Abhinav Imroz June 2023

 



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करेंट अफेयर्स

सुश्री एकता व्यास 


विपौरजाय



ना जाने क्या हो गया है दरिया के मिज़ाज को 

मौसम कोई भी हो 

परिस्थितियां कैसी भी हो 

जब देखो तब डिप्रेशन हो जाता है भाई साब को

एक अदद मनोचिकित्सा की तलाश है

कोई तो बताए आख़िर माजरा क्या है

क्या तक़लीफ़ हैं जनाब (समंदर) को

कभी कच्छ

तो कभी कराची

और कभी रुक जाना है बीच रास्ते

अब बस बहुत हुआ 

आना है तो आओ 

नहीं तो मर जाओ (diffuse) खुदा के वास्ते!!

बारात (चक्रवात) पहुँची

दूल्हा (चक्रवात कि आँख) आया

अब तक तो नहीं

धीमे धीमे आ रहे हैं

बाराती रास्ते मैं नाच गा रहे हैं

ख़ूब धूम धड़ाम मचा रहे हैं 

अब आय की तब आए

जब भी आए

शांति से जाए 

बिना किसी को लिए

गर्त में समा जाए


दुनिया भर में महान कहलाए जाने वाले सिकन्दर का लश्कर कच्छ के रण (रेगिस्तान ) में ऐसा फँसा की सिकंदर की सेना को जन धन की भारी हानि  का सामना करना पड़ा । और इसके बाद तथाकथित महान कहे जाने वाले सिकंदर को अंततः विश्व विजेता बनने का विचार कच्छ के रण मैं ही दफ़न करके वापस जाना पड़ा ऐसा बड़े बूढ़े बताते हैं ।

यही है कच्छ के रण और दरिया की माया और वैसे भी यह वही तट हैं जहाँ 826 ईस्वी में नागा साधुओं के पहले अखाड़े का जन्म हुआ था जिसे हम निरंजनी अखाड़ा- इसे जूना अखाड़ा भी कहते हैं ।

 अरबी  समंदर में उपजा 6 जून  की मध्यरात्रि का दैत्य 10 दिनों तक तक समंदर में घूम-घूम कर ऊर्जा का संग्रहण करता रहा, सिर्फ़ और सिर्फ़ कच्छ की भूमि को खेदान-मैदान कर देने के इरादे से 4 से 5 घंटे लंबी अवधि लैंड फ़ॉल विधि को पार करके ज्यों ही इस दैत्याकार चक्रवात ने कच्छ की धरती के पाँवपखारे बस फिर क्या था दैत्य की शक्तियां में निरंतर छरण होना शुरू हो गया । मेरी नज़र में इस चक्रवात की गति मद्धम पड़ने का एक और भी कारण था जैसा की आप सब लोग जानते है द्वारिकाधीश के मंदिर में दिन भर में लगभग पाँच ध्वजा  चढ़ाई जाती है पर 14 जून की दोपहर को  एक साथ दो ध्वजा चढ़ाई गईं क्योंकि ऐसी मान्यता है कि जब द्वारिकाधीश को एक साथ दो ध्वजा चढ़ाई जाती है तो आने वाला संकट भी आधा हो जाता है वैसे भी पिछले कुछ दिनों से विज्ञान और आस्था के बीच युद्ध चल रहा था । विज्ञान का कहना था कि तूफ़ान की गति 150 किलोमीटर प्रति घंटा होगी । और वह कच्छ मांडवी के झाकऊ तट से टकराएगा किन्तु आस्था अटल थी अपने भगवान पर और ये मानव मात्र के लिए ही ये संभव है कि वह अपने प्रयास सौ प्रतिशत करने के बाद ख़ुद को और परिस्थितियों का ईश्वर के सामने समर्पण कर दे, तो वही किया इस आधुनिक युग के मानस ने भी अपने मन की व्यथा और शरीर को जगतगुरु द्वारिकाधीश को समर्पित कर दिया और समर्पण की निशानी स्वरूप 1 की जगह दो ध्वजा चढ़ा दी गई जो परिचायक है इस बात की कि 2 ध्वजा गति के भी 2 टुकड़े कर देगी ।

दूसरी तरफ़ मंदिर के पुजारियों को मंदिर छोड़कर जाने की सलाह शासन प्रशासन द्वारा लगातार दी जा रही थी किंतु हमेशा की तरह मंदिर के पुजारियों ने मंदिर प्रांगण को कच्चे सूत के धागे से सीमांकन कर दिया और कह दिया कि हम अब यहाँ से कहीं नहीं जाएंगे जब द्वारिकाधीश का जन्म हुआ था तो इससे भी ज़्यादा बड़ा तूफ़ान आया हुआ था ।

हम अगर ये ना भी  माने कि आस्था जीत गईं तो कोई बात नहीं, पर हमें यह ज़रूर मानना पड़ेगा हमेशा की तरह ही विज्ञान से आगे हमारा मन और मन की आस्था है ।

बहरहाल सागर की गोद में बैठकर विपुरजौय चक्रवात ने लगभग 24 घंटे तक कच्छ की धरती को दहशत की छत्र छाया के बीच रहने पर मजबूर कर दिया अंततः  कच्छ इस डर और दहशत के कुहासे को चीरकर विजेता की तरह उभरकर विश्व के सामने एक बार फिर मिसाल बन गया ।

हाँ कुछ जान माल की हानि का सामना कच्छ को अवश्य करना पड़ा पर कहीं भी किसी की जान नहीं गई और जॉन बची तो लाखों पाए की कहावत को चरितार्थ करते हुए एक बार फिर जीत कच्छ की और वहाँ के रहवासियों की और उनकी आस्था की  हुई ।

वैसे तो कच्छ सिर्फ़ ढाई अक्षरों का ही नाम है पर इस ढाई अक्षर वाले प्रदेश को लील जाने के इरादे से आने वाला दैत्य भी अपने मनसा में सफल नहीं हो सका, तो सिर्फ़ और सिर्फ़ माता आशापुरा और भगवान श्री त्रिविक्रम राय जी, जो की नारायण सरोवर में विराजते हैं कच्छ के चौकीदार कहे जाने वाले कोटेश्वर महादेव की कृपा का ही प्रसाद है कि विपौरजाय  जैसा दैत्य भी कच्छ प्रदेश का  कम से कम नुक़सान करते हुए निकल गया । यूँ तो कच्छ प्रदेश अपने आप में क़ुदरत की एक अजीबोगरीब प्रयोगशाला रहा है , मात्र ढाई अक्षर का कच्छ और प्रेम दोनों में ही दुनिया को हरा देने की ताक़त है । 

कच्छ के विजयी होने के स्वभाव और कच्छ रहवासियों के प्रेम की ही ताक़त का नतीजा है जो भी विपौरजाए जैसे दैत्य को भी नतमस्तक होना पड़ा ।

कच्छ वासियों ने चक्रवात की इतनी लंबी अवधि में बहुत ही संयम और त्याग का परिचय दिया 15 जून की सुबह से ही सभी छोटे-बड़े व्यापारियों ने बिना किसी सरकारी सूचना या दबाव के ख़ुद ब ख़ुद अपने व्यापारिक संस्थानों को बंद कर दिया और ख़ुद को अपने समय और पैसे को सेवा कार्यों में झोंक दिया ।

कच्छ  वासियों और व्यापारियों के इस निर्णय ने विपौरजाय जैसे दैत्य को ख़ाली हाथ आगे बढ़ने पर मजबूर कर दिया और ख़ाली हाथ आगे बढ़ता भी क्यों न झाकाऊ बंदरगाह वही स्थान है जहाँ के निवासी हर एक पूनम और अमावस को जय झूलेलाल के गान के साथ दरियालाल की पूजा अर्चना करते हैं और सलामती की प्रार्थना करते हैं ये वही धरती है जहाँ के निवासी कच्चे दूध के दरिया को प्रसाद अर्पण करते हैं ऐसे कृपालु दरिया (समंदर) सलामती की प्रार्थना करते हैं । और वैसे भी अषाढी बीज का दिन कच्छ में नए साल के तौर पर मनाया जाता है और इस साल ये दिन 20 जून को था । 

ऐसे में पितातुल्य समंदर अपने आश्रित बच्चों के साथ कुछ भी अन्याय कैसे कर सकता है ।

दरिया लाल अपने बच्चों को नए साल पर नई उमंग और नए जोश के साथ अपने मानसिक शारीरिक और आर्थिक उत्थान की ओर ले जाने के लिए प्रेरित करता है ।

जैसा कि पहले से ही विदित् था कि विपौरजाय का लैंड फ़ॉल कच्छ के उत्तर पूर्व बंदरगाह जखाऊ में होना तय था किंतु माता आशापुरा और क़ुदरत का करिश्मा ही था के लैंड फ़ॉल बंदरगाह से 10 किलोमीटर दूर दरिया के विस्तार में हुआ ।

जहाँ आबादी लगभग  ना के बराबर है ।

जखाऊ (कच्छ) की धरती की लौह चुम्बकीय ताक़त का लोहा एक बार फिर विश्व को मानना पड़ा जो उसने विपौरजाय जैसे राक्षस का अन्त होते देखा ।

जैसा कि सर्वविदित है कि हर प्राकृतिक आपदा अपना हिस्सा लेकर ही जाती हैं इसी तर्ज़ पर विपौरजाय का यमदूत भी कच्छ से कई निर्दोष पशुओं की बलि लेकर ही माना ।

हज़ारों की संख्या में बिजली के खम्भों के साथ ना जाने कितने कैसर केरी (आम) मीठे आनार, चीकू नारियल, कच्छ का मेवा कहे जाने वाली ख़ारिक, श्रीकमलम (ड्रैगन फ़्रूट) और न जाने कितने सालों से लदे व्रक्षो को तहस-नहस कर गया  ।

 नमक के व्यापारियों को इस नुक़सान से उबरने के लिए कठिन परिश्रम और धन दोनों की आवश्यकता होगी ।

अब इंटरनेट सेवाओं की बहाली का कच्छ को एक लंबी अवधि तक इंतज़ार करना पड़ेगा ।

जिसका संभवतः यहाँ के व्यापारिक संस्थानों जैसे कि शिपिंग इंडस्ट्री और लकड़ा व्यापार पर गहरा असर होने की सम्भावनाएँ हैं ।

मेरा तो मानना है कि पूरे गुजरात पर आयी इस विपदा को सोमनाथ दादा, कोटेश्वर महादेव, माता आशा पूरा और जगद्गुरु द्वारिकाधीश की कृपा ने ही बचाया है मानव जाति और गुजरात एक बार फिर जगद्गुरु कृष्ण की ऋणी हो गयी।

इतने कठिन परिस्थितियों में अगर, मैं सलाम न करूँ देश की NDRF SDRF, जल थल वायु सेना और गरुड़ कमांडोज़ और न जाने कितने सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थानों को जिन्होंने चक्रवात प्रसार के दौरान और समाप्ति के बाद भर बरसात मैं राहत कार्य चालू कर दिया साथ गुजरात को अगले 48 घंटों में पहले जैसी परिस्थितियां में लाने का दृढ़ संकल्प लिया ।

अंततः मैं इतना ही कहना चाहती हूँ की प्रकृति अपना पोषण करना ख़ुद ही जानती है हम इंसानों ने प्रकृति को मजबूर किया है अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर करने के लिए अभी भी देर नहीं हुई है हम सँभल जाएँ और अपने आचरण को प्रकृति के अनुकूल कर ले तो शायद हमारी आने वाली पीढ़ियों को हम एक सुरक्षित धरती और देश तो दे जाए और नहीं तो लगातार आ रहे चक्रवातों की संख्या में कुछ तो कमी ही कर दे ।  

-गाँधीधाम (कच्छ) गुजरात, मो. 9825205804

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आवाहन

आपको ज्ञात होगा कि विगत 11 वर्ष से रचित हमारा साहित्यिक यज्ञ हिन्दी जगत के प्रांगण में ऊर्जावान एवं उद्देश्यपूर्त स्थिति में स्थापित हो चुका है । इस दौरान पाठकों और लेखकों ने प्रोत्साहन रूपेण आहुतियों से इस यज्ञ की अग्निशिखाओं को उर्ध्वगामी बनाए रखा- सबका आभार एवं सादर नमन ।

प्रबुद्ध पाठकों और सुपरिचित, प्रतिष्ठित एवं स्थापित लेखकों से आग्रह है कि आपके संपर्क में जो महत्वकांक्षी तथा नवोदित लेखक हैं उन्हें हमारे 'उभरती हुई प्रतिभाओं' के मंच से परिचित करवाएं और प्रेरित करें कि वो हमारी पत्रिकाओं– अभिनव इमरोज़/साहित्य नंदिनी के साथ अपनी रचनाओं के माध्यम से जुड़ें । 

वर्ष 2024 में हम नवोदित 'उभरती हुई प्रतिभाओं' का एक विशेष मंच आयोजित करने जा रहे हैं । आपका सहयोग वांछनीय है ।

धन्यवाद ।


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कहानी

सुश्री निशिगन्धा

अन्वेषण

एक कहानी मेरे भीतर वर्षों से कलमला रही थी । मन कशमकश में है, उसे लिखूं कि नहीं । जाने क्यों आज उस हंसमुख बच्चे का चेहरा मेरी आंखों के आगे बार-बार तैर रहा है । शायद आज उसके अभिभावक मेरे सम्मुख खड़े हुए थे अपनी अजीब सी मानसिकता लिए । 

वे कभी समझ नहीं पाए, उनसे ऐसा क्या हो गया. या उस बच्चे ने क्या समझ लिया कि वह उनसे ऐसा रूठा कि उनके साथ रहने से ही इनकार करने लगा । शायद बड़े भी कभी-कभी अपना ही व्यवहार समझ नहीं पाते । वे सोचते हैं कि हर बार वे सही होते हैं पर शायद ऐसा होता नहीं है । वर्षों पहले उनके बेटे मणि के मन में उन के प्रति न जाने क्या घर कर गया कि उसने उस रात वापस घर जाने से इंकार कर दिया और वह इंकार भी इतना बड़ा था कि उसके मम्मी-पापा उसे साथ लिवा कर घर नहीं ले जा पाए । उस रात वे किसी मित्र के यहां पार्टी में गए हुए थे और वहां सभी उनके जाने- पहचाने लोग ही थे । सबके बच्चे भी थे । ऐसी पार्टीज़ में पीना-पिलाना तो होता ही है । पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियां भी अपने-अपने हिसाब से हल्की-फुल्की ड्रिंक्स ले रही थीं । मिसेज़ व मिस्टर वाबले भी उनमें शामिल थे । हमेशा की तरह मिस्टर वाबले का ड्रिंक्स पर कोई कंट्रोल नहीं था । पार्टी खत्म होने को थी और वे अब भी अपना गिलास भर रहे थे । धीरे-धीरे पार्टी में आए सभी लोग रुख़सत लेने लगे और मिस्टर वाबले हाथ में गिलास लिए हुए ही पत्नी व बच्चों से घर चलने के लिए कहने लगे । ऐसा तो अक्सर होता ही था पर उस रोज़ मणि को जाने क्या हुआ गुस्साई नज़रों से एक बार पिता को देख वह कहीं जाकर छिप गया । बहुत ढूंढने पर भी नहीं मिला । सुबह आकर वापस ले जाएंगे, ऐसा सोच वे उसे वहीं छोड़ घर लौट गए । एक रात मित्र के यहां बिताने की ही तो बात थी । पर नियति मणि ने अगली रोज़ सुबह भी घर लौट कर जाने से इनकार कर दिया । मिस्टर व मिसेज़ वाबले मना-मना कर हार गए पर मणि के हठ के सामने उनकी एक न चली और वह हर रोज़ ही उसे श्री ओंकार के यहां छोड़ कर आने लगे । श्री ओंकार उनके बहुत ही आत्मीय मित्र थे इसीलिए सब ने इस बात को अधिक महत्व नहीं दिया । बच्चा है समझ जाएगा । पर अब हर बार ही वे लोग मणि को लौटा ले जाने में असफल होने लगे । धीरे-धीरे मणि श्री ओंकार के यहां ही रहने लगा । जाने कैसे उनके यहां वह बहुत प्रसन्न रहता और अपने घर जाने की बात से ही हाईपर हो जाता । ओंकार जी व उनकी पत्नी ममत्व से भरे थे । वो अपने बच्चों के साथ-साथ उस पर भी अपना प्रेम उंड़ेलते रहे । धीरे-धीरे मणि उनका ही होकर रह गया और वाब्लेज़ के साथ एक आपसी समझ रहते उन्होंने मणि को गोद ही ले लिया । पर इस सब में रिनी की मानसिकता की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया । रिनी मणि की छोटी बहन । भाई के बिना वह बिल्कुल अकेली हो गई थी । धीरे-धीरे सब ने इस बात को स्वीकार लिया । चाहे वाबलेज़ ने दिल पर पत्थर रखकर ही यह निर्णय लिया था । दिन-प्रतिदिन दर्द से गुज़रते रिनी भी मणि को बहुत मिस करती पर सप्ताह में एक बार वे अवश्य मिलते । पर वज्रपात तब हुआ जब ओंकार परिवार का पुणे से मुंबई में तबादला हो गया और वे चले गए उस छोटे शहर से निकल बड़े शहर में समाने । और साथ ही चला गया मणि, वाबलेज़ के जिगर का टुकड़ा । दूरियां बढ़ने लगीं । लगता मणि उनसे हमेशा के लिए दूर हो गया । वर्ष बीतते गये । ज़मीनी दूरी के साथ-साथ दिल से भी दूर होते गए । धीरे-धीरे सब स्वीकार लिया वाब्लेज़ ने । छोड़ दिया पुत्र मोह और साथ ही छोड़ दी उससे मिलने की आस । छोड़ दिया पलके बिछा उसकी बाट जोहना । 

अब तो ओंकार्ज़ भी देश छोड़ विदेश जा चुके थे । धीरे-धीरे मिलने-मिलाने के साथ पत्र व्यवहार भी बंद हो गया । दोनों परिवारों का नाता जैसे पूरी तरह से समाप्त हो गया । पर वाब्लेज़ के ह्रदय में अभी भी टीस बाकी थी । अब भी कुछ था जो मन को कचोटता था । कैसा होगा.. कहां होगा उनका मणि? कैसा दिखता होगा? शायद विवाह भी कर लिया होगा । पर किस से पूछते जाकर । दोनों परिवारों के बीच संपर्क कब का टूट चुका था । 

नियति एक बार फिर से खेल खेल रही थी । जाने कैसे मणि लौट आया । अपनी पत्नी को साथ लेकर । एक रोज़ अचानक ही वह उनके दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ था । बहुत तलाश की थी उसने भी अपने परिवार की । आखिर ढूंढ ही लिया उसने उन्हें । आज वह अपने बचपन के व्यवहार को लेकर शर्मिंदा था । व्यवहार. जिसके साथ इतने लोगों की ज़िंदगी जुड़ी थी । वे दिन वह उन्हें लौटा तो नहीं सकता था पर फिर भी वह अपनी ओर से कुछ प्रयत्न तो कर ही रहा था । अचानक उसे यूं दरवाज़ें पर खड़ा देख सब हैरान थे । अजब मिलन था । आंखों में आंसू लिए पूरा परिवार एक-दूसरे को बाहों में भरे गले लगाता रहा । उन सब में से कोई भी कुछ कह नहीं पा रहा था पर भीतर ही भीतर वाबले दंपति अनेक प्रश्नों से जूझ रहे थे । इतने वर्षों बाद वह यूं क्यों लौट आया था? क्या चाहता था वह उनसे? साथ रहना चाहता था या यूं ही चला आया था मिलने । इतने बरसों किस हाल में रहे वे उसने इस बात की कभी सुधि क्यों नहीं ली? अब जब वे अपनी ज़िंदगी से अनेक समझौते कर चुके थे तो वह किस लिए यूं..? यूं उनकी भावनाओं से खेलने चला आया था । उनकी अपनी जिंदगी में वर्षों,जो इतने उतार-चढ़ाव आए थे उनका क्या..? रिनी को भी विवाह में असफलता मिली थी । और वर्षों से इतने उतार- चढ़ाव के बाद जब उन तीनों की ज़िंदगी में अब जाकर थोड़ा ठहराव आया था तो मणि यूं लौट आया था । और मणि का इतने वर्षों बाद यूं लौट के आना किसी तूफान से कम नहीं था । तूफान. यानी झंझा! कैसे रोक पायेंगे वे इस झंझावात को । यही सोचते रहे- उसका वर्षों बाद यूं लौट कर आना क्या सही था, शायद नहीं । वे इन वर्षों उसके दूर चले जाने के ग़म से उबर चुके थे । वे दोबारा यह सब कैसे बर्दाश्त कर पाएंगे । मुश्किल से तो उनके जख्म भरे थे और वे उसके बिना जीना सीख गये थे । वे नहीं बर्दाश्त कर पाएंगे उसका उनके पास अचानक यूं आकर रहना और कुछ अर्से बाद फिर किसी कारण उन सब से दूर चले जाना । उसकी प्रवृत्ति तो यही थी । वह ओंकार्ज़ से भी तो कब का अलग हो चुका था । इस सोच से ही उनके मन में अनेक संशय उभर रहे थे । उनके मन में उठते संशय देख मणि ने ही निर्णय लिया उनका यूं साथ रहना ठीक न होगा और उसे लौट जाना चाहिए और वह तुरंत चला गया । 

एक बार फिर मणि के बिना दिन बीतते गए । रिनी पुनः विवाह कर विदेश चली गई । जहां घर के सदस्य कम होते जा रहे थे दूसरी ओर वाब्लेज़ का घर बड़ा होता जा रहा था । फ्लैट छोड़ वे पुणे के निकट स्थित अपने नवनिर्मित भव्य फार्म हाउस पर चले आए थे । उनका यह विशाल अनूठा गृह देखते ही बनता था । फार्म हाउस के बगीचे फलों व फूलों से लदे थे पर बच्चों की हंसी-खुशी व किलक से रीते थे । 

यहां आने के बाद जाने क्या हुआ, वाबले दंपत्ति एक अजब अनुभूति से गुज़रने लगे या कहो सेल्फ रियलाइज़ेशन कि वे शायद जीवन में कहीं स्वयं गलत थे । उन्होंने अपने पुत्र की मानसिकता को शुरू से ही नहीं समझा और जब वह उनके पास लौट कर आया शायद तब भी नहीं । आज आत्ममंथन से गुज़रते हुए वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचे थे, कैसे कभी-कभी ज़िन्दगी बीत जाती है स्वयं को ही समझने में । कितना कुछ घट जाता है ज़िंदगी में । मणि की मानसिकता से राहत पाने के लिए कैसे उस वक्त ओंकार्ज़ द्वारा उसे गोद लिये जाने का उन्होंने विरोध नहीं किया; वरन इस निर्णय से उन्हें राहत ही मिली थी । पर क्या वे सही थे? मणि तो उस वक्त बच्चा था । उसकी मानसिकता व संवेदनाओं का उपचार तो उसके अभिभावकों के पास ही होना चाहिए था । उन्होंने क्यों नहीं जानने का प्रयत्न किया आखिर उस बच्चे के मन में क्या नाराज़गी थी उनके प्रति? आज इतने वर्षों बाद जब मणि ने बचपन में बीती हर बात से रिकन्साइल कर लिया था तो वे उससे अधिक अनुभवी होते हुए क्यों नहीं कर पाए? क्यों नहीं वापस स्वीकारा उसे? क्यों जाने दिया उन्होंने उसे यूं एक बार फिर?

इन अनुभूतियों से गुज़रते हुए शायद आज उनके मन में यही एक बात आ रही थी या कहो यही एक चाहना बाकी थी कि मणि एक बार फिर से किसी भी तरह लौट आए । वह लौट आए और वे उसे फिर कहीं नहीं जाने दें । पर कहां होगा वह? यह एक बड़ा प्रश्न था । और अब वे चाहते थे उनके सभी मित्र उनके साथ मिल मणि की खोज में सहायतार्थ आगे बढ़ आएं । वही मिलकर शायद उस टूटे हुए सेतु को जोड़ सकते थे जो वर्षों पहले उनकी अपनी नादानियों व लापरवाहियों के कारण टूट गया था । वे समझ सकते थे जैसे उनके मन में अनेक प्रश्न उठे थे मणि की वापसी पर; मणि के मन में भी अवश्य प्रश्न उठेंगे, आखिर अब क्यों? उसके अभिभावक अब उससे क्या चाहते थे? क्यों वे चाहते थे वह वापस लौट आये और क्या हासिल होगा इस सब से? पर कहते हैं न जब अंत:चक्षु खुल जाएं वहीं से जीवन की एक नवयात्रा शुरू हो जाती है । इट इज़ नेवर टू लेट दैन नेवर । साथ ही वे समझ पा रहे थे उन्हें तैयारी करनी होगी जवाबदेही की. अपने पुत्र की । और इस बात के लिए आज उनके सभी मित्र सहायतार्थ आगे बढ़ आए थे । -वसंतकुँज, नई दिल्ली, मो. 98109 57504

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कहानी

सुश्री नीरजा हेमेन्द्र 


गुमशुदा दिनों की तलाश

 ’’ माँ मेरा टिफिन तैयार है? ’’ कॉलेज के लिए तैयार होते हुए श्रेया ने कमरे से आवाज लगायी । 

’’ हाँ...हाँ बस दे रही हूँ । ’’ मैंने रसोई से ही कहा । 

श्रेया और हनी का टिफिन शीघ्रता से बन्द कर वह मैं उनके स्कूल बैग में रखने के लिए रसोई से बाहर आयी । इतनी देर में बच्चों की स्कूल बस की हॉर्न की आवाज बाहर सुनायी दी । श्रेया तैयार थी । उसने स्कूल बैग कन्धे पर रखा और गेट की ओर बढ़ गयी । हनी की स्कुल की वाटर बॉटल में पानी नहीं भरा था । अतः मैं बॉटल में पानी डालते हुए हनी से बोल पड़ी-

’’ हनी अब बड़े हो रहे हो । बॉटल में पानी तो डाल ही सकते हो । ’’

’’ सही समय पर कोई कार्य स्ंवय कर नहीं पाती हो । फिर अपनी कमियाँ बच्चों पर क्यों डालती हो? ’’ अपने कमरे से सोकर निकलते हुए राहुल ने कहा । 

मैंने राहुल की तरफ एक खीज भरी दृष्टि डाली व शीघ्रता से रसोई की तरफ बढ़ चली । इस समय मैं राहुल से कुछ कहना नहीं चाहती थी । कुछ भी कहने का अर्थ है... अर्थहीन बहस, बेवजह वाद-विवाद । इन सब के लिए मेरे पास समय नहीं है । अभी घर के बहुत सारे काम शेष हैं । उन्हें करना है और समय से मुझे कार्यालय भी पहुँचना है । 

मैं जानती हूँ कभी-कभी यही अर्थहीन बहस कभी-कभी लम्बे झगड़े का रूप ले लेती है । इससे मेरे और राहुल के कटु होते जा रहे सम्बन्धों में और कटुता बढ़ती है । मैं घर को तनाव पूर्ण माहौल व सम्बन्धों को कटुता से बचाना चाहती हूँ । रसोई में तैयार अपना व राहुल का टिफिन बाक्स डायनिगं मेज पर रखकर नहाने चली गयी । मुझे आधे घंटे के अन्दर तैयार होना है तथा घर के शेष कार्यों को निपटाकर कार्यालय के लिए निकलना है । सब कुछ शीघ्रता से निपटा कर मैं कार्यालय के लिए निकल पड़ी । 

ऑटो में बैठ कलाई घड़ी पर मैंने एक दृष्टि डाली । मन ही मन बुदबुदा पड़ी ’’ ओह ! आज पुनः लेट न होने पाये । किसी प्रकार समय पर कार्यालय पहुँच जाऊँ । ’’ सुबह घर के सारे कार्य अकेले करते-करते अब मैं थक जाती हूँ । घर में इतना सारा काम रहता है कि अकेले अब मुझसे सब कुछ नहीं हो पाता । बच्चे छोटे थे तो मैं भी युवा थी । तब मैं घर के सारे काम अकेले कर लेती थी । 

अब मैं प्रौढ़वय की ओर बढ़ रही हूँ । बच्चे भी अब किशोरावस्था की ओर बढ़ रहे हैं, बड़े हो रहे हैं । किन्तु इतने बड़े भी नहीं हो पाये हैं कि उन्हें अपने उत्तरदायित्व का बोध हो सके, या हो सकता है माता-पिता में आये दिन होने वाले तकरार ने उनमें लापरवाही के बीज बो दिये हैं । राहुल तो मेरी नौकरी के पैसों व हाड़तोड़ परिश्रम का सुख भोग रहा है । सोच-सोच का मेरा मन खिन्न होने लगा । 

कार्यालय पहुँच कर घर की चिन्ता परे रख कर मैं काम में जुट गयी । दो बज रहे थे । लंच के पश्चात् वापस आ कर पुनः काम में जुट चुकी थी । सहसा फोन की घंटी बजी । ’’ हैप्पी बर्थडे मम्मा..... ’’ श्रेया की आवाज थी । श्रेया के फोन से मुझे स्मरण आया कि आज मेरा जन्मदिवस है । 

’’ थैंक यू बेटा.... । मैं तो भूल ही गयी थी । ’’ मैं भावविभोर थी । 

’’ मम्मा हनी भी आपको विश करना चाहता है । ’’ श्रेया ने फोन हनी को पकड़ा दिया । हनी ने भी जन्मदिवस की बधाई दी । मैंने बच्चों से पूछा वे इस अवसर पर क्या उपहार लेना चाहेंगे...? उन्होंने ने मनाकर दिया । शाम को कार्यालय से घर लौटते हुए मैंने बच्चों के लिए केक लिया साथ ही उनकी पसन्द के बिस्कुट, पेस्ट्री इत्यादि लेते हुए घर आयी । 

मैं यह सोचकर मुस्करा पड़ी कि यदि बच्चे मुझे विश न करते तो कभी मुझे अपना जन्मदिवस याद ही नहीं
आता । शाम के नौ बजे राहुल के आने के पश्चात् केक कटा और मन गया मेरा जन्म दिवस भी । अपना जन्मदिवस मनाने की अब मेरी इच्छा नहीं होती, किन्तु बच्चों का मन रखने के लिए मुझे यह सब करना पड़ता
है । 

समय व्यतीत होता जा रहा है । साथ ही जीवन के अनेक महत्वपूर्ण दिन.....अनेक महत्वपूर्ण तिथियाँ भी व्यतीत होती जा रही हैं । मैं जानती हूँ समय अपनी गति से चलता रहता है, किसी के लिए रूकता नहीं । जीवन के महत्वपूर्ण दिन हों या सामान्य...... व्यतीत हो ही जाते हैं । 

एक समय वो भी था मेरे लिए मेरा प्रत्येक दिन महत्वपूर्ण हुआ करता था । वो समय था विवाह के पूर्व का समय । युवावस्था व विद्यार्थी जीवन......सचमुच वे दिन ही जीवन के सबसे सुन्दर व मोहक दिन होते हैं । कदाचित् सभी स्त्रियों के । उन्हीं दिनों आहान से मेरा परिचय हुआ था । मुझे स्मरण है आहान से मित्रता भी कुछ अद्भुत परिस्थितियों में हुई थी । 

कॉलेज में उन दिनों वार्षिक परीक्षाएँ चल रही थीं । आहान मुझसे एक क्लास सीनियर था । मेरे पास की सीट थी उसकी । परीक्षा के प्रथम दिन उसका मेरा नाम पूछना और न बताने पर बार-बार मेरी ओर देखना मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा । उसे मैं अनदेखा करती रही । मेरे सभी पेपर अच्छे हो रहे थे । उस दिन मेरा पेपर कुछ कठिन आया था । मैं परेशान थी । बार-बार अपने साथ के उन विद्यार्थियों को देख रही थी जो लिखने में व्यस्त
थे । 

’’ क्यों....? क्या हुआ...? नहीं आ रहा है..? ’’ अध्यापक की दृष्टि बचाकर आहान ने मुझसे पूछा । 

उसकी बात सुनकर मेरी निराशा खीज और क्रोध में परिवर्तित होने लगी । यह सोचकर कि एक तो प्रश्न कठिन है, ऊपर से यह लड़का डिस्टर्ब किये जा रहा है । 

’’ मुझे आये न आये तुमसे क्या..? ’’ मैंने तल्ख स्वर में कहा । 

’’ मेरा भी विषय है यह । यदि तुम कहो तो मैं कुछ मदद कर सकता हूँ । ’’ उसने कहा । 

अन्तिम घंटे का कुछ समय ही शेष था । कुछ प्रश्नों के उत्तर मुझे अब भी नहीं आ रहे थे । मैं विवश थी तथा मन में यही विचार आ रहे थे कि उससे कुछ पूछ लूँ । मैंने चुपके से आहान की ओर देखा । वो लिखने में व्यस्त था । किन्तु थोड़ी-थोड़ी देर में मेरी ओर देख भी ले रहा था । मैंने एक कठिन से प्रश्न का उत्तर उससे पूछ लेना ही ठीक समझा । उसकी थोड़ी-सी मदद से उस दिन का वो पेपर भी अच्छा हो गया था । वो ही एक कारण तो नहीं था । आहान के व्यक्तित्व में अनेक विशेषतायें थीं और वो मुझे अच्छा लगने लगा था । जीवन में इन्द्रधनुषी रंग बिखर गये थे । कॉलेज की शिक्षा पूरी करने के पश्चात् भी हमारी मित्रता यथावत् रही । 

एक दिन वह भी आया जब मेरा विवाह राहुल के साथ हो गया । जहाँ पली-बढ़ी, शिक्षा प्राप्त की विवाहोपरान्त वहाँ से दूर इस शहर में आ गयी । अपनी जड़ों से उखड़ कर दूसरे स्थान पर स्थापित होना इतना सरल नहीं था । यदा-कदा याद आते-आते आहान शनैः-शनैः मेरी स्मृितयों से ओझल हो गया । 

विवाह के पश्चात् राहुल के स्वभाव से परिचित होने के पश्चात् यह आभास हुआ कि मेरे विवाहित जीवन की राहें सरल नहीं है । आत्मनिर्भरता मेरे लिए आवश्यक है । मैं नौकरी के लिए प्रयत्न करने लगी । मेरा प्रयत्न और परिश्रम तीन वर्षों के पश्चात् रंग लाया । सरकारी क्षेत्र में मुझे नौकरी मिल गयी । 

नौकरी करते हुए घर के कार्यों के अतिरिक्त बच्चों का पालन-पोषण, उनकी शिक्षा आदि कई स्तरों पर मुझे कठिन परिश्रम करना पड़ता । राहुल की इच्छा हुई तो कभी किसी काम में अनिच्छा से सहयोग कर देता अन्यथा अकेले ही मुझे इन सब उत्तरदायित्वों से जूझना पड़ता । मैं सभी उत्तरदायित्वों का वहन करती रही । उसे अपना काम......अपनी जिम्मेदारी समझ संतुष्टि का अनुभव करती रही । 

मेरा हृदय टूट-टूटकर तब विदीर्ण हो जाता जब दिन-रात कठिन परिश्रम करने के उपरान्त भी राहुल छोटी-छोटी बातों पर झगड़ने को तैयार रहता । गालियाँ तो जैसे उसकी जुबान पर रखी रहतीं । इन सबसे मुझेे कितनी पीड़ा पहुँचती इसका अनुमान राहुल को नहीं था । आखि़र मैं ग़लत कहाँ हूँ? मुझमें कमी कहाँ पर है? मुझसे अधिक समय परिवार को और कौन दे सकेगा? कौन मुझसे अधिक श्रम कर सकेगा? मैं रोती....कभी छुप कर, तो कभी राहुल के सामने । जीवन के दिन इसी प्रकार व्यतीत होते जा रहे थे । 

कभी-कभी मैं सोचती कि राहुल के साथ जीवन कैसे व्यतीत कर पाऊँगी? पुनः इसी आशा में जीने लगती कि कभी न कभी राहुल बदल जायेगा । किन्तु वो दिन कभी नहीं आया । जीवन का एक बड़ा हिस्सा व्यतीत हो गया, मैं प्रतीक्षा करती रह गयी राहुल के परिवर्तित होने का । फुर्सत के पलों में अब कभी-कभी सोचती हूँ कि इस जीवन में मैंने क्या पाया? अपने लिए कब जी पायी मैं.....? सारी उम्र जद्दोजहद करती रही...जूझती रही मेरे हिस्से की खुशी के क्षण मुझे कब मिले?

मैं जानती हूँ स्त्री का धर्म है दूसरों की सेवा करना । परिवार के लिए जीवन को समर्पित कर देना । हमें यही सिखाया गया कि स्त्री का जीवन तो पति व बच्चों में नीहित होता है । तो क्या स्त्री को अपने लिए जीने का कोई अधिकार नहीं है? मैं जानती हूँ कि ये प्रश्न अब बेमानी हैं । पैंतालिस के आसपास की उम्र में अपने लिए सोचना ही बेमानी है । 

बच्चे युवा हो रहे हैं । मेरे उत्तरदायित्व बढ़ते जा रहे हैं । एक माँ होने के कारण ये उत्तरदायित्व मुझे वहन करने ही हैं । तो अब अपने लिए क्या सोचना, क्यों सोचना....? सोचूँगी फिर कभी यदि जीवन में अवसर व समय मिला तो । अपने अधिकारों व स्वाभिमान के दन्द्व में कहीं बच्चों का अहित न हो.....उनकी भावनाएँ आहत न हों... । अतः सारी कड़वाहट भूलकर आगे चल पड़ी अपने कर्त्तव्य पथ पर । 

समय व्यतीत होता जा रहा था । दोनों बच्चे उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर हो रह थे । इसी आपाधापी में मुझे ज्ञात हुआ कि मेरी बेटी अपने साथ पढ़ने वाले किसी लड़के से प्रेम करती है । उसी के साथ विवाह करना चाहती है । मैंने उसे समझाना चाहा कि वो अभी अपनी शिक्षा पर ध्यान दे । आत्मनिर्भर होने के पश्चात् विवाह के बारे में सोचे । 

’’ आप लोगों की यही प्राब्लम है । खुद तो बाहर जाती हैं.....नौकरी करती हैं......हमारे ऊपर इतनी बंदिशें लगाती
हैं । ’’ मैं सन्न रह गयी अपनी लाडली श्रेया की बातें सुन कर । जी चाह रहा था फूट-फूट कर रोऊँ या सब कुछ छोड़कर कहीं चली जाऊँ । किन्तु ऐसा हो सकता है भला....? श्रेया मेरी बेटी है । उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए उसे उचित मार्ग मैं नहीं दिखाऊँगी तो और कौन दिखाएगा? 

’’ बेटा! विवाह तो एक दिन होना ही है । उसके लिए सारी उम्र पड़ी है । यह समय तुम्हारे जीवन का महत्वपूर्ण समय है । खूब पढ़ो-लिखो....आत्मनिर्भर बनो । फिर जिससे चाहो विवाह करो । हमें कोई आपत्ति नहीं है । लड़कियों के लिए आत्मनिर्भरता आवश्यक है । ’’ मैंने समझाते हुए कहा । 


’’ हाँ.....हाँ......सभी उपदेश तो मेरे लिए है । जब आप पापा से झगड़ा करती हैं, उसका हम पर क्या इफेक्ट पड़ता है, कभी सोचा है...? ’’ उसने पलट कर धड़ल्ले से कहा । 

मेरी बेटी ने अपने माता-पिता के आपसी झगड़े का क्या ही अच्छा लाभ उठाया है । मैं गूँगी हो गयी । राहुल खामोश रहे यह जानते हुए भी कि इस समय बेटी का उठाया यह कदम उसका अहित भी कर सकता है । उसे रोकने व समझाने का प्रयत्न तक राहुल ने नहीं किया । 

मेरी बेटी ने उस वर्ष परीक्षा दे कर अपनी शिक्षा पूरी की । मेरी बड़ी इच्छा थी कि जॉब के लिए भी वो प्रयत्न करे । किन्तु मुझे उसका विवाह कर देना पड़ा । विवाह कर के वो चली गयी । उसके सुखद भविष्य के लिए मैं चिन्तित रहती हूँ । अनजाने भय से आशंकित भी रहती हूँ । श्रेया का विवाह इसी शहर में हुआ है । वह हम सबसे मिलने भी आती रहती है । मैं मन ही मन यही कामना करती रहती हूँ कि उसका पति राहुल जैसा न हो । 

’’ निधि....निधि.... । ’’ उस दिन कार्यालय से घर के लिए निकल रही थी कि सहसा किसी ने पीछे से पुकारा । 

पलट कर देखा तो एक अनजान-सा शख्स मेरी ओर देख रहा था । 

’’ आप निधि हैं न....? ’’ उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कराहट थी । मैंने उसे ध्यान से देखा । कुछ-कुछ परिचित-सा लगा वो । किन्तु कौन है...? स्पष्ट न था । 

’’ पहचाना मुझे....? ’’ उसकी मुस्कान कुछ और गहरी हो चली थी । 

’’ मैं....मैं....आहान.! ’’ मेरे चेहरे पर फैली अनभिज्ञता देखकर वो स्वंय बोल पड़ा । 

सहसा मुझे याद आया....आहान हाँ...ये आहान है । कितना बदल गया है । पहचानना मुश्किल हो रहा है । अन्तराल पश्चात् वो मिल रहा है । पहचानती कैसे? कॉलेज में मेरे साथ पढ़ता था । तब से अब तक समय कितना आगे बढ़ चुका है । कितनी ऋतुएँ आयीं-गयीं कुछ स्मरण नहीं । जब सब कुछ बदल गया है । समय के साथ आहान का बदलना भी तो स्वाभाविक है । 

’’ आहान तुम...? बिलकुल बदल गये हो । पहचानना मुश्किल हो रहा है । ’’ मैंने हँसते हुए कहा । 

’’ हाँ....हाँ..क्यों नही....तब मै दुबला-पतला लड़का हुआ करता था । अब ह्नृष्ट-पुष्ट पुरूष हूँ । ’’ उसने हँसते हुए कहा । 

मैंने आहान को ध्यान से देखा । खिचड़ी बाल जो सामने माथे से कुछ कम हो गये थे । चेहरे पर कहीं-कहीं झुर्रियों ने भी जगह बना ली थी । किन्तु उसकी आँखें अब भी बिलकुल वैसी की वैसी ही थीं । गहरी व बोलती प्रतीत होती आँखें । 

’’ तुम भी काफी बदल गयी हो निधि । ’’ 

’’ हाँ....हाँ.....क्यों नही? समय का लम्बा अन्तराल जो गुजर गया है इस बीच । ’’ मैंने उसकी बातों का समर्थन करते हुए कहा । 

’’ और सुनाओ तुम कहाँ हो आजकल...? यहाँ कैसे..? ’’ बातों का रूख बदलते हुए मैंने पूछा । 

’’ मुझे देखकर आश्चर्य हो रहा है न? मैंने भी नहीं सोचा था कि तुम ऐसे मिलोगी । मुझे यहाँ आये हुए चार माह हो गये हैं । ’’ 

’’ अच्छा..? कैसे आये हो यहाँ....? मुझे ढूँढते-ढँूढते यहीं शिफ्ट हो गये क्या? ’’ मैंने कहा । जोर का ठहाका लगा कर हँस पड़ा आहान । 

’’ मेरा स्थानान्तरण हो गया है यहाँ । ’’ आहान ने मेरी ओर देखते हुए कहा । 

’’ अच्छा...! ’’ मैंने आश्चर्य से कहा । 

’’ मुझे ज्ञात था कि तुम इसी शहर में रहती हो और कहीं न कहीं मिल अवश्य जाओगी । ’’ आहान की बात सुनकर मैं मुस्करा पड़ी । 

ऐसा क्यों होता है कि विद्यार्थी जीवन का कोई साथी मिल जाता है तो विद्यार्थी जीवन अपनी स्मृतियों के साथ जैसे वापस आ जाता है । युवा और उन्मुक्त से वो दिन आँखों के समक्ष सजीव होने लगते हैं । मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मैं वापस विगत् में लौट आयी हूँ........मेरे भीतर की युवती बाहर आने को आतुर हो उठी । 

जीवन पथ की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर चल कर निढ़ाल हो चुके शरीर में स्फूर्ति व ताजगी का नव संचरण होने लगा था । मन हो रहा था कहीं बैठ कर देर तक आहान से बातें करूँ.....किन्तु मुझे जाना था । मेरा घर.....मेरे बच्चे मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे । जाने से पहले आहान ने मेरा दूरभाष नम्बर ले लिया । 

घर आकर अकेलेपन की वही अनुभूति होने लगी जो किसी माँ को बेटी को विदा करने के पश्चात् होती है । बेटा अपनी कोचिंग और करियर को लेकर व्यस्त था । जो कि अच्छी बात थी । चार-पाँच दिन व्यतीत हो गये......एक दिन कार्यालय में आहान का फोन आया । वो मुझसे मिलना चाहता है । मैंने उसे अपने कार्यालय के समीप कॉफी हाउस में बुला लिया । शाम को कार्यालय के पश्चात् मैं गयी तो आहान वहाँ मेरी प्रतीक्षा करता मिला । बातें जो अधूरी रह गयी थीं बातें वहीं से प्रारम्भ हुईं । 

’’ घर में कौन-कौन है? ’’ उसने पूछा । 

’’ मेरे पति, दो बच्चे और मैं । ’’ आहन को उत्तर देते हुए मैं मुस्करा पड़ी । वह मेरी ओर ध्यान से देख रहा था । 

’’ बच्चे क्या कर रहे हैं । ’’ उसने पूछा । 

’’ बेटी का व्याह कर दिया है इसी वर्ष । बेटा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा है । ’’ मैंने कहा । 

’’ तुम कहाँ तक पहुँचे? ’’ उसके प्रश्नों के उत्तर देते-देते मैंने पूछा । 

’’ मेरी दो बेटियाँ हैं । दोनों का व्याह कर दिया है । इस समय घर में मैं और मेरी पत्नी हैं । ’’ कहते हुए आहान ने एक लम्बी साँस ली । 

मैंने आहान की ओर देखा । खिचड़ी बाल, आँखों के इर्द-गिर्द उभर आयीं झुर्रियों के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं बदला था । इस आहान में कहीं न कहीं वही युवा आहान छुपा था, जिसकी ओर कॉलेज के दिनों में मैं आकर्षित होने लगी थी । उस समय मैं ये नहीं जानती थी कि आहान को मैं अच्छी लगती थी या नहीं । जो भी हो उन बातों में अब क्या रखा है? जीवन की एक लम्बी यात्रा तय कर बहुत आगे निकल आये हैं हम । 

’’ तुमसे मिल कर....बातें करना बहुत अच्छा लगता है निधि! मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि इस जीवन में तुमसे इस प्रकार मुलाकात हो जायेगी । ’’ आहान की बातें सुनकर मैं बस मुस्करा पड़ी । 

घर जाते हुए मैं सोच रही थी कि मेरे बाल भी तो आहान की भाँति अधपके खिचड़ी हो चुके हैं । मेरे चेहरे पर भी झुर्रियों ने दस्तक दे दी है । किन्तु आजकल मेरे भीतर से अक्सर एक युवती निकल पड़ती है । कदाचित् मैंने उसे जीवन में आगे का सफर तय करने से पहले हृदय के तलघर में बन्द कर दिया था.... । 

जब भी कभी अकेलेपन की अनुभूति होती मैं आहान को बुला लेती......बातें करती । आहान से मिलकर मुझे अच्छा लगता । ऐसा प्रतीत होता जैसे मुझे मेरा वो सच्चा मित्र मिल गया है जिसकी मुझे तलाश थी । मैं जानती हूँ कि हमारे समाज में स्त्री-पुरूष की मित्रता का अर्थ शारीरिक सम्बन्धों पर आकर समाप्त हो जाती है, जब कि मुझे इस समय भावनात्मक संबल की आवश्यकता थी तो कदाचित् आहान से मिलकर पूरी होती । 

समय आगे बढ़ता जा रहा था । समय के साथ हम भी आगे बढ़ते जा रहे थे । मेरी बेटी के विवाहित जीवन में कुछ अव्यवस्थता आने लगी थी । मुझे ऐसा लगता कि उसके प्रेम का रंग उतर गया था अथवा वह विवाह को समझने का प्रयत्न कर रही थी । कभी वो अपने पति से रूठ जाती तो कभी मान जाती । 

मैं जानती थी कि वैवाहिक जीवन की ये नैसर्गिक प्रक्रिया है । मुझे तकलीफ तब होती जब वो कुछ दिनों के लिए उसे छोड़कर मेरे पास आना चाहती । किन्तु बुलाने पर आती नहीं थी । आवेश में लिए गये उसके निर्णय को मैं समझती थी । शनैः-शनैः एक वर्ष व्यतीत हो गया और वह माँ बन गयी । बच्चे का पालन-पोषण से ले कर घर के काम व उत्तरदायित्व उसके बढ़ते गये । 

जब भी मैं उससे मिलने जाती बातें करते-करते वो उदास हो जाती । विवाह पूर्व का उसके चेहरे का उल्लास व सौन्दर्य खोता जा रहा था । उसके कॉलेज के कई उसकी मित्र लड़कियाँ नौकरी में थीं । जिनके बारे में मुझसे चर्चा करते हुए पश्चाताप् के चिह्नन उसके चेहरे पर अंकित हो जाते । इस समय उसके पास उत्तरदायित्वों के अतिरिक्त गोद में नन्हा शिशु भी है । अतः अब उसकी इच्छा हो तब भी शीघ्र कुछ भी नहीं हो सकता । अतः इस विषय पर चुप रहना ही मेरे लिए सही विकल्प होता । जीवन की इन समस्याओं से बोझिल हृदय सुकून की तलाश करता.... और मैं आहान से मिलने चली जाती । मुझे अच्छा लगता । 

आज श्रेया का फोन आया । फोन उठाते ही उसने ’’ मम्मी...’’ कहा और सिसकने लगी । मैं पूछती रही....उसने कुछ नहीं कहा और फोन रख दिया । ये बात मैंने राहुल से बतायी । मेरी बात वो सुनता रहा, बोला कुछ नहीं । मेरे बच्चे-मेरे बच्चे करने वाले राहुल की चुप्पी मुझे अन्दर तक व्यथित कर गयी । 

मै श्रेया की पीड़ा समझ रही थी । युवावस्था का जोश व नित नये फैशन-सा बदलता जा रहा प्रेम व प्रेम विवाह तथा नासमझी भरी भावुकता बच्चों को ग़लत कदम उठाने के लिए विवश करती है । जिसका परिणाम अन्ततः पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ नहीं होता । बच्चों की समस्याओं के कारण मै तनाव में थी । आहान से मिलना चाहती थी । अतः शाम को कार्यालय के पश्चात् मिलने के लिए उसे फोन किया । 

फोन करने के उपरान्त सोचने लगी कि मैं आहान से मिलना क्यों चाहती हूँ? मेरे भीतर का अतृप्त प्रेम कहीं आश्रय तो नहीं ढूँढ़ रहा है? कहीं मैं अहान से प्रेम तो नहीं करने लगी हूँ? उम्र की ढलान पर ये कैसी इच्छाएँ.....ये कैसी भावनाएँ......? पति....बच्चांे.....व अनेक उत्तरदायित्वों के बीच ये मैं किस प्रकार की भावनाओं की गिरफ्त में आने लगी हूँ । मुझमें अब शेष क्या है...? 

प्रेम की प्रथम शर्त आकर्षण मेरे चेहरे से मद्वम पड़ती जा रही है । बालों की सफेदी को छुपाने के लिए इन्हें डाई करती हूँ । कृत्रिम सौन्दर्य प्रसाधनों से चेहरे को आकर्षित बनाने का प्रयत्न भी करने लगी हूँ । फिर भी उम्र के चिह्नन चेहरे पर स्पष्ट होने लगे हैं । ऐसा हो भी क्यों न? पैंतालिस से ऊपर की ओर बढ़ चली हूँ । दो बड़े बच्चों की माँ हूँ । 

तत्काल जाकर शीशे में अपने चेहरे को देखने लगी । चेहरे से कहीं भी मैं युवती प्रतीत नहीं हो रही थी । कृत्रिम प्रसाधनों का प्रयोग कर भी मेरे चेहरे पर प्रौढ़ावस्था के चिह्नन स्पष्ट थे । तो क्या प्रेम किसी भी उम्र में.... किसी भी अवस्था में हो सकता है? प्रेम शारीरिक आकर्षण से परे की चीज है...? । 

अनेक प्रश्न अनेक जिज्ञासाएँ मन में पल्लवित हो रही हैं । मेरे हृदय में आहान के प्रति प्रेम का अंकुरण तो नहीं हुआ है..? सचमुच मैं आहान से प्रेम करने लगी हूँ? उसके सफेद-काले खिचड़ी बालों, आँखों के नीचे गहराते काले गड्ढों व झुर्रियों समेत उसके पूरे व्यक्तित्व से मैं प्रेम करने लगी हूँ । अवश्य आहान का प्रेम भी कुछ इसी प्रकार का मेरे लिए भी होगा । मेरे चेहरे पर संतुष्टि के भाव आये व मेरा चेहरा दीप्त होने लगा । 

शाम को मुझे आहान से मिलना था । मैं निकल पड़ी । शाम के नीले आसमान में क्षितिज पर सूर्य की सतरंगी रश्मियाँ बिखर रही थीं । पक्षियों के झुंड कलरव करते अपने ठिकानों की ओर उड़ चले थे । सब कुछ अच्छा लग रहा था । ठंडी हवाओं के झोंके मेरे बालों से खेलने लगे । तय स्थान पर आहान मेरी प्रतीक्षा कर रहा था । 

’’ अत्यन्त आकर्षक लग रही हो । ’’ आहान के शब्द सुनते ही मैं झेंप-सी गयी । 

क्या मुझे आकर्षक नहीं लगना चाहिए था? मेरी उम्र हो गयी है । आहान के शब्दों का अर्थ यही तो नहीं है....? उस दिन आहान मेरे अत्यन्त समीप बैठकर मेरे हाथों को अपने हाथों में ले कर बातें करता रहा । बातों-बातों में उसका हाथ मेरे कमर के इर्द-गिर्द घूमने लगा । आहान द्वारा मेरे शरीर को स्पर्श करना मुझे अच्छा नहीं लगा । मैं तुरन्त खड़ी हो गयी व जाने को तत्पर भी । तो मुझसे मित्रता का अर्थ आहान के लिए मुझसे शरीरिक सम्बन्ध स्थापित करना है....? मैं आगे बढ़ती जा रही थी..... । 

’’ निधि.....निधि....रूको....क्या हुआ....इस प्रकार उठ कर तुम क्यों जा रही हो..? । ’’ अहान के शब्दों को अनसुना करते हुए मैं घर आ गयी । 

शनैः-शनैः एक सप्ताह व्यतीत हो गया । उसका फोन प्रतिदिन आता रहा । आज जैसे ही मैं कार्यालय से बाहर निकली कार्यालय के गेट पर आहान मुझे खड़ा मिला । बाल कुछ और खिचड़ी अवस्था में, चेहरे पर झुर्रियाँ कुछ और अधिक गहरी.... । एक सप्ताह में ही जैसे उम्र के कई वर्ष पार कर लिए हों । 

’’ निधि.....निधि.....दूर से देखते ही उसने पुकारा । कुछ वो मेरी ओर बढ़ा.....कुछ मैं उसकी ओर । 

’’ क्या बात हो गयी निधि....? रूष्ट को क्या मुझसे...? । ’’ मैं चुप रही । 

’’ मुझसे कोई त्रुटि हो गयी क्या....? ’’ मैंने खामोशी का आवरण ओढ़े रखा था । 

’’ मुझे क्षमा कर दो निधि । ’’ उसने दोनों हाथ जोड़ लिए थे । 

’’ कॉलेज के दिनों से ही तुमसे प्रेम करता हूँ, किन्तु कह नहीं पाया । जीवन पथ पर दूर निकल आया......किन्तु तुम्हारी स्मृतियों को हृदय में सबसे छुपा कर रखा था । अब सहसा तुम मिल गयी हो ऐसा आभास होता है कि पुराने दिनो की ओर मैं लौट आया हूँ । तुम्हारे शरीर को नहीं मैं तुम्हारे मन को छूना चाहता हूँ । मुझे क्षमा कर दो निधि । ’’ अहान चुप हो गया व याचक की भाँति मेरी ओर देखने लगा । मैं पूर्ववत् चुप रही व उसकी जुड़ी हथेलियों पर अपना हाथ रख दिया । इस एक सप्ताह के प्रत्येक क्षणों में मैं भी किसी गुमशुदा की तलाश करती रही । 

’’ थकान हो रही है । चलो एक कप कॉफी पीते हैं । ’’ आहान ने मुझसे कहा । प्रत्युत्तर की आशा में आहान अब भी मेरी ओर देख रहा था । 

जीवन में बहुत कुछ हम अनुभव करते हैं, किन्तु व्यक्त नहीं कर पाते । मैं चल पड़ी मेरे साथ आहान भी चल
पड़ा । दिन ढल रहा था । पूरी सृष्टि पर साँझ अपना आँचल धीरे....धीरे...फैला रही थी । साँझ के इस धुँधलके में भी राहें स्पष्ट थीं । इन राहों पर गुमशुदा दिनों की तलाश मुझे नहीं थी । मैं चलती जा रही थी नये लम्हों की तलाश में । 

-लखनऊ (उत्तर प्रदेश), मो. 9450362276

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कहानी


श्री सुशांत सुप्रिय


मूर्ति

पत्थर हो या इंसान - भीतर की आग जब बाहर निकलती है तो यही होता है ।

हो सकता है, आज जो सत्य कथा मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ वह आपको सुनने में अविश्वसनीय लगे । लेकिन कई बार सच पर यक़ीन कर पाना आसान नहीं होता । यह सत्य कथा मुझे मेरे एक संवेदनशील मित्र भास्कर ने कुछ अरसा पहले सुनाई । मैं चाहता हूँ कि आप सब भी यह दास्तान सुनें । 

भास्कर पिछले पंद्रह-बीस सालों से देश के आदिवासी इलाक़ों में आदिवासियों की भलाई के लिए एक एन. जी. ओ. चला रहा है । उसका एन. जी. ओ. ' सवेरा ' आदिवासियों को शिक्षित और जागरूक बनाने की दिशा में बहुत अच्छा काम कर रहा है । भास्कर दिन-रात जंगल-पहाड़ आदि की परवाह किए बिना किसी जुनूनी आदमी की तरह देश के दूर-दराज़ के आदिवासी इलाक़ों में अपने काम में लगा रहता है । छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखंड, उड़ीसा, बंगाल और तेलंगाना के आदिवासी इलाक़ों में लगभग हर आदिवासी भास्कर और उसके एन. जी. ओ. के नाम और काम से परिचित है । 

महीना भर पहले जब भास्कर कुछ दिनों के लिए दिल्ली आया तो एक दिन मैंने उसे अपने घर खाने पर बुलाया । वहीं बातों-बातों में उसने मुझे यह सत्य-कथा सुनाई । अब यह अजीब दास्तान आप उसी के शब्दों में सुनिए --

कई साल पहले छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा जिले में सरकार ने आदिवासियों की लगभग दो सौ एकड़ उपजाऊ ज़मीन उनसे औने-पौने दाम पर ज़बरदस्ती ले ली । असल में राज्य के एक बड़े उद्योगपति जतन नाहटा ने वहाँ कोल्ड ड्रिंक बनाने का प्लांट लगाने का मन बना लिया था । नाहटा राज्य के शीर्ष नेताओं और आला अफ़सरों को जानता था, सभ्यता के अंधकार में चमकती थीं जिनकी खुर्राट आँखें । नाहटा को अपना काम करवाने के सभी गुर आते थे । लिहाज़ा उसे आदिवासियों की यह दो सौ एकड़ उपजाऊ जमीन सस्ते में ही मिल गई । बहुत से स्थानीय आदिवासी बेघर-बार हो गए । उन्होंने विरोध भी किया, लेकिन बेचारे आदिवासियों की सुनता ही कौन है । मुट्ठी भर अमीर लोगों के उल्लास का रंग आदिवासियों के उदासी के रंग का जनक था । उनके आकाश का चाँद कीचड़ में सना पड़ा था । रात की पीठ में किसी खंजर के गहरे घाव - सा था उनका समय । सीलिंग फैन से टकरा कर कट गई तड़पती चिड़िया-सा था उनका समय । पानी से बाहर खींच ली गई छटपटाती मछली-सा था उनका समय । विस्थापित आदिवासियों की दुर्दशा देख कर जैसे सितारों की आँखें भीग गई थीं । जैसे हवा की बोली में एक बेचारगी - सी आ गई थी । स्तब्ध रात में जब हवा चलती तो लगता जैसे नक्षत्र रो रहे हों । 

आख़िर प्लांट बन कर तैयार हो गया । वह एक ऐसी सुबह थी जो रात के रंग की थी । इस फ़ैक्ट्री परिसर में ही जतन नाहटा ने अपने लिए एक शानदार कोठी भी बनवाई जो सुख-सुविधा के सभी साधनों से लैस थी । जब कभी सुरक्षा कर्मियों से घिरा नाहटा अपने प्लांट के दौरे पर आता तो उसी शानदार मकान में रहता । 

ज़ख़्म पर नमक यह कि नाहटा को आदिवासियों पर कोई भरोसा नहीं था । उनके बारे में उसकी धारणा अच्छी नहीं थी । इसलिए उसने अपने कारख़ाने में स्थानीय आदिवासियों को नौकरी नहीं देने के स्पष्ट निर्देश दे रखे थे । ग़ैर-आदिवासी मज़दूरों को कारख़ाने में काम करने के लिए दूसरे राज्यों से लाया गया । बेचारे स्थानीय आदिवासी कहीं के नहीं रहे । एक तो उनकी पुश्तैनी ज़मीन उन से छीन ली गई थी । दूसरे, उन्हीं की ज़मीन पर बने कारख़ाने में उन्हें ही नौकरी नहीं दी जा रही थी । 

मुझसे यह अन्याय देखा नहीं गया । मैं रायपुर में जतन नाहटा से मिला । मैंने उसे बहुत समझाया कि अगर वह अपने प्लांट में स्थानीय आदिवासियों को नौकरी देगा तो वहाँ के आदिवासियों में उसके प्रति रोष कम हो
जाएगा । हालाँकि नाहटा मुझसे शिष्टता से मिला लेकिन वह अपने स्टैंड से टस-से-मस नहीं हुआ । जैसे पत्ते पेड़ों से चिपके रहते हैं, वैसे ही वह चिपका रहा अपने नज़रिए से । 

" ये स्साले ' झिंगालाला हो' लोग किसी काम के नहीं होते । भास्कर बाबू, अगर आप इन आदिवासियों के लिए फिर भी काम करना चाहते हैं तो शौक़ से कीजिए । मेरी शुभकामनाएँ । " यह कह कर नाहटा ने मेरी बात टाल
दी । 

उस पल मेरी निगाह से वह ऐसा गिरा जैसे गिरता है कोई दुनिया की सबसे ऊँची इमारत से । दरअसल नाहटा जैसे लोग खुद को काजू, किशमिश और मेवा समझते थे । लेकिन वे छिलकों से भी गए गुज़रे थे । वे आईने की भ्रामक गहराई को सच समझते थे । यह युग ही ऐसा था कि यहाँ बौने लोग डाल रहे थे लम्बी परछाइयाँ । हर खोटी अठन्नी रुपए के भाव चल रही थी जबकि असली रुपया धूल में उपेक्षित पड़ा था । छेनी हथौड़ा, फावड़ा, रेगमार, खुरपी और हँसिया यहाँ रो रहे थे जबकि हर डकार-मारू तोंद यहाँ ऐश कर रही थी । 

नाहटा के इंकार के बावजूद मैंने अपना प्रयास जारी रखा । बीच-बीच में उससे मिल कर मैं उसे समझाने की कोशिश करता रहता । 

जतन नाहटा से अपनी मुलाक़ातों के दौरान मुझे पता चला कि उसे प्राचीन और दुर्लभ मूर्तियाँ आदि इकट्ठा करने का शौक़ है । एक बार जब मैं रायपुर में उसके बंगले पर उससे मिलने गया तो मुझे उसके ड्राइंग रूम के एक कोने में किसी आदिवासी- देवता की बहुत पुरानी आदमकद मूर्ति रखी दिखी । मेरे पूछने पर नाहटा ने मुझे बताया--

" अभी हाल ही में मैं दांतेवाड़ा में अपनी फ़ैक्ट्री के दौरे पर गया था । तब किसी ने मुझे बताया कि पास के एक आदिवासी गाँव के मुखिया के पास किसी आदिवासी-देवता की प्राचीन और दुर्लभ मूर्ति है । यह सुनकर मैं उस गाँव में गया । मूर्ति देखते ही मेरे मन ने कहा -- यह तो संग्रहणीय है । इसे मेरे पास होना चाहिए । इतनी बेशक़ीमती मूर्ति इन गँवारों के पास क्या कर रही है । लेकिन आदिवासी लोग इसे बेचने के लिए तैयार ही न हों । वे इसे अपना ग्राम-देवता बताते थे और इसकी पूजा करते थे । मैंने उन्हें बहुत लालच दिया पर वे नहीं माने । तब मुझे दूसरे तरीके से इस मूर्ति को हासिल करना पड़ा । "

मुझे बेचारे आदिवासियों से सहानुभूति हुई । हमने उनकी नदियाँ -जंगल-पहाड़, सब उनसे छीन लिये थे । उनकी नदियों पर हमने जगह-जगह बाँध बना दिये थे जिससे उनकी हज़ारों एकड़ ज़मीन पानी में डूब गई थी और वे विस्थापित हो गए थे । हमने उनके जंगल काट डाले थे और उन्हें उनके ही इलाके से बेदखल कर दिया था । हम उनके पहाड़ों से चट्टानें काट-काट कर अपने नगर और महानगर बसा रहे थे । वे अपनी आजीविका के लिए जिस प्रकृति की देन पर निर्भर थे, हमने उसका अंधाधुंध दोहन करके आदिवासियों को कहीं का नहीं छोड़ा था । मजबूरी में इनकी युवतियाँ महानगरों के साहब लोगों के घरों में नौकरानियों का काम कर रही थीं जहाँ इनका हर प्रकार से शोषण हो रहा था । हर तरह के शोषण और अत्याचार से तंग आ कर इनके युवक हथियार उठा रहे थे और पुलिस से मुठभेड़ों में मारे जा रहे थे । हम अपनी फ़िल्मों में इन आदिवासियों की वेश-भूषा, इनकी बोली और इनके रहन-सहन का मज़ाक उड़ा रहे थे । इन्हें उपहास का पात्र बना रहे थे । हमने इनकी उपजाऊ ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके वहाँ फ़ैक्ट्रियाँ बना ली थीं । इतना सब कर के भी जब हमारा मन नहीं भरा था तो अब हम आदिवासियों से इनकी जीवन-पद्धति और इनके देवी-देवता भी छीन रहे थे । इस देश के इन मूल निवासियों के साथ हम यह कैसा व्यवहार कर रहे थे ?

मुझसे रहा नहीं गया और मैंने स्थानीय लोगों के माध्यम से दांतेवाड़ा के उस गाँव के आदिवासी- देवता की मूर्ति की चोरी की रपट वहाँ के थाने में लिखवा दी । साथ ही यह सूचना भी दे दी कि वह मूर्ति इस समय जतन नाहटा के घर में है । इस मामले में मैं स्वयं पर्दे के पीछे ही रहा ताकि नाहटा मेरे एन. जी. ओ. का नुक़सान नहीं करे । लेकिन जतन नाहटा जैसे उद्योगपति के हाथ बहुत लम्बे थे । उसने हर स्तर पर रिश्वत दे कर मामले को रफ़ा-दफ़ा करवा दिया । मैंने मीडिया में भी नाहटा की करतूत का पर्दाफ़ाश करवाया । पर वह राज्य के सत्तारूढ़ दल को चुनाव के समय तगड़ा चंदा देता था । लिहाज़ा राज्य सरकार ने उसके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की । मन मसोस कर मैंने अपना पूरा ध्यान अपने एन. जी. ओ. को चलाने में लगा दिया । अपने एन. जी. ओ. के माध्यम से मैं जो भी थोड़ा-बहुत इन आदिवासियों के लिए कर सकता था, करता रहा । इसके बाद साल भर मैं छत्तीसगढ़ से बाहर दूसरे राज्यों के आदिवासी इलाक़ों में व्यस्त रहा । जब मैं वापस रायपुर लौटा तो एक दिन मुझे पता चला कि जतन नाहटा काफ़ी समय से बीमार था और अस्पताल में भर्ती था । किसी ने बताया कि उसकी दिमागी हालत अब ठीक नहीं थी । यह सुन कर मुझे हैरानी हुई । साल भर पहले तो वह बिल्कुल ठीक-ठाक था । 

उत्सुकतावश नाहटा का पता लगा कर मैं उससे मिलने अस्पताल में पहुँचा । वह उस महँगे प्राइवेट अस्पताल के मनोरोगी वार्ड में भर्ती था । डॉक्टरों से पूछने पर पता चला कि उसे ऐक्यूट पैरानोइया ' और ' शिज़ोफ़्रीनिया' जैसा कुछ मर्ज़ हो गया है । वहाँ मौजूद उसके घरवालों ने बताया कि उसे काल्पनिक आवाज़ें सुनाई देती हैं । वह किसी अदृश्य व्यक्ति से बातें करता है । उसे यह भय भी सताता रहता है कि कोई उसकी हत्या करने के लिए आ रहा है । कभी वह अवसाद ग्रस्त हो जाता है, कभी हिंसक हो उठता है । वग़ैरह । 

उसकी पत्नी वसुंधरा रोते हुए कहने लगी -- " भाई साहब, पता नहीं इन्हें क्या हो गया है । इलाज का भी कोई फ़ायदा नहीं हो रहा । " मैंने उसे लगी. सांत्वना दी और हिम्मत से काम लेने के लिए कहा । 

हालाँकि डॉक्टर मुझे नाहटा से मिलने देने के लिए पहले राज़ी नहीं हुए, लेकिन अपने जोखिम पर मैंने डॉक्टरों को मना लिया । 

सावधान रहिएगा, " एक डॉक्टर ने मुझे चेतावनी दी । 

जब मैं नाहटा के कमरे में दाखिल हुआ तो वह अपने बिस्तर पर उकडूं बैठा हुआ दीवार को घूर रहा था । उसकी दाढ़ी बेतरतीबी से बढ़ी हुई थी । उसके सिर के अधिकांश बाल इस थोड़े से अरसे में ही सफ़ेद हो गए थे । 

मैंने धीरे से उसका नाम लिया और वह मेरी ओर पलटा । कुएँ के तल पर जो आदिम अँधेरा होता है वैसा कुछ उसकी आँखों में भरा हुआ था । वह मुझे घूर रहा था । खोई हुई निगाहों से । जैसे उसके लिए चेहरों के कोई नाम न हों । दिनों का कोई वार न हो । 

फिर भी मैंने उसे धीरे से अपना नाम बताया और अचानक जैसे वह अँधेरे को लाँघ कर रोशनी में लौट आया । उसके चेहरे की उदास मुस्कान में पहचान का मद्धिम बल्ब जल उठा । 

यह सब कैसे हुआ ?" मैंने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा । 

" मूर्ति... । " वह अस्पष्ट-सा कुछ बुदबुदाया । ज़ाहिर है, वह उस आदिवासी- देवता की मूर्ति की बात कर रहा था । उसकी सहमी हुई आँखों में एक गूँगा रुदन था । 

" क्या हुआ ? " मैंने कोमल स्वर में फिर पूछा । 

उस मूर्ति में आदिवासियों ने जादू-टोना कर दिया है । वह मूर्ति नहीं, काला जादू है । रात में वह मूर्ति किसी भयानक जीवित आदमी में बदल जाती है । एक रात जब मैं सो रहा था, वह मूर्ति वाला आदमी मेरे बेड-रूम में घुस आया । मेरी छाती पर चढ़ कर वह मेरा गला दबाते हुए कहने लगा--

मैं तेरा ख़ून पी जाऊँगा । " बहुत मुश्किल से जान बचा कर मैं वहाँ से भाग पाया । मेरे घरवाले और डॉक्टर, सब मुझे पागल समझते हैं । कोई मेरी बात पर यक़ीन नहीं करता । लेकिन मैं सच कह रहा हूँ, मैं पागल नहीं हूँ । भास्कर बाबू, मुझे बचा लो । " उसकी चेतना के मुहाने पर दुःस्वप्नों की दस्तक थी । 

" हो सकता है, आप ने कोई बुरा सपना देखा हो । यह सब आप का वहम भी तो हो सकता है । " उसके कंधे पर हाथ रखकर मैंने उसे सांत्वना दी । उसकी देह बर्फ की सिल्ली-सी ठंडी थी । उसकी आँखों में अंतरिक्ष का काला खोखल भरा था । 

पहले मुझे भी ऐसा लगा था । लेकिन उस रात के बाद भी जब दो-तीन बार और वही मूर्ति वाला भयानक आदमी उसी तरह बेड रूम में मेरी छाती पर चढ़ कर मेरा गला दबाने लगा तो मैं समझ गया, यह कोई काला जादू है । अँधेरे में उसकी जलती कोयले -सी दहकती आँखें मैं नहीं भूल सकता । 

" नाहटा ने कहा । वह पाशविक अँधेरे में लिपटा था । उसके धूप- विहीन चेहरे में धँसी ऊष्मा - रहित आँखें डरावनी लग रही थीं । 

अब वह मूर्ति कहाँ है ? " मैंने पूछा । 

मेरे मकान के तहख़ाने में । लेकिन मैं अब उस मकान में वापस नहीं जाऊँगा । " नाहटा के चेहरे पर भय की रेखाएँ फैलने लगी थीं । अचानक वह चीख़ा--" देखो, देखो । वह मुझे मारने आ रहा है । बचाओ बचाओ... । " वह डर के मारे चिल्ला रहा 

था । उसका चेहरा राख के रंग का हो गया  था । वह जैसे अपने दुःस्वप्नों के भँवर में फँसा छटपटा रहा था । 

फिर जैसे गाड़ी का गियर बदल जाता है, ठीक वैसे ही उसके हाव-भाव में परिवर्तन आ गया । अब वह गुस्से में आ गया था । मैं आशंकित हो कर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ । उसने कुर्सी उठाई और दीवार पर निशाना साध कर किसी अदृश्य व्यक्ति पर वह कुर्सी दे मारी । 

डॉक्टरों ने मुझे फ़ौरन कमरे से बाहर बुला लिया । फिर कुछ वार्ड- बोएज़ ने आ कर नाहटा को पकड़ा । वह लगातार उनसे छूटने के लिए जद्दोजहद कर रहा था । जैसे उसकी धमनियों में बाढ़ का शोर हो । शिराओं में सुनामी आ गई हो । साँसें किसी चक्रवात की चपेट में हों । बहुत मुश्किल से डॉक्टर उसे शांत करने के लिए सोने का इंजेक्शन लगा पाया । 

हालाँकि नाहटा ने आदिवासियों के साथ जो किया था, मैं वह जानता था लेकिन फिर भी मुझे उसकी हालत पर तरस आ गया । उसका जीवन मौत से ज़्यादा निर्मम हो गया था । पर मेरे पास फ़ुर्सत नहीं थी । मैं अपने एन. जी. ओ. के काम में व्यस्त हो गया । 

दो माह बाद जब मैं दोबारा रायपुर लौटा तो वहीं मुझे यह ख़बर मिली कि पागलपन की हालत में ही जतन नाहटा ने अस्पताल के कमरे में आत्म- हत्या कर ली थी । पता चला कि एक रात उसने खिड़की का काँच तोड़ कर उस काँच से अपने हाथ की नस काट ली । किसी ने बताया कि अपने अंतिम दिनों में वह किसी मूर्ति वाले भयानक आदमी से बुरी तरह डरा रहता था । उसे पागलपन के भयानक दौरे पड़ते थे । 

यह सुन कर मैं सोचने लगा -- इंसान अपने लिए स्वयं ही सोने-चाँदी की बेड़ियाँ और हथकड़ियाँ बना लेता है । और ऐश्वर्य के कारावास भी । दौलत की हवस आदमी से क्या-क्या नहीं करवाती । वह दूसरों का हक़ मारता है । औरों के हिस्से की धूप, पानी, हवा, आकाश छीनता है । 

लेकिन अंत में सब कुछ यहीं धरा रह जाता है । आगे केवल अर्थी होती है । चिता होती है । अस्थियाँ होती हैं ।
बस । 

नाहटा की ऐसी मौत की ख़बर सुनकर मुझे अफ़सोस हुआ लेकिन बार-बार मूर्ति वाली वह अजीब बात याद आ जाती । इसलिए एक दिन मैं नाहटा की पत्नी वसुंधरा से मिलने उसके बंगले पर पहुँचा । उसकी पत्नी से संवेदना व्यक्त करते हुए मैंने आदिवासी देवता की उस प्राचीन मूर्ति के बारे में जानना चाहा । 

वह तो तहखाने में पड़ी है । " नाहटा की पत्नी वसुंधरा केवल इतना ही बता पाई । तब मैंने उसे उस मूर्ति के बारे में सारी बात बताई कि कैसे उसे दांतेवाड़ा के एक स्थानीय आदिवासी गाँव से चुरा कर यहाँ लाया गया था । मैंने इच्छा प्रकट की कि वह मूर्ति वापस उसी आदिवासी-गाँव के निवासियों को सौंप दी जाए जहाँ से वह चुराई गई
थी । वह वहाँ के देवता की मूर्ति थी । उस गाँव के आदिवासी उस मूर्ति की पूजा करते थे । यह उनकी परम्परा का अभिन्न अंग था । 

" ले जाइए इसे । हमारे लिए तो यह केवल दुर्भाग्य ले कर ही आई । इसी के कारण इनकी जान चली गई । " आदिवासी-देवता की वह प्राचीनं मूर्ति मुझे सौंपते हुए नाहटा की पत्नी वसुंधरा रोने लगी थी । 

उस मूर्ति को छू कर देखने पर न जाने क्यों मुझे भी ऐसा लगा जैसे वह कोई साधारण मूर्ति नहीं थी । जैसे उसके सीने में दिल जैसा कुछ धड़क रहा था । 

मैंने वह मूर्ति उस गाँव के आदिवासियों को वापस लौटा दी जहाँ पहले की तरह ही अब वे अपने धार्मिक रीति-रिवाजों और परम्पराओं का पालन करते हैं । 

मैंने बहुत प्रयास किया कि जतन नाहटा ने अपना प्लांट बनाने के लिए आदिवासियों की जो दो सौ एकड़ ज़मीन ले ली थी, वह उन आदिवासियों को वापस लौटा दी जाए । दरअसल नाहटा की पत्नी वसुंधरा उस ज़मीन को अपशकुनी मानती थी । इसलिए उसने वह ज़मीन सरकार को वापस लौटा दी । लेकिन नीति-नियंताओं और अधिकारियों ने वह ज़मीन वापस आदिवासियों को देने के एवज़ में मुझसे लाखों रुपए की रिश्वत माँगी । मेरे पास इतने रुपए नहीं थे । इसलिए कुछ नहीं हो सका । अब उस जगह पर एक एक वीरान खंडहर है जहाँ जंगली घास और विषैली वनस्पतियाँ उगती हैं और मच्छर पनपते हैं । लोग बताते हैं कि ढही हुई वीरान रातों में जब पीला, खंडित चाँद उस खंडहर पर उगता है तो वहाँ का पूरा दृश्य भुतहा हो जाता है ...

तो यह थी वह अजीब दास्तान, वह त्रासद कथा जो मेरे मित्र भास्कर ने मुझे सुनाई । कभी-कभी मुझे लगता है जैसे उस उद्योगपति जतन नाहटा का पागलपन और उसकी मौत आदिवासी- देवता द्वारा लिया गया बदला थी । आदिवासियों से उनकी ज़मीन छीन लेने का बदला । आदिवासियों की जीवन-पद्धति, परम्पराओं और आस्था पर वार करने का बदला । जैसे वह मूर्ति हिसाब चुका रही थी । पाठको, सच क्या है, मैं नहीं जानता । इसका फ़ैसला मैं आप पर छोड़ता हूँ । यदि भास्कर की मानें तो --

पत्थर हो या इंसान, भीतर की आग जब बाहर निकलती है तो यही होता है । 

इंदिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद, मो. 8512070086

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आलेख

सुश्री कृष्णलता यादव


माँ से बढ़कर कौन – कोई नहीं, कोई नहीं 

विश्व की सभी संस्कृतियों में माँ का स्थान सबसे ऊँचा माना जाता है । मनुष्य हो या अन्य जीव-जन्तु, सब में माँ की ममता के उदाहरण मिलते हैं । गहरे सागर में रहने वाली माउथ ब्रूडर नामक मछली के बच्चे जब छोटे होते हैं तो अपनी माँ के सिर के आस-पास गोला बनाकर घूमते रहते हैं । यदि कोई खतरा होता है तो ये सरसराकर अपनी माँ के मुँह में घुस जाते हैं । माँ उन्हें मुँह में छुपा लेती है और खतरा टल जाने पर पुन: स्वतन्त्र कर देती है । ममता की ऐसी दृश्यछवियाँ देखकर कहा जाता है – 

माँ की ममता को कभी, तुला सकी है तोल ? 

इसकी जो हामी भरें, झूठे हैं वे बोल । 

दुनिया के भूगोल में माँ सर्वोच्च शिखर है, वहीं संतान के जीवन रूपी अध्याय का गरिमामय पन्ना भी है । बच्चा भी प्राय: पहला शब्द माँ ही उच्चारता है । किसी को जरा-सी तकलीफ़ हुई नहीं कि यकायक माँ शब्द ही मुँह से निकलता है । माँ की महिमा पर कितने ही ग्रन्थ लिखे जाएँ, लेखक को मानसिक तृप्ति नहीं मिलती । एक बार अनेक ग्रन्थों के रचयिता से किसी ने पूछा, ʻश्रीमन् ! लेखन के सफर में क्या कोई ऐसी चुनौती आई है जिससे लेखनी टक्कर नहीं ले पाई?ʼ कलमकार ने उत्तर दिया, ʻबन्धु ! लेखनी के बल पर अनेक मोर्चों पर लड़ा हूँ, सफल भी हुआ हूँ परन्तु आज तक ʻमाँʼ की परिभाषा नहीं लिख पाया हूँ । गद्य और पद्य में पृष्ठ दर पृष्ठ लिखे लेकिन हर बार बहुत कुछ अनकहा रहा । माँ के विराट व्यक्तित्व के सामने शब्द हर बार बौने सिद्ध हुए । दुआ के रूप में सदा सन्तान के संग रहने वाली, अंधेरे में प्रकाशपुंज बनने वाली, संतान के नाज़-नखरे झेलने वाली, उसे दिठौना लगाने की धुन में छप्पन भोग तजकर उसके पीछे दौड़ने वाली माँ को नहीं जानता कैसे परिभाषित करूँ ? ममता, करुणा, त्याग और उदारता की स्वामिनी माँ का पार पाना सचमुच सीमा से परे है । ʼ

यह माँ ही है जो नवसृजन की चाह में प्रसवपीड़ा झेलती है, शिशु के पालन-पोषण में रात की नींद व दिन का चैन लुटाती है । इतने पर भी उसके मन का दरिया कभी नहीं रीतता । अपनी रूखी रोटी तक संतान में बाँट देने वाली माँ से बढ़कर शहंशाह कौन हो सकता है भला ? माँ को अमीर, गरीब, युवा, बूढ़ी, सुन्दर, असुन्दर नहीं कहा जा सकता । वह केवल और केवल माँ है । 

वह माँ जो संतान के अस्वस्थ होने पर सहम जाती है, उसकी भूख मर जाती है और हाथ जुड़ जाते हैं – इष्ट के सामने मनौती माँगने के लिए । मनौती पूरी होने पर वह कई-कई कोस की परिक्रमा करती है । बहुत अनूठा शब्द है माँ ; इसलिए कवि हृदय गा उठता है– रस के सौ-सौ निर्झर झरते, शब्द बहुत मनभावन माँ । 

कहा जाता है, पूत कपूत भले हो जाए, माता हो न कुमाता । माँ अपनी संतान की आँखों की भाषा पढ़ना जानती
है । शायद इसीलिए कहा जाता है – गूँगे की बात गूँगे की माँ ही जाने । यह माँ है जो बच्चों की ज़रूरतें पूरी करने के लिए अपनी ज़रूरतों को पीछे धकेल देती है । माँ के हाथों में कपास के फूल की-सी बरकत होती है । यह माँ ही है, जो – मधु-सी मधुरता, ऋषि-सी साधुता, पुष्प-सी कोमलता और पृथ्वी की-सी सहनशीलता के बल पर अपनी संतानों के मध्य पनपे मन-मुटाव को मिटाती है । वह बीजमन्त्र पढ़ती है – सम्पूर्ण उत्सर्ग के, प्यार के और शक्ति के । तभी तो वह परिवार, समाज व राष्ट्र की निर्मात्री कहलाती है । ईरान के शहंशाह का कथन है, ʻसात सलाम उस नारी को, जो माँ है युवराज की । बादशाह उससे डरते हैं, क्योंकि सत्ता उसकी गोद में है । ʼ सच पूछा जाए तो माँ वह समुद्रतट है जिसके पोताश्रय पर सभी आत्माओं को आश्रय मिलता है । उसका आशीर्वाद रक्षाकवच से कम नहीं । अपने शिशु की सेवा-संभाल करते समय वह ऐसी बाँसुरी बन जाती है जिसके हृदय से समय की साँस गुजरती है और वही साँस संगीत में ढलकर मीठी लोरी बन जाती है । माँ जीवन के नए रूप दिखाती है, जीने का ढंग सिखाती है, जिद्दी होने पर दंड देती है, एकांत में सहारा देती है और निराशा में थपकियाँ देकर सुलाती है । 

मेघ के बरसने और माँ के परोसने में जो स्वाद होता है वह कहीं ओर हो ही नहीं सकता । मातृकृपा से उसकी संतान को सहज ही ऐसा कुछ मिल जाता है कि वह हाड़-मांस की देह के स्थान पर बन जाता है – अमृतघट । सैलिगमैन के अनुसार - आदमी की विचारशैली माँ की गोद में तय होती है इसलिए माँ को ʻप्रथम गुरुʼ कहा जाता है । इतिहास साक्षी है, संस्कारवान माताओं की संतान ने स्वप्राणों की बाजी लगाकर गुलामी की जंजीरें तोड़ी, मानवता को महत्व दिया, निज संस्कृति को गौरवान्वित किया और स्वयं ख्याति के शिखरों पर पहुँची । 

सार यह कि भले ही फूल गंध फैलाना छोड़ दें, चाँदनी शीतलता तज दे, बादल आकाशगमन त्याग दें, पवन हवन की सुगंध बिखेरना बंद कर दे, फागुन उल्लास भरना छोड़ दे परन्तु यह नामुमकिन है कि कोई माँ ममता के साँचे में अपनी संतान के गौरव पर विचार न करे । माँ की स्मृति से ही जब मन गंधिया जाता है तो मन के एलबम का प्रत्येक पन्ना आत्मीयता की फुहार से भीग-भीग जाता है । आज आवश्यकता है मानस मंथन की । सोचना होगा कि कहीं हम माँ का गुणगान मात्र कर रुक तो नहीं गए । भौतिकता की दौड़ में कहीं माँ से दूर तो नहीं चले गए? क्या माँ की आवश्यकताओं के विषय में सोचा? क्या समय-समय पर उनके स्वास्थ्य की जाँच करवाई? क्या उनके मन की बात सुनी गई? भाव यह कि संतान को हर पल जाँचते रहना होगा – माँ के प्रति अपनी हरकतों का
पैमाना । 

कहा जा सकता है कि शक्ति के देवता की समस्त कृपा पाकर पहाड़ उठाया जा सकता है, इस पर संदेह की गुंजाइश नहीं; पर सरस्वती माँ की समूची कृपा पाकर भी जन्मदायिनी माँ की महिमा का बखान कर पाएँगे, इस पर शक
है । और जब-जब स्वयं से पूछेंगे – माँ से बढ़कर कौन; तो उत्तर मिलेगा – कोई नहीं, कोई नहीं ।

-गुरुग्राम, मो. 9811642789

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आलेख

प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"


अतीत की पीड़ाओं की प्रतिध्वनियाँ 

अतीत का मोहपाश चाहे वांछनीय हो या अवांछनीय पीछा नहीं छोड़ता । यह दुर्वासा मुनि के शाप जैसा होता है । यही मोह एक दिन छद्म रचता है । मैंने भी यही किया । अतीत का मार्ग ऋजु नहीं होता । वहाँ अनगिन वक्रताएँ होतीं हैं । वहाँ भटकने की संभावना कोई अचरज नहीं । विगत की कई स्मृतियाँ वहीं से झरतीं हैं । अंततः अतीत मास्क में मेरे सामने वाली कुर्सी पर था । मेरे पास प्रश्न थे । प्रश्न क्या वंचनाओं का एक ढाँचा था, जिसको मैंने अकादमिक रँग से पोत दिया था । वह सतत् सुनता गया । प्रयुत्तर के नाम पर उसके पास कुछ नहीं था । कुछ था तो अवसाद में गहरी धँसी आंखों की एक जोड़ी थी । बातें जो कभी पातियों में आई-गई हो गयीं थीं, चुप्पियाँ बनकर हमारे बीच पड़े अंतराल में घुल रहीं थीं । सघनता थी, एक गहरा ठहराव था - कहने को बस शब्द ही नहीं बचे थे । पराये लोगों से घिरा हुआ अतीत एकदम नहीं खुल 

पाता । कभी-कभी तो वह बिल्कुल भी निर्वाक् रहता है । 

आवाज़ में एक स्थायी विषणा थी । कितना कुछ ग्रंथित किया गया । एक विप्लव भरा-भरा सा ... बस छलका
नहीं । नियंत्रण और नियमन के सारे सिद्धान्त यहाँ आकर खोखला गये थे ।

अतीत का यह संज्ञान कि समक्ष बैठा व्यक्ति छल कर रहा था, प्रकट नहीं हुआ । मैं संपृक्ति तोड़ने वाला व्यक्ति, वह टूटे तारों के लिए जार-जार आँसू बहाने वाला .... आज दोनों समकक्ष खड़े थे । कोई शिकायत नहीं किसी की । एक भाव जिसे भीतर से अनुभूत किया और भीतर ही रहने दिया । 

पाँव पर पाँव धरता अतीत, प्रश्न करता मैं । 

बोलता मैं, आँखों से उत्तर देता अतीत । 

कुछ बातें तटबंध तोड़ती अच्छी नहीं लगतीं । नहीं तो वे बेपरवाह होकर बहतीं हैं या फिर ख़त्म हो जातीं हैं । 

इतने में कहाँ मानता ? कुछ अभीप्साएँ रिक्शे में बैठकर कार में सवार सपनों का पीछा करतीं हैं । हासिल यहाँ कोई मुद्दा ही नहीं । रेत अपनी मुट्ठी में भरना और अँजुरी से गिरते हुए देखना ... 

युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार, लखनऊ, उत्तर प्रदेश, 

सचलभाष/व्हाट्सअप : 6392189466, ईमेल : prafulsingh90@gmail.com

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आलेख

डॉ. राकेश रंजन

डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह


 ‘समकालीन कविता के शब्द-साधक:
डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह’


डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह समकालीन हिंदी कविता के सृजनधर्मी कवि हैं । इनका संपूर्ण काव्य विविध प्रयोगों और मानवीय संवेदनाओं का रसकोश है । स्कूली जीवन से शब्द-साधना की शुरुआत करनेवाला यह सर्जक आज साहित्य की कई विधाओं को समृद्ध कर चुका है और इसकी साधना वार्द्धक्य की सीमा से अवरुद्ध नहीं हुई है, सतत जारी है । ये मानव-जीवन के आस्थावादी सर्जक हैं । इन्होंने जीवन की अनेक समस्याओं और प्रश्नों को सुलझाकर सत्य का साक्षात्कार कराया है । डॉ. शिवदास पाण्डेय के शब्दों में-‘‘आधुनिक अनुसंधान विज्ञान के मौजूदा दौर से साहित्य विद्या के अनुसंधान संसार में डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह एक साधक का नाम है जो ज्ञान की देवी के दर्शन के मार्ग की सारी बाधाओं, सारे खतरों और सभी जोखिमों से खेलने के बाद भी सत्य और सत्यार्थ के दर्शन किये बिना मानने वाला नहीं । न यश की कामना, न अर्थ की अपेक्षा, न उपदेश देने की व्यग्रता, शोधन-अनुशोधन, संधान-अनुसंधान, राजयोग-हठयोग सबके पीछे बस एक ही देवी की रूपच्छवि के दिव्य दर्शन की अपेक्षा । संस्कृत और पालि-प्राकृत से लेकर लोकभाषा अथवा अन्य भारोपीय भाषाओं के बीहड़ जंगलों में भटकते रहना डॉ. सिंह की कोई मनमौजी यात्रा है जैसे; उनके द्वारा शोधपरक सारे कार्य उस यात्रा के सचित्र प्रमाण । ’’ (‘क्रांतिदर्शी कवि डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह’ के फ्लैप से)

उन्होंने अन्यत्र लिखा है-‘‘डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह वर्तमान साहित्य जगत् के एक अनोखे किस्म के रचनाधर्मी कृतिकार हैं । ‘अनोखे’ इसलिए कि उनका दैनंदिन जीवन आजकल के तिकड़मी-जुगाड़ी साहित्य कर्म से सर्वथा भिन्न साधना, तपस्या एवं सेवा-भाव से प्रेरित-स्पंदित है-बिल्कुल एक संत की तरह । उनका लोकप्रिय नाम भी ‘संतजी’ ही है; यद्यपि साहित्य कर्म के लिए उन्होंने यह नाम प्रायः अंगीकार नहीं किया है । साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में उनकी लेखनी शिखरोन्मुख है’’ (अक्षयवट के फ्लैप से) जिनमें कविता के अतिरिक्त नाटक, आलोचना, अनुसंधान, कहानी इत्यादि विधाएँ प्रमुख हैं । (अक्षयवट के फ्लैप से) 

डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह का व्यक्तित्व मानवीय भाव-बोध, ओजस्विता और कलात्मक विच्छित्ति से परिपूर्ण है । उनके विचार स्वतः भाषा का चयन कर लेते हैं । उनमें जीवन का अटूट विश्वास और संकल्प का भाव है । उनका अकुंठ व्यक्तित्व उनकी रचनाओं में झलकता है, प्रतिबिम्बित होता है । उनकी कविता के प्रमुख उपादान है-भारतीय संस्कृति, प्रकृति तथा वैश्विकता व बाजारीकरण से उपजे मानवीय संकट और त्रासदियों के बनते-बिगड़ते विविध रूप । इनकी प्रमुख प्रकाशित काव्य रचनाएँ हैं- 

1. मैं भूखा हूँ । 

2. मेरा घर कहाँ है? 

3. महासमर जारी है 

4. तुम कहाँ हो? 

5. आत्मा के शिल्पी 

6. कृषक वेदना 

7. धम्मपद का काव्यानुवाद 

‘मैं भूखा हूँ’ में स्वातंत्र्य-प्रेम की भूख है, राष्ट्र के पुनर्निर्माण और समृद्धि-कामना की भूख है । जब प्रतिगामी शक्तियों द्वारा देश में आपातकाल लगाकर जन-स्वातंत्र्य का अपहरण कर लिया जाता है और उसके खजाने को लूटकर उसे कंगाल कर दिया जाता है तब आम जनता की भूख की ज्वाला धधक पड़ती है जिसमें प्रतिगामी शक्तियाँ धू-धूकर जलने लगती हैं । शब्द-साधक कवि छात्र आन्दोलन में कूद कर वाग्बाण चलाने लगता है । ‘मैं भूखा हूँ’ में आपातकाल की घटना-परिघटनाओं को विभिन्न पुराकथाओं के माध्यम से चित्रित किया गया है जिनमें वर्तमान जीवन की समस्याएँ स्वतः उभरने लगती हैं और उसका जिम्मेवार तत्कालीन राष्ट्राध्यक्षों और उनकी नीतियाँ, ही नहीं, अपितु राष्ट्रीय मुद्दों और समस्याओं यथा-अशिक्षा, अंध-विश्वास एवं रूढ़ियाँ, गरीबी, साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, भ्रष्टाचार इत्यादि से जनता का अपने को अलग-थलग भी कर लेना है, उदासीन हो जाना है । ‘जनता’ शीर्षक कविता में कवि कहता है- 

‘‘जनता ! 

तू भोली 

अति भोली ! 

मर गये गाँधी 

खाकर 

गोली, 

तूने क्या 

आँखें भी खोलीं ?’’ 

‘मेरा घर कहाँ है’ में किसी आध्यात्मिक ‘घर’ की ओर संकेत नहीं है, अपितु इसमें वैश्वीकरण, बाजारवाद और पूँजीवाद ने विकास और समृद्धि के नाम पर ‘घर’ के अस्तित्व को मटियामेट करने का जो षड्यंत्र रचा है, उनके बहुरंगी चित्र हैं । इसमें बाजारवाद और भूमंडलीकरण से आकार लेती संवेदनशील, विसंगत एवं त्रासद स्थितियों पर प्रकाश डाला गया है । बाजारवाद का प्रभाव जीवन के विविध क्षेत्रों में पड़ा है । कोई भी देश, कोई भी संस्कृति उसके प्रभाव से बचा नहीं है । वैश्वीकरण और बाजारवाद ने जीवन की दशा और दिशा ही बदल दी है । व्यक्ति परम्परा से कटकर प्रतिस्पर्द्धा के बाजार में अपनी प्राणवायु को बचाने का हास्यास्पद प्रयास कर रहा है । यहाँ तब कि पिता-पुत्र, माँ-बेटा, भाई-बहन, पति-पत्नी, ससुर-दामाद, ननद-भौजाई, सास-पतोहू जैसे पारिवारिक रिश्तों में भी तरह-तरह की गाँठें पड़ने लगी हैं । रिश्तों के मूल पैसे की जमीन से खाद-पानी ले रहे हैं, उनकी नैसर्गिकता संकटों में घिर गयी है । संयुक्त परिवार की धज्जियाँ उड़ गयी हैं और एकल परिवार अपनी विसंगतियाँ त्रासदी झेल रहा है । वैवाहिक संबंध भी अपनी अर्थवत्ता खोता जा रहा है । ‘मेरा घर कहाँ है’ शीर्षक कविता में एक अविवाहित युवा-मन की स्थिति आज के वैश्विक परिवेश के सम्मुख एक गंभीर चुनौती हैः- 

‘‘आप जहाँ कहते हैं 

मैं शादी कर लेता हूँ, किन्तु 

वह लड़की रहेगी कहाँ ? 

पिताजी के घर? या नैहर ? 

क्योंकि मेरे पास तो रह नहीं सकती..... 

मैं तो कभी जर्मनी तो कभी जापान 

कभी अमेरिका तो कभी फ्रांस...... 

और आप ही बतलाइए 

मेरा घर कहाँ है? 

और मैं कहाँ हूँ? 

ये पंक्तियाँ प्रश्नकर्ता को अवाक् कर देती हैं और उसके सामने एक प्रश्नचिह्न अंकित कर देती हैं । ‘मेरा घर कहाँ है’, की गूँज अनुगँूज बहुत दूर तक जाती है । मन में टीस कौंध जाती है । 

‘महासमर जारी है’ में युद्ध की प्रकृति, उसके प्रकार और औचित्य व उसकी सार्वकालिकता जैसे विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है । इस संकलन में छल, प्रपंच, संशय, स्वार्थ लोभ-लालच के भयानक तमस में भटकते मानव की दूसरे से टकराहट और उससे उत्पन्न कारुणिक परिस्थितियों की अभिव्यक्ति हुई है । मानव-समाज में सबके सबंध आपस में उलझे हुए हैं । यहाँ युगीन समस्याओं एवं विडंबनाओं का उत्कर्ष है । महत्त्वाकांक्षा हावी
है । विघटन बड़ी तेजी से हो रहा है । बाप-बेटा के बीच संघर्ष है, घात-प्रतिघात है । बेटा पर दबदबा बनाने का अजीब तरीका ढूँढ़ लिया गया है । ‘कहाँ कहाँ लड़ते रहोगे प्यारे’ शीर्षक कविता में कवि का मिथकीय स्वर इसे धारदार बना देता है- 

‘‘यहाँ..... 

बेटे की दपदपाती हुई 

जवानी को लेकर 

बाप 

उसे बदले में 

अपना झुर्रीदार बुढ़ापा 

ओढ़ा देता है । 

और जो बेटे 

इसमें आनाकानी करते हैं 

उन्हें 

घर से, जाति से, 

समाज से बाहर कर 

अभिशप्त कर देता है; 

तुम किस-किस से 

कहाँ-कहाँ लड़ते रहोगे प्यारे ?’’ (पृष्ठ-30-31) 

‘तुम कहाँ हो?’ में कवि ने अपनी दिवंगता धर्मपत्नी की स्मृति के माध्यम से मानव-मन के सूक्ष्म भावों-संवेगों को, भावना-संवेदना को प्रकृति के विभिन्न उपमानों द्वारा अभिव्यक्ति प्रदान की है । कवि की मनःस्थिति निम्नलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है- 

‘‘बिम्ब हैं उदास सारे 

कल्पना मर-सी गयी 

मिथकों के जाल में 

जिंदगी उलझ गयी; 

रागिनी मेरी ! 

कहाँ तू सो गयी !’’6 (पृष्ठ-30) 

स्मृति मानवीय संवेदना के संस्कार और क्षमता से सँवरती है । स्मृति की जीवंतता भावुक सहृदयों के मार्मिक संवेदना-जगत् के पुनर्निर्माण और पुनर्भावना में अमूल्य सहयोग करती है । जीवन का अतीत स्मृतियों का अक्षय स्रोत है । इन्हीं स्मृतियों में से कुछ शिष्ट-विशिष्ट-दिव्य-भव्य चित्र मानस लोक को प्रकाशित करते हैं । जीवन को प्रेरणा देते हैं साथ ही जीवन के नवरूप को रचने की झमता भी! आलोच्य संकलन की कविताएँ इसके उदाहरण हैं । 

मत्तगयंद, दोहा, सोरठा, कुण्डलिया आदि छन्दों में विरचित ‘कृषक वेदना’ में कविवर डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह ने गाँवों के किसानों की दयनीय दशा का बड़ा ही मार्मिक और भावमय अभिव्यंजन किया है । यहाँ किसानों को अनेक संदर्भों में उनकी समस्याओं के साथ चित्रित किया गया है । किसानों को सरकार की जटिल और उलझी हुई विभिन्न योजनाओं की विडंबनाओं और विसंगतियों का शिकार होना पड़ता है । बिचौलियों और दलालों का बोलबाला बढ़ गया है । सच है कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है और गाँव की आत्मा कराह रही है । उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है । नेता उसे वोट मात्र मानते हैं और किसान अपनी दुर्बलताओं से दबा जा रहा है, दबाया जा रहा है । एक-दो उदाहरण देखें- 

‘‘दुर्बल एक किसान है 

जिसको मारे तीन । 

केन्द्र, प्रांत व पंचायत 

वह क्यों रहे न दीन । । ’’ (पृष्ठ-16) 

******

‘‘लू न लगती किसान को 

भूख न करती बार । 

नेताजी की नीति से 

मचता हाहाकार । । ’’ (पृष्ठ-16) 

‘‘आत्मा के शिल्पी’ में कलम के जादूगर श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी के जीवन-चिंतन को प्रबंध-काव्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है । बेनीपुरीजी एक स्वतंत्रता सेनानी, समाजवाद के उन्नायक नेता, निर्भीक पत्रकार, उत्कृष्ट नाटककार, अद्भुत शब्दचित्रकार और अनूठे शैलीकार थे । उनके बहुआयामी जीवन-दर्शन भीषण-विषम परिस्थितियों में उत्कट जिजीविषा से निर्मित है जो इस प्रबंध काव्य का मुख्य प्रतिपाद्य है । प्रबंध-काव्य में नया शिल्पानुसंधान पाठक को सहज ही अपने प्रवाह में बहा ले जाता है । 

कवि का राष्ट्र-प्रेम मानवीय करुणा और प्रेम का दामन कभी नहीं छोड़ता । मनुष्य के हृदय में करुणा और प्रेम का अधिवास है, बर्बरता उसका स्वाभाविक गुण नहीं, करुणा और प्रेम ही सत्य का पथ है, सत्पथ है । 

‘‘मानव मूलतः करुणापूरित । 

नहीं बर्बर 

तज आडम्बर 

बढ़ सत्पथ पर 

तुम तेजपुंज!’’ (पृष्ठ-8) 

डॉ. सुरेन्द्रनाथ दीक्षित के शब्दों में-‘‘यह कृति बेनीपुरी के जीवन और चिन्तन की दस्तावेज भर न होकर अपने युग को नयी संवेदना और नयी दृष्टि देने में स्मर्थ है । निश्चय ही यह एक परिपक्व और सार्थक रचना है । ’’

‘धम्मपद’ का हिन्दी काव्यानुवाद कर डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह ने अद्भुत काव्य कौशल का परिचय दिया है । ‘धम्मपद’ जीवन-सत्यों का पिटारा है और यह अनुवाद इसकी कंुजी । ‘धम्मपद’ के जीवन-दर्शन को सहजता-सरलता से हृदयंगम करने के लिए यह कृति अत्युपयोगी है । वर्तमान वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा, प्रतिद्वन्द्विता, बाजारवाद, पूँजीवाद, युद्धप्रियता, धर्मान्धता और धार्मिक कट्टरता एवं उन्माद, सम्प्रदायवाद, आतंकवाद इत्यादि की स्थितियों से उबारने के लिए महात्मा बुद्ध का जीवन-दर्शन आज भी प्रासंगिक है । ‘अप्पमादवग्गो’ शीर्षक में अप्रमाद की महत्ता को अभिव्यंजित किया गया है- 

‘‘अप्रमाद ही अमृत पद है 

प्रमाद तो मृत्यु पद है 

अप्रमादी कभी न मरते 

प्रमादी तो मृत ही हैं । ’’ (पृष्ठ-22) 

अप्रमाद व्यक्ति को अमरत्व प्रदान करता है और प्रमाद जीवनकाल में ही मृत बना देता है । 

‘धम्मपद’ कुल छब्बीस वग्गों में विभक्त है । सभी वग्गो में जीवन सत्य को विभिन्न कोणों से देखने, समझने और समझाने का उपक्रम किया गया है । कवि-अनुवादक डॉ. सिंह ने पालि भाषा में रचित ‘धम्मपद’ को हिन्दी में काव्यानुवाद कर बौद्ध धर्मावलंबियों व हिन्दी प्रेमियों को सुन्दर उपहार दिया है । 

डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह की कविताओं में जीवन की जटिलता और जीवन के अन्तर्विरोध कहीं प्रश्नचिह्न के रूप में और कहीं सहजता-सरलता के बाने में उनके, समाधान के साथ प्रस्तुत हो जाते हैं जिनसे सूक्ष्म मानवीय संवेदनाएँ बोधगम्य हो जाती हैं । विद्रोह और क्रांति के स्वर विचार-तत्त्व की प्रखरता के साथ सामने आते हैं । मानवीय नियति की गहन चिन्ता दिखलाई पड़ती है उनकी कविताओं में; उपमाओं की ताजगी और नवीन बिम्बों और प्रतीकों की मिथकीय बुनावट का सम्मोहक आकर्षण है उनकी कविताओं में । 

कवि की काव्य-भाषा सहज, सरल व निर्झरतुल्य गतिमयता से युक्त है । इनकी भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज व विदेशज शब्द स्वयं प्रसंगानुकूल आ धमकते हैं । रस, छंद, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक, मिथक, मुहावरे एवं लोकोक्तियों के प्रयोग सफल और सार्थक हैं । ये आरोपित या प्रतिष्ठापित नजर नहीं आते । इनके काव्य का फलक विषय-वस्तु एवं भाषिक प्रयोग की दृष्टि से अत्यंत व्यापक एवं विस्तृत है, पर एक बौद्धिक सक्रियता एवं अनुशासन उनमें हर जगह विद्यमान है । यह बौद्धिक सक्रियता मानवीय संवेदना की हत्या नहीं करती, उसे दृढ़ता और विश्वसनीयता प्रदान करती है और उनका अनुशासन है वर्ण्य-विषय के चयन और प्रस्तुति का, शब्द-प्रयोग का, मुहावरे और लोकोक्तियों के प्रयोग का, छन्द और छन्द-मुक्तता के प्रयोगों में लय, प्रवाह, नाटकीयता का, बिम्ब, प्रतीक और मिथकों के बहुरंगी प्रयोग का, जो उन्हें नये साहित्यिक मूल्यों के शिखर से स्खलित नहीं होने देता । यही कारण है कि समकालीन कवियों में डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह एक विशिष्ट शब्द-साधक हैं ।  

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, एम. डी. डी. एम. कॉलेज, मुजफ्फरपुर, बिहार, मो. 7488392077, वाट्सएप नं. 9435413575, ईमेल-rakeshranjancritic@yahoo.in

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कविता

केंचुली

जहां हुआ है ज़ख़्म छोटा या बड़ा 

वहीं-वहीं फिर लगती रहती है चोट


नाखून काटो कभी भी

अगले या उससे अगले दिन

कुछ-ना-कुछ खोलने-पकड़ने-खींचने के लिए 

पड़ती है उनकी ज़रूरत

आप आज कबाड़ी को देते हैं बेच

काफी दिनों से इकट्ठा अख़बार, 

पत्रिकाएं याकि किताबें

और दूसरे ही दिन पड़ जाता है काम

आपको पिछली किसी तारीख़ के अख़बार

बीते महीने की पत्रिका या पढ़ी हुई किताब का

किसी बेकार पड़ी वस्तु को

बहुत समय तक आलस करने के उपरान्त

रख देते हैं हम स्टोर के किसी ऊपरी हिस्से में सबसे पीछे

और अमूमन पश्चात एक हफ़्ते के ही

आवश्यक हो जाता है उसका उपयोग

वह ढूंढे नहीं मिलती

ज्यों हाथ से छूट गिरी कोई छोटी-सी चीज़

जा छिपती है सोफे, दीवान या किसी अपेक्षातीत के नीचे 

जैसे वह पदार्थ जो अभी-अभी यहीं-कहीं दिखा था कई बार


इसी, इसी तरह

मैंने बेवजह उसे पता नहीं किसी अहंकार के तहत

या यूं ही-सा टाला

और तब से वह लगातार मेरे जेहन को

कुरेद- कुरेद कर कर रही है बेचैन

इतने सालों बाद भी

मैं उसे प्यार न कर पाने के छूट गये अवसर हेतु 

खुद को कोसता रहता हूं अनवरत.


प्रा. डाॅ.. अशोक गुजराती, 
ई-1317, भैरव रेसिडेंसी, बेवरली पार्क, मीरा रोड पूर्व, मुबई - 401 107.
सचल : 09971744164. 
ईमेल : ashokgujarati07@gmail.com

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आलेख

प्रो. योगेश्वर कौर

कला और संस्कृति से बच्चे दूर क्यों?


भारत एक विशाल देश है । एकता में अनेकता और अनेकता में एकता यहां के संदर्भ में विश्वविख्यात है । हमारा इतिहास गौरवपूर्ण और उपदेश की दृष्टि से संपन्न रहा है । संस्कृति और कृषि प्रधान भारत के नगर हों या गांव, यहां की सभ्यता अति प्राचीन और इसकी महिमा गरिमामय है । धर्म-धर्मांतरों के होते हुए भी यहां अपने-अपने इष्ट, प्रभु, या परमात्मा के प्रति पूरी आस्था, निष्ठा और श्रद्धा बनी रहती है । अतीत में हमारे कवियों, लेखकों विद्वानों ने इसका खूब वर्णन किया है । हमारी विरासत का मूल स्वर गुरमति ज्ञान है । गुरु मान्यो ग्रंथ के आधार पर हम वयोवृद्ध, प्रौढ़, युवा पीढ़ी और बच्चे गुरु के माध्यम से ही गोविंद तक पहुंचते हैं । सिक्ख धर्म के दसों गुरुओं ने जो शिक्षा और संस्कार अपने साहित्य, प्रवचन या उपदेशों के द्वारा हम तक पहुंचाए हैं, उसे निष्ठा और श्रद्धा के साथ हम स्वीकार करते, मानते आए हैं ।

परिवर्तन प्रकृति का नियम तो है, लेकिन इसमें भी मर्यादा सर्वोपरि है । युग बदलता है, समाज बदलता है और क्रमशः रूढ़ियों, परम्पराओं को त्याग कर हम नवीनतम की खिड़की खोलना चाहते हैं । लेकिन यहां यदि कोई भी आचरण, संस्कार या व्यवहार सीमोचित न हों तो कुछ प्रश्नचिन्ह स्वतः हमें चुनौती देने लगते हैं ।

भूमण्डलीकरण, बाजारवाद के दौर में पूरा विश्व एक वृहद गांव महसूस हो रहा है । विश्व के विभिन्न देशों ने तकनीक, मीडिया, कम्प्यूटर और मोबाइल क्रांति का जो रूप दिखाया है, उसका आंशिक प्रभाव हमारे देश के बच्चों पर भी पड़ रहा है । फैशन, ग्लैमर, अनास्था या ऐसे कुछ और पहलू भी गिनाए जा सकते हैं, जिन्होंने तात्कालिक रूप से अपना रंग प्रदान किया है । सिक्ख समाज, सिक्ख पंथ एक आदर्श कौम है । यहां हमारे गुरु साहिबान ने सेवा भाव, मिल-बांट कर खाना, किरत करना आदि जो संदेश दिए हैं, उन्हें भावी पीढ़ियां विस्मृत करने लगी हैं । पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ के साथ भारत के विभिन्न राज्यों और दूसरे देशों से भी सिक्ख समाज के जो परिवार सात समुंदर पार विदेशों में जा बसे हैं, उन्होंने नई चमक-दमक में खुद को ढालने का आंशिक प्रयास किया है । लेकिन आज वहां भी गुरु मर्यादा, सेवा भावना, किरत कमाई वण्ड, छकना आदि भावों को दूर नहीं किया । हां रहन-सहन, आर्थिक स्तर में जरूर परिवर्तन आए हैं ।

हमारे यहां समाज या घर परिवार में हर वर्ग को, हर धर्म के लोगों को भी आज चिंता है कि उनका बहुत कुछ अनमोल, अमूल्य पीछे छूट रहा है । इसी कुछ खो जाने के भय ने उन्हें आतंकित किया है क्योंकि अपनी जड़ों से जुड़े हुए पेड़ ही लहलहाते, फलते-फूलते नजर आते हैं । पेड़ों की तरह बच्चों को भी ठीक से सींचा न जाए तो वे खाली खोखले होकर लड़खड़ाने और डगमगाने लगेंगे । कवि का कथन है:-

"मैं किसके हाथ में अपना

लहू तलाश करूं

तमाम शहर ने पहने

हुए हैं दस्ताने"

इन दस्तानों को उतार कर ही मेल मिलाप या भाईचारे का भाव पनपता है । विराट वटवृक्ष का रूप धारण करता है । खेद यह नहीं कि हमारी नैतिकता, हमारा कलापक्ष, सदाचार, या धर्म के प्रति लगाव कम हो रहा है अथवा हमारी भावी पीढ़ियां इससे फासला रखकर चलने लगी हैं । बाजारवाद, मण्डीकरण ने आर्थिकता को हम पर हावी कर दिया है और मनुष्य का मशीनीकरण हो गया है । सोचते, गाते, आते-जाते हम मात्र मुद्रा और मौद्रिकता को सामने रखते हैं । यहां जल्दी अमीर होने की प्रवृत्ति ने व्यक्ति को खाली कर दिया है । शायद इसीलिए दुष्यंत कुमार ने लिखा है ।

जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में

हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं ।

बच्चों के जीवन से कुछ भी उपयोगी छिनता है या दूर होता है तो हमारा भविष्य संकट में नजर आता है । आज हमारी शिक्षा प्रणाली में भी धार्मिक शिक्षा का अभाव है । सरकारी स्कूलों में, खास तौर पर धर्म के प्रति लगाव नहीं सिखाया जा रहा, जिससे कला और संस्कृति भी प्रभावित हो रही है । विश्वविद्यालय फैशन, ग्लैमर और शार्टकट की लालसा में पागल हुए जा रहे हैं । इसका एक कारण इतिहास से अनभिज्ञता भी है । हमारे देश का इतिहास, हमारी कौम का इतिहास और विश्वास, व्यक्ति-व्यक्ति का अहसास, जब तक एक नहीं होगा, हमें उबरने, उठने में कठिनाइयां आती रहेंगी । मानवीय संबंधों में आज जो गिरावट आई है, उस कड़वाहट का असर बच्चों पर बहुत जल्दी देखने को मिलता है । पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-बहिन या ऐसे अनेक रिश्तों में जो चिड़चिड़ापन हावी हो रहा है, वह हमें धार्मिकता से दूर ले जा रहा है । आस्थावान होकर निष्ठा रखते हुए हमारे भावी नागरिक आज के बच्चे, अपने-अपने घर परिवार में घुटते माहौल से आतंकित और शिकार हो रहे हैं ।

समाज में बड़ों के प्रति आदर भाव दूर होता जा रहा है । इनके लिए हम बच्चों को नहीं, खुद को जिम्मेदार समझें । आज की पीढ़ी हमारी परंपराओं को आगे ले जाएगी, लेकिन विज्ञान को साथ रखते हुए यह संतुलन बनाए रखें, इसकी खास जरूरत है ।

टी.वी. कल्चर का प्रभाव बच्चों पर बहुत जल्दी और घातक पड़ रहा है । फिल्में, धारावाहिक, सीरियल, नाटक, कार्टून, फैशन परेड या रियलिटी शो देखते हुए बड़ों के साथ बच्चे प्रश्नाकुल हो उठते हैं । उनकी जिज्ञासा का शमन करने को हमारे पास प्रायः सही समाधान नहीं होता ।

हमारे यहां कला, लालित्य, मौलिकता, रचनात्मकता को भी प्रायः उपेक्षित किया गया है । इस दिशा में बच्चों के लिए परिवारों में बहुत कम प्रोत्साहन मिल पाता है कि वे अपनी बहुआयामी प्रतिभा को निखारें और नैतिक बल को समझते हुए समर्थ सामाजिक कार्यकर्ता बन पाएं । हमारे संत सन्यासी, योगी, आचार्य या ऐसे संस्थानों के अग्रगण्य महाराज पैसों को तरजीह देते हैं और मालामाल होते हुए तर्कविहीन प्रचार में लगे रहते हैं । जरूरत है यहीं से बच्चों को नैतिक बल मिले । वे अध्ययन की ओर आकर्षित हों । ये तभी हो पाएगा, जब माता-पिता अपनी व्यस्तताओं में से समय निकाल कर बच्चों के साथ मिल बैठेंगे ।

संस्कृति और कलाविहीन समाज खाली और खोखली दुनिया का प्रतीक है । मानव सभ्यता का विकास सांस्कृतिक पहलुओं के आधार पर ही हुआ करता है । विभिन्न कलाओं के प्रति बालक संसार की दिलचस्पी तब तक नहीं बन पाएगी, जब तक हम कलात्मक अभिरुचियों का विकास अपने-अपने घर परिवार में हो रहा, छोटे बच्चों को नहीं दिखाएंगे, क्योंकि तस्वीर बनाने और तस्वीर बनने में बहुत फर्क है । हमें तस्वीर बनना होगा, तभी हमारे बच्चे हमारा अनुकरण कर सकेंगे, क्योंकि हमारी बनी-बनाई तस्वीर उनके काम आएगी ।

ढकौली (जीरकपुर) मोहाली (पंजाब), मो. 09417394849, E-mail:phulchandmanav@gmail.com

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कविता

 सुश्री अरुणा शर्मा, दिल्ली, मो. 92124 52654

बेटियां

दो घरों की शान होती हैं बेटियां

मात पिता की अरमान होती हैं बेटियां

हर मुश्किलों को आसा बनातीं हैं बेटियां

दी गई जिम्मेदारी भली भांति निभाती हैं बेटियां--

कैसे बढ़े आगे बस हर दम ये जिक्र हो

बेटियों की शादी की तब तक न कोई जिक्र हो

पढ़ लिख कर जब बड़ी हो जाएगीं

बेटियों की शादी खुदी हो जाएगी--

कैसे बढ़े आगे बस हर दम ये फिक्र हो

कैसे पढ़े ये बस हर दम जिक्र हो

कापी,किताब,पैंसिल और बस्ता 

कैसे मिलें ये बस हर दम इनका जिक्र हो--

पढ़ेंगी बेटियां तो पढ़ेगा भारत

सुरक्षित व सुशिक्षित रहेगा भारत

समाज के हर तबके को आगे बढ़ाएंगीं

कोई न रहेगा अनपढ़ देश को बहुत आगे ले जाएगी--

करो न कोई फर्क बेटा बेटियों में

दोनों हैं फूल एक ही टहनियों के

करो शिक्षित दो संस्कार,सब को एक जैसा

सपनों का देश होगा ज़रा सोचो ये कैसा

तभी होगा रौशन देश हमारा

जानो यही हैं जमीं यही आस्मां हमारा--

(पढ़ेगीबेटियां तभी तो आगे बढ़ेगी बेटियां

पढ़ेगा भारत तभी तो आगे बढ़ेगा भारत)


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संस्मरण 

सुश्री सुदर्शन प्रियदर्शिनी

आज भी मेरे द्वार पर वह स्मृतियां दस्तक देतीं हैं जो अंतराल में कब की तिरोहित हो चुकी है । कई बार सब कुछ भूल जाता है पर मानस पटल पर लगी पुरानी तस्वीरें उन्हें भूलने नहीं देती है । वह लगभग आधा मील लंबी क्वार्टर्स की क़तार और उस के सामने उतना ही बड़ा फैला हुआ मैदान, फिर झाड़ियाँ और उसके आगे खड्ड में उतरने की पगडंडियाँ । उन पगडंडियों के इर्द गिर्द उगे हुए आड़ू, खुरमानी और अख़रोट के पेड़ फिर ज़रा नीचे उतरे तो रास्तों पर रततियो के पेड़ । छोटी छोटी लाल रत्तियाँ, कहते थे उनको खाने से आदमी मर जाता है और ये देखने के लिए मैंने समय समय पर अनगिनत रत्तियाँ खांई पर आज तक जीवित हूँ । कई व्यक्तियों से ज़्यादा ज़िंदगी के कड़वे घूँट पीकर भी ज़िंदा हूँ । शायद आदमी के बस में केवल नियति लिखी है जो कोई नहीं झुठला सकता । 

आज भी याद आता है उन पेंडो पर चढ़ना उतरना । वह बड़े कमनयूटी हाल में रामलीला और नाटकों के परिवेश और यहाँ तक कि कभी कभी ड्रामों में नायिका बनना या भागीदार बनना । वह बचपन की सहेलिया और नियति के खेल- कि आज उन के नाम दो तीन नामों में घटकर रह गए हैं । कैसी होती है ये मानस की क्रिया कि कभी कोई नज़दीक न होते हुए भी याद रह जाता है पर कभी याद करके भी याद योग्य सहेलियों को याद नहीं रख पाते । अनाम और असमरणीय से नाम दिमाग़ की दीवारों से चिपके रह जाते हैं । 

उस ज़माने में माँ बाप की सोच इतनी दक़ियानूसी नहीं थी । लड़के लड़कियाँ रात भर साथ खेलते मटरगश्ती करते थे,पर किसी की आँख का काँटा नहीं बनते थे । कम से कम ये संकीर्णता उस वक़्त के लोगों में नहीं थी । ढलती सांय तक साथ साथ खेलना, खेतों में से भुटटों की चोरी करना और शाम को जो भी आंटी तंदूर जिलाती उसमें उन भुटटों को भूनना और खाना सब स्वीकार्य था । उनको कवाटर्स में रहने वाले सभी का कमोबेश एक ही ओहदा था, ज़्यादा भी होगा पर कभी उजागर नहीं हुआ । आपस में कोई छोटा बड़ा करके नहीं देखता था, सबका एक ही धरातल पर एक जैसा अस्तित्व था । उंच नीच कम ज़्यादा का प्रदर्शन नहीं था और न ही कालान्तर में हमें यह करना आया । उसी तरह हम नें सारा बचपन -केवल बचपन की तरह ही देखा । घर में कोई कमी नहीं थी, या हमें कमियां निकालना नहीं आता था । सीमित इच्छाएँ - दो वक़्त का खाना,पहनने को कपड़ा ! क्या होता है फ़ैशन ? क्या होता है, यह तो जानते ही नहीं थे । खाने को मिल जाता था और यही बस पर्याप्त था इससे अधिक कभी सोचा ही नहीं और कभी किसी हीन भावना के शिकार नहीं हुए । पता नहीं क्या था जो बाँधे रखता था जो जोड़े हुए था । 

कभी माँ बाप की परवरिश या लालन पालन और उन कमजोरियों की ओर या सीमित साधनों की ओर ध्यान ही नहीं गया । जो था उसी में संतुष्ष्टी थी, जैसे वही हो सकता था । जो मिलता था -उन सीमित साधनों के विरुद्ध - स्वतंत्रता की पाबंदी पर कोई दूसरी राय ही नहीं थी, जिसे घर की दीवारों को पार करके प्राप्त किया जा सकता है या फलांगा जा सकता है । उस फलॉगने से कुछ नया प्राप्त हो सकता है, इसकी न हवस थी और न इच्छा । न ही पता था कि इसके अतिरिक्त भी कुछ हो सकता है । याद आता है वह 27 सेक्टर से 14 सेक्टर तक का साईकल पर सफ़र, लगभग छ सात मील की दूरी होगी । बिना किसी गिलवे के, पढ़ने के लिए यह सफ़र तय करते रहे । वापसी पर उसी साइकिल पर सवार होकर 17 सेक्टर तक आना और शाम साढ़े सात बजे तक बैंक की नौकरी निभाना । यह कई साल तक का नियम रहा । इस तरह अपनी पढ़ाई पूरी की और वह सब जैसे फलीभूत होकर सामने
आया । गवर्नमेंट कॉलेज मैं अध्यापिका की नियुक्ति मिल गई । ये प्राध्यापिका की पहली नौकरी गवर्नमेंट कॉलेज धर्मशाला में थी । फिर तो चक्कर गिन्नी की तरह घूमती रही । परिवार को एक जगह बाँध कर रखने का प्रयत्न करती रही । क्योंकि इसी बीच विवाह हुआ बच्चे हुए और मैं चक्करघिन्नी सी बसों में घूमती रही और शाम अपने पड़ाव पर पहुँचती रही । 

चम्बा की नौकरी और एकांतता ने बहुत कुछ सिखाया, बहुत कुछ जोड़ा और बहुत कुछ उधेड़ा भी, पर ज़िंदगी की समझ वहीं से आयी । 

अकेले रहना,बच्चों का पालन या प्राकृतिक ठंड की मार में भी कालिज जाना,फब्तियां सुनना विवाद का विषय बनना, यह स्वाभाविक था । क्योंकि प्रक्रिति से मैं स्वतंत्र थी । पर विद्यार्थियों के प्रति अन्यथा सौहार्द मन में
था । विद्यार्थियों में अधिक प्रचलित होने की सज़ा दूसरे साथियों से भुगतनी पड़ती थी । 

कोई धारा से उलट चले और आराम से रहे ये कैसे हो सकता है ? उस पर यौवन और बेबाक़ी की सज़ा अलग थी । बच्चों में अपनी न्यायिक छाया और इच्छाओं को समाहित करके रहने की सज़ा अलग । अति सामाजिक न होने की सज़ा अलग और औरत को अपने दायरे में पाक रह कर,दोनों तरफ़ से सज़ा मिलती है । 

चम्बा की प्रकृति ने और साधारण लोगों ने जीने की सीख दी और परिस्थितियों से लड़ना सिखाया । चम्बा शिमला के बचपन की अधूरी रह गयी स्मृतियों को पूरा करता था । साधारण सुंदर लोग और उनका साथ बड़ा सुखद रहा पर व्यावसायिक केंद्र में वही ईष्या द्वेष और होड़ में नीचा दिखाने की प्रवृति शामिल थी । 

क्यों कि कॉलेज में अलग अलग ढंग के अलग अलग प्रांतों के लोग थे जिन्हें दूसरों को पछाड़ने में एक मज़ा आता था । 

मैं जब भी अकेली होती हूँ, शिमला की उन बेबाक़ सीधी साधी पगडंडियों पर चढ़ना उतरना शुरू कर देती हूँ और कहीं अपने बचपन को छूने का सुख मिल जाता है । 

मैट्रिक मैंने ग्वालियर से की । उस अध्याय को एक स्वर्णिम अध्याय कहना चाहिए और मेरे नन्हें बचपन से जवानी के बीच का यह पड़ाव था । इच्छाओं का उगना,प्रतिस्पर्धा, टीचर्स के प्रति अननय भाव, यही से सीखा । कैसे कोई आपको चाहता है और नहीं चाहता है इसकी दूरअंदेशी यही से हुई । 

याद आती है मेरी इंग्लिश की टीचर बहुत रोयी थी जब मैंने ग्वालियर छोड़ा । एक टीचर का विद्यार्थी के लिए रोना आज भी अचंभा देता है पर उनकी सीख ज़िंदगी में बहुत काम आयी । 

सबसे पहले सीख तो यह आई कि कोई पास न आकर भी आपके प्रति कितना सौहार्दपूर्ण हो सकता है । एक गुरु होकर भी एक अंधविश्वास वाला प्यार विद्यार्थी के प्रति रख सकता है ये आज समझ में आया । क्योंकि मेरी श्रद्धा,मेरा प्यार, मेरी एक दूसरी टीचर्स के प्रति था और मैं उमर भर उसी के साथ चलती रही और पूछती रही । 

फिर भी मेरे प्रति वह कितनी शील थी आज ज़िंदगी के उत्तरार्ध में ही समझ पा रही हूँ । पर उनकी दो बातें सीख या जीवन का निचोड़ बनकर आयी और उनको सदा सराहा और अपनाया । एक तो प्रोफ़ेशन अपने मन कां चुनना । दूसरा अगर विवाह करना है तो समय रहते करना । 

दोनों बातें अपनाई और दोनों अपनी सच्चाई में खरी उतरीं । आज उनके प्रति केवल श्रद्धा के ये शब्द हैं,जिन्होंने उम्र भर मेरी नाव सँभाली । पालक जैसा धर्म निभाया । घर में सब से बड़ी - 7 बहनों और दो दो भाइयों की बड़ी बहन -जिस पर हर नियम, हर पाबंदी, हर रिवाज़ सब से पहले होकर गुज़रता था । कोई परंपरा पालूँ तो मैं !कोई बेजा इच्छा न करूं तो मैं ! घर के बंधन मानू तो मैं ! सबको खिलाकर खाऊं तो मैं ! सीमित संकुचित वातावरण जिसमें पैर फैलाने पसारने की भी जगह नहीं पर सिकुड़ूं भी तो मैं ! घर की परम्पराएँ रखूँ तो मैं ! घर में सुशासन रखूं तो मैं ! छोटे बहिन भाई तो केवल पतवार पकड़ने वाले थे चप्पू तो मेरे हाथ में था । इसलिए कहीं नाव डोले तो दोषी मैं ! लड़खड़ाए तो दोषी मैं !मैं भी शायद बचपन की उन काँटेदार झाड़ियों से तभी हर प्रकार का फल तोड़ने में इतनी पारंगत हो गई थी कि पता ही नहीं चला कि कब जीवन का समुद्र पार कर लिया । कब झाड़ झंखाड़ से निकल आए । पर उस सबने ज़िंदगी को सुदृढ़ कर दिया । मज़बूत कर दिया । जीवन एक रिहर्सल में युद्ध की तरह लड़ा और लगता है,आज जहाँ खड़ी हूँ उस ज़मीन पर बिछे उबड़ ख़ाबड़ रोडे - और उन की चुभन से कभी लगा ही नहीं कि कहीं कुछ चुभ रहा है । लोग कहते या समझते कि मैने नाव में छेद कर लिया है । पर मैं तब भी तैयार होकर निकलती रही । हारी बीमारी आयी,बच्चों की व्यक्तिगत जीवन की चुनौतियाँ आयी पर सिर्फ़ उन से लड़ना और समझौता करना सीख लिया, नहीं सीखा तो हारना । एक बात ज़रूर सीखी -परिस्थितियों के समक्ष घुटने नहीं टेकना । माथा झुकाया और पार कर गई सब कुछ । 

आज बुढ़ापे की इस मार ने बड़ा झुकाने की कोशिश की पर अभी तक झुकी नहीं । नम्र जरूर हो गई और इसे नियति मानकर स्वीकार कर लिया । 

वह कच्ची पक्की में पढ़ने का समय,रास्ते में ऊपर नीचे पगडंडियां,पटरी को सड़क पर पटकने तक, सहेलियों के साथ आगे बढ़ना कितना सुनहरा समय था । माँ बाप ने कभी सोचा तक नहीं की बच्चे इतनी दूर स्कूल सुनसान सड़कों पर पहाड़ियों को काटते हुए अकेले जा रहे हैं और हम है कि रास्ते में हँसी ठिठोली और उस शरारत में
मस्त । 

रास्ते में एक मंदिर पड़ता था उस पर सब सहेलियों -दोस्तों की चढ़ाई होती थी और पुजारी की आँख बचाकर सुबह का ताज़ा चढ़ाया हुआ लड्डू बर्फ़ी का प्रसाद खाते खाते हम पहुँचते एक चढ़ाई पर जहाँ से रेल गुज़रती थी और हम कई बार इंतज़ार करते रेल गुज़रे और हम उसकी छुकछुक देखें । जब देखते तो ताली बजाते और ख़ूब मस्ती हँसी करते । 

एक बार ऐसा हुआ कि हम दो सहेलियां बाक़ी दोस्तों से पीछे रह गए शायद ये सायास था या अनायास और मैं शरारती रेल की पटरी पर अपने कान लगाकर सोचने लगी की ट्रेन कितनी दूर है । कुछ ही दूरी पर एक सुरंग थी जिसमें से ट्रेन निकल कर आती थी । मै उसी पटरी पर औंधे होकर कान लगाकर ट्रेन की दूरी का अंदाज़ा लगाने लगी । नहीं ख्याल रहा कि ट्रेन सुरंग से निकल कर अभी आ सकती है । मैं ट्रेन की पटरी पर कान लगाए ट्रेन के आने के अनुमान में सहेली से बतिया रही थी की सामने से ट्रेन सुरंग से निकलती दिखाई दी । पर मेरे उस कृत्य में कोई भय नहीं । तभी ट्रेन की रफ़्तार बढ़ रही थी शायद कुछ का कुछ हो जाता अगर चाचा अकस्मात दूसरा कान पकड़कर उठा न लेते और ज़ोरदार थप्पड़ ना जड़ देते । 

बड़ा भयानक दृश्य था मैं सकपका गई । मुझे अभी भी पता नहीं चला कि मैं क्या कर रही थी । उस दिन उन सभी शरारतों की सन्नी भूत सज़ा मिली और मार पड़ी और प्रतिज्ञा ली गई भविष्य में ऐसा न करने की । नहीं तो भविष्य में स्कूल जाना बंद । ज़िंदगी के इस सबक़ ने आज तक डरा रखा है । उस सीख को कांठ में दबाकर रखने का शऊर आया । पहले से सोच लेने की बुद्धि आयी और चाचा पिता से डर का हौवा-आँखों में सदैव के लिए बैठ गया । पता नहीं आज उस डर का क्या भविष्य है लेकिन कुछ भी भयावह करने से पहले एक सीख की तरह चाचा सामने खड़े हो जाते हैं । 246 stratford Dr Broadview hts, Cleveland Ohio 44147, 440 (539) 0783

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ग़ज़ल


प्रि. संजय कुमार सिंह,
प्रिंसिपल पूर्णिया महिला काॅलेज 
पूर्णिया-854301, मो. 94318 67283
ईमेल: sksnayanagar9413@gmail.com


तुम कहो ,तो मेरी जाँ मैं अपने अर्ज में प्यार लिक्खूँ ।
मैंने जो बसर की जिन्दगी उसे खुद पे उधार लिक्खूँ । ।

तुम तक पहुँचती कहाँ है वादी-ए-सबा गुंचा-ए-दिल ।
अपनी आरजू लिक्खूँ,  चाहे अपना इन्तज़ार लिक्खूँ । ।

लौट के फिर आ गयी है भटकती हुई सी वही प्यास ।
सोचता हूँ लब-ए-जाँ पानी का क्या किरदार लिक्खूँ । ।

तुम्हारे  शहर में तो किसी की कोई पहचान  नहीं रही ।
मौसम-ए-गुल लिक्खूँ कि बारिश का इज़हार लिक्खूँ । ।

ये बात दीगर है कि  कहे से हर मतला शेर नहीं होता ।
रेत के दिल पे  फिर कैसे अपना वही  इसरार लिक्खूँ । ।

ये सुबह से शाम तक क्या तो है,जो जलाता है मुझको ।
दिल मोम का एक घर,क्यों वही दुख बार बार लिक्खूँ । ।
                             
   ***
तुम्हारे हाथ में अर्ज का जाम नहीं होता
मेरी महफिल का कोई अंजाम नहीं होता ।

भाग कर कहाँ जाएगा कोई संजय
इश्क में कौन है, जो बदनाम नहीं होता ।

रात यूँ ही आती है, जब तुम नहीं आते
उफ़क पर कोई चाँद नहीं होता ।

कोई करार तो होगा, दिल का सौदा नहीं,
किस चीज का कोई दाम नहीं होता ।

होश में रहे तो, कोई क्या जानेगा
डूब के देखो, कैसे इलहाम नहीं होता ।

खोया हुआ है जो हसीन यादों को लिए
उसके लब पे किसका नाम नहीं होता ।

हजारों उलझनों में कोई कित्ता भी रहे 
उनके जाने पर कोई काम नहीं होता ।

ये खेल किस इम्तहाँ की इन्तहाँ है... 
लाख इंतजाम हो,आराम नहीं होता ।

जुनूँ- ए-गुल,आराइश मौसम की
हसरत का सफर तमाम नहीं होता ।



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कविताएँ



श्री देविन्दर बिमरा

बदले गीतों के रंग
मेरा देश बड़ा 
अमीर था
और बड़े थे 
संस्कार भी 
अब गीतों के 
बदले रंग
और बदल गये अलाप भी 
नहीं दिखते कहीं हीरे मोती
और सोने के अंबार
नहीं देते सुनाई 
मेरे देश की धरती 
सोना उगले 
उगले हीरे मोती 
अब आती है चीखों और 
हाय तौबा की आवाज़ें गलियों से
मेरे देश की धरती 
अब गोली उगले 
और उगले आग बारूद
लहू की बौछारें हैं 
खून सने हैं मुर्दे
और मुर्दों की दुर्गंध 
पानी की बौछारों के साथ
आँसू गैस के गोले हैं
धू धू करती आग है 
कानून की किताबों को
ठेंगा दिखाते राजे हैं 
और उनके वज़ीर
नहीं 
अब नहीं लगता
गीत मेरे देश के
हो पाएँगे सच
बोले जो सच
मर जाएँगे
ऐ वतन ऐ वतन 
चिल्लाएँगे 
धीमे सुर में गाते गाते 
सो जाएँगे 
• 
प्यार फिर कभी 
उसने मुझे बाँहों में 
जकड़ा नहीं 
बस खींच लिया था 
अपने मन के आँगन में
और मैं सब कुछ भूल  
उड़ने लगा 
बेख़ौफ़ हो कर
सुहाने सपनों के सागर में
डूब गया
मैं क़ैदी बन गया 
कठपुतली सा लगा नाचने
संकेतों की भाषा की लय में
इठलाता
उसने कहा 
मुझे प्यार है तुमसे
मेरे मुँह ने भी दोहरा दिया
उसने कहा हम 
साथ जिएँगे साथ मरेंगे
मेरे होंठ भी लगे थे
यही दोहराने
मैं ठिठक गया
चिल्लाया 
मैंने बाहर जाना है
मुझ में बारूद भरा है
मैंने आग की तरह
जला कर राख करना है 
झूठ और फ़रेब के
व्यापार को
करूँगा प्यार फिर भी
किन्तु 
मुझे पिंजरे में बंद
नहीं रहना
             •
श्री देविन्दर बिमरा ,
373 , बैंक एन्कलेव ,
जालन्धर - 144003
फोन नं. - 9814118345
Email : bimybimra@gmail.com

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कहानी


सुश्री आशा पाण्डेय


सूनी गोद 

‘‘इतने ग्राहकों को दुकान पर छोड़कर कहाँ भागी जा रही है ?

‘‘तू निपटा ले कौशल्या, मैं बस अभी आई ।

बिना यह जाने कि मेंरी कही पूरी बात कौशल्या तक पहुँची भी या नहीं, वह बदहवास, बड़ी तेजी से दुकान को छोड़ कर मन्दिर की ओर भागी ।

‘‘नाशपीटी, तभी तो बुड्ढे से लात-घूसा खाती ही है । पता नहीं कैसा नशा चढ़ा है इसको- ग्राहकी के समय इधर-उधर घूमती फिरती है ।

कौशल्या खीझ कर बडबडाते हुए उठी और सावित्री की दुकान में आकर सामने खड़े ग्राहकों को पूजा सामग्री बेचने लगी । कौशल्या की दुकान भी पूजा सामग्री की ही थी । वह चाहती तो उन ग्राहकों को अपनी दुकान पर बुला कर अपना सामान बेच सकती थी, किन्तु सावित्री की डरी-डरी भावहीन आँखें उसे उपनी ओर खींचती हैं । एक बहनापा-सा हो गया है उसे सावित्री से । उसकी अनुपस्थिति में भी कौशल्या उसके ग्राहकों को इधर-उधर भटकने नहीं देती है । सावित्री को बुड्ढे से मार खाते देखा है उसने । जब ग्राहकी नहीं होती तब बुड्ढा आगबबूला हो जाता है और सावित्री की हड्डी तोड़ डालता है । ठांव कुठाँव कहीं भी मारता है । कौशल्या काँप जाती है । बुड्ढे का खौफ कौशल्या के भीतर रेंगता रहता है, किन्तु सावित्री पता नहीं किस मिट्टी की बनी है कि इतनी मार खाकर भी दुकान छोड़-छोड़ कर ‘सराय वीरभद्र गाँव के किसी लड़के को खोजती है । एक दो बार कौशल्या की इच्छा हुई कि वह सावित्री से पूछे कि, वह लड़का उसका कौन लगता है जिसे वह इस मन्दिर में खोजती रहती है किन्तु, सावित्री के चेहरे पर फैली हताशा, गहरा अपराध बोध उसे सावित्री से कुछ भी न पूछने देता । खुद होकर सावित्री ने भी उसे कुछ नहीं बताया । बावजूद इसके दोनों की दोस्ती काफी गहरी है ।

कुछ देर के बाद सावित्री मुँह लटकाए हुए आई और कौशल्या के बगल में बैठ गई ।

‘‘नहीं था न वह सरायवीरभद्र का ? सठिया गई है तू । बुढ़ापे ने तेरी बुध्दि हर ली है ।

"अच्छा जा, पैसे गिन कर रख ले । बुड्ढा आता ही होगा । पूछेगा तो बता नहीं पायेगी कि कितने का माल बेची है ।

" वह घंटे, दो घंटे को यहाँ से जाता क्या है, तू बावरी की तरह फिरने लगती है ।

सावित्री चुपचाप बैठी रही । अन्दर से तड़पती हुई, जलती हुई । पिछले पच्चीस सालों से वह अपनी ही लगाई आग में जल रही है, पर आश्चर्य यह कि अब तक वह राख में तब्दील न हुई । बस चिनगारी बनी सुलगती रही । आगे भी सुलगती रहेगी । अभी इन्तजार शेष है । उसके पूरा हुए बिना वह राख नहीं बन सकती ।

मंदिर के सामने खड़ी इन पंक्तिबद्ध दुकानों में से एक दुकान उसके पति की भी है । वह बुड्ढा उसका पति ही तो
है । यद्यपि सावित्री से उसकी विधिवत शादी नहीं हुई है, किन्तु पच्चीस सालों से वह रहती उसी के साथ है । बुड्ढे से उसको कोई प्रेम-व्रेम भी नहीं हुआ था । वह तो बस एक कुएँ से निकल कर दूसरे कुएं में कूद गई थी । इस जीवन में ढाई आखर का अर्थ समझना सावित्री के लिए बड़ा कठिन हो गया है । वह तो इस शब्द तक कभी पहुँच ही न पाई । छोटी थी, तभी माँ चल बसी । पिता ने दूसरी शादी कर ली । नई माँ के आते ही पिता भी पराये हो गए । वह अकेली रह गई । घर का काम-काज सावित्री के जिम्मे आया । सौतेले भाई-बहनों को सम्भालते हुए, घर का चूल्हा-चौका करते हुए, वह कब बड़ी हो गई इसका उसे एहसास ही न हुआ । शादी भी ऐसी जगह हो गई जहाँ पति के अलावा कोई दूसरा न था - न सास, न ससुर, न देवर, न ननद । पति भी अक्खड़ मिजाज का इन्सान ।

सावित्री की कोमल भावनाएँ पति की कठोरता के नीचे दफन होने लगीं । सावित्री अपने प्रवाह में बहती पति को अपने अनुकूल करने का प्रयास करती किन्तु, पति को लगाम लगाना आता था, सो उसने चाबुक सम्भाल लिया । सावित्री छटपटा कर रह गई ।

पति के कहीं जाने पर घर का एकान्त सावित्री को स्वर्ग - सा लगने लगता । वह खुल कर साँस लेती । आराम से बैठती । मार खाए शरीर के हर चोट पर कोई तेल रगड़ती । अपने दु:ख को भीतर ही भीतर सोखते हुए, सहज स्वाभाविक होने की चेष्टा करती । थोड़ी देर हँसने बोलने के लिए पास-पड़ोस में रहने वाली लड़कियों को अपने घर बुला लेती, और इस तरह घंटे दो घंटे अपना गम भूल जाती ।

जब कभी सावित्री का पति उम्मीद से पहले घर लौट आता तब बड़ी मुश्किल हो जाती । आस-पड़ोस की लडकियाँ तो उसके पति को देखते ही अपने-अपने घर भाग जाती । बचती बेचारी सावित्री । डरी, सहमी । धीरे से उठ कर वह भी घर के कामों में लगने का प्रयास करती, किन्तु, पति के चेहरे की एक-एक शिराएँ तन कर आड़ा-तिरछा रूप बनाती हुई बरस पड़तीं, ‘‘अब तक इन लडकियों के साथ मिलकर हा-हा, ही-ही मचा रही थी, अब मुझे देखते ही सती, सावित्री बन रही है । ये सब तुझे क्या सिखाती हैं? बिगड़ गई है तू---बदचलन—बदजात ।

पंख कटे पक्षी की तरह छटपटा कर रह जाती सावित्री ।आँखें छलक-छलक पड़तीं, पर उन मोतियों की भाषा को समझने वाला वहाँ कोई न था । उसके पति के मन में शंका समां चुकी थी । अड़ोस-पड़ोस के लोग उसे अपने विरुद्ध किसी षड्यंत्र को रचते हुए-से दिखते । परिणामस्वरूप सावित्री कई तरह के बन्धनों में जकड़ दी गई । उसका हँसना-बोलना सब कम से कमतर होता गया ।

धीरे-धीरे सावित्री के घर में अड़ोस-पड़ोस की लड़कियों का का आना बन्द हो गया । सावित्री का घर से बाहर निकल कर किसी के यहाँ जाना पहले ही वर्जित था । अब वह दिन-दिन भर घर में अकेली पड़ी रहती । बचपन से अब तक दु:ख और अवसाद के भाव को हठात् ढकेलती आई थी वह । दु:ख को झेलते हुए भी दु:ख के दर्द को झटक दिया था उसने । लेकिन अब उसका धैर्य चुक-सा गया है । कहाँ जीवन के प्रति सहज लगाव और कहाँ दु:ख का यह
अम्बार । जिन्दगी के प्रति सावित्री की जो गहरी आस्था थी अब उसकी धज्जियां उड़ने लगी हैं । वितृष्णा का भाव गहराने लगा है उसमें ।

पल-पल घिसट-घिसट कर जीते हुए एक दिन उसने अपने पुत्र को जन्म दिया । पति की बांछे भी खिल गईं । सावित्री को लगा कि अब उसके आँगन में भी सूरज उगेगा । उसके पति शायद अब खुश रहने लगें और उसकी बगिया हरी हो जाये ।यूँ सावित्री का ऐसा सोचना गलत भी नहीं था । पुत्र को देख कर वह निहाल हो गया था, किन्तु सावित्री के लिए वह उसी पुराने ढर्रे पर ही चल रहा था । अब तो सावित्री को बेटे के रोने पर भी डाट-मार खानी पड़ जाती थी कि आखिर वह क्या करती रहती है जो बच्चा रो रहा है ।

सावित्री हताश रहने लगी । असहायता का एहसास बढ़ने लगा । नित्य के कामों में गलतियाँ अधिक होने लगीं ।

एक दिन कोई व्यक्ति सावित्री के दरवाजे पर आकर उसके पति को आवाज दे रहा था । पति घर में नहीं था । दरवाजे को खोल कर सावित्री बाहर आई तथा आगन्तुक को पति के घर में न होने की सूचना दी । ठीक उसी समय उसका पति आ गया । सावित्री को बाहर निकल कर उस आगन्तुक से बात करते हुए देख लिया । क्रोध तो उसको बहुत आया, किन्तु मित्र के सामने कुछ बोल न सका । मित्र के जाने के बाद उसने सावित्री से पूछा- ‘बाहर क्यों निकली थी ?’

‘वो आपको बुला रहे थे । आप घर में नहीं हैं, यही बताने निकली थी । प्रश्न बड़ी शान्ति से पूछा गया था, इसलिए सावित्री ने भी साफ-साफ शब्दों में जवाब दे दिया । पर सावित्री के जवाब देते ही पति आपा खो बैठा । उसकी आँखों से ज्वाला बहने लगी- ‘तो तू मेरे न रहने पर सबको बुला-बुला कर मिलती है ? हँस-हँस कर बतियाती है ? यारी निभा रही है ? और अकड़ इतनी कि मुझसे जबान भी लड़ा रही है ।

‘मैं किसी से कोई बात नहीं करती हूँ ... तुम्हारे दिमाग में घुन लग गया है... सड़ चुका है तुम्हारा दिमाग । घर में बैठ कर मेंरी रखवाली किया करो ।

एकदम भभक पड़ी थी सावित्री । न जाने कितने दिन का संचित साहस जाग उठा था । सावित्री का इतना कड़ा तेवर पति के बरदाश्त के बाहर था । दनादन आठ-दस हाथ सावित्री को जड़ देने के बाद वह गरजा, ‘हरामजादी, खाने-पीने को पेट भर मिल रहा है तो अकड़ दिखा रही है— मेरा ही घर मुझ पर ही रौब ! अरे, तुझसे अच्छा तो ये कुत्ता है, कौरा देता हूँ तो दुम हिलाता खड़ा रहता है ... कहती है, यहीं बैठ कर रखवाली किया करो...ले अब करता हूँ तेरी रखवाली,‘‘ सावित्री का बाल खींचते हुए, वह उसे एक कोठरी में ढकेल दिया और बाहर से कड़ी लगा ली । 

‘‘अब सड़ अन्दर, ... दो-चार दिन खाने-पीने को नहीं मिलेगा तो दिमाग ठिकाने लग जायेगा ।

दरवाजा पीट-पीट कर सावित्री ने पति से कोठरी खोल देने की प्रार्थना की, किन्तु पति का हृदय न पसीजा । कोठरी के बाहर उसका बच्चा बिलख रहा था, कोठरी के अन्दर वह । पूरा दिन बीत गया ।

दिन भर से बच्चे के रोने की आवाज सुन कर पड़ोस में रहने वाली नन्दा दीदी आ गई ।

‘क्या हुआ रे हरिहर, बच्चा आज इतना क्यों रो रहा है ?’

‘‘कुछ नहीं दीदी, भूखा है ।‘

‘‘तू अकेला ही है क्या ? ...ये भूखा क्यों है ? बहू कहाँ गई है ?’

‘जाएगी कहाँ? आजकल बहुत बोलने लगी है-- कोठरी में बन्द कर दिया हूँ ।‘

‘‘पागल हो गया है क्या रे हरिहर,... तुझे पता है कि तू बहू के साथ-साथ इस बच्चे को भी सजा दे रहा है । अरे तू बाप है कि कसाई रे ?--भूख के मारे बच्चा बिलबिला रहा है और तुझे तनिक भी दया नहीं आ रही है । निकाल इसकी माँ को बाहर ।

नन्दा दीदी के बहुत डाँटने डपटने तथा घंटो समझाने के बाद सावित्री कोठरी से मुक्त हुई, किन्तु उसे मुक्त हुए जैसा नहीं लगा । वह अपमान से तड़प रही थी । वहाँ की हवा में विष घुल चुका था, साँस लेती तब भी उसे घबराहट महसूस होती । 

रात के भोजन का वक्त हो रहा था । भोजन न बना तो पति फिर से खरी-खोटी सुनाने लगेगा ।

इस डर से अपने अपमान को ढकेलती हुई सावित्री उठी । भोजन बनाया । पति को दिन में घटी घटना का कोई अफसोस नहीं था । उसने पेट भर कर भोजन किया और तन कर सो गया ।

दिन भर से सावित्री ने कुछ खाया नहीं था । उसे तेज भूख लगी थी, किन्तु पति की बातें उसे नश्तर की तरह चुभ रही थीं । कौर गले के नीचे उतर ही रहीं थीं । परायेपन का एहसास गहराता जा रहा था । बच्चे के दूध का खयाल कर पानी के सहारे उसने कुछ निवाले पेट में उतारे ।

उसे न केवल आज की बातें, बल्कि पिछले तीन-चार सालों से पति ने जितने भी व्यंग बाण बरसाये थे, सब एक के बाद एक, बड़ी तीव्रता से चुभने लगे । अब तक पति के विपरीत व्यवहार के बावजूद भी सावित्री को यह अपना घर लगता था । इस घर पर उसे अपना अधिकार लगता था, किन्तु उसका पति तो उसे पाले हुए कुत्ते के बराबर भी नहीं समझता है ।

घर की जिन-जिन चीजों पर उसकी नजर जा रही थी, सबके प्रति उसमें विरक्ति का भाव भर रहा था । जब यहाँ उसका कुछ भी नहीं है तो इतनी मार, इतना अंकुश वह क्यों सहे । उसने तय कर लिया कि अब वह यहाँ नहीं
रहेगी । पर जाएगी कहाँ ? मायका तो सौतेली माँ के आगमन के साथ ही पराया हो गया था ।

पति के तेवर से आहत सावित्री इस सत्य को स्वीकार कर लेने की कोशिश कर रही थी कि इस संसार में अपनों के होने के बाद भी वह नितान्त अकेली है । एक शून्य पसर चुका है उसके जीवन में । वह भौचक्की है ... इतनी बड़ी दुनिया, चारों तरफ भीड़ ... अपनों की भीड़ के बीचों-बीच वह निपट अकेली !

एक इच्छाशक्ति, जिसके सहारे वह अब तक आगे बढ़ती आई है, कौंधी उसके मन में ... अब वह अकेली कहाँ है? एक बेटा है उसे, अब इसी बेटे के लिए जीना है ।

रात भर सावित्री तरह-तरह के विचारों में उलझी रही । दूसरे दिन सबेरे से ही वह घर के कामों में लग गई । उसने कल की बातों को दिमाग से निकालने का प्रयास किया । घर छोड़ कर अन्यत्र जाने की अपनी इच्छा को दबाना चाही । बेटे को देख-देख कर एक ताकत-सी महसूसी उसने । दोपहर तक सब कामों से निपट कर वह आंगन में बैठकर अपने बच्चे को तेल लगा रही थी । पास ही कुत्ता भी बैठा था । उसका ध्यान कुत्ते की तरफ गया, पति की कही बात याद आ गई । वह फिर अपमान में तड़प उठी । अब और सहना सहज नहीं लग रहा है उसे । उसने तय कर लिया -आज रात जब उसका पति सो जायेगा तब बच्चे को लेकर वह इस घर से निकल जाएगी ।

आधी रात का समय । जब गाँव में पूरी तरह सन्नाटा छा गया तब सावित्री ने अपनी सन्दूक में छिपा कर रखे कुछ पैसों को आंचल में बाँधा और सोये हुए बच्चे को गोद में उठा लिया । गोद में उठाते ही बच्चा जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया । वह डर गई । झट से बच्चे को बिस्तर पर लिटाकर थपकी देकर सुलाने लगी । सावित्री का पति नींद में ही कुछ बड़बड़ाया फिर करवट बदल कर सो गया । अब वह बच्चे के गहरी नींद में होने का इन्तजार करने लगी, किन्तु बच्चा था कि रह-रहकर कुनकुनाता ही रहा और सबेरा हो गया ।

अगली रात सावित्री ने फिर वैसा ही प्रयास किया, किन्तु गोद में उठाते ही बच्चा रोने लगता था । सावित्री की छटपटाहट बढ़ने लगी । घर छोड़ने का विचार गहराता चला गया । इस घर में उसे अब एक पल भी चैन नहीं मिल रहा था । आंगन में आकर उसने आकाश की तरफ देखा । चाँद पश्चिम की तरफ काफी आगे बढ़ चुका था । घंटे दो घंटे बाद सबेरा हो सकता है । यदि आज की रात भी वह इस घर से न निकल सकी तो कल फिर से पूरा दिन उसे अपमान में जलना पड़ेगा । वह फिर से बच्चे के पास आकर बैठी । उसे गोद में उठाना चाही, किंतु वह बच्चे को उठा पाती उसके पहले ही उसका पति बच्चे की तरफ करवट बदल लिया । सावित्री डर गई-बच्चे के बगल में धीरे से लेट गई । पर अब उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी । थोड़ी देर बाद उठकर उसने फिर दरवाजा खोला । बाहर कुत्ता बैठा था । दरवाजा खुलने की आहट होते ही कुत्ते ने सिर उठाकर कान खड़े कर लिए । वह डरी, कहीं यह भौंकने न लग जाये । दरवाजा खोलकर वह पुन:बच्चे के पास उसे लेने आना चाहती थी, किन्तु कुत्ते को देखते ही पता नहीं कैसे उसका मन तिक्त हो आया और कदम बाहर की तरफ निकल पड़े ।

क्षण भर के आवेश और क्रोध ने उसकी दुनिया ही बदल दी । वह एक के बाद दूसरे-तीसरे दलदल में फंसती गई । रोता-कलपता बच्चा आँखों में घूमता रहता और वह स्वयं को बचाती इधर-उधर भटकती रहती ।

कई-कई रातें उसने जाग कर बिता दी । किसी बच्चे के रोने की आवाज सुनकर वह चौकन्नी हो जाती । उसके कदम भागकर उस रोते बच्चे को सीने से चिपका लेने के लिए बेताब हो जाते । हृदय कचोटता रहता-बच्चे को छोड़कर वह बाहर निकली ही कैसे ! उसका हृदय इतना कैसे सूख गया था ? वह छटपटा कर रह जाती । कई बार उसकी इच्छा होती कि वह मर जाए, किन्तु एक उम्मीद, कि शायद कभी वह अपने बेटे को पा सके, उसे अब तक जिन्दा रखे हुए है ।

कई जगह भटकने के बाद उसे इस बुड्ढे का सहारा लेना पड़ा था । सुख यहाँ भी नहीं था, किन्तु इतने दिन भटकते-भटकते वह थक गई थी । बाहर की दुनिया को उसने जान लिया था । नारी के मान-अपमान का अर्थ भी समझ लिया था । मुकाबला करने की अपनी ताकत का अन्दाजा भी उसे लग गया था । जिस यातना और अपमान को वह पीछे छोड़ देना चाहती थी वे सब उसके आगे-आगे दौड़ रहे थे । उसका पूरा वजूद छितर गया था । जिसे बटोरना आसान नहीं था । उसने समझौता कर लिया । यहाँ उसे कोई अन्य औलाद भी न हुई जिसके लालन-पालन में व्यस्त होकर वह क्षण भर के लिए अपनी गलती को भूल पाती । वह इस गलती की सजा चाहती है । सोचती है, उसका मुन्ना आकर उसे खरी-खोटी भी सुना जाता तब भी उसे सन्तोष हो जायेगा ।

जानती है कि अब उसका मुन्ना उसे हमेंशा के लिए नहीं मिलेगा । उसकी कोख उजड़ चुकी है । बस एक बार बेटे को नजर भर देख लेने की इच्छा है । वह इन्तजार कर रही है अपने मुन्ना का । इस बुड्ढे के साथ इतने दिन बिताने का यही तो कारण है । इसकी दुकान धौलापुर में कालिका देवी मन्दिर के सामने है । सरायभद्र गाँव यहाँ से लगभग अस्सी किलोमीटर दूर होगा । उस गाँव में यह परम्परा है कि विवाह के बाद वैवाहिक जीवन की सफलता के लिए दूल्हा-दूल्हन कालिका देवी के दर्शन के लिए जाते हैं । सावित्री भी इस मन्दिर में पति के साथ आई थी । पर लगता हैं माँ का आशिर्वाद उसे नहीं मिला था । तभी तो उसका वैवाहिक जीवन चरमरा कर टूट गया । यह भी एक चमत्कार ही है कि भटकती हुई वह माँ के दरबार में ही आई । उसे विश्वास हो गया है, माँ उसे अपने पास ही रखना चाहती थीं । सरायभद्र उसके लिए नहीं बना था । पर पुत्र से अलगाव ! कितनी विकलता में जी रही है वह, क्या उसकी विकलता माँ को नहीं दिखती? सावित्री का मन प्रश्नों से भरा है । ऐसे तमाम प्रश्न वह हर दिन देवी माँ से पूछती है ।

पिछले चार-पांच सालों से वह मन ही मन दिन में कई-कई बार अपने बेटे की उम्र जोड़ती है ...अब तो पच्चीस पार कर रहा होगा । क्या अभी तक उसका विवाह नहीं हुआ होगा । उसके मन में शंका उठती है ... कुशल से तो होगा... कोई अनहोनी तो नहीं घट गई होगी ? आखिर अभी तक देवी दर्शन को आया क्यों नहीं ।

यहाँ इतनी भीड़-भाड़ तो नहीं रहती कि वह उसे देख न पाई हो । हो सकता है पहचान न पाई हो । पच्चीस साल पहले अपने दुधमुंहे बच्चे से अलग हुई वह सोच ही कैसे रही है कि अपने नवजवान बेटे को वह पहचान लेगी । सावित्री थरथरा जाती है । 

एक दोपहर वह निराश मन से देवी मन्दिर को निहार रही थी । एक लड़का अपनी नवविवाहिता के साथ मन्दिर में जाता दिखा । उसे देख सावित्री चौंक पड़ी । दुकान छोड़कर मन्दिर की तरफ भागी । जब तक लड़का देवी की पूजा अर्चना करता रहा, वह उसके आगे, पीछे घूमती हुई अनुमान लगाती रही । जब वे दोनों मन्दिर से बाहर आये तो सावित्री ने आगे बढ़कर लड़के से पूछा- सरायभद्र से आ रहे हो बेटा? अब तक कई लड़कों से उसने यह प्रश्न किया था । लेकिन, कभी इतनी घबराहट नहीं हुई थी । आज उसका गला सूख रहा है । जबान तालू से चिपक-सी गई है । उस लड़के ने सावित्री को गौर से देखा तथा अपने जवाब में ‘नहीं’ कह कर आगे बढ़ गया ।

सावित्री को आश्चर्य हुआ । उसके होंठ खुले, ‘ऐसा कैसे हो सकता है ! वैसा ही शरीर, वैसा ही माथा, वैसी ही आंखे, यहाँ तक कि चलने का ढंग भी बिल्कुल वैसा ही !

वह लड़का और उसकी पत्नी जिस दिशा में आगे बढ़े थे सावित्री भी उनके पीछे-पीछे उसी ओर जाने लगी । ‘‘दद्दा को यहाँ का पेडा बहुत अच्छा लगता है, चलो खरीद लें । लड़के ने अपनी पत्नी से कहा और पेडे की दुकान की ओर बढ़ गया । सावित्री को याद आया । उसके पति को भी यहाँ का पेडा बहुत पसन्द था- तो क्या यह उसका मुन्ना ही है । अब सावित्री भी मिठाई की दुकान की तरफ मुड़ गई ।

‘‘क्या हो गया ? ... तुम चुप क्यों हो गई हो ? लड़के ने अपनी पत्नी से पूछा 

‘‘तुम उस औरत से झूठ क्यों बोले ?---आ तो हम सरायभद्र से ही रहे हैं न ? हाँ कह देते तो क्या हो जाता ?’ 

‘‘अरे छोड़ो यार, राह चलते किसी को भी गाँव-घर का पता बताते चलें ?’ लड़के की लापरवाह आवाज सावित्री के कानों में पड़ी । उसके कदम ठिठक गए । लड़का और उसकी पत्नी अब बहस में उलझ गए हैं । सावित्री ने जी भर कर लड़के और उसकी पत्नी को देखा फिर पास ही खड़े नीम के पेड़ की जड़ पर बैठ गई ।

कौशल्या, जो बहुत देर से सावित्री को उन दोनों के आगे-पीछे घूमते देख रही थी, उठ कर उसके पास आई ।

‘‘किसको खोज रही है रे तू ? आज भी नहीं मिला न ? क्यों लोगों के पीछे इधर-उधर भटकती रहती है ? कब तक तू अपनी खोज जारी रखेगी ... सच को क्यों नहीं स्वीकार करती ? जो छूट गया, सो छूट गया । कब तक तडपेगी ? कब तक करेगी इन्तजार ?’

 दोनों पति-पत्नी मिठाई की दुकान से जा चुके थे ।आँखों में उमड़ आये अपने आँसुओं को आंचल से पोछती हुई सावित्री कौशल्या का सहारा लेकर उठी और भारी कदमों से दुकान की ओर बढ़ने लगी । 

-अमरावती, महाराष्ट्र, मो. 94229 17252

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जनाब औसाफ़ अभय

विचारों के टुकड़े बटके

जन-असन्तोष के बग़ैर सत्ता परिवर्तन नहीं होता ।

सही और गलत गुण और दोष, न्याय और अन्याय, शोषण व आपाधापी की अवधारणा को यथा समय परखा जना चाहिये । उस पर मुख भी होना अनिवार्य है । यही जागरूकता की भावना ही तो लोकतन्त्र को समृद्ध करती है ।

न्याय में विलंब लोकतंत्र के लिये अभिशाप है । इस की समय सीमा निर्धारित की जानी चाहिये । ई-कोर्टस, और कोर्ट्स का लाइव टेलीकास्टिंग 24 × 7 और समय सीमा निर्धारित किये जाने पर विचार किया जाना चाहिये । न्यायालयीन कोई भी प्रद खाली नहीं रखना चाहिये । आवश्यक हो तो ऑवर टाइम देने पर भी विचार किया जाना चाहिये ।

अवांछित तथा अनैतिक पूँजी के रोल को माननीय सुप्रीम के सेवा निवृत्त न्यायाधीशों की (कानूनी) कमेटी गठित कर उनके हवाले कर दिया जाना चाहिये ।

विलफुल डिफालटरों को देश की जनता के कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिये । उन पर उचित कानूनी दण्डात्मक प्रावधान लागू किये जाने चाहिये ।

देश भर के जितने भी व्यवसायिक संस्थान है (सुरक्षात्मक संस्थानों को छोड़कर) की जानकारी ऑनलाइन देशवासियों को सुलभ होनी चाहिए ।

शोषण-मुनाफा खोरी और मिलावट खाद्य पदार्थ औषधियों दिनोदिन जन-उपयोगी सामग्रियों पर कठोर दण्डात्मक कार्यवाही होनी चाहिये ।

80 कर्मचारी कॉलोनी, स्टेशन रोड देवास - 4555001, मो. 9039914142

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उपन्यास अंश

श्री अशोक गुजराती

भटकाव

नौबत के पास कोई खिलौना नहीं था । रईसों के बच्चे नित नये खिलौने ख़रीदने के लिए मम्मी-पापा से ज़िद करते हैं और वे उन्हें सुलभ भी हो जाते हैं । मध्यमवर्गीय बच्चे भी इन्हें अत्यधिक हठ करके पा जाते हैं । ग़रीबों के वास्ते तो खिलौना अभिशाप है । यह भी सत्य है कि जिनकी हैसियत होती है बच्चों के लिए महंगे खिलौने जुटाने की, वे बेपर्वाह-से बच्चे को दूसरे ही रोज़ खिलौने के पुर्ज़े-पुर्ज़े करते देख कर नाराज़ नहीं होते । इस कुचेष्टा को उसका स्वाभाविक बचपना मानकर उसे लेकर अकसर डींगें भी हांकते हैं ।

अब नौबत जैसे बच्चों का मनोरंजन कैसे हो... । है न इसका भी उनके तईं इलाज- वे स्वयं कोई खिलौना-सा मिट्टी से गढ़ लेते हैं । बंसी बेचने वाले की धुन से अथवा गुब्बारे वाले की साइकल पर कमचियों से बंधे गुब्बारे देख, उनसे बजती सीटी या घर्षण की आवाज़ें सुनकर ही संतुष्ट हो लेते हैं । और भी तरीक़े उनके लिए मुहैया हो जाते हैं । अपने हमउम्रों के संग कभी कबड्डी, कभी कंचे, कभी छुपा-छाई, कभी डाब-डुबली (पेड़ पर खेले जाने वाला एक खेल), कभी लट्टू, कभी झूला, कभी गिल्ली-डंडा इत्यादि खेलकर अपना दिल बहला लेते हैं । लूटी हुई पतंगों को अपने से बड़ों को उड़ाते देख वे प्रफुल्लित हो लेते हैं । नौबत प्रायः दिन भर घर पर अकेला ही रहता और ऐसे ही साधनों से उसका रंजन हो जाता । 

लेकिन सबसे ज़्यादा नौबत को गांव में आये ढोलक वालों की जादू ने मोह लिया । वे दो आदमी थे । ढोलक गले में टांगे हुए । अकेला नौबत ही नहीं- और बच्चे, बूढ़े, जिनको कहीं मज़दूरी नहीं मिल पायी ऐसे जवान स्त्री-पुरुष भी ढोलक की थाप सुनकर बाहर निकल आये ।

एक ढोलक वाले से दूसरा कम से कम तीस-चालीस गज की दूरी पर खड़ा हो गया । वे अपने विशिष्ट महाराष्ट्रीय पहरावे में सजे-संवरे थे । धोती, कुरता और सर पर फेटा । पहले ने निकट खड़े युवक से पूछा, ‘बोला, काय निरोप द्यायचा आहे?...(बोलो, क्या संदेश देना है?...) युवक असमंजस में था, फिर जो दिमाग़ में आया, धीरे-से कहा, ‘ह्या वर्षी आंबे चांगले लागले आहेत ।’ (इस साल आम की फ़सल अच्छी है ।)

उस ढोलकिया ने ढोलक बजायी और हाथों को उठाकर कुछ अभिनय-सा किया । 

अचरज कि अंदाज़न सौ फ़ुट के अंतर पर खड़े ढोलिया ने जवाब में ढोलक बजायी और ज़ोर से बोला, ‘ह्या वर्षी आंबे चांगले लागले आहेत ।’

सब उपस्थितों ने तालियां बजायीं । नौबत के कानों ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया लेकिन उसके भेजे में यह बात समा गयी कि इधर वाले ने ढोलक बजाकर इशारों से जो कहा, वह इतने फ़ासले पर खड़े उसके साथी ने सही-सही बता दिया । उसने भी तालियां बजायीं । उसकी भाग्यहीनता कि अपनी ही तालियों की आवाज़ भी वह सुन नहीं पाया । हां, वह इस तमाशे से ख़ुश ज़रूर हुआ । लोगों ने उन जादूगरों को प्रसन्न होकर दस-बीस-पचास पैसे, जितनी जिसकी औक़ात थी, उदारता से दिये ।

नौबत ने घर आकर अपना कोई मन्तव्य ज़ाहिर करने हेतु उंगलियों, हाथों, आंखों, चेहरे की भाव-भंगिमाओं को प्रयुक्त कर उसे किसी अनुपस्थित व्यक्ति तक पहुंचाने का प्रयास किया । फिर वह एक टूटे आईने को सामने रख इसीका अभ्यास करता रहा । इससे उसका आत्मविश्वास बढ़ गया कि वह बिना बोल पाये भी अपने मन का अभिप्राय इंगितों द्वारा प्रत्ययकारी बना सकता है ।

ऐसे ही एक दिन एक बहुरूपिया उनके गांव में आया । उसके वस्त्र और मेकअप लीक से हटकर थे । चुस्त-से नीले पाजामे पर बड़ा-सा रंगीन चमकीला लहरदार झबला, सर पर लाल रंग की पीछे गोल घेरा लगी मुकुट-सी पगड़ी उसके व्यक्तित्व में अलग ही निखार पैदा कर रहे थे । उसके माथे पर रुपए के सिक्के-सा सुर्ख़ तिलक था । गाल हरे; होंठ लाल; आंखों-भौंहों के इर्दगिर्द काला रंग; दाढ़ी से कानों तक सफ़ेद आवरण; कानों पर, कलाई पर, गले में नकली मगर दीर्घाकार गहने । वह हूबहू केरल के कथाकाली नृत्यकारों (महाभारत, रामायण जैसी पौराणिक कथाओं के गायन की पृष्ठभूमि में नृत्याभिनय करने वाले) जैसा लग रहा था । कभी कठपुतली-सा, कभी रोबोट की तरह वह मटक रहा था । नौबत को उसके विचित्र पोशाक और जोकर-से चेहरे ने आकृष्ट कर लिया । 

उसके हाथ में चाबुक था । वह चाबुक को ज़ोर-से फटकारता और अपने ही बदन पर सटाक् से निर्दयी-सा वार करता । साथ ही नाचता भी जाता । उसके साथ आया व्यक्ति अपने वाद्य से उसका अनुसरण करता । संगीत का चीत्कार-सा आरोह-अवरोह उस मार को और भी भयावह बना देता । औरों जैसा ही नौबत आश्चर्यचकित हो देख रहा था कि इतने प्रबल वेग से चाबुक उसके शरीर पर प्रहार कर रहा है कि घाव पर घाव हो जाएं लेकिन उस बाज़ीगर को मानो कोड़े का नहीं, फूलों का आघात लग रहा हो । तमाम दर्शक बज रहे संगीत की पार्श्व-भूमि में उसके सोंटा झटकारने की प्रचंडता से इतने प्रभावित हुए कि उसके साथी के मांगने पर अपनी ओर से कुछ ना कुछ आर्थिक पुरस्कार उन्हें दिया । नौबत क्या देता, उसने तो लिया ही लिया, आनंदित होने का एक कौतूहल भरा अनुभव ।

उसकी बालकोचित जिज्ञासा हमेशा स्वयं ऐसे वैचित्र को दोहराने की होती । उसने आंगन के नीम के पेड़ की एक टहनी तोड़ ली । उसे चाकू से छिल-छिलकर पतली बेंत जैसा बनाया । इसके बाद उस नन्हे-से बच्चे ने अपने खुले हाथों-पैरों पर उससे हौले-से वार करना शुरू किया ।

अरे! यह क्या... उसको तो हर फटकार के साथ चोट लग रही थी, दर्द हो रहा था... उसने ख़ुद को रोका- कि यह अपने बस का नहीं... इसके पीछे कोई रहस्य होगा, जो अपुन को पता नहीं है ।  

एक रोज़ नौबत सुबह के छूट गये जूठे बर्तन धो रहा था कि उसके ही वय का उसका अपंग खेल-साथी लंगड़ाते हुए आया । उसका हाथ पकड़कर वह खींचता हुआ बोला, ‘चल, तेरेको एक मज़ेदार सीन दिखाता हूं ।’ उसका आशय नौबत के पल्ले पड़ गया । वह उसके संग-संग गांव की आख़िरी झोंपड़ी में पहुंच गया । वहां पहले ही जमघट लगा हुआ था । 

चूँकि ये दोनों मित्र छोटे थे, लोगों के बीच से राह बनाते हुए उस घेरे में अंदर तक घुस गये । वहां मध्य में एक औरत, होगी कोई पचीस-तीस साल की, अजीब-सी हरकतें कर रही थी । वह अपने सर को क्रमशः ऊपर-नीचे, दायें-बायें, गोल-गोल तेज़ी से घुमा रही थी । वह अपने हाथ-पैर किसी भी दिशा में यूं उछाल रही थी, ज्यों वे उसके वश में नहीं हैं । कभी बैठती, कभी उठती, कभी लेट जाती । अचानक नृत्य-सा करने लगती । उसकी आंखें चहुं-ओर ऐसे घूम रही थीं, जैसे उनको एक जगह स्थिर करना उसके बस में ना हो । मुंह से वह अजीबोग़रीब आवाजें निकाल रही थी । कभी चिल्लाती, कभी हांफने लगती । उसके ओंठों से झाग तक उभर कर आ रहा था ।

इतने सारे लोग- जिनमें ज़्यादातर औरतें थीं, उसे थामने-सम्भालने का कोई यत्न नहीं कर रहे थे । अपितु कुछेक औरतें- जो उससे उम्र में कई साल बड़ी रही होंगी -उसके समक्ष नत-मस्तक होकर उसके पांव पड़ रही थीं । हरसू एक ही शोर था- ‘अरे! कमली पर देवी आयी है!’

यह दृश्य क़ायम रहा दसेक मिनट । फिर कुछ बुदबुदाते हुए वह युवती धीरे-धीरे शांत होती गयी । अंत में ज्यों पछाड़ खाकर वह वहीं धराशायी हो गयी । उसे पानी पिलाया गया । लम्बी-लम्बी सांसें लेकर आख़िर वह सामान्य होकर चुपचाप बैठ गयी । फिर सबने उसे प्रणाम किया । कुछ ने तो साष्टांग भी ।

नाटक समाप्त हो चुका था । नौबत बाहर आया । उसे नहीं पता पर वहां खड़ा एक युवक दूसरे से कह रहा था- ‘नौटंकी है । सास तकलीफ़ देती थी तो उसने यह रूप गढ़ लिया है । अब वह इससे डरती है । आज तो पैर भी छू लिये ।’ 

वैसे नौबत को भी यह सारा अनोखा तो लग रहा था लेकिन उसका मन इसे कोई दैवी प्रक्रिया मानने को तैयार नहीं था । उसने घर आकर सोचा, ऐसा तो मैं भी कर सकता हूं । उसने उस औरत जैसी गर्दन घुमायी, हाथ-पैरों को इधर-उधर पटका- गोया वह व्यायाम कर रहा हो या आजकल का चर्चित ‘योगा’ । थोड़ी देर झूमता रहा । उसे लगा ज्यों उसके होंठों से ज़रा-सा फेन भी निकल आया हो... यह सब उसने किया पर हाय! उसके चरण स्पर्श करने के लिए कोई नहीं था ।

***

एक दोपहर पलटू अप्रत्याशित घर लौट आया । तनिक ग़ुस्से में । हो सकता है कोई दोस्त न मिला हो । लेकिन था गांजे के नशे में । यह नशा बहुत ख़तरनाक होता है । सीधे दिमाग़ पर अधिकार जमा लेता है । लगातार सेवन से कई पागल तक हो जाते हैं । मिलता सस्ता है इसलिए रिक्शा-ठेले वाले अथवा दीगर निर्धन इसे सिगरेट में (तंबाकू निकालने के बाद) या चिलम में भरकर पीते रहते हैं ।  

नौबत घर के आंगन में मिट्टी भिगोकर क़िले जैसा कुछ बना रहा था । पलटू ने उसे लताड़ा- ‘क्या कर रहा है बेकार बैठे-बैठे... जा, मेरे लिए पानी लेकर आ!’

नौबत बहरा था । उसने भाई को आते हुए देखा लेकिन उसने क्या कहा, उसे नहीं मालूम ।

पलटू तो पहले ही अनमना था । चिल्लाया-‘लाता है कि नहीं?’

नौबत ने उसकी आज्ञा का पालन करना तो दूर, उसकी ओर देखा भी नहीं । 

पलटू आग-बबूला हो गया । उसने वहीं पड़ी एक लकड़ी उठायी और नौबत पर पिल पड़ा । सिमता स्कूल गयी थी; फेकू-सुइया खेत पर । नौबत का वह कुत्ते-बिल्ली-सा अजीब-से स्वरों से भरा चीत्कार उस सुनसान दोपहर में कौन सुनता!... 

पलटू तो होश में था नहीं । लकड़ी टूट गयी तो हाथों-पैरों से उसकी कुटाई करता रहा । वह तो ख़ैर हुई कि पड़ोस से सुइया की भाभी नौबत का रोना-चीखना सुन कर दौड़ी-दौड़ी आयी और उसको किसी तरह बचाया । अपनी झोंपड़ी में ले गयी । उसके वस्त्र साफ़ किये । उसकी देह पर यहां-वहां चोट के चिन्ह थे । कहीं-कहीं से रक्त भी बह रहा
था । उसने उसे कहीं तेल लगाया, कहीं पट्टी बांधी । सूजन पर हल्दी का गरम लेप लगाया । रोते-बिलखते नौबत को थपकियां देकर सुलाया ।

फेकू, सुइया और सिमता सांध्य बेला में क़रीब-क़रीब साथ ही लौटे । नौबत को न पाकर चिन्तित हुए । तभी सुइया की भाभी ने आकर जो कुछ घटित हुआ था, बयान किया । पलटू ग़ायब था । सब लोग फ़िक्रमंद होकर भाभी की झोंपड़ी में नौबत का हाल जानने पहुंचे लेकिन वह वहां नहीं था ।

सुइया की भाभी घबरायी- ‘अभी तो था यहां सोया हुआ । मैं ज़रा राधा से दही के लिए जामन मांगने गयी थी । लेकर आ ही रही थी कि तुम लोगों को देखकर नौबत बेचारे पर पड़ी जानलेवा मार के बारे में बताने रुक गयी ।’

अलसना था ही कितना बड़ा पर वे नौबत को ढूंढ-ढूंढकर थक गये । थक इसलिए गये कि वह कहीं नहीं मिला । रात हो चुकी थी । सोचा, आक्रोश में आसपास ही कहीं जाकर बैठ गया होगा । सुबह मिल जायेगा । गूंगा-बहरा है, जायेगा भी कहां...

उनका यह ख़याल ग़ालिब की तरह दिल को बहलाने का औचित्य लिये था । वास्तविकता तो सीमातीत हो सकती है । उनको मानसिक रूप से इससे स्थैर्य तो मिलने से रहा । रात भर करवटें बदलते रहे । ज़रा-सी आहट पर चौंक कर उठ बैठते । उसकी तलाश में तड़के निकल पड़े लेकिन उसको न मिलना था, नहीं मिला ।

***

गूंगा-बहरा था तो क्या हुआ, नौबत आख़िर इनसान था । फिर छोटा-सा बच्चा, जिसका दिल बिलकुल नाज़ुक होता है । क्षोभ तो उसको भी होना ही था । वैसे ही वह बेज़ार था कि वह औरों जैसा न बोल पाता है, न ही सुन पाता है । दर्द का अहसास कम होते ही मामी को अगल-बग़ल न पाकर वह झोंपड़ी से बाहर आया । अपने रोष एवं असमर्थता से घिरा-बुझा वह सम्मोहित-सा चलता चला गया । अपने आंसुओं को पोंछता, उसासें भरता वह रेलवे लाइन तक आ पहुंचा । वहां हांफते हुए थोड़ी देर बैठ गया । बंधी हुई पट्टियों को हटाकर उनसे हल्दी का लेप-वेप ही नहीं अपना पसीने से तर चेहरा भी पोंछा । बहरहाल उसको चैन नहीं था । उठा और ट्रैक से लगी पगडण्डी पर बेहोशी की-सी अवस्था में बढ़ता गया ।

रात हो चुकी थी । धीरे-धीरे वह शेगांव के रेलवे यार्ड (अहाता) में दाख़िल हुआ । प्लैटफ़ार्म पर आया तो वहां कोलकाता से मुंबई जाने वाली टू अप मेल खड़ी हुई थी । उसको कुछ नहीं सूझ रहा था । वह मंत्र-मुग्ध-सा एक डिब्बे में चढ़ गया । इत्तेफ़ाक़ से वह एसी-1 का वातानुकूलित आरक्षित डिब्बा था । दरवाज़ा खोलकर अंदर प्रवेश किया तो पहले केबिन के खुले द्वार के सामने रुक गया । 

उस केबिन में एक अकेली अधेड़ महिला चाय पी रही थीं । उन्होंने उसे देखा । नौबत दिखने-दिखाने में ठीक-ठाक था । बेहाली के इस आलम में भी उसके बिखरे-बिखरे घुंघराले बाल उसके उजले वर्ण पर फब रहे थे । उसके कपड़े पुराने थे मगर ठीक-ठाक ।

महिला को लगा कि यह बच्चा ग़लत डिब्बे में चढ़ गया है । उन्होंने प्यार से पूछा, ‘क्यों बेटे, किसको ढूंढ रहे हो?’

नौबत चुप । उसे यह तो समझ गया कि महिला कुछ पूछ रही हैं- लेकिन क्या, यह उसे पता नहीं था । उसने मासूमियत से अपने बारे में बताना चाहा । चाहने से क्या होता, उसके मुंह से वही आं... ओं... जैसी ध्वनियां निकलीं । उसने अपने मुंह तथा कानों को उंगलियां लगाकर दोनों हाथों को नकारात्मक घुमाकर बताया कि वह गूंगा-बहरा है । उन्हें उस पर रहम आया- ‘आजा, बैठ जा ।’   

उनके हाव-भाव और हाथों के क्रिया-कलाप से नौबत ने उनके कहने का तात्पर्य बूझ लिया । महिला के नयनों में उसे मां जैसी ही ममता दिखलायी दी । वह बर्थ के कोने में टिक गया । महिला ने उसे खींचकर अपने से सटा लिया । इस प्रेम भरे व्यवहार से नौबत की पलकों पर आंसू छलक आये । महिला को भी संभवतः उसकी बेचारगी ने पिघला दिया था । उसे अपनी बांहों में लिपटा लिया । 

   महिला ने पल भर के लिए विचार किया कि कंडक्टर को बुलाकर इसके बारे में बता देना चाहिए । फिर इस विचार को तत्क्षण ही त्याग दिया कि कंडक्टर इसे जीआरपी के हवाले करेगा; पुलिस पता नहीं क्या करें- इसे कहीं छोड़ दें कि इस बला के पीछे क्यों परेशान हों । या वे इसे किसी अनाथालय में पहुंचा दें । इसके मां-बाप को तलाशने की शायद ही कोशिश करें । बेहतर है इसे वे अपने साथ ही ले जाएं । यदि यह बालक इसी ट्रेन में किसीके साथ सफ़र कर रहा होगा तो देर-सबेर वे इसे खोजते हुए आ ही जायेंगे । अन्यथा आगे की आगे देखी जायेगी । इस सोच के पीछे उनका अचेतन सक्रिय हो सकता है कि, वे बेटी की मां तो हैं, बेटे की नहीं बन सकीं ।

हां, उन्होंने एक सावधानी अवश्य बरती । वे कण्डक्टर के पास जाकर बोलीं, ‘शेगांव स्टेशन से मेरी बहन का बेटा मेरे साथ भुसावल तक जा रहा है । प्लीज़ उसका टिकट बना दीजिए ।’

कण्डक्टर को उनकी प्रामाणिकता ने प्रभावित किया । उसने टिकट बनाने में देर न लगायी । उन्होंने भी टिकट की क़ीमत से ज़्यादा पैसे देकर उसका शुक्रिया अदा किया । 

उन्होंने देखा कि उसके बदन पर चोट के निशान दिख रहे 

हैं । उन्होंने सहज ही जानना चाहा- ‘बेटे, क्या हुआ तेरे शरीर पर?’ सवाल करते ही उनको ध्यान आया कि यह ना सुन सकता है, ना ही बोल सकता है । उन्होंने उसके हाथ-पैर सहलाकर पता कर लिया कि इसे किसीने पीटा है । 

उनके बैग में बोरोलीन रखा था । उन्होंने उसके छिले हुए हिस्सों पर वह लगाया । उसे अपने पास से बिस्किट खाने को दिये । नौबत को अपनी मां का स्मरण हो आया । वह काफ़ी प्रकृतिस्थ हो चुका था । उसने इशारे से पानी मांगा । पानी पीकर वह और स्वस्थ महसूस करने लगा । महिला ने उसे अपने आगोश में लिया तो उसे लगा, वह मां की गोद में सुरक्षित हो गया है ।

ट्रेन चली तो क्षण भर के लिए नौबत घबराया । फिर भाई के उसके साथ किये व्यवहार पर महिला से मिल रहा अपनापन भारी पड़ा । उसका धिक्कार-भरा स्वगत कहन उस तक ही सीमित रहा- ‘जाने दो । ऐसे घर में मैं नहीं लौटूंगा!’  

महिला कोलकाता से आ रही थीं । भुसावल नज़दीक आते ही उन्होंने अपना सामान समेटना प्रारंभ कर दिया । नौबत एक तरफ़ बैठा यह सब देख रहा था । उसे फिर रुलाई आ रही थी कि अब ये मां-सी भी उतर जायेंगी । उसका क्या होगा...

लेकिन ऐसा नहीं हुआ । महिला ने बड़ी सूटकेस अपने हाथ में पकड़ी और छोटी बैग नौबत को थमा दी । वह कुछ बोलते-बोलते रुक गयीं कि इसने तो कुछ भी ग्रहण करना नहीं है । संकेत से समझाया कि जो स्टेशन आ रहा है, उस पर हमारा सफ़र समाप्त होगा ।

बैग को सम्भाले नौबत उनके पीछे-पीछे उतरकर प्लैटफ़ार्म पर चलने लगा । वे लोग ब्रिज से होते हुए विशाल वेटिंग हॉल को पार कर बाहर आये ।

महिला ने एक ऑटो वाले से पूछा, ‘भइया, वैतागवाड़ी चलोगे?’

रिक्शा वाले के बाल सफ़ेद, दाढ़ी भी सफ़ेद- उसने ज्यों ही उनको निहारा, बोला, ‘अरे आप! आपको कौन नहीं पहचानता । बैठिए ।’

‘कितना देना होगा?’

‘जो आपकी मर्ज़ी हो... आपको कहां याद होगा... कभी हम भी आशिक़ रहे हैं आपके । बैठिए ।’

महिला ने, जिनका नाम तरन्नुम था, सूटकेस रखी और नौबत से बैग लेकर उसे बैठने को कहा । नौबत ने उनके आदेश का बिना सुने पालन किया ।

ऑटो चला तो चलाने वाले बूढ़े ने जानना चाहा- ‘यह लड़का कौन है, बड़ी बी... पहले तो कभी नहीं दिखा आपके अड्डे पर...?’ 

तरन्नुम ने इस बार भी झूठ बोलना ही बेहतर समझा- मेरी बहन का बेटा है ।’

थोड़े समय में ही वैतागवाड़ी आ गयी । संकरी-सी गली में ऑटो घुसा । गली में दोनों ओर कई लड़कियां, औरतें लगभग अर्धनग्न-सी सज-धजकर खड़ी थीं । ऑटो बढ़ता गया । अनंतिम मकान के सामने रुका । मकान का वास्तु, वहां जलती लाइटें, रंग-रोग़न गली के अन्य दड़बे-नुमा घरों के मुक़ाबले उसके वैभव की उच्च कोटि ख़ुद बयान कर रहे थे ।

यह वैतागवाड़ी थी । ऑटो आया था स्टेशन से । गली में न मुड़ता तो हाई-वे नंबर छह पर जा पहुंचता । हाई-वे निकट होने का लाभ इस अड्डे को बहुत था । ट्रक ड्राइवर ही नहीं, कई कार वाले भी इस वेश्याओं के इलाक़े से न सिर्फ़ परिचित थे, बल्कि यहां आने में बिलकुल न हिचकते । वजह थी, यहां कोई ख़तरा नहीं था, सब कुछ महफ़ूज़ था । और गली के आख़िर के दो अड्डे तो कार वालों की पसन्द के थे । कोई बदमाशी नहीं, चाहे तरन्नुम का- जिसे अब फ़रीदा के नाम से जाना जाता था- ठिकाना हो या उसके बाद का कस्तूरी का ।  

ऑटो की आवाज़ सुन फ़रीदा दौड़ी-दौड़ी आयी । उसके पीछे एक कुत्ती भी । फ़रीदा तरन्नुम के गले लग गयी- ‘अम्मी, कितने दिन लगा दिये । मैं अकेली पड़ गयी थी ।’ ऑटो मुड़ा तो फ़रीदा की निगाह बैग उठाये नौबत पर पड़ी- ‘अरे! यह बच्चा कौन है?...’ वह नौबत की ओर लपकी- ‘कितना प्यारा है...’ उसे गोद में उठाकर चूम लिया । 

इस बीच कुत्ती- जो पामेरियन ब्रीड की थी, तरन्नुम के पेरों पर उछल-कूद करने लगी । वह तरन्नुम पर चढ़ने की, उनसे लिपटने की कोशिश में थी । तरन्नुम ने उसे क़रीब लेकर कहा, ‘लूसी, बस । अब अंदर चल ।’ ज्यों ही नौबत को फ़रीदा ने उतारा, वह उसे सूंघने लगी । 

वे लोग भीतर आये । फ़रीदा ने नौबत को संबोधित किया- ‘क्या नाम है बेटे तुम्हारा ।?’

नौबत ख़ामोश । तरन्नुम बोली, ‘यह गूंगा-बहरा है ।’ फिर उसको पाने की पूरी दास्तान फ़रीदा को सुनायी । लूसी नौबत को यहां-वहां चाटकर अपना प्रेम दर्शाने में संलग्न थी ।

फ़रीदा उसको पाकर ख़ुश थी, तरन्नुम की तरह- क्योंकि उसको भी एक भाई की दरकार थी । उसने उसे अपनी पसन्द का एक नाम दे दिया- पाशा । बाहर का दरवाज़ा बन्द कर उसने खाना परोसा और लाड़ से नौबत को खिलाने लगी । बारह बज रहे थे । किसी ग्राहक की उम्मीद कम थी और आता तो वह इनकार कर देती । नौबत इस नये माहौल में अपरिचय के धुंधलके के बावजूद प्रेम के प्रभास के कारण नज़दीकी अनुभव कर रहा था ।

इतना स्वाद भरा खाना, तत्पश्चात गुदगुदा बिस्तर और एसी की ठंडक नौबत के ख़्वाबों में भी कहीं न थी पर उसे नींद नहीं आ रही थी । आई-बाबा-ताई (मां-पिताजी-बड़ी बहन) का स्मरण उसे विकल कर रहा था, कि वे उसे ढूंढ रहे होंगे... कितने बेचैन होंगे अपने नौबत को लेकर । तब उसे दादा (भाई) द्वारा बेदर्दी से की गयी पिटाई याद आयी । वह सुबकते-सुबकते सो गया ।

***

सुबह उसे लूसी ने उसके तलवों पर जीभ फेरकर उठाया । उसे जगा हुआ देख उछलकर उसकी छाती के निकट बैठ गयी और उससे दुलार जताने लगी । नौबत ने उसे बांहों में लेकर उसका प्रतिउत्तर उसके बाल सहलाकर दिया । दोनों ने एक-दूजे को स्वीकार लिया था । उनकी दोस्ती की पुष्टि हो गयी थी । 

सबका रात जैसा ही स्नेहिल व्यवहार था । उसे आश्चर्य हुआ कि इस घर में अंदर ही पाख़ाना है । वह भी सुथरा और चमकदार ज्यों कहानी वाले महल का कोई कक्ष हो । उसके गांव में तो गंदा सार्वजनिक संडास था हालांकि वह कुछ अंतर पर झाड़ियों के पीछे ही जाता रहा था । शौच के पश्चात तरन्नुम ने उसके दांतों को नये ब्रश पर टूथ-पेस्ट लगाकर घिसा । उसका मुंह धुलाया । फिर उसके सामने रखा गया शानदार नाश्ता और चाय, जिसका वह आदी नहीं था । 

तत्पश्चात सुगंधित साबुन से शॉवर के गुनगुने पानी के नीचे उसे तरन्नुम ने नहलाया । उसके ज़ख़्मों पर मलहम लगाया । उसे अपनी कार में लेकर एक बड़े रेडीमेड स्टोर पर गयीं । उसकी रुचि के क़ीमती वस्त्र ख़रीदे । 

यह सब नौबत के वास्ते कल्पनातीत था । ज्यों एक ऊंची-लम्बी कूद ने उसे जन्नत में पहुंचा दिया हो । तक़दीर ने उसके साथ यह अनसोचा खेल खेला था । वह मानो सपने में उड़ान भर रहा था । कहां तो पलटू के छोटे हो गये कपड़े, ज्वार की रोटी और ठेसा (कूटी हुई लाल मिर्च)- जिस पर कभी तेल मिलता, कभी नहीं -और कहां यह रईसी का आलम... वह अनाड़ी नया स्वप्न संजोने लगा कि मैं आई, बाबा एवं ताई को यहीं ले आऊंगा । वे भी क्या सोचेंगे कि नौबत ने उनके लिए कैसा आरामदायक जीवन रच के रखा है...

उसको यहां एक खिलौना मिल गया था- जीवित । वही लूसी । नौबत उसके संग आंगन में खेलता रहता । नौबत से लूसी एक मायने में नसीबवान थी । वह सुन सकती थी । नौबत आदमी का बच्चा होकर भी श्रवण के मामले में सिफ़र था । दोनों में यही समानता थी कि लूसी नैसर्गिक अवदान के अंतर्गत जैसे ‘कां, कूं... हल्की-सी चीख अथवा भौंकने तक सीमित थी, नौबत भी कुछ मिलते-जुलते स्वर अपने कंठ से निकाल पाता था । ऐसे में उनमें अभिन्नता जागृत होनी ही थी ।

नौबत की दिनचर्या बिलकुल उसी प्रकार चल रही थी, जैसी किसी सम्पन्न परिवार के बच्चे की होती है । तरन्नुम और फ़रीदा- अनजानी अम्मी एवं बाजी -उसका पूरा ख़याल रखती थीं । बढ़िया खाना, महंगे परिधान, सोने हेतु फ़ोम का गद्दा और तमाम सुख-सुविधाएं उसको उपलब्ध हो गयी थीं । मात्र भौतिक ही नहीं, आत्मिक तृप्ति भी उसको हासिल थी । तरन्नुम और फ़रीदा उस पर स्नेह लुटाते न थकतीं । 

उसकी सहेली लूसी भी उस पर फ़िदा थी । लेकिन अपने अतीत से छुटकारा पाना क्या इतना आसान है... सोते-जागते फेकू, सुइया व सिमता उसके अंतर्मन के परदे पर अपना वजूद लेकर यकायक आते और उसे विचलित करते । लूसी तथा उसमें यही प्रचुर भेद था कि उसके पास मेधा थी । लेकिन दुनिया की असलियत से अजाना वह यही ख़याली पुलाव पकाता कि उनको भी किसी रोज़ यहीं ले आयेगा । 

एक अनसुलझी पहेली से वह आक्रांत रहने लगा उसके घर में सिर्फ़ वे ही, वे ही रहते । एकाध पड़ोस की कोई स्त्री आ जाती मां से गप्पें लड़ाने । पिता से भी कभी-कभार ही कोई मिलने आता । पलटू के सारे दोस्त शेगांव के ही थे, शायद ही कभी कोई उसके साथ आया हो । सिमता की कोई हमजोली रविवार को आ जाती । वह स्वयं भी ज़्यादातर अपने समवयस्कों के संग आसपास ही खेल में शरीक़ होने चला जाता ।

यहां स्थितियां भिन्न थीं । दोपहर से लेकर आधी रात तक कई लोग आते रहते । आने वाले या वालों का स्वागत

होता । बैठक में तरन्नुम और फ़रीदा के साथ बैठते । टीवी चलता 

रहता । अकसर उनके लिए गिलास, पानी, बर्फ़, चिखौना लाया जाता । आगंतुक खाते-पीते हुए हंसी-मज़ाक़
करते । अर्थात् यह सारा नौबत अपनी आंखों से ही देख पाता ।

कुछ देर बाद आया हुआ मर्द फ़रीदा के साथ अंदर बेड-रूम में चला जाता । बीच का दरवाज़ा बन्द कर लिया
जाता । एक से अधिक पुरुष आये हों तो पहले के बाहर आते ही अगला घुस जाता । एक-दो घण्टों में इनके जाने के बाद और भी आते रहते ।

इन सबके अलावा एक व्यक्ति हफ़्ते-पखवाड़े में जब भी आता, तरन्नुम क्या, फ़रीदा क्या- अपने पलक-पांवड़े बिछा देते उसके सम्मान में । उसके आते ही अन्यों का प्रवेश निषिद्ध हो जाता । वह शराब पीकर खाना खाता तत्पश्चात वह और तरन्नुम दूसरे एक बेडरूम में साथ ही वक़्त गुज़ारते ।   

जी हां, इन अड्डों के ऐसे ख़ैरख़्वाह होते ही हैं । जभी इनका धंधा सुरक्षित चल पाता है । असल में यह आदमी- जिसका नाम राजा महेन्द्र सिंह था- यहां का मालिक ही था । बरसों पहले तरन्नुम से इश्क हुआ, वे उसकी रखैल रहीं, उससे बेटी पैदा हुई- फ़रीदा । उसने तरन्नुम को इसी आवास में बसा दिया था । उसको ख़र्च भी देता रहा । फिर उसका आगमन विरल हुआ तो तरन्नुम भी इस गोश्त के बाज़ार के असर की वजह से अपने जिस्म का सौदा करने लगी । महेन्द्र सिंह इससे नावाक़िफ़ क़तई नहीं था । लेकिन उसने कोई एतराज़ भी नहीं उठाया । अपने परिवार से उसे अलग रखने के लिहाज़ से यही ठीक लगा उसको ।

  महेन्द्र पुराने राजपूत राजाओं के घराने से था । अब मिल्कियत उतनी ना रही हो पर शान बरक़रार थी । उनकी हवेली भुसावल में ही थी पर वह वहां कम ही टिकता । मुंबई-दिल्ली में उसने अपना नाजायज़ कारोबर फैला रखा था । वही जालसाज़ी का, शरीफ़ बनकर सारे उलटफेरों का । वह किसी भी अवैध काम को कर लेता, बशर्ते कि उसका कहीं नामोल्लेख ना हो । यहां भी वह तरन्नुम का अभिभावक बना हुआ था । इतना ही नहीं, वह अपने वार्ड का पार्षद भी चुन कर आया था । उसकी चलती थी, चला रहा था ।

इस बार जब वह आया तो नौबत को देखकर चौंका । तरन्नुम ने उसे विस्तार से बताया कि वह कैसे यहां आया । वह अपलक नौबत को देखता रहा । उससे सवाल भी पूछे । नौबत सिवा ‘गूं... गां...’ के क्या जवाब देता । महेन्द्र ने उसे अपने वक्ष से लगाकर उसके बालों पर हाथ लहराकर कहा, ‘प्यारा बच्चा!’ उसकी आंखें चमक उठीं ।

इसके बाद वह जब भी आता, अपने साथ नौबत के लिए कैडबरीज़ की बड़ी चाकलेट भी लाता । नौबत भी उससे धीरे-धीरे खुल गया । उसके साथ कार में ‘राउंड’ भी लगा लेता । यह सब था लेकिन उसे सारा कुछ वैचित्रपूर्ण लगता । दिन भर में इतने मिलने वाले क्यों आते हैं और फ़रीदा के साथ बन्द कमरे के एकांत में क्या तो करते रहते हैं... और महेन्द्र की इतनी वर्चस्वता क्यों है... उसने मिल रहे प्रेम और चैन के कारण इसे नज़र-अंदाज़ करना चाहा पर उसके अपरिपक्व दिमाग़ में यह असामान्य व्यवहार खलबली मचाये हुए था ।

और फिर एक दिन वह हुआ, जिसने उसके सुप्त मस्तिष्क में हाहाकार मचा दिया । हुआ यों कि लूसी के संग वह खेल रहा था कि एकदम लूसी को क्या हुआ कि वह तीव्र गति से दौड़ती हुई बेड-रूम के बन्द दरवाज़े- जो केवल उढ़का हुआ था -को धक्का मारकर भीतर प्रवेश कर गयी । उसी धुन में नौबत भी उसको पकड़ने के इरादे से उसके पीछे-पीछे उस अंतर्गृह में जा घुसा । उसने जो देखा, वह उसके बाल-मन को झकझोरने के लिए पर्याप्त था ।

उसने कनखियों से देखा, बेड पर फ़रीदा आये हुए शख़्स के साथ आपत्तिजनक अवस्था में थी । 

दोनों ही मादरज़ाद नंगे । फ़रीदा ने किवाड़ की खट से सावधान हो प्रयत्न किया कि अपने को सहेजे । नौबत इस दृश्य से घबराया कि वह ग़लत जगह, ग़लत समय पर आ गया है । वह पलांश में पलटा और बाहर तक भागता चला गया । उसे नहीं मालूम कि वे किस क्रिया में संलग्न थे- कोई प्यार जैसा ही प्रकार लगा उसको ।

वह विचार करता रहा कि यदि वह प्यार ही था तो इतने विभिन्न आदमियों के साथ क्यों ? उसने अपनी मां को तो किसी ग़ैर मर्द के साथ इतना अनक़रीब नहीं देखा- वह भी निर्वस्त्र...

इन्हीं दिनों वह एक और अनुभव से दो-चार हुआ । लूसी उसके साथ खेलते-खेलते किसी कुत्ते को पास आया देख उससे दूर हट जाती । एक-दो बार तरन्नुम ने कुत्ते को हड़काया भी था । पर मौक़ा देखकर कुत्ता लूसी के पीछे लग जाता । फिर दो-तीन कुत्ते और कहीं से आ जाते । लूसी ज्यों उनसे बचने को यहां-वहां भागती रहती । नौबत उसको बुलाता तो आती नहीं । अंत में किसी एक ज़बर कुत्ते के आगे वह समर्पण कर देती । कुत्ता इधर सूंघता, उघर चाटता, फिर उसके ऊपर पीछे-से चढ़ जाता । 

बहरहाल, नौबत कुछ फ़ासले से यह तमाशा ताकने को विवश था कि, उसकी प्यारी लूसी उसको ऐसे में टालती रहती । पिछली बार की दुर्घटना के मारे उसकी हिम्मत न होती कि भीतर किसीको जाकर संकेतों में बताये (बताता भी क्या?) या किसीको हाथ पकड़कर ले आये ।   

थोड़ी देर में कुत्ते और लूसी के इर्द-गिर्द गली के बच्चे इकट्ठा हो जाते । तब तक लूसी और वह कुत्ता एक-दूसरे की विपरीत दिशा में मुंह किये ज्यों आपस में बंध जाते । बच्चे उनको पत्थर मारते पर वे खींचतान के बावजूद अलग नहीं हो पाते । नौबत के लिए यह वैसे अजूबा ही था । इस तरह का दृश्य वह आधा-अधूरा अलसना में देख चुका
था । ऐसे में उसके घर का कोई न कोई सदस्य उसे वहां से हटाकर झोंपड़ी के भीतर लेकर चला जाता था । 

कुछ समय पश्चात लूसी और वह कुत्ता अपने-आपको छुड़ा लेते । लूसी नौबत के निकट आकर उसे चाटने लगती, जैसे क्षमा मांग रही हो ।  

लूसी का यह कारनामा उसने मंज़ूर-सा कर लिया लेकिन उसकी दुविधा तब बढ़ी जब लूसी के साथ यह आये दिन होने लगा । और वह भी दूसरे-दूसरे कुत्तों के साथ । उसे फ़रीदा का इस-उसके संग अंदर बन्द कमरे में बार-बार जाना कुछ-कुछ समझ में आने लगा ।

वह इस ज्ञानवर्द्धन के कारण इस वातावरण से ऊब गया । सारी सुख-सुविधाओं के होते हुए । कहीं वह इस गंदगी- उसके अनुसार -से मुक्ति पाने को बेताब होने लगा । उसकी बुद्धि इसे ओछा चारित्र्य मानने लगी । आई-बाबा-सिमता से वह इनकी तुलना करता रहता ।

***

वह सुनसान दोपहर थी । तेज़ धूप के कारण लू चल रही थी । सूं...सूं... करतीं लपटें ज्यों कनपटियों को छेदने को आमादा थीं । ऐसे में खेलते-खेलते नौबत गली के मुहाने तक जा पहुंचा । लूसी उसके पीछे आते-आते कहीं ग़ायब हो गयी थी । वह अकेला खड़ा इधर-उधर ताक रहा था कि तभी महेन्द्र सिंह की कार तरन्नुम के ठीये से निकल कर आयी । 

महेन्द्र की निगाह के दायरे में नौबत के आते ही उसने कार के ब्रेक लगाये । नौबत की दृष्टि उससे मिली । महेन्द्र ने चारों तरफ़ सतर्कता से निरखा- आदमज़ात क्या, कोई पशु भी कहीं न था । उसने नौबत को इशारा किया कि ‘आजा’ और बाईं ओर का दरवाज़ा खोल दिया । नौबत उसके साथ पहले भी कार में घूम चुका था । उसे कुछ अटपटा नहीं लगा । वह कार के खुले पट के समीप आकर अपनी भाषा में पूछने लगा- ‘लूसी किधर गयी?’ महेन्द्र ने भी संकेतों में उत्तर दिया- ‘आ जायेगी । तू अंदर आकर बैठ जा ।’

नौबत सामने की सीट पर बैठ गया । महेन्द्र ने दरवाज़ा बन्द कर कार शुरू कर दी । तभी लूसी कहीं से प्रकट होकर आयी और भौंकने लगी । अर्थात् नौबत को यह पता न चला । 

महेन्द्र ने नौबत को बैठा तो लिया लेकिन इसके बाद की कोई योजना पहले से तय नहीं थी । नौबत को वह अपने निवास पर लेकर जा नहीं सकता था । तरह-तरह के प्रश्न होते और उसका प्लान गड़बड़ा सकता था । वह सीधे अपने खेत की ओर जा निकला । वहां जाकर चौकीदार से उसने कहा, ‘तुकाराम, यह अपना ही बच्चा है । कुछ दिन तेरे घर पर रहेगा । इसका ख़याल रखना । बोल-सुन नहीं पाता बेचारा!’

तुकाराम सरल व्यक्ति था । उसने अपने मालिक की आज्ञा का पालन करना ही था । हाथ जोड़कर बोला, ‘होय साहेब (जी साब) ।’ 

महेन्द्र ने उसे आश्वस्त किया- ‘इसका सारा ख़र्च हम देते रहेंगे । यह लो दो सौ रुपए । कोई शिकायत न रहे ।’

तुकाराम ने सर हिलाकर यह ज़िम्मेदारी स्वीकार ली ।

रहा सवाल नौबत का- वह मूक-बधिर फ़ुटबाल-सा था । जिधर किक मारो, उधर उछलने को मजबूर । तुकाराम ने उसका हाथ पकड़ा तो वह पलटकर महेन्द्र को देखने लगा । महेन्द्र ने उसके बालों को सहलाकर उसके गाल पर चुंबन अंकित करते हुए कहा, ‘जा, इसके साथ । डर मत । यह तेरा ध्यान रखेगा ।’

नौबत को उसके कथन का अर्थ समझ तो गया लेकिन उसे तरन्नुम के कोठे से क्यों लाया गया और आगे क्या होगा... वह नितांत अनभिज्ञ था किन्तु वह परवश कर भी क्या सकता था... उसका तो भूत, वर्तमान एवं भविष्य अनिश्चित-सा किन्हीं और उंगलियों में धरी क़लम से लिखा जा रहा था ।

उसे सुरक्षित स्थान पर छोड़ आने से संतृप्त महेन्द्र ने मुड़ते ही फ़ोन लगाया ।

‘हैलो... मैं महेन्द्र बोल रहा हूं अशफ़ाक़ ।’

‘अरे! महेन्द्र जी, कहिए क्या ख़िदमत कर सकता हूं ।’

‘कुछ ख़ास नहीं । एक गूंगा-बहरा नौ-दस साल का लड़का है मेरे पास । कितना मिल जायेगा?’

‘आप बताइए ।’

‘नहीं भाई, तुम्हारे काम का है । तुम्हीं बताओ ।’

‘महेन्द्र भाई, इन दिनों धंधा मंदा चल रहा है । फिर लूले-लंगड़े का ज़्यादा मिलता है । वह दिखाई देता है । गूंगे-बहरे का जल्द पता नहीं चलता कि वो अपाहिज़ है...’

‘वह सब ठीक है मगर गूंगे-बहरे का जोखिम भी कम होता है । दूसरे, वह जब ‘ऐं... आंे... जैसे स्वर निकालेगा तो किसीको भी उस पर रहम आ सकता है ।’

‘तब भी...’

‘अशफ़ाक़, वह कानों को हाथ से स्पर्श कर यह भी बता देगा कि वह बहरा भी है । इसका लोगों पर- विशेषतः औरतों पर झट असर होगा ।’

‘अब महेन्द्र जी, आप इतना ज़ोर दे रहे हैं तो पच्चीस तक मिल जायेगा ।’

‘नहीं... नहीं... यह तो एक लाख की कौड़ी है- स्साला दिखने में भी सुंदर है ।

‘अच्छा! चलिए मैं बात करके बताता हूं । लेकिन पचीस-तीस से ऊपर आप उम्मीद मत रखो ।’

‘ओके । तुम कल तक मुझे फ़ोन से पक्का जवाब दो ।’

‘बिलकुल सर । कल तक पक्का हो जायेगा ।’

***

तुकाराम का घर छोटा था परन्तु ईंटों से बना हुआ । यह केलों का मल्ला (बाग़) था । तुकाराम की रिहाइश को लगकर दो कमरों का एक कॉटेज था- मालिक के ऐश के लिए । तुकाराम की उम्र होगी चालीसेक साल । उसके परिवार में पत्नी सरस्वती और एक बेटी थी । 

तुकाराम की पत्नी और बेटी नौबत के आगमन से उत्साहित थीं । तुकाराम ने नौबत की प्राकृतिक कमी से उन्हें अवगत करा दिया । उसकी बेटी का नाम था अहिल्या । वे लोग उसे हिला संबोधित करते । उसका वय था पन्द्रह वर्ष । वह नगरपालिका स्कूल में नौवीं में पढ़ रही थी । उसे नौबत के प्रति अपने छोटे भाई-सा प्रेम उमड़ा । उसने उसका नाम रखा- बेटू । नौबत को यह नया माहौल अपने अनुकूल लग रहा था । हिला उसे अपनी ताई-सी, तुकाराम बाबा-सा तथा सरस्वती अपनी आई-सी लगी ।

अपने पुराने दिनों की यादें नौबत के लिए ताज़ा हो गयीं । खाना, रहन-सहन, कौटुंबिक समानता उसे रास आ
गयी । सबसे प्रमुख यह कि यहां कोई आने-जाने वाले, मतलब उस नीयत के, कहीं नहीं थे । एकदम अलसना-सा वातावरण । 

वैसे दूर तक किसीका बसेरा नहीं था, चूंकि यह मल्ला नगर के बाहर-बाहर ही था । हां, लूसी जैसा एक कुत्ता भी था यहां- वहां के ज़बर कुत्ते का स्मरण कराता किन्तु यह- गब्बू -निपट शांत स्वभाव का था । केवल फ़ार्म के भीतर ग़लत इरादे से घुसपैठ करते इनसानों-जानवरों का कट्टर दुश्मन । अपने नौबू की उससे भी दोस्ती हो गयी ।

नौबू, पाशा उर्फ़ बेटू ख़ुश था । उसकी मानसिक प्रताड़ना यहां विरल होती जा रही थी । वहां अमीरी का ढकोसला था, यहां निर्धनता की सच्चाई । वहां बेईमानी थी, यहां ईमानदारी । वहां जिस्म-फ़रोशी थी, यहां दिल-फ़रोशी; वहां दाम के बदले, यहां मुफ़्त । उसे इतनी अक्ल नहीं थी कि दोनों पहलुओं की दार्शनिक व्याख्या कर सके लेकिन उसके निष्पाप मन को यहां वैसा ही सुकून मिल रहा था, जैसा उसके परिजनों के मध्य । यह बात और कि वह अनजान था कि वह यहां क्यों लाया गया और किस उद्देश्य से... 

उधर तरन्नुम का हाल बेहाल था । काफ़ी वक़्त तक तो वे यही सोचते रहे कि हस्ब-मामूल नौबू बाहर खेल रहा होगा । हालांकि लूसी बारहा अंदर आकर कभी भौंककर कभी रोती हुई-सी आवाज़ निकालकर उनको वस्तुस्थिति की जानकारी देने का प्रयत्न करती रही थी । वे उसे चुप कराके बाहर भगा दे रहे थे । 

लूसी इससे पूर्व चक्कर लगाते समय महेन्द्र की कार में बहुधा नौबू के साथ ही होती । इस मर्तबा उसे छोड़कर वे चले गये थे । यह स्वाभाविक भी हो सकता था लेकिन लूसी को यह आशंका व्याप गयी थी, जो बेबुनियाद भी नहीं थी कि नौबू किसी संकट में फंस गया है ।

इसका स्पष्टीकरण देना कठिन है पर कहते हैं कि भूकम्प या सुनामी जैसी नैसर्गिक आपदा की अग्रिम सूचना जैसी कुछ अनुभूति इनको होती है और ये उद्वेलित हो जाते हैं । सांप को धरती (जो उसका श्रवण माध्यम है) के कंपन का अहसास होने लगता है अथवा पंछियों को समय से पहले आगत् विपत्ति सतर्क कर देती है । उदाहरण के लिए शेर-बाघ के पहुंचने के पेश्तर वन में पशु-पक्षी सावधान हो जाते हैं । चींटियों के कारण वर्षा के आगमन, चूहों के बिल में बिला जाने के चलते भावी आपत्ति की संभावना या कौवों की कांव-कांव मतलब मेहमान के आने का संकेत यह सब हम बचपन से सुनते आते हैं । कहीं तो कुछ इन बेज़ुबानों की हरकतों के पश्च में हक़ीक़त छिपी होती ही है ।

तथापि लूसी की आगाही का कोई संज्ञान नहीं लिया गया । वह तो भोजन के लिए नौबत यानी पाशा को बुलाने फ़रीदा बाहर आयी । उसे वह कहीं नहीं दीखा । पुकारने का कोई औचित्य नहीं था । उसने आसपास तलाशा फिर अपनी अम्मी से जाकर रुंधे कंठ से वह बोली, ‘अम्मी, पाशा नहीं मिल रहा...’

‘क्या! थोड़ी देर पहले बाहर खेल तो रहा था...’ तरन्नुम फ़िक्रमंद हुई ।

दोनों आंगन में आये । इससे-उससे पूछते हुए गली के आख़िरी छोर तक ढूंढते चले गये । वह वहां होता तो न उनको मिलता । लूसी लगातार भौंक-भौंककर उन्हें सत्य बताने का प्रयास करती रही थी, जो उनकी समझ में आना मुश्किल था ।

जब उसका कोई सुराग़ नहीं मिला तो लौटकर तरन्नुम ड्योढ़ी पर अपनी हथेली कपाल से टिकाकर आंखें मूंदकर उकड़ूं बैठ बुदबुदाने लगीं- ‘पाशा । मेरे पाशा  । कहां चला गया तू...’

फ़रीदा ने उन्हें सांत्वना दी- ‘आ जायेगा अम्मी, यहीं कहीं होगा ।’

वास्तविकता यह थी कि फ़रीदा भी निराश हो चुकी थी ।

दोनों शाम तक बेचैनी से उसकी प्रतीक्षा करते रहे । तब तक वे इसे दुर्भाग्य मानने को विवश हो गये थे । उनके अश्रु भरे नैन इसके गवाह थे । रात उतर आयी, जब कोई आशा नहीं रही तब तरन्नुम ने आंखें पोंछते हुए अपने-आपको दिलासा दिया- ‘मुझे यक़ीन है, वह पौ फटने के साथ सूरज की मानिन्द एकाएक आकर हमको चौंका
देगा ।’ 

फ़रीदा अधिक वस्तुनिष्ठ थी, बोली, ‘अम्मी, उसे भूल जाओ । आफ़ताब की तरह सवेरे आया, शाम होते ही मग़रिब में डूब गया...’

वे सोच भी नहीं सकते थे कि यह सब महेन्द्र का किया-धरा है । तरन्नुम ने उससे मोबाइल पर संपर्क किया- ‘ठाकुर साहब, हमारा पाशा दोपहर से नहीं मिल रहा । आप उसी समय यहां से गये थे, कहीं दिखाई तो नहीं दिया...?’

महेन्द्र का सोचा-समझा जवाब था- आश्चर्य भरा- ‘क्या कह रही हो तनू, पाशा नहीं मिल रहा... ज़रूर वहीं कहीं होगा... ढूंढो...’

‘हम उसे दर-दर तलाश चुके हैं ।’ तरन्नुम रुआंसी हो आयीं ।

‘चलो, मैं कल आता हूं । साथ में खोजेंगे । नहीं तो पुलिस में एफ़आईआर दर्ज़ करा देंगे ।’

‘नहीं...नहीं... पुलिस में नहीं... वहां क्या लिखायेंगे...?’

‘सच है । हम ये तो कह नहीं सकते कि वो हमारा... बेटा... था । जाने दो । मैं आता हूं, फिर देखेंगे ।’ महेन्द्र ने बेशर्मी से बातचीत का समापन किया ।

तरन्नुम का वह कोई नहीं था पर सब कुछ हो गया था । इतने अल्प समय में उन्हें उससे बेतरह लगाव हो गया
था । वह रात भर उसकी याद में करवटें बदलती रहीं । अंततः उन्होंने अपने मन को झूठा बहलावा दिया कि उसकी निकटता संभवतः इतनी ही अवधि की थी । 

दूसरी तरफ़ नौबू भी सो नहीं पा रहा था । क्या करता, इतनी-सी जान और इतनी आफ़तें! । चाहे जैसी हों, उसे एक नई मां मिल गयी थीं । बहन भी वैसे सिमता-सी ही उस पर न्योछावर थी । अभी मिले लोग बेहतर थे पर वे भी दिल के बुरे नहीं थे । उनका अपवाद-स्वरूप व्यवसाय घटा दिया जाये तो शेष रक़म बेहद क़ीमती थी । ख़ैर! नौबत से पाशा, पाशा से बेटू के इस सफ़र में उसे जो भी हासिल हो रहा था, उसी में समाधान पा लेना था । 

इस नई जगह पर उसे खाने में दाल-रोटी, प्याज़ व मिर्च मिल रहे थे । यदा-कदा सब्ज़ी अथवा बेसन । हरी मिर्च वह चबा-चबा कर खा जाता था । मुट्ठी बांधकर अपनी हथेली से छोटा प्याज़ फोड़ लेता । पहली बार उसने केले के फूल की तरकारी भी चखी । गुड़ की चाय उसे स्मृति के बियाबान में पहुंचा देती । वह जीता चला जा रहा था, जो भी प्रारब्ध उसे बख़्श रहा था । कहीं अफ़सोस भी था कि भाई की मार से उसने इतना ज़्यादा क्रोधित नहीं होना था कि घर-बार त्याग कर यूं दिशाहीन भटकाव के मार्ग पर बैरागी-सा निकल आता । 

हिला पसोपेश में थी कि यह बेटू कहां से और क्यों यहां लाया गया है । उसने तुकाराम से जानना चाहा- ‘बाबा, यह है कौन और हमारे साथ क्यों रह रहा है?’

तुकाराम स्वयं प्रश्नाकुल था । सरस्वती भी उसे सवालिया दृष्टि से ताक रही थी । उसने टालने की ग़रज़ से उत्तर दिया- ‘पता नहीं हिला, बड़े लोगों की बड़ी बातें होती हैं । हम ग़रीब क्या जाने कि उनके मन में क्या है ! ’

हिला को अपनी उलझन का हल नहीं मिला तो उसने संदेह जताया- ‘कहीं यह चुराया हुआ बच्चा तो नही... मुझे तो ऐसा ही लगता है ।’

सरस्वती ने उसका समर्थन किया- ‘हिला का अनुमान मुझे सही लग रहा है ।’

तुकाराम का विचार भी इससे जुदा नहीं था । वह महेन्द्र द्वारा गाहे-बगाहे कॉटेज में किसी युवती को लाने पर उनकी खाने-पीने की व्यवस्था करता रहा था । वह उसके चाल-चलन से पहले ही परिचित था । ऐसे में हिला के कथन से उसकी सहमति स्वाभाविक थी । 

‘हो सकता है ।’ -अधिक स्पष्ट करना उसे योग्य नहीं लगा ।

हिला की बहुत दिनों से अनकही अंदरूनी नाराज़गी इन शब्दों में अंततोगत्वा प्रकट हो गयी- ‘बाबा, 

ये मालिक कोई अच्छे चरित्र का नहीं है ।’ वह भी उसे लड़कियों संग कॉटेज में रातें गुज़ारते देख चुकी थी । वह अब इतनी बच्ची भी नहीं थी कि इस रहस्य को अनदेखा कर दे- ‘उनकी मेरी ओर टकटकी लगाकर टटोलती दृष्टि को मैं सहन करती रही हूं पर अब नहीं...’ उसने दृढ़ता के साथ अपने पिता को ज्यों चेतावनी दी- ‘बाबा, आप यह नौकरी छोड़ दो । वह कोई ग़लत क़दम उठाये, उससे पहले...’

सरस्वती ने एक औरत होने के नाते उसके लगाये आरोप की भीषणता की अर्थवत्ता को तुरंत अपनी सम्मति दी- ‘हिला की बात में दम है । आप कल से ही कहीं और रखवाली का काम ढूंढना शुरू कर दो । हमको यहां नहीं रहना है ।’ जैसे उसने इस निश्चय पर मुहर लगा दी ।

‘तुम ठीक कह रही हो ।’ फिर तुकाराम ने विद्यमान् कटु सत्य से उन्हें रूबरू कराना चाहा- ‘जब तक बेटू का फ़ैसला नहीं हो जाता, उसको सम्भालने की हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है ।’

इस निष्कर्ष पर सभी ने हामी भर ली । बेटू अपना-सा हो गया है पर उसे लेकर वे कहीं भाग तो नहीं सकते । ऐसे साहस का उनमें माद्दा है नहीं । उसे महेन्द्र एक रोज़ ले ही जायेगा । उसके जाते ही वे अपने निर्णय को अविलंब अमल में ले आयेंगे, विवशता में यही तय हुआ ।

शायद बेटू का सामीप्य उनके नसीब में कुछ दीर्घ नियोजित था । महेन्द्र का सौदा अशफ़ाक़ के साथ पट नहीं पाया।

इतना दीर्घ भी नहीं था वह अंतराल । प्यार में छोटी लकीर के ऊपर बड़ी लकीर खींची जाये तो भी वह छोटी ही लगती है । हिला की चाह थी कि वह विग्रह की दहलीज़ लांघने से पूर्व ऐसा कुछ करे कि बेटू कहीं क्षितिज के पार भी ले जाया जाये तो उसकी पहचान बनी रहे । निराशा के बरक्स यही आशा कि कोई सद्गृहस्थ उसके संपर्क में आ जाये तो उसे सुखरूप (सही-सलामत) यहां छोड़ जाये ।

जब बेटू उनके यहां आया था तो उसने महंगे-से वस्त्र धारण किये हुए थे, वही जो तरन्नुम द्वारा ख़रीदे गये थे । उसके नाप के कपड़े उनके पास थे नहीं । बदलने के लिए यही उपाय था कि उसे नहाने के बाद पंचा लपेट दें और वे ही कपड़े धोकर सुखाने के पश्चात उसे पहना दें । फिर तुकाराम ठेले वाले से सस्ता-सा एक ड्रेस उसके लिए लेकर आ गया । अब बेटू आज इसे तो कल उसे पहनता ।

हिला ने दिमाग़ लगाया कि इसके इन पोशाकों के भीतरी हिस्से में उसका नाम- जो यहां बेटू ही था- और अपना पता सिल दिया जाये तो भविष्य में उसके काम आ सकता है । वह मूक-बधिर तो अपना स्वयं का परिचय भी नहीं जानता । हिला सिलाई, बुनाई, क्रोशिया आदि के क्लास में जाती थी । उसने कपड़े के एक छोटे-से टुकड़े पर संक्षेप में बेटू का वर्तमान अता-पता टांककर उसे उसके पैंटों की कमर के अंदरूनी भाग में सी दिया । उसने इशारों में बेटू को इसकी अहमियत समझा भी दी ।

***

शैतान के घर अंधेर है पर देर नहीं । जिसके इंतज़ार से भयभीत थे तुकाराम के परिजन, वह आपात् दिवस अंततः आ ही गया । महेन्द्र सिंह की कार बाग़ पर आकर रुकी । उसके साथ एक और शख़्स था- घनी दाढ़ी-मूंछ लेकिन सर मुंडा हुआ । पेशानी पर एक निशान भी था । वह बिलकुल फ़िल्मी गुंडा लग रहा था । नहीं, नहीं, वह मेकअप में नहीं था, वह रौद्र रूप उसका मौलिक था । हो सकता है फ़िल्मों के खलनायकों से प्रेरित हो उसने ख़ुद को यूं गढ़ लिया हो ।

वह तो भला हुआ कि वे शाम के पांच बजे वहां अवतरित हुए, जब हिला स्कूल से लौटी नहीं थी । अन्यथा उसका रो-रोकर बुरा हाल हो जाता । वह बेटू से बिछोह सह नहीं पाती । अलावा इसके उसकी बेटू को रोकने की कोशिश उसके स्वयं के लिए भी आत्मघाती हो सकती थी । महेन्द्र और उसके टकलू साथी जैसे हैवानों का कोई भरोसा नहीं कि वे नीचता की पराकाष्ठा पर कब जा पहुंचे... 

तुकाराम हॉर्न सुनकर बाहर आया और उसने गेट खोला । महेन्द्र अकेला कार से उतरा । नौबू ने ज्यों ही महेन्द्र को देखा, अनायास उसके होंठों पर मुस्कान तैर गयी । उस भोले बालक को क्या पता कि उसे किस खाई में धकेलने महेन्द्र आया है । उसको तो जैसे अपना खोया हुआ दोस्त मिल गया हो, उसकी नादान मुस्कराहट यही दर्शा रही थी । वह महेन्द्र से आकर लिपट गया । एक पल के लिए महेन्द्र दुविधा में दिखा । फ़ौरन उसने भावुकता का चोला नोच फेंका और व्यावहारिकता का लबादा ओढ़ लिया । 

उसने तुकाराम को सम्बोधित किया- ‘तुका, मैं इसे ले जाने आया हूं ।’ उसे स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता नहीं थी पर क्षणांश पूर्व उपजी सदाशयता की किरचें बची रह गयी थीं शायद- ‘जिसकी अमानत थी, उसे लौटानी है ।’

सरस्वती ने अंदर से तुकाराम को पुकारा- ‘अहो, ऐकता का...’(‘अजी, सुनते हो...’)

तुकाराम को उसने एक थैली दी, जिसमें बेटू का अतिरिक्त ड्रेस था । तुकाराम ने वह बेटू को पकड़ायी तो वह असमंजस में उसे देखने लगा । तुरंत महेन्द्र ने नौबू को गोद में उठा कर उससे लाड़ लड़ाया । नौबू को सुखद
लगा । महेन्द्र बोला, ‘चल । यहां का तेरा वनवास समाप्त हुआ ।’ उसे उतार कर महेन्द्र उसकी कलाई पकड़ने को
हुआ । 

तब तक नौबू की छठी इन्द्रीय जागृत हो चुकी थी । वह दौड़कर भीतर गया और सरस्वती की टांगों से चिपट कर संकेतों में बताने लगा- ‘मुझे नहीं जाना है । तुम कह दो उनसे ।’ उसकी आंखों में आंसू आ गये । तुकाराम ने बड़ी मुश्किल से उसे बांहों में उठाया और महेन्द्र को सौंप दिया । नौबू हाथ-पैर झटक-झटक कर छूटने का प्रयत्न कर रहा था । उसके बाल-मन को अब भी आस बंधी हुई थी कि अचानक हिला कहीं से आ जायेगी और उसे रोक लेगी ।

मराठी में कहावत है- ‘बळी तो कान पीळी ।’ अर्थात् जिसकी लाठी उसकी भैंस । यहां तो भैंस जैसा शक्तिशाली पशु नहीं, एक अबोध बच्चा था । महेन्द्र ने उसके हाथ-पैर समेटे और ‘अरे पाशा । अरे पाशा...’ कहते हुए उसे कार की पिछली सीट पर बैठा दिया । जेब से निकालकर दो-तीन चाकलेट भी उसे दीं । वह अजीब-से स्वर में अपनी असहमति प्रकट कर रहा था । 

महेन्द्र ने उसे हथेली घुमाकर समझाना चाहा कि हम जहां से आये थे, वहीं वापिस जा रहे हैं । नौबू थोड़ा शांत हुआ कि वह दोबारा तरन्नुम के घर ले जाया जा रहा है । निमिष मात्र के लिए । फिर वह खिड़की के बाहर सर निकालकर तुकाराम और सरस्वती को अपलक ताकने लगा । बेबस तुकाराम और सरस्वती ने हल्के-से उंगलियां हिलाकर उसे विदाई देनी चाही । नौबू भीगी आंखों से पहले तो उन्हें निहारता रहा, तत्पश्चात उसने भी अपने मुर्दा हाथ को धीरे से जुंबिश दी ।

महेन्द्र के संग आया दढ़ियल और कोई नहीं, अशफ़ाक़ ही था । उसने जब महेन्द्र को पुष्टि कर दी थी कि पचीस से ज़्यादा नहीं मिलेगा, महेन्द्र ने साफ़ नकार दिया था । समय बीत रहा था, इस जोखिम को और अधिक छुपाये रखने का निहितार्थ वह जानता था । उसे अन्य कोई ग्राहक नहीं मिल रहा था । मजबूरन उसने अशफ़ाक़ को राज़ी कर लिया था कि कम से कम तीस तो दे यार... वह भी मान गया तो अशफ़ाक़ को उसने भुसावल बुला लिया ।

बजाए तरन्नुम की गली में जाने के कार रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ी । क़रीब डेढ़ घण्टे बाद ही दिल्ली की ट्रेन थी, जिसमें अशफ़ाक़ ने दो टिकट आरक्षित कर रखे थे । 

उन लोगों को कार से ट्रेन तक नौबत को ले जाने की परेशानी का पहले से ही अंदाज़ा था । बोल-सुन नहीं सकता पर अपने शरीर की हलचल एवं अस्पष्ट चीखों से वह औरों का ध्यान आकृष्ट कर सकता था । उन्होंने उसे रास्ते में ही खाने के लिए पीज़ा और साथ में कोल्ड ड्रिंक दिया । कहना न होगा कि उसमें बेहोशी की दवा मिला दी गयी थी । 

वह सो गया तो कार एक तरफ़ पार्क कर उन दोनों ने भी कोल्ड ड्रिंक का मज़ा लिया । निस्संदेह शराब मिलाकर । तत्पश्चात धूर्त अशफ़ाक़ ने बैग से चादर और विग निकाली । नौबू को चादर उढ़ाकर उसने विग पहन ली । अब भी वह एकदम सज्जन तो नहीं लेकिन पहले से सभ्य बेशक दिख रहा था ।

उन्हें कोई झंझट पेश नहीं आया । ट्रेन के एसी डिब्बे में अशफ़ाक़ ने उस अचेतन को बर्थ पर सुला दिया । एक-दो सहयात्रियों ने पूछताछ भी की । अशफ़ाक़ ने निहायत शरीफ़ बनकर कहा, ‘बेटे की तबीयत ख़राब है । दिल्ली ले जा रहा हूं एम्स में दिखाने । शायद भरती करना पड़ेगा ।’

एक बार नौबू कुनमुनाया तो उसके सर को सहारा देकर उसने पानी की बोतल से उसे पानी पिलाया । दिल्ली बहुत दूर थी, सतर्कता के तौर पर उसने उसमें भी बेहोशी की दवा मिला रखी थी । अब वह बेफ़िक्र था । वह भी पैर पसार कर उंघने लगा ।

***

(सामयिक प्रकाशन से अशोक गुजराती के शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ‘चहकार’ का एक अंश)

ठाणे, महाराष्ट्र, मो. 9971744164

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