Sahitya Nandini August 2023




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पाठकीय प्रतिक्रिया

सुश्री एकता व्यास, (गांधीधाम) कच्छ गुजरात, मो. 98252 05804


सुश्री संतोष श्रीवास्तव

कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया 
सुश्री संतोष श्रीवास्तव

इंस्टेंट मैगी, इंस्टाग्राम और ओटीटी के इस ज़माने में कोई लेखक भला सालों तक कैसे एक ही विषय पर काम कर सकता है? चाहे विषय कितना भी रोचक क्यों न हो । पर ऐसा होता है जनाब! इस पाँच  मिनट्स नूडल्स के ज़माने में भी एक लेखिका ने इस उपन्यास को अपने जीवन के 9 साल दिए हैं, एक ही उपन्यास  को और वो भी हिंदी में यह जानते हुए भी कि आजकल का समय बहुत अनुकूल समय तो बिल्कुल भी नहीं है हिंदी लिखने  और पढ़ने वालों के लिये । इस पर भी यह एक पूरा का पूरा हिंदी उपन्यास ! अब मैं बात करती हूँ इस किताब की कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया की जिसकी लेखिका हैं सुश्री संतोष श्रीवास्तव जी, सबसे पहले मैं संतोष जी से एक सवाल पूछना चाहती हूँ कि 9 सालों में तो पूरी की पूरी जेनरेशन ही निकल जाती है, विचार बदल जाते हैं, मौसम बदल जाते हैं और तो और किसी शहर की जलवायु तक भी बदल जाते हैं । 9 वर्षों में माँ और बच्चे के विचारों में ज़मीन आसमान का परिवर्तन आ जाता है । तब आप कैसे 9 वर्षों तक एक ही विचार, एक ही विषय को लिए मंथनासक्त रहीं और निरंतर लिखती रहीं  जिसमें प्रेम हैं तो ज्ञान भी है, जिसमें रहस्य है तो कविता भी है जिसमें प्रादेशिक भाषा है तो बोली और कहावतें भी हैं, जिसमें माँ की ममता है तो स्त्री विमर्श भी है,  ममता  है तो त्याग भी है, जिसमें पा लेने और खो देने के बीच का संसार भी है । कैसे आप एक समर्पित रचनाकार की तरह इस उपन्यास के विषय वस्तु को निखारती-संवारती रहीं ? संभवत आप खुद भी इन सब आयामों को जीती रही होंगी, इसलिए इतने लंबे समय तक अपनी साहित्यिक वाटिका को अपनी विचारशीलता से पोषित और पल्लवित करती रहीं, परिणाम स्वरूप आप की श्रम साधना का प्रसाद पाठकों को भी मिला है । आपने पाठकों को प्रेरित किया कि इस उपन्यास की रहस्यमय दुनिया में गोते लगाओ, रहस्य की गहराइयों में जाकर अपने हिस्से का मोती ढूंढ लाओ ।  

तो जब मैं गोता लगा रही  थी,  इस रहस्यमय समन्दर  में यानी कि किताब को बस हाथ में लिया ही था कि मेरे अंदर एक अजीब सी जल्दबाज़ी ने जन्म ले लिया कि कब इस किताब को खोलूं और पूरा का पूरा पढ़ लूं । जल्द से जल्द इस रहस्य को समझ लूँ । पर यह कैसे संभव है कि इस किताब को लिखने में सालों साल लगे और मैं इसे  जल्दबाज़ी में पढ़ लूं, नहीं पढ़ सकते । क्यों? क्योंकि जल्दबाज़ी के साथ मेरे मन में एक ठहराव उत्पन्न हो जाता है, एक गहरा भाव जो किताब को साधारण किताब न मानते हुए एक ग्रंथ मान रहा था, जिसे चिंतन और मनन के साथ पढ़ा जाना, पढ़ते वक्त किसी भी पूर्वाग्रह से ग्रसित न होना- वांछनीय है । सो कुछ दिनों तक किताब को सिर्फ हाथों में लेकर उल्टा पलटा और सूंघा । यकीन जानिए ये ग्रंथ की महक ही थी जो मुझे अपने अकार्षण में बांध कर चिंतन यात्रा पर ले उड़ी है । 

खैर, कुछ दिनों तक सिर्फ किताब को अपने  हाथों से सहलाकर हमने आखिरकार उस दिन किताब का पहला पन्ना खोला जब पूरा गुजरात दहशत के साए में जी रहा था । दहशत एक राक्षसी तूफान की जो बहुत ही तेज गति से कच्छ की तरफ भाग रहा था । ऐसा लगता था कि कहीं ये राक्षस पूरा का पूरा निगल ही न  जाए कच्छ की इस पावन धरती को । पर ये क्या किताब का पहला  पन्ना ही मेरे लिए तो तूफान से कम न था । कैसा संजोग था मेरा शहर एक तूफ़ान का सामना कर रहा था । और मेरे मन में एक तूफान उठ रहा है और किताब की शुरुआत भी तूफानी थी यानी की किताब सीधी की सीधी ही शुरू हो जाती थी । कोई अन्य लेखक के प्रक्कथन के बिना ही । 

बस द्वार खुलते गए और ऐसे खुले कि एक दरवाज़े में प्रवेश करते ही लगा रोमांच, कविता, ज्ञान और प्रकृति दर्शन की विविधताओं को छूती हुई कोई फीचर फ़िल्म देख रही हूँ । एक एक दृश्य बहुत साफ और स्पष्ट था और जब लेखिका कहती हैं "कि चारों ओर बर्फीली तेज हवाएं" .....तो यकीन मानिए मैंने कच्छ की भर गर्मी में अपने चारों ओर इन बर्फीली तेज हवाओं को महसूस किया था । और मेरे कानों ने सुना वो संगीत जो बर्फीली हवाओं से पहाड़ों पर उत्पन्न होता है, इस संगीत के बीच एक आवाज़ मेरे कानों में फुसफुसाकर बोली अभी क्या हुआ  ये तो बस शुरुआत है ।  

कहानी की शुरुआत होती है एवरेस्ट पर विजय पताका फहरा कर लौट रहे पर्वतारोहियों के दल और कहानी के नायक नरोत्तमगिरी की मुलाकात से । मुलाकात के शुरू में नरोत्तम को अपने अतीत से फिर साक्षात्कार करना पड़ता है । और सब कुछ याद आने पर भी नरोत्तम बस यही कहता है “यह जीवन भूलभुलैया है, कितना भी चाहो पर इसके उलझाव से बच नहीं सकते । ” और इसी अध्याय में हिप्पी कल्चर की झांकी भी देखने को मिलती है । साथ ही मंगल की कामना का भी पता चलता है कि उसके लिए खगोलशास्त्री बनने का सपना कितना महत्वपूर्ण है पर क्या वह जानता है कि उसके भविष्य में तो न सिर्फ  ग्रह-नक्षत्र की दिशा और दशा पढ़ना लिखा है, बल्कि मन के भी खगोल विज्ञान से पार पाने के लिए ही उसका इस धरती पर जन्म हुआ है । इसी भाग में नरोत्तम के जीवन के दोहरे दुख का भी पता मिलता है, जहाँ उसकी एकतरफा प्रेम की संगिनी उसके ही घर में उसकी भाभी के अवतार में प्रकट हो जाती है और फिर दीपा का खुला आमंत्रण नरोत्तम के  मन पर ऐसी मार मारता है कि वह हमेशा के लिए घर छोड़कर  जाने का निर्णय कर लेता है । 

“अंतरिक्ष में जाने कितने ब्लैक होल हैं ।” (पृ. 22) सही कहा है लेखिका ने अभी तक वैज्ञानिकों को ऐसी कोई मशीन नहीं मिली है जिससे ब्लैक होल दिखाई देते हों, काश होती । कहानी आगे बढ़ती रहती है । कहीं-कहीं पर किताब बहुत ही सूचनात्मक हो जाती है और कहीं-कहीं पर युवावस्था की मजबूरियों का वर्णन करती चलती है । कहीं कहीं पर हिप्पियों के जीवन को भी सुनाना नहीं भूलती है । एक जगह तो नरोत्तम कहता है “तुम्हारे मन में कौतुहल बहुत है, अच्छा है । कौतुहल बुद्धि का विकास करता है । 

“तो क्या हर ज्ञान का प्रारंभ कौतुहल से ही होता है?  ऐसा प्रश्न आना मेरे जैसे पाठकों के मन में लाज़मी है । वैसे भी इसी प्रसंग में नरोत्तम नागा साधुओं के सैनिक होने की भी कहानी सुनाता है जो पिछले दिनों अलग अलग रूपों में इंटरनेट पर वायरल हो रही थी । ”

सुबह धूप निकलने पर वहीं शिप्रा में स्नान कर सीधा मेले में लगे स्टाल का जलेबी कचौड़ी का कलेवा करने आ गया । ”(पृ. 27) लोकभाषा का उत्तम दर्शन है । और भी कई जगह इस तरह के प्रयोग लेखिका ने बखूबी किए हैं । मेरे अंदर एक असमंजस ने जन्म ले लिया है । जब मैंने पृ. 27 पर पढ़ा “कहीं से चोट खाए हुए लगते हो । चलो तुम्हें दुनिया दिखाते हैं । ”

यहाँ नागा साधु मंगल को चिलम देता है तो क्या चिलम या किसी अन्य तरह का नशा अपने दुखों से पार पाने का एक माध्यम हो सकता है?  कहीं-कहीं ऐसा लगा जैसे नशा या चिलम को सही साबित करने का प्रयास किया जा रहा है, नागा साधुओं के द्वारा ये मेरा व्यक्तिगत ख्याल है  न कि किसी भी प्रकार की किसी भी पंथ की आलोचना है  । बस एक पाठक की हैसियत से मन में उपजा एक प्रश्न है । मंगल अर्जुन सिपाही की लुकाछिपी देखकर बचपन में देखे गए कार्टून टॉम एंड जेरी की याद आ गयी पता नहीं क्यों प्रत्यक्ष में तो ये दोनों परिस्थितियां बहुत भिन्न है, फिर भी । 

“मंदिरों के दर्शन करने जाएंगे ना उज्जैन जो मंदिरों का शहर है चावल चढ़ाते-चढ़ाते बोरा भर चावल दिन भर में खत्म हो जाता है । ”(पृ. 34) यह वाक्य पढ़ कर मन कुछ वितृष्णा से भर गया और याद आया एक किस्सा जब मैं टाटा मोटर्स में नौकरी कर रही थी । नौकरी नई थी, हम बहुत खुश थे, इतनी अच्छी नौकरी और इतनी अच्छी तनख्वाह जो मिल रही थी । जीवन में और क्या चाहिए इसी खुशी में हमे एक ट्रेनिंग प्रोग्राम में जाने का मौका मिला जो टाटा मोटर्स के ही द्वारा आयोजित की गई थी । ट्रेनिंग की शुरुआत में ही हमें सारे टाटा मोटर्स के प्रॉडक्टस के बारे में बोलने को कहा गया जैसे कि 407 ट्रक अब भला ट्रक के बारे में कितना ही अच्छा बोलो आखिरकार वह ट्रक है और ट्रक ही रहेगा । कोई सुदर्शन प्रेमी तो नहीं बन जायेगा न  पर जो व्यक्ति हमें ट्रेनिंग दे रहे थे, उन्होंने बहुत ही धीमे से समझाया कि जब तक हम अपने प्रॉडक्ट से खुद कन्विंस नहीं होंगे, तब तक हम किसी और को क्या कन्विंस कर पाएंगे? पहले आप अपने 407 से प्रेम करो, फिर ही आप किसी और को समझा सकोगे । तो क्या यह मल्टीनैशनल कंपनी का कानून हमारे जीवन पर लागू नहीं हो सकता है? राजा विक्रमादित्य की नगरी की बस इतनी ही पहचान बची है कि वहाँ पर मंदिर है और दिन भर चावल का एक पूरा बोरा खर्चा करवा देते है । क्यों ना हम ऐसे परिचय करें कि यह महान राजा विक्रमादित्य का नगर है  जिसे हम देवालयों का शहर भी कहते हैं एक-एक मंदिर का अपना इतिहास और अपनी-अपनी परंपरा है । एक-एक परंपरा के दर्शन करने के लिए एक जीवन भी कम पड़ जायेगा आपको श्रीमान । दिन भर उज्जैन घूमा और फिर ट्रेन पकड़ ली हरिद्वार
की । लेखिका कहती रही और हम सांस रोके सुनते रहे इस अहसास से कि कहीं हमारी उखड़ती बैठती सी  साँसों का कलरव कहानी कहने में व्यवधान न बन जाए । सीधी सड़क पर चलते कभी हम पहाड़ों पर चल पड़ते और फिर कभी सपाट सड़क पर चलने लगते । बस, बेहोशी की मुद्रा में बैठे सुन रहे हैं (पढ़ रहे हैं) । अचानक हमारे कदमों के नीचे से ज़मीन ही छीन ली गई,  कहानी अब कविता जो बन गई थी ।  

चाँद नीचे आओ न / इस धरती के स्वर्ग पे / कुछ देर रुक जाओ ना / मैं जानती हूँ / तुम नहीं आओगे / अनुशासित जो हो तुम बहुत पृ. 68 का ये पूरा का पूरा पैरा किसी रूमानी कविता सा लगता है और फिर-फिर मन कैथरीन हो जाना चाहता है तन न जाने क्यों ढूंढता है फिर वही रात का अंतिम पहर जब चाँद मेरे भी बगल में हो चांदनी मुझ को सहलाए और जब मैं अपना हाथ  बढ़ाऊं उसको छूने को तो वह बादलों में लुढ़क जाए मैं मुस्कुराऊँ / और भोर के तारे सी चमक जाऊं पूरी ही कहानी में बार-बार खिचड़ी के बघार या तैयार खिचड़ी का जिक्र आता हैं । यकीन मानिए मैंने कई बार कहानी को बीच में यूं ही छोड़ कर रसोई घर की ओर मुख  किया है और देसी घी में छोकी हुई हरी मूंग दाल की खिचड़ी का छककर आनंद लिया । मेरी 18 वर्षीय बिटिया ने अपने पापा से शिकायत की जो मैंने अपने कानों से सुनी है । कहती है "पापा मम्मी को प्यार हो गया है मुस्कुराते-मुस्कुराते रसोई घर में जाती है, खिचड़ी बनाती है और फिर आप ही खा लेती है और वापस किताब पढ़ने लगती है । कुछ तो खिचड़ी में काला काला सा है ", मैं सचमुच ही में प्रेम ग्रस्त हो चुकी थी, इस पुस्तक के प्रेम में या कैथरीन के प्रेम में या नरोत्तम के प्रेम में नहीं जानती ?

सौतेली माँ की कहानी कमोबेश सभी जगह एक सी है । सौतेली माँ का व्यवहार कभी राम बना देता है और कभी डॉक्टर या इंजीनियर और कभी-कभी तो अघोरी अष्टकौशल । अघोरी जीवन और संसार से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ-साथ कहानी आगे बढ़ती रहती है और पहुंचती है वहाँ जहाँ जानकारी मिलती है कि “अघोरी साधु दिल से किसी के प्रति नाराजगी नहीं रख सकते इनका मानना है कि जो लोग नफरत करते हैं, वे ध्यान नहीं कर सकते । “ (पृ. 83) पर उन लोगों का क्या जिन्हें जीवन के आरंभ से ही नकारात्मकता ही मिली हैं  जिन्होंने जीवन में कुछ भी सकारात्मकता का अनुभव ही ना किया हो, क्या वे ध्यान की पाठशाला के लिए उचित विद्यार्थी नहीं है? या वे ध्यान की विद्या के बारे में सुन तो सकते हैं पर अनुभव नहीं कर सकते या उनके लिए कोई विशेष ध्यान विधि हो सकती है जिसमें डूबकर  जीवन की नकारात्मकता का सामना कर सकें और उसे जीत सकें । 

कहानी एक चिर परिचित मोड पर आ पहुंचती है वहीं सत्ता की लड़ाई, वही ज़मीन की लड़ाई जिसमें किसी एक प्रजाति को  अपनी ज़मीन छोड़ के जाना होता है, क्योंकि किसी अन्य जीव को वह ज़मीन चाहिए एक और  घुमंतू जनजाति ने अपनी ज़मीन, अपना खानपान, अपनी हवा अपना सबकुछ छोड़ दिया । बस अपनी सांसें कायम रखने के लिए और अपनी आने वाली नस्लों को बचाने के लिए । फिर एक विस्थापन का खेल खेला गया और इस बार इस कहानी के मुख्य पात्र मौरी आदिवासी से मिलते हैं । 

वैसे तो यह बात किताब में अघोरी पंथ के लिए कही गयी हैं किन्तु मेरा मानना है कि यह बात जीवन के हर क्षेत्र मे हर विद्यार्थी पर लागू होती है कि “वह हर स्टेशन पे उतरे या अंतिम लक्ष्य अघोर पंथ पर पहुँचकर ही अपनी यात्रा समाप्त करें । “

आप चाहे तो एवरेस्ट तक सीधा बिना कहीं रुके चढ़ते चले जाएं और अपनी मंजिल पर पहुँचकर ही दम लें । उस अंतिम लक्ष्य के प्राकृतिक सौंदर्य को निहार लें और उसका आनंद लें । 

वहीं दूसरी तरफ यह भी संभव है कि रास्ते में आने वाले सभी या कुछ पड़ाव पर आप रुकते-रुकते जायें और हर एक स्थान की प्राकृतिक छटा को मन में बसाते हुए चले जाएँ । 

“कैथरीन को प्रवीण का सारा वजूद आसमान सा लगा, जिसमें समाते हुए वह खुद को तमाम सितारों आकाश कम गांव से ऊपर पा रही थी “( पृ. 107)

यह बात मेरी समझ से ऊपर है कि कैथरीन जैसी परिपक्व और मजबूत स्त्री को प्रवीण जैसे बातें छुपाने वाले व्यक्तित्व के इंसान पर उसकी ऊपर इतनी अधिक निर्भरता क्या साबित करना चाहती है । आज कल की स्त्रियों को इस घटना से क्या समझना चाहिए,  मैं कैथरीन के व्यक्तित्व के इस पहलू से पूरी पुस्तक पढ़ने के दौरान अनजान ही रही या मेरी समझ ही इस रिश्ते की बुनियाद को समझने में असमर्थ रही होगी शायद मैं शुरू से ही कैथरीन और प्रवीण के रिश्ते को समझने में अपने आप को असमर्थ पा रही थी । (पृ. 116) पर मैंने पढ़ा 

“तुम्हारी किसी बात को इनकार करने की मुझमें हिम्मत नहीं है, मैंने तो बस प्यार किया है तुम्हें”

कैथरीन को एक नई लत लग गई थी सिगरेट की “अपने अतीत को धुएं के हवाले कर दिया । ” क्या ये संभव है कि हम अतीत को किसी के भी हवाले कर सकते हैं? चाहे फिर वह धुआं ही क्यों ना हो कहानी अपने वेग से आगे बढ़ते हुए एक स्थान पर आकर ठहर-सी जाती है जहाँ पर माता सती के 52 शक्तिपीठों का वर्णन बहुत ही सृजनात्मकता के साथ किया गया है साथ ही कुछ शक्तिपीठों का भारत भूमि से बाहर होने का भी दर्द दिखाई पड़ता है । “कभी यह देश भी भारत के थे देवी लेकिन सियासत की जंग में बंटवारा हो गया । ”“बहुत बुरा हुआ । सत्ता की आंच में जलती है प्रजा” (पृ. 123)

पिछले दिनों एक नामी गिरामी नेता के भाषण में भी शक्तिपीठ हिंगलाज माता का वर्णन था जो क्लिप काफी वायरल हुई थी और खासकर युवाओं द्वारा सराही गयी थी । 

सभी शक्तिपीठ की जानकारी के बाद कैथरीन और नरोत्तमगिरी के अलग होने का वक्त आ ही गया तब कैथरीन कहती है । 

“नरोत्तमगिरी हम शीघ्र मिलेंगे दुनिया इतनी बड़ी भी नहीं”

कहते हुए कैथरीन ने नरोत्तमगिरी के दोनों हाथ अपने माथे से लगा लिए थोड़ी देर को मानो सन्नाटा पसर गया और सृष्टि भी थम सी गई । यही वह क्षण था जहाँ नरोत्तम के नागा साधु होते हुए भी कहीं ना कहीं संसार से जुड़े होने का एहसास देता  है दूसरी तरफ ये एहसास कहीं गहरे मन में समा जाता है कि आखिरकार तो सब कुछ प्रेम ही है चाहे वह नागा साधु के लिए हो या किसी सांसारिक मनुष्य का ही क्यों न हो । 

कहानी आगे बढ़ के पहुंचती है पृ. 137 पर जहाँ गुरूजी नरोत्तम से कहते हैं इतने वर्षों के तप ने तुम्हें निखार दिया है, तप से जो ऊर्जा तुम्हें मिली है हम उसका उपयोग करना चाहते हैं ।

सच ही तो है सोने को भी निखरने के लिए तपना पड़ता है तभी वह पारस बनता है और पारस का उपयोग कुछ साधारण तो हो ही नहीं सकता । धन्य है वो गुरु जो पहले मार्ग दिखाया फिर उस मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे फिर उस मार्ग पर अडिग  रहना सिखाएं और फिर उस तपस्या से प्राप्त फल का सदुपयोग भी करे यही पुरातन भारतीय संस्कृति है यही गुरु शिष्य परंपरा भी है । 

भारतीय परंपरा और प्रेम का दर्शन करते हुए मैं आगे बढ़ रही थी पुस्तक मुझे कहीं-कहीं पर आकर ऐसी लगती जैसे मैं एक लंबी तीर्थ  यात्रा पर हूँ- जिसमें ज्ञान है, इतिहास है, अध्यात्म है और बस प्रेम है या प्रेम का दर्शन है । 

प्रेम ही था, जिसमें नरोत्तम कैथरीन से कहता है । “प्रसाद ग्रहण करके जाओ कैथरीन ।” न देवी, न माता, सिर्फ और सिर्फ 

कैथरीन । एक जगह फिर नरोत्तमगिरी आद्या से कहता हैं । "प्यार मुश्किल से मिलता है आद्या उसका सत्कार करो ।" (पृ. 163) 

कहानी में अचानक ही एक उत्तेजना भर जाती हैं जब एक विदेशी लड़की नागा साधुओं की तर्ज पर खुद वस्त्र विहीन करके घाट पर दौड़ पड़ती है और यह घटना बहुत से लोगों के मनों में खलबली मचा देती है । कई सवाल खड़े कर देती है, जिनमे में से सबसे महत्वपूर्ण है नरोत्तम का प्रश्न जो कहता है   “फिर भी मुझे लगता है । जैसे मैं अधूरा हूँ, पूर्ण पुरुष नहीं । ” (पृ. 166 ) सवाल जवाबों के बीच अचानक कैथरीन नरोत्तम से सवाल करती है  “लेकिन नरोत्तम एक सरस्वती के चरित्र से मैंने महसूस किया है कि वह छली जाने के बावजूद हारी नहीं । दृढ़ता से उठी और विद्या की देवी बन गई । शारीरिक शोषण का शिकार लड़कियों के सामने सरस्वती बहुत बड़ा उदाहरण है । ”( पृ. 173)

कैथरीन ने सरस्वती को एक नया स्वरूप दिया है साथ ही उस विषय को भी उठाया है जिस विषय पर भारतीय समाज चर्चा करने से कतराता है । प्रेम की कहानी आगे बढ़ रही है । अपनी ही गति और गरिमा के साथ एक जगह आकर कैथरीन प्रेम को परिभाषित करती है और कहती है  

"प्रेम तो जीवन और मनुष्यता का विवेकशील आधार है क्रांति के बीज उसी में छुपे होते हैं वहीं से अव्यवस्था और तानाशाही के विरोध  को ताकत मिलती है और प्रेम करने वाले अमर हो जाते हैं, दुनिया से चले जाते हैं और साहित्यकार उनकी प्रेमगाथा शब्दों में ढालते है । ” (पृ. 177)

सही कहा कैथरीन ने साहित्यकार प्रेम गाथा को शब्दों में ढालते हैं और लेखक कर भी क्या सकता है? सिवाय इसके कि समाज के हर अंश को अमर कर दें, चाहे वह प्रेम ही क्यों न हो । यहीं इसी पेज पर एक जगह रॉबर्ट प्रोफेसर से कहता है । ” उसने इतना स्वादिष्ट वेज कभी नहीं खाया । आपकी पसंद लाजवाब “है प्रोफेसर ।”

उपरोक्त पंक्तियाँ मेरी व्यक्तिगत पसंदगी बन गईं । अच्छा लगा लेखिका के द्वारा पुस्तक में भारतीय दर्शन और प्रेम की  थाली को  भारतीय शाकाहारी व्यंजनों के साथ परोसा जाना । भोजन की इसी श्रृंखला में जब आद्या कहती है 

“लेकिन मुझे आलू की टिक्की, मटर चाट, दहीबड़े और गोल गप्पे खाने है और फिर मटका कुल्फी । ”(पृ. 179)

ये पढ़ते वक्त कहानी तो लखनऊ में थी पर मेरा मन पहुँच गया था मेरे अपने जन्मस्थान जबलपुर (मध्यप्रदेश) संस्कारधानी की गलियों में जहाँ बचपन से इन स्वादों का बेइंतहा लुत्फ उठाने का मौका मिला था खैर, कहानी आगे बढ़ती और एक बेचैनी सी मेरे मन में उत्पन्न करती है जब नरोत्तम कहता है “यूं लग रहा था जैसे किसी की परछाई मेरे साथ चल रही है, मेरे रुकते ही रुक जाती है और मुझे अपने घेरे में समेट लेती है । मेरी सांसें घुटने लगती है और मुझे लगता है जैसे मैं पाताल में धंसा चला जा रहा हूँ ।”

यहाँ आकर बेचैनी एक प्रश्न में बदल जाती है क्या नागा साधु भी कभी विचलित होते होंगे? क्या कभी  सांसारिकता उन्हें अपनी ओर खींचती होंगी ?

एक बार तो कैथरीन नरोत्तम से कह भी देती है । 

 “कोई तो एक सूत्र है जो तुम्हें पूरी तरह से संन्यासी होने से रोक रहा है । “( पृ. 184) कहीं-कहीं कहानी में पात्र सभी वर्जनाओं को तोड़ते से लगते हैं और कहीं-कहीं ऐसा लगता है जैसे पात्रो द्वारा सभी वर्जनाओं को पूर्ण मन से अपना लिया गया है । न जाने क्यों मुझे कई बार नरोत्तम का चरित्र  सांसारिक मोह की तरफ खींचता हुआ सा लगता है । एक बार तो निरोत्तम स्वयं कहता भी है 

“कैथरीन का सौंदर्य आवाहन सा  कर रहा है ।”

कैथरीन से मिलकर नरोत्तम का मन बिखरा-बिखरा सा है । कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है जैसे नरोत्तम अपने नागा साधु पद से विमुक्त होता जा रहा है या हो जाना चाहता है । वहीं दूसरी तरफ कैथरीन नागा साधु नहीं है वह सामान्य व्यक्ति है उसने किसी भी प्रकार की दीक्षा नहीं ली है और वह भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी भी नहीं है फिर भी वह अपने फैसलों पर अधिक अडिग है और वैसे भी कैथरीन के मन का विचलित होना मानवीय हैं किंतु नरोत्तम का विचलन स्वीकार योग्य नहीं है ।  

ध्यान और साधना के लिए नरोत्तम एक वर्ष तक कंदराओं  में रहा खुद को परिष्कृत करने और मन को साधने के लिए इस दौरान वह मोबाइल बंद कर रख देता है, किंतु मन में आते विचारों को  लगाम नहीं दे पाता था । बार बार पोटली की ओर देखना उसके कार्यों में व्यवधान बन रहा है । फिर भी उसका ध्यान पोटली और कैथरीन दोनों में ही है । यह बात प्रमाणित करती है कि नरोत्तम का मन संसार की ओर अभी भी भागता है संसार की ओर खिंचाव महसूस करते  नरोत्तम के भाग्य में  यह परीक्षा भी लिखी है कि दीपक का पुत्र उसके समक्ष विद्यार्थी के रूप में खड़ा हो जाए । इस सन्दर्भ में नरोत्तम कैथरीन के सामने खुल जाना चाहता है उसे लगता है कि अपने मन के द्वंद्व को कैथरीन के साथ साझा कर वह आसानी से दुर्गम रास्ते पार कर लेगा ।  

कहानी आगे बढ़ती है और महिला नागा साधुओं पर आकर ठहर जाती है । यहाँ पर एक जगह माता शैलजा कैथरीन से कहती है की “पांच 6 दिन हमारी  यौनी को शिथिल करने के लिए हमें भूखा रखा जाता है, हमारी काम  इच्छा उसी दौरान समाप्त हो जाती है । (पृ. 206) 

यतो ह्यापि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः 

इन्द्रियानि प्रमाथिनि हरन्ति प्रसभं मनः

मैंने सुना है इन्द्रियां इतनी मजबूत और अशांत होती है कि वे आत्म नियंत्रण का अभ्यास करने वाले व्यक्तियों के मन को बलपूर्वक छल सकती है । इन्द्रियां जंगली घोड़े के समान होती है वे उतावली और लापरवाह होती है उन्हें अनुशासित करना एक महत्वपूर्ण लड़ाई है जो साधकों को अपने शरीर के भीतर लड़नी पड़ती है । इसलिए आध्यात्मिक विकास की इच्छा रखने वालों को सावधानीपूर्वक भोगवादी इंद्रियों को वश मैं करने का प्रयास करना पड़ता है, अन्यथा उसमें सब से श्रेष्ठ योगियों को भी आध्यात्मिक साधना नष्ट करने और पटरी से उतारने की शक्ति है इसीलिए समझना कि भूखे रहने मात्र से अंकुश लग जायेगा, थोड़ा मुश्किल है । यह तो एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो कभी-कभी आजीवन चलती रहती है । 

कुछ प्रक्रियाएं जीवन पर्यन्त चलती रहती है और कुछ का इसी जीवन में समापन करना पड़ता है । जैसे कि कैथरीन की नागा साधुओं पर पुस्तक शुरू तो हो गई पर अब संपूर्णता की ओर है और इसी संपूर्णता की प्रक्रिया में कैथरीन नरोत्तम से कहती है “बस खत्म हुई समझो खत्म करने के लिए तुम्हारे पास आना होगा किसी भी चीज़ का अंत बहुत सरल नहीं होता है पर वह भी तब जब पूरी तरह से उसमें जुड़े हुए हो । ”( पृ. 193)

वाकई किसी भी अध्ययन का अंत सरल नहीं होता । जैसे जैसे यह पुस्तक अपनी मोक्ष की तरफ बढ़ रही है मेरे अंतस में एक प्रकाश की किरण फूट रही है । इस पुस्तक को पढ़ते वक्त न जाने कितने बार मैं कैथरीन बन नरोत्तम से सवाल जवाब करने लगी थी और कितने बार मैंने अपने आप को भोजशाला में महसूस किया था कितनी बार चाँद मेरे बगल में आ बैठा था । पर अब जब पुस्तक अपने अंत की तरफ बढ़ रही है तो लगता है काश कुछ देर और ठहर जाए यह कथा । 

इस अंत की पाठ में कैथरीन प्रवीण से कहती है । “इंसान को पता हो कि वह भूल रहा है संसार त्यागकर भी संसार अपनी ओर खींचें कहाँ तक रहेगा शरीर? चाहे साधु हो, तपस्वी हो, साधारण इंसान का शरीर इन्हीं पंचतत्वों से बना है न?”  (पृ. 213)

कहीं कहीं ऐसा लगता है जैसे भले ही कैथरीन ने जोग नहीं लिया है वह अभी भी संसार में रमी हुई है । वे अब भी संसारिक है, पर उसकी आत्मा कहीं न कहीं साधु हो गई है । वह प्रेम करती है और स्वीकार भी करती है । पर उसे प्रेम में पाने की लालसा नहीं रखती, उसका प्रमाण मिलता है । पृ. 243 पर जब कैथरीन कहती है कि "मैं तुम्हें पथ भ्रष्ट नहीं होने दूंगी नरोत्तम, प्यार कीमत नहीं मांगता ।"

और दूसरा प्रमाण तब मिलता है जब नरोत्तम कहता है “कभी ये नहीं कहा की तुम मेरे साथ आ जाओ, हमेशा यही कहा, काश मैं तुम्हारे साथ होती । ” कहानी में कैथरीन का प्रेम चित्रित करने के लिए काफी आगे जाना पड़ा । पर पीछे अभी बहुत कुछ बाकी है जैसे कि पृ. 231 पर जानकारी है ।  

“महंत गौरीशंकरदास के मुताबिक आज भी हरिद्वार में उस युद्ध में मारे गए नागाओं की समाधियां हैं । गुजरात में धौलूका धधूका विरमगाम और मेहसाणा जिले में आज भी समाधियां हैं । ”

कहानी आगे बढ़कर कैथरीन की व्याकुलता में समा जाती है और उसे महसूस होता है कि वह स्वार्थी बन गई थी, सिर्फ अपने बारे में ही सोच रही थी । एक बार वह खुद से कहती भी है । 

“यह कैसी बेचैनी? ईश्वर मुक्ति दो । ”

नरोत्तम तो उसके जीवन का अभिन्न अंग था और अब वह उसकी आँखों और सांसों से होता हुआ वियना की सड़कों पर भी नज़र आने लगा है । एक ओर नरोत्तम कैथरीन की सांसों में समा गया है । वहीं दूसरी ओर उसकी खुद की सांसें उखड़ने लगीं हैं अब नरोत्तम को लगने लगा था कि उसका अंतिम समय आ चुका है । लंबे बुखार के बाद आखिरकार एक दिन नरोत्तम को जाना ही पड़ा पर ये क्या? नरोत्तम के जाने के बाद कैथरीन ने कहना तो चाहा । 

“नरोत्तम के आकाश का अभी अभी टूटा तारा ।"

पर बस वह इतना ही कह पाई । 

“जूना अखाड़े की नई सदस्य"

जो अपने प्रेम  को संपूर्ण करेगी और पूर्ण करेगी नरोत्तम के अधूरे कामों को । 

“जिसके प्रकाश धर्म को  बरसों तक देखेगा ज़माना । ”

इस सबके बावजूद उपन्यास का अंत दुखांत तो बिल्कुल भी नहीं है । किंतु सुखांत भी नहीं है, बस एक प्रेरणा है, प्रेम करने वालों के लिए, क्योंकि मेरे लिए सबकुछ होते हुए भी यह उपन्यास एक प्रेम कथा ही अधिक है आखिरकार हम सबको प्रेम की ही तलाश है । 

उपन्यास: कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया / लेखिका: सुश्री संतोष श्रीवास्तव / प्रेषिका: एकता व्यास, (गांधीधाम) कच्छ गुजरात

ऐमज़ॉन लिंक: https://amzn.eu/d/fPGGxlR / पुस्तक प्राप्त करने के लिए संपर्क करें 9769023188

प्रेषिका: एकता व्यास, (गांधीधाम) कच्छ गुजरात, मो. 98252 05804

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समीक्षा

सुश्री एकता व्यास, (गांधीधाम) कच्छ गुजरात, मो. 98252 05804


सुश्री मधु सोसी "मेहुली


बेतरतीब बाँस का जंगल

तारीख 28 फरवरी 2023 घंटी बजी फ़ोन की उधर से आवाज आई,' शाम को घर आ जाओ, साथ चाय पिएंगे । ' मैं चाय की दीवानी कभी भी चाय का आमंत्रण नहीं ठुकराती हूँ और चाय के साथ अगर कोई साहित्यिक चर्चा हो तो बस क्या ! अपने तो पौ बारह समझो । मैं शाम को इस्कॉन प्लेटिनम सोसाइटी पहुँच गई निश्चित समय पर,हमेशा की तरह जोश के साथ दरवाजे पर गुप्ता अंकल सहज सरल मुस्कान लिए हुए खड़े थे दरवाजे पर ही । अंदर घर के पहुंची तो मसाले दार तीखी मीठी उबलती चाय की खुशबू ने मुझे अपने आगोश में ले लिया इस खुशबू ने मेरे दिमाग की सभी सुस्त चेतनाओं मैं जैसे प्राण फूंक दिए थे, उस दिन । चाय तो एक बहाना था, मुझे मिलना था मधुजी से क्योंकि अगर मैं उन्हें अपनी सहेली कहूँ तो अतिशयोक्ति होगी और अगर ना कहूँ तो काम ना चलेगा उनकी और मेरी उम्र के फ़र्क को देखते हुए सहेली मानना लोगों के लिए थोड़ा मुश्किल हो जाता है । तो क्या हुआ माँ, बेटी भी तो सहेलियां ही होती  है । तो इस सहेली सी मां ने मुझे भींच लिया अपनी नाजुक और छोटी- छोटी बाहों में, दिल की धड़कनें हम साफ सुन सकते थे एक दूसरे की । फिर क्या था धड़कते दिल और कांपते हाथों से उन्होंने पूजा घर से एक फूल उठाकर किताब में रखा और किताब मेरे हाथों में सौंप दी, ' पहली प्रति है खास तुम्हारे लिए 'चार हाथों के बीच एक किताब थी चार पनीली आंखें एक दूसरे को देख रही है जैसे कह रही हो जीवन की कहानियाँ सौंप रहे हैं देखना, हिफाजत से पढ़ना कोई दुखती रग ना छू जाए । और हुआ वही जैसे ही पहली कहानी पढ़ी मैंने खुद को एक, भंवर में फंसा पाया । शायद हर एक पिता की यही नियति होती होगी ?" पिता खुशी के आंसू बहाता था प्यारी बिटिया का ब्याह रचा था”यहाँ तक तो फिर भी आँखों में बस आंसू ही थे । हर पिता के भाग्य में शायद यही लिखा होता है । पर ये क्या? हर बेटी के भाग्य में क्यों ये लिखा होता है जो इस कहानी में लिखा है । क्यों यह संसार इतना निष्ठुर बन जाता है अपनी पुत्र वधु और एक मजबूर पिता की बेटी के प्रति? नीली आंखो और चोटिल मन के साथ किताब आगे बढ़ रही थी । एक और एक जगह आकर ठहर गई जहाँ मैंने अराधना और पीटर की कहानी पढ़ी और मैंने पढ़ा । "कोई पति इतना महान नहीं हो सकता जब तक कि उसका भी अपना कोई ... क्या महान होने का ठेका सिर्फ पत्नियों ने ही उठा रखा है? और इसमें महानता कैसी? ना जाने कितने सालों से स्त्रीयां ऐसी महानता अपने ऊपर लादे फिर रही हैं, कभी घर का हवाला देकर और कभी बच्चों का और कभी समाज का । इसलिए मेरी नजर में ना तो कोई गलत है और ना ही कोई महान हैं । बस पति- पत्नी और माता -पिता है बाकी सही फैसला आप खुद कहानी; 'फास्ट बॉलर ' पढ़कर करें । अगर इस किताब में कहानी, 'तराना -बर्क" ना होती तो शायद अच्छा होता ! ना जाने कितनी इतनी बच्चियों की, स्त्रियों की कहानी है । ये शायद हर एक स्त्री की कहानी है । संसार में शायद ही कोई ऐसी स्त्री होगी जिसने इस अनचाही घटना का सामना ना किया हो बस फर्क सिर्फ इतना है कि कहीं ज्यादा और कहीं कम । कहीं घर में घरवालों से । और कहीं बाहर वालों से । आखिरकार सच्चाई तो बस इतनी ही है कि समाज के कड़वे सच की कड़वाहट का जायका जुबान पर से मिटा भी न था कि मेरे सामने आ खड़ी हुई कहानी, " रेनफॉरेस्ट" दुनिया का वही सच, जर, जमीन और जोरू की लड़ाई जिसमें फंसती है सिर्फ नारी और कभी- कभी पीसने का काम भी करती है नारी । न जाने कितनी ही सच्चाइयों के दर्शन अभी बाकी थे की मेरी आँखों ने पढ़ीं, "एक रिपोर्टर की मौत" मीडिया की रंगीन दुनिया के काले को उजागर करती है ये कहानी, चाँद जैसे खूबसूरत समाज का काला दाग थी ये सत्ता की लालसा पता नहीं कहाँ तक जाएगी ? 'फिर दुख व चोट की पीड़ा और ढेर सारा अन्याय ओढ़कर सो गयी"न जाने कितनी घरों की बच्चियां आज भी ऐसा अपमान बचपन से ही सहन करती आ रही है । बचपन के इस अपमान को सहन करते-करते न जाने कब वो बड़ी हो जाती है और बन जाती है एक डरपोक, सहनशील और अवसादित स्त्री । दहशत की चादर ओढ़कर जीने वाली ये स्त्री जो भविष्य में माँ बनेगी, क्या शिक्षा देगी वह अपने बच्चों को ? वह तो पहले से ही दबी कुचली और अवसादित है । यही दबापन और पिछड़ापन उभर कर सामने आता है, जब शुरू होती है," फ़िरोज़ा की कहानी, यू-टर्न में जो दबी हुई है पुश्तैनी हवेली की दीवारों में और ना जाने कितनी कहानियाँ, दर्द और भी हुई है मधु जी के मन में । 

एक स्त्री दूसरी स्त्री को समझ नहीं पाती है वहाँ तो पुरुषों के पीछे भागती रहती है तो हमारा ये त्रास क्या कुछ कम था जो नन्हे फरिश्तों की कम लोग ही आनी थी जिन बच्चों को माता पिता अपने आगोश में लिए फिरते हैं उनका इतना ख़याल रखते हैं गवाह से आने वाली धूल के कणों को भी फ़िल्टर करके अपने बच्चों तक पहुँचाने का इंतज़ाम करते हैं कि उन्हें नौनिहालों के अंतिम समय के बाद का समय जितना कष्टकारी क्यूँ ईश्वरीय कैसी विडंबना है इतने बड़े विकासशील देश में आज़ादी के अमृत काल की इतनी बड़ी असफलता एक नन्हीं देही का ऐसा मान अब तू जाग जाओ सरकार यह स्वयंसेवी संस्था या पता नहीं कौन कोई तो कुछ कर लो । मैंने यह किताब पढ़नी दो शुरू की थी मौत हो चुकी उंगली पकड़कर पर जब तक कि यह किताब पूरी हुई मैं एक अलग ही संसार में थी उस संसार में जहाँ संवेदनाएं वक़्त-वक़्त पर डूबती उतरा आती रहती हैं कहीं समाज का काला सच सामने आ जाता है तो कहीं छोटी सी बच्ची की कहानी चीख चीखकर मी2 मी2 कह रही होती है कहानी अभी और भी हैं दिल की खीरा चौक पर मलहम अभी और भी चाहिए पर मैं कुछ दिल के घाव सिर्फ़ और सिर्फ़ पाठकों के लिए छोड़ देना चाहती हूँ वे इस किताब को पढ़ते हैं बिना किसी पूर्वाग्रह के और हो सके तो ऐसे समाज के निर्माण की तरफ़ बढ़ है जहाँ सिर्फ़ किसी लेखिका कोई तराना बार मैं लिखना पड़े लेखिका और न जाने कितनी लेखिकाओं को सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम के गीत लिखने हम ऐसे समाज की ओर बढ़ सके ।  ये संग्रह बेहतरतीब बाँस का जंगल उपलब्ध हैं ऐमजॉन पर । 

लेखिका:- मधु सोसी "मेहुली"
प्रकाशक:- वनिका पब्लिकेशंस
ऐमेज़ौन लिंक:- https://amzn.eu/d/dXmw9ew





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लेखिका:- मधु सोसी "मेहुली"

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समीक्षा

डॉ. अवध बिहारी पाठक, सेवढ़ा, दतिया, मध्य प्रदेश, मो. 9826546665


अपराजित यथार्थ - बनाम 'काला जल'


'बाए दीवान गिए शौक के हरदम मुझको

आप जाना उधर और आज ही हैरां होना। ग़ालिब

हिन्दी उपन्यास विधा ने अपने स्वरूप - विकास के तमाम मानीखेज पड़ाव बनाए और अपनी अर्न्तयात्रा को जारी रखा, सैकड़ों रचनायें साहित्य फलक पर उभरी और अपनी-अपनी तरह के मूल्य-मान स्थापित किये । उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद ने आदर्शोमुखी आधारशिला रखी, तो मंटो ने संवेदना को अपना प्रतिमान बनाया, उधर जैनेन्द्र ने मनोवैज्ञानिक उतार-चढ़ाव को महत्तव दिया, जिनकी कमोबेश अनुगूंज शानी के 'काला जल' में ध्वनित होती है । 

शानी ने साहित्य अकादमी, दिल्ली की मुख पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य, वर्ष 2, अंक- 8, सन् 1982 के अंक में बतौर संपादक अपने संपादकीय का शीर्षक दिया है 'आप जाना उधर... । ' जो उपरि लिखित गालिब के एक शेर का टुकड़ा है, अपने आप में शेर की जान । 'काला जल' तब तक प्रकाशित हो गया था, परन्तु शानी का हृदय समाज और कहना चाहिए भारतीय समाज के एक अंग मुस्लिम समाज को देखता और खुद हैरां हो रहा था, उसके मानसिक धरातल पर उपन्यास के पात्रों की आवाजाही की दरकार थी । यह काला जल केवल जगदलपुर के ताल का नहीं था जो गंध छोड़ रहा था बल्कि समाज की वह जीवन प्रणाली है जो विकार ग्रस्त है, जो मानवीयता और इन्सानी तकाजों से बहुत दूर है, साथ ही प्रगतिगामी मूल्यों के प्रति उदासीन । “सैयदी चेतना क्रान्ति' का तथाकथित दौर भी आया । परन्तु अवाम को उल्लू बनाकर चला गया केवल सतही सलाहियत देकर । समाज के भीतर व्याप्त सड़न की ओर तब न देखा गया और आज भी इस ओर आँख मूंद कर हम आत्म मुग्ध बने चले जा रहे हैं । शानी ने समाज के इसी यथार्थ को अपने उपन्यास काला जल में बहुत गहरे जाकर मूर्त रूप दिया, यद्यपि उनसे पहले भी पहल तो हो गई थी इस ओर अन्य लेखकों द्वारा, परन्तु शानी ने इन्सानी जिन्दगी के उन दरवाज़ों को खोला जिनपर अलीगढ़ के ताले पड़े थे । 

रचना के उत्स तक पहुचने के लिए उसका विन्यास जान लेना जरूरी है । इस उपन्यास को तीन स्थूल विभागों में बांटा गया है- अल- फातिहा : लौटती हुई लहरें, भटकाव : दिशाएँ चूमती हुई स्त्रोतस्विनी और तीसरा -ठहराव । फिर इन्हें सोलह उपविभागों में बांटकर कथा का विस्तार किया गया है । यदि जरा भी गौर से देखें तो शीर्षक ही रचनाओं के वैचारिक उतार-चढ़ाव की बात बयान कर देते है । इन मुख्य शीर्षकों से पहले सीधा-सीधा प्राक्कथन न होकर भी प्राक्कथन-सा कुछ है जो उपन्यास- अभ्यंतर की ध्वनि है । रचना की नींव तो प्रत्यक्षतः दिखाई नहीं देती परन्तु रचना का सारा ताना-बाना उसी पर खड़ा किया गया है, स्थितियों, प्रसंगों, परिवेश की शिनाख्त-सा कुछ करते हुए । 

यहाँ पर सबसे पहले जगदलपुर के इन्द्रा नदी के किनारे बसे उस गाँव-मोहल्ले की चर्चा है जिसके छोर पर छोटी फूफी का घर है । मोती तालाब के ऐन किनारे से सटा हुआ । वहाँ गाँव की दरिद्रता है । आवारा किस्म के मनचले युवकों के साथ नंग-धड़ंग अनचाहे बच्चे हैं । बड़े से मकान में रहने वाला खंखारता हुआ आधा सुनार आधा वैद्य
है । उसकी युवा बीवी है । नल से पानी लाने की उसकी अठखेलियाँ हैं चौखट पर बैठी बार-बार रास्ते को ताकती श्रीवास्तव की विधवा बीवी है । सुनारिन की चेष्टाओं पर फब्तियों कसते जाट- पंजाबी हैं । मरघिल्ले मुसलमान क्लीनर, ड्राइवर है । आते जाते ट्रक हैं । सुनारिन की रंगबाजी पर उसके पति द्वारा पिटाई के दृश्य हैं । शबे बरात की तैयारी में रूमाल से सिर ढके कासिम भाई है । ठीक वहीं पर 'मैं' यानी कथावाचक यानी बब्बन अपनी फूफी की सूचना के इन्तिजार में खड़ा है । उसकी माँ कहती है जाने को, परंतु तभी बब्बन की फुफेरी बहिन रूबीना बुलाने आ जाती है । वह उसके साथ फूफी के खण्डरनुमा मकान में पहुंचता है । फूफी के यहाँ भी शबे बरात का प्रबंध गरीबी में किया गया है देहरी की जानी-अनजानी आत्माओं को पिण्डदान करने के लिए । यहाँ आकर उसने अपने फूफी के घर की उदासी देखी । गरीबी देखी, अपनी फुफेरी भाभी के असहयोग की स्थिति को जाना और सबसे बड़ी हादसे की बात उसने जानी यह कि फूफी का लड़का मोहसिन गैर ज़िम्मेदाराना ज़िन्दगी के चलते जो कभी फूफी की पीढ़ी का तीसरा पुरूष सदस्य है- अपने पुरखों को लोबान सुलगाने के लिए तैयार नहीं । इसी कारण बब्बन को जो फूफी के भाई का बेटा है, शबे बारात में पिंडदान करने के लिए बुलाया गया है । वह भी इसलिए कि रक्त तो एक ही है न । फूफी का परिवार वह परिवार है जो सफलता के शिखर से लुड़ककर फांके की स्थिति में पहुंच गया किन्तु अजीब जिजीविषा और पुरखों के प्रति कर्तव्य का भान कि उन्होंने हर परिवारजन की रूह के मोक्ष्य के लिए वह सब किया, जो गरीबी में संभव न था । फूफी के लिए सारा अतीत यहाँ वर्तमान में खड़ा दिखा । ध्यान रखा जाना होगा कि यहाँ एक ऐसी स्थानीयता का चित्र उपन्यासकार ने प्रस्तुत किया है कि अल-फतिहा केवल एक घटना सम्पन्न होने के प्रसंग से की एक संपूर्ण और पुष्ट कथानक बन गया । डूबती उतराती स्मृतियों के सहारे कथानक बनाया नहीं गया बल्कि स्मृतियों के आलोक में बन गया । गालिब ने कभी कहा था “मिटाया मुझको होने ने' यहाँ भी कुछ ऐसा हुआ कि रूह ने समग्र दो परिवार की तीन पीढ़ियों का इतिहास ही रच डाला और उपन्यासकार की तटस्थता देखकर आश्चर्य होता है । इस 'होने को' उसकी हलचल को किसी ने भी अनुभव नहीं किया । 

उपन्यास का कथानक एक रेखीय नहीं है । वस्तुतः वह सूक्ष्म स्थूल की ओर गया है । सारी कथा दो परिवार के ध्रुवों पर केन्द्रित है । एक परिवार है-करामत बेग़ का, जिसके पुत्र का नाम रोशन बेग़ और उसका बेटा मोहसिन है । दूसरा परिवार है, कथावाचक बब्बन के अब्बा का । रोशन बेग और बब्बन के रिश्ते हैं, खूनी रिश्ते, परंतु जाने क्यों दोनों ही की स्थिति छत्तीस इंचीय बनी रही जबकि फूफी और मुमानी परस्पर जुड़ने की कोशिश करती रहीं, परन्तु पुरूष वर्ग की असहमतियों ने परिवारों को सदा दो फांक ही रखा । वह तो गनीमत है कि बब्बन दोनों परिवारों का सेतु बन कर उभरा रचना में, इन परिवारों में वैयक्तिक जीवन के परिप्रेक्ष्य से सामाजिक जीवन-क्रन्दन का मोहक के साथ हृदय विदारक वर्णन है । स्त्री पात्र छोटा हो या बड़ा, स्त्री हो या पुरूष अपने-अपने खेमों में कैद है । वह बाहर आना चाहता है परन्तु कड़ी बंदिशे हैं, मजहब की, सामाजिकता के थोथे दंभ की और सबसे ऊपर अपने अहम् की । इन सबका बड़ा बारीक चित्रण रचना में है । साथ ही बीच-बीच में कथा को प्रवाह देने के लिए मोहर्रम, कर्बला के दृश्य भी है । तो दूसरी ओर समाज सुधार के साथ-साथ नवजागरण गाँधीवादी- नवजागरण को भी नायडू जैसे पात्रों की चर्चा करके उनकी महत्ता और ज़रूरत पर भी प्रकाश डाला गया है । 

रचना का लक्ष्य क्या है? इस बिंदु पर भी विचार करना होगा । शानी का विजन बहुत व्यापक है और वह इन्सानपरस्ती पर आधारित है । समय के प्रवाह में इन्सान को कहां किन मुद्दों पर घुटना-पिसना पड़ता है, उन स्थितियों और तद्जन्य परिस्थितियों परिणामों से समाज और व्यक्ति कहाँ का कहाँ पहुंच जाता है । इसका बड़ी ही बारीकी से चित्रण काला जल में हुआ है । उनमें कुछ की बानगी देख लेना प्रासंगिक है । 

स्त्री के प्रति समाज में भोगवादी दृष्टि घर कर गयी । यह स्थिति किसी विशेष वर्ग या जाति में नहीं, उपन्यास में मिर्जा करामत बेग़ हो या रज्जू मियां या फिर बब्बन के अब्बा । सबके चेहरों पर स्त्री शोषण के दाग हैं । करामत बेग को ही लें-अच्छी भली लड़की बिट्टी रौताइन को अपने प्रेमजाल में फंसा लिया । अपना धर्म बदलकर भी उसे गति न मिली । विलासपुरवाली से दूसरा निकाह समाज दबाव से नहीं बल्कि उनकी भोगवादी दृष्टि का द्योतक
है । रज्जू मियां जैसे पात्र को शानी ने प्रस्तुत करके समाज में पल रहे ऐसे दुराचारियों की ख़बर ली है जो सारी सामाजिक मर्यादाओं को ताक में रखकर अपनी लिप्सा की पूर्ति चाहते हैं । उधर उस परिवार को देखें तो बब्बन के अब्बा अपनी नौकरी के वेतन का बहुत बड़ा भाग उस औरत पर खर्च करते हैं, जहां वे अटके हैं अपने बच्चों, पत्नी, बहनोई, बहिन की हजार समझाइशों के बावजूद । पत्नी का कहना कि “मैं कब कहती हूं तुम पावों में जंजीर डाल कर मेरे पास रहो, शुरु से जो आदत पड़ गई है जायेगी कहां, लेकिन करने-करने के भी तो तरीके होते हैं । कम से कम घर के बाल बच्चों को तो मरा मत समझो । "कोई प्रभाव नहीं कर पाता रज्जू मियां की अपनी पालित पुत्री के प्रति आसक्ति जो समाज की दुर्गंध के प्रतीक है उधर बूढ़े सुनार का अपनी पत्नी को भगाकर युवा युवती से सम्बंध चरित्र पतन के प्रतीक है । उध र रशीदा का चाचा से "वैसे रखने की सफेद दाढ़ी दिखाने को पंज वक्ता नमाज... लेकिन इंसान होकर ऐसी क्या नीयत कि सगी बेटी का रिश्ता भुला दिया जावे" । जहीरा भाभी के कथन समाज में व्याप्त निकृष्टतम पतन के चित्र हैं । इन प्रसंगों को शानी ने सामने लाकर यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि यह पतन एक परिवार या व्यक्ति की कुण्ठा नहीं, समाज का रोग है जिसकी ओर हमारी निगाह जानी चाहिए । 

घर परिवार में बहुओं को अपनी बुजुर्ग सासों से पल-पल अपमानित होना पड़ता है । वह खुद उसको घर परिवार, मां-बाप की इज्जत को केवल अपने बेटे की मां होने के दर्प में सास एक क्षण में उतार कर रख देती है “अपने मां-बाप के यहां से एक लौंड़ी ले आती और रहती रानी की तरह कौन ऐसे धन्ना सेठ की बेटी हो कि घर में नौकर-चाकर से काम चलाती थी यहां आकर चर्बी चढ़ी है" इतनी कड़वी बातें सुनकर भी फूफी चुप रहती हैं कहीं कोई प्रतिवाद नहीं, क्योंकि उसका पति भी अपनी माँ का बी दारोगिन का पक्ष लेता है । सच्चाई की ओर से पूर्णत: आँख बंद कर औरत ही औरत का दमन, शोषण करने को तैयार है । तब लेखक का प्रश्न है कि समाज कहां जाएगा । 

सामाजिक विसंगतियों के साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर छद्म का जो विस्तार हुआ है उस ओर भी शानी की दृष्टि गई है । मोहसिन के सामने नायडू का उदाहरण था कि किस तरह अपनी जीविका के साधनों को देशहित में अर्पित करने वाले नायडू को किसी ने न पूछा । मोहसिन एक जगह कहता है 'यहाँ आदमी की कद्र नहीं, जो जितना बड़ा बेईमान है वह उतना ही बड़ा आदमी और चाहे घर हो या बाहर ईमानदारी से चलने की नायडू की सी मौत मिलती है कोई नाम लेवा भी नहीं रह जाता" यहां पर लेखक ने नैतिक मूल्यों, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा की गिरावट के प्रति चिंता व्यक्त की है । 

देशभक्ति और राष्ट्रीयता की जिस पवित्र भावना से अपने त्याग व बलिदान और उत्सर्ग के बल पर हिन्दू-मुसलमान दोनों ने कंधो से कंधा मिलाकर संघर्ष किया था, उन राष्ट्रवादियों की आजाद भारत में उपेक्षा की जा रही है और इसी देश का एक चालाक वर्ग जो गांधी के स्वतंत्रता संघर्ष के समय अपनी नौकरी या झूठी प्रतिष्ठा से चिपका हुआ चुप बैठा रहा तमाशाबीन होकर, वही आजादी के बाद अंग्रेज परस्ती का नकाब हटाकर अपने आप को देशभक्त, राष्ट्रप्रेमी साबित कर रहा है । शानी ने तीखी टिप्पणी मोहसिन के माध्यम से करवाई है- “सन् सैंतालिस के 15 अगस्त के बाद से वैसे लोगों की बाढ़ सी आ गई, हर ईमानदार आदमी या तो उनपर हंसता है या अपना माथा चीर लेता है, बताओ क्या वह रोने का मुकाम नहीं है कि सचमुच त्याग और बलिदान के अवसर पर जो नौकरी या नकली प्रतिष्ठा की आड़ लिए सिर छिपाए बैठे थे, वे गांधी टोपी ओढ़ कर पाप धो बैठे और आज नेता सरपरस्त तथा देशभक्त है, और मिनटों में हमारा भाग्य बना बिगाड़ सकते हैं" यहाँ लेखक ने ऐसे लोगों की राष्ट्रीय भावना, नकली राष्ट्रीय भावना पर धूल फेंकी है । जो देश के कर्णधार और एक बहुत बड़ी आबादी के भाग्य विधाता बने बैठे हैं, जो गांधी, लोहिया, जयप्रकाश, नेहरू के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेक रहे हैं । उनमें वस्तुतः न नैतिकता हैं और न राष्ट्रीयता की भावना । 

आजादी के बाद देश में नौकर शाही की एक बड़ी फौज कुर्सियों पर जा बैठी जिसकी न अपनी कोई विचारधारा है न कार्यशैली का आदर्श । वह अपने एक खास तरीके से देश का संचालन करना चाहती है जो सच और यथार्थ से दूर हो, उन नौकरशाहों के बीच कुछ आदर्शवादी आज पिस रहे हैं, जो छल-छद्म से दूर रह कर ईमानदारी से काम करना चाहते हैं । एक जगह मोहसिन बब्बन से अपनी नौकरी छोड़ देने का कारण बताते हुए कह उठा है । "बेइज्जत होकर निकाले जाने से तो बेहतर है कि इज्जत के साथ अलग हो जाओ, अब इस ओर जाओ तो जान लोगे कि . नौकरी केवल मेहनत, लगन या दिमागी बलबूते पर नहीं की जाती इसके लिए और भी गुण चाहिए, जिनका मेरे पास सिरे से अभाव है, ऐसे-ऐसे लोग भाग्य विधाता बने बैठे हैं, जिनकी सूरत देखना भी पसंद नहीं करता है । "" यहां लेखक ने वर्तमान में व्याप्त उस भ्रष्ट नौकरशाही की ओर संकेत किया है जो सच्चाई और ईमानदारी को आँखें दिखा रहे हैं और न केवल आँखें बल्कि तर्क वितर्क के जरिए खुद को ठीक सिद्ध करने के लिए एडी चोटी तक जोर लगा रहे हैं । लेखक का संकेत है कि अवाम आख़िर चुप क्यों हैं, ऐसे अवसरों पर उसे सच का साथ देना चाहिए । 

शानी ने इस रचना के माध्यम से एक गंभीर प्रश्न को भी उठाया है । गांधी के नेतृत्व में हिन्दू मुसलमान दोनों ने संघर्ष किया खुद मोहसिन ने जगदलपुर के बीहड़ में इंकलाब की आवाज़ बुलंद की, आजादी के बाद जो शेष मुसलमान भारत में रह गये थे, उनकी देशभक्ति और निष्ठा पर अविश्वास क्यों? मोहसिन एक जगह गये थे, उनकी देशभक्ति की ओर निष्ठा पर अविश्वास क्यों? मोहसिन एक जगह कहता है । " तब मुझे रोना आता था लोग हमें बेइमान क्यों समझते है... । सिर्फ यही है कि हमने मुस्लिम परिवार में जन्म लिया"" धर्म और मज़हब के नाम पर देश में जो बिखराव की कोशिश की जा रही है शानी ने उस ओर भी दृष्टि डालने पर जोर दिया है । मोहसिन पाकिस्तान जाने का विकल्प खुला रखता है, परन्तु बब्बन ने उसे चेताया भी, “लेकिन पाकिस्तान पहुंचने के बाद भी तुम्हें लगा कि ठगे गए तो फिर कहाँ जाओगे? अरब या ईरान" लेखक का संकेत है कि एक देश तो दो बन गए परंतु अशफाक की 80-82 बरस की बेवा माँ अपने दो बेटों से जो एक पाक दूसरा भारत में है कहीं नही जुड़ पाती । अस्तु, अधर में रहना ठीक नहीं । वस्तुतः अलग नहीं हो सकते क्योंकि देश भले ही दो हो, हमारी सांस्कृतिक जड़ें इतनी गहरी है कि ज़मीन पर विभाजन रेखा भले ही खिंच जावे, पर मन पर खींचना कठिन है । लेखक कहना चाहता कि मज़हबों के नाम पर लोग सियासत करते हैं हमें उल्लू बनाकर । वस्तुतः हममें अलगाव का विचार सियासत दां की नजरों में भले ही रहा हो । हममें परस्पर अलगाव न तब था और न अब । पात्रों के उदात्त चरित्र के बिन्दु पर विचार करने पर दिखता है कि रचना के अधिसंख्य पात्र अपनी-अपनी खोलियों में बंद है । ईगों ग्रस्त, परम्परा और अकीदों से हटकर सोचने की चेतना उनमें दिखाई नहीं देती । वक्त से लड़ने के तेवर नदारद, कुछ पात्र रेखांकित करने योग्य है और उन सबमें जीवंत पात्र हैं, सालिहा - सल्लो-सल्लो आपा, उसके व्यक्तित्व के स्थापत्य में अपने वर्तमान की जड़ जमींन को तोड़ने की ललक है, जज्बा है, कुछ ऐसा नया करने की इच्छा जो लीक से हटकर अपनी परिस्थिति को चुनौती देती है । समाज ने जिन क्षेत्रों में जाने पर उसे प्रतिबंधित किया उस बाड़ को वह तोड़ना चाहती है । पैंट, शर्ट, कोट में जब बब्बन ने उससे ऐसा करने का कारण पूछा तो बड़े ही सहज भाव से उसने उत्तर दिया “तुम लोग रोज पहनते हो मैंने सोचा कि उसको लाओ आज हम भी पहिन कर देखते हैं" यहां उसके उत्तर में तमाम अनागत दुश्चिंताओं से टकराने का साहस टपका पड़ता है, लड़कों जैसे आचरण करना, निसिद्ध साहित्य को देखना, लड़कों से संकेतों में बात करना, कर्बला में जाकर ताजिये देखना ऐसी गतिविधियां हैं, जो उसके चरित्र को बुलंदी पर पहुंचाती हैं । वह अपने औरतपन के संकोच को एक ओर खिसका कर घर-समाज में अपनी उपस्थिति को दर्ज कराने को प्रस्तुत है । हजार जोख़िम उठाकर सल्लो की निडरता फिर बार-बार डर से गुजरना, बब्बन के बहाने से अपने मन की उस स्थिति पर पहुंचना जहां डर न हो, आदि देखकर मुझे जैनेन्द्र के त्याग पत्र की मृणाल की याद आती है । यहाँ सल्लो बब्बन एक दूसरे के सुख-दुख में हिस्सेदार हैं । वहां मृणाल के साथ प्रमोद है, मृणाल की भांति ही सल्लों के सपने है, न मूर्त हुए वे मृणाल के, और न ही सल्लो के, लेकिन तोड़ा ज़रूर दोनों ने ही उन बंदिशों को जो उनको कैद का अनुभव देती थीं । यह अलग बात है । इसमे सल्लो को अपने प्राण गंवाने पड़े और मृणाल को पति का घर छोड़ना पड़ा । इस प्रकार सल्लों के रूप मे शानी ने एक अद्भुत पात्र दिया जो अपने तई सबको (अपनी स्थिति वालों को) देखा, तो प्रेरणा स्रोत बनी दिखी । 

एक और पात्र मोहसिन है जो अपने घर, परिवार, समाज से बाहर निकलकर जिन्दगी को प्रयोगधर्मी बनाने को लालयित दिखा । अपनी अम्मा और अब्बा के साथ ही वह अपने सामने खड़े वक्त को चुनौती देता दिखा । राष्ट्रीय आंदोलन में नायडू के साथ भाग लेना, स्कूल के अनुशासन को धवस्त करना, पंडित वाणी विलास के आंदोलन में सक्रिय रहकर समाज में जागृति लाने के प्रवचन करना, हिन्दू धार्मिक आंदोलनों में भाग लेना ऐसे काम हैं जो उसकी मानसिक धरातल की हलचल के प्रतीक हैं । मुहर्रम के समय कर्बला में पर्चे बँटवाना और कर्बला में इमाम हुसैन की बेचैनी को खुद में महसूस करना उसकी एक स्वतंत्र विचारधारा के चित्र है । इससे भी आगे जाकर आज का माहौल रास न आने पर अपने सिद्धान्तों के रक्षार्थ नौकरी ही छोड़ देना, पत्नी और मां बच्चों की चिंता किए बगैर, उसकी दुस्साहसी प्रवृत्ति को दर्शाते हैं । वस्तुतः मोहसिन आज के मुस्लिम युवा वर्ग का प्रतिनिधि मुझे जान पड़ रहा है जो आज अपने विकास की राह नहीं खोज पा रहा है और अन्ततः इसी संघर्ष को झेलते-झेलते उसे अपनी जड़ों से ही खोद कर फेंक दिया जाता है, न इधर का रहा न उधर का । 

असहाय और जिन्दगी से हताश निराश मनु को श्रद्धा ने जो संबल दिया उसके परिणामस्वरूप ही प्रसाद ने कहा "नारी तुम केवल श्रद्धा हो । " यहां एक स्त्री पात्र मुझे नजर आती है छोटी फूफी मोहसिन की माँ, जिसमें जिन्दगी को जीने का जज्बा है । हजार मुसीबतें उसके रास्तों में आई, परन्तु अपने ईमान को नहीं डिगने दिया । कर्तव्य पालन की जो मिसाल इस पात्र में शानी ने खड़ी की है वह अद्भुत है । भले ही उसके तेवर विद्रोही न हों, सच में वह विद्रोही कहीं नहीं दिखी, परन्तु सामने आए हर संकट को उसने एक नारी की गरिमा के अनुरूप, सहज ढंग से झेला । दारोगिन बी-अपनी सास-की रोज की डाँट फटकार, अपशब्दों को सुना, पति के नखरे उठाए, उसके आतंक को सिर आंखों पर किया, रज्जू मियां की ओछी हरकतों का प्रतिवाद नहीं किया, अपने भाई और भाभी की सदा ख़ैरख़्वाह रही । जहां तक कि बब्बन के हाथ से फांकों की दशा में पैसे भेजे गये । भले ही मायके में बरसों से आना-जाना नहीं, परंतु बब्बन को देख अपनापन, द्रवित होकर वह निकला " मोहसिन इसको कभी मत मारना यह तेरा छोटा भाई है" और फिर फूफा के निधन और मोहसिन की गैर जिम्मेदाराना चाल चलते हुए भी बहु नातिन को देखना भालना और अंत में घर के सब पुरखों को अल-फातिहा के समय उनकी रूह को लोबान बब्बन के हाथ छिड़कवाना । गरीबी में भी ये प्रबंधन और उन रूहों की मुक्ति के लिये भी प्रार्थना करना, जिन्होंने उसे खूब प्रताड़ित किया, जीते जी कलंकित करना चाहा उसे महान् बना देते हैं । 

'काला जल' रचना अपना कहां स्थान बनाती है, इस बिन्दु पर अपनी दृष्टि से कहना चाहूंगा कि अपनी खास उपलब्धियों के कारण यह एक विशिष्ट रचना है । पहली बात कि प्रकृति के दृश्य और इसके साथ पात्रों के बनते बिगड़ते मूड्स को शानी ने अद्भुत भाषा देकर सजाया है । दूसरा कारण है-मुहर्रम और कर्बला के दृश्य बड़े सजीव अपने अतीत को वर्तमान में मूर्त करने में समर्थ हैं, तीसरी बात इस्मत आपा और राही मासूम रज़ा इस्लामी समाज, परिवार और व्यक्ति यानी संस्कृति के जीवंत चित्र अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किए हैं परन्तु पात्रों को मनोवैज्ञानिक वैचारिक उतार-चढ़ाव के जो चित्र शानी ने काला जल में उकेरे हैं वे अद्भुत और विरल है । यही कारण है कि काला जल में दो मुस्लिम परिवारों के टूटने-बिखरने की कथा है परन्तु उसमें मनोदशाओं का जो विचार छिपा है, वह सारे हिन्दुस्तान का है उसके हर गाँव, परिवारों का । इसमें समग्र भारतीय परिवेश की घटनायें समाहित है । स्थान, नाम बदलने पर तद्नुसार ध्वनि उनसे उत्पन्न होने लगेगी । 

यूं तो हर रचना में कथानक, पात्र और घटनायें होती हैं और वे अपने-अपने ढंग से किनारे लगती है पर जो घटनावली को एक ओर खिसका कर पात्रों की उदात्तता के मुद्दे को लेकर खुद को ही अतिक्रमित कर जाए, वही क्लासिक बनती है । देखें एक स्थल पर सल्लो बब्बन से कहती हैं " बब्बन भैया मैं मरने से नहीं डरती-डर तो मुझे कब्र से बहुत लगता है । "" यहां सल्लो मौत को चुनौती देती है एक दूसरे स्थल पर जब अल-फातिहा की रोटी बब्बन के हाथ पर रखने में सल्लो का नाम आता है तो फूफी ने कहा “ ठहरो मैं अफशां भूल गई और यह कहकर एक पुड़िया उठा लाई, बब्बन ने पूछा फूफी अफशां तो ब्याहता लड़कियां लगाती हैं न" फूफी ने उत्तर दिया- "जानती हूं सल्लो कुंवारी ही मरी है, लेकिन फातिहा तो उसकी रूह को हो रही है न । उसने मुझसे कई बार कुट पिट कर भी माँग में अफशां भरना नहीं छोड़ा" ऐसे कथन, और और स्थितियों/सारे राग द्वेष बिसार देती है । मन में पवित्रता की आहट होती है । 'यहीं आकर काला जल अपनी सड़ांध और गन्दगी के बावजूद काला जल नहीं रहता वह गंगा जल बन जाता है । यहीं आकर रचना खुद को अतिक्रमित करती है अस्तु कालातीत और कालजयी बन जाती है । 

सच पूछा जाये तो शानी पर यद्यपि खूब लिखा गया परन्तु उनके लेखन का जो स्थापत्य रचनाओं में है उसका मूल्यांकन अभी होना बाकी है और जब तक हम अपने घेरे नहीं तोड़ेंगे । शानी को उसके कृतित्व को समझ नहीं सकेंगे । 


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समीक्षा


‘मेरा कमरा’ में आत्मीयता का सौंदर्य

यह वास्तव में सुखद है कि हिंदी साहित्य में अब डायरी लेखन को समय और स्थान दिया जा रहा है । डायरियाँ अब व्यष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर हो चुकी हैं । इनके माध्यम से किसी लेखक के दैनिक जीवन में हो रहे सुखद-दुखद क्रिया-कलापों, वैचारिक आलोड़नों एवं साहित्यिक-सामाजिक घटनाओं की झलक मिल रही है । हाल के वर्षों में बहुत से लेखकों की गंभीर डायरियाँ आई हैं, जिनसे लेखक कई स्तरों पर पाठकों से जुड़ने में सफल रहा है । यदि लेखक पहले से ही सरल-सहज और जनचेतना के प्रति समर्पित रहा हो तो डायरी की उपयोगिता और भी बढ़ जाती है । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रो. रामदरश मिश्र की नवप्रकाशित डायरी ‘मेरा कमरा’ है । 

‘मेरा कमरा’ रामदरश मिश्र जी द्वारा मोटे तौर पर सन् 2016 से 2019 के बीच दर्ज छिटपुट, छोटी-मोटी घटनाओं का एक जीवंत व मधुर संकलन है, जिसमें वे बड़ी शिद्दत एवं लगाव के साथ अपने बीत रहे पलों को जीते हैं, समझते हैं और शब्दबद्ध कर देते हैं । एक सफल लेखक की विशिष्टता यही होती है कि वह अपने अनुभवों और एहसासों को पाठक का अनुभव और एहसास बना देता है । उसकी अनुभूतियाँ अपनी होते हुए भी अपनी नहीं रह जातीं । न जाने कितने लोग उसे अपना मान बैठते हैं, उनकी तारीखें और चरित्रों के नाम अलग हो सकते हैं । डायरी की यह विशेषता रामदरश मिश्र की इस पुस्तक में पंक्ति-दर-पंक्ति मिलती जाती है । 

इस डायरी में किसी बड़ी राजनीतिक, सामाजिक या साहित्यिक घटना का उल्लेख या वर्णन नहीं मिलता । बस, लेखक अपने आसपास की छोटी-छोटी चीजों का अवलोकन करता रहता है । प्रायः कोई लेखक या संपादक, कोई शोधछात्रा या कभी कोई परिचित मिश्र जी के आवास पर मिलने आता रहता है । कभी कोई त्योहार है तो कभी कोई छोटा-मोटा साहित्यिक आयोजन । लेकिन इन छोटी चीजों को बड़ा और महत्त्वपूर्ण बना देना ही रामदरश मिश्र का बड़प्पन है, उनके लेखन की विशेषता । 

डायरी का पहला प्रसंग ‘मेरा कमरा’ है, जिस पर 08 अक्टूबर 2016 की तिथि अंकित है । इसे डायरी का पृष्ठ कहने के बजाय एक ललित लेख कहना बेहतर होगा । लगभग सात पृष्ठों के इस लेख में मिश्र जी एक कमरे को कई कोणों से देखते हैं तथा उससे बड़ी आत्मीयता से जुड़ जाते हैं । यह कमरा उनका कमरा न होकर उनके सुख-दुख का अभिन्न साथी है । इसमें बैठकर उन्होंने जीवन के न जाने कितने ताने-बाने बुने हैं । कितने मधुर और सुखद क्षण इसी कमरे ने महसूस कराए हैं । सामान्यतः मनुष्य पूरा जीवन कमरे में निकाल देता है, लेकिन उससे जुड़ नहीं पाता । यह जुड़ाव ही मिश्र जी के लेखन की विशेषता है । इस लेख में वे गाँव में बिताए अपने प्रारंभिक जीवन से लेकर उत्तम नगर के अपने वर्तमान मकान के कमरे से जुड़ी यादों को बहुत आत्मीयता से उकेरते हैं । ग्राम्य संस्कृति में पुरुषों के लिए कोई कमरा न होने को वे ढंग से रेखांकित करते हैं, भले ही वहाँ मकान बड़ा होता रहा हो । इस पर कम लोगों का ध्यान जाता है कि वहाँ पुरुष की कोई निजता नहीं होती । कमरे के नाम पर अलग से उसके लिए यदि कुछ होता है तो उसकी पत्नी का कमरा । 

यह लेख वास्तव में कमरे को लेकर एक मधुर संस्मरण और विमर्श का पाक है । कहना न होगा कि मिश्र जी ने कमरे के माध्यम से अपनी लेखकीय संवेदनशीलता और गरिमा का परिचय दिया है । छोटी चीजों और छोटे लोगों को वे बड़ा महत्त्व एवं स्नेह देते हैं । उल्लेखनीय तो यह भी है कि उन्हें ‘साहित्य अकादमी’ एवं ‘व्यास सम्मान’ जैसा बड़ा सम्मान दिलाने का श्रेय क्रमशः ‘आग की हँसी’ और ‘आम के पत्ते’ काव्य-संग्रहों को जाता है, जो जीवन की छोटी-छोटी, उपेक्षित वस्तुओं या व्यक्तियों के पक्ष में बोलते हैं । 

दिनांक 04 जनवरी, 2016 के पृष्ठ पर ‘फिर नया वर्ष’ शीर्षक के अंतर्गत नववर्ष के श्वेत एवं श्याम पक्षों पर खुलकर लिखते हैं । इसमें वे हिंदी की पत्रिकाओं को सलाह देते हैं कि उन्हें अच्छी रचनाओं के लिए खुला रहना चाहिए । वे ऐसे अ-महान लोगों को स्थान दें जो महान न होते हुए भी दीप्तिमान हैं । दूसरी ओर वे उन पत्रिकाओं पर व्यंग्य कसते हैं जो केवल महान लोगों को छापकर ही महान बनी रहना चाहती हैं । व्यंग्य की इस धारा में वे उन लोगों को भी घसीटते हैं, जिनका कोई पर्व-त्योहार शराब के बिना नहीं मनता । 

रामदरश मिश्र की आत्मीयता एवं सहज स्वभाव के कारण लेखकों, संपादकों, शोधछात्रों, प्रकाशकों एवं कुछ सामान्य पाठकों का आना-जाना प्रायः लगा रहता है । जो भी आता है, उसे मिश्र जी का स्नेह एवं समर्थन मिलता है तो माता सरस्वती जी के हाथों का चाय जलपान । इस डायरी संग्रह में उनसे मिलने जाने वाले अनेक लोगों का जिक्र है । इस क्रम में हरजेंद्र चैधरी, गुरुचरण सिंह, प्रेम भारद्वाज, गौतम मिश्र, नरेश शांडिल्य, शशिकांत, राधेश्याम तिवारी, नरेंद्र नाथ मिश्र, कल्लोल चक्रवर्ती, डॉ. वेदप्रकाश पांडेय, सविता नागर एवं अन्य कई लोगों से घर पर मिलने का जिक्र हैं तथा उनसे हुए साहित्यिक संवादों को रेखांकित किया गया है । 

डायरी के कई पृष्ठ कतिपय उत्सवों, गोष्ठियों एवं पुस्तक मेले में उनकी उपस्थिति को दर्शाते हैं । ग्राम्य पृष्ठभूमि का होने के कारण मिश्र जी उत्सवप्रेमी हैं । इनमें धार्मिक उत्सवों के साथ साहित्यिक उत्सव एवं जन्मोत्सव में हुई सहभागिता को बहुत महत्त्व देकर लिखा गया है । देखा जाए तो दीवाली एवं होली पर लिखे गए पृष्ठ पूरी तरह निबंध एवं संस्मरण का स्वाद देते हैं । एक होली पृष्ठ 13 मार्च, 2017 की तिथि पर है जिसमें वे अपने वर्तमान होली की तुलना पहले की होली करते हुए कुछ उदास से दिखते हैं । अंदर होली की पुरानी गूँज होती है, लेकिन बाहर का वातावरण बदल चुका है । दूसरी होली का पृष्ठ 19 मार्च, 2019 है जिसे लिखते समय वे बी.एच.यू. की होली याद करने लगते हैं । यह होली ऊर्जा से भरपूर है । बनारस की होली में ऊर्जा का न होना अस्वाभाविक होगा । वे अपने छात्रजीवन की होली को बहुत शिद्दत से याद करते हैं, जिसमें हुड़दंग, रंग-गुलाल और गीतों के रंग के साथ साहित्यिक रंग भी मिला होता था । लेकिन, ऐसी उमंगपूर्ण होली साथ छोड़ गई और रह गई हैं बस कुछ यादें । होली पर ही एक और पृष्ठ 02 मार्च, 2018 का है । 

मिश्र जी के ‘कमरे’ में उनके जन्मदिन के उत्सव एवं पुस्तक मेला भ्रमण बड़े आह्लादकारी होते हैं । उनके जन्मदिन पर दिल्ली में रहने वाले कुछ खास साहित्यकार मित्र एकत्रित होते हैं । वह जन्मोत्सव एक लघु किंतु स्तरीय कविगोष्ठी में बदल जाता है । पिछले कई जन्मदिनों पर बहुत सी पुस्तकों-पत्रिकाओं का विमोचन हुआ, जिनमें मिश्र जी पर एकाग्र पाखी का अंक व उनकी स्वयं की पुस्तकें थीं । इसके अतिरिक्त इस अवसर पर अनेक लेखक अपनी पुस्तकों का विमोचन मिश्र जी के हाथों करवाना अपना सौभाग्य समझते हैं । इस परिप्रेक्ष्य में वे इस डायरी में 15 अगस्त, 2017 को मनाए गए 94 वें जन्मदिन का वृत्तांत 16 अगस्त के पृष्ठ पर लिखते हैं । दिनभर मिलने वाली तमाम दूरभाषिक शुभकामनाओं से मन भरा हुआ था ही, सायंकाल पुत्र शशांक मिश्र के द्वारका स्थित आवास पर मिश्र जी का जन्मदिन आत्मीयों की वास्तविक उपस्थिति में मनाया गया, जिसमें ‘संवाद-यात्रा’ (साक्षात्कार संग्रह- संपादकः हरिशंकर राढ़ी), ‘रात सपने में’ (कविता संग्रह), ‘सपना सदा पलता रहा’ (गजल संग्रह) और ‘एक बचपन यह भी’ (उपन्यास) का लोकार्पण हुआ । यह पूरा वृत्तांत इस प्रकार लिखा गया है कि वातावरण सजीव सा हो गया है । 

यद्यपि शरीर बाहर जाने की पूरी तरह अनुमति नहीं देता, फिर भी मिश्र जी कुछ खास कार्यक्रमों एवं उत्सवों में चले ही जाते हैं । इनमें आकाशवाणी के कुछ विशेष कार्यक्रम, ‘सोच-विचार’ पत्रिका के रामदरश मिश्र एकाग्र अंक के लोकार्पण पर वाराणसी की उजासभरी यात्रा और उपन्यास ‘जल टूटता हुआ’ पर बन रही फिल्म के मुहूर्त पर लखनऊ की यात्रा के वृत्तांत बहुत मन से लिखे गए हैं । वाराणसी यात्रा के संबंध में वे लिखते हैं - ”कुछ जगहें हैं जो मुझे पुकारती हैं-मसलन गाँव, काशी और अहमदाबाद । “ लखनऊ की यात्रा मिश्र जी को उतनी नहीं रुची जितनी कि वाराणसी की । मुहूर्त के समय फोटो खिंचाने की होड़ में लगे लोग सामान्य शिष्टाचार भूल जाते हैं, जिससे वे व्यंग्यात्मक हो उठते हैं । 

पुस्तक मेले भी लेखक को बहुत पुकारते हैं । दिल्ली के प्रगति मैदान में हर वर्ष जनवरी में लगनेवाले पुस्तक मेले में जाने का लोभ संवरण वे नहीं कर पाते । हर वर्ष उनकी कुछ पुस्तकें आई हुई होती हैं, कुछ अन्य लेखक मित्रों की, उनका विमोचन होना होता है । फिर पुस्तक मेला एक साहित्यिक कुंभ होता ही है । न जाने कितने लोगों का मिलना वहाँ एक साथ हो जाता है । इस डायरी में ऐसे कई दिन दर्ज हैं । 

सामान्यतः घटने वाली सुखद-दुखद घटनाओं के अतिरिक्त इस डायरी में कई ऐसे लेख हैं जो साहित्य एवं समाज पर खुलकर बोलते हैं । उनसे एक ईमानदार विमर्श निकलता है । वे ऐसी अनेक साहित्यिक टोटकों एवं व्यापारीकरण पर व्यंग्यात्मक हो उठते हैं । कई संस्थाओं द्वारा दूकानदारी की भाँति चलाए जा रहे पुरस्कार-सम्मान वितरण से वे नाखुश तो हैं ही, उन लेखकों की मानसिकता पर भी हैरान हैं, जो ‘चिरकुटिया’ सम्मान के लिए धरती-आकाश एक कर देते हैं । 

न जाने कितने प्रसंग ऐसे हैं, जो पाठक को भावुक कर जाते हैं । रिक्शावाले, फुटपाथ के दर्जी, मजदूरों एवं रेहड़ीवालों के प्रति उनकी संवेदना बार-बार प्रकट होती है । पारिवारिक आयोजनों, सदस्यों एवं सदस्यों के स्वभाव की चर्चा तो वे करते हैं, किंतु जिस प्रकार से करते हैं वह व्यक्तिगत न होकर सामाजिक सा बन जाता है । यही उनके डायरी लेखन की व्यापकता है । अंत तक जाते-जाते डायरी बहुत गंभीर हो जाती है । निजी प्रसंग धीरे-धीरे लुप्त जो जाते हैं और उसका धरातल व्यापक हो जाता है । तमाम सामयिक प्रश्न उठने लगते हैं और मिश्र जी अपना पक्ष निष्पक्षता एवं सरलता से रखते जाते हैं । 

पूरी डायरी से गुज़र जाने के बाद लगता है कि किसी ऐसे लेखक के व्यक्तिगत जीवन एवं विचारों की यात्रा की है, जिसकी निजता एवं सार्वजनिकता में कोई विशेष अंतर नहीं है । यह डायरी उन लोगों के लिए अधिक मूल्यवान है जो मिश्र जी के जीवन को नजदीक से नहीं जानते और एक सच्ची लेखकीय वैचारिकता का साक्षात्कार चाहते हैं । न तो कहीं दिखावे की लालसा, न आत्मप्रशंसा और न ही कहीं से ठूँसे हुए शब्द या विचार । पुस्तक स्वयं को पढ़वा लेने की पूरी क्षमता रखती है तथा पाठक को अच्छा पढ़ने की आश्वस्ति देती है । 

पुस्तक का नाम: मेरा कमरा (डायरी), लेखक: रामदरश मिश्र, प्रकाशक: हंस प्रकाशन, बी - 336/1, गली नं. 3, दूसरा पुस्ता, सोनिया विहार, नई दिल्ली - 110094, मो. - 9868561340, पृष्ठ: 128, मूल्य: रु 450/- (सजिल्द), समीक्षक संपर्क: बी-532 (दूसरा तल), वसंतकुंज एंक्लेव (बी-ब्लॉक), नई दिल्ली - 110070, मो.: 09654030701, 

Email : hsrarhi@gmail.com


पुस्तक का नाम: मेरा कमरा (डायरी), लेखक: रामदरश मिश्र, प्रकाशक: हंस प्रकाशन, बी - 336/1, गली नं. 3, दूसरा पुस्ता, सोनिया विहार, नई दिल्ली - 110094, मो. - 9868561340, पृष्ठ: 128, मूल्य: रु 450/- (सजिल्द), समीक्षक संपर्क:  बी-532 (दूसरा तल), वसंतकुंज एंक्लेव (बी-ब्लॉक), नई दिल्ली - 110070, मो.: 09654030701, 

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रामदरश मिश्र संकलित कहानियां

प्रस्तुति एवं समीक्षा : चर्चा के बहाने

डॉ. रामदरश मिश्र की कहानियों का आकलन करते हुए डॉ. विवेकीराय लिखते हैं- ‘‘जनवाद के विज्ञापित राजनीति-गंध से रहित देश के शोषित-पीड़ित लोगों के संघर्ष को आपने अपनी अधिकांश कहानियों की पृष्ठभूमि बनाया है । इसीलिए यह कहना बहुत सही लगता है कि उनकी कहानियों की संवेदना में नकली तेवर नहीं, यथार्थ का भीतरी नाद है और शिल्प में छद्म नवीनता के स्थान पर संवेदना के अनुकूल सहज प्रयोगधर्मिता है । ऐसी प्रयोगधर्मिता जब प्रदर्शन, फैशन अथवा फार्मूलों के आग्रह से रहित होती है तभी कहानी के व्यंग्य में निहित पीड़ा पाठकों को झकझोरती है । पीड़ा को सुखद, विचित्र और अनुरंजनकारी बनाकर चित्रित करना उन्हें स्वीकार नहीं । ’’ 

 मिश्र जी के ‘खाली घर’ की चर्चा करते हुए श्री राय कहते हैं- ‘‘एक गम्भीर ह्रास-स्थिति का, बाहर-भीतर की ट्रैजिक रिक्तता और खालीपन का अत्यंत तनावपूर्ण आकलन संग्रह की उपलब्धि है । इसमें ग्राम-बोध और नगर-बोध की अनुभूतियों की आंतरिक स्तर पर टकराहट संलक्ष्य है । लगता है कि परिवार पालन ग्राम-संस्कृति है और सारे पारिवारिक दायित्वों को फेंक कर अपने ‘कैरियर’ का निर्माण करना नगरबोध है । ’’ वस्तुतः रामदरश मिश्र कहानी नहीं कहते, अपने को कहते हैं । उनकी कहानियों का मुक्त निजत्व पाठकों में संप्रेषित-संक्रमित होकर तादात्म्य की स्थिति पैदा कर देता है । गाँव की टूटन और उसकी अकाल-स्थिति की थीम पर लिखी उनकी दो कहानियाँ ‘खण्डहर की आवाज’, और ‘माँ, सन्नाटा और बजता हुआ रेडियो’ में अपने चारों ओर बुनी स्थितियों के घने दबाव से कराहता-टूटता संसार है । खण्डहर की आवाज में तेजी से बदलती स्थितियों में ‘मिस फिट’ होने की नियति पंडित जी को कहाँ से कहाँ पटक देती है । फ्रस्टेशन उन्हें विरोधी राजनैतिक पार्टी में फेंक देता है । 

 ‘माँ, सन्नाटा और बजता हुआ रेडियो’ शीर्षक कहानी सघन संवेदनीयता के कारण अकालग्रस्त ग्राम-जीवन के वास्तव का दस्तावेज हो जाती है । भुखमरी के कारण लेखक की माँ की मौत ग्रामवासिनी भारत माँ की मौत हो जाती है । इस मृत्युबोध के साये में उखड़े गाँवों की तलाश करते हुए वह अपने पिता से प्रस्ताव करता है कि ‘मकान बेच दीजिए और मेरे साथ चलकर शहर में रहिए । ’ गाँव में माँ-बाप मर रहे हैं और शहर में पुत्र आराम से जीता है । शहर सुरक्षित है और गाँव नरककुंड बन गए हैं । इस संकट बोध और विराट विघटन को कथाकार ने अत्यंत नवीन और संश्लिष्ट अभिव्यक्ति दी है । इसका संत्रास अपनी जमीन का संत्रास है, आयातित संत्रास
नहीं । मिश्र जी के पात्र शहर से गाँव लौट कर न तो उसके गंदेपन से घिन मानते हैं और न ही उसकी मूर्खताओं का माखौल उड़ाते हैं और न ही अपने अभिजात तेवर से उसकी हीन स्थिति को आतंकित करते हैं । केन्द्रीय सत्ता पर देश-विदेश की राजनीति नियंत्रित नागर आधुनिकताओं के प्रहारों के चलते सांस्कृतिक संस्थाओं की उखड़न-टूटन कितनी द्रावक हो जाती है! समकालीन त्रासदिक परिवेश में आशावादी होना कठिन है । एक बहुत बड़ी चीज को छोटे लोगों के माध्यम से पहचानने का प्रयास मिश्र जी को बड़ा लेखक बनाता है और वह बड़ी चीज है देश की बदलती स्थिति जिसे गाँव के संक्रमणशील यथार्थ के माध्यम से परावर्तित किया गया है । 

डॉ. विवेकीराय कहते हैं कि आज गाँव को पहचानना कठिन हो रहा है क्योंकि पहचानते-पहचानते वह बदल जाता है । वास्तव में जिसे भारतीय जीवन कहते हैं, वह भावात्मक एकता और सैद्धान्तिक समष्टि भाव के बावजूद बहुत बिखरा हुआ और अन्तराल से भरा हुआ है । "एक वह", " सर्प - दंश ", " वसन्त का एक दिन " आदि कहानी - संग्रहों से गुजरने के बाद यह धारणा बद्धमूल होती है कि सभ्यता और संस्कृति की टकराहट उनके कथा - लेखन की मूल थीम है और यही अन्तर्विरोध पूर्ण वैचित्र्य आधुनिक भारतीय समाज - संरचना की पहचान है । गरीबी, अंधविश्वास और अधकचरी कृषि - क्रांति में डूबे सनातन संस्कृति के स्रोत गाँव की आदिम मस्ती की गंध एक छोर पर चित्रांकित है तो दूसरे छोर पर वैभव की चमक - दमक से लैस और वैज्ञानिक नव विकास के वाहक सुरुचिपूर्ण शहर हैं । दोनों में सामंजस्य का अभाव है । आज की व्यवस्था ऐसी जल्लादी है कि व्यक्ति स्थितियों के आगे आत्मसमर्पण कर देता है । यह मध्यम वर्ग का औसत चरित्र भी है । रामदरश जी की कहानियों में यथार्थ के साथ गहरी भावुकता का सामंजस्य आलोचना का विषय हो सकता है लेकिन थोथी नैतिकता, बहुस्तरीय शोषण, आर्थिक वैषम्य आदि की कलात्मक अभिव्यक्ति के कारण उन्हें ऊंचा पीढ़ा देना पड़ता है । "जल टूटता हुआ" और " पानी का प्राचीर " उनके चर्चित उपन्यास हैं । वैचारिक दासता और शिविरबंदी से दूर सहजता और सादगी उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का विरल धातुगत वैशिष्ट्य है । जीवन के सौ वसन्त देख चुके मिश्र जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है । और वह भी उनके काव्य - सृजन पर । आज के शार्ट कट से दूर इस शब्द - साधक की ये पंक्तियाँ कितनी प्रासंगिक हैं! 


"बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे 

खुले मेरे ख्वाबों के पर धीरे-धीरे, 

जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर 

वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे धीरे, 

जमीं खेत की साथ लेकर चला था 

उगा उसमें कोई शहर धीरे धीरे, 

न खुद को उछाला, किसी को गिराया 

पिया खुद ही अपना जहर धीरे धीरे, 

मिला मुझको क्या न, ऐ दुनिया, 

तुम्हारी मोहब्बत मिली है मगर धीरे-धीरे । " 

—कन्नौज, मो. 98396 11435 

"बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे / खुले मेरे ख्वाबों के पर धीरे-धीरे, / जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर / वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे धीरे, / जमीं खेत की साथ लेकर चला था / उगा उसमें कोई शहर धीरे धीरे, / न खुद को उछाला, किसी को गिराया / पिया खुद ही अपना जहर धीरे धीरे, / मिला मुझको क्या न, ऐ दुनिया, तुम्हारी / मोहब्बत मिली है मगर धीरे-धीरे।"  

कन्नौज, मो. 98396 11435

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समीक्षा

डॉ. सुनीता जैन


क्षमा शब्द होकर भी शब्द नहीं है : डॉ. कमलेश सचदेव

भावात्मक सघनता और बौद्धिक विश्लेषण की अभिव्यक्ति है सुनीता जैन की क्षमा अंग्रेजी की एक सूक्ति के अनुसार गलती करना मानवीय है तो 'क्षमा' करना दिव्य (टु एर इज ह्यूमन, टु फारगिव इज डिवाइन ) । लेकिन क्षमा करना बहुत बड़ी पीड़ा को आत्मसात् करने के बाद दोषी को और स्वयं को भी मुक्त करने की प्रक्रिया से गुज़रना है । सुनीता जैन ने अपनी सद्यः प्रकाशित काव्य-पुस्तक 'क्षमा' में इसी प्रक्रिया को महाकवि तुलसीदास एवं उनकी पत्नी रत्नावली के मध्य घटित होते चित्रित किया है । 

तुलसीदास के जीवन के साथ कुछ किंवदन्तियाँ जुड़ी हैं । जैसे जन्म लेते ही माता-पिता द्वारा उन्हें अशुभ मानकर त्याग देना, जन्म के समय उनका डील- डौल पाँच वर्ष के बालक के समान होना और जनमते ही इनके द्वारा राम-नाम का उच्चारण किया जाना । उनकी पत्नी रत्नावली का उनके पीछे मायके चले आने पर उन्हें तिरस्कृत करना और फलस्वरूप तुलसीदास का संन्यासी हो जाना तो तुलसीदास की रचनाओं के अंतः साक्ष्य से भी प्रमाणित होता है । जनमानस में रत्नावली की छवि चाहे कटुभाषिणी पत्नी की हो लेकिन इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि एक सामान्य पुरुष से महाकवि तुलसीदास बन जाने की निमित्त रत्नावली ही रही । महाकवि निराला ने तुलसीदास शीर्षक कविता में रत्नावली द्वारा धिक्कारे जाने पर तुलसीदास के भीतर हुए रूपांतरण के बाद उनसे कहलवाया है - जो दिया तुमने प्रकाश/अब रहा नहीं लेशावकाश रहने का/मेरा उससे गृह के भीतर/देखूँगा नहीं कभी फिर कर,/लेता मैं जो वर जीवन-भर बहने का । 

सुनीता जैन ने रत्नावली को अपनी रचना का केन्द्रबिन्दु बनाया है । मनुष्य का मन विचित्र यन्त्र है- बहुत बड़ी घटनाएँ, अपमान, कष्ट वह सह जाता है लेकिन कभी-कभी एक छोटी-सी अवहेलना या अपमान उससे अतर्क्स प्रतिक्रिया करवा ले जाती है । रत्नावली ने तुलसीदास को बचपन से स्नेह-प्रेम से वंचित पुरुष को-इतना प्रेम दिया कि वे भीतर तक भर गये । उसके प्रेम में वे इतने आसक्त हो गये कि मायके गयी पत्नी के पीछे अँधेरी तूफानी रात में अनेक बाधाएँ पार करते जा पहुँचे । वहाँ लोकलाज की मारी पत्नी ने उन्हें दुनिया की रीत से परिचित कराते हुए कटु शब्दों में कहा -लाज न आवत आपको / दौरे आयहु साथ/धिक- धिक ऐसे प्रेम को/कहा कहौं मैं नाथ/अस्थि-चर्ममय देह मम/तासों ऐसी प्रीति/ होती जो श्रीराम सों/होति न तो भव भीति । जो बालक माता-पिता और दुनिया- भर का तिरस्कार झेल चुका था, अभावों की मार सह चुका था, वह पत्नी की डाँट न सह सका और पत्नी को त्याग कर चला गया । यह और बात है कि उसने पत्नी द्वारा ही सुझाई गयी राह को अपनाया और श्रीराम से प्रीति लगाकर अपनी महाकवि होने की नियति तक पहुँचा । सुनीता जैन ने जीवन के अन्त समय में तुलसीदास की रत्नावली के प्रति भावनाओं को थाहने का प्रयास किया है और इस क्रम में स्वयं रत्नावली की नारी जीवन, समाज और परम्परा के प्रति प्रश्नाकुलता को वे बहुत हद तक आज के नारी विमर्श के स्तर पर ले आई हैं । तुलसीदास अपने अन्त को निकट जानकर अतीत की सरणियों से गुजरते हैं तो उन्हें रत्नावली के प्रति अपने अन्याय का स्पष्ट भान होता है- 'तुम कहती रही, 'नाथ!' / हे नाथ.../ हे नाथ.../मैं चला गया कर तुम्हें अनाथ । लेकिन वे अपनी उस आत्यन्तिक प्रतिक्रिया की मनोवैज्ञानिक गहराई तक भी पहुँचते हैं- परित्याग सह गया, प्रभु मैं / जननी और जनक से दुर-दुर-दुर भी सही दिनों-दिन / मैंने जग में जन-जन से / किन्तु उसकी धिक्...,/सही गयी न मुझसे । जिससे अत्यधिक प्रेम पाया हो, उससे तिरस्कार मिलना अकल्पनीय था, इसीलिए असहनीय हो उठा । वे इस विषाद से पार हुए अपने शरण्य राम के सहारे- हाँ, मैं तुलसी / हो गया राम में/मेरे शरण्य राम में / घुलता गया महाप्राण में,/खुलता गया छन्द-छन्द में, / ढलता गया पंक्ति-पंक्ति कर/ स्वरचित श्लोक में /हाँ, मैं तुलसी/प्रिया, तेरे दान में । लेकिन वे रत्नावली के कठिन जीवन को अनुभव कर पा रहे हैं- कैसे वहन की होगी तूने/पतित्यक्ता संज्ञा की/दारुण अग्नि ? वे उन अनदेखे - अनपहचाने- अलिखित आँसुओं तक भी पहुँच पा रहे हैं- नहीं कहीं लिखे किसी ने/तेरे आँसू । तेरी दैनन्दिनी । इसीलिए वे अपने तुलसी होने के प्रति उसका आभार मानते, उसके प्रति नत होते और अपने अन्याय तथा उसकी व्यथा को अनुभव करते उससे क्षमा-याचना करते हैं- कितना छोटा शब्द क्षमा-/धिक्... धिक् से भी छोटा, /एक बार/कह, देवी!/ इस विदा से पूर्व मुझे । रत्नावली के हृदय में कटुता नहीं है । उसने तो उन्हें तभी क्षमा कर दिया था- मैंने तो कर दिया था/तभी क्षमा, हे देव, तुम्हें- जब मोड़ लिया था मुँह/अपनी परिणीता से/ उन शब्दों के बदले । लेकिन उसे आश्चर्य है, इसीलिए वह कहती है- और शब्द वे/ इतने बेधक भी तो न थे /बात तनिक संयम की/होती ही हैं पति- पत्नी में । बचपन के स्नेहाभाव की ग्रन्थि तक वह भी पहुँचती है लेकिन अपनी यातना में लपेटकर अपनी बात कहती है-तुमको त्यागा/बिन दोष तुम्हारे / अपने मात-पिता ने/मुझको त्यागा तुमने । वह तुलसीदास के आचरण में पुरुष सत्ता की निरन्तरता देखती है - पहले भूले स्वयं को मुझमें, / फिर भूल गये मुझे, विराग़ में / यही किया क्योंकि/कर सकते थे.../पुरुष आप, सब पुरुष जनित/सत्ता में । वह अपनी परित्यक्त अवस्था की यातना को भी नकारती नहीं है- कैसे निर्वाह करे, कहिए तो /इस कलियुग में/कोई त्यक्ता, निर्वासित नारी ? उसे ताने देने वालों से भी निपटना होता है और देह के लोभियों से भी - किस-किस से और कैसे/रक्षा की निज सतीत्व की । कहने से लजाती । वह अपनी सोच में आधुनिक नारी के निकट है जो आत्महत्या को नहीं, जीवन को चुनती है- मर तो सकती थी / आत्मदाह था सुगम बहुत /पर मात्र चिता ही क्यों/एक विकल्प नारी को ? वह अपने कवि पति को उलाहना देती है- अब जब भी कभी कुछ लिखें तो, /लिखना आचार संहिता सारी-/ परित्यक्ता नारी की । 

रत्नावली के प्रश्नों की भाषा जितनी पाँच सौ वर्ष पूर्व की नारी के मन की व्यथा को व्यक्त करती है, उतनी ही आज की नारी के आक्रोश के भी निकट है । वह विवाह के नियमों के पालन पर सवाल उठाती है । वह सीधे-सीधे पूछती है- क्यों लाता बाँध पुरुष नारी को/जो निभा सके न संग ? वह अपनी देह को अतृप्त छोड़े जाने पर भी प्रश्न करती है - यह देह मेरी हुई रसलीना/अपने पति के नीति- सम्मत, निर्मल प्रेम में/छोड़ दिया इसे आपने/गोखरू काँटे सा बीच राह में । इस रसलीना देह का त्याग करने के बाद उससे मर्यादा की अपेक्षा की गयी जो उसने किसी भी तरह निभाई लेकिन इसकी व्यथा से इंकार नहीं किया जा सकता । तभी वह कहती है- मर्यादा अपने पतिगृह की, /पितृगृह की और स्वयं अपने आचरण की/अपेक्षित रही/किन्तु सबको, सारी-की- सारी मुझसे । इसीलिए स्त्री और पुरुष से समाज की सदाचार सम्बन्धी भिन्न अपेक्षाओं से वह खिन्न है और पति से- प्रकारान्तर से समाज से - पूछती है - क्यों निदेश हैं भिन्न पुरुष को/सदाचार के- /भिन्न निदेश नारी को ? इस समाज में स्त्री से हर स्थिति में मर्यादा पालन की अपेक्षा तो की जाती है लेकिन उसके संरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है । विधवाओं और परित्यक्ताओं की दुरवस्था वृन्दावन के विधवा आश्रमों में आज भी देखी जा सकती है । रत्नावली अपने लिए ही नहीं, नारी जाति की ओर से महाकवि को और समाज को कठघरे में खड़ा करती है— क्यों कोई भी नहीं व्यवस्था/की समाज या सत्ता ने, संरक्षण हेतु-/त्यक्ता, विधवा या पुत्रविहीन स्त्री को ? लेकिन यह भी सही है कि पति या पुत्र का होना मात्र नारी के संरक्षण की गारंटी नहीं है । 

सुनीता जैन की रत्नावली अपनी और नारी मात्र की व्यथा को खुले रूप में सामने रखने के बावजूद पति की महानता के प्रति और उनके अपने लिए प्रेम के प्रति विनीत है । वह उनके क्षमा माँगने से अभिभूत है और अपने अपराध के प्रति जागरूक है । वह जानती है कि मुख से निकले शब्द लौटते नहीं-नहीं लौटती बात कही,/लेकर ही जाती लेना उसको जो/कहने वाले से, प्रतिशोध में/ उसका प्रेम कभी कम नहीं हुआ । उसे गर्व है कि उसने अपने पर आसक्त अपना पति मुट्ठी में भींचकर नहीं रखा बल्कि उसे अपनी नियति प्राप्त करने में सहायक/निमित्त हुई लेकिन दुख यह है कि ज्यों-ज्यों आप देदीप्य हुए जग-भर में/मैं उपहास हो गयी घर-घर में । वह मानसिक रूप से रचनारत पति के बस दो कदम पीछे चलती रही- मैं चलती रही मनस में अपने/दो ही पग पीछे आपसे //आप रचते रहे 'मानस' को दिनों-दिनों/मैं हाथों से बीजन झलती रही । 

महाकवि के निर्मल हृदय से क्षमा-याचना करने और पत्नी को अपनी उपलब्धियों का श्रेय देने तथा उसके दुखों के प्रति संवेदनाशील होने की कृतकृत्यता रत्नावली को अपने भौतिक कष्टों से ऊपर उठाती है । उसके लिए यह मोक्ष की मंगल घड़ी है- मेरी पार्थिवता सारी/क्षरण हो रही,/इस मंगल मोक्ष घड़ी में । पार्थिव का क्षरण ही तुलसीदास से रत्नावली को सीता के समक्ष रखवाता है और माँ सीता के समान "हृदयेन अपराजिता' रहने पर वे उसे भी 'मातः ' कह उठते हैं- लो, कर रहा नमन तुम्हें भी, /मात:, /कहो क्षमा, /कर दिये क्षमा-/जो भी थे अपराध मेरे ! वह अपना अर्धांगिनी धर्म निभाते हुए कहती है- मैंने जितना जिया/जिया आपकी पत्नी होकर/अर्धांगनी होकर /इसलिए क्षमा भी/देनी होगी हम दोनों को/आज परस्पर/बाँट-बाँटकर । 

सुनीता जैन ने अपने इस खण्डकाव्य में रत्नावली को उपेक्षा के अँधेरे से निकालकर महानता के आलोक में स्थापित कर दिया है । वह महाकवि को सुबोधती है, उनकी महानता की निमित्त है, उन्हें राम की ओर प्रेरती है तथा भारतीय समाज में परित्यक्ता होने के सभी दुःख झेलते हुए भी मनसे उनके साथ जीती है । रत्नावली के ब्याज से नारी जीवन की व्यथा में समाज के उत्तरदायित्व को भी कवयित्री ने रेखांकित किया है । इस सबसे ऊपर वह क्षमा भाव की उदात्तता को एक बार फिर सभी मानवीय सम्बन्धों में दिव्यता लाने के माध्यम के रूप में सामने लाई हैं । उसकी रत्नावली कहती है-क्षमा ?/शब्द होकर भी / शब्द नहीं है, स्वामी / वह आत्मसात् है । अपनी ही पीड़ा का वह अंगीकार है स्वयं में/ याचक की मुक्ति का । इस खण्डकाव्य में रत्नावली और तुलसीदास दोनों ने ही अपनी-अपनी पीड़ा को आत्मसात् कर एक-दूसरे को अपराध भाव से मुक्ति देने की प्रक्रिया को जिया है । कवयित्री इसमें भावनात्मक सघनता और बौद्धिक विश्लेषण को एक आवयविक इकाई के तौर पर प्रस्तुत करने में सफल रही है । यह रचना गम्भीर एवं विस्तृत विचार-विमर्श की अपेक्षा करती है । 



सुनीता जैन ने अपने इस खण्डकाव्य में रत्नावली को उपेक्षा के अँधेरे से निकालकर महानता के आलोक में स्थापित कर दिया है। वह महाकवि को सुबोधती है, उनकी महानता की निमित्त है, उन्हें राम की ओर प्रेरती है तथा भारतीय समाज में परित्यक्ता होने के सभी दुःख झेलते हुए भी मनसे उनके साथ जीती है । रत्नावली के ब्याज से नारी जीवन की व्यथा में समाज के उत्तरदायित्व को भी कवयित्री ने रेखांकित किया है। इस सबसे ऊपर वह क्षमा भाव की उदात्तता को एक बार फिर सभी मानवीय सम्बन्धों में दिव्यता लाने के माध्यम के रूप में सामने लाई हैं । उसकी रत्नावली कहती है-क्षमा ?/शब्द होकर भी / शब्द नहीं है, स्वामी / वह आत्मसात् है। अपनी ही पीड़ा का वह अंगीकार है स्वयं में/ याचक की मुक्ति का । इस खण्डकाव्य में रत्नावली और तुलसीदास दोनों ने ही अपनी-अपनी पीड़ा को आत्मसात् कर एक-दूसरे को अपराध भाव से मुक्ति देने की प्रक्रिया को जिया
है । कवयित्री इसमें भावनात्मक सघनता और बौद्धिक विश्लेषण को एक आवयविक इकाई के तौर पर प्रस्तुत करने में सफल रही है। यह रचना गम्भीर एवं विस्तृत विचार-विमर्श की अपेक्षा करती है । —नई दिल्ली

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03.08.1949–27.08.2022


स्व. श्री फूलचंद यादव जी को श्रद्धांजलि 

श्री फूलचंद यादव का जन्म 3 अगस्त, 1949 को बस्ती जिले के अहरा नामक गाँव के एक धार्मिक परिवार में हुआ था । इनके पितामह श्री शिव वरन यादव भक्त के नाम से एवं पिता श्री राम बुझरत यादव पुजारी के नाम से जाने जाते थे । इनकी प्राथमिक शिक्षा घर पर ही रामायण से हुई तथा सीधे चौथी कक्षा में एडमिशन हुआ । गोरखपुर विश्वविद्यालय से इन्होंने उच्चशिक्षा प्राप्त की । शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् मगहर, संत कबीर नगर तथा जनता इंटर कॉलेज, लालगंज, बस्ती में अध्यापन कार्य करने लगें । अध्यापन के साथ-साथ टीचर वेलफेयर यूनियन, धर्म एवं समाज सेवा जैसे कई सामाजिक कार्यों से जुड़े रहें । 27 अगस्त, 2022 में इनका देहावसान हो गया । 

फूलचंद जी हृदय से कवि थे और गद्य मात्र वैचारिक साधन था । अध्ययन-अध्यापन के साथ साथ स्वान्तःसुखाय के लिए निरंतर लेखन-कार्य करते रहें, किंतु रुचि को कभी प्रसिद्धी प्राप्ति का ज़रिया नहीं बनाया । इनकी कविताओं में परिवार-प्रेम, देश-प्रेम, प्रकृति-प्रेम, ईश्वरीय-चेतना तथा मानवीयता सहज ही चित्रित है । बिना लाग-लपेट के सहज एवं प्रवाहात्मक शैली में गीत, गज़ल, मुक्त एवं छंदबद्ध कविताओं में जीवन-मूल्यों की स्थापना के प्रति अत्यंत सजग दिखाई देते हैं ।  

स्व. फूलचंद यादव जी का वैचारिक गद्य

विसर्जन

विसर्जन शब्द वि+सर्जन से बना है । सर्जन शब्द सृजन का रूप है जिसका अर्थ होता है – उत्पन्न करना या निर्माण 

करना । विसर्जन शब्द का प्रयोग बिसर जाना या बिसार देना के अर्थ में भी किया जाता है, जिसका अर्थ विस्मृत करना या भूलना भी होता है । 

 इसी शब्द से बिसरा (मृत्त शरीर) भी बना है । जिसको विस्मृत किया ही जाता है किन्तु आवश्यकतावश उसे सुरक्षित भी रखा जाता है । विसर्जन का प्रयोग भारत में सामान्य या विशिष्ट कथा के आरंभ में देवी-देवताओं का आवाहन किया जाता है । इसके बिना कथा पूर्ण नहीं होती । पूर्वजों, महापुरूषों व देशभक्तों की जन्मतिथि एवं पुण्यतिथि  भी मनाने की परंपरा रही है । इसी संदर्भ में प्रतिमा निर्माण के आवाहन के माध्यम से प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है और कार्य की पूर्णता के पश्चात् उनका विसर्जन किया जाता है । यह आवाहन विसर्जन की क्रिया, परंपरा अथवा आवश्यकता पर कभी भी किया जा सकता है । यह सदा हितकर व शुभकर होता है । हम उनकी स्मृति इसलिए करते हैं जिससे उनके व्यक्तित्व व कृतित्व से हम विस्मृत न हों साथ ही उनसे सीख ग्रहण कर अपने जीवन में प्रयोग कर जीवन उन्नत बनाएँ । 

विसर्जन का भाव विच्छेदित करना नहीं होता है । इसका अर्थ यही होता है कि समय पर हम उनका आवाहन कर उन्हें अपने स्थान पर जाने के लिए विसर्जित कर देते हैं जिससे वे मुक्त विचरण करें और अन्य के कार्य भी आकर अपनी शाश्वता तथा व्यापकता प्रमाणित कर सकें । इस प्रकार ‘भगवान भक्त के वश में’ को चरितार्थ कर सकें । अस्तु विसर्जन में पुनः अर्जन, अर्चन व आवाहन की भावना संयुक्त रहती है ।

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चर्चा के बहाने


रेनू यादव

असिस्टेन्ट प्रोफेसर

भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग

गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, 

यमुना एक्सप्रेस-वे, गौतम बुद्ध नगर, 

ग्रेटर नोएडा – 201 312

ई-मेल- renuyadav0584@gmail.com


हम कायर औरतें हैं

मणिपुर नफ़रत की आग में जल रहा है और नफ़रत ने हमें मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं छोड़ा है । 4 मई, 2023 के वायरल वीडियो के अनुसार भीड़ में दो महिलाओं को निर्वस्त्र कर उनके अंगों-गुप्तांगों के साथ छेड़खानी (इस घटना के लिए यह सटिक शब्द नहीं है) करते हुए परेड़ करवाया गया है । जिसके बाद समूह द्वारा उनका बलात्कार होता है । वीडियों में इस नृशंस घटना के साक्षी न सिर्फ पुरूष है बल्कि महिलाएँ भी हैं जिन्हें सत्तात्मक-नफरत ने इतना अंधा कर रखा है कि वे मनुष्यता भूल चुकी हैं ।   

असंख्य हत्याओं के बीच यह जिंदा हत्या की मात्र एक घटना वायरल है जिस पर मानवता शर्मसार है, ऐसी न जाने कितनी घटनाएँ हो चुकी होंगी जिसके आँकड़े सामने नहीं आए होंगे अथवा आने नहीं दिए जायेंगे । जिसने भी वीडियो वायरल किया है उस व्यक्ति के पास दो ही कारण हो सकते हैं, या तो वह इस जघन्य अपराध को सामने ले आना चाहता होगा अथवा वह इस घटना की रिर्काडिंग कर विपक्षी समूह पर अपनी सत्ता का रौब दिखाने तथा उनकी ईज्ज़त को तार तार कर दहशत फैलाना चाहता हो । जिस तरह से रिर्काडिंग की गई है, उससे साफ पता चल रहा है कि रिकार्डिंग छुप-छुपाकर नहीं किया गया होगा ।  

चूंकि वर्चस्ववादी सत्ता में औरतों का मूल्यांकन वस्तुगत होता है और उनकी ईज्ज़त पुरूष की सम्पत्ति के रूप में मानी जाती है, इसलिए सम्पत्ति को निशाने पर लेकर पुरूष (यहाँ एक विशेष समुदाय की ईज्ज़त से जोड़ा गया है) को हानि पहुँचाने का एक सबक के तौर पर हो सकता है । लेकिन यह भी ध्यान रखना है कि मणिपुर मातृसत्तात्मक व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध है और ऐसी घटनाएँ यह बताती हैं कि सत्ता कोई भी हो, सत्ता स्वार्थ में अंधी होती है तथा यह एक समुदाय का दूसरे समुदाय के लिए बदले एवं नफ़रत की भावना है और संभवतः वहाँ की वर्चस्ववादी सत्ता के प्रति आक्रोश भी है ।   

सच तो यह है कि सत्ता किसी की भी हो निशाने पर स्त्रियाँ ही रही हैं, अर्थात् स्त्री योनि से अधिक कुछ नहीं है । हमें यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं होनी चाहिए कि इस योनिगत अस्मिता को बरकरार रखने में हम स्त्रियाँ भी पूरे दमखम के साथ जिम्मेदार हैं । चाहे उसका कारण स्त्रियों की कंडीशनिंग हो अथवा प्रकृति प्रदत्त नरम सुकोमल स्वभाव । स्त्रियों में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे किसी ऐसी घटना के खिलाफ एकमत होकर एकसाथ खड़ी हो सकें । इससे पहले 2007 में असम में ‘चलो दिसपुर’ रैली के दौरान एक सोलह वर्षीय किशोरी के साथ निर्वस्त्र करके छेड़खानी और हिंसा की घटना सामने आयी थी, उस समय भी छिटपुट आंदोलन हुए और उस लड़की को आज तक इंसाफ नहीं मिल पाया है और आज भी मणिपुर की इस घटना पर छिटपुट आंदोलन हो पा रहे हैं ।  

जब तक औरतें एकसाथ एकजुट होकर सामने आकर आंदोलन में शामिल नहीं होंगी तब तक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की संभावना नहीं है । अब लगता है कि काले कपड़े और पोस्टर से कुछ नहीं होने वाला । ऐसी जघन्य और आदमखोर घटनाओं के खिलाफ कुछ अलग आंदोलनों की आवश्यकता है, जिससे यौनिकता की परिभाषा बदल सके । कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में विक्टोरिया वैटमैन और नेकेड एंटि बेक्जिट प्रोटेस्ट, कनाडा में पर्यावरण की रक्षा करना, शरीर के प्रति सकारात्मक सोच तथा मानवता की स्थापना के लिए नेकेड बाइक राइड, जर्मनी की राजधानी बर्लिन में ‘माई बॉडी इज नॉट योर पोर्न या माय वॉडी इज माई च्वॉइस’ का नारा लगाते हुए महिलाओं का न्यूड प्रदर्शन, महिलाओं के साथ लगातार बढ़ती हिंसा एवं बलात्कार के खिलाफ तथा प्रशासन की चुप्पी को देखते हुए अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में महिलाओं का नग्न प्रदर्शन, इस्लामिक स्त्री विरोधी अति के खिलाफ इस्राइल में महिलाओं का नग्न प्रदर्शन, यूक्रेन में सेक्स टूरिज्म और जेंडर वायलेंस के खिलाफ ‘फेमेन’ का न्यूड प्रदर्शन, पेरिस में गर्भपात एवं इच्छामृत्यु के खिलाफ ‘फेमेन’ का टॉपलेस प्रदर्शन, स्विटजरलैंड में दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के कार्यक्रम में ‘फेमेन’ की तीन महिलाओं का टॉपलेस प्रदर्शन, ईरान में एंटी-हिजाब प्रोटेस्ट आदि हुए हैं जिससे वहाँ के प्रशासन पर दबाव पड़ा है । ऐसे आंदोलन भारत में भी हुए हैं लेकिन उन्हें नैतिकता के नाम पर दबा दिया गया है । 2004 में मणिपुर में ही अर्द्धसैनिक बल की असम राइफल्स के सिपाहियों द्वारा महिलाओं पर किए जा रहे अत्याचार एवं बलात्कार के खिलाफ इम्फाल में 30 महिलाओं ने नग्न प्रदर्शन किया । झारखंड में आदिवासियों को डीवीसी के अंतर्गत नौकरी न मिलने के विरोध में महिलाओं ने नग्न प्रदर्शन, छत्तीसगढ़ में SC-ST छात्रों ने फर्जी जाति प्रमाण-पत्र बनवाने के विरोध में नग्न प्रदर्शन किया है ।  

ये आंदोलन मात्र ध्यानाकर्षण का केन्द्र नहीं है बल्कि यौनिकता को खारिज कर मनुष्यता की पंक्ति में खड़े होने का एक तरिका भी कहा जा सकता है । अब सवाल है कि भारत में ऐसे आंदोलन मात्र SC-ST महिलाएँ और पुरूष ही क्यों कर पा रहे हैं ? तथाकथित सभ्य समाज की महिलाएँ एवं पुरूष क्यों नहीं ?   

तथाकथित सभ्य समाज, जिसमें मैं भी शामिल हूँ, इसकी सभ्यता, संस्कृति, परंपरा न जाने किस काम की है और इसकी ईज्ज़त इतनी ललतुहा क्यों है कि स्त्रियाँ स्टेज पर चढ़कर भाषण तो दे सकती हैं (घर में उसी सत्ता की अनुयायी होती हैं) किंतु ऐसी कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं कर पा रहीं । इतनी डरी सहमी औरतें निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन तो दूर की बात, यह भी नहीं कह सकतीं की हम कुछ महिने सूट पहनेंगे लेकिन दुपट्टा नहीं लगायेंगे, जहाँ पर्दा प्रथा है वे औरतें यह नहीं कह सकतीं कि हम साड़ी पहनेंगे पर घुँघट नहीं ओढ़ेंगे । इन औरतों को सबसे पहले डर सतायेगा कि हमारे भाई-बाप क्या कहेंगे ! हमारी शरीर के उभार कहीं हमारे भाई-बाप न देख लें ! क्योंकि शर्म ही हमारा गहना है न ! 

हम औरतें इतनी कायर हैं कि दूसरों की अस्मत लुटते हुए देख सकते हैं, शर्म से आँखें झुका सकते हैं लेकिन उसकी अस्मत बचाने के लिए कोई अलग से प्रदर्शन नहीं कर सकतें । हम कितनी आसानी से द्रोपदी के चीर-हरण की कथा ग्राह्य कर लेते हैं, जिसमें कुछ पुरूष-रक्षक सर झुकाएँ हारे हुए बैठे हैं, कुछ सम्माननीय पुरूष शर्मिन्दा हैं पर घटना को रोक नहीं सकतें, कुछ पुरूष द्रोपदी को नग्न कर रहे हैं और एक सत्ताधारी पुरूष आकर चीर बढ़ा रहा है और उस चीर बढ़ाने वाले को हम महिमामंडित करते हैं । किंतु उनके इतने चमत्कारों के बाद भी घटनाएँ ज्यों की त्यों ही घट रही हैं और हम आज भी इंतज़ार कर रहे हैं कि कोई प्रशासन का पुरूष आकर चीर बढ़ाए ! 

पर हैरानी की बात है कि ‘घघ्घो रानी कितना पानी’ का खेल खेलते हुए सत्ताधारी पक्ष की स्त्री एक पुरूष को चुड़ियाँ भेजने की बात कहकर पितृसत्ता द्वारा निर्धारित एक प्रतीक के माध्यम से अपना ही वस्तुगत मूल्यांकन करती है । जबकि होना यह चाहिए कि सभी स्त्रियों को ‘कित कितना पानी ? इतना पानी’ । जैसा जवाब देते हुए सदियों से निर्धारित पितृसत्तात्मक प्रतीकों का परित्याग कर देना चाहिए था, सिंदूर, चूड़ी, बिछुआ, तीज-त्योहार आदि का व्रत जो पितृसत्ता को पोषित करती है और औरत को दोयम दर्जे पर खड़ा करती हैं उसका परित्याग कर डट कर खड़े हो जाना चाहिए था ।  

पर हम औरतें इस नृशंस घटना को देखकर कभी मणिपुर के पुरूषों को, तो कभी प्रशासन को कोस रही हैं । हममें इतनी इतनी भी हिम्मत नहीं है कि एक दूसरे से बात कर कुछ महिने के लिए ही सही, पितृसत्ता के पोषक प्रतीकों (वेष-भूषा) त्योहारों (जो संस्कृति एवं परंपरा का हिस्सा बन चुका है) का परित्याग कर अपने अस्तित्व के लिए खड़े हो सकें और न ही हिम्मत है खुलेआम बात करके सभी औरतों में चेतना जागृत्त कर सकें । सचमुच हम औरतें बहुत ही कायर हैं ।







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