Sahitya Nandini June 2023


समीक्षा 


समी. शिवांगी, मुंबई, फोन नं. 022-25252862, Email : nanu79@gmail.com

ले. डॉ. रमाकांत शर्मा

मैंने तुम्हें माफ किया

लेखक : डॉ. रमाकांत शर्मा

प्रकाशक : अद्विक पब्लिकेशन, दिल्ली – 110092

मानवीय मूल्यों की सशक्त अभिव्यक्ति – “मैंने तुम्हें माफ किया”

डॉ. रमाकांत शर्मा ने अब तक नब्बे के आसपास कहानियाँ लिखी हैं । समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी कहानियों के सात संग्रह सामने आ चुके हैं और उन्हें पाठकों का अच्छा प्रतिसाद भी मिला है । ‘मैंने तुम्हें माफ़ किया’ उनका सातवाँ कहानी संग्रह है जिसमें उनकी चौदह कहानियों का आनंद लिया जा सकता है । विशेष बात यह है कि हर कहानी बिना प्रवचन दिए कोई ना कोई ऐसा संदेश देती है, जिसमें मानवीय मूल्य निहित हैं । 

सरल भाषा और रोचक शैली में लिखी गई डॉ. रमाकांत शर्मा की कहानियों की विशेषता उनकी पठनीयता है जो पाठक को शुरू से अंत तक बांधे रखती है । उन्होंने इतनी सारी कहानियां लिखी हैं, पर कहीं दोहराव नजर नहीं 

आता । उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता उन्हें विश्व प्रसिद्ध कहानीकार ओ’हेनरी के समकक्ष ला खड़ा करती है और वह है, लगभग हर कहानी का चौंकाने वाला अंत । 

संकलन की पहली कहानी “मैंने तुम्हें माफ किया” पिता के जीवनकाल में बनी गलतफहमी और उनकी मौत के बाद उसके निवारण की अद्भुत कहानी है । पिता की आत्मा अपने पुत्र के शोक के नाटक को देखकर अचंभित है । जिंदा रहते पिता को हमेशा इस बात की शिकायत रही कि बेटा उसका इलाज नहीं करवाना 

चाहता । अब उनकी आत्मा पुत्र के इस नाटक को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी कि तभी जब पिता के दोस्त के सामने पुत्र सच का बयान करता है, तो मृतक की आत्मा स्तब्ध रह जाती है और कह उठती है, “उफ, क्या सोच रहा था मैं । काश मुझे यह सच पता होता । आखिर, उनके न किए गए अपराध के लिए उन्हें माफ करने का अपराध तो ना हुआ होता मुझसे । अगर मैं आत्मा न होता तो शायद मैं भी फूट-फूट कर रो रहा होता । बेटे, अनजाने में यह अपराध मुझसे हुआ है, बस इतना कह दो, जाओ मैंने आपको माफ किया, तभी मेरी आत्मा शांति से आगे का सफर तय कर पाएगी ।"

संकलन की दूसरी कहानी ‘भैरवी’ पढ़ते समय लगता है कि यह रोमांस और अधूरे प्रेम की कहानी है, पर जैसे-जैसे कहानी अंत की ओर बढ़ती है, यह अंधविश्वास और माँ की अतुलनीय ममता का बेमिसाल दस्तावेज बनती जाती 

है । संकलन की अगली कहानी ‘चुप रहो तुम’ मानव मन का बारीकी से विश्लेषण करती है । कहानी की आत्मा इन शब्दों में प्रकट होती है, “चुप रहो तुम”, ये साधारण शब्द नहीं हैं । ये मुंह पर लगा दिया गया तिहरा टेप है, जो मुंह से निकलते शब्दों पर रोक लगाता है, बोलने का अधिकार छीनता है, भावनाओं का कत्ल करता है, विचारों का गला घोंटता है और अंदर ही अंदर ऐसी छटपटाहट भर देता है, जिससे असह्य घुटन पनपती है और मनोमस्तिष्क पर पाला सा छा जाता है।“

‘दादी किताब पढ़ने बैठ गयी होगी’ दादी के उस मार्मिक अतीत की कहानी है, जिसे उन्होंने बड़े जतन से अपने सीने में छुपा रखा था । भावावेश में जब वह अपने अतीत के पन्ने अपनी पोती के सामने खोलती है तो वह दादी की संवेदनाओं की छुअन अपने भीतर तक महसूस करने लगती है । यह कहानी जहां दादी के साथ हुए सलूक के प्रति आक्रोश उपजाती है, वहीं उनकी संवेदनाओं के साथ एकाकार होकर द्रवित भी करती है । 

राजा होने का मतलब प्रजा को अपना गुलाम मानना और संवेदनहीन होना नहीं है । कहा जाता है कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है । प्रजा के दु:ख-दर्द को समझना, न्याय करना, रक्षा करना और उसकी सुख-सुविधा का ख्याल रखना उसकी जिम्मेदारी होती है । खुद को शासक और प्रजा को शासित की तरह देखने वाला राजा निर्दयी और कठोर बन जाता है और कभी भी प्रजा का सम्मान हासिल नहीं कर पाता । “राजा साहब” कहानी का राजा प्रजावत्सल है । यह कहानी मनोरंजक तो है ही, आज के तथाकथित राजाओं को अपनी जिम्मेदारियां समझने और जनता के प्रति उचित व्यवहार करने का गूढ़ संदेश भी देती है । 

संकलन की एक अन्य कहानी ‘किसी और मिट्टी की बनी’ एक अनाम और अनजान रिश्ते की बेहतरीन कहानी है । सचमुच कभी-कभी खून के रिश्तों से भी बड़े हो जाते हैं ऐसे रिश्ते जिनकी नींव नि:स्वार्थ प्रेम और ममत्व पर टिकी होती है ।  

बढ़ती उम्र मनुष्य के भीतर शारीरिक कमजोरियों के साथ मानसिक कमजोरियां भी बढ़ाती जाती है और यहां तक कि उसकी दृढ़ मान्यताओं को भी खंडित कर जाती है । कहानी ‘भीतर से कितना कमजोर है आदमी’ इस सत्य को बहुत सलीके से उद्घाटित करती है । यह कहानी जीवन के यथार्थ को तो सामने लाती ही है, वृद्धावस्था में अकेलेपन और उससे उपजे डर का मार्मिक चित्रण भी करती है । 

‘डबडबायी आँखों की मुस्कान’ उस पत्नी की कहानी है जो अपने पति और उसके बड़े भाई के बीच बिगड़े संबंधों को बहाल करने में अपना जी-जान लगा देती है । पर, अपने बड़े भाई से बुरी तरह नाराज पति को मनाने में हर बार असफल रहती है । अन्तत: हठी पति के एक छोटे से कदम में उसे आशा की किरण दिखाई देती है और पति का यह कदम उसकी आंखों में आंसुओं के साथ मुस्कान भी दे जाता है ।  

अनावृष्टि एवं अतिवृष्टि के फलस्वरूप उत्पन्न अकाल के कारण किसानों की आत्महत्या पर आधारित कहानी ‘बित्तेभर की चिड़ियाँ’ किसानों के मर्मांतक दर्द को सामने लाने के साथ-साथ उन्हें आत्महत्या के बजाय जीवन की स्वरलहरियों को सुनने की प्रेरणा देने वाली उत्कृष्ट कहानी है । 

‘मेरे हीरो:काशी भैया’ चरित्र प्रधान कहानी है । सुदर्शन युवक काशीनाथ अपनी खूबसूरती पर भरोसा करके हीरो बनने मुंबई तो पहुंच जाता है, किन्तु वहाँ की गन्दगी उसे रास नहीं आती और वह अपने शहर लौट आता है । लोगों के ताने सुनकर उसकी जिंदगी अजाब हो जाती है । वह अपनी जिंदगी से हताश होने लगता है । लेकिन, उसे खुद भी पता नहीं था कि वह छोटा-मोटा नहीं, बहुत बड़ा हीरो बनने के लिए पैदा हुआ है । 

‘खुशी ढ़ूंढ़ते हुए’ कहानी गाँव में रहने वाले मजदूर परिवार मांगी लाल, उसकी पत्नी शामली और किशोर बेटी फूलमती की कहानी है । फूलमती पर जमींदार की बुरी नजर को लक्ष्य कर यह परिवार रातोंरात गाँव छोडकर शहर आ जाता है । शहर में मांगीलाल को धर्मशाला में चपरासी एवं उसकी पत्नी को साफ़-सफाई का काम मिल जाता है और फूलमती को धर्मशाला के सेठ द्वारा चलाए जाने वाले स्कूल में नि:शुल्क पढ़ाई की सुविधा । वह पढ़-लिखकर खूब कमाना और सारी खुशियां अपने और अपने माता-पिता के दामन में डालने का लक्ष्य लेकर चलती है । वह एयर होस्टेस बन भी जाती है । लेकिन, खुशियां ढूंढ़ने के इस क्रम में वह लक्ष्य पाने के लिए स्वयं को हर खुशी से दूर कर लेती है । इस कहानी में जीवन के इस महत्वपूर्ण पहलू को शिद्दत से उभारा गया है कि किसी एक लक्ष्य को पाने के लिए सिर्फ उसी में डूब जाना सारी खुशियों के झोली में आ जाने की गारंटी नहीं हो सकता । कहानी की ये पंक्तियां बहुत कुछ सोचने-समझने को मजबूर कर देती हैं, “खुशी के पैमाने वक्त के साथ बदलते हैं माइ फ्लावर । मैं मानता हूं कि पास में पैसा हो तो जिंदगी को बेहतर बनाया जा सकता है, पर जिंदगी को सही ढंग से जीना ही उसे खुशनुमा बना सकता है । छोटी-छोटी खुशियां भी बहुत मायने रखती हैं, लेकिन जब हम केवल एक लक्ष्य पर ही अपनी सारी खुशियां टिका देते हैं तो खुद को अकेला कर लेते हैं..... जैसे छोटी-छोटी बूंदों से सागर बनता है, वैसे ही जिंदगी का सागर भी इन छोटी-छोटी खुशियों की बूंदों से आकार लेता है ।“ 

‘ईदी’ कहानी जहां आतंकवाद का पर्दाफाश करती है, वहीं एक मासूम प्रेम कहानी भी है । गंगा-जमुनी तहजीब और एकता का बयान करती यह सकारात्मक सोच की बेहतरीन प्रस्तुति है । इसमें उर्दू शब्दों का प्रयोग बहुतायत से हुआ है, लेकिन इससे कहानी के प्रवाह में कहीं भी बाधा नहीं आई है, बल्कि उसे प्रामाणिकता ही मिली है । इसी संकलन की एक अन्य कहानी ‘मुट्ठी भर इंद्रधनुष’ एकतरफा प्रेम की अनूठी कहानी है । इसे पढ़ते समय पाठक को अपना जमाना याद आए बिना नहीं रहता ।

संकलन की अंतिम कहानी ‘घिरा हुआ वजीर’ प्राइवेट इंटर कॉलेज में फिजिक्स पढ़ाने वाले शिक्षक कृष्णदयाल उपाध्याय की कहानी है । यह कहानी उस शिक्षक की कहानी है जो सारी जिंदगी ईमानदारी पढ़ाता रहा और ईमानदारी जीता रहा । पर, परिस्थितियां उसे इस कदर मजबूर कर देती हैं कि वह अपने अंतर्मन की आवाज के विरुद्ध जाकर कॉलेज के चेयरमैन की गलत बात मानने के लिए बाध्य हो जाता है । कहानी में उपाध्याय जी और उनके शिष्य के बीच का यह वार्तालाप बहुत कुछ कह जाता है, “जब वजीर चारों तरफ से घिर जाता है तो मात निश्चित होती है । पर सर, सिर्फ एक मात से कुशल खिलाड़ी घबरा नहीं जाता, जीतने के लिए वह फिर से सन्नद्ध हो जाता है, फिर से बिसात बिछाता है और सामने वाले के लिए चुनौती बनकर खडा हो जाता है, वह जीतता है सर” । इस संकलन की सभी कहानियां अपने-आप में बेमिसाल हैं । जरूर पढ़ें । —मुंबई, मो. 9833443274


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समीक्षा

श्री हरिशंकर राढ़ी, नई दिल्ली, मो. 09654030701

विविध संदर्भों में आज़मगढ़ : एक सांस्कृतिक परिचय

जहाँ सामान्यतः बोली-बानी के आधार पर किसी उत्तम साहित्यिक कृति को आँचलिक बताकर हाशिये पर रख दिया जाता हो, वहाँ किसी जिले या क्षेत्र विशेष का इतिहास कितना स्वीकार्य होगा, यह सोचने वाली बात है । लोग यह भूल जाते हैं कि जनपदों और बोलियों से ही मिलकर ही राष्ट्र बनता है तथा उसी से राष्ट्रीय इतिहास । यह भी सच है कि भौतिकवाद की दौड़ एवं व्यावसायिक मानसिकता के कारण लोग आज अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं । उन्हें अपने क्षेत्र, प्रदेश या राष्ट्र के इतिहास की जानकारी नहीं है । यह सच है कि अपनी पूर्वज-भूमि, जन्मभूमि एवं कर्मभूमि में लोगों की रुचि कम हुई है, किंतु यह भी सच है कि ऐसे विषयों पर विश्वसनीय एवं रोचक पुस्तकों की संख्या भी बहुत कम है । किसी जनपद विशेष के साहित्यिक - सांस्कृतिक अवदानों पर यदि मन से लिखा जाए तो पुस्तक अपना स्थान बनाएगी, ऐसा विश्वास मुझे जगदीश प्रसाद बरनवाल ‘कुन्द’ जी की सद्यःप्रकाशित पुस्तक ‘विविध संदर्भों में आज़मगढ़’ पढ़ते समय हुआ ।

‘विविध संदर्भों में आज़मगढ़’ वस्तुतः आज़मगढ़ जनपद के साहित्यिक-सांस्कृतिक इतिहास एवं वर्तमान की एक गहन पड़ताल है । आज़मगढ़ से इतर जनपद के निवासियों की तो बात ही छोड़ दें, आज़मगढ़ के विद्वानों को भी अपने जिले के विषय में इतनी गहन जानकारी नहीं होगी । जब वे इस पुस्तक से गुजरेंगे तो ‘कुन्द’ जी की इस प्रस्तुति पर उन्हें हैरानी भी होगी और गर्व भी । आज़मगढ़ पर पहले भी कई पुस्तकें आई हैं, जिनमें प्रताप गोपेंद्र की ‘इतिहास के आईने में आज़मगढ़’ एक महत्त्वपूर्ण शोधपरक ग्रंथ है । समीक्ष्य पुस्तक में दिए गए संदर्भों को देखें तो लगता है कि पहले भी कुछ लोगों ने आज़मगढ़ के इतिहास को बड़े पटल पर लाने की कोशिश की है, किंतु ‘कुन्द’ जी की यह पुस्तक इतिहास से इतर वहाँ के साहित्य एवं संस्कृति को बहुत ढंग से प्रदर्शित किया है ।

पुस्तक का प्रारंभ एक बेहद आत्मीय भूमिका के बाद आज़मगढ़ के इतिहास से ही होता है । लेकिन ‘कुन्द’ जी आज़मगढ़ के प्रशासनिक इतिहास को मात्र चार पृष्ठों में ही समाप्त कर देते हैं । इससे यह स्पष्ट होता है कि आज़मगढ़ का इतिहास लेखन उनकी प्राथमिकता में नहीं है । वे इंगित भी करते हैं कि इसके लिए दूसरी पुस्तकें उपलब्ध हैं । साहित्य एवं  संस्कृति से गहरा लगाव होने के कारण वे यथाशीघ्र अपने उद्देश्य पर पहुँचना चाहते हैं । इसलिए स्वतंत्रता आंदोलन में आज़मगढ़ की भूमिका की चर्चा विस्तार में न करके प्रमुख आंदोलनकारियों एवं घटनाओं के जिक्र के साथ चार पृष्ठों में समाप्त कर देते हैं । हालाँकि, ये दोनों अध्याय छोटे होते हुए भी बहुत कुछ बता जाते हैं ।

तीसरे अध्याय ‘हिंदी का लहलहाता साहित्योपवन : आज़मगढ़’ में वे मनोवांछित विषय पर आ जाते हैं । यहीं से उनकी शोधवृत्ति शुरू हो जाती है । वर्तमान आज़मगढ़ की स्थापना आज़मशाह ने सन् 1665 में की । आज़मशाह के छोटे भाई अज़मत शाह ने 1677 में सत्ता संभाली । ‘कुन्द’ जी आज़मगढ़ की साहित्यिक यात्रा का आख्यान अज़मत शाह के समय से करते हैं । अज़मत शाह के मंत्री पं. बलदेव मिश्र अच्छे कवि थे । वह समय दोहे, सवैया, घनाक्षरी एवं अन्य छांदिक कविताओं का था, जिसमें परिचय एवं वर्णन आवश्यक तत्त्व थे । पं॰ बलदेव मिश्र के दोहे और घनाक्षरी प्रस्तुत करते हुए वे अपने कथन को पुष्ट करते हैं । राजा आज़मशाह द्वितीय भी अच्छे कवि थे । उनके परिचयात्मक छंदों को भी पुस्तक में दिया गया है । इन दो कवियों के संबंध में जिस प्रकार से प्रमाण देने का प्रयास किया गया है, उससे लगता है कि लेखक ने साक्ष्यों के सागर में गहरी गोताखोरी की है । इस क्रम में देखा जाए तो भीखा साहब यानी भीखानंद चौबे एक बड़े और व्यवस्थित कवि थे जो जहानागंज में जन्में थे । संवत् 1817 में वे भुड़कुड़ा गद्दी के महंत घोषित हुए और उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की ।

‘मिश्रबंधु विनोद’ के आधार पर लेखक रामनाथ मिश्र, गुरुप्रसाद क्षत्रिय और घनश्याम ब्राह्मण का उल्लेख करता है, जो आज़मगढ़ के ही निवासी थे । इनका लेखनकाल सन् 1855 से प्रांरभ होता है और 1909 तक चलता है । उस काल में समस्यापूर्ति बहुत लोकप्रिय हुआ करती थी । अनेक कवियों ने समस्यापूर्ति के बहाने अनेक सुंदर छांदस रचनाएँ दीं । उसी काल के कुछ अन्य कवियों का संक्षिप्त परिचय देते हुए ‘कुन्द’ जी बाबा सुमेर सिंह ‘साहबजादा’ पर आते हैं । इनका जन्म निजामाबाद कस्बे में सन् 1847 में हुआ था । देखा जाए तो ये पहले ऐसे कवि थे, जिनके विषय में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध है । ‘कुन्द’ जी इन्हें बहुत महत्त्व देते हैं । इसके बाद उपाध्याय पं॰ बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ के विषय में बताते हैं । 

चर्चा आज़मगढ़ के साहित्यकारों की चले तो पं॰ अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ एवं महापंडित राहुल सांकृत्यायन को शीर्ष स्थान न मिले, ऐसा हो ही नहीं सकता । वस्तुतः ये दोनों महाविभूतियाँ आज़मगढ़ ही नहीं, समूचे हिंदी साहित्य की शान हैं । पुस्तक में लेखक को बहुत कुछ समेटना है, इसलिए वह लेखकों को उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के परिचय तक ही रखता है । उनके साहित्यिक अवदान के साथ वह उनकी साहित्यिक विशेषताओं, भाषा-शैली आदि की बात नहीं करता । यह सर्वथा तार्किक एवं समीचीन लगता है । यहाँ वह लेखकों को उनकी जन्मतिथि की वरिष्ठता के आधार पर रखता है । साहित्यिक महत्त्व की दृष्टि से वरिष्ठता या श्रेष्ठता का आकलन करना प्रायः न तो संभव होता है और न तार्किक । 

आज़मगढ़ में कुछ अन्य विख्यात साहित्यिक विभूतियाँ पैदा हुई हैं । गुरुभक्त सिंह ‘भक्त’, पं॰ रामचरित उपाध्याय, पं॰ चंद्रबली पांडेय, पं॰ श्यामनारायण पांडेय, डॉ. परमेश्वरी लाल गुप्त, दानबहादुर सिंह ‘सूँड’, डॉ. तुलसी राम आदि पर जितना लिखा जाए, कम ही रहेगा । ‘कुन्द’ जी की प्रशंसा इस बात के लिए करनी पड़ेगी कि आज़मशाह के काल से लेकर आज तक लगभग ढाई सौ हिंदी लेखकों-कवियों के बारे में उन्होंने जानकारी उपलब्ध कराई है । जिन लेखकों ने एक भी पुस्तक लिखी है, शिक्षा या समाजोत्थान के लिए बड़ा काम किया है, उन सब पर यथायोग्य लिखा है । किसी पर दो पृष्ठ तक की सामग्री है, तो किसी पर चार-छह पंक्ति तक ।

‘कुन्द’ जी ने केवल उन लेखकों को नहीं लिया है, जिनका आज़मगढ़ में जन्म हुआ है । मऊ जनपद तो कभी आज़मगढ़ का ही अंश था । लेखक ने उन सभी रचनाकारों को पूरा सम्मान दिया है, जिनका जन्म अविभाजित मऊ जनपद में हुआ 

था । उनका फलक व्यापक एवं समावेशी है । जो लेखक किसी दूसरे जनपद में जन्मे, किंतु आज़मगढ़ को अपनी कर्मभूमि बना लिए, उन्हें भी इस पुस्तक में वैसा ही स्नेह मिला है, जैसे आज़मगढ़ के एक मूल जन्मना लेखक को । ऐसे लेखकों-कवियों में दानबहादुर सिंह ‘सूँड़’, डॉ॰ शिवनारायण लाल श्रीवास्तव, रमाशंकर मिश्र ‘राजन’, सुरेश प्रसाद श्रीवास्तव आदि प्रमुख हैं । इनसे भी आज़मगढ़ का साहित्य समृद्ध हुआ है ।

लगभग ढाई सौ हिंदी लेखकों में जिन्हें प्रमुखता से गिना जा सकता है, वे हैं- अलगू राय शास्त्री, विश्वनाथ लाल शैदा, आचार्य कृष्णमाधव लाल, डॉ. एहतेशाम हुसैन, विद्याधर उपाध्याय ‘मंजु’, पं॰ अमरनाथ तिवारी, डॉ. कुबेर मिश्र, डॉ. कन्हैया सिंह, जामी चिरैयाकोटी, रामप्रकाश शुक्ल ‘निर्मोही’, लालसा लाल तरंग, डॉ. शालीग्राम शुक्ल ‘नीर’, मधुकर अष्ठाना, डॉ. द्विजराम यादव, वीरेंद्र कुमार बरनवाल, प्रभुनाथ सिंह आज़मी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद श्रीवास्तव ‘राही’, डॉ. सुभाष राय (संपादक - जनसंदेश टाइम्स), हरिशंकर राढ़ी, कृष्ण कुमार यादव, डॉ. कन्हैया त्रिपाठी, प्रताप गोपेंद्र यादव आदि । वस्तुतः यह सोचकर हैरानी होती है कि लेखक ने इतने लोगों के बारे में कितना श्रम करके, कितनी लगन से सूचनाएँ एकत्रित की होंगी! अध्याय के अंत में लेखक ऐसे सैकड़ों कवियों-लेखकों के नामों या उनकी पुस्तकों का उल्लेख करता है, जिनके बारे में पर्याप्त सूचना नहीं है । वहाँ खेद भी व्यक्त करता है कि सूचना के अभाव में तमाम लोग छूट गए होंगे ।

आज़मगढ़ उर्दू साहित्य के मामले में भी बहुत समृद्ध रहा है । अल्लामा शिबली नुमानी से शुरू हुआ जिले का उर्दू साहित्य सदैव महत्त्वपूर्ण रहा है । अगले अध्याय ‘उर्दू साहित्य का खूबसूरत बगीचा: आजमगढ़’ में ‘कुन्द’ जी जिले के उर्दू साहित्य के हस्ताक्षरों का जिक्र बड़ी शिद्दत से करते हैं । अल्लामा शिबली जैसा अरबी-फारसी एवं उर्दू का विद्वान आज़मगढ़ की माटी में ही पैदा हुआ । शायरी एवं फिल्म जगत में अलग मुकाम बनाने वाले कैफ़ी आज़मी आज़मगढ़ की धरती से ही निकले । कैफ़ी चिरैयाकोटी, जामी चिरैयाकोटी, सैयद सिब्ते हसन, जैदी, जगदम्बा प्रसाद दुबे जैसे शायर मूलतः आज़मगढ़ के थे तो मजरूह सुल्तानपुरी जैसे शायर का जन्म आज़मगढ़ में ही हुआ था । उर्दू शायरी में इनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता ।

भोजपुरी पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार की लोकभाषा है । इसमें गज़ब की मिठास, लचीलापन, देशज स्वाद, अपनत्व एवं भावबोध है । यह बात अलग है कि भोजपुरी का रूप जिलेवार बदलता जाता है । आज़मगढ़ एवं बनारस में जो भोजपुरी बोली जाती है, वह अवधी एवं भोजपुरी का सम्मिलित रूप है । इसे काशिकी के नाम से जाना जाता है । भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में भोजपुरी कवियों एवं लोकगायकों की बहुलता है । इस पुस्तक के लेखक ‘कुन्द’ जी स्वयं भोजपुरी प्रेमी हैं । इसका प्रभाव इस पुस्तक पर दिखता है । लगभग तीस पृष्ठों के अध्याय ‘आज़मगढ़ जनपद के भोजपुरी रचनाकार’ में उन्होंने वही श्रम एवं प्रेम दिखाया, जो उन्होंने हिंदी साहित्यकारों वाले अध्याय में दिखाया है । राहुल सांकृत्यायन, जो स्वयं भोजपुरी प्रेमी थे और भोजपुरी में अनेक पुस्तकें लिखीं, से लेकर आज तक के कई भोजपुरी कवियों का उल्लेख किया है तथा उनकी रचनाओं से भी रू-ब-रू कराया है ।

रज्जब बिरहिया, उनके ‘सुग्गा सनेस’ नामक प्रेमाख्यान की विशेषताएँ, रज्जाक खाँ, दयाराम और बिसराम के बिरहों के प्रमुख अंश देकर लेखक ने अध्याय को रोचक बना दिया है । आज़मगढ़ में सूर्यबली दुबे एवं द्विज छोटकुन के चौतालों का बहुत चलन है । आज़मगढ़ के अतिरिक्त इनके चौताल कई पड़ोसी जिलों में भी बहुत लोकप्रिय हैं । ‘कुन्द’ जी ने उनका भी उल्लेख किया है, हालाँकि उनपर दी गई जानकारी बहुत संक्षिप्त है । रामप्रकाश शुक्ल ‘निर्मोही’ आज़मगढ़ के प्रमुख हस्ताक्षर रहे हैं । समीक्षक के बचपन में एक मार्मिक गीत बहुत लोकप्रिय था- ‘अँजुरी भरल जइसे पानी, जिनगी क एतनै कहानी।’ तब यह नहीं मालूम था कि यह किसका गीत है । इस पुस्तक से मालूम हुआ कि यह रचना ‘निर्मोही’ जी की है । इसी प्रकार एक अन्य लोकप्रिय निर्गुण रचना -‘रचि रचि कई दा सिंगार मोरी भउजी, कि अइलैं दुअरवाँ कहार’ महातम राय ‘विनोद’ की थी । लगता नहीं कि लेखक किसी भी रचनाकार को ओझल होने देना चाहता ।

इसी के साथ लेखक ने आज़मगढ़ की हिंदी पत्रकारिता पर भी एक अध्याय दिया है, जिसमें 19वीं सदी से आज तक आज़मगढ़ से निकलने वाले पत्रों, विभिन्न पत्रों में काम करने वाले आज़मगढी संपादकों एवं अन्य लेखकों का सिलसिलेवार विशद वर्णन किया है । अगले अध्याय ‘आज़मगढ़ की रंग परंपरा’ में आद्योपांत विवरण दिया गया है कि कब-कब, किसने और कहाँ, कौन-सा नाटक खेला, किस रंगमंच पर अभिनय किया ।

‘जनपद आज़मगढ़ की संगीत परंपरा’ अध्याय तो निश्चित रूप से ही ‘कुन्द’ जी के अप्रतिम अनुशीलन का सुफल है । साहित्य क्षेत्र से जुड़ा व्यक्ति संगीत में इतनी रुचि ले सकता है, एक जिले के एक गाँव के गायकों पर इतना शोध कर सकता है, यह देखना है तो इस पुस्तक के इस अध्याय को जरूर देखना चाहिए । आज़मगढ़ के हरिहर पुर गाँव की संगीत-बेल पूरी दुनिया में इतनी फैली है, इतनी छतनार हुई है कि जो भी कहा जाए कम है । पद्म विभूषण पं॰ छन्नूलाल मिश्र, पं॰ भोलानाथ मिश्र तथा उसी मिश्र वंशावली के लोग दुनिया भर के संगीत संस्थानों में अपनी प्रतिभा के माध्यम से आज़मगढ़ का नाम अमर कर रहे हैं । यदि इस संगीत घराने का संक्षिप्त इतिहास पढ़ना है तो इस पुस्तक की ओर रुख करना ही पड़ेगा ।

पुस्तक के कुछ अंतिम अध्यायों में ‘आज़मगढ़ जनपद के पुस्तकालय’, ‘आज़मगढ़ के पौराणिक, पुरातात्विक, ऐतिहासिक स्थल’ और ‘फिल्म एवं टी.वी. चैनलों में आज़मगढ़ की उपस्थिति’ हैं । इन सभी अध्यायों मंे लेखक ने अपना शोध प्रवृत्ति, भाषा-शैली एवं लगन बनाए रखी है । कहना न होगा कि ये अंतिम अध्याय भी बहुत रोचक, उपयोगी एवं प्रशंसनीय हैं ।

पुस्तक भेंट करते समय इस पर चर्चा में ‘कुन्द’ जी ने मुझसे अफसोस जाहिर किया था कि समयाभाव एवं शारीरिक अशक्तता के कारण इसमें प्रूफ की गलतियाँ बहुत रह गई हैं । पुस्तक से गुजरते हुए मुझे लगा कि बहुत तो नहीं, फिर भी कुछ गंभीर गलतियाँ रह गई हैं, जो पुस्तक के मुखपृष्ठ से ही शुरू हो जाती हैं । क्योंकि लेखक को इन गलतियों का पहले से ही भान है, इसलिए उम्मीद की जाती है कि अगले संस्करण में ये ठीक कर दी जाएँगी ।

इसमें संदेह नहीं कि ‘कुन्द’ जी बेहद गंभीर किस्म के अध्ययनशील व्यक्ति हैं । उम्र के इस पड़ाव पर, व्याधिग्रस्त होने पर भी वे अनुशीलन में लगे रहते हैं । आज भी वे आज़मगढ़ के रचनाकारों के मुख्यालय हैं, संपर्क सूत्र हैं । स्वयं को हमेशा विनम्र रखते हुए साहित्य की किसी भी विधा में लेखन करने वाले, किसी भी उम्र के व्यक्ति को बेहद सम्मान देते हैं । इस पुस्तक की भूमिका में भी यह तथ्य देखा जा सकता है । मुझे तो इस पर भी हर्षजनक हैरानी हुई कि उन्होंने भूमिका में मेरा एवं प्रताप गोपेंद्र जी का आभार व्यक्त किया है । आज़मगढ़ पर लिखित यह पुस्तक हर आज़मगढ़ निवासी को तो पढ़नी ही चाहिए, यदि पड़ोसी जनपदों सहित देश-प्रदेश के अन्य लोग भी पढ़ें तो उन्हें भी अच्छी लगेगी ।

पुस्तक का नाम : विविध संदर्भों में आज़मगढ़ 

(जनपद का साहित्यिक-सांस्कृतिक इतिहास)

लेखक : जगदीश प्रसाद बरनवाल ‘कुन्द’

प्रकाशक : हिंदुस्तानी एकेडमी, 12-डी, कमला नेहरू मार्ग, प्रयागराज., 211001 दूरभाष : 2407625

Email: hindustaniacademyup@gmail.com

पृष्ठ : 272 मूल्य : 275/ (पेपर बैक)


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आलेख

डॉ. रानू मुखर्जी, बड़ौदा, मो. 9825788781, ईमेल : ranumukharji@yahoo.co.in

बंगाल के बाऊल

अपरिमेय तथा अमूल्य भक्ति साहित्य विस्तृत एवं वैविध्यपुर्ण भारतवर्ष के विभिन्न धर्मो तथा संप्रदायो एवं विभिन्न परिस्थितियों के अंतर्गत दीर्घ काल तक लिखा जाता रहा । फलस्वरुप अनेक भाषाओं एवं बोलियों तथा अनेक शैलियों से भक्ति साहित्य का सृजन हुआ ।

ब्रह्मतत्व पर चिंतन करना मानव हृदय की एक अत्यंत उच्च एवं उदात्त वृति है । साथ ही इस आलौकिक सत्ता को स्वीकार करना तत्व विवेचक दृष्टी के लिए एक महान गूढ प्रश्न है । ईश्वर को पहले स्वीकार करना होगा । उसके पश्चात ही उसके सगुण अथवा निर्गुण होने की समस्या सामने आती है । अतः सगुण और निर्गुण दोनो विचार धाराओं के मूल में एक निश्चित तथ्य है और वह है ईश्वर की सत्ता का अन्तर्दर्शन ।

जिस समय किसी परोक्ष शक्ति की सत्ता का निश्चय हो गया होगा उसी समय सत्ता परिवेश का प्रश्न उठा होगा । इसलिए संभवतः ब्रह्म को अगोचर कहा गया है । कबीर का हृदय गूंगा बनकर ब्रह्मानंद के गुड के स्वाद का वर्णन कर सका है । “नश्वर स्वर” से अनश्वर के गीत किस प्रकार गाये जा सकतें है? वस्तुतः ब्रह्मतत्व को विराट सत्ता की अनुभूति में अनेक कठिनाइयां हो सकती है । अतः इस कठिनाई के साथ-साथ इस प्रकृति में अन्तर्व्याप्त और उससे परे “प्रकृति परावर नाथ के संबोधने” में अनेकानेक प्रश्न सदैव ही उठा करते हैं कि उस शक्ति की अनुभुती को शब्दों में प्रकट करना संभव है कि नहीं ।

और यही पर बंगाल के साधना की बात करने की आवश्यक्ता आन पडी है, जिसमें यहां के बाउलों के विषय में बात करना जरूरी बन जाता है । इस विषय पर गहन अध्ययन के पश्चात यह जानने में आया है कि संत मत और बाऊल मत अधिकांशतः एक है । इनकी साधना के लक्षण “सहज” है दोनो का मार्ग “मध्यपंत” है और दोनो ही शास्त्र की भार से मुक्त है । “काया” इनकी साधना के केन्द्र में है उनका पुरा विश्व देह में स्थित है जाती समाज के बंधनो से मुक्त है । अतः हम इनके धर्म को “मानव धर्म” कहते हैं ।

बंगाल के मंगल काव्य के अन्तर्गत नाथ मत, योग मत, तथा धर्म मत की जो बातें आती है ये सभी बाऊल धर्म की मुख्य और महत्व पूर्ण बातें है ।

सदियों से जाति और धर्मवाद से दूर किए गए ये निरक्षर साधकगण शास्त्रभार से मुक्त इन मानव धर्म की साधना करता आया है । ये सब मुक्त मानव थे । इन्होने समाज के सभी बंधनो को अमान्य किया । पर समाज में रहते हैं तो समाज को जवाब तो देना ही है| तब उन्होने बताया कि “हम पागल है” हमें छोड़ दो । पागल की कोई जवाबदारी नहीं होती है । (बाऊल अर्थात वायु ग्रस्त) समाज मान ले कि हम सामाजिक दृष्टी से मर गए है । मृतकों से किसी सामाजिक कर्तव्य की आशा नहीं करनी चाहीए । इस लिए बाऊलों की साधना को “जीवन मुक्त मरजीवा” कहते है ।

धर्म साधना के तीन मुख्य मार्ग है (१) कर्म (२) ज्ञान और (३) प्रेम । कर्म मार्ग में विषेश रूप से बाह्याचरण होता है अतः मार्ग गौण माना जाता है । ज्ञान मार्ग सबसे कठिन है अतः यह कर्म से उच्च स्तर का है । सबसे उच्च स्तर का और अन्तरंग है प्रेम । अतः प्रेम ही साधनों के क्षेत्र का सबसे श्रेष्ठ और मुख्य मार्ग है । प्रेम के आदी और अंत में मानव है । अतः इस प्रेम की साधना में मानव जैसा दूसरा कोई नहीं है । 

अगर सही रूप से देखा जाए तो साधक के अंतर में बसे आदर्श मानस गुरु ही है । यह प्रेम है । यही साधना का मुख्य गुरु है । बाहर के गुरु, साधु, संत इस मार्ग के सहायक मात्र है । अतः वे सभी नमस्य है । 

बाऊल कहतें हैं, “साधना का क्षेत्र, उपास्य भगवान और गुरु जब हमारे अंतस में ही है तो स्वयं के प्रति श्रद्धावान होना अति आवश्यक है । ईश्वर का जो स्वरुप हमारे अंतस में नहीं है उससे हमारी क्या क्षति होने वाली है? बाह्यजगत के जो ईश्वर है उनको तो हमने कभी जाना नहीं पहचाना नहीं । वो हमारे प्रेम की चीज़ कैसे हो सकती हैं? उससे हमें क्या मिलेगा? प्रेम के द्वारा अगर उसे अन्तस में पाना है तो अन्तस को शुद्ध रखना पड़ेगा । सभी विद्वेश की भावना को दूर करके मैत्री भाव से स्वयं का निर्माण करना अति अवश्यक है । तभी मन का मानव (मनेर मानुष) दिखाई देगा । और तभी उनको प्राप्त करना संभव होगा (चाहना)| (पृ.32) (बंगाल की साधना” – क्षितिमोहन सेन शास्त्री)

“विश्वकाया के साथ मानवकाया की कोई समानता नहीं हैं अर्थात विश्वनाथ का इस संकिर्णकाया में रहना संभव नहीं है अतः स्वयं को विश्व की तरह असीम और व्यप्त करने की आवश्यकता है, नहीं तो ब्रह्म संकोच का दोष लगेगा । अतः साधक को साधना करते, समय ध्यान को “असीम शून्य” में व्याप्त करने की आवश्यकता है । शून्य समाधी “स्व” समाजी जैसी है । “खसम” आकाश जैसा है । खसम तत्व जब खसम अर्थात प्रियतम बन जाएगा तभी उसका मर्म समझ में आएगा । यह सहज समाधी है । अपनी काया की सहायता से कर्म में, रूप में, योग में, ध्यान में, प्रेम में क्रमशः इस सीमाहीन साधना की ओर अग्रसर होना पडता है । अतः कायायोग ही सारभूत साधना है । (“बाऊल फकीर कथा” सुधीर चक्रवर्ती पृ. 65)

“पानी थेके बरफ हय, बरफेर मध्ये पानी हय।

बरफ किन्तु पानी नय, पानी किन्तु बरफ नय।”

यह शब्दो का खेल नहीं है, जीवात्मा और परमात्मा का तत्व है, पिता और संतान का तत्व है, गुरू और शिष्य का तत्व है (पृ. 32 – वही बाऊल फकीर कथा) 

“गुरु की मदद से इस मार्ग में अग्रसर होने पर सारे बाह्य बन्धन स्वतः छूट जाते है । साधक स्वतंत्र और मुक्त बनता है । बाह्य कर्मकाण्ड की कोई आवश्यक्ता नहीं रहती है । इस “अन्तर्वेद” को स्वीकार करने पर बाह्य शास्त्र निष्प्रयोजन हो जातें हैं । बाऊलों के अनुसार ये सभी मत सहज  हैं अथवा आदि वेद के पूर्व भी ये थे और शोध के पश्चात यह ज्ञात होगा की वेद में भी इसका प्रभाव है । याज्ञ यज्ञ वाले वेद पंथी भी धीरे धीरे इसी मार्ग में अग्रसर होते गये हैं ।

पुरुष सुक्त के अनुसार जो कि बाऊलों का मुल मंत्र है इस चराचर जगत का आविर्भाव “मैं” से “मन का मानव” (मनेर मानुष) से हुआ है । बाऊल हसन राजा ने गाया है –

“मम आंखी होईते पयदा आसमान ज़मीन;

आमि होईते सब उत्पत्ति हासन राजा कय”॥ 

(“बंगाल की साधना पृ. 52”)

बीरभूम जिला के निवासी आदित्य नारायण गांवो में घुम घुम कर बाऊलों के संग रहकर उनको बहुत करीब से देखा परखा और जाना कि बाऊलों का जीवन प्रणाली “मानव को अपनाना” ही है । अक्सर यह प्रश्न उठता है कि यथार्थ बाऊल कोन है? क्या है उसका जीवन चरण, उसका करण कारण, उसका अंग वास क्या है? कोई पटूली श्रांत सहजीया है, कोई जात वैष्णव है, कोई साहब धनी है, कोई मतूआ पंथी है, कोई योगी है, कोई फकीर है, कोई दरवेश है सब मिलजुल कर एकाकार हो कर बाऊल परिचय में रचपच गएं है – क्योकि बाऊलों की ग्रहणीयता समाज में बहुत व्यापक रूप में है । बंगाल के बीरभूम, बर्धमान, मुर्शिदाबाद की सीमाओं में इनकी संख्या सबसे अधिक है । बांकुडा जिला के बहुत से अंचलों में भी अधिकतया इनको पाया जाता है । मुर्शिदाबाद तथा नदीया के ग्रामांचल के हिन्दु मुसलमान बाऊलों के भावों का आदान प्रदान इतना सजीव है कि वहां के बाऊल तथा फकीरों का कर्म मिलन उदाहरण देने जैसा है –

“मन चलो जाई भ्रमणे, कृष्ण अनुरागेर बागाने । 

(“बंगलार बाउल-पृ.73”)

अधिकांश बाऊल अपने को वैष्णव कहतें हैं । क्योंकि उनके शुद्धाचरण ही उनको वैष्णव बना देते है । इसलिए वे स्वयं को “वैष्णव बाउल” कहते हैं । “बाऊल बोष्टम” शब्द इतना प्रचलित है कि इनकी भिन्नता पकड में नहीं आती है । इसी प्रकार से “बाउल फकीर” शब्द भी उतना ही प्रचलित है । लालत स्वयं को बाऊल फकीर कहते थे आजकल के अधिकांश प्रचलित बाउल गीत उनके द्वारा ही रचा गया है मुसलमानों में से कुछ लोग निकलकर आएं है जो स्वयं को “बातेनी दोरबेश फकीर” कहतें है । समाज में उनको “बाऊल” या “नेडा फकीर” कहा जाता
है । (बाऊल फकीर सभा – पृ.93)

ॠगवेद पुरूषसूक्त के अनुसार पुरुष के मन में से चन्द्रमा का जन्म हुआ, आँखों से सूर्य, मुख से इन्द्र और अग्नि, वायु में से प्राण, उसके नाभी में से अन्तरिक्ष, माथे में से द्युलोक पैर से भूमि, कान में से सौ देव और सभी लोक का जन्म हुआ।

बाऊल कहते हैं जो भांड में है वही ब्रह्माण्ड में है । अथर्ववेद भी वही कहता है । यह मानव देह भी हररोज कमल की तरह खिलता है । “दृश्य कमल चोल छे गो फूटे कतो जुग धोरी” (बाउलगान) उनका कहना है वहां अमृत का पुष्प है । “सोनार नांव, सोनार बांधनं, अमृतेर फुल फोटे ।”

महानिर्वाण, कुलावर्णव, रूद्रामल, प्रपंचसार, आदि का अध्ययन करने पर बाऊलमत के साथ-साथ “कायायोग” संवंधि अनेक बातें मिलेगी । समानताएं और असमानताएं दोनों । कायायोग और कायाबोध के विषय में दोनों में समानताएं मिलेगीं । ‘परंतु बाऊलों की विशेषता उनका “अनुराग तत्व” है जो कि किसी तंत्र के नहीं हैं । वेदाचार और लोकाचार ये दोनों मत के समान रुप से विरोधी हैं अनुराग तत्व के आधार पर बाऊल सभी बंधनों को तोडने में सक्षम होतें है प्रेम रुपी पंख के आधार पर सबसे ऊंची उडान भर सकते है । अतः उनका कहना है –

“आमरा पाखीर जात । आमरा हांटिया चलार भाव जानीना । आमोदर उडिया चलार धात” 

(हमरा पंछी है, जात के चलना हमारा स्वभाव नहीं है हमने उड़कर आगे बढ़ना ठान लिया है ।)

मुसलमानों के आगमन के पश्चात भारतीय विचारधारा और धर्म साधना का आपस में संघर्ष हुआ । दोनों पक्ष के पण्डितों ने देखा कि प्रयत्न करने पर भी दोनों धाराएं मिलजुल कर नहीं रह सकतीं और तभी निरक्षर साधको ने दोनो दलों में समन्वय करने का प्रयास किया । जबकि कबीर ने दोनों कौम के साधकों को उदार, प्रेम और भक्तिभाव से एक करने का प्रयास किया तो पंडितों ने उनको निरक्षर मुर्ख कहकर फटकार दिया।

 रामानंद कबीर के गुरु थे ‘ब्राह्मण थे’ आचार पंथी रामानुज के दल के थे परंतु आंतरीक प्रेमभक्ति के कारण आचार को मानने में विफल हुए । इसलीए उन्होने उस संप्रदाय का त्याग किया । उसके साथ कुछ ब्राह्मण भी निकल गए परन्तु उनके शिष्य पिंजारा, कबीर, रविदास, सेना, धन्ना, भगत आदि जो उनके साथ रहे उन्होने स्त्रियों को भी दीक्षा दी उनके प्रिय शिष्य पीपा भगत राजपूत थे ।

रामानन्द में हमें बाऊल तत्व का सार मिलता है उनके अनुसार हिन्दु और मुसलमान के साधना के मिलाप पथ पर अडचन स्वरुप है “बाह्याचार” । भक्ति और प्रेम में सब संभव है उनके अनुसार “धर्मबाह्य” वस्तु नहीं है, अन्तर की है । मानव देह में ही इनके सार तत्व है । अतः बाऊलों के कायायोग का सार तत्व रामानन्द की भाव धारा में मिलता है । ग्रंथ साहब में रामानन्द की जो वाणी मिलती है उसमें उन्होने कहा है, “बाहर कहां भटक रहे हो? देह मंदिर में आश्चर्य जनक लीलाएं है इसे जानकर धन्य बनो ।

“कत जईए रे धर लागु रंगु ! “ (ग्रन्थ साहब) ब्रह्म अंतर में ही है । अतः रामानन्द ने अंतर की खोज पर अधिक महत्व दिया ।

रामानन्द के शिष्यों में कबीर श्रेष्ठ थे कबीर में बाऊल तत्व और बाऊल साधना के लक्षण समान रुप से मिलते है । उन्होने भगवान को अंतर में बसाया । बाऊल जिसे “जिवन्ते मरा” कहतें है उसके बारे में कबीर कहते है –

“जीवत में मरणा भला जो मरी जाने कोई।”

सूफी इसे “फनाफिला” कहतें हैं । 

(साखी ग्रंथ पृ.330) 

काया के मध्य जो सागर है उसकी थाह किसे मिली है? जो जीते जी मर सकता है वही सागर से मोती चुराकर ला सकता है “मरजीवा” कहलाता है-

“जो मरणा सो जग डरै, सो मरे आनन्द,

कब मरिहौं कब भेटिहौं पूरण परमानंद” 

(साखी ग्रंथ पृ. 332)

यह जीवन मृत होना प्रेम के बिना संभव नहीं है । प्रेम जगत में दोनो को एक होना पडता है । प्रेम का ग्रंथ अति सूक्ष्म है । (बंगाल के बाऊलों – क्षितिमोहन सेन पृ. 46)

बाऊल फकीर दरवेश के अनुसार मानव एक समान धर्मी विचार धाराओं में बंधे होते हैं उनसे देह तत्व का अर्थ सर्वथा भिन्न है, “भजो भजो मानुष भगवान” मानुष ही श्रेष्ठ है –

“मानुषेते मानुष आधे, मानुष नाचाय, मानुष नाचे ।

मानुष जाय मानुषेर काछे, मानुष होई ते ।”

मानवतत्व तत्व की अवधारणा है । मानुष्य मानुष्य के पास मनुष्य बनने के लिए जाता है प्रेम–भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है ।

“बाऊल” शब्द का उच्चारण करते ही मन में एक उदास मानव का चित्र उभरकर आता है । गेरुंआ पोशाक, सर पर चूडा के रुप में बंधे केश, कंधे पर भनोला, हाथ में एक तारा धरती को अपने कदमों से नापते हुए चलते जाते हैं । जो भी मिला रास्ते में साथ हो लिया । चलते-चलते सभी के भाव-विचार मिलजुलकर एक हो जातें है । सभी का उद्देश्य एक है उस मानव को पाना जो सचमुच का मानव है । 

“मानुष होए मानुष जानो, मानुष रतन धन ।

करो सेई मानुषेर अनवेषण”

यही उद्देश्य हे मानुष रतन धन का अनवेषण करना । उनके कंठ के गान, उर्ध्वमुखी नयन, सदा प्रसन्न आनन, विनीत वचन, नम्र स्वर, उद्धत स्वभाव के साधक विरल है । अपना परीचय “गरीब बाऊल” कहकर देंगे । एक दम फकीर यह संसारिक की फकीरी से अनजान, गुरुकृपा में अधम अज्ञानी-मुझसे आपको क्या मीलेगा । यह जो अत्यंत विनय वचन है यह उनकी साधना का अंग है शिष्य संतान जैसा है, स्वयं का परीचय बढाचढा कर देना पाप है, गुरु का निषेध है । बाउल का परीचय है-हम भाव के रसिक है । हम जो भी जानते हैं वह सब गुरु द्वारा सिखाया गया मानव धर्म की वाणी है – 

“आमी आऊल नोई, बाऊल ओ नोई  । आमी मानुषेर गान गेऐ जाई ।”

“जब मैं था तब पिउ नहीं, अब पिउ हैं मैं नाहीं।

प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाही ।” 

(बंगाल के बाऊल पृ.155)

प्राचीन काल से ही भारत में “द्वेत-अद्वेत” को लेकर तर्क चल रहा है, अगर इसमें प्रेम तत्व का समावेश हुआ तो इस तर्क से उबरा जा सकता है । जब दोनो मिल जाते हैं तो प्रेम का उदय होता है अतः बाऊल कहतें हैं – 

“नित्य द्वेत नित्य अैकथ प्रेम तार नाम।” ब्रह्म में विलीन होने को भी (Merge) मरना कहते हैं । यह है जीवीतावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त होना  । बरसात का पानी ऊंची भूमि पर ठहर नहीं सकता है । “ऊंचे पानी ना टिके नीचे ही ठहराय।”  

बाऊलों का शुन्य तत्व एक बडे महत्व का विषय है । कबीर तो शुन्य की विशालता पर वारी जातें हैं । शुन्य ही असीम अनन्त तत्व है जो कि बड़ी सहजता से अपने में दूसरों को समा लेता है । शून्य आकाश के घट में भी शून्य आकाश है और घट के बाहर भी शून्य आकाश है । जैसे सागर में डूबकी लगातें हैं तो सागर का पानी घट में भी और घट के बाहर भी सागर का पानी भरा रहता है । शून्य में डूबना हो तो बध्याचारों से मुक्त होना पडेगा । यह डूबकी सहज साधना से ली जा सकती है । इस सहज साधना की बात को कबीर ने बडी गहराई से समझाया है । इसे कबीर सहज समाधी कहतें हैं । गुरु की कृपा से इसे प्राप्त किया जाता है । सभी कर्म सेवा बन जाता है । सोना दंडवत होता है । बोलना नाम जप होता है, सुनना स्मरण करना होता है, अन्न-जल पूजा बन  जातें हैं । घट का वन प्रदेश का संसार का सन्यास का भेद मिट जाता है । द्वैत भाव समाप्त हो जाता रहता है । खुली आंखों से सर्वत्र उनका दर्शन होता रहता है । उनका ही परिचय मिलता है ।

बाऊलों का परमतत्व है कायायोग । दादू की कायावेली के अन्तर्गत काया में पुरा ब्रह्माण्ड समाहित है । ऐसा कहा गया है यह देह ईश्वर का मंदिर होने के कारण पवित्र है । अतः इसे कष्ट देना अनुचित है । इस प्रकार के अनेक काया कष्ट के दृष्टांत दादू के पदों में मिलता है ।

लोकाचार या बंधे-बंधाए पथ को बाऊल नकारते हैं । लोक प्रचलित विधि भी अन्याय है । उनको तो केवल मानव से मतलब है और वो भी “संपूर्ण मानव” जिसे अंग्रेजी में personality  कहतें है । उसी में सब नीहित है । “आद्य अंत इस मानव में बाहर कुछ भी नही” ।

मन का मानुष चाहिए, गगन बाऊल कहतें हैं – “आमार मनेर मानुष जे रे कोथाय पाबो तारे” । जहाँ प्रेम का संबंध हो वहां कामना का कोई स्थान नहीं है । इसलिए बाऊल स्वर्ग या मुक्ति किसी की भी कामना नहीं करतें है । - 

“पार न उतारो, डूबो दो इसमें भी मैं राजी” । हमने देखा कि बाऊल लोकाचार या शास्त्राचार किसी को भी स्वीकार नहीं करतें केवल मात्र रस और भाव के मार्ग को स्वीकार करतें हैं । पंडित सत्य की खोज पोथियों में करतें हैं जबकि बाऊल जिवंत मानव में करतें हैं ।

स्व. अक्षयकुमार दत्त ने “भारतवर्षेर उपासक संप्रदाय” नामक पुस्तक में प्रेमरस तथा राग का अनुसंधान करते समय कुछ स्वाधीन पंथी संप्रदायों का नाम उल्लेख किया है जिनमें हिन्दु तथा मुसलमान दोनों मिलतें है । बाऊल मत इन दोनों के साथ मिलने पर भी दोनों से भिन्न है । अधिकांश बाऊल निरक्षर या निम्न वर्ग के होतें है ।

उपरोक्त पुस्तक के अनुसार बाऊलों के आदी गुरु चैतन्य महाप्रभु है परंतु इससे पुर्व भी बाऊल मत की उपस्थिति तथा “बाऊल” नाम दिखाइ देता है । “ जा आछे भांडे ता आछे ब्रह्माण्डे” (पिंडे सो ब्रह्माण्डे) ।

श्रीयुक्त मणीन्द्र मोहन बसु ने अपने “पोस्ट चैतन्य कल्ट” नामक पुस्तक के अन्तर्गत सहजिया मत का जो परिचय अनेक पोथियों में से कराया है वह बहुत ही सूक्ष्मता और दक्षता पूर्वक कराया है । उनकी यह पुस्तक कोलकाता विश्वविद्यालय से 1930 में प्रकाशित हुई । 

बाऊल पोथी के बहार के विषयों की खोज करते है अर्थात “मानव” का अनुसंधान ही श्रेष्ठ है । वे केवल मात्र मानव को ही जानते है । स्वर्ग के अमृत से पृथ्वी का प्रेम रस श्रेष्ठ है । इसलिए प्रेमामृतप्रार्थी देवता पृथ्वी में जन्म ग्रहण कर मानव होने की इच्छा रखते है ।

“प्रेम आमार परश्मणी, तारे छुईले काम हयरे सेवा

ताई गोलोक चायजे भुलोक होईते, मानुष होईते चाय जे देवा ।”

(प्रेम स्पर्शमणी है जिसके  स्पर्श से काम सेवा में परिवर्तित हो जाता है । इससे स्वर्ग भूलोक में परिणत होना चाहता है और देव मानव बनना चाहतें है ।)

सामान्यतः अधिकांश बाऊल फकीर होने के बावजुद गृहस्थ होते है तो सामाजिक विधि-विधानों को नकारते है तो गृहस्थ धर्म कैसे निभाते है? तब एक गृहस्थ बाऊल ने जवाब दिया, “विधि के मंत्र द्वारा हम अधिकार का निर्णय नहीं करते है । सामाजिक रुपसे विधि को स्वीकार करके, साथ रहकर संसार धर्म का पालन करते है ।” 

बाऊल दो प्रकार के होतें है- पुथ्या (पोथी वाले) और तथ्या (तथ्य वाले) । श्रीवासु के सहजिया विषयक पुस्तक में पोथी वाले बाऊलों का तथ्य परिचय मिलता है । पोथी बिना के “तथ्या” बाऊलों का सही परिचय कवि गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कराया है । इसमें उन्होने श्रिहट्ट के बाउल कवि हासन रजा चौधरी के गानों में से सबसे अधिक वाणियों का उपयोग किया है इस हसन रज़ा का जन्म लक्ष्मणश्री के दिवान वंश में हुआ था । अली चौधरी के पुर्वज कायस्थ थे । हसन रज़ा के पुत्र ने एक ललुर के राजा से सुना था कि उनका गोत्र भारद्वाज है । 

रवीन्द्रनाथ का परिचय तरुण अवस्था में ही बाऊलों से हो गया था । उनकी “वैष्णवी” नामक कहानी में इसका स्पष्ट परिचय मिलता है । जहाँ उनकी जमीनदारी थी वहां, शिलाईदह परगाणा के पास लालन फकीर का स्थल है । लालन बाऊल अति प्रभावशाली व्यक्ति थे । कांगाल हरिनाथ मजुमदार (फकीर चांद बाऊल) उनके अनुरागी थे बंगाल के दैनिक समाचार पत्र के संस्थापक माने जाने वाले जलधर सेन हरिनाथ के मंडल में से थे ।

लालन के शिष्य परंपरा में से एक जन रवीन्द्रनाथ के शिलाईदह के चिट्ठी पत्री विभाग के कर्मचारी थे । उनका नाम गगन था रवीन्द्रनाथ ने उसके “हीवर्ट व्याख्यान” में उनके गीत को शामिल किया “आभार मनेर मानुष जेई, आमि कोथाय पाबो तारे” लालन का स्थान कुष्टिया के नजदीक था, जन्म से लालन हिन्दु थे, परंतु सिराज सांई नामक मुसलमान फकीर से उन्होने दीक्षा ग्रहण की थी । उनकी साधना में दोनो धर्मो का समन्वय मिलता है । इस धारा के साथ रविन्द्रनाथ का गहरा संबंध था । कुष्टिया के नजदीक उस दल में पांचु नामक एक बाऊल थे मेछेल चांद नामक बाऊल उनसे गान सुनने आते थे । उनमें से पागल चांद एक समर्थ बाऊल थे ।

इस प्रकार से बाऊलों की एक लम्बी परम्परा हमारे समक्ष है । ऊँच-नीच, जात-पात, धार्मिक भेद-भाव, के बिना ही अंतर की चक्षु से उन्होने “मनेर मानुष” के प्रति स्वयं को समर्पित कर दिया ।

एक धारा में मदन बाऊल जन्म से मुसलमान थे । उनके गुरु ईशान जोगी थे । ईशान के गुरु दीनानाथ नापित थे । गुरु हराई नमः शुद्र थे । हराई के गुरु कालाचांद बढ़ई थे । कालाचांद के गुरु नित्यनाथ, नित्यनाथ के गुरु मूलनाथ और मूलनाथ के गुरु आदिनाथ । इन तीनो परम्पराओं में “नाथ” बाऊल को देखकर नाथ पंथ के साथ बाऊलों का प्राचीन संबंधो की ओर हमारा ध्यान जाता है । (“बंगाल के बाऊल” – क्षितिमोहन सेन पृ. 70)।

बला बाऊल के बारे में कहा जाता है कि वे मछुवारे के सरदार थे । मेघना नदी के उपरी भाग में उनका मछली का अड्डा था । जवानी में ही उनकी पत्नी का देहान्त हो गया था । एक बार वो नौका में बैठकर जा रहे थे ऐसे में एक नवविवाहित कन्या को उसकी मां विदा करने आई थी । बला ने देखा कि बेटी की नाव ज्यों ही आगे बढ़ने लगती है त्यों ही बेटी ने गायन वादन करने वालों को सब बंद करने के लिए कह देती है, क्योंकि ज्यों-ज्यों नाव दूर हो रही थी त्यों-त्यों उसकी मां के रुदन का स्वर क्षीण हो रहा था ।

“थामाईयो रे ढोल, ढूली भाई, कांसीर झन-झनी”।

धीरी-धीरे बाईयो रे माझी, जेनो मायेर कांदोन सुनी॥”

इसे सुनकर बला बाऊल को ऐसा लगा कि वह स्वयं इसी प्रकार से जगत जननी से दूर हो रहा है । इससे विश्व चराचर में मां का जो क्रन्दन हो रहा है उसे संसार के कोलाहल के कारण वह सुन नहीं पा रही है । उसके मन में उथल-पुथल मच गई, वह अपने गुरु, साधक नित्यानंद के पास गया और दीक्षा देने को मांग की । गुरु ने कहा, “मैं तुम्हें क्या दिक्षा दूं जगत जननी ने स्वयं उस कन्या के रुप में आकर तुम्हें दीक्षा देकर गई है । तेरे अंतर की वेदना ही तेरी दीक्षा मंत्र है” ।

बाऊल अनेक गुरु को मानते हैं । ढाका जिले के राजबाडी के बाऊल दागु के शिष्य – दुर्लभ और बल्लभ अति उच्च कोटी के बाऊल थे । दुर्लभ अति तीव्र मरमी भावी साधक (Mystic aspirtant) थे उनकी आठ-नौ वर्ष की बेटी ने मृत्यु के समय परकाल के द्वार को खोल कर पिता को चिन्मय प्रकाश दर्शाया । इसलिए जब उन्होने दागु से दीक्षा की मांग की तब दागु ने कहा, “तुम्हारी बेटी ही तुम्हारी गुरु है, तुम धन्य हुए दीक्षीत हुए । अब तुम्ही मुझे वो मार्ग दिखाओ” ।

इस प्रकार की अनेक घटनाओं से बाऊलों के विषय में जानकारी मिलती है । बाऊल अक्सर स्वयं को समाज से लोगों से दूर रखतें है । प्रश्नों का सामना करने से डरतें है । आन्तरिक ज्ञान, अनुभूति को शब्दों में व्यक्त कर लोगों के समक्ष रखने की विद्या का ज्ञान उनको नहीं है ऐसा उनका मानना है । उनका कहना है, “यह सब साधक की साधना के लिए है’ साहित्य के क्षेत्र में इसका प्रचार प्रसार हो ऐसा हम नहीं चाहते ।“

लेखक क्षितिमोहन सेन ने जब इस गुप्तता का कारण जानना चाहा तब उन्होने जवाब दिया,” ये तो साहित्य नहीं है, ये हमारे अंतरंग की प्राणवस्तु है, हमारी “आत्मजा” है । जो कोई हमें हमारी इस कन्या के बारे में यह कहता है कि “तेरे साथ में घर बसाउगां” तो तब हम उसे दे कर धन्य बन जाते हैं वह भी धन्य हो जाता है और हमारी आत्मजा भी धन्य हो जाती है । परंतु कोई रसास्वादन के लिए चखने के लिए हमारी आत्मजा की मांग करता हो तो ऐसी बिनती अधन्य है, हम अधन्य होते है, और आत्मजा भी अधन्य होती है । ये वाणी साहित्य रस के आस्वासन के लिए नहीं है’ यह साधना के लिए है । कदाच गौण रूप से इसमें साहित्यरस रहता भी 

है । परन्तु यह तो मुख्य लक्ष्य नहीं है इसलिए हम इसका प्रचार नहीं करते है । फिर भी अगर कोई साधनार्थ व्यक्ति साधना के लिए इसकी मांग करता हो तो हम इसका विरोध कभी भी नहीं करतें है । परन्तु हम परख लेतें हैं कि उसकी बिनती सच्ची है या नहीं” ।

समाज के नैतिक कानून और धार्मिक क्रिया-कांड या विधि-विधानों को नकारनेवाले बाऊल किसी बंधे-बधाए धर्म धारा या साधना पद्धति के नहीं हो सकते । किसी तात्विक सिद्धातों के बंधन को भी इन्होने नहीं स्वीकार किया इसलिए बाऊल एक जीवन शैली है और इसका चालसबल प्रेमतत्व है’ यही प्रेम तत्व साध्य नहीं साधन है । इससे यह स्पष्ट है की पृथ्वी पर जबसे मानव जाती है तबसे एक जीवन शैली के रुप में अध्यात्म के प्रेमरंग में रंग और सदा ही मुक्त रुप से असीम आकाश में उडने की इच्छा रखती चेतना मानव को आकर्षित करती रही है – (बंगाल नो बाऊल पंच”-मावजी के. शाह- पृ. 36)

प्रेमतत्व को केन्द्र में रखकर परकाया प्रेम को मानने के बावजूद बाऊलों के जीवनशैली के लक्ष्य में कहीं भी भोगवाद, स्वच्छन्दता था उन्मुक्त व्याभिचार का कोई स्थान नहीं है । परकिया प्रेम को साधना का अत्यन्त प्रभावक साधन के रूप में ही यहां समझा जा सकता है । 

केवल मात्र उपलब्ध बाऊल गीतों के आधार पर ही बाऊलों के विषय में इतनी बातें हमारे सामने आती हैं । बाऊलों की फिलोसोफी, जीवन शैली और साधना के नित्य नवीन माध्यम की थोड़ी जानकारी का आधार बाऊल गीत ही
है । 

बहुत कम ही ऐसे बाऊल गीत हैं जिनसे उनके रचियेता का नाम जानने को मिलता है । अपात मौखिक परंपरा के रूप में ये बाऊल गीत समाज में विकसित होते रहते हैं । गीत गाने वाले बाऊल अपने अंतर के भाव तथा नए नए गूढ अर्थों को इन गीतों में जोडते रहतें है । इससे बाऊल फिलसोफी में नित्यनूतनता, एक ताजगी भरे भावों का अवकाश सदा मिलता रहता है ।

यह कहा जा सकता है कि साधना की धार या संप्रदाय या परंपरा जो भी हो परंतु प्रत्येक साधक में एक बाऊल सुषुप्त रुप से रहता है उसे जगाकर किसी भी मार्ग में साधक अपनी साधना को सहजरुप से अग्रसर हो सकता है ।

बाऊलों के विषय में अगर कुछ मुख्य जानकारी रखनी हो तो निन्म प्रकार से है-

1. काया बोध – काया योग

2. “मनेर मानुष” – मानव तथा मनुष्य जीवन मुख्य है।

3. जीवन और साधना के क्षेत्र में प्रेमतत्व मुख्य है।

4. परकाया प्रेम – साधना का प्रेरक बल है । 

5. मौखिक परंपरा।

6. सहज जीवन।

7. धर्म ग्रंथ – क्रियाकांड अनावश्यक है।

8. काया क्लेश । 

9. तपजप व्यर्थ है।

10. सादगी-अर्थात वैराग्य को प्रधानता । 

11. मार्ग की गुप्तता (बंगाल के बाउल-मावजी के सवाल पृ.४२)।

संदर्भ ग्रंथ – 

1. बंगाल ना बाऊलों – व्याख्याता क्षितिमोहन सेन शास्त्री – भाषान्तर – जयंती लाल म. आचार्य।

2. बंगाल ना बाऊल पंथ – मावजी के.  सवाल । 

3. बंगाल नी साधना – क्षितिमोहन सेन शास्त्री – अनुवादक – मोहन दास पटेल 

4. बाऊल फकीर कथा – सूधीर चक्रवर्ती ।  

लालन फकीर का एक विशिष्ट गान 

आमार प्रणेर मानुष आछे प्राणे ताई हेरी ताई सकलखाने (मेरे अंतर का मानव मेरे अंतर में रहता है । इसलिए मैं जिधर भी देखता हूं वही नजर आता है) 

आछे से नयन ताराय आलोक धाराय, ताई ना हाराई (वह मेरी नजरों में, बिजली की चमक में है, इसलिए उसमें खो नहीं सकता) । / 

ओगो ताई देखी ताई जे थाय से थाय ( चारों तरफ वही नजर आता है) । 9. ताकाई आमी जेदिक पाने  । (जिधर-जिधर मेरी नजर जाती उधर वही दिखता है) । 

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आलेख

श्री शैलेन्द्र चौहान, जयपुर, मो : 7838897877


हिंदी में उपन्यास लेखन

हिंदी में उपन्यास का आरम्भ श्रीनिवास दास के "परीक्षागुरु' (1843 ई.) से माना जाता है । हिंदी के आरम्भिक उपन्यास अधिकतर ऐयारी और तिलस्मी किस्म के थे । अनूदित उपन्यासों में पहला सामाजिक उपन्यास भारतेंदु हरिश्चंद्र का "पूर्णप्रकाश' तथा चंद्रप्रभा नामक मराठी उपन्यास का हिंदी अनुवाद था । आरम्भ में हिंदी में कई उपन्यास बँगला, मराठी आदि से अनूदित किए गए । उपन्यास ‘उप’ और ‘न्यास’ से मिलकर बना है । ‘उप’ का अर्थ समीप और ‘न्यास’ का अर्थ है रचना । अर्थात उपन्यास वह है जिसमें मानव जीवन के किसी तत्त्व को उक्तिउक्त के रूप में समन्वित कर समीप रखा जाए । इसमें उपन्यासकार मानव जीवन से संबंधित सुखद एवं दुखद किन्तु मर्मस्पर्शी घटनाओं को निश्चित तारतम्य के साथ चित्रित करता है ।

संस्कृत लक्षण ग्रंथों में भी उपन्यास का अधिकाधिक प्रयोग हुआ है । किन्तु उस उपन्यास शब्द और आज के उपन्यास शब्द में भिन्नता है । संस्कृत साहित्य में एक स्थान पर कहा गया है, “उपन्यासः प्रसाधनम्‌” अर्थात्‌ प्रसन्नता प्रदान करने वाली कृति उपन्यास है । किन्तु संस्कृत नाट्य शास्त्र में उपन्यास को प्रतिमुख संधि का एक उपभेद माना गया है, जिसकी व्याख्या में कहा गया है ‘उपपति वृतहथ उपन्यासः प्रकृतितः’ अर्थात्‌ किसी अर्थ को उसके उक्तिउक्त अर्थ में उपस्थित करने को उपन्यास कहा जाता है । किन्तु आज उपन्यास शब्द के अन्तर्गत गद्य द्वारा अभिव्यक्त सम्पूर्ण कल्पना प्रसूत कथा साहित्य में ग्रहण किया जाता है ।

हिंदी के मौलिक कथा साहित्य का आरम्भ इंशा अल्लाह खाँ की "रानी केतकी की कहानी' से होता है ।  भारतीय वातावरण में निर्मित इस कथा में लौकिक परंपरा के स्पष्ट तत्व दिखाई देते हैं । खाँ साहब के पश्चात्‌ पं. बालकृष्ण भट्ट ने "नूतन ब्रह्मचारी' और "सौ अजान और एक सुजान' नामक उपन्यासों की रचना की । इन उपन्यासों का विषय समाज सुधार है ।

भारतेंदु तथा उनके सहयोगियों ने अक्सर सजग राजनीतिज्ञ या समाजसुधारक के रूप में लिखा । बाबू देवकीनंदन खत्री सर्वप्रथम ऐसे उपन्यास लेखक थे जिन्होंने विशुद्ध उपन्यास लेखक के रूप में काम किया । उन्होंने कहानी कहने के लिए ही कहानी कही । वह अपने युग के घात-प्रतिघात से प्रभावित थे । हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में खत्री जी ने जो परंपरा स्थापित की वह एकदम नई थी । प्रेमचंद ने भारतेंदु द्वारा स्थापित परंपरा में एक नई कड़ी जोड़ी । लेकिन इसके सामानांतर बाबू देवकीनंदन खत्री ने एक नई परंपरा स्थापित की । घटनाओं के आधार पर उन्होंने कहानियों की एक ऐसी शृंखला जोड़ी जो कहीं टूटती नजर नहीं आती । खत्री जी की कहानी कहने की क्षमता को हम इंशा कृत "रानी केतकी की कहानी' के साथ सरलतापूर्वक संबद्ध कर सकते हैं ।

वास्तव में कथा साहित्य के इतिहास में खत्री जी की "चंद्रकांता' का प्रवेश एक महत्वपूर्ण घटना है । यह हिंदी का प्रथम मौलिक उपन्यास है । खत्री जी के उपन्यास साहित्य में भारतीय संस्कृति की स्पष्ट छाप देखने को मिलती है । दरअसल मर्यादा उनके उपन्यासों की आत्मा है ।

उपन्यास साहित्य की विकास यात्रा में पं. किशोरीलाल गोस्वामी एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं । वे उपन्यासों की दिशा में पाँव जमा करके बैठ गए । आधुनिक जीवन की विषमताओं के चित्र उनके जासूसी उपन्यासों में पाए जाते हैं । गोस्वामी जी के उपन्यास साहित्य में वासना का झीना परदा प्राय: सभी जगह पड़ा हुआ दृष्टिगत होता है ।

जासूसी उपन्यास लेखकों में बाबू गोपालराम गहमरी का नाम महत्वपूर्ण है । गहमरी जी ने अपने उपन्यासों की निर्मिति स्वयं अनुभव की हुई घटनाओं के आधार पर की है, इसलिए कथावस्तु पर प्रामाणिकता की छाप है । प्रायः कथावस्तु हत्या या लाश के पाए जाने के विषयों से संबंधित है । जनजीवन से संपर्क होने के कारण उपन्यासों की भाषा में ग्रामीण प्रयोग अक्सर मिलते हैं ।

हिंदी के आरम्भिक उपन्यास लेखकों में बाबू हरिकृष्ण जौहर का नाम तिलस्मी तथा जासूसी उपन्यास लेखकों में महत्वपूर्ण है । तिलस्मी उपन्यासों की दिशा में जौहर ने बाबू देवकीनंदन खत्री द्वारा स्थापित उपन्यासपरंपरा को विकसित करने में महत्वपूर्ण योग किया है । आधुनिक जीवन की विषमताओं एवं सभ्य समाज के यथार्थ का प्रदर्शन करने के लिए ही बाबू हरिकृष्ण जौहर ने जासूसी उपन्यासों की रचना की । "काला बाघ' और "गवाह गायब' आपके इस दिशा में महत्वपूर्ण उपन्यास हैं ।

हिंदी में आरम्भिक उपन्यासों का लेखन लोकसाहित्य की आधारशिला पर हुआ । कौतूहल और जिज्ञासा के भाव ने इसे विकसित किया । आधुनिक जीवन की विषमताओं ने जासूसी उपन्यासों की कथा को जीवन के यथार्थ में प्रवेश कराया । असत्य पर सत्य की सदैव ही विजय होती है यह आदर्श भारतीय संस्कृति का केंद्रबिंदु है । हिंदी के आरम्भिक उपन्यासों में यह प्रवृत्ति मूल रूप से पाई जाती है ।

समकालीन उपन्यास और कहानी दोनों के बारे में एक बात अक्सर कही जाती रही है कि व्यक्ति-जीवन में आज इतनी विविधताएँ घर कर गई हैं कि जीवन को उसकी सम्पूर्णता में जीने की बजाय मनुष्य उसके खण्डों में जीने को अभिशप्त है । अर्थात जीवनचर्या ने आज मानव-व्यक्तित्व को खण्ड-खण्ड करके रख दिया है । यह भी देखा जा रहा है प्रायः आम आदमी आज अनैतिक, अवैधानिक या असामाजिक कार्यों से अपनी सम्बद्धता को जीवनयापन सम्बन्धी विवशताओं के कारण स्वीकार करता है, सहज और सामान्य रूप में नहीं । अब, लघुकथा भी चूँकि जीवन और व्यक्तित्व दोनों को यथार्थत: अभिव्यक्त करने वाली विधा है इसलिए उसमें खण्डित व्यक्ति-जीवन और खण्डित-व्यक्तित्व का चित्रण सर्वथा स्वाभाविक है । लेकिन यहाँ ध्यान देने और सावधानी बरतने की बात यह है खण्डित-व्यक्तित्व के चित्रण की यह अवधारणा एक कथाकार के रूप में हम पर इतनी अधिक हावी न हो जाए कि हमारी कथाओं में हर तरफ अराजक चरित्र ही नजर आते रहें तथा सहज और सम्पूर्ण मनुष्य की छवि उनमें से पूरी तरह गायब ही हो जाए । बेशक, बिखर चुके जीवन-मूल्यों के बीच रह रहा कथाकार अपने भोगे हुए अनुभव और देखे हुए सत्य को ही अभिव्यक्त करेगा, लेकिन उसकी यथार्थपरक अन्तर्दृष्टि, अन्तश्चेतना, विवेकशीलता और जीवन-मूल्यों के प्रति उसकी निष्ठा की परीक्षा भी इसी बिन्दु पर आकर होगी ।

हिंदी में सामाजिक उपन्यासों का आधुनिक अर्थ में सूत्रपात प्रेमचंद (1880-1936) से हुआ । प्रेमचंद पहले उर्दू में लिखते थे, बाद में हिंदी की ओर मुड़े । उनके "सेवासदन', "रंगभूमि', "कायाकल्प', "गबन', "निर्मला', "गोदान', आदि प्रसिद्ध उपन्यास हैं, जिनमें ग्रामीण वातावरण का यथार्थ एवं स्वाभाविक चित्रण है । चरित्रचित्रण में प्रेमचंद, गांधी जी के "हृदयपरिवर्तन' के सिद्धांत को मानते थे । बाद में उनकी रुझान समाजवाद की ओर भी हुआ ऐसा कहा जा सकता है । कुल मिलाकर उनके उपन्यास हिंदी में तत्कालीन आधुनिक सामाजिक सुधारवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

जयशंकर प्रसाद के "कंकाल' और "तितली' उपन्यासों में भिन्न प्रकार के समाज का चित्रण है, परंतु शैली अधिक काव्यात्मक है । प्रेमचंद की ही शैली में, उनके अनुकरण से विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक, सुदर्शन, प्रतापनारायण श्रीवास्तव, भगवतीप्रसाद वाजपेयी आदि अनेक लेखकों ने सामाजिक उपन्यास लिखे, जिनमें एक प्रकार का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद अधिक था । परंतु पांडेय बेचन शर्मा "उग्र', ऋषभचरण जैन, चतुरसेन शास्त्री आदि ने फंतासी ढंग का यथार्थवाद और प्रकृतवाद (नैचुरॉलिज़्म) अपनाया और समाज की बुराइयों का स्फोट किया । इस शेली के उपन्यासकारों में सबसे सफल रहे "चित्रलेखा' के लेखक भगवतीचरण वर्मा, जिनके "टेढ़े मेढ़े रास्ते' और "भूले बिसरे चित्र' बहुत प्रसिद्ध हैं । उपेन्द्रनाथ अश्क की "गिरती दीवारें' का भी इस समाज की बुराइयों के चित्रणवाली रचनाओं में महत्वपूर्ण स्थान है । अमृतलाल नागर की "बूँद और समुद्र' इसी यथार्थवादी शैली में आगे बढ़कर आंचलिकता मिलानेवाला एक श्रेष्ठ उपन्यास है । सियारामशरण गुप्त की नारी' की अपनी विशेषता है ।

मनोवैज्ञानिक उपन्यास जैनेंद्रकुमार से शुरू हुए । "परख', "सुनीता', "कल्याणी' आदि से भी अधिक आप के "त्यागपत्र' ने हिंदी में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया । जैनेंद्र जी दार्शनिक शब्दावली में अधिक उलझ गए । मनोविश्लेषण में स. ही. वात्स्यायन "अज्ञेय' ने अपने "शेखर : एक जीवनी', "नदी के द्वीप', "अपने अपने अजनबी' में उत्तरोत्तर गहराई और सूक्ष्मता उपन्यासकला में दिखाई । इस शैली में लिखनेवाली बहुत कम मिलते हैं । सामाजिक विकृतियों पर इलाचंद्र जोशी के "संन्यासी', "प्रेत और छाया', "जहाज का पंछी' आदि में अच्छा प्रकाश डाला गया है । इस शैली के उपन्यासकारों में धर्मवीर भारती का "सूरज का सातवाँ घोड़ा' और नरेश मेहता का "वह पथबंधु था' उत्तम उपलब्धियाँ हैं ।

ऐतिहासिक उपन्यासों में हजारीप्रसाद द्विवेदी का "बाणभट्ट की आत्मकथा' एक बहुत मनोरंजक कथाप्रयोग है जिसमें प्राचीन काल के भारत को मूर्त किया गया है । वृंदावनलाल वर्मा के "महारानी लक्ष्मी बाई', "मृगनयनी' आदि में ऐतिहासिकता तो बहुत है, रोचकता भी है, परंतु काव्यमयता द्विवेदी जी जैसी नहीं है । राहुल सांकृत्यायन (1895-1963), रांगेय राघव (1922-1963) आदि ने भी कुछ संस्मरणीय ऐतिहासिक उपन्यास दिए
हैं ।

यथार्थवादी शैली सामाजिक यथार्थवाद की ओर मुड़ी और "दिव्या' और "झूठा सच' के लेखक भूतपूर्व क्रांतिकारी यशपाल, और "बलचनमा' के लेखक नागार्जुन इस धारा के उत्तम प्रतिनिधि हैं । कहीं कहीं इनकी रचनाओं में प्रचार का आग्रह बढ़ गया है । इसे संवर्धित करने और सम पर लाने का काम अमरकांत, भीष्म साहनी, भैरवप्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय शेखर जोशी आदि ने किया । राजेंद्र यादव, मोहन राकेश, शैलेश मटियानी, राजेंद्र अवस्थी, मनहर चौहान, शिवानी इत्यादि ने कस्बाई मध्यवर्गीय चरित्रों पर जोर दिया । कमलेश्वर इनके साथ रहे लेकिन उनमें सामजिक यथार्थ का भी समन्वय देखा जा सकता है । समाज का नैतिक पतन इनकी रचनाओं की मूल वस्तु है ।  हिंदी की एक विधा आंचलिक उपन्यासों की है, जो शुरु होती है फणीश्वरनाथ "रेणु' के "मैला आँचल' से और बाद में उसमें कई लेखकों  ने हाथ आजमाईश की ।  

बिल्लेसुर बकरिहा उपन्यास, निराला के शब्दों में ‘हास्य लिये एक स्केच’ कहा गया यह उपन्यास अपनी यथार्थवादी विषयवस्तु और प्रगतिशील जीवनदृष्टि के लिए बहुचर्चित है । बिल्लेसुर एक गरीब ब्राह्मण है, लेकिन ब्राह्मणों के रूढ़िवाद से पूरी तरह मुक्त । गरीबी के उबार के लिए वह शहर जाता है और लौटने पर बकरियाँ पाल लेता है । इसके लिए वह बिरादरी की रूष्टता और प्रायश्चित के लिए डाले जा रहे दबाव की परवाह नहीं करता । अपने दम पर शादी भी कर लेता है । वह जानता है कि जात-पाँत इस समाज में महज एक ढकोसला है जो आर्थिक वैषम्य के चलते चल रहा है । यही कारण है कि पैसेवाला होते ही बिल्लेसुर का जाति-बहिष्कार समाप्त हो जाता है । संक्षेप में यह उपन्यास आर्थिक सम्बन्धों में सामन्ती जड़वाद की धूर्तता की कहानी है । ‘‘अप्सरा’’ ‘‘अलका’’, ‘‘कुल्लीभाट’’, ‘‘पन्त और पल्लव’’, ‘‘चतुरी चमार’’ आदि उनकी कतिपय प्रसिद्ध कृतियों पर संक्षिप्त आलोचनात्मक लेख अथवा टिप्पणियाँ यत्र-तत्र उपलब्ध हो जाती हैं, किन्तु इस दिशा में हुए कार्य को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता । मैथिली में लिखे गये दो उपन्यासों को मिला कर नागार्जुन ने कुल बारह उपन्यास लिखे । उपन्यासों के लेखन का समय चालीस के दशक के मध्य से साठ के दशक के उत्तरार्द्ध तक का है । लगभग बाइस-चौबीस सालों की अवधि में लिखे गये इन उपन्यासों (सिर्फ़ ग़रीबदास बाद का है) में से कुंभीपाक, इमरतिया, अभिनंदन और ग़रीबदास को छोड़ दें तो शेष आठ कृतियां एक साथ मिल कर मिथिलांचल के ग्राम-जीवन से संबंधित अत्यंत विराट महाकाव्यात्मक कृति का रूप ले लेती हैं ।

आत्मवृत्तात्मक शैली में लिखा गया ‘बलचनमा’ नागार्जुन का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है और कुछ विद्वान आलोचकों के अनुसार यह हिंदी का पहला अंचलिक उपन्यास है । यह  दी में 1952 में और अनूदित होकर मैथिली में 1967 में छपा ।  ‘बलचनमा’ की कथाभूमि मिथिला अंचल है ।  मिथिला का जन-जीवन, रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, लोक-व्यवहार, गीत-नाद सबकी झांकी इसमें मिलती है । यहां की किसानी संस्कृति और जाति-व्यवस्था की तस्वीर भी इसमें है । प्रगतिशील विचारों के उपन्यासकार की दृष्टि यहां के वर्ग-संघर्ष पर भी खूब पड़ी है । कृषक और मजदूर वर्ग, बेगार करने और  कराने वाले लोग, ऊंची जाति का, निम्नजाति के लोगों के साथ व्यवहार, ज़मींदारों और बड़े जोतदारों द्वारा किये जाने वाले शोषण और अत्याचार, नीची और दलित जाति   प्रति संवेदनहीन व्यवहार कुछ भी उसमें नहीं छूटा है । अपने कचानक, चरित्रा और संवाद में कथाकार ने अपने अनुभवी भोक्ता की आत्मा उड़ेल दी है । नागार्जुन  साम्यवादी विचारधारा के लेखक थे । किंतु, अपने सिद्धांतों का कहीं आरोपण (जबकि कुछ आलोचक मानते हैं) नहीं करते थे । जहां से उन्होंने कथावस्तु ली या जो पात्र  चुने उनकी परिस्थिति ही ऐसी थी जिसके निवारण के लिए साम्यवादी सिद्धांत बने थे । परिस्थिति के कारण ही बलचनमा का चरित्र वामपंथी हो गया । जहां तक इसके  नाम का प्रश्न है, उसे वामपंथी संस्कार देने के लिए बालचंद का बलचनमा नाम नहीं किया है । अपितु मिथिला के गांव-देहात में अब भी प्यार या अनादर से नाम को बिगाड़ देने का प्रचलन है । जैसे रामचरण का रमचरना, रामेश्वर का रमेसरा और नारायण का नरैना हो जाता है, वैसे ही बालंचद का बलचनमा हो गया । यह बात अलग है   कि उसके चरित्र को उन्होंने अपनी विचारधारा के अनरूप उभारा । मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे । परवर्ती वर्षो में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के संकलन 'काठ का सपना', तथा 'विपात्र' (लघु उपन्यास) प्रकाशि‍त हुए ।

उदय प्रकाश की कहानी मोहन दास लोकतंत्र में जीते उस आदमी के संघर्ष और उन विसंगतियों और विडंबनाओं की लंबी कथा है, जो अपनी परिस्थितियों की जकड़ में फिर से उठ खड़े होने के बावजूद, व्यवस्था और अपराधियों की सांठगांठ के परिणामस्वरूप अपनी पहचान से मुक्त होने की कोशिश करता है । इसे उन्होंने 2010 में लघु उपन्यास की शक्ल दी । उदयप्रकाश ने अपनी कहानियों के जरिए आधुनिक कथाकारों में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है । दरियाई घोड़ा,’तिरिछ, और अंत में प्रार्थना, पाल गोमरा का स्कूटर जैसे उनके कथा संग्रह काफी चर्चित रहे । साहित्य के अलावा वह पत्रकारिता, सिनेमा और शोध के क्षेत्रों में सक्रिय हैं । आज भी हिंदी के लेखक लगातार विभिन्न विषयों को लेकर सृजनरत हैं । अनेकों नए कथाकारों ने औद्योगिक सम्बन्धों उनसे संश्लिष्ट प्रभाव, शोषण, दमन और ससाधनों के दुरुपयोग पर भी कलम चलाई है ।  इन विषयों पर लिखी गई बड़ी कहानियां लघु उपन्यासों का ही आनंद देती हैं ।

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प्रतिक्रिया

श्री शैलेन्द्र शैल, नई दिल्ली, मो. 9811078880

एक मार्मिक संस्मरणात्मक उपन्यास

मेरी यात्रा (सैन्य धर्म के कुछ दस्तावेज़) एक सैन्य अधिकारी की पत्नी डॉ कृष्णलता सिंह का संस्मरणात्मक उपन्यास है । आम तौर पर अधिकारी स्वयं अपने संस्मरण लिखते हैं, पर उनके परिजन बहुत कम । इसमें उनका आंतरिक और बाह्य संघर्षों पर विजय का भोगा हुआ यथार्थ है । इसमें सैन्य जीवन की भ्रांत धारणाओं को तोड़ते हुए इसकी सही तस्वीर चित्रित की गई है।इसको उन्होंने सरहद के पहरेदारों के परिवारों को समर्पित किया है । आम नागरिकों को उनका बाहरी रूप ही दिखाई देता है, उनकी कठिनाइयां, विवशताएं और संघर्ष दिखाई नहीं देते । इस पुस्तक का उद्देश्य उन्हें हकीकत का आइना दिखाना है।उनका हर दो-तीन साल में नये स्थान पर स्थानांतरण और यायावरी जीवन, लंबे समय तक परिवार से दूर रहना और बच्चों की पढ़ाई का बाधित होना ऐसे पहलू हैं जिन्हें जानने और समझने की आवश्यकता है ।

लेखिका ने बांग्लादेश का युद्ध और श्रीलंका युद्ध में पति की तैनाती के समय परिवार का भोगा और अनुभूत सत्य बहुत मार्मिक ढंग से बयान किया है । उन्होंने आपातकाल,बाबरी मस्जिद विध्वंस और आपरेशन ब्लू स्टार से प्रभावित जीवन को भी उकेरा है ।

लेखिका अद्भुत स्मरण शक्ति की धनी हैं । उन्होंने पति और बेटी द्वारा लिखे पत्रों का सहारा लेकर अपने जीवन की अंतरंग छवियों को उकेरा है।वे कहती हैं कि आलिव ग्रीन के साथ मेरा यह सफ़र काफ़ी रोमांचक रहा । कभी फूलों का सफर रहा, कभी कांटों में उलझा । ऐसी दस्तावेज़ी पुस्तकें बहुत कम लिखी गई हैं । लेखिका बधाई की पात्र हैं । 


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यात्रा संस्मरण

डॉ. नयना डेलीवाला, अहमदाबाद, मो. 9016478282, 9327064948


लोकसंस्कृति की रंगबिरंगी भूमि

रचनाकारः हरीश खत्री 

अनुवाद कर्त्रीः डॉ. नयना डेलीवाला

देश के मध्य में स्थित है एक राज्य, जिसे हम छत्तीसगढ़ कहते है । एक ऐसा भूभाग जो सन् 2000 में मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ राज्य के रुप में अस्तित्व में आया । चूंकि इस प्रदेश का इतिहास तो सदियों पुराना
है । प्राचीन काल में ये “दक्षिण कोशल” के नाम से जाना जाता था । एक मान्यता के मुताबिक एक नाम “चेदीशगढ़” था जो आज अपभ्रंश होकर “छत्तीसगढ़” हो गया ।

घने जंगलों से घिरा हुआ यह क्षेत्र प्राकृतिक सौंदर्य से आकंठ-खचाखच भरा हुआ है, जो प्रकृतिप्रेमियों के लिए प्रवासन के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है । हाँ बेशक यहाँ के कुछ क्षेत्र नक्सलवादी हिंसा से प्राभावित होने के कारण प्रवासी कम आते हैं । चूंकि छत्तीसगढ़ के प्रशासन ने नक्लसवाद जैसी प्रवृति को नियंत्रित किया है, तथा प्रवासन हेतू आवश्यक सुखसुविधाओं को विकसित भी किया है । हरियाली, पर्वत, जलप्रपातों से भरे हुए इस क्षेत्र के सौंदर्य को भोगने के लिए एवं शांति की गोद में विहरने के लिए प्रवासियों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है छत्तीसगढ़ ।

राज्य के टुरिज्म बोर्ड के पदाधिकारी दोस्त की मदद से हमारा छत्तीसगढ़ प्रवास का सुंदर आयोजन संभव हुआ । परंतु “प्रथम ग्रासे मक्षिका” की भाँति अहमदाबाद से रायपुर जाने के पूर्व ही अचानक पता चला कि हमारी रायपुर जाने की ट्रेन ही केन्सिल हो गई है! हमारी तो जान पे बन आई! तत्काल रेल एजन्ट से बात की, हमारी तकदीर अच्छी थी कि सुबह की फ्लाइट की टिकटें मिल गई और ग्यारह बजे तक तो हम रायपुर पहुँच भी गये । छोटे से एयरपोर्ट पर छत्तीसगढ़ की संस्कृति की झलक तथा सुचारु सुशोभन देखकर चित्त खिल उठा, खुशी से झूम
उठा ।

दोपहर के भोजन के पश्चात सर्व प्रथम अति उत्कृष्ट महंत घासीदासजी स्माकर संग्रहालय की मुलाकात करके उनके जीवन एवं क्षेत्रीय कार्य की जानकारी प्राप्त की, राजा महंत घासीदासजी ने 1875 में इसका निर्माण किया था । 1953 में पुनः निर्मित इस संग्रहालय में प्राचीन प्रतिमाएं, शस्त्र, विविध प्रकार के सिक्के, अति प्राचीन प्रतिमाओं के प्राप्त भग्नावेशेषों की प्रदर्शनी लगी हुई थी, जिसकी संख्या करीब सतरह हजार से भी अधिक है । पत्थर, धातु, काष्ट आदि से बनी उमा-महेश्वर, विष्णु, पार्वती, रुद्रदेव तथा अनेक देव-देवियों की सुंदर मोहक प्रतिमाओं ने दर्शकों का मन हर लिया है ।

‘नया रायपुर’ जो रायपुर सीटी से करीब 25 कि.मी.दूर विकसित किया गया है, वहाँ का प्रमुख आकर्षण है पुरखौती मुक्तांगन, जिसे हम पूर्वजो के मुक्त आंगन के रुप में देखते-जानते है । 

यह स्थान छत्तीसगढ़ की आदिवासी एवं लोकसंस्कृति के खुले और विशद प्रदर्शनी के समान है । इस प्रदेश के विविध भूखंडो की परंपरागत संस्कृति का जीवंत दर्शन एक ही स्थान पर सैलानी देख सके, जान सके और उन लोगों के गहने-वस्त्रों को पहन कर खुद को भी इस परंपरा में निहार सके, भोग सके इस प्रकार से 200 एकड़ विस्तृत क्षेत्र पर रचा गया है । यह प्रदर्शनी स्थल यहाँ की भिन्न-भिन्न लोककलाओं का सजीव भंडार, उसके समग्र परिप्रेक्ष्य में आदिवासी जीवनशैली को सुंदर रुप में प्रदर्शित करते हैं । आदिवसियों की जीवन रीति, निवास, वस्त्र, व्यवसाय, हस्तकलाएं, ग्राम्यजीवन, उत्सव-त्यौहार, लोकनृत्य, धार्मिक परंपराएं और उसकी महामूली विरासत के प्रत्यक्ष दर्शन आदि, प्रवासियों को मानो इस परंपरागत लोकसृष्टि में तदाकार-एकाकार कर देते है ।

दूसरे दिन पहुँचे रतनपुर स्थित महामाया के मंदिर में, जिनकी गणना 51 शक्तिपीठों में होती है । ऐसा माना जाता है कि महामाया देवी के इस मंदिर का निर्माण 12वीं सदी का है । यह नवरात्री का समय होने से माता के भक्त उमड़ रहे थे । आदिवासी एवं ग्रामीण जनता परंपरागत वस्त्रो में बहुल संख्या में उपस्थित होने पर भी किसी भी प्रकार की बूमाबूम या हल्लाबोल किये बिना, महामाया के दर्शन हेतू लगी लाइन में शांति से आगे बढ़ रहे थे । गर्भगृह में देवी महामाया का स्वरूप अत्यंत ओजस्वी, प्रभावकारी तथा प्रचंड महाशक्तिशालीनी के रुप में माता की प्रतीति करवा रहा था ।

छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित ऐतिहासिक स्थान कबीर चबूतरा, संत कबीर की तपोभूमि के रुप में प्रसिद्ध है । शाम उतर आई थी अतः संत की पावन स्मृति को समर्पित इस स्थान पर कबीरजी को बाहर से ही नमन करके, पहुँच गए माँ नर्मदा के उद्गम स्थान अमरकंटक में । करीब 100 फूट की ऊँचाई से गिर रहे जलप्रपात कपिलधारा की प्रचंड धाराएं देखकर हृदय अति रोमांचित हो गया । तत् पश्चात रामघाट पर गये । घाट की पायरी पर बैठकर, हाथ में जल लेकर मां नर्मदा को अंजुरी अर्पित की । पावन जल को सर पर चढ़ाया । अस्त होते पहर की सलोनी संध्या में माँ नर्मदा के शीतल जल में पैर डूबोकर तन-मन से उसमें एकाकार हो गये, रात के ओले उतर आये, शीतल मंद हवा की सिहरन के बावजूद भी वहाँ से उठने का मन नहीं हो रहा था।क्योंकि मां नर्मदा के पावन जल –स्पर्श की आह्लादक अनुभूति में सब रम गए । आखिर कार समय ने जवाब दिया और मनमारकर भी उठकर मां के उद्गम स्थान अमरकंटक के पवित्र मंदिर में प्रयाण से ।

संध्या एवं रात्री के मधुर मिलन की बेला में रोशनी से मंदिर झिलमिलाहट से चमक रहा था । संयोगवश दर्शनार्थियों की भीड़ न के बराबर थी, अतः पूरे परिसर में शांति एवं पवित्रता का मनमोहक वातावरण छाया हुआ था । विशाल पट पर 1300 कि.मी का प्रलंब पंथ काटकर समुद्र को मिलने के लिए दौड़ रही इस भव्य सरिता के उद्गम स्थान नर्मदा कुंड के दर्शन करके भावविभोर मनःस्थिति में गरक होकर मंदिर की पायरी पर विलास सुख की साँस लेने के लिए बैठे । इस अद्भूत वातावरण में मन एवं हृदय से अनोखे स्पंदन उठ रहे थे और विरल अनुभूति के अगम्य लोक में अनायास ही खींच ले जाते थे । शांत चित्त से माता के भव्य स्वरूप की झाँकी करते हुए विस्मययुक्त भावलोक में डूब रहे थे ।

आमादोब की लहलहाती हरियाली के बीच स्थित सोनभद्र रीसोर्ट में शातिपूर्ण रात्रि गुजारकर, सुबह तरोताज़ा होकर सतरेगा की ओर प्रयाण प्रारंभ किया । दोपहर में पहुँचे कोरबा । छोटा सा यह नगर उद्योगों से धमधम कर रहा है । सरकारी कॉर्पोरेशन का एनटीपीसी का ज़बरदस्त पावर प्लान्ट यहाँ पर स्थित है । देखनेवाले को लगता है कि चहु दिशा में बिछी हुई इलेक्ट्रीसिटी की ऊंची-ऊंची ग्रीडें और उसे जोड़नेवाली वायर के लंबे-लंबे रस्सो के मंडप के नीचे कोरबा नगर बसा हुआ है । एल्युमिनियम का उत्पाद करनेवाली जायन्ट कंपनी बाल्को का विशद् संकट भी यहाँ पर स्थित है । इससे भी कहीं अधिक भारत की सबसे बड़ी और एशिया की दूसरे नंबर की कोयले की खदाने भी इन्हीं क्षेत्रों में स्थित हैं ।

कोरबा के उलटे-पुलटे रास्तों की झंखाड़ से बाहर निकलकर सतरेगा जानेवाले रास्ते पर देवपहरी जलप्रपात का मनमोहक, रोमांचक नज़ारा भोगते हुए आये एक शाल वृक्ष के पास । शाल छत्तीसगढ़ का राष्ट्रीय पेड़ होने का गौरव रखता है । इस क्षेत्र के आदिवासी लोगों के जीवन के अभिन्न अंग समान है शाल वृक्ष, इसी पेड़ के विविध अंगों से करीब आधा दर्जन जितनी चीज़ें वो लोग बना पाते है । शाल वृक्ष की वे लोग पूजा करते है और उसके आसपास शऱहूल नामक लोकनृत्य भी करते है । हम जिस वृक्ष के सामने खड़े थे वहाँ पर रखी गई सामग्री के अनुसार उस वृक्ष की ऊंचाई 28 मीटर और आयु 1400 वर्ष की थी !

यहाँ एक मज़े की बात हुई । वृक्ष के सामने एक बाडी थी । विविध प्रकार की सब्जियों के पौधे और बेल झूल रहे
थे । एक स्थान पर ताजा कोमल लौकी लटक रही थी, जो हमें और महिला साथियों को ललचा रही थी  । महिलाओं  ने संयम तोड़कर लोकी को बेल पर से तोड़ ही लिया । अब सतरेगा पास में ही था । पहुँचते ही वहाँ का अद्भूत दृश्य देखकर आँखे आश्चर्य से चौंधियाने लगीं । सामने ही क्षितिज तक बिछी हुई, पसरी हुई हलकी आसमानी प्रशांत जलराशि, सांद्य बेला, उपर निरभ्र गगन का मनोहर पट, पश्चिम में ढलने की तैयारी में फेरी मार रहे सूर्यदेव द्वारा प्रसारित लालिमा । कितना आह्लादकारी, रोमांचक दृश्य ! सूर्यदेव की लीला समाप्त होने पर वहाँ से दूर जाने का मन ही नहीं करता था, इतने में किसी ने वह लोकी की याद दिलाई । तुरंत ही उसे किचन में भेजा गया । कुछ समय के बाद जब सरोवर के जल रात के अंधकार की आगोश में सरक रहे थे, उसी समय व्यू पोईन्ट पर ही, टेबल-कुरसी पर गरमागरम लौकी के पकोडे उस पर छिंटकाव किया, जिह्वा को ललचाने वाला स्वादिष्ट मसाला तथा अदरकवाली लज्जतदार चाय की चुस्की के साथ मज़ा लिया । यह हमारे जीवन की अविस्मरणीय शाम बन गई । रात्रि भोजन भी उसी स्थान पर सितारों से खचाखच भरे आसमान के तले, सरोवर के सानिध्य में, नवरात्रि माने ए... हालो..... गरबा रमीए । गुजराती के साथ दिल्ली की बहने भी गरबा के हिलोर में डूब गई। यह हमारे जीवन की अविस्मरणीय शाम बन गई ।

दूसरी सुबह बोटिंग के मज़ा लेने के लिए तरोताज़ा होकर सब तैयार और उपस्थित भी । सुंदर-सी नाव, उसमें रंगबिरंगी कपडे से बना मंडप, उसके नीचे सोफा जैसी नर्म आरामदेह बैठक और ब्रेकफास्ट की सारी सामग्री के साथ रीसोर्ट का स्टाफ भी हमारी सेवा में तैयार था । 

घरघराट करते हुए नाव का मशीन शुरू हुआ, नाव सरोवर की सतह पर सरकने लगी । मजाक-मस्ती, हास्य की तरंगो के बीच मोबाइल के कैमरे की क्लिक फटाफट होने लगी । सुबह का गुलाबी माहौल, सरपट बहती शीतल हवा, हल्की सी उष्मा प्रदान करती सुबह तन को सिंकती धूप, सरक रही नाव में से चहुं ओर दृश्यमान प्राकृतिक सौंदर्य का नज़ारा आँखों के लिए तो उत्सव होकर रह गया । इस मनमोहक वातावरण में इडली-सांभार, सेन्डविच के साथ गरम-गरम चाय-कॉफी के आस्वाद लेने का मौका कभी-कभार ही मिलता । अब पहुंचे सरोवर के मध्य स्थित द्वीप पर । जंगली वनस्पति से भरपूर द्वीप पर कुछ समय रुके, और प्रारंभ की वापसी की यात्रा सतरेगा की यह अद्भूत, आह्लादकारी नाव का सफर हम लोगों के लिए तो अनेरी स्मृति बन कर रह गया।

अब लंबा सफर तय करके पहुँचना था बारनवापारा के घने जंगल में मोहदा क्षेत्र में स्थित हरेली इको-रीसोर्ट में । जंगल तक पहुंचते ही शाम ढ़लने लगी थी । घना अंधकार, प्रगाढ़ जंगल, कच्ची संकरी पगडंडीयों से गुजरना था । रास्ते में एक कस्बा देखा, जो अंधकार से भरा पड़ा था।जहाँ एक वाल्मिकी आश्रम था, उसमें था एक गौमुख, जिससे जल प्रवाह बह रहा था । मोबाइल के प्रकाश में उसे देखा, लग रहा था ऐसे घने अंधकार में भी सारा गाँव यहाँ एकत्रित हो गया था । आगे का संकरा रास्ता दोनों तरफ लगी घनी झाडियों के बीच से जा रहा था, डर का माहोल, वन्य पशुओं का डर, आदिवासी के जंगली शस्त्र का भी । छोट-छोटे दो-तीन गाँव से गुजरते हुए आखिरकार पहुंच ही गये मोहदा के इको-रीसोर्ट में । जमीन से दस-बारह फूट की ऊँचाई पर सुंदर कॉटेज बने हुए है । अंदर की दीवारें.छत, फ्लोर, फर्निचर सब कुछ लकडी का बना हुआ था । कॉटेज सुंदर और आरामदेह थी । सुहानी सुबह में छुटकी सी बाल्कनी से बाहर का दृश्य देखकर ‘वाह-वाह’ के उद्गार की ध्वनि अचानक ही सरक पड़ी । कॉटेज के पिछले हिस्से में छोटा-सा तालाब, एक ओर धुंद तो दूसरी तरफ हल्का-सा सूर्यप्रकाश जल पर चमक रहा था । रोमांचित करनेवाली आह्लादक, चित प्रसन्न हो गया इस सुबह का नजारा देखकर ।

आराम से चाय-नास्ता करके आज के सफर का प्रारंभ किया । रास्ता काफी लंबा था, दोपहर तक पहुँचे सिरपुर । पुरातात्विक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण क्षेत्र में उत्खनन द्वारा हिन्दू, बौद्ध एवं जैन संस्कृति के प्राचीन अवशेष, मूल्यवान प्रतिमाएं, शिल्प आदि जो मिले है, वो इस संग्रहालय में प्रदर्शित किये गये है । विशेष महत्वपूर्ण बात यह है कि इस संकट में सातवीं सदी में ईंटों से बना प्रभावकारी लक्ष्मण मंदिर स्थित है, जो भगवान विष्णु को समर्पित है । ढ़लती दोपहर में करीब शाम के चार बजे हम पहुँचे चंपारण । पुष्टि संप्रदाय के स्थापक श्रीमद् वल्लभाचार्यजी का यह जन्म स्थान है । वैष्णवों का सबसे बड़ा और पवित्र तीर्थ स्थान है । दर्शन का पट खुलने में अभी काफी देर थी, परंतु इस सुंदर मंदिर के चहुं ओर के परिसर से भक्तिमय वातावरण की महक से मन प्रसन्न हुआ, उसी प्रसन्नता के भाव से हमने वहाँ से बिदा ली और आगे बढ़ गए ।

करीब रात के दस बजे हम कोंडागाँव पहुँचे, सब कोइ थककर चकनाचूर हो चुके थे फटाफट खाना खाकर घोड़े बेचकर सो गए, कब सुबह हुइ पता न चला । तरोताज़ा होकर जैसे ही कमरे से बाहर निकले दिल बाग-बाग हो 

गया । धनकुल रीसोर्ट की विशालता, खुला-खुला वातावरण, मस्त शीतल ताज़ा हवा, रजवाडा जैसा रीसोर्ट का पूरा गठन और समग्र परिसर के ताज़गी से भरे माहौल से मन प्रफुल्लित हो उठा । ब्रास एवं ब्रोन्स का उपयोग करके बना हुआ बड़ा सा घंटा, मेटल (धातु) की सुंदर कलाकृतियाँ बनाने के लिए कोंडागाँव प्रसिद्ध है यहाँ के आदिवासी कलाकार लोहे की उत्तम कलाकृति की बेनमून चीजें बनाते है, जिसमें रोज-ब-रोज के जीवन के उपयोग की, सुशोभन की सुंदर कलाकृतियों का इसमें समावेश होता है । तीरकामठा, स्तंभ, झुले तथा बांबू, मट्टीकाम, पत्थर, भींत (दीवार) तथा कपडे पर चित्रकारी करने में ये सारे कलाकार उत्कृष्ट कौशल रखते है । ऐसे ही एक वर्कशोप में जाकर गृहशोभा की उत्तम कलाकृतियों को खरीदने का अवसर सबने पाया और सामान भी खरीदा । कोसा सिल्क की साडियाँ इस प्रदेश की विशेषता है, इन साडियों की भी जमकर महिलाओं ने खरीदारी की ।

इस क्षेत्र में दशहरा पर्व का बहुत महत्व होता है । तीन-चार दिनों तक लोग पागलों की तरह इस त्यौहार को मनाते है । संयोगवश यहाँ बस्तर में होने के कारण स्थान-स्थान पर उसे मनाने के लिए मस्त मगन हुए लोगों को देखा । जगदलपुर में हमें ये देखने का अनन्य अवसर प्राप्त हुए । दशहरे के निमित्त हरेक गाँव के मंदिरों के देवी-देवताओं की शोभायात्रा उत्साह और भक्तिभाव पूर्वक आयोजित की जाती है । विशेष प्रकार की पालकी में देवों की शोभायात्रा में लोग अपने परंपरागत वस्त्रों एवं आभूषणों के शृंगार के साथ, जनसाधारण लोकनृत्य करते हुए यात्रा में जुड़ते है । इन लोगों के उमंग, उत्साह और जुस्सा अलग ही होता है ।

हमारी आनंद यात्रा के अंतिम पड़ाव चित्राकोट पर आ पहुँचे । यहाँ का जलप्रपात अति नयनरम्य, आकर्षक था । जगदलपुर के पश्चिम में स्थित इंद्रावती सरिता के भागरूप यह रमणीय जलप्रपात 95 फूट की ऊँचाई से सरिता में गिर रहा था । भारत के सर्वाधिक चौड़ाई वाले जलप्रपात के रुप में ये जाना जाता है । वर्षाऋतु में उसकी चौड़ाई 980 फूट तक पहुँचती है । उसकी अप्रतिम भव्यता के कारण भारत के नायग्रा जलप्रपात के रुप में भी विख्यात है। अति प्रचंडता से नीचे गिर रहे होने के कारण गिरता हुआ जल धूंद भरी बदली का सृजन करता है, जो दर्शको को रोमांचित करता है । वहाँ से कुछ दूरी पर चट्टानों से निकलता मेन्ड्री जलप्रपात है, जिसका सौंदर्य दर्शकों को प्रफुल्लित करता है ।

आखरी पड़ाव, अंतिम दिन हमने टुरिज्म बोर्ड के निदेशक श्री अनिलकुमार साहु की शुभेच्छा मुलाकात की, इतने सुंदर हमारे प्रवास के आयोजन हेतु आभार व्यक्त किया । उन्होंने भी हमारे प्रवास के लिए प्रसन्नता अभिव्यक्त की । गढ़कलेवा के प्रणालिगत ढ़ाबे में छत्तीसगढ़ी नमकीन तथा मीठाई से हम सबका मुँह मीठा करवाकर हमें भावपूर्ण रुप से बिदा हुए । प्रकृति ने बिखेरे हुए अकूट सौंदर्य के साथ रंगबिरंगी लोकसंस्कृति के आकंठ भंडार के समान छत्तीसगढ़ की हमारी यात्रा सुखद एवं आनंदायक एवं अविस्मरणीय रही । 

संपर्क सूत्र : हरीश खत्री, वासणा, अहमदाबाद, मो. 9904157939

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आलेख

डॉ. नयना डेलीवाला, अहमदाबाद, मो. 9016478282, 9327064948


वास्तुकार तनु की असमंजस

हवा, जरा थमकर बहो, उपन्यास मातृभारती, हिंदी प्रतिलिपी और चैट उपन्यास के लिए विख्यात कथाकारा नीलमजी का है यह तो हम सब जानते ही है तथापि एक विशेष, बात है कि यह कथा गुजरात की पृष्ठभूमि और मेरी मातृभूमि के परिप्रेक्ष्य में एक हिंदी रचनाकार ने गूंथा है, अपनी अनोखी खीचडी भाषा, एवं लचीली शैली में ।

लेखिका का परिचय देना तो सूरज को दीपक दिखाना ही होगा । अनेक क्षेत्रों में विविध प्रकार के कार्य करनेवाली नीलमजी आज हिंदी जगत पर छायी हुई हैं, दिल्ली भी उनसे अछूती नहीं है । 

शीर्षक हीन 20 परिच्छेदो में रचे हुए इस उपन्यास में फ्लेश बेक, में दो कथाएं साथ –साथ चलती है । यहाँ हम देख सकते है कि लेखिका रोचक ढंग से मानो जादू की डिबिया में से एक-एक चरित्र को खोलती है । तनु, जिसका शौक है आदिवासी माने लोक संस्कृति का अवगाहन-परिचय करते-करवाते हुए आदिवासी लोगों की सामाजिक समस्याओं, रीत-रस्मों को जानना, समझना और समस्याओं का हल करने की कोशिष भी कर रही है, जो हमें उपन्यास की घटनाओं से पता चलता है । यह रूप तो उसका आश्रम का है । जब वह बडौदा जाकर अमीर मानूनियों को पांचतारा होटेल में इन्हीं गहनों को दिखाकर, उनसे अच्छा मुनाफा कमाती है । बॉस पटेल के साथ काम करते हुए सह कर्मी सन्नी के प्रति कोमल भाव रखती है, जुड़ी रहती है परंतु केवल दोस्त के रुप में, जबकि सन्नी तो उसे अपनाना चाहता है, उन दोनों की रोमांचित करने वाली नोंकझोंक को रचनकार ने सटीक रुप से दर्शाया है तो पढ़ते हुए लगता है कि ये दृश्य हम अपने इर्द-गिर्द ही देख रहे हैं ।

तनु जो प्रमुख नायिका के रुप में वास्तुकारी के साथ अपनी महेच्छा को,पूरे भारत में नंबर वन पर आदिवासी आभूषण बेचनेवाली बनना चाहती है, उसके लिए अनेक प्रकार के यत्न वे करती है । 

उपन्यास का प्रारंभ ही स्वप्न शैली से हुआ है, कि तनु खुद अपनी सारी क्रियाएं करती हुई सपना देखती है पर जब तकिया हाथ में आता है तो, जाग जाती है ।

वह जब आश्रम आ रही थी तो कुछ आदिवासी घरों के बाहर एक सफेद कपड़ा लटक रहा था, इस विषय में उसके मन में प्रश्न उठता है कि आखिरकार ये है क्या ?

गुंथा एक आदिवासी लड़की जिसे काकासाहब आश्रम में ले आये हैं सबकी मेहमान नवाजी करती है, और भी कर्मी है पर यह तनु, माताजी और शोध के लिए अन्य़ आनेवाले मेहमानो की खातिरदारी भी करती है । अनपढ है परंतु अपनी सुझबूझ से आनेवाले लोगों से ज्ञान बटोरती रहती है,बौद्धिक रुप से परिपक्व हो रही है, तनु को वह अधिक प्रिय है ।

अरे..अरे.. झूम करके संदूक खुला और सौम्य, शांत, भजन, संगीत में डूबी हुई एक संन्यासिनी, जिसे लोग माता जी के नाम से जानते हैं, मैं उसे कहीं तापसी भी कहती हूँ । जिनका नाम है शैलमयी-आनंदमयी, परंतु उपन्यास का जब रहस्यमय पन्ना खुलता है तो पता चलता है कि शैलजा नाम है, जिसे किसी खास व्यक्ति द्वारा पुकारा जाता था । इनकी विशेषता यह है कि अपने नित्य कर्म से निपटकर ही 10 बजे के बाद किसीको दर्शन देती है, जिसका कटु अनुभव तनु को हुआ था, क्या रहा होगा यह जानिए उपन्यास से ।

तनु गुंथा से जानती है कि त्यक्ता स्त्री की दूसरी शादी के लिए छोड़े हुए पति की पगड़ी का आधा हिस्सा काटकर घर के उपर बांधते है । यहाँ लड़की की शादी की बात है । 

तापसी और तनु की आत्मीयता में वृद्धि हुई और दोनों आपनी नीजि बाते बांटने लगी । संन्यासिनी तनु को शादी के लिए समझाती है, पर तनु सन्नी को दोस्ती तक रखना चाहती है ।

आश्रम में आने के बाद तनु गुंथा से नदी के तट पर जाकर उसकी हँसी क्यों विलुप्त हो गयी पूछती है, और बार-बार गुंथा को उस खिड़की की तरफ देखने के उपक्रम की वजह जानने की कोशिष करती है, तब पता चलता है कि लंदन से आदिवासी जीवन पर शोध के लिए आया नेलसन को गुंथा से प्रेम हो जाता है, और गुंथा भी, शादी के वादे करके चला जाता है, तब, वो जो कि इस दुर्भाग्य से बिंध चूकी थी सारी सौंदर्यमयी, भोली आदिवासी लड़कियों को समझाती है कि... परदेसियों से न अँखियाँ मिलाना, परदेसियों को है एक दिन जाना... पर ये भावुंक लडकियाँ कहाँ समझती है, जब पीड़ा भुगतती है तब आँसु बहाने के सिवा कुछ नहीं बचता ।

रहस्यमयी रुप से जब संन्यासिनी आश्रम में दुबारा तनु से मिलती है, तब पिछली बार शादी के संदर्भ में चरम योग और चरम भोग अधूरे ही है, कि बात छेड़कर समझना चाहती है, तब तापसी कहती है मैं जन्म से संन्यासिनी नहीं हूँ, उसके अंतरगर्भ में डॉन आश्रम में कैसे आया था ,बैठता था, शांति पाता था और तापसी अपनी भावनाओं को नहीं रोक पाती थी, वह भी अपने परिवारकी विसंगत स्थिति की बदौलत तापसी बनी थी लोगों को दर्शन की बातें समझाती थी । परंतु व्यभिचारी डॉन से अपने को मुक्त नहीं कर पा रही थी ।

हाँ उसका हरिद्वार में आश्रम था, सामाजिक कार्य करती थी, योग सिखाना, अबुध लोगों को जगाना समझ देना ,काम देना, विविध प्रवृत्तियों में रत रखना आदि । वे अक्सर गुजरात आती थी तो क्या गुजरात की तो नहीं आप, तब उत्तर देती है, एक बार मेरे आश्रम में नाइजीरीयन गुजराती आए थे बहुत दान दे गये थे, उनके रिश्तेदारों के बुलाने पर गुजरात आयी । गुजराती लोग धनवान होते हैं, धार्मिक होने पर दान भी करते है, मैं तो समाज कल्याण के काम से आती हूँ आश्रम में रहती हूँ, पर आश्चर्य होगा कि कई सारे विदेशी डॉक्टर मेरे आश्रममें निशुल्क सेवा देने आते है । हाँ ये बड़ौदा की मेरी मित्र धर्मगुरू डॉ. गीताबेन शाह के अस्पताल में सेवा देने आते है ।

तनु और तापसी के संवाद से योग और भोग की व्याख्या के समय मुझे चित्रलेखा की पाप-पुण्य की परिभाषा याद आती है, और तब लगता है तुंडे तुंडे मति र्भिन्ना, सबका अपना नज़रिया है । पर तनु को अपने जीवन का दर्शन कराने के बाद, बहुत अच्छे से समझाने के बाद, तापसी कहती है के अब तो जो भी कहेगा, करेगा उपरवाला ही । तब तक वह डॉन जिसका मर्डर होता है, तापसी अनकही कथा में उलझ जाती है ।

तनु, सन्नी का फोन आने पर बड़ौदा जाने के लिए उलुल-झुलुल चीजों को समेटते हुए बस पकड़ती है, बस में लक्ष्मी के जीवन के बारे में सोचती है, कि पीड़ा के सिवा कुछ न पाकर भी जीवन तो बसर करती है । अंततः उसी स्वप्न में बस में खिड़की से सर टिकाकर सन्नी की छाती पर सर रखकर शांति की अनुभूति पाती है, परम भोग ही चरम योग तक का मार्ग है, यह बात वह अच्छे से समझ लेती है ।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि तापसी की गोपनीय, अंतरंग बातें सुनकर स्व के मनोजगत से मशक्कत करती हुइ तनु, सन्नी के फोन से ही नहीं परंतु सन्नी को पाने की अदम्य चाह लिए हुए बडौदा की बस पकड़ती है । उस दौरान लक्ष्मी के जीवन की रील उनके मानस चक्षु के सामने घुमती है, पर वह उसे झटक देती है ।

बस से उतरते ही, अनाम डॉन की अखबार में खबर देख-पढ़कर बेताब हो उठती है, माताजी, शैलमयी के बारे में तनिक सोच-विचार करती है, परंतु अंततोगत्वा तापसी और डॉन के संवेगपूर्ण भावात्मक मिलन को याद करते हुए सन्नी को पाने के लिए बावरी हो जाती है ।

इस रचना में तनु-तापसी-गुंथा, लक्ष्मी आदि के वैविध्यपूर्ण जीवन के चित्रों में भावक- पाठक रच-बस जाता है, फिरभी आगे होगा क्या की उत्सुकता बनी रहती है—यही रचनाकार की कलात्मकता है ।

गुजरात के बड़ौदा नगर की पृष्ठभूमि और आदिवासी समाज के रस्मो-रिवाज, आश्रम की गति विधियाँ, एन.जी.ओ की प्रवृत्तियाँ, डॉक्टर्स की निःशुल्क सेवाएँ, पूर्णिमा पकवासाजी का आदिवासी लड़कियों को अफीम के नशे से उजागर करना, जीवन की कीमत समझाना, माताजी के चरम भोग और चरम योग के अधूरेपन को उद्घाटित करते हुए दार्शनिक तत्वज्ञान का संकेत, मोक्ष के प्रश्न द्वारा अनुभूति की गहराई नापना आदि क्रियाकलापों को घटना एवं प्रसंगो में गूंथकर, हवा को जरा धीरे बहने के लिए रचनाकार का संकेत है, वरना झंझावात क्या कर सकता है यह तो हम वास्तव में अहमदाबाद नगर में हाल में देख रहे है ।

सही अर्थ में शीर्षक प्रेरक बोध प्रदान करता है, वास्तुकार को अपने कर्म के लिए सावधान कर देता है । मिश्रित भाषा का प्रयोग जानकर के किया है क्योंकि आदिवासी संस्कृति को, वह भी गुजरात की तब तो ये बनता ही है, पर मीठी गंधवाली, भाषा अच्छी लगती है शब्द--- हंसली, कड़ा, ड्रैगन, हांसडी, बोरडा, बिछुए, मुंदरी, हाथ-पैर के कड़े आदि ।

संवाद ऐसे गुंथे है कि मर्म तुरंत, फलित न होकर मन के आवेग को उत्सुकता में ढ़ालता है । कथा रसीली प्रवाहमयी है, ए... पर्दा उठा और एक नया जादू खुला, परंतु कथा पूरी फ्लैशबेक में कही जाती है । प्रतिपाद्य पर नजर करें तो सामाजिक जागरण, निम्न जाति का उत्थान, एन.जी.ओ का परिचय, अर्थ का सही उपयोग जो लोगों को संवार दें । 



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समीक्षाएँ

श्री सत्यपाल उप्पल

मोह के धागे

आदरणीया वीणा विज 'उदित' का कहानी संग्रह 'मोह के धागे' प्राप्त हुआ । वीणा विज 'उदित' हमारे समय की अप्रतिम लेखिका हैं । वीणा विज कहानी, कविता और आत्मकथा इत्यादि में समान रूप से लेखन करती हैं । इनकी रचनाएं जड़ों से जुड़ी हुई और युगीन सन्दर्भों को समेटे हुए होती हैं । इनके 'भूले-बिसरे' एवं 'छुट-पुट अफसाने' संस्मरणात्मक शब्दचित्र बहुत देर तक सोचने को मजबूर करते हैं कि आखिर एक अकेले इन्सान का जीवन इतना रोमांचक, नाटकीय और फिल्मी कैसे हो सकता है? पर यही सच है । इनका पूरा जीवन सूक्ष्म से वृहत्तम चीजों का खुद में समावेशन है । कटनी से लेकर कश्मीर तक और जालंधर से लेकर अमेरिका तक चहुंदिशी-चहुंओर इनकी पदधूलि पड़ती है । जो इनके ज्ञान एवं विद्वत्ता को और तराशने का काम करती है । ये सर्वव्याप्ति ही इन्हें बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न बनाती है । सच में निर्विवाद रूप से वर्तमान समय की ये साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।

जिस तरह अट्ठारह पुराण हैं, जिस तरह महाभारत में अट्ठारह पर्व हैं, उसी तरह 'मोह के धागे' अट्ठारह कहानियों का एक नायाब गुलदस्ता है । जिसमें पात्र, शब्द-संयोजन तथा कथा-विन्यास इत्यादि सब कुछ अच्छा बन पड़ा है । कहानी संग्रह के नाम की ही पहली कहानी 'मोह के धागे' की शानी देर तक मानस-पटल पर तैरती रहती है । कमोवेश शानी की तरह ही सभी स्त्रियों का सच एक जैसा लगता है । शानी से हमारा इस तरह तादात्म्य जुड़ जाता है कि वो हमारे बीच की लगती है । इसी तरह और कहानियों की पात्र तारा, देवी, ऊर्जा तथा अमिता इत्यादि भी बहुत आकर्षित करती हैं । संग्रह की सभी कहानियां एक से बढ़कर एक हैं । अपने आप में अनूठी और लाजवाब । जिन्हें बिना पढ़े, पूरा रसास्वादन नहीं किया जा सकता । पाठकों के बीच इतनी सुन्दर पुस्तक प्रस्तुत करने के लिए वीणा विज बधाई की पात्र हैं । उनको मेरी तरफ से ढेर सारी शुभकामनाएं । यह एक पठनीय और संग्रहणीय पुस्तक है ।

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आप सबके साथ सांझा करते हुए हर्षित हूं... अमेरिका में हिंदी के जनक और खेवनहार डॉक्टर अरुण प्रकाश की प्रतिक्रिया । उन्होंने मेरे कहानी संग्रह "मोह के धागे" को अमेरिका की हिंदी की उच्च शिक्षा के लिए सिलेबस में शामिल कर लिया है ।

"कहानी अभिव्यक्ति की मृदुभाषा है, सहज- सरल और विकसित ! संस्कृत जिसकी माता है । हिंदी भाषा व इसमें -रचित साहित्य, साहित्यकार, लेखक और कवियों से मुझे बनारस के समय से ही अपार प्रेम, मधुर संबंध एवं सत्कार बचपन से ही रहा है जो अमरीका के अपने लगभग पचास वर्षो के प्रवास में लगातार बढ़ता ही रहा है ।

संग्रह अभी हाल ही में हिंदी की जानी मानी कवियत्री व लेखिका सुश्री डॉ. वीणा विज 'उदित' जी का लघु कहानी संग्रह 'मोह के धागे' पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ । 'मोह के धागे' पढ़ते ही संपूर्ण पुस्तक पढ़ जाने का मोह जागृत हो बावजूद समयाभाव के कारण पुस्तक की सभी रचनाओं को पढ़ने की हर कहानी ने मुझको प्रभावित किया और पढ़ कर ऐसा लगा जैसे कि कथानक मेरे अपने जीवन अथवा पड़ोसियों मित्रों से जुड़ा है । भाषा शिल्प की बुनाई ऐसी जैसे सारे किरदार मेरे आसपास ही हों पंजाबी, भोजपुरी, खड़ी बोली, बाल भाषा हो अथवा बड़े-बूढ़े बोल रहे हों - सब कुछ स्वभाविक व समाज के हर पहलू के जीवन उदाहरण भयंकर बाढ़ से जूझते परिवार, पुनर्जीवन से संबंधित कथानक, प्रेम प्रसंगों के बनते बिगड़ते रिश्ते, उदाहरण, प्रवासी भारतीयों की उलझनें, भ्रूण हत्या अथवा पारिवारिक जीवन की अत्याधुनिक समस्याएं व उनके निवारण हेतु किए गए प्रयास जीया हो या अनुभव किया हो । 'मोह के धागे' से लेकर 'सलेटी बदलियाँ तक अठारह कहानियों के इस संग्रह ने मुझको इतना प्रभावित किया कि इस पुस्तक को मैंने हिंदी की उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की पाठन सूची में भी सम्मिलित किया है - कारण है कथानक की विविधता, विषय का निर्वाह और भाषा की सहजता, सरलता व स्वभाविकता २१ वी सदी के छात्र अपने को कथानकों से जोड़ सकेंगे- मेरी बात में कितना सच है इसको जानने के लिए हिंदी प्रेमियों को 'मोह के धागे' कहानी संग्रह अवश्य पढ़ना चाहिए ।  – डॉ. अरुण प्रकाश, ह्यूस्टन, अमेरिका

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चर्चा के बहाने

पुस्तक – मन की नदी से भीगे शब्द

लेखक – रेखा भाटिया

विधा – काव्य

संस्करण – प्रथम, 2023

प्रकाशन – शिवना प्रकाशन, सीहोर


रेनू यादव

असिस्टेन्ट प्रोफेसर, भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग

गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, 

यमुना एक्सप्रेस-वे, गौतम बुद्ध नगर, 

ग्रेटर नोएडा – 201 312, ई-मेल- renuyadav0584@gmail.com


शब्दों को भाव ही भीगो सकता है, शास्त्र नहीं

प्रवासी साहित्य में लगभग एक दशक से उछाल-सा आया है  । अमेरिका, इंग्लैण्ड, नार्वे, मॉरीशस, सिंगापुर आदि देशों से कई नए लेखक और कवि उभर कर सामने आये हैं  । यह अत्यंत हर्ष और सराहनीय बात है कि प्रवासी रचनाकार अपनी रचनाओं से देश विदेश में हिन्दी के क्षेत्र में फाऊंडेशन बनाना, पत्रिका निकालना या स्कूलों-कॉलेजों में अध्यापन आदि के साथ-साथ साहित्य के माध्यम से हिन्दी का प्रसार कर रहे हैं  ।     

इन दिनों अमेरिका में कवि के रूप में रेखा भाटिया का नाम तेजी से उभर रहा है  । रेखा भाटिया का ‘मन की नदी से भीगे शब्द’ संग्रह की कविताएँ सचमुच मन की नदी से बहती हुई ही प्रतीत होती हैं  । जिसमें कहीं भी बनावटीपन नहीं है, बल्कि नदी की तरह स्वच्छ एवं निर्मल ही लगती हैं  । यदि इनमें बौद्धिकता घोल दिया जाये तो कलापक्ष भी व्याप्त हो जायेगा  । किंतु दूर देश में बैठे सहज सरल भाषा में लिखने वाली कवयित्री अपने भीगे शब्दों में हृदय की भावनाओं को उड़ेल देती हैं  ।  

‘तुम मिलो मुझसे हर सुबह’ कविता में प्रेम की प्यास है, जिसे कवयित्री चाय की घूँट के साथ पीना चाहती हैं  । किंतु प्रेम की प्यास पीड़ा में बदल जाती है फिर भी उम्मीद कायम रहती हैं – “तुम ओढ़ लेते हो ख़ामोशी / कोई दलील नहीं देते / चाय क्यों अच्छी है / गंभीरता से कह देते हो / जितना है साथ / उतना मैं प्यार से निभाऊँगा / मैं फिर भी कहती रहती / तुम मिलो हर सुबह मुझे” । 

उम्मीदों का हाथ वे कर्म के माध्यम से ‘ज़िन्दगी मैं तुष्ट हूँ’ कविता में भी पकड़े रहती हैं, “जीवन और मृत्यु दो किनारे हैं / बीच कर्मों की यात्रा यही है ज़िन्दगी / निहित उम्मीद पर चलती यह यात्रा”  । ज़िन्दगी में कवयित्री हर जगह सकात्मकता ढूँढ ही लेती हैं, व्हीलचेयर पर बैठी महिलाओं को समर्पित कविता में व्हीलचेयर पर बैठी खिड़की से झाँकती महिला दो हंसों का जोड़ा देखकर खूब हँसने लगती है  । उसका हँसना ही जीवन में उम्मीद की किरणों से भर जाना है  । सभी उम्मीदों में प्रेम की उम्मीद ही है जो सबसे अधिक उम्मीद जगाता है वह दूसरों से ही नहीं खुद से प्रेम करना सिखाता है, “जब तुम्हें मुझसे और मुझे तुमसे इश्क़ हुआ था / तुम्हारे इश्क़ में डूब मुझे खुद से भी इश्क़ हुआ था” ।

रेखा जी की नारी अत्यंत प्रेमिल स्वभाव की दिखती है, किंतु वर्चस्ववादी सत्ता की हिस्सेदारी को स्वीकार करने पर कवयित्री “संतान से पहले पुरूष रूप को स्वीकारा” कहकर तंज भी कसती हैं और बेटियों से कहती हैं कि “बेटियों ! उड़ान भरकर तो देखो / देख पाओगी सच्चाई”  । ‘लैंप पोस्ट के पास’ कविता में स्त्री के प्रति होती हिंसा का चुप्पी से स्त्री का सहना अभिव्यक्त किया गया है तो मौसम का प्याला नामक कविता में स्त्री को अपनी शक्ति पहचाने की सीख भी है  । ‘मेरी मौत’ नामक कविता में कवयित्री इंसानियत को खत्म होता हुआ देख दुखी हैं तो ‘इंसान कटा है इंसान’ पंक्ति में उत्तरआधुनिकतावाद का यथार्थबोध दर्शाती हैं  । ‘रोशनी में आओ’ कविता में वे समाज में हो रहे घटनाओं के प्रति चिंतित दिखाई देती हैं  । अमेरिका में स्वेच्छा से गर्भपात का अधिकार छीने जाने के खिलाफ लिखी कविता ‘अजन्मा श्राप’ एक परिपक्व कविता है  । “जीवन में दुःख यथार्थवादी है” के माध्यम से जीवन-सत्य को दर्शाती है  ।  

रेखा भाटिया की कविता पढ़ने के लिए कला पक्ष पर नहीं बल्कि भाव पक्ष पर ध्यान देना होगा  । संग्रह में जैसे जैसे कविताएँ आगे बढ़ती है, कविताएँ अपने सफर में परिपक्व होती जाती है  । प्रेम, प्रवास, महिला, समाज, देश को यह संग्रह अभिव्यक्त करता है ।



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