Sahitya Nandini July 2023

 



समीक्षा


प्रो. अजय नावरिया


ले. डॉ. कुसुम अंसल


रेनबो नेशन का यूटोपिया और यथार्थ

अपनी संश्लिष्टता में मनुष्य जीवन एक ही समय में आत्मिक और सामाजिक दोनों के लिए बाध्य है । इन दो छोरों के बीच छटपटाता मनुष्य कभी एक आत्मिक इकाई के रूप में अपने आन्तरिक केन्द्र खोजता है तो कभी सामाजिक सदस्य के रूप में अपने परिवेशगत सूत्रों की तलाश करता है । 

कुसुम अंसल का उपन्यास 'खामोशी की गूंज' मनुष्य जीवन के इन्हीं दो छोरों- 'आत्मिक और सामाजिक' के मध्य कुछ ऐसे बिन्दुओं की शिनाख्त करता है, जिनसे सामाजिक यात्राओं के मानचित्र निर्मित होते हैं ।

यह उपन्यास 'खामोशी की गूंज' क्यों है, उपन्यास की नायिका अन्विता के कथन से इसका स्पष्टीकरण मिलता है, “बहुत से वाक्य हम ऊंचे स्वर में कह तो जाते हैं, परन्तु उनका मन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, कुछ वाक्य ऐसे होते हैं, जिन्हें फुसफुसाहट कहें तो भी उनकी गूंज हृदय में उतर जाती है, हमें अपने भीतर की गहराई में ठहरकर उसके अर्थ को सुनना होता है, उस खाली क्षेत्र में, जहां शब्द नहीं होते, शब्दों की गूंज भर है बस । ”

यह अन्विता की स्वीकारोक्ति है, यह उपन्यास का एक पक्ष है, आत्मिक, जो विशेष खोज में आध्यात्मिक अर्थों तक पहुंच जाता है, क्या उपन्यासकार का उद्देश्य सिर्फ यही है? उत्तर नकारात्मक है, यह उनके वृहद उद्देश्य का मात्र एक हिस्सा है और जाहिर है बहुत ही महत्त्वपूर्ण, क्योंकि लेखिका की दृष्टि इस 'आत्मिक' से भी पलभर को हटती नहीं है, इस दृष्टि का पूर्ण वृत्त बनता है अन्विता के पति जीवेश के माध्यम से, जो दक्षिण अफ्रीका का निवासी है, भारतीयों की दृष्टि में वह आप्रवासी है, परन्तु खुद की नजरों में 'शत-प्रतिशत दक्षिण अफ्रीकन इंडियन' है ।
 
परन्तु यह जीवेश और उन जैसे लाखों ' शत-प्रतिशत' दक्षिण अफ्रीकन भारतीय, दक्षिण अफ्रीका के गोरों और स्थानीय निवासियों की दृष्टि में क्या है ? 1860 में दक्षिणी अफ्रीका की धरती पर कदम रखनेवाले इन 'कुली' भारतीयों की हैसियत, वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में क्या बन पाई है? दक्षिण अफ्रीका की सत्ता गोरी सरकार से यहां के मूल निवासियों के हाथ में आई और नेल्सन मंडेला द्वारा इस दक्षिण अफ्रीकी संस्कृति को रेनबो ( इन्द्रधनुषी ) कहकर पुकारने के बावजूद क्या इस समुदाय को मानवीय गरिमा प्राप्त हो सकी ? यही है लेखिका के पात्रों के आत्म का सामाजिक और सांस्कृतिक विस्तार, जहां वे किसी राष्ट्र के नागरिक भी हैं और इसके चलते दुःख-सुख, सम्मान-अपमान सब कुछ भोगते चलते हैं, उपन्यासकारा स्वयं लिखती हैं, "मेरे उपन्यास का बीजारोपण उसी धरती पर हुआ । ” ( भूमिका पृ. 6)

और यह बीजारोपण क्यों हुआ? दक्षिण अफ्रीका के शहर डरबन में 'मीट द ऑथर' कार्यक्रम में वक्ता के तौर पर आमन्त्रित होने के बाद लेखिका वापस भारत आ जाती है, "परन्तु मुझे लगता था, बहुत कुछ था, जो मुझे जानना भी था, विशेष रूप से रंगों की उस मिलावटी नागरिकता के बारे में, जिसे नेल्सन मंडेला ने 'रेनबो रेस' (इन्द्रधनुषी सभ्यता) का नाम दिया था । सतह पर लगता था सब घुला-मिला है, एक है, परन्तु भीतर ही भीतर सब अपनी अलग-अलग, वहां बसे भारतीय भी, अपने अतीत की फैली हुई कुंठाओं से मुक्त नहीं हुए थे । " ( भूमिका पृ. 6)

इन सामाजिक और सांस्कृतिक कुंठाओं की गुत्थियों को समझने और सुलझाने के लिए उपन्यासकार ने कथानक में एक ऐसी नवयुवती को चुना है, जिसका अपना अतीत अपमानों और यन्त्रणाओं से भरा है । इस उपन्यास की धुरी अन्विता है, इसलिए बेशक इसे एक नायिका प्रधान उपन्यास कहा जा सकता है, अन्विता एक अनाथ बच्ची है, जिसका पालन-पोषण उसकी बुआ और उसके परिवार ने किया है । 

उपन्यास की कथावस्तु एकरेखीय नहीं है, इसमें कई परतें खुलती हैं, कथानक भी पंजाब के ऊना शहर से दक्षिण अफ्रीका के विभिन्न शहरों तक फैला हुआ है । कुसुम अंसल की दार्शनिक दृष्टि ने व्यक्ति- मन की तहों को पलटने के साथ-साथ व्यक्ति की सामाजिक अस्मिता को भी रेखांकित किया है ।

उपन्यास का पहला दृश्य अन्विता की जोहानिसबर्ग की यात्रा से खुलता है । उसके पिता और तत्पश्चात् मां भी पंजाब के साम्प्रदायिक दंगों में मारे जा चुके हैं । वह तब एक छोटी बच्ची थी । मां ने उसे विषम परिस्थितियों के कारण अपनी ननद, यानी अन्विता की बुआ के घर ऊना शहर भेज दिया । इस नए परिवार में अन्विता की स्थिति उपेक्षिता और अधिक से अधिक एक 'डिस्टेंट कजिन' की है 1 चूंकि परिवार में बुआ और उनके पति, जो अंकल सहृदय मनुष्य हैं, इसलिए वह एक साधारण स्कूल में दाखिला पा जाती है और सदा अपनी मां की इस सीख को याद कर आगे बढ़ती जाती है कि उसे कुछ बनकर दिखाना है । 

उपेक्षित बचपन किसी तरह गुजर जाता है और अपनी उच्च शिक्षा के लिए वह चंडीगढ़ आ जाती है, यहां पर वास्तुशिल्प की शिक्षा प्राप्त करती है । इस बीच वह अपने जो. जो. अंकल और दमयंती अर्थात् वती आंटी के प्रेम को भी जान जाती है । यही वती आंटी बाद में, जीवेश से विवाह के वक्त कन्यादान समेत सभी रस्में निभाती है । जो . जो. अंकल की मृत्यु का समाचार सुनकर उनकी बेटी नोनी और बेटा संजू अमेरिका से भारत आते हैं, जीवेश संजू का मित्र है और दक्षिण अफ्रीका का निवासी है । उसने और संजू ने कैलिफोर्निया में साथ-साथ प्रबन्धन की पढ़ाई की है ।

जीवेश अपनी भारत यात्रा के दौरान अन्विता के बहुत नजदीक आ जाता है और दोनों विवाह कर लेते हैं, उपन्यास का आरम्भ, विवाह के बाद दक्षिण अफ्रीका की तरफ वापसी से होता है । यह जानना बहुत ही दिलचस्प है कि उपन्यास का अन्त भी एक हवाई यात्रा पर होता है । इस बार यह हवाई यात्रा दक्षिण अफ्रीका से भारत की ओर है । इस यात्रा में अन्विता जीवेश के साथ नहीं । 

वह अपने नवजात पुत्र ऋषि के साथ भारत लौट रही है । जीवेश की मृत्यु असाध्य यौन रोग के कारण हो चुकी है । ऋषि जीवेश का पुत्र नहीं है । वह अन्विता और उसके प्रिय सर श्री मणि सुब्रह्मणियम के प्रेम की सन्तान है । इन दो भौगोलिक यात्राओं के बीच अनेक आत्मिक, सांवेगिक, सामाजिक और सांस्कृतिक महायात्राएं विद्यमान हैं । ये छोटी-छोटी नदियां नहीं हैं, बल्कि महानदियों का अनन्त और अनवरत प्रवाह हैं । 

कुसुम अंसल की कथा दृष्टि की यह विशेषता है कि उन्होंने अपने लक्ष्यों को जरा भी ओझल नहीं होने दिया है । अल्बर्ट लुथेली पहले दक्षिण अफ्रीकी लेखक थे, जिन्हें नोबेल शान्ति पुरस्कार प्राप्त हुआ । उनकी आत्मकथा 'लैट माई पीपल गो' यहां के स्थानीय निवासियों की कारुणिक और त्रासद कथा को बताती है । इस पुस्तक में अल्बर्ट लुथेली के दो मूलमंत्र हैं- एक, 'जीवन सत्य है, जीवन संघर्ष है और कब्र इसकी मंजिल नहीं है' और दूसरा मंत्र है, 'आजादी की राह बलिदान से वाबस्ता होती है । ' लुथेली के इन दो मूलमंत्रों को अन्विता और दक्षिणी अफ्रीकी भारतीयों और अश्वेत लोगों के जीवन से मापा जा सकता है । अनाथ अन्विता की टेक यही है कि कुछ बनना है और अनाथ दक्षिण अफ्रीकन भारतीयों अर्थात् गिरमिटिया मजदूरों का भी यही संकल्प है कि एक बेहतर जीवन पाना है । स्थानीय निवासियों ने तो नेलसन मंडेला के नेतृत्व में अन्ततः वह स्वतंत्रता प्राप्त कर ही ली, जिसके लिए हजारों जीवन बलिदान की राह पर चले गए । 

स्वतंत्रता की इस राह में कुछ संवेदनशील गोरों का भी सक्रिय सहयोग था । आजादी के बाद धीरे-धीरे एक 'व्हाइट गिल्ट' भी उत्पन्न हो रहा है, जो यह सोचता है कि उनके पूर्वजों ने जो अत्याचार इन गैर-श्वेतों पर किए थे, वे पाप की श्रेणी में आते हैं । इसके लिए सामूहिक 'कन्फेशन' भी हुए । यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार का पतन और सोवियत संघ का पराभव लगभग एक ही समय में हुआ । एक ही समय में घटित इन दो विरोधाभासी, परन्तु महत्त्वपूर्ण घटनाओं का प्रभाव अतुलनीय था । नादिन गोर्डीमर एक ऐसी ही श्वेत लेखिका थीं, जिन्होंने अफ्रिकन नेशनल कांग्रेस के साथ जुड़कर आजादी का संघर्ष किया । वे आज भी जोहानिसबर्ग में । 

इन्हें 1991 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया । संयोग यह है कि नादिन गोर्डीमर का जन्म गौनंग में हुआ, जिसका उल्लेख इस उपन्यास में अन्विता की कम्पनी को मिले एक नए प्रोजेक्ट के रूप में हुआ है । यह जोहानिसबर्ग का बाहरी इलाका है, जहां खनन कार्य प्रमुख रूप से होता है । अन्विता अपने विवाहित जीवन के दो-तीन वर्षों के बाद आखिर एक कम्पनी में नौकरी पा जाती है । नौकरी से पूर्व हुए साक्षात्कार में भी 'व्हाइट गिल्ट' दिखाई देता है । साक्षात्कार में दो अधिकारी मौजूद थे । एक एम. सुब्रह्मणियम और दूसरे गोरे साहब वारेन फिलिप । 

फिलिप के एक प्रश्न के उत्तर में अन्विता कहती है, “यह तभी सम्भव है, जब हम ऐसा कुछ बनाएं । ऐसी बिल्डिंग, मकान, आवासस्थल, जिन पर न तो ब्रिटिश साम्राज्य का प्रभाव हो और जो अपार्थी युग के अशोभनीय तनाव और दुःख, सभी से मुक्त हों, कुछ नया, कुछ ऐसा, जो यहां की नई पीढ़ी में विश्वास जगा सके, उन्हें एक नए जीवन की जीवन्तता की ओर अग्रसर कर सके । ” (पृ. 65 )

वारेन फिलिप इस सत्य को सुनकर तनावग्रस्त हो जाते हैं । सुब्रह्मणियम सर अन्विता को इस अप्रिय सत्य को दोबारा कभी न कहने की हिदायत देते हैं । जीवेश एक स्थान पर नोनइ दी से दक्षिण अफ्रीका की बदलती परिस्थितियों पर टिप्पणियां बदल रही हैं, गोरे भी अपने को उस अत्याचार का कसूरवार मानने लगे हैं, शायद इसलिए मन में 'व्हाइट गिल्ट' की हीनभावना से भी पीड़ित हैं । 

परन्तु इन कुली भारतीयों और मूल निवासी कालों का अतीत अन्तहीन यंत्रणाओं से भरा हुआ था । अन्विता विश्लेषण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचती है, "यहां के अधिकतर कालों के इतिहास में इतना घना अन्धेरा था, काला स्याह, जो किसी सत्ताधारी सफेद चिट्टे को रास नहीं आता था और जो सफेद थे, गौरवर्णीय, वे रत्तीभर भी अनुमान नहीं लगा पाते थे कि वह घना काला अन्धेरा कितने कष्टों और कंटीले कांटों की कसक में लिपटा हुआ था । ” (पृ. 125) एक दुखद तथ्य यह भी है कि इन कालों के कुली भारतीयों के बीच भी शुरुआती दौर में आत्मीय सम्बन्ध नहीं बने, जबकि शोषक की नजर में दोनों एक बराबर अस्पृश्य और हेय थे । 

अन्विता के ससुर प्रतापजी बताते हैं कि, “हम सबने दरिद्रता के साथ, गरीबी, मध्यवर्गीय अपमान का संघर्ष भी सहा है । गोरों का ही नहीं, कालों का भी अत्याचार शरीर और मन पर झेला है । अब जब आत्मनिर्भर हुए हैं, तो अपनेपन को पहचानने के, अपनी धुन्धली सामाजिक स्थिति को साफ करने के प्रयास में जुटे हैं ।' (पृ. 120 )

एक दिन स्वयं अन्विता कालों के इस हमले को झेलती है । वह कार्यालय से वापस आते हुए कुछ बदमाश काले लड़कों द्वारा घेर ली जाती है । सही समय पर कुछ परिचित भारतीयों की सहायता के कारण वह बच जाती है, वरना उसके साथ भी बलात्कार जैसा जघन्य अपराध सम्भव था । उपन्यास बहुत ही खामोशी से गोरे और काले नागरिकों के बीच इन भूरे बाशिंदों की सामाजिक और सांस्कृतिक अस्मिता और समस्याओं की भी पड़ताल करता है । इस खामोश पड़ताल की गूंज पाठक की चेतना में देर तक बनी रहती है । 

क्या यह सिर्फ संयोग ही है कि उपन्यास के सभी स्त्री पात्र सुदृढ़ मनोभावों के चरित्र हैं ? आधुनिक समय में पात्र अपने पुराने रगेल की खील- खील उड़ाकर एक नई वेशभूषा में उपस्थित हुआ है । उनका यह चरित्र प्रदत्त या पोषित नहीं, बल्कि अर्जित किया गया गुण है । अन्विता तो खैर इस अर्थ में एक आदर्श पात्र है ही, परन्तु अन्य पात्र मसलन बनो, लीली जी, पैरी, दमयन्ती चावला आदि भी सशक्त चरित्र के मनुष्य हैं । परम्परागत रूढ़ियों और मूल्यों को वे यथावत स्वीकार नहीं करते, बल्कि आवश्यकतानुसार उसमें परिवर्द्धन और संशोधन भी करते हैं । इन संशोधनों के सभी के अपने-अपने दायरे हैं ।

अन्विता जीवन को पूरी तरह जान लेने के लिए दूसरे रास्ते का चुनाव करती है, 'दूसरा रास्ता है विकासमूलक, जिसमें हमें अपने समूचे व्यक्तित्व को सचेत रखना पड़ता है सभी के प्रति, आस-पास का वातावरण, व्यक्ति, राजनीतिक उलटफेर, सभी कुछ विशेष रूप से 'समय' । (पृ. 188 )

जीवेश अपनी नई नौकरी के सिलसिले में केपटाउन रहता है और अन्विता जोहान्सबर्ग में अपनी कम्पनी के फ्लैट में रहती है । इस बीच आठ-नौ महीने का वक्त गुजर जाता है और अन्विता के बार - बार के आग्रह पर भी जीवेश न तो जोहान्सबर्ग ही आता है और न ही केपटाउन का अपना पता देता है । इस बीच दो घटनाएं घटती हैं - एक जीवेश अपनी उच्छृंखलता और अराजकता के कारण असाध्य यौन रोग का शिकार हो जाता है और उधर अन्विता श्री सुब्रह्मणियम के प्रति अपने अव्याख्येय आकर्षण और गहन आत्मीय सम्बन्ध के फलस्वरूप गर्भ धारण कर लेती है, जिसे वह किसी भी कीमत पर गिराने को तैयार नहीं होती । 

प्रत्येक मनुष्य अपने निर्णयों के द्वारा अपनी शख्सियत बनाता है । अन्विता से जब सुब्रह्मणियम उन आत्मीय क्षणों के बारे में पूछते हैं कि क्या वह उस कारण 'अपसेट' है तो वह बहुत साफगोई से कहती है- ' वह अद्वितीय अनुभव था, मैं तो विवाहित हूं और यह भी सच है कि मैं जीवेश से बहुत प्रेम भी करती हूं, परन्तु वह जो आपके साथ जिया था, वह अनुभव अद्भुत था । विश्वास मानिए आपका वह प्रेम, मेरी धमनियों में एक पवित्र प्रार्थना - सा बहता रहेगा । ' (पृ. 262 )

कुसुम अंसल की यह अन्विता एक स्मरणीय चरित्र बनकर उभरती है और अपने निर्णयों से अन्य लोगों में गति उत्पन्न करती है, इसके अलावा नेपथ्य में चलनेवाला दमयन्ती चावला का खामोश किरदार भी अपना असर देर तक बनाए रखता है । ये दोनों ही चरित्र अपने जीवन के फैसले अपने विवेक के अनुसार बेहिचक और बेखौफ लेते हैं । क्या वह सिर्फ संयोग है या कि एक कथा युक्ति कि अपनी वती आंटी ( दमयन्ती चावला) की ही तरह अन्नू (अन्विता ) भी अपने पति से इतर एक पर पुरुष से सन्तान प्राप्त करती है ? संयोग यह भी है कि वती आंटी के पति भी शारीरिक व्याधि से ग्रस्त हैं और स्त्री के योग्य नहीं हैं और अन्विता का पति जीवेश भी अपने अराजक यौन व्यवहार के चलते यौन रोगी हो जाता है । 

जो लोग दक्षिण अफ्रीका की भौगोलिक परिस्थितियों से परिचित नहीं हैं, वे प्रश्न उठा सकते हैं कि जोहानिसबर्ग में रहनेवाली अन्विता अपने पति जीवेश से स्वयं मिलने क्यों नहीं चली जाती, जो कि केपटाउन में रहता है ? भारतीय परिवेश में यह एक सहज प्रश्न हो सकता है, दक्षिण अफ्रीका एक ऐसा देश है, जिसके तीन तरफ समुद्र है। एक तरफ हिन्द महासागर और दूसरी तरफ अटलांटिक महासागर फैला हुआ है । उपन्यास में दक्षिण अफ्रीका के जिन शहरों के नाम प्रमुखतः आए हैं, वे हैं जोहानिसबर्ग, डरबन, नटाल, केपटाउन और गौतंग । 

जीवेश केपटाउन में अपने भाई बाबी सिंह के पास काम करता है । केपटाउन एक तटीय क्षेत्र है, जो दक्षिण अफ्रीका का दक्षिणी क्षेत्र है और यह जोहानिसबर्ग से बिल्कुल विपरीत दिशा में है, जोहानिसबर्ग उत्तरी इलाका है प्रीटोरिया और गौतंग के पास, जहां अन्विता रहती है । इनका वास्तविक घर डरबन में है, जो एक तटीय क्षेत्र है और पश्चिमी इलाका है, जहां जीवेश के माता-पिता प्रतापजी और लीला जी रहते हैं । अन्विता के लिए उत्तर अर्थात् जोहानिसबर्ग से पश्चिम में डरबन पहुंचना आसान है, परन्तु केपटाउन में जीवेश को खोजना लगभग नामुमकिन है, तिस पर वह मूलरूप से दक्षिण अफ्रीका की नहीं है, बल्कि भारत के एक छोटे से शहर ऊना में पली-बढ़ी है । 
इस भौगोलिक ज्ञान से उपन्यास की संवेदना और अन्विता की त्रासदी और गहनतर हो जाती है । एक अनजान देश की पृष्ठभूमि में अन्विता के अकेलेपन का धूसर रंग और मटमैला दिखाई देता है । 

यह कुसुम अंसल के अथक शोध और गहन अध्ययन का परिचायक है कि उन्होंने पूरे दक्षिण अफ्रीका की राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थितियों को ही नहीं, बल्कि भौगोलिक परिस्थितियों को भी गहनता से समझा । डरबन के उनके घर के बगीचे में खिलनेवाले बर्ड ऑफ पेराडाइज फूल की उपस्थिति भी इस गहन अध्ययन की पुष्टि करती है । 

ब्रिज वी. लाल सम्प्रति केनबरा, आस्ट्रेलिया में इतिहास के प्रोफेसर हैं, परन्तु वे मूलरूप से फीजी के भारतीय हैं । एक अलग ढंग से उन्हें जीवेश के पिता प्रतापजी की पीढ़ी का सदस्य माना जा सकता है । फीजी और दक्षिण अफ्रीका की अनेक समान विशेषताएं हैं । दोनों ही देश समुद्रों से घिरे हैं, उपनिवेश रहे हैं, गन्ने की खेती मुख्य कार्य है और शर्तबन्ध मजदूरों (गिरमिटिया मजदूरों) की आरोपित कर्मस्थली है । 

प्रो. लाल अपनी पुस्तक 'फीजी यात्रा : आधी रात से आगे' (हिन्दी अनुवादः सत्या श्रीवास्तव) में किसी देश के प्रकृतिजन्य साहचर्य पर टिप्पणी करते हैं, “मैं समझता हूं कि किसी भी देश के बारे में जानने से पहले उसके प्राकृतिक पहलुओं को जानना आवश्यक है, परन्तु मैं निश्चित तौर पर यह नहीं कर सकता कि कई प्रवासी, जो नगरों के परिसर में रहते हैं, अपने नए देश को जानने का इतना प्रयास करते हैं । 

नए देश में प्रवेश करना नए प्राकृतिक क्षेत्र में प्रवेश करने जैसा है । साथ ही उसके इतिहास में प्रवेश, वर्तमान और अतीत के बीच शक्तिशाली कड़ियों की समझ, उन चीजों की समझ, जो उस देश को जीवन देती हैं, भी आवश्यक है । " (पृ. 120 )

इस परिचय के लिए प्रो. लाल ने क्या किया ? "मैंने कार से उत्तर में केप ट्रिब्यूलेशन से दक्षिण में पोर्ट फिलिप तक और कैनबरा से एडीलेड तक यात्रा की है । लाल सपाट मैदान, दूरी पर रेगिस्तान की झाड़ियों में मिटे नजर आते हैं, दूरस्थ ग्रामीण, एकल मार्ग वाले शहर, जो नक्शे की निश्चितता से भी परे थे, परे के भी परे थे, उनसे होकर भी मैं गया । रास्ते में जंग खाई गाड़ियां दिखीं, जो लोगों ने वहीं छोड़ दी थीं और मरे हुए जानवरों के सड़ते हुए शव । मैंने यह जान-बूझकर किया, ताकि मुझे इस जगह का एहसास हो और उसकी प्राकृतिक लय और जीवन पद्धति की एक झलक प्राप्त हो । ” (पृ. 119, फीजी यात्रा : आधी रात से आगे : ब्रिज वी. लाल नेशनल बुक ट्रस्ट, पहला संस्करण 2005 )

कुसुम अंसल ने भी अपने इस उपन्यास में ऐसी अनेक भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और आत्मिक यात्राएं की हैं, जहां विचित्र भाषा बोलने वाले आध्यात्मिक बाबा हैं, अकेले और भुतहा चर्चों में गरीब और अबोध काले बच्चों के यौन शोषण हैं । कुसुम अंसल की करिश्माई सिनेमेटोग्राफिक दृष्टि इस रेनबो सभ्यता के विश्लेषण में महत्त्वपूर्ण उपकरण बनी है । फीजी और दक्षिण अफ्रीका के इन गिरमिटिया भारतीयों के जीवन में साम्य कैसा है ? प्रो. लाल ने तो दूसरे देशों को भी इसमें शामिल किया है । वे लिखते हैं, "यह मेरा सौभाग्य है कि शर्तबन्ध उत्प्रवास के सभी गन्तव्यों पर मुझे जाने का अवसर मिला है: ट्रिनीदाद, गुआना, सूरीनाम, मॉरीशस और दक्षिण अफ्रीका में वर्षों से किए गए अपने वार्तालापों और शोध से मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूं कि कुछ विशिष्ट बातों के विवरण अलग हो सकते हैं, परन्तु जो मैंने स्मृति के आधार पर कहा है, उसकी प्रतिछाया विश्व की पीढ़ी में, शर्तबन्ध प्रवासियों के अन्य सम्प्रदायों में भी दृष्टिगोचर होती है । मेरी इस यात्रा में वे अपने व्यक्तिगत क्षणों के सूचक पहचान सकते हैं । अपने ही पदचापों की प्रतिध्वनि सुन सकते हैं । " ( वही पुस्तक, पृ. 9)

प्रो. लाल की यात्रा और उपन्यास के प्रतापजी, लीलाजी, जीवेश और दूसरे सदस्यों की यात्रा वाकई एक लगती है, उपन्यास में प्रतापजी ने ब्यौरे उस क्रूर और अमानुषिक समय के दिए हैं, वे आश्चर्यजनक रूप से प्रो. लाल से मेल खाते हैं । 

प्रो. लाल लिखते हैं, “छुटपन में हमने आजा और उनके अन्य भूरे रंग के, गिरमिटियाओं से गिरमिट की कहानियां सुनी थीं, ऊषा की पहली किरण के साथ ही जानलेवा काम का शुरू होना, अच्छे और बुरे ओवरसियर, खचाखच भरी हुई एस्टेट लाइनों में पारिवारिक जिन्दगी की असीमित कठिनाइयां, सांस्कृतिक बिखराव और अतिक्रमण, जो बागानों की जिन्दगी का हिस्सा था और अपना प्रयास भी... बागानों की कठोर कार्यप्रणाली ने उन्हें एक क्रूर अनुभव दिया, पर उनकी परेशानियों की कहीं सुनवाई नहीं थी, ओवरसियरों और सरदारों द्वारा उनकी औरतों पर जुल्म होते, उनके परिवार टूटकर इधर-उधर बिखर जाते, उनकी इज्जत की धज्जियां उड़ा दी जातीं ।” (पृ. 3)
प्रो. लाल की कहानी और प्रतापजी की सुनाई कहानी में विचित्र समानताएं हैं, शुरू में इन जगहों पर बहुपतित्व प्रथा भी रही, परन्तु बाद में लैंगिक अनुपात ठीक हो जाने पर न केवल यह प्रथा खत्म की गई, बल्कि इसे रोकने के लिए हिंसक मारकाट भी मची ।

प्रश्न यह उठता है कि एग्रीमेंट (शर्तबन्ध) के समाप्त हो जाने के बाद ये भारतीय वापस अपने देश क्यों नहीं आ गए? अन्विता प्रतापजी से पूछती है कि " वे भारत क्यों नहीं लौटे, क्यों सहते रहे चुपचाप इतने अमानवीय कष्ट ?” (पृ. 29 ) प्रत्युत्तर में प्रतापजी कहते हैं, “इसके दो कारण थे अन्विता, एक तो उनके लिए ऐसा क्या था, जो वे लौटते? उनके पास 'कांट्रेक्ट' के बाद दो विकल्प होते थे एक तो उतना पैसा कहाँ मिलता था कि वापसी का टिकट लिया जा सके या फिर उस पैसे से यहां पर जमीन खरीदकर खेती कर सकें । जो जाना चाहते थे, वे चले गए । बाकी यहीं रह गये । ” (पृ. 29)
इसी वापसी पर प्रकाश डालते हुए प्रो. लाल लिखते हैं, “ शर्तबन्ध मजदूरी गुलामी का दूसरा नाम था- इसमें कोई शक नहीं है, अत्यधिक काम ने कई गिरमिटियाओं की कमर तोड़ दी, बीमारियों ने उनकी जीवन लीला समाप्त की, मानव हिंसा और लोभ ने भी उनके जीवन को तहस-नहस कर दिया । दुःख और दर्द शर्तबन्ध मजदूरी का एक अभिन्न अंग था, पर यह पूरी कहानी नहीं है, कठिनाइयां तो थीं, परन्तु यह भी सच है कि गिरमिटियाओं को अपने भाग्य निर्धारण का अधिकार भी प्राप्त हो गया । " (पृ. 4)

प्रतापजी का यह कहना है कि भारत भी उनके लिए ऐसा क्या था, जो वे लौटते और प्रो. लाल का यह स्पष्ट करना पूरी कहानी के साथ दुःख और दर्द की ही नहीं, बल्कि अपने भाग्य निर्धारण का' अधिकार प्राप्त होना भी बड़ी घटना थी, एक नए प्रश्न का प्रसव करता है । 

भारतीय सामाजिक व्यवस्था, जो कि जाति आधारित थी और आज भी है, में इन गिरमिटिया मजदूरों की क्या स्थिति थी ? उत्तर बहुत स्पष्ट है । इनमें से निन्यानवे प्रतिशत पिछड़ी और दलित जातियों के सदस्य थे, तत्कालीन समाज में इनकी दारुण स्थिति किसी से अनुसन्धान की मांग नहीं करती है । स्वयं प्रो. लाल की पारिवारिक संरचना कुर्मी और अहीर के मेल से बनी है । आज वहां कोई नहीं बता सकता कि कौन चमार है, कौन अहीर और कौन कुर्मी है, परन्तु 1860 के भारत में यह वर्गीकरण बहुत गहरा, प्रखर और शोषण - आधारित था । यह सही है कि इन गिरमिटिया मजदूरों के लिए तत्कालीन भारत कोई स्वर्ग नहीं था, जहां लौटने की अदम्य इच्छा होती । सम्भवतः अधिकांश लोग इसीलिए नहीं लौटे । इस वापसी में कोई मामूली सुख भी नहीं था । इस नई भूमि पर उन्हें अपने भाग्य के निर्धारण का अवसर मिल रहा था । भारत में यह अवसर उन्हें तब उपलब्ध नहीं था । यहां तब प्रशासन में अंग्रेजों का और समाज में पुरोहितों, सामन्तों और महाजनों का शोषण तंत्र था, जिससे निकलना इन जातियों के सदस्यों के लिए नामुमकिन था । 

तब क्या यही वजह नहीं है कि जिस मात्रा में हिन्दी में प्रवासी साहित्य अमेरिका और इंग्लैंड से आया है, इन विदेशी भूमियों से नहीं आया? मॉरीशस के अभिमन्यु अनत एकमात्र अपवाद हैं, वरना हर देश में एक लम्बी खामोशी है । क्या हम इस साहित्य लेखन के पीछे जातिभेद और वर्गभेद को लक्ष्य कर सकते हैं ? इसका उत्तर नकारात्मक देने में काफी झिझक होगी ।

ऐसा नहीं है कि उपन्यासकार की नजर से यह तथ्य ओझल हुआ है । वे लिखती हैं, “भारत में भंगी, जमादार, शूद्र जैसा भेदभाव भी तो कुछ कम नहीं था । " (पृ. 220 )

दक्षिण अफ्रीका का इतिहास बताना और वह भी एक उपन्यास के रूप में काफी उबाऊ हो सकता था । उपन्यासकार ने इसके लिए अनेक युक्तियों का इस्तेमाल किया है । प्रतापजी की डायरी मिलना और उसके बहाने इतिहास यात्रा काफी रोमांचक हो जाती है, कई ऐतिहासिक घटनाओं का पता चलता है “फीनिक्स-सेटलमेंट गांधीजी द्वारा बसाया गया एक छोटा-सा बस्तीनुमा शहर था, जहां पर जात-पात और ऊंच-नीच का भेदभाव भुलाकर सभी लोग एक परिवार की तरह रहते थे । (पृ. 174 )

इसी फीनिक्स सेटलमेंट के शताब्दी समारोह के बहाने लेखिका फिर इतिहास में जाती है । इस समारोह के मुख्य अतिथि भारत के राष्ट्रपति डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम हैं । इस फीनिक्स की इमारत में एक कक्ष ऐसा भी है, जहां वह प्रेस मशीन संजोकर रखी गई है, जिससे यहां का पहला भारतीय समाचार पत्र - 'द इंडियन ओपीनियन' छपा था । इसी के पास है - ओहलांगे नेटिव इंस्टीट्यूट और जे. एल. दुबे का घर । दुबे ने दक्षिण अफ्रीका की आजादी में भाग लिया था । नेल्सन मंडेला ने उन्हें उनके कार्यों के लिए सम्मानित भी किया । 

दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में मास बर्निंग और मास ग्रेविंग ( सामूहिक दहन और सामूहिक दफन) जैसी अमानुषिक घटनाओं की एक लम्बी सूची है, परन्तु वर्तमान में मंडेला के रेनबो नेशन के पारस्परिक प्रेम का सपना भी फलीभूत कहां हो सका है अब तक । 

दक्षिण अफ्रीका को 1994 में चुनावी जीत के बाद आजादी मिली । आजादी के बाद का दक्षिण अफ्रीका और अधिक आपराधिक गतिविधियों का केन्द्र बनता चला गया । एक वर्ष में हजारों बलात्कार होते हैं । हजारों हत्याएं होती हैं और ये सभी हत्या- बलात्कार व्यक्ति की नस्लीय पहचान के आधार पर होते हैं । 

मिस्टर नासों की नन्ही सी निरपराध बच्ची की सरे बाजार गोली मारकर हत्या कर दी जाती है । उस सात-आठ वर्षीय बच्ची की किसी से कोई रंजिश नहीं थी । उसका अपराध सिर्फ दूसरी नस्ल का होना था, यह घटना सबसे बड़े शहर जोहानिसबर्ग की है । एक दूसरी दुर्घटना से अन्विता एकदम दहल जाती है, “उस दिन सवेरे 'द टाइम्स' के मुख्य पृष्ठ पर एक मां की गिड़गिड़ाते हुए तस्वीर छपी थी, जिसमें वह प्रेसीडेंट थाबो मेबेकी से रो-रोकर प्रार्थना कर रही थी कि उसकी अठारह वर्ष की नवयुवती बेटी के साथ इन्साफ किया जाए... उसकी बेटी उनके घर में घुस आए लुटेरों के अत्याचार और रेप के बाद पथरा गई थी ।” (पृ. 290) मानसिक आघात के कारण वह लड़की लकवाग्रस्त हो गई । 

लूटपाट, हत्या, बलात्कार और ड्रग्स पैडलर्स ने रेनबो नेशन का एक विकृत और वीभत्स यथार्थ रचा है, जिसकी कल्पना अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस और नेल्सन मंडेला ने कभी नहीं की थी । 

कुसुम अंसल का यह उपन्यास एक राष्ट्र की आन्तरिक त्रासद परिस्थितियों का ही सूक्ष्म अवलोकन नहीं करता है, बल्कि लगातार छीजती मनुष्यता को भी चिन्तन और चिन्तन भाव से उकेरता है । 

-जामिया मिलिया इस्लामिया केंद्रीय विश्वविद्यालय, नई दिल्ली



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समीक्षा

श्री हरिशंकर राढ़ी, वसंतकुंज एन्क्लेव (बी- ब्लॉक), नई दिल्ली 


श्री ओम धीरज, वाराणसी, उत्तर प्रदेश, 
मो. 9415270194, 8887952004


शब्दों की तपती दोपहरी

हिंदी साहित्य में नवगीतों की दुनिया बहुत पुरानी नहीं है, किंतु अपने खटमिठ स्वाद, लावण्य, शब्द मितव्ययिता एवं भावबोध से इसने लोकप्रियता हासिल कर ली है । अपने छोटे पंक्ति विन्यास, सहज प्रवाह, सरलता, देशज एंव तत्सम शब्दों के सुंदर प्रयोग तथा लगभग हर मुद्दे पर संवेदनशील दृष्टि से नवगीत बाँध लेने वाली विधा बन गई है । इस विधा में जो नाम आज पाठकों को आकर्षित करते हैं, उनमें एक प्रमुख नाम ओम धीरज का है । तीन सफल नवगीत संग्रह देने के बाद उनका चौथा संग्रह आया है - ‘शब्दों की तपती दोपहरी’ । कहीं पूर्ववर्ती संग्रहों की मिठास से मेल खाता, तो कहीं जनसरोकारों से अधिक जुड़ने के कारण कुछ कटु और कहीं पैना हो जाने वाला यह संग्रह एक अलग स्वाद दे जाता है ।

ओम धीरज के इस संग्रह में भी मूल्यों से विचलन, छीजते रिश्तों, अतीत की सुखद स्मृतियों, मिट्टी से जुड़े गाँव-जवार, शासक-शासित के बीच के अंतर एवं अपनत्व के अभाव की हूक मुखर है । ऐसा नहीं है कि इनमें सुखद सवेरे की उम्मीद, प्रकृति की अरुणिमा, गाँव की अमराई और नेह-छोह रखने वाला हृदय नहीं है । ये सब भी है, लेकिन गाँव से शहर और शहर से गाँव की यात्रा में जो उतार-चढ़ाव, धूल-गुबार, आत्मीयता एवं यांत्रिकता का बोध होता है, उसकी अनुभूतियाँ अधिक हैं । देखा जाए तो नवगीतों की थीम में इन्हीं तत्त्वों की प्रधानता होती है । नए संग्रह ‘शब्दों की तपती दोपहरी’ में शब्दों की तपन व दोपहरी की अन्योक्ति बहुत प्रभावी है ।

इस संग्रह में कुल 57 नवगीत हैं । शब्दों की तपन पहले ही नवगीत ‘हम बबूल के फूल’ में दिख जाती है । बबूल और गुलाब की प्रतीकात्मकता कवियों को सदैव से घेरती रही है । गुलाब की बात आते ही ‘निराला’ की कविता ‘अबे, सुन बे गुलाब!’ स्वतः ही सबके मस्तिष्क में कौंध जाती है । अभिजात गुलाब बहुत आकर्षित करता है और सम्मान पाता है, जबकि सूखी जमीन पर भी हरा रहने वाला बबूल उपेक्षित रहता है । ओम धीरज अपने इस संग्रह का प्रारंभ यहीं से करते हैं । ‘हम बबूल के फूल’ का पहला बंद है :

हम बबूल के फूल / शूल में हम भी हैं रहते, / लेकिन कभी/गुलाब सरीखा /मान नहीं मिलता!

अब यदि इन पंक्तियों का लक्षणात्मक व व्यंजनात्मक अर्थ निकाला जाए तो वे इतने में ही बहुत कुछ समेट देते हैं । यद्यपि संग्रह में संवेदना, अतीतप्रेम, मिट्टी की महक, रिश्तों एवं भावनाओं के नवगीत संख्या और गुणवत्ता में कम नहीं हैं, किंतु विसंगतियों और सत्तामूलक प्रपंचों के विरुद्ध तानाकशी के तेवर इस बार अधिक हैं । जो दौर चल रहा है, उसमें मक्खनबाजी, होशियारी, अवसरवादिता, छल-फरेब सिर चढ़कर बोल रहे हैं । इन्हीं के सहारे तमाम ‘बड़े लोग’ अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं । एक कवि का इनसे व्यथित होना स्वाभाविक है । इसी को लक्ष्य करते हुए वे कहते हैं :

‘पूजो एक पुजाओ सबसे’ / मंत्र बड़ा, / वशीकरण - उच्चाटन / से भी तंत्र बड़ा / कर प्रयोग शाबर मंत्रों से / लूटो जी । (दौर चला है)

ओम धीरज के ऐसे नवगीतों में व्यंजना का बुझा हुआ मीठा तीर होता है । कब व्यंजना बदलकर एक आह में बदल जाएगी, पता ही नहीं चलता । दर्द में व्यंजना और व्यंजना में दर्द कहीं बहुत गहरा दिखता है । जहाँ पुराने मूल्य सबसे अधिक टूटे हैं, वह गाँव है । उसी गाँव को लेकर एक ऐसा ही प्रयोग देखिए :

अंग्रेजी शिक्षा का बढ़ता / ‘डीजे’ जैसा शोर, / ‘पूत कमासुत’ खेत बेचकर / बसे शहर के छोर, / देहरी पर / माँ-बाबू बैठे / जैसे बुझे अलाव ! (कहाँ हमारा गाँव)

इधर कई दशकों से पाखंडी बुद्धिजीविता का फैशन-सा चल पड़ा है । एक समय था जब जनसरोकारों से जुड़े कवि-लेखक अपने रचनाकर्म के साथ वास्तविक जीवन में भी वंचितवर्ग के हितैषी थे । जाहिर था, ऐसे लोगों को पहचान और सम्मान मिलना था । धीरे-धीरे तमाम कवियों ने वही जनचेतना और दुष्यंती तेवर दिखावे के लिए अपना लिया । रात के अंधेरे में विदेशी जाम लगाकर कविताएँ लिखते रहे, नीतियाँ गढ़ते रहे । उनके एजेंडे में क्रांतिकारी जैसा दिखने की महत्त्वाकांक्षा थी । जनसरोकार तो बस केवल सीढ़ी थी । ऐसे कवियों पर ओम धीरज कई बार जबरदस्त तंज कसते हैं । नवगीत ‘आदमी कब बनोगे’ में वे लिखते हैं :

हर समय / कवि ही दिखे हो, / आदमी भी कब दिखोगे ! / हाथ माइक, शाल काँधे / मंच पर क्या सब कहोगे!

आज की अबूझ कविताओं पर भी वह कवि को लानत-मलामत भेजता है । विसंगतियों और स्वार्थ को वह निशाने पर लेता रहता है । लक्षणा और व्यंजना से बड़ी सधी हुई बातें कह जाने में ओम धीरज माहिर हैं । एक और विसंगति का उदाहरण :

कर रहे थे मेमनों के लंच जो / आ गए सम्मान पाने भेड़िये सोचकर देखो / सियासी खेल में, / गोटियाँ बनकर भला तुम क्या करोगे ! / (जा बसो आकाश में)

कवि का यह तेवर बढ़ता ही जाता है । लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग करते-करते वह अभिधा का चाबुक भी मार देता है । परिस्थितियाँ देखते हुए यह जरूरी भी हो जाता है । बुद्धिजीवियों और नवधनाढ्यों द्वारा किस तरह बातें बनाई और बिगाड़ी जाती हैं, क्या-क्या दिखाया जाता है, उसके लिए ये कुछ पंक्तियाँ पर्याप्त हैं :

संदर्भों से काट / बात को उद्धृत करना, / धोखा है या छल-फरेब मक्कारी है; / सचमुच, आज इसी से दुनिया हारी है! / शुद्ध दूध का स्वाद इन्हें ना किंचित भाए / नींबू का रस डाल इसे वे फाड़ेंगे, / रबड़ी और मलाई में सब खोट दिखाएँ / केवल ‘राग पनीरी’ रोज सुनायेंगे

ऐसे गीतों की संख्या और प्रभाव इस संग्रह में उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ दिखता है । ‘बचपन छीन रहे’, ‘किसको-किसको कोसें’, ‘सपन दिखाकर पाकेटमारी’, ‘होड़ लगी है’, ‘जाति-वर्ग में बीज घृणा का’ और ‘मैकाले का काला जादू’ आदि ऐसे नवगीत हैं, जो पटरी से उतरती गाड़ी को समर्थ भाव से दिखाते हैं ।

यहाँ तक कि रिश्तों एवं आत्मीय त्योहारों में भी दिखावा एवं भौतिकता हावी हो चुकी है । पिता और नंदल भाई पर लिखी कविताएँ भावना एवं भावुकता से सराबोर हैं । पिता का महत्त्व और उसका त्याग उसके न रहने पर बहुत समझ आता है । वहीं नंदल भाई वे मित्र हैं जिनके असमय छोड़ जाने पर जो निर्वात पैदा होता है, वह जल्दी से नहीं भर पाता । तमाम रक्त संबंध ऐसे हैं जो समय के साथ बहुत बदले हैं । ‘राखी का त्योहार’ गीत में ओम धीरज आज की बड़ी जीवंत तस्वीर खींचते हैं :

रक्षासूत्र वैदिकी बंधन / हुए बहुत ढीले, / कर्मावती-हुमायूँ सदृश अब / रिश्ते हैं सपनीले / राजा बलि की वचनबद्धता / की अब होती हार ।

ओम धीरज का ग्राम्य लगाव, फसलों से संवाद, अतीतप्रेम, लालटेन-बैलगाड़ी युग के भोगे यथार्थ, अन्न के अभावकाल के देशज स्वाद, स्वस्थ परंपराओं से विचलन का दंश एवं प्रछन्न प्रेम उनके गीतों में सिर चढ़कर बोलता है । कभी घुघनी-कचरस, निमोना, गुड़ के कड़ाहे में पकी आलू और ताजा बिलोये मक्खन का समय हुआ करता था । अन्न के अभाव के उस युग में इनसे जो उदरपूर्ति होती थी और जो स्वाद आता था, वह कवि को याद है । सही है, सबसे मीठी भूख ही होती है । भूख का वह युग चला गया । आने वाली पीढ़ी को उसने रोटी की समृद्धि दी, स्वाद का विकल्प दिया । किंतु जो स्वाद वह युग छोड़कर गया, कवि को उसकी तलाश है । और स्वाद केवल इन्हीं उदरपूरक पदार्थों का नहीं, इनके साथ उस समय के ताल-तलैया, बाग-सिवान, पुरवा-पछुवा, लू-बयार का भी था । शादी-ब्याह और गौने का था, पाहुर का था । वह मिठास उसे बार-बार याद आती है ।

संग्रह में ऐसे गीतों से बार-बार मुलाकात होती है । तबसे लेकर अब तक आए बदलाव को कहीं-कहीं वे एक बंद में ही कह जाते हैं । ‘मेहमान हुए’ गीत का एक बंद :

भाई-बहन / ननद-भौजाई, / रहते आँगन में, / तोता-मैना, बुलबुल चहके / जैसे कानन में, / आशीषों की गूँज / आरती होती साँझ-सुबह / दशाश्वमेध घाट थे / कल तक / अब श्मशान हुए ।

दशाश्वमेध घाट का श्मशान हो जाना संक्षेप में ही एक लंबी कहानी कह जाता है और व्यापक अर्थ दे जाता है । अनपढ़ थे, साधनहीन थे, अन्नहीन थे, ओषधिहीन थे, अभाव था लेकिन भाव था । संबंधों एवं प्रेम का जो घनत्व था, अब वह कहाँ है? उसी को इंगित करते हुए ओम धीरज लिखते हैं :

टूटी-फूटी भाषा में क्या  / प्यार उछलता था / सुनने को बेताब समूचा / गाँव उमड़ता था, / बाहर सुनते थे सब, भाभी / चौखट सटी खड़ीं / मोती-सी बूँदों की भाषा / सभी समझते थे । (क्या दिन थे)

मैं पहले भी कह चुका हूँ कि ओम धीरज के नवगीत संवेदना के गीत हैं । तमाम गिरावट, अवमूल्यन, पाखंड और सामाजिक बेशर्मी की स्थिति के बावजूद वे सकारात्मक हैं, आशावादी हैं । मूल्यों में उनका विश्वास है, मिट्टी की महक पर भरोसा है । गाँव बहुत बदला है । जाति-वर्ग के भेद टूटे हैं । बैलों तथा मजदूरों के भरोसे होने वाली धीमी किसानी मशीनी बदलाव से सुधरी है । आर्थिक विपन्नता दूर हुई है । जो लोग उस पुराने गाँव को ढूँढ़ते हैं, वे अप्रसांगिक हुए हैं । यह बदलाव अच्छा है और गाँव अब भी अच्छा है । ‘अब भी अच्छा गाँव है’ गीत मीठी चुटकी लेते हुए इस आशावाद को बढ़ाता है । ‘बादल है लड़की’ में कवि ने लड़की का जो संवेदनात्मक चित्र खींचा है, वह निहायत प्रेममय है । यह गीत अपने आप में बहुत सुखद है । वहीं वह यादों को भी बहुत सुखमय मानता है :

बीता कल भी तो अपना था / जैसे बीता, बीता, / यादों का रसभरा कलश क्या / कभी रहा है रीता, / संध्या के आँचल में ढूँढें / प्रातः की अरुणाई । / (नई सुबह का सूरज)

अपने पिछले तीनों संग्रहों की भाँति इस संग्रह में भी ओम धीरज ने भोजपुरी या देशज शब्दों का जमकर प्रयोग किया है, किंतु ये प्रयोग सायास नहीं हैं । ये नवगीतों में मौसमी फूलों की तरह आते हैं, कृत्रिमता से ठूँसे नहीं गए
हैं । छाजन, मड़हे, गोंइड़, सगुन, मटखन्ने, छ्यूँकी जैसे शब्द भोजपुरी मूल के पाठक को उसके पुराने गाँव की यात्रा करा देते हैं । देशज मुहावरों के माध्यम से कवि बातों को अतिरिक्त अर्थ देने में समर्थ है । हालाँकि इस नवगीत संग्रह में उसके पिछले संग्रहों की तुलना में देशज शब्द और मुहावरे कम हैं । उनकी जगह आधुनिकताबोध को व्यक्त करने वाले शब्द प्रायः तंज के भाव में अधिक प्रयुक्त हुए हैं ।

संग्रह में किसी नामचीन शख्सियत से भूमिका लिखवाने के बजाय नवगीतकार ने अपना एक लंबा आत्मवृत्त - आत्मकथ्य दिया है । इस आत्मकथ्य में उसके साहित्यिक जीवन की यात्रा का पड़ाव-दर-पड़ाव रोचक वृत्तांत है, संस्मरण है । इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ओम धीरज ने अपने नवगीतकार की निर्मिति का आत्मीय विवरण दिया है । गीतकार का गद्य प्यारा होता है, ऐसा मेरा मानना है । मेरी इस मान्यता को कवि ने इस संग्रह में पुष्ट किया है । किस प्रकार एक सामान्य किसान के परिवार से आने वाला युवक अपनी मेहनत एवं मन की पुकार से एक संवेदनशील गीतकार बन जाता है, यह देखने योग्य है । संभवतः यह कथा सामान्य ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाले हर रचनाकार पर कमोबेश फिट बैठेगी । आत्मकथा का यह अंश भी अपने आप में एक छंदहीन गीत है ।

इसमें संदेह नहीं कि नवगीत प्रेमियों के लिए यह संग्रह अच्छा सिद्ध होगा ।



पुस्तक : शब्दों की तपती दोपहरी (नवगीत संग्रह) / कवि : ओम धीरज, वाराणसी, उत्तर प्रदेश, मो. 9415270194, 8887952004 / प्रकाशक : बिंब-प्रतिबिंब प्रकाशन / फगवाड़ा, पंजाब - 1444401 मोबाइल : 8528833317 / पृष्ठ : 128 मूल्य : 175/- (पेपर बैक)

समीक्षक संपर्क : बी- 532 (दूसरा तल), वसंतकुंज एन्क्लेव (बी- ब्लॉक), नई दिल्ली – 110070 / Email: hsrarhi@gmail.com / मोबाइल : 9654030701

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समीक्षा


डॉ. अवधबिहारी पाठक, सेंवढ़ा, जिला दतिया (म.प्र.), मो. 9826546665



डॉ. कमला दत्त

अभिनव इमरोज/साहित्य नन्दनी अप्रैल 2023 ...........और प्रयोग चलते रहे पर प्रतिक्रिया

अभिनव इमरोज के द्वारा डॉ. वैज्ञानिक कमलादत्त के कृतित्व पर निकाला गया विशेषांक सामयिक है । कई अर्थों में दस्तावेजी अस्तु स्वागतेय है सम्पादक, लेखक को बधाई...... ।

अंको पर प्रतिक्रिया स्वरूप कहा जा सकता है कि अतीत आज और कल का आधार श्रुतिकाल से चला आ रहा है यह जीवन विचार और चेतना को असम्भाव्य से सम्भाव्य बना डालने का उपक्रम है जिसका अन्तिम लक्ष्य है परम शान्ति और प्रसन्नता की ओर जाने का उत्साह जिसमें जीव मात्र का कल्याण हो इस दृष्टि से सम्पदकीय अनूठा बन पड़ा है ।

डॉ. कमला दत्त की कहानियाँ यथा- ‘‘समकैटर पिलरी’’, ‘‘मछली’’, ‘‘अधजली मोम्बत्तियाँ’’ वस्तुतः स्त्री और पुरुषों की कुचली हुई परन्तु बागी मनोदशा के आख्यान हैं वे दमित त्रस्त और बेबफाई में भी अपने काँइयाँपन नहीं छोड़ते । ये कहानियाँ मनोविज्ञान नहीं मनोमंथन की कथाएँ है जिनमें पात्र या कथा कहीं भी किनारा नहीं पाती । सभी का कुछ न कुछ खोया है हताशा उसे न पाने की वितृष्णा परन्तु आशा जिन्दा रही । 'अप्रेम' कथा पारो-देवदास कहानी के लेखक शरतचन्द्र, प्रियदर्शनी और कहानियों में कथा से हठ कर दत्ता ने पारो को नया आवेश दिया । वह कहती है -‘वो मुझे चाह नहीं सका, वो कायर निकला’ (पृष्ठ 23) । यहाँ लेखक ने स्त्री अस्मिता को कायम रखा अधिकांश स्थल पर स्त्री की सामाजिक-पारिवारिक दशा में चिन्ता व्यक्त की गई है जो एक ओर भारतीय संस्कृति का आदर्श प्रस्तुत करना चाहती है तो दूसरी और पश्चिम में नारी जीवन का विल्कुल अँधेरा पक्ष भी । 





साहित्य नन्दनी के विद्वानों हरीशंकर राड़ी, डॉ. श्यामबाबू, डॉ. अहलूवालिया की समीक्षाएँ तटस्थ बेवाक हैं । कुछ कहानियाँ ‘‘लम्बी और बौद्धिकता से बोझिल महसूस की गईं’’ (पृष्ठ 5) । डॉ. रेणु यादव का आलेख हृदयग्राही है । ‘निहालदयी’ में वृद्ध स्त्री स्वाभिमान ध्यान खींचता है । ‘न्यू विग्निंग’ कहानी मंें तीन मोमबत्तियों को जलाकर परस्पर का संवेग तो स्पर्शगंध ने पैदा कर दिया परन्तु ‘‘नायिका को दिशा किनारा नहीं दिया’’ (पृष्ठ 15)

जहाँ तक मेरी दृष्टि जाती है डॉ. कमला दत्त वैज्ञानिक है अस्तु अधिकांश कथाएँ बायोलॉजिकल और लम्बी हो गई हैं । जिनकी रचना में गुजरी स्मृतियों का फिर से शब्द के माध्यम से गुजरना है वे अतीत के पात्र घटनाएँ स्त्री पुरुष जीवन के बनते बिगड़ते समीकरण देश की और सामाजिक बिडम्बना की भयावहता स्त्री की अपनी अस्मिता की रक्षा की जद्दोजहद से उपजा दर्द है । कोई पात्र चिन्तन में झलकता है, कहानी जनमती है उसी में अन्त हो जाता है न कोई पात्र न कोई व्यस्थित कथानक यादो का शाब्दिक एकालापी प्रवाह । यह तो तय है कि कथाकार कहीं कुछ खोये हुए की तालाश में है साथ ही समाज, व्यक्ति के मनोव्याधिक कदाचार को लेकर चिंतित है । कहानियों को एक नया पैमाना और शिल्प दिया है नई दिशा और दशा परन्तु उन्होंने जियोजॉलिकल यर्थाथ को कथा में दिया है जो व्यवहारिक कम है । याद रखा जाना चाहिए कि कथा साहित्य यदि यर्थाथ मीमांसा वादी ही होकर रह गया तो फिर अम्यंतर का तरल साहित्य भाव कैसे पात्रों, स्थितियों में जिन्दा रह पायेगा, जो साहित्य का प्राण होती हैं किन्तु कथाएँ एक नई चेतना और अहलाद पैदा करती ही हैं, इसमें कोई शक नहीं.....      


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समीक्षा

डॉ. निशाली पंचगाम, 
प्रमुख हिन्दी विभाग, एल.आर.टी कॉलेज, अकोला (महा) 444001, मो. 9823247578

विसंगतियों से मुठभेड़ करती लघुकथाएँ

एक संवेदनशील रचनाकार सामाजिक परिवेश में बदलाव, सामाजिक विडंबनाओं और त्रासदियों के प्रति मुखर होता है । जो सामान्यत: उसकी रचनाओं में दर्ज हो जाता है । ये रचनाएं पठन के साथ ही उल्लेखित विषयों पर गंभीर चिंतन हेतु विवश करती हैं । समाज की इन विसंगतियों में अंधविश्वास, कुप्रथा, अत्याचार, अन्याय और पाखंड के साथ ही भ्रष्टाचार की समस्या प्रमुखता से उजागर होती है । भ्रष्टाचार केवल भौतिक नहीं होता बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक, राजनैतिक और बौद्धिक भी होता है । ‘मुर्दों से डर नहीं लगता’ लघुकथा संग्रह इसका ज्वलंत दस्तावेज है । जो समाज का कटु सत्य बयां करता है । संग्रह के लेखक श्यामबाबू शर्मा ने इन विसंगतियों पर अपनी कलम से यथार्थ चिंतन से तहरीरें पेश की हैं । पुस्तक के फ्लैप पर प्रकाशित इबारत में महेन्द्र नारायण पंकज ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि -‘‘ लेखक के अद्भूत चिन्तन ने रचनात्मक साहस के साथ अपनी लेखनी के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों पर जिस तरह से कड़ा प्रहार किया है वह आज की ठकुरसोहाती में प्राय: दुर्लभ है ।’’

जीवन में जो कुछ भी अनुभव किया उसे उनकी लेखनी ने कागज पर उतारते हुए रचनात्मक साहस का परिचय दिया है । लघुकथाओं के बीज कल्पनिकता से परे वास्तविकता के धरातल पर अंकुरित हुए हैं । सोपानीकृत समाज व्यवस्था कथाकार को भीतर तक सालती है । संग्रह की भूमिका में श्यामबाबू लिखते हैं कि - ‘‘अनुभूति हुई कि हमारी परम्पराएँ भयानक दुर्व्याख्या की शिकार हो रही हैं । उनमें जो बासी-पिछड़ा है उसे महिमा मंडित किया जा रहा है । आध्यात्म और विराट के सहज स्पंदन को निरे दिखाऊ कर्मकाण्ड में तब्दील कर मार्केटिंग करने की साजिश । अहसास हुआ की धधकती चिताओं की ज्वाला लुठा जाने-राख में बदल जाने पर भी किसी इन्सान की नहीं बल्कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या अछूत की ही संज्ञापित होती है । तंग सोचों और डाह-ईर्ष्या के तापों से तापित शुभचिन्तक पड़ोसी-सम्बन्धों के दारूण हाहाकार से अविचलित, टस से मस नहीं ।’’ संग्रह की लघुकथाएँ जीवन और समाज के तेजी से बदलते परिवेश, समाज की विसंगतियाँ और मुख्य रूप से भ्रष्टाचार की झलकियां प्रस्तुत करती हैं । इन कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि समाज की व्यवस्था की हर विकृति पर रचनाकार की सूक्ष्म और पैनी नजर है । जो कहानियों को गढ़ने की अद्भूत कला को और अधिक धारदार करती है । विषय संबंधित जानकारी, जीवन के विविध खट्टे-मीठे अनुभव और शिल्प का ज्ञान होना अलग बात है किन्तु, इन सबको लघुकथाओं में पिरोना बिल्कुल अलग बात है और श्यामबाबू इस फन में माहिर हैं । 

अनुज्ञा प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस संग्रह की पहली कथा ‘सेवाभाव’ जीवन मूल्यों पर आधारित है । किस तरह आज के दौर में स्वार्थपरता के कारण आपसी रिश्ते टूट रहे हैं । मनुष्य के भीतर संवेदनाओं की नदी सूख रही है । आधुनिक परिवेश में भौतिक प्राथमिकताओं में वृद्धि, मनुष्य की व्यक्तिवादी मनोवृत्तियों के वर्चस्व और शाश्वत सामाजिक मूल्यों के हनन ने पारिवारिक स्थायित्व को बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया है । बतौर जागरूक रचनाकार उनकी सामाजिक चिंता लेखन में स्पष्ट दिखाई देती है । ‘मूल्यांकन’, ‘चिंता’, ‘माफिया’, ‘इमदाद’, ‘सफेदी’, ‘उपहार’, ‘बख्शीश’, ‘तरक्की’, ‘ड्राइंग रूम’, ‘इनायत’, ‘पाँच बर्तन’ आदि कथाएँ दरकते वर्तमान पारिवारिक रिश्तों का चित्रण हैं । आधुनिकीकरण के दौर में रिश्तों के बीच एक अजनबीपन बढ़ता जा रहा है । सहज मानवीय संबंधों की ऊष्णता तेजी से उदासीनता में बदल रही है । धीरे-धीरे संवेदन शून्यता, नि:संगता और जड़ता बढ़ रही है । इसी पर आधारित‘चिंता’ लघु कथा में कैंसर पीड़ित सास के इलाज के लिए बहू अपने गहनों को बेचने से मना कर देती है और साथ ही उनकी सेवा करने से भी । बहू कहती है - ‘‘ मम्मी ने कितने प्यार से गहने दिए थे, मैं इन्हें बेच नहीं सकती । इनको तो.... । और छ: महीने तक गूं- मूत की टहल मुझसे न हो पाएगी । ओफ्फो.....’’(चिंता, पृ०36)

कथनी और करनी, नैतिक और अनैतिक में फर्क को ‘गिरदान’ कहानी के माध्यम से बखूबी रेखाकिंत किया गया है ।‘माफिया’ कहानी में लेखक ने भौतिक भ्रष्टाचार को शिद्दत से अभिव्यक्त किया है । ‘बख्शीश’ कथा में कामवाली बाई को दी जाने वाली साड़ी पाकर अम्मा लक्ष्मी माता से पूरे परिवार की सुख, शांति, ऐश्वर्य और मंगल की प्रार्थना करती हैं । यह कहानी इतनी मार्मिक है कि पाठकों के दिल को छू जाती है । संवेदनहीनता को दर्शाती कथा ‘तरक्की’में मनुष्य तरक्की के लिए अपने मूल्यों, पत्नी,परिवार तक को ताक पर लगा देता है!

संग्रह में अभिव्यंजना शब्द शक्ति से भ्रष्टाचार का कच्चा चिट्ठा प्रस्तुत किया गया है । ‘प्राण प्रतिष्ठा’ और ‘चील्हा अजिया’ कथा में मनुष्य की स्वार्थप्रवृत्ति का वर्णन कर वर्ण व्यवस्था पर रचनात्मक करारा व्यंग्य है । जहाँ मानव धर्म से ज्यादा महत्व जात-पात और ऊँच-नीच को दिया जाता है और जब आवश्यकता होती है तो छूआ-छूत को ताक पर रख दिया जाता है । ‘अब तो निपटा दो’सामाजिक भ्रष्टाचार पर आधारित भावपूर्ण और मार्मिक लघुकथा है जो हृदयरूपी वीणा के तारों को झंकृत कर देती है । एक ओर अपने जवान बेटे की मौत का दु:ख तो दूसरी ओर पत्नी का मंगलसूत्र बेचकर उन पैसों से पंचों, पुलिसवालों और पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टरों को रिश्वत देकर पंचनामा निपटाने की गुहार पाठक के माध्यम से समष्टी से है । ‘समरसता’ के माध्मय से सामाजिक विसंगतियों पर व्यंग्य का तीखा नश्तर चलाया है । ‘अगला कौन’ कथा में एक बार फिर से भ्रष्टाचार का नया उदाहरण दिखाई देता है । योग्य उम्मीदवार के बजाए चाटुकारिता करने वाले उम्मीदवार को पहले से ही सिलेक्ट कर लिया जाता है ।

शिक्षा, पत्रकारिता और सेना जैसे क्षेत्रों की असंगतियों पर भी रचनाकार की लेखनी साधिकार समान रूप से चली 
है । बौद्धिक भ्रष्टाचार अन्य तमाम भ्रष्टाचारों से कहीं अधिक कर्क रोगीय प्राणान्तक है । ‘एक और पन्ना’, ‘इनायत’, ‘गिरदान’, ‘बगुला’आदि कथाएँ शिक्षा व्यवस्था और शिक्षकों के नैतिक पतन का साक्ष्य हैं । साहित्य जैसे पवित्र क्षेत्र में भ्रष्टाचार को दर्शाने में लेखक श्यामबाबू की कलम बेखौफ चली है । ‘चेतना शिविर’ में स्वार्थी वृत्ति का, जिससे कि योगी-साधु भी अछूते नहीं रह सकते हैं, का चित्रण है । आज हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है तो सेना में भी यह अप्रत्यक्ष रूप से अपनी पैठ बना रहा है ।‘जंगल जलेबी’, ‘फैमिली’, ‘झूलाराम’ कथाओं में सेना में होने वाले भ्रष्टाचार और ‘ब्रेकिंग न्यूज’ में लोकतंत्र का चौथा सशक्त स्तंभ कहे जाने वाली मीडिया के बिकाऊ रूप का रेखांकन है । रचनाकार ने इन क्षेत्र की विकृतियों का स्वर बुलंद कर संबंधित लोगों की मनोवृत्ति पर तीखा कटाक्ष किया है ।

 ‘अकाल’ लघुकथा को इसके सीमित अर्थ तक नहीं देखा जा सकता । यह हमारी उस चेतना के अकाल का द्योतक है जहाँ अप्रत्यक्ष के लिए सब कुछ स्वाहा परन्तु जीते जागते इन्सानों के लिए परम्परागत प्राचीरें । रचनाकार लिखता है, ‘‘रात घिर रही थी । असनी महाराज की आज्ञानुसार पॉंच ब्राह्मण कन्याएँ दीया लेकर हेरी जा रही थीं ।’’(अकाल, पृ०46) कहानी में केवल बारिश का ही नहीं बल्कि अकाल है मानवीय संवेदना, नैतिक मूल्यों, आस्था और चेतना का भी । ‘‘एक पाख (पक्ष) बीत गया । कहीं बादल की पुतली नहीं । पता नहीं इन्द्रदेव कहाँ गौतम ऋषि की अनुपस्थिति तलाश रहे हों! हाँ सूर्य देव अवश्य अपनी प्रखर किरणों से सब कुछ स्वाहा.......’’(अकाल, पृ०45)

‘स्वर्ग के ऐजेंट’ में भक्त और भगवान के बीच में बाधक धर्म के ठेकेदारों पर करारा व्यंग्य किया गया है । ‘संयोग’ कथा अप्रत्यक्ष भ्रष्टाचार को दर्शाती है । ‘कल्याण’ कथा भ्रष्टाचार के नए रूप को उजागर करती है । जिसमें अस्था के नाम पर सैकड़ों लीटर किन्तु दूध से महरूम कैल्सियम की कमी और कुपोषण के कारण गरीब गुदिया का बेटा अपाहिज का जीवन जीने को मजबूर है । माँ का दर्जा प्राप्त गाय को किस तरह सत्ता प्राप्ति का साधन बनाया जाता है । ‘पुनर्पाठ’ इसी पर आधारित कथा है । आनर किलिंग जैसे ज्वलंत विषयों को ‘सफेदी’ कथा के माध्यम से उठाया गया है । ‘गुरू’ कहानी में दल-बदलू राजनैतिक भ्रष्टाचार को समेटा गया है ।‘अपाहिज’ कथा में लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि शारीरिक रूप से नहीं बल्कि संकीर्ण मानसिकता वाले लोग असली अपाहिज होते हैं । ‘मुर्दों से डर नहीं लगता’ कथा को पढ़कर ऐसा लगता है मानो कोई सजीव चलचित्र आँखों के सामने चल रहा है । वर्णित दृश्य का वर्णन कुछ ऐसा है कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं । एक ओर रात भर चहल-पहल वाला वेश्यालय है और दूसरी ओर सुनसान श्मशान घाट । किन्तु एक अकेली विधवा स्त्री को भीड़-भाड़ वाली जगह से सुनसान डरावना श्मशान ज्यादा सुरक्षित स्थान लगता है । यही एक ऐसी जगह है जहाँ कोई नहीं आता । ‘‘तुम्हें इन चिताओं और मुर्दों से डर नहीं लगता?’’ पूछने पर वह बताती है कि -‘‘ भइया, इन मुर्दों से क्या डरना.....डर तो इंसानों से लगता है जो न जाने कब क्या कर बैठे.......’’(मुर्दों से डर नहीं लगता, पृ०62) जानवरों से भी खतरनाक मनुष्य के जंगलीपन को बड़े ही साहस के साथ ‘चिड़िया घर’ कहानी पाठकों के समक्ष रखती है । बड़ा भाई अपने छोटे भाई को जोकर के बारे में बताता है कि -‘‘आदमी को विज्ञान में होमोसोपियन्स कहा जाता है । इसके विषय में कहा जाता है कि यह एक सामाजिक पशु है तथा जंगली जानवरों से कम ताकतवर होता है । यह अकेले कुछ नहीं कर सकता । परन्तु अब देखा जा रहा है कि यह करोड़ों लोगों को भुखमरी के मुँह में ढकेल सकता है । उन्हें आपस में लड़वाकर अपनी कुर्सी पर जमा रह सकता है । दैनंदिन परेशानियों से ध्यान हटाने के लिए यद्धोन्माद फैलाना, साम्प्रदायिक दंगों के खेल खेलना अब इसके गुणों में जुड़ने लगे हैं । कुछ न करके सब हथियाना इसका नवाचार बनता जा रहा है ।’’(चिड़िया घर, पृ० 76) ‘तीसरी फसल’ कथा में धान और गेहूँ की फसल के साथ अब तीसरी फसल उगने लगी है वह है भ्रष्टाचार की । ‘इज्जत’ कथा के माध्यम से लेखक की कलम ने उन नेताओं पर प्रहार किया है जो अपनी कुर्सी, सत्ता के मद में इतने अंधे हो जाते हैं कि देश को बेचने से भी पीछे नहीं हटते ।

संग्रह में सम्मिलित अन्य कथाएं भी पठनीय हैं जो प्रशासनिक व्यवस्था, बेटा-बेटी असमानता, जमींदारों की संवेदनहीनता एवं वर्तमान राजनीति, नक्सलवाद जैसी विविध समस्याओं को उजागर करती हैं । संग्रह की अंतिम कथा ‘तेवर’ है । लेखक की शिक्षा तंत्र के अंदरूनी और बाहरी दोनों हिस्सों पर बखूबी नजर है । आज की शिक्षा व्यवस्था विकृत शिक्षा व्यवस्था का कटु सत्य है । इस कहानी में गुरुजी अपने उसूलों से किसी तरह का समझौता करने के बजाए त्यागपत्र देना उचित समझते हैं । शांत ‘सेवाभाव’ के साथ लघुकथा संग्रह की संवेदनशील शुरुआत होती है और नए तेवर के साथ उसका समापन । जो यह दर्शाता है कि सामाजिक विसंगतियों पर कठोर प्रहार करने वाले कलमकार समय के साथ अपने जीवन यापन का तरीका तो बदल सकते हैं किन्तु अपने‘तेवर’ नहीं । श्यामबाबू की कथाएं सिर्फ पाठकीय तोष ही नहीं देतीं बल्कि अन्तर्दृष्टि भी देती हैं । ये पाठक के मन-मस्तिष्क पर ऐसी अमिट छाप छोड़ती हैं कि पाठक सामाजिक विकृतियों पर विचार करने के लिए मजबूर हो जाते हैं । रचनाकार के लेखन में जबरदस्त आग है जो हर अन्याय को जला देना का माद्दा रखती है ।
वर्तमान विकृत भ्रष्ट सोपानी कृत व्यवस्था सर्वाधिक विचारणीय और चिंतनीय विषय है । रचनाकार की सशक्त जागरूक कलम इन खतरों से आगाह कर हमें सावधान करती है । भविष्य की पृष्ठभूमि में हमारे सामाजिक ढांचे, मानवीय संवेदना और संभावित खतरों की ओर इंगित करती इन लघुकथाओं से पाठक सहज जुड़ जाता है । शुरुआत में ही रचनाकार ने स्पष्ट किया है कि -‘‘अन्याय, अत्याचार, द्वेष, मालिन्य की छटपटाहट, दुराग्रहों एवं मरणासन्न दकियानूसी शोषणों को नकार कर संघर्ष के आह्वान की हुंकार और मानवता के सुकून-समता मूलक साम्राज्य की स्थापना का कथ्य । ये आवाजें उत्पीड़न की हैं सो सौन्दर्यमयी नहीं,बेधक ।’’

संग्रह का भाषाई सौंदर्य अद्भूत है । भाषा पात्रों के अनुरूप है जो कथा को सहज और प्रवाहमयी बनाते हैं । पात्रों के अनुकूल भाषा प्रयोग की अद्भूत कला उनकी रचनाओं में स्पष्ट दिखाई देती है । रचनाओं में पात्रों द्वारा समय एवं आवश्यकतानुसार अंग्रेजी,अवधी, बैसवाड़ी, फारसी, उर्दू शब्दों को प्रयोग रचनाओं को जीवंत रूप प्रदान करता है । आंचलिक एवं अरबी भाषा को समझना एक सामान्य पाठक के लिए कई स्थानों पर मुश्किल अवश्य होता है किन्तु कथा का प्रवाह इन मुश्किलों को बहा कर किनारे लगा देता है । संग्रह की अधिकांश रचनाएं कथादेश, हंस, वर्तमान साहित्य, अक्षरपर्व, लहक, जनआकांक्षा, वीणा, साहित्य सरस्वती तथा निकट आदि साहित अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं एवं डिजीटल मंचों पर प्रकाशित हो चुकी हैं और अनेक संस्थाओं ने इन लघुकथाओं को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया है । संग्रह का मुख्य पृष्ठ एवं शीर्षक ‘मुर्दों से डर नहीं लगता’ कौतूहलजनक और रोचक है । संग्रह में वर्णित विसंगतियाँ स्वीकार्यता के स्थान पर विरोध के स्वर अधिक मुखर करती हैं । ये कथाएँ पाठकों को सामाजिक बदलाव के लिए वैचारिक संघर्ष पुष्पित और पल्लवित करती हैं । सामाजिक विषमताओं से मुठभेड़ करती ये लघु कथाएं अपने वितान में बृहद हो जाती हैं ।



पुस्तक - मुर्दों से डर नहीं लगता / लेखक-श्यामबाबू शर्मा प्रकाशक -अनुज्ञा बॉक्स, दिल्ली / मूल्य-175 रूपये
डॉ. निशाली पंचगाम, प्रमुख हिन्दी विभाग, एल.आर.टी कॉलेज, अकोला (महा) 444001, मो. 9823247578

- डॉ. श्यामबाबू शर्मा, शिलोंग, मो. 9863531572

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जयंती पर सादर नमन (विलंबित श्रद्धा सुमन के लिए क्षमा याचना)



आशुतोष आशु ‘निःशब्द’, 
सत्कीर्ति-निकेतन, गुलेर, काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश, मो. 9418049070


बाल साहित्य का सच्चा संत - संतराम वत्स्य

भर्तृहरि ने कहा था - ‘साहित्य, संगीत एवं कला से विहीन मनुष्य साक्षात पशु के समान होता है ।’ यह कथन सही ही है । साहित्य हमें साथ चलना सिखाता है । चलते-चलते यदि मार्ग में शिथिलता अनुभव होने लगे तो संगीत की स्वर लहरियां हमारे शरीर में ऊर्जा का संचार करने लगती हैं । कलात्मकता हमें जीवन को एक भिन्न दृष्टिकोण से देखना सिखाती है । कुल मिलाकर सृजन की यह तीन विधाएँ हमारे जीवन को विविधता से सराबोर रखती हैं; जीवन गतिमान रहता है । 

इन तीन विधाओं में से किसी एक विधा को विशेष कहना अन्याय होगा । क्योंकि तीनों का महत्व इनकी स्वतंत्र विशेषता में समाहित है । अपितु फिर भी जीवन को सार्थकता प्रदान करने की दृष्टि से साहित्य के योगदान को हम महत्वपूर्ण अवश्य कह सकते हैं । क्योंकि साहित्य सहयोग की अपेक्षा रखता है । तथा समाज को एकजुट बनाए रखने में सहयोग की भूमिका महत्वपूर्ण है । साहित्य में यदि सहयोग नहीं तो सारा प्रयास निरर्थक सिद्ध होने का खतरा सदैव बना रहेगा । 

सहयोग का अभिप्राय यहाँ एक दूसरे के सृजन की अनावश्यक प्रशंसा करने के अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए । अपितु तात्पर्य केवल इतना है कि एक व्यक्ति संसार में विद्यमान समस्त विषयों को अपनी लेखनी के माध्यम से समायोजित कर पाने में असमर्थ रहेगा । अतः आने वाली पीढ़ियों के उत्कर्ष के दृष्टिगत साहित्य समायोजन हेतु अनगिनत लेखनियों की आवश्यकता सदैव बनी रहेगी । इसलिए प्रत्येक रचनाकार का सम्मान अवश्य किया जाना चाहिए । साथ ही, घटनाओं को संजोए रखने में प्रयत्नशील पूर्ववर्ती क़लमों को याद रखना भी उतना ही महत्वपूर्ण साहत्यिक-सहयोग कहलाएगा । 

भारतीय परिदृश्य में राष्ट्रीय स्तर पर साहित्य-सृजन के दृष्टिगत हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य का योगदान निश्चित ही सराहनीय तथा महत्वपूर्ण कहा जाना चाहिए । भौगोलिक परिसीमन सीमित होते हुए भी सृजनात्मकता का विस्तृत व्योम हिमाचली साहित्य की विशेषता है । ऐसे ही एक विशिष्ट हिमाचली साहित्यिक-रत्न थे संतराम वत्स्य । 

स्वर्गीय संतराम वत्स्य ने पालमपुर से सटे एक छोटे से गांव, धनीरी में स्वर्गीय श्री मंगतराम तथा श्रीमती जानकी देवी की संतान के रूप में 12 मई 1923 को जन्म लिया । साधारण पारिवारिक पृष्ठभूमि से संबंधित होना ही संतराम की विशेषता कहें तो अतिशयोक्ति न होगी । 

जीवन की साधारण परिस्थितियां हमें संघर्षों से दो-चार होने की शिक्षा प्रदान करती है । संघर्षों की भट्टी से तप कर निकला व्यक्तित्व धरातल की सच्चाई से अवगत रहता है । वह गांव के सीमित परिवेश तथा ग्रामीण संकोची स्वभाव - दोनों से भलीभांति परिचित होता है । संतराम वत्स्य के समग्र लेखन का यदि सूक्ष्म अध्ययन करें तो उक्त बातें उनके लेखन में प्रमुखता से उभर कर सामने आती हैं । 

संतराम वत्स का लालन-पालन उनकी मां ने किया । ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनके पिता का देहांत संतराम की बाल्यावस्था में ही हो चुका था । अब यदि वत्स्य के लेखन का अवलोकन एक अन्य आयाम से करें तो हम उनके लेखन में मां की शिक्षाओं को प्रतिबिंबित होते स्पष्ट देख पाएंगे । 

व्यवहारोपयोगी शिक्षा, कथा-कहानियां, संस्कृति, प्रेरक-प्रसंग तथा प्रेरणादायी व्यक्तित्वों का चिंतन एवं मनन - ये सभी मातृज-भाव वत्स्य ने अपनी रचनाओं में भरपूर चित्रित किए । उनकी अधिकांश सृजनात्मकता उक्त विषय वस्तुओं की परिधि का अनुगमन करती है । स्पष्ट है, माँ जिस कच्चे घड़े को अपनी हथेलियों में सहेज कर शिक्षा की थाप से समाजोपयोगी आकार देने में प्रयासरत थी, वह प्रयास अंततः सफल रहा । समय बीतने पर उस पक्के घड़े ने भी समाज में साहित्य के रस को भरपूर लुटा कर माँ की मेहनत को सार्थकता प्रदान करने में कोई कसर नहीं रखी । 
जिस कालखंड में वत्स्य का जन्म हुआ था, वह काल भारत की आर्थिक दृष्टि से अनुकूल समय नहीं था । देश ब्रिटिश अत्याचारों से त्रस्त था एवं विभाजन की काली छाया गहरा रही थी । जैसा उस पीढ़ी के अधिकांश बच्चों के साथ हुआ, वही विडंबना संतराम के भी हिस्से आयी । 

आय के साधन सीमित होने के कारण पढ़ाई बीच में छोड़ कर वत्स्य ने काम की तलाश में लाहौर की गाड़ी पकड़ी । हालांकि अब तक वे सनातन धर्म संस्कृत कॉलेज, होशियारपुर से विशारद की उपाधि अर्जित कर चुके थे । अतः लाहौर में उन्हें आर्य प्रतिनिधि सभा में कार्य करने का अवसर प्राप्त हो गया । 

1947 में देश-विभाजन के पश्चात वह दिल्ली आ गए । यहाँ भी राजपाल एंड संस में बतौर प्रूफ्रीडर कार्य करते रहे । कालांतर में उन्होंने बाल-साहित्य के क्षेत्र में बतौर लेखक विशेष ख्याति अर्जित की । अपने जीवन काल में लगभग डेढ़-सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित करने की उपलब्धि भी उनके नाम दर्ज है । 

वत्स्य के लेखन कौशल की बात करें तो उनकी शैली में एक सहज सुलभता दृष्टिगोचर होती है । सहजता से तात्पर्य यह है, कि उन्होंने रचनाओं में छोटे वाक्य विन्यास के माध्यम से अपनी बात सामान्य बोलचाल के शब्दों में पाठकों के समक्ष रखी । सहज शब्दों का प्रयोग करते हुए कहानियों को सामान्य पाठक की दृष्टि से सुरुचिपूर्ण बनाने का महती प्रयास किया । 

उनका यह कार्य अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि जिस समय वे लेखन की प्रक्रिया से गुजर रहे थे, वह काल हिंदी का संकर काल रहा । हिंदी एवं हिंदवी में जारी रस्साकशी के बीच वत्स्य की लेखनी में मध्यम मार्ग के दर्शन होते हैं । 

दूसरा कारण, रचनात्मकता की प्रयोगशाला में वत्स्य अपने पाठक-वर्ग की सीमाओं को विस्मृत नहीं होने देते । बालकीय अभिरुचियों के अनुरूप उनकी पुस्तकों में रेखाचित्रों को भी स्थान प्राप्त रहा । अतः यह कहा जा सकता है कि वत्स्य के मस्तिष्क में रचनात्मकता के साथ-साथ पाठकवृंद की आवश्यकता भी स्पष्ट थी । 

‘अच्छी कहानियाँ’ शीर्षक से संपादित पुस्तक में जातक कथाओं के साथ-साथ नैतिक शिक्षा से परिपूर्ण प्रेरणादायी कहानियों को संकलित किया गया है । ‘बचपन की कहानियाँ’ शीर्षक से छपी पुस्तक में शरत् बाबू की कहानियों का अनुवाद है । ‘बड़ों की कहानियाँ’ पुस्तक में महान व्यक्तियों के व्यक्तित्व को संकलित किया गया है । यह पुस्तक दिल्ली राज्य के स्कूलों की तीसरी कक्षा के लिए टेक्सबुक कमेटी द्वारा अनुशंसित की गई थी । 1961 ईस्वी में इस पुस्तक का तीसरा संस्करण प्रकाशित हो चुका था । पांडव अग्रज युधिष्ठिर से लेकर, गुरु नानक देव जी तथा स्वामी विवेकानंद एवं गोपाल कृष्ण गोखले प्रभृति जननायकों के बाल्यकाल की अद्भुत घटनाओं को कहानियों के माध्यम से ‘बड़ों की कहानियाँ’ पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है । 

वत्स्य ने अपने साथ-साथ अपनी धर्म पत्नी को भी लेखन में प्रोत्साहित किया । ‘चंद्रहास’ नामक पुस्तक उनकी पत्नी लज्जावती द्वारा लिखी गई है । इसी प्रकार उनकी एक अन्य पुस्तक ‘चरित्र निर्माण की कहानियाँ’ भी प्रेरक प्रसंगों का संकलन है । 

संतराम वत्स्य के समग्र उपलब्ध साहित्य पर गहन मंथन करने पर जो एक बात स्पष्ट रूप से सामने आती है, वह यह, कि उनकी सृजनात्मकता का स्वरूप - संस्कार, परिमार्जन, परिशोधन, संपादन एवं संकलन पर आधारित है । 

सुनी-सुनाई कहानियों, लोक-संस्कृति में प्रचलित गाथाओं एवं जननायकों की परिधि में गढ़े गए कथानकों को आधार बनाकर किया गया सृजन, समाजोपयोगी पठनीय सामग्री से परिपूर्ण है । परंतु साहित्य यदि वास्तव में सृजन की मौलिकता के दर्शन पर स्थापित है, उस दृष्टि से, हमारे समक्ष कोई मौलिक सृजनात्मकता दृष्टिगोचर नहीं होती । 

हालांकि इस कथन का दूसरा पक्ष यह भी कहा जा सकता है कि बालोपयोगी साहित्य में साहित्यिक मौलिकता से अधिक, रचना में समाहित जीवन उपयोगी संदेश एवं शिक्षा, अधिक महत्वपूर्ण होते हैं । उस दृष्टि से स्वर्गीय संतराम वत्स्य के बाल साहित्य को सुरुचिपूर्ण कहना तर्कसंगत होगा । 

21 मार्च 1988 को हृदयाघात के कारण हिमाचल ने इस प्रगतिशील साहित्यकार को खो दिया । अपने पीछे वे सांस्कृतिक बाल-साहित्य का एक बड़ा जखीरा छोड़ गए । परिवार के सदस्यों ने वत्स्य जी के नाम से एक वेबसाइट बनाकर उनका समग्र साहित्य जनता को समर्पित करके एक विलक्षण श्रद्धांजलि अर्पित की है । हम सबको संतराम वत्स्य के साहित्य को अवश्य पढ़ना चाहिए । बालकों को स्वर्गीय वत्स्य जी के साहित्य को पढ़ने की प्रेरणा प्रदान करके हम एक सुन्दर समाज की कल्पना तथा नवोदित पीढ़ी में नैतिकता का अनुप्राणन अवश्य कर सकते हैं । एक साहित्यकार के प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी । 

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रिपोर्ट

स्वयं प्रकाश

स्वयं प्रकाश स्मृति सम्मान के लिए प्रविष्टियां आमंत्रित



दिल्ली । साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत संस्थान ’स्वयं प्रकाश न्यास’ ने सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्वयं प्रकाश की स्मृति में दिए जाने वाले वार्षिक सम्मान के लिए प्रविष्टियां आमंत्रित की हैं । न्यास के अध्यक्ष प्रो मोहन श्रोत्रिय ने बताया कि राष्ट्रीय स्तर के इस सम्मान में क्रमशः कहानी, उपन्यास और नाटक विधा की किसी ऐसी कृति को दिया जाएगा, जो सम्मान के वर्ष से अधिकतम छह वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई हो । 2023 के सम्मान के लिए 1 जनवरी 2019 से 31 दिसंबर 2022 के मध्य प्रकाशित पुस्तकों पर विचार किया जाएगा । इस वर्ष यह सम्मान उपन्यास विधा को दिया जाएगा । कृतिकार की आयु सीमा 50 वर्ष रखी गई है । 

सम्मान के लिए तीन निर्णायकों की एक समिति बनाई गई है जो प्राप्त प्रस्तावों पर विचार कर किसी एक कृति का चुनाव करेगी । सम्मान में ग्यारह हजार रुपये, प्रशस्ति पत्र और शॉल भेंट किये जाएंगे । 

प्रो श्रोत्रिय ने बताया कि मूलत: राजस्थान के अजमेर निवासी स्वयं प्रकाश हिंदी कथा साहित्य के क्षेत्र में मौलिक योगदान के लिए जाने जाते हैं । उन्होंने ढाई सौ के आसपास कहानियाँ लिखीं और उनके पांच उपन्यास भी प्रकाशित हुए थे । इनके अतिरिक्त नाटक, रेखाचित्र, संस्मरण, निबंध और बाल साहित्य में भी अपने अवदान के लिए स्वयं प्रकाश को हिंदी संसार में जाना जाता है । उन्हें भारत सरकार की साहित्य अकादेमी सहित देश भर की विभिन्न अकादमियों और संस्थाओं से अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले थे । उनके लेखन पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हुआ है तथा उनके साहित्य के मूल्यांकन की दृष्टि से अनेक पत्रिकाओं ने विशेषांक भी प्रकाशित किए हैं । 20 जनवरी 1947 को जन्मे स्वयं प्रकाश का निधन कैंसर के कारण 7 दिसम्बर 2019 को हो गया था । 

प्रो श्रोत्रिय ने बताया कि बनास जन के सम्पादक और युवा आलोचक डॉ पल्लव को ’स्वयं प्रकाश स्मृति सम्मान’ का संयोजक बनाया गया है, वे इस सम्मान से सम्बंधित समस्त कार्यवाही का संयोजन करेंगे । सम्मान के लिए प्रविष्टियाँ डॉ पल्लव को 15 अगस्त 2023 तक बनास जन के पते (393, डीडीए, ब्लॉक सी एंड डी, शालीमार बाग़, दिल्ली -110088) पर भिजवाई जा सकेगी । साहित्य और लोकतान्त्रिक विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए गठित स्वयं प्रकाश स्मृति न्यास में कवि राजेश जोशी(भोपाल), आलोचक दुर्गाप्रसाद अग्रवाल (जयपुर). कवि-आलोचक आशीष त्रिपाठी (बनारस), आलोचक पल्लव (दिल्ली), इंजी. अंकिता सावंत (मुंबई) और अपूर्वा माथुर (दिल्ली) सदस्य हैं ।

 प्रो. मोहन श्रोत्रिय , अध्यक्ष, स्वयं प्रकाश स्मृति न्यास, मो. 9783928351 

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रिपोर्ट

वर्ष 2021 तथा 2022 के लिए शिवना प्रकाशन के प्रतिष्ठित सम्मानों की घोषणा




प्रेस विज्ञप्ति सादर प्रकाशनार्थ
सीहोर / भोपाल
04/07/2023

'अंतर्राष्ट्रीय शिवना सम्मान' हरि भटनागर तथा नीलेश रघुवंशी को, 'शिवना कृति सम्मान' अवधेश प्रताप सिंह, ओमप्रकाश शर्मा तथा आदित्य श्रीवास्तव को शिवना प्रकाशन द्वारा दिए जाने वाले प्रतिष्ठित सम्मानों की घोषणा कर दी गयी है । शिवना प्रकाशन द्वारा पिछले कुछ वर्षों से दिये जा रहे इन सम्मानों का साहित्य जगत् को बेसब्री से इंतज़ार रहता है । शिवना प्रकाशन के ऑनलाइन आयोजन में वर्ष 2021 तथा 2022 के लिए पाँच लेखकों को यह सम्मान दिये जाने की घोषणा की गयी है ।

शिवना सम्मानों के लिए बनायी गयी चयन समिति के संयोजक, पत्रकार तथा लेखक आकाश माथुर ने जानकारी देते हुए बताया कि शिवना द्वारा दो सम्मान प्रदान किये जाते हैं । एक 'अंतर्राष्ट्रीय शिवना सम्मान' जो वर्ष भर में सभी प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित साहित्य की सभी विधाओं की पुस्तकों में से निर्णायकों द्वारा चयनित एक पुस्तक को प्रदान किया जाता है । तथा दूसरा 'शिवना कृति सम्मान' जो वर्ष भर में शिवना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में गुणवत्ता तथा विक्रय के सम्मिलित आधार पर एक पुस्तक को प्रदान किया जाता है । वर्ष 2021 तथा 2022 के लिए इन सम्मानों की घोषणा हिन्दी की वरिष्ठ लेखिका तथा शिवना प्रकाशन संचालक मंडल की सदस्य सुधा ओम ढींगरा ने ऑनलाइन की । वर्ष 2021 के लिए 'अंतर्राष्ट्रीय शिवना सम्मान' शिवना प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास 'दो गज़ ज़मीन' के लिए हिन्दी के प्रतिष्ठित कथाकार हरि भटनागर को प्रदान किया जायेगा । वर्ष 2021 के लिए 'शिवना कृति सम्मान' दो पुस्तकों यात्रा संस्मरण 'नर्मदा के पथिक' के लिए लेखक ओमप्रकाश शर्मा को तथा शोध रिपोर्ताज 'वैक्सीन से वायरस तक' युवा पत्रकार, लेखक आदित्य श्रीवास्तव को संयुक्त रूप से प्रदान किया जायेगा । वर्ष 2022 के लिए 'अंतर्राष्ट्रीय शिवना सम्मान' राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास 'शहर से दस किलोमीटर' के लिए हिन्दी की प्रतिष्ठित कवयित्री नीलेश रघुवंशी को प्रदान किया जायेगा । वर्ष 2022 के लिए 'शिवना कृति सम्मान' विधानसभा तथा लोकसभा की कार्यवाही को लेकर प्रकाशित महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'विधानमण्डल पद्धति एवं प्रकिया' के लिए मध्यप्रदेश विधानसभा के प्रमुख सचिव अवधेश प्रताप सिंह को प्रदान किया जायेगा । ऑनालाइन इन सभी सम्मानों की घोषणा करते हुए सुधा ओम ढींगरा ने सभी सम्मानित होने वाले लेखकों को बधाई प्रदान की । इस अवसर पर साहित्यकार पंकज सुबीर तथा शिवना प्रकाशन के संचालक शहरयार भी ऑनलाइन आयोजन में उपस्थित थे । आकाश माथुर ने बताया कि शीघ्र ही एक गरिमामय सम्मान समारोह में इन सभी सम्मानित रचनाकारों को यह सम्मान प्रदान किये जायेंगे।
आकाश माथुर, चयन समिति संयोजक, शिवना सम्मान, मोबाइल - 7000373096, व्हाट्सएप - 8817222209
शहरयार, संचालक - शिवना प्रकाशन, मोबाइल - 9806162184

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संस्मरण एवं श्रद्धांजलि : आएँ हैं तो जाएँगे, राजा-रंक-फकीर



डॉ. प्रणव भारती, अहमदाबाद, मो. 99405 16484

जीवन के इस किनारे पर आकर उपरोक्त पंक्ति का सत्य समझ में आने लगता है और मन जीवन की वास्तविकता को स्वीकार करने लगता है । मन में आता है जाने-अनजाने हुई त्रुटियों की सबसे क्षमा माँग ली जाए, न जाने कौनसा क्षण हो जब -- 
जब मनुष्य के हाथ में ही कुछ नहीं तो कर क्या लेंगे ? केवल इसके कि परिस्थितियों में विवेकी बनकर रह सकें । फिर भी आसान नहीं होता कुछ परिस्थितियों को सहज ही ले लेना । कहीं न कहीं बेचेनी उमड़-घुमड़कर मन में बार-बार सूईं सी चुभती रहती हैं । बड़ी कठिनाई से मन को वश में करके नॉर्मल होने या दिखने का प्रयास खोखला लगने लगता है । जबकि होना तो यह चाहिए कि सामने होती घटनाओं से असहज हो भी जाएँ तो कुछ समय बाद पुन: नॉर्मल होने का प्रयास कर सकें । क्योंकि ‘होई है वही जो राम रचि राखा ‘ सुनते, रटते जीवन व्यतीत हो गया लेकिन सूनी दृष्टि से शून्य को निहारता मन भीतर से छटपटा ही जाता है । 

पिछली बार की लहर से कहीं अधिक विकराल है यह लहर ! पिछले चार-पाँच दिनों में न जाने कितने –कितने दिल दहला देने वाले समाचार सुनकर, नॉर्मल रहने के प्रयास ने एक अजीब सी अशक्यता, असहजता को जन्म दे दिया है । मेरे बहुत से दोस्त या एफ.बी मित्र जब मुझसे बात करते हैं, अपने डिप्रेशन की, मैं कोशिश करती हूँ कि उन्हें उस मानसिक अवस्था से दूर करने में उनकी सहायता कर सकूँ । मुझे खुशी भी होती है जब वे मुझसे अपने मन की बात सांझा करते हैं, दीदी आपकी बातें सुनकर अच्छा लगता है । मेरे पास स्नेह, प्यार, सहानुभूति के अतिरिक्त और कुछ तो है नहीं । उनके शांत होते हुए मन की आवाज़ सुनकर मेरे मन का एक कोना सुख से भीगने लगता है लेकिन फिर भी मन है, कभी न कभी बिखरने की स्थिति में आ जाता है । 

इस महाकाल ने न जाने कितनों को लील लिया है, बेशक हम यह समझ रहे हैं कि इस सबमें मनुष्य की गलतियाँ रही हैं लेकिन अभी जो अंजाम हो रहा है वो तो कल्पनातीत है । आज किसी के जाने की ख़बर सुनते ही सबसे पहले प्रश्नचिन्ह सामने आ खड़े होते हैं । 

साहित्य –जगत की अपूरणीय क्षतियों के बारे में सुनते ही, उनसे जुड़ी बातें याद न आना नामुमकिन है । अपनी साहित्यिक-यात्रा के नाम पर मैंने कोई इतनी बड़ी उपलब्धि तो हासिल नहीं की किन्तु मैं जिन उच्च स्तरीय कवियों व साहित्यकारों से मिल पाई, वे सब मुझे रह रहकर स्मृतियों में घसीट रहे हैं । अभी दो, ढाई वर्ष पूर्व ही मैं आख़िरी बार डॉ. कुंवर बेचैन से मिली । उनसे मिलने की कहानी मुझे पीछे खींचकर ले जा रही है । 87 /88 की बात होगी जब मैं उनसे पहली बार गाजियाबाद रूबरू हुई । मेरी बेटी श्रद्धा, दामाद मनीष काम के सिलसिले में अहमदाबाद से गाजियाबाद चले गए थे । स्वाभाविक था हम लोग साल में एक-दो बार तो वहाँ जाते ही हैं । 
                                                 
गाज़ियाबाद जाकर मैंने डॉ . बेचैन को केवल एक फ़ोन किया और अगले दिन वे मेरे सामने थे । मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि वे पता पूछते हुए पैदल ही बेटी के घर तक आ गए थे । उनसे यह पहली मुलाक़ात मैं इसलिए कहती हूँ कि बेशक कवि-सम्मेलनों के मंच पर मैं उनसे अहमदाबाद में मिल चुकी थी किन्तु चर्चा के लिए न तो कोई अवसर होता था, न ही समय ! कार्यक्र्म समाप्त होते ही हमें छोड़ने के लिए गाड़ी तैयार रहती और कभी डिनर किए बिना भी दूर से नमस्ते करके हम चले आते, उस समय वे प्रशंसकों में घिरे रहते थे । 





गाज़ियाबाद में एक अनौपचारिक मुलाक़ात हुई और तबसे कई बार किसी न किसी मंच पर दिल्ली, अहमदाबाद, बड़ोदा के कवि-सम्मेलनों में उनसे मिलना होता रहा । सन तो याद नहीं है लेकिन एक बार बड़ौदा के ओ.एन.जी.सी के कवि-सम्मेलन में देर रात तक चलते कार्यक्र्म में मुझे माँ शारदे की वंदना का सुअवसर प्राप्त हुआ जिसकी डॉ. बेचैन व डॉ . मिश्र से प्रशंसा सुनकर मैं प्रसन्न जो उठी थी, उसके बाद रचना भी पढ़ी मैंने । उस समय मंच पर डॉ . बुद्धिनाथ मिश्र जी भी थे । डॉ . बेचैन की सागर व नदिया वाली रचना मैंने पहली बार सुनी थी । ‘पानी की कलाई हूँ’ ने मन में जो चित्र उकेरा उसे मैं अपने कमरे में आकर भी दिमाग से उतार न सकी । नदिया शब्द मेरे मन में उमड़-घुमड़ करता ही रहा उस दिन मैं सो नहीं पाई, कुछ लिखती, काटती –पीटती रही । एक गीत जैसा कुछ बना भी ‘तृप्त सागर के सिरहाने, एक नदिया आनमनी है । ‘

सुबह नाश्ते पर मैंने उनको बताया कि मैंने उनका शब्द ‘नदिया’ चुरा लिया है । 

उन्होने कहा कि मैं रचना सुनाऊँ लेकिन वह इतनी कच्ची रचना थी कि मैं उस समय सुनाने का साहस नहीं कर सकी । ख़ैर बात आई-गई हो गई । 

बहुत वर्षों बाद एक बार अहमदाबाद के दूरदर्शन में बाहर के कवियों के खूबसूरत रचना-पाठ से मन तृप्त हुआ । उस बार बलकवि बैरागी जी भी सप्त्नीक थे । बैरागी जी से मेरा व माँ का परिचय तबका था जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी । ख़ैर, उस दिन न जाने क्या हुआ डॉ . बेचैन व उनके साथ एक और कवि थे, जिनका नाम मुझे याद नहीं है, उन लोगों के ठहरने की व्यवस्था में कुछ गड़बड़ी थी । उनकी अगले दिन सुबह की ट्रेन की बुकिंग थी । 

 मैंने उन्हें अपने घर चलने का अनुरोध किया । घर तो ले आई लेकिन उनके कपड़ों का बैग किसी और के साथ चला गया था । मैंने अपने पति के कुर्ते टटोले, धुले-प्रेस किए हुए तो मिल गए लेकिन एक कुर्ते की जेब उधड़ी हुई थी जिसे मैंने किसी तरह सिलकर ठीक किया और वो कुर्ता बेचैन जी को दिखा भी दिया । उन्होने हँसकर कहा कि इसमें उन्हें खज़ाना थोड़े ही रखना है । उस रात उनसे मेरे पूरे परिवार ने शायद रात के 2/3 बजे तक कविताएँ सुनीं । उनके कहने पर उस दिन बड़ौदा में लिखा गया कच्चा-पक्का गीत सुनाया जो दरअसल मेरे पति को बहुत पसंद था । 

बाद में कई वर्षों के अंतराल में उनसे मिलना हुआ और अंत में जब मैं इनके न रहने के बाद अपने दामाद, बेटी के साथ हरिद्वार, ऋषिकेष गई और वहाँ अपने भाई जयवीर के पास दो माह रही तब अयन प्रकाशन के कार्यक्र्म से पूर्व एक छोटी सी गोष्ठी उनके घर पर हुई जिसमें मेरे साथ मेरे बेटे जैसा भाई प्रिय प्रताप भी था । उस समय भाभी जी बीमार चल रही थीं । इससे पूर्व मैं उनकी बेटी से गाज़ियाबाद के एक कार्यक्रम में मुलाक़ात हो चुकी थी । 
अयन प्रकाशन में हुई उनसे अंतिम मुलाक़ात थी । अयन प्रकाशन के भूपि सूद जी डॉ . बेचैन के समीपी मित्रों में से थे, कुछ दिनों बाद उन्हें भी ईश्वर ने अपने पास बुला लिया । 

मैं इस विषय पर बिल्कुल कुछ भी नहीं लिखना चाहती थी किन्तु न जाने क्यों, शायद स्वयं को सहज करना चाहती थी या न जाने क्या भरा था मन में ! कुछ दिनों बाद जब कुमार विश्वास ने ट्वीट किया था कि डॉ . बेचैन को अस्पताल में बैड नहीं मिल रहा है । रोहित अवस्थी ने बताया । मैंने तुरंत प्रवीण कुमार जी को गाज़ियाबाद में फ़ोन लगाकर बात की, मेरे सामने उनका मुस्कुराता चेहरा घूम रहा था । प्रवीण जी से भी मेरी मुलाक़ात दो ढाई वर्ष पूर्व हुई थी और उनके निमंत्रण पर मैं गाज़ियाबाद उनकी संस्था के कार्यक्रमों में गई भी थी । उन्होंने मुझे बताया कि बेचैन जी को बैड मिला गया है । 

मैं तो सोच रही थी कि अब तक वे अपने परिवार के पास सुरक्षित पहुँच गए होंगे लेकिन कुमार विश्वास का ट्वीट फिर रोहित ने मेरे पास भेजा और मैं प्रवीण जी को फ़ोन कर बैठी । 

“ये सच है क्या ?”पता नहीं मैंने कुछ ऐसा ही उनसे पूछा था । 

“हमारे पिताजी के बारे में ?”मैं और भी चौंकी । मन व्यथित हुआ जब उन्होंने बताया कि कल ही उनके पूज्य पिता जी उन्हें छोड़कर चले गए हैं । मैंने धीरे से उन्हें बताया कि मैं नहीं जानती थी । मेरे मुँह से बेचैन जी की बारे में भी निकल गया बाद में अफ़सोस भी हुआ, वो बेचारे खुद ही अपनी पीड़ा में थे । 

 ईश्वर सभी दिवंगत आत्माओं को अपनी शरण में लें, हमारे पास केवल प्रार्थना के शब्दों के अतिरिक्त कुछ नहीं है । यहाँ आकर ‘मैं ये, मैं वो’ सब धराशायी हो जाता है । 

मन व्यथिय है शायद यह सब इसीलिए लिखा गया । 

सर्वे भवन्तु सुखिन :

पूरे विश्व पर से घोर विपत्ति हटाओ प्रभु, बहुत सज़ा हो गई । जो बीमार हैं, उन्हें स्वस्थ्य करें प्रभु । 
हम सबकी सामूहिक प्रार्थना स्वीकार करें । 

ॐ शांति :

नमन

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समीक्षा

अवधबिहारी पाठक, सेंवढ़ा, जिला दतिया (म.प्र.), मो. 9826546665


सुश्री सुदर्शन प्रियदर्शिनी

पुरोवाक्


प्रत्येक रचना धर्मिता का अपना एक लक्ष्य होता है । यह पुस्तक भी एक उद्देश्य लेकर चली है और उस तक पहुँचने के लिए थोड़ा पीछे चलकर विचार करना होगा, तो तथ्यों तक पहुँचने में सुविधा होगी ।

प्रसिद्ध बंगला उपन्यासकार शरतचन्द्र ने आधीसदी पूर्व एक उपन्यास 'देवदास' लिखा था और उसमें व्यक्ति और प्रेम के अन्तर्सम्बन्धों को नये परिप्रेक्ष्य में देखा गया है । रचना के पात्र 'देवदास' और 'पार्वती' के प्रेमिक आयामों की सफलता या असफलता के बीच प्रेम की शाश्वता को मानव जीवन में स्थान दिया गया है । सांसारिक सम्बन्धों के तेवर भले ही बदले हों परन्तु वह प्रेम की आँच कभी धीमी नहीं पड़ी जो जिन्दगी को डोर बन गई साहित्य जगत में इस रचना का समादर हुआ ।

कालान्तर में इसी उपन्यास की मूल कथा में आंशिक परिस्थितिजन्य परिवर्तन करके 'देवदास' फिल्म बनी और सफल रही । इसके कुछ ही समय बाद ‘“देवदास” नाम से दूसरी फिल्म भी बनी । इनसे साहित्य और समाज तथा चलचित्रों की दुनिया ने प्रेम के मूल तत्व को पहिचानने की कोशिश की । परन्तु 'देवदास' और 'पार्वती' के प्रेम की पवित्रता और कर्तव्यनिष्ठा के द्वंन्द में डूबा भारतीय साहित्य का जनमानस उद्देलित ही होता रहा, परिणामतः इसी 'देवदास' के कथानक पर आधारित एक रचना आयी इसे पूर्व नाम की जगह 'पारो' नाम दिया गया । लेखक सुदर्शन प्रियदर्शनी ने इसे एक नई दृष्टि से देखा । 'पारो' में शरत की मूल कथा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया । 'देवदास', 'पारो' और 'चन्द्रमुखी' के चिन्तन, लोकव्यवहार, पारिवारिक सम्बन्धों के निर्वाह के बीच प्रेम की शाश्वतताः को कायम रखा गया, किन्तु 'पारो' में 'पारो' और उसका पति दोनों अपनी-अपनी जगह खुद से पराजित दिखे । इसे मानवीय अन्तर्मन की विडम्बना ही कहा जा सकता है ।


इस पुस्तक में 'पारो' उपन्यास पर केन्द्रित समीक्षा-निबन्धों को एक स्थान पर संग्रहीत किया गया है । इससे 'पारो' को समझने में निम्नबिन्दु उभरकर आये -

  1. कुछ समीक्षकों ने 'पारो' के 'देवदास' के प्रति प्रेम को उचित और शाश्वत माना ।
  2. कुछ विद्वानों ने 'देवदास' की प्रेम के प्रति धारणा को लौकिक जीवन के तारतम्य में एक व्यवहारिक रूप में देखा । जो सामाजिक जीवन में नितान्त जरूरी है ।
  3. पारिवारिक जीवन के बीच दाम्पत्य का ध्रवीकरण करने की आवश्यकता पर भी कुछ विद्वानों का ध्यान गया है ।
  4. स्त्री अस्मिता के पक्ष में कुछ समीक्षकों ने अपना मत प्रस्तुत किया जो आज के समय की माँग है ।
  5. कृतिकार अपनी स्थानाओं एवं चरित्र विकास में पात्रों के आग्रह- पूर्वाग्रहों से कितना प्रभावित रहा इसे महत्व दिया । साथ ही कुछ स्थानों पर साहित्यिक समीक्षा बोधा के कारण समीक्षकों ने कहीं सहमति जताई तो कहीं नकार दिया । जो कृति और उसके महत्व को प्रदर्शित करता है ।
  6. उपन्यासकार की स्थापनाएँ या फिर पात्रों के अपने-अपने नैतिक आदर्श, या फिर सामाजिकता के सम्बन्धों का निर्वाह, या फिर मानवीय अन्तर्मन की हिलारों से प्रभावित होकर सर्वमान्य बन सका ।
 इस आलोचकीय संग्रह का लक्ष्य लेखकीय रचनात्मकता और किसी भी उधेड़बुन से दूर मर्म स्थलीय केन्द्रीयता की तलाश है । इस संपादन से 'पारो' के प्रति विद्वानों का समवेत स्वर सामने आकर नारी जाति की संवेदना के पक्ष को मजबूत करेगा ।






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चर्चा के बहाने

रेनू यादव
असिस्टेन्ट प्रोफेसर
भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, 
यमुना एक्सप्रेस-वे, गौतम बुद्ध नगर, 
ग्रेटर नोएडा – 201 312
ई-मेल- renuyadav0584@gmail.com

कहानी - वायदा खिलाफ
लेखक- नफ़ीस आफ़रीदी 
कहानी-संग्रह – बाबू की बगिया 
संस्करण – प्रथम, 2009
प्रकाशक – हिन्द पॉकेट बुक्स, दिल्ली


क्रांति अभावों एवं दमन के कोख से निकलती है

कहानी सिर्फ घटनाओं का कोलाज नहीं है बल्कि मानवीय संवेदनाओं का वह वंचित पक्ष है जिसे लेखक अपनी कहानियों में उद्धृत करता है और मनुष्य को उसका स्वर प्रदान करता है । मानवीय संवेदनाओं की गहराई ही लेखक को समय से परे ले जाती है और कहानी को प्रासंगिक भी बनाती है । ऐसी ही कहानी है ‘वायदा-खिलाफ’ । 
‘वायदा-खिलाफ’ एमरजेंसी के समय की कहानी है, जब सरकार विरोधी प्रक्रियाओं एवं बातों पर पूरी तरह से रोक लग गई थी । झुग्गी-झोपड़ियों पर बुलडोजर चल रहा था और आवाज़ उठाने वाले के अस्तित्व को कुचल दिया जा रहा था । ऐसे में गरीब जनता की पीड़ा कोई नहीं सुन रहा था । ज़ाहिर-सी बात है कि जिसे समस्या है वही आवाज़ उठायेगा और वही कुचला जायेगा । 

क्रांति अभावों एवं दमन के कोख से निकलती है । वायदा खिलाफ का नायक भी शिवगढ़ी बस्ती का लड़का है, जो कॉलेज में अपनी पढ़ाई को दरकिनार कर अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलन्द करता है, जिस कारण वह बार-बार फेल भी हो जाता है । किंतु उसे गरीबी तोड़ती है, वह तपेदिक से जूझ रही भाभी की दवा नहीं करवा सकता, अपने घर वालों का पेट नहीं भर सकता । हर साल फेल होने से उसे नौकरी नहीं मिल सकती । वह पढ़ कर पास होने तथा नौकरी करने का निश्चय करता है लेकिन डी.एम. के सामने सरकार विरोधी भाषण देने से उसे परीक्षा में बैठने से मना कर दिया जाता है । प्रिंसपल से बहुत मिन्नतों के बाद और हलफ़नामा लिख कर देने के बाद उसे परीक्षा में बैठने की अनुमति मिल जाती है । प्रोफेसर से किसी भी विषय पर तर्कपूर्ण बहस करने तथा इन्टेलेक्च्युअल होने की सारी गुणवत्ता रखने वाले इस नायक को परीक्षा के दिन बस्ती पर बुलडोजर चलने से रोकने के लिए काला झंडा लेकर खड़ा हो जाना पड़ता है । वह पुनः क्रांति कर बैठता है और अब निश्चय है कि वह न तो परीक्षा में बैठ पायेगा और न ही नौकरी कर पायेगा और न ही अपने परिवार का पालन-पोषण कर पायेगा । 

 वर्तमान समय में एमरजेंसी लागू नहीं है परंतु पूरा समाज एमरजेंसी की साँसें लेता हुआ-सा महसूस करता है । आज भी बस्ती या घरों पर बुलडोजर बेधड़क चल जाता है । एक घर बनाने में सदियों लग जाते हैं लेकिन उजड़ने में कुछ घंटे हो सकते हैं । लेकिन सवाल यह है कि अवैध स्थानों को जनता कब और कैसे घेर लेती है ? क्या उस समय किसी भी सरकारी महकमे की नज़र नहीं जाती ? अगर जाती है तब उस समय सरकार उन्हें क्यों नहीं रोकती ? घर उजड़ने के बाद उस परिवार की जिम्मेदारी कौन लेगा, उनका गुजर-बसर कैसे चलेगा ? उस घर के बच्चों पर क्या असर पड़ेगा ? 

प्रायः देखा जाता है कि किसी स्थान पर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या कोई बड़े नेता आते हैं तब उस स्थान का काया पलट कर दिया जाता है । उन्हें जिस रास्ते गुजरना होता है उस रास्ते के रंग-रोगन से लेकर सड़कों पर से डिवाइडर तक हटवा दिया जाता है ताकि उनकी गाड़ी ‘स्मूथ’ चल सके । ट्रैफिक सिग्नल पर भीड़ नहीं होती, स्ट्रीट लाइट चमचमा रही होती है और परफेक्ट शहर के आँकड़ों को आँखों में भर कर वहाँ से वी.आई.पी. चल देते हैं ।
 
अर्थात् सत्य वी.आई.पी. से कोसों दूर होता है, वे अपने ऐश-ओ-आराम के अनुसार ही दुनियाँ को मापते हैं । ऐसा नहीं है कि उन्हें पता नहीं होगा कि स्थिति क्या है पर अपनी सुख-सुविधा की खोल से बाहर निकल कर देखना न तो आसान है और न ही वोट बैंक से अलग हट कर देखने का समय ! यानी जिसे सत्य का आभास भी नहीं वह समाज के गणित को कैसे समझ सकेगा, वह समाज में व्याप्त समस्याओं को कैसे समझ सकेगा ? समाज को समझने के लिए उसके साथ घंटों धूप, धूल, धूँआ और कीचड़ में पैदल चलना पड़ेगा, व्यक्ति से लेकर समाज की पीड़ा को आत्मसात करना पड़ेगा तब कहीं जाकर जीवन का कुछ हिस्सा समझ में आ सकता है । अन्यथा समुद्र के किनारे खड़े होकर समुद्र में डूबते हुए व्यक्ति की कल्पना का आभास कर परकाया प्रवेश का नारा थोथा ही रह जायेगा और क्रांति-दूत अपना घर फूंक कर भी समाज के लिए, जनचेतना के लिए उभरते रहेंगे, खड़े होते रहेंगे... ।

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प्रेस विज्ञप्ति
साहित्य अकादेमी द्वारा बच्चों के लिए रचनात्मक लेखन पर आयोजित कार्यशाला सम्पन्न
नई दिल्ली । 2 जून 2023; ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान बच्चों तथा युवा पीढ़ी को भारतीय भाषाओं तथा साहित्य के प्रति संवेदनशील बनाने तथा पढ़ने और स्वयं लिखने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य को लेकर साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित कार्यशाला ‘क़िस्सा-ओ-कलम’ का आज समापन हुआ । कार्यशाला का आयोजन 29 मई से 2 जून 2023 के बीच अकादेमी के सभागार में किया गया । इस कार्यशाला में दिल्ली एनसीआर के 75 बच्चों ने भाग लिया ।
कार्यशाला के आज हुए समापन पर सभी प्रतिभागियों को प्रमाण-पत्र अकादेमी के सचिव के. श्रीनिवासराव द्वारा प्रदान किए गए । इस अवसर पर उन्होंने कहा कि साहित्य अकादेमी, आप सभी भविष्य के लेखकों का अकादेमी परिवार में स्वागत करती है और उम्मीद करती है कि आने वाले समय में आप एक संवेदनशील नागरिक और लेखक बनकर देश की प्रगति में सहयोग करेंगे । उन्होंने साहित्य अकादेमी द्वारा नवोदय योजना का परिचय भी दिया, जिसमें उभरते हुए युवा साहित्यकार अपनी प्रथम पुस्तक का प्रकाशन साहित्य अकादेमी द्वारा करवा सकते हैं । उन्होंने कार्यशाला के दौरान बच्चों द्वारा लिखी गई विभिन्न रचनाओं का संचयन प्रकाशित करने की संभावना भी व्यक्त की ।
कार्यशाला का संचालन चंदना दत्ता और वंदना मिश्र द्वारा किया गया । कार्यशाला के दौरान बाल साहित्य विशेषज्ञ अर्चना अत्रि के साथ एक विशेष संवाद कार्यक्रम और पुस्तकालय भ्रमण का भी विशेष आयोजन किया गया था । ज्ञात हो कि साहित्य अकादेमी द्वारा अपनी तरह की पहली इस कार्यशाला का आयोजन 2017 से शुरू किया गया था लेकिन कोरोना महामारी के चलते यह दो साल नहीं हो पाई थी । इस कार्यशाला का यह चौथा संस्करण था । कार्यशाला के लिए 8 से 16 वर्ष की आयु के बच्चों का चयन, उनके माता-पिता से बातचीत और बच्चों के साक्षात्कार के बाद, कौशल के आधार पर किया गया था । पाँच दिवसीय इस कार्यशाला का संयोजन अकादेमी के उपसचिव एन.सुरेशबाबु ने किया ।



 











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