Abhinav Imroz July 2023

 




कविताएँ


श्री महेश केशरी, बोकारो ( झारखंड), मो. 90319 91875
ईमेल: keshrimahesh322@gmail.com


अब लगता है, कि ये पूरी दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी... !

सुना है, धरती पर तीन 
चौथाई खारा पानी है... और 
समुंदर का जलस्तर भी लगातार 
बढ़ रहा है...

धीरे - धीरे हमारे तटीय क्षेत्र गायब होते
जा रहें हैं ..-
एक समय के बाद बंबई बिला जायेगा...

आदमी ने कभी नहीं सोचा कि 
इस धरती पर जो तीन चौथाई खारा पानी...है ..
वो 
आखिरकार क्यों है ..?

क्यों, मीठे पानी के
सोते सूखते जा रहें हैं ...?
क्यों... सूखती जा रही है 
बूढ़ी...गंडक और यमुना...
क्यों सूखती जा रही है ...
हमारी संवेदनाएँ ...
स्त्रियों को लेकर ...! 

सभ्यता के शुरूआती दिनों से ही 
स्त्रियाँ लगातार रोए जा रही है .. !
इनके रोने से ही ये समुंदर बने हैं...!
उनके रोने से ही मीठे जल के सोते सूखते जा हैं...
और इन स्त्रियों के 
लगातार रोने से ही हमारे समुद्र लगातार 
बढ़ रहे हैं....

सुना है, ये जो खारा पानी है ..वो
स्त्रियों का दु:ख है ...
जो... पृथ्वी पर तीन चौथाई 
समुंदर के तौर पर पड़ा है...

स्त्री दु:खों को पी जाती है ...
बहुत बुरे वक्त में जो कि बहुत जल्द
ही आदमी का आयेगा 
तब, शायद 
खारे पानी की तरह ये तीन
चौथाई दु:ख भी पी जाती हमारी स्त्री ...!

लेकिन, अब लगता है, कि ये पूरी दुनिया 
एक दिन साबुत खारे पानी में डूब जायेगी 

क्योंकि आजकल एक नयी कवायद 
चल पड़ी है...
स्त्री को हिस्सों में काटकर फ्रिज 
में रखने की कवायद....
फिर... दु:खों को पीने वाली स्त्री 
इस धरती पर कहाँ बचेगी ?
जो, सोचेगी... हमारे संकट या अस्तित्व के बारे में...!
उस समय ये जो धरती का तीन चौथाई दु:ख है
उसको कौन पियेगा ? 
नीलकंठ की तरह ...!

धरती पर के मौसम
मौसम और ऋतुओं के चक्र
को मैं नहीं मानता... 
ये सब बेमानी बातें हैं 
मैं, नहीं मानता किसी आवृत्ति 
को 

समय के चक्र या दुहराव
को मैं नहीं मानता...
और, ना ही मैं मानता हूँ 
मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियाँ...

मुझे ये 
सब बेकार की
की बातें लगतीं हैं..!

मेरा मानना है कि 
धरती पर के सारे मौसम 
स्त्री 
से जुड़े हैं...

जब वो हँसती है, 
तो वसंत आता है...
वातावरण में एक मादकता 
सी छा जाती है...
फूलने लगते हैं, फूल 
गालों पर छाने लगती है 
मुस्कन...
और
हर तरफ केवल खुशियाँ... 
ही खुशियाँ दिखाई देने लगतीं हैं
सचमुच जब स्त्री हँसती है 
तो वसंत आ जाता है...!

स्त्री जब उदास और 
बहुत दु:खी होती है तो
पतझड़ आ जाता है ...!
पेंड़ भी स्त्री के दु:ख से 
उदास हो जाता है ! 
तो, गलने लगता है 
स्त्री के दु:ख में.. 
और उसकी शाखों से पत्ते गायब हो जाते हैं ..
मानों कि वे स्त्री के उदासी से दु:खी हों ..

स्त्री ...
जब ठठाकर हँसती है तो
तो, वैसाखी आती है.... 
घर-आँगन अन्न से भर 
जाता है ...
चारों ओर मँगल गान बजने 
लगते हैं ... 
और लोग मनाने लगते हैं
लोहड़ी का त्योहार...

स्त्री जब रोती है...
तो सैलाब आ जाता है ...
बाढ़... बीमारी...
प्राकृतिक आपदायें...
स्त्री के रोने से ही आती हैं...
इसलिये दुनिया को अगर 
बचाना है, आपदाओं-विपदाओं 
से तो स्त्री को हमेशा खुश रखो...!

दु:ख
ईश्वर ने पृथ्वी बनाने 
से पहले दु:ख बनाया था ! 
और उसके बाद बनाया 
स्त्री को !
ताकि, स्त्री पृथ्वी के दु:ख को
समझ सके !

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कविताएँ

स्व. सुनिता जैन

मेरी रुख़सत से ज़रा पहले

घर भेज मुझे दूजे घर
घर भूल गया मुझे-
पर वतन मेरे, पंजाब मेरे
तू क्यों भूला, बता मुझे ?
तुझे छोड़ के जाना क्या मर्ज़ी थी मेरी
मैं भूल सकी न परदेसों में भी
गन्नों से पटी तेरी छाती,
तेरे रहटों पे पनडब्बियों की
वो हूक गीली,
तेरे आलों में दिपदिपाती
संझा की दीया बाती-
पर भूल कर मुझे यों
तुझको मिला क्या कुछ भी ?
गिट्टे और स्टापो
तेरी सड़कों पे मैं खेली, 
गुड़ियों को संजोया तेरी नीम तले, 
तेरी गाचनी मिट्टी खाई
जब जब स्कूल की तख्ती पोती
तेरे पोखरों से सिंघाडे
तेरे बागों से फूल चुराये
तेरी रातों के चंदोवे तले 
निनदियाई मेरी खाट ढ़ीली
पर भुला के मुझको इतने बरस
तुझको मिला क्या कुछ भी ?
एक बार बुला तू मुझको 
लगा प्यार से गले कभी
तेरा गौरव थी मैं भी तो, 
भले शायरा एक अदना सी
तू मुझको दे आवाज़ वतन 
मेरी रुख़सत से ज़रा पहले ।


देसी माँ देस में
उसने कहा है मधुमास से 
कि अपनी मिठास दे

उसने कहा है अमलतास
से
कि थोड़ी अजास दे

उसने कहा है आँगने से
कि स्वागत में बिछ सा
जाए

उसने कहा है खिड़कियों
से
रह रह न खड़खड़ायें

वह दोलायमाल है हर
तरफ
कागज़ की फिरकनी सी

आज घर लौटेंगे दूर से
उसके अपने जाये

कौन जाने वे फिर कभी 
आयें या आ न पायें

कौन जाने तब यहाँ हों 
बिछुड़न के गहरे साये

आँगन में दूर तक 
चादर बिछी हो धूल की

चुपचाप सांकलो पे हों
जंगदार ताले मुँह छुपाये

वह दोलायभाव है सब
तरफ
कागज़ की फिरकनी सी

आयेंगे आज लौट घर
बाद बरसों के उसके
जाये।

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संपादकीय


हास्य कहाँ है उसमें भी है रोदन का परिणाम

एक भाषण प्रतियोगिता में यह मेरा विषय था, उस समय का भाषण तो अब याद नहीं लेकिन जीवन के बाद के अनुभवों से जो कुछ देखा, समझा ओर महसूस किया उस पर अगर मंथन करूँ तो उपरोक्त पंक्ति की सार्थकता और जीवन दर्शन की सारांशतः का अभास होता है । साकारात्मकता की सांझेदारी से निराशा आशा में अवतरित हो जाती है । अगर प्रकृति को ही गुरु मान कर चलें तो उसी से हम प्रेरणा और प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते हैं । प्रकृति का प्रकोप हमारी ही उपेक्षाओं का परिणाम है- प्रकृति अपने आप में प्रकृष्ट (परिपूर्ण और उत्तम है) जीवन में प्रकृति का कोई भी गुण धारण किया जा सकता है । अगर समयबद्धता को आदत बनाता है तो सूर्य नमस्कार से बेहतर कोई अनुशासन और अनुशीलन नहीं है ।

आशा और निराशा खुशी और ग़म एक ही सिक्के के दो पहलु है । फिल्म दाग़ का गीत याद हो आया-

खुशी के साथ दुनियां में 
हज़ारों ग़म भी होते हैं 
जहाँ बजती है शहनाईयां
वहाँ मातम भी होते हैं ।

एक गीत मजरूह साहब का याद आ गया फिल्म तो याद नहीं

आओ मनाएँ जश्ने मोहब्बत
जाम उठाएँ जाम के बाद
यह क्यों सोचें क्या होगा 
इस शाम के बाद-

कुदरत की मस्ती और मलंगी ही जीवन यापन के अहसासात हैं- आस बांधे रखना (धैर्य और कर्मठता) ही कई एक  नुस्खों में से एक अहम नुस्खा है । 

आदरणीय भाई साहब की याद में–          
ये जिन्दगी के कड़े कोस, याद आता है
तेरी निगाहें-करम का घना घना साया


         स्व. डॉ. नरेन्द्र मोहन

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कहानी

सुश्री मुक्ति वर्मा, नोएडा, मो. 98183 86807

मुस्कान
मैंने उसे आजतक चीखते चिल्लाते नहीं देखा था । वो यद्यपि हमारी पड़ोसिन थी । देखने में तो सभ्य थी ही व्यवहार में भी बहुत सलीकेदार थी । अपनी लीनी-झीनी मुस्कराहट लिए सब को मिलना उसकी आदत थी । बच्चा हो या बूढ़ा उसके व्यवहार में एक सुन्दर सा ठहराव था जो किसी को भी आकर्षित करने के लिए काफी था । कोई भी एक क्षण भर के लिए उसके पास रुके बिना नहीं रह सकता  था ।

लेकिन ऐसा कैसे होता है ? मेरी समझ से बाहर था। क्योंकि मैं हमेशा ताबड़तोड़ मचाये रखती थी । इधर का उधर करना मेरी आदत थी, टिक कर बैठना मेरी कुन्डली में ही नहीं लिखा था इसीलिए उसका सौम्य, शान्त स्वभाव कचोटता था । मैं उसको बड़े गौर से देखती थी । और घण्टों सोचती कि आखिर यह इतनी शान्त है तो कैसे ? क्या सचमुच इसे कुछ भी अखरता नहीं था या यह हमारे सामने बनने की कोशिश करती है ? उसके घर में भी बच्चे हैं । पति भी है । उनसे कभी तो ऊँच-नीच होती होगी ।

क्या बेटा कभी कुछ गलत नहीं करता होगा, बेटी कभी कुछ गलत नहीं करती  होगी? आज तक मैंने उसे कभी चीखते चिल्लाते नहीं सुना । और तो और पति ही कहीं अकेले जाए या फिर किसी महफिल में अकेले चल पड़ा हो। क्या उसे कोई फर्क नहीं पड़ता होगा ? उसका शान्त रहना अपने आप में एक पहेली है जिसे मैं सचमुच सुलझा नहीं पा रही थी, इतने में दरवाजे पर दस्तक हुई– किसी के आने की आहट से मैं उठी और दरवाजा खुलते ही सुधा को देख उसे गले लगा खुशी से बोली– आज तो सचमुच तुने आकर मेरी दिल की सुनी ।  दिल खुश कर दिया तूने आज । 

अरे क्या करूं मेरे यहाँ तो मेहमानों ने ऐसा डेरा डाल रक्खा है कि मेरी चैन खत्म हो गई है । एक जाता है दूसरा आ जाता है । ऊपर से मेरे पति, उनकी खातिरदारी को तो तुम जानती ही हो... अरे देखो कौन आया है, सुनो, जल्दी से नाश्ता चाय लाओ । कहने में आनाकानी तो एक तरफ एक मिनट का वक्त भी नहीं लेते उन्हें मेरा काम नहीं दिखता । मैंने कहा - हाय राम यह मर्द जात भी कैसी होती है न उन्हें काम का बोझ नहीं दिखता या वो देखना ही नहीं चाहते ? क्या तू मुझे समझा सकती है ? मैं क्या जानूं इन मर्दों की बातें मैं तो बस  इतना जानती हूँ कि सब मर्द एक-से होते हैं । वेवकूफ तो हम औरतें हैं जो बिना बात के हर बात को मान जाती हैं जो पतियों की हां में हां मिला कर खुश हो जाती हैं ।

हां तो... तेरे पति- क्या कहा तूने ?

अरे आज उनके मित्र सब मिलकर एक मित्र के यहाँ गये है उन्हें खबर मिली थी कि वहां कोई हादसा हो गया है।हादसा...? हाँ, हाँ हादसा सुधा बोली । असल में ठीक से तो पता नहीं, लगता है उनके मित्र की मौत हो गई है जो सब मित्र अफसोस पर गये हैं ।

चलो जो भी हुआ ठीक नहीं हुआ ? पर मुझे जरूर थोड़ा आराम मिला है । मैं सचमुच काम करके थक गई थी मुझे कोई बात करने वाला चाहिए था । सारा दिन इतने सारे आदमियों में परेशान थी । मैंने कहा- मेरा दिल सचमुच खुश हो गया । अब जल्दी से बता तू क्या खायेगी ? चाय तो रामू बना ही रहा है, रामू खाने को भी कुछ ले ही आयेगा- चल चलकर बरामदे में बैठते हैं । और हम बरामदे में पहुँच गये । 

मैं सोच ही रही थी कि इतने में सामने वाली औरत शायद कपड़े उतारने आई थी उसके चेहरे पर एक मुस्कराहट को देख मैं सुधा से बोली- "सुन मेरी समस्या का समाधान करेगी ?"

"कर सकी तो जरूर करूंगी"

"यह जो सामने वाली औरत है न वह सदा शान्त सी परछाई लिए भीनी भीनी मुस्कराहट लिए सदा सब को मिलती जुलती दिखती है ऐसा कैसे होता है ? क्यों उसको हमारी तरह गुस्सा नहीं आता । कभी चीखती चिल्लाती नहीं ?"

सुधा मेरी बात सुनकर हँसने लगी और हँसते-हँसते बेहाल हो गई। "अरे सुमन- तू भी कमाल है, तुझे बात भी सूझी तो क्या सूझी वो तेरी पड़ोसिन है रोती है या हँसती है । मुझे या तुझे क्या लेना-देना तेरी परेशानी देखकर मैं हैरान हूँ । और सुधा फिर जोर जोर से हँसने लगी । सुधा को इतना  हँसते देख मुझे बहुत गुस्सा आया "लो  मैंने ऐसा क्या कहा जो तुम्हारा हँसना ही नहीं रुकता ।

अरे देवी जी सुधा बोली- तुमने बात ही ऐसी की है । दुनिया में पांचों अगुलियों को  कभी बराबर देखा है । इसी तरह स्वभाव भी सबके बराबर नहीं  होते । किसी किसी के स्वभाव में इतना ठहराव होता है वो दूसरों के लिए अचम्भा बन जाता हैं और किसी का स्वभाव दूसरों को परेशान करने के लिए काफी होता है जैसा तुम परेशान हो रही हो । लेकिन सुमन तुम्हारे लिए यह मुश्किल है क्योंकि तुम्हारी परवरिश बड़े लाड़ प्यार से हुई है- तुम अक्सर लोगों को डाँट कर दूूर बिठा देती हो । सबके अपने ही रास्ते हैं । समझी ! सुधा ने आज की घटना का हवाला देते हुए कहा-
आज भी तो यही हुआ उसने मुझे देखते ही मुस्कराहट फेकीं और बोली- क्या आप कहीं गये हुए थे आपको काफी दिनों से नहीं देखा ?

तो तूने क्या उत्तर दिया– मेरी प्यारी-मैं बोली- नहीं हम कहीं गये हुए नहीं थे मेरे मम्मी पापा हमसे मिलने आये थे सो उनके साथ बातें करने में खाने पीने को लेकर वक्त गुजर गया ।

ओ...! तो आपके मम्मी पापा आये हुए हैं आप उन्हें हमारे यहां लाइये न ! 

पर वो तो कल चले भी गये । मैंने उत्तर दिया । क्या कहा, चले गये इतनी जल्दी आपने उन्हें क्यों जाने दिया ? हमसे मिलवाया तक नहीं ।

मैंने कहा आपकी हमारी तो मुलाकात ही नहीं थी न मैडम ।

ठीक है लेकिन हम पड़ोसी तो हैं न क्या यह रिश्ता कम है । आपको पता है एक पड़ोसी ही तो होता है जो आने वाली खुशी और गम में हमेंशा सबसे पहले आता है । आपने इतनी जल्दी क्यों जाने दिया ? हमें मिलवाया होता ।
मैं सोच रही थी जब मुलाकात ही नहीं तो मिलवाना कैसा  ?

अरे हमारे यहां आ जाती तो मुलाकात भी हो जाती । आजकल कौन किससे मिलना जुलना चाहता है । वो वक्त ही खत्म हो गये हैं जब हम एक दूसरे के लिए जीते थे । एक दूसरे की कदर करते थे । अब हम केवल अपने लिए जीते हैं । दूसरों के लिए कुछ करना हमारे बस में रहा ही नहीं । कैसे होता था यह सब बाताओ जरा घर में एक मेहमान आता था न तो जानती हो सारे मुहल्ले में खबर होती थी, पास पड़ोसी उसे अपने घर बुलाते और स्पेशल खाना बना कर खिलाते थे ।

पर सुनिए आपने तो कभी हमसे बात भी नहीं की । यह तो आपके पूछने पर बता दिया वरना आपकी मुस्कराहट के हम जरूर कायल हैं ।

ओ, मुस्कराहट, तो यह भी आपको तंग करती है । मैं बोल पड़ी- देखिए, कम से कम मैं मुस्करा कर प्यार तो जता ही देती हूं न । मैंने ठीक कहा ?

बिल्कुल ठीक ।

लेकिन आपसे तो यह भी नहीं होता । 

और वो गुस्से से बोलने लगी।

यहाँ के लोगों को देखो बच्चों को डाँट रहे हैं ।

तो कभी काम बालियों पर गुस्सा निकाल रहे होते हैं और तो और पोस्टमैन को भी डाँट रहे होते हैं कि खत बॉक्स होते हुए भी बाहर पड़े मिलते हैं । 

सच बताऊं मैं तो इसी डर के मारे बात नहीं करती कि कहीं कोई गलत बात हो गई तो मुझे भी डाँट न पड़ जाये । वाह ! वाह ! यह अच्छी कही।

सुमन ने ताली बजाते हुए कहा मैं तो बिना डाँट लगाये रह ही नहीं सकती ।

सोचा- चलो सुमन के पास जा कर दो घूँट सकून के पीकर आती हूँ । पर अब तुम उसका टंटा लिए बैठी हो । सुधा ने कहा- कहो तो उसे यहाँ बुलाऊँ, हाँ-हाँ बुलाओ। मैं कोई उससे डरती थोड़े ही हूँ- मैं तो वैसे ही सोचती हूँ कि वह इतनी शांत और खुश कैसे रहती है। जबकि हम यानि मैं उल-जलुल उलझनों में फंस कर अपना मूड खराब कर लेती हूँ।

अच्छा कभी बुलाती हूँ- सुधा ने कहा- उसे ताली बजाकर उसका ध्यान आकर्षित किया और और इशारे से उसे हमारे यहाँ आने का न्यौता दिया- 

वह नम्र स्वभाव की महिला मुस्कुराती हुई हमारे पास आ गई- हाथ जोड़, मुस्करा कर अभिवादन करते हुए बोली- धन्यवाद कहिए कैसे याद किया।

सुधा ने हंसते हुए कहा- सुमन पूछ रही थी कि आप के शांत स्वभाव तथा प्यारी प्यारी मुस्कराहट का राज़
क्या है ?

राज़ शायद कुछ भी नहीं- यह आपस का मेल जोल और विचारों का आदान-प्रदान ही होता है कि हम सीखते चलते हैं कि जीवन यापन के लिए क्या जरूरी है और क्या अपनाना है और क्या छोड़ देना है- सब से पहले तो आपको अपना परिचय देते हुए कहूँगी कि मेरा नाम शान्ति है । मैं अपने नाम की सार्थकता को अपने आप में हमेशा संजोये रखती हूँ !

हम दोनों के मुँह से एक साथ निकला- यह हुई न  बात ! तो यह है आप की शख़्सियत का राज़ ।

नहीं-नहीं शान्ति बोली- राज़ नहीं- यह है मेरी जिन्दगी का साज़ । जो मुझे अपने परिवेश से मिला । देखिए बहन जी मैं आपको कोई उपदेश नहीं दे रही- यह सब मैंने सीखा है ।

हाँ-हाँ क्यों नहीं । यह तो हमारी जिज्ञासा थी सो पूछा । ठीक है- यहां आकर मैं पहले तो कुछ निराश हुई थी कि यहाँ के पड़ोसी कुछ खुश्क तथा सैल्फ सैन्टरड लगे लेकिन मैं जो जलंधर से सीख के आई थी उसे यहां तो क्या कहीं भी चली जाऊँ, भूल नहीं सकती ।

शान्ति हमें भी बताओ क्या ऐसा सीखा-उत्सकता हो रही है । जलंधर में हमारी एक पड़ोसिन थी वीणा विज जिसने आस पास के सारे पड़ोस को अपने स्नेहापाश में बांध रखा था उनकी एक कविता है- सुनाऊँ तो आपको पता चलेगा कि जीवन की सच्चाई क्या है जिसे मैंने अपनी ज़िन्दगी का फलसफा बना लिया है:

वो पूछते हैं होठों पर मुस्कान कैसे रहती है
जीवन की आपाधापी में हंसी कैसे ठहरती है ।
बेवजह मुस्कुराने का कारण क्या है
अरे दुखी रहकर भी गुजारा कहां है ।
उन्होंने कहा जीवन में बहुत ग़म है
तो कोई उनसे पूछे खुशियां भी कहां कम हैं ।
क्यों इतना हंसती है नजर लग जाएगी
काजल की धार मोटी है नजर उतर जाएगी ।
फिर बोले, कभी तो तनाव होता होगा 
मैंने कब कहा ऐसा नहीं होता होगा ।
हैरान हो कि मैं दिल पर बात लेती नहीं
हां, डाल ली आदत ऐसी परेशान होती नहीं ।
वैसे भी किसने कब किसके गम बांटे हैं
मेरी हंसी ने तो मेरी उम्र के नंबर काटे हैं ।
भाई कभी तो आंसू गालों पर आते होंगे
लोग पूछ-पूछ कर जहन को सताते होंगे ।
अब पूछना छोड़ो मेरी हंसी में शामिल हो जाओ
रोनी सूरत वालों पर हंसी के मुखोटे लगाओ ।
कुछ बिखरी ज़िंदगियों में उम्मीदें जगा देती हूं
ये मेरी मुस्कानें उन्हीं की दुआएं हैं 
जिन्हें मैं हंसा देती हूं।।
बस यही है मेरी जिंदगी का राज़ और साज़-

हमारी बोलती बंद हो चुकी थी लेकिन शान्ति ने जो अहसास दिलवाया वह भूले नहीं भूलेगा- उसने तो हमारी सोच की गागर को वीणा जी के सागर से भर दिया ।

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साक्षात्कार, 

"निंदर मुझे कोंचता छीलता रहता है। वही है जो मुझसे यह सब लिखवा रहा है।" —न. मो.



डॉ. आरती स्मित, दिल्ली, मो. 8376836119


डॉ. नरेन्द्र मोहन से समालाप

जीवन में अँधेरे को चीरकर अपनी उँगलियों के सिरे पर रोशनी स्थापित कर, साहित्य समाज को रोशन करने वाले कई बड़े व्यक्तित्व हुए, जिनकी संवेदना कृतियों में छलक- छलक पड़ती हैं । जिनकी जड़ों को जमने में समय लगा, जिन्होंने भीतरी -बाहरी थपेड़े झेले और फलदार छायादार वृक्ष बने और सदैव प्रत्येक के प्रति विनम्र रहे । आग की लपटों को वर्षों तक झेलने वाले इस शख़्स को क्या कहूँ, क्या परिचय दूँ जिन्होंने संघर्ष को ही सीढ़ी बनाकर स्वयं को ऊँची छत बनाया । ये बातें तब अधिक समझ आई जब 'कमबख़्त निंदर' साथ हो लिया । मुझे मालूम न था, वह इतना साहसी और दृढ़ संकल्पी है । संघर्ष को झेलते हुए , उससे बाहर निकलने के उपाय सोचते रहना निंदर की विशेषता है । मगर जब मैं उसके स्वभाव से हैरान- परेशान हो गई तो उसके नियामक के पास गई, जो स्वयं को निंदर से कमतर मानते हुए यह स्वीकारते हैं कि शरारती निंदर ही है जो मुझे सक्रिय रखता है ।

ओ, समझ गए! सही समझे । मैं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. नरेन्द्र मोहन उर्फ़ निंदर की ही बात कर रही हूँ । कई दिनों से सोच रही थी, मगर जब पक्का इरादा किया तो मोबाइल के बटन अपने-आप ही स्क्रीन पर सक्रिय हो गए । उधर से इतनी मधुर आवाज़ सुनकर मैं हैरान रह  गई । गोष्ठियों/ कार्यक्रमों में मिलना होता रहा, मगर मोबाइल पर संवाद का यह पहला अवसर था । समय तय किया और पहुँच गई उनके घर । शाम के यही कोई 5. 15 बज रहे होंगे । सुमन जी ने दरवाज़ा खोला, सामने भीतर के कमरे में नरेन्द्र जी मुस्कुराते नज़र आए । मुश्किल से 5 मिनट बीते होंगे, अपनी ख़ैर-ख़बर देने के बाद मैं उनसे बात करने लगी तो भीतर कहीं निंदर मुस्कुराया मानो कह रहा हो, पूछ लो ना जो भी जिज्ञासा हो । फिर तो उनके स्नेह के साथ मेरी जिज्ञासा का पिटारा खुलता ही गया, आपसे साझा न करूँ तो मन को चैन न होगा । इसलिए .... 

आरती स्मित : कल मैं आपकी आत्मकथा 'कमबख़्त निंदर' पढ़ रही थी । पढ़ते हुए कब उस कृति का हिस्सा बन गई, पता ही न चला । कई भाव उपजे -- समाप्त हुए । कहूँ कि ज्वार-भाटे की -सी स्थिति थी मन की । कुछ जिज्ञासाएँ जो मज़बूती से पैर टिकाए रहीं, उनके शमन के लिए आपके पास आना पड़ा । आपके निंदर के साथ यात्रा करना इतना आसान नहीं ।



स्व. डॉ. नरेन्द्र मोहन


नरेन्द्र मोहन : तुमने इतनी गहराई से महसूस किया कि वह तुम्हारे साथ हो लिया । (मुस्कुराते हैं ।)

आरती स्मित : जन्म से लेकर आज़ादी या कहूँ , विभाजन और उसके कई वर्षों बाद तक आपने जितने बिगड़े हालात, देखे भोगे... व्यक्तिगत स्तर पर भी, पारिवारिक स्तर पर भी । निज के खंडन और संयोजन के चक्र को भी महसूसा । आपके बाल मन से जो ग्रहण किया, उसकी छाप और उसकी ही चाप बाद में भी महसूसते रहे । वर्तमान की स्थिति को देखते-सुनते-गुनते हुए आपको क्या महसूस होता है? वह परिवेश अधिक भयावह, दुखदायी और हंता था या आज,जब स्वतंत्र भारत में हम नित -नित नए आडंबरों और सभ्यता के नाम पर पसरती कुसंस्कृतियों तले पिसे जा रहे हैं । दुखद यह है कि पिसे जाने -- रौंदे जाने का एहसास भी मरता जा रहा है । उस समय देश के जो भी हालात बने, वे थोपे हुए थे, जबकि आज के हालात पैदा किए हुए हैं । आपके क्या विचार हैं?

नरेन्द्र मोहन : आज के हालात ज़्यादा बिगड़े हुए हैं । उस वक़्त विभाजन के कारण हालात बिगड़े । मगर, एक सपना था आज़ादी का । एक बड़े उद्देश्य के लिए जज़्बा था । हालाँकि आज़ादी मिली तो विभाजन का दर्द भी मिला। सपना टूटा, मोह भंग भी हुआ और जिन मूल्यों के लिए आज़ादी के दौरान संघर्ष हुआ, वे मूल्य भी टूटे । उस वक़्त की बात है, तब सपने को सच करने के लिए, अमल में लाने के लिए लोगों में साहस था । अब न तो साहस दिखता है, न अमल में लाने का जज़्बा । हालत और बदतर होती गई है । 
आरती स्मित : इसे विस्तार से समझना चाहूँगी क्योंकि, नई पीढ़ी भाषा और संस्कृति की महत्ता को समझ नहीं पा रही । अंग्रेज़ी और हिंगलिश का प्रभाव घर-घर में सेंध लगा चुका है । घर के भीतर की संस्कृति चरमराने लगी है ।

नरेन्द्र मोहन : बात सिर्फ़ भाषा की नहीं है । आपका सपना अपनी भाषा में बुना जाएगा, मगर जबतक आप सपना नहीं देखेंगे, तब तक ----! सब कुछ यांत्रिक हो चुका है । कैरियर ओरिएंटेशन की बात भी ठीक है,मान ली जाय, फिर भी कठिन परिस्थितियों में भी व्यक्ति सपने देखता है । भाषा को बचाने की जहाँ तक कोशिश है, भाषा में आप अपनी संवेदनाओं का, मिथकों का संचार करते हैं । आज से आप अतीत में चले जाते हैं , उन्हीं मिथकों के साथ, नई भाषा के साथ । भाषा का स्वरूप भी तो समय के साथ बदलता जाता है । भाषा का जो विश्व है, जो भाषा हम बोलते हैं, बातचीत करते हैं, सोचते हैं उनसे संवेदना जुड़ी है । भाषा को बचाने के लिए इसी संवेदना को बचाए रखने की ज़रूरत है । इस दौर में नए संबंध कैसे टिके रह सकते हैं? 

आरती स्मित : संवेदना से जुड़े सवाल मेरे ज़ेहन से टकराते रहते हैं, ख़ासकर किशोरों की मानसिकता को देखकर लगता है, कहीं न कहीं हम दोषी हैं । हमने उन्हें यांत्रिक बना दिया है । उन्हें पता ही नहीं है कि नींव कहाँ है?

नरेन्द्र मोहन : आज की पीढ़ी से मुझे कोई शिकायत नहीं । जहाँ तक दृष्टि के विस्तार का मामला है, नई पीढ़ी बहुत आगे है । वह दक़ियानूस नहीं है, बहुत खुले विचारों वाली है । उनके अपने विचार हैं । मेरे बाद तीन पीढ़ियाँ आ गईं । 1980 में ग्लोबल क्रांति आई । नई तकनीक  आई । जनसंचार माध्यम सशक्त रूप में उभरा, आर्थिक क्रांति आई । एक छोटी-सी चीज़ मोबाइल ! यह मात्र उपकरण नहीं, एक पूरी दुनिया है । ये लैपटॉप ! पूरी दुनिया तत्काल आपके सामने, आपके साथ है । नेटवर्क के ज़रिए सारी सूचनाएँ पल भर में इधर से उधर । पता नहीं, आगे क्या होगा? कुछ भी कहना मुश्किल है । मगर ज्ञान के क्षेत्र में,सूचना टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में इन्होंने बड़ा काम किया है । यहाँ तक कि साहित्य के क्षेत्र में भी बहुत अच्छे कहानीकार, बहुत अच्छे कवि आ रहे हैं, हालाँकि इनकी फॉर्मूलेशन नहीं हुई, तो भी यह पीढ़ी बिलकुल नई परिस्थितियों से टकराती, रास्ता बनाती, आगे बढ़ रही है । लोग कहते हैं कि हिंदी में मोहन राकेश के बाद नाटक नहीं लिखा गया । 'आधे -अधूरे' को मानक बनाए हुए है, जबकि आज की पीढ़ी नई चुनौतियों के सामने है । माँ बेटे, पति-पत्नी, स्त्री-पुरुष तथा और भी कई तरह के अन्य संबंधों में तेज़ी से परिवर्तन हो रहे हैं । उन अनुभवों को अभी नाटकों में अभिव्यक्त करना अभी बाकी है । मोहन राकेश के नाटक तो पचास वर्ष पुराने हैं, उसके बरक्स सामाजिक स्थिति बदली हुई है । औरत मर्द आज साथ-साथ रह रहे हैं, पर इस संदर्भ में कोई ख़ास रचना नहीं आई है । नई उत्तर आधुनिक चीज़ें आ रही हैं । उनमें अपनी बात कहने की कुव्वत है ।आगे, यह क्या रूप लेगी, कहना मुश्किल है ।

 स्त्री विमर्श के नाम पर जो चर्चा पिछले कई वर्षों से सुनाई दे रही है, नए दौर में उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझने की ज़रूरत है । नई पीढ़ी ने लगातार संघर्ष करते हुए नई परिस्थितियों में पुराने मूल्यों और आदर्शों को अस्वीकारने का साहस दिखाया है । 

आरती स्मित : स्त्री विमर्श भी दो दिशाओं में आगे बढ़ रहा है । एक दिशा में, स्त्री स्वयं को आत्मसम्मान के साथ, अपनी शर्तों पर नैतिक मूल्यों को स्वीकारती या तर्क के साथ खोखले हो रहे मूल्यों को त्यागती हुई, स्वयं को स्थापित करने की कोशिश में संघर्षरत है । दूसरी दिशा है -- केंद्र में स्त्री देह को रखकर, उसकी मुक्ति का आंदोलन । और देहमुक्ति के नाम पर कई बार जो रूप सामने आए हैं, अगर यह स्त्री विमर्श का हिस्सा है तो वह क्या था जो मीरा ने किया, जो महादेवी ने कहा ।

एक मानसिकता, जो आगे बढ़ने की होड़ में साम-दाम-दंड-भेद की प्रक्रिया अपना रही है, दूसरी, जो पुराने अच्छे मूल्यों का वरण करती हुई ।--- और, बदलने योग्य मूल्यों को बदलने का कारण देती हुई स्वयं को स्थापित कर रही है । मेरी चिंता उन किशोरों और युवाओं के प्रति है जो दिशाहीन हैं, उन्हें बाहर से दोनों दिशाएँ -- दोनों रास्ते समान दिखते हैं । यह बात केवल साहित्य के क्षेत्र में नहीं, सभी क्षेत्रों में लागू है । अधिकांश युवाओं का एक ही ध्येय है-- बड़ा पैकेज और विदेश में नौकरी । किशोर वर्तमान शिक्षा पद्धति से ऊबे हुए हैं । वे परीक्षा में अपने ज्ञान का खुलकर उपयोग करने के लिए स्वतंत्र नहीं है । यह स्वतंत्रता उन्हें मैट्रिक के बोर्ड में परोसकर दी जाती है, जबकि तब तक उनकी स्वाभाविक प्रतिभा एक सीमा तक दफ़न हो चुकी होती है । ये तमाम चीज़ें एक साथ वर्षों से घटित हो रही हैं और इन बातों को अवहेलित करना नई पौध को बिना खाद-पानी दिए कड़ी धूप में रख देना होगा । एक ही जगह रहते हुए भी माता -पिता को वृद्धाश्रम में रखना और पर्व-त्योहारों में भी घर न लाना -- ये कौन से संस्कार विकसित हो रहे हैं? 

नरेन्द्र मोहन : आरती! तुम्हारी दो बातें --- एक स्त्री विमर्श और दूसरा विस्थापन मेरे सामने आईं हैं । तुमने अपनी बात बड़े अच्छे ढंग से रखी है । मेरी नज़र में स्त्री विमर्श के तहत स्त्री विमर्श का अर्थ है --- उसकी स्वतंत्र पहचान और भय से मुक्ति । भय भी कई तरह के, जो उसे सामाजिक-मनोवैज्ञानिक – कई तरफ़ से जकड़े हुए है । सवाल है, स्त्री भय की उन शृंखलाओं से कैसे पार करती है और स्वाधीन होने का वास्तविक अर्थ पाती है । पारिवारिक, सामाजिक, व्यक्तिगत स्तरों पर भय के अलग-अलग रूप उसे अपनी गिरफ़्त में लिए हुए है । भय से मुक्ति तभी संभव है जब वह कई तरह की परंपराओं और स्वयं के भय के घेरों से बाहर निकले । सत्रहवीं सदी में एक मराठी कवियित्री हुईं, बहना बाई, जिसपर मैंने एक लंबी कविता लिखी थी । उसका विवाह अपने से 20 वर्ष बड़े पुरुष से हुआ । वह उन्हें प्रताड़ित करता था । संत तुकाराम की शिष्या बहनाबाई कैसे प्रताड़ना के घेरों से बाहर निकली । अगंग की धुन और ध्वनियों से जुड़कर, यह एक अभूतपूर्व अनुभव है । मेरी कविता की अंतिम पंक्ति है --- ‘घर से बाहर मैंने घर पा लिया ।' ऐसा पति केवल पति नहीं है, पितृसत्तात्मक सामाजिक सत्ता का दिया हुआ एक जीव है जिससे मुक्त हो जाना, उसके होने पर भी, न होने का बोध होना भय से मुक्ति पाना है । एक स्वाधीन जीवन जीना, स्वाधीन व्यक्ति बन जाना भी है । वृद्धाश्रम को लेकर तुम्हारी जो संवेदना है, मैं समझ सकता हूँ । मगर, ये चीज़ें पहले भी थीं, अब नई परिस्थितियों में इनकी कचोट कई गुना अधिक महसूस होने लगी है । 

आरती स्मित : आपने मेरे भावों को शब्द दे दिए ।

नरेन्द्र मोहन : हर पीढ़ी अपने रास्ते स्वयं खोजती है । वाद, विवाद, संवाद से भी नए मूल्यों की दिशाएँ खुलती हैं । मुझे लगता है कि नई पीढ़ी जिस दिशा में जा रही है, बड़े खुले मन से उस पीढ़ी के संघर्षों को , उनके दबावों को संवेदनात्मक ढंग से और बहुत ही सहानुभूति से देखने की ज़रूरत है । हम उन्हें अपने पैमाने, अपने तरीके से तय नहीं कर सकते । आज परिस्थितियाँ अलग हैं, दबाव अलग हैं । आर्थिक तौर पर और भी । यदि पति-पत्नी दोनों काम कर रहे हैं तो उनकी ड्यूटी शिफ्टिंग की हो सकती है । मुझे लगता है कि नई पीढ़ी को स्पेस देने की ज़रूरत है, समझने की ज़रूरत है । वो एक नए समय में, नई परिस्थिति में नए तरह के आचरण करना सीख रहे हैं । उनके विचार ठीक वैसे नहीं हो सकते जैसे पुरानी पीढ़ी के । वे किन परिस्थितियों से गुज़र रहे हैं, इसे समझने की ज़रूरत है ।निर्वासन और विस्थापन कई तरह के हैं जिन्हें हम कई स्तरों पर जी रहे हैं--- पारिवारिक, सामाजिक-राजनीतिक .... । मेरा एक कविता संग्रह है --- 'एक अग्निकांड जगहें बदलता' , जिसमें इसी संदर्भ को लेकर कई कविताएँ हैं । 

आरती स्मित : जी, मैंने भी इनसे संदर्भित आपकी कविताएँ पढ़ी हैं । 'कमबख़्त निंदर' में रावी का वर्णन है । रावी आपके भीतर एहसास बनकर बस गई है । ऐसा मुझे बार- बार लगा । क्योंकि आपने कई जगह रावी का स्मरण किया है और --- एक बार तो मुझे ऐसा लगा, रावी आपके लिए नदी मात्र नहीं ,माँ है जिसकी गोद में बिताया बचपन आप कभी भूल नहीं सकते । उस एहसास को आपकी ज़ुबानी सुनना चाहती हूँ ।

नरेन्द्र मोहन : सही कहा । विभाजन की वजह से रावी से कटना मेरे लिए नासूर जैसा है । रावी की गोद में बचपन बीता । रावी की धारा मेरे भीतर बहती रही है, तभी दूसरी नदी में भी मुझे रावी की झलक दिखती है । नदी मात्र जलधारा नहीं है,वह मेरे लिए अनुभूतियों, एहसासों का पुंज है । रावी मेरे लिए माँ जैसी ही ममतामयी रही है । वह हमेशा मेरे भीतर बहती रहेगी, स्पंदन बनकर । उससे अलग होना, कटना मेरे लिए बड़ा मारक अनुभव रहा है ।

आरती स्मित : नदी और पेड़ आपके जीवन से किस कदर जुड़े हैं, इसकी झलक आपकी डायरी में मिलती है । उसकी कुछ पंक्तियाँ आपकी ज़ुबानी सुनना चाहूँगी ।

नरेन्द्र मोहन : देख रहा हूँ, धीरे -धीरे सिमट रहा सरोवर का पानी--- सरोवर -- अरे सरोवर कहाँ आ गया बीच में ! नदियों और पेड़ों से प्यार रहा है मुझे । लाहौर की नदी रावी को अपने भीतर बहता महसूस करता रहा हूँ, मगर यह क्या ! उस नदी को सूखते हुए देखता हूँ निचाट सूनेपन में अपने भीतर ।

आरती स्मित : नदी और पेड़ के प्रति आपके इसी एहसास को जानना चाहा था मैंने ।

एक बात और! दर्द की चीख और चीख़ों में व्याप्त दर्द को आपने जितनी सूक्ष्मता से जाने- अनजाने आत्मसात कर लिया और जिसका प्रभाव आपके लेखन पर स्पष्ट दिखता भी है, क्या आपने कभी इससे उबरने की कोशिश नहीं की?
 
नरेन्द्र मोहन : दर्द की अनुगूंजें हैं, अब भी हैं, क्योंकि दर्द के, पीड़ा के संदर्भ व्यक्तिगत नहीं होते , वे सामाजिक और राजनीतिक भी होते हैं । रोज़मर्रा की घटनाओं और प्रसंगों से वह दर्द रिसता रहता है ।सामाजिक, राजनीतिक पीड़ा, त्रासदी के संदर्भ गाहे-ब-गाहे सामने आते रहते हैं, विभिन्न परिस्थितियों में लिपटे हुए । जैसे -जैसे समय आगे बढ़ता जाता है , नई परिस्थितियाँ या नई त्रासदियाँ घटित होती रहती हैं । आज भी जब कहीं दंगा होता है, मुझे वो घटनाएँ याद आ जाती हैं । दंगे हमारे यहाँ विभिन्न कड़ियों में जुड़े हुए आते रहे हैं । दंगों की दहशत और विस्थापन का दर्द – दोनों ही मुझे घेरते रहे हैं । ऐसा बार-बार घटित होता दिखता है तो उससे व्यथित होता है मन। दर्द और पीड़ा और त्रासदी व्यक्तिगत पीड़ा के घेरों को तोड़ती हुई, एक व्यापक सामाजिक आकार ग्रहण करती जाती है और वह वही है, कभी चीख के रूप में, कभी किसी और रूप में मुझे मथती रहती है ।

आरती स्मित : मौन पीड़ा के रूप में? 

नरेन्द्र मोहन : हाँ, मौन पीड़ा के रूप में ही नहीं, पीड़ा के अनंत रूपों में हम उसे आस-पास देखते- महसूसते हैं ।पीड़ा और यातना के संदर्भ हैं, नए दौर में मेरे एहसास का हिस्सा बनते ही रहते हैं और इस तरह इतिहास और स्मृति का खेल अपने करतब दिखाता रहता है और मैं उसके साथ जुड़ता जाता हूँ, इसलिए इन संदर्भों को भुला पाना मुश्किल होता है, हालाँकि नए-नए काम करते हुए उस पीड़ा को, उस त्रासदी को नए -नए रूप दिए जाते हैं । हम रचना करते हैं,पुनर्रचना करते हैं । पीड़ा की सर्जना के स्रोत के रूप में देखें, तो भी सृजनात्मकता राहत देती है, मुक्ति देती है । सृजन के लिए त्रास और पीड़ा से बड़ा संबल क्या हो सकता है! सृजन की बड़ी रेंज़ मानवीय संवेदना या किसी एहसास को बचाने की कला अद्भुत है । यही उसकी बहुत बड़ी सफलता है और अलग-अलग रूपों में--- कहीं पेंटिंग में, कहीं संगीत में ,कहीं चित्रों में ।

आरती स्मित : जी आपने रचनावली की भूमिका में लिखा भी है ।

नरेन्द्र मोहन : राहत तो मिलती है, मगर उसके लिए आपके पास रचनात्मक क्षमता होनी चाहिए । अभिव्यक्ति के लिए सही और सटीक शब्द विधान होना चाहिए । तभी हो सकता है ।

आरती स्मित : जिनके पास अभिव्यक्ति की क्षमता नहीं होती, वैसे लोग अवसाद के शिकार हो जाते हैं ।

नरेन्द्र मोहन : अवसाद से बचने के लिए सृजन एक स्रोत ही नहीं, शक्ति भी है राहत होने का । इधर जो कुछ परिवेश में घट रहा है, उसे जब आप कविताओं में, नाटकों में अभिव्यक्त करते हैं तो सहृदय पाठक उससे जुड़ने लगते हैं । सृजन-माध्यम में दिशा निर्देश की अपार क्षमता है ।

आरती स्मित : सशक्त माध्यम के रूप में नरेन्द्र मोहन : हाँ, वही । सृजन सशक्त माध्यम के रूप में पीड़ा को सकारात्मक रूप देने में समर्थ है ।

आरती स्मित : कोई कोमलतम क्षण, जो स्मृति में आग की लपटों के बीच जीवंत फुहार प्रतीत हो । आज भी तमाम उलझनों के बीच वे क्षण अपनी स्मृति मात्र से आप में ताज़गी भर देते हों?

नरेन्द्र मोहन : बिना कोमलतम क्षणों के आप कठोरतम क्षणों की यातना को झेल नहीं सकते ।माता-पिता से अधिक कोमलतम क्षण कहाँ मिलेंगे ? अगर आप बचपन में झाँके -देखें तो पाएँगे, माता-पिता कैसे दुलारते-सहलाते हैं और हाँ, जब नंदिता से मिला था तब मैं बारह साल का था ।

आरती स्मित : नंदिता ... नन्हों ?

नरेन्द्र मोहन : हाँ, नंदिता कहो या नन्हों । कहना चाहें तो वह पूरी उम्र मेरे साथ चलती रही । उससे जुड़ी कोमल क्षणों की स्मृतियों के स्पंदन आत्मकथाओं में दर्ज़ हैं । वह जब कहीं भी मिली, तो वह विशेष प्रसंग बन गया, भीतरी घटना का रूप बनता गया, जो आपको कोंचती रहती है, बार-बार याद आती हैं , कोमलतम क्षणों के बीच के अंतर्संबंध , स्मृतियों के ताप के साथ अंत तक कहीं न कहीं बचे रहते हैं । इसी तरह घर-परिवार का, भाई-बहनों का, उसके साथ संबंधों की रेंज....... किन-किन अंतरंग भावों -विचारों से आप खेलते रहते हैं, उसे बयान करना मुश्किल है । बिना उस तरह के अंतरंग प्रसंगों के, जिसमें आप बहुत आह्लादित या व्यथित भी हो रहे हैं, कई बार आप ऐसी कोमलतम -कठोरतम क्षणों के विरोधाभासों को जी रहे हैं , वह सृजन में संभव है और ज़िंदगी में भी । इस तरह के साहचर्यों भरे संघर्ष हैं और समय के साथ-साथ वे क्षण महत्वपूर्ण होते जाते हैं और फिर कुछ कोने तो आदमी के बचे रहने चाहिए, जहाँ वह खुलकर पूरा पारदर्शी हो, पूरी ईमानदारी से बात कर सके । बिना चौकन्ना हुए, बिना सयाना हुए ।

आरती स्मित : मेरे पूछने का यही तात्पर्य था ।

नरेन्द्र मोहन : आरती, बहुत चौकन्नेपन और सयानेपन के साथ आत्मकथा नहीं लिखी जा सकती । यदि लेखक बहुत चौकन्ना और बहुत सयाना है ,बहुत कैलकुलेटिव है या बहुत दंभी है तो वह आत्मकथा नहीं लिख सकता । 

आरती स्मित : आपके मित्रों- संबंधियों में से कोई ऐसे व्यक्ति जिन्हें आप अपना आइना मान सकते हों, जिनपर आप स्वयं से अधिक या स्वयं जितना ही यकीन कर सकते हों?

नरेन्द्र मोहन : अब तो धीरे-धीरे साथी -मित्र छूटते जा रहे हैं 

आरती स्मित : कभी-कोई ... ज़िंदगी में ?

नरेन्द्र मोहन : किन -किन का नाम कहूँ--- एक समय में दोस्तों की बड़ी रेंज रहती थी ।

आरती स्मित : फिर तो आप बहुत भाग्यशाली हैं कि आपके पास कई मित्र थे ।

नरेन्द्र मोहन : कई थे, मगर खुलकर या तो आप घर में बात कर सकते हैं । घर में माता-पिता के साथ बिना गार्डेड हुए, और दोस्तों में । ऐसे दोस्त मुझे मिलते रहे हैं । वे दोस्त ही नहीं है जिनके सामने आप बेफ़िक्री से बात ही नहीं कर सकते । लेकिन, वहीं पर ख़तरे हैं । यहाँ तक कि अच्छे दोस्त भी कई बार विश्वास तोड़ते हैं । इसलिए मैं कहता हूँ, सोचने-समझने की स्पेस हमारे भीतर बची होनी चाहिए ।

आरती, रचना से बड़ा कोई दोस्त नहीं है । किताब जैसा कोई साथी नहीं है । आपका जो सृजन है – डायरी हो या आत्मकथा या कोई अन्य कृति --- अगर, लेखक सच्चा है और खुलकर अपनी बात लिख सकता है और गार्डेड नहीं है तो उस रचना या कृति जैसा कोई दोस्त नहीं है । मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ, क्योंकि मैंने बहुत कुछ अभिव्यक्त किया है अपनी कृतियों में ।

आरती स्मित : बापू की आत्मकथा या अन्य पुस्तकें पढ़ते हुए मैंने महसूस किया कि बचपन में उनका एक ही दोस्त था और वह था उनका अपना मन । बाहर की दुनिया के लिए वे दब्बू या संकोची स्वभाव के थे ।आपकी रचनाओं से गुज़रते हुए भी मुझे कुछ ऐसा ही एहसास हुआ कि बचपन में आपका सबसे निकटतम मित्र रहा -- आपका आत्म!

नरेन्द्र मोहन : आत्म से बड़ा कोई नहीं । कुछ नहीं । आत्म से ही तो आत्मकथा बनती है ।

आरती स्मित : आपकी आवाज़ बाहरी तौर पर गई, मगर भीतर तो उसकी गूँज थी ही, जिसे स्पष्ट रूप में सिर्फ़ आप सुन सकते थे और कहीं न कहीं वे ध्वनियाँ बाद के दिनों में काग़ज़ पर उतरती गईं ।

नरेन्द्र मोहन : उन घड़ियों को तो मैंने झेला ही है, बाद की जो स्थितियाँ थीं, उनमें भी उन घड़ियों को झेला । एक तरह का सूनापन, एक तरह का खालीपन! गहरा सन्नाटा । ऐसे वक़्त में जब आप बोल न पाएँ या जब आप सुन न पाएँ । गूँगा और बहरा होने की जो अनुभूतियों में से तो गुज़रा ही हूँ ।

आरती स्मित : आपने पुस्तक में एक जगह संगीत का उदाहरण दिया है,जिसमें अंधे, गूँगे और बहरे ने कैसे ख़ुद को उस परिस्थिति से बाहर निकालकर संसार को अनूठा संगीत सुनाया ।

नरेन्द्र मोहन : हाँ, याद है । पढ़ा न तुमने ,कैसे वे उससे बाहर आए । मैं ख़ुद कैसे संघर्ष करता था । एक -एक वाक्य संरचना विकसित करना चाहता था, क्योंकि उस समय मुझसे नहीं हो पा रहा था कि मैं बिना हकलाए अपनी बात कह सकूँ । यह जो चुप्पी है, जो सन्नाटा है, यह फिर कहीं जुड़ता है मेरी जन्मघड़ी के साथ । मेरे जन्म के समय कर्फ़्यू लगा हुआ था , वह उसी से जुड़ा सन्नाटा है, वह विभाजन का सन्नाटा है । चुप्पी, सन्नाटा -- एक साथ ! --- ऐसा लगता कि मेरे भीतर की बेचैनी ऐसा रूप लेती गई कि अभिव्यक्त किए बिना कोई रास्ता न रहा ।
आरती स्मित : आपने उसे ही अपनी ताकत बनाई --- बाद के दिनों में ।

नरेन्द्र मोहन : बड़े भाई जोगेन्दर का देहांत हो गया, तब मैं छोटा था । बड़े भाई जगमोहन पर भी विभाजन का सीधा-सीधा असर पड़ा, जिस गाड़ी से वे चले थे, वह गाड़ी ही काट दी गई थी । गाड़ी काट देना मतलब उसमें सवार आदमियों को काट देना । उस समय ये आम बात थी । कैसे वे बचते-बचाते घर आए और सबने चैन की साँस ली!
आरती स्मित : भाई जोगेन्दर की मृत्यु का आपने खुलासा नहीं किया । शक की सूई मामा -मामी की ओर घूमकर रह गई । क्या हुआ होगा उनके साथ?

नरेन्द्र मोहन : बहुत सारी अमूर्त छायाएँ हैं ।

आरती स्मित : आपने बचपन से यौवन तक कितने आघात झेले हैं! संवेदनशील हैं, इसलिए आत्मसात भी करते रहे । बाद में इसी को अलग -अलग विधाओं में ढाला ।

नरेन्द्र मोहन : झेले बिना कोई रास्ता ही नहीं था । झेलेंगे ,तभी तो उससे बाहर आएँगे । इसलिए ना मैं कहता हूँ कि अनुभव होना अच्छी बात है । लेकिन लिखते-लिखते आप उस अनुभूति से जितना अलग, जितना असंपृक्त होते जाएँ, उतना ही रचना के लिए अच्छा है । एक गहरा लगाव, गहरी संपृक्ति होने के बावजूद, रचना में उससे अलग होते जाना..... 

आरती स्मित : यानी, साक्ष्य भाव से,एक साक्षी बनकर देखें ।

नरेन्द्र मोहन : साक्षी बनना अपने ही अनुभव की, कुछ इस तरह जैसे किसी दूसरे का अनुभव हो । और, अनुभव व्यक्तिगत न लगे, सभी का लगे । मुझे लगता है, यह बहुत ज़रूरी है । इसलिए मैं मानता रहा हूँ कि अनुभूति के साथ विचार का होना बहुत ज़रूरी है ।

आरती स्मित : शब्द की शक्ति पर आपकी गहरी आस्था है । शब्द महज़ शब्द नहीं है आपके लिए। 

नरेन्द्र मोहन : शब्द को महज़ शब्द मैं मानता ही हीं । शब्द में एक पूरी दुनिया है । शब्द को ब्रह्म कहा गया है । स्थूल रूप में हम मानते हैं ना कि अभिधा, लक्षणा, व्यंजना -- शब्द की तीन शक्तियाँ हैं । एक, जो आपने अनुभव किया, सीधे -सीधे लिख दिया ।

आरती स्मित : अभिधा में 

नरेन्द्र मोहन : हाँ! यह शब्द की ऊपरी तह है । इस तह के भीतर कितनी ही तहें हैं ! पहली तह ऊपरी स्थूल अर्थ तक सिमटी सतह है । अगर पाठक ऊपरी तह तक रह जाते हैं तो रचना न सघन हो पाती है, न विस्तार पाती  है । अगर, आप भीतरी तहों में झाँकते हैं तो अंग्रेज़ी में एक शब्द है , 'सबटेक्स्ट'--- वे जो लेयर्स हैं, वैसे ही ,जैसे -- कुएँ में झाँकना । एक तह की भी कई तहें हैं । जैसे मन के तीन स्तर हैं-- चेतन, अवचेतन और अचेतन । ये स्तर भाषा के, शब्द के भी हो सकते हैं । एक कुआँ है, जो आपको ऊपर से दिख नहीं रहा । अच्छी रचना वही है जिसमें आप नीचे तक, गहरे तक, धीरे-धीरे जाते हैं । अभिधा, लक्षणा, व्यंजना भी बहुत काम की चीज़ें हैं । मैं तो कहता हूँ कि अभिधा भी महत्वपूर्ण है । अभिधा के बिना वर्णन संभव नहीं है । वर्णन की, वर्णनात्मकता की बहुत बड़ी शक्ति है अभिधा अगर आप इसे अन्य अर्थ-स्तरों की अनुगूंजों तक जोड़ दें । वर्णन तक सीमित रह जाने से सीमित अर्थ ही हासिल होगा । नाटक लिखने वाले अभिधा के महत्व को जानते हैं । नाटक में अभिधा की ध्वनियों से भी काम लिया जाता है । नाटक में आप बहुत कठिन भाषा का इस्तेमाल नहीं कर सकते । सैंकड़ों लोग प्रस्तुति को देखने -सुनने वाले हैं , इसलिए उसकी साधारण भाषा में जो शक्ति है, वह ध्वनियों की है । ऊपर से लग रहा है आमफहम भाषा है, मगर यहाँ व्यंजना काम नहीं देगी । क्योंकि जो सैंकड़ों लोग बैठे हुए हैं, उनके लिए अभिधा की ध्वनियाँ ही काम आती हैं । अभिधा की बड़ी मारक ध्वनियाँ हैं --- दूर -दूर तक असर करने  वाली । आप देखें कि नाटक के पहले दृश्य में जो ध्वनियाँ हैं वे नाटक के अंत में जाकर जुड़ जाएँगी--- कहाँ की ध्वनियाँ कहाँ जाकर जुड़ती हैं, ये रंगमंच/ रंगशब्द में ही संभव है । 

आरती स्मित : नाटक हो या सृजन की कोई अन्य विधा, शब्द की शक्ति तो हर जगह मायने रखती ही है ना!

नरेन्द्र मोहन : बहुत मायने रखती है । किसी के लिए हो न हो, मेरे लिए कोई रास्ता नहीं है मुक्ति का शब्द के सिवा । मेरी एक कविता 'शब्द' पर ही है । शब्द में एक आसमान है, शब्द में एक कुआँ है, जिसमें मैं झाँकता रहता हूँ, मेरी अंतरात्मा का वास भी वहीं है । वहाँ तक पहुँचने के लिए उसे गहराई से पकड़ना होगा । दोहरे चेहरे वाले लोग वहाँ तक नहीं पहुँच पाते ।

आरती स्मित : विडंबना है कि मंच से शब्द को ब्रह्म कहने वाले कुछ लोग व्यावहारिक रूप में शब्द की गरिमा तार- तार करते हैं और इससे अनजान श्रोता तालियाँ बजाते रहते हैं ।

नरेन्द्र मोहन : भाषा को पकड़ने के लिए आपको बहुत ईमानदारी से उसकी तहों में जाकर टटोलना होगा और ईमानदार होना ही होगा । बहुत पुराना शब्द है ईमानदार होना, मगर बिना ईमानदार हुए अपनी रचना के प्रति आप सच्चे नहीं हो सकते । शब्द को अगर आप खिलवाड़ का विषय बनाएँगे तो आप चाहे कितने भी बड़े जादूगर हो, वो जादूगरी काम नहीं आएगी । दिखाते रहें जादूगरी ।

आरती स्मित : आम जीवन में शब्द के अर्थबोध से भी परहेज रखने वाला व्यक्ति अच्छा रचनाकार हो सकता है क्या? उसकी रचना जीवंत हो सकती है क्या?
नरेन्द्र मोहन : ऐसे रचनाकार रचनाकार होते ही नहीं । जो लोग इतर कारणों से प्रतिष्ठा और नाम अर्जित करने के लिए भ्रम फैलाते हैं, वे वैसा करते ही रहेंगे । वे चाहे कितना भी नाम कमा ले, जो सच्चे रचनाकार, पाठक /आलोचक हैं वे रचना की गहराई में उतरकर समझ जाते हैं कि रचनाकार कितने पानी में हैं । वैसे मेरा विचार है कि ऐसे लोगों को हम अपनी सोच का हिस्सा न बनाएँ ।
आरती स्मित : बन भी नहीं सकते ।
नरेन्द्र मोहन : मैं चाहता हूँ कि एक बड़ी वेवलेंथ बने--- सही शब्दों की और उस वेवलेंथ में हम साथ-साथ  चलें । आपका शब्द जब हजारों -लाखों लोगों तक पहुँचता है, उस शब्द में इतनी ताक़त होनी चाहिए कि वह सचमुच एक संवेदनात्मक वैचारिक वेवलेंथ हो जाय और एक सुलभ संचार-माध्यम बन जाए । मेरे दिल से निकले और आपके दिल तक पहुँच जाए । एक लाइव कनेक्शन । लोगों को जोड़ने वाला लाइव तार । जब तुम मेरी आत्मकथा पढ़ रही थी, तब मैं तो वहाँ नहीं था, फिर भी तुम जुड़ी । यही ताक़त होनी चाहिए शब्द की । वह रचना में झलकनी
चाहिए । जब लिखना शुरू किया था, तभी मैंने कहा था, किसी लॉबी में नहीं रहूँगा । मैं किसी विचारधारा की बहुत सारी बातें मान सकता हूँ, मगर उसका अनुवर्ती नहीं हो सकता । मैं अपने लिए अपनी सोच और रचना के लिए स्वाधीन होने के अर्थ का कायल हूँ । अपने लिए अपना इनर स्पेस चाहता हूँ ।अपने अनुभव का प्रमाण चाहता हूँ । ख़ुद से अपना वैचारिक प्रमाण चाहता हूँ, किसी पार्टी का अनुवर्ती होने का नहीं । वैसे स्वाधीन होने के अपने लाभ हैं तो नुकसान भी हैं ।

आरती स्मित : नुकसान अधिक होते हैं।

नरेन्द्र मोहन : हाँ, क्योंकि किसी लॉबी को न स्वीकार, उनके बीच से रास्ता बनाना होता है । कई बार तो निपट अकेला होना पड़ता है । कई बार यह भी होता है कि आपकी रचना अननोटिस्ड रह जाए ।
 
आरती स्मित : इसका मतलब, यह सब बहुत पहले से चला आ रहा है ।

नरेन्द्र मोहन : स्वाधीनता बची रहे तो रचना बची रहेगी । रचनात्मक स्पेस को बचाए रखना ज़रूरी है । इसका ज़िक्र मैंने अपनी डायरी में भी किया है ।

आरती स्मित : आपकी रचनाओं से गुज़रते हुए ,एक बात और मैंने पाई और मुझे लगा, मैं सही दिशा में हूँ।

नरेन्द्र मोहन : क्या? 

आरती स्मित : आपने कविता में आलोचना और आलोचना में कविता को ढाला है, जबकि सामान्यत: लोग आलोचना को सृजन विधा से इतर मानते हैं । यहाँ लोग से मेरा तात्पर्य साहित्य समाज से ही है ।

नरेन्द्र मोहन : ऐसा है, जो व्यक्ति अपने अनुभव की आलोचना नहीं कर सकता, वह न आलोचक बन सकता है न रचनाकार । रचना के केंद्र में क्या है --- अनुभव ही है ना ! सर्जना और आलोचना का एक सांझा रचनात्मक कर्म
है । दोनों में विरोध नहीं है । मैंने आलोचना पर बहुत काम किया फिर छोड़ दिया । मुझे ये लगा कि आलोचकों को जिस तरह से कृति को एप्रोच करना चाहिए, उस तरह से वे नहीं करते । मैं आलोचना की, हांडी को भीतर-बाहर से देख चुका हूँ । हमारे यहाँ अच्छे आलोचकों की कमी है ।

आरती स्मित : अभी कवि -कहानीकार अपेक्षाकृत अधिक अच्छे आलोचक सिद्ध हो रहे हैं । जो ख़ुद को विशुद्ध आलोचक की श्रेणी में रखते हैं, एक-दो को छोड़कर सभी की आलोचना नीरस और शास्त्रीय सिद्धांतों से बोझिल, उबाऊ हैं । सामान्य पाठक उससे बंध नहीं पाता ।

नरेन्द्र मोहन : मैंने एक किताब लिखी थी, 'शास्त्रीय आलोचना से विदाई' । यह किताब 1990 के आसपास आई थी । शास्त्रीय किस्म की आलोचना से अलग जो सर्जनात्मक आलोचना आई है, वह सृजन के भीतर प्रवेश करती है और उसे भीतर से पहचान कर, उससे गुज़रते हुए उसके पैमाने तय करती है । पैमाने कृति पर लादे नहीं जा सकते । जब लादने की कोशिश की जाएगी तो सही, सार्थक आलोचना नहीं होगी ।

आरती स्मित : आपकी आलोचना ने बाद की पीढ़ी को दिशा दी है ।
नरेन्द्र मोहन : अंग्रेज़ी में आलोचना का एक पूरा इतिहास है । कवियों द्वारा आलोचना का इतिहास । ध्यान यह देना है कि आलोचना लिखते समय आपकी क्लियरिटी कितनी है और आप अनुभव और विचार में संतुलन और विवेक के द्वारा कृति को प्रमाण मानकर कृति से गुज़रते हुए भी कृति के पार चले जाएँ । ऊपर से बातों और पैमानों को थोपते हुए आलोचना करना सरासर गलत है ।

आरती स्मित : मैंने 'कमबख़्त निंदर ' में पढ़ा , आपके पिता आपको 'मखबूतलहवास' बोला करते थे । यह शब्द मैंने अपने बाबा को अपने बेटे ,मतलब मेरे भाइयों के लिए कहते सुना है

नरेन्द्र मोहन : मतलब समझती हो ना! 

आरती स्मित : जी, अपने होशोंहवास में न रहने वाला । 

नरेन्द्र मोहन : मैं तो मानता हूँ कि हर लेखक को थोड़ा -सा 'मखबूतलहवास' होना चाहिए । इसके बिना लेखन और लेखक हो ही नहीं सकता ।

आरती स्मित : मैं इस बात से हैरान थी कि लोक प्रचलित यह शब्द कितनी व्यापकता लिए हुए है! हम धीरे-धीरे कितने लोकप्रचलित शब्दों को खोते जा रहे हैं । 

नरेन्द्र मोहन : सो तो है ।

आरती स्मित : इसी तरह आपकी एक पंक्ति मेरे भीतर उतर गई... मेरे भीतर न जाने कब से चुप्पी और स्तब्धता की एक परत है' । मैं चाहती हूँ, आप इस परत को थोड़ा खोलें ।

नरेन्द्र मोहन : स्तब्धता की परत तो जन्म के साथ है.... और, वह एक ऐसी परत है जो लगता है, कम होने के बजाय सघन होती जा रही है । क्योंकि, ऐसे-ऐसे संदर्भ बनते रहे हैं, व्यक्तिगत रूप में, पारिवारिक रूप में... सामाजिक स्तर पर, राजनीतिक स्तर पर भी । इसलिए उस चुप्पी, उस स्तब्धता ने मुझे एक अलग तरह का स्पेस दिया । ये चुप्पी और स्तब्धता हरएक को नसीब नहीं होती । यह एक तरह का मेरे लिखने का नुक्ता बना । ये नुक्ता जो है मेरी रचनाओं में , चाहे मैं विद्रोह की बात करूँ, क्रांति की बात करूँ, केंद्र में है । यह मरकज़ है,केंद्र
है । क्योंकि चुप्पी की अपनी ध्वनियाँ हैं । स्तब्धता की अपनी ध्वनियाँ हैं । चुप्पी केवल एक व्यक्ति द्वारा दर्द में साधी गई चुप्पी नहीं है, बल्कि बहुत ही बीहड़ अनुभव से गुज़रने के बाद की चुप्पी है । वैसी ही स्तब्धता कई बार अनुभव होती है कि इतना कुछ देख लिया; इतनी त्रासद घटनाओं से गुज़र गए और वह (स्तब्धता) इतिहास हो गई । मुझे लगता है कि व्यक्ति के भीतर चुप्पी और स्तब्धता जितनी गहरी होगी, उतनी ही तीव्र अभिव्यक्ति की छटपटाहट होगी ।

आरती स्मित : आप देखें सर, चुप्पी की कितनी परतें खुलती चली गईं । आपसे वरिष्ठ रचनाकारों में जैनेन्द्र , अज्ञेय और भीष्म साहनी का उल्लेख कई बार मिलता है । उनकी रचनाधर्मिता से आप प्रभावित हुए या वह जुड़ाव महज़ साहित्यकार होने के कारण रहा? भीष्म साहनी से जुड़ाव का एक कारण तो शायद विभाजन की पीड़ा की समानता भी रही हो ।

नरेन्द्र मोहन : अज्ञेय से बहुत बार मिला, पढ़ा भी । भीष्म साहनी से भी मिलना होता ही रहा । उनके उपन्यास 'तमस' और नाटकों पर लिखा भी । साहित्य अकादेमी में कार्यक्रम का अध्यक्ष होने के नाते वक्तव्य भी दिया, जिसकी कुछ बातें ‘साहस और डर के बीच’ डायरी में दर्ज़ भी हैं ।

आरती स्मित : जी, मैं भी उस कार्यक्रम में उपस्थित थी ।

नरेन्द्र मोहन : एक लंबा समय कई पीढ़ियों के रचनाकार के साथ बड़ी जीवंतता के साथ बीता ।

आरती स्मित : जी, आपकी आत्मकथा और डायरी में बहुत से साहित्यकारों के नाम प्रसंग सहित उल्लिखित हैं । 

नरेन्द्र मोहन : जैनेन्द्र जी से गोष्ठियों में मुलाक़ात रही । स्त्री-पुरुष के संबंधों को लेकर उनकी कहानियों ने उन दिनों नई शुरुआत की थी । प्रेमचंद के क़रीब होकर भी उन्होंने प्रेमचंद से इतर मार्ग चुना; बँधी -बँधाई लीक से अलग हटकर चलने का जोख़िम उठाया । अज्ञेय ने भी अलग रास्ता चुना । शुरू में मेरा जुड़ाव प्रसाद जी की रचनाओं के साथ सबसे अधिक रहा ।

आरती स्मित : आपने ‘कामायनी’ का उल्लेख भी किया है ?

नरेन्द्र मोहन : ‘कामायनी’ के बारे में लिखा ही है और उनकी रचना 'आँसू' मुझे बहुत प्रिय रही है । उसका एक छंद जो कामायनी के अंतिम सर्ग 'आनंद सर्ग' जैसा छंद ही है --- मैं भूल नहीं पाया कभी । निश्चय ही, प्रसाद बड़े रचनाकार थे ।

आरती स्मित : प्रसाद जी की रचनाओं में एक बार उतरकर गहराई की थाह पा लेना आसान नहीं 

नरेन्द्र मोहन : हाँ, सही है, अब पढ़ोगी तो देखोगी किस तरह गहरे में उतर रही हो । तुम थाह पा लोगी । 

आरती स्मित : आपकी डायरी ‘साहस और डर के बीच’ चर्चा में है । सुना है, दिल्ली के साहित्य समाज और साहित्यिक गतिविधियों पर भी आपने लिखा है । इस विषय में कुछ बताएँ 

नरेन्द्र मोहन : आरती, दिल्ली में रहना कोई दिल्लगी नहीं है । आख़िर देश की राजधानी है --- रही होगी कभी यह रेशमी नगरी , आज इसकी आन, बान और शान के क्या कहने ! बड़ी-बड़ी सभा , संगोष्ठियाँ और लोकार्पण यहाँ होते रहते हैं । किताबों की सबसे बड़ी मंडी । एक के बाद एक, हज़ारों किताबें आती हैं और एक अदृश्य कुएँ में गिरती जाती है । जलते-जलते प्रशंसा करते, हँसते -हँसते छुरा घोंपते हुए लेखकों की यहाँ हज़ारों किस्में हैं और चुप्पी की साज़िश के कहने ही क्या ! उन अदाकारों की बात ही न उठाइए जो इस कला से काटते हैं कि ख़ून का एक क़तरा न गिरे और आप लुढ़कते नज़र आएँ ।

आरती स्मित : क्या बात ! आपकी कृतियों से गुज़रते हुए कभी- कभी मुझे लगता है मानो लेखन-कार्य आपके लिए एक नशा है ।

नरेन्द्र मोहन : तुमने बिलकुल सही समझा । मेरे लिए लिखना एक नशा न होता तो मैं उससे और वह मुझसे इस तरह चिपका न रहता ।हाँ, देर से ही सही । उसे संभालने की कला सीखने लगा हूँ । उम्र ज़रूर आड़े आ रही है पर मनोबल टूटा नहीं है और मैं उत्साह में उसे लाँघ जाने पर जुट जाता हूँ , जानते हुए भी कि यह निंदर की शरारत 
है । जब शरीर साथ नहीं देता तो मैं निंदर को खरी -खोटी सुनाने लगता हूँ ।

आरती स्मित : निरंतर संघर्ष, धैर्य और अपनी शर्तों पर चलने की हठधर्मिता के बावजूद साहित्य जगत में आपने जो जगह बनाई, या कहूँ कि साहित्य को जो अवदान दिए, वह सचमुच प्रेरक है । इस पड़ाव पर आप क्या महसूसते हैं? 

नरेन्द्र मोहन : आरती ! ऊँचाइयाँ नापी हैं कई बार । झटके से नीचे गिरा हूँ कई बार । उड़ती-उड़ती पतंग को जैसे कोई खींच ले जाए या काट दे । मेरी डोर से मेरी ही पतंग को 'बो' की ऊँची आवाज़ों से काटने वालों की कमी नहीं रही है । मैं भी नई से नई पतंग को उड़ाने से बाज़ कहाँ आया हूँ!

आरती स्मित : आपकी रचनाओं से गुज़रते हुए इस बात का पाठक को एहसास होता है । यह मैं बतौर पाठक ही कह रही हूँ । और आपकी लिखी कुछ पंक्तियाँ मेरे भीतर उतर चुकी हैं... इस दौर में कौन बचेगा ? आसमान को भेदती चीख के साथ गिरेगा... नो मैंस लैंड पर मंटो की तरह या शर्मिला इरोम और विनायक सेन की तरह जेल में झेलेगा यातनाएँ! कितनी पीड़ा समाई है इन पंक्तियों में ! 

नरेन्द्र मोहन : मैंने तुमसे पहले भी कहा है ना कि लेखन के प्रति सच्चा हुए बिना लेखक नहीं हो सकता । 

आरती स्मित : एक और बात ज़हन में उमड़-घुमड़ रही है कि मंटो की कहानियों पर आपने नाटक लिखा ज़रूर,मगर वह मात्र नाट्य-रूपांतरण नहीं । उसमें आपके मौलिक लेखन का भी समावेश हो गया है । आप मंटो को बहुत मानते थे ना! 

नरेन्द्र मोहन : मानता था नहीं, मानता हूँ । हिंदी की छोड़ो, उर्दू में भी मंटो जैसा दूसरा लेखक नहीं है । हाँ! कारण वही, विभाजन ! मैं लाहौर से इधर आया । मंटो यहाँ से लाहौर गया । 'नो मैस लैंड' पर कभी विस्तार से बताऊँगा । मेरे नाटक 'मि. जिन्ना'(निर्देशक अरविंद गौड़ ) की दो महीने रिहर्सल चली । मैं भी लगातार जुड़ा रहा । शो के ठीक एक दिन पहले उसे बैन कर दिया गया । मैंने महसूस की थी रंगकर्मियों की संवेदनात्मक पीड़ा । थियेटर के रंगकर्मी भी तो एक परिवार की तरह हो जाते हैं । इसके बाद मैंने लिखा... मंच अँधेरे में । आरएस विमल ने निर्देशित किया था जो मुंबई में खूब खेला गया । 

आरती स्मित : आपके एक नाटक को देवेंद्र अंकुर जी ने निर्देशित किया था?

नरेन्द्र मोहन : हाँ, कहै कबीर सुनौ भाई साधो । कलंदर भी उन्हीं के ग्रुप से अखिलेश खन्ना ने । 

आरती स्मित : सुना है, अंकुर जी ने आपके नाटक में काफ़ी फेर-बदल किया था ।

नरेन्द्र मोहन : नहीं, अंकुर की यह ख़ासियत है कि वह नाटककार के लिखे एक भी शब्द को नहीं बदलता । ‘कहै कबीर...’ नाटक की बात है । यह एनएसडी द्वारा पटना में मंचित होना था । मुझे भी ग्रुप के साथ भेजा गया था । हम एक ही होटल में ठहरे थे । नाटक की रिहर्सल में बार -बार एक सीन पर आकर बात अटक जाती । तब अंकुर ने मुझसे कहा कि यहाँ इस जगह पर कुछ मीसिंग लग रहा है? मुझे भी लगा । फिर उसी रात जगकर मैंने एक दृश्य लिखा जो ‘अंतराल’ के नाम से नाटक में जोड़ा गया । अंकुर एक अच्छे निर्देशक हैं, यह मैंने महसूस किया है । नाटककार और निर्देशक के संबंध का हवाला देते हुए मैंने कई बार इस प्रसंग का उल्लेख किया है ।

आरती स्मित : अच्छा हुआ जो आपसे सच जान लिया । जाने लोग आधी- अधूरी जानकारियाँ बाँटते क्यों हैं? ख़ैर! आपका नुक्कड़ नाटक 'सींगधारी' जो लिखा पहले गया था, मगर प्रकाशित 'कहै कबीर... 'के बाद हुआ 

नरेन्द्र मोहन : हाँ 1988 में ही दोनों आए । 'सींगधारी' कुछ महीने बाद आया ।

आरती स्मित : नाम से ही लगता है कि इसमें व्यंग्य का पुट होगा । फिर भी आपसे इसके बारे में विस्तार से जानना चाहूँगी ।

नरेन्द्र मोहन : 'सींगधारी' एक लोककथा है । मुख्यकथा के समानांतर एक लोककथा । एक नेता की कथा और लोककथा । पुरानी लोककथा है, तुमने सुनी भी होगी । एक राजा है । एक दिन नाई जब उसके बाल काट रहा होता है , उसे बालों के झुरमुट में छिपे दो नुकीले सींग दिखाई पड़ते हैं । वह घबड़ा जाता है । राजा समझ जाता है कि नाई ने उसके बालों के झुरमुट में छिपे सींग देख लिए हैं । वह उसे धमकाता है कि "अगर किसी को बताया तो तुम्हें फाँसी पर चढ़ा दूंगा ।" नाई किसी को न बताने की कसम लेता है । लेकिन यदि किसी को किसी की कोई सच्चाई मालूम हो तो वह कहे बिना नहीं रह सकता । परेशान नाई घूमता- भटकता जंगल चला जाता है और एक पेड़ से लिपट कर कहता है – “राजा के सिर सींग, राजा के सिर सींग” । उसी समय एक बांसुरीवाला पेड़ के पास से गुज़रता है । उसकी स्वर-लहरी में ये ही शब्द गूँजने लगते हैं । फिर धीरे -धीरे ये ही शब्द चारों तरफ़ सुनाई देते हैं... ‘राजा के सिर सींग -राजा के सिर सींग’.....

आरती स्मित : हाँ, बचपन में यह कहानी सुनी थी 

नरेन्द्र मोहन : इस नाटक के केंद्र में दो बातें हैं... पहला तो यह जब आप सच जान लेते हैं तो कहे बिना रह नहीं सकते । दूसरा, आपमें कहने का कितना साहस है! साहस जोख़िम उठाने का । अगर लेखक में यह साहस नहीं है तो लेखन भी कुछ नहीं है । एक तो है -- सच्चा, खरा, नंगा सच लिखना । और लिखने के बाद आप चुप हैं । अब, सच देख लिया तो कहोगे ही । मरे हुए हो क्या? शेयर तो करोगे! आज हम शेयर करते हुए भी डरते हैं । समझ नहीं आता कि किन पर भरोसा करें । ऐसे में मैं कहता हूँ कि कुछ मखबूतलहवास लोगों का बचा रहना ज़रूरी है जो खुलकर अपनी बात कह सकें । मंटो भी पागल थे । 

मखबूतलहवास । वो बना रहना चाहिए । इसलिए मैं उन्हें पसंद करता हूँ । आदमी में इतना साहस ज़रूरी है । आदमी चुप है! क्यों?

आरती स्मित : लालच में या भय में । चुप्पी तोड़कर अपने कंफ़र्ट ज़ोन से बाहर कर दिए जाने से भयभीत है आदमी ।

नरेन्द्र मोहन : मगर, ये रिस्क तो उठाना पड़ेगा । लेखक को तो उठाना ही पड़ेगा । छोटी-छोटी बातों में भी चुप्पी साधने का क्या मतलब है? फिर भी आदमी चुप रहता है । कितना कैलकुलेटिव ! कितना हिसाबी-किताबी । तुमने जो शुरू में मुझसे पूछा था और मैंने कहा भी था कि आज का समय अधिक व्यथित और बेचैन करने वाला है । कहाँ जा रहा है आदमी । .... अरे, हम सींगधारी पर बात करते -करते किस तरफ़ निकल आए!

हाँ तो सींगधारी में दोहरा कथात्मक विन्यास है, जो कम नाटकों मे देखने को मिलता है । यह नुक्कड़ नाटक के रूप में लिखा गया था और रोहतक और दूसरी जगहों पर भी नुक्कड़ नाटक के रूप में ही खेला गया । उसकी बुनावट अलग होती है । बाद के दिनों में इसे श्रीराम सेंटर में खेला जाना था, तब मैंने इसे रंगमंचीय नाटक का स्वरूप दिया । 

आरती स्मित : आज बातों- बातों में समय की गति और बढ़ गई मालूम होती है । अब निकलना होगा । वैसे आज आपके साथ के संवाद ने न केवल मेरी जिज्ञासाओं को शांत किया, बल्कि सोच को भी दिशा मिली । कई बार हमें पता नहीं चल पाता कि हमारी सोच की दिशा सही है या नहीं । ऐसे में आप वरिष्ठ से बातचीत करके ही हम मार्ग निर्धारित करते हुए निश्चिंत हो पाते हैं । आपके रंगमचीय ज्ञान से मुझे ख़ासा लाभ हुआ ।

नरेन्द्र मोहन : जब भी जिज्ञासा सिर उठाए, चली आओ । बातों के क्रम से ही कई बार हम कुछ बेहतर ढूँढ लेते हैं ।
आरती स्मित : जी, ज़रूर !

नरेन्द्र मोहन जी ने अपनी तीसरी डायरी ‘साहस और डर के बीच’ और आत्मकथा का दूसरा भाग ‘क्या हाल सुनावाँ’ उपहारस्वरूप दिया और नवासे ऋत्विक को मुझे मेट्रो स्टेशन तक पहुँचाने का दायित्व । मैं उसे विदा कर लिफ्ट में प्रवेश करती हूँ तो पाती हूँ ,निंदर मेरे साथ-साथ चला आया है और उन पुस्तकों में से झाँकता हुआ मुस्कुरा रहा है । मैं भी हौले से मुस्कुरा देती हूँ ।


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आलेख

डॉ. विनोद प्रकाश गुप्ता, -नोएडा, मो. 9811169069


श्री मंगल नसीम


मंगल नसीम:- ‘कोई जरा सी उम्र में इतिहास रच गया’

मंगल नसीम यानि मंगल सेन शर्मा ग़ज़ल की दुनिया का जाना पहचाना ही नहीं, सर्वाधिक लोकप्रिय नाम भी है जिन्होंने अपनी पैठ अदब और मंचों के कोलाहल में बराबर स्थापित की । आज उनका शुमार देश के जाने माने उस्ताद शाइरों में किया जाता है जिनकी अपनी ज़बरदस्त फ़ैन फॉलोइंग है और उनके जन्मदिन को उनके असंख्य चाहने वालों के द्वारा बहुत धूमधाम व वैभव से मनाया जाता है । इतने पॉपुलर व हर दिल अज़ीज़ शाइर के समग्र लेखन पर समीक्षात्मक लेख लिखना एक असाध्य चेष्टा है और यही मैं करने जा रहा हूँ । नसीम सर के अब तक तीन संग्रह प्रकाशित हुए हैं जो उर्दू एवं हिन्दी दोनों भाषाओं में संकलित है । “पर नहीं होते “ ; “तीतरपंखी” व “सुगबुगाहट”

विशेषता ये है कि नसीम सर ने कम लिखा ( मात्र 670 शेर तीनों संग्रहों में ) और गूढ़ कहा ।

मैं यहाँ दो शेर उद्धृत करना चाहूँगा जो उनकी तीक्ष्ण, नुकीली व विशाल शाइरी के फ़लक को गूँजित करते हैं, एक सार्वभौमिक सत्य को उजागर करते हैं -

महदूद उड़ानों में उड़ लेना उतर आना
पाले हुए पंछी के पर अपने नहीं होते
आती है सदा अकसर सरहद की चट्टानों से
जाँबाज़ लड़ाकों के सर अपने नहीं होते ।

उपरोक्त शेर पंछियों की उपमा लेकर देश के लगभग सभी ‘स्टैकहोल्डर्स’ की व्यथा बयान करता है - जैसे नौजवान लड़के लड़कियाँ, विद्यार्थी, शिक्षक, साहित्यकार, वैज्ञानिक, या किसी भी दूसरे व्यवसायी- अगर हम अपने अवाम की उड़ानों की, उनके सपनों की सरहदों का परिसीमन कर देंगे तो हम उनके स्वतंत्र सृजन को बाधित कर देंगे और ऐसे देश या समाज की उन्नति देश के कर्णधारों की मुट्ठियों में क़ैद हो जायेगी- ऐसा देश या समाज वांछित उन्नति नहीं कर सकता, इसलिए देश के हर स्टेकहोल्डर्स की उड़ानों को बांधिए मत, उन्हें स्वतंत्र उड़ने दीजिए: जो समाज अपने देशवासियों पर अनचाही बंदिशें नहीं लगाते, उनकी सोच का परिसीमन नहीं करते और उनकी परवाज़ को बल देते हैं, वहीं देश समाज विश्वगुरु बनने की ताक़त रखते हैं । इसके विपरीत देश के जाँबाज़ सिपाहियों के सर अपने नहीं होते - सरहदों की रक्षा संकल्प हमेशा यह चेताता रहता  है । ऐसे बहुत शेर हैं जो नसीम सर की प्रखर बौधिक चेतना के प्रतीक हैं जिन्हें मैं उनके हरेक संग्रह के संदर्भ में उद्धृत करना चाहूँगा ।

पर नहीं अपने 

“पर नहीं अपने” मंगल नसीम की प्रथम कृति है जिसमें उनकी 40 ग़ज़लें और 200 शेर शामिल हैं । मंगल नसीम के सृजन में रिश्तों का एक विस्तृत संसार है - पारिवारिक, सम्बंधित व आकस्मिक- मनुष्य इन सभी के लिए पारस्परिक अनुबंधों के आधार पर रिश्ते निभाता है । परिवार में स्वयं का सगा परिवार और सगी व एक्सटेंडेड फ़ैमिली । हमारे भारतीय परिवेश में पारिवारिक रिश्तों की एक अनोखी प्रतिबद्धता है जिसे हम संस्कारों की ओढ़नी से ढक देते हैं, लोक लाज को या सांसारिक ज़ंजीरों में बंधे, कसमसाते भी निभाते हैं । अब वो अपने हों न हों पर उन्हें निभाना एक मजबूरी भी हैं और पारिवारिक दायित्व भी । इसी संदर्भ को उद्धृत करता ये शेर देखिए और स्वयं महसूस करिए इस शेर की सार्वभौमिक सत्यता । हमारे समाज में फ़र्ज़, संस्कार, दायित्व और पारिवारिक परिपाटियाँ इन्हीं धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक नियमों या कहिए ज़ंजीरों से बंधें हैं जिन्हें तोड़ना नामुमकिन तो नहीं दुरूह ज़रूर है ।

ये ज़िंदगी जीते हैं हम उनके लिए जिनको
हम अपना समझते हैं पर अपने नहीं होते

नसीम जी के कृतित्व में भारतीय ग़ज़ल के पितामह स्व दुष्यंत की झलक भी देखी जा सकती है, जब नसीम अंत्योदय के उस दरिद्र की व्यथा बयान करते हैं जिसे कोई नहीं पूछता पर जिसके नाम पर ख़ूब योजनाएँ घोषित की जाती हैं - यह शेर सामाजिक विसंगति का जीती जागती प्रतीक है, देखिए -

मेरा घर भी उजालों के शहर की हद में है लेकिन
यहाँ तक आते आते रौशनी दम तोड़ जाती है

सामाजिक संवेदनहीनता नसीम को विह्वल करती है, लोग मदद को हाथ बढ़ाने की बजाए तमाशबीन बने रहते हैं - यह सामाजिक बीमारी अब हर ओर व्याप्त है - ये शेर देखिए-


पत्थरों से जब उसे मारा गया
देखने मंज़र शह्र सारा गया ।

जब समय विपरीत हो या कभी कभी इतना ख़राब की कोई उपायों ही नहीं सुझता ( दोनों शेर सुगबुगाहट से )

कश्ती मेरे वजूद की जब डूबने लगी
दो हाथ और दूर किनारे चले गए

मुसल्सल तीन सौ पैंसठ दिनों तक रोज़ मौत आई
हमारी ज़िंदगी में एक बार ऐसा भी साल आया

इसी संदर्भ में सामाजिक संवेदनहीनता को कितने रंगों में नसीम व्यक्त करते हैं - जैसे जघन्य अपराध, यहाँ तक ‘इनसेस्ट’ भी, अपनों से उपेक्षा या वहाँ से मदद न मिलना जहां से पक्की उम्मीद हो - ये सब सामाजिक व सांस्कृतिक विडम्बनाएँ हैं जिन्होंने इस विशाल व इंपरसनल समाज में घिनौना रूप धारण कर लिया है । ये कुछ अश’आर देखिए:-

“ बेटी के साथ बाप ने मुँह काला कर लिया “
अख़बार बेचता हुआ हॉकर निकल गया
मैं था कि ख़ुश ख़याल सा उसकी तरफ़ बढ़ा
वो था कि बे-ख़याल सा होकर निकल गया
रहज़नों से वो मिले थे हम नहीं कहते, मगर
कारवाँ जब लुट रहा था एक भी रहबर न था

मुसीबत में दोस्ती और अपनों की पहचान होती है - नसीम जानते हैं कि दोस्ती की अपनी सरहदें होती हैं, दोस्ती ( मित्रता) को आज़माना या दोस्ती का नफ़े नुक़सान में आकलन करना, मित्रता के धागों को उलझा देता है और कई बार दोस्तियाँ ही समाप्त कर देता है -

जहां से दोस्ती में फ़ायदा नुक़सान शामिल हों
हक़ीक़त में वहीं से दोस्ती दम तोड़ जाती है

दूसरी ओर बाज़ार में हर चीज़ की क़ीमत होती है और आदमी को कुछ चीजों की क़ीमत तब पता चलती है जब वह उन्हें खो देता है - देखिए ये ख़ूबसूरत शेर -

दुनिया के बाज़ार में हर इक शय की क़ीमत होती है
चीज़ों की पाने से पहले, रिश्तों की खोने के बाद

नसीम साहेब ने बचपन व बच्चों की भावनाओं को व्यक्त करते भी बहुत बढ़िया, मार्मिक व सार्थक शेर कहे हैं - जरा देखिए:-

राम लीलाओं के दिन आते ही गलियों-गलियों
नन्हे काँधों पे धनुष बान सजायें फिरना
दूसरा पहलू - ( सुगबुगाहट से )
नस्ले-नौ के बच्चे अपनी उम्र से भी
बढ़कर मा’लूमात के मारे होते हैं

कितने ही सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, आर्थिक पहलू हैं जिन पर नसीम साहेब ने नुकीले व सार्थक शेर कहे - बहुत ही सरल व सरस भाषा में अद्भुत रवानी लिए - 

बेटियों पर - बेटियों की सुरक्षा, स्त्री विमर्श पर उनके शेर मन को छू जाते है, उद्वेलित व उद्विग्न कर जाते है - देखिए

नन्हीं सी चिड़िया बाज़ के पंजों में देखकर
सपनों में रात भर उसे बिटिया दिखाई दी
अस्मत का सौदा - स्त्री विमर्श
बच्चों का पेट भरने को इक माँ के सामने
इस्मतफ़रोश बनने की लाचारियाँ न हों

भारत जैसे गरीब देश में अधिकतर लोगों की संचय शक्ति ही नहीं होती और इसलिए वे ग़रीबी के कुचक्र से बाहर ही निकल नहीं पाते - यह साहित्यिक विडम्बना भी है कि देने वाला तो भरपूर देता है पर अपना ही दामन बहुत छोटा है - दूसरी ओर  बेईमानी और लूट का बोलबाला है जो मुफलिसों को आगे आने ही नहीं देता

देने वाला भी क्या करता
अपना दामन ही कम निकला
बेईमानी
उनपे ठेके हैं सच्ची सेवा के
जिनकी रग-रग में बेईमानी है

इन सब सामाजिक आर्थिक असमानताओं की नींव असंवेदनशील सिस्टम की देन है, जहां जुर्म करने वाले स्वयं मुजरिम हैं और कोई भी अपने फ़ायदों से बाहर की नहीं सोचता - यही सबसे बड़ा कारण हैं सामाजिक आर्थिक व नैतिक अवनति का
जुर्म करने वाले ही मुजरिम हुए
क़त्ल के मुजरिम वहीं पाये गये
जो अड़े थे ज़िद पे तहक़ीक़ात की
फूल के चेहरे -पत्थर की फ़ितरत
अक्सर पत्थर दिल होते हैं फूलों सी सूरत वाले
फूलों जैसे दिल रखते हैं चेहरों से पथरीले लोग

अपने लिए जीने वाले लोग अपने से ‘बियोंड’ नहीं देखते

लोग लम्हों की उम्र जीने में
कैसे-कैसे गुनाह करते हैं

वैसे नसीम साहेब का दूसरा ग़ज़ल संग्रह “तीतरपंखी” है पर पहले मैं उनके तीसरे ग़ज़ल संग्रह “सुगबुगाहट” का ज़िक्र करना चाहूँगा जिसमें 275 शेर सम्मिलित किए हैं । नसीम साहेब के संग्रहों में विषयों का वैविध्य है दोहराव नही । मुझे इस संकलन से उनकी एक दो ग़ज़लों के शेर बहुत माकूल लगें जो विभिन्न मसअलों पर तसव्वुर हुए है - देखिए पर्यावरण भी माँ की तरह है-

धूप-हवा-पानी सब बाँटे, ख़ुद को कन-कन बाँट दिया
क़ुदरत ने हम इन्सानों में अपना सब धन बाँट दिया
आतंक पर
हरसू ज़ुल्म-सितम, ख़ूंरेजी, बलवा, दहशत , बर्बादी
दहशतगर्दों ने दुनिया में घर-घर क्रन्दन बाँट दिया
सामाजिक बँटवारा - नफ़रत- अलगाव
मज़हब से मज़हब को काटा, नफ़रत घोली लोगों में
आज सियासतदानों की चालों ने जन-जन बाँट दिया
घर-धर बँटवारा -
बचपन से खेले-कूदे हम, मिल-जुलकर इस आँगन में
बँटवारों ने देखो कैसे सारा आँगन बाँट दिया

नसीम साहेब का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है “तीतरपंखी” ( 195 शेर ) जिसमें शाइर ने गाँव, शहर, सियासत, दहेज, सच, हौसलों आदि पर अशआर तसव्वुर किए हैं - उनकी एक ग़ज़ल जो जमूरे को सम्बोधित कर के कही है बहुत सी विद्रूपताओं व विसंगतियों का अर्थ बयान करती हैं, जरा देखिए :-

कुछ सच्चे एहसास- सामाजिक सच्चाइयाँ
दहेज
“अब ये बताओ बच्चा ! क्यूँ माँ जी इतनी ख़ुश हैं ?”
“मंहगा बिका है बेटा, आया दहेज भारी “

सियासत में बस सरकार बननी चाहिए चाहे जैसे भी हो -

“ ये तो बता जमूरे ! किस फेर में है नेता ?”
“चाहे किसी तरह हो, सरकार हो हमारी “
बड़े खेल के बड़े मदारी
“ दुनिया के खेल का है क्या आँकड़ा जमूरे?”
“जितना बड़ा तमाशा, उतना बड़ा मदारी “

कुछ मुख़्तलिफ़ शे’र
नसीम साहेब के संग्रहों में निहित ग़ज़लों से चुने कुछ शेर भी देखिए जो शाइर की उत्कृष्ट व मैयारी शाइरी के प्रतीक हैं - नसीम साहेब ने विभिन्न सामाजिक समस्याओं के लिए जो बिम्ब, उपमाएँ व प्रतीक चुने हैं वे निहायत सम्प्रेषणिय हैं, शब्द जाल से परे आम आदमी की बोल चाल की भाषा में । एक और महत्वपूर्ण विशेषता बताना चाहूँगा कि नसीम ग़ज़ल कहन की सार्वभौमिकता व ग़ज़ल कहन का जो एक ख़ास “डीएनए” होता है उसे ग़ज़लों, अश’आर में पिरोये रखते हैं । देखिए विभिन्न विषयों पर उनका काव्य निर्वहन -

गाँव का परिदृश्य- जायदाद का हाल
खेत क़र्ज़े में खप चुके होंगे
घर को भाई हड़प चुके होंगे

इंच भर धरती नहीं बची है साँस लेने को भी - शहरी त्रासदी

मेरे बचपन के खेल के मैदां
कबके फ़्लैटों में नप चुके होंगे

सुचिता - ये शेर मनुष्य को उसकी मनुष्यता से रूबरू कराता है - एक चरित्रवान इंसान, उसूलों को मानने वाला समाज कभी अपनी विशेषता / गुण नहीं खोता, जैसे चंदन का पेड़ चंदन ही रहता है ।

अनगिन लिप्साएँ लिपटेंगी, केवल इतना ध्यान रहे
चाहें जितने विषधर लिपटें, चंदन रहता है चंदन

“अनब्रिडल्ड पॉवर” मैक्स इवन ए सैंट डेविल - ये सिद्धांत आज भी वैसे का वैसा है -

ऐसे भी शहंशाह तवारीख़ ने देखे
हैवान बना डाला जिन्हें तख़्त ने यारो !

मनुष्य का आचरण उसकी फ़ितरत ही तय करती है जो बदलनी एक तरह से नामुमकिन ही होती है - नसीम कहते हैं :-जैसे आप होंगे वैसा ही आचरण करेंगे

बशर महसूस करता है जो ख़ुद में
वही एहसास बाहर ढूँढता है

सच की ताक़त किसी का पीछा नहीं छोड़ती - मनुष्य समझता है वो जीत गया पर सच चेहरे पर, आत्मा पर वो छाप छोड़ता है जो शिलालेख की तरह मनों-मस्तिष्क पर अंकित हो जाती है - शाश्वत सत्य की तरह -

जाते हुए वो बोल के एक ऐसा सच गया
जो सच हरेक शख़्स का चेहरा खुरच गया

सियासी रिश्तों पर नसीम बहुत ही तल्ख़ व कड़ा प्रहार करते हुए कहते हैं कि सियासत में हर बुरे से बुरा रिश्ता भी स्वीकार्य होता है, न कोई शर्म न नैतिकता । एक कवि ने कहा था कि थूक कर चाटना वीभत्स रस है पर सियासत में इसे वीर रस कहते है -

जिसको सही जबाब भी लगता न था सही
उसको ग़लत जबाब भी अब कैसे पच गया

सियासत में एक और विडम्बना भी देखिए, जो आम विश्वास के रिश्तों में भी देखी जाती है ये अपना -अपना नज़रिया अक्सर बड़े धोखे का बाइस बनता है -

मुझको था ये ख़याल कि उसने बचा लिया
और उसको ये मलाल कि ये कैसे बच गया

आज की सियासत में अभूतपूर्व तटस्थता देखी जाती है - जो अपने पाले में है वो सब दूध के धुले हैं पर जो विपक्ष में या अपनी संकीर्ण सोच के आईने में राजनीतिक लाभ नहीं देंगे वहाँ सियासी लोग और प्रशासन तटस्थ रहेगा ( मणिपुर की घटना या पहलवान लड़कियों के केस देख लीजिए) -

जल रहे हैं बामों-दर, आप कुछ तो बोलिए
फुंक रहे हैं घर के घर, आप कुछ तो बोलिए

नसीम का मत है जो सही भी है कि उम्र लम्बी नहीं सार्थक होनी चाहिए - देखिए ये शेर

कोई तवील उम्र भी यूँही जिया ‘नसीम’
कोई ज़रा सी उम्र में इतिहास रच गया

हौसलों से उड़ने वाले यानि तरक़्क़ी करने वाले सब की नज़रों में अखरते हैं - हर फ़ील्ड में, हर व्यवसाय में, प्रोफ़ेशन में यहाँ तक की कवियों, ग़ज़लकारों, साहित्यकारों में एक दूसरे की टांग खिंचने का “सदगुण” सबसे प्रचुर व प्रखर रूप में पाया जाता है - देखिए

परिंदे ! हौसला कायम उड़ान में रखना
हर इक निगाह तुझी पर है, ध्यान में रखना

नम्रता का गुण या विशेषता अक्सर कायरता में ले ली जाती है जबकि वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न होती है - नम्र व्यक्तित्व वाले व्यक्ति दृढ़ व साहसी होते हैं - साहसी व्यक्ति ही झुके रहते हैं -

तोड़ ले जाते हैं पत्तों को गुजरने वाले
इतनी नीची मेरे एहसास की डाली क्यूँ है

अंत में मैं नसीम साहेब के दो शेर ख़ास तौर पर उद्धृत करना चाहूँगा जो आज के अधिकांश मनुष्यों के वास्तविक किरदार को प्रस्तुत करता है । आज के अधिकतर लोग कठिन से कठिन प्रस्थितियों में भी पलायनवादी (एस्केपिज्म)मानसिकता से लिपटे रहते हैं । आज का शाइर / साहित्यकार भी पलायनवादी है - देखिए ये शेर

रात भर जिस खुद से लड़ते लड़ते थक जाता हूँ मैं
दिन निकलते ही उसी ख़ुद में दुबक जाता हूँ मैं

एक और बड़ी साहित्य सच्चाई नसीम बयान करते हैं जो रिवायती व शाइरी की जदिदीयत से जुड़ी है । बहुत से शाइरों का मत है कि दुष्यन्त के बाद की शाइरी ने शाइरी के फलक में विषयों का अत्यधिक विस्तार किया यानि हर तरह के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व मनुष्य/ आवाम की ग़ुरबत व दूसरी विधाओं पर शेर कह शाइरी को सपाट बयानी कर दिया - पर ये सही नही । ग़ज़ल कहन भी काव्य की नुकीली व कहन की उत्कृष्ट विधी है । आज ग़ज़ल काव्य की वो विधी है जो कविताओं से चार कदम आगे चल रही है । अगर ग़ज़ल काव्य में आज के व्यक्ति व समाज की व्यथाएँ बयाँ नहीं होगीं तो वो काव्य हो ही नहीं सकता । आज ग़ज़ल हर सोशल, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व अन्य समाजिक कुरीतियाँ, बिडम्बनाओं, विसंगतियों व विद्रूपताओं को उद्धृत कर रही है, ये ग़ज़ल कला का वैविध्य संस्कार है, अवगुण नहीं : ये शेर देखिए:-

नसीम इस दौर में मुमकिन नहीं है
ग़ज़ल कहना गुलों पर तितलियों पर

मंगल नसीम यानि ‘मंगल सेन शर्मा नसीम’ की सोच का फलक वृहद् है, विजन निस्सीम है और मिशन सच्चा व सार्थक है । नसीम दिल्ली में पैदा हुए, दिल्ली के शाइर हैं और दिल्ली वालों की तरह दिलदार शाइर हैं । मंगल नसीम ग़ज़ल छंद के बड़े जानकार हैं और उनकी ग़ज़लें, ग़ज़ल के उरूज़ के मापदण्डों - बह्र, वज़न अर्कान पर सटीक उतरती हैं पर कथ्य की दृष्टि से नसीम की ग़ज़लें पूर्ववर्ती ग़ज़लों के आत्मपरक, सीमित व केवल रूमानी विधाओं से आगे बढ़कर आज के समसामयिक संदर्भों अनुरूप यथार्थ परक, वस्तु परक व विषय परक संवेदनाओ का प्रतिनिधित्व करती है ।

नसीम की ग़ज़लों ने अनेकानेक नए ग़ज़लकारों को ग़ज़ल विधा की ओर आकर्षित किया और आज उनका विस्तृत फ़ैन क्लब है जो उनकी वैचारिक सोच से मुतासिर है और उनके सोच को अनवरत आगे बढ़ा रहा है । नसीम हर पत्र पत्रिका में प्रकाशित हुए और हर साहित्यिक मंच पर उनका योगदान रहा, सम्मानित हुए तथा देश विदेश में भारतीय काव्य का प्रतिनिधित्व किया । यही एक समकालीन शाइर की सफलता है ।

मंगल नसीम समकालीन वक़्त के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से एक मूर्द्धन्य शाइर हैं, उस्ताद शाइर हैं और समकालीन शाइरों की एक बहुत विशाल जमात का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

इनके तीनों ग़ज़ल संग्रह पठनीय व संग्रहणीय हैं जिनसे पुराने व नए शाइर बहुत कुछ ग्रहण कर सकते हैं । मेरा सौभाग्य कि उन पर यह लेख तसव्वुर कर सका ।

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यात्रा संस्मरण 

श्री राजेन्द्र नागदेव,  भोपाल, मो. 8989569036 
ईमेल raj_nagdeve@hotmail.com

एक महँगी भूल 

अमेरिका की यह दूसरी यात्रा है । हमारे सामने अनिर्णय की स्थिति तो थी पर अंतत: जाने का निर्णय कर ही लिया । आशंका यह थी कि हवाईअड्डों पर जाँच में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर उचित प्रकार से दे सकेंगे अथवा नहीं! वृद्ध हो गए हैं । मस्तिष्क के तंतु निर्बल हो गए हैं । यात्रा पर मुझे और पत्नी शीला को ही जाना है । हमारे साथ कोई युवा साथी नहीं होगा । किंतु विदेश प्रवास पर जाने का रोमांच भी है । विदेशों में नये अनुभव होते हैं । संसार के अपरिचित पक्षों से परिचय होता है । पूर्व में भी विदेश यात्राएँ की हैं । किंतु वे उम्र के युवा चरण में की थीं । तब ऐसी कोई चिंता नहीं थी । अब स्थिति भिन्न है । 

विमान हमें दिल्ली से लेना है । भोपाल से मैं और पत्नी रेल द्वारा सुबह दिल्ली आ गए हैं । निज़ामुद्दीन स्टेशन से सीधे गुड़गाँव आए । यहाँ दूर की एक रिश्तेदार के घर ठहरे हैं । हमारी उड़ान कल रात को है । मेरा स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं है । प्रवास के लिए स्वस्थ्य रहना ज़रूरी है इस कारण गुड़गांव से दिल्ली जाने का पूर्व कार्यक्रम स्थगित कर दिया । दिल्ली में दीर्घ काल तक, लगभग चालीस वर्ष रहे थे । अनेक मित्र हैं वहाँ, दिलशादगार्डन के पड़ौसी हैं 
ही । डीयर पार्क की साहित्यिक मंडली है- सर्वश्री विश्वनाथ त्रिपाठी, हरिनारायण, भारतेन्दु मिश्र, रमेश प्रजापति, बलराम अग्रवाल, अशोक गुजराती आदि स्नेही मित्र हैं । सबसे मिल लेने का अच्छा अवसर था । मिलना संभव नहीं हुआ । जिनके घर ठहरे हैं वे डाक्टर हैं । उन्होंने कुछ गोलियाँ दीं । शाम तक स्वास्थ्य ठीक हो गया । कल रात्रि साढ़े बारह बजे की उड़ान है । जल्दी ही सो गए । कल पूरी रात संभवत: सोने का अवसर नहीं मिलेगा । उड़ान वाला दिन । मौसम ठीक नहीं है । सुबह से ही आकाश मेघाच्छन्न है । वर्षा हो रही है । हमने अंतिम रूप से सामान जमाया । यात्रा में कड़ाके की ठंड का सामना करना पड़ेगा खास कर पेरिस में । अतः मैंने पहनने के लिए जैकेट निकाल लिया । यहाँ कुछ गर्मी है । हमारी मेजबान और पत्नी का कहना था जैकेट नहीं पहनूँ गर्मी लगेगी । बैग में रख लेते हैं । हवाईअड्डे पर पहुँच कर निकाल लेंगे । मुझे इस बात की आशंका थी कि हवाईअड्डे पर हम बहुत व्यस्त होंगे । हो सकता है जैकेट निकालने का ध्यान नहीं रहे । मेरी नहीं सुनी गई । दो महिलाओं के सामने हथियार डाल देने पड़े । नियत समय साढे आठ बजे हम कार द्वारा इंदिरा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे के लिए निकल जाते हैं । हवाईअड्डा लगभग 18 किलोमीटर दूर है । 

हवाईअड्डे पर औपचारिकताएँ पूरी करते हैं । सामान बुक किया जा चुका है । व्हीलचेयर के लिए पहले से आवेदन कर दिया था । दो व्हीलचेयर आ जाती हैं । जैसे ही व्हीलचेयर चलाने वाले व्यक्ति हमें लेकर आगे जाने लगते हैं मुझे जैकेट का ध्यान आता है । मेरी आशंका सही निकली । 

 हमें बैग जमा करने से पहले जैकेट निकालने का ध्यान ही नहीं रहा । वह सामान के साथ जा चुका था । उसे वापस लेना अब संभव नहीं था । एक ज़रा सी भूल से अनावश्यक समस्या खड़ी हो गई । हमें व्हीलचेयर से बड़े हाल में ले जाकर खड़ा कर दिया गया । व्हीलचेयर चलाने वाले कर्मचारी चले गए यह कह कर कि हम उसी स्थान पर रहें । वे समय पर हमें विमान तक पहुँचाने के लिए आ जाएँगे । मुझे जैकेट वाली समस्या विचलित कर रही
है । विमान के अंदर और पेरिस हवाईअड्डे पर ठंड का सामना कैसे करूँगा? मैंने केवल एक पतली सी कमीज़ पहन रखी है । पत्नी को मेरी बात नहीं मानने का पश्चात्ताप हो रहा है पर अब कुछ नहीं किया जा सकता । सामने छोटी-छोटी अनेक दुकानें हैं । दुकानें सीध में नहीं घुमावदार आकार में हैं । मुझे लगा कि, किसी दुकान में सस्ता सा स्वेटर मिल जाए तो ले लूँ । मैं पत्नी को वहीं छोड़ दुकानों की तरफ़ निकल जाता हूँ । तरह तरह के सामानों की अनेक दुकानें हैं किंतु कहीं स्वेटर नहीं है । बहुत घूमने के बाद एक दुकान पर स्वेटर और जैकेट दिखाई दिये । बड़ी आशा से वहाँ गया । दुकानदार को मैंने अपनी व्यथा सुनाई और उससे सबसे सस्ता स्वेटर दिखाने को कहा । उसने दिखाया और मूल्य बताया तो होश उड़ गए । भारतीय मुद्रा में उसका मूल्य सात हजार रुपए था । निकट की अन्य दुकान पर भी वैसे ही वस्त्र देख कर वहाँ गया । मूल्य वहाँ भी वही था । मैं दुकानें देखते- देखते थक चुका था । उधर पत्नी अकेली थी । मैं निराशा के साथ लौट गया । उस घुमावदार बाज़ार में से वापसी के लिए मैं जिस भी दिशा में जाता घूम फिर कर एक ही बिंदु पर लौट आता था । मैं भटक गया था । बहुत समय हो चुका था और वापसी का रास्ता सूझ नहीं रहा था । किसी से पूछता भी तो क्या पूछता! घबराहट मन पर छाने लगी थी । सबसे बड़ी चिंता थी कि विमान छूटने का समय निकट आता जा रहा था । सौभाग्य से अंतत: सही रास्ता मिल गया । मेरे वहाँ पहुँचने के कुछ पलों में ही व्हीलचेयर वाले आ गए । मुझे यदि कुछ समय और लग जाता तो पता नहीं स्थिति क्या होती! ऐसी गलती कभी बड़ी समस्या बन सकती है । इतनी देर हो जाने से पत्नी की क्या अवस्था हुई होगी, कल्पना की जा सकती है । मुझे सबक मिला कि किसी अपरिचित स्थान पर किसी भी परिस्थिति में साथ के व्यक्ति को छोड़ कर दूर तक नहीं जाना चाहिए । केवल उतनी दूरी तक जाएँ जहाँ से वह दृष्टि की सीमा में रहे । मेरे सामने अब ठंड में पतली सी कमीज़ में ही अमेरिका के कोलम्बस ( इन्डियाना राज्य वाले, अमेरिका में कोलम्बस नाम के कम से कम तीन शहर हैं ) शहर तक 27-28 घंटे की यात्रा करने के सिवा कोई चारा नहीं है । सुना था कि हृदय रोगियों के लिए अधिक ठंड खतरनाक होती है । मुझे हृदय सम्बंधी समस्या है अत: चिंता स्वाभाविक ही थी । सोचा जब कोई विकल्प ही नहीं है तो ठीक है जो होगा देखा जाएगा । कभी-कभी निर्विकल्पता भी साहस बन जाती है । ध्यान आगे के प्रवास पर केन्द्रित कर लिया । व्हीलचेयर लेने का बड़ा लाभ यह हुआ कि हवाईअड्डे की । सारी औपचारिकताएँ चेयर खींचने वाले कर्मचारियों ने ही पूरी करवा दीं । हमें कुछ नहीं करना पड़ा । यही लाभ पेरिस के हवाईअड्डे पर भी मिला । वहाँ संभावना होती है कि कर्मचारी-अधिकारी आपसे फ़्रांसिसी भाषा में बात करें । फ़्रांस में अंग्रेजी के प्रति गहन शत्रुभाव है । इसका प्रत्यक्ष अनुभव मुझे 1984 में पेरिस यात्रा में हुआ था । 

हमारा विमान रात्रि के साढे तीन बजे पेरिस के लिए प्रस्थान करता है । पेरिस तक का प्रवास नौ घंटों का है । इस सम्पूर्ण कालावधि में विमान हवा में ही रहेगा और एशिया तथा यूरोप के अनेक देशों के ऊपर से उड़ेगा । अंदर बहुत ठंड है । मैं विमान में दिये गए पतले से कम्बल को अच्छी तरह लपेट लेता हूँ । गर्मी के लिये तकिये को छाती से चिपटा लेता हूँ । बाहर गहरा अंधेरा है । कुछ दिखाई नहीं दे रहा है । हम सोने की कोशिश करते हैं । 

पेरिस हवाईअड्डे पर विमान तय समय से कई घंटे देरी से पहुँचा । ठंड की वास्तविक समस्या का सामना यहाँ करना पड़ा । विमान से बाहर आकर देर तक व्हीलचेयर की प्रतीक्षा करनी पड़ी । जब दो-एक लोगों को विमान में दिये गए कंबल लपेटे हुए देखा तो लगा कि मुझे भी एकाध ले आना चाहिए था । अब तो न कंबल है न तकिया है मेरे पास । लगभग शून्य अंश के तापमान में मात्र एक पतली कमीज का ही सहारा है । हमें अगली उड़ान पकड़ने के लिए हवाईअड्डे से बाहर निकल कर उसके दूसरे हिस्से में जाना है जो बहुत दूर है । हल्की बारिश हो रही है । व्हीलचेयर भी नहीं आई । हम ठिठुरते हुए प्रतीक्षा कर रहे हैं । कुछ देर में दो व्हीलचेयर आ गईं । हम उनमे बैठ जाते हैं । एक छोटे ट्रक की तरह ऊपर से खुली गाड़ी आती है । हमें इसमे जाना है । व्हीलचेयरों को उसमे चढा दिया जाता है । धूप नहीं निकली है । हल्की बूँदाबांदी . . . वातावरण में उदासीनता. . . उदासीनता जो बादलों वाले धूप रहित दिन के वातावरण में होती है । आसपास बड़े-बड़े विमान खड़े हैं । पीली पोषाख में हवाईअड्डे के स्त्री-पुरुष कर्मचारी दक्षता पूर्वक अपने कर्तव्य में जुटे हैं । इनमे कुछ भारतीय भी हैं । गाड़ी लगभग पंद्रह मिनट चलती रही । हम उतर कर पुन: हवाई अड्डे की इमारत में जाते हैं । यहाँ हमारी और सामान की जाँच हुई । इसके बाद हमारे पास व्हीलचेयर नहीं थी । हम पैदल ही अपना सामान लेकर उस टर्मिनल की ओर चले जहाँ से अगली उड़ान के लिए विमान लेना था । पेरिस हवाईअड्डा बहुत विशाल है । एक टर्मिनल से दूसरे तक जाने में चलित पथ होने के बावज़ूद कभी-कभी आधा घंटा लग जाता है । हम लगभग बीस मिनट चल कर अपने टर्मिनल वाले प्रतीक्षा कक्ष में पहुँचे । यहाँ चार घंटे प्रतीक्षा करनी थी । प्रतीक्षागृह की कांच की दीवारों से बाहर दूर- दूर तक का दृष्य नज़र आ रहा है । विमान आ रहे हैं, जा रहे हैं । हमारी उड़ान का समय हो चुका है और व्हील चेयर वाले नहीं पहुँचे हैं । वहाँ का एक कर्मचारी कहता है आपका विमान वह सामने दिखाई दे रहा है । क्या आप वहाँ तक पैदल जा सकेंगे? हम हामी भरते हैं और अपना सामान उठा कर चल पड़ते हैं । 

हमारी सीटें खिड़की के पास वाली हैं । बाहर का दृष्य अच्छी तरह दिखाई दे रहा है । विमान कुछ ही देर में भूभाग को पार कर अट्लांटिक महासागर के ऊपर उड़ने लगता है । आगे अमेरिका तक पूरी उड़ान समुद्र के ही ऊपर होगी। मुझे प्यास लग रही है । विमान परिचारिका से पानी माँगता हूँ । वह हाँ कह कर आगे चली जाती है और भूल जाती है । वह बहुत व्यस्त है । कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद मैं कुछ चिढ कर फिर पानी माँगता हूँ । वह अपनी व्यस्तता का हवाला और आश्वासन देकर फिर निकल जाती । इतने बड़े विमान में सैंकड़ों यात्रियों की सेवा के लिए मात्र तीन परिचारिकाएँ और एक परिचारक ही हैं । अन्य लोग भी अपनी माँगों की पूर्ती न होते देख परिचारिका पर नाराज हो रहे हैं । परिचारिका रुआँसी होकर अपनी कठिनाई बताती है तब अहसास होता है कि चमकदमक वाली इस नौकरी में परिचारिकाएँ वास्तव में कितनी वेदना से गुजरती हैं । कुछ देर में पानी मिल जाता है । पृथ्वी की सतह से विमान की ऊँचाई समय समय पर बताई जा रही है । कभी विमान 48000 तो कभी 52000 फुट की ऊँचाई पर चला जाता है । बाहर बहुत तेज धूप है इसलिए है कि हम बादलों से बहुत अधिक ऊँचाई पर उड़ रहे हैं । बहुत नीचे बादल ऐसे लग रहे हैं मानो क्षितिज तक कपास ही कपास बिछा हो । बादल पृथ्वी की सतह से चिपके हुए लग रहे हैं । मन यह सोच कर अचंभित है कि क्या शुभ्र मुलायम, निर्दोष ये बादल वे ही हैं जो हमें धरती से आकाश में बहुत ऊँचाई पर प्रतीत होते हैं! क्या ये वही बादल हैं जिनका वर्षा ॠतु में गर्जन तर्जन और उनमे बिजलियों का कड़कड़ाना हृदय को दहला देता है! बादलों के मध्य कहीं-कहीं खुले स्थानों से नीला समुद्र जल दिखाई देता है । धूप में छोटे-छोटे खिलौनों-सी पाल वाली नावें और कभी-कभी जहाज दिखाई दे जाते हैं । अद्भुत मनमोहक दृष्य है । हम पृथ्वी को पृथ्वी के बाहर से देख रहे हैं । अब शेष पूरी यात्रा इसी तरह समुद्री जल के ऊपर से होगी । कोई दृष्य कितना भी सुन्दर हो उसकी निरंतरता उकताहट पैदा कर देती है । हम बीच-बीच में नींद लेने का उपक्रम करते हैं या सामने वाली सीट के पीछे लगे टीवी के पर्दे पर फिल्म देख कर समय बिताने की चेष्टा करते हैं । 

विमान नीचे उतर रहा है । सिनसिनाटी हवाईअड्डे पर व्हीलचेयर के लिए कुछ देर प्रतीक्षा करनी पड़ती है । व्हीलचेयर तो दो उपलब्ध हो गईं किंतु चलाने वाला एक ही व्यक्ति मिला । उसने कुछ देर तक दूसरे की राह देखी फिर अकेला ही एक-एक हाथ से दोनों चेयर चलाते हुए हमें ले गया । बहुत स्वस्थ्य लंबा व्यक्ति है । एक ही हाथ से व्हीलचेयर को इतनी कुशलता से घुमा फिरा, मोड़ रहा था जैसे किसी खिलौने से खेल रहा हो । सिनसिनाटी बहुत बड़ा हवाईअड्डा नहीं है । चैकिंग संबंधी सारी प्रक्रिया कुछ ही मिनटों में पूरी हो गई । हमने यह सावधानी बरती थी कि अपने साथ कोई खाद्य पदार्थ नहीं रखें अन्यथा, अधिक गहन जाँच होने की संभावना होती है और व्यर्थ ही समय नष्ट होता है । जाँच करने वाली महिला अधिकारी ने अचार, पापड़, चटनी जैसे कुछ हिन्दी शब्द अंग्रेजी लहज़े में बोलते हुए पूछा कि इनमे से कुछ हमारे पास है क्या? हमारा  नकारात्मक उत्तर सुन उसे अचंभा हुआ । सामान्यत: भारत से जाने वाले सभी बुज़ुर्ग वहाँ रह रहे अपने बच्चों के लिये ये खाद्य पदार्थ ले ही जाते हैं । 
 व्हीलचेयर खींचने वाले व्यक्ति ने हमें चेयर सहित हवाईअड्डे के अंदर ही चलने वाली तीन डिब्बों की चालक रहित रेलगाड़ी के डिब्बे में धकेल दिया । हम गाड़ी से हवाईअड्डे के निर्गम वाले भवन में आ गए । मैंने आसपास दामाद अमित को ढूँढने की कोशिश की । वे कहीं दिखाई नहीं दिये । व्हीलचेयर खींचने वाले व्यक्ति का काम हो चुका था । चाहता तो हमें छोड़ कर जा सकता था । उसने वैसा नहीं किया । कुछ देर तक देखा कि हमें लेने कोई नहीं आया है तो उसने मुझसे अमित का फोन नम्बर लिया और फोन करने ही वाला था कि अमित सामने से आते हुए दिखाई दिए । अमित ने उस व्यक्ति को टिप दी और हम उनके साथ घर के लिए रवाना हुए । बाहर बहुत ठंड है । एक पतली सी कमीज़ में मेरी यह लंबी यात्रा लगभग समाप्त हो गई । कार में बैठने पर अच्छा लगा । सिनसिनाटी से कोलंबस घर तक पहुँचने में हमें दो घंटे लग गए । शहर से बाहर एकदम खुले क्षेत्र में 35-40 घरों की छोटी- सी कालोनी है । आसपास खूब वृक्ष और छोटी-बड़ी पहाड़ियाँ हैं । यह पतझड़ का मौसम है । वृक्ष पर्णविहीन हैं । सभी मकानों में तलघर है और उसके ऊपर दो मंज़िलें हैं । तलघर यहाँ की अनिवार्यता है । यहाँ अक्सर भयंकर चक्रवाती तूफान (टारनेडो) आते हैं । उनसे बचने के लिए लोगों को तलघर में शरण लेनी पड़ती है । वैसे स्थानीय नागरिक प्रशासन द्वारा ऐसी आपात स्थिति के लिए कुछ स्थानों पर शरणस्थल बनाए गए हैं । किंतु आपात स्थिति में वहाँ तक पहुँचना भी दुष्कर हो सकता है अत: मकान खरीदते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि उसमे तलघर हो ।
 
बाहरी तापमान का घर के अंदर कोई प्रभाव नहीं है । यहाँ सब घर वातानुकूलित होते हैं । विमान यात्रा के समापन पर उसका प्रभाव (जेट्लेग) कुछ दिनों तक रहता है । दिन में नींद आती है । रातें जागते हुए बीतती हैं । हमारे साथ यह हो रहा है । आखिर सबकुछ तो उलट गया है । हम अब पृथ्वी के विपरीत गोलार्ध्द में या पाताल में हैं जहाँ भारत के दिन के समय रात्रि और रात्रि के समय दिन होता है । 

आज बाहर निकले हैं । बादल छाए हुए हैं । हल्की बूँदाबाँदी हो रही है । कोलंबस शहर के मुख्य व्यावसायिक क्षेत्र में भ्रमण के लिए निकले । शहर की मुख्य सड़क पर हैं । इसका नाम ‘वाशिंग्टन स्ट्रीट’ है । इसे देख मुझे 1984 में देखी लंदन की ‘आक्सफोर्ड स्ट्रीट’ याद आ गई । बिल्कुल वैसे ही भवन, वैसा ही स्थापत्य । भूतल पर दूर तक दुकानें ही दुकानें । अंतर मात्र इतना कि यहाँ सब छोटा- छोटा है । उसका यह लघु संस्करण प्रतीत होता है । 

एक मनोरंजन केन्द्र में जाते हैं । यहाँ एक बहुत बड़ा हाल है । बाहर बच्चों के खेलकूद के लिए साधन हैं । लगभग पचास फुट ऊँची धातु की संरचना है । बच्चे, किशोर-किशोरियाँ और उनके साथ उनके अभिभावक भी उस पर चढ़ रहे हैं, उतर रहे हैं, कलाबाजियाँ कर रहे हैं । हम हाल में बैठ जाते हैं । इसके ऊपर एक सभागृह है । ईसाई लोग धार्मिक वेषभूषा में ऊपर जा रहे हैं । इनमे हर आयु वर्ग के हैं अधिकतर वरिष्ठ नागरिक । कोई धार्मिक आयोजन है आज वहाँ । आसपास अधिकतर श्वेत-अश्वेत अमेरिकी, जापानी और भारतीय दिखाई दे रहे हैं । भारतीयों में अधिकांश दक्षिण भारतीय हैं । हल्की बरसात और ठंडक के कारण वातावरण उदास उदास सा है । हमारे पास करने को विशेष कुछ नहीं है । बैठे- बैठे बाहर खेल रहे बच्चों- बड़ों को देख रहे हैं । ऊपर कार्यक्रम इतनी शांति के साथ चल रहा है कि लग ही नहीं रहा वहाँ कुछ हो रहा है । पत्नी और बेटी ऊपर जाते हैं । आकर बताते हैं कि कोई तामझाम नहीं है । केवल एक क्रास है । उस पर काला कपड़ा डला हुआ है । पादरी शांत स्वर में धार्मिक ग्रंथ में से कुछ पढ़ रहे हैं । मेरे सामने अनायास भारत के मंदिरों में और मोहल्लों में ऊँची कर्णभेदी आवाज में होने वाले मंत्रोच्चार और भजनों के शोरगुल से भरे हुए धार्मिक आयोजन आ रहे हैं । पढने वाले बच्चों या बिमार और वृद्धों को हो रही पीड़ा से निरपेक्ष लाउडस्पीकरों पर रात-रात भर ये निरंतर चलते रहते हैं । पता नहीं, ईश्वर यदि कहीं वास्तव में है भी तो इससे कितना प्रसन्न होता होगा! हमारे यहाँ समस्या यह है कि हम अपने ही अधिकारों को अधिकार मानते हैं । दूसरों के अधिकारों का हमारे लिए कोई अर्थ नहीं होता । यहाँ दूसरों के अधिकारों का समुचित सम्मान किया जाता है । इसी सभागृह में अक्सर यहाँ का भारतीय समुदाय भी अपने समारोह आयोजित करता है । हम हाल से बाहर आते है । हल्की बारिश में वाशिंग्टन स्ट्रीट पर टहलते हैं । यहाँ की अधिकांश इमारतें एक बहुत बड़ी कम्पनी ‘कमिन्स’ द्वारा बनाई गई हैं । इस शहर के बहुत बड़े भाग पर इस कम्पनी का ही स्वामित्व है । कोलंबस शहर से इस प्रथम परिचय के बाद घर लौट आते हैं । 

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आलेख
सुश्री शीना वी. के.
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, सरकारी ब्रेन्नेन कॉलेज, 
तलस्सेरी, कंनूर, केरल, मो. 9744772422

पर्यावरण और उसके महत्त्व

आधुनिक काल में सर्व प्रचलित शब्द हैं पर्यावरण । वैज्ञानिक लोग पर्यावरण शब्द को बहुत महत्व देते हैं । मानव पर्यावरण में रहते हैं । हमारे आसपास के घेरे वातावरण ही पर्यावरण हैं । इसमें प्रकृति, मनुष्य, अन्य प्राणी, अंतरिक्ष सब समाहित हैं । सभी प्राणी जीव जंतु  तथा मानव पर्यावरण पर आश्रित हैं । दैनिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं वायु, जल, खाद्य पदार्थ, आदि । पर्यावरण से ही हमें ये सारे तत्व प्राप्त होते हैं । प्राचीन मानव के युग से लेकर आधुनिक मानव के युग तक पर्यावरण मे अनेक परिवर्तन और विविधता आये थे । पर्यावरण शास्त्र मे मानव और पर्यावरण के परस्पर सम्बन्ध के अध्ययन हैं । 

प्राचीन मनुष्य पर्यावरण पर आश्रित थे । अपने जीवन मे वे पर्यावरण को बहुत महत्व और स्थान देते थे । बिजली की चमक, बादल का गर्जन, विशाल समुद्र आदि प्राकृतिक तत्वों से प्राचीन मनुष्य डरते थे । प्राकृतिक आपतियों का सामना करने केलिए आदिमानव के पास आधुनिक हथियारों का अभाव था । आदिमानव प्रकृति की पूजा करते थे । पर्यावरण के अनुकूल जीवन को सुदृढ़ बनाते थे । आधुनिक मानव के पास पर्यावरण को अपने अनुकूल बनाने की काफी सुविधा मिली । 

धरती जीवन के विभिन्न परिणाम और जीवन के अस्तित्व से युक्त सौरमण्डल के एक ग्रह हैं । भूमि सूर्य से सबसे दूर स्थित ग्रह हैं । धरती मे जैव परिस्थिति की विविधता विद्यमान हैं । मिट्टी,जल, वायु, जीव-जंतु आदि विभिन्न तत्वों से युक्त हैं पर्यावरण । अन्य ग्रहों की तुलना में धरती में जीवन के तत्त्व विद्यमान हैं । धरती के भौतिक वस्तुएँ हैं पेड़ पौधे । जैव परिस्थिति मे पेड़-पौधे, जीव -जंतु, प्राणी आते हैं । भौतिक परिस्थिति के परिवर्तन जैव परिस्थिति को बदलाते हैं । वायु और जल के प्रभाव से भिन्न भिन्न ऋतुएँ, मौसम आदि परिवर्तित होते हैं । पेड़ पौधे जीव जंतुओं के विकास एवं नाश केलिए भौतिक परिस्थिति कारण बन जाते हैं । 

धरती के आतंरिक भाग मे पत्थरों के विभिन्न तल होते हैं । उन पत्थरों मे जीव जंतुओं की हड्डियां रहती हैं । पत्थरों के भीतर से पुराने युग मे जीवित जीव जंतुओं, पेड़ पौधे की निशानी प्राप्त होती हैं । 

दस लाख वर्ष पहले की मानव जाति में आज काफ़ी परिवर्तन हुए थे । पर्यावरण मे स्थल मण्डल, जल मण्डल,वायु मण्डल, जीव मण्डल, आदि समाहित रहते हैं । 

स्थल मण्डल या लिथोसफीयर पत्थरों से निर्मित हैं । धरती के तीन भाग हैं । क्रस्ट,कोर,मांटिल, । इनमे प्रथम दो विभाग मिलकर स्थल मण्डल बनता हैं । भूमि के ऊपरी सतह से लगभग एक सौ गहराई तक स्थल मण्डल फैले हुए हैं । धरती में दिखाई पड़ने वाले समुद्र, कॉनटिंनेंट, आदि इसके अंतर्गत हैं । धरती के आतंरिक भाग से भी हल्का है स्थल मण्डल । स्थल मण्डल के भीतर शिला द्रव होते हैं जिसे मैगमा कहते हैं । मैगमा के ऊपर स्थल मण्डल सरकतें हैं । 

अंतरिक्ष या वायु मण्डल भूमि का आवरण हैं । भूमि के ऊपरी भाग मे 97 प्रतिशत भाग अंतरिक्ष हैं जो 29 की मी दूर तक स्थित हैं । अंतरिक्ष दो भागों मे विभाजित हैं । वे हैं होमोस्पीयर और हेटरोस्पीयर । अंतरिक्ष के सब से ऊँचाई पर स्थित भाग हैं हेटरोस्पीयर । यह ऊंचाई तक फ़ैलकर शून्यता में पहुँच जाता हैं । निट्रोजेन, ऑक्सीजन, कार्बन डाई ऑक्साइड आदि के मिश्रित रूप अंतरिक्ष हैं । नमक, धूम्रपटल, धुल, आदि अंतरिक्ष के तत्त्व हैं । 

जैविक परिस्थिति, मौसम परिवर्तन आदि अंतरिक्ष परिवर्तन केलिए कारण बनते हैं । 

भूमि मे दिखाई देनेवाले नदी, झील, समुद्र आदि जलमण्डल के अंतर्गत आते हैं । धरती के 71 प्रतिशत भाग जल से युक्त हैं । भूमि एक जल ग्रह हैं । जल की विभिन्न अवस्था हैं वायु, जल,द्रव्य पदार्थ, आदि । जल के दो प्रकार हैं । भूमि के ऊपरी भाग मे दीख पड़ने वाले जल और भूमि के आतंरिक भाग मे दिखाई देनेवाले जल । जीव, पेड़ पौधे के अस्तित्व केलिए जल की आवश्यकता हैं । 

जीव मण्डल मे भूमि के सभी जीवित वस्तुएँ आते हैं । धरती का भाग हैं जीव-जंतु जो धरती में निवास करते हैं । इनके विकास के लिए पर्यावरण की भूमिका महत्वपूर्ण हैं । ऊर्जा, जल, जीव-जंतु परस्पर सम्बंधित हैं । 

पर्यावरण का आजकल बहुत महत्व हैं । जीवन के लिए आवश्यक प्राकृतिक स्रोत को सुरक्षित रखने के लिए पर्यावरण को स्वस्थ रखना हैं । मनुष्य स्रोत से लेकर प्राकृतिक स्रोत तक का व्यापक विभाग हैं पर्यावरण । धरती, नदी, पेड़ पौधे, जीव-जंतु की सार्थकता मानव पर एक हद तक निर्भर हैं । मानव धरती का अंग हैं । मानव केलिए आवश्यक वस्तुएँ धरती से प्राप्त होते हैं । सड़क, रेल, इमारतें, आदि का निर्माण, पशुपालन, धातुओं का खनिज, आदि केलिए मानव धरती की सहायता लेते हैं । पेड़-पौधे के विकास के लिए उर्वर मिट्टी की आवश्यकता हैं । पेड़-पौधे, जीव जंतुओं को पर्यावरण मे रहने केलिए अच्छे जल स्रोत की आवश्यकता हैं । वनसम्पति भी पर्यावरण का अंग हैं । बाढ़, मिट्टी का बहना, आदि रोकने केलिए, प्रकृति संतुलन बनाये रखने के लिए वन के महत्व अधिक हैं । विशाल समुद्र पर्यावरण की सम्पति हैं । समुद्र से विभिन्न सम्पतियों की खजाना मिलती हैं । प्रकृति से कास, लोहे, बोक्सट, आदि धातुए, पेट्रोल, प्राकृतिक गैस मिलते हैं । पर्यावरण संरक्षण के लिए हमें पेड़ पौधे चारों ओर लगाना अनिवार्य हैं । कारखाने के पास पेड़ पौधे लगाना हैं । कीटनाशक दवाएं कम प्रयुक्त करना आवश्यक हैं । नदी समुद्र के जल को मलिन नहीं करना हैं । स्वस्थ पर्यावरण सब की सुरक्षा हैं । सूर्य से आनेवाली पराबिगनी किरणओं से भूमि की रक्षा करने के लिए प्लास्टिक को जलाना कम करना हैं जिससे ओजोन परत की रक्षा होंगी । प्लास्टिक जलाने से वायु प्रदूषण होते हैं अंतरिक्ष के ओजोन परत को खतरा हैं, प्लास्टिक का उपयोग कम करना हैं । 

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लघुकथा
सुश्री नमिता सिंह 'आराधना'
अहमदाबाद, मो. 9724756948

उँगलियों के निशान
मिस्टर और मिसेज वर्मा की शादी की सालगिरह की पार्टी चल रही थी । पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी । दोनों एक दूसरे की आँखों में झाँकते हुए बड़े प्यार से एक दूसरे को केक खिला रहे थे । तभी मिसेज वर्मा के हाथ से टकराकर शरबत का एक कीमती गिलास गिरकर टूट गया । ये देखते ही मिस्टर वर्मा ने घबरा कर मिसेज वर्मा का हाथ पकड़ लिया और पूछा, "तुम्हें लगी तो नहीं?"

 विजय को लग रहा था कि मिस्टर वर्मा सबके सामने ढोंग कर रहे हैं । मिसेज वर्मा के गिलास तोड़ने पर उन्हें गुस्सा तो बहुत आया होगा लेकिन सबके सामने उन्होंने जज़्ब कर लिया होगा । इसलिए मौका पाकर अकेले में उसने मिस्टर वर्मा से कहा, "शरबत का इतना कीमती सेट आज आपकी शादी की सालगिरह के दिन ही बर्बाद हो गया । मिसेज वर्मा को तो पता ही होगा कि यह कितना कीमती सेट था । ध्यान रखना चाहिए था उनको ।" कहते हुए उन्होंने मिस्टर वर्मा की आँखों में झाँका कि शायद अब मिस्टर वर्मा की भड़ास बाहर आएगी । 

लेकिन मिस्टर वर्मा ने कहा, ‌‌"वह तो शरबत का एक मामूली गिलास ही था । कितना भी कीमती हो पर मेरी पत्नी से ज्यादा कीमती तो नहीं । मेरी पत्नी मेरे सुख-दुख की साथी है । मेरे जीवन की मुश्किल घड़ियों में मेरा सहारा बनकर हमेशा मेरे साथ रही । फिर वह एक जीती जागती इंसान है । किस इंसान से गलती नहीं हो सकती । हो सकता है वह गिलास मेरे ही हाथ से गिरकर टूट जाता । तब ? एक गिलास मेरी पत्नी से बढ़कर तो नहीं हो
सकता ।" 

विजय की पत्नी तनुजा पास ही खड़ी उनकी बातें सुन रही थी और मेकअप से छुपाए गए अपने चेहरे पर विजय की उँगलियों के निशान सहला रही थी, जो कल रात गलती से उसके हाथ से एक शोपीस टूट जाने की वजह से उसे उपहार स्वरूप मिले थे । 

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आलेख

डॉ. मीरा रामनिवास, गांधीनगर,गुजरात, मो. 99784 05694

"भारतीय संस्कृति और भारत का युवा मन"

संस्कृति से तात्पर्य परिमार्जित संस्कारों से युक्त मनुष्यों की सभ्यता से है । भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है । भारत की भारतीयता ही भारतीय संस्कृति की पहचान है । भारतीय संस्कृति व्यक्ति के बाह्य विकास के साथ आंतरिक विकास, आंतरिक सौंदर्य,सभी प्राणियों के हित/ अभ्युदय,एवं प्रकृति के संतुलन का लक्ष्य रखती है । इसका प्रमाण हमारे वैदिक मंत्र है--

सर्वेभवन्तु सुखिन: । सर्वे सन्तु निरामया: । 
सर्वेभद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चिद् दु:खभाग् भवेत । 

भारतीय संस्कृति हमारे पूर्वज ऋषियों, तपस्वियों के अथक अनवरत चिंतन,मनन की फलश्रुति है । भारतीय संस्कृति मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत है । "संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्" । साथ मिलकर चलने, हित के लिए सबके साथ बोलने,और परस्पर एक दूसरे के मन की बात जानने की बात करती है । 

"तेजस्वीनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै"

तेजस्वी होने की कामना की गई है । मन को द्वेष से दूर रखने की सीख दी गई है । "तन्मे मन:शिवसंकल्पमस्तु" भारतीय संस्कृति मन से शुभ संकल्प लेने की बात कहती है । 

भारतीय संस्कृति आंतरिक सौंदर्य की बात करती है । प्रेम, निरभिमानता परोपकार का संदेश देती है । अहिंसा को परम धर्म स्वीकार करती है । परोपकार करना पुण्य है संदेश देती है । "सत्यंवद् धर्मं चर " सच बोलने शास्त्र सम्मत कर्तव्य पथ पर चलने का संदेश देती है । 

लेकिन आज आधुनिकतावाद की अवधारणा ने भारतीय समाज के युवा मन को भारतीय संस्कृति के मूल उद्देश्यों से भटका दिया है । 

चाणक्य ने कहा है--

पुत्राश्च विविधै:शीलैनिर्योज्या:सततं बुधै: । नीतिज्ञा: शीलसंपन्ना भवंति कुलपूजिता: । । 

अर्थात बुद्धिमान व्यक्ति का कर्तव्य होता है कि वह अपनी संतान को अच्छे कार्य, व्यवहार सिखाये । क्योंकि नीति संपन्न और सद् व्यवहार वाली संतान ही कुल में सम्मानित होती हैं । 

भारतीय संस्कृति विद्या,बुद्धि,कला का संगम है । विद्या अर्थात सम्यक ज्ञान जिसके आधार पर व्यक्ति शास्त्रोक्त उचित आहार विहार कर सके । बुद्धि से तात्पर्य व्यक्ति द्वारा देश,काल,और परिस्थिति अनुसार आचरण करना । एवं कला से तात्पर्य साहित्य संगीत जैसी कलाओं में रत रहना । 

क्योंकि साहित्य संगीत और कलाओं से रहित व्यक्ति पशुवत माना गया है । 

सवाल ये उठता है कि आज जिस दौर से समाज गुजर रहा है ये पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है या भारतीय संस्कृति का पतन जो भी है चिंताजनक है । वैदिक पुरातन संस्कृति को यदि पुनर्जीवित करना है तो हमें संस्कृत भाषा की तरफ लौटना होगा । क्योंकि संस्कृत संस्कार की भाषा है । संस्कृत में हमारी संस्कृति की आत्मा बसती है । संस्कृत को प्राथमिक शिक्षा से ही बच्चों को पढ़ाना चाहिए । । बच्चे जब संस्कृत पढेंगें तो सीखेंगें 

"मातृ देवो भव,पितृदेवोभव" तब ही तो मां पिता का आदर करना सीखेंगे । 

आज हम बच्चों और युवाओं की दिनचर्या देखें तो पायेंगे कि चरणस्पर्श/रामराम /जय श्री कृष्ण की जगह हाय हैलो हो गया है । 

प्रातः उठना, नहाना, सूरज को उगते देखना, अब युवाओं से छूट रहा है । समय पर खाना एवं भारतीय पारंपरिक भोजन खाना भी दिनचर्या से छूट रहा है । वेवक्त फास्टफूड,खाना रहन सहन में बदलाव देखा जा सकता है । 

यहां तक कि हमारे तीज त्योहार भी याद नहीं हैं । नव संवत्सर अर्थात भारतीय नववर्ष चैत्र से शुरु होता है । कितनों को याद है । आज युवा 31/12 को नये साल का जश्न मनाते हैं । वैलेन्टाइन डे मनाते हैं । सामाजिक ढांचा,नीति नियम जैसे संयुक्त परिवार, ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमों की महत्ता, विवाह संस्कार की पवित्रता आदि का औचित्य भी युवा मन से लुप्तप्राय हो चला है । लिवईन रिलेशनशिप में रहना, शादी के पवित्र बंधन में विश्वास न करना, बड़े बुजुर्गों के प्रति असंवेदनशील व्यवहार, आत्मसंयम का अभाव,अनास्तिकता जैसी विसंगतियां युवा मन में घर कर रही हैं । सामाजिक कार्य व्यवहार में शालीनता की जगह दिखावे ने ले ली है । 

मातृभाषा हिंदी की उपेक्षित है । शास्त्रों का पठन पाठन /स्वाध्याय शास्त्र सम्मत मानवीय मूल्य दया, परोपकार, सेवाभाव गुम हो रहे हैं । आत्मसंयम की जगह स्वछंदता ने लेली है आहार, विहार, विचार व्यवहार से शालीनता गुम है । 

बच्चे अपने परिवार में ही सीखते हैं जीवन मूल्यों का पाठ । अत:पारिवारिक माहौल सुसंस्कृत होना चाहिए । बच्चों को अच्छी संगत में रखना, नैतिक मूल्यों की शिक्षा देना और सुसंस्कृत करना प्रत्येक मातापिता का धर्म
है । 

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कविताएँ

डॉ. राम प्रवेश रजक 
सहायक प्राध्यापक
हिंदी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय
कोलकाता-73 
E-mail-rajak.ram2010@gmail.com


मूक शिकायत 
गाय, कुत्ते, बकरियाँ ,
बंदर, कौवे, कबूतर
हमारे दरवाजे पर आते हैं
छत पर  टर्राते हैं
भूख से
यह नहीं मांगने आते
हमसे हमारी ज़मीन-जायदाद
यह मांगते हैं
एक बची हुई रोटी
जानकर आपकी बड़ी कोठी
यह मांगते हैं आपसे
सुखा अनाज औ पानी
देख कर आपको तपस्वी और दानी
ना मिलने पर भी यह
नहीं करते हमारी तरह मनमानी
नहीं उतरते हिंसा पर किसी को
मारने- काटने,  लूटने- खसोटने
नहीं चाहिए इन्हें छप्पन भोग
ना  मिलने पर रोटी
भूख से चुपचाप रंभाती  हैं
भौंकती हैं र्टर- र्टर, काउ-काउ
करती है रात-भर
नहीं करती किसी से शिकायत
हम इंसानों की तरह
जिसने अपणी भाक बनाई 
और जानवरों को बेजुबान 
कह दिया ।

ताक 
सात देश घूमकर आई 
एक महिला से एक 
व्यक्ति ने पूछा 
क्या फ़र्क नजर आता है 
सातों देशों में आपको 
उस महिला ने उत्तर दिया 
भाषा-बोली, खान-पान 
रहन-सहन, रीति-रिवाज 
सब अलग है 
मगर एक चीज मैंने देखा 
सातों देशों में किसी महिला 
को अकेला पाकर 
कोई उसे छोड़ता नहीं 
उसे नोचने-खाने की 
ताक में हरदम लगा 
रहता है ‘पुरुष’।

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आलेख
श्री अंकुर सिंह, जौनपुर, मो. 8367782654


सिमटता गांव

जीवन के तीस बसंतों को पार कर चुका हूं, जब कभी एकांत में बैठ कर बीते हुए वर्षों का अवलोकन करता हूं तो लगता हैं कि समय ने दीवार पर टंगे कैलेंडर को ही नहीं बदला, अपितु रिश्ते-नाते, संबंधों की परिभाषा भी बदल दिया ।

मेरा बचपन भारतीय संस्कृति के उस गांव में बीता हैं  जहां बचपन से हमें सिखाया जाता रहा कि अमुक इंसान (चाहे वो किसी जाति, धर्म से आते हो) रिश्ते में सब तुम्हारे भाई-बहन, चाचा-चाची और दादा-दादी लगेंगे । उस समय के संस्कृति ने कभी उम्र में बड़ों को उनके नाम से संबोधित करना नहीं सिखाया हमें, बल्कि रिश्तों के डोर में बंधे रहना सिखाया । मेरे हमउम्र के नवजवानों को याद होगा की उनकी शरारत या अनैतिक गतिविधियों पर कोई पड़ोसी देख लेता तो वह उन्हें येन केन प्रकारेण उन्हें वही रोक देता था । इसपर सोचता हूं तो लगता है कि उस समय लोगों की ये मानसिकता नहीं थी कि ये लड़का, फलां व्यक्ति के घर का है, मेरा क्या जायेगा इसके बिगड़ने पर? अपितु उन्हे ये लगता था ये मेरे गांव का भविष्य है आज कुम्हार भांति थोड़ा गढ़ दिया तो कल पूरे विश्व को शीतलता प्रदान करेगा ।

आज जब उसी गांव में अपनी छुट्टियां बिताने जाता हूं, तो प्रौढ़ उम्र के कुछ व्यक्तियों को युवा अवस्था में प्रवेश कर रहे कुछ युवकों को उनके साथ अनैतिक गतिविधियों (नशा, चोरी, गलत शिक्षा) में लिप्त देखता हूं तो असहाय पीड़ा होती है, पर चाह कर भी वहां मौन रखना पड़ता है । इसका एक कारण ये भी है कि समय ने रिश्तों की परिभाषा बदल दिया । हमारे बचपन में हमारे गलतियों पर कोई भी परिचित हमें येन केन प्रकारेण (समझाते, डांटते और मारते थे) रोकते थे, और जब ये बात हमारे घर के अभिभावक को पता चलता तो वो भी हमें दंडित करते । आज के परिवेश का नवयुवक सुनना तो दूर हठ (बहस) कर जाते है, क्योंकि गांव का हर व्यक्ति उनका चाचा,भैया, दादा, लगेगा ये भावना अब बचपन से नहीं दी जाती शायद उन्हें । उनके अभिभावक को यदि जानकारी होती है की उनके बच्चों को डांटा गया तो इसे वो अपनी शान के खिलाफ (शायद अभिभावक भूल जाते है कि चेतना का विकास समाज में ही होता है, और चेतना परिवेश के अनुसार निर्मित होती है) समझ लेते है । यदि बात ज्यादा बढ़ गई तो अभिभावक इसे अपनी शान पर लेकर मामले को मानवाधिकार, प्रशासन इत्यादि में भी ले जाते है । शायद इसलिए कुछ लोग चाहते हुए अपने पास-पड़ोस के नवजवानों को उनकी गलतियों का अहसास नहीं करा पाते और ना चाहते हुए भी आंख बंद वहां से निकल लेते हैं ।

मैने बचपन का वह दौर भी देखा है जब चौपाले लगती थी, जाड़े के दिनों में जलती अंगीठी के पास लोग इकट्ठा हो जाते थे, एक कप चाय पर बड़ी से बड़ी समस्या सुलझ जाती थी । आजकल तो अधिकांश लोग अधिकतर मामले को आपसी संवाद से न निपटा, शासन या न्यायालय का दरवाजा खटकना पसंद करते है । जबकि वो ये भूल जाते है कि आपस के विवाद के चक्कर में अदालत में उनका समय बर्बाद होगा और उनके पास विकास हेतु सोचने करने का समय नहीं बचेगा । ये सच है कि ज्यादातर समस्या का समाधान आपसी सहमति /संवाद है (कई बार कोर्ट में सालों से लटके मामले भी राजीनामा से समाप्त होते है), इसी नजरिए से पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी कश्मीर जैसे मुद्दे को बार-बार आपसी समझौता/संवाद से हल करने पर ज्यादा जोर देते थे । पूर्व राष्ट्रपति डॉ कलाम ने चित्रकूट के इलाकों में नानाजी देशमुख और उनके साथियों द्वारा ग्रामीण विकास प्रारूप हेतु बनाए संस्थान पर अपने एक बयान में कहा था कि "ये संस्थान विवाद रहित समाज के निमार्ण में मदद करता है, क्योंकि चित्रकूट के आस-पास के लगभग अस्सी गांव के लोगों ने उस समय सर्वसम्मति से निर्णय लिया था कि किसी विवाद के स्थिति में उसके समाधान के लिए वो अदालत नहीं जायेंगे बल्कि आपसी सहमति/संवाद से उसका समाधान करेंगे ।" 

विवाद यदि आपसी सहमति से निपटेगा तो रिश्ते अपनी मधुरता लिए आगे के लिए गतिमान रहेगा । यदि प्रशासन, न्यायालय से निपटेगा तो विवाद के निपटारे के साथ-साथ उन परिवारों के आपसी प्रेम सिमट जायेगा ।
"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" धीरे धीरे इस वाक्य का अर्थ समाज से विलुप्त होता जा रहा हैं । माना भौतिकवादी युग में विकास के लिए देश-विदेश के अलग-अलग स्थानों पर जीविकापार्जन हेतु रहना पड़ता है । पर अपने मातृभूमि से जुड़े रहने के साथ साथ उन्हें अपने स्तर से अपने मातृभूमि के विकास के लिए अपने गांव पर ध्यान भी देना चाहिए, ये नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना जैसे महामारी एवं अन्य हालत में मातृभूमि ने सभी को शरण दिया है ।

महात्मा गांधी ने कहा था की "भारत की आत्मा गांवों में बसती है ।" इसलिए मेरा मानना है सरकार को चाहिए कि छठवीं कक्षा के बाद ये नियम बना देना चाहिए कि साल के इतने दिन (सरकार द्वारा निर्धारित संख्या) गांव में रहने पर (इसकी मॉनिटरिंग ग्राम स्तर के प्रशासनिक अधिकारी करें और उनके स्तर से इसका प्रमाण पत्र जारी हो) ही अगली कक्षा में प्रवेश की अनुमति दी जाएगी । इस बहाने देश के नौनिहाल में बचपन से ही गांव के संस्कार अंकुरित होंगे और हम सब जानते है की बचपन के संस्कार जल्दी नहीं भूलते ।

गांव की सीमा तो वही की वही रहेगी पर लोग आपस तक न सिमटे इसके लिए गांव स्तर के लोकगीत, त्योहार, परंपरा, रिवाज और भाषा के विकास हेतु सभी सरकारी एवम् गैर सरकारी संस्था सहित हमसब को साथ आना चाहिए, क्योंकि यहीं एक मध्यम है जो हमे एक धागे में पिरो कर रख सकता है । इसका एक सीधा उदाहरण देता है, गांव से 1500 किलोमीटर दूर यदि अपनी भाषा बोलते हुए कोई इंसान मिल जाता है तो हमें ऐसा प्रतीक होता है की रेगिस्तान में जलाशय मिल गया हो और फिर हम उससे इस कदर जुड़ने की कोशिश करते है जैसे हम वर्षों से जानते हो उसे । 

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लघुकथा
"ध्यान"

आज सुधा के विद्यालय में सूर्य नगर वाले ध्यान केंद्र वालों ने  निःशुल्क ध्यान कैम्प लगाया था । बोर्ड परीक्षाएं अगले  माह प्रारंभ होने से पढ़ाई में ध्यान केंद्रित किया जाना आवश्यक है ।  यह सोच सुधा ने ध्यान प्रक्रिया के समस्त चरणों को ध्यान से सुना और समझा  ।

वार्ता के अंत में उसने गुरु जी से कहा...  मुझे भी इसी तरह से ध्यान करना है ।  आपके पास कोई लिखित सामग्री हो तो कृपया मुझे उपलब्ध करवाइए  । ताकि कोई गलती होने पर मैं स्वयं उसे पढ़कर सुधार कार्य कर सकूं । गुरुजी बोले... अरे वाह , यह तो बहुत अच्छी बात है  । आप ऐसा करो हमारे केंद्र पर नियमित 1 घंटे के लिए आना प्रारंभ कर दो  । आपको सामूहिकता का लाभ मिलेगा इससे आपकी ध्यान प्रक्रिया आसान हो जाएगी । उसके बाद फिर आप यह तस्वीर अपने पूजा घर के मध्य में रख देना  । वहां रखी अन्य तस्वीर  व मूर्तियों वगैरह को वहां से हटा देना और नियमित ध्यान करना । आप को शत प्रतिशत लाभ प्राप्त होगा । सुधा ने यह तस्वीर हाथ में ले
ली  । व लेते ही पूजा घर का दृश्य उसकी आंखों में तैर गया  । जहां सभी देवी देवता विराजित हैं । पूरा परिवार जहां पूजा आराधना करता है ।  उन्हें हटाकर......       ओह , नहीं नहीं,  वह तुरंत पलटी  और वह तस्वीर ससम्मान लौटा कर वहां से अपने घर चल दी...... 


डॉ. चेतना उपाध्याय
49 गोपाल पथ कृष्ण विहार,
कुंदन नगर अजमेर राजस्थान 
मो. 9828186706

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आलेख

सुश्री नेहा नाहटा "निश्छल", दिल्ली, मो. 9990032932

संघर्षों की सरगोशियां (जीवट व्यक्तित्व
साहित्यकार सन्दीप तोमर)



लब्ध प्रतिष्ठित, महनीय साहित्यकार जिनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या दहाई में पहुंच गई हो.. देश की प्रतिष्ठित समाचार पत्र और पत्रिकाओं में जिनकी रचनायें अक्सर छपती रहती हों । कहानी, कविता से लेकर उपन्यास, आत्मकथा पर जिनकी लेखनी अनवरत चलती रही हो और कई विषयों में स्नातकोत्तर और पीएचडी होने के साथ एक बेहद विनम्र व्यक्तित्व के धनी हो । 

जिन्होंने अपने जीवन के संघर्षों को गिल्ली समझ कभी आसमान में उड़ा दिया तो कभी कंचे समझ गड्ढे में डाल दिया हो । बड़ी से बड़ी परेशानी या ईश्वरीय असहजता हो सबको ठेंगा दिखाते हुए जीवन को बेहद सकारात्मक तरीके से जीते हुए खुद को सक्षम और सफल बना लिया हो उस व्यक्तित्व से मिलने, सुनने, समझने, सीखने को बहुत समय से मैं प्रयासरत थी । 

सन्दीप तोमर जी से समय मिल सके और उनसे मिलकर उन्हें और अधिक जानने समझने की जिज्ञासा से उनको कितने ही बार कॉल करके वक्त मांगा लेकिन उनका समय मिलना उनसे संपर्क साधना कहां आसान था । 

तो इसी क्रम में 17 जून को फिर फोन से सम्पर्क साधा, एक अंतिम प्रयास किया तो उन्होंने कहा-“आज एकदम खाली हूँ, आप जब चाहे आ सकती हैं । अपने कर्मक्षेत्र की व्यस्तता phd की पढ़ाई और आने वाली पुस्तकों की तैयारी में जुटे होने के बावजूद इस नन्ही लेखनी को वक्त देना मेरे लिए सौभाग्य की बात थी । 

जून की तपिश भरी दोपहर होने के बावजूद मैंने उन्हें एक बजे तक पहुँचने का बोल दिया था । मुझे ख़ुशी इस बात की थी कि आज ईश्वर ने मेरी सुन ली थी । जैसे ही मुझे संदीप जी से स्वीकृति प्राप्त हुई उनके निवास की ओर चल पड़ी । दिल्ली की उमस और भरपूर ट्रेफिक से जूझते मैं निर्धारित समय से थोड़ी देरी से पहुँच पाई. हालांकि मोबाइल पर लाइव लोकेशन की सुविधा के चलते मकान खोजने में कोई परेशानी नहीं हुई । 

मैं तब सुखद आश्चर्य से भर गयी जब यह जाना कि अपने निजी जीवन में व्यस्त रह कर भी संदीप कितने साधारण और कितने विनम्र हैं । उनके बारे में सुना था कि वे समय के बेहद पाबंद हैं, मिलने पर ये बात पुख्ता भी हुई । संदीप जी मेरा इंतजार कर रहे थे । उन्होंने दरवाजा खोला, मेरे घर के अन्दर प्रवेश करते ही वे कांच के गिलास में पानी लेकर आये और बोले-“नेहा! पहले लंच किया जाए, उसके बाद चाय, कॉफ़ी या ठण्डा जो लेने का मन हो वह चलेगा?”

“संदीप जी! पहले ये बताइए कि भाभी, बच्चे सब लोग कहाँ हैं? घर एकदम शांत-शांत लग रहा है । “- मैंने उत्सुकता से पूछा । 

दो तीन दिनों से माइग्रेन अटैक से शीतल तकलीफ में है, अभी भी दवा लेकर कमरे में सोई हुई है । बच्चों को अभी हॉबी क्लासेज छोड़कर आया हूं, सबसे अब शाम को ही तुम्हारी मुलाकात हो पाएगी । 

संदीप जी किचन में गए, और खाना डालने के लिए सामान निकालकर डाइनिंग टेबल पर रखते जाते हैं । मैं उनके काम करने के तरीके से जितनी हैरान हूँ उससे कहीं ज्यादा हैरान इस बात से हूँ कि एक व्यक्ति जिसे चलने-फिरने, खड़े होने में परेशानी हो वह इतना सब रसोई में खड़ा होकर कैसे इतना सब बना सकता है? पुलाव, दही, चटनी, पालक की सब्जी, पापड़, को वे करीने से प्लेट में सर्व करते जाते हैं, मेरी हैरानी बढ़ती जाती है । मैं बस इतना कह पाती हूँ-“संदीप जी! इतना सब बनाने की क्या जरूरत थी?”

वे कहते हैं-“ये सब मेरी रूटीन लाइफ का हिस्सा है । “

मैं अकेला होकर भी सुबह का शाम को नहीं खाता, तीनो टाइम प्रोपर बनाता हूं । मैं उनकी बात सुन दंग थी क्योंकि हम महिलाएँ भी घर में अकेली हों तो इतना सबकुछ बनाने का आलस कर जाती है । पूरा घर करीने से सजा हुआ, एक पल भी महसूस नही हुआ कि भाभी अस्वस्थ है और सारी जिम्मेदारी संदीप जी के कंधों पर आ गई है । एकदम साफ सुथरा घर संदीप जी की कार्यशैली, उनकी सुघड़ता का प्रमाण पेश कर रहा था । 

हम दोनों साथ-साथ खाना खाते हैं, (इतना स्वादिष्ट लंच जैसे किसी शेफ ने बनाया हो) खाने की मेज पर साहित्य की चर्चा, ये बेहद कीमती समय है, जिसका पूरा सदुपयोग हुआ । 

लगभग साढ़े चार घंटे की इस बैठक में उन्होंने अपने जीवन के संघर्षों, साहित्य और उसकी दशा-दिशा, कविता, लघुकथा, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा और उसके आयामों तथा उनके रचना संसार पर विस्तृत बातचीत की ।
 
चार बजे के आसपास वे कहते हैं-“ नेहा! चाय पियोगी या कॉफ़ी, और बनी हुई पियोगी या बनाकर पिलाओगी?”
कहते हुए वे एक बार फिर रसोई की ओर बढ़ जाते हैं । जल्दी से इंस्टेंट कॉफ़ी के दो कप तैयार करते हैं, वुडेन ट्रे में बिस्किट, नमकीन और कॉफ़ी कप रख कहते हैं-“ नेहा! अब मेरी मदद करो । “

मैं हैरान हो उन्हें देखती हूँ, वे कहते हैं-“इस ट्रे को सेंटर टेबल पर रख दो और पीने में साथ देकर मदद करो । “

मैं हडबडाहट में ट्रे उनके हाथ से लेकर डाइनिंग टेबल पर रख देती हूँ, दोनों एक-एक चेयर आगे खींच बैठकर कॉफ़ी का लुत्फ़ ले रहे हैं । इस दौरान संदीप जी बताते है कि जितना उनको पुस्तकों से लगाव है, उतना ही घर की साज सज्जा हेतु नया- नया समान खरीदने और सजाने का शौक है । वो कहते है किसी से मिले उपहार को वो लंबे समय तक सहेज कर रखते है और जब कभी नई जगह जाते है, वहां से कोई यूनिक चीज़ लाना नही भूलते ।
 
कॉफ़ी के बाद काफी देर उस प्रोजेक्ट पर सुझाव, मशवरे, तकनीकी जानकारी का आदान-प्रदान चला, जिसके सिलसिले में मुझे संदीप जी से मिलना था । संदीप जी के अध्ययन कक्ष में किताबों का अम्बार है, मानो पूरा जीवन ही किताबमय है, उनका अनुभव क्षेत्र विस्तृत है, शिक्षा-शास्त्र में पीएचडी कर रहे हैं, सही ही कहा है किसी ने– “पढने की कोई आयु नहीं होती । “इसी महीने की 7 तारीख को उन्होंने अपने जीवन के 49 साल पूरे किये हैं । उनको पूरे साहित्यिक परिवार की ओर से मैं शुभकामनाएं भी देती हूं । 

उनके बात करते हुए, उनके काम करने के हौसले, जज्बे को देखते हुए अनुभव हुआ कि ऐसे ही संघर्ष से एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता है । उनसे बातचीत करते हुए समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला, मेरे संकोची स्वभाव के बावजूद मुझे लगा नहीं कि किसी ऐसे पुरुष के साथ हूँ, जिसके घर में आज कोई नहीं है, उनके पास संस्मरणों का पूरा का पूरा खजाना है । अपनी बात को कहने का एक अंदाज है, बातों के तर्क हैं, बातचीत में वे भूल जाते हैं कि उनका पाँच बजे ऑनलाइन कविताओं का कार्यक्रम भी है । मैं साढ़े पाँच बजे उनसे विदा लेती हूँ, वे जाते हुए मुझे अपनी चार किताबें भेंट करते हैं जिसमें दो कविता संग्रह हैं, एक उपन्यास और एक हाल में प्रकाशित उनकी आत्मकथा- “कुछ आँसू कुछ मुस्कानें” । यह उपहार मेरे जैसे पाठक के लिए किसी जरूरी खुराक जैसा था । 

उनसे विदा लेते हुए मैं अनुभव करती हूँ-“मैं आज कितनी समृद्ध होकर लौटी हूँ । “ मैं अनुभव करती हूँ कि संदीप जी से जितना मिलो, उतना उन्हें जानने को कुछ नया मिलता है, वे विविधता के धनी हैं । उनके पास एक प्रांजल भाषा तो है ही, एक बेहतर इन्सान वे कहीं ज्यादा हैं । आत्मविश्वासी, असाधारण, निर्भीक, स्वाभिमानी, अपने कार्य के प्रति बेहद समर्पित शख़्सियत भी है ।
 
उनसे मिलकर मेरी एक सहेली के कथन को याद कर रही थी, जिसने कहा था-“संदीप एकदम खडूस किस्म के इंसान हैं । “ सोच रही हूँ अगर ऐसे इन्सान खडूस होते हैं तो पूरी दुनिया को उनके जैसा खडूस हो जाना चाहिए । किस नजरिए से कोई इस तरह की बात उनके लिए कह सकता है, ऐसे सरल हृदय के साथ बिताया समय मेरी स्मृतियों में तो सदैव संरक्षित रहेगा । 

 सन्दीप जी की आत्मीयता मुझे इस कदर प्रभावित कर गई कि एक पल भी नही लगा कि मैं साहित्य के किसी धुरंधर के साथ बैठी हूं । साहित्यिक चर्चा के अलावा पारावारिक परिचर्चा में पता लगा कि वो दो प्यारी परियों के बेहद संवेदनशील पापा है, चुंकि मैं भी दो बेटियों की मां हूं तो काफी बाते बीच- बीच में हम अपनी लाड़लियों की भी करते रहे । इस खुशनुमा दिन की अनुभूति बेहद सुखद रही । 

घर भी लौटना था वरना उस व्यक्तित्व में जितनी विलक्षणता है उसे समेटने के लिए यह चार घंटे बहुत ही कम हैं। 




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कविताएँ


सुश्री रश्मि रमानी, इंदौर, मो. 9827261567

शेखचिल्ली ज़िन्दा है
मैंने उसे देखा नहीं था
पर 
कभी-कभी कोई-कोई 
ऐसा मिल ही जाता था कि
उसकी याद ताज़ा हो जाती थी
और
एक दिन तो हद हो गई 
झुंझला कर मैंने जैसे ही कहा -
'शेख़चिल्ली हो क्या ? '
दांत निपोरते हुए उसने कहा 'जी'
मैं चकरा गई-
'तुम ज़िन्दा हो ? पर तुम तो सालों पहले मर चुके हो !
' मैं शेख़चिल्ली हूं, और शेख़चिल्ली कभी नहीं मरते'
'क्यों नहीं मरते ? अमर फल खाये हो क्या ? '
'जी, ऐसा ही कुछ समझ लें'
'मज़ाक़ कर रहे हो ना ऐसा कैसे हो सकता है'
'जी हुआ है मेरे कारनामों से खु़श होकर
मरते वक्त ऊपर वाले ने आख़िरी ख़्वाहिश पूछी तो मैंने 
अमर होने का वरदान मांग लिया'
अच्छा फिर तुम अमर हो गये यानि
तुम वही शेख़चिल्ली हो 
जो ख़्वाबों में खोया रहता है 
उल्टी सीधी कल्पनाएं करता है और 
और अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से
लोगों को बेवकूफ़ बनाता है?'
' बिल्कुल सही कहा-
पर सिर्फ़ मैं ही ऐसा थोड़े ही हूँ
कुछ दिन पहले साल भर में
शहर को चकाचक बनाने वाले नेता को
आपने शेख़चिल्ली नहीं कहा था ?' 
बात सच थी, इसलिए मैं चुप रही
पर शेख़चिल्ली नहीं ! 
वह फिर शुरू हो गया - 
' एक आप ही नहीं देश भर बहुत सारे हैं
जो आये दिन मेरा नाम लेते हैं '
'अच्छा! कहीं के लाट गवर्नर हो
राजा महाराजा हो ?'
' उससे भी कहीं आगे 
तमाम देश दुनिया के नेता, मंत्री, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तक तो ठीक है 
मैं तो सर्वव्यापी हूँ, यक़ीन न हो तो अपने आसपास देख लो
कोई चमगादड़ के ज़रिये वायरस फैला कर 
जहान जीतने चला था
खुद उल्टा लटका पड़ा है ! 
दूसरे को लगता था अपने ही भाई देश को धो डालेगा
युद्ध में मारे गये अपने देश के सैनिकों की लाशें गिन रहा है । '

बात तो सोलह आने सच थी
पर था तो आख़िर शेख़चिल्ली ही ना
भरोसा नहीं हो रहा था
वह समझ गया
' आपको लगता है शेख़चिल्ली फेकता है
अरे फेकते तो वे हैं जो 
ख़ुद तो एक जगह बैठते नहीं 
और रोज़ मेंढक तौलते हैं 
वो बड़े शेख़चिल्ली जो 
ख़ाली जेब भूखों को केक बेचने चले हैं 
और उनके बारे में क्या ख्याल है 
जिन्होंने सिर्फ़ और सिर्फ़ बहुत कुछ जोड़ा
अब कभी किसे तोड़ते हैं 
कब किसे जोड़ने की बात करते हैं 
समझ नहीं आता!'
शेख़चिल्ली चुप हो गया था-
' कहो - कहो आगे कहो, चुप क्यों हो गये ?'
' - मैं क्या कहूँ
मैं तो आप इस नये ज़माने के 
शेख़चिल्लीयों को देख कर हैरान हूंं
अरे सदियों पहले मैं अकेला क्या कम था
जो अब 
यहां - वहां, जहां - तहां
शेख़चिल्ली ही शेख़चिल्ली भरे पड़े हैं
और सोच रहा हूँ मेरे ज़िन्दा रहने का
क्या फ़ायदा ? क्या ज़रुरत है? 
वायरस फैलाने को एक ही चमगादड़ काफ़ी था 
यहां तो सारे संसार में उल्टे लटके पड़े हैं 
मत मारी गई थी मेरी जो अमरता मांगी 
मैं मर भी जाता तो क्या होता 
एक शेख़चिल्ली जाता दूसरा आता 
पर
अब तो शेख़चिल्ली सारे संसार में पाये जाते हैं. 

(ये भारत में विलुप्त चीता प्रजाति नहीं हैं) ।


ढाई अक्षर
मैं प्यार करना चाहती हूँ 
नदी-किनारे के पेड़ की उस शाख़ की तरह
जो बेताब रहती है हर वक़्त
दरिया के पानी से 
अपने होंठ तर करने के लिये.

मेरे भीगे होंठ
अक्सर बुदबुदाते हैं कोई नाम
सपने में देखती हूँ
चाँद का चेहरा
मेरे चेहरे पर झुका हुआ
चाँदनी से मेरी पेशानी रोशन करता
सितारों को मेरे बालों में टाँकता
नर्म थरथराते होंठों से मेरी पलकों को चूमता
उसकी साँसों का तूफान
मेरी आँखें बन्द कर देता है.

नींद की स्याह झील में
अधखुली सीपी की तरह
पड़ी रहती मैं
स्वाति नक्षत्र की बूँद के इन्तजार में
बादलों से बरसते पानी में भीगती मैं  
करती हूँ प्यार
फूलों से, ख़ुशबू से
नाज़ुक तितलियों और ख़ूबसूरत परिन्दों से.
मुझे भाते हैं सुलगते गुलमोहर 
दमकते सुनहरे अमलतास 
जगाते हैं मुझमें 
प्यार का विश्वास.

मैं 
ताउम्र, हर घड़ी, हर पल 
करना चाहती हूँ प्यार 
क्योंकि एक ही सच है सारे जीवन का 
सिर्फ़ और सिर्फ़ 'ढाई अक्षर' 
और इन्हीं ढाई अक्षरों को 
पढ़ना चाहती हूं दिन-रात.

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कविताएँ


डॉ. निशा नंदिनी भारतीय
तिनसुकिया, असम, मो. 94355 33394

मतवारे मेघ
मतवारे कजरारे मेघ
उमड़-घुमड़कर आए मेघ ।
व्यथित तृषित धरती पर
तृषा बुझाने आए मेघ ।

विरह-वियोग में डूबे मेघ
जल-जल कर हुए कारे ।
अंतस भीगा अश्रु कण से
जन-जन के प्राण-प्यारे ।
मतवारे कजरारे मेघ
उमड़-घुमड़कर आए मेघ ।

छल-कपट किसने किया
किसके दुख में रोए रात ।
छोड़ गया कौन निर्मोही 
नाजाने प्रीति प्रेमालाप ।
मतवारे कजरारे मेघ
उमड़-घुमड़कर आए मेघ ।

हो प्रबुद्ध ज्ञानी जलद 
बीती बात बिसार दो ।
हिमकण जल बिंदु से
अमृतमय शीतलता दो ।
मतवारे कजरारे मेघ
उमड़-घुमड़कर आए मेघ ।

प्रेम गागर गिरा दो धरा पर
मिटे ताप तन से इला का ।
माटी महक से महके अचला
पुष्पित पल्लवित सुगंधित धरा ।
मतवारे कजरारे मेघ
उमड़-घुमड़कर आए मेघ ।

मम् भारतम् नवीन भारतम्
मम् भारतम् नवीनभारतम्
विश्वमनोज्ञा कुलगुरू भारतम् ।
मनभावनम् सुंदर: रमणीयम्
जय संस्कृतम् मंगलम् भारतम्।

भक्तिज्ञानम् कर्मस्य देशम्
संत: ग्रंथ: मंत्रस्य देशम् ।
ध्येय मार्गेषु गमनीयम्
शूरा: वीरा: धीरा: देशम् ।
मम् भारतम् नवीनभारतम्
विश्वमनोज्ञा कुलगुरू भारतम् ।
मनभावनम् सुंदर: रमणीयम्
जय संस्कृतम् मंगलम् भारतम्।

सुख: अमृतम् प्रियम् देशम्
गंगा-जमुना निर्मलम् देशम् ।
स्वर्ग: सम शोभनम् देशम्
तेजपुंज: निर्मितम् देशम् ।
मम् भारतम् नवीनभारतम्
विश्वमनोज्ञा कुलगुरू भारतम् ।
मनभावनम् सुंदर: रमणीयम्
जय संस्कृतम् मंगलम् भारतम्।

आदिकवि:वाल्मीकि: देशम्
गुरुमहर्षि: व्यासा: देशम् ।
गौतम: रामकृष्णा: देशम्
शस्यश्यामला: शुभ्र: देशम् ।
मम् भारतम् नवीनभारतम्
विश्वमनोज्ञा कुलगुरू भारतम् ।
मनभावनम् सुंदर: रमणीयम्
जय संस्कृतम् मंगलम् भारतम्।

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कविता


सुश्री ममता सिंह
अहमदाबाद
 मो. 9925052031

सड़क पर सावन

जंगलों की कटाई
सड़कों की बुवाई
जीवों की रुलाई
धरती की रुसवाई

न रिमझिम फुहारें 
न सावन के झूले
न जंगल सुहाने
न नदियों के रेले 

 न पंछी का कलरव 
न पत्तों में सरसर 
न पेड़ों में रौनक
न डालो में हलचल

चिड़िया है बेघर
कोयल भी बैकल
मैना है गुमसुम
पपीहा  न बोले

न मोर की छमछम
न मोरनी की चाल
न मछली को दाना
न बगुले की ताल

हुई धरती बेरंध्र 
ऊसर से रंग
है केचुली सड़क में 
केचुए हैं बेघर

न मेड न बावड़ी
न धान न रोपाई
न खेतो में चराई
न मिटटी की रोकाई

न बाड़ न बगीचा
न पशुधन की ठहराई
न गायों की पूजाई 
है पशुओं की कटाई

न अंगना न चौरा
दुआरे न बिरवा
न ओसारी न दालान
डेहरी है वीरान

न कजरी न तीज
न झूला न मीत
न सखियों के ताने 
न नइहर की प्रीत

न गागर न गुइयाँ
न रहट न घाट
न पायल की रुनझुन
न मतवाली नार 

न भाव न बहाव
न नयनन से बात
गलियां सब सूनी
बिरहा की रात

दरिया में सुनामी
है गगन भी ठहरा
 रेत की बुआई
है जीवन का खतरा

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कविता

सुश्री मंजु महिमा
अहमदाबाद
 मो. 9925220177
वर्षा रानी !!

कितनी साम्यता है, हे वर्षा रानी!
साहित्य की नायिका से तुम्हारी!!
कभी तुम लाजवंती सी
सतरंगी ओढ़नी ओढ़
इतराने लगती हो तो कभी
सुनहरी गोट लगी बादल की
ओढ़नी से ढक लेती हो
लजा कर अपना मुख चंद्र। 
सूरज के  संग खेल आँख  मिचोली
बिखरा देती हो आसमान में रंग।
 
वर्षा! तुम एक मुग्धा नायिका सी,
चली आती पायल छनकाती,
छन छन छन छन हमरे अंगना,
छेड़ देतीं तन मन के तारों को,
भूल जाते हम सारा दुख अपना। 

हे! बरखा रानी कभी तुम
नृत्यांगना सी करती नर्तन
बादल बन ड्रमर देते थाप,
पवन बाँसों की बांसुरी बजा
निकालता है अद्भुत धुन । 
विद्युत प्रकाश भी छा जाता,
और  त्वरित गति से झरते,
श्वेत नूपुर तुम्हारी पायल से ,
धरती पर पुष्प सम बिछ जाते। 
देख हम यह अलौकिक दृश्य
अपनी खिड़की की कोरों से,
सच निशब्द हो दंग रह जाते। 
पर कभी कुपित नायिका सी,
कोप धारिणी,
बन रणचंड्डी ,
आतीं गरज़ बरस,
धवल दाँत दिखलातीं। 
उखाड़ पछाड़,
कर तहस नहस
बन विकराल, 
हम सबको दहला जातीं।

कभी विरहिणी सी बन
रात्रि अंधकार में चुपचाप
झिरमिर झिरमिर अश्रु बहातीं।

कभी बन मानिनी नायिका सी.
रूठ जातीं, लाख मनाने पर भी
अपनी झलक नहीं दिखलातीं। 
भेज बादलों को दूत भांति,
स्वयं  बैठ वायु -विमान  उड़ जातीं। 
ताकते रहते,  प्रतीक्षारत नयन, 

हमको बूँद- बूँद तरसा जातीं। 

मनाने का करते रहते प्रयास।
भेज बस इंदर राजा को पाती। 

हे! वर्षा रानी, जैसी भी हो
हम धरती वासी करते हैं
जी जान से प्यार तुमको,
गए  हैं हम जान कि हमारी ही
नादानी ने किया है क्षुब्ध तुमको।
क्षमप्रार्थी करबद्ध करते याचना
हो तुम प्राणाधार, प्रेयसी सम,
हर रूप तुम्हारा है स्वीकार्य हमें।
करती रहो अमृत वर्षा हम पे तुम,
करती रहो प्रेम-जल से सराबोर हमें। 
सभी नायिकाओं का रूप समाए तुम,
बन गई हो इस सृष्टि का आधार,
बीजारोपण करते हैं हम
पर कर सिंचन उनका,
देती हो तुम अपनी ममता का प्रमाण।
कितनी साम्यता है, हे वर्षा रानी!
साहित्य की नायिका से तुम्हारी!!

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ग़ज़ल


प्रो. कुलदीप सलिल
दिल्ली मो.  98100 52245


मौसम का रंग वक़्त की रफ्तार देखकर
बदला बयान यारों ने दरबार देखकर

गहराई जैसे दरिया की मझधार देखकर
हम जानते हैं शख्स को किरदार देखकर 

तुम जा रहे हो रौनके बाज़ार देखने 
मैं आ रहा हूँ सूरते बाज़ार देखकर 

है आसमानों पर नज़र तो ख़ूब आपकी 
लेकिन कभी तो नीचे भी, सरकार देखकर

मुँह तकते हैं हमारा जो दिनरात देखना,
मुँह फेर लेंगे हमको वो इस बार देखकर

हम मर रहे थे दर्द की शिद्दत से जब सलिल 
वो मुतमईन थे हालते बीमार देखकर

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यात्रा-संस्मरण


सुश्री मीनाक्षी मेनन
होशियापुर, मो. 94174 77999

अभी तो नापी है, मुठ्ठी भर ज़मीन हमने

कैसे कभी-कभी समय चुनता है आप को किसी ऐतिहासिक पल का हिस्सा बनाने के लिए और आप समय और स्थान की सीमा से आगे निकल कर उड़ने लगते हैं । 235 कि.मी. प्रति घंटा की रफ़्तार से विशाल नभ के सीने पर। उत्साह और जोश से भरे, गर्व से सीना ताने, रन वे पर खड़े अनेकों बच्चों के बीच, मेरे साथ सटकर खड़े थे, होशियारपुर से आए दूसरी कक्षा से लेकर सातवीं कक्षा के कुछ बच्चे जो गर्मी की छुट्टियों में मेरी एक वर्कशाप 'Out of The box,' के माध्यम से मेरे साथ जुड़े थे ।

अपनी आँखों के सामने, बड़े-बड़े पंख फैलाए, हवाओं संग अठखेलियां कर के उन्हें आँधियों में बदलते हुए हैलीकॉपटर को टकटकी बाँधे देखते हुए इन बच्चों के हैरत भरे, दमकते चेहरों को देख कर मुझे लगा कि हम सब का पिछली सारी रात जागना, एक बजे सफ़र शुरु कर के सुबह 4.30 बजे अपनी मंजिल पर पहुँचना बेहद सार्थक हुआ है ।

महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक से तो मैं बचपन से वाकिफ़ थी, राजस्थान के वो चेतक जिसकी वीरता से बच्चा-बच्चा वाकिफ़ है, लेकिन 23 जून 2023 की सुबह पाँच बजे मेरी मुलाकात हिन्दुस्तान के एक और चेतक से हुई, जिसकी रोमांचित कर देने वाले करतवों ने, उसके इर्द-गिर्द बने हवाओं के भँवर में हमें उड़ा ले जाने की ताकत ने, न सिर्फ मुझे बल्कि वहां मौजूद सैकड़ों की भीड़ को चकित कर दिया था बठिंडा मिलिट्री ट्रेनिंग सैंटर रन-वे पर बड़ी शान से हवाओं संग बातें करता भारती वायुसेना का चेतक हैलीकापटर ।

हम सब ठगे से खड़े, चेतक को हवा में सीधा, अडोल खड़ा  देख रहे थे । तभी कुछ पैरा ट्रूपर (छतरी सैनिक) रन वे पर दौड़ते नजर आए, बड़ी मुस्तैदी से चेतक पर सवार हुए और लो, देखते ही देखते हमारी नज़र से ओझल हो गए । फिर अचानक बेहद छोटी-छोटी सी आकृतियाँ, दूर आकाश में झूलती सी नज़र आईं ।

‘‘मैम, वो देखो एक पैराशूट खुला ।’’

‘‘नहीं मैम, दो हैं ।’’

‘‘नहीं मैम, चार हैं ।’’

खूबसूरत छतरियों के रंग, लाल, नीला, पीला, तिरंगे के रंगों  का सुनेल, नभ में मनोरम दृष्य प्रस्तुत कर रहे थे । बाखूबी, अपनी लैंडिग को अंजाम देते हुए तालियों की गड़गड़ाहट में, हाथ हिला कर बच्चों का अभिवादन करते हुए चारों सैनिक रन-वे से गुज़र गए ।

‘‘मैम, देखो चेतक फिर आ गया ।’’

फिर से पैरा ट्रूपर रन-वे पर भागते हुए चेतक पे सवार हुए और वो मधुर गुंजान करता हुआ ले उड़ा उन्हें बहुत दूर । रोमांच से भरे हुए पल, खूब खिली हुई धूप लेकिन किसी के भी चेहरे पर गर्मी या थकान का नामो-निशान तक न था ।

सात बजे तक यह सिलसिला चला और फिर आए, चेतक के दो जांबाज़ सवार, God of Sky Diving के नाम से जाने जाते कर्नल सर्वेश ठाकुर और उनके मित्र ब्रिगेडियर नवदीप बराड़ । उन दोनों की कलाबाज़ियों की अद्भुत जुगलबंदी, एक-दूसरे का हाथ थामे, हवा में तैरते हुए किए गए उन के हैरत अंगेज कारनामे, केवल आसमानी करतब कि नहीं थे, यकीनन उस दिन उस खेल ने कई बच्चों को ज़मीन दी । खुद को वर्दी में देखने का ख़्याब, देश प्रेम का ज़ज्बा, आकाश को छू लेने की ललक, सिर उठा कर जीने का ज़ज्बा वातावरण में ‘‘भारत माता की जय’ के नारों में गुंजायमान हो रहा था ।

इतने बड़े अफ़सर होने के बावजूद वे दोनों, लैडिंग के बाद दोस्तों की तरह बच्चों संग बातचीत में मग्न थे ।
‘सर आप कितनी ऊचाई से कूदे आज ? छठी कक्षा के मृदुल ने बराड़ सर से पूछा ।

‘बेटा, 10,000 फीट ।’’

‘‘आप को डर नहीं लगा ?’’

No Champ, remember, when you become fearless, You become limitless,  

(नहीं- दोस्त! याद रखना जब तुम भय रहित हो जाते हो तो आप ओर-छोर हीन हो जाते हो)

समझ आया ?

‘यस सर ।’’

‘बताओ क्या ? ’’

‘‘यही कि डर के आगे जीत है ।’’

प्यार से उसे थपथपाते बराड़ सर अगली कतार के बच्चों के पास पहुँच गए ।

सर्वेश सर चूँकि International sky diving Instructor हैं, उन की ड्रेस का रंग, उनका हैड-गियर सब से जुदा था । उन के साथ तस्वीर खिंचवाने की होड़ सी लगी हुई थी पूरी भीड़ को ।

भावनाओं के उमड़ते सैलाव को मन में समेटे, सैनिकों से हाथ मिलाते, सैल्यूट करते वापस चलते हुए बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था । रास्ते में हमें कहीं चाय पीने को रूके तो मृदुल, काव्यांश और गीतांशी ने एक बड़ा सा चाकलेट मुझे थमाते हुए कहा, ‘‘मैम, थैंक यू, ये आप का गिफ्ट, हमें यहां ले कर आने के लिए, आप को पता है, हमें जो प्रोजेक्ट मिला था छुट्टियां कैसे बिताईं, हम उस में जो लिखेंगे वो तो स्कूल का कोई और स्टूडैंट नहीं लिख सकता,  Our will be best". 

उन की खुशी और निश्छल प्रेम देख के मेरी आँखें भर आईं । मृदुल जो बराड़ सर से बेहद प्रभावित थी, उसने पूछा, ‘‘मैम, आप बराड़ सर को कैसे जानते हो ? सिल्क बब्बलस की मिठास के साथ-साथ घुल आया मेरे जे़हन में बीते दिनों की याद का स्वाद और बेसाख्ता सवाल-जवाब में उन्हें मैंने उस कविता की चार पंक्तियां सुना दीं, जो अप्रैल के महीने में अपने बाईकरस के साथ मंच पर खड़े, बराड़ साहब ने धर्मशाला लिट फेस्ट के उद्घाटन सत्र में अपने सम्बोधन में सुनाई थीं और वहीं उन से मेरी पहली मुलाकात हुई थी-

‘‘बाज़ की असली उड़ान अभी बाकी है,
हमारे इरादों का इम्तिहान अभी बाकी है 
अभी तो नापी है, मुठ्ठी भर ज़मीन हमने
अभी तो सारा आसमान बाकी है ।’’

उस दिन मैं कहां जानती थी कि दो महीने बाद मैं इन बच्चों के साथ, सेना के एक आयोजन के आमंत्रण पर इन बच्चों के साथ आधी रात सफ़र पर निकलूंगी ओर भारतीय सेना के जांबाजों केा आसमान नापते हुए देखूंगी । और बहुत ही शिद्दत से उस ऐतिहासिक पल की साक्षी बनूंगी जिनमें इन बच्चों की आंखों में फौजी बनने के सपने को पनाह मिली ।                   








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