किसी भी वक़्त दस्तक दे सकता था। हरिया पंडित के लिए ये भी चिन्ता का विषय बना हुआ था हरिया और उसकी पत्नी, एक रात सोच रहे थे कि अपने गाँव में ही अच्छे थे। मरते भी तो कोई न कोई लकड़ी दान कर ही देता, मर तो चैन से जाते। भोला ने हरिया पंडित से कहा - फिक्र मत कर यदि एक लड़की अपने बीमार पिता को फरीदाबाद से मुज्जफरपुर लेकर जा सकती है, हम तो फिर मर्दजात है, दूसरा सुना है न ‘‘एक बिहारी सब पर भारी‘‘, हरिया भोला से क्या किया जाए फिर, तू ही बता। भोला मेरे पास कुछ रुपये हैं और पत्नी के कुछ गहने। कासिम भाई से कहकर गहनें जितने के बिकते हैं बेच देते हैं और एक रिक्शा खरीद लेते हैं, भोला तेरी बात में दम है। भोला दूसरे दिन कासिम दर्जी के पास जाता है और उसे सारी कहानी बयान कर देता है। कासिम दर्जी ने भोला की पूरी-पूरी मदद की और उसे रिक्शा दिलवा दिया। भोला रिक्शा लेकर घर आ गया और अपनी पत्नी, रुक्मिणी से बोला - इसी रिक्शा से हम अपने गाँव जाएंगे, क्योंकि गाड़ियां और दूसरे सारे साधन भी बंद है। भोला की पत्नी घबराई और मन ही मन सोचती है, भगवान ये दिन भी देखने पड़ेंगे कुछ सहम-सी गई भोला ने कहा - हौसला रख रुकमणी, ये दिन भी गुजर जाएंगे।

इधर भगवान को कुछ और ही मंजूर था। हरिया की पत्नि एक रात ज्यादा ही बीमार हो गई, उसने हरिया से कहा - किसी दाई-माई (उपकूपमि) का प्रबंध करो अब दर्द बहुत बढ़ गया है। बच्चा पैदा होने में कुछ ही समय बचा है। हरिया ने भोला से कहा कि वो कासिम दर्जी के पास जाएं, ताकि दाई-माई का कोई बंदोबस्त हो सके। भोला दाई को लेकर आया, दाई ने बच्चा जनने का सारा प्रबंध कर दिया, और लड़का पैदा हुआ। मगर हरिया की पत्नी न बच सकी। रुकमणी ने बच्चे को अपनी छाती से लगाते हुए कहा भगवान इसकी रक्षा करेगा। रुकमणी ने हरिया और भोला को कहा कि ये भगवान की लीला है, इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता, अब इन सब बातों को भूलकर मैं ये सोच रहा था कि भाभी के संस्कार का क्या और कैसे होगा।

जब संस्कार के बारे में सोचा गया, तो पता चला कि शमशान भूमि पर पहले ही लाशों के अंबार लगे हुए हैं और दाह संस्कार के लिए करोना किट पहननी पड़ती है और एक किट की कीमत 400ध्- पर किट है जो कम से कम तीन किट तो चाहिए हीं। हरिया पंडित ने सोचा, मेरे पास तो पैसे भी नहीं है, अब कैसे होगा संस्कार। भोला ने कहा, हरिया तू फिक्र न कर, सब भगवान पर छोड़ दे, कोई न कोई रास्ता जरूर देगा। हरिया जलती मोम की तरह पिघल रहा था और उसका मनरूपी धागा जल रहा था।

भोला डरते-डरते, हरिया एक रास्ता है। हरिया भोला से क्या ...? भोला जब कोई भी प्राणी मर जाता है, आत्मा तो अमर अज्र ही होती है, शरीर मिट्टी का ढेर ही तो रह जाता है जिसे कोई जला देता है, कोई दफना देता है और कोई दरिया में बहा देता है देखा नहीं करोना काल में कितने लोगों ने गंगातट, बनारस में सैकड़ों ही लाशों को पानी में बहा दिया। हरिया, तू फिक्र न कर मैंने एक तरकीब सोच ली है कि सूरज ढलते ही लाश को जमुना नदी में बहा देंगे। हरिया वो कैसे ? भोला हरिया से सुन भाभी के माथे पर सिंदूर लगाकर, एक चादर में रख देना, मैं रिक्शा ले आऊँगा, तू भाभी को पकड़कर बैठना, और फिर हम दोनों जमुना नदी में बहा देंगे हरिया ठीक है। रात आठ बजे भोला रिक्शा लेकर आ जाता है और हरिया पत्नी की लाश लेके रिक्शा में बैठ जाता है और ठीक योजनाबद्ध तरीके से जमुना. नदी की ओर चल पड़ते हैं, रास्ते में एक चैराहे पर एक सिपाही कहाँ जा रहे हो माई-बाप पत्नी बीमार है, डॉक्टर के पास ले जा रहे हैं सिपाही ने बीड़ी का कश लेते हुए कहा - चलो, चलो जल्दी करो और आगे बढ़ो - भोला ने तेजी से रिक्शा खींचा और चल दिया, थोड़ी देर में जमुना नदी के पास किनारे पर पहुँच गये, और लाश को जमुना नदी के हवाले कर दिया, पानी का बहाव तेज था, लाश पानी में बह गई। हरिया भोला से यही कलियुग है। भोला ने रिक्शा मोड़ा और मेन सड़क पर आ गये। हरिया भोला से कहता है, भोला आज तेरी सोच से ही भाभी का संस्कार हुआ है। वरना।

उसी रात रुकमणी, भोला की पत्नी हरिया पंडित का बच्चा, गोद में लिए और हरिया दिल्ली से बिहार के लिए निकल पड़े। हजारों लोग पैदल, साइकिल और रिक्शा पर पूर्व दिशा की ओर बढ़ रहे थे। इस भीड़ में हम भी शामिल थे। रास्ते में चलते-चलते हमें कोई हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख या ईसाई नहीं मिला अगर कोई मिला तो बस इन्सान मिला, जो एक दूसरे के साथ दुख बाँट रहे थे। चैदह दिन लगातार रिक्शा खींचते हुए हम गायघाट गुरुद्वारा, पटना साहिब पहुँचे। गुरुद्वारा साहिब में माथा टेका, फिर गुरु का अटूट लंगर छका, चायपान किया कड़ाह प्रसाद लिया, जो आगे हमें दो दिन के सफर में काम आया। बेगूसराय पहुँचते-पहुँचते हमें रात हो गई और रुकमणी भी कुछ थकावट और बुखार महसूस कर रही थी। हरिया ने कहा, घबराओ नहीं, आधा किलोमीटर की दूरी पर मेन बाजार में कलवरी मिशन चर्च है, वहाँ से दवाई मिल जाएगी। हरिया रिक्शा चला रहा था थोड़ी देर बाद मिशन चर्च पहुँच गये। अभी शाम की प्रार्थना समाप्त हुई और पादरी साहिबान चर्च से बाहर आये।

हरिया ने रिक्शा रोका और पादरी नेलसन को दिल्ली से यहाँ तक पहुँचने की सारी बात बताई, पादरी ने नर्स जावेदा मरियम को बुलाया और रुकमणी को दवा दी, रुकमणी ने जैसे ही ज्ंइसमज खाई, उसे कुछ आराम महसूस हुआ। रात चर्च की सराय में आराम किया, और सुबह होते ही पादरी साहब को धन्यवाद किया और अपने गाँव रामपुर खेड़ी के लिए निकल पड़े। शाम चार बजे जैसे ही गाँव में दाखिल हुए कुछ कुत्तों के रोने की आवाज आ रही थी। रुकमणी अपने पति भोला से देखो जी गाँव के बड़े बुजुर्ग बताते हैं जब कुत्ता रोए तो समझ लेना किसी की मृत्यु हुई है हरिया ने भी हाँ में सिर हिलाया। जब गाँव के अन्दर दाखिल हुए तो पता चला कि इस करोना महामारी से गाँव के 13 लोग अभी तक मर चुके। शमशान ठंडा होने का नाम ही नहीं लेता, पता चला कि कल रात चाचा नजीर, भुआ इस्मत बेगम, ठाकुर राम सिंह भोला का पिता धनिया पासवान और राधा पंडत भी करोना की भेंट चढ गये हैं, भोला और रुकमणी बहुत रोए, कब्रिस्तान और शमशान साथ- साथ ही थे, हरिया ने रोते हुए कहा - चाहे शमशान हो या कब्रिस्तान, हमारे अकीदे अलग हो सकते हैं मगर हमारा अलम-ओ-दर्द और रंजो गम एक है क्योंकि हम इंसान हैं, बाद में हिन्दू, सिख, ईसाई या मुसलमान हैं। हरिया पंडित ने चाचा नजीर की गठड़ी को पकड़ा और सुपर्देखाक कि रस्म निभाई और अचानक उसकी काँपती जुबान ये कह उठी-

ए-शमशान तेरी खामोशी क्यों नहीं जाती 

हम अपनी जान दे देकर तुम्हें आबाद करते हैं।

शब्दार्थ - 1. शहरेख़मोशां = कब्रिस्तान





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प्रो. फूलचंद मानव, -ढकौली, जीरकपुर (समीप चंडीगढ़) मो. 9316001549, 9646879890, 

ईमेल: phulchandmanav@gmail.com

शिवकुमार बटालवी और जीनपाल सात्र्र की मुलाकात 

लेखन, अनुवाद, संपादन या कोई भी क्षेत्र हो हर जगह असहिष्णुता झांकती झलकती हमें मिल जाती है। आज भले यह अपने चरम पर है, लेकिन 50 साल पहले भी आलम इससे अलग नहीं था। किसी रास्ते पर कोई बहुत आगे जा रहा है। अपने कार्यक्षेत्र को किसी ने विस्तृत कर लिया है या थोड़ा बहुत किसी नाम की कहीं चर्चा होने लगी है, तो उसको सहन नहीं किया जाता। ईष्र्या, द्वेष की अपेक्षा यदि प्रतिस्पर्धा या होड़ इसका स्थान ले पाए तो स्थितियां ही कुछ और हो सकती हैं, लेकिन तब भी यह सब ऐसा नहीं था।

सन् 1970 के आसपास सतिंदरसिंह नूर अनियतकालीन पत्रिका ‘31 फरवरी’ दिल्ली से निकालने लगे थे। डॉ. हरिभजनसिंह, हरिनाम या अन्य कुछ दोस्तों का वरदहस्त इनके साथ रहा होगा। सतिंदरसिंह नूर के पिताश्री हरिसिंह जाचक अंबाला में रहते थे। वहीं उनका मुद्रणालय था। उसी प्रिंटिंग प्रेस में छपने के बाद ‘31 फरवरी’ पत्रिका की प्रतियां वितरित की जाती थी। लीक से हटकर यह पत्रिका कहलाती थी। टोपी, पगड़ी उछालना कभी कभी किसी का धर्म हो सकता है, लेकिन हर समय ऐसी स्थितियों को सहन भी नहीं किया जा सकता। उनदिनों मैं पंजाब राज्य पाठ्य पुस्तक बोर्ड, सेक्टर 9 डी चंडीगढ़ में सहायक संपादक पंजाबी था। डॉ. प्रेम प्रकाश सिंह तब तक पीएचडी नहीं हुए थे, लेकिन भाषाविद के रूप में उनका पूरा दबदबा था। यही हमारे पाठ्यपुस्तक बोर्ड के निदेशक होकर पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला से डेपुटेशन पर चंडीगढ़ आए थे। एक सरदार गुरशरणसिंह यहां संपादक के पद पर थे। मोहनसिंह रतन, मदन लाल हसीजा, सरवनसिंह परदेशी, सौंधी, हरबंशकौर के साथ सरदूलसिंह और भूपेंद्रसिंह सिंह भी हमारे वरिष्ठ, कनिष्ठ सहयोगी के तौर पर कार्यरत थे। कुछ दोस्तों को बोर्ड में काम करते हुए भय लग रहा था, कि बोर्ड भंग हो गया तो उनका भविष्य क्या होगा! डायरेक्टर साहिब ने दो पत्रिकाओं का संपादन कार्य मुझे सौंप रखा था-पंजाबी में ‘सामाजिक विज्ञान दर्पण’ और ‘विज्ञान दर्पण’ पत्रिकाओं का कार्यभार मेरे जिम्मे था। यह दोनों त्रैमासिक पत्रिकाएं थी। इनके लिए हम विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के विषयों पर लेख लिखवाते, अनुवाद करवाते, संशोधन और संपादन करने के बाद पत्रिका में शामिल किया करते थे। भाषा की दृष्टि से मुझे पंजाबी को सामने रखकर इस क्षेत्र में न्याय करना होता था। बहुत से विद्वान पत्रिकाओं के लिए लेख भिजवाते, संवाद या परामर्श के लिए बोर्ड में आते जाते रहते थे।

शिवकुमार बटालवी अपने अंतिम दिनों में लंदन से होकर लौटे थे। शिव बटालवी खूबसूरत व्यक्तित्व के धनी थे। उनका रंग सांवला हो रहा था। बाल बहुत छोटे कटे हुए दिखाई देते थे। और चेहरे का वह आकर्षण लुप्तप्राय हो रहा था। पंजाबी मंचों पर शिव कुमार बटालवी एक बेजोड़ कवि रहे हैं। उनकी स्वरलहरी, लयात्मकता और धुन के प्रभाव से मानो श्रोता समाज बधुआ बन जाता था। पूरी खामोशी के मध्य विशाल सम्मेलनों में उनके गीत, ग़ज़लें सुनी और सराही जाती रही थीं।

‘31 फरवरी’ जैसा कि पत्रिका का नाम भी चैंकाने वाला है, स्वयं को चर्चा में लाने के लिए कभी कभार अतिरिक्त प्रयत्न कर दिखाती थी। सतिंदरसिंह नूर पंजाब, पटियाला, अंबाला से दिल्ली गए थे और वे हरिभजन सिंह के साथ रहते हुए बहुत कुछ सीखने की चेष्टा कर रहे थे। कविता में, आलोचना में, अनुवाद में, सतिंदरसिंह नूर के वे शुरुआती दिन थे, और ‘31 फरवरी’ के माध्यम से विस्फोट करके मानो पाठक समाज का ध्यान आकर्षित कर रहे थे। उनकी एक टोली थी जिसे लोग गिरोह कहा करते थे। मित्रमंडली में हम सब सहयोग लेने और देने की प्रवृत्ति से परिचित हैं, लेकिन नूर एकसाथ सात समुंदर पार करने का शौक पाले हुए थे।

मैं हिन्दी में लिखता और छपता था। पंजाबी में कभी कभार कुछ पत्रिकाओं में लिखा, छपा करता था। हिन्दी जगत में विस्तृत परिचय क्षेत्र के कारण पंजाब से बाहर बड़ी पत्रिकाओं ने मुझे खूब प्रकाशित किया। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत, कल्पना, ज्ञानोदय, लहर बिंदु, सूत्रकार अंकन, विश्वज्योति जैसी अनेक पत्रिकाओं में मेरी अपनी रचनाओं के साथ अब तक मेरे द्वारा पंजाबी में किए गए अनुवाद भी आने लगे थे। मुझे अच्छा लगता था, जसबीरसिंह आहलूवालिया, अतरसिंह, रविंदर रवि, सुरजीत विरदी या अमितोज जैसे परिचित हस्ताक्षर मुझे अपनी रचनाएं हिन्दी में अनुवाद करके प्रकाशित करवाने के लिए प्रेषित किया करते थे। उनको पढ़ना, समझना और चयन करके हिन्दी की साधन संपन्न पत्रिकाओं को अनूदित रचनाएं भिजवाना मेरी दिनचर्या हो गई थी। मेरे मौलिक लेखन को इसी कारण कभी कभार स्थगित करना पड़ता था। मैं यदि चार दोस्तों के लिए भला या सही अनुवादक सिद्ध हो रहा था तो 14 परिचित, अपरिचित मुझे मूर्ख और अनुवाद का भट्ठा बैठाने वाले रचनाकार के तौर पर याद किया करते थे। यह स्वाभाविक भी है। कविता और कहानी मेरे आसपास थे। असंख्य रचनाएं बड़ी पत्रिकाओं में अनुवाद होकर हिन्दी में आती तो उनपर चर्चा भी होती। उनके रचनाकारों का नोटिस लिया जाता और दिल्ली या दूरदराज के क्षेत्रों में रचनाकारों को उसी आधार पर आमंत्रित किया जाता था। उसी दौरान जगतार, अमितोज, सतिंदरसिंह नूर और फूलचंद मानव को विष्णु खरे ने साहित्य अकादेमी रविंद्र भवन दिल्ली में उपसचिव होते हुए भोपाल मध्यप्रदेश में काव्यानुवाद कार्यशाला के लिए आमंत्रित किया था। यह कार्यशाला 10 दिन के लिए थी।

‘31 फरवरी’ का अंक सामने आया तो मैं पाठ्यपुस्तक बोर्ड के अपने कक्ष में एकाएक चैंक उठा। एक लेख टिप्पणी के तौर पर ‘31 फरवरी’ के अंतिम कवर पर छपा था- ‘शिवकुमार बटालवी और जीनपाल सार्त्र की मुलाकात’... इसके नीचे छपा था मूल जर्मन से अनुवाद फूलचंद मानव। यह मेरा रचना सहयोग नहीं था। न मैंने कभी ऐसे किसी लेखन को कहीं पढ़ा और न ही इसे अनुवाद किया गया था, लेकिन अनुवादक के रूप में अपना नाम देखकर मुझे बहुत कुछ ध्वनित होने लगा। मेरे प्रति यह षडयंत्र था- मूल जर्मन से अनुवाद फूलचंद मानव। मैंने या मेरे परिवार के किसी सदस्य ने कभी जर्मन पढ़ी नहीं, फिर फूलचंद मानव जर्मन से अनुवाद कैसे कर सकता है। इसमें डाह, ईष्र्या और प्रतिस्पर्धा महसूस करते हुए मैंने अपने दोस्तों से इसका जिक्र किया। यंगसिक्ख और पंजपाणी पंजाबी की मासिक पत्रिकाओं के संपादक जोगिंदर सिंह साहनी उनदिनों सेक्टर 21 चंडीगढ़ में रहते थे और मुझसे रचना सहयोग, अनुवाद आदि की अपेक्षा करते रहते थे। उन्होंने वकालत पास की थी। मेरे हितैषी थे। ‘31 फरवरी’ का अंक देखने और पढ़ने के बाद उनको भी यह सब नागवार गुजरा और मुझे राय दी कि चाहो तो इस पर तुम डेफरमेशन का केस कर सकते हो। उस तरह की दिलचस्पी मेरी कभी नहीं थी, लेकिन साहनी साहिब की राय के बाद मैंने सतिंदरसिंह नूर को अंतर्देशीय पत्र नीला लिफाफा लिख भेजा, कि यह बटालवी और सार्त्र प्रसंग उनको कहां से और कैसे प्राप्त हुआ है। स्पष्ट किया कि मैंने न तो कहीं पढ़ा है, न इसका अनुवाद किया है और न ही ‘31 फरवरी’ के लिए मैंने भिजवाया है और मुझे जर्मन भी नहीं आती। इसके स्पष्टीकरण में नूर ने जो मुझे बताया उसका सार यही था कि उनको यह मैटर पंजाबी में टंकित किया हुआ आया था, नीचे मूल जर्मन से फूलचंद मानव अनुवादक के तौर पर टंकित किया हुआ था, और उसपर किसी के हस्ताक्षर नहीं थे। यह सारी बातें मैं श्री जोगिंदरसिंह साहनी को बता चुका तो उन्होंने मेरे लिए एक लंबी ड्राफ्टिंग अंग्रेजी में तैयार की। इसकी प्रतियां रजिस्टार न्यूजपेपर, सूचना और प्रसार मंत्री भारत सरकार, ज्ञानी हरिसिंह जाचक, मुद्रक, अंबाला और सतिंदरसिंह नूर आदि को रजिस्टर्ड डाक से हमने भिजवाई। मेरे लिए तब यह एक सामान्य सी भूमिका लग रही थी, लेकिन इसी पत्र ने दिल्ली के पंजाबी साहित्य समाज के सामने तूफान खड़ा कर दिया था। सतिंदरसिंह नूर, हरिनाम के पास गए और उनसे कहा कि हरिनाम के मित्र गुरशरणसिंह पाठ्यपुस्तक बोर्ड में चंडीगढ़ संपादक हैं जिनके साथ फूलचंद मानव इनदिनों काम कर रहा है।

संतसिंह सेखों, हरिभजनसिंह, हरिनाम समेत कुछ अन्य लोगों से भी पाठ्यपुस्तक बोर्ड के अधिकारियों पर दबाव बनाया जा रहा था, लेकिन यह तो मेरा निजी मामला था। पाठ्यपुस्तक बोर्ड से इसका कोई लेना देना नहीं था। मेरे संपादक महोदय ने जब कभी पांडुलिपि संपादनोंपरांत डायरेक्टर पाठ्यपुस्तक बोर्ड को भिजवाई तो कभी कभार वही पांडुलिपि मुझे मार्क कर दी जाती थी, कि इस पर एक नजर मारकर मैं समय लगाऊं क्योंकि इसके साथ बोर्ड का नहीं, पाठ्यपुस्तक बोर्ड के डायरेक्टर का नाम भी जुड़ा हुआ है। ऐसे में मेरा स्थान और मुकाम मुझे समझ आ रहा था। अदना सा सहायक संपादक किसी उच्चाधिकारी संपादक द्वारा पास की गई पांडुलिपि को जब देखने का अवसर प्राप्त करता है तो उसका मान, सम्मान, गौरव और गर्व कुछ और बढ़ जाता है। मैं खुश था।

एक दिन मेरे संपादक ने पंजाबी कवि हरिनाम का फोन पाकर मुझे अपने कमरे में बुलाया और पूछा, ‘सुबह से मैंने क्या काम किया है’।

मैंने बताया, ‘दो कप चाय पी है, एक अतिथि को सुना और आधा अखबार पढ़ा’।

उन्होंने पूछा ‘तुमने दिल्ली में कोई नोटिस भिजवाया है’?

मेरा उत्तर था, ‘आप सुबह दही चावल खाकर आए हैं क्या’?

ऐसे माहौल में तनाव आना ही था, मैं संपादक को और मुझे संपादक ‘देख’ रहे थे। संयोगवश इस अवसर पर कमरे में कोई और नहीं था। मैं पहचानता और समझता था कि दफ्तरी कार्य व्यवहार और निजी गतिविधियां अलग अलग कहलाती हैं। यदि किसी को मेरे व्यक्तिगत कामो. के बारे में कुछ भी पूछने का अवसर मिलता है तो मेरा अधिकार है कि मैं उसे अपनी तर्ज पर उत्तर दूं।

अब तक बाहर के साहित्यकारों, लेखकों, संपादकों का कुछ कुछ दबाव मेरे संपादक और मेरे व्यक्तित्व पर महसूस होने लगा था, लेकिन मेरे साथ बैठने वालों में जो सहायक संपादक कहलाते थे ऐसे लोग भी शामिल थे जो बिल्कुल नए अनुभवहीन और पीछे के रास्ते से नियुक्ति लेकर आए थे। क्या ऐसे में आपका हौंसला बढ़ नहीं जाएगा। फिर मैं तो 27 पुस्तकें पंजाबी में विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के विषयों पर संपादन करने के बाद दो-दो पत्रिकाएं भी संभाल रहा था। जिनके संपादकीय नोट्स भी कई बार मुझे ही लिखने पड़ते थे। 

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श्री योगेन्द्र पांडेय, सलेमपुर, देवरिया, मो. 7683047756


।। तुम्हारे हाथ का कंगन ।।


तुम्हारे हाथ का कंगन

हथकड़ी न बन जाए

पांव की पायल कहीं

जंजीर न बन जाए।

तुम्हे लड़ना होगा

तुम्हे अड़ना होगा

अपने अधिकारों के लिए।

छीन लो अपने हिस्से का आकाश

छीन लो अपने हिस्से का प्रकाश

मुट्ठी भर मर्द तुमको

कुचलने का षडयंत्र करेंगे

कोशिश करेंगे तुम्हे मिटाने की

तुम्हारे देह का मांस 

नोचने के ताक में हैं भेड़िए

मगर अपने अस्तित्व की लड़ाई

तुम्हे खुद लड़ना होगा 

तुम्हे हथियार बनाना होगा

हाथ के कंगन को

पांव की पायल को।।

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लघुकथा

सुश्री वीणा विज, जलंधर, मो. 9682639631


खडूस 

‘‘जब देखो तुम फोन पर चिपकी रहती हो!‘‘ वैष्णवी के पास से गुज़रते हुए मनोज खिजे हुए से बाहर वराण्डे की ओर चले गए। उसे लगा शायद वे उससे कुछ बात करने आए थे। वह व्हाट्सएप पर आज के कुछ मैसेज चेक कर रही थी। उसे गिल्टी फील हुआ। वह मनु के पीछे-पीछे दौड़ी।

‘‘सॉरी, हां बोलो क्या बात है?‘‘

यह रोज का किस्सा था। मनोज जब भी बात करने आते ,उसे कहीं ना कहीं फोन पर व्यस्त पाते थे। लैपटॉप पर काम करना उसने छोड़ दिया था। फोन हैंडी लगता था उसे। फेसबुक पर उसे कॉलेज की कुछ सहेलियां भी मिल गई थीं। जिन के विषय में उसे कुछ नहीं पता था अब उनकी टाइमलाइन में जाकर उनके व्यक्तित्व के विकास के विषय में उसे जानकारी मिल गई थी। इधर मनु इतने अधिक सैल्फ सैंटर्ड हो गए थे कि जिनसे कभी दोस्ती थी, उनसे भी कन्नी काट लेते थे। हां, जिनसे कुछ काम होता बस उनसे कभी काम होने पर मिल लेते। लेकिन वैष्णवी आस- पड़ोस में गम -खुशी के मौकों पर पहुंचती, मंदिर, गुरुद्वारे, सत्संग और किट्टी पर भी जाती। वह स्वभाव से मिलनसार थी। उसकी सहेलियां उसे साथ ले जाती थीं। शायद यही घर- घर की कहानी थी, तभी तो वो लोग इकट्ठी होकर सिनेमा हॉल में मूवी देखने भी जाती थीं।

मनोज कहते,‘‘ तुम जहां मर्जी जाओ पर मुझे तंग मत करो और ना किसी को घर लाओ कि मैं परेशान होऊं।‘‘ मनोज की नकरात्मक और एकांत की आदत को कैसे कुछ बदला जा सके, वैष्णवी यही सोचती रहती। आरव कैनेडा में और अनन्या अमेरिका में अपने परिवार सहित मस्त थे। वहां दोनों के पास एक- एक बार जाकर मनोज का मन भर गया था। वह लोग कभी वीडियो कॉल करते तो इन्हें वह भी मुसीबत लगती क्योंकि मनोज अपना बेस्ट दिखाना चाहते थे हर समय। अब बुढ़ापे में डेंचर उतरा हो तो चेहरा अजीब लगेगा ही, वह डैंचर के बगैर कभी किसी के सामने आज तक गए ही नहीं थे, इसलिए डैंचर लगा कर बात करनी होती थी तो मुसीबत ही लगनी थी। जबकि वैष्णवी को वीडियो कॉल के बगैर...

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लघुकथा

सुश्री नमिता सिंह ‘आराधना’, अहमदाबाद, मो. 9724756948, 

ईमेल: nvs8365@gmail.com

ऊँगलियों के निशान

मिस्टर और मिसेज वर्मा की शादी की सालगिरह की पार्टी चल रही थी । पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी। दोनों एक दूसरे की आँखों में झाँकते हुए बड़े प्यार से एक दूसरे को केक खिला रहे थे। तभी मिसेज वर्मा के हाथ से टकराकर शरबत का एक कीमती गिलास गिरकर टूट गया। ये देखते ही मिस्टर वर्मा ने घबरा कर मिसेज वर्मा का हाथ पकड़ लिया और पूछा, ‘‘तुम्हें लगी तो नहीं?‘‘

 विजय को लग रहा था कि मिस्टर वर्मा सबके सामने ढोंग कर रहे हैं। मिसेज वर्मा के गिलास तोड़ने पर उन्हें गुस्सा तो बहुत आया होगा लेकिन सबके सामने उन्होंने जज्ब कर लिया होगा। इसलिए मौका पाकर अकेले में उसने मिस्टर वर्मा से कहा, ‘‘शरबत का इतना कीमती सेट आज आपकी शादी की सालगिरह के दिन ही बर्बाद हो गया। मिसेज वर्मा को तो पता ही होगा कि यह कितना कीमती सेट था। ध्यान रखना चाहिए था उनको।‘‘ कहते हुए उन्होंने मिस्टर वर्मा की आँखों में झाँका कि शायद अब मिस्टर वर्मा की भड़ास बाहर आएगी। 

लेकिन मिस्टर वर्मा ने कहा, ‘‘वह तो शरबत का एक मामूली गिलास ही था। कितना भी कीमती हो पर मेरी पत्नी से ज्यादा कीमती तो नहीं। मेरी पत्नी मेरे सुख-दुख की साथी है। मेरे जीवन की मुश्किल घड़ियों में मेरा सहारा बनकर हमेशा मेरे साथ रही। फिर वह एक जीती जागती इंसान है। किस इंसान से गलती नहीं हो सकती। हो सकता है वह गिलास मेरे ही हाथ से गिरकर टूट जाता। तब? एक गिलास मेरी पत्नी से बढ़कर तो नहीं हो सकता।‘‘ 

विजय की पत्नी तनुजा पास ही खड़ी उनकी बातें सुन रही थी और मेकअप से छुपाए गए अपने चेहरे पर विजय की उँगलियों के निशान सहला रही थी, जो कल रात गलती से उसके हाथ से एक शोपीस टूट जाने की वजह से उसे उपहार स्वरूप मिले थे। 

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लघुकथा

प्रो. आर. एस. ठाकुर, मोतिहारी, पूर्वीचम्पारण, मो. 9934675401

माँ

अंधेरी रात थी। घर के कोने में किसी के सुबुक-सुबुक कर रोने की करुण ध्वनि हवा में घुल रही थी। उसे सुनकर एक व्यक्ति दबे पांव वहां पहुंचा। उसने बच्चे से पूछा क्यों सुबुक रहा है। बच्चा नहीं बोला। कितने ही बार पूछने पर बच्चे ने कहा वह अपनी माँ के लिए रो रहा है, उसी की याद आ रही है, वह उसे छाती में सटाकर सुलाती थी, वह अब नहीं है। मां के मरने के बाद बाप ने दूसरा विवाह कर लिया। अब मुझे कोई नहीं पूछता इसीलिए मैं सुबक रहा हूँ, जाहिर है जिसकी मां नहीं होती उस बच्चे को बाप भी नहीं पूछता। बच्चे से यह सुनकर वह दबे पांव अंधेरे में चला गया। वह बच्चे का बाप ही था....     

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लघुकथा


डाॅ. दलजीत कौर, चंडीगढ़, मो. 9463743144

सोच

वह उस समय में डॉक्टर बनी जब लोग लड़कियों को स्कूल भी नहीं भेजते थे। डॉक्टर से ही शादी हुई। उसके दो बेटियाँ व एक बेटा हुआ। समय के साथ-साथ अपना एक बड़ा क्लीनिक बनाया। बेटियाँ पढ़ने में होशियार थीं। पर वह बेटियों पर ज़्यादा पैसे खर्च नहीं करना चाहती थी। उसकी सोच थी-“बेटियों को तो पढ़-लिखकर पराए घर चले जाना है। उनके डॉक्टर बनने का हमें क्या लाभ ?”

वह बेटे को किसी भी कीमत पर डॉक्टर बनाना चाहती थी। वही उनके बाद क्लीनिक का उत्तराधिकारी होगा। उसकी सोच के अनुसार बेटा डॉक्टर नहीं बना। बुढ़ापे के कारण पति-पत्नी बिस्तर पर आ गए। क्लीनिक खंडर हो गया। धीरे-धीरे उसकी दीवारें गिरने लगी। मगर सोच की दीवारें अभी भी शक्तिशाली थीं।

मकान

हम उसका नया मकान देखने गए। वह गर्व से सब कीमती सामान दिखा रहा था। वह बता रहा था। दरवाजे की क़ीमत,उस पर लगे ताले की क़ीमत, फर्श पर लगे पत्थर की क़ीमत, आलीशान मकान की कीमत। हर तरफ बेशुमार पैसा लगा था। 

वह दिखा रहा था अपना बेशक़ीमती मकान और मैं उस मकान में घर ढूँढ रही थी।

स्तर

उसे दिखावा बहुत पसंद है। वह कपड़े ब्राण्ड के पहनता है और जूते भी। घड़ी, मोबाइल, पेन आदि सब ऊँची कम्पनी के। उसने घर ऊँची सोसाइटी में ख़रीदा। घर के दरवाजे, पंखे, ए.सी., पर्दे, नल, सब ऊँचे स्तर के। बच्चों को कपड़े भी ब्राण्ड के पहनाता है। घर से स्टील के बर्तन बाहर फेंक दिए हैं। घर में केवल काँच के बर्तन ही हैं। बीवी, माँ और बेटी के बाल कटवा कर उन्हें माडर्न बना दिया है।

कल रात उसके घर से किसी औरत के रोने की आवाज आ रही थी। सुबह पड़ोसी ने बताया-“उसने बीवी को पीटा। अक्सर बीवी पर हाथ उठाता है।”

मेरे मन में आया - दिखावे का स्तर तो बहुत ऊँचा है पर सोच का स्तर ?      






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