Abhinav Imroz August 2023

 





कविताएँ


डॉ. रामदरश मिश्र,  उत्तम नगर, नई दिल्ली, मो. 7303105299


विश्वग्राम

विश्वग्राम

कितना अच्छा लगा था यह शब्द

एक संगीत - सा गूँज उठा था मन में 

वाह, कितनी सदियों बाद

हमारा 'वसुधैव कुटुंबकम' रूप ले रहा है 

अब देश तो क्या

पूरा विश्व एक गाँव में परिणत हो रहा है


फिर मोबाइल बजा

कम्बख्त यह नंबर दिन में कई बार बजता है

यही क्यों, इस जाति के कई नंबर उत्पात मचाये रहते हैं 

मैं तो वैसे भी बहुत कम ज़रूरतों का साथी रहा हूँ 

अब तो अवकाश में हूँ

ज़रूरतें अब सिमटकर मेरे साथ बैठी रहती हैं कमरे में

लेकिन यह मोबाइल है कि

मुझे नये-नये सामानों के सपने दिखाता रहता है

नये-नये उपहारों के जाल में फाँसना चाहता है

सिनेमा के रंगीन गीत सुनाता है

चटपटे संवाद और कविताएँ उगलता है

और चुपके-चुपके

सबका अर्थ - भार मेरी बूढ़ी जेब पर डाल देना चाहता है

मैं झल्लाकर भी उसे डाँट नहीं सकता

वह अपने स्रोत तक पहुँचने की राह कहाँ देता है ?

हाँ विश्वग्राम

कितना प्यारा शब्द है गाँव

जिस गाँव को मैंने जीया है

वह तो संगीत बनकर थरथराया करता है मेरी चेतना में

टूटा-फूटा ही सही, वह घर था

जिसमें बहती थी नदी की तरह माँ की ममता 

झरता था किरणों की तरह पिता का आशीष 

खेलता था धूप की तरह भाई-बहनों का साहचर्य 

व्याप्त रहती थीं गाँव के सुख-दुख की कथाएँ 

माना कि गाँव के पूरे परिवेश में अभावों के गहरे दंश थे 

लाचारियाँ थीं, विपत्तियों के आघात थे

लेकिन लोगों के हाथ आपस में जुड़े थे 

आँखों में आत्मीय संवाद थे

दिलों में त्योहारों का उजास था, 

रिश्तों की गर्मियाँ थीं

हर आदमी का अपना विशेष रंग था 

और अलग-अलग रंग गले मिलकर 

एक समष्टि-रंग रच देते थे 

आस-पास के गाँवों के बीच

टैंगे होते थे संबंधों के बंदनवार 

ऋतुएँ आती थीं

छोड़ जाती थीं अपना-अपना राग

किसी गाँव का कोई अजनबी चलते-चलते

किसी भी दूसरे गाँव के अपनेपन में समा जाता था


तो कितना अच्छा लगा था यह जानकर कि

पूरा विश्व एक गाँव बन रहा है

अब तो पूरे विश्व में गाँव का-सा भाईचारा होगा

एक का सुख-दुख दूसरे के सुख-दुख का स्वर बनेगा 

परिवार में जो सबसे नीचे गिरा होगा

सब मिलकर उसे उठायेंगे और साथ ले चलेंगे 

पास के घर में अंधकार होगा तो

पड़ोसी अपने घर का एक चिराग 

उसकी ओर सरका देगा

धर्म, संप्रदाय, जाति - पाँति, ऊँच-नीच, राष्ट्रवाद की 

जो दूरियाँ नागिन-सी डँस रही हैं

वे समा जायेंगी आत्मीयता के वैश्विक विस्तार में


मैं इस सपने में खोया ही था कि

बच्चे ने आकर टी.वी. चालू कर दिया

सामने बाज़ार का रंगीन मायाजाल फैल गया

तभी दरवाज़े पर खटखटाहट हुई

देखा - कोई सेल्समैन था

वह किसी कंपनी के उन नये सामानों को

मेरे घर पर लादने की ज़िद में था

जिनकी कोई ज़रूरत नहीं थी


धीरे-धीरे भेद खुलता गया कि

विश्वग्राम का मोहक महल

ग्राम- संवेदना पर नहीं, बाज़ारवाद पर खड़ा है


मैं मानता हूँ कि

गाँव और बाज़ार का बड़ा आत्मीय संबंध रहा है

सप्ताह में एक ही बाज़ार लगता था

लोग वेसब्री से उसका इंतज़ार करते थे-

घर की उन चीज़ों की खरीद के लिए

जो घर को घर बनाये रहती हैं

यानी दाल-चावल, नमक - तेल 

साग-सब्ज़ी, कपड़े-लत्ते

औरतों के सिंगार के देशी सामान

और ऐसी ही कई चीजें

दवाइयों, अरतनों-बरतनों, पढ़ने-लिखने के उपकरणों के लिए 

गाँव पास के कस्बे के पास हो लेता था

समय बदलता गया

धीरे-धीरे गाँव की आवश्यकताओं के दायरे बढ़ते गये

जुड़ता गया शहर के बाज़ार से उनका रिश्ता

लेकिन ये नई आवश्यकताएँ भी तय थीं 

वे बाज़ार द्वारा लादी नहीं जाती थीं

गाँव की ज़िन्दगी की कोख से पैदा होती थीं


लेकिन अब ?

अब तो विश्व के संपन्न वणिक देश

विश्वग्राम का मोहक नारा देकर पिछड़े देशों में

फैलाते जा रहे हैं बाज़ार का रंगीन माया जाल 

यानी एक नया उपनिवेश

उनके द्वारा बनाई गयी वस्तुएँ

दूसरे देशों के लिए

ज़रूरी न होकर भी ज़रूरी बनती जा रही हैं 

उनके मोहक पाश में बँधकर

लोग उन्हें सगर्व सजाते जा रहे हैं अपने-अपने घरों में 

और अनजाने ही स्वयं निष्कासित होते जा रहे हैं घर से 

हाँ विश्व एक हो रहा है लेकिन बाज़ार के रूप में 

यहाँ बाज़ार की एकरूपता है


इस गाँव में

तमाम गाँवों की अपनी-अपनी ज़मीन की महक नहीं है 

उनके अपने-अपने रंग नहीं हैं

यहाँ आदमी का अपनी जड़ों से स्पंदित लगाव नहीं है 

यहाँ आदमी आदमी नहीं, महज़ क्रेता-विक्रेता हैं 

और संवेदनाएँ सामानों में बदल रही हैं

हमारे देश में भी

आर्थिक विकास का रथ शान से आगे बढ़ता जा रहा है- मदभरा कोलाहल करता हुआ

उस पर सवार हैं-

राजनीति, धर्म, व्यवसाय, मीडिया, 

प्रशासन आदि के चमकीले चेहरे 

नीचे गिरे हुए तमाम लोग

उसे अचरज से देख रहे हैं एकटक

और आपस में पूछ रहे हैं-

यह किसका रथ है भाई और कहाँ जा रहा है ?


इस कोलाहल के बीच उसके प्रतिरोध में खड़ी है एक दर्द-भरी कलम

अपनी ज़मीन का राग सुनाती हुई  ।

20 जनवरी 2011

धूप

कितने दिनों बाद आज धूप हँसी है 

उफ कितना ठंडा समय था

कुहरे में पूरी धरती सहमी पड़ी थी 

हवाएँ थरथराती हुई आती थीं

समा जाती थीं बंद कमरों में बेरोकटोक 

सड़कें स्तब्ध थीं

उन पर सरक रही थीं ठिठुरी हुई ज़िन्दगियाँ 

रेलगाड़ियाँ डरी हुई खड़ी थीं या रेंग रही थीं 

विमानों के पंख खुल नहीं रहे थे

शरीर सुन्न थे, चेतना स्तब्ध थी

मैं कमरे में बंद होकर सोचता रहता था- 

उनके बारे में

जो फटी रजाई या कंबल लपेटे

रात में फुटपाथ पर सोते होंगे

उनमें से तो कई को सुबह जगा भी नहीं पाती होगी

कैसी है करुणामय की सृष्टि-लीला

कि कुछ लोगों को यहाँ भेजता है बेसहारा

समाज और प्रकृति की केवल मार खाने के लिए


मैं लेखक हूँ

मेरे भीतर और बाहर का दर्द समेटकर

कलम चलती रहना चाहती है

वह मुझे मेरे होने का बोध कराती है

लेकिन इस ठंडक में वह दुबकी रही निस्पंद

समय चुपचाप सरकता रहा-

मेरे भीतर एक व्यर्थता-बोध छोड़कर


तो आज कितना अच्छा लग रहा है 

शीत के भयानक जाल को तोड़कर 

धूप निकल आई है

वह तन को अपनी उष्मा से नहला रही है 

और नव स्पंदन भर रही है चेतना में 

सड़कें रौनक से भर गई हैं

सामने की सड़क पर

झुंड के झुंड लोग एक साथ बैठकर

कुछ कह सुन रहे हैं


स्कूली बच्चे अब सिकुड़कर नहीं 

सूरजमुखी के फूल की तरह खिले हुए 

हँसते - चहकते जा रहे हैं

पेड़ पर का सन्नाटा

गुंजित हो उठा है चिड़ियों के राग से 

रात को फुटपाथ पर लेटे शरीरों को 

सहला रही है धूप

और पूछ रही है - " ठीक तो हो न भाई  । "


मेरी कलम अँगड़ाई लेकर जाग उठी है कह रही है-

मुझे घूमने दो चारों ओर की खुशियों में-

शहर से लेकर गाँव तक

खेतों में फूलों से लदी

जो फसलें उदासी में डूबी थीं

वे खिलखिला रही होंगी

उन पर नाच रहे होंगे तितलियों के पंख 

प्रसन्नता की तरह आकाश उन पर झुका हुआ 

आशीष बरसा रहा होगा

मुझे लिखने दो धूप की कथा

देखो-देखो मैं कितनी खुश हूँ

कुछ दूर मुझे वसंत की पदचाप सुनाई दे रही है  ।

22 जनवरी 2011

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संपादकीय


अभिनव इमरोज़ के लेखकों और पाठकों को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाई । हमारे दिन और त्यौहार यांत्रिक प्रक्रिया-सी होते जा रहे हैं । बधाई, ऐलान और फरमान; पुराने साँचों में ढली हुई रुढ़ धारणाओं की परिपाटी, उत्साह कम और ऊहापोह ज्यादा देखने को मिलती है । यह सोच मुझे अपने अतीत में ले गई जब मैं स्काउट्स की टुकड़ी में पुलिस लाइन्ज़ की परेड में हिस्सा लेता था और दोपहर बाद हमारे शहर के एक समाजवादी नेता चौधरी बलबीर सिंह एक जलूस निकालते होते थे । पूरी भीड़ बड़े जोशेग़ज़ब से नारा लगती थी । "यह आज़ादी झूठी है- देश की जनता भूखी है ।" तब मैं शायद 10-12 साल का रहा हूँगाा- मैं भी बंद मुठ्ठी उछाल-उछालकर इस नारे को गुस्से से गला फाड़ कर ऐसे लगाता था जैसे इस झूठी आज़ादी को सच्ची कर के ही घर लौटूँगा ।

जब कुछ बड़े हुए तो कुछ-कुछ समझ में आने लगा कि आज़ादी होती क्या है, यह हमें मिली किससे है? और हमने इसे हासिल कैसे किया है? इसे हमारे शहर के लोग झूठी क्यों कह रहे थे । कुछ कुछ समझ में आने लगा कि शायद इसलिए कि आज़ादी के लिए दी गई कुर्बानियों से जहाँ देश को कुंदन बन कर निकलना था वहाँ देश क्रंदन बन कर उभरा । सारे स्वतंत्रता संघर्ष का परमोत्कर्ष मानव त्रासदी में परिणत हो गया । दस लाख से कहीं ज्यादा जनसंख्या का कत्ले आम और लाशों की लकीरें बिछाकर दिवारे-सरहद खड़ी करके बँटबारे को जश्ने आज़ादी का नाम दिया गया जो पाकिस्तान में 14 अगस्त और हिन्दूस्तान में 15 अगस्त को मनाया जाता है । यह बँटवारा मानव इतिहास का काला पन्ना ही नहीं एक पूरे का पूरा शताब्दियों पुरानी सभ्यता के इतिहास का सयाहखाना बन गया । नूरेजहां को दरकिनार करके नूरानी और रुहानी रिश्तों को सियासी जामा पहनाकर हमेशा हमेशा के लिए नासूरी वुजूद अता कर दिया गया । सियासी हठ और जनूनी भीड़ ने महात्मा के सत्याग्रह के फलसफे का सत्यानाश, सत्य और अहिंसा का जनाज़ा, मोहब्बत और खूलूस ज़ारज़ार और सौहार्द का स्वाहा सरेआम चश्मदीद हुआ- धज्जियाँ उड़ती रहीं तहज़ीव की / पल में मेरा मुल्क़ नंगा हो गया 

आज़ादी झूठी, फटेहाल, मैली-कुचैली, खंडित और अधूरी ही सही- ‘‘चलो कोई बात नहीं’’ सरहद पार से आए जन सैलाब ने कहा, ‘‘आओ मिलकर इसे सार्थक बनाते हैं ।’’ उन्होंने गाँधी, नेहरू और जिन्ना को दोष मुक्त कर दिया और अपने साकारात्मक दृष्टिकोण से, अपने जानमाल के नुकसान को भूल कर अपनी भूख के दम पर अपनी बहाली में जुट गए । अपने घर में क्या थे? और क्या नहीं थे? लेकिन यहाँ आकर उन्होंने मेहनत मज़दूरी से गुरेज नहीं किया, छोटे छोटे काम किए और उसमें भी अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा को आँच नहीं आने दी । जहाँ ठिकाना मिला वहीं अपना ठीहा बना कर ठुंठ को हरा भरा करने में मसरुफ हो गए । 

नए सांस्कृतिक, नैतिक, सामाजिक, आर्थिक संकट और चुनौतियों को साहस और जीवट के बल पर विस्थापितों ने उन शाश्वत मूल्यों की मौजूदगी में यह साबित कर दिया कि ‘‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’’ ।

इन 76 वर्षों में विस्थापितजन का भारत की उद्यौगिक एवं सांस्कृतिक क्रांति में बहुत बड़ा योगदान है । हम आज यौमे जलावतनी के मुक़्द्दसः जलसे और आगाजे़ बहाली को याद करते हुए आप सब का अभिनन्दन करते हैं और आपके जज्बे को सलाम करते हैं । अब कुछ उम्मीद बंधी है कि हज़ारों सालों की गुलामी का धब्बा धुलकर हज़ारों साल तक विकसित और समृद्ध भारत दुनिया के विकसित और समृद्ध देशों की प्रथम पंक्ति में अपना स्थान बना लेगा ।


तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शतं, श्रृणुयाम शरदः शतं, प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात्।। यजु. 36/24



‘अभिनव इमरोज़ एवं साहित्य नंदिनी’ परिवार की ओर से 100वें जन्मदिन पर डॉ. रामदरश मिश्र जी को हार्दिक  शुभकामनाएँ एवं बधाई

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स्मृत्यालोचन*
समीक्षक : 
पाण्डेय शशिभूषण ‘शीतांशु ‘साईकृपा‘ 58, लाल ऐविन्यू डाकघर-छेहर्टा, अमृतसर पिन-143105 (पंजाब)
मो. 09878647468  Email : shitanshu.shashibhushan@yahoo.com




अर्थपूर्ण कवि-दृष्टि का अकेला प्रिज्म : 
डॉ. रामदरश मिश्र

रामदरश मिश्र का व्यक्तित्व साहित्य के द्वारा रचित, साहित्य के लिए रचित और साहित्य के प्रति रचित-समर्पित है । लम्बी काया!, तन-मन का लयात्मक विन्यास! प्रसन्न मुखमंडल! अनुभावन-भरी दृष्टि! यत्र-तत्र बिखरे, पर सजे सित केश! सौम्य, शान्त, शालीन, हँसमुख, मृदुभाषी, संवादी, पर किंचित् संकोची व्यक्तित्व! भारतीय संस्कृति और ग्राम्य प्रकृति से गहरा लगाव! साहित्य-प्रेमियों और शिष्यों से आत्मीय जुड़ाव! परिवार-आमोही परिसीमन में भी मानों साक्षात् मूर्तिमान कवित्व/जीवन-संघर्ष में विषपायी अमृतता, सर्जन में संवेदन, भावन और पर्यवेक्षण की एकात्मता! धार्मिक परिवार में जन्म लेकर भी आस्तिकता-नास्तिकता से परे जीवन में घटित-अघटित और नियतिकृत घटितव्य की सहज स्वीकार्यता !

मिश्र जी ऐसी कविता के कवि है; जो हृदय का केवल गहरा स्पर्श न करे, बल्कि हृत्तंत्री को देर तक झनझना दे, विचारों को उबुद्ध कर दे, जगा दे, पाठक को सहभावन कराने के साथ-साथ स्थितियों का मूल्यांकन भी करा दे । उनकी सर्जकीय संवेदना में करुणा, विडम्बना और मानवीयता को उद्घाटित करने की पक्षधरता है । वह सतही यथार्थ की जगह अर्थान्वेषी यथार्थ के सर्जक साहित्यकार हैं । साहित्य, समाज और जीवन से संयुक्त रहने के बावजूद वह साहित्य की शिविरबन्दी से सर्वथा विलग रहे हैं । उनकी रचना में स्वदेश, समकाल और लोगों की गहरी, पहचान और परख है । उनके लघु गीतों में कवि-दृष्टि का उन्मेष अपने शिखर पर है ।


डॉ. रामदरश मिश्र

उनके गीतों में कहन शैली की ऐसी बुनावट, भावानुभूति का ऐसा आत्मसातीकरण तथा उसके बीच संवादी सुरों की ऐसी सटीक सार्थकतां अन्यत्र देखने को नहीं मिल पाती है । उनकी गीतात्मक प्रोवितयों में विम्बोद्भावन की अनोखी क्षमता है । अपने गीतों में वैयक्तिक राग और प्रकृति राग का वितान तानने वाले मिश्र जी गीत विधा की प्रकृति को जब सामाजिक, राजनीतिक विडम्बनात्मक संत्रासों की निगूढ़ता देते है, तब वे युगचेता महान गीतकार बन जाते हैं । उनकी अभिधेयात्मकता व्यंजना में अन्तरित हो जाती हैं । साहित्योद्यान की सभी वीधियों में अपनी सर्जना के ऐसे सुमन खिलाने वाले मिश्र जी को ऐसी अनेकशः खूबियाँ उनके पाठकों को स्मरणीय हैं । वह गालिब, निराला और प्रसाद की तरह ‘गंजीन-ए-मानी’ (कठिन भावबोध) के अनेकार्थो कवि नहीं होकर भी अपनी कविताओं के सहजपन मे सहज से असहज उद्गार तक की अर्थगूंजों को बड़ी सहजता से सहेज कर सम्पुटित-विपुटित कर देते हैं । यह सहजता उनके जीवन और सर्जन- दोनों का बीजतत्व है ।

आज याद आता है कि रामदरश मिश्र का नाम उनकी कविताओं को पढ़ते-पढ़ते और उनसे प्रभावित होते-होते आज से 55 वर्ष पूर्व मेरे दिल-दिमाग पर छा चुका था । 1964 का वर्ष था । मैं नया-नया प्राध्यापक नियुक्त हुआ था । हिन्दी की सभी साप्ताहिक, मासिक और त्रैमासिक पत्रिकाएं नियमित रूप में खरीदता और पढ़ता था । उन दिनों कोई भी ऐसी प्रमुख पत्रिका नहीं थी, जिसमें रामदरश मिश्र नहीं छप रहे हों । उनके गीत और कविताएँ प्रायः छपती रहती थीं जो बार-बार पढ़े जाने के लिए मुझे आमंत्रित करती थीं और मेरे मन-मस्तिष्क में व्याप्त हो जाती थीं । गेयता, प्रभविष्णुता और काव्यलय से अर्थलय तक की मानसिक-यात्रा कराने की शक्ति-क्षमता उनकी कविताओं की विशेषता थी । ‘धर्मयुग’ हो या ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘कादम्बिनी’ हो या ‘ज्ञानोदय’, हर साप्ताहिक और मासिक पत्र-पत्रिका में अनेक छपी कविताओं के बीच उनकी कविता अपने को अन्य सबसे अलगाती थी और पाठकों को खींचती थी । उस समय मुझे उनके कवि होने के अतिरिक्त इस बात की जानकारी नहीं थी कि रामदरश मिश्र अन्य किन-किन विधाओं में लेखन करते हैं और न ही यह जानकारी थी कि वे दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं । पर कुछ समय  बाद ही मुझे कथा-साहित्य के अनुशीलन से पता चला कि वे उपन्यासकार भी हैं और कहानीकार भी । मैं इस बात से ज्यादा प्रभावित था कि किस निर्बाध गति से वे अपना कविकर्म कर रहे हैं और कितना अधिक प्रकाशित हो रहे हैं । समय बीतता गया । फिर ‘पानी के प्राचीर उपन्यास को लेकर उनकी प्रसिद्धि हुई और वे ग्राम्य और आंचलिक कथाकार के रूप में माने जाने लगे । फिर उनकी दूसरी कथा पुस्तक आई ‘जल टूटता हुआ । ये के दोनों नाम उनके उपन्यासों में भी उनकी काव्य-संवेदना को अभिव्यक्त करने वाले थे । मुझे लगा कि तत्त्व उनकी रचनाधर्मिता का मूल प्राण-तत्त्व है । यह उनकी कविता में भी देखने-गनने को मिल जाता था । नदी, बाढ़ और बरसात से भरा है उनका साहित्य  । नदी का आकर्षण देखें- ‘बड़े भोर सारस केंकारे/नदिया तीर बुलाए’ ।

उन्हीं दिनों मैं नई कहानी की प्रयोगधर्मिता पर अपना शोध-कार्य सम्पन्न कर रहा था । मैं उनकी कुछ कहानियों को लेना चाहता था, पर यह बात मेरी समझ से बाहर थी कि मैं नई कहानी आंदोलन से उन्हें किस तरह जोडूं । उस समय मुझे पहली बार इस बात का भान हुआ कि रामदरश मिश्र एक ऐसे कथाकार हैं जो किसी आंदोलन या किसी वाद या शिविर के कथाकार नहीं हैं । वे एक ऐसे मुक्त कथाकार हैं, जिनके यहाँ परिवार, समाज, देश और युगबोध सभी मिल जाएँगे । पर किसी ठप्पे के तहत आप उनका विवेचन नहीं कर सकते । सो उनकी कहानियों से प्रभावित होने के बावजूद मैं उनका उपयोग अपने शोध-कर्म में नहीं कर पाया । तभी मुझे यह भी पता चला कि प्रकति के जल-तत्त्व के साथ बचपन और कैशोर्य की सघन स्मृतियों के कारण उनका गहरा आत्मीय लगाव है । पानी को देखने की दोनों दृष्टियाँ उनके पास थीं- पानी के उभार की और पानी के बिखराव की ।

एक लम्बा समय बीत गया । मैं अपनी अध्यापकीय वृत्ति में रमता गया । दैनिक कार्यभार इतना था कि उससे मुक्त नहीं हो पाता था । अनेक परिषदों के दायित्व भी मेरे साथ जुड़े थे । हाँ जब-जब उनकी कोई औपन्यासिक नई कृति आती थी, तब-तब मैं उन्हें पढ़ता और रामदरश जी को सराहा करता था । पर बहुत चाहकर भी तब मैं न उनसे पत्र-सरोकार बना सका और न उन पर कुछ लिखने का अवसर निकाल सका ।

1977 का साल था । मैं भागलपुर विश्वविद्यालय सेवा से गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में रीडर बनकर आ गया था । तभी एक दिन उस वर्षान्त में मेरे विभागीय प्रोफेसर और अध्यक्ष डॉ. रमेश कुन्तल मेघ ने अपने कमरे में बुलाकर मेरा उनसे परिचय कराया । मेरे सामने डॉ. रामदरश मिश्र थे, जो विभाग में किसी की मौखिकी सम्पन्न कराने आए थे । लंच का समय हो रहा था, सो मेघ जी डॉ. रामदरश मिश्र को अपने साथ अपने घर लंच कराने ले गए । इस पहली और छोटी-सी मुलाकात में मैंने पाया कि रामदरश जी शांत-संयत और हँसमुख थे । तब पाँच-छह वाक्यों में उनसे मेरी जो संक्षिप्त बातचीत हुई । उससे उनकी शालीनता और आत्मीयता का भी आभास हुआ ।

रामदरश मिश्र जी से मेरी दूसरी मुलाकात इसके एक वर्ष बाद हुई । हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला में एम.ए. की उत्तर-पुस्तिकाओं के मूल्यांकन के लिए कई विश्वविद्यालयों से लोगों को बुलाया गया था । उनके आमंत्रण पर मैं अमृतसर से पहली बार शिमला पहुंचा था और अतिथि-भवन में ठहरा था । वहीं मुझे रात में ‘डिनर‘ के समय डॉ. रामदरश मिश्र जी सपत्नीक मिले । हम लोगों ने साथ-साथ भोजन किया । जब हम लोग अपने-अपने कमरों में जाने के लिए पहली मंजिल की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे, तब मैंने उनसे सहज भाव से पूछा कि आप किस कमरे में हैं? उन्होंने अपने कमरे की जो संख्या बताई वह कमरा मेरे कमरे के बगल वाला कमरा निकला । अब हम लोग परस्पर पार्श्ववर्ती थे । दूसरे दिन नाश्ते के समय हम लोगों ने साथ-साथ विश्वविद्यालय-कार्यालय जाने का कार्यक्रम बनाया; क्योंकि कार्यालय के निर्दिष्ट होने के बावजूद हमें यह पता नहीं था कि वह भवन कहाँ पर है और हमें किस तरह वहाँ पहुँचना है । विश्वविद्यालय का अतिथि-भवन पहाड़ की निचाई पर स्थित है और विश्वविद्यालय का वह कार्यालय उससे ऊँचाई पर । सो हम लोग अतिथि-भवन से नीचे उतरकर एक साथ ठीक दस बजे ढालवें से चलते हए ऊँचाई की ओर बढ़ने लगे । मैं मिश्र जी से सत्रह वर्ष छोटा हूँ  फिर भी हम दोनों की साँस चढ़ने लगी । हमने अपनी गति धीमी की और अगल-बगल की रमणीक वृक्ष-मालाओं को पीछे छोड़ते हुए धीरे-धीरे विश्वविद्यालय के केन्द्रीय-भवन तक पहुंच गए । वहाँ अपने गंतव्य स्थल के बारे में जो भी मिला उससे पूछ-ताछ की । फिर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए हम उस विशाल प्रशाल में पहुँच गए, जहाँ उत्तर-पुस्तिकाएँ जाँची जानी थीं । हमने अपना-अपना काम शुरू किया । बीच-बीच में चाय बिस्किट लेने का प्रबंध था । लंच के लिए हम पुनः लौट कर अतिथि-भवन गए और वहाँ से पुनः चढ़ाई चढ़कर उस विशाल प्रशाल में लौट आए । न जाने क्यों और कैसे उस दिन एक ही समय हम दोनों के मुँह से सहसा यह वाक्य निकला कि यह काम बड़ा उबाऊ है और हमें सात-आठ दिन यहाँ रहना है । कैसे चलेगा?

उससे अगले दिन संध्या समय हम दोनों ने शिमला के माल रोड़ जाने का कार्यक्रम बनाया । हम चाह रहे थे कि हमें विश्वविद्यालय की गाड़ी की सुविधा मिल जाए पर यह संभव नहीं था, क्योंकि वहाँ बीसियों लोग भिन्न-भिन्न विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों से पधारे हुए थे । सो हमने संध्या समय बस से ही माल रोड़ जाने का कार्यक्रम बनाया । हम अतिथि-भवन लौटे तो भाभी जी तैयार बैठी थीं । हम लोगों ने डायनिंग हॉल में आकर चाय बनवा कर पी । फिर धीरे-धीरे ऊँचाई चढ़ते हुए हम परिसर के पोस्ट-आफिस की बिल्डिंग के पास पहुंचे । वहीं पर बस अड्डा था । हम लोगों ने वहाँ से पहली छूटने वाली बस ली और उससे मॉल-रोड शिमला पहुँच गए । माल-रोड, पर तो हमें पैदल ही चलना था, सो हम लोग थोड़ा-बहुत ही चले-फिरे । फिर उस ऊँचाई से एक जगह नीचे की ओर उन्मुख हुए, क्योंकि नीचे बाजार था और भाभी जी को कुछ घरेलू उपयोगी चीजें तथा शॉल आदि की खरीद करनी थी । इस खरीददारी के क्रम में समय खिसकता गया और संध्या के सात बज गए, अंधेरा घिर आया था । हम लोग उस स्थान पर पहुंचे, जहाँ से बालूगंज होते हुए यूनिवर्सिटी तक मिनी बस जाती 

थी । पर वहाँ उस समय न कोई जाने वाली बस थी और न तत्काल उसके आने की कोई संभावना थी । हमें बताया गया कि जब गई हुई बस लौटकर आएगी, तभी यहाँ से जाना संभव हो सकेगा । ऊपर-नीचे करते हुए हम तीनों थक चुके थे । पर वहाँ नजदीक में बैठने की न कोई जगह थी और न कोई व्यवस्था ही । हम लोग रेलिंग पकड़कर नीचे की ओर देखने लगे । नीचे सारा शिमला शहर और उसका रेलवे स्टेशन बत्तियों से जगमगा रहा था । सुदूर नीचे स्थलीय अंतराल पर बल्ब दीए की तरह टिमटिमा रहे थे । हम तीनों ही पहाड़ की चढ़ाई और यातायात की कुव्यवस्था से बुरी तरह प्रभावित थे । हमारे दो दिनों के अनुभव का निचोड़ यह चिन्ता थी कि शिमला में हमारे सात-आठ दिन कैसे कटेंगे? मिश्र जी दिल्ली जैसे शहर से आए थे जहाँ मिनट-मिनट पर यातायात के साधन और वाहन उपलब्ध हैं । यद्यपि तब तक अमृतसर में रहते हुए मेरा साल भी पूरा नहीं हुआ था, पर मेरा अनुभव भी यही था कि वहाँ आँटो और रिक्शे जी.टी. रोड़ पर हर पाँच-सात मिनट में सुलभ थे । पर हम तो कभी भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही उस शिमला में उपस्थित थे जहाँ यातायात का कष्ट हमें त्रासद प्रतीत हो रहा था । अंततः हम तीनों के मुँह से यही निकला कि हम लोग समतल मैदान के रहने वाले हैं, पहाड़ हम सबके लिए एक-दो दिन घूमने-फिरने के लिए तो ठीक है, पर यहाँ हमारे सात-आठ दिन कैसे कटेंगे? खैर! हमें कोई एक घंटे बाद एक मिनी बस मिली और हम लोग विश्वविद्यालय परिसर में आ गए । फिर वहाँ से खरीदे हुए सामान को उठाया । कुछ ऊपर चढ़ते और नीचे ढालवें से उतरते हुए हम विश्वविद्यालय के अतिथि-भवन पहुँचे और वहाँ सीधे डाइनिंग रूम में आ धमके, क्योंकि हममें इतना धीरज शेष नहीं रह गया था कि हम सीधे ऊपर अपने-अपने कमरों में जाएँ और फिर वहाँ से फ्रेश होकर हम नीचे खाने की मेज तक आएँ । थकान ने हमारे धीरज का मानों चीर-हरण कर डाला था । उस रात हम लोग खाकर सीधे अपने-अपने कमरे में गए और सो गए । फिर तीसरे, चौथे, पाँचवे, छठे और सातवें दिन विश्वविद्यालय-व्यवस्था का वहीं एकरस रूटीनी कार्यक्रम रहा । बीच-बीच में इस एकरसता को भंग करने वाली कुछ इतर चर्चाएँ चलती रहीं । कुछ उत्तर-पुस्तिकाओं में अमान्य तौर पर लिखे हुए अंशों को एक-दूसरे के पास जाकर बाँचने-सुनाने और हँसने-हँसाने का प्रयत्न करने का कार्यक्रम चलता रहा ।

शिमला में रहते हुए मिश्र जी और भाभी जी के साथ हमारी आत्मीयता बढ़ी । मिश्र जी की कविताओं को उनके मुख से सुनने के अवसर मिलते रहे । उस औपचारिक कार्यक्रम में एक अनौपचारिक आत्मीय भाव हमारे अपने-अपने कक्षों में परस्पर एक-दूसरे का स्वागत करने को सदैव तत्पर था । वहीं मुझे पता चला कि भाभी जी हिन्दी की एम.ए. है और उन दिनों वह अपनी पीएच.डी. के लेखन में व्यस्त भी हैं । उनके रहने से हमारे बीच पारिवारिक बोध विकसित हुआ  । हफ्ता पूरा होने पर हम लोग सात दिनों की दिहाड़ी और यात्रा-भत्ता का चेक लेकर अपने-अपने गंतव्य शहर लौट आए ।

इसके बाद हम दोनों के बीच आत्मीय और अकादमिक दोनों प्रकार के संबंध प्रगाढ़तर होते गए । मैंने उनकी कविता पुस्तक ‘कंधे पर सूरज की समीक्षा की, जो ‘आलोचना‘ त्रैमासिक में प्रकाशित हुई । उसके बाद शायद ही उनकी कोई ऐसी महत्वपूर्ण पुस्तक रही हो, जिस पर मैंने समीक्षालेख नही लिखा हो । दिल्ली में आई बाढ़ पर उनकी प्रकाशित पुस्तक ‘आकाश की छत' पर मैंने लम्बा समीक्षालेख लिखा, ‘दूसरा घर' उपन्यास पर भी लिखा । उनकी ‘परिवार‘ नामक उपन्यासिका पर भी लिखा । उनकी आत्मकथा के दूसरे खंड की मैंने विस्तृत समीक्षा की । कविताओं में ‘आम के पत्ते', ‘आग हँसती है' तथा अन्य कई पुस्तकों पर भी आलेख लिखे ।

रामदरश जी की कवि-दृष्टि की गहरी परख आज भी बेजोड़ है । वह अपनी सर्जनात्मकता में विश्व-दृष्टि के चश्मे से झाँक-ताक कर कविता नहीं लिखते । उनकी संवेदित दृष्टि उनके मर्म के तन्तु-जाल को झंकृत कर देती है । इसके साथ ही उनकी कवि-दृष्टि काल, स्थल, स्थिति, लोग, उनकी करुणा, विडम्बना, संत्रास, भय और सन्नाटे को अर्थवान् करने लग जाती है । यह अर्थ सीधे दिल से टकराता और विवेक को झकझोरता है । इसीलिए मैं उन्हें सामान्य-सी-सामान्य घटना तक में कविता को साधने और बाँधने वाला अकेला और अद्वितीय कवि मानता हूँ । वे यह नहीं कहते कि सन्नाटा बनता हूँ, पर उनका कवि-धर्म यही करता है । उनकी इस पहचान और परख को प्रायः जनवादी कवि-आलोचक नहीं जानते-मानते है ।

रामदरश जी को जिजीविषा साहित्य से अनुप्राणित और साहित्य में ही निहित है । वही उनकी पिपसा है, वही उनकी रिरंसा (रमणेच्छा) है और वही उनकी सिसृक्षा है । वे प्रकृति और पर्यावरण तथा ग्राम्य भारतीय संस्कृति के कवि हैं, मानसिक विकृति के नहीं, जैसा आज प्रायः समकालीती में देखने-पढ़ने को मिलता है । उनकी वाणी में अब भी वही आकर्षण है । आँखों में वही दृष्टि की उत्सुकता है । काया थोड़ी क्षीण पड़ी है । गर्दन थोड़ी झुकी है, पर मेरुदंड पूर्ववत् तना हैं बहुत सारे संघर्ष के राज को पचाये । वैसे ही रामदरश जी की कविताएँ भी अपनी सहजता में सीधी गोताखोरी के लिए पाठकों को न्योतती हैं । ठीक वैसे ही जैसे प्रेमचन्द की कहानियाँ सहज होकर भी गोताखोरी के लिए पाठकों को आमंत्रित कर रही है । जैसे प्रेमचन्द जी की कहानियाँ सरल-सहज होकर भी पाठकों को गोताखोरी के लिए आमंत्रित करती हैं । मिश्र जी अपने-अपने देखे, सुने और भोगे यथार्थ को कला-सत्य बना देते हैं । इन सब दृष्टियों से उनके साहित्य का सम्यक् मूल्यांकन अभी बाकी है ।

आपात्काल के दौरान उनके द्वारा लिखी एक कविता ‘वसंत‘ ने मुझे झकझोर दिया था । ‘‘कोयल स मैंने कहा- गाओ/कुछ सन्नाटा कटे/वह चुप रही/मैंने कहा/मेरे पास आओ/कुछ सन्नाटा कटे/वह डाल पर बैठी रही/मैंने कहा-/अच्छा सुनो, मैं ही गाता हूँ/उसने सहमी निगाहों से चारों ओर देखा-/और एकाएक उड़ गयी.....‘‘ इस कविता का शीर्षक है ‘वसन्त और कविता में छाया है सन्नाटा/वसन्त अनेकविध मुखरता का परासन्देशी शब्द (Hypogramic word) है । वसन्त रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, नाद- सबकी मुखरता है । यह कविता निराला के ‘भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया- वाले वसन्त की वासन्ती कविता नहीं है । यहाँ तो सन्नाटा-ही-सन्नाटा है । यहाँ कोयल की पंचम तान को कौन कहे, कोयल निःशब्द, मूक-मौन है । वह गाने के आग्रह को ठुकरा कर चुप रह जाती है । कवि उसे अपने समीप बुलाना चाहता है, पर वह इसे भी नहीं स्वीकारती और डाल पर यथावत बैठी रहती है । कोयल की चुप्पी और स्थिरता की यथास्थिति में अंततः कवि उसे श्रोता की भमिका में आने का आग्रह करता है और कहता है कि मैं ही गाता हूँ । तुम सुनो । पर वह सहमी नजरों से चारों ओर देखती और उड़ जाती है । वह द्रष्टा भाव, भोवता भाव और साक्षी भाव-तीनों में से किसी भी भूमिका-निर्वाह को नहीं स्वीकारती और उड़ कर पलायन कर जाती है । कविता में ‘वसन्त‘ कवि का बीज शब्द (key word) है और ‘सन्नाटा‘ तथा ‘सहमी निगाह‘ प्रतिपाद्य शब्द (Theme word) हैं । ‘वसन्त‘, ‘आपातकाल‘ (Emergency) बन जाता है और वसन्तोत्सर‘ ‘अनुशासन पर्व में बदल जाता है । स्मरणीय है कि विनोवा ने आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व की संज्ञा दी थी । लोकमानस में प्रजा के बीच सन्नाटा है, सहमे-सहमे रहने की आशंकित स्थिति है । जन-मानस की अभिव्यक्ति प्रतिबंधित है । पर सत्ताधारियों के यहाँ वसन्तोत्सव है । ‘आपात काल‘ पर दुष्यन्त ने गजलें लिखीं, धर्मवीर भारती ने ‘मुनादी‘ कविता लिखी । पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के छिनने, सन्नाटा छा जाने और सहमे-सहमे रहने- जैसी त्रासद-व्यंजना जैसी इस कविता में हुई है, वैसी मुझे अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिली । यहाँ सत्ता का बुना हुआ सन्नाटा है, कवि-दृष्टि का बुना हुआ सन्नाटा (‘मैं सन्नाटा बुनता हूँ‘) नहीं है । कहना न होगा कि, यह कविता रामदरश मिश्र को एक महान् कवि बना देती है । यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि यह कविता कालांकितता (Datedness) से उत्पन्न होकर भी कालातीतता (Beyond the time limit) का स्पर्श कर उठती है । इस कविता में कवि का पूरा स्वदेश, स्वदेश के लोग और उसका समकाल-तीनों ही मुखर हुए हैं । अपनी इस कविता में कवि की भागीदारी, दृष्टा, भोक्ता और स्रष्टा-तीनों की है ।

इसी सन्दर्भ में मिश्र जी का एक लघुगीत भी मुझे याद आ रहा है । उनके ‘‘दिन डूबा‘ गीत की ये पंक्तियाँ मेरी जिह्वा पर रस-बस चुकी हैं- ‘‘दिन डूबा, अब घर जाएँगे/कैसा आया समय कि साँझे/होने लगे बन्द दरवाजे/देर हुई तो घरवाले भी/हमें देखकर डर जाएँगे/आँखे आँखों से छिपती हैं/नजरों में छुरियाँ दिखती हैं/हँसी देखकर हँसी सहमती/क्या सब गीत बिखर जाएँगे?/गली-गली और, कूचे-कूचे/भटक रहा पर राह न पूछे/काँप गया वह, किसने पूछा-/सुनिये, आप किधर जाएँगे?‘‘- ये पंक्तियाँ कितनी पीड़ा, कितने संत्रास, कितनी दहशत, कितनी करुणा, कितनी विडम्बना, और कितनी निगूढ़ व्यंजना से भरी है । 1983 से 1988 के बीच पंजाब को अपने जबड़े में जकड़े हुए उग्रवाद और आंतकवाद की भयावह स्थिति की कितनी गहरे अहसासों से भरी अभिव्यक्ति है यह! इसके सामने उस समय के सारे दस्तावेजी कागज और अखबारी कतरनें व्यर्थ हो जाती हैं ।

यदि मैं यह कहूँ कि रामदरश मिश्र अपने समकाल में त्रासद अहसास. करुणा. विडम्बना और अभिधा-प्रसूत व्यंजना  के बड़े कवि हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । इस कविता में तीन बिम्ब हैं । पर ये तीनों बिम्ब राम स्वरूप चतुर्वेदी की बिम्ब-विषयक समझ और परख को अतिकान्त कर उनकी पकड़ से छिटक जाने वाले बिम्ब है । राम स्वरूप जी शब्द-बिम्ब तक सीमित हैं । पर यह तो प्रोक्ति का, पूरे बंध का बिम्ब है । उनके ़ साँचे में ये बिम्ब अट नहीं पाएंगे । रेसम (Ramsom) की बुनावट की बड़ी बारीक कला है इसमें ।

‘पिता’ पर हिन्दी में अनेक कविताएँ लिखी गयी हैं । इनमें कुछ सामान्य और कुछ विशिष्ट भी हैं । पर गीत विधा में मिश्र जी द्वारा लिखी "पिता तुम्हारी आँखों में" ऐसी कविताओं से विलग है । हिन्दी में रामदरश जी शुक्ल जी द्वारा निरूपित ‘स्मृत रूपविधान' के श्रेष्ठ गीतकार हैं । रूप विधान में प्रायः ‘कल्यित रूप विधान' को अधिक महत्त्व दिया जाता है । पर रामदरश जी के स्मृत रूप-विधान से जुड़कर कस्थित रूप-विधान खिल उठता है । हमारा समकाल वर्तमान-केन्द्रित है । पर रामदरश जी अतीत को नहीं भूलते । इस गीत का पहला ही बिम्ब देखिए- ‘‘फटेहाल बचपन था मेरा, हँसती हुई उदासी-सा/भूखा-प्यासा दिन आता-जाता था अपने साथी-सा/लगता था मैं हूँ भर आया, पिता तुम्हारी आँखों में ।‘‘ इन तीन पंक्तियों के कथन में स्मृत, प्रत्यक्ष और कल्पित-तीनों रूप-विधान स्वरूपित हो रहे है । अंतिम पंक्ति का सपाट-सा दीखने वाला कथन कितनी व्यंजना से भरा है । भावों की कैसी आवाजाही है इसमें कि पूरी । हरी उक्ति ही संश्लिष्ट बिम्ब के रूप में सुक्न्यिस्त हो उठी है । ‘मैं का पिता की आँखों में भर उठना- कैसी निगूढ़ सार्वनामिक पद-वक्रता से अर्थोन्मेषित हो रहा है । ‘मैं‘ के बचपन की फटेहाली, उसके भूखे-प्यासे होने का अहसास- सभी ‘मैं‘ में ही संपुटित (Coded) हैं । बेटे के सभी अभावों का पिता की आँखों में भर उठना- कैसी अनूठी अभिव्यक्ति है । ‘‘आँखें भर आना‘ एक कारुणिक मुहावरा 

है । पर यहाँ मैं का पिता की आँखों में भर आना अभाव से भाव और लगाव की कैसी करुणामयी भाव-यात्रा है । कितनी बेबसी, कैसी तिरुपायण, कितना मोह-सम्मोह और अथाह करुणा! ऐसा तो ‘राम-राम कहि राम कहि/राम-राम कहि राम‘ वाले दशरथ पिता के प्रति राम ने वन-यात्रा करते समय या उसकी प्रक्रिया में कभी नहीं सोचा कि ‘मैं हूँ’ भर आया , पिता, तुम्हारी आँखों पे‘‘ । रामदरश जी राम की मर्यादा-पुरुषोतमता से रहित हैं, पर अपने पारिवारिक और भारतीय संस्कारों की मर्यादा से अवश्य बँधे हैं । यह अकेली ऐसी भाव-धरी है, जिसकी संचित उपलब्धि के सामने कोई भी अपने बचपन के सारे अभावों को भूल जाएगा । अपने पिता की आँखों में गहरती करूणा में गिरती घर की दीवार, आंगन में चूल्हे-चक्की का नंगा होना, यादों की ऐसी बरसाती छायाएँ देख लेता है । पर उन्हीं आँखों में वह पिता का छलकता प्यार भी देखता है, उत्सव की सजीढायी छवि भी देख लेता है । अन्त में वह पिता से पूछता है कि पिता, क्या मेरे हृदय में टपकते आँसू और होठों से मुखर होते आर्तव गान भी- क्या यह सब कुछ तुम्हारी आँखों में समाया रहा? इसका सकारात्मक उत्तर अंलकार की शैली में और काकु की ध्वनि से बेटा स्वयं ही प्राप्त कर देता है ।

रामदरश जी अपने गीतों में लघु संवाद और संबोधित एकालाप की योजना करने में भी अत्यन्त कुशल है । इस गीत में बेटा हीं करता, उनकी आँखों की भंगिमा को देखता, बल्कि आँखों की राह से उनके हृदय के अन्तस्तल में उतर जाता है और उनकी अनुभूतियों का आत्मसातीकरण कर लेता है । आज गरीबी से उठकर सम्पन्न जीवन जीने वाला बेटा न तो अपने पिता को स्मरण रख पाता है और न पिता-पुत्र के नाते के अहसास को जी ही पाता है ।

रामदरश जी मूलतः अभिधावादी हैं पर उनकी अभिधा महिमभट्ट की अभिधा है, जो इषु (बाण) व्यापार से सम्पन्न है । उसी से लक्षण और व्यंजन सम्पन्न है । जैसे बाण वर्म (कवच)-भेदन, मर्म-भेदन होती और प्राण-हरण एक साथ ही कर लेता है, वैसे ही रामदरश जी की अभिधा लक्षणा और व्यंजना तक को एक साथ ही सगुण साकार कर देती है । मिश्र जी ने इस अभिधा में ही आँखों की संकेत-भाषा की पहचान-परख तथा उसकी सार्थक नियोजना की है । संकेत विज्ञान (Semiotics) के संकेतों की काव्यात्मक सार्थक उपयोगिता है यह ।

रामदरश जी ने कोरिया भ्रमण पर अपना यात्रा-संस्मरण लिखा है । ललित निबंध लिखे हैं । डायरियाँ लिखी हैं । मुक्तक और गजलें लिखी हैं । इन सभी विधाओं में उनकी लेखनी अपनी प्रभावी शक्ति-क्षमता का परिचय देती है । पर मूलतः वह कवि और कवि हैं । उनकी कविताओं में संवेदना की गहराई और अनुभूति तथा अहसास को भावप्ररवकता है । वे शुद्ध कवि हैं । कविता के लय और राग उन्हें सिद्ध हैं । चाहें वे छंद में की कविताएँ लिखें या मुक्तछंद में अपनी अभिव्यक्ति करें, उनके भीतर एक गीतकार संजीवित रहता है । इन गीतों में रूमान भी है आत्मीय संबंधों की स्वीकार्यता भी है, जीती-जागती प्रकृति है, मौसम है- सुबह, दोपहर, शामें है, धूप है तो चाँदनी भी है । प्राकृतिक परिवेश है, पेड़-पौधे हैं, गाँव है तथा काल-चेतना और स्थल-चेतना के अतीत बन जाने का नोस्टेल्जिक दर्द भी है । उसकी कसमसाती यादें हैं, खेत-खलिहान हैं, आपके पेड़ हैं, पेड़ों की पारस्परिक बातचीत है. समाज है. समाज की विषमताएँ हैं, गरीब का ढाबा है, नगर का परकीय बोध है, हर तरह का दर्द झेलते लोग हैं, नेता हैं, उनके कर्म-व्यापार पर व्यंग्योक्तियाँ हैं और है कविता की रचना-प्रक्रियाई समानुभूति ।

उनकी कहानियों में सहज अभिव्यक्ति से फंतासी तक की अभिव्यंजनाएं हैं । समकाल की मानवीय पीड़ा है तो सामाजिक क्रूरता और विषमता भी है । उनकी कविता में आई हुई औरत त्यागमयी, कर्ममयी और पारिवारिक आत्मीयता से भरी पड़ी है, तो उनकी कहानियों में आई हुई औरतें श्रमकी हैं । उनकी कहानी में लड़की- यौनभेद-लड़के और लड़की होने के अंतर- की शिकार हैं । उनकी ‘लड़की’ कहानी इस दृष्टि से अपनी आनुभविक चित्रात्मकता में बहुत प्रभावी और प्रशंसनीय है । उनकी कहानी और उनके उपन्यासों में मानवीय संवेदना का राग व्याप्त है । कहानी और उपन्यास में भी कविताई की घुसपैठ है, गद्यराग की अद्भुत सर्जना है, रोज के गुजरते हुए जीवन का दर्दीला सच है, वर्ग-चेतना की जागरूकता है, पारिवारिक संवेदना का लगाव और तनाव है । उनका साहित्यकार द्रष्टा और भोक्ता- दोनों है । उनकी रचनाएँ यद्यपि बहुत सम्प्रेषणीय हैं, पर एक सपाट अर्थ देकर चुकने वाली नहीं हैं । उसकी प्रभावान्विति गजब की है, जो अर्थ के अनदेखे क्षितिजों को खोलती है । उनकी रचनाधर्मी सहजता ही उनकी विशेषता और उनकी अनन्यता बन जाती है ।

हिन्दी में गजल लिखना आसान काम नहीं रहा है । गजलों में अहसास और भाव की गहराई के साथ-साथ उसके शीन-काफ का दुरुस्त होना बहुत जरूरी है । इसमें रामदरश जी को कमाल की सिद्धि मिली हुई है ।

मैंने रामदरश जी से साक्षात्कार भी लिए हैं, जिसमें उनके अचेतन तक को खोलने की कोशिश की है । पर वे ऐसे प्रश्नों का उत्तर देते हुए मुझे काफी सहज दिखे । मसलन मैंने उन्हें एक नितांत वैयक्तिक प्रश्न किया था कि ‘‘क्या आपने जीवन में कभी किसी से प्रेम किया है या आपको किसी से प्रेम हुआ है या किसी ने आपसे प्रेम किया है? यह प्रेम विवाह-पूर्व का भी हो सकता है और विवाहोत्तर काल का भी । कृपया सही-सही बताएं । इस पर उन्होंने अपनी पत्नी के सामने ही बैठे-बैठे मुझे यह बताया था कि हाँ, एक सहपाठिनी के साथ मेरे निकट मैत्रीपूर्ण संबंध थे । जब हम लोग एम.ए. करने के बाद अलग-अलग होने लगे तब पता चला कि वह ट्रेन से अपने घर वापस लौट रही है । फिर मैं अपने एक मित्र के आग्रह पर स्टेशन पर उससे मिलने गया और उससे यह कहा कि "अब तुम अपना विवाह कर लेना ।" इस पर उसने मुझे तपाक से उत्तर दिया कि ‘‘हाँ, यदि तुम्हारे जैसा कोई लड़का मिला, तो अवश्य कर लूँगी ।"

रामदरश जी पूरी तरह एक पारिवारिक व्यक्ति रहे हैं और हैं । उनका दाम्पत्य जीवन अत्यन्त मुखमय और सराहनीय है । अन्यों के लिए यह ईर्ष्या का विषय भी हो सकता है । सरस्वती जी ने उन्हें घर-परिवार की सभी झंझटों से मुक्त कर रखा है, जिससे उन्हें अधिक-से-अधिक लेखन के लिए अवसर मिले और गृहस्थी के सभी उत्तरदायित्व उन्होंने अपने से बाँध रखे हैं । पर गुजरात में आरंभिक दाम्पत्य और गार्हस्थ्य जीवन में उन्हें परिवार के लिए काफी भाग-दौड़ करनी पड़ी थी, जो उनके दायित्व-निर्वाह करने की चुनौतियों के दिन थे ।

उनके घर में भारतीय संस्कृति का जीता-जागता प्रमाण मिलता है । कुछ भी औपचारिक नहीं, पर सारा कुछ आत्मीयता से भरा-पूरा है । सरस्वती जी स्वयं साहित्य की अनुरागिनी हैं, उनकी रचनाओं को पढ़ती-सुनती हैं और उन पर वह अपनी टिप्पणी भी दिया करती हैं । पारिवारिक दुख-दर्दो को उन्होंने भोगा है । चाहें उनके ज्येष्ठ पुत्र का अकाल निधन हो चाहें उनकी सबसे छोटी बिटिया के वैवाहिक संबंध के टूटने का दर्द हो । ऐसे प्रसंगों से वे विरक्ति विचलित भी हुए हैं, पर उनकी साहित्यर्ढना ही उनको ऐसे दुर्बल-क्षणों से उबारने का माध्यम बनी है ।

रामदरश जी को अपने जीवन में साहित्य-साधना का सम्मान-पुरस्कार बहुत विलम्ब से मिला  । उनकी ये पंक्तियाँ उनके जीवन-यथार्थ से भरे आत्मतोष को व्यक्त करती हैं- ‘‘जहाँ तुम थे पहुँचे छलांगे लगाकर/वहाँ मैं भी पहुँचा/मगर धीरे-धीरे’’ आज रामदरश जी ‘मोदी सम्मान, ‘व्यास सम्मान‘, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार‘ जैसे अनेक अनेक महत्त्वपूर्ण सम्मानों से अलंकृत हैं । उन्होंने महत्वपूर्ण आलोचनात्मक लेखन भी किया है । उनकी पीएच.डी. का शोध-ग्रंथ जो आरंभ में मैकमिलन से प्रकाशित हुआ था, अपने-आप में काफी विचारपूर्ण, महत्त्वपूर्ण और औचित्यपूर्ण लेखन का प्रामाणिक दस्तावेज है । उनके साहित्य में दस्तावेजीकरण और कलाकरण- दोनों मिलते हैं, पर पाठक को केवल सतही दस्तावेजीकरण उनके यहाँ नहीं मिलेगा ।

रामदरश जी की काव्य-रचना पर मेरे विचार करने की जो दृष्टि रही और उनकी कविता के अंतःस्थल में सोई हुई बहुआयामी साभिप्रायता-सार्थकता का जो उद्घाटन मैं करता रहा, उससे वह बहुत प्रभावित रहे हैं । रचना के अर्थोन्मेष की मेरी अंतर्दृष्टि के वह बीसियों साल पहले से मेरे प्रशंसक रहे हैं । इस तथ्य को उन्होंने अपने लेखन तक में स्वीकार किया है ।यद्यपि वह सिद्धांततः मार्क्सवाद में विश्वास रखते हैं और उसको मानते हैं, पर उसकी जड़ता और शिविर-बद्धता उनमें नहीं है ।

रामदरश जी एक आदर्श अध्यापक रहे हैं । उनके शिष्य और उनके शोधार्थी उन्हें बहुत सम्मान देते रहे हैं और वह उनकी समस्याओं को हल भी करते रहे हैं । उनके व्यक्तित्व की यह बड़ी खासियत रही है कि वे जहाँ-कहीं भी रहते हैं एक आत्मीय वृत्त बना लेते हैं । ऐसा उनके साथ विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में भी रहा है और दिल्ली जैसे महानगर के साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश में भी रहा है । पर साहित्य के क्षेत्र में दलगत राजनीति से उन्हें अब तक परहेज है । मुक्तिबोध ने साहित्य के आलोचक की तुलना ‘दारोगा‘ से की थी । इसलिए साहित्य के क्षेत्र में उठाने और गिराने की दारोगाई मनोवृत्ति वाले लोगों के वह कटु आलोचक भी रहे हैं । अज्ञेय उनके प्रिय कवियों में कभी नहीं रहे, पर मुक्तिबोध उनके प्रिय कवि हैं । वे ‘‘असाध्य वीणा‘ और ‘अंधेरे में’ की पारस्परिक तुलना करते हए ‘अंधेरे में’ को एक श्रेष्ठ काव्य-रचना मानते हैं । पर अज्ञेय के गद्य-लेखन के वह प्रशंसक रहे है । अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और लेखन को वह महत्वपूर्ण मानते हैं । साथ ही शुक्ल जी के प्रति उनके मन में बहुत सम्मान का भाव है, पर मैं जहाँ अज्ञेय को महत्त्व देता रहा हूँ वहीं मुक्तिबोध को भी । ‘असाध्य वीणा‘ को मैं एक श्रेष्ठ काव्यकृति मानता हूँ तो ‘अंधेरे में‘ को भी । अज्ञेय को वे कथाकार के रूप में महत्त्व देते है, और गद्य-शैलीकार के रूप में भी मानते हैं । उनका साहित्यबोध बहुत गहरा और व्यापक है । प्रसाद और निराला दोनों उनके प्रिय कवि हैं ।

एक सच्चा साहित्यकार साहित्य को जीता है । साहित्य में उसकी साँसों की रागिनी बजती है । साहित्य से उसका नाता वैसा ही होता है जैसा नाता उसके पारिवारिक आत्मीयों से होता है-यथा प्रियतम-प्रियतमा, भाई-बहन, माता-पिता, पत्नी, पुत्र-पुत्री । इनमें जो सबसे अनन्य हो । वैसा नाता रहने पर साहित्य उसके लिए व्यवसाय नहीं होता । रामदरश जी एक ऐसे साहित्यकार रहे हैं जिन्होंने साहित्य को अपने अंतर्मन से जिया है । उनके व्यक्तित्व और शील से साहित्य झांकता है । वे एक ऐसे साहित्यकार रहे है, जिनमें मानवीय संवेदना की घनीभूतता छायी रही है । उनके साहित्य में कल्पना की उड़ान कम और यथार्थ का कलात्मक निरूपण अधिक है । उनकी कल्पना प्रकृति-चित्रों में और ऋतुओं के प्रभाव-सम्मोहन में दीखती है । मिश्र जी समकाल के यथार्थ धरातल पर अतीत की स्मृतियों का राग छेड़ते रहते हैं, जो बहुत जीवन्त प्रतीत होता है । वसंत उनकी सर्वाधिक प्रिय ऋतु है । आम की मंजरियों की खुशबू, प्रातः काल वृक्ष से झरने वाले महुए के फूलों के चटक रंगों-भरी खुशबू! चैती पवन की शीतल छुवन उनके मन-प्राण में मानो रची-बसी रहती हैं । एक बार मैं उनके किसी पीएच.डी. शोधार्थी की मौखिकी लेने दिल्ली पहुंचा था । उन्होंने बड़े आत्मीय आग्रह के साथ मुझे अपने घर पर ही ठहराया था । प्रातः दस बजते-न-बजते हम दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में आ चुके थे । उन्हें बैंक में कुछ काम था, सो उन्होंने मुझसे कहा कि चलिए, पहले बैंक चलते हैं । फिर वहाँ से विभाग चलेंगे । जब बैंक से हम दोनों निकले तब परिसर का प्राकृतिक दृश्य हमें खींच रहा था । पादपों और वृक्षों पर भिन्न-भिन्न रंगों के फूल खिले हुए थे, जिनकी खुशबू हवा अपने पंखों पर लेकर पूरे परिसर में नाच रही थी । कोयल आलाप भर रही थी । सहसा रामदरश जी रुक गए और मुझे भी रुकने का आग्रह किया तथा कहा- ‘‘देखिए, वसंत का कितना जीवन्त दृश्य है । मुझे गाँव याद आ रहा है । आम की बौरों की खुशबू से पूरी बगिया गमगमा रही होगी । उस पर महुए की मादक-मोहक खुशबू और कोयल की पंचम तान"! मुझे लगा, रामदरश जी भले ही महानगर में रहते हों, पर उनके मन में बसा गाँव उद्दीपन मिलते ही उभर आता है । यह मौखिकी तो बहाना-मात्र थी । तभी से रामदरश जी के घर ठहरने का मेरा सिलसिला शुरू हुआ । मैं जब कभी दिल्ली आने वाला होता, तो हर बार उनका आग्रह होता कि मेरे घर पर ही आइए । आपके साथ समय गुजार कर अच्छा लगेगा । चाहे UPSC के काम के संदर्भ में मैं दिल्ली गया या औरों के शोध-छात्रों की मौखिकी लेने दिल्ली पहुंचा या निदेशालय के किसी काम से दिल्ली जाना हुआ, अनेक बार मैं रामदरश जी के घर पर ही ठहरता रहा । वहीं से बस पकड़ कर या ऑटो-रिक्श लेकर अपने कार्यस्थल पर पहुँचता रहा  । एक बार UGC के रिसर्च एसोशिएट पद की प्रत्याशी के संदर्भ में मेरी पत्नी मेरे साथ दिल्ली आ रही थी । रामदरश जी ने बड़े स्नेह-आग्रह से मुझे अपने घर बुलाया और हमें वहीं ठहराया । साक्षात्कार देने में कोई तकनीकी अड़चन आ रही थी । इसके लिए उन्होंने डॉ. निर्मला जैन और डॉ. केदारनाथ सिंह से फोन पर परिस्थितियों को अनुकूलित करने और साक्षात्कार देने हेतु अनुमति दिलाने के लिए स्नेहपूर्ण आग्रह भी किया । पर वह रुकावट तकनीकी थी और उसके  निर्धारक और निर्णायक आयोग के उप-सचिव थे । अतः उन्हें साक्षात्कार नहीं देने दिया गया । हम पति-पत्नी मिश्र जी के घर लौट आए । रात में अपने आरक्षण के अनुरूप मुझे दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (हैदराबाद) की एक संगोष्ठी में बीजव्याख्यान देने के लिए जाना था । रामदरश जी ने मुझसे कहा कि आप निश्चिंत होकर हैदराबाद जाइए । इंदु जी सवेरे शान-ए-पंजाब से जाने वाली हैं । मेरा बेटा शशी उन्हें नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में बिठा आएगा । अब उन्हें गाड़ी में बिठाने का योगक्षेम आप मुझपर छोड़ दीजिए । मैं अपने आरक्षण के अनुरूप हैदराबाद चला गाया । इधर रामदरश जी के सुपुत्र शशी ने दूसरे दिन प्रातः मेरी पत्नी को स्टेशन ले जाकर शान-ए-पंजाब मेल में उन्हें अपने आरक्षित स्थान पर बिठा दिया और पत्नी सकुशल अमृतसर पहँच गईं । आज लगता है कि रामदरश जी के घर पर रुकना मेरे लिए कितना आहलादकारी होता था । घर का आत्मीय खाना, भाभी जी के हाथ की बनी नीबू चाय और साहित्य पर विशद चर्चाएं । रामदरश जी का काव्य-पाठ! हर बार के काव्य-पाठ में कवि की अंतर्दृष्टि की नई-नई झलक मिलती थी । ऐसा लगता था कि रामदरश जी कविता नहीं लिखते, कविता अपने-आप को उनसे लिखवाती जाती है, बल्कि इससे भी अधिक उचित यह कहना होगा कि कविता पहले उनके मानस-पटल पर अवतरित होती है फिर उनकी लेखनी के द्वारा कागज के पन्नों पर अपना आसन जमा लेती है । कलाकार की जिस मानसिक अभिव्यंजना की बात क्रोचे ने की है, रामदरश जी की काव्यरचना-प्रक्रिया इसे सम्पुष्ट करती है । संवेदना को जितनी सादगी और स्वाभाविकता से रामदरश जी जिस तरह अभिव्यक्त करते हैं, उससे उनकी साधना और सिद्धि का, उनकी सामथ्र्य-शक्ति का पता चलता है ।

रामदरश जी के यात्रा-संस्मरण की दो बड़ी विशेषताएं हैं । यह स्थल-केन्द्रित और काल-केन्द्रित तो है ही, पर इस परिप्रेक्ष्य में वह वहाँ की प्राकृतिक सुषमा को संस्मरणात्मक रूप में अभिव्यंजित करते हैं । साथ ही वहाँ की महत्वपूर्ण स्मृतियों को प्रत्यक्ष रूप में निरूपित करते चलते हैं । दक्षिण कोरिया का उनका यात्रा-संस्मरण इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है कि उनके जिस कोरियाई पूर्व छात्र ने उन्हें अपने देश ले चलने के लिए आमंत्रित किया, उसके आतिथ्य और उसके समस्त परिवार के सहृदय, सदाशय व्यवहार को वह बड़ी मानवीय संवेदना के साथ निरूपित करते हैं । इससे यात्रा-संस्मरण में आत्मीय, मानवीय राग की अर्थलय मुखर हो पायी है ।

रामदरश जी की डायरियाँ बहुत सहज रूप में अपनी खुली झाँकी दिखाती हैं । ये डायरियाँ या तो उनके कवि-कर्म से जुड़ी हैं या उनकी लेखनधर्मिता से । कुछ दैनिक रूटीन में घटने वाली घटनाओं पर फोकस करने वाली हैं, जिससे घटनाओं के स्वरूप-बोध के साथ-साथ द्रष्टा और गृहीता की उस दृष्टि का भी पता चलता है, जिसे उनके लेखक ने देखा और रचा है । उनकी कई डायरियों में उनके आत्मीय लोगों के आगमन और उनके साथ हुई वार्ता की चर्चाएँ हैं, तो कहीं उनके आत्मीय हैं । इनमें रचनाधर्मियों के रचना-वैशिष्ट्य का सहज उद्घाटन भी है । विभिन्न समाज-राजनीतिक संदर्भ भी उनकी डायरियों में उपस्थित हुए हैं, जिनसे उनकी डायरी के मुक्त स्वरूप और रचनाकार के मुक्त चिंतन का पता चलता है । उन्होंने निबंध भी लिखे हैं, मुक्तक भी लिखे हैं, गजलें भी लिखी हैं । अपने इन सभी लेखनों से उन्होंने खुद को सार्थकता प्रदान की है ।

रामदरश जी हिन्दी के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं । अपनी आत्मकथा में मानों उनके अतीत और वर्तमान का गाँव और शहर के जीवन का रेशा-रेशा उद्घाटित होता चलता है । स्मृतियों की बारीकी का खजाना है यह । जीवन में लगे घात-प्रतिघातों का उल्लेखनीय अलबम है यह । गाँव में बाढ़ की पीड़ा मर्मान्तक है । आज तक इस बाढ़ पर सरकार नियंत्रण नहीं कर पायी है । इस आत्मकथा में रोमान भी है, यथार्थ भी हैं, आदर्श भी है; राग भी है, अनुराग भी है, संयोग भी है और वियोग भी है । अभाव और दर्द की भूमि से उठे साहित्यकार के जीवन को प्रतिबिम्बित करने वाला आईना है यह । जैसे उनके साहित्य में जल-तत्त्व की प्रमुखता है वैसे ही उनका स्थलबोध भी मिट्टी और पानी से गहरे तौर पर जुड़ा हआ है । जीवन में उन्हें जो भी मिला उसका यहाँ सहज स्वीकार है । यह चार खंडों में लिखी गई उनकी आत्मकथा आत्मकथा के मानक पर न केवल खरी उतरती है, बल्कि यह हिन्दी की आत्मकथा को समृद्ध करती है । जीवन में जिन छूटे हुए संदर्भो को, बंधु-बाधवों को लोग याद नहीं करते, याद नहीं रखते, उन्हें रामदरश जी ने अपनी चिति से चेतना तक अंतर्व्याप्त स्मृत्यागार से मुखर रूप में प्रस्तुत किया है ।

रामदरश जी के घर पर मैं जब-जब गया उनकी आँखों में एक पुलक देखी- आह्लादभरी । यह जो आत्मीय स्वागत भाव मैंने पाया वह अनन्वय रहा है और है । मैं पारिवारिक रिश्तों-नातों से लेकर आत्मीय सुहृदय-बंधुओं तक के घर पर सैकड़ों बार गया हूँ, पर अपने आगमन से आँखों में चमकने वाला यह पुलक-आह्लाद भरा भाव मुझे बहुत कम जगहों पर ही देखने को मिला- "देखत ही हरषै नहीं, नैनन नाहिं सनेह/तुलसी तहाँ न जाइए/ कंचन बरसै मेह ।" यूँ तो मैं सदैव उनको पूर्व सूचित कर और उनकी सुविधा आदि को ध्यान में रखते हुए ही उनके घर आया-जाया करता हूँ । पर संभव है उनके परिवार में मेरे जाने से शायद कभी कोई कार्यक्रम बाधित हुआ हो । पर रामदरश जी ऐसे अकेले दृष्टांत हैं, जो मुझे सदैव मिलने के लिए पुलक-भरे, प्रसन्न मन और आतुर दिखे । उनकी और भाभी जी की आँखें और मुखमंडल की चमक सन्नता का सदैव दयोतन करती है । उनके यहाँ जब-जब गया, ढेर-सारी साहित्यिक चर्चाएँ होती रहीं । कई बार अपनी धर्मपत्नी इन्दु जी के साथ उनके यहाँ गया हूँ और कई बार अपने बड़े पुत्र सुशांत सुप्रिय के साथ । एक-दो बार अपनी बहू डॉ० लीना के साथ भी गया हूँ । पर उनके मन में हम सबके लिए वही स्नेह, वही सौहार्द । उन्होंने सदैव अपनी कोई नई पुस्तक मुझे भेट में दी है । कविताएं और गजलें सुनाई हैं । मेरे बेटे की भी कविताएं सुनी हैं और उनके घर का सारा परिवेश उनके व्यक्तित्व के कारण  साहित्य-संवेदना से जीवंत हो उठा है । परस्पर मिलकर हम एक-दूसरे का दुख-सुख भी बाँटते रहे हैं । भाभी जी भी उसी तरह हम सबके बीच चाय-बिस्किट, नमकीन, मिठाई आदि लाकर हमें देती रही हैं, लंच तक कराती रही हैं । मैंने अनुभव क्रिया है कि भाभी जी ने गार्हस्थ्य जीवन की शत-प्रति-शत जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर न केवल मिश्र जी को साहित्यर्ढन और लेखन के संदर्भ में निर्बाध अवसर प्रदान किया है, अपितु वह स्वयं भी हम लोगों के साथ साहित्य-चर्चाओं में अपनी सक्रिय प्रतिभागिता करती रही हैं मिश्र जी की साहित्य सहचरी रहीं । मिश्र रामदरश जी की कुछ कविताएं अपनी धर्मपत्नी पर भी हैं और कुछ अपने पौत्र पर भी । उनमें उनकी निजी अनुभूति का संसार तो रचा-बसा ही है, पर बड़ी बात यह है कि उन्होंने अपनी आत्मनिष्ठ अनुभूति की-सी वस्तुनिष्ठता में बड़ी कुशलता से रूपांतरित कर दिया है । 'औरत' कविता का आलम्बन उनकी जीवन-संगिनी धर्मपत्नी ही रही हैं । पर यह कविता इस रूप में लिखी गयी है कि इसका सामान्यीकरण हो गया है और यह सामान्य औरत की जीवन-कथा को चरितार्थ करने लग गयी है ।

उनकी स्मरण-शक्ति बहत अच्छी है और अपने संस्मरण-लेखन में वे बड़ी कुशलता से विवादास्पदता से बच जाते हैं तथा एक संतुलन बनाएँ रखते हैं । किसी के द्वारा अपना साक्षात्कार देते समय जब उनसे यह प्रश्न किया गया कि आपके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है, तब उन्होंने प्रश्नकर्ता को जो उत्तर दिया वह एकदम से चैंका देने वाला था । मिश्र जी ने कुछ विनोद और कुछ वक्रता में कहा कि मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि मेरा लम्बी उम्र पाना है, क्योंकि मुझे जीवन में जो-कुछ श्रेय मिला, मान-सम्मान मिला, अवार्ड मिला, वह सब जीवन के चतुर्थ चरण में ही मिला प्रश्नकर्ता इसकी व्यंजना नहीं समझ सका । इधर मिश्र जी ने अपने-आपको किसी प्रकार की गर्वोवित से भी बचा लिया ।

अंत में मुझे याद आता है कि छायावाद पर रामदरश जी की एक छोटी-सी आलोचनात्मक पुस्तक है, जो बहुत ही उच्च कोटि की है । मैं उसे छायावाद के कुछ महत्वपूर्ण विरल पुस्तकों में एक मानता हूँ । उनका शोध-प्रबंध भी बहुत ही तथ्यपूर्ण, तत्वसम्पुष्ट और कसा हुआ एक तटस्थ और ठस लेखन है । उन्होंने कुछ आलोचनात्मक पुस्तकें भी संपादित की है और कुछ आलोचनात्मक लेख स्फुट रूप में लिखे हैं । उनके साथ जो मेरा वैयक्तिक और सामाजिक संबंध है वह अपने-आप में मेरी उपलब्धि है ।

रामदरश जी का निजी धर्म उनके कवि-कर्म और उनका साहित्य-लेखन है । उनका धर्म और कर्म एक है और यही उनका जीवन-मर्म भी है । आज वह नौ दशकों से अधिक 95 वर्षों की अवस्था पार कर चुके हैं । पर वे नामवर जी की तरह केवल शोभाधर्मी नहीं बन गये है, अपितु अब भी वह साहित्य चेतना से सम्पन्न और सक्रिय और जीवन्त सर्जक है । उनका सम्पूर्ण वाङ्मय हिन्दी की उपलब्धि है, जो उनके प्रथमकोटिक साहित्यकार होने का दस्तावेजीकरण और कव्यकरण है ।


स्मृत्यालोचन में संस्मरण और आलोचन - दोनों का संयोग होता है । यह केवल संस्मरण नहीं होता ।


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ग़ज़ल

डॉ. रामदरश मिश्र,  उत्तम नगर, नई दिल्ली, मो. 7303105299


दूर जितना ही चला जाता हूँ पास आता है घर 
जागते-सोते निरंतर मुझको गुहराता है घर

हाँक देता है पिता-सा सुबह को आँगन का पेड़ 
पंछियों की चहचहाहट बन के लहराता है घर

घेर लेती हैं मुझे जब बाहरी तनहाइयाँ 
संगिनी - सा आके चुपके-चुपके बतियाता है घर

महफ़िलों के कहकहे जब छोड़ जाते हैं उदास 
मेरे बच्चों की हँसी से मुझको भर जाता है घर

होटलों के सुखी कमरों की घुटन हँसती है जब 
दर्द से मेरे लिखा कमरा उठा लाता है घर

जब पराये देश में है तड़पती बीमार नींद 
बैठ सिरहाने मेरा सिर माँ-सा सहलाता है घर

ठोकरें खाकर तड़पता जब अकेला भीड़ में 
मेरी रग-रग में लहू-सा अपने थर्राता है घर

भूल जाता हूँ कभी अपनी जुबाँ बाज़ार में 
बाँचता मेरी कथा, मेरी ग़ज़ल गाता है घर

टूटते रहते हैं रिश्ते बदलते मौसम के साथ 
है बना रहता न जाने कौन-सा नाता है घर

प्यार-झगड़े, दुख-दुआएँ आपसी बेचैनियाँ 
रंग में अपने हज़ारों ही बहुत भाता है घर  ।
20 सितम्बर 2003

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आलेख

समीक्षक : श्री हरिशंकर राढ़ी, वसंतकुंज एन्क्लेव, नई दिल्ली, मो. 9654030701


अनुभूतियों एवं संवदेनाओं के साहित्यकार : 
रामदरश मिश्र

डाॅ. रामदरश मिश्र के किसी भी संग्रह से गुजरना एक गहन एवं विस्तृत कालखंड से आमने-सामने बतियाना होता है । यदि कालखंड छोटा हो, तब भी उनकी दृष्टि उसे बड़ा बना देती है, उसमें शाश्वतता का पुट डाल देती है, क्योंकि वे समय के हर पल को जीते और देखते हैं । समय को बाँटना वैसे भी उनके स्वभाव में नहीं है । समय तो एक नदी की तरह है । रामदरश मिश्र के लिए तो वाकई ‘दिन एक नदी बन गया’ है । उसे बीच से काटना एक सरल-सहज व्यक्ति के लिए तो कतई संभव नहीं है । काटने का प्रयास वे लोग करते हैं, जिन्हें समय को अपने अनुसार परिभाषित और निर्धारित करना होता है । ऐसे लोग समय को टुकड़ों में काट-काटकर अपनी सुविधानुसार अपने लोगों में बाँटने का प्रयास करते हैं । परंतु, मिश्र जी का मन समय को समग्र रूप में देखता है । हाँ, बीच में आए परिवर्तनों का भान उनके मन को होता जरूर है, किंतु वे उसे अगले हिस्से से पुनः जोड़ लेते हैं और देखते-देखतेे समय की नदी के मोड़ भी अपनी वक्रता को छोड़कर सीधे हो जाते हैं । कई बार ऐसा लगता है कि वर्तमान में वे अपना पूरा अतीत उठा लाते हैं, उसे धरोहर की भाँति ठीक से सजा देते हैं और फिर जैसे अतीत और वर्तमान से कह उठते हों कि दोनों मिलकर आगे की यात्रा करो, भविष्य अपने आप सुंदर बन जाएगा ।

अनुभूति एवं संवेदनशीलता के बिना कोई भी मनुष्य रचनाकार नहीं बन सकता, किंतु केवल अनुभूतियाँ या संवेदनशीलता किसी रचनाकार को महान या कालजयी भी नहीं बना सकतीं । यह सर्वमान्य तथ्य है कि एक सफल रचनाकार वही होता है, जो आलोचकों के बजाय पाठकों में अपनी सीधी पैठ बना ले । यह तभी संभव हो सकता है, जब रचनाकार सहज और सरल हो, उसकी अभिव्यक्ति में कुछ कह पाने की सामथ्र्य का दंभ न हो । प्रश्न अभिधा, लक्षणा या व्यंजना का भी नहीं होता, प्रश्न तो पाठक के मन को छूने का होता है और छूते-छूते झकझोर देने का होता है । इसलिए यह सर्वत्र माना जाने लगा है कि एक सफल रचनाकार के लिए दंभहीनता, ईमानदारी और सरलता अनिवार्य शर्तें हैं । रामदरश मिश्र इन शर्तों का पालन स्वभावतः करते रहते हैं, इसलिए उनकी रचना का हर वाक्य पाठक को छूकर, गुदगुदाकर और अपनापन देकर आता है । यही कारण है कि उम्र के दशवें दशक में भी उनकी लेखनी से ऊर्जायुक्त रचनाएँ निकल रही हैं और पाठक से संवाद करती  जा रही हैं ।

रामदरश मिश्र

पठनीयता के व्यसन में इधर प्रो. मिश्र की दो पुस्तकें हाथ में आईं- ‘आते-जाते दिन’ और ‘आस-पास’ । नाटक को छोड़कर लगभग सभी विधाओं में प्रचुर और प्रभावशाली लेखन कर चुके मिश्र जी गत दस-पंद्रह वर्षों से डायरी लेखन कर रहे हैं । हिंदी साहित्य में डायरी लेखन बहुत पुरानी परंपरा नहीं रही है और इसकी लोकप्रियता के भी बड़े-बड़े दावे नहीं किए जा सकते । एक बार मिश्र जी ने अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि अबतक बहुत लिख चुका । प्रयास करके लिखना मेरे वश में है नहीं और मैं सहज रूप से आजकल डायरियाँ लिख रहा हूँ । मेरे मन में तबसे उत्सुकता (प्रतीक्षा कहना बेहतर होगा) बनी रही कि मिश्र जी इस विधा को कितनी ऊँचाई प्रदान करते हैं । ‘आते-जाते दिन’ सन् 2008 में छपकर आई तो उसमें भी वही रस, वही अपनापन, वही सहजता और वही सामाजिक दृष्टि थी, जो उनकी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों में देखी गई थी । 

सामान्यतः देखा जाता है कि लेखक अपनी डायरियों में स्वयं को एक बड़ा विचारक, महान, त्यागी या बौद्धिक दिखाने की कोशिश करते हैं । कमोबेश यही दृश्य आत्मकथाओं में भी होता है । ऐसा पूर्वाग्रह पाठक भी लेकर चलता है, क्योंकि उसे भी किसी के निजी सुख-दुख से कुछ खास नहीं लेना-देना होता है, इसलिए डायरियाँ बहुत कम लोगों की दृष्टि से गुजरती हैं । मिश्र जी की डायरी इस मिथक को तोड़ती है । डायरी के इन पृष्ठों पर न तो कुछ छिपाने जैसा है और न जबरदस्ती दिखाने लायक । दरअसल, इस डायरी संकलन में रामदरश मिश्र के लेखक पर उनका कवि कब्जा किए हुए बैठा है जिसके सामने भोगे गए दिन, प्रीति की ऊष्मा में डूबा हुआ कोई परिचित या मित्र, सहचर साहित्यकार, साहित्यिक गतिविधियाँ या समाज के अंतिम व्यक्ति का मूर्त दुख बड़ी शिद्दत के साथ आकार पाता है । डायरी के अधिकांश पन्ने लेखक को समाज और साहित्य से जोड़ने में लगे हुए दिखते हैं । यह जुड़ाव इतना स्वाभाविक दिखता है कि पाठक भी इसके साथ जुड़ता चला जाता है और उसे लगता है कि वह एक पृष्ठ नहीं, अपितु एक कालांश और एक संवेदनशील मनुष्य के बीच का संवाद सुन रहा है ।

‘आते-जाते दिन’ में सन 2003 से लेकर 2007 तक के पन्ने हैं और कुल आठ प्रकरणों में बँटे हैं । इनके प्रकरणों में बँटने से इनकी गति पर केाई प्रभाव नहीं पड़ता । यह विभाजन विषयवस्तु के अनुसार नहीं लगता । विषयवस्तु की प्रासंगिता वैसे भी डायरी विधा में बेमानी ही होती है । किस दिन कौन-सी बात जँचेगी और कौन-सी चुभेगी कि कागज पर उतरने को विवश हो जाएगी, इसका कोई क्रम नहीं होता । यह तो संयोग, परिस्थिति, लेखक की संवेदनशीलता एवं मानसिकता होती है । महत्त्वपूर्ण तो यह है कि उसका सामाजिक-साहित्यिक सरोकार कितना है ? क्या वह पन्ना अपने अनुभवों एवं अनुभूतियों से किसी और का मन भी छू रहा है? या फिर उसमें यदि किसी मुद्दे पर प्रतिक्रिया दी गई है तो वह तर्क और भाव के पक्ष पर कितनी खरी उतरती है? यदि कोई विमर्श चलाया गया है तो उसके पीछे कोई सद्भावना है या फिर चंदन लगाकर पुजारी बनने का प्रयास किया गया है ?

रामदरश मिश्र का यह डायरी संकलन इन सभी प्रश्नों से सकारात्मक रूप से टकराता है और बिना किसी बनावट के अपने हिस्से का सुख-दुख पाठक को ‘जो है, जैसा है’ के प्राकृतिक भाव से समर्पित कर देता है । हाँ, यह कहना यहाँ जरूरी हो जाता है कि इस प्राकृत देयता में शिष्टाचार का उल्लंघन कहीं से नहीं हुआ है । वस्तुतः, उल्लंघन की कल्पना मिश्र जी से की ही नहीं जा सकती । वस्तुतः डायरी के हर पृष्ठ से बड़ी आत्मीयता से बातचीत की गई है । प्रायः ऐसा लगता है कि मिश्र जी के लिए डायरी के पृष्ठ एक सजीव सहचर और साक्षी हैं और साक्षी से न तो झूठ बोला जा सकता है और न दिखावा किया जा सकता है । निजी अनुभवों और यात्राओं के वर्णन में कुछ अतिशयोक्ति या गोपन की गुंजाइश हो सकती है, किंतु जहाँ साहित्य से जुड़ी किसी चर्चा या गोष्ठी का प्रश्न हो या कोई समसामयिक विमर्श हो, वहाँ सत्य और तथ्य आसानी से तोड़े नहीं जा सकते । यदि कोई तोड़ने-मरोड़ने का कार्य करता है तो पाठक की नजर से बच नहीं पाता । मिश्र जी की डायरी के अधिकांश पन्नों पर साहित्यिक विमर्श अनौपचारिक एवं बड़े सरल ढंग से प्रकट होता है । प्रायः साहित्य के झंडाबरदार इस प्रकार के विमर्श में रुचि नहीं लेते । विमर्श के लिए उन्हें एक अदद मंच, लाउडस्पीकर, जाने-माने विचारक और चिंतक तथा विचारधारा विशेष के कुछ ‘प्रबुद्ध’ श्रोताओं की दरकार होती है । वहीं से वे साहित्य की धारा सुनिश्चित करते हैं और यह भी उम्मीद जगाते हैं कि मंतव्य विशेष के साहित्य से समाज में समग्र क्रांति आएगी । यह बात दीगर है कि विमर्श की वह आवाज आॅडीटोरियम के बाहर नहीं आ पाती और आती भी है तो अखबार-लघुपत्रिका के किसी उपेक्षित से कोने में, जिसके पाठक विलुप्तप्राय प्रजाति की श्रेणी में आते हैं ।

रामदरश  मिश्र की डायरी में विमर्श तो हैं, किंतु गरियाने के लिए नहीं, एक अच्छा माहौल बनाने के लिए । वे साहित्य में मठाधीशी के प्रखर आलोचक हैं । ‘आते-जाते दिन’ में दिनांक 15/6/06 के पृष्ठ पर वे बड़े व्यंग्यात्मक लहजे में लिखते हैं- ”हिंदी के कुछ प्रभावशाली कवि, कुछ कहानीकार, कुछ आलोचक मिलकर मुख्यधारा का निर्माण किए हुए हैं । यानी कि वे ही फैसला करते हैं कि कौन मुख्य धारा में रहेगा और किसे हाशिए पर फेंक दिया जाएगा । जो लोग उनसे जुड़ते हैं, उनकी जय-जयकार करते हैं, वे मुख्यधारा में शामिल कर लिए जाते हैं और शामिल होने वाले लोग अपनी छोटी-छोटी औकात लिए यों तनकर चलते हैं जैसे उनके सामने रामचंद्र शुक्ल, प्रसाद, निराला, प्रेमचंद, जैनेन्द्र आदि क्या चीज हैं ।“ जाहिर है कि वर्तमान साहित्यिक गिरोहबाजी पर ऐसी बेबाक और व्यंग्यात्मक टिप्पणी के बाद कहने के लिए कुछ शेष नहीं रहता । यह भी सच है कि साहित्य जगत में जिस स्थान एवं सम्मान को मिश्र जी ने बिना किसी गिरोहबाजी और चाटुकारिता के प्राप्त किया, वह अपने आप में एक अजूबा और उपलब्धि है । यह युग आचार्य द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा का नहीं है कि चर्चा एवं विमर्श गुणवत्ता आधारित हो । हिंदी साहित्य में पिछले तीन-चार दशकों में "अंधा बाँटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह के देय" की अघोषित परंपरा मजबूत होती गई है और कई ऐसे कवियों एवं लेखकों को उत्कृष्ट लेखक होने का प्रमाणपत्र जारी किया जिनका नाम तक सामान्य पाठक के जेहन में नहीं रहा होगा । आलोचकों और साहित्यकारों के ऐसे लाडले ‘रचनाकारों’ ने साहित्य को जनता से दूर करने में अतुलनीय योगदान दिया । लेखनकार्य संगठन में शामिल होने से नहीं आता और गुणवत्ता भी किसी थोपी विचारधारा से सामंजस्य नहीं बिठा पाती । इस सत्य को मिश्र जी समझते हैं और उनके लिए सबसे अधिक प्रीतिकर यह होता है कि कोई गैर-साहित्यकार उनके लेखन से प्रभावित हो । इसमें समय लगता है और उन्होंने इसे ठीक से महसूस किया है । यह बात अलग है कि इस मुकाम तक पहँुचने में मिश्र जी को समय लगा जिसकी तस्दीक उन्होंने अपनी एक ग़ज़ल में की है । उसका एक प्रसिद्ध शे’र है-

जहाँ आप पहुँचे छलाँगे लगाकर

वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीर-धीरे  ।

धीरे-धीरे ही सही, मिश्र जी ने बहुत लंबी यात्रा की है और उन्हें अपनी यात्रा का कदम-दर-कदम याद है । हर कदम को उन्होंने जिया है और उसके चिह्नों को बचाकर भी रखा है । हर अनुभूति को अनुभव की धीमी आँच पर पकने के बाद ही वे बाहर आने देते हैं । ये अनुभूतियाँ और अनुभव मीठे और कसैले दोनों ही प्रकार के हैं । किशोरावस्था की प्रथम कविता से वाया बनारस व गुजरात उम्र के आठवें दशक तक की निजी और साहित्यिक यात्रा के संस्मरणात्मक फोटोग्राफ कहीं से धुँधलाने नहीं देते हैं । दोनों डायरियों में उन्होंने अपने गैर-साहित्यिक कार्यक्रमों एवं संबंधों पर लिखा है । यह बात अलग है कि उनकी गैर साहित्यिक गतिविधियाँ भी साहित्यरस से बच नहीं पातीं । संबंधों को सहजता एवं सहृदयता से निभाने में विश्वास रखने वाले मिश्र जी न जाने कितने आत्मीय संबंधों की चर्चा करते हैं, परंतु स्वार्थ में सने मौकापरस्त मित्रों का जिक्र करने से नहीं चूकते ।

ऐसे दो तीन जिक्र ‘आते जाते दिन’ और ‘आस-पास’ में आते हैं । कुछ भूले-बिसरे संबंधों को वे ढूँढ़-ढाँढ़कर इसलिए लाते हैं कि उनके माध्यम से वे अपने अतीत के अपनत्वपूर्ण दिनों को दुबारा जी लेंगे । उन स्मृतियों को वे एक बार फिर से सजीव रूप में उन मित्रों के साथ संभवतः बीते हुए काल से निकालकर वर्तमान में रख लेंगे । कुछ देंगे और कुछ लेंगे । लेकिन उनकी उम्मीदों पर तब पानी फिर जाता है जब वे पाते हैं कि वे मित्रगण अपने बालसखा या साहित्यकार रामदरश मिश्र की तलाश में नहीं, अपितु एक स्रोत की तलाश में आए हुए हैं । उन्हें या तो आर्थिक मदद की जरूरत होती है या फिर उनकी किसी राजनीतिक या अन्य प्रकार की ऊँची पहुँच की । ‘आते जाते दिन’ में दिनांक 11/4/06 का एक पृष्ठ ऐसे कई उदाहरण देता है । मिश्र जी एक को छोड़कर कई बालसखाओं का नाम लिए बिना अपना संस्मरण देते हैं और निष्कर्ष स्वरूप लिखते हैं- ”जिन-जिन पुराने मित्रों को याद करता रहा हूँ और जिनसे न मिल पाने की तड़प महसूस करता रहा हूँ, उनमें से कइयों से कभी भेंट हुई तो मोहभंग हो गया ।“ एक आलोचक और वरिष्ठ साहित्यकार के रूप में नवोदित लेखकों का उत्साहवर्धन करने या उन्हें सही रास्ता दिखाने में वे आना-कानी नहीं करते, किंतु कवि होने का दंभ पाले बहुत से अकवि जब अपनी रचनाएँ उन पर थोपना चाहते हैं या उनसे अपने संग्रह की भूमिका लिखवाना चाहते हैं, तब उनका नैतिक और स्वाभिमानी कवि चिढ़ जाता है । वे इन बातों का जिक्र डायरी में करते हैं और उसमें इतनी निश्छलता होती है कि आज के साहित्य जगत में पनपी पारस्परिक गुणगायन की परंपरा पर क्षोभ सा होने लगता है । यह सच है कि नवोदित रचनाकारों का उत्साहवर्धन एवं उनकी रचनाओं का परिमार्जन अवश्य होना चाहिए । किंतु जहाँ रचनात्मक प्रतिभा का सर्वथा अभाव होते हुए रातों-रात प्रसिद्धि की भयंकर कामना हो, वहाँ साहित्य की रक्षा के लिए इस प्रकार का कठोर कदम उठाना ही चाहिए और स्तरहीनता को बढ़ावा देने से बचना ही चाहिए । आखिर एक सच्चे रचनाकार का कर्म यह भी होता है कि वह साहित्य को कबाड़ी की दूकान होने से बचाए ।

मिश्र जी प्रायः कहते रहते हैं कि वे एक सच्चे माक्र्सवादी हैं । यह बात उन्होंने एक बार मुझसे भी एक साक्षात्कार में कही थी । तब मैं मिश्र जी के साहित्य से अपरिचित नहीं था । उनके माक्र्सवादी स्वर का भान मुझे था । लेकिन इस आधार पर कभी-कभी मेरे मन में संदेह होता था कि यदि ऐसा है तो माक्र्सवादियों का समूह उन्हें अपना क्यों नहीं मानता? मानने की बात तो अलग है, तथाकथित माक्र्सवादी चिंतक - आलोचक उनसे परहेज क्यों करते हैं? उनके माक्र्सवाद की वर्तनी में ऐसी क्या दिक्कत है कि यहाँ भी उनकी उपेक्षा हो रही है । कुछ और सोचने तथा देखने बाद पता लगा कि जो विसंगतियाँ जीवन के अन्य क्षेत्रों में मिलती हैं, वही विसंगतियाँ माक्र्सवाद के तथाकथित झंडाबरदारों में भी हैं । दरअसल आज-कल व्यक्ति विचारधारा के बजाय अपने समूह और राजनीतिक सक्रियता से पहचाना जाता है । उसके हाथ में विचारधारा विशेष का झंडा होना चाहिए, उसकी निजी विचारधारा कुछ अलग भी हो सकती है । रामदरश  मिश्र किसी विचारधारा के जुलूस में शामिल नहीं हुए, किसी राजनीतिक साहित्यकारिता के मंच पर नहीं चीखे और केवल वाणी से माक्र्सवाद का बिगुल नहीं फूँके, इसलिए उन्हें माक्र्सवादी मान लेना उन सभी ‘तपस्वियों’ का अपमान होगा जो कुछ असल माक्र्सवाद पर लिखने और कर दिखाने के बजाय ताउम्र झंडा ही ढोते रह गए ।

मिश्र जी की कविताओं को देखा जाए तो उनमें समाज के अंतिम व्यक्ति के प्रति सम्मान और सहानुभूति है । इन दो डायरी पुस्तकों के अतिरिक्त उनके निबंध और संस्मरण संग्रहों में भी माक्र्सवादी स्वर को सर्वत्र सुना जा सकता है । जिस जगह उन्हें ठेले-रेहड़ी या सड़क छाप ढाबे वालों के इर्द-गिर्द पेट की आग बुझाते मजदूर दिख जाते हैं, उन्हें वास्तविक आनंद आ जाता है । सड़क किनारे के ढाबे में सुबह-सुबह भगोने में भदभदाती दाल की आवाज उन्हें बहुत संगीतमय लगती है । वे उस गरीब रिक्शेवाले का दर्द समझते हैं, जो पूरे दिन अपने परिवार के लिए अपने सीने और फेफड़ों का भभकाकर सवारियाँ ढोता रहता है और तथाकथित ‘एलीट क्लास’ की गालियाँ खाता रहता है । शहरों में पुल के नीचे ईंट के चूल्हे पर रोटियाँ सेंकती पत्नी अपने पति को खिलाती और निहारती है तो उनमें मिश्र जी को सर्वोत्तम प्रेम और सहकार नजर आता है । ऐसा कोई दृश्य आते ही मिश्र जी भावुक हो जाते हैं और स्वयं के वीआईपी न होने का सुख बड़ी शिद्दत महसूस करते हैं । बेहद मुरौवती होने के बावजूद वे कई बार सामान्य व्यक्ति के प्रति हो रहे अन्याय को बरदाश्त नहीं कर पाते । डायरी में ऐसे अनेक प्रसंगों का जिक्र है । ऐसे समय वे अपनी धर्मपत्नी श्रीमती सरस्वती जी का जिक्र भी प्रायः कर बैठते हैं, क्योंकि वे अपेक्षाकृत अधिक बोल्ड हैं और सड़क चलते किसी भी निरीह मनुष्य के पक्ष में वे खड़ी हो जाती हैं ।

धार्मिक दृष्टि का आकलन किया जाए तब भी रामदरश मिश्र जी माक्र्सवाद की पूरी रौ में दिखते हैं । धर्म के नाम पर हो रहे आडंबरों एवं आयोजनों से उन्हें बहुत चिढ़ है । एक सभ्य समाज में यह सर्वथा अनुचित है कि आप अपनी आस्था के नाम पर पूरे मोहल्ले की शांति और नींद खराब करें । भगवती जागरण और रामायण पाठ के नाम पर ध्वनिविस्तारकों का कनफोड़ू आयोजन कहीं से धार्मिक और आध्यात्मिक नहीं कहा जा सकता । यदि आस्था है भी तो वह निजी प्रसंग है और उसे निजता से बाहर नहीं आने दिया जाना चाहिए । ‘आस-पास’ में दिनांक 6/1/08 के पन्ने पर एक ऐसे ही भगवती जागरण को रुकवाने का असफल संघर्ष वर्णित है । विडंबना यह है कि यह जागरण एक गोलगप्पे वाला करवा रहा है, जिसे गोलगप्पे की दूकान चलवानी है और वह शायद भगवती जागरण की कृपा से चल जाए । भारतीय समाज के अंधविश्वास पर मिश्र जी बहुत व्यथित होते हैं और व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं कि देवी-देवताओं के जिम्मे एक काम यह भी आ गया है कि वे भक्तों की दूकान भी चलवाएँ ।

 इसी संग्रह में दिनांक 1/5/07 के पन्ने पर उनकी शिक्षकीय जाँच-परख देखने को मिलती है और एक विकसित दृृष्टि का नमूना भी । विश्वविद्यालयी शिक्षा में अध्यापकों के गिरते स्तर और साहित्य को न समझ पाने का दर्द इस पन्ने पर तार्किक दृष्टि से विश्लेशित किया गया है । वे लिखते हैं- "कई अध्यापक ऐसे होते हैं, जिनकी मेधा तो प्रखर होती ही है; वे साहित्य, साहित्यशास्त्र एवं अन्य विषयों की पुस्तकों का गहन मंथन भी करते हैं और छात्रों को साहित्य की नई समझ से सम्पन्न करते हैं ।....... एक वे हैं जो साहित्य और साहित्यशास्त्र का मंथन तो करते हैं, किंतु उनकी दृष्टि न तो रचनात्मक होती है और न आधुनिक । वे अपने समय की चेतना के संदर्भ में शास्त्र या आलोचना को नई दिशा नहीं दे पाते, वे चिंतन को उद्घाटित तो करते हैं, किंतु उसे नया आयाम नहीं दे पाते । उन्हें आचार्य नहीं कहा जा सकता ।" वस्तुतः डायरी के इस पन्ने पर मिश्र जी साहित्य की दुर्गति करने वाले अध्यापकों पर पूरी लानत भेजते हैं और कहीं न कहीं शिक्षातंत्र में आए भटकाव से बहुत व्यथित नजर आते हैं । विश्वविद्यालयों द्वारा जुगाड़तंत्र के अधीन प्रदान की जाने वाली पीएचडी की डिग्रियों की वास्तविकता उनके अध्यापक को बहुत चिढ़ाती है । जाहिर है कि ऐसे विचारों से संपन्न व्यक्ति किसी भी कोण से किसी एक पंथ का नहीं कहा जा सकता और वह एक सच्चा माक्र्सवादी कहलाने का अधिकार रखता है, किंतु उन्हें कुछ भी माँगकर या जुगाड़कर लेना किसी भी प्रकार नहीं सुहाता ।

मिश्र जी अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से नहीं भागते । समाज उनके लिए जीवन का एक अनिवार्य अंग है, किंतु वे सामाजिक संस्थाओं में शुचिता और आदर्श के समर्थक हैं । उनका समाज केवल नियम बनाने और बलपूर्वक उसका पालन कराने हेतु नहीं बना है । जब तक समाज में समता नहीं स्थापित होगी, सामाजिक आदर्श खोखले ही रहेंगे । ‘आते-जाते दिन’ में ‘बाहरी-भीतरी यात्राएँ’ के अंतर्गत विवाह समस्या पर मिश्र जी ने गहन एवं संतुलित विचार प्रस्तुत किया है । आधुनिकता और अर्थपरता की दौड़ में हाँफता-डाँफता समाज टूटन और विखरन की कगार पर खड़ा हो गया है । पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से वैवाहिक संस्था लांक्षित हो रही है । इस क्रम में विवाह के मूल में मानवीय मूल्य, स्त्री-पुरुष का एक दूसरे के प्रति आकर्षण और सृजन की भावना का जिक्र करते हैं । मनुष्य अपनी दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति पशुओं की भाँति न करके उत्तरदायित्व एवं रचनात्मकता की पूर्ति के लिए करे, एक संस्कृति का निर्माण करे और अगली पीढ़ी के लिए मानवीय आदर्शों की विरासत छोड़कर जाए, शायद यही उद्देश्य रहा हो वैवाहिक संस्था का । किंतु संयुक्त परिवारों के टूटने का प्रभाव समाज पर यह पड़ा कि विवाह एक सामाजिक बंधन न होकर एक निजी बंधन रह गया और उसके पीछे का सुरक्षा कवच टूटता गया । परिणामस्वरूप विवाह की विश्वसनीयता घटी है, किंतु लिव-इन-रिलेशनशिप के इस दौर में भी विवाह की प्रासंगिकता समाप्त नहीं हुई है । वैवाहिक संस्था पर अपने इस विश्वास के बाद मिश्र जी इसी पन्ने पर स्त्री की शक्ति और महत्ता को रेखांकित करते हैं । यहाँ ये पुरुष समाज द्वारा स्त्री जाति को दी गई यातनाओं और प्रतिबंधों का जिक्र करना नहीं भूलते और परंपरावादी सोच को ही वे नारी सशक्तीकरण की सबसे बड़ी बाधा मानते हैं । स्त्री शिक्षा से समाज के न जाने कितने सड़ियल मिथक टूट रहे हैं और स्त्री मजबूत होकर उभर रही है । विवाह से विमुख होती जा रही पीढ़ी के प्रति उनका मन कलुषित तो नहीं दिखता, हाँ इसे वे पलायनवाद जैसा जरूर मानते हैं और मानव जाति के भविष्य पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हैं । वैवाहिक संस्था के बिना उत्पन्न संतानों का क्या भविष्य होगा, यह अकल्पनीय नहीं है । इस समस्या पर एक कदम आगे बढ़ते हुए वे कहते हैं- ”हाँ, यदि स्त्री-पुरुष छाती ठोंककर उस सृजन को अपना घोषित करते हैं और हमारी समाज-व्यवस्था तथा कानून में उसकी सम्मानपूर्ण जगह बनती हो तो कोई हर्ज नहीं ।“

प्रसंग डायरी लेखन का हो और निजी जीवन प्रतिबिंबित न हो, यह संभव नहीं । मिश्र जी डायरी के पन्नों पर अपने निजी जीवन और परिवार के सुख-दुख को सहजता से साझा करते हैं । ‘आते जाते दिन’ में दिनांक 5/7/06 के पन्ने पर वे अपने वैवाहिक जीवन की अट्ठावनवीं वर्षगाँठ को जीते हुए दिखते हैं । इसमें संदेह नहीं कि पुरानी पीढ़ी के लोग ऐसे दिवसों, आयोजनों एवं औपचारिकताओं में संकोच महसूस करते हैं । उचित भी है, क्योंकि उस समय की वैवाहिक संस्था पति-पत्नी के बीच ‘साॅरी’ और ‘धन्यवाद’ रहित थी । इतनी एकात्मकता होती थी कि पति-पत्नी को एक दूसरे से अलग मानते ही नहीं थे इसलिए ऐसी स्थिति में इन शब्दों का महत्त्व शून्य हो जाता है । अस्तु, मिश्र जी को इस वर्षगाँठ की याद एक परिचित द्वारा दिलाई जाती है । फिर तो उन्हें अपनी इस यात्रा के पड़ाव-दर-पड़ाव याद आने लगते हैं । औपचारिक आयोजनों से जितनी प्रसन्नता मिलती, उससे कहीं अधिक उन स्मृतियों से मिलती है । वे याद कर उठते हैं- ”रह-रहकर याद आते रहे वे महकते हुए दिन जो विवाह के सद्यःपश्चात उससे फूटे थे, जिन्होंने हमारे समय को इंद्रधनुष की तरह सतरंगी बना दिया था ।“ पत्नी सरस्वती जी का वे बहुत सम्मान करते हैं और स्वयं को ‘घरघुसरा’ की संज्ञा से विभूषित करने के उपरांत यह मान लेते हैं कि पत्नी की बोल्डनेस एवं सक्रियता ने उन्हें काफी हद तक ‘घरघुसरा’ की प्रवृत्ति से होने वाले नुकसान बचा लिया है । उनकी कर्मठता के वे ऋणी हैं और बड़ी सहजता से वे कह उठते हैं- 

कुछ फूल कुछ काँटे, हमने आपस में बाँटे

जीवन के हर मोड़पर

हमने एक-दूसरे का इंतजार किया है

हाँ हमने प्यार किया है ।

मेरी दृष्टि में आई दोनों डायरियाँ मिश्र जी के विषय में कोई नया रहस्य नहीं खोलतीं; हाँ मिश्र जी के लेखक और व्यक्ति में एक संुदर सामंजस्य बिठाने में बड़ा योगदान करती हैं । इनमें भी वही रस है जो उनकी कहानियों, कविताओं और संस्मरणों में मिलता रहा है । सच तो यह है कि डायरी के ये पन्ने रामदरश  मिश्र को मजबूती प्रदान करते हैं और उनकी संवेदनशीलता और सहजता को एक साथ रेखांकित करते हैं । हाँ, इन पन्नों पर इतना कुछ है कि एक छोटे से आलेख में सबको समेटा नहीं जा सकता । विषयवस्तु को भले न समेटा जा सके, लेख को तो समेटना पड़ेगा ही; बस इस आग्रह के साथ कि यदि छोटी-छोटी संवेदनाओं सहित बड़े किंतु ईमानदार विमर्शों से गुजरने की इच्छा हो तो इन डायरी संकलनों का विकल्प बहुत ही अच्छा रहेगा ।


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आलेख
समीक्षक : 
पाण्डेय शशिभूषण ‘शीतांशु ‘साईकृपा‘ 58, लाल ऐविन्यू डाकघर-छेहर्टा, अमृतसर पिन-143105 (पंजाब)

मो. 09878647468  Email : shitanshu.shashibhushan@yahoo.com


काव्य-राग में मानव-राग को मुखर करने वाले कवि रामदरश मिश्र 'प्रतिनिधि कविताएँ' का संदर्भ

हिन्दी में रामदरश मिश्र समकाल के ऐसे अकेले कवि हैं, जिन्हें न कभी किसी वाद की अपेक्षा रही और न उसका कोई व्यामोह ही रहा । एक नहीं अनेक वादों ने उनकी उपेक्षा की, पर ये उपेक्षाएँ अंततः उनके कवित्व के चरणों में नतशिर होकर समर्पित हो गयीं । 2022 के उत्तरार्ध में उनका एक काव्य-संकलन 'प्रतिनिध कविताएँ ' नाम से प्रकाशित हुआ है । यहाँ इसी के आधार पर उनकी कविताओं और उनके कवि का मूल्यांकन प्रस्तुत है ।

रामदरश जी वादमुक्त, विवादहीन, संवादयुक्त, अनुवादयुक्त सनातन कवित्व के कवि हैं । वादमुक्तता इस कवि - मन का सहज अभिधेयात्मक आत्मस्वीकार है- "मैं आदमी हूँ, मैं कोई झंडा नहीं हूँ / मैं किसी वाद का डंडा नहीं हूँ ।" इस तरह अपनी कविता में वाद की मिलावट और दिखावट नहीं रहने के कारण वे स्वभावतः शुद्ध कविता के कवि है ।

रामदरश जी की कविताएँ मुझे कविता को नये सिरे से परिभाषित करती हुई दीखती हैं, मानों दृष्टान्त देती हुई सिद्धान्त की स्थापना कर रही हों । कविता गहरी संवेदना से तदाकार, साकार, दृष्टि की कौंध - रूपी चमक से भरी विरोधाभास, विडम्बना और भंगिमा की विशिष्ट अभिव्यक्ति है । छन्द और लय-दोनों उनकी कविता की बनावट और बुनावट को साधते है । उनकी कविता तथाकथित छन्द को वर्म (कवच) की तरह उतार देने के बाद भी वह लय का कभी परित्याग नहीं कर पाती है । उनके शरीर और मन का प्राण- तत्व उनका कवित्व है, एक प्रसन्न, अनाविल और दृष्टि-सम्पन्न कवित्व । संस्कृत की प्रसिद्ध सूक्ति- ' कवयः किं न पश्यन्ति' और जन-मानस में बसी यह लोकोक्ति भी 'जहाँ न जाय रवि वहाँ आप कवि' - की सार्थकता देखनी हो तो रामदरशजी की कविता से अधिक सटीक उदाहरण आपको और कहीं देखने-सुनने को नहीं मिलेगा ।

डॉ. रामदरश मिश्र

रामदरश जी अभिधा के कवि है । पर यह वह अभिधा है जिसका स्वरूप-विवेचन करते हुए महिमभट्ट को 'व्यक्तिविवेक' में लिखना पड़ा कि अभिधा एक प्रकार से इषु (बाण) का व्यापार है, जो एक साथ वर्म-वेधन (कवच को वेधना ), मर्म-छेदन (हृदय को छेदना) और प्राण हरण कर लेता है । आशय यह कि इस अभिधा से ही प्रतीयमान संकेतार्थों की प्रतीति करा दी जाती है । इस दृष्टि से उनकी अभिधा मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर की अभिधा से भिन्न कहीं अधिक गुणात्मक, श्रेयस्कर, अर्थवान और संश्लिष्ट है । उनमें वार्ता में भी कवित्व को रसा-बसा देने और संरचनात्मकता दे देने की क्षमता है । मैं तो यहाँ तक मानता हूँ कि उनका जीवन दूर दृष्टि और विश्वदृष्टि से परिचालित नहीं होकर शत-प्रति-शत कविदृष्टि से परिचालित है । कवित्व-रूपी रमण-प्रिय राम के दरश से वह अपना 'रामदरश' नाम सार्थक करते हैं । 

प्रायः यह मान लिया गया है कि सारस्वती की जवानी कविता है और बुढ़ापा उसका दर्शन! यानी कवि एक काल - सीमा तक ही नवनवोन्मेषी कविताएँ लिख पाता है । उसके बाद वह चुक जाता है, भले ही वह कहता रहे कि 'चुका भी नहीं हूँ हिन्दी में एक कालावधि के वाद कवि पन्त अपनी कवित्व - शक्ति के चुकने के बावजूद कविता लिखते रहे थे । तब हिन्दी में अपनी नामवरी से सराहे जाने वाले एक आलोचक ने उनके समग्र पचासोत्तरी लेखन को 'कूड़ा' कह दिया था । अंग्रेजी के प्रसिद्ध रोमांटिक कवि वर्ड्स्वर्थ के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसने अपना श्रेष्ठतम अपने युवा काल में ही लिख डाला था । उसके बाद वर्षों तक का उसका परवर्ती लेखन यदि नहीं लिखा जाता तब भी उसके सर्जनात्मक सुयश में कोई अन्तर नहीं पड़ता । पर मैं रामदरश जी के लेखन को इन दोनों ही सदर्भों का अपवाद मानता हूँ । उनकी 'प्रतिनिधि कविताएँ संकलन इस बात का प्रमाण हैं ।

ओम् निश्छल ने उन्हें नयी कविता से जोड़ने - बाँधने की चेष्टा की है । पर उनकी कविता मौलिक होने के कारण हर - हमेशा नयी रही है । प्रायः आन्दोलन से जुड़े कवियों और कविताओं में कथ्य का दोहराव देखने को मिलता 

है । मौलिक कवि में ऐसे दोहराव की संभावना नहीं होती, क्योंकि उसमें नयी दृष्टि का ऐश्वर्य होता है । नयी कविता में चमत्कारी दोहराव मिलते हैं, पर वह रामदरश जी में नहीं है । प्रगतिवाद यानी एक ही विश्वदृष्टि से की जाने वाली सर्जना का तो उन्होंने स्वयं ही अस्वीकार किया है । प्रगति उनके यहाँ प्रकृत रूप में है, पर वे प्रगतिवाद जैसे छत्रपद वाले शिविर में कभी सम्मिलित नहीं रहे- 

" मुक्त मन है, वह किसी भी चाल का आदी नहीं है,

 है नशा उसमें अदब का, किन्तु उन्मादी नहीं है,

विचारक है, पर बँधा है नहीं खूंटे से किसी भी

वह प्रगतिमय है खरा, लेकिन प्रगतिवादी नहीं है ।

कवि वह बड़ा होता है, जिसे अपने युग और जमाने की समझ होती है, जो इन्सान के भीतर छिपे शैतान को पहचान जाता है और उसके द्वारा किये जाने वाले आघात को जान जाता है । यही नहीं, जो अपने युग-सत्य के बहाने एक सनातन सत्य का साक्षात्कार भी अपने पाठकों को करा जाता है । रामदरश जी की ग़ज़लों की चन्द पंक्तियों से गुजरिये, उन्हें आत्मसात् कर दृश्यों में देखिए । महान् ग़ज़लगो, कवि या साहित्यकार भविष्य में होने वाली घटना की आहट सुन लेता है और उसे दुनिया को पूर्व सूचित कर देता है । रामदरश जी के यहाँ यह भविष्य - प्रतीति देखिए-

"जल रहे है, गाँव, कस्बे, शहर देश-विदेश के,

नाचती आकाश में लपटें भवानी की तरह ।

ये पक्तियाँ रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध को आँखों के सामने साकार कर देती हैं । न केवल ये दोनों देश, बल्कि पूरा यूरोप, अमेरिका और नाटो की भूमिका और बर्बरता से इसे सक्रिय बना देती हैं । यह ग़ज़ल यद्यपि पहले की लिखी है, पर है यह शाश्वत कला-सत्य, जिसके साक्षी हम सब हैं । पर उद्धारकर्ता कोई नहीं है । इसके बुनियादी कारक तथ्य को भला कौन पहचानेगा?— “सत्य है दुबका कहीं पर आदिवासी गाँव- सा / खिलखिलाता राजधानी की तरह !

पर इस घोर निराशा में भी - कवि को एक बड़ा आत्मविश्वास है-

भटक रहे हैं लोग रात में, बायदाँ में,

दिखेगी रात में कोई शमां कहीं-न-कहीं ।

रामदरश जी के कवि को देखिए, जिसे भला अपनी जिन्दगी में नहीं जी पाने के कारण प्रगतिवादियों और जनवादियों को उन पर कभी लिखने का साहस नहीं हो पाया उसे उनके कवि ने कह दिया है-

"लिखा है सबके आँसुओं में डुबो के खुद को

सुनेगा कल जो मेरी दास्ताँ कहीं-न-कहीं ।।"

'यहाँ आँसुओं में खुद को डुबोने की कितनी गहरी अर्थवत्ता है । यहाँ खुद की यह भूमिका ही कवि को उदात्त और महान बना देती है । यही नहीं, मानवीयता पर कवि के इस विश्वास को देखिए-

"जिगर से बात करेगी, जुबाँ कहीं-न-कहीं

मिलेगा कल जमीं से आसमाँ कहीं-न-कहीं ।"

रामदरश जी दुष्यन्त से इस मायने में बड़े ग़ज़ल - गो है कि दुष्यन्त जो घट रहा था उसे शब्द दे रहे थे । पर रामदरश जी उसे शब्द दे रहे हैं जिसकी घटनीयता वर्तमान से भविष्य तक पसरी हुई है । मंखक ने इसीलिए साहित्यस्रष्टा कवि को 'भविष्यद्रष्ट' कहा है । धन्य है वह कवि जिसकी सोच में मानव हित की ऐसी साकारिता जन्म लेती है ।

रामदरश जी सच्ची मानवता के कवि है । वह विधेयात्मकता के कवि हैं, निषेधात्मकता के नहीं । अन्धकार और संहार से मुक्ति के लिए उनमें प्रकाश और सृजन की लगातार छटपटाहट है । इसीलिए जहाँ निषेधात्मकता है, अंधकार है, संहार है, उसकी पीड़ा को वह बहुत गहराई से महसूस करते हैं और उसके निषेध को अपनी कविता का विषय बनाते हैं । यहाँ सोद्देश्यता सदैव उससे मुक्ति की होती है । देखते-देखते आदमी का सम्प्रदाय बन जाना उन्हें कचोटने वाली व्यथा दे जाता है ।

इस कवि को सच्चे इन्सान का हृदय मिला है: आदमी के दर्द को समझने वाला और आदमी से प्यार करने वाला हृदय । ऐसे कितने विषयों पर उन्होंने कविताएँ लिखी है ।

शहर का एक राही जानना चाहता है कि यह किसका घर है ? उत्तर में व्यक्तिवाची संज्ञाएँ भी आ सकती हैं । घर वाले का नाम बताया जा सकता है । पर हम कैसे समय में जी रहे हैं, जहाँ उत्तर में यह बताया जाता है कि यह हिन्दू का घर है और वह मुसलमान का घर है और वह उसके बाद वाला ईसाई का घर है । अन्त में कवि कहता है- "शाम होने को आयी, / सवेरे से ही भटक रहा हूँ / मकानों के इस हसीन जंगल में/कहाँ गया वह घर / जिसमें एक आदमी रहता था?"

आदमी जब सम्प्रदाय बन जाता है तब आदमी आदमी को खौफ़ देने और आदमी से खौफ खाने लगता है, क्योंकि वहाँ आदमी की आदमीयत खत्म हो चुकी होती है । तब समय कितने खौफ़ और दहशत से भर उठता है । रामदरश जी के 'दिन बीता, अब घर जाएँगे, गीत को देखें-

"दिन डूबा अब घर जाएँगे

कैसा आया समय कि साँझे

होने लगे बन्द दरवाजे

देर हुई तो घरवाले भी

हमें देखकर डर जाएँगे ।

आँखें आँखों से छिपती हैं

नज़रों में छुरियाँ दिखती हैं

हँसी देखकर हँसी सहमती,

क्या सब गीत बिधर जाएँगे

गली-गली औ' कूचे - कूचे

भटक रहा वह राह न पूछे

काँप गया वह, किसने पूछा-

सुनिए, आप कहाँ जाएँगे?"

कहना चाहूँगा कि यह केवल उग्रवाद की आंतरिक व्यथा - कथा नहीं, बल्कि इसका पसारा तो आज के अराजकतावाद तक हो चुका है । भटक जाने पर भी राह नहीं पूछना और किसी के पूछने पर कि 'सुनिए आप कहाँ जाएँगे - राही के काँप जाने में आदमी पर उसका विश्वास किस तरह दम तोड़ चुका है, जो भयावह है । मनुष्य का मनुष्य से सम्प्रदाय में बदल जाना कितनी बड़ी विडम्बना है । मनुष्यता में सम्प्रदाय की बर्बरता को पहचानने वाले कवि का यह कितना बड़ा दर्द है । गीत में समय दोषी है या सम्प्रदाय दोषी है या स्वयं मनुष्य दोषी है? दोषी कोई भी हो यहाँ मनुष्यता के मिटते जाने का संत्रास है । यहाँ मनुष्यता की मरण - व्यथा कितनी अटलता से कितने कम शब्दों में कह दी गयी है । सारा कुछ अभिधा में ही कथित है । पर अहसास की कितनी बड़ी प्रतीयमानता इसमें दूर-दूर तक गुंजायमान हो रही है ।

रामदरश जी को पढ़ते हुए मुझे दिनकर की एक छोटी-सी कविता अनायास याद आ जाती है— "गीत-अगीत कौन सुन्दर है? गा-गाकर वह रही निर्झरी / पाटल खड़ा मूक तट पर है / गीत- अजीत कौन सुन्दर है?" यहाँ फूल को, पाटल को कवि ने मूक' बताया था या कि मूक की भूमिका में निरूपित किया था । पर रामदरश जी के यहाँ 'फूल कितना बोलते है ? को सुनने के लिए विरल श्रवणशीलता चाहिए । तभी उसके अबोले बोल सुनाई पड़ सकते हैं । ये अकेले फूल बोल-बोल कर द्रष्टा - श्रोता को बुलाते हैं । ये अपने आकार में अपनी लघुता में, अपनी भव्यता में, मन्द और अमन्द सुगन्ध में, उसकी शुभ्रता में और रंगों की अपरूपता में, अपने संपुटित अर्थ को विपुटित और प्रसरित करते हैं और द्रष्टा को बुला लेते हैं, मानों प्रकृति पुरुष को बुला रही है ।

केदारनाथ अग्रवाल को केवल रंग के बोलने की प्रतीति होती है । उनके यहाँ रूपवाद हो भी क्यों न? सच्चा जनवादी या मार्क्सवादी कवि ही तो असली रूपवादी होता है । उन्हें पुष्प-गंध से क्या लेना-देना? पर रामदरश जी को उसकी गंध और उसके रंग दोनों के बोल सुनाई पड़ते हैं । रामदरश जी फूल में जीवन देखते हैं, महादेवी की तरह उसकी नश्वरता का गान नहीं गाते हैं । द्रष्टा का इनके पास जाकर इनसे इनका खुला दिन माँगना केदारनाथ अग्रवाल की कविता के विपरीत है ! पर कितना आत्मीय और महत्त्वपूर्ण है यह! जहाँ तक फूल का प्रश्न है रामदरश जी के यहाँ गंध की प्रमुखता है, जिसके कारण फूल का महत्त्व है और यही गुण उसे काग़जी फूलों से विलगाता है । 'हर महकता फूल ठहर जाता सदी-सा' - मानों यह अनुभव कितना दुष्कर रहा हो अग्रवाल जी के लिए और महादेवी वर्मा के लिए भी । फूल की पत्ती भले ही झर जाएगी, रंग-रूप भले ही विखर जाएंगे, पर उसकी यह महकने वाली सुगन्ध सदी तक ठहर जाएगी । यह अहसास इसे महसूस करने की फूलवती क्षमता पर निर्भर है । हर महकते फूल के सदी-सा या सदी 'तक' ठहर जाने में जो नवेली उपमा है और इसमें जो दूर तक की अर्थ- गूँज व्यापत थी, वह और किसी की अभिव्यक्ति में नहीं, जहाँ तक फूल का संदर्भ आता है । कवि ने इन्हें केवल बोलते नहीं सुना है, बल्कि इन्हें लिखते हुए भी देखा है, लिपिकार बनते हुए भी देखा है— 'गंध-लिपि पर शिलाओं पर डोलते हैं । पर यह शिला मामूली शिला नहीं है, यह 'समय की शिला' है, जिसकी ओर कभी शंभुनाथ सिंह ने समय की शिला पर हमारा ध्यान खींचा था । ये फूल काल के पृष्ठ पर अपनी 'पॉजिटिविटी' लिखते हैं और इसे वे बोलते भी हैं । ये अपने जैसा खुला-खिला दिन बांटते हैं और इसे बाँटते रहने के लिए हमें प्रेरित भी करते हैं ।

रामदरश जी के यहाँ फूल आँखों में भर आते हैं । ये आँखों को सींचते हैं ।

सबसे बड़ी बात यह कि जैसे यह कहते हो, आश्वस्त करते हुए कि मैं तुम्हारे साथ-साथ रहूँगा, सदा साथ दूँगा - 'साथ रहने के लिए पर तोलते हैं । पर इसके विपरीत मनुष्य में इसका नितान्त अभाव है । कहना न होगा कि फूल भी रामदरश जी के यहाँ मानवीय राज के दबे गहरे बोल सुना रहे हैं ।

रामदरश जी गीतकार हैं । उनके गीत तीव्रतम्ता से संवेदना को जगाते हैं, फिर दिल में बस जाते है । 'पिया' और 'बाँसुरी' को लेकर कई कवियों ने गीत लिखे हैं । अज्ञेय ने लिखा है- ओ पिया / पानी बरसा / हिया तरसा ।" जानकी वल्लम शास्त्री ने 'बाँसुरी' पर कविता लिखी है- 'किसने बाँसुरी बजायी ? / जनम-जनम की पहचानी / वह तान कहाँ से आयी?" रामदरश जी लिखते हैं- "बार-बार बाँसुरी बजाओ न पिया / लहरों के पार से बुलाओ न 

पिया ! अपने गीतों में कवि प्रकृति को देखता ही नहीं, उसे मन-प्राण से सुनता है । कवि पर प्रकृति, उसकी अभिव्यक्ति, उसके प्राणों पर कितना प्रभाव छोड़ता है - " रात-रात भर मोरा पिहके / वैरिन नींद न आये / बड़े भोर सारस केंकारे नदिया - तीर बुलाये ।"

रामदरश जी अपने गीतों में शुद्ध पर्यावरण के कवि हैं । इसीलिए प्रकृति उन्हें जिजीविषा देती है । समकालीन कविता में प्रकृति के प्रति इतना राग और रागात्मक सम्बन्ध अन्य कवियों में नहीं है । आज के कवि अधिकांशतः संस्कृति के पक्षधर हैं, पर रामदरश जी प्रकृति और संस्कृति - दोनों के समवेत पक्षधर हैं । प्रकृति के प्रति उनका राग वैदिक ऋषियों का राग है ।

रामदरश जी को जब मैं दृष्टिवान कवि कहता हूँ, तो उसकी साभिप्रायता है । कभी कथाकर्त्री चन्द्रकान्ता द्वारा आयोजित सुशात सुप्रिय के कथा-संग्रह की विमर्श-गोष्ठी में मैं गया हुआ था । वहाँ चन्द्रकान्ता ने बहुत व्यथित चिन्त से मुझे कहा था कि डॉक्टर साहेब हिन्दी साहित्य में कश्मीर के उग्रवाद में हिन्दुओं की जो निर्मम हत्या हुई, जो वहाँ से हमारा बेबसी में पलायन हुआ और जिस दर्द को हम आज तक संत्रस्त रहते हुए भी सह रहे हैं, उस पर हिन्दी साहित्य में किसी ने कुछ भी नहीं लिखा- न कवियों ने, न ही कथाकारों ने । पर रामदरश जी से भला ऐसी भूल कैसे हो सकती थी कि इन्होंने कश्मीर के दर्द को कहीं गहरे उतर कर नहीं महसूसा हो । वे लिखते हैं- " - कश्मीर जल रहा है / पर्यटकों का स्वर्ग जल रहा है / राजनीतिज्ञों की राजनीति जल रही है / धार्मिकों का धर्म जल रहा है / कलाकारों की कला जल रही है / सभी सुरक्षित होकर लीलाभाव से देख रहे हैं ।” अर्थ गूँजता है, इसे बुझाने वाला, इससे बचाने वाला कही कोई नहीं है । कवि कहता है- "हमारा तो घर जल रहा है, पर इससे बचाने वाला कोई नहीं है- न सता, न प्रशासन, न समाज-सेवी । आखिर क्यों? कवि देखता है- "विदेशी बन्दूकों को अट्टहास दहाड़ रहा है/ रास्ते दहशत में हुए खामोश पड़े हैं / हम परायी बस्ती में आसरा खोज रहे हैं / रहनुमाओं के रहम की भीख / हमारी फैलों चादर पर चू रही है / और लाज के मारे हुए हम सिर नहीं उठा पा रहे हैं / हम निरन्तर खानाबदोश का डर देख रहे हैं/ हम मुड़-मुड़कर / अपना जलता हुआ घर देख रहे हैं ।'

कवि अपनी अभिव्यक्ति में बहुत सटीक है । सरल होकर भी यह कविता सांकेतिक और प्रतीकात्मक है । यह आग केवल बाहर की नहीं, अन्तर्तमं को झुलसाने और राख कर देने वाली आग है । जिनके पास जाते हैं, उनकी दुकान जली है, उनके मानवीय/संबंध जल कर राख हो चुके है । उनका मानवीय स्वाभिमान, जल चुका है उनके अंतस् का मानुषी बंधुत्व भाव जल चुका है । यह सब उनके भीतर की निर्ममता-क्रूरता ने जलाया है । स्वत्व के साथ-साथ राख हुआ है उनका आत्मविश्वास कश्मीर सिर है भारत के मानचित्र में । कश्मीर का बुद्धि - विवेक जल गया है । कविता एक बयान और विवरण- जैसी लगती है । पर यह बताती है कि कवि संवेदनशील पर्यवेक्षक है । उसने इस कविता में बहुत सारी अर्थ - गूँज पैदा की है ।

कवि रामदरश जी की संवेदना जाग्रत् है और मस्तिष्क सक्रिय है । कवि निरन्तर कविता लिख रहा है । मानवीय चिन्ता उसे मथती है और वह समय का दस्तावेज तैयार करता जाता, उसमें सनातन को रेखांकित करता जाता है । वह एक कवि के हाथ को देखता और उसके माथे की सोच पर गौरवान्वित होता है । वह एक साहित्यभ्रष्टा को देखता है । आगजनी हो या दंगा-फसाद, आरक्षण हो या अयोध्या-प्रसंग हो या आतंकवाद हो या सम्प्रदायवाद का विरोध हो, मानव श्रृंखला बनाने का संदर्भ हा या हस्ताक्षर अभियान चलाया जा रहा हो - साहित्यकार ने अपने दायित्व-बोध के साथ इसी हाथ से ये सारे कार्य सम्पन्न किये हैं । पर जब एक दिन सहसा मिलने पर कवि उससे सहसा पूछता है कि इन दिनों समाज में जब कुछ ऐसी घटनाएँ घट रही थीं तब तुम कहाँ थे? तब वह ऐसे में कवि को उत्तर देता है - " मैंने एक जलते हुए मकान में घुसकर एक बच्चे को बचाया है । यह कहकर वह अपनी दोनों झुलसी हुई हथेलियाँ उन्हें दिखा देता है । वह बताता है कि उसके बाद वह अस्पताल में भर्ती था । अब इलाज खत्म होने पर वह सीधा यहाँ आया है । रामदरश जी की इस कविता के अन्त तक पहुँचते - न-पहुँचते मुझे महर्षि व्यास द्वारा प्रतिपादित मानवीय चिन्ता का 'पाणिवाद' याद आ जाता है । मानवता के हित मैं अपने दोनों हाथों का इतना सार्थक सदुपयोग करने वाला वह व्यक्ति सही अर्थ में सच्चा पाणिवादी था । मानव - हित की ऐसी चिन्ता रामदरश जी के काव्य - राग में मानव - राग की सर्जना करती है ।

रामदरश जी गहरे अहसास और उसके स्वतः स्फूर्त बिम्ब के कवि हैं और है सार्वजनीनता को चाहने और मानने वाले कवि । उनकी एक छोटी-सी कविता है- 'मन बड़ा अकेला लगता है । पर यह कविता 'अहनि - अहिन भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरे' वाली श्मशानी वैराग्य-भाव की या मृत्यु-भीति की कविता नहीं है, अपितु अपने मानस-सखाओं के एक-एक कर छूटते चले जाने की करुणा और उनकी अतीतकालिक उपस्थिति के महत्त्व को दर्शाने वाली कविता है । इसमें मित्र - साहित्यकार के एक-एक कर उठते चले जाने का स्वाभाविक मानुषी व्यथा - भाव तो है ही, पर उनकी उपस्थिति से साहित्य - उपवन के गुलजार रहने और गुंजार से भरे होते रहने की स्मृतियाँ भी इस कविता में पिरोयी हुई हैं । वस्तुत: 'एक-एक कर चले जा रहे सभी' जाने वाले के महत्त्व और मूल्यांकन की कविता भी है यह । यहां, उनके रहने से साहित्य- कानन में वसन्त छाया था । इसीलिए एक-एक कर सबका जाना वसन्त का जाना बन जाता है । मनुष्य का मन दो तरह का होता है- उसका एक मन तो वह है, जो सदा से अपने सहकारियों, सहबन्धुओं से ईर्ष्यालु और स्पर्धी बना रहता है । पर दूसरा मन वह है, जो सहकर्मी और सहचर बन्धुओं के सरल और मुखर संवाद से भरा-पूरा होता है । अपनी अस्मिता और उनके अस्ति भाव के स्वीकार भाव से अस्तित्व बनता है । तभी कविता कहती है- 'चला जा रहा है वसन्त / वन बड़ा अकेला लगता है" ।

उनकी उपस्थिति इसलिए महत्त्वपूर्ण थी कि विधेयात्मकता से साहित्य का यह वन प्रसन्न अपने रूप रस और गंध से पुलकाकुल कर जाता था । कवि जानता है कि 'एक-एक कर चले जायेगे सभी उनको रोका नहीं जा सकता, क्योंकि- "जेते नाहि दिबू / तबू चलि जाए ।" यही नियति है । लेस्ली फिडलर ने 'Death and Destiny' पर जमकर विचार किया है । कवि इन सबको, एक-एक को भोगने के लिए अभिशप्त है । यही है उसका 'अकेलापन'- सखाओं के बिना 'बीत रहा दिन' । यह केवल 'दिवस' का सूचक नहीं है । यह मेरा दिन बीत रहा है' का भी संकेतक है । यह समय बीत रहा है और मेरा जीवन भी बीत रहा है - ऐसे ध्वन्यर्थों का भी सूचक है । कवि का एक बिम्ब 'जल - दर्पन बड़ा अकेला लगता है' देखें । बड़ा ही प्यारा और मौलिक बिम्ब है यह कवि का । जल और जीवन दोनों पर्याय हैं यहाँ । इस दर्पण में अब उनका सिसृक्षण नहीं हो पाएगा ।

मनुष्य दिन-रात अपनी कामनाओं, इच्छाओं को पूरा करने के लिए दौड़ता, तड़पता, और संघर्ष करता रहता है । पर इच्छाएँ है कि पूरा होने का नाम नहीं लेती । एक के बाद दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी और अनन्त इच्छाएँ ।

पर रामदरश जी अपनी एक छोटी कविता 'इच्छा' में अपनी इच्छा से पाठकों को परिचित कराते हैं या कि उनकी दृष्टि को भी उन्मेषित कर देते हैं, जब वह कहते हैं कि मुझे न कोठी चाहिए और न बंगला चाहिए / हे प्रभु, मुझे जैसा भी घर दो / मुझे उसमें खुला - खुला जंगला (खिड़की) चाहिए ।" उनको बन्द घर नहीं, बल्कि खुला खिड़कीदार घर चाहिए । उन्हें अपने भौतिक घर में खिड़की से धूप, पानी, हवा, आकाश, चाँदनी– यह सब तो चाहिए - ही- चाहिए बाहरी जागतिक सजीव दृश्यों का साक्षात्कार चाहिए । उन्हें अपने में बन्द जीवन नहीं चाहिए; चाहिए औरो के साथ उनका लगाव और जुड़ाव - उनके अपने व्यक्तित्व के घर की खिड़कियाँ भी खुली, होनी चाहिए, जिनमें उन्हें अनेक प्रकार के ज्ञानों का साक्षात्कार और उसका आग्रहण और स्वीकार संभव हो सके । वह अपने-आप में कभी बन्द न हो, उनके हृदय की खिड़की औरों के लिए सदैव खुली रह सकें और जीवन-जगत् भरसक अपने पूरेपन में समझ आ सकें । यह कवि - हृदय की इच्छा कितनी छोटी-सी इच्छा है, पर कितनी दृष्टिवती है और है न केवल उनके लिए, अपितु पूरी मानवता के लिए नितान्त प्रीतिकर और स्वास्थ्यकर !

मिश्र जी ने कविता पर भी अनेक कविताएँ लिखी हैं । अपनी एक ऐसी ही कविता में उन्होंने कविता के आकाश के विस्तृत होने की बात की है । पर यह कविता कालांकित है । यहाँ एक समय - विशेष में व्यंग्य में कविता के आकाश को व्यापक और विस्तृत कहा गया है ।

वस्तुतः 'कविता का आकाश विस्तृत हो गया है'- मिश्र जी की एक व्यंग्यात्मक और विडम्बनात्मक कविता है । यह आपातकाल पर लिखी गयी कविता है । इस कविता में वर्णित सब-कुछ संकुचित और संकीर्ण है । काव्यात्मक अभिव्यक्ति में सब-कुछ सपाट और एकीय है । मौसम की अपनी-अपनी निजी विशेषता मिट चुकी हैं और सारे मौसम एक जैसे सपाट हो गये है- 'सख्त और सपाट ! कवि जानता और मानता है कि हर कविता अपने जन्म के लिए एक विशेष मौसम चाहती और तलाशती है । पर यह वह समय है, जहाँ सब एकाकार और एकीय हो उठे है । जहाँ कविता की संभावना तक निःशेष हो चुकी है । ऐसे में कविता का आकाश भला विस्तृत कैसे हो सकता है ? कवि काल और स्थल को मिला रहा है । उस समय की धरती को वह ऐसा सपाट बताता है कि, जहाँ न फसल उग सकती है और न कविता । फिर कविता का आकाश विस्तृत कैसे हो सकता है ? कवि ने काल और स्थल को मिला रखा है । समय की धरती ऐसा सपाट हो गयी है कि, जहाँ न फसल उग सकती है और न कविता - न कोई विचार और न पारस्परिक राग । फिर कविता का आकाश उसका लेखन-फलक भला विस्तृत कैसे हो सकता है? यह मशीनों की दौड़ है, हर क्षण, हर मोड़ पर एक ही आवाज़ है । इनकी यह लादी गई स्थिति हर कहीं फैली हुई है- गाँव से शहर, संसद से सड़क, व्यवस्था से विरोध और प्यार से हत्या तक । सिर्फ और सिर्फ एक ही विराट् धिसा हुआ मौसम बिछा है । सारा माहौल संत्रस्त है, त्रासदायक है । पक्षी शावक हो, या पशु- शावक - सभी डरे और सहमें हैं / सारे वृक्ष-पादप फेंकी गयी धूल को पहन कर एकाकार हो गये हैं ।" वे अपनी पहचान या अपने अस्तित्व में मौन हो चुके हैं और बातें करने से भयग्रस्त हैं । पर्वत जैसे विराट् दृढ़ और समर्थ लोग भी अपने विरोध के निर्भार-प्रवाह को सीने में दबाये विवश हैं । सब-कहीं आपातकाल की मशीनी घरघराहट और घुमैले, मटमैले रंग अपने ऊपर ओढ़ चुके हैं / विराट् अस्तित्व छिन्न-भिन्न हो चुका है । बादल और धुएँ का फासला दूर कर पृथिवी चट्टान पर गिरकर दम तोड़ चुकी है । 'इमरजेंसी' मानवीय अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध-पर-प्रतिबंध लगा चुकी हैं । ऐसे में सत्ता पक्ष अपने गुणगान करने के लिए आमंत्रण देता हुआ कहता है कि कविता का आकाश विस्तृत हो गया है । पर जहाँ कविता का जन्म ही संभव नहीं हो वहाँ अभिव्यक्ति के आकाश के विस्तृत होने का कथन तो असत्य ही है । वास्तविकता यह है कि यहाँ कविता का गला घोंट दिया गया है । आपातकाल पर लिखी रामदरश जी की यह कविता सांकेतिक और व्यंग्यात्मक है । यह आपातकाल पर ही लिखी उनकी दूसरी कविता उनकी 'वसन्त कविता की याद ताजा कर देती है । मानवीयता और मानवीय काव्यात्मक अभिव्यक्ति के दमन का पक्षधर कहता है- 'कविता का आकाश विस्तृत हो गया है ।' कुल मिलाकर यह कविता अपने कलाकरण में मौसम, पत्ता और राजनीति के दस्तावेजीकरण को उद्घाटित करती है ।

रामदरश जी की कविताओं को पढ़ते, उनसे प्रभावित होते और उसे जीते हुए मेरे मन में निरन्तर एक प्रश्न मुझे उन्मधित किये रहता था कि उन्होंने 'पिता' पर बहुत ही भाव - प्रवण कविता लिखी है- 'पिता, तुम्हारी आँखों में ।' पर उन्होंने 'माँ' पर कोई कविता क्यों नहीं लिखी? 'औरत' पर उनकी कई कविताएँ है । उसके श्रम की निरन्तरता को दिखाने वाली, उसके प्रति करुणा जगाने वाली और उसे अपनी अस्मिता के प्रति सचेत करने वाली भी । पर फिर वही प्रश्न मुझे कुरेदने लगता- उनकी कविताओं में 'माँ' क्यों नहीं है । मिश्र जी ने 'माँ' पर कोई कविता क्यों नहीं लिखी हैं? कहना होगा कि मुझे अपने इस प्रश्न का उत्तर उनकी 'प्रतिनिधि कविताएँ' पढ़ते हुए मिला ।

इस संकलन के उपरान्त में मुझे 'माँ' पर लिखी मिश्र जी की कविता देखने-पढ़ने और गुनने को मिली । कवि ने यहाँ 'माँ' को निजता - आत्मीयता के मोहपाश से मुक्त कर आद्यमाता (Archetypal other) के रूप में निरूपित किया है । पर कोई चाहे तो उसे अपनी 'माँ' के रूप में भी देख ले सकता है । रामदरश जी की संवेदना और उसकी भावप्रवण बुनावट (Texture) में 'माँ' कैसी है, देखिए -

" गाल पर ढलका हुआ एक दर्द का मोती है माँ,

घोर अँधियारे में जलती प्यार की ज्योती है माँ ।

होंठ उसके, उसकी आँखें हैं भला हसते कहाँ ?

घर के सुख-दुख में समाकर हँसती है, रोती है माँ ।

बारी-बारी छोड़, जाते साथ जब हैं हमसफर,

मेरी रग-रग में दुआ-सी तैरती होती है माँ ।

भूख, बीमारी, तबाही, सोखते रहते हैं रस,

ख्वाब फिर-फिर घर की बंजर भूमि में बोती है माँ ।

दहशते आ जाएँ आँखों में न बच्चों की कहीं,

रात भर सोती हुई-सी भी कहाँ सो पाती है माँ,

दाग़ कितने ही लगा, बाहर से घर आते हैं लोग,

आँच में खुद को गला कर के उन्हें धोती है माँ ।"

कवि ने यहाँ 'माँ' को दर्द का मोती, प्यार की ज्योति, घर के सुख-दुःख से एकाकार, 'रग-रग में दुआ-सी तैरने वाली', 'घर की बंजर भूमि में ख्वाब बोने वाली', तथा 'आँच में खुद को जलाकर दाग को धोने वाली' के रूप में निरूपित किया है, जो 'माँ' के मातृत्व की व्याख्या है ।

इसके अतिरिक्त उन्होंने 'माँ' को चेहरे पर कुछ सख़्त उँगलियों के दर्द-भरे निशान के रूप में भी देखा है । 'माँ' का दर्द है इसमें, जीवन का अनुभव है इसमें, उसके कर्तव्य और दायित्व को सफलता से निभाने का बोध है इसमें । सहनशीलता और मातृत्व की अमर जिजीविषा है इसमें ।

आप अनुभव करेंगे कि चाहे व्यक्ति हो या परिवार 'माँ' हो या 'पिता', स्वर्गीया हो या जीविता, बच्चे हो या जवान, बनावट हो या दिखावट, विचार हो या व्यापार, लगाव हो या जुड़ाव, विचारों का संसार हो या संस्कार की बयार, भोक्ता की आकुल-व्याकुल पुकार हो या द्रष्टा का मौन - मूक संसार - रामदरश जी की कविता हर कहीं निजी दृष्टि का उन्मेष करती है । यह दृष्टि ही हमें इन सबमें से संजीवित कविता के दर्शन करा जाती है । उनकी यह मौलिक कवि - दृष्टि इसलिए मूल्यवती है कि उनकी हर दृष्टि में अर्थ का उन्मेष है । उनका सर्जक जीवन-जगत् की अपारता का सजग भावक है । तालाब में कंकड़ फेंकने पर बनने वाले वृत्त - वलय सी साभिप्रयता का विस्तार है यहाँ ।

उनकी कविता में गीत-प्रगीत, छोटी कविता, लम्बी कविता, पोस्टर कविता, डायरी कविता, विलोचनी कविता, प्रत्यालोचनी कविता, बिम्ब कविता, विचार कविता, मुक्तक और ग़ज़ल तक नानाविध काव्य - रूपों का विस्तार है । यहाँ वे हमारे समकाल के सबसे बड़े मानुषी राग के मर्म को सिद्ध करने वाले कवि है । उनका मानुर्षा राग सारे काव्यान्दोलनों से श्रेष्ठ है ।

वह हिन्दी कविता के अकेले ऐसे शताब्द सर्जक पुरुष हैं, जिन्होंने हिन्दी भाषा की सरल-सहज भूमि पर अपनी हिन्दी कविता को अंकुरित पल्लवित प्राषित, प्रविधत और फलित किया है । उन्होंने आधार - भाषा की सहजता को काव्यात्मकता प्रदान की है ।

रामदरश जी की मान्यता है कि कविता खुद ही बोलती है- "कविता कविता होती है, तो खुद बोलती है / आलोचक मुँह खोले या न खोले" उनकी कविता के बोलने को मैंने पूरी गहराई और पूरी व्याप्ति में सुना है और उसकी मुखरता को लिख दिया है । इसमें मेरा आलोचक कहीं भी आड़े नहीं आया है । हाँ, वह केवल इतना कह सकता है कि रामदरश अपनी अपूर्व स्मृति, मौलिक कल्पना और अन्तर्गर्भी यथार्थ के काव्य- वैभव के आधार पर समकाल के अकेले सारस्वत कवि हैं और ज्ञानपीठ सम्मान के अधिकारी हैं ।

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संस्मरण

प्रकाश मनु फरीदाबाद, हरियाणा, मो. 9810602327

आभारी हूँ बहुत दोस्तो, मुझे तुम्हारा प्यार मिला ! - रामदरश मिश्र

इसी पंद्रह अगस्त को हिंदी के बड़े कद के बड़े साहित्यकार रामदरश मिश्र जी ने अपनी उम्र के अठानबे बरस पूरे कर लिए । यह उनका निन्यानबेवाँ जन्मदिन है । इस अवस्था में भी वे खूब सक्रिय, स्वस्थ हैं । लिखते-पढ़ते हैं, पाठकों और साहित्यिकों से निरंतर संवाद भी बनाए रखते हैं । अभी हाल में उन्हें हिंदी का अत्यंत प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान मिला है, और यह उनसे ज्यादा पूरे हिंदी जगत का सम्मान है । इसलिए कि अरसे बाद किसी हिंदी साहित्यकार को यह सम्मान मिला है । इससे पहले हिंदी के लेखकों में केवल हरिवंशराय बच्चन और गोविंद मिश्र को ही यह सम्मान प्राप्त हुआ है ।

रामदरश जी मेरे गुरु हैं । उनसे बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ पाया है । बरसों से उनका आत्मीय स्नेह और सान्निध्य मुझे मिलता रहा है । भला मेरे लिए इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है?

रामदरश मिश्र

आज उन पर लिखने बैठा हूँ तो यादों का पूरा एक कारवाँ चल पड़ा है और सर्दियों का वह धूप भरा दिन मेरी स्मृतियों में दस्तक देने लगा है, जब मैं एक भीतरी उमंग से भरकर यों ही रामदरश जी के यहाँ पहुँच गया था बातचीत करने के लिए । उस दिन रामदरश जी के जीवन के तमाम पन्ने खुले और खुलते ही चले गए । मैं लगभग पूरे दिन उनकी बातों और उनके अनुभवों की आँच में सीझा उनके पास बैठा रहा । उनकी जिंदगी और लेखन-यात्रा तथा संघर्षों के बहुत-से मर्म-बिंदु जानता था, लेकिन उनकी आधार-पीठिका पहली बार खुली । और उस खुली बातचीत में रामदरश जी को ज्यादा खुलेपन से और कहीं ज्यादा करीब से जाना ।

खास बात यह थी कि उनके यहाँ बड़े लेखकों वाली दिखावटी व्यस्तता का ताम-झाम मुझे बिल्कुल नजर नहीं आया । उनका वह पूरा दिन जैसे मुझे दे दिया गया । वे पूरी तरह प्रफुल्ल थे और बातचीत के मूड में थे । और वह बातचीत इस तरह अनौपचारिक थी कि एक प्रसंग में से तमाम प्रसंग निकलते चले जा रहे थे । फिर एकाएक रामदरश जी के साथ-साथ उनके तमाम साथियों और सहयात्रियों के चेहरे उनमें से झाँकने लगे । खासकर निराला और अपने गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी का जिक्र आने पर तो वे बेहद भावुक हो गए थे । तमाम वरिष्ठ लेखकों का जिक्र हुआ और उनके तमाम संस्मरणात्मक प्रसंग इस लंबी बातचीत में खुल-खुलकर सामने आने लगे । लेकिन सबसे बढ़िया प्रसंग वे थे, जिनमें गाँव के मामूली और अनपढ़ लोगों का जिक्र था और वे उनकी अद्भुत शख्सियत का बखान सा करते थे कि उस समय उन लोगों ने मुझे बचाया न होता तो आज मैं कुछ न होता, कहीं न होता ।

प्रकाश मनु व रामदरश मिश्र

यह बात कोई कम काबिले-तारीफ नहीं कि राजधानी में इतने बरसों से रहते हुए भी रामदरश जी ने अपनी सहजता और गाँव के आदमी का खरापन खोया नहीं । इससे उन्हें नुकसान चाहे जो भी हुए हों, लेकिन एक फायदा भी हुआ है कि वे छोटे-बड़े हर नए आदमी से प्यार से धधाकर मिलते हैं और पूरी तरह उससे समरस हो जाते हैं । इसीलिए तथाकथित बड़े जब एकांत की चारदीवारियों में कैद हैं, रामदरश जी ने खुद को खुला छोड़ दिया है । अब वे खुद के ही नहीं रहे, उन सभी के हैं जो उन्हें प्यार करते हैं और उन्हें प्यार करने वालों की संख्या निरंतर बढ़ती ही जाती है । खासकर युवा पीढ़ी को उनसे जो प्यार मिला है, उसकी तो मिसाल ही मुश्किल है । शायद ही उनके अलावा कोई दूसरा साहित्यकार हो, जो नई पीढ़ी के लेखकों से इतना खुलकर संवाद रख पाता है ।


रामदरश मिश्र

यहीं एक प्रसंग और याद आता है । रामदरश जी से एक बार किसी ने पूछा, “आपकी नजर में महानता क्या है... या महान आदमी कौन है?” इसके जवाब में रामदरश जी ने सहजता से कहा था, “मेरे खयाल से महान व्यक्ति वह है, जो अपने संपर्क में आने वाले छोटे-बड़े सभी को अपनाकर मिलता है और उन पर अपने बड़े होने का आंतक बिल्कुल नहीं डालता ।”

इस लिहाज से अगर देखें तो आज के साहित्यिक परिवेश में रामदरश जी अकेले लेखक हैं, जो इतना अधिक नए लेखकों को पढ़ते हैं और निरंतर उनकी हौसला अफजाई करते हैं । आज के समय में जबकि न पढ़ने का ही चलन है और न पढ़ना कहीं ज्यादा बड़प्पन और रोब-दाब का सूचक बन गया है, वहाँ रामदरश जी की खोज-खोजकर नयों का पढ़ने और उन्हें आगे लाने की तत्परता चकित जरूर करती है ।

मुझे सुखद आश्चर्य होता है, जब किसी पत्रिका में मेरा कोई लेख या रचना देखकर वे मुझे सूचना देते हैं, और साथ ही अपनी राय भी बता देते हैं । मेरे लिए ये क्षण जीवन के सर्वाधिक आनंद के क्षण होते हैं । और सार्थकता के भी । इन्हीं क्षणों में लगता है कि आज जब साहित्य में इतनी आपाधापी और टाँगखिंचाई चल रही है, तब रामदरश जी जैसे लेखक भी हैं जो एक व्यक्ति होते हुए भी, एक परंपरा की सदेह उपस्थिति जैसे लगते हैं । यही शायद किसी व्यक्ति का आत्मविश्वास है जो निरंतर सचेत भाव से जीते-जीते आता है ।

यह बात मुझे सुखद विस्मय से भर देती है कि इस अवस्था में भी, जब रामदरश जी सौ का आँकड़ा छूने के काफी निकट आ गए हैं, वे तन-मन से काफी स्वस्थ और सचेत हैं । कभी-कभार आ जाने वाली छोटी-मोटी व्याधियों के अलावा कोई ऐसी चीज नहीं, जो उन्हें काम करने से रोक सके । यहाँ तक कि उम्र की नवीं दहाई में उन्होंने तीन उपन्यास लिख डाले और ये तीनों रस विभोर कर देने वाले उपन्यास हैं । ये उपन्यास हैं—‘बचपन भास्कर का’, ‘एक बचपन यह भी’ और ‘एक था कलाकार’ । इनमें एक उपन्यास में स्वयं रामदरश जी का बचपन है । ‘बचपन भास्कर का’ शीर्षक से लिखे गए इस उपन्यास में रामदरश जी ने हमें अपने बचपन में ले जाकर उन दिनों की सैर कराई है, जहाँ आज की दुनिया से अलग एक निराली ही दुनिया थी और उसकी कुछ अजब सी मुश्किलें ।

‘बचपन भास्कर का’ में रामदरश जी के बचपन की बड़ी आत्मीय झाँकी है । और न सिर्फ उनके बचपन, बल्कि उनके समय में गाँव-देहात में घोर अभावों के बीच पलते हिंदुस्तानी बचपन की भी बड़ी प्रामाणिक तसवीर है । ऐसा बचपन जिसने घोर गरीबी और दारिद्र्य देखा, फिर भी मस्ती की खिलखिलाहट वहाँ कम न थी । जो लोग रामदरश जी की आत्मकथा पढ़ चुके हैं, वे उनके बचपन की ऐसी रोचक और विस्मयकारी घटनाओं से वाकिफ हैं, जिनमें किसी उपन्यास से अधिक रस और आकर्षण है । सच पूछिए तो मुझे वही उनकी आत्मकथा का सबसे सुंदर और बेजोड़ हिस्सा लगता है । ‘बचपन भास्कर का’ उपन्यास में वही सब एक अनोखी किस्सागोई में ढलकर हमारे सामने आता है, और सच ही बाल पाठकों के साथ-साथ बड़ों को भी विभोर कर देता है ।

इसी कालखंड में लिखे गए दूसरे उपन्यास ‘एक बचपन यह भी’ में भी बचपन है । भाभी सरस्वती मिश्र जी का बचपन । जब-जब मैं उनके घर गया हूँ, भाभी जी के सतेज व्यक्तित्व की बड़ी मनोहर छवियाँ मेरे आगे खुलती हैं । रामदरश जी की कविता, डायरी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत और निबंधों में भी सरस्वती जी की अनेक छवियाँ हैं, जिन्हें जाने बगैर आप रामदरश जी को ठीक-ठीक जान नहीं सकते । दोनों सही मायने में सहचर हैं, हरसफर कह लीजिए । इस नाते सरस्वती जी का बचपन भी रामदरश जी के लिए अपरिचित न रहा होगा । पति-पत्नी के नित्य संवाद में उसके नए-नए अबूझ पन्ने खुलते होंगे । और बहुत सा तो रामदरश जी का खुद अपनी आँखों देखा भी है ।...पर उस बचपन का साधारणीकरण करके, रामदरश जी उसे भी एक नए रूप में जीकर, अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा से पुनर्नवा कर देंगे, और फिर उसे एक रोचक उपन्यास के रूप में अपने पाठकों के आगे प्रस्तुत कर देंगे, यह कम-से-कम मेरे लिए तो अकल्पनीय ही था ।

और ‘एक बचपन यह भी’ कोई मामूली नहीं, बड़ा अच्छा और अंत तक पाठकों को बाँधे रखने वाला उपन्यास है । उसमें रस भी है, रोचकता भी और गाँव के यथार्थ का ऐसा जीवंत चित्रण कि पढ़ते हुए पाठक मुग्ध और चकित सा उसके साथ बहता चला जाता है । खासकर उपन्यास की नायिका, जिसमें सरस्वती जी के अक्स बहुत साफ दिखाई देते हैं, गाँव की होते हुए भी अपनी स्वतंत्र चेतना, निर्भीकता, दबंगी और गहन संवेदना के कारण पाठकों के चित्त पर छा सी जाती है, और उपन्यास पढ़ने के बाद भी आप उसे भूल नहीं पाते ।

तीसरा उपन्यास ‘एक था कलाकार’ में रामदरश जी ने असमय गुजर गए अपने कलाकार बेटे हेमंत को मानो ट्रिब्यूट दिया है । हेमंत बड़े संभावनाशील अभिनेता थे और दूर-दूर तक उनकी ख्याति फैल चुकी थी । अनेक जाने-माने धारावाहिकों में आकर उन्होंने अपनी प्रतिभा का अहसास लोगों को कराया था । उनकी असमय मृत्यु ने रामदरश जी को कैसे भीतर से तोड़ दिया और किस धीरज के साथ उन्होंने इस दुख को झेला, इसे तो थोड़ा-थोड़ा जानता था । पर ‘एक था कलाकार’ पढ़कर बहुत कुछ सामने आया, जिसमें उस कलाकार के दुख और वेदना के साथ-साथ उनके हृदय में जगमगाते सपने भी झलमलाते नजर आए, जिन्हें मृत्यु के करुण आघात ने बिखरा दिया । रामदरश जी ने बड़े धीरज के साथ खुद को सँभालते हुए यह उपन्यास लिखा है । इसीलिए यह इस कदर पठनीय बन गया है कि इसमें जीवन का एक सहज प्रवाह नजर आता है ।

इतना ही नहीं, कुछ अरसा पहले मेरे आग्रह पर अपने बचपन को आधार बनाकर रामदरश जी ने बच्चों के लिए सुंदर कहानियाँ लिखी हैं, जिनका संचयन ‘बचपन की कुछ यादें’ नाम से छपा है ।

लेकिन इससे भी अचरज भरी चीज इस दौर की उनकी कविताएँ हैं । इस दौर में छपी उनकी कविता पुस्तकों ‘आम के पत्ते’ और ‘आग की हँसी’ में बड़े ही सहज ढंग से रामदरश जी की कविता एक नया मोड़ लेती है । मुझे सबसे अच्छी बात यह लगी कि उम्र की दहाई तक आते-आते रामदरश जी इस कदर कवि-सिद्धता हासिल कर चुके हैं कि उनकी कविताएँ बड़ी सहज और अनौपचारिक हो चली हैं । अपने आसपास का जो जीवन वे डूबकर जीते हैं, वह सहज ही उनके शब्दों की संवेदना में घुल-घुलकर बहता दीख पड़ता है । इतना सहज कि उन्हें कविता लिखने के लिए विषय ढूँढ़ने की दरकार नहीं है । बल्कि उनके आसपास जो कुछ भी है, वह खुद-ब-खुद कविता की ओर खिंचा चला जाता है, और फिर कवितामय होकर हमारी आँखों के आगे आता है तो हम चौंक पड़ते हैं कि अरे, यहाँ तक आते-आते तो रामदरश जी के लिए मानो सारा जीवन ही कवितामय हो उठा है । जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो उनकी कविता की चौहद्दी से बाहर हो ।

जैसे प्रेमचंद ने अपनी कहानी और उपन्यासों में उस दौर की परिस्थतियों के साथ-साथ पूरा जीवन ही उतार दिया और उसे कथामय कर दिया । ऐसे ही रामदरश जी अपनी अपूर्व सिद्धता से जीवन के हर रंग, हर रेशे को कविताई के रंग में ढालते जा रहे हैं । और इसके लिए उन्हें कुछ करना नहीं पड़ता । कविता तो हर समय उनके साथ बहती ही है, और जो कुछ वे देखते हैं, पास से महसूस करते हैं, वह खुद-ब-खुद कवितामय हो उठता है । जैसे अगर आप हरिद्वार या ऋषिकेष जाएँ, तो आपको पता चलेगा कि गंगा की धारा के आसपास जो भी जीवन है, वह भी मानो गंगामय है । गंगा तो गंगा है ही, गंगा के चारों ओर जो जीवन बहता है, वह भी गंगा ही है, गंगा की पवित्रता में भीतर तक नहाया हुआ सा है ।

तुलसीदास ने ‘सियाराममय सब जग जानी’ कहा तो यह सिर्फ एक चौपाई ही न थी, बल्कि पूरे संसार को सच ही उन्होंने सियाराममय देखा था । उसी तरह रामदरश जी ने पूरे जग-जीवन को ही कवितामय कर डाला । क्या यह सिद्धता यों ही मिल जाती है...? अगर जीवन में बड़ी संवेदना और हदय विस्तार न हो, तो क्या आप उसे इस तरह सहज हासिल कर सकते हैं?

रामदरश जी की एक प्रसिद्ध कविता है, जिसमें वे अपनी कविता की जमीन तथा अपने कवि की ‘प्राणशक्ति’ और निजीपन की चर्चा करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अपने आँगन का एक कोना कच्चा छोड़ दिया है, इसलिए न वे बनावटी हुए और न जमीन से उनका रिश्ता ही खत्म हुआ! रामदरश जी की कविताओं में यह कविता सबसे अलग और खास मुझे इसलिए लगती है, क्योंकि यह अकेली कविता रामदरश जी के कवि का ‘सही और संपूर्ण परिचय’ भी है! और मुझे तो रामदरश जी की कविता की असली शक्ति यही लगती है कि दिल्ली में इतने बरस रहते हो गए, पर न वे कभी अपनी जमीन को भूले और न मिट्टी और पानी की गंध उनके साहित्य में कमतर हुई । इसीलिए आज के तमाम कवि-लेखक जब देखते ही देखते बासी और पुराने होते जा रहे हैं, रामदरश जी उन लेखकों में से हैं जो आने वाली शताब्दियों में भी मानवता के साथ रहेंगे और उसे सही रास्ते तक पहुँचाने में मदद देते रहेंगे ।

कई बार मैं सोचता हूँ, रामदरश जी से मैंने क्या सीखा? रामदरश जी से मैंने क्या पाया? तो कुछ देर के लिए मानो मैं स्मृतिबिद्ध और कुछ-कुछ विमूढ़ सा रह जाता हूँ । अपने आसपास देखता हूँ तो सब ओर से वही तो मुझ पर छाए हुए हैं । बड़े बेमालूम ढंग से आहिस्ता-आहिस्ता मुझे गढ़ते हुए, मुझे भीतर-बाहर से सँवारते और पग-पग पर मेरी चिंता करते हुए कि कहीं मैं अपनी कुछ अतिरिक्त भावुकता में टूट न जाऊँ । अकसर बगैर मुझे जताए वे मेरी राहें आसान करते रहे हैं । और मिलने पर या फिर फोन पर हमेशा हिम्मत और हौसला बढ़ाते हैं । मैं बहत्तर बरस का हो गया, पर अब भी वे किसी आत्मीय अभिभावक की तरह मुझे सँभालते रहते हैं ।

कई बार मैं सोचता हूँ, मैंने प्रेमचंद को नहीं देखा, पर रामदरश जी में मैंने जिस प्रेमचंद को देखा, या रामदरश जी के विपुल साहित्य में जिस प्रेमचंद को पुनर्नवा होते हुए देखा और पाया, वह क्या भुलाने की चीज है? प्रेमचंद गाँवों के कथाकार थे तो रामदरश जी भी जब गाँव की बात करते हैं, तो पूरा गाँव एकदम आँखों के आगे आ जाता है । दिल्ली में बरसोंबरस रहते के बावजूद अगर आज भी वे गाँव के हैं, गाँव की मिट्टी तथा पानियों की गंध और आस्वाद आज भी अगर उनकी कहानी और कविताओं में आता है, तो मन को अपने साथ बहा ले जाता है ।

मुझे कहने दीजिए कि प्रेमचंद और उनके साहित्य ने आजादी से पहले जो काम किया था, आजादी के बाद वही काम साहित्यकार रामदरश जी ने और नए विचारों की संवाहक उनकी कृतियों ने किया । आजाद भारत में उन्होंने गाँव की जनता को सच्ची आजादी का मतलब बताया और उसके लिए अपने आप से और व्यवस्था से लड़ने की प्रेरणा दी । अशिक्षा, दैन्य, जातिगत भेदभाव और रूढ़ियों से ग्रस्त ग्राम्य समाज में उनकी कृतियाँ नई सोच का पैगाम और नया जीवन लेकर पहुँचीं, और उन्होंने जनता को युग-परिवर्तन की राह पर आगे आने के लिए
पुकारा । रामदरश जी के साहित्य के माध्यम से रूढ़ियों से मुक्ति की यह कोशिश एक नई आजादी का स्वप्न बनकर गाँव-गाँव में पहुँची । यों भी रामदरश जी कोई नफरत या धिक्कारवादी साहित्यकार नहीं हैं । बल्कि उनके मन में अपने लोगों से एक गहरा, बहुत गहरा प्रेम है, जो उनके साहित्य में बड़ा अद्भुत समावेशी स्वर बनकर उभरता है । इसीलिए वे कविता लिखें, कहानी या उपन्यास, उसमें आम जनता के गौरव की गाथा तो आएगी ही । साथ ही जीवन की तलछट से निकले ऐसे जीवंत पात्र भी, जो रामदरश जी की कलम से निकलकर, सही अर्थों में अमरत्व पा गए ।

इस मानी में मुझे मुक्ति दिलाने वाले भी रामदरश जी ही हैं । मैं स्वीकार करूँगा कि एक समय था, जब कुछ-कुछ कलावादी व्यामोह मेरे मन और चेतना पर जाले बुनने लगे थे । पर रामदरश जी ने बहुत इशारों में मुझे समझाया तो मेरी आँखें खुल गईं, और कुछ अरसे के लिए मन में कलावाद का जो नशा चढ़ा था, उसे उतरते भी देर नहीं
लगी ।

तभी मुझे समझ में आया कि रामदरश जी ने क्यों ऐसी चीजों की परवाह नहीं की । बहुत से फैशनेबल आंदोलन उनके सामने आए-गए, पर रामदरश जी बिना उनसे प्रभावित हुए, बड़े धीरज और विश्वास के साथ अपनी राह पर चलते रहे । आज उनके असंख्य पाठक देश के कोने-कोने में फैले हैं । देश का कोई विश्वविद्यालय नहीं है, जहाँ उन पर शोधकार्य न हुआ हो । जहाँ भी वे जाते हैं, छात्र ही नहीं, अध्यापक भी उनके पैरों पर झुक जाते हैं । वे सबके गुरु, सबके आदरणीय हैं । अपनी विविधतापूर्ण रचनाओं और साहित्य से पूरे हिंदी जगत में उन्होंने अपना ऊँचा स्थान बनाया है । अब वे इतने बड़े हैं कि उन्हें यश की भी परवाह नहीं ।...लेकिन अगर उन्होंने आलोचकों की परवाह की होती तो केवल चार आलोचकों के मुखापेक्षी होकर रह जाते, और हर वक्त इसी चिंता में दुबले होते रहते कि कहीं उनके चेहरे की रेखाएँ तन न जाएँ । हमारे लिखने और साहित्य को अर्थवत्ता तभी मिलती है, जब हमारी रचनाएँ व्यापक रूप से जनता तक पहुँचती हैं, और उनके दिलों में अपनी जगह बनाती हैं । इसलिए अगर लेखक केवल चार लोगों के कॉकस में बंदी होकर रह जाए, तो यह न केवल साहित्य का अपमान है, बल्कि जनता का भी तिरस्कार है । और ऐसा लेखक कभी अपनी जनता का वैसा प्यार और सम्मान हासिल नहीं कर सकता, जो रामदरश जी को मिला है ।

सच पूछिए तो रामदरश जी का पूरा साहित्य ही मानो आम आदमी का महाकाव्य या आम आदमी की महागाथा है । उन्होंने न सिर्फ एक मामूली आदमी को नायक के सिंहासन पर बैठाया, बल्कि उसे गरिमा दी, मान-सम्मान दिया । जनता का दुख-दर्द, जनता की बेचैनी और परेशानियाँ, जनता की आहत पीड़ा उनकी कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत समेत हर विधा में अपनी सूची करुणा के साथ बह रही है । वे सिर्फ कहने के लिए अपनी जनता के लेखक नहीं हैं, बल्कि सही मायनों में अपनी जनता से एकाकार हो चुके हैं । इससे बड़ी किसी लेखक की चरितार्थता भला क्या हो सकती है?

फिर रामदरश जी एक बड़े परिवार के मुखिया की तरह हमेशा उन सबकी परवाह करते नजर आते हैं, जिनसे वे भावनात्मक रूप से करीब से जुड़े हैं । इधर जब भी उनसे मेरी बात होती है, वे हमेशा मेरी कविताओं की चिंता करते नजर आते हैं । वे बार-बार याद दिलाते हैं कि “मनु जी, आपकी कविताओं में एक अलग रंग है, उनमें कुछ अलग बात है । आपने कविता लिखना क्यों छोड़ दिया?” उनकी बात सुनता हूँ तो भीतर उथल-पुथल सी मच जाती है । सच ही बहुत तरह के काम मैंने ओढ़ लिए हैं । इनमें कविता, जो शुरू से ही मेरी सहयात्री, बल्कि मेरी पहचान रही है—वह छूटती सी जा रही है । हालाँकि कविताएँ लिखना बंद नहीं हुआ, पर वे कुछ पीछे तो जरूर छूट गई हैं । 

मेरे बहुत से मित्र और आत्मीय जन हैं, जो मुझसे प्यार करते हैं । पर मेरी सहयात्री सुनीता के अलावा, यह बात कहने वाले केवल रामदरश जी हैं, जो बार-बार इस ओर मेरा ध्यान खींचते हैं । वे आपको प्यार करते हैं तो यह भी जानते हैं कि आपका कौन सा ऐसा पक्ष है, जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, या फिर जिसमें आपने सबसे अधिक सशक्त ढंग से खुद को व्यक्त किया है । वे घर भी आए हैं, बड़े प्यार से सुनीता से भी मिले हैं । घर-परिवार के वरिष्ठ सदस्य की तरह वे घर में सभी की चिंता करते हैं ।

फिर रामदरश जी ने जैसा लिखा, खुद वैसा ही सीधा-सादा जीवन भी जिया है । उनके यहाँ लिखने और जीने में कम से कम फर्क है । इसीलिए वे बड़े आत्मविश्वास के साथ आने वाली पीढ़ी से यह कह भी सकते हैं कि साहित्य जल्दी-जल्दी सब कुछ बटोरने के लिए नहीं है । यह लंबी दूरी की दौड़ है, इसलिए धीरे चलना चाहिए । अपने समय और आसपास के परिवेश को समझते हुए, आहिस्ता-आहिस्ता कदम आगे रखना चाहिए, और अपने ढंग से अपने लक्ष्य तक पहुँचना चाहिए । दूसरों को देखकर, उनकी नकल, प्रतिस्पर्धा या हबड़-तबड़ में अपने आप को नहीं भूल जाना चाहिए । क्योंकि ऐसे हड़बड़िए बहुत जल्दी थोड़ा-बहुत पाकर रुक जाते हैं । उन्हें भ्रम हो जाता है कि बहुत कुछ पा लिया । तो अब आगे और लिखने से क्या फायदा? पर लिखने वाला, जिसे केवल अपने लिखने पर भरोसा है, वह अपनी कलम के बूते पहचान बनाता है, और आगे चलता जाता है । अंत में वह उस जगह पहुँचता है, जहाँ पहँचना उसे एक लेखक होने के गौरव से भर देता है ।

रामदरश जी मुझसे कोई छब्बीस बरस बड़े हैं । उनमें और मुझमें एक पीढ़ी का फर्क है । फिर भी वे हमेशा प्यार से, बराबरी से मिलते हैं । कभी उन्होंने मुझे लघुता का अहसास नहीं कराया । वे मेरे गुरु हैं, इसके बावजूद उन्होंने हमेशा बराबरी का सम्मान दिया, प्यार दिया । एक लेखक होने का गौरव दिया । और वे मुझसे कितने बड़े हैं, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उनका गीत संग्रह ‘पथ के गीत’, जिसकी भूमिका आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखी है, प्रकाशित हुआ, उस समय मैं कोई दो बरस का था । इसी वर्ष उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी ।

इसी तरह जब ‘हिंदी आलोचना की प्रवृत्तियाँ और उसकी आधार-भूमि’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि के लिए रामदरश मिश्र का शोध संपन्न हुआ, तब मैं केवल सात बरस का था और कक्षा दो में वर्णमाला और गिनती लिखना सीख रहा था । अगले वर्ष, जब मैं आठ बरस का था, वे गुजरात विश्वविद्यालय से संबद्ध होकर, पढ़ाने लगे थे ।

यह सब सोचता हूँ तो मन में आता है कि कहाँ रामदरश जी और कहाँ मैं! अपनी लघुता के बोझ से दबने सा लगता हूँ ।...पर फिर थोड़े ही समय बाद उनका फोन आता है और वे “मनु जी, कल एक पत्रिका में आपका लेख पढ़ा । बहुत अच्छा लिखा है आपने...!” कहकर बात शुरू करते हैं तो बीच के सारे फासले गायब हो जाते हैं । मानो रामदरश जी ने मुझे भी सहारा देकर अपने पास बैठा लिया हो ।

कई बार मुझे लगता है, मुझमें और रामदरश जी में कई समानताएँ हैं, जो हमें एक-दूसरे के इतना निकट ले आईं । रामदरश जी बचपन से ही भावुक हैं और उन्हीं के शब्दों में, कुछ-कुछ घरघुसरे भी । मेरी स्थिति भी इस मामले में उनसे कुछ अलग नहीं है । बचपन से ही मेरा हाल यह है कि किसी करुण प्रसंग को सुनते ही आँखों से टप-टप आँसू टपकने लगते हैं । गला रुँध जाता है ।

मुझे याद है, किशोरावस्था में प्रेमचंद के उपन्यास पढ़ते हुए मेरे पूरे गाल आँसुओं से भीग जाते थे । एक हाथ से किताब पकड़े हुए, मैं दूसरे हाथ से आँसू पोंछता जाता । हालाँकि आगे क्या हुआ, यह जानने की उत्सुकता तनिक भी कम न होती । यही हालत अकसर फिल्में देखते हुए हो जाती । वहाँ कोई मार्मिक दृश्य आ जाता तो न सिर्फ आँसू बहने लगते, बल्कि कई बार तो रोते-रोते हिचकियाँ तक बँध जातीं । श्याम भैया जो मुझे फिल्म दिखाने ले जाते थे, बार-बार टोकते । पर फिर भी अपने आँसुओं पर मेरा बस नहीं था । तब श्याम भैया गुस्से में आकर डपटते हुए कहते, “देख कुक्कू, अगर तू अब रोया न, तो अभी तुझे हॉल से बाहर ले जाऊँगा और फिर कभी फिल्म दिखाने नहीं लाऊँगा ।...”

सुनकर कुछ देर के लिए मजबूरन अपनी सिसकियों पर रोक लगाता, पर फिर उसी तरह आँखों से आँसू बरसने लगते । हलकी सिसकियाँ भी शुरू हो जातीं, जिन्हें बाहर निकलने से रोकने की मैं भरसक कोशिश करता । पर फिर भी वे घुटी-घुटी सी आवाज में बाहर आ ही जातीं, उन पर मेरा कोई बस नहीं था ।

श्याम भैया यह जानते थे । वे मेरी भावुकता को समझते थे, इसीलिए मुझसे प्यार भी करते थे । पर ऊपर-ऊपर से गुस्सा भी करते, जिससे अपनी भावुकता पर थोड़ा सा नियंत्रण करने की कोशिश अलबता मैं जरूर करता । हालाँकि पूरी तरह सफल तो कभी नहीं हो पाया । आज भी जब सत्तर पार कर चुका हूँ, यह हालत बदली नहीं
है ।...

इसी तरह रामदरश जी की तरह मैं दुनियादारी से दूर ही रहा । और मुँह दिखाई तो कभी सीख ही नहीं सका । कहीं बाहर बहुत आना-जाना भी मुझे पसंद नहीं है । बस, लिखने-पढ़ने में ही सुख मिलता है । लगता है, इससे दुर्लभ चीज कुछ और नहीं है । आदमी दुनिया में बाकी सब पा सकता है, पर यह लिखने-पढ़ने का सुख तो एक मानी में ईश्वरीय ही है । अगर भीतर गहरी अंतःप्रेरणा और चेतना है, तभी आप लिखने-पढ़ने में आकंठ डूबे रह सकते हैं । लेकिन अगर संवेदना ही नहीं है, तो फिर कुछ नहीं है । धरती पर अगर कुछ स्वर्गिक या स्वर्गोपम है, तो मैं कहूँगा कि वह यही है, यही है, यही है!

मेरा और रामदरश जी का परिवेश बेशक एक सा नहीं रहा । वे ग्रामीण अंचल के हैं, मैं शहराती बंदा । किशोरावस्था तक मुझे पता ही नहीं कि गाँव क्या चीज है । मैं शायद दसवीं में था, जब मेरा एक सहपाठी मुझे अपना गाँव दिखाने ले गया । तब गाँव को थोड़ा-बहुत जाना । पर गाँव में क्या सुंदर है, तब भी नहीं समझ सका था । गाँव को सच में जानने की शुरुआत तब हुई, जब मैंने प्रेमचंद के उपन्यासों को दुबारा-तिबारा पढ़ा । ऐसे ही आजादी के बाद के गाँवों को मैंने जाना रामदरश जी के उपन्यासों को पढ़कर । इस रूप में उनका ऋणी हूँ कि असली हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी संस्कति को मैं उनके उपन्यास पढ़कर ही समझ पाया, जिसके बिना शायद मैं अधूरा ही रहता ।

पिछले दिनों रामदरश जी को याद कर रहा था, तो अनायास कविता की कुछ पंक्तियाँ बनीं, और वे मेरे शब्दों में उतरते चले गए । वे पंक्तियाँ तो कुछ खास नहीं, पर उनमें रामदरश जी हैं, यही खास है । शायद आप भी उनका आनंद लेना चाहें । तो लीजिए, आप भी उन्हें पढ़ लीजिए—

मेरे अंदर रामदरश जी, मेरे बाहर रामदरश जी,

आगे चलते रामदरश जी, पीछे दिखते रामदरश जी ।

सुख में, दुख में, फाकामस्ती में भी हँसते और हँसाते—

अंदर-बाहर, बाहर-अंदर रामदरश जी, रामदरश जी ।


कविता वाले रामदरश जी, किस्से वाले रामदरश जी,

इस अँधियारे जग के उजले हिस्से वाले रामदरश जी,

चुप-चुप कुछ कहते, कह करके बस मुसकाते रामदरश जी,

एक पुराना गीत, उसी को फिर-फिर गाते रामदरश जी ।


मिला राह में जो उसको, घिस-घिस चमकाते रामदरश जी,

सारे ही घर उनके, जिनमें आते-जाते रामदरश जी,

बैठ गए वे जहाँ, छाँह का वृक्ष उगाते रामदरश जी,

डुगुर-डुगुर अब चले हवा से कुछ बतियाते रामदरश जी । 


जब से आए रामदरश जी, मन में कितना हुआ उजीता,

कहती बड़की, कहती छुटकी, कहती चुप-चुप यही सुनीता ।

खुले द्वार, खुल गईं खिड़कियाँ, जब से आए रामदरश जी,

टूट गईं सारी हथकड़ियाँ, जब से आए रामदरश जी ।


चह-चह करतीं घर में चिड़ियाँ, जब से आए रामदरश जी ।

बिन दीवाली के फुलझड़ियाँ, जब से आए रामदरश जी ।

एक रोशनी का कतरा था, बढ़ते-बढ़ते वह खूब बढ़ा,

छोटा सा था मेरा आँगन, लेकिन खुद ही हुआ बड़ा ।

ठंडी छाया बरगद की सी, ममता की हैं कोमल बाँहें,

चलता हूँ जिस ओर, वहीं से खुल जाती हैं उनकी राहें । 

वे ही अंदर, वे ही बाहर, कितने रूपों में छाए हैं, 

लंबा था रस्ता पर चलकर खुद ही मेरे घर आए हैं ।


जो सीखे हैं पाठ अनोखे, भूल न पाता रामदरश जी,

गीत सुरीले जो सीखे हैं, फिर-फिर गाता रामदरश जी ।

अर्थ महकते नए-नए से, नई-नई मोहक छवियाँ हैं,

यादों में हैं आप, आपमें कितनी सारी स्मृतियाँ हैं!


शिष्य आपका, पाठक भी हूँ, चाहे थोड़ा अटपट सा हूँ,

ढाई आखर पढ़े प्यार के, तब से थोड़ा लटपट सा हूँ ।

थोड़ा झक्की, थोड़ा खब्ती, थोड़ा-थोड़ा प्यारा भी हूँ,

इसी प्यार से जीता भी हूँ, इसी प्यार से हारा भी हूँ ।


एक खुशी है मगर, आपने खुले हृदय से अपनाया है,

कुछ गड़बड़ गर लगा, प्यार से उसको भी समझाया है ।

यह उदारता, यही बड़प्पन भूल न पाता रामदरश जी,

विह्वल मन ले, इसीलिए चुप सा हो जाता रामदरश जी । 


जो कुछ सीखा, जो कुछ पाया, वह कविता में ढाल लिया है,

एक दीप उजली निर्मलता का अंतस में बाल लिया है ।

चाहे आँधी आए, मन का दीप नहीं यह बुझ पाएगा,

अंगड़-बंगड़ छूटेगा, पर उजियारा तो रह जाएगा ।


अंतर्मन में दीप जला तो कहाँ अँधेरा रह पाएगा,

यहाँ उजाला, वहाँ उजाला, अंदर-बाहर छा जाएगा ।

आप साथ हैं तो जैसे यह सारी धरती अपनी है,

इस मन-आँगन में भी कोई गंगा अब तो बहनी है!

पता नहीं कि मैं अपने मन की बात कितनी कह पाया हूँ, कितनी नहीं । पर इन पंक्तियों को लिखने के बाद जो सुकून मिला, और मन कुछ हलका सा हो गया, वह अहसास शायद मैं कभी भूल न पाऊँगा ।

रामदरश जी के साथ कभी यात्रा का भी संयोग बनेगा, यह तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता था ।

पर यह भी हुआ, और मुझे याद है, रामदरश जी के मुझ पर अतिरिक्त स्नेह के कारण ही यह संभव हो सका था । असल में कानपुर में एस.एन. बाल विद्यालय के प्रबंधक अरुणप्रकाश अग्निहोत्री रामदरश जी के साहित्य के बड़े प्रशंसक और मुरीद हैं । एक बार वे उन्हें खोजते हुए, घर आए । उनका मन था कि कानपुर में उनके स्कूल के परिसर में एक व्यापक पुस्तक मेले का आयोजन हो । साथ ही उस अवसर पर बड़ा सुंदर साहित्यिक कार्यक्रम भी हो, जिसमें लेखक अपने विचार और अनुभव पाठकों से साझा करें ।

रामदरश जी ने सहमति दे दी तो पूरे आयोजन की तैयारी कर ली गई । इस कार्यक्रम की अध्यक्षता रामदरश जी को करनी थी । साथ ही महीप सिंह, कन्हैयालाल नंदन, प्रदीप पंत समेत कई वरिष्ठ साहित्यकारों को इसमें शिरकत करनी थी ।

रामदरश जी का आग्रह था कि मैं भी इस आयोजन में भाग लेने के लिए उनके साथ चलूँ । मैं थोड़ा यात्रा-भीरु हूँ, और कहीं आने-जाने से कन्नी कटता हूँ । पर रामदरश जी ने कहा कि वे मेरे साथ रहेंगे । इसलिए मुझे कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है । फिर घर से निकलने पर थोड़ा एक भिन्न सा अनुभव होगा । उन्होंने बताया कि कन्हैयालाल नंदन और महीप सिंह भी साथ ही रहेंगे । हम सभी लोग एक साथ सुबह-सुबह शताब्दी एक्सप्रेस से चलेंगे ।

रामदरश जी का ढंग इतना स्नेहपूरित और पारिवारिक सा था कि न कहने का तो प्रश्न ही नहीं था । मन में थोड़ा उत्साह भी पैदा हुआ कि रामदरश जी के साथ रहूँगा तो यह बड़े सुख की बात होगी । फिर नंदन जी और महीप जी भी हैं, तो एक अच्छा साहित्यिक सत्संग सा हो जाएगा ।

जैसा कि तय था, मैं यात्रा से एक दिन पहले ही रात के समय रामदरश जी के घर पहुँच गया । रात का खाना भी वहीं खाया । वहाँ उनका जो आत्मीयता भरा पारिवारिक रूप देखा, उसे कह सकूँ, ऐसे शब्द मेरे पास नहीं हैं । कानपुर का वह कार्यक्रम तो बड़ा सुरुचिपूर्ण था ही, पर साथ ही उसमें रामदरश जी की बड़े भाई सरीखी आत्मीयता के भी बहुत सारे रंग देखने को मिले । एक ही कमरे में हमें ठहराया गया था । सारी व्यवस्था काफी अच्छी थी । लेकिन रामदरश जी खुद से ज्यादा मेरी चिंता कर रहे थे । पूरे कार्यक्रम के दौरान उनका जो अभिभावक वाला रूप देखने को मिला, उसे कभी भूल न पाऊँगा ।

फिर सभी साहित्यिकों का शताब्दी से आना-जाना खुद में एक अलग अनुभव था । उसमें रामदरश जी के साथ ही नंदन जी और महीप जी का भरपूर साहचर्य मिला । आने-जाने में खूब प्रसन्नता भरी, खुली साहित्यिक चर्चा । इन स्नेही साहित्यकारों की पारिवारिक किस्म की आत्मीयता को मैं इतने निकट से महसूस न कर पाता, अगर रामदरश जी के साथ कानपुर न गया होता ।

कानपुर प्रवास की बहुत स्मृतियाँ हैं, जिनकी चर्चा फिर कभी ।...हाँ, जिस कमरे में हमें ठहराया गया था, उसमें सुबह उठते ही प्रभात रश्मियों के साथ रामदरश जी का जो गीतमय गुनगुनाता हुआ रूप दिखाई दिया, वह अब भी मेरी स्मृतियों में बसा है । वे बहुत हलके स्वर में भीतर ही भीतर अपने किसी पुराने गीत का आनंद लेते हुए गा रहे थे । मैंने महसूस किया, इस उम्र में भी उनका कंठ बहुत मधुर है । वे बहुत सुरीले ढंग से गीत पढ़ते हैं ।

यों कविता सुनाने का उनका ढंग भी इतना प्रभावी है कि शब्द आपके भीतर उतरते चले जाते हैं । जो सादगी उनके लिखने में है, वही सुनाने में । बगैर किसी अतिरिक्त नाटकीयता के, संवेदना से लिपटा उनका स्वर मन में एक तरंग सी पैदा करता है, और फिर आप कविता के साथ बहते चले जाते हैं । कविता सुनाने का शायद सबसे अच्छा तरीका भी यही है, जिससे सुनने वाले और सुनाने वाले के बीच कोई दूरी, कोई दीवार नहीं रह जाती ।

मैं साहित्यिक आयोजनों में प्रायः जा नहीं पाता । बहुत अधिक रुचि भी नहीं है । इसके बजाय चुपचाप लिखना-पढ़ना ही मुझे सुहाता है । पर इसे अपना सौभाग्य ही मानता हूँ कि रामदरश जी से जुड़े कुछ आत्मीयता भरे कार्यक्रमों में मुझे शामिल होने का सौभाग्य मिला है । ऐसा ही एक अवसर था, दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान मिलने पर उनके सम्मान में वाणी विहार में, उनके घर के निकट ही, एक अंतरंग गोष्ठी का आयोजन ।

मुझे उसमें कुछ बोलना था, पर मुझे लगता है, लिखने में जैसी सहज लय मेरी बन जाती है, वह बोलने में नहीं बनती । तो मैंने सोचा कि जो कुछ मन में उमड़ रहा है, वह अगर एक कविता में बाँध सकूँ, तो यह कहीं बेहतर होगा । और फिर रामदरश जी पर एक लंबी, मुक्त लय और निर्बंध आवेग वाली कविता लिखी गई— ‘हमारी दुनिया में एक सीधा आदमी’ । एक स्वतःस्फूर्त कविता, जिसमें उनके सहज, स्वभाव और खुद्दार गँवई व्यक्तित्व को बाँधने की कोशिश मैंने की । रामदरश जी में ऐसा क्या है, जो बरसों दिल्ली में रहते हुए भी उन्हें दिल्ली शहर का नहीं बना सका । आज भी वे जैसे गाँव को ही जी रहे हैं, और गाँव-कसबे में ही उनका मन बहता है । ऐसा क्यों भला? कविता थोड़ा-थोड़ा इसकी तलाश करती जान पड़ती है ।

‘हमारी दुनिया में एक सीधा आदमी’ कविता की शुरुआत एक तरह की बतकही से होती हैं । लीजिए, जरा आप भी पढ़ लीजिए ये पंक्तियाँ—

बुरा न मानिए, जितने सीधे हैं

उतने ही मुश्किल हैं आप रामदरश जी,

जितने सीधे हैं उतने ही जरा टेढ़े... ऊबडख़ाबड़,

गूढ़-निगूढ़ ।

कि जैसे हरियाली और दरख्तों की हँसी से भरपूर

एक सीधा-सादा पठार

जो मेरी कलम में बँधा ही नहीं आज तलक,

जबकि सोचा था, आपका भी क्या !

जब भी चाहूँगा, पा लूँगा—

लगाकर दौड़ या कि दो-चार छलाँगें भरकर

छू ही लूँगा आपका हाथ!

पता न था कि

छोटे-छोटे हाथ-पैरों वाले बुभुक्षित दैत्यों की इस नगरी में

सड़क पर सीधे तनकर चलता है कोई सीधा आदमी

तो उसकी छाती में बनते हैं ऐसे-ऐसे भँवर

ऐसे बला के भँवर...कि राम बचाए!...

इस कार्यक्रम में डा. नित्यानंद तिवारी, कमलेश्वर और कन्हैयालाल नंदन भी उपस्थित थे । सबने कविता को बड़ी रुचि से सुना, पसंद भी किया ।

बाद में कुछ अंतरंग मित्रों को सुनाने का अवसर मिला । सबने काफी सराहा कि इस कविता में मानो रामदरश जी अपनी पूरी जीवंतता के साथ सामने आ जाते हैं । इसके कुछ समय बाद कुरुक्षेत्र गया तो ब्रजेश भाई को तो यह कविता मैंने सुनाई ही । फिर उनके साथ ही जनवादी विचारक डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल जी के घर भी जाना हुआ । वहाँ जाने-माने आलोचक डा. शिवकुमार मिश्र भी बैठे थे । ग्रेवाल जी और शिवकुमार मिश्र जी ने, कविता खूब पसंद की । खासकर शिवकुमार मिश्र तो इस कविता को सुनते हुए झूम से रहे थे । बाद में उन्होंने कहा, “बहुत अच्छी कविता लिखी है आपने । मैं तो मिश्र जी के निकट रहा हूँ तो कह सकता हूँ कि इसे सुनते हुए उनकी पूरी छवि सामने आ जाती है ।...मिश्र जी कभी मिले तो उनसे भी इसकी चर्चा करूँगा ।”

इसी तरह रामदरश जी की रचनावली के लोकार्पण के अवसर पर भी एक सुंदर कार्यक्रम हुआ था, जिसमें शामिल होने का अवसर मुझे मिला । इसमें कमलेश्वर और विष्णुचंद्र शर्मा जी भी उपस्थित थे । मैं कमलेश्वर जी के साथ ही इस कार्यक्रम में गया था, और रामदरश जी की सादा लेकिन पुरअसर कविताओं पर बोला था । विष्णुचंद्र शर्मा और कमलेश्वर जी के साथ-साथ कुछ और साहित्यकारों ने भी रामदरश जी के व्यक्तित्व और साहित्यिक योगदान की बड़े सम्मान से चर्चा की थी । रामदरश जी जो अपनी लंबी सृजन-यात्रा में बिना किसी से आतंकित हुए, आहिस्ता-आहिस्ता अपनी राह पर चलते रहे, उन्होंने आखिर बहुत अनायास ढंग से अपना होना सिद्ध कर दिया था । इस कार्यक्रम में इसकी सुंदर प्रतिध्वनियाँ गूँजती नजर आईं ।

कुछ अरसे बाद के.के. बिरला फाउंडेशन की ओर से रामदरश जी को अत्यंत प्रतिष्ठित व्यास सम्मान मिलना भी एक खुशी और आनंद का अवसर था । तीन मूर्ति भवन में हुए बड़े गरिमामय कार्यक्रम में उन्हें यह सम्मान प्रदान किया गया । इसी कार्यक्रम में नरेंद्र कोहली को भी व्यास सम्मान प्रदान किया गया, जिन्हें संभवतः अगले बरस का व्यास सम्मान मिला था । और फिर इसी कार्यक्रम में दोनों साहित्यकारों को दो अलग-अलग वर्षों के लिए व्यास सम्मान प्रदान किया गया । कार्यक्रम में रामदरश जी की सहज ऊष्मा से भरी अनौपचारिक वक्तृता ने सबका मन मोह लिया ।

साहित्य अकादेमी द्वारा रामदरश जी के व्यक्तित्व पर फिल्म निर्माण भी एक अच्छा और स्वागत योग्य निर्णय था । रामदरश जी ने मुझे यह सूचना देते हुए कहा कि मनु जी, यदि आप भी इस अवसर पर उपस्थित रहें, तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा । तो मैं सुबह-सुबह ही उनके घर पहुँच गया था । रामदरश जी की अत्यंत स्नेहिल और बुद्धिमती बेटी स्मिता भी साथ थी । यह दिन एक बिल्कुल अलग तरह का दिन था, जिसमें रामदरश जी के कई अनौपचारिक मूड्स का मैं गवाह बना ।

सन् 2004 में वाणी प्रकाशन से रामदरश जी की शख्सियत और और सर्जना पर केंद्रित मेरी पुस्तक आई, ‘रामदरश मिश्र : एक अंतर्यात्रा’ । हालाँकि इस पुस्तक की भी एक कहानी है । असल में विष्णु खरे पर वाणी प्रकाशन से मेरी पुस्तक आ रही थी, ‘एक दुर्जेय मेधा : विष्णु खरे’ । पुस्तक पूरी होने से पहले ही रामदरश जी की पुस्तक की पांडुलिपि भी मैं तैयार कर चुका था । मैंने अरुण माहेश्वरी से इसका जिक्र किया, और कहा कि “मेरा मन है, रामदरश जी पर लिखी गई मेरी यह पुस्तक भी वाणी से ही आए, और मिश्र जी के जन्मदिन पर इस पुस्तक का लोकार्पण हो ।” अरुण माहेश्वरी ने मुसकराते हुए कहा, “मनु जी, पुस्तक हम करेंगे और उनके जन्मदिन पर यह आएगी भी । पर...मैं चाहता हूँ कि अभी आप डाक्साब से जिक्र न करें । उनके जन्मदिन पर हम लोग उन्हें सरप्राइज देंगे...!”

मुझे भी अरुण माहेश्वरी का यह विचार भा गया । यों पुस्तक पर काम ठीक समय पर शुरू हो गया था, जुलाई के पहले-दूसरे हफ्ते तक मैंने उसके प्रूफ वगैरह भी पढ़ लिए थे । अब कोई विशेष काम बाकी न था । रामदरश जी का जन्मदिन निकट ही था । पर मैंने राज को राज ही रखा था, और अभी तक उनसे पुस्तक की चर्चा नहीं की थी । हालाँकि फिर मुझे यह राज खोलना ही पड़ा, जब पुस्तक के आवरण के लिए रामदरश जी के कुछ फोटो लेने मैं उनके घर गया ।

रामदरश जी के विविध मूड्स के फोटो लेकर मैं वाणी प्रकाशन में गया, तो अरुण माहेश्वरी ने उनका एक चित्र पसंद करते हुए कहा, “यह कुछ अलग सा है मनु जी । इसी को लेंगे ।...आप चाहें तो आज ही आवरण फाइल करवा लें । ताकि आपको दुबारा न आना पड़े ।”

मुझे याद है, उस दिन कोई दो-ढाई घंटे मैं वहाँ रुका । फ्लैप मैटर समेत पुस्तक का आवरण फाइनल कराया । पुस्तक का आवरण सच ही बहुत सुंदर बना था । रामदरश जी की प्रसन्न छवि आवरण पर थी । यों भी यह पुस्तक किसी रूढ़ किस्म की आलोचना से आक्रांत हुए बगैर, अपने मन की मौज में लिखी गई थी । लिहाजा कथित आलोचना से भिन्न, यह एक सर्जनात्मक किस्म की पुस्तक थी । ऐसी पुस्तक, जिसे पढ़ते हुए पाठक की मनुष्य और साहित्यकार रामदरश जी से बड़ी प्रीतिकर दोस्ती हो जाती है, और उसके तार मन में खुद-ब-खुद एक संगीतमय तान छेड़ते हैं । पुस्तक लिखते हुए मेरे मन में कल्पना थी कि इसे पढ़ने पर रामदरश जी के सीधे, सहज व्यक्तित्व में छिपी ऊष्मिल आभा और उदात्त भाव-तरंगों को समझने के अनंत रास्ते खुलने लगें । हर कोई अपने ढंग से अपने रामदरश जी को जान सकें, और पुस्तक इसके लिए एक भावनात्मक संबल का सा काम करे ।

मेरे लिए खुशी की बात यह है कि वाकई रामदरश जी के जन्मदिन पर, उनके घर पर हुए एक अनौपचारिक आयोजन में ही ‘रामदरश मिश्र : एक अंतर्यात्रा’ पुस्तक का लोकार्पण हुआ । कार्यक्रम खासा गरिमामय था । एकदम पारिवारिक किस्म का कार्यक्रम, जिसमें सब एक ही भावना में बह रहे थे । रामविलास जी के छोटे भाई तथा जाने-माने लेखक, संपादक रामशरण मुंशी जी ने पुस्तक का लाकार्पण किया, और वे बहुत अच्छा बोले । रामदरश जी की नौसर्गिक सृजन प्रतिभा और खुली मानवीय दृष्टि के साथ-साथ उनमें जो एक उदार किस्म की मार्क्सवादी दृष्टि है, उसकी ओर मुंशी जी ने सबका ध्यान खींचा । साथ ही उन्होंने कहा कि प्रकाश मनु जी की पुस्तक व्यक्ति और साहित्यकार रामदरश मिश्र को जानने का एक प्रीतिकर रास्ता खोल देती है । इसलिए कि इस पुस्तक में प्रकाश मनु निरंतर रामदरश जी के साथ-साथ चलते नजर आते हैं । बल्कि नई और पुरानी पीढ़ी के दो लेखकों के इसी स्नेहपूर्ण साहचर्य का नतीजा यह पुस्तक है, जो दूसरों को भी राह दिखाएगा । कवि और आलोचक ओम निश्चल ने बहुत आत्मीय लहजे में कार्यक्रम का संचालन किया ।

अब जरा एक क्षण के लिए पुस्तक के नाम की चर्चा करें । ‘रामदरश मिश्र: एक अंतर्यात्रा’— भला पुस्तक का नाम यही क्यों? असल में रामदरश जी के साहित्य का अध्ययन करते-करते यह नाम मुझे एकबारगी जँच गया था, और फिर दूसरा कोई नाम जेहन में आया ही नहीं । रामदरश जी की एक आलोचनापरक पुस्तक है, ‘हिंदी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा’ । मुझे पुस्तक का नाम इतना सुंदर और अर्थपूर्ण लगा कि मन में आया, मैं भी तो रामदरश जी को समझने की यात्रा पर हूँ । तो फिर पुस्तक का नाम ‘रामदरश मिश : एक अंतर्यात्रा’ क्यों नहीं हो सकता? जाहिर है, इसके बाद पुस्तक के लिए कोई सही नाम ढूँढ़ने की सारी कोशिशें रुक गईं, और यही नाम फाइनल हो गया । इसे मित्रों और अन्य साहित्यिकों ने भी बहुत पसंद किया ।

यहीं प्रसंगवश इस बात की चर्चा की जा सकती है कि रामदरश जी की किताबों के नाम बहुत सुंदर और सुरुचिपूर्ण हैं । लीक से हटकर भी । लेखक रामदरश ऊपर से चाहे जितने सादा लगते हों, पर उनके भीतर कितनी गहरी कलादृष्टि और सौंदर्य चेतना है, इसे उनकी पुस्तकों के नामों से ही जाना जा सकता है । उनके उपन्यासों की बात की जाए तो ‘पानी के प्राचीर’, ‘जल टूटता हुआ’ और ‘अपने लोग’ बहुत खूबसूरत नाम हैं । ऐसे ही उनकी कहानियों के नाम ‘वसंत का एक दिन’, ‘आज का दिन भी’ और ‘फिर कब आएँगे’ मुझे बहुत आकर्षक लगते हैं । और कविता-संकलनों के नामों की तो बात ही क्या की जाए । ‘पथ के गीत’, ‘बेरंग-बेनाम चिट्ठियाँ’, ‘पक गई है धूप’, ‘कंधे पर सूरज’, ‘दिन एक नदी बन गया’, ‘जुलूस कहाँ जा रहा है’, ‘बारिश में भीगते बच्चे’, ‘ऐसे में जब कभी’, ‘आम के पत्ते’ ये सभी एक से एक सुंदर और मानीखेज नाम हैं ।

रामदरश जी की अन्य विधाओं की पुस्तकों के नाम भी इसी तरह मोहते हैं । उनकी संस्मरणों की पुस्तक का नाम है, ‘स्मृतियों के छंद’ । ललित निबंधों की पुस्तक का नाम है, ‘कितने बजे हैं’, यात्रा-वृत्तांत की पुस्तकों के नाम हैं, ‘तना हुआ इंद्रधनुष’ और ‘पड़ोस की खुशबू’ । रामदरश जी की आत्मकथा का नाम ‘सहचर है समय’ भी मुझे बहुत लुभाता है । इसमें एक धीरता और स्वाभाविक गांभीर्य है, जो स्वयं रामदरश जी के व्यक्तित्व में भी है । इस आत्मकथा के अलग-अलग खंडों के नाम भी इतने ही सुंदर और अर्थ-व्यंजक हैं । जरा एक नजर डालें—‘जहाँ मैं खड़ा हूँ’, ‘रोशनी की पगडंडियाँ’, ‘टूटते-बनते दिन’, ‘उत्तर कथा’, ‘फुरसत के दिन’ । ये वाकई ऐसे नाम हैं, जिनमें अलग-अलग दौर के रामदरश जी के संवेदनापूरित चेहरे अपनी पूरी धज के साथ झाँकते नजर आते हैं ।

ऐसे ही एक लेखक, एक बड़े साहित्यकार के रूप में रामदरश मिश्र का जीवन बहुत सुंदर है । हमारी आदरणीया भाभी सरस्वती जी सही मायने में उनकी सहधर्मिणी हैं । उनके सुख-दुख और संघर्षों की हमसफर भी । पत्नी को जितना मान-सम्मान रामदरश जी ने दिया है, वैसा आदर देने वाले कितने साहित्यकार हमारे समय में हैं? यहाँ रामदरश जी का कद मुझे बहुत ऊँचा लगता है । हमारे दौर में शायद ही कोई साहित्यकार हो, जिसे उनकी बराबरी पर रखा जा सके ।

मुझे याद है कि जिन दिनों मैं रामदरश जी की आत्मकथा पढ़ रहा था, उसका एक बहुत गहरा सम्मोहन मुझ पर तारी हो गया था । वह आनंद जहाँ-तहाँ छलकता रहता था । पर जहाँ कहीं मैं मिश्र जी की आत्मकथा की चर्चा करता, लोग बड़े व्यंग्य से मेरी ओर देखते । फिर धीरे से हँसते हुए कह भी देते कि “मनु जी, ऐसा लेखक भला क्या लिखेगा, जिसने सिवा अपनी पत्नी के, किसी से प्रेम न किया हो...? न उन्होंने कभी शराब पी और न इश्क किया । तो उनके पास ऐसा लिखने को है ही क्या, जिसे कोई पढ़ना चाहे!...”

मैं भला इस बात का क्या जवाब देता? मैं खुद ऐसा ही था । न कभी एक बूँद शराब की चखी, और न कभी मेरा प्रेम यहाँ-वहाँ बहका किया । पत्नी से मेरा प्रेम पति-पत्नी वाला कम, एक अनन्य दोस्ती वाला ही ज्यादा है, और यही सुख मुझे अंदर-बाहर से भरता रहता है । सो उन साहित्यिकों के व्यंग्य-वचनों का जवाब देने के बजाय मैं अकसर चुप हो जाता । पर आज देखता हूँ, अपने दौर में तमाम दंद-फंदों के जरिए नाम चमकाने वाले ऐसे मज़ावादी लेखक आज कहीं नहीं हैं । कोई उनका नामलेवा भी नहीं । दूसरी ओर सहज पथ पर चलते साहित्यकार रामदरश मिश्र का लेखक आज अपने पूरे कद के साथ सामने आया, तो पता चलता है कि एक बड़ा लेखक कैसा होता है । रामदरश जी की आदमकद शख्सियत के आगे अपने-अपने दौर में तालियाँ पिटवाने वाले तमाम चिकने-चतुर सूरमाओं को बड़ी बेचारगी से समय की बाढ़ में बहते देखता हूँ, तो उनकी वे फब्तियाँ, वे व्यंग्योक्तियाँ मुझे याद आती हैं । उनसे रामदरश जी का तो कुछ बिगड़ा नहीं, पर जिन्होंने ऐसी फब्तियों के छींटे इस सीधे, सहज लेखक पर डाले, वे खुद कितने छिछले थे, यह जरूर खुद-ब-खुद प्रकट हो गया ।

आज के दौर में भी रामदरश जी का परिवार एक भरा-पूरा सामूहिक परिवार है । उनके बेटे-बेटियाँ, बहुएँ, बच्चे सभी इस घर-परिवार को आनंद से भरते हैं । रामदरश जी ने सिर्फ अच्छा लिखा ही नहीं है, बल्कि एक सुंदर घर भी बनाया है, जिसमें सादगी के साथ-साथ हिंदुस्तानियत की गंध है । और इसीलिए वह घर बार-बार हमें बुलाता है । पुकार-पुकारकर बुलाता है । वहाँ जाकर हमें एक अलग तरह की शांति और शीतलता मिलती है, इसलिए कि वह सच ही में एक साहित्यकार का घर है ।

और इसके साथ ही वे घर में मिलने आने-जाने वालों से, फिर चाहे वे एकदम उदीयमान लेखक ही क्यों न हों, बड़े प्रेम से मिलते हैं और उन पर अपनी विद्वत्ता और बड़प्पन का कोई बोझ नहीं डालते । इसके बजाय जो भी मिला, उससे सुख-दुख का हाल वे लेते हैं, दुख में सीझते, सुख में खुश होते हैं, और हर किसी को आगे बढ़ने और अच्छा लिखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ।

इसके साथ-साथ उनकी कलम भी निरंतर चलती रहती है । जो भी मन में आया, वह रामदरश जी पूरे मन से लिखते हैं । कुछ और नहीं तो डायरी लेखन और संस्मरण, ये दो आत्मीयता भरा विधाएँ तो हैं ही, जिनमें उनका मन आजकल बहुत बहता है । चाहे थोड़ा लिखें या अधिक, पर कुछ न कुछ लिखना रामदरश जी को प्रिय है । डायरी लेखन और संस्मरण अपेक्षाकृत खुली विधाएँ हैं, जिन्हें साधने में विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता । इसलिए इन दो विधाओं में वे निरंतर ही कुछ न कुछ लिखते हैं । यह बात मुझे बहुत चकित करती है कि रामदरश जी ने न सिर्फ अपने से बड़ों और समकालीनों, बल्कि जो उनसे बहुत छोटे हैं, शिष्य सरीखे हैं, उन पर भी बड़ी रुचि से लिखा है । हिंदी में ऐसा साहित्यकार कोई और है, मुझे याद नहीं पड़ता । ऐसा ही एक प्रीतिकर संस्मरण रामदरश जी ने मुझ पर भी लिखा है, और उसमें उनका प्रेम जिस तरह बहता है, उसकी याद ही मुझे कृतज्ञता से भर देती है ।

मुझ पर केंद्रित ‘सृजन मूल्यांकन’ पत्रिका के विशेषांक में वह पाठकों के सामने आया, तो सभी ने उसे जी भरकर सराहा । कहना न होगा कि उस विशेषांक के जिन लेखों और संस्मरणों की सर्वाधिक चर्चा हुई, उनमें रामदरश जी का यह सुंदर संस्मरण भी है । इसलिए कि वे सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखते, बल्कि जो भी लिखते हैं, उसमें अपने आप को समूचा उड़ेल देते हैं । वे दूसरों की तरह एक खास दूरी रखकर मिलने वाले साहित्यकारों में से नहीं हैं, बल्कि हृदय के सारे कपाट खोलकर बड़े प्यार से मिलते हैं, और जब मिलते हैं, तो समय जैसे थम जाता है । यही बात उनके लिखे संस्मरणों के बारे में कही जा सकती है, जिन्हें वे लिखते नहीं है, बल्कि साथ-साथ बहते हैं, और इस बहने के दौरान संस्मरण तो मानो खुद-ब-खुद लिखे जाते हैं ।

हाँ, उनके इधर लिखे की बात कह रहा हूँ तो उनकी एक गजल याद आती है । इस गजल में रामदरश जी ने बड़ी खूबसूरती से अपने मन की कुछ बातें कही हैं । बहुतों को इस बात पर हैरानी होती है कि भला इस वय में भी रामदरश जी निरंतर कैसे लिख पाते हैं । इसका उत्तर भी उन्होंने इस गजल में गूँथ दिया है । असल में, मन में कुछ कहने के लिए हो, तो फिर राह भी निकल ही आती है । पर मन में संवेदना ही न हो, दूसरों के सुख-दुख के साथ कोई भावनात्मक लगाव न हो, तो आप न लिखने के कारण पर बहसें भले ही करते रहें, पर जब लिखने की बारी आती है, तो आईना आपको बता देता है कि आप कहाँ खड़े हैं । खुद रामदरश जी की यह ग़ज़ल भी ऐसे लोगों को आईना दिखाने का काम करती है—

चाहता हूँ कुछ लिखूँ, पर कुछ निकलता ही नहीं है, / दोस्त, भीतर आपके कोई विकलता ही नहीं है! / तब लिखेंगे आप जब भीतर कहीं जीवन बजेगा, / दूसरों के सुख-दुखों से आपका होना सजेगा । / टूट जाते एक साबुत रोशनी की खोज में जो, जानते हैं जिंदगी केवल सफलता ही नहीं है!...

बगैर कठोर शब्दों का इस्तेमाल किए, इतनी सीधी और खरी बात कैसे कही जा सकती है, यह हमें रामददरश जी से सीखना चाहिए ।

रामदरश जी मेरे गुरु हैं । उन्होंने कभी पढ़ाया नहीं, पर मेरे वे ऐसे गुरु हैं, जिन्होंने मेरे अंतःकरण को प्रकाशित किया है, और मैं अपने समूचे व्यक्तित्व पर उनकी अनुराग भरी छाया महसूस करता हूँ ।

आज इस अवस्था में भी, वे गुरु की तरह मेरे पथ को प्रकाशित करते, और जहाँ कहीं झाड़-झंखाड़ है, वहाँ भी रास्ता बनाते नजर आते हैं । कभी-कभी मैं सोचता हूँ, अगर संयोगवश दिल्ली आते ही रामदरश जी के बड़प्पन की स्नेह छाया को मैंने करीब से महसूस न किया होता, और उनके इतने निकट न आया होता, तो यकीनन मैं ऐसा न होता, जैसा आज हूँ । मुझे बनाने में जिन्होंने अपना बहुत कुछ खर्च किया, उनमें रामदरश जी भी हैं । अपने स्नेह से माँज-माँजकर उन्होंने मुझे उजला किया है । तब शायद इतना न समझ सका होऊँ, पर आज मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि उनके निकट आने पर मेरी फालतू अहम् की बहुत सारी केंचुलें छूटती गई हैं, और मैंने महसूस किया है, कि भीतर-बाहर से सरल होने का सुख क्या होता है । इसके आगे दुनिया के सारे सुख और बड़ी से बड़ी सफलताएँ भी पोच हैं । 

रामदरश जी को मेरे सरीखे कुछ अटपट-लटपट से शिष्य को पाकर कितनी खुशी हुई या नहीं, कह नहीं सकता । क्योंकि मैं तो हर जगह खुद को नाकामयाब और मिसफिट ही पाता हूँ । कामयाबी की कोई खास चाह भी मुझे नहीं है और न उसके लिए कोई बड़ी इज्ज़त मेरे मन में है । पर मुझे इस बात का गर्व और गौरव जरूर महसूस होता है कि हाँ, मैं रामदरश मिश्र का शिष्य हूँ, और यह बात मेरे भीतर अजब सी हिम्मत और हौसला भर देती है ।...सच कहूँ तो मैं रामदरश जी का शिष्य हूँ, यह अहसास होते ही, मेरी झुकी हुई पीठ तन जाती है और मैं महसूस करता हूँ, जिंदगी के इस कठिन दौर में भी मैं सीधी चाल, और निष्कंप कदमों से चलना सीख रहा हूँ । और यह सीख लूँ तो मेरी जिंदगी की शायद इससे बड़ी चरितार्थता भी कोई और न होगी ।

कबीर ने गुरु की उपमा कुम्हार से दी है । इससे सुंदर उपमा गुरु के लिए शायद कुछ और हो ही नहीं सकती । जैसे कुम्हार बाहर से कच्चे घड़े पर थाप लगाता है, लेकिन भीतर ही भीतर उसे सहारा भी देता है, वैसे ही गुरु भी शिष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करता है । जितना सुंदर उसका स्नेह है, वैसी ही उसकी सख्ती और कठोरता भी । मुझे याद है कि ‘कविता और कविता के बीच’ कविता-संग्रह पर हुई गोष्ठी में रामदरश जी ने मेरी कविताओं की बहुत कड़ी आलोचना की थी । इसी संग्रह में शामिल देवेंद्र जी की कविताएँ उन्हें अच्छी लगी थीं, पर मेरी कविताएँ उन्हें पसंद नहीं आई थीं । उनकी अतिरिक्त तुर्शी और ज्यादा लाउड होना उन्हें खल रहा था । पर मेरा संग्रह ‘छूटता हुआ घर’ आया तो उस पर रामदरश जी की एक बहुत प्यारी सी चिट्ठी मुझे मिली थी, जिसमें उन्होंने मेरी कविताओं की तारीफ करते हुए, इस बात की खुशी प्रकट की थी कि मैंने अपनी कविता की धारा को सार्थक मोड़ दिया है । इस कारण ये कविताएँ अपने गहरे संवेदन से पाठक के हृदय को छू लेती हैं ।

बाद में ‘छूटता हुआ घर’ संग्रह पर ही मुझे प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार मिला । इसके निर्णायकों में जगदीश चतुर्वेदी और अजितकुमार के साथ रामदरश जी भी थे । और उन्होंने ही फोन पर मुझे इस पुरस्कार की सूचना भी दी थी ।

सच पूछिए तो रामदरश जी की कठोर आलोचना हो या सराहने वाला कोमल, मृदुल रूप, मेरे लिए तो ये दोनों ही आत्मीय हैं, मूल्यवान भी । मेरे मन में उन दोनों के लिए ही आदर का भाव है । आज सोचता हूँ कि ‘कविता और कविता के बीच’ संकलन पर हुई संगोष्ठी में बोलते हुए जब उन्होंने मेरी कविताओं की कठोर आलोचना की थी, तब मैं छिटककर उनसे दूर चला गया होता तो कितना कुछ खो देता । कितने ही दुर्लभ सुख-आनंद के पलों और आत्मिक उपलब्धियों से दूर ही रहता । पर मैं विनम्र होकर कुछ सीखने, और सच में कुछ पाने की चाह से रामदरश जी के निकट गया, तो उन्होंने मेरी झोली सुच्चे मोती और बेशकीमती मणियों से भर दी ।...

यह काम कोई और नहीं, एक सच्चा गुरु ही कर सकता है । तो फिर रामदरश जी जो हैं, जिस तरह मेरे और मुझ सरीखे बहुत सारे लेखकों के दिल में वे विराजते हैं, और कहीं न कहीं अंदर से हमें भरते रहते हैं, उसे मैं कैसे भूल सकता हूँ? क्योंकि उसे भूलने का मतलब तो जो कुछ उनसे सीखा, उस सबसे वंचित हो जाना ही होगा न! पर मैं तो यह सोच भी नहीं सकता ।

वैसे इस समय जब रामदरश जी अपनी उम्र के आखिरी चरण में हैं, और अब भी अपनी धुन में जी रहे हैं, लिख और पढ़ रहे हैं, मैं कई बार उन्हें टटोलने की कोशिश करता हूँ । उन्हें बहुत देर से वे चीजें मिलीं, जो बहुतों को शुरू-शुरू में और अनायास ही मिल गई थीं, तो क्या उन्हें साहित्य जगत से इस बात की शिकायत है? उनकी कृतियों का उचित मूल्यांकन भी नहीं हो सका, या बहुत देर से हुआ—क्या उनके मन में इस बात को लेकर कोई गिला-शिकवा है? विगत में नामी आलोचकों के साथ-साथ आंदोलन के रथ पर सवार तमाम फैशनेबल लोगों द्वारा भी उनकी उपेक्षा और अवमानना हुई । और कुछ ने तो चलताऊ जुमलों में लपेटकर, उन्हें फूँक में उड़ाने की कोशिश की । क्या इसका दर्द वे अब भी महसूस करते हैं?

पर मेरे लिए यह एक सुखद आश्चर्य की बात है कि रामदरश जी इस सबसे बहुत ऊपर उठ चुके हैं । हाँ, जो उनके निकट हैं, उनमें कोई कितना ही मामूली आदमी क्यों न हो, उसके प्रति एक भावनात्मक लगाव उन्हें हर वक्त तरंगित करता है । इस मैत्री और अपनत्व के सुख को वे अंदर तक महसूस करते हैं । और यहाँ तक कि अपने निकटस्थ मित्रों और आत्मीय जनों के लिए वे कृतज्ञता से भरे हुए जान पड़ते हैं । उनकी एक प्रगीतात्मक कविता उनकी इस भावस्थिति को बड़ी सुंदरता से अभिव्यक्त करती है । जरा आप भी पढ़ें इस कविता की ये पंक्तियाँ—

आभारी हूँ बहुत दोस्तो, मुझे तुम्हारा प्यार मिला,

सुख में, दुख में, हार-जीत में एक नहीं सौ बार मिला!

सावन गरजा, भादों बरसा, घिर-घिर आई अँधियारी,

कीचड़-काँदों से लथपथ हो, बोझ हुई घड़ियाँ सारी ।

तुम आए तो लगा कि कोई कातिक का त्योहार मिला!

इतना लंबा सफर रहा, थे मोड़ भयानक राहों में,

ठोकर लगी, लड़खड़ाया, फिर गिरा तुम्हारी बाँहों में,

तुम थे तो मेरे पाँवों को छिन-छिनकर आधार मिला!

आया नहीं फरिश्ता कोई, मुझको कभी दुआ देने,

मैंने भी कब चाहा, दूँ इनको अपनी नौका खेने,

बहे हवा-से तुम, साँसों को सुंदर बंदनवार मिला!

हर पल लगता रहा कि तुम हो पास कहीं दाएँ-बाएँ,

तुम हो साथ सदा तो आवारा सुख-दुख आए-जाए,

मृत्यु-गंध से भरे समय में जीवन का स्वीकार मिला!

ये ऐसी पंक्तियाँ हैं, जिनमें हृदय की संवेदना छल-छल कर रही है । इसलिए इन्हें पढ़ते हुए कभी आँखें भीगती हैं तो कभी अनायास अपने समय के इस बड़े कवि के लिए आदर से भरकर, दोनों हाथ जुड़ जाते हैं, और मैं थोड़ी देर के लिए एकदम चुप और निःशब्द खड़ा रह जाता हूँ ।...

हम सबके अपने और ऐसे प्यारे रामदरश जी ने निश्चय ही दिल्ली में एक लंबा और समृद्ध जीवन जिया है और गाँव के आदमी के ठाट और स्वाभिमान के साथ दिल्ली को जिया है । लिहाजा उनके पास अनुभवों की कोई कमी नहीं है । इस पकी हुई उम्र में भी, वे जिस विधा को हाथ लगाते हैं, उसमें कुछ न कुछ नयापन ले आते हैं ।

कोई भी बड़ी और समर्थ प्रतिभा अपने स्पर्श से चीजों को नया कर देती है । रामदरश जी के बारे में भी यह काफी हद तक सही है । वे जीवन के कवि-कथाकार हैं, इसलिए चुके नहीं हैं । जीवन के कवि और कथाकार कभी चुकते 

नहीं । चुकते तो वे फैशनपरस्त कलावादी हैं, जिनका शिल्प कुछ आगे जाकर दिशाभ्रम का शिकार हो, भौचक्का और भोथरा हो जाता है ।

बड़ी ही गहरी संवेदना से थरथराती रामदरश जी की एक कविता अकसर मुझे याद आती है, ‘छोड़ जाऊँगा’ । इसे पढ़ें तो पता चलता है कि रामदरश जी जीवन की इस अवस्था में करीब-करीब जीवन-मुक्ति की सी अवस्था में पहुँच गए हैं । इसीलिए भीतर की सारी उथल-पुथल से मुक्ति पाकर, अब वे बड़ी निस्पृहता के साथ कह सकते हैं कि—

कुछ कविता, कुछ कहानियाँ, कुछ विचार / जिनमें होंगे / कुछ प्यार के फूल / कुछ तुम्हारे उसके दर्द की कथाएँ / कुछ समय–चिंताएँ / मेरे जाने के बाद ये मेरे नहीं होंगे / मै कहाँ जाऊँगा, किधर जाऊँगा / लौटकर आऊँगा कि नहीं / कुछ पता नहीं... / तुम नम्र होकर इनके पास जाओगे / इनसे बोलोगे, बतियाओगे / तो तुम्हें लगेगा, ये सब तुम्हारे ही हैं / तुम्ही में धीरे-धीरे उतर रहे हैं / और तुम्हारे अनजाने ही तुम्हें / भीतर से भर रहे हैं । / मेरा क्या…. / भर्त्सना हो या जय-जयकार, / कोई मुझ तक नहीं पहुँचेगी...

हालाँकि जो सहृदय पाठक केवल शब्दों को ही कविता नहीं मानते, बल्कि शब्द और शब्द तथा पंक्ति और पंक्ति के बीच के खाली स्थान को भी पढ़ना जानते हैं, उनके लिए यह बात अबूझ न होगी कि रामदरश जी की इस निस्पृहता के भीतर बहुत गहरी रागात्मकता की एक नदी बह रही है । वे कितना भी चाहें, उससे मुक्त हो ही नहीं सकते ।

रामदरश जी ने पूरी शिद्दत से इस दुनिया को चाहा है, जी भरकर प्यार किया है, और शायद सपने में भी इससे परे जाने की बात नहीं सोच सकते । वे तो इस दुनिया के हैं, इसकी धूल. मिट्टी, खेत, नदी, रेत और कछारों से जुड़े हैं, इसलिए हमेशा-हमेशा इस दुनिया में ही रहेंगे । जिस कवि-कथाकार ने अपने अस्तित्व का कण-कण, रेशा-रेशा इस दुनिया को दे दिया हो, वह भला शतायु होने के दुर्लभ सुख-आनंद के पलों में अपनों से दूर जा भी कहाँ सकता है? तो रामदरश जी हमेशा से इस दुनिया के थे और इस दुनिया के ही रहेंगे । यही उनकी कविता और सर्जना की चरम सार्थकता भी होगी ।

हाँ, हम सब भी, जो रामदरश जी को इस कदर सक्रिय और कर्मलीन रहते हुए, धीरे-धीरे शतायु होने के करीब जाते देख रहे हैं, कम सौभाग्यशाली नहीं हैं । यह हमारे लिए गौरव ही है कि हमने अपने समय के एक बड़े कवि-कथाकार को धीरे-धीरे किसी फूल की तरह खिलते-खुलते और चारों ओर अपनी गंध बिखराते देखा है । और मैं तो अपने आप को इसलिए भी बहुत सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मैंने उन्हें बहुत निकट से देखा है, उनसे खुलकर बातें की हैं । उनसे बहुत कुछ सीखा और पाया भी है । एक बड़े कद के संवेदनापूरित गुरु की तरह वे मेरे भीतर भी हैं, बाहर भी । यह सुख क्या मैं कभी शब्दों में बाँध सकूँगा?

ईश्वर ने चाहा तो रामदरश जी इसी तरह बरसोंबरस तक हमारे बीच रहेंगे, और हम सबके प्रेरणा संबल बने रहेंगे । फिलहाल तो आप और हम यही कामना कर सकते हैं कि वे स्वस्थ रहें, सक्रिय रहें, और निरंतर लिखते रहें । उन्हें देखकर लगता है, हिंदी साहित्य में प्रेम और अपनत्व की धारा मानो साकार हो उठी हो!







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