अभिनव इमरोज़ सितंबर 2023


गीत





श्री सूर्य प्रकाश मिश्र, वाराणसी, मो. 09839888743    

गुमसुम चाँद

गुमसुम सा गलने लगा चाँद 

ना जाने किसकी नजर लगी 

अब रहने लगी चाँदनी भी 

कुछ कुछ उदास खोई-खोई 


कितना समझाया लोगों ने 

लगवा लो काजल का टीका 

लेकिन बातों का ना सुनना 

जंजाल बन गया है जी का 


है अच्छा भला देखने में 

पर रौनक सारी उतर गई 


कोई कहता संजोग इसे 

कोई कहता है प्रेम रोग 

कोई कहता दीवाने को 

है सता रहा कोई वियोग 


जितने मुँह हैं उतनी बातें 

जाने इनमें है कौन सही 


ऐ हवा जरा कहना उनसे 

बे-वजह बात बढ़ जायेगी 

इस चाँद की तरह उनको भी 

कोई भी नजर लग जायेगी 


परदा कर लें मत रहा करें 

नन्हें से तिल के भरोसे ही


दुल्हन रात 


आ रही रात धीरे-धीरे 

घूँघट में हँसता चाँद लिये 


अपलक निहारता नील गगन 

नाजुक सी शर्मीली दुल्हन 

मिल गई नजर शबनमी हुआ 

इस दुल्हन का कोरा यौवन 


ये नूर नजारों ने देखा 

मदहोश हो गये बिना पिये 


जो थे उदास रूठे-रूठे 

सूरज से जिनके दिल टूटे 

खुश हैं गुलमोहर अमलतास 

खुश लगते इमली के बूटे 


इस नई नवेली दुल्हन के 

स्वागत में सारे बिछे हुए 


जब से पूनम का चाँद दिखा 

खिलखिला उठी मखमली हवा 

जलवों से ऐसी दुल्हन के 

सारा मौसम ही बहक गया 


आँखों में मस्त सितारों की 

झिलमिला उठे अनगिनत दिये 


उड़ जाओ कागा 


उड़ जाओ कागा और कहीं 


ये विरहन का घर है पगले 

देखो अब दूजा ठौर कहीं 


इस घर में सूरज ना निकले 

बस यादों के ही दीप जले 

छिप कर बैठी है भोर कहीं 


खोयी बेरी सोई तुलसी 

मैना जिद करना भूल गई 

आँगन भी करता शोर नहीं 


ना जाने वो अब कैसे हैं 

हम याद सहेजे बैठे हैं 

सूखी आँखों की कोर नहीं 


साँसों ने दिल की लौ भेजी 

घर लौट चलो अब परदेशी 

इस दिल पर चलता जोर नहीं


पन्ने

मिल गये थोड़े पन्ने लिखे आपके 


उंगलियों ने छुई जब इबारत कोई 

यूँ लगा जैसे धड़कन ठहर सी गई 

मिल गये आप ख्वाबों में खोये हुए 

जुड़ गई खो चुकी कोई नाजुक कड़ी 


हर वही बात फिर याद आने लगी 

जिसको बैठे थे दिल से भुलाये हुए 


याद आया अमरबेल का झूलना 

बाग में खुरदुरे काँस का फूलना 

वो महक धान के पक गये खेत की 

उड़ते बगुलों का उड़ने की रौ भूलना 


ऐसे ही अनगिनत खूबसूरत से पल 

मिल गये अक्षरों में समाये हुए 


कुछ शिकायत मेरे दूर जाने की भी 

जिन्दगी बिन जिये छोड़ जाने की भी 

ना समझने की जिद आँसुओं की कसक 

दिल से वादा किया तोड़ जाने की भी 


फैलती रोशनाई में घुलने लगे 

चन्द लमहे बहुत याद आये हुए


शरणागत 


गिर रहे ओले पुरानी झोपड़ी है 

युद्ध में अस्तित्व के तन कर खड़ी है 


आँख दिखलाता है पागलपन हवा का 

दे रही है बादलों की फौज धमकी 

मगर शरणागत की रक्षा है जरूरी 

चल रही है साधना शाश्वत नियम की 


नीम ,पीपल चोट से घायल पड़े हैं 

ये परीक्षा हो चली ज्यादा कड़ी है 


आपदा से खुल के दो-दो हाथ करना 

आज का ये दिन बड़ा आनन्दमय है 

झोपड़ी का टूट कर तिल-तिल बिखरना 

कह रहे हैं लोग गौरव का विषय है 


गल गया चूल्हा सहारा ढह गया है 

लग रहा साम्राज्य की अन्तिम घड़ी है 


क्या हुआ यदि पेट खाली है किसी का 

आदती हैं सह ही लेंगे हर तबाही 

हाथ पकड़े दूसरे का और कस के 

लड़ रहे हैं युद्ध में सारे सिपाही 


खासियत इस फौज की सब जानते हैं 

ये कभी भागी नहीं जम कर लड़ी है 


दिल से लिखे गीत 


हमने कुछ गीत लिखे हैं दिल से 

मन अगर हो उदास पढ़ लेना 


बेरुखी लिख दी है हवाओं की 

उड़ते पत्तों का ज्वार लिख डाला 

माँग कर आसमान से स्याही 

खेत का इन्तजार लिख डाला 


ढो रहे दर्द बीज का अब भी 

चन्द अक्षर हताश पढ़ लेना 


हसरतों में नहा के आई थी 

आज रंग का पता नहीं चलता 

इतने टुकड़ों में ढल गई साड़ी 

इससे ज्यादा कोई नहीं ढलता 


खत्म होते अनाज के दाने 

फिर भी जीने की आस पढ़ लेना 


नींद आती नहीं कभी उसको 

जिसके घर में जवान बेटी है 

एक धोती बिना लंगोटी की 

सिर्फ कंकाल पर लपेटी है 


रुक गईं इम्तिहान की घड़ियां 

चुक गई भूख प्यास पढ़ लेना


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संपादकीय

सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रकाशित ‘उत्तर प्रदेश ज़ब्त्शुदा साहित्य विशेषांक’ एक एतिहासिक शोधपरक दस्तावेज़ीय अंक है। जिसके लिए समग्र सम्पादक मंडल का सादर अभिनन्दन!! स्वतन्त्रता संघर्ष के इस अमृतोत्सव काल में ऐसे अंक के अतिथि सम्पादक श्लाघनहीय श्री विजय राय जी को ढेर सारी बधाई।

कृपया मुझे अनुमति देकर कृतार्थ करें कि मैं उपरोक्त अंक से कुछ अविस्मरणीय अंश प्रकाशित करके गौरवान्वित हो सकूँ, उस वक्त के जंगेआज़ादी की महफिलों में छलकते जुनूने जाम और सरफरोशी की तमन्ना से सराबोर दीवानों के जोश को अपने एहसासात में जी सकूँ। शहीद भगत सिंह के ख़त के कुछ अंश एवं भूमिका: ... भगतसिंह और उनके दोनों साथियों को फांसी लगने ही वाली है, यह सबकी राय थी। उसे किसी तरह कुछ दिन के लिए रोकना चाहिए, जिससे व्यापक रूप से उन्हें फांसी से बचाने का प्रयत्न हो सके, यह ‘लाहौर षड़यंत्र-केस-डिफेंसकमेटी’ के कानून-विशारदों की राय थी। इसका एक ही उपाय था कि  भगतसिंह और उनके साथी गवर्नर से दया की प्रार्थना करें, पर भगतसिंह कभी भी इसके लिए तैयार नहीं हो सकते, इसे सब जानते थे।

श्री प्राणनाथ मेहता, एडवोकेट की बात भगतसिंह मानते थे। वे 19 मार्च, 1931 को जेल में  भगतसिंह और उनके दोनों साथियों से मिले। घुमा-फिराकर उन्होंने उनसे ‘मर्सी-पिटीशन’ (दया-प्रार्थना) की बात कही ओर विश्वास दिलाया कि यदि आप लोग ‘हां’ कह दें, तो हम पिटीशन की भाषा ऐसी कर देंगे कि उससे आपका ज़रा भी सम्मान कम न हो। दूसरे दोनों साथी तो इससे नाराज हुए, पर भगतसिंह ने इसे मान लिया और कहा- अच्छी बात है, तुम तैयार कर लाओ मर्सी-पिटीशन।

श्री प्राणनाथ खुशी-खुशी लौटे और कई कानून-विशारदों के साथ रात भर मर्सी-पिटीशन का ड्राफ्ट बनाते रहे। दूसरे दिन 20 मार्च, 1933 को जब वे जेल गये तो भगतसिंह ने कहा- हमने तो भेज भी दिया गवर्नर पंजाब को अपना मर्सी-पिटीशन और उन्होंने निम्नलिखित पत्र उनके हाथ पर रख दिया।

‘फांसी नहीं, हमें गोली से उड़ाया जाए’

आदरणीय महोदय................

... जहाँ तक हमारे भाग्य का सम्बन्ध है, हम बलपूर्वक आपसे यह कहना चाहते कि आपने हमें फांसी पर लटकाने का निर्णय कर लिया है, आप ऐसा करेंगे ही। आपके हाथों में शक्ति है और आपको अधिकार भी प्राप्त है, परन्तु इस प्रकार आप ‘जिसकी लाठी उसी की भैंस’ वाला सिद्धांत ही अपना रहे हैं और उस पर कटिबद्ध हैं। हमारे अभियोग की सुनवाई इस वक्तव्य को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि हमने कभी कोई प्रार्थना नहीं करते। हम आपसे केवल यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही एक न्यायालय के निर्णय के अनुसार हमोर विरुद्ध युद्ध जारी रखने का अभियोग है।

इस स्थिति में हम युद्धबन्दी हैं और इसी आधार पर हम आपसे मांग करते हैं कि हमारे प्रति युद्धबन्दियों जैसा ही व्यवहार किया जाए-हमें फांसी देने के बादले गोली से उड़ा दिया जाए।

अब यह सिद्ध करना आपका काम है कि आपको उस निर्णय में विश्वास है, जो आपकी सरकार के एक न्यायालय ने दिया है। आप अपने कार्य द्वारा इस बात का प्रमाण दीजिए। हम विनयपूर्वक आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप अपने सेना विभाग को आदेश दें कि हमें गोली से उड़ाने के लिए एक सैनिक टोली भेज दी जाये।


—भवदीय, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव (वीरेन्द्र सिन्धु द्वारा सम्पादित ‘भगतसिंह: पत्र और दस्तावेज’ से साभार)

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आलेख


डॉ. जयदेव तनेजा, नई दिल्ली, मो. 09899547647


रंग- समीक्षा के पहलू

नाट्य-समीक्षा का अर्थ पुस्तकाकार प्रकाशित नाटक की समीक्षा भी है और किसी नाटक की प्रस्तुति-समीक्षा भी, जिसे सुविधा के लिए हम रंग-समीक्षा कहते हैं । पुस्तक रूप में छपने के बाद नाटक एक निश्चित और स्थायी चीज बन जाता है- जिसकी किसी भी देशकाल में कोई भी आलोचना- प्रत्यालोचना कर सकता है । इसके विपरीत किसी नाटक की प्रत्येक नयी और महत्त्वपूर्ण प्रस्तुति उसका एक नया पाठ और अर्थ प्रस्तुत करती है, जिसे प्रदर्शन के दौरान ही देखा-समझा जा सकता है । प्रस्तुति के साथ-साथ लिखे-घसीटे गये कुछ प्वाइण्ट्स अथवा अपनी स्मृति के आधार पर यथाशीघ्र आलोचक उसकी रंग-समीक्षा लिखता है । इन्हीं रिव्यूज और समीक्षाओं (या आजकल वीडियो-फिल्मों) के माध्यम से प्रस्तुति को किसी हद तक स्थायित्व प्रदान किया जा सकता है । लगभग तात्कालिक प्रतिक्रियाओं और प्रभावों के आधार पर लिखी गयी और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ये छोटी- बड़ी रंग-समीक्षाएँ ही कालान्तर में रंगमंच के इतिहास की दस्तावेजी सामग्री बन जाती हैं । आज भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और जयशंकर प्रसाद के दौर के हिन्दी रंगकर्म के इतिहास को जानने-समझने या उस पर कुछ लिखने के लिए 'ब्राह्मण' (1885), 'सम्मेलन पत्रिका' (1894), 'हिन्दी प्रदीप' (1903), 'माधुरी' (1928), 'आज' (1933), 'जागरण' (1933), 'हंस' (1936), और 'हिन्दुस्तानी' (1937) जैसी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उस समय की अच्छी-बुरी, छोटी-बड़ी रंग-समीक्षाओं, रपटों या प्रसंगवश आयी व्यक्तिगत प्रतिक्रियाओं के अलावा और कौन-सी विश्वसनीय एवं प्रामाणिक आधार सामग्री उपलब्ध है ?

स्पष्ट है कि छपे हुए नाटक की समीक्षा के मुकाबले तात्कालिक रंग-समीक्षा का लिखा जाना और छपना ज्यादा जरूरी, कठिन, महत्त्वपूर्ण और गम्भीर जिम्मेदारी का काम है । लेकिन वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है । सम्पादक और पाठक- दोनों की दृष्टि में यह सर्वथा फिजूल और निरर्थक काम है । अखबारों के लिए न तो इसकी कोई प्राथमिकता/ महत्ता है और न समीक्षकों के लिए प्रायः कोई विशेषज्ञता ही अपेक्षित है । मौजूदा स्थिति तो यह है कि जन-रुचि या बाजार की जरूरत / माँग के नाम पर लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं ने फिल्म, फैशन और टी.वी. के ग्लैमर के सामने साहित्य एवं कला के सभी गम्भीर रूपों से सम्बन्धित समाचारों-विचारों और समीक्षाओं-चर्चाओं को हाशिए से भी बाहर फेंक दिया है । अतः सांस्कृतिक दृष्टि से एक अत्यन्त भयावह और संकट का समय है । इस चुनौती का सामना रचनात्मक सोच, सहयोग और दृढ़ संकल्प शक्ति से ही किया जा सकता है । रंगकर्मियों और समीक्षकों के बीच का 'संवाद' और परस्पर एक-दूसरे को समझने-समझाने की इसमें एक बड़ी भूमिका हो सकती है । अन्यथा देखने में तो यह भी आता रहा है कि जहाँ किसी ने वस्तुनिष्ठा और पूर्वग्रह - मुक्त समीक्षा लिखी होती है वहाँ भी कोई नाटककार / रंगकर्मी उस समीक्षा को अपने ऊपर एक आक्षेप की तरह लेता है । अभी तो हालत यह है कि रंगकर्मी और रंगालोचक का रिश्ता उन पति-पत्नी जैसा है- जो न पूरी तरह साथ रह पाते हैं, न अलग हो पाते हैं । जब तक समीक्षक एक पतिव्रता एवं स्वामिभक्त पत्नी की तरह पति रूपी रंगकर्मी को परमेश्वर मानकर उसकी स्तुति करता रहे, चुपचाप हाँ में हाँ मिलाता रहे- तब तक वह उसकी दृष्टि में एक प्रबुद्ध, निष्पक्ष और आदर्श रंगालोचक बना रहता है - अन्यथा पल-भर में वह घोर अज्ञानी, दोगला और महामूर्ख बन जाता है  । प्रशंसात्मक समीक्षा तो सबको चाहिए- उसके लिए सम्बन्धों-सम्पर्कों का भरपूर इस्तेमाल भी किया जाता है-परन्तु सच्ची बात कहने वाला समीक्षक किसी को पसन्द नहीं । 'दर्पण' के संस्थापक और सुविख्यात रंगकर्मी स्वर्गीय प्रो. सत्यमूर्ति ने दिल्ली में हुई एक संगोष्ठी में नाट्य-समीक्षक को 'रंगमंच का दुश्मन' और 'रुचिका' के निर्देशक अरुण कुकरेजा ने 'बलात्कारी' कहा था । सुप्रसिद्ध अभिनेता- निर्देशक स्व. दीनानाथ का हमेशा यह आग्रह रहा कि 'समीक्षक को हमारा वकील बनना चाहिए, जज नहीं ।' किसी समय स्वयं नाट्यालोचक रह चुके राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के भूतपूर्व निदेशक रामगोपाल बजाज का मानना है कि 'समीक्षक एक प्रचारक मात्र है, उसे मूल्यांकनकर्ता नहीं बनना चाहिए ।' और बी. एम. शाह की मान्यता थी कि 'रंग-अधर्म का जैसा स्पष्ट रूप रंगालोचना में दृष्टिगोचर होता है वैसा अन्यत्र नहीं  ।' राजिन्दर नाथ और एम. के. रैना जैसे अनेक रंगकर्मी बार- बार कहते रहे हैं कि 'हमें समीक्षक की कोई जरूरत नहीं । इसका बहिष्कार किया जाना चाहिए ।' और सचमुच ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जब रंग- समीक्षक को प्रेक्षागृह में नहीं घुसने दिया गया । 'नटरंग' में छपी ब. व. कारन्त की एक समीक्षा के बाद वरिष्ठ नाट्य-निर्देशक-अभिनेता सत्यदेव दुबे ने सम्पादक को पत्र लिखकर यह निर्देश दिया था कि वह भविष्य में उनके बारे में कभी कुछ न छापें  । ऐसे बहुसंख्य उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं ।

परन्तु मूल प्रश्न यह है कि रचनाकार / रंगकर्मी और आलोचक के बीच इस शाश्वत विडम्बनापूर्ण सम्बन्ध का वास्तविक कारण क्या है ? सच यह है कि रचनाकार स्वयं अपने अनुभव, विवेक और अन्तःस्फूर्त प्रेरणा पर पूरी तरह निर्भर रह सकता है-रहता है, जबकि आलोचक को अपनी पसन्द-नापसन्द का तर्कसम्मत कारण बताना होता है-अपने समय सन्दर्भ में रचना की प्रासंगिकता एवं सार्थकता का विवेचन करके उसका सम्यक् मूल्यांकन भी करना होता है । विडम्बना यह है कि समय के साथ-साथ मूल्य तथा मापदण्ड हमेशा बदलते रहते हैं और कला एवं साहित्य में इस बदलाव की अभिव्यक्ति रचना के माध्यम से ही होती है  । बड़ी रचना प्रायः अपने समय से अनिवार्यतः जुड़ी होने के बावजूद उसका अतिक्रमण करने के कारण भविष्योन्मुखी होती है । इसके विपरीत, समीक्षक के पास अतीत-सम्मत वर्तमान की ही कसौटी होती है । वह प्रचलित सिद्धान्तों, मूल्यों, विचारधाराओं और नियमों से पूरी तरह बँधा रहता है । रचनाकार और आलोचक के बीच का यह बुनियादी अन्तर्विरोध ही उनमें पारस्परिक संघर्ष पैदा करता है  । सन् 1969-70 की आलोचना में 'आधे अधूरे' के अनुभव-सत्य का अस्वीकार और आज पैंतीस वर्ष बाद उसका व्यापक स्वीकार इसका प्रमाण है ।

रंगकर्म का धर्म अपने समय और समाज की आलोचना करना ही है, आलोचक भी यही करता है । रंगकर्मी अपने नाट्यकर्म में आलोचना करता है और आलोचक इस नाट्यकर्म के माध्यम से की गयी आलोचना की आलोचना करता है । परेशानी तब पैदा होती है जब रंगकर्मी आलोचक के इस मौलिक अधिकार को अस्वीकार करने लगता है । उदाहरण के लिए, पंजाबी-हिन्दी और उर्दू के गम्भीर एवं प्रख्यात नाटककार डॉ. सी. डी. सिद्धू अपने नाटक 'प्रेम पिकासो' में अपने समकालीन एक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित लेखक की पूर्वाग्रहयुक्त नितान्त व्यक्तिगत आलोचना तो नाम लेकर सरेआम करते हैं, परन्तु अपने आलोचकों को भूंड (बर्र) कहते हैं - जिनसे बचना चाहिए या जिनकी परवाह नहीं करनी चाहिए । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी समीक्षक को 'क्रिटिक कीट' कहा था और तब से लेकर अब तक शायद ही कोई नाटककार और निर्देशक होगा जिसने कभी-न-कभी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से आलोचक की खिल्ली न उड़ायी हो । नाट्यालोचकों के खिलाफ सम्पादक के नाम पत्र, व्यक्तिगत धमकी भरे पत्र, गाली-गलौज और कभी-कभी तो हाथापाई तक की नौबत आ जाना कोई चौंकाने वाली बात नहीं है । प्रसंगवश मैं यहाँ एक व्यक्तिगत अनुभव का उल्लेख करना चाहूँगा  । हिन्दी के एक बहुपुरस्कृत, वरिष्ठ और प्रतिष्ठित नाटककार हैं । उनके नाटकों को लेकर सबसे पहले एक बड़ा और शायद महत्त्वपूर्ण लेख मैंने ही लिखा था, जो 'नटरंग' में छपा था । उससे प्रभावित होकर इन नाटककार महोदय ने अपने एक बहुचर्चित नाटक के तमिल अनुवाद के लिए आग्रहपूर्वक मुझसे उसकी भूमिका भी लिखवाई थी । बहुत समय तक वह मेरे 'अच्छे मित्र' बने रहे । परन्तु सन् 1987 में जब उनके दो नाट्य-प्रदर्शन हुए तो उनकी समीक्षाएँ मैंने इण्डिया टुडे और 'जनसत्ता' (जिसका उन दिनों मैं नियमित रंग-समीक्षक और स्तम्भकार था) में 

लिखीं । कुछ समय बाद अचानक उन नाटककार महोदय का एक पत्र मुझे मिला । उसमें मेरी समीक्षाओं को 'थोथी और अधकचरी' कहा गया था । मुझे आश्चर्य तो अवश्य हुआ लेकिन आज भी मैं उनकी प्रतिक्रिया को गलत या अनुचित नहीं मानता - क्योंकि किसी भी आलोचना पर प्रतिक्रिया करना अथवा उसे व्यक्त करना रचनाकार का अधिकार है । उन्होंने मुझे भविष्य में उनके नाटकों की कभी समीक्षा न करने की हिदायत भी दी और कानून की दो-एक धाराओं का उल्लेख करते हुए मानहानि का दावा करने की धमकी भी  । बेवजह होने के बावजूद, किसी हद तक, शायद उनकी इस बौखलाहट और नाराजगी को समझा जा सकता है । परिस्थितिवश उन्हें तब तक अपने बारे में सिर्फ प्रशंसा सुनने की आदत पड़ चुकी थी और मुझे आलोचक के बजाय केवल मित्र मानने की गलतफहमी का शिकार थे । हद तो तब जब उन्होंने मुझे यह शिक्षा भी दी कि, आलोचक को सिर्फ सौन्दर्यबोधीय मूल्यांकन का (ही) अधिकार होता है । मुझे लगता है कि इस प्रकार की बात अपने समय और समाज से पूरी तरह कटे किसी रीतिकालीन सोच एवं मानसिकता वाले व्यक्ति की ही हो सकती है-किसी जागरूक और स्वस्थ मनुष्य / रचनाकार की नहीं । कम-से-कम अपनी दृष्टि और कसौटी तय करने का अधिकार तो समीक्षक को होना ही चाहिए । सत्य और शिव जैसे व्यापक और आवश्यक मूल्यों के बिना केवल सुन्दर को ही एकमात्र कसौटी मान लेना मूल्यांकन को बहुत संकीर्ण, अधूरा और अप्रासंगिक बना देगा । सौन्दर्यवादी और कलावादी कहे जाने वाले इब्राहिम अलकाज़ी जैसे निर्देशक तक ये मानते हैं कि रंगकर्म, 'जीवन और मृत्यु का अर्थ खोजने, समाज में मनुष्य की भूमिका पहचानने और व्यक्ति के अन्तरंग मानस संसार की थाह लेने का सामूहिक प्रयत्न है । इसलिए हमारी खोज तीन दिशा में होती है - एक आध्यात्मिक रहस्य की, एक सामाजिक सौमनस्य की और एक वैयक्तिक अस्मिता और अर्थ की ।' इसलिए किसी रंग-सृष्टि की समीक्षा और उसका मूल्यांकन करते समय आलोचक को भी मनुष्य की आत्मा, उसके तन-मन के विविध धरातलों एवं सरोकारों को अपने दृष्टि-पथ में रखना आवश्यक है ।

प्रसंगवश नाट्यालोचक के रूप में कुछ बिल्कुल भिन्न प्रकार के अनुभवों की याद भी यहाँ करना चाहूँगा । दिनेश ठाकुर, स्वदेश दीपक, रंजीत कपूर, सतीश आनन्द, मिथिलेश्वर, धर्मपाल 'अकेला' इत्यादि से मेरा पहला परिचय इनकी रचनाओं की समीक्षा के कारण ही हुआ और आज ये मेरे मित्र हैं । इस सन्दर्भ में एक उदाहरण देना चाहूँगा । हिन्दी में आलोचना के प्रति ऐसा सकारात्मक दृष्टिकोण बहुत कम देखने को मिलता है । मैं डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय से बिल्कुल अपरिचित था । संयोग से उनके पहले नाटक 'इला' की समीक्षा मैंने 'सारिका' में की । कुछ ही दिनों बाद भोपाल से लिखा उनका 16.4.90 का एक पत्र मुझे मिला । उन्होंने लिखा था :

"समीक्षा ने मुझे बहुत तृप्त किया है । एक सिद्ध आलोचक ही ऐसी दृष्टि सम्पन्न समीक्षा लिख सकता है । अब मैं थोड़ा दुखी हूँ कि बहुत से मित्रों से प्रकाशन - पूर्व चर्चाएँ हुईं, क्यों न आपके साथ हो सकी-यदि तब हो जाती तो वास्तव में यह नाटक निखर जाता । आपने जिन दृश्यों को कम करने के बारे में लिखा है, उन्हें मैंने नाटक में देखा, मुझे लगा कि बात सही है । केवल 1/7 ( इला को श्रद्धा का सम्बोधन) मुझे अब भी बहुत मोहित करता है । अगले संस्करण में ये सारे हिस्से या तो जोड़ दूँगा, या हटा दूँगा  । तब हम लोग साथ बैठेंगे और खामियाँ दूर करने की कोशिश में मैं आपकी मदद लेना 

चाहूँगा  ।... कुछ बातें मित्रों ने बतायीं भी, कुछ मुझे भी असमंजस में डाले रहीं, पर किसी ने इस तरह साफ-साफ उँगली रखकर नहीं बताया कि क्या करना चाहिए? आपने थीम को जिस व्यापक प्रयोजन में जिस तरह लिया है उससे ऐसा लगा कि मानो कोई आईना दिखा रहा हो - अपनी ही शक्ल  । उसमें भी प्रार्थना / आज्ञा या ऋषि/बुद्धिजीवी जैसी संक्षिप्त मार्मिकता में आपने बातें कही हैं उसने मुझे एक पाठक के आस्वाद का सुख भी दिया । इतने संक्षेप में इतना विस्तार समेटा है आपने कि आनन्द आ गया । इस आलोचना ने मुझे दृष्टि दी । आपने दोषों पर बहुत सही जगह, पूरी संवेदना के साथ टिप्पणी की । सब कुछ बहुत सही, सटीक और मार्मिक ।"

इस पत्र को यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य आत्म-प्रशंसा कतई नहीं है - वास्तव में यह तो नाटककार का ही बड़प्पन
है । महत्त्वपूर्ण है आलोचना के प्रति नाटककार का रचनात्मक दृष्टिकोण और आलोचक-रचनाकार के बीच एक स्वस्थ एवं सार्थक संवाद की इच्छा । और इससे भी बड़ी बात यह है कि यह 'इच्छा' ही नहीं है- एक सच्चा और ईमानदार इरादा है । इसका प्रमाण यह है कि 'इला' के नये संस्करण में, इस आलोचना के प्रकाश में, नाटककार ने आलेख पर न केवल पुनर्विचार ही किया, बल्कि सचमुच उसका उचित सम्पादन एवं संशोधन भी किया । निश्चय ही इसका लाभ नाटक को मिला है । यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि लेखक हमेशा आलोचना को स्वीकार ही करे । आवश्यक यह है कि दोनों के बीच सार्थक सम्बन्ध और संवाद हो  ।

स्पष्ट है कि रंग- समीक्षक का उत्तरदायित्व बहुत बड़ा और ऐतिहासिक महत्त्व का है और रंगकर्मियों द्वारा उससे की जाने वाली अपेक्षाएँ उससे भी बड़ी हैं । हमें समझना होगा कि आलोचक न केवल प्रशंसक होता है, न केवल निन्दक  । वह दर्शकों और रंगकर्मियों के बीच दोनों पक्षों का वकील भी है और जज भी  । परन्तु भरसक तटस्थ और पूर्वाग्रहरहित होने की ईमानदार कोशिश के बावजूद कोई भी समीक्षा - विशेषतः रंग-समीक्षा-मूलतः व्यक्तिनिष्ठ ही होती है । आलोचक के संस्कार, परिवेश और परिस्थितियाँ, शिक्षा-दीक्षा, अध्ययन-मनन, परिवार, समय और समाज, अनुभवजन्य रुचियाँ- अरुचियाँ मिलकर उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करती और बनाती हैं । इसी कण्डीशण्ड व्यक्तित्व पर प्रस्तुति की प्रतिक्रिया होती है और इस प्रतिक्रिया की विवेक एवं तर्कसंगत अभिव्यक्ति ही रंग-समीक्षा होती है  । नाटककार की शाब्दिक रचना को निर्देशक-अभिनेता-पार्श्वकर्मी अपने रचनात्मक सहयोग से मंच पर दृश्यात्मक रूप में पुनः सृजित करते हैं और इस पुनःसृजित दृश्य-श्रव्य रंग-सृष्टि को समीक्षक पुनः शाब्दिक अभिव्यक्ति देता है । इसलिए रंग- समीक्षा एक संवेदनशील, जटिल और कठिन रचना-प्रक्रिया का परिणाम होती है  । यह समीक्षक द्वारा अनुभूत नाट्यानुभव के विश्लेषण-विवेचन और मूल्यगत आकलन की अभिव्यक्ति है ।

हम जानते हैं कि नाट्यालेखन को अकेले पढ़ने से उत्पन्न अनुभव नाट्य- प्रदर्शन को दर्शक-समूह के साथ देखने के अनुभव से भिन्न होता है । यह भिन्नता प्रेक्षागृह के अँधेरे, दर्शक और अभिनेता के बीच की दूरी और समूह के बीच भी प्रेक्षक के अकेले होने के कारण पैदा होती है । हम यह भी जानते हैं कि निर्देशकीय पाठ के कारण प्रत्येक प्रस्तुति दूसरी से भिन्न अर्थ एवं प्रभाव उत्पन्न करती है और जीवन्त अभिनेता की उपस्थिति के कारण एक ही प्रस्तुति के भिन्न प्रदर्शनों का नाट्यानुभव भी तात्कालिक प्रभावों के कारण, कमोबेश बदलता रहता है । परन्तु एक और व्यावहारिक और बुनियादी कारण है जो प्रत्येक दर्शक के नाट्यानुभव को सूक्ष्म स्तर पर प्रभावित करता है और जिसकी ओर अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया गया है । आलोचक या दर्शक की व्यक्तिगत दृष्टि और मानसिकता की चर्चा हम पहले कर चुके हैं । वास्तव में दृष्टि के साथ-साथ वह कोण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जिससे दर्शक नाटक देखता है । यह कोण इस बात पर निर्भर करता है कि दर्शक प्रेक्षागृह में कौन-सी पंक्ति में कौन-सी सीट पर बैठकर नाटक देखता है ? हम अपने अनुभव से जानते हैं कि, माइक के बिना, पहली और अन्तिम पंक्ति तक अभिनेता की आवाज समान रूप से नहीं पहुँचती  । परन्तु हमने इस बात पर कभी गम्भीरता से गौर नहीं किया कि प्रेक्षागृह की किसी भी पंक्ति में दायें-बायें के कोनों की सीटों पर बैठे दर्शकों को मंच पर प्रस्तुत दृश्य के दो अलग-अलग अंश या रूप दिखाई देते हैं । बालकनी में बैठकर नाटक देखने वाले को अभिनेता और दृश्य-बन्ध का एक भिन्न रूप ही दीख पड़ता है । फिल्म या टी. वी. के साथ ऐसा बिल्कुल नहीं होता । मंच पर प्रदर्शित दृश्य को प्रत्येक दर्शक अपनी-अपनी आँखों से देखता है जबकि एकायामी स्क्रीन पर प्रदर्शित दृश्य हम सब कैमरे की एक ही आँख से देखते हैं । इसलिए उसे हम चाहे जिस जगह और कोण से देखें वह शत-प्रतिशत एक-सा ही दिखाई देगा । परन्तु अपनी प्रत्यक्ष त्रिआयामिता के कारण रंगमंच पर ऐसा नहीं होता । पात्रों की गतिशीलता के कारण प्रायः हम इस सत्य को महसूस नहीं करते और दृश्य के अदेखे या अदीखे अंश को अपनी कल्पना पूरा करके सन्तुष्ट हो जाते हैं । एक चित्रकार की नजर से देखें तो इस अन्तर को आसानी से समझा जा सकता है । हाल ही में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के 'बहुमुख' में तृतीय वर्ष के छात्रों द्वारा अनुराधा कपूर के निर्देशन में प्रस्तुत 'पता : शहर मुम्बई' देखते हुए लगा जैसे नाट्यानुभव की यह सीमा किसी मैग्नीफाइंग ग्लास से बहुत बड़ी और प्रत्यक्ष होकर दीख रही हो । दृश्य-बन्ध एक बॉक्सिंग रिंग की तरह था । तीनों ओर रिंग के बाहर उससे सटाकर तीन अभिनय स्थल और बनाये गये थे । हमेशा की तरह 'बहुमुख' में मंच के सामने और दायीं बायीं ओर दर्शकों के बैठने की व्यवस्था थी । 19 मई को शाम 6.30 के प्रदर्शन में संयोग से तीन नाट्य-समीक्षक भी मौजूद थे और तीनों को बैठने की अलग-अलग जगह मिली थी । कविता नागपाल सामने पहली पंक्ति में थीं और केवल अरोड़ा, राजिन्दर नाथ एवं सान्त्वना के साथ बायीं ओर की आखिरी पंक्ति के कोने में । रमेशचन्दर, मैं और बनवारी तनेजा दायीं ओर की प्रथम पंक्ति में थे  । 'गिद्ध' के प्रथम दृश्य से नाटक आरम्भ हुआ । दायीं ओर रिंग के बाहर दूर खड़े रजनीनाथ का लम्बा संवाद / एकालाप - डरी, घबरायी, सहमी-सी रिंग में उसके ठीक सामने मुँह किये चुपचाप खड़ी रमा  । रमा की तमाम भाव-भंगिमाएँ और अभिनय की बारीकियाँ हमारे सामने स्पष्ट दीख रही थीं, लेकिन गर्दन पीछे को मोड़ने के रजनीनाथ की एक झलक भी हम नहीं देख पाये । जाहिर है केवल अरोड़ा को बावजूद रजनीकान्त साफ दिखाई दिया होगा और रमा की सिर्फ पीठ ही दिख पायी होगी । रजनीकान्त और रमा के दृश्य के लिए बनाये गये मचाननुमा अभिनय-स्थल पर भी तीनों ओर के दर्शकों को उनके चेहरों के अलग-अलग हिस्से ही दिखाई दिये होंगे । उसी दिन सुबह 'जनसत्ता' में छपे संगम पाण्डेय के रिव्यू में पढ़ा था कि 'एक दृश्य, (जिसमें बेटे बाप का गला दबाने को तैयार हैं) में तो बाप बने इश्तियाक़ ने तो बहुत ही बढ़िया अभिव्यक्तियाँ दीं ।' मैं उस दृश्य को देखने के लिए उत्सुक था । वह दृश्य रिंग के सामने वाले हिस्से के बाहर हुआ और मैं बाप का चेहरा तक नहीं देख पाया क्योंकि उसका गला घोंटते बेटों के शरीरों ने उसे पूरी तरह एकदम ओट में ले रखा था -जबकि कविता नागपाल को यह प्रभावशाली दृश्य एकदम साफ दिखाई दिया होगा । कमोड पर बैठकर अखबार पढ़ने वाला अभिनेता मुझे बिल्कुल साफ दिखाई दे रहा था, जबकि मेरा विश्वास है कि केवल अरोड़ा को पूरी गर्दन मोड़कर भी वह दिखाई नहीं दिया होगा  । सम्पूर्ण प्रस्तुति का यही हाल था । कोई दृश्य रमेशचन्दर को पूरी तरह दिखाई दिया, कोई केवल अरोड़ा को और कोई कविता नागपाल को  । तीनों में से एक समीक्षक भी पूरे नाटक के दृश्य-रूप का सम्पूर्ण साक्षात्कार नहीं कर सका । जाहिर है ऐसी स्थिति में दृश्य और अभिनय के मुकाबले समीक्षा में कथा, संवाद और अन्य पक्ष ही प्रमुखता पा लेंगे और रंग- समीक्षा सन्तुलित एवं सर्वांगीण नहीं हो पाएगी । अलग-अलग समीक्षाओं में अलग-अलग गुण-दोष भी उभर सकते हैं । मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि विवेच्य प्रस्तुति के दोष प्रमुखतः एरीना थियेटर और एक विशेष प्रकार के दृश्य-बन्ध और एक खास निर्देशकीय दृष्टि के कारण पैदा हुए हैं और सामान्यतः ऐसा नहीं होता । इसके बावजूद मैं यह मानता हूँ कि चाहे वह कितना भी कम हो, लेकिन आलोचक/दर्शक के नाटक देखने के स्थान और कोण का प्रभाव उसके नाट्यानुभव पर किसी-न-किसी रूप में पड़ता ही है और इसकी उपेक्षा या अवहेलना नहीं की जा सकती । दिलचस्प बात यह है कि रंग-समीक्षा को किसी-न-किसी रूप एवं स्तर पर प्रभावित या निर्धारित करने वाले इस स्थूल कारक पर आलोचक का प्रायः कोई वश नहीं होता और समीक्षा व्यक्ति-सापेक्ष हो जाती है ।

यह लगभग सर्वमान्य सत्य है कि संसार की कोई भी कला या विधा ऐसी नहीं है जो रंग-कला की सृष्टि में अपना रचनात्मक सहयोग न देती हो  । शायद इसीलिए एक रंग- समीक्षक से सर्वज्ञ होने की अपेक्षा की जाती है । यह लगभग असम्भव शर्त है । नाट्यालोचक में साहित्य और विशेषतः नाटक की समझ, परम्परा, इतिहास, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान की आरम्भिक जानकारी और रंग- तकनीक के कामचलाऊ व्यावहारिक ज्ञान/अनुभव के साथ-साथ संवेदनशीलता और ग्रहणशीलता जैसी बुनियादी विशेषताएँ तो होनी ही चाहिए ।

आज विशेषज्ञता का युग है और कोई भी व्यक्ति प्रत्येक क्षेत्र में विशेषज्ञता नहीं पा सकता । स्कूली-कॉलेजी और चलताऊ शौकिया रंगमंच में निर्देशक (?) पीर, बावर्ची, भिश्ती बनकर किसी तरह कच्चा-पक्का काम कर लेता
है  । परन्तु कमर्शियल, प्रोफैशनल और अर्थपूर्ण गम्भीर शौकिया रंगमंच में ये कामचलाऊ व्यवस्था अधिक नहीं चलती । यहाँ विशिष्टता और विशेषज्ञता के बिना काम नहीं चलता । व्यवहारतः नाट्य प्रस्तुति का मूल नियामक और नियन्त्रक निर्देशक होता है  । प्रस्तुति से जुड़े सभी पक्षों और पहलुओं की गुणवत्ता एवं स्तरीयता की पूरी जिम्मेदारी उसी की होती है । हालाँकि वह स्वयं सर्वज्ञ नहीं होता । वह नाटककार, अभिनेता, संगीतज्ञ, गायक, तकनीशियन तथा दृश्य-बन्ध, छायालोक, वस्त्राभूषण  और रूप-विन्यास के विशेषज्ञ परिकल्पकों का रचनात्मक सहयोग लेता है । इन तमाम कलाकारों के सृजनात्मक गैस्टाल्ट के रूप में बनकर और अन्ततः निर्देशकीय प्रतिभा से अपना अन्तिम और सम्पूर्ण रूप पाने वाली किसी श्रेष्ठ रंग प्रस्तुति की सर्वांगपूर्ण और पूरी तरह ठीक समीक्षा क्या बड़े से बड़ा कोई भी नाट्यालोचक ईमानदारी से कर सकता है? इसी विसंगति से बचने के लिए संस्कृत के नाट्य शास्त्रकार ने विवाद की स्थिति में निर्णय देने के लिए एक नाट्यालोचक के बजाय प्रत्येक क्षेत्र से 'प्राश्निक' जैसे कला विशेष के अधिकारी विद्वान/समीक्षक की एक ही व्यवस्था की थी । आज भी कोई गम्भीर और जिम्मेदार सम्पादक चाहे तो नाट्य प्रस्तुति पर साहित्य, नाटक और रंग-शिल्प के विशेषज्ञ समीक्षकों से अलग- अलग दृष्टिकोण से तीन-चार समीक्षाएँ लिखवाकर उन्हें एक साथ छाप सकता है । कई देशों के कुछ सम्पादक ऐसा करते भी हैं । परन्तु हमारे आज के अर्थलाभ- लोलुप मीडिया स्वामी किसी भी हालत में ऐसा होने नहीं देंगे । 

हम जानते हैं कि कोई भी नाट्य-निर्देशक सर्वज्ञ नहीं होता । फिर भी, सम्बन्धित कलाओं-विधाओं के कामचलाऊ ज्ञान से वह प्रस्तुति का सूत्रधार बना रहता है । स्वयं चाहे सब कुछ करना वह न जानता हो लेकिन किससे क्या और कितना और कैसा काम लेना है, ये वह अच्छी तरह जानता है । प्रस्तुति के समग्र- प्रभाव को ध्यान में रखते हुए वह प्रत्येक अंग/अंश को काट-छाँट कर, जोड़- घटा कर सम्पादन करता है और प्रस्तुति को एक स्वस्थ सम्पूर्ण रूप देता है । कभी- कभी अपने आप में बेहद सुन्दर और निर्दोष नृत्य नाट्य-प्रस्तुति से अभिन्न न होने के कारण उसका सत्यानाश कर देता है और कभी जान-बूझकर लगाया गया संगीत का बेसुरा स्वर प्रस्तुति को सुर में ला देता है । इस सन्दर्भ में सत्यजित राय की फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' की निर्माण-प्रक्रिया के दौरान घटे एक रोचक प्रसंग का उल्लेख यहाँ करना अप्रासंगिक न होगा । फिल्म की पटकथा पर राय का सहयोग कर रही शमा ज़ैदी को उन्होंने वाजिद अली शाह की एक ठुमरी की प्रामाणिकता की जाँच के लिए सुप्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर के पास भेजा । सोच-विचार के बाद नागर जी ने शमा से कहा, "मैं बहती गोमती के बजरंगबली की पूँछ पकड़कर डुबकी लगाने को तैयार हूँ । यह ठुमरी वाजिद अली शाह की नहीं है, सत्यजित राय से जाकर कह दो ।" शमा जैदी के मना करने के बावजूद राय ने उसे अपनी फिल्म में रखा और शमा से कह दिया, "कोई बात नहीं, यह ठुमरी हमारी फिल्म को सूट करती है ।" नाट्यालोचक की सोच भी लगभग ऐसी ही होती है, होनी
चाहिए । उसका दायित्व यही है कि वह ठुमरी की प्रामाणिकता - अप्रामाणिकता जाँचने के बजाय यह देखें कि वह रचना के मूड और समग्र प्रभाव के लिए पूरी तरह सार्थक और असरदार है या नहीं ? 

रंगानुभूति को गहराई से समझना, विवेक से विश्लेषित करना और उस अनुभव के अधिकाधिक निकट रहते हुए उसे सटीक शब्दों में व्यक्त करना ही वास्तव में सही रंग-समीक्षा होती है ।

नाट्यालोचन एक कठिन किन्तु जरूरी रचनाकर्म है । नाट्यालोचक की हम चाहे जितनी भी निन्दा करें, उसका कितना भी विरोध और बहिष्कार करें परन्तु आधुनिक रंगान्दोलन में हम उसके योगदान से आँखें नहीं मूँद
सकते । विडम्बना तो यह है कि वर्तमान समीक्षक को तो आप किसी हद तक शायद नकार भी सकते हैं किन्तु रंग- कला और उसके इतिहास से रंग-समीक्षा की भूमिका को किसी भी तरह नकारा नहीं जा सकता ।         

—नई दिल्ली, मो. 09899547647

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स्व. वीरेन्द्र मेंहदीरत्ता



इतिहास के पन्नों से - संस्मरण


आज़ादी के साठ वर्ष

एक युवा शहर चण्डीगढ़

में रहते हुए

कुछ देखा कुछ सुना - 

जिस साल भगतसिंह को फांसी दी गई थी, उसी साला मेरा जन्म हुआ था । लगभग सत्रह साल तक देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करते हुए अपने आस-पास परिवार, स्कूल कॉलेज तथा शहर के लोगों को देखा था । सन् 1947 में लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में इंटर प्रथम वर्ष का विद्यार्थी था । जनवरी 1947 में अनारकली में आज़ादी पाने की जैसी छटपटाहट आम लोगों में देखी थी, वैसी जोश भरी बेचैनी पिछले साठ सालों में नहीं देखी । उन दिनों गले में डाली नैकटाई को गुलामी का फंदा माना जाता । शायद 26 जनवरी का ही दिन था जिस बुलन्दी से नारे लगाए जा रहे थे- ले के रहेंगे आजादी; अंग्रेजों भारत छोड़ो! और दुकानों की दहलीज पर खड़े होकर नैक्टाईयां जलाईं जा रही थीं । 

आज़ादी पाने की जो उमंग उस दिन देखी थी, उसे मैं भूल नहीं सकता । ...... और साठ साल बाद 15 अगस्त को सुबह सवा सात बजे टी.वी. लगाकर भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का भाषण सुनने के लिए जम कर अपनी कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ । कि लेखा-जोखा, क्या कुछ देश में हुआ- कितना कुछ करना बाकी है । मन ही मन डॉ. मनमोहन सिंह के लिए श्रद्धा का भाव है, इसलिए लगभग घंटे के भाषण को बड़ी तलीनता से सुना । इसे सुनना ही जैसे व्यक्ति के लिए राष्ट्रगान का भाव-भीनी श्रद्धांजलि देना था । और भाषण समाप्त होने पर राष्ट्रगान की धुन बजते ही टी.वी. के सामने मैं और मेरी पत्नी खड़े हो गये । 

सारा दिन टी.वी. में दूरदर्शन की डीडी भारती चैनल में, देश को आज़ाद कराने में अपना सम्पूर्ण जीवन लगाने वाले बलिदानियों की गाथा सुनता रहा । सब से प्रभावपूर्ण थी शरत्चन्द्र के उपन्यास ‘पथ के दावेदार’ की अंतिम किश्त । जिस में क्रांतिकारी दल का नायक सव्यसाची अपने दल के बिखरने पर विदेश जाने का फैसला करता है । विदेश में, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध आंदोलन शुरू करने की सोचता है । इस के कुछ समय बाद डी.डी भारती पर बाल गंगाधर तिलक पर अंग्रेजों का मुकदमा । तिलक अपनी पत्रिका केसरी द्वारा जनसामान्य में स्वाधीनता के भाव जागृत कर रहे थे । उन का जन-मानस पर केसे प्रभाव पड़ रहा था और वे अंग्रेजों की दमन नीति तथा अन्याय के प्रति बहुत प्रभावपूर्ण निरूपण था । 

... और मन ही मन यह अहसास कि आज जो आज़ादी हमने पायी है उस के पीछे बलिदानों का एक लम्बा इतिहास है । इन बलिदानियों के भी माता-पिता, घर-बार, पत्नी-बच्चे-सब थे । पर उन की सुख-सुविधा से कही बड़ी थी देश की स्वतंत्रता । इन बलिदानियों की आज़ादी का सपना क्या था--- आज आज़ादी के साठ साल बाद का भारत!!! ऐसा भारत जिस की तस्वीर मल्लिका साराभाई ने ‘अनसुनी’ नामक प्रस्तुति में की है । जहां देश के लगभग तीस प्रतिशत लोगों के पास रहने को मकान नहीं । खाने के लिए दो समय की रोटी नहीं । छोटे किसानों से उन की जमीन छीन ली जाती है । आज भी किसान मज़दूर बनने पर मजबूर हैं । न्याय समर्थ के पक्ष में खड़ा है !!

ऐसा नहीं कि देश में तरक्की नहीं हुई, विकास नहीं हुआ-- प्रगति हुई, किन्तु एक वर्ग विशेष की तकलीफ वैसे ही कायम है । सिर्फ शोषकों के चोले बदल गये हैं..... मुझे मल्लिका साराभाई की नाट्य प्रस्तुति बड़ी सार्थक लगी । एक निश्चित उद्देश्य के साथ इतनी ऊर्जापूर्ण प्रस्तुति कि एक ओर इप्टा के ज़माने के जोश की याद दिला रही थी और दूसरी ओर नुक्कड़ नाटक की विधा की चरम-परिणति होने का अहसास दिलाती थी । सच कहूँ तो बहुत दिनों के बाद ऐसी प्रस्तुति देखी थी जिस ने भीतर तक हिला दिया और एक टिम-टिमाती रोशनी की किरण भी दिखाई । लगा, कि भगत सिंह , बाल गंगाधर तिलक और उन जैसे बालिदानियों की देश के लिए मर-मिटने की लौ आज भी कायम है । फर्क इतना है कि आज मर-मिटने की ज़रूरत नहीं, कुछ कर-गुज़रने की आवश्यकता है । मल्लिका साराभाई ने उसी ओर कदम उठाया है । नाट्य प्रस्तुति के अन्त में साराभाई का यह कहना कि यह नाटक नहीं एक आन्दोलन है- और भी अच्छा लगा । क्योंकि यह सच है कि केवल एक नाटक प्रस्तुति से कुछ नहीं होना । जन-जन में यह जागरूकता लाने की आवश्यकता हैं इस लिए नाट्य प्रस्तुति के बाद मल्लिका साराभाई को प्रणाम करने गया । ठीक वैसे ही जैसे आज़ादी के संघर्ष का कोई बलिदानी सामने आ जाता तो उसे प्रणाम करता । 

इन्हीं दिनों सुनने में आया था कि देश के प्रतिष्ठित नाट्य निर्देशक मोहन महर्षि, जो अर्से तक पंजाब विश्वविद्यालय के भारतीय नाट्य विभाग में अध्यक्ष तथा प्रोफेसर रहे- ने ‘डियर बापू’ नाम से अंग्रेजी में एक नाटक तैयार किया है । 

.... और अगस्त 17 को शाम सात बजे मेरे बहुत प्यारे अज़ीज़ मित्र अमूल्य का फोन आया कि आज दुर्गादास फाउंडेशन तथा एच.डी.फ.सी बैेंक के तत्वाधान में ‘डियर बापू’ की प्रस्तुति हो रही है- और अभी-अभी दो पास मिले हैं । पूरी प्रस्तुति तो शायद नहीं देख पाएंगे, पर फिर भी एकदम से हामी भर दी और लगभग साढ़े सात बजे टेगौर थियेअर पहुंचे । प्रस्तुति चल रही थी । मंच पर महात्मा गाँधी और पं. जवाहर लाल नेहरू की दो आदम कद से बड़ी फोटोग्राफ के बलो-अप । दोनों के सामने पेडेस्टल गाँधी जी के सामने भास्कर घोष और पंडित नेहरू के आगे सुनील टंडन खड़े खतों को पढ़ रहे थे । यह प्रस्तुति महात्मा गाँधी और पं. जवाहर लाल नेहरू के बीच हुए पत्र-व्यवहार पर आधारित थी । स्टेज के बांयी ओर एक स्टडी टेबल और कुर्सी पर सबीना मेहता बैठी थीं । सबीना मेहता सूत्रधार के रूप में देश की उन स्थितियों-परिस्थितियों का परिचय दे रही थीं जिन में ये खत लिखे गये थे । दोनों पेडस्टलों के बीच में स्क्रीन था- जहाँ कुछ उस जमाने की फोटोग्राफ तथा दृश्य प्रोजेक्ट किये जा रहे थे । खतों के पाठ के साथ कभी-कभी हल्का सा संगीत भी चलता । 

मुझे लगता है अल्का जी के शिष्यों में सब से अधिक नाट्य प्रस्तुति में व्यवस्था तथा नफाज़त को मोहन महर्षि ने अपनाया है । इस सादी सी प्रस्तुति में भी वह नफाजत और नज़ाकत थी । इस प्रस्तुति में शायद सब से अधिक मेहनत महर्षि ने इस के आलेख लेखन में की होगी । सत्याग्रह आन्दोलन, डांडी मार्च, भारत छोड़ो की ललकार और अंततः स्वाधीनता प्राप्ति तथा उसकी परिणति सम्बन्धी पत्र-व्यवहार का चयन जो पढ़ने-सुनने से एक निश्चित प्रभाव छोड़े । यह चयन आसान काम नहीं रहा होगा । पूरी प्रस्तुति न देख पाने के कारण यह कहना संभव नहीं कि दर्शकों पर इस का कैसा प्रभाव पड़ा । किन्तु मुझे लगा कि यह प्रस्तुति एक बौद्धिक व्यायाम से अधिक कोई सार्थक संदेश नहीं दे पायी । गाँधी-नेहरू के बीच परस्पर स्नेह की बारीक धारा को इस प्रस्तुति में सहज रूप से पहचाना जा सकता था । यही इस प्रस्तुति को प्रलेख-नाटक, डोक्यूड्रामा कहा गया है । गाँधी-नेहरू के पत्राचार के दस्तावेज़ों पर आधारित प्रलेख नाटक । 

मल्लिका साराभाई की अनसुनी नामक प्रस्तुति को देखने के बाद जब यह प्रलेख-नाटक देखा तो मन में एक सवाल उठा कि यह प्रस्तुति क्यों तैयार की गई, किन के लिए की गई, इस का क्या प्रभाव हेागा ? पहले सवाल का जवाब तो साफ था कि आज़ादी के साठ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में एक ऐतिहासिक तथ्य को सामने लाने के लिए तैयार की गई । दूसरे सवाल का जवाब है कि शायद सुशिक्षित बुद्धि जीवों के लिए प्रस्तुत की गई । क्योंकि अंग्रेजी में थी । किन्तु इस में कोई ऐसा नया तथ्य नहीं था जो आज का प्रबुद्ध नागरिक न जानता हो । इसे देखने के बाद कहीं सोच में कोई दस्तक हुई हो और देश के लिए कुछ कर-गुजरने की प्रेरणा भी मिली हो । नहीं कह सकता । एक अच्छी साफ-सुथरी प्रस्तुति देखने का सुख जरूर मिलता- और बस । इस से ज़्यादा कुछ नहीं । 

सच तो यह है कि ‘अनसुनी’ और ‘डियर बापू’ को साथ-साथ देखने से लगा कि दस्तावेज़ी प्रस्तुतियों में उद्देश्य की प्रखरता ओर स्पष्टतर बहुत ही ज़रूरी हैं । 

अनसुनी का संदेश व्यापक जन सामान्य के लिए था और सब की सोच पर दस्तक देने वाला था । केवल दस्तक ही नहीं, कुछ कर गुज़रने की प्रेरणा देने वाला, झकझोड़ने वाला । 

मुझे लगा नाटक की यही सही भूमिका है । 

आज़ादी की साठवी वर्षगांठ पर चण्डीगढ़ रहते हुए इन प्रस्तुतियों को देखना मानो सार्थक हो गया । एक समझ बढ़ी । कुछ करने की प्रेरणा मिली । 


डाॅ. कैलाश आहलूवालिया, चंडीगढ़, मो. 98880 72599

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कहानी

डाॅ. रामदरश मिश्र, दिल्ली, मो. 7303105299


एक यात्रा यह भी

मैं बहुत यात्रा- भीरु हूँ । यात्रा पर निकलते समय डर बना होता है कि पता नहीं कैसे-कैसे लोगों से पाला पड़ेगा । सबसे बड़ी असहजता तो अनुभव होती है अण्ट-सण्ट किराया माँगने वाले ऑटो वालों से । नये शहर में कैसे-कैसे लोग मिलेंगे. यह चिन्ता भी बनी होती है ।

तो इस बार एक डॉक्टर से मिलने के लिए ग्वालियर जाना पड़ गया । पत्नी साथ थीं इसलिए आश्वस्ति बनी हुई थी । स्टेशन पर उतरते ही ऑटो वाले पीछे पड़ गये । हम चुपचाप आगे बढ़ते रहे । एक नवयुवक ऑटो वाला साथ लग गया । हम कुछ बोले बिना आगे बढ़ते रहे कि उसकी आवाज आयी-'बाबूजी आप आखिर कहीं जाएँगे ही और कोई ऑटो करेंगे ही तो फिर मेरा ऑटो क्यों नहीं?' उसकी जिद भरी आवाज में कुछ ऐसा आकर्षण महसूस हुआ कि मैंने स्वीकृति दे दी ।

वह प्रेम-भरी बातें करता रहा और हमें डॉक्टर के यहाँ पहुँचा दिया । उसके द्वारा वांछित पैसे देकर डॉक्टर के घर का कॉलबेल बजाया । ज्ञात हुआ कि डॉक्टर ने क्लीनिक की जगह बदल दी है ।

ऑटो वाला बिना हमारे कहे हमारा इन्तजार कर रहा था । हमें नयी जगह पर पहुँचा दिया । मैंने पूछा-'कितने पैसे दे दूँ?'

'बाबूजी जो इच्छा हो दे दीजिये । वैसे डॉक्टर के घर से यहीं तक का किराया तो अतिरिक्त हो गया न  ।'

उसने पूछा 'बाबूजी यहाँ से कहाँ जाएँगे?' मैंने होटल का नाम बता दिया और कहा- 'भाई तुम जाओ, यहाँ देर लग सकती है ।'

वह कुछ बोला नहीं । हम डॉक्टर के पास चले गये । घंटाभर बाद निकले तो देखा वह वहीं खड़ा था । अब हमें महसूस होने लगा था कि यह ऑटोवाला कुछ और है । वह हमारे भीतर घर करता गया । होटल पर छोड़कर उसने पूछा-'फिर कब आऊँ?'

'यानी ?'

‘यानी आप शहर में घूमेंगे-फिरेंगे न? आपको जहाँ जाना होगा ले चलूँगा । वैसे यहाँ कब तक हैं?'

'कल शताब्दी से लौटेंगे ।'

'तो आपको घुमाने के लिए कब आ जाऊँ?'

'भई, आज तो थके हैं आराम करेंगे, कल घूमेंगे ।'

'ठीक है बाबूजी, यह रहा मेरा मोबाइल नम्बर । मुझे फोन करके बुला लीजियेगा ।'

'अरे तुमने अपना नाम तो बताया ही नहीं ।' ' मोहन  ।'

'मोहन । 

अच्छा नाम है  ।'

दूसरे दिन घूमने का कार्य शुरू हो गया । वह बहुत प्रेम से एक के बाद एक स्थान दिखाता गया । मुझे बाबूजी और पत्नी को अम्माँ नाम से सम्बोधित करता रहा । घूमघामकर होटल पर लौटे तो चाय पीने के लिए उसे भी कमरे में बुला लिया । वह बहुत संकोच के साथ आया । चाय-पान के साथ हमारी पारिवारिक वार्ता शुरू हो गयी  । पत्नी ने पूछा- 'बेटे तुम ग्वालियर के हो ?'

'नहीं अम्माँ ! मैं मूलतः आगरा का हूँ । यहाँ आना पड़ गया ।'

हमें लगा कि वह यह कहते-कहते कुछ भर आया है । इसलिए चुप रहे । लेकिन वह स्वयं बोलने लगा- 'आगरा में अपना घर है । माँ-बाप तो बचपन में ही गुजर गये, बड़े भाई ने मेरी परवरिश की । भाई वकील हैं । मैं भी बी.ए. पास हूँ । कोई नौकरी खोज रहा था  । कि...' एक चुप्पी - सी छा गयी । हमे लगा कि इसके साथ कोई अवांछित घटना घटी है । उसे छेड़ा नहीं किन्तु उसने फिर कहना शुरू किया-'मैं नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था । एक दिन भटक कर लौट रहा था कि रास्ते में एक परिचित लड़की मिल गयी बदहवास-सी, घिघियाती हुई बोली-'मोहन मुझे बचा लो ।'

'क्यों क्या हुआ ?'

'मेरे माँ-बाप एक अधेड़ के हाथ मुझे बेच रहे हैं । मैं कुएँ में गिरकर जान दे दूँगी किन्तु उस खूँसट अधेड़ के साथ नहीं जाऊँगी ।' मैं बहुत असमंजस में पड़ गया । क्या करूँ ! कर भी क्या सकता हूँ । मुझे लगा कि पुलिस स्टेशन चलना चाहिए । वहाँ उसे ले गया, और थानेदार से हकीकत बयान की । वे कुछ देर सोचते रहे कि क्या किया जा सकता है ?' थानेदार साहब बोले-'इसकी एक एफ.आय.आर. लिख कर इसके माँ-बाप को हवालात में बंद कर देता लेकिन फिलहाल चिन्ता इस लड़की की है कि आखिर इसके लिए क्या किया जाये  ।' एक छोटी-सी चुप्पी के बाद वे एकाएक बोले- 'तुम्हारी शादी हो गयी ।

मैंने ना में सिर हिलाया । तो बोले-'तुम इससे शादी क्यों नहीं कर लेते ?'

मैं तो इस आकस्मिक प्रस्ताव से चकरा गया । किन्तु कुछ पल बाद लगा कि इसमें बुराई क्या है । मैंने कहा-'सर इससे तो पूछिये ।'

थानेदार ने उससे पूछा तो उसने स्वीकृतिसूचक सिर हिला दिया लेकिन... 

'लेकिन क्या मोहन?'

'बाबूजी लेकिन यह कि भाभी अपनी बहन से मेरी शादी करना चाहती रहीं । बात तय हो चुकी थी ।'

'तो फिर...?'

'बाबूजी, मैंने सोचा भाभीजी की बहन से तो कोई भी अच्छा आदमी शादी कर लेगा । वहाँ कोई संकट नहीं है लेकिन इस लड़की की तो जिन्दगी खतरे में है । लड़की सुन्दर भी है परिचित भी और सबसे अहम बात यह कि यह संकट में है । इससे विवाह करना प्रीतिकर भी होगा और मानवीय भी । लेकिन...'

'फिर लेकिन?'

'हाँ अब समस्या यह कि विवाह एकदम तो न हो जायेगा । यदि लड़की घर गयी तो फिर वही बेच दिये जाने का संकट । मैं साथ ले जाऊँ तो भइया-भाभी तो नाराज होंगे ही, इसके माँ-बाप मेरे ऊपर लड़की भगाने का केस कर देंगे । जब मैंने थानेदार के सामने यह समस्या रखी तो वे बोले-'कुछ दिन के लिए इसे नारी-निकेतन में रखवा दे रहा हूँ । लड़की से माँ-बाप के खिलाफ शिकायत लिखवाकर रख ले रहा हूँ  ।'

पन्द्रह दिन बाद उन्होंने मन्दिर में मेरी शादी करवा दी ।

मैंने कहा-'मोहन ऐसे थानेदार कहाँ होते हैं? मुझे तो इस घटना पर विश्वास ही नहीं हो रहा है । लगता है कथा सुन रहा हूँ ।'

'आप सही कह रहे हैं बाबूजी, लेकिन यह थानेदार कवि भी है । कवि सम्मेलनों में कविताएँ पढ़ता है और इसकी कविताएँ मानवीय सम्वेदना से भरी होती हैं ।' 'हाँ तब ठीक है । भाई, हर क्षेत्र में कोई-न-कोई मसीहा दिखायी पड़ ही जाता है । हाँ तब ?'

'तब यह कि मेरे भाई-भाभी मुझसे खफा हो गये और हमें घर से निकाल दिया । एक तो मैंने उनकी साली से शादी नहीं की, दूसरे जिस लड़की से की, वह किसी और जाति की है ।'

'तो तुम लोग ग्वालियर आ गये ।'

'हाँ बाबूजी आगरा में हमारा निबाह होना कठिन था । पराये शहर में भले ही कोई अपनापन न हो किन्तु यह परायापन उस अपनेपन से अच्छा है न जो दिन-रात अप्रीतिकर व्यवहार बनकर तन-मन को उद्विग्न करता रहे ।

'हाँ सही कह रहे हो  ।'

'तो यहाँ कोई नौकरी तो रखी नहीं थी । बस ऑटो का दामन थाम लिया और उसी के सहारे चल रहा हूँ ।'

'वास्तव में तुम बहुत बड़े हो मोहन । बड़े-बड़े लोग तो नारी-हित में बड़े-बड़े लेक्चर देते हैं, लेख-कविताएँ लिखते रहते हैं किन्तु अपने को व्यवहार में नहीं उतारते । लेकिन तुमने तो बहुत सहज भाव से एक लड़की को दुर्दशाग्रस्त होने से बचा लिया और अपने जीवन के साथ उसे सम्मानपूर्वक लगा लिया ।'

'बाबूजी इस कार्य से मुझे भी बहुत सन्तोष मिला । मैंने तो एक बार उसका उद्धार किया किन्तु वह तो प्रायः मुझे संकटों से उबारती रहती है ।' 

मोहन की यह कहानी हम पर छा गयी और वह हमारे मन में कितना बड़ा हो गया ।

गाड़ी का समय हो रहा था । मोहन हमें लेकर स्टेशन आ गया । उसे मैं पाँच सौ रुपये का नोट देने लगा । वह बोला-'रहने दीजिये बाबूजी  ।'

'अरे यह तुम्हारा पारिश्रमिक है । कोई दान थोड़े ही दे रहा हूँ ।'

'बाबूजी मैंने माँ-बाप का प्यार नहीं पाया । कल से ही लग रहा है कि मुझे माँ-बाप मिल गये हैं । इस सुख के आगे पैसे का सुख तो कुछ भी नहीं है । पैसा तो और लोगों से कमा ही लेता हूँ ।'

'बेटे, लेकिन मेरी भी तो सोचो । मैं बेटे का शोषण कैसे कर सकता हूँ?”

'लेकिन यह तो बहुत हैं । इतना लूँगा तो आपका शोषण हो जायेगा ।' यह कहकर वह पाँच सौ का नोट लेकर तीन सौ वापस करने लगा । बोला-'मुझे इतना पराया न कीजिए बाबूजी  । हाँ जब भी ग्वालियर आइयेगा मुझे बुला लीजियेगा । मेरा फोन नम्बर तो आपके पास है ही ।'

'लेकिन मेरी एक शर्त है ।'

'वह क्या बाबूजी  ।'

'ये पाँच सौ रुपये चुपचाप तुम्हें लेने ही पड़ेंगे ।'

उसने तीन सौ रुपये अपनी जेब में रख लिये । जैसे कह रहा हो यह कैसी शर्त आपने रख दी बाबूजी ।' कुछ क्षण बाद बोला-'बाबूजी आपका फोन नम्बर तो मेरे फोन पर आ ही गया है । कभी-कभी फोन करता रहूँ क्या?'

'हाँ-हाँ भाई मोहन शौक से  । मुझे अच्छा लगेगा ।'

'लेकिन आपका नाम तो मैंने पूछा ही नहीं ।'

'मैं हूँ सत्यकेतु और पत्नी हैं कामना ।'

और जब हम स्टेशन के अन्दर जाने लगे तब वह आँखों में न जाने कितना अपनापन लिए हमें निहारता रहा ।

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आलेख

श्रीप्रकाश सिंह उर्फ मनोज कुमार सिंह, 

साहित्य के पुरोधा महावीर प्रसाद द्विवेदी का कथन “साहित्य समाज का दर्पण है,” साहित्य के संदर्भ में किसी देववाणी से कम नही है । जब भी साहित्य की बात होती है- साहित्य क्या है, साहित्य किसे कहते हैं तो सर्वदा एक ही जबाब मिलता है – “ साहित्य समाज का दर्पण है । “ अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि और आलोचक मैंभू आर्नाल्ड ने भी साहित्य के प्रति उपयोगितावादी दृष्टिकोंण अपनाते हुये कहा था- “Literature is the Mirror of Society” बात सही भी है । साहित्य अपने समय के समाज की स्थिति, परिस्थिति, संस्कार और संस्कृति को दर्शाता है जैसे कि एक दर्पण अपने सम्मुख के बिम्ब को प्रतिबिम्बित करता है । पर मात्र इसी आधार पर इस परिभाषा को साहित्य का मानक परिभाषा मान ले, इसमे हमें कुछ संदेह है । इसका मतलब यह नहीं कि साहित्य के महान विद्वानों द्वारा दी गई इस परिभाषा को मैं चुनौती दे रहा हूं । मै अल्पज्ञ हूं, इतना दु:साहस की क्षमता मुझमें कहॉ । पर इस परिभाषा को लेकर कुछ ऐसी बातें हैं जो मुझे सदैव खटकती रहती हैं । और यह महसूस हुआ कि इस परिभाषा पर अब विमर्श की आवश्यकता है । अगर साहित्य को समाज का दर्पण मान लें तो साहित्य का व्यापक स्वरूप एवं इसकी विशेषताएं संकुचित नज़र आने लगते  हैं । इस विषय पर अपना पक्ष रखूं, इससे पहले “साहित्य” का प्रतीक “दर्पण” के चरित्र को समझना अति आवश्यक है । दर्पण और साहित्य की विशेषताओं का तथ्यात्मक एवं तुलनात्मक विंदु निम्नवत है । 



अत: उपर्युक्त तुलनात्मक तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य एक दर्पण से कही अधिक व्यापक, पारदर्शक एवं पथ-प्रदर्शक है । अत: यह समाज का दर्पण न होकर यह सामाजिक दर्शन है । 

साहित्य के उद्देश्य को लेकर दो प्रकार की धारणायें है- एक कलावादी, दूसरी उपयोगितावादी । कलावादी सहित्य का उद्देश्य साहित्यकार द्वारा आत्म अभिव्यक्ति अथवा रसवादियों के समान रस उत्पन्न करना हैं । इसके विपरीत दूसरे वर्ग के अनुसार कला-साहित्य का उद्देश्य जीवन का उत्कर्ष,उन्नयन और मार्गदर्शन है,जो मुख्यतया उपयोगितावादी जीवन दर्शन पर आधारित है । यही वर्ग साहित्य को समज का दर्पण मानता है । 

अगर उपयोगितावादी साहित्यकारों के “साहित्य समाज का दर्पण है” की बात को मान ले तो तथाकथित साहित्यकारों के उस तीसरे वर्ग को क्या कहा जाय जो नाही साहित्यकार हैं, और ना ही उनका लेखन साहित्य की श्रेंणी में आता है,फिर भी साहित्यकारों की अग्रिम पंक्ति में अपना पैठ जमाये महिमामंडित हो रहे हैं । “साहित्य” संस्कृत के ‘सहित’शब्द से बना है । संस्कृत के विद्वानों के अनुसार साहित्य का अर्थ है- “हितेन सह सहित तस्य भव:” अर्थात कल्याणकारी भाव । दूसरे शब्दों में साहित्य लोककल्याण के लिये ही सृजित होता है । साहित्य का उद्देश्य मात्र मनोरंजन नही है,अपितु इसका उद्देश्य मार्गदर्शन करना भी है । लेकिन अब के अधिकॉश साहित्यकार “हितेन सह सहित तस्य भव:” के स्थान पर “स्वहितकार” बन गये हैं । इनके लिये साहित्य का उद्देश्य लोककल्याण न होकर स्वहित हो गया है । ऐसे स्वहितकार स्वहित के लिये साहित्य को स्वहित- साधन बना बैठें हैं । ऐसे लोग समाज में वही परोसते हैं जो उनके हित में हो । अथवा एन केन प्रकारेण इनका स्वार्थ पूर्ण हो जाय । आज साहित्यकार पूर्वाग्रस्त हैं, ये अपने साहित्य से समाज को क्या प्रभावित करेंगे, ये तो खुद ही अपने स्वार्थ से प्रभावित हैं । इनका साहित्य सामाज और व्यक्ति को दिग्भ्रमित करने के अतिरिक्त सत्य से कोसों दूर अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वह सब कुछ परोसता है जो न समाज के हित में है और ना ही व्यक्ति के हित में, सिर्फ उनके स्वहित में होता है । आज का साहित्य समाज के वास्तविक रूप को प्रतिबिम्बित करने में असमर्थ 

है । कारण यही है कि अधिकॉश साहित्यकार अपने साहित्य-धर्म का पालन न करते हुये तुष्टिगत साहित्य सृजन में सर्वदा लिप्त हैं । आज के साहित्यकार साहित्य के मूल उद्देश्य से भटककर रचनात्मक न होकर विघटनकारी साहित्य रच रहे हैं । आज का अधिकॉश साहित्य समूह विशेष, जाति विशेष, वर्ग विशेष या संप्रदाय अथवा दलगत मानसिकता के आधार पर लिखे जा रहे हैं । समाज या देश के हित में नही । अत: इस प्रकार के अपार्दशक साहित्य समाज का दर्पण कैसे हो सकता है- यह शोचनीय है । अत: ऐसे साहित्यकारों के साहित्य को समाज का दर्पण मान लें तो हमें यह कहने में थोड़ा भी संकोच नही है कि दर्पण झूठ बोलता है । 

इस तरह के साहित्य को समाज का दर्पण मान लेना साहित्य के चरित्र और उसकी आत्मा की व्यापकता को संकुचित करने जैसा है । यही कारण है कि साहित्य की चेतना को समझने के लिये कई अन्य महान साहित्यकारों ने भी अपने- अपने विचार व्यक्त किये हैं । हिंदी के प्रमुख साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य को “जनता की चित्त्वृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब माना है । आचार्य महाप्रसाद द्विवेदी ने साहित्य को “ ज्ञानराशि का संचित कोश कहा है । पंडित बाल कृष्ण भट्ट साहित्य को “जन समूह के हृदय का विकास मानते हैं । 

मेरा ऐसा विश्वास है कि साहित्य के व्यापक स्वरूप एवं इसके महान उद्देश्य को कुछ शब्दों में परिभाषित करना एक कठिन कार्य है । क्योंकि इसका न रूप है, न रंग है । यह निराकार भी है,साकार भी । यह कालातीत है । साहित्य वह विराट महापुरूष है जो मात्र दो ऑखों से ही नही अपितु तीन ऑखों से देखता है – यह त्रिकालदर्शी है । यह मात्र वर्तमान का ही नही, बल्कि भविष्य की भी झॉकी प्रस्तुत करता है । अगर सीधे और सरल शब्दों में कहा जाये तो साहित्य व्यक्ति और समाज के वौद्धिक एवं वैचारिक उन्नयन का ललित दस्तावेज 

है । दूसरे शब्दों में कहें तो यह समाज के काल्याणकारी पृष्ठभूमि के वह सजग प्रहरी है जो वैचारिक आंदोलन का सबसे सशक्त नाद पैदा करता है तथा भविष्य के प्रति भी सामाजिक दिग्दर्शन प्रस्तुत करता है । 

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हिन्दी साहित्य के प्रति आपकी शोध रूचि को समझते हुए ये पुस्तक आपको भेंट स्वरूप भेजी जा रही है। आपसे अनुरोध है कि अध्ययन उपरांत अपने विचार भेजिएगा। संपादक


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कहानी

डॉ. विमल कालिया, पंचकूला, मो. 9878033777, 9417280053

माँ

सुबह की धूप की किरणें फलों से लदे पेड़ों में से छन कर जमीं पर पहुँच रही थीं और गिलहरियाँ उन्हें पकड़ने को लहरा इठलाती ज़मीन से कीड़े ढूंढ़ रही थीं ।

नौ साल की राणों अपनी गुड़िया के साथ वहीं खेल रही थी । पिछले वर्ष उसने यहीं अपनी गुड़िया का ब्याह रचाया था । अब तो रोज़ गुड़िया से बात करती, ‘शादी को एक साल हो चला है । तुम कब माँ बनोगी? मुझे तुम्हारे नन्हे से बाल गुड्डे के साथ खेलना है ।’

और गुड़िया को उसके घर में सजा देती । नन्ही राणों के सपने बड़े परिपक्व थे, पर मन में बालपन ही था । वो अपने खिलौनों से बात कर ही रही थी कि उसके पेट में एक तेज दर्द उभरा । वो रोती हुई ‘माँ-माँ’ चिल्लाती घर के अंदर भाग गयी । उसके खिलौने और वह गुड़िया वहीं पड़ी रह गयी और उसका सपना भी । मुर्गियों ने गुड़िया की सारी रूई निकाल कर बिखरा दी । उसकी माँ को वह पहला लाल दाग दिखा था और माँ का चेहरा सफेद हो गया था । क्या कहती किसी से भी माँ? राणों मात्र नौ साल की थी । उसने राणों को सब समझा दिया । पर पाँच दिन तक यही सिलसिला रहा । राणों अपने कमरे में रजाई अपने ऊपर डाल सारा दिन रोती रहती थी । रजाई के अंदर का अँधेरा उसे दुनिया की नज़रों से बचा लेता था । वो चाहती थी कि रोशनी कभी न हो और उसे कभी दुनिया वालों को मिलना पड़े । उनके सवालों से सामना नहीं नहीं करना चाहती थी राणों । क्या कहेगी सहेलियों से कि समय ने समय से पहले उसे जवान कर दिया था । सहेलियाँ उसका मजाक उड़ायेंगी और उनकी हंसी उससे बरदाश्त नहीं होगी सो उसने रजाई को सिर पर से खींच कर अंधेरा और बढ़ा लिया था ।

माँ खामोश हो गयी थी । बापू ने बस एक बार उसे देखा । राणों को लगा वो उसे गले लगा गोद में बिठा लेंगे जैसा वो हमेशा करते थे । उसके सिर पर हाथ फेरेंगे । लेकिन, उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया । बस, आँखें नीची कर लीं और अखबार में नजरें गढ़ा लीं । साबुन जिस तेजी से पानी से साफ हो जाता है, पिता जी ने भी सारे मसले से हाथ धो लिया । इस बात का जिक्र किसी ने भी किसी से नहीं किया । राणों सूखने लगी । कोई उसको कुछ नहीं कहता था, पर उसकी भूख खत्म होने लगी । जब भी उसका कोई दूध का दांत टूटता, तो भी कोई कुछ नहीं पूछता था, कोई कुछ नहीं कहता था ।

कुदरत की अपनी भाषा, अपनी बोली होती है । वही सब फिर दोहरा दिया और राणों को डाक्टर के पास ले जाना पड़ा था । डाक्टर ने सब कुछ देख कर कहा, ‘गर्भाशय में रसौलियां हो गई हैं । इस उम्र में सामान्य नहीं है ऐसा होना । गांठें भी बन रही हैं, सो आपरेशन से पूरी बच्चेदानी निकालनी पड़ेगी ।’ और, उसी हफ्ते शहर के बड़े अस्पताल में राणों का आपरेशन हो गया । डाक्टर ने बाहर आ कर कहा, ‘सर्जरी बहुत सफल रही । हमने सब कुछ निकाल दिया है । बस बच्ची कभी माँ नहीं बन पायेगी ।’ 

माँ के मुँह से अनायास निकल गया, ‘हाय, इसकी शादी कैसे होगी, कौन करेगा इससे शादी ।’ कह वो वहीं बेंच पर बैठ गयी थी ।

बापू वहाँ से फिर आँख से सिलाई की तरह निकल गये और रह गयी काजल-सी कालिमा उसकी ज़िन्दगी में । ‘बाँझ’ इस शब्द ने राणों के भीतर की ममता को मार दिया था । किसी के प्रति प्रेमभाव या भावनात्मक लगाव लगभग समाप्त ही हो गया था । एक अदृश्य दुश्मन के प्रति एक जिहाद पैदा हो गया भीतर ही भीतर जो उसे जीने नहीं देता था और मरने भी नहीं ।

उसने एक प्रण ले लिया कि वो हमेशा बालों को जूड़े में बाँध कर रखेगी । बाल खोलना जैसे वो भूल ही गई थी । हाथों की लकीरों को जैसे प्रारब्ध ने मुट्ठी में बाँध लिया हो, उसने भी बालों को जूड़े में गूंथ लिया था । 

वक्त चलायमान है । चलता रहता है । राणों के लिए भी वो क्यों रुकता । वो शंकुतला-सी हो गयी थी । शंकुतला को माँ-बाप ने त्याग दिया था और पंछियों ने पाला, वैसे ही राणों के साथ हुआ इस घर में । वह भी बस पल गयी । उन्हीं पेड़ों के नीचे, गिलहरियों के साथ, मुर्गियों के बीच वो कब बड़ी हो गई, पता ही नहीं चला । घरवाले जाहिर नहीं थे करते, परंतु उनके चेहरे के हावभाव उस पर ‘बेचारी’ का लेबल जरूर चस्पा कर देते ।

तीस साल की होने को आई राणों जैसे इसी घर में जड़-सी गयी थी । सुबह उठते ही वो जूड़ा बाँध लेती जो सारा दिन नहीं था खुलता । उसके बोझ से सिर नीचे ही रहता और बाँझ होने की सच्चाई पलकों को उठने नहीं थी देती ।

नियति का करिश्मा देखिये, एक दिन राणों के लिए एक रिश्ता आ गया । सरदार कुलजीत सिंह जी सरकारी अफसर थे । उनकी पत्नी का देहांत हो चुका था और उनके दो बच्चे थे । बड़ा लड़का और एक छोटी लड़की । लड़का बलजीत अठारह साल का था और बेटी रमनीत दस साल की थी । उन्हें तो ऐसी ही संगिनी चाहिए थी जो बच्चे न चाहती हो । और, राणों तो चाह कर भी माँ नहीं बन सकती थी । सो, कुलजीत से राणों का रिश्ता पक्का हो गया । 

वो ‘बेचारी’ नहीं रही पर दो ‘बेचारों’ की माँ जरूर बन गयी ।

यूँ तो विवाह दो लोगों का बंधन है । पर यहाँ तो लगता था जैसे सामूहिक विवाह हो । कितने ही रिश्ते राणों के इस रिश्ते के साथ पिछलग्गू से बनकर आ गये । वो झट से पत्नी, भाभी, ताई, चाची सब बन गयी । नहीं बन सकी तो माँ ।

बलजीत और रमनीत ने उसे माँ के रूप में स्वीकार ही नहीं किया । पहले पल से ही एक अप्रीती थी उसके प्रति । दोनों ने अपनी माँ को देखा था, जिया था । और तो और, उन्होंने उन्हें मरते हुए भी देखा था । सो उनकी जगह वह उसे कैसे देते । उसे कैसे बुलाते ‘माँ’ । माँ के चले जाने के बाद बाप ही तो उनका एकमात्र सहारा था और जाहिर है, उन्हें लगा था कि राणों ने उनके सहारे को छीन लिया है ।

पर, यह सच्चाई नहीं थी । कुलजीत तो राणों को एक रिक्त स्थान भरने के लिये ही लाया था । राणों केवल एक व्यावहारिक समाधान भर थी । दस साल की अबोध बालिका को संभालने के लिए एक माँ सरीखी औरत चाहिए
थी । कुलजीत उसे कैसे पालते ।

पर रमनीत में तो जैसे नफरत ने घर कर लिया हो । उसे राणों से घृणा थी । हर बात पर उसका तिरस्कार करती । उसे नाम से ही पुकारती ‘राणों’ । राणों में सब्र था । उसे लगा वक्त के साथ वो ठीक हो जायेगी । लेकिन, रमनीत के गुस्से में कोई कमी नहीं आयी ।

बलजीत भी कहाँ कम था । उसे भी राणों से चिढ़ थी । उसके प्रति द्वेष भाव लिये, वो उसकी कोई बात नहीं सुनता था ।

एक रविवार की बात है । सभी घर पर थे । राणों ने बलजीत को कहा, ‘आ, बलजीत तेरे बालों में तेल लगा दूँ, फिर केश धो लेना बेटा ।‘ 

बलजीत ने सिर झटकते हुए कहा, ‘तुम मेरी माँ थोड़ी हो, जो मेरे सिर में तेल की मालिश करोगी । मेरी माँ हर इतवार को नारियल, जैतून और सरसों का तेल गर्म कर सिर की त्वचा पर झसती थी । बालों की जड़ों तक सब बस तेल-तेल । सारी खुश्की दूर हो जाती थी । फिर वो बालों को धोती थी और दोपहर में जब बाल सूख जाते थे तब कंघी कर जूड़ा बना देती थी । पर वो मेरी माँ थी और तुम हो केवल हमारे बाप की दूसरी पत्नी ।’ 

राणों का हाथ अपने जूड़े पर चला गया था । लगा उसको किसी ने उसे और जोर से कस दिया हो । बोली, ‘मैंने भी तीनों तेल मिलाकर गर्म किया है बेटा । आ, तेल लगा दूँ, नहीं तो सिकरी हो जायेगी ।’

‘गर्म तेल डाल कर मेरा सिर जला डालोगी । और, मैं तुम्हारा कोई बेटा-वेटा नहीं । तुम बस हमारे बाप की पत्नी हो, और कुछ नहीं । हमसे रिश्ता जोड़ने की कोशिश मत करना । मेरे सिर पर तुम्हारा हाथ कभी ‘नहीं’ । बलजीत ने विमुखता दिखाई । 

कुलजीत ने टीवी से ध्यान हटाते हुए कहा, ‘बलजीतऽऽ बात करने की तमीज नहीं है । माँ से ऐसे बात करते हैं ।’

बस इतना सुनना था कि बलजीत बिफर गया । उसे गुस्सा सागर में सुनामी जैसा आ रहा था । वो सोचने की क्षमता खो गया था । नफरत के गुबार ने सब कुछ ढक दिया था । क्रोध में जब कुछ नहीं सूझा तो वो अपने बाल कटवा कर आ गया । नहीं था तेल लगवाना बालों में उससे । उसने टंटा ही खत्म कर दिया ।

राणों ने देखा तो सन्न हो गयी । ऐसा न उसने सोचा था, न चाहा था । क्षितिजों के पार का जहाँ उसे हमेशा ललचाता रहा था । अगला जन्म अच्छा होगा, यही सोच कर इस जन्म को सहा करती थी राणों । पर यह जन्म इतना आसान नहीं था ।

हर बार जब दोनों बच्चे हिकारत भरी निगाह से उसे देखते तो छाती पर से एक रेलगाड़ी गुज़र जाती । वो ‘दूसरी’ थी, यही ख्याल उसे सालता । उसका बाँझपन उसे कचोटता । ‘दूसरी’ थी पर ‘बुरी’ नहीं थी राणों । पर ‘पहली वाली’ की याद और पीछे रह गये पदचिन्ह उसे हमेशा पछाड़ते रहते थे । वह हारने लगी थी ।

ख्वाब उसका हक़ थे । पर उसने ख्वाब देखने छोड़ दिये थे । नियति ने एक रात फिर एक ख़्वाब बुना था, पर वो टूट कर चकनाचूर हो रहा था । नहीं कहा किसी ने उसे ‘माँ’ । वो चमकते सूरज के पीछे भाग रही थी, पर एक काला साया उसके साथ-साथ चलता ही रहा था ।

उस घर की छत के नीचे नफरत, घृणा, तिरस्कार का राज था, हर दीवार पर अप्रीती की सफेदी पुती हुई थी । उसकी हिम्मत ही नहीं हुई कि वहाँ वह अपनी तस्वीर लगाये । उसका जूड़ा अब भी सिर पर जड़ा था और दुपट्टा सिर पर । नज़रें और सिर दोनों झुके रहते थे ।

उसकी जिन्दगी का आकार तो शायद पिक्चर फ्रेम-सा चोकोर था पर बिम्ब आंसुओं की तरह मोती जैसा ही था । रोज़ राणों हाथ में वो लड़ियाँ इकट्ठा करतीं, और जब मुट्ठी बंद करती तो लकीरें बंध जाती । उनमें शायद ‘माँ’ बनने की लकीर भी थी, जो कभी आज़ाद नहीं हुई ।

अब वो बाँझ थी, तो उसमें उसका क्या कसूर था । शादी हो गयी तो सोचा, जूड़ा खुल जायेगा और वो फिर स्वछंद जीवन जीने लगेगी । पहले दिन ही कुलजीत से राणों से कहा था, ‘तुम बच्चों के पास सो जाओ ।’ और पहले दिन ही बच्चों ने कहा, ‘तुम यहाँ नहीं सो सकती । ये हमारी माँ की जगह है ।’

वक़्त गुज़रता गया । राणों इस घर में अपनी जगह तलाशती रही, जुड़ा बाँध कर । पर, घर का कोई भी कोना उसे अपनाने को तैयार नहीं था । दीवारों पर सभी की तस्वीरें सजी थीं, पर घर में वो तो एक साया भर भी नहीं थी । उसका कोई वजूद नहीं था ।

वो घर संभालती, खाना बनाती, परोसती । पर परोसते वक्त बच्चे उसका हाथ रोक लेते । कहते, ‘हम खुद डाल लेंगे खाना । तुम्हें मालूम नहीं है हमें कितना और क्या खाना है ।’ वो कहना चाहती थी ‘तुम लोगों ने जानने का मौका भी तो नहीं दिया ।’ पर वो चुप हो गई थी । तिरस्कार की तो आदत हो गई थी । लड़ती तो किससे । उन बच्चों से । क्या फायदा, जब किस्मत की लड़ाई वो लड़ कर हार हो चुकी थी । सो यहाँ भी परास्त होने में ही उसकी जीत थी । सो वो खामोश ही रही ।

वक्त कहा था न, चलायमान है । सो चलता रहा । रमनीत का विवाह हो गया । उसकी शादी की तस्वीर बैठक में लग गयी । राणों उसमें से नदारद थी । पर उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी । कुलजीत ने भी अब इस रिश्ते को समझ लिया था । कुलजीत ने राणों के लिए अपना कमरा खोल दिया था, पर दिल नहीं । राणों के लिए इतना ही काफ़ी
था ।

एक बार किसी ने कहा था, ‘अब यह माँ नहीं बन सकती’ तो कैसे मिटा देती वह बोल । राणों कभी माँ नहीं बन सकी । उधर रमनीत भी शादी के पश्चात माँ नहीं बन सकी थी । कई पेचदगियां थीं उसके माँ बनने में । डाक्टरों से परामर्श चल रहा था ।

अचानक बलजीत को कोरोना हो गया । राणों ने सब कुछ संभाला । उसकी दवाई, खाना, टेस्ट । सब कुछ । बलजीत ठीक हुआ, तो कुलजीत बीमार हो गये । उसने बहुत सेवा की । कोरोना था जो बिगड़ गया । उसका बहुत बुरा हाल था । फेफड़े, जिगर, गुर्दे- सभी परास्त होने लगे और नियति का लिखा था- कुलजीत मिट गया ।

अंत्येष्टि में केवल बलजीत और राणों ही थे, पीपीई किट पहन कर । कुलजीत का चेहरा तक नहीं देखने को
मिला । जब दोनों लौटे तो खाली घर में वो दोनों ही थे । बलजीत और राणों । रमनीत तो आ ही नहीं सकी थी । बहुत देर दोनों बैठे रहे । सब कुछ अचानक ही बदल गया था । राणों उठी और बोली, ‘मैं पानी लेकर आयी ।’

बलजीत झट से उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘माँ, मैं लाता हूँ । तुम थक गयी होंगी । इतने दिनों से दौड़-भाग कर रही हो तुम बैठो ।’

राणों ठिठक गयी और बैठ गयी । उसका जूड़ा खुल गया सदियों से गर्भवती आँखों ने पानी तोड़ दिया । इतने सालों से डिब्बे में जमा हुआ नारियल का तेल जाने क्यों आज पिघलने लगा था । राणों को एक ही आवाज़ सुनाई दे रही थी, ‘माँ, माँ, माँ’ । 

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कहानी

सुश्री दीपक शर्मा, लखनऊ, मो. 98391 70890

बंधक

मेरी ननिहाल में शाम गहराते ही पाँचों बच्चे मुझे आ घेरते, ’’तुमसे तुम्हारे दादा की कहानी सुनेंगे....’’

उनमें कुक्कू और हिरणी मुझसे बड़े थे । कुक्कू दो साल और हिरणी एक साल । टीपू मेरे बराबर का था और बाकी दोनों मुझसे छोटे । बच्चों के जमा होते ही मेरी दोनों मामियाँ भी मेरे पास आ बैठतीं । वे दोनों सगी बहनें थीं और एक-एक काम एक साथ किया करतीं । बैठते ही वे बच्चों को उकसाने लगतीं, ’’कहानी शुरू कराओ न! फिर तुम लोगों को सोना है । "

लेकिन मैं रूका रहता । अपनी नानी के इंतजार में । 

इधर मुझे अकेले भेजते समय मेरी माँ अपनी हिदायत देना न भूलतीं, ’’उधर तुझे होशियार रहना है । बच्चे जब भी तुम्हारी नानी से बदतमीजी दिखाएँ उन्हें शर्मिन्दा करना है, बड़ों का लिहाज न रखोगे?’’

उस शाम उन्हें मैंने अपने दादा की आपबीती सुनाने की सोची । दादा को अगोचर रखकर......

’’सन् 1947 के लाहौर के मेयो मेडिकल काॅलेज में एक नौजवान अपनी डाॅक्टरी की पढ़ाई के आखिरी साल में था,’’ मैंने कहानी शुरू की, ’’वहीं अस्पताल में बने होस्टल में रहता था....’’

’’नौजवान तेरे दादा का बेली (मित्र) था?’’ मेरी नानी हँसने लगीं । वे जानती थीं बटवारे से पहले मेरे दादा मेयो अस्पताल में ही पढ़ते थे । 

’’हमने सच्ची कहानी नहीं सुननी,’’ तेरह वर्षीय टीपू चिल्लाया । 

’’लाहौर की तो कतई नहीं!’’ कुक्कू मुँह बिचकाने लगा । 

’’न?’’ नानी ताव खा गई, वे खुद लाहौर की थीं, ’’लाहौर बुरी जगह है क्या? पहले तो बल्कि लोगबाग कहा करते, लाहौर राजा, अमृतसर वजीर और लुधियाणा फकीर......’’

’’हाँ,’’ मैंने हामी भरी, ’’पंजाब के सभी शहरों में लाहौर ही सबसे बड़ा था......’’

’’पीछे उधर तो यह भी कहा जाता था,’’ नानी उत्साह में बह लीं, ’’जिहणे लाहौर नहीं देखिया औह नहीं हाले जन्मियाँ.....(जिसने लाहौर नहीं देखा उसका जन्म लेना अभी बाकी है....) । ’’

’’आप पहले और पीछे की बात मत करिए,’’ हिरणी ने नानी को फटकार दिया, ’’हम कोई नई बात सुनेंगे....’’

मेरी दोनों मामियाँ फक्क से हँसने लगीं । 

’’चल, चिन्ती, उठ यहाँ से,’’ अपने प्रति मेरी लिहाजदारी पर नानी अक्सर इतरातीं और ढोल बजाकर मुझ पर अपना अधिकार प्रकट किया करतीं, ’’कैसे गुस्ताख लोगों को कहानी सुना रहे हो?’’

’’नहीं,’’ कहानी सुनने का दस वर्षीया गुणी को कुछ ज्यादा ही शौक रहा, ’’तुम कहानी सुनाओ, भाई । अब बीच में न कोई बोलेगा और न ही कोई हँसेगा....’’

’’13 जून, 1947 को उस मेयो अस्पताल में एक अंग्रेज़ पुलिस कांस्टेबल एक हेड इन्जरी केस लाया,’’ मैं शुरू हो लिया, ’’लाहौर के भुजंग इलाके में किसी के चाकू ने उसके नाक का बाँसा चीर डाला था और दायीं आँख बहनापे में बन्द हो गई थी । लेकिन उसके दाँत, गाल और माथा जरूर पूरे के पूरे बच गए थे । शायद इसीलिए वह बात खूब करता था । उम्र उसकी सोलह-सत्रह के बीच की थी और हमारे उस नौजवान कच्चे डाॅक्टर का वह कुछ ही दिनों में अच्छा दोस्त बन गया था । 

" उसकी सुबह, आज की खबर ? पूछने से शुरू हुआ करती और हमारे नौजवान की उसके सवाल के जवाब की तैयारी में । 

"खबरें उन दिनों अजीब लचीली और टेढ़ी-मेढ़ी रहा करतीं । सभी लोग दस बार सोच कर मुँह खोलते ! सन 1946 की अगस्त की ’कलकत्ता किलिंग्स’ से शुरू हुआ हिन्दू-मुसलमान फसाद बंगाल और बिहार से होता हुआ जनवरी तक पंजाब में भी उतर चुका था । 24 जनवरी के दिन पंजाब असेम्बली के प्राइम मिनिस्टर सर खिज़र टिवाना ने पंजाब के गवर्नर इवान जेनकिन्ज की मंजूरी में मुस्लिम लीग नैशनल गारॅडज और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर जो रोक लगाई थी, वह तीसरे ही दिन यानी 27 जनवरी के दिन वापस लेनी पड़ी थी । मुल्तान, लाहौर, गुजरात और अमृतसर में फिर भी ’खिज़र वज़ारत मुर्दाबाद’ के नारे बन्द न हुए थे । असल में यूनियनिस्ट पार्टी के लीडर खिज़र हयात खान टिवाना 175 सीटों वाली पंजाब असेम्बली में सिर्फ 18 विधायक रखते थे जबकि सन् 1946 के उस चुनाव में मुस्लिम लीग को 75 सीटें मिली थीं, कांग्रेस को 51 और सिक्खों को 22 । मुस्लिम लीग खुद सरकार बनाना चाहती थी और 2 मार्च के आते-आते उसने खिज़र के संग एक समझौता भी कर लिया था और उस दिन को विक्टरी डे (विजय दिवस) की तरह पंजाब भर में मनाया भी गया था । 

"तीन मार्च को खिज़र ने अपना इस्तीफा असेम्बली में रख दिया था । और इस तरह लगभग बीस साल से चला आ रहा यूनियनिस्ट पार्टी का राज खत्म हो गया था । यह पार्टी सन् 1923 में सिकन्दर हयात खान ने सर छोटू राम के साथ मिलकर बनाई थी और दिसम्बर, सन् 1942 को जब सिकन्दर चल बसे थे तो सर उमर हयात की अंग्रेजों के प्रति भक्ति पंजाब-भर में मशहूर थी । सन् 1919 के अमृतसर के असहयोग आन्दोलन को कुचलने के लिए उन्होंने अपनी अस्तबल के 150 घोड़े ब्रिटिश सरकार को इस्तेमाल के लिए देकर अपने लिए तरफ़दारी तो जीत ही ली थी । ऐसे में पंजाब के गवर्नर इवान जेनकिन्ज भी मुस्लिम लीग को सरकार नहीं बनाने देना चाहते थे । उन्हें शक था पंजाब मुस्लिम लीग को सरकार में समर्थन देने का दावा पेश कर रहे थे, वह दावा उनका झूठा साबित होगा । अभी यह मीटिंग चल ही रही थी कि असेम्बली के बाहर ’पाकिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे बुंलन्द हो उठे थे । 

"चार मार्च को लाहौर और अमृतसर में कहर एक साथ टूटा था और जब तक जून की तीन तारीख में ’माउन्टबेटेन प्लैन’ ने बंगाल और पंजाब के बँटवारे की पुष्टि की थी, लाहौर में तीन पैरामिलिट्री दल तैयार हो चुके थे । जून ही की एक रिपोर्ट के मुताबिक मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड्ज की संख्या 39,000 तक पहुँच चुकी थी, आर.एस.एस. की 58,000 और सिक्ख अकाली फौज की 8,000...’’

’’तुम फिर आँकड़े फड़फड़ाने लगे, ’’कुक्कू ने मुझे आँखें दिखाई, ’’कहानी तुम्हारे पास है या नहीं?’’

’’है,’’ मैं हँसा, ’’13 अगस्त सन् 1947 के दिन अब मरीज लड़के ने हमारे कच्चे डाॅक्टर से पूछा, ’आज की खबर?’ तो डाक्टर ने सिर हिला दिया, ’शहर में आज कफ्र्यू है और अखबार नहीं आई....’ 

"तो लड़का हँस पड़ा , ’आज मेरे पापा भी नहीं आए.....?’ पिछली 13 जून से लेकर 12 अगस्त तक लड़के को अस्पताल में दाखिला दिलाने वाला वह अंग्रेज़ पुलिस कांस्टेबल हर रोज उसे देखने आता रहा था । 

’’ ’कैसे आते?’ हमारे डाॅक्टर ने कहा, ’हमारे अस्पताल की मौच्र्युरी (मुरदाघर) की तरफ आने वाली सभी गलियाँ उतारी हुई लाशों से भरी हैं । लोगों का अनुमान है वे तीन साढ़े तीन सौ से कम क्या होंगी?....’

’’शाम पाँच बजे जब हमारा नौजवान लड़के से दोबारा मिलने गया तो वह अजीब उत्तेजना से भरा था, ’मेरी अलमारी का ताला खोल सकोगे?’ उसका पापा अभी तक न उसे मिलने आया था.....’

 "'अलमारी में क्या है?’ प्राइवेट वार्ड के मरीजों को एक निजी अलमारी अस्पताल की तरफ से दी जाती थी जिसमें अपना निजी ताला लगाने की उन्हें पूरी तरह छूट थी.....’’

’’एक पुलिस कांस्टेबल और प्राइवेट वार्ड?’’ टीपू हँसा । 

’’वह कांस्टेबल एक अंग्रेज जो था और अंग्रेजों को अस्पताल में भी ज्यादा सुविधाएँ मिला ही करती थीं,’’ मैंने कहा । 

’’कहानी सुनने दो, टीपू,’’ कुक्कू ने टीपू को आँखें 

दिखाईं । 

’’उस अलमारी में अस्पताल के ताले की जगह एक दूसरा ताला लटक रहा था.....’इसकी चाबी देना’, हमारे नौजवान ने लड़के से कहा.....मगर लड़के के पास चाबी न थी....’मेरे लिए तुम क्या यह अलमारी खोल सकते हो?' लड़के ने जिद की…..

 " पेचकस की मदद से हमारे नौजवान ने अलमारी की कुन्डी दोनों तरफ से अलमारी से अलग कर दी.....

 "अलमारी खुली तो उसमें नोटों की गड्डियों को अपनी मुहरों में छिपाए पाँच लिफाफे मिले और लिफाफों के नीचे मिली एक संदूकड़ी ,जिसका तल चपटा था और जिसके बीच में से उठे हुए उसके ढलवाँ ढक्कन में एक और कुंडी थी जिस पर पीतल का एक मजबूत ताला पड़ा था । 

 "' इसे भी खोलो तो' लड़के ने कहा । 

अंदर एक सन्दूकड़ी थी जिस की सात तहें एक-एक करके खुलती चली गईं....सभी में बेशकीमती गहने धरे थे....

 तभी दरवाजे पर एक तेज दस्तक हुई..

 ..’दरवाजा खोलने से पहले अलमारी बन्द कर देना,’ कहकर लड़का रह-रहकर काँपने लगा....

 ’तुम क्यों घबरा रहे हो? यह जरूर तुम्हारे पापा हैं,’ हमारे नौजवान ने उसे तसल्ली देनी चाही....

 ".लड़का फूट-फूटकर रोने लगा.....

".रूलाई के बीच उसने अपना रहस्य खोला । वह अनाथ था और उसे मेयो अस्पताल पहुँचाने वाला वह पुलिस कांस्टेबल उसका पिता न था, अगुवा था । लड़के को जख्मी भी उसी कांस्टेबल ने किया था ताकि उसके इलाज के नाम से वह इस अस्पताल में यह वार्ड पा सके.....

 " दरवाजा खोलने पर छह पुलिस बूट धम्म-धम्म वार्ड में आ दाखिल हुए....

 " तीनों ने पुलिस कांस्टेबलों की वर्दी पहन रखी थी और तीनों ही अंग्रेज थे.....और अजनबी थे....’’

’’पंजाब पुलिस में इतने अंग्रेज रहे क्या?’’ दस वर्षीय चुन्नू गहरी जिज्ञासा रखता था । 

"’बस कांस्टेबुल ही तो रहे,’’ मैंने कहा, ’’बँटवारे के समय पंजाब पुलिस में कांस्टेबुलों की कुल गिनती 24,095 थी जिनमें 17,848 मुसलमान थे और 6,167 सिक्ख और हिन्दू । और यूरोपीय और एंग्लाइंडियन मिलाकर 80......’’

’’तुम फिर बहक रहे हो,’’ कुक्कू ने मुझे चेताया, ’’हमें कहानी सुननी है.....इतिहास से बाहर....’’

’’मगर यह कहानी तो इतिहास के छत्ते के नीचे खड़ी है, छत्ते की बात तो फिर करनी ही पड़ेगी....’’

’’तीनों सीधे आलमारी की तरफ लपक लिए.....

.’मेरे पापा कहाँ हैं?’ लड़के ने पूछा । ' " वे तुम्हें और तुम्हारी अलमारी के सामान को यहाँ से हटाना चाहते हैं,’ उनमें से एक ने कहा.....

"’यह नामुमकिन है,’ हमारे नौजवान ने हिम्मत बटोरी, ’इस अलमारी में जो लूट का सामान धरा है, उसकी खबर आपके डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट, मिस्टर यूसटेस को दी जा चुकी है और उन्हीं के हुक्म पर मैं इस लड़के के हिरासत पर जाने तक इसे अपनी निगरानी में रखे हूँ,....पलक झपकते ही तीनों चम्पत हो गए....’’

’’वह कच्चा डाॅक्टर भी अंग्रेज था क्या?’’ चुन्नू ने पूछा । 

’’हम उसे किसी भी देश, जाति या धर्म का कह सकते हैं,’’ मैंने टाल जाना चाहा, ’’उस जैसे लोगों को उनका देश या धर्म अपना बंधक बनाकर नहीं रखता....’’

’’अच्छा यह बताओ,’’ हिरणी चतुर थी, ’’वह आजकल कहाँ है ? इंग्लैंड में, भारत में, या फिर लाहौर ही में ?’’

’’इधर भारत में,’’ सच छुपाना मेरे लिए मुश्किल हो गया, ’’उन कांस्टेबुलों के गायब होते ही वह सीधा अपने मेयो अस्पताल के प्रशासक के पास गया । प्रशासक ने उसे मार्गरक्षी एक दल के साथ लाहौर रेलवे स्टेशन पर पहुँचवाया । लाहौर से अमृतसर जाने वाली फ्रंटियर मेल बस छूटने ही जा रही थी और यह भी संयोग ही था कि 13 अगस्त की यह फ्रंटियर मेल लाहौर से भारत आने वाली आखिरी रेलगाड़ी थी । रास्ते-भर हमारे नौजवान ने बरछों, बाणों, बल्लों, तलवारों, हथगोलों और बम-बंदूकों का प्रतिशोधी और नाशी संग्राम देखा । 

’’बाद में खबरों ने भी पुष्टि की कि पाकिस्तान छोड़ने की कोशिश में बीस-पच्चीस लाख लोग अगर उधर जान से हाथ धो बैठे थे तो पाकिस्तान पहुँचने की कोशिश में भी हूबहू उतने ही लोग इधर भी जान गँवा बैठे थे । बेघर होने वाले लोगों की गिनती भी दोनों तरफ एक जैसी रही थी, सत्तर से अस्सी लाख....’’

’’वह लड़का वहीं लाहौर में रह गया?’’ चुन्नू ने पूछा । 

’’हाँ,’’ मैंने कहा, ’’मेयो अस्पताल के सभी डाॅक्टर अपने मरीजों के साथ अच्छा सुलूक ही रखते थे.....उनमें भी कोई अपने देश या जाति-धर्म का बंधक न था.....’’

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लघुकथा


डॉ. अजय कुमार शर्मा, शिहोली मोती, गांधीनगर (गुजरात) 382355, मो. 9924677223


सहानुभूति

दिल्ली से पटना का सफर । 

“बाबू ! पैसा दे दो बाबू ! भगवान आपका भला करे !बच्चे ने कल से कुछ नहीं खाया !”

भिखारिन अपने छोटे से बच्चे को गोद में लिए, दया की अपेक्षा से देखने लगी !

“जाओ! आगे जाओ !” रामेंद्र लगभग खीझ कर बोला । एक सहयात्री की तरफ देखकर अपनी समझदारी पर मुस्काया । समाज सुधार के कार्यक्रम को आगे बढाने पर आनंद विभोर । कुछ देर पहले ही ट्रेन के टॉयलेट के पास लगे सूचनापट की बात पर अमल कर के, जिस पर लिखा था, भिखारियों को भीख ना दें । ट्रेन अपनी गति में । काशी का पुल आया और नीचे बहती गंगा मैया की निर्मल धारा । उसने जेब से पर्स निकाल कर पांच रूपये का सिक्का गंगा में उछाल दिया ।

स्वच्छता अभियान

सोसाइटी की मीटिंग में बढ़ चढ़कर बोले शैलेन्द्र भाई सभी मुद्दों पर । हम सभी उनके प्रयासों एवं कर्मठता के कायल थे । आज भी उन्होंने रंग जमा दिया अपनी बातों से मीटिंग में । मुख्य मुद्ददा था सोसाइटी की सफाई एवं स्वच्छता के प्रति सभी रहने वालों की सजगता एवं पार्टिसिपेशन का । उन्होंने अपने सभी व्यवहारिक सुझावों से अपना पक्ष रखा और विशेष जोर इस बात पर दिया कि सोसाइटी के लोग किस प्रकार उदासीन हैं सफाई को लेकर, किस तरह गन्दा कर रहे हैं सोसाइटी को जाने अनजाने । सभी पहले से प्रभावित थे, सो आज भी उन्होंने अपनी परिपाटी जारी रखी । 

 उनके फ्लैट के बिलकुल नीचे वाले फ्लोर यानी उनका तीसरे फ्लोर पर और शिवम का दूसरे पर । नई पोस्टिंग थी यहाँ, तो काम ज्यादा था, शिवम सुबह निकलता और देर रात वापिस आता, तो कुछ ख़ास मुलाकात नहीं होती किसी से । पत्नी बच्चों सहित पिछले स्टेशन में अकादमिक वर्ष के कारण । बरसात की शुरुआत हो गयी और लगातार बारिश होती रही, देखा सब ओर पानी भर गया और आफिस पहुंचने का कोई मार्ग सुझाई नही देता था । डायरेक्टर साहब को फ़ोन किया तो उन्होंने आने को मना किया । 

अगले दिन वह नीचे आया तो अवाक । तीसरे फ्लोर से नीचे की सब दीवारें मिटटी के गंदे पानी से बेहद खराब हो चुकी थीं, टीवी की डिश तक में कीचड़ । शैलेन्द्र भाई की बालकनी के बाहरी हिस्से में गमले, पेड़ पौधे और लटकती बेलें । क्या मीटिंग में शैलेन्द्र भाई इसी सफाई एवं स्वच्छता की बात कर रहे थे ! 

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व्यंग्य

डाॅ. सरोजिनी प्रीतम, राजेन्द्र नगर, नयी दिल्ली, मो. 98103 98662

दुखीकुमार जब से चुनाव जीतकर संसद में पहुंचे थे उनकी परेशानियां बढ़ गयी थीं । चुनाव भी उस मौसम में जीते जिसमें करोना काल का त्रास था आसमान टूट पड़ने का खतरा बना हुआ था । ये कैसा काल है  --     लगातार छींटाकशी होती है । कोई गरजता है तो कोई बरस पड़ता है । कहीं वज्रपात तो कहीं वज्राघात । ऐसे मौसम में मैदान जीतने वालों के लिए निरन्तर भविष्यवाणियां होती रहती हैं । दुखीकुमार जी को लगता था कहीं कोई बड़ी गलती कर बैठे हैं । मौसम के हाल पर वे हमेशा यों कान लगाये रहते कि कान के साथ यदि हथेली हरदम न टिकी रहती तो वह भी अब तक उखड़ चुका होता । भौंहें हमेशा के चिन्तन के कारण कुछ ऊंची-सी रहने लगी थीं । मुंह से बार-बार निकलता, ‘कमबख्तों, हमारे बखिये मत उधेड़ो ।’ यहां कौन दूध-धुला है और फिर जो दूध-धुला है, उस पर मक्खियां आना स्वाभाविक हैै । स्वाभाविक प्रक्रिया पर भी तुम उंगली उठाते हो । दल की दलदल में समूचा दल कीचड़ग्रस्त हो जाता है । कहो तो जो नये-नये चुनकर आये हैं, जिन्होंने अभी बहार का एक भी गुल खिलता नहीं देखा, न ही खिलाया, जिनका दामन अभी बेदाग है, वे सब भी इस कीचड़ की लपेट में आ जायेंगे ।’’

सोच-सोचकर दुखीकुमार को नींद नहीं आती । हर किसी की बात से बात निकालते । उनकी हरकतों पर नजरें गड़ाये रहते । डिस्को-डिस्को की धुन में उन्हें खिसको-खिसको सुनाई देने लगा । कहीं कोई गीत, कोई नाच-धुन न सुहाती ।

मन भी कितना अनमना हो जाता है । यही मन जो चुनाव से पहले युवा लोगों के साथ युवा होने के लिए अपनी उम्र तीस साल पीछे धकेलकर नाच उठता था, उन्हें आन्दोलन करने  को उकसाता था, हर छोटी बात से भी बात निकालकर नारे लगाने को कहता था, आज उन्हीं की हरकतों से खिन्न हो रहा था । संसद में शायद वाॅकआउट की ज्यादा नौबत आ जाए, इसलिए वे पूरे घर में तेज़-तेज़ चहलकदमी करते । सुबह-सवेरे जब ऊंचे शोर की आज की पीढ़ी के नवाब उठकर तेज़ म्यूजिक चला देते, तो दुखीकुमार जी सिर पीट लेते । और उस रात तो गज़ब ही हो गया । वे अपनी व्यस्त दिनचर्या से मुक्त होकर घर लौटे तोे अभी चाय का पहला घंूट भी गले से न उतरा था कि उनकी नातिन ने फिर संगीत के लिए रेडियो चला दिया । तेज़ी से एक धुन बजी, कुछ प्याले खनके और ज़ोरोें की आवाज़ आयी - ‘‘मैं तो गिरी रे ... कोई संभालो, मुझे संभालो ...’’

ऐं ... दुखीकुमार को लगा कि गीत की धुन बदल गई है । सरकार नाच नचाती रही, अब सरकार ही दुहाई दे रही है- मुझे संभालो, कोई संभालो !

दुखीकुमार का जी चाहा, हांक लगाकर वह भी चिल्लायें, ‘कोई है ... मुझे संभालो ... हमारी सरकार संभालो ... गिरी ... रे ...’ अब वे एक-एक शब्द पर चिन्तन करने लगे-गिरना तो एक प्रक्रिया है । वस्तुतः गिरता वह है, जो ठीक तरह से चलना नहीं जानता । चलना वास्तव में जन्मजात गुण नहीं है, हाथ पकड़कर चलना सिखाया जाता है । उस सिखाने के पीछे एक चलन ही दृष्टिगत होता है । चाणक्य की संतान की चाल कुछ और होती, नन्द के बेटों की कुछ और ! नेताओं के बेटे पहले चरण में ही अपना कमाल दिखाते और ऋषि-मुनियों की कृपा से पैदा संतानें हाथ में सर्वदा कोई-न-कोई फल लिये हुए ही आगे बढ़तीं । हर तरह की चाल चलने वाले के लिए अलग-अलग रास्तों का निर्माण होता और निर्माण के रास्ते जाने वाले लोग फिर सड़क पर न होते ।

तेज़ चहलकदमी करते हुए सहसा उनके पांव में एक छोटा-सा कील गड़ गया । अरे, कोई है, कोई यह कील निकालो!

उनकी हांक सुनकर न पत्नी आयी, न बेटा, न बेटी । बल्कि उन्होंने सुना, उनकी अपनी धर्मपत्नी बेटों को कह रही है, ‘जा, बेटा, तेरे पिताजी के पांव में एक विपक्ष का कील गड़ गया है । असल में यह मुए विपक्षी इन पर हमेशा कौओं की तरह मंडराते रहे हैं । जिस दिन से चुनाव जीते हैं, एक-न-एक कांटा हमेशा खटकता रहा । अब यह कील बनकर इनके पांव में आ लगा है । अरे भई, कील में अपने गुण हैं ठांेक-पीटकर लगा दो, किसी को भी टांग दो । कील दीवार में हो तो ठोंक-पीट करते समय दीवार की मजबूती का पता देता है । कोई कील गड़ जाए तो आदमी कुछ भी कर गुज़रने पर उतर आता है - जा बेटा, देख तो सही, तेरे पिताजी को अब कौन-सा कील गड़ गया है ...’

प्रिय पत्नी के प्रवचन का अमृत अभी पूरी तरह से समाप्त भी न हुआ था कि उन्हें अपने होनहार बेटे को लगाई जोर की हांक पर वह काठ मार गया । वह बोला, ‘कुछ नहीं, अम्मा, इनके मन में कील-सी गड़ रही है ।’ गीत की पंक्तियों से उन्हें लग रहा है, उनकी सरकार गिर जायेगी । ‘मुझे संभालो’ की हांक लिये वे एक-एक विपक्षी को ताक रहे हंै । इस वक्त ये विपक्षी चाहे किसी दल के हों, उनके दल को नाकों चने चबाने पर तुले हैं । ये सभी लोग एक तुला में बैठे हैं । पलड़ा कभी ऊंचा, कभी नीचा । किसको अपने में समेटें कि समूचे तुल जाएं और इन्हीं का पलड़ा भारी हो जाए । कोई कौड़ी के दाम बिके या अशर्फियों के मोल, हर किसी का अपना ही वज़न है, अपनी ही तौल । इसी तौल को नापकर, उसका बाजार भाव भांपकर, उसे विपक्षी से पक्षी बनाना, उसके नये ‘पर’ लगाना हरेक सरकार का पहला कर्म होता है । इस क्षेत्र में यह कतर-फ़तर तो दैनिक कर्म-दिनचर्या है । फिर पिताजी में यह हीनता की भावना क्यों आने लगी है । इसीलिए पिताजी की हाय-तौबा से ध्यान हटाकर हमारे नाश्ते, चाय-पानी का  प्रबन्ध करो, पिताजी के पांव में यह कील गड़ा रहने दो ।

यह वह कील है, जिससे न खून बहेगा, न शरीर में खरोेंच आयेगी, न कहीं छेद होगा, न ही सैप्टिक । इसका ज़हर नहीं फैलता, बल्कि ज़हर को पचाने की क्षमता देता है । यह कील पांव में गड़कर पांव को भी मजबूत करता है । यही कील गड़ा हो तो प्रेम की फिसलन-भरी राहों पर भी आदमी न फिसले, बल्कि मां-बाप को, समाज को मुंहतोड़ जवाब दे - तलवों में अगर कील-ही-कील हों तो जीतन की इस दौड़-भाग में पांव स्केट्स पहने पहिए लगे हुए स्वतः चलित आॅटोमेटिक व्हील का पर्याय होंगे । फिर यह गिरी रे ... गिरी रे के गीत, यह कोई ‘मुझे संभालो’ की जगह ... टिकट लगाकर तमाशा देखो का गीत गूंजेगा । मैं तो कहता हूं कि कील शक्ति का प्रतीक है/, वकील में कील ही तो उसे वकालत की गरिमा देता है । चमड़े के सादे टुकड़े को कील कील ही ठोंक-पीटकर उसको सिलाई आदि द्वारा रूपाकार प्रदान करता है-मैं तो कहता हूं, अगर पिताजी के मन में यह विपक्षी कील की तरह गड़े हैं, तो पिताजी स्वयं उस कील के दर्द से शक्ति पाकर अपने-आपको झिंझोड़ने की स्थिति में आ जायेंगे । आज तक लोगों ने बखिये ही उधेड़े हैं । जहां कील ठुकी, वह ठुकी रही । अतः मैं ठोंक-पीटकर कह सकता हूं कि उन्हें सिर्फ इस गीत की कील गड़ रही है । एक ही पंक्ति बार-बार गड़ रही है-सरकार गिरी रे-और उनके हाथ फैलकर एक ही दुहाई दे रहे हैं-मुझे बचाओ ।

इधर तीन मिनट का वह गीत इस लम्बे चिन्तन को जन्म देकर खत्म हुआ । दुखीकुमार जी का वह कील तो अलग हो गया, पर बेटे और पत्नी ने इतने सारे कील ठोंक दिये थे, दुखीकुमार जी नये दर्द से कराहने लगे ।

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संस्मरण


श्री अशोक गुजराती, मुंबई, मो. 9971744164, ई-मेल:ashokgujarati07@gmail.com


अन्यथा

उसको खामगांव के कालेज से हिन्दी प्रवक्ता के पद के लिए इंटरव्यू कॉल आया था । तब वह अकोला के एक स्कूल में शिक्षक था । माता-पिता गुज़र चुके थे । वह अपने पैतृक घर में बड़े भाई के साथ रहता था । कम उम्र में ही शादी हो गयी थी । दो बेटियां थीं । पारिवारिक ज़िम्मेदारियां बढ़ रही थीं । ऐसे में उसके लिए यह एक सुअवसर था । 

 हमने कार्यक्रम बना लिया । मेरे स्कूटर से ही खामगांव, जो केवल अड़तालीस किमी था, जाना निश्चित हुआ । ख़ुशी की बात यह थी कि हमारे वरिष्ठ साहित्यकार और स्थानीय कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष डॉ. सुभाष पटनायक इंटरव्यू कमेटी में थे । हम निश्चिंत थे क्योंकि पटनायक जी जो ठान लेते थे, वह करके रहते थे । उन्होंने हमें आश्वस्त कर रखा था । 

 और वही हुआ । मेरे दोस्त का इंटरव्यू सफल रहा । लौटते में हम हवा में उड़ रहे थे । रास्ते में बालापुर आता है, जहां तीन नदियों का संगम है । वहां पुल के आख़िर में ताज़ा ककड़ी बेचने वाले होते हैं । मसाला लगी ककड़ियां खाकर हमने क़ामयाबी का जश्न मनाया । जानते हैं, यह दोस्त कौन था... जी हां, कैलाश सेंगर । तब तक उसने कई गीत, ग़ज़लें, कहानियां लिख ली थीं । जब वह मंच से गीत-ग़ज़ल गाता था, तालियां बजती रहती थीं । उसकी आवाज़ के लिए, उसके शब्दों के लिए- उनके छू लेने वाले अर्थों के लिए । कुछ दिनों पहले ही उसकी एक कहानी ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुई थी । 

 उसने खामगांव के कालेज में अपना पद ग्रहण कर लिया था । बस से ही आना-जाना कर रहा था । अर्थात स्कूल की नौकरी छोड़ दी थी । पता नहीं था, कहानी में यहां एक नया मोड़ आने वाला है ... 

 खामगांव के इंटरव्यू से पूर्व ‘धर्मयुग’ में उप संपादक के पद का विज्ञापन आने पर उसने आवेदन कर दिया था । 

साक्षात्कार का बुलावा आ गया । उसकी कहानी ‘धर्मयुग’ में छपी होने के कारण उसका पलड़ा भारी था ही, साक्षात्कार भी बहुत अच्छा हुआ था । कुछ ही दिनों में उसको इस पद के लिए चुन लिये जाने की सूचना मिल
गयी । 

 तब पसोपेश शुरू हुआ । कालेज की लगी-लगायी नौकरी करे अथवा ‘धर्मयुग’ जैसी बड़ी पत्रिका हेतु बंबई (आज की मुंबई) चला जाये । हमारा अकोला क़स्बा-नुमा शहर ही है । यहां ख़ासकर मध्यमवर्गीय व्यक्ति अपना शहर छोड़ कर जाने में हिचकिचाता है, वह भी बंबई जैसे महानगर में.... छोटे गांवों-नगरों में यह अफ़वाह फैली होती है कि बंबई कोई रहने लायक़ शहर नहीं है । वहां कभी भी, कोई भी दिन-दहाड़े लूट लिया जाता है । 

 यह मानसिकता कि जहां पैदा हुए, पले-बढ़े, उस जगह को एकाएक त्याग कर कहीं और बस कर नये सिरे से ज़िन्दगी शुरू करना, लोग अक्सर पसन्द नहीं करते । फिर परिजन भी आशंकित रहते हैं कि प्रारंभ में भले ही व्यक्ति अकेला जाकर अपनी व्यवस्था किसी प्रकार कर लेगा लेकिन उसके उपरांत एक घर ज़रूरी होगा, जो कि बंबई में जुटा पाना कठिन माना जाता है । सुना रहता है कि बंबई में एक आठ गुणा सात के कमरे में दस-दस जन किसी तरह गुज़ारा करते हैं । ऐसे मुश्किल जीवन से अपना गांव-क़स्बा बेहतर कि लगभग सारी सुविधाएं आसानी से मिल जाती हैं । 

 उस वक़्त हमारी साहित्यकार दोस्तों की अकोला में एक मण्डली थी । घनश्याम अग्रवाल, दामोदर खड़से, प्रमोद शुक्ल, प्रकाश पुरोहित के अलावा और भी मित्र थे । कोई कैलाश को जाने की सलाह दे रहा था तो कोई डरा रहा
था । अच्छी-ख़ासी लेक्चरर की नौकरी को लात मारना कइयों को जंच नहीं रहा था । मैं उस गुट में था, जो कैलाश को भविष्य की संभावनाएं गिनाकर बंबई जाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे कि, इतना बढ़िया मौक़ा दोबारा नहीं मिलेगा । 

 अंततः कैलाश बंबई गया । ‘धर्मयुग’ की वजह से संपर्क बढ़ते ही उसका वहां भी नाम हो गया । मंच भी मिले, लेखन के लिए माहौल भी और पत्रकारों के कोटे में सरकार की ओर से फ़्लैट भी आबंटित हुआ । बाद में ‘धर्मयुग’ बन्द होने से पहले ही वह नवभारत टाइम्स में आ गया था । वहीं से सेवा-निवृत्त भी हुआ । आज जब मैं यह संस्मरण लिख रहा हूं, कैलाश इस दुनिया में नहीं है । दो साल पूर्व 27 फ़रवरी, 2 । 021 को कैंसर के कारण उसकी असमय मृत्यु हो गयी थी । 

 हां, कहानी में एक मोड़ और आया था । यह बात और कि वह कैलाश का कुछ बिगाड़ नहीं सका । उसके साथ खामगांव कालेज के इंटरव्यू में सहभागी एक उम्मीदवार ने, जो महिला थीं, यूनिवर्सिटी में शिकायत कर दी थी कि वह पिछड़ी जाति से है, एक वर्ष वहीं पर नौकरी कर चुकी है तो उसका ही चयन होना चाहिए था । यूनिवर्सिटी से दो माह बाद उस महिला के पक्ष में फ़ैसला आ गया था । यानी कैलाश की वह व्याख्याता की नौकरी यक़ीनन चली जानी थी । उसने स्कूल से इस्तीफ़ा दे ही दिया था । ऐसे में वह कहीं का न रहता । वह तो ‘धर्मयुग’ में उसकी नियुक्ति इस बीच हो गयी थी, अन्यथा । । । 

 वही होता, जो उसने बरसों बाद अपने शे’र में कहा था-

 किसी बच्चे की मुट्ठी से भी क़ीमत पूछ लो मेरी

 किसी तोड़ी हुई गुल्लक का मैं हूं आख़िरी सिक्का 


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आलेख

डॉ. सीमा शाहजी, सहायक प्राध्यापक हिंदी (अतिथि) शा. महा. मेघनगर

जिला झाबुआ, मो. 7987678511 


ऊंची ऊंची पेंग बढ़ाता तन मन हर्षाता,
डालियों पर बंधा झूला 


सावन जब बादलों में झूम-झूम मेघ बरसाता है, ऋतु का उछाह जन जन के आतप्त मन को शीतल कर जाता है । सावन के आते ही गांवों में, बागों में, घरों में नीम की डाली पर झूले डलने लगते हैं । महिलाएं सावन के गीत गाते हुए झूलती है । सारा माहौल खुशनुमा बन जाता है । हमारे अनेक पौराणिक ग्रंथों में वर्णित है कि प्राचीन युग से ही सावन मास में झूला झूलने की परंपरा प्रचलित है । दरअसल झूला झूलना महज आनंद की अनुभूति ही नहीं, बल्कि एक स्वास्थ्यवर्धक प्राचीन योग भी है । विद्वानों का मानना है की जलवृष्टि के कारण धरती वाष्प निष्कासन करती है । इसी के साथ साथ इस ऋतु में जल में अम्ल दोष के कारण जठराग्नि कमजोर हो जाती है । ऐसे समय झूला झूलना ऊंची ऊंची पेंगे बढ़ाना तन मन को हर्षाता ही नहीं, वरन डालियों पर बंधा झूला स्वास्थ्य का सुधार करने वाला एक सुगम व्यायाम बन जाता है । झूला झूलने से हमारे मन मस्तिष्क में हर्ष और उत्साह की वृद्धि होती है, तनाव काफूर हो जाता है इससे सांस लेने की गति में तेजी आती है, वर्णित तो यहां तक है की फेफड़ों का उत्तम स्वास्थ्य व क्रियाशीलता में वृद्धि होती है ।  झूलने से बढ़कर व्यायाम फेफड़ों के लिए कोई है ही नहीं । पानी में घुलनशील तमाम गैसें वर्षा काल के जल के साथ साथ पृथ्वी पर आ जाती है और वायु शुद्ध हो जाती है । झूले से शुद्ध हवा का सेवन अधिक होता है, जो स्वास्थ्य के लिए अनुकूल है, आंखों की ज्योति के लिए हरा रंग लाभदायक है । इस मौसम में छाई हरियाली आंखों को अनूठा ऑक्सीजन दे देती है । झूला झूलते समय हाथों की मजबूत पकड़ रस्सी पर होती है, इसी प्रकार खड़े होकर झूलते समय बार-बार हचकी- मचकी लेने उठक- बैठक भी लगानी पड़ती है । इन क्रियाओं के कारण, जहां एक ओर हथेली और उंगलियों की ताकत बढ़ती है, वहीं दूसरी ओर हाथ पाँव तथा पेट का व्यायाम भी होता है । सावन में झूलने का विशेष महत्व इसलिए भी है कि, इस मौसम में समस्त वनस्पतियां अपने गुणों के उफान पर रहती है, ऐसे समय में तमाम वनस्पतियों को स्पर्श कर आने वाली, बहने वाली हवा, अन्य देशों की तुलना में बहुत ही लाभदायक होती है । ऐसी हवाओं के अपने विशिष्ट प्रभाव होते हैं । इसलिए नींम, पीपल, आंवला, आम और जामुन के वृक्षों पर भी झूला डालने की विशेष प्रथा है । कहा जाता है की पीपल पर झूला बांधकर झूलने वाला रुधिर एवं अंदरूनी विकारों से मुक्त होता है, आम पर झूला डाल सावन में झूलने से दिलो-दिमाग दुरुस्त होता है । बबूल की डाली पर झूला झूलने से मेद वृद्धि रुक जाती है, तो किसी कमल युक्त तालाब में किनारे का डला झूला आमाशय के विकारों को समाप्त करता है । नीम पर डाला झूला त्वचा विकारों के लिए लाभदायक है । आप भी सावन में कभी तो झूला झूले होंगे और सावनी सेरों के बीच ऊंची ऊंची पेंग भी बढाई होगी, यह डालियों पर बंधा झूला तन मन को हर्षाता ही नहीं है, कई खट्टी मीठी हस्ती खेलती खिलखिलाती स्मृतियों से अनूठा साक्षात्कार कराता है, बचपन की यादें झूला झूलने के उछाह को दुगुना कर देती है । 

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आलेख

 श्री टेकचंद अत्री,  (उपाध्यक्ष साहित्य संगम ट्राईसिटी ढकोली, चंडीगढ़) पिन 160104


चंद्रयान 3

वसुंधरा रंगोली रचे मंगल शुक्र खड़े द्वार

आदित्य के प्रकाश का प्रज्ञान करें इंतजार


चंदा भ्राता श्री, मैं गदगद हूं । 

तेरी कुशलता का समाचार देकर तेरे भांजे विक्रम ने हमें निहाल कर दिया । मैं चिंतित रही । यात्रा पर निकले मुसाफिर की चिंता वाजिब है । भटका हुआ सायं को अपने ठिकाने पर पहुंच जाए तो भटका नहीं कहलाता । भाई चंदा, मैंने तुम्हारे दोनों भांजों की पोटली में कई दिनों का खाना चबेना रख छोड़ा था उम्मीद है कम नहीं पड़ा
होगा । प्रज्ञान नटखट है । कंगारू सी गोद से निकलकर मचलता फिरता है । 

मेरे सारे धरा वैज्ञानिक पुजारियों ने तीन वर्ष शिव तपस्या की है । तपस्या विफल नहीं जाती । और हां, मेरे पड़ोसी परिवार भी तो बेसब्री से विक्रम व प्रज्ञान के पराक्रम का नवाचार चखने परखने पर दूरबीन लगाए बैठे हैं । हमारी सादगी पर वे असमंजस में जी रहे हैं । शादी में गाली भरे गीत भी अच्छे लगते हैं । 

 अपने भांजे विक्रम व प्रज्ञान का अपनी चंदन -रज बिखेर कर स्वागत किया, आपको हमारी तालियों व खुशी की खुशबू मिल गई होगी । मैंने भेंट स्वरूप तुम्हें तिरंगा भेजा है । उसे ऊंचा स्थान देना भैया । हमारे इष्ट देव शिव ने आपको हजारों वर्ष अपने मस्तक पर धारण किया । आज “शिव शक्ति” स्थल का प्रसाद पाकर आप ऊऋण हुए । 

 मैं 23 अगस्त को रक्षाबंधन जैसा “राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस” त्यौहार रूप में मानती रहूंगी । भारतीय धरा, ऋषि मुनियों की संस्कृति, वाराह मिहिर व आर्य भट्ट की खगोलीय शिखाओ की ऋणी है । मैं इस भावी वट वृक्ष को फलीभूत करना चाहती हूं । इसके साथ-साथ आदित्य को माध्यम बना पुण्य आत्माओं को वैज्ञानिक अर्घ देकर तृप्त करती रही हूं । हमें विश्वास है सूर्य देव भी एक दिन प्रसन्न होंगे । 

 मेरी गोद में बैठे इसरो की रक्त धमनियों में संचारित प्रकाश पुंज के अनेक लाइट हाउस दुनिया को रास्ता दिखाएंगे । मैंने तो कितनी बार करवा चौथ, पूर्णिमा व ईद पर तुम्हें जी भरकर भीतर में उतारा । झील में उतार कर देखा और छत से तो हर रोज निहार रही हूं । आज मेरे परिवार भारत के तुम साक्षी बने हो । “ अतिथि देवो भव “के मंत्र से तुम्हें स्वागत कक्ष से मधुर ध्वनि की गूंज के साथ ले जाकर वैज्ञानिक शोधशाला में सजाया गया है । वैज्ञानिक चेष्टा को सैल्यूट हो रहे हैं । खुशी से भावुक भी है । अमृत काल खंड में आपसे अमृत वर्षा की उम्मीद लिए हूं । भारत धुरी पर और तेजी से भ्रमण पर रहूंगी । 

 आपका जायका व हवा पानी की रवानगी की खबर आने वाली है । आपका मिजाज हमारे मिजाज में रच बस गया है ऐसा लग रहा है । अभी अपना परिवार वयोवृद्ध सूरज भैया की कुशल क्षेम की कामना करता है । क्यों न हो!  हमारे बजरंगबली हमें आदित्य से परिचित करवा गए थे । गेंद समझकर सूरज भैया को हाथ में उठा लिया फिर चमकने के लिए स्वतंत्र कर दिया था । 

 कुछ भी हो बहन वसुंधरा तेरे भांजों को ननिहाल में जल्दी-जल्दी भेज कर तेरे रहस्यों से परिचित होती रहेगी । और हां ,मेरे लिए भेंट स्वरूप क्या दे रहे हो ,उनके आने से पहले बता देना, मैं आतुर हूं । 

 आपकी बहन वसुंधरा भारती । 

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कविता

डॉ. चेतना उपाध्याय, अजमेर, मो. 9828186706


"चांद पहुंचा चंद्रयान"

बचपन से हमारे थे, नन्हे नन्हे अरमान

उछलते कूदते, छूना चाहते थे आसमान

चंदा हमारे मामा लगते,

चाचा होते सूरज अनजान

धरती हमारी माताजी है, 

पिता हमारे आसमान

चांद सूरज ग्रह होते हैं, 

उनसे पूरे थे अनजान जी भर पढ़ते भाषा,गणित, 

भूगोल और विज्ञान 

करवा चौथ पर चांद पूजते, 

शरद पूर्णिमा अमृत को जूझते अरमान

23 अगस्त 23 हो गया पूरा उल्टा हिंदुस्तान चांद पहुंच गया, 

हमारा अनूठा विक्रम चंद्रयान इसरो का अनूठा संगठन, 

याद रखेगा हिंदुस्तान साक्षात शिव के संकल्प सी,

कलाहस्ती कल्पना सोमनाथ की नेतृत्व युक्त थी, 

नव अल्पना राम -कृष्ण का आशीष लिए थे रामकृष्णन

कांतिमय श्रीकांत, 

शंकर से निराले एस संकरन नारायण नारायण भजते, 

विशिष्ट से नारायणन

लक्ष्मण की समर्पित उर्मिला से,

एस उर्मीकृष्णन प्रेरणा की जीवंतता से, 

होता रहा सहज सृजन चंद वर्षों में चांद पहुंच गया, 

नव विक्रम चंद्रयान

अध्यात्म, विज्ञान, लगन, समर्पण की संयोजना 

लोग कहें इतिहास रच रही,

मोदी जी की चेतना

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लघुकथा

सुश्री नमिता सिंह, अहमदाबाद, मो. 97247 56948

पत्र

डाक लेकर रामदीन डाकिया जैसे ही शहर के अनाथालय में प्रवेश किया, एक छोटी बच्ची जो तकरीबन आठ वर्ष की रही होगी, भागकर उसके पास आई। एक मुड़ा तुड़ा पत्र उसकी ओर बढ़ाते हुए बोली, "डाकिया अंकल, आप तो सबकी डाक उनके पते पर पहुँचाते हैं तो मेरा यह पत्र भी भगवान जी तक पहुँचा दीजिएगा।"

"भगवान जी तक?" डाकिया चौंका।

 "हाँ भगवान जी तक।"

"भगवान जी से भला तुम्हें क्या काम?" रामदीन को उत्सुकता हुई।

"मैंने पत्र में उनसे मेरे माता-पिता को वापस भेज देने का अनुरोध किया है क्योंकि अब मुझे भी मेरे माता-पिता के साथ रहना है। माँ के हाथ से खाना खाना है और पिता की ऊँगली पकड़ मेला घूमना है।"

"अचानक तुम्हें ऐसा ख्याल कैसे आया?"

"कल वॉर्डन अंकल हम सब बच्चों को मेला घुमाने ले गए थे। वहाँ सभी बच्चे अपने माता-पिता के साथ थे। हम बच्चों ने वॉर्डन अंकल से पूछा कि हमारे माता-पिता कहाँ है तो उन्होंने बताया कि भगवान जी ने जरूरी काम से उन्हें अपने पास बुला लिया है।"

बच्ची की बातें सुनकर नि:संतान रामदीन की आँखें भर आई। उसकी भी बड़ी इच्छा थी कि वह अपनी संतान की उँगली पकड़ उसे मेला घुमाए। उसकी फरमाइशें पूरी करें। उसके साथ कई खेल खेले। संतान प्राप्ति के लिए उसने न जाने कहाँ-कहाँ माथा टेका था, कितनी मन्नतें माँगी थी। अचानक उसे लगने लगा कि भगवान ने उसकी प्रार्थना सुन ली है। 

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कहानी

स्व. देवेंद्र सत्यार्थी

ब्रह्मचारी

पाँच तरनी की वह रात मुझे कभी नहीं भूलेगी। न पहले किसी पड़ाव पर सूरज कुमारी ने इतना शृंगार किया था, न पहले गैस का लैंप जगाया। इस रोशनी में सूरज कुमारी के विवाह वाले वस्त्र कितने भड़कीले नज़र आ रहे थे !

दोनों घोड़ेवालों को विशेष तौर पर बुलाया गया था। एक का नाम था अज़ीज़ा तथा दूसरे का रफ़ीय । जयचंद का कश्मीरी क्लर्क जियालाल बहुत ख़ुश नज़र आ रहा था। जयचंद ख़ुद दुल्हा बना बैठा था । रसोइए को, मालूम नहीं, इस महफिल में कुछ आकर्षण क्यों न महसूस हो, काम से फुरसत पा वह वहाँ का बाज़ार देखने चला गया।

प्रेमनाथ को बिना कुछ कहे-सुने ही, जब मैं श्रीनगर से पैदल ही पहलगाम के लिए चल दिया था, तो कौन जानता था कि इतने अच्छे खेमे में जगह मिल जाएगी। सूरज कुमारी ने मेरा रहस्य जान लिया था। उसने जयचंद को बता दिया कि मैं घर-वालों की रज़ामंदी के बग़ैर ही इधर चला आया हूँ। इस प्रकार उसने मेरे लिए अपने पति की हमदर्दी प्रगट कर दी थी ।

जियालाल ने अज़ीज़े से वह गीत गाने की माँग की, जिसमें एक कुमारी कहती है ‘भेद मुश्क दी ख़ुशबू' (लोक-गीत की पंक्ति) मेरे मन में बस गई है। अरे भँवरे, तू कहाँ जा सोया है बे?' उसे यह गीत याद नहीं था । उसने सोचा कि वह लड़का जिसके मन में 'भेद मुश्क की ख़ुशबू' बस गई थी, सूरज कुमारी से कहीं अधिक सुंदर होगी। यह अलग बात है कि कश्मीर की बेटी को अक्सर बहुत सुंदर वस्त्र नहीं मिलते।

ख़ुद सूरज कुमारी पता नहीं क्या सोच रही थी। मुझे उसका वह रूप याद आ रहा था, जब उसके सिर पर हरा दुपट्टा लहरा रहा था और चंदनवाड़ी पार करके वह अपने घोड़े से बर्फ़ के उस पुल पर उतरी थी, जिसके नीचे शेषनाग बह रहा था। तब वह जंगल की अप्सरा नज़र आती थी । रास्ते में जंगली फूल चुन-चुनकर जियालाल ने एक गजरा गूँथा । वह मुस्कुराहट भी मुझे कभी नहीं भूलेगी, जो जियालाल से यह गजरा लेते समय सूरज कुमारी की आँखों में नाचने लगी थी ।

मैंने कहा, “गीत रचना करना बहुत मुश्किल काम तो है ही । शब्दों को बाँसुरी में से निकाल दूँ, गीत बन जाएगा ।"

सूरज कुमारी बोली, “मेरे पास तो प्रभावशाली शब्द भी नहीं बचे । हाँ, बाँसुरी मैंने सँभालकर रखी हुई है... कभी मैं भी कविता और संगीत के पीछे दीवानी हुई घूमती थी । "

मैं चुप हो गया, मगर अपने मन में उसने कहा, “घबराओ न चन्नीए, प्यारी ! तेरे बोल तो बहुत सुरीले हैं। वह ज़रूर किसी दिन फिर बाँसुरी में से निकलेंगे। अपने गीतों में तू मुझे भूल तो न जाएगी... ।”

अज़ीज़े ने लचकदार आवाज़ में गाना शुरू किया :

लज फुले अंद वनन

च कनन गोए नामे औन? 

लज फुले कोलसरन

बोथू नीरन खशवो

च कनन गोए नामो औन?

" दूर जंगलों में फूल खिल गए। क्या मेरी बात तेरे कानों तक नहीं पहुँची ? सेलसर जैसी झीलों में फूल खिल गए। उठकर जाओ। खड़े हो । हम चरागाहों की ओर चलेंगे। दूर जंगल में चमेली के फूल खिल गए। क्या मेरी बात तेरे कानों तक नहीं पहुँची ?"

जयचंद कश्मीरी भाषा समझता था। कश्मीर में ठेकेदारी करते हुए उसे कई वर्ष हो गए थे। सूरज कुमारी ने इस गीत में कोई दिलचस्पी न दिखाई। जयचंद बोला, “यह किसी कुमारी का गीत है। उसने देखा कि बहार आ गई है। चमेली के फूल भी खिल गए और फिर शायद अर्धचेतनावस्था में यह भी महसूस किया कि वह स्वयं भी चमेली का एक फूल ही है।"

गीत का एक ही झटका अज़ीज़ से मेरे पास खींच लाया। सारे रास्ते में कभी मैंने उसे इतना ख़ुश नहीं देखा था । आदमी कितना छिपा रहता हैं उसे जानने का तो मैंने अभी तक कोई यत्न भी नहीं किया था ।

रोज़-रोज़ के लंबे सफ़र से हम काफ़ी थक चुके थे। अब इस शगल में हम अपनी थकावट भूल गए। सूरज कुमारी का सुंदर चेहरा सामने न होता तो अज़ीज़ को बहार का गीत न याद आया होता।

सूरज कुमारी कह रही थी, "बाबूजी, मैंने सुना है, इस वादी में बहने वाली पाँच नदियों का पानी जो इतना पास बहता है, एक-दूसरे से थोड़ा अधिक ठंडा है ।" 

जयचंद बोला, “शायद यह ठीक हो ।”

मैं सोचने लगा कि सभी मर्द भी एक स्वभाव के नहीं होते । औरतें भी एक जैसी नहीं होतीं। वाह भई कुदरत...., पंच तरनी की पाँच नदियों का पानी भी एक जैसा ठंडा नहीं ।

"पार्वती इन नदियों में बारी-बारी नहाया करती थी, बाबू जी ।"

" तुमसे किसने कहा ?"

"जियालाल ने ।"

जियालाल चौंक गया। सूरज कुमारी ने हँसते हुए जयचंद की ओर देखा, जैसे वह ख़ुद ही एक पार्वती हो और अपने शिव को रिझाने का यत्न कर रही हो । 

मैंने अज़ीज़ा से कोई अन्य गीत गाने की माँग की। वह गा रहा था : 

वनी दमई आखलन यार कुनी से लखना? 

छोह लोगन मसवलन सार कुनी में लखना?

दमई सियंद ज़ियलन यार कुनी में लखना?

“आखल के फूलों में तुझे ढूँढूँगी, कहीं तू मिलेगा। नहीं, मेरे प्रीतम ? मेरे रोम-रोम को ख़ुद से घृणा हो गई है, कहीं तू मिलेगा नहीं प्रीतम ?"

रफ़ीय उस वृक्ष के समान था, जिसे झिंझोड़ने से भी उसकी ऊँची टहनी पर लगा फल नीचे नहीं गिरता। उसने एक भी गीत न सुनाया। परंतु जियालाल काफ़ी उछल पड़ा तथा और किसी रस्मी तकाजे के उसने गाना शुरू किया।

चूरी यार चूलमताए, तहीमाड़े औठवून?

तहीमाड़े औठबून?

दूरन मारन गराए लों लो, गराए लो लो!

वथीवी वग निआव रोवहाए कखने

संगरमालन छाए लो लो, छाए लो लो।

"मेरा प्रीतम चोरी-चोरी भाग गया है। क्या आपने उसे देखा है कहीं, देखा है कहीं ? कानों के सबज़े हिलाते हुए । उठो परियो, हम रोव नाच करेंगे, पहाड़ियों की छाँव में, पहाड़ियों की छाँव में !"

जियालाल मुस्कुरा रहा था। शायद ख़ुद ही अपने गीत पर ख़ुश हो रहा था । सूरज कुमारी की ओर ललचाई आँखों से देखना व्यर्थ न गया। वह उसकी बोली नहीं समझती थी, दाद दे नहीं सकती, मगर उसे मुस्कुराते देख वह भी मुस्कुराने लगी।

सूरज कुमारी की मुस्कुराहट कितनी मनमोहक थी। वह कालिदास की किसी प्रेम और सुंदरता की कविता के समान थी, जिसमें से शब्द के एक से अधिक अर्थ मिलते हैं। इसलिए मेरी समझ में यही बात आई कि उसकी मुस्कुराहट जयचंद और जियालाल के लिए नहीं हैं, बल्कि मेरे लिए हैं ।

मगर मैं इस माया में फँसने के लिए तैयार नहीं था । उपनिषद् की पुरानी कहानी 'कच देवयानी' (पौराणिक कथा ) मेरी आँखों के सामने घूम गई... सूरज कुमारी शायद देवयानी थी और मैंने महसूस किया कि मैं भी किसी 'कच' से कम नहीं ।

उपनिषद् का ‘कच' स्वर्ग का रहने वाला था, मैं इस धरती का । यही अंतर था । वह धरती पर एक ऋषि के आश्रम में अमर रहने की विद्या सीखने आया था और यात्रा के दिन काटने के लिए जयचंद के खेमे में पनाह ली थी । स्वर्ग से चलते समय 'कच' ने यह वचन दिया था कि वह यह विद्या सीखकर वापस स्वर्ग में लौटना और वहाँ के निवासियों को इसका लाभ पहुँचाना कभी नहीं भूलेगा। इसलिए सबसे ज़रूरी था कि ब्रह्मचारी के व्रत पर कायम रहे। ऋषि किसी को यह विद्या आसानी से नहीं सिखाता था। कई नौजवान उससे पहले भी आ चुके थे। हर कोई ऋषि के गुस्से की आँच को सहन नहीं कर पाया और ख़त्म हो गया। मगर जब कच आया तो ऋषि-पुत्री देवयानी उस पर मोहित हो गई । अपने पिता को सिफ़ारिश कर उसने उसे यह विद्या सिखाने के लिए राजी कर लिया। जब 'कच' यह विद्या सीख गया तो वह पीछे लौटने के लिए तैयार हो गया । देवयानी ने कहा, “देखो! इस वेणुमती नदी को भूल न जाना। यह तो ख़ुद ही प्यार की भाँति बहती है।”

कच जवाब देता है, इसे मैं कभी नहीं भूलूँगा । इसके नज़दीक उस दिन जब मैं यहाँ आया था, तुझे फूल चुनते देखा था...तो मैंने कहा था, मेरे योग्य सेवा हो तो बताएँ ।

देवयानी ने कहा, “इस प्रकार हमारा प्यार शुरू हुआ था। अब तुम मेरे हो । औरत के दिल को पहचानो...प्यार भी किसी अमृत से सस्ता नहीं तो अब सारे देवता और उनका भगवान् अपनी धरती के साथ तुम्हें लौटा नहीं पाएँगे। मुझे फूल भेंट करने के विचार से तुमने कई बार पुस्तक परे फेंक दी थी। अनेक बार तुमने मुझे वे गीत सुनाए थे, जो स्वर्ग में गाए जाते हैं । तुमने यह व्यवहार केवल इसीलिए तो नहीं अपनाया ताकि मुझे ख़ुश रख सके और आसानी से वह विद्या सीख लो जो मेरे पिता ने किसी को सिखाना स्वीकार नहीं किया था ।"

'कच' ने कहा, “मुझे माफ़ कर दो देवयानी...स्वर्ग मुझे अवश्य जाना है... फिर मैं तो ब्रह्मचारी हूँ ।"

“ब्रह्मचारी ! एक राही की तरह तुम यहाँ आ निकले। धूप काफ़ी तेज़ थी । छाया देखकर तुम यहाँ आ बैठे। फूल चुनकर तुमने मेरे लिए एक हार बनाया था। अब तुम ख़ुद ही उस हार का धागा तोड़ रहे हो...देखो फूल गिर रहे हैं...।”

“ब्रह्मचारी तो मैं हूँ । स्वर्ग में हर कोई मेरे इंतज़ार में होगा... मुझे वहाँ जाना ही है। और यह स्पष्ट ही है कि जहाँ तक मेरी जात का संबंध है । उस स्वर्ग में मुझे अब शांति नहीं मिलेगी।"

मैंने सोचा कि एक लिहाज़ से मैं 'कच' से अधिक बढ़िया कारण दे सकता हूँ। मैं कह सकता हाँ... सूरज कुमारी! तुम्हारी मुस्कुराहट सिर्फ़ तुम्हारे पति के लिए होनी चाहिए। देवयानी की भाँति तुम किसी ऋषि की कुमारी लड़की तो हो नहीं । 

सूरज कुमारी अंगड़ाई ले रही थी । उसके बालों की एक लट बाएँ गाल पर तरक आई थी। मुझे संबोधित होकर बोली, “बस या अभी और...?"

मैंने उसका पूरा अर्थ समझे बिना ही कह दिया “और नहीं ।"

“और नहीं...? ठीक कहा, मैं तो इधर की भाषा समझती नहीं । तुम्हारे लिए ही बाबू जी ने अज़ीज़ को यहाँ बुलाया है। अभी थोड़े से गीत सुनकर ही तुम्हारी भूख उतर गई? ऐसे ही गीतों की रट लगा रखी थी पहलगाम में।"

अज़ीज़ा कुछ न बोला और जयचंद ने महफिल समाप्त कर दी । अज़ीज़ा और रफ़िय चले गए और रसोइया जयचंद और सूरज कुमारी के बिस्तरे बिछाकर हमारे पास आ बैठा ।

सूरज कुमारी पूछ रही थी, “बाबू जी, सुना है कि गुफ़ा में कबूतरों का जोड़ा मी दर्शन देता है।"

“सुबह तुम खुद देख लेना ।” 

“ये कबूतर कहाँ से आते हैं?"

‘‘अब यह मुझे क्या मालूम?’’

‘‘एक सुनारन ने बताया था, ये कबूतर शिव व पार्वती के रूप हैं।’’

शायद औरतों का वेद यही कहता हो।’’

रसोइया सो गया था। जयचंद तथा सूरज कुमारी भी सो गए। जियालाल बोला, "कितनी सर्दी है !”

“कितनी सर्दी है। ब्रह्मचारी होकर भी यह सर्दी सह नहीं सकता । शर्म की बात है।"

“ब्रह्मचारी तो मैं हूँ, मगर इस जलवायु का मैं आदी नहीं हूँ ।"

"ब्रह्मचारी को तो किसी की मौसम से डरना नहीं 

चाहिए ।"

"तुम भी तो ब्रह्मचारी हो ।”

“मैं कब डरता हूँ?”

“क्या तुम खेमे के बाहर खुले आसमान के नीचे सो सकते हो?"

"क्यों नहीं?"

यह बात मैंने जोश में आकर कह दी थी। मैंने अपनी मोटी कश्मीरी लोई उठाई और खेमे से बाहर चला गया। जियालाल मेरे पीछे भागा। मैं रुककर खड़ा हो गया। चाँदनी बिखरी थी। ख़ामोशी पसरी हुई थी

वह बोला, “मैंने तो मज़ाक़ में कह दिया था। तुमने सच समझ लिया ।” “सच हो या झूठ । मैं दिखा दूँगा कि ब्रह्मचारी डरता नहीं ।"

“अच्छा तो खेमे के निकट ही सो जाओ ।"

मैं खेमे के निकट ही लोई में सिकुड़कर लेट गया । वह अंदर से चटाई ले आया । बोला, “इसे नीचे बिछा लो। ऐसी तो कोई शर्त नहीं कि नंगी धरती पर सोकर दिखाना है ।"

चटाई बिछाकर वह मेरे पैरों के पास बैठ गया। बोला, "अरे यार ! क्यों मुफ़्त में जान देता है?"

“उफ़ !” मैंने कंधे हिलाकर कहा, “मुझे किसी भी बात का ख़तरा नहीं ।" 

“अच्छा, तो मैं ठेकेदार साहिब को जगाता हूँ।” जियालाल बोला ।

फिर जियालाल उस मुसलमान चरवाहे की कहानी सुनाने लगा, जिसने एक बड़ा काम किया था । यात्री अमरनाथ का रास्ता भूल गए थे, उसने एक रास्ता ढूँढ़ निकाला था और बदले में उसकी औलाद को चढ़ावे का एक बड़ा हिस्सा मिलता रहा है।

मैंने कहा, “वह चरवाहा, उस समय ब्रह्मचारी रहा होगा।" वह हँस दिया और अंदर जाकर लेट गया ।

मैं चाँद तारों की ओर देख रहा था। पुराने ज़माने में बड़े-बड़े ऋषि इधर आते थे तो खेमे में नहीं रहते थे। इस तरह खुले आकाश के नीचे पड़े रहते होंगे। इस कड़ाके की सर्दी से वे डरते नहीं थे ।

कुछ देर बाद तारे मेरी नज़र में काँपने लगे । चाँद धुंध में लिपट गया । नींद से बोझिल पलकों को नींद ने आ घेरा । और... ।

मैंने देखा कि जियालाल घोड़े पर सवार सूरज कुमारी को गज़रा भेंटकर रहा है और वह हरे दुपट्टे वाली जवान पिशोरन अजब नखरे से मुस्कुरा रही है । मैंने जियालाल को बरजा और कहा, “जिया लाल । तेरा आदर्श स्त्री से कही ऊँचा है। स्त्री एक इलुयन है... माया । "

जियालाल व्यंग भरी मुस्कान से मेरी ओर देखने लगा और बोला, “मगर यह माया भी कितनी सुंदर है मुझे इस मृगतृष्णा के पीछे भटकने दो ।"

अज़ीज़ा 'बेदमुश्क' (एक वृक्ष) की टहनी उठाए आ रहा था। मैंने तुरंत उससे पूछा, यह किसलिए लाया है, अज़ीज़ा?

“बहार की उस अभी नवविवाहित युवती के लिए जो इस समय खेमे में सपने देख रही है।" अज़ीज़ा ने मदभरी आँखों से मेरी ओर देखते हुए कहा ।

उस समय मुझे सूरज कुमारी की आवाज़ सुनाई दी। जैसे वह गा रही हो... बेदमुश्क की ख़ुशबू मेरे मन में बस गई है... दूर जंगलों में चमेली के फूल खिल गए। क्या मेरी आवाज़ तेरे कानों तक नहीं पहुँची, मेरे प्रीतम ?

और जैसे जयचंद कह रहा हो, तुम्हारी आवाज़ मेरे कानों तक पहुँची है । उठ, हम चरागाहों की ओर चढ़ेंगे।

फिर वह सूरज कुमारी तितलियों के पीछे भागी। जयचंद भी उसके साथ-साथ रहा। सूरज कुमारी को देखकर मुझे उस चीनी कुमारी का विचार आया, जिसे तितलियों ने फूल समझ लिया था और झुंड के झुंड उसके आस-पास आ इकट्ठी हुईं। मगर ये तितलियाँ तो सूरज कुमारी से भाग रही थीं और उनका पीछा करते हुए उसकी साँसें फूलने लगी थीं । जयचंद को देखकर मुझे चीनी इतिहास के उस बादशाह की याद आई, जिसके पास सैकड़ों तितलियाँ
थीं । जब उसके बाग में सुंदर युवतियाँ इकट्ठी होतीं तो वह हुक्म देता कि पिंज़रों के दरवाज़े खोल दिए जाएँ । तितलियाँ काफ़ी समझदार थीं। वह सबसे सुंदर लड़की के इर्द-गिर्द जा इकट्ठी होतीं। इस प्रकार लड़की बादशाह की नज़रों में भी जँच जाती... । क्या जयचंद ने भी तितलियों की मदद से सूरज कुमारी को चुना था ? मगर ये तितलियाँ न तो सूरज कुमारी की परवाह कर रही थीं और न ही जयचंद की ... ।

भागते-भागते वह सूरज कुमारी एक चरवाहे के पास जा पहुँची। बोली, बाँसुरी फिर बजा लेना...पहले मेरे लिए एक तितली पकड़कर दे। वह सुंदर तितली जो अभी उस सामने वाले फूल पर जा बैठी है ।

शायद तितली की जगह उस नौजवान चरवाहे को ही क़ैद करना चाहती थी और फिर जब उसने पीछे मुड़कर देखा तो उसे जयचंद नज़र ना आया । वह पहले की तरह गा रही थी। कहीं तू मिलेगा नहीं, मेरे प्रीतम । आखल के फूलों में तुझे तलाश करूँगी ।

कहीं से जियालाल आ निकला। बोला, “तू नर्गिस है, खुमारी से भरपूर । तूने शर्म से गर्दन झुका रखी है ।"

और वह सूरज कुमारी बोली, “अरे भँवरे ! मुझे तेरा इंतज़ार था । "

जयचंद को आते देख जियालाल भाग गया। नहीं तो उसकी बुरी गत होती । जयचंद बेतहाशा गालियाँ देने लगा। सूरज कुमारी सिर झुकाए खड़ी थी । पैर के अंगूठे से ज़मीन खुरचती रही ।

मैंने फ़ैसला कर लिया कि यह खेल और नहीं देखूँगा । अपनी लोई में सिमटकर लेट गया। सूरज कुमारी का ख़्याल मेरे दिल में न उठ जाए, बस मेरा यत्न था। मगर सूरज कुमारी थी कि सामने से हटती नहीं थी । मेरे पास आ बैठी और अर्थभरी निगाहों से मेरी ओर ताकने लगी। उसे अपने एकदम नज़दीक देखकर मैं घबराया और चीख़ पड़ा, "औरत...औरत माया है और मैं एक ब्रह्मचारी हूँ ।"

उसने अपना सिर मेरी जाँघों पर रख लिया। मैं घबराकर उठ खड़ा हुआ और कहा, “ना बाबा मुझे पाप लगेगा।”

"और मुझे भी ?"

“हाँ ।”

"प्यार तो पाप नहीं ।"

मैं चुप रहा। वह बोली, “अब याद आया, जियालाल से गज़रा लेकर उसे मुस्कुराकर देखा। उस दिन से आप कुछ खिंचे-खिंचे से रहते हैं। आपके हाथ कैसे सुन्न हो रहे हैं। जानते हो ?”

"होने दो।"

"पैर 'नीले' हैं।"

"होने दो। आप जाओ ।"

वह मेरी मालिश करती रही। उसकी बाँहें कितनी कोमल थीं। वह मुझसे लिपट गई। मुझे कसने लगी। मैं सँभल न पाया। शरीर हारता जा रहा था ।

क्या सचमुच वह दीया हूँ जिसका तेज़ कभी ख़त्म नहीं होता, जिसकी बाती कभी बुझती नहीं? क्या औरत माया है ?... क्या सूरज कुमारी भी माया है? उसके बाजुओं की कोमलता, उसकी लंबी-लंबी पलकें और उसके उभरे गाल, क्या यह सब माया है? इस प्यार के कारण भगवान हाथ से निकलता है तो निकल जाए। यदि ऐसी बात भाव होती तो भगवान ने ये विभिन्न चेहरे न बनाए होते, ये न दिए होते।

ऊपर तारे झिलमिल कर रहे थे। मेरे मन में प्यार के भाव जाग रहे थे। मैंने कहा, “अपने खुले बाल ठीक कर लो।”

वह कुछ न बोली । मैं उठ बैठा, “सूरज कुमारी! तुमने बहुत तकलीफ़ की ।" मैंने कहा, “इस सर्दी में तुम यहाँ बैठी 

हो । खेमे में चले जाओ ।"

वह फिर भी कुछ ना बोली। मुझे महसूस हुआ कि बाँसुरी में सुर उठने लगेंगे। ज़रूरी नहीं कि बाँसुरी होठों पर लगने पर ही बजे ... हवा भी सुर जगा देती है । और उसका गीत मुझे सदा के लिए जीत सकता है।

फिर मुझे उस ऋषि की याद आ गई, जिसकी कहानी मैंने किसी पुरानी किताब में पढ़ी थी । उसके आश्रम में औरत के लिए कोई स्थान नहीं था । एक दिन उसने मेहमान निवाज़ी के कारण एक रास्ता भूली सुंदर कुमारी को अपने आश्रम में जगह दी। लड़की को समझा दिया गया कि वह अंदर से कुंडी लगा ले । मगर आधी रात को ऋषि की वासना जाग उठी। वह कुमारी का दरवाज़ा खटखटाने लगा । फिर छत फाड़कर अंदर दाख़िल होने का यत्न करने लगा। मगर इससे पहले कि वह अंदर छलांग लगाता, लड़की दरवाज़ा खोलकर भाग गई ।

फिर जैसे किसी ने तस्वीर उल्टी लटका दी हो। मैंने देखा कि ऋषि अपने हवन कुंड के पास सो रहा है और वह सुंदर कन्या उसके निकट बैठी है। उसने ऋषि का सिर अपनी जाँघों पर रख लिया है। ऋषि घबराकर हाथ-पैर मारता है, मगर फैलती और सिमटती बाँहों की पकड़ उसे भागने से रोककर रखती है... ।

मेरा शरीर ठंड के कारण अकड़ रहा था । अपनी ज़िद पर कायम रहने के लिए जिस जोश की ज़रूरत होती है, वह ठंडा पड़ने लगा था। दिल से बातें करते-करते मैं फिर से नींद के आगोश में चला गया ।

मेरा शरीर गर्म हो रहा था। सारे अंग गर्म हो रहे थे। मेरी नसें ठंडे पानी से निकलकर आग की ओर लपकने वाले बच्चे की भाँति कशमकश कर रही थीं । गर्दन के पास भीनी-भीनी ख़ुशबू में रची-बसी साँस लिपट रही थी । जाँघे और पैर अत्यंत भारी लग रहे थे ।

मैंने बोलना बंदकर दिया। मालूम नहीं, क्या था, जो मेरे भीतर ब्रह्मचर्य के विचार का पीछा कर रहा था। इस विचार की पुकार सारे शरीर से निकल रही थी । यह कुछ ऐसी अवस्था थी, जो सोते समय हाथ सीने पर टिक जाने से हो जाती है ...कोई मेरा दिल खटखटा रहा था। मैंने एक अंगड़ाई ली। हाथ की ठंडी अंगुलियाँ पेट पर आ लगीं। जाँघों में भी कुछ हरारत महसूस हुई और यह भी महसूस होने लगा कि पाँव भी मेरे शरीर से अलग नहीं ।

सूरज कुमारी भी चुप थी, मगर जब उसकी बाँहें मुझे कसने के लिए फैलती-सिमटती थीं तो चोर निगाहों से वह मेरी ओर देखकर कुछ कहना चाहती, मगर उसके होंठ हिलकर रह जाते। उनींदी-सी थीं उसकी आँखें, जैसे घने जंगल के साए में किरनें झिल-मिल कर रही हों। उसकी आँखों में थोड़ी-सी ख़ामोश मुस्कान नाचने लगती ।

मैंने उसकी गर्दन की ओर निगाह घुमाई । देखा उसकी नसें नशीली-सी सोई हुई हैं।

ज़ोर से उसका कंधा हिलाकर मैं उसकी आँखों में झाँकने लगा। क्या ऐसे देखना पाप है? क्या ब्रह्मचर्य ही सबसे उत्तम है? क्या इसलिए सारा स्वाद छोड़ देना चाहिए...यह सारा आनंद जो सुंदरता, कोमलता और स्वयं को भूलने से मिलकर बना है ।

सूरज कुमारी जो पहले मालूम नहीं किस नशे में ऊँघ रही थी, अब शायद किसी सपने की आनंददायक छाँव के बजाय ख़ास जीवन में नाचने वाले प्यार का रस लेना चाहती थी। उसकी आँखें फैलने लगीं। पलकों का अँधेरा धीरे-धीरे दूर हटता गया । मेरी आँखें खुल गईं। कुछ देर तक तो नीले आसमान में किरणों का दृश्य रहा...एक मस्त विशाल दृश्य । फिर यह दृश्य सिमटकर सूरज कुमारी की आँखों में बदल गया ।

मेरा सिर उसकी गोद में था । वह मेरी ओर देख रही थी । मैं डर गया । मैंने आँखें बंद कर लीं। सूरज कुमारी ने अपना हाथ मेरी आँखों पर फिराया। फिर आँखें खोलीं तो देखा कि मैं खेमे के अंदर हूँ। पैरों के पास अंगीठी सुलग रही है और कई उदास चेहरे मेरे इर्द-गिर्द जुड़े बैठे हैं।

देखने के साथ सुनने की शक्ति भी लौट आई। संस्कृत के कुछ बोल मेरे कानों में पड़े। कोई पंडितजी मेरे लिए प्रार्थना कर रहे थे, ख़ुद ही या इन लोगों के कहने पर ।

मैं ख़ामोश था। अहसानमंदी के तले दबा हुआ । अपनी हठधर्मिता पर शर्मिंदा भी था। ये दोनों विचार काफ़ी देर तक बने रहे। फिर कुछ शैतानी भाव जिनके कारण हमारा जीवन कायम है, धीरे-धीरे जागने लगे। मैंने सोचा, यदि यह हठधर्मिता न होती तो सूरज कुमारी की गोद का शांत आनंद कैसे मिलता ! सूरज कुमारी की आँखें एकदम चमक उठीं। मैं डर गया। क्या उसने मेरे भाव जान लिए थे? शर्म, बेबसी, स्वयं धोखा और मालूम नहीं किन-किन चीज़ों के कारण पैदा होने वाली मुस्कान मेरी मूँछों में ही कहीं खो गई।

सूरज कुमारी ने लोगों से कहा, “अब यह ठीक है... ठीक हो जाएँगे। आप सामान सँभालो । अमरनाथ जाने का समय हो गया है।"

लोग आराम से यात्रा की तैयारी करने लगे। मगर पंडित जी पहले की तरह ही मंत्रोच्चार कर रहे थे। उनकी आँखें बंद थीं। सूरज कुमारी ने एक बार पंडित जी की ओर देखा। फिर मेरी ओर देख, एक ललचाई-सी भंगिमा से मुस्कुरा कर बोली, “उठो ब्रह्मचारी जी !”


—साभार: ‘बीसवीं सदी की पंजाबी कहानी’ चयन एवं संपादन रघवीर सिंह, पंजाबी से हिंदी अनुवाद जसविंदर कौर बिंद्रा, पंकाशन साहित्य अकादमी

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कहानी

स्व. कर्तार सिंह दुग्गल

तृष्णा

इससे पहले कि मुझे जो करना है, वह शुरू करूँ, आप पूछना चाहते हैं, कोई सवाल ?" लेडी डॉक्टर ने व्यावहारिक तौर पर उससे पूछा ।

“कोई नहीं।" रजनी ने भर्राई आवाज़ में कहा, "मगर जो कुछ मैं करने जा रही हूँ, इसके लिए मुझे ख़ुद से नफ़रत है।”

ऑपरेशन थियेटर में कुछ देर के लिए ख़ामोशी छा गई।

“आपको लगता है कि यह जो कुछ करने का निर्णय लिया गया है, आप उसके लिए तैयार नहीं ?" क्षण भर के बाद लेडी डॉक्टर ने पूछा ।

“नहीं, मैं तैयार हूँ। मैं बस इतना कहना चाहती हूँ। मैं इसे प्यार करती हूँ । बेटी है तो क्या?"

लेडी डॉक्टर फिर ख़ामोश हो गई, जैसे असमंजस में हो ।

" शुरू कीजिए।” रजनी की पलकों से आँसू ढलक रहे थे, “डॉक्टर, शुरू कीजिए, मैं तैयार हूँ।”

कुछ पल फिर ख़ामोशी ।

“इसे स्पैकूलम कहते हैं, मैं यह चढ़ाऊँगी।" डॉक्टर ने कहा, “आप देखना चाहोगे?"

"नहीं।" रजनी ने न मैं सिर हिलाया ।

"कोई सवाल ?"

" दर्द बहुत होगा?" रजनी ने पूछा ।

"नहीं दर्द नहीं होगा, बस कुछ तनाव-सा महसूस होगा।" लेडी डॉक्टर की आँखों में रजनी के लिए अत्यंत हमदर्दी थी। उसने बाँह पकड़ी तो रजनी को लगा, जैसे उसके हाथ एकदम बर्फ़ हो गए, उसके डॉक्टरी यंत्रों के समान ।

"मैं अब बच्चेदानी के मुँह पर एक टीका लगाऊँगी।” लेडी डॉक्टर कह रही थी ।

रजनी स्थिर लेटी थी, जैसे उसकी आँखों के सामने उसके अनेक सपने नीले आकाश में झिलमिल तारों की तरह चमकते हुए एक-एक करके छुप रहे हों ।

प्रतुल संग उसका ब्याह हुआ था। कितनी बदमगज़ी हुई थी। मगर आख़िर उसने अपनी बात मनवा लीं थी। अपने मनपसंद वर के लिए सभी को राजी कर लिया था । फिर उनके फेरे हुए। हाय! कितने अरमानों के साथ उसने विवाह किया था। उनकी सुहागरात ! हनीमून! प्रतुल की पोस्टिंग ! उनका एकांत घर । उसका माँ बनने का
फ़ैसला । उसकी गोद का भरा जाना... ।

“बस, अब पाँच मिनट लगेंगे। दर्द बिलकुल नहीं होगा।" लेडी डॉक्टर बोल रही थी ।

कितनी ख़ुश थी रजनी । मानो धरती पर उसके पैर न लग रहे हों। मगर यह प्रतुल स्क्रीनिंग की रट क्यों लगाए हुए था । उसे तो बस माँ बनना था। प्रतुल जब काम पर चला जाता, इतनी बड़ी कोठी जैसे उसे खाने को दौड़ती। उसे तो एक बच्चे संग खेलना था। उसका मन लगा रहेगा। “... आपके अभी सिर्फ़ आठ हफ़्ते हुए हैं। कोई ख़तरे की बात नहीं। अगर एक-दो हफ़्ते और हो जाते तो मुश्किल हो सकती थी..." लेडी डॉक्टर मरीज़ को हौसला दे रही थी ।

स्क्रीनिंग, स्क्रीनिंग, स्क्रीनिंग ... उठते-बैठते बस यही । प्रतुल की मुहब्बत, आख़िर वह राज़ी हो गई। क्या फ़र्क पड़ेगा? वह शायद यह जानने को उत्सुक था कि बेटी होगी या बेटा। दीवाना ।

"... अंडा बच्चेदानी की दीवार के साथ लगा होता है।" लेडी डॉक्टर पास बैठते हुए अपनी बात जारी रखते हुए बोली, “हम उसे वैक्यूम कर लेंगे। वैक्यूम, आपको मालूम ही है न? बस, जैसे घर की कालीन से, सोफ़ों से आप धूल-मिट्टी को वैक्यूम कर लेते हैं। मैंने विलायत में देखा है, वहाँ सड़कों की धूल तथा कौहथर को भी वैक्यूम करते हैं...।"

बेटी थी। बेटी थी तो क्या? मगर प्रतुल का चेहरा क्यों उतर गया था, यह सुनकर। वह तो बेटी का इंतज़ार कर रही थी। बेटी होगी, अपने भाई को खिलाया करेगी। उसके सुहाग के गीत गाने वाली बहन...!

वीरा हौली हौली आ

तेरे घोडियाँ नूँ धाह ।

"कोई तकलीफ़ तो नहीं?" लेडी डॉक्टर ने रजनी से हमदर्दी के साथ पूछा । 

रजनी ने अपने सीने पर हाथ रखा हुआ था, जैसे उसके सीने में कटार लगी हो । प्रतुल बेटी के लिए तैयार नहीं था । उसे तो बेटा चाहिए था। बेटा क्या और बेटी क्या? उनके घर बच्चा आ रहा था। वे मम्मी-डैडी बनने वाले थे ।

अगर कोई तकलीफ़ हो तो मुझे बताना ।” लेडी डॉक्टर कह रही थी, “हर रोज़ तो इस तरह के केस करते हैं । कभी कोई परेशानी नहीं हुई। बस जैसे दूध में से मक्खी निकाल के फेंक देना।’’

मगर प्रतुल की ज़िद । घर में आठों पहर चिल्लमपौं लगी रहती, “मियाँ, अगर बेटे का इतना शौक है तो अगला बेटा पैदा कर लेंगे। तुम एक बरस और कर लो । रजनी उसे समझाती । "अगर बेटी फिर आ गई", प्रतुल लाल-पीला होकर आगे से कहता। रजनी के पास इसका कोई जवाब नहीं था। आँसुओं के सिवाय हाथ जोड़ने के ।

“मुझे इस बच्ची से प्यार हो गया है।" वह बार-बार प्रतुल से कहती। मगर उसके कान पर जूँ नहीं रेंग रही थी । "डॉक्टर, मैंने इसका नाम तृष्णा रखा है। मैं इससे अत्यंत प्यार करती हूँ। मेरी लाडली बच्ची । मेरे जिगर का टुकड़ा ।” “अब तो..."

लेडी डॉक्टर कुछ कह रही थी कि रजनी फिर से अपनी सोचों में बहने लगी । हर समय खफ़ा-खफ़ा। हर समय उसका मुँह सूजा हुआ । आख़िर वह बगैर रजनी की रज़ामंदी के वेलफेयर सेंटर से तारीख ले आया। प्रतुल की
ज़िद । रजनी को हारकर हथियार फेंकने पड़े ।

“... अगर आपको यह शक हो कि ऐसा करने के बाद फिर से आपके घर में कोई बच्चा नहीं होगा तो इसका कोई डर नहीं है। लेडी डॉक्टर मरीज को निश्चित कर रही थी, “गर्भ से छुटकारा पाने के लिए यह सबसे सेफ़ तरीका है ... ।”

रजनी थोड़ा सुन रही थी। उसे अब लग रहा था जैसे उसके अंदर से सोना पिघलकर बूँद-बूँद बह निकला हो। उसकी आँखें भिंच गईं। चक्कर ही चक्कर । अँधेरा ही अँधेरा। रजनी को प्रतुल याद आ रहा था । नया-नया मजिस्ट्रेट बना कचहरी में कोई मुकदमा सुन रहा होगा। एक पक्ष की फ़रियाद, दूसरे पक्ष का जवाब। फिर वकीलों की बहस । फिर नौजवान मजिस्ट्रेट का फ़ैसला । इंसाफ़ का रक्षक ।

उस शाम प्रतुल घर आया। रजनी वेलफेयर सेंटर से फ़ारिग होकर घर आ चुकी थी। शांत, अडोल। प्रतुल ने उसे पीछे से अपनी बाँहों में लेकर उसके होठों को चूम लिया ।

"मुझे लेडी डॉक्टर ने फोन पर बता दिया था ।” कहते हुए वह प्रसन्न भाव से अपने कमरे में कपड़े बदलने के लिए चला गया ।

रजनी उसके लिए चाय तैयार करने के लिए नौकर से कह रही थी ।

चाय पीकर प्रतुल क्लब जाने के लिए तैयार हो गया । “आज नहीं प्रतुल ।” रजनी ने कहा ।

"तुम थकी लगती हो। कोई बात नहीं। लेडी डॉक्टर तो कह रही थी कि सफ़ाई के बाद मैडम अच्छी भली है ।"

“मैं ठीक हूँ प्रतुल, मेरी जान! तुम आज अकेले क्लब चले जाओ ।"

रजनी क्लब नहीं गई। सारी शाम रुआँसी-सी लॉन में बैठी आकाश की ओर देखती। उसे लगता जैसे कोई नगमा हवा में तैर रहा हो । भीनी-भीनी सी ख़ुशबू दाएँ-बाएँ घूमती जा रही थी । झिलमिल करती हुई किरण किरण डूब रहे सूरज की लाली में विलीन हो रही थी ।

रजनी बैठे-बैठे थक गई थी शायद । वह कमरे में जा, पलंग पर लेट गई। सामने दीवार पर लटके कलैंडर में गुलाबी-गुलाबी गालों वाले खिलखिलाते बच्चे को देखकर उसकी आँखों से भी एक झरना बह निकला । रजनी फूट-फूटकर रोई । कराहने लगी। मेरी बच्ची । मेरी तृष्णा... बार-बार पुकारते हुए छत की ओर देखती रही। फ़रियादें करती रही। बार-बार कहती 'मेरी बेटी, तुम मुझे माफ़ कर दो। मेरी लाडली, तू मुझे जो मर्ज़ी-सज़ा देना, बेशक दे। मुझे मंजूर है। बस एक बार तू मुझे 'अम्मी कहकर पुकार । तू मुझे माफ़ कर दे।' वह कभी अपना दुपट्टा लपेटती, कभी पलंग की चादर को खींचती, वह कितनी देर तक रोती रही।

रजनी ऐसे बेहाल हो रही थी कि उसे बाहर प्रतुल की कार की आवाज़ सुनाई नहीं दी। क्लब से लौट आया था। वह जल्दबाज़ी में गुस्लखाने में चली गई। कितनी देर तक वह अपने मुँह पर पानी के छींटे मारती रही।

गुस्लखाने से निकल वह शृंगार मेज़ के सामने आ खड़ी हुई ।

गोल कमरे में जब वह आई, प्रतुल ने एक नज़र उसे देखकर कहा, "तेरी आँखें लाल क्यों हैं, डार्लिंग ?”

फिर ख़ुद ही कहने लगा, “शायद सुबह की टेंशन के कारण।" फिर वे दोनों खाने के कमरे की ओर बढ़ गए।

यूँ लगता है कि रजनी - प्रतुल दंपत्ती को कुदरत ने माफ़ न किया। एक, दो करते-करते पाँच वर्ष बीत गए, रजनी फिर माँ न बन पाई।

न रजनी फिर से माँ बन सकी, न रजनी अपनी बच्ची को भुला पाई। जब उसने अपनी सफ़ाई (अबॉर्शन) करवाई थी, तभी से रजनी हर बरस पूजा-पाठ करवाती थीं । ग़रीब बच्चों में मिठाई, कपड़े तथा फल बाँटती। अब सारा दिन रुआँसी-सी, भीगी पलकों सहित गुज़ारती है ।

ऐसे खाली बैठे-बैठे, पढ़ी-लिखी, ज़िले के इतने बड़े अफ़सर की पत्नी रजनी ने कॉरपोरेशन के स्कूल में नौकरी कर ली। बच्चों को पढ़ाने में उसका मन रमा रहेगा। फिर वह तो स्कूल के सभी अध्यापकों से अधिक पढ़ी-लिखी थी । एकाध वर्ष बाद रजनी को स्कूल की मुख्याध्यापिका बना दिया गया ।

रजनी ने पढ़ाने के साथ-साथ स्कूल के प्रबंध की ज़िम्मेवारी सँभाल ली। कॉरपोरेशन और सरकार के साथ चिट्ठी-पत्री, टीचरों का सहयोग, बच्चों की ज़रूरतें । स्कूल के दाखिले...।

बच्चियों को दाखिल करते समय एक दिन बड़ी दिलचस्प घटना घटी। कोई माता-पिता अपनी बच्ची का दाखिला करवाने के लिए आए। बच्ची जैसे हाथ लगाने से मैली हो जाए। उसका नाम भी कुछ ऐसा ही था ।

"आपकी बच्ची का नाम क्या है? यदि बदलना चाहें तो आप बदल सकते हैं । स्कूल के रजिस्टर में दर्ज नाम सारी उम्र चलेगा।" रजनी ने हँसते हुए बच्ची की ओर देखकर, उसके माँ-बाप से कहा ।

माँ-बाप मुख्याध्यापिका की बात सुनकर सोच में पड़ गए। एक-दूसरे की ओर देखने लगे। उन्हें जैसे कोई नाम ही नहीं सूझ रहा हो ।

फिर बच्ची की माँ एकदम बोली, “आपकी बच्ची का नाम क्या है?" “तृष्णा । मेरी बच्ची का नाम तो तृष्णा है।” अत्यंत प्यार में रजनी ने कहा । "तो फिर इसका नाम भी तृष्णा ही दर्ज कर दीजिए।" बच्ची के पिता ने कहा। 

इस प्रकार ख़ुशी से उस बच्ची का दाख़िला हो गया । यह मुख्याध्यापिका रजनी की आदत थी। वह बच्चियों को दाखिला करवाने आए माँ-बाप को याद करवाती कि यदि वह नाम बदलना चाहें तो अभी बदल सकते हैं। स्कूल के रजिस्टर में दर्ज नाम सारी उम्र चलेगा।

अक्सर माँ-बाप मुख्याध्यापिका से ही कहते, “जो नाम उन्हें अच्छा लगे, वही रख दीजिए।"

रजनी को तो 'तृष्णा' नाम ही अच्छा लगता था । और नई दाख़िल हुई छात्रा का नाम तृष्णा रख दिया जाता ।

इसी प्रकार करते-करते उस स्कूल में ढेर सारी लड़कियों का नाम 'तृष्णा' दर्ज हो गया। रजनी की बेटियाँ। किसी को तृष्णा कहकर पुकारती तो उसका वात्सल्य दुलकने लगता । उसके मुँह में शहद जैसा स्वाद घुलने लगता ।

उस स्कूल में हर क्लास में एक से अधिक छात्राओं का नाम उस स्कूल में तृष्णा था। चारों ओर तृष्णा ही तृष्णा । रजनी मैडम की बेटियाँ ।


—साभार: ‘बीसवीं सदी की पंजाबी कहानी’ चयन एवं संपादन रघवीर सिंह, पंजाबी से हिंदी अनुवाद जसविंदर कौर बिंद्रा, पंकाशन साहित्य अकादमी

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कहानी

सुश्री निशिगन्धा, वसन्त कुँज, नई दिल्ली - 110070


रिश्तों के समीकरण

प्रोमिला बेहद खूबसूरत थी और उसकी खूबसूरती के चर्चे शहर भर में थे । ऊंचा कद, थोड़ा भरा-भरा बदन, गौर वर्ण थोड़ा गंदुमी व सुनहरा पन लिए हुए । भूरी आंखें, खड़ी नाक और लंबे घने केश जिन्हें वह सदा खोलकर ही रखती । उसके व्यक्तित्व के विषय में एक ही शब्द काफी था एलिगेंट । लबे कद पर नित नए रंग की कभी प्योर सिल्क, कभी चाइनीस सिल्क और कभी प्योर शिफॉन की साड़ी उसकी एलिगेंस को थोड़ा और बढ़ा देती । एक खुशबू सी थी उसके व्यक्तित्व में । वह जहां से भी गुज़रती उसकी महक कुछ पल पहले ही उसके आने का संदेश दे देती । वही महक उसके वहां से जाने के बाद भी यही सदेश देती रहती कि अभी-अभी कौन यहां से गुज़र कर गया है ।

नवीन को प्रोमिला से पहले उसकी महक ने ही आकर्षित किया था । नवीन अपने लिए ड्रिंक बना रहे थे कि एक खुशबू के एहसास से उनकी नज़र खुद-ब-खुद हॉल के मेन गेट की ओर उठ गईं । लगा जैसे कोई आ रहा हो एक खुशबू सी तैर गई वातावरण में और प्रमिला के हॉल में प्रवेश करते ही लगा जैसे एक बिजली सी कौंध गई और नवीन उसे एकटक देखते रह गए । यह उन दोनों की पहली मुलाकात थी । एक कॉमन मित्र के यहां पार्टी थी और उस पहली मुलाकात में ही जाने कैसा तिलिस्म छाया कि वे दोनों एक-दूसरे की ओर खिंचे चले गए । प्रोमिला जाने कैसे भूल गई कि वह मि. सिन्हा से बंधी थी और उनकी ब्याहता थी ।

उस रात पार्टी के चलते नवीन व प्रोमिला एक दूसरे में इतना खो गए कि उन्हें समय का एहसास ही नहीं रहा कब रात हो गई और कब अर्धरात्रि । जब होश आया तो रात के दो बज रहे थे । वैसे भी ऐसी पार्टीज़ देर रात तक चलती ही हैं । नवीन ने प्रमिला से कहा.. लेट मी ड्रॉप यू होम । इट्स वेरी लेट । प्रमिला ने उत्तर दिया.. लेट्स गो । मज़िल पर पहुंच नवीन ने आगे बढ़कर प्रोमिला के लिए गाड़ी का दरवाज़ा खोला । प्रोमिला.. थैंक्यू । फिर एक दूसरे से फिर मिलने का वादा कर वे एक दूसरे से जुदा हो गए । इस बात को आज कई दिन हो गए थे । प्रमिला की वह नॉस्टेल्जिक महक आज भी अक्सर नवीन को रोमांचित कर जाती और साथ ही मिलने की इच्छा को भी प्रबल | जब इस सब की शुरुआत हुई थी उस वक्त मि. सिन्हा विदेश के दौरे पर थे । वे जहां-जहां गए वहां-वहां से अनमोल नायाब तोहफे अपनी प्रिय पत्नी प्रोमिला के लिए खरीदते ही रहे । हाथों में लेकर चलते थे वे उसे जैसे वह कोई साम्राग्यी हो । प्रमिला की शख्सियत ही कुछ ऐसी थी कि कोई भी प्यार कर बैठे उससे । मिस्टर सिन्हा पति होने के साथ-साथ उसके प्रशंसक भी थे । घर लौटे तो लगा सब कुछ जैसे बदला- बदला सा हो । उन्हें लगा जैसे वे गलती से किसी और के घर आ गए हों । कुछ ही दिनों में प्रमिला ने जैसे घर की काया ही बदल दी थी । हर डेकोर में एक नयापन झलक रहा था । फिर हॉल में प्रामिला का लाइफ़साइज़ तैल चित्र दिखाई दिया तो सिन्हा साहब को थोड़ी राहत सी हुई । यह चित्र उन्होंने अपनी प्रिय पत्नी के प्यार में एक प्रसिद्ध कलाकार से बनवाया था ।  

इस बीच नवीन और प्रमिला का प्यार धीरे-धीरे परवान चढ़ चुका था । पहले तो सिर्फ फोन पर ही बात होती थी । फिर मुलाकातें बढ़ने लगीं  । वे यूं ही रोज़ मिलते रहे । कभी मरीन ड्राइव पर लंबी वाक, कभी समुद्र किनारे बैठ सूर्यास्त देखते हुए, और कभी मुंबई के ऊंचे-नीचे सबर्ब में गाड़ी दौड़ाते हुए ।

मिस्टर सिन्हा देर रात तक प्रोमिला का इंतज़ार करते रहे । प्रोमिला घर लौटी तो उन्हें देख थोड़ा चौक कर बोली, "ओह हाय! वेलकम बैक । वेन डिड यू कम? हाऊ वाज़ योर ट्रिप? मि. सिन्हा को प्रोमिला में बदलाव का अहसास उसे देखते ही हो गया था । उसकी तो रंगत ही बदल गई थी । वह पहले से कहीं ज़्यादा यंग दिख रही थी । चेहरा एकदम खिला हुआ और पहनावा भी बदला हुआ । डार्क ब्लू जींस व सफेद कॉलर वाली शर्ट में वह बहुत खूबसूरत लग रही थी । मिस्टर सिन्हा. वेयर हैव यू बीन? आई केम बैक इन द मॉर्निंग आई हैव बीन आउट विद ए फ्रेंड मि. सिन्हा का संशय ठीक ही था । उसके कदम बहक चुके थे । पर वे प्रोमिला से बहुत प्रेम करते थे । शायद इसीलिए उस में आए परिवर्तन को देख कर भी उन्होंने अनदेखा कर दिया । शायद यही सोच कर कि अब लौट आए हैं तो धीर-धीरे सब ठीक हो जाएगा । धीरे-धीरे उस परिवर्तन के प्रमाण भी उन्हें मिलने लगे । विदेश से लाए प्यार भरे सारे तोहफे बेजान से रखे के रखे रह गए । वैसे भी प्रोमिला की ट्रेडिशनल चॉइस का स्थान आज डिज़ाइनर जूते, डिजाइनर कपड़ों, डिज़ाइनर घड़ी और डिज़ाइनर बैग ने ले लिया था । कोई वक्त था जब भी वे विदेश से लौटते तो प्रोमिला स्वयं ही उनके बैग से तोहफे निकाल-निकाल कर बेसब्री से उन्हें खोलती और हर तोहफे पर खुशी ज़ाहिर करती ।

पर आज उन दोनों के बीच खामोशी जैसे खामोश समंदर की तरह बह रही थी । प्रोमिला धीरे-धीरे अपने नए जीवन की ओर झुकती जा रही थी । मिस्टर सिन्हा में इतनी परिपक्वता थी वे जानते थे इस प्यार के सैलाब को वे रोक नहीं पाएंगे । इसीलिए तो कुछ भी नहीं किया उसे रोकने के लिए । वैसे भी उन दिनों प्रोमिला और नवीन के प्यार के चर्चे पूरे शहर में थे ।

प्रोमिला भी अब जीवन के उस दोहरेपन से निकलना चाहती थी । अपना साजो सामान लेकर वह जाने लगी तो मि. सिन्हा ने बस इतना ही कहा... आई विल वेट फॉर यू । जब भी तुम लौटना चाहो यू आर मोस्ट वेलकम  । जब भी तुम लौटोगी तो अपना यह तैल चित्र यहीं पाओगी । आई विल नेवर फॉरगेट यू । दूसरी ओर नवीन भी घर छोड़ने की तैयारी में थे । उनकी पत्नी नलिनी ने जब सुना तो लगा जैसे आसमान फट गया हो और जमीन पैरों के नीचे से निकल गई । नहीं बर्दाश्त कर पाई वह सदमा । शोक संतप्त डिप्रेशन में चली गई । दो छोटी बच्चियों को कौन संभालेगा? उन कमज़ोर लम्हों में वह टूट कर रह गई । मां ही संबल बनी थी उस वक्त उसका । नलिनी व बच्चों को लेकर वह दिल्ली चली आई थी । वह जानती थी ऐसे ज़ख्म आसानी से नहीं भरते । या कहो ऐसे ज़ख्म जीवन का रुख, जीवन की परिभाषा ही बदल देते हैं । इस ग़म से उबरने में बहुत वक्त लगा नलिनी को । मन की शांति के लिए मां ही लेकर गई थी उसे साईं दर्शनों के लिए । वहां से लौटी तो चित्त थोड़ा शांत था । पर साईं की लगन में तन-मन रंग गया था । मां से जाने को कहा पर मां उसे छोड़कर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई । डरती थी कहीं कुछ कर ही न ले । पता नहीं दो-दो बच्चियों की ज़िम्मेदारी संभाल भी पाएगी कि नहीं । देख पा रही थी प्रभु भक्ति की पराकाष्ठा । देख पा रही थी साईं की लगन लग गई थी बेटी को  । पूरा घर साईं के चित्रों से भर गया था । घर के कोने-कोने में ज़रें-ज़रें में आज साईं समाये थे । घर के दरो-दीवार, शयन कक्ष कपाट, यहां तक की छतों पर भी सिर्फ साईं ही साईं के चित्र थे । उस पर घंटों अगरबत्ती, धूप पुष्प मालाओं से सुवासित बंद कक्ष में साईं की आराधना करना । पिता को तो खो ही बैठी थी बच्चियां और अब मां भी । नानी उचित समय उन्हें अपने साथ दिल्ली ले आई ताकि उनकी परवरिश इन विषयों से दूर रह स्वभाविक बच्चों की तरह हो पाए ।

किसी-किसी के जीवन में ऐसा क्यों होता है जो सुलभ है वह ग्राह्य ही नहीं होता और कोई मृग मरीचिका उन्हें दूसरी ही ओर आकर्षित किए खींचे लिए चली जाती है बिना परिणाम के विषय में सोचे ।

पूरे बीस वर्ष..  । बीस वर्ष बीत गए इन सब बातों को । दोनों बच्चियां बड़ी हो गई थी । पिता ने आज तक उनकी ओर कभी रुख नहीं किया था । राह चलते कभी मिल भी जाए तो शायद जान नहीं पाएंगे वह हमरक्त हैं । पर अपना खून खींचता है । किसी के विवाह समारोह में आई थीं वे दोनों अपनी नानी के साथ । बहुत ही खूबसूरत लग रही थीं । रूप व बुद्धिजीविता ने उन्हें अलग ही श्रेणी में ला खड़ा किया था । वहीं नवीन से भी साक्षात्कार हो गया । वे तो जानती नहीं थी पर जब नवीन ने नानी के पांव छुए तो वे कुछ-कुछ समझ पा रही थीं । शायद नवीन वापसी चाहते थे पर किस लिए और किसके पास आज अपनी उन खूबसूरत बेटियों को देख पिता का हृदय क्यों पसीज रहा था । वर्षों पहले इस निर्मोही पिता ने उनका ही नहीं उनकी मां का भी त्याग किया था जिसकी वजह से वह आज तक नॉर्मल नहीं हो पाई थी । कहां थी वह नलिनी आज; जो कभी उनकी प्रेमिका, प्रिया, व पत्नी थी । वह तो वर्षों से साईं भक्ति में लीन हो चुकी थी । और अब जब जिंदगी खत्म हुई जा रही थी तो फिर यह कैसी चेष्टा और क्यों? आज बच्चियां बड़ी हो गई थी । उनका अपना नज़रिया था आज रिश्तों को समझने का रिश्तो को स्वीकारने अस्वीकारने का ।

दूसरी ओर थी एक और ही प्रेम की पराकाष्ठा । इसे प्रेम की पराकाष्ठा ही तो कहेंगे इतने वर्ष बीत गए और मिस्टर सिन्हा ने आज भी उम्मीद नहीं छोड़ी थी । अपने सुख-दुख अकेले ही समेटते रहे थे । पर आज भी वे प्रोमिला की एक आहट पाने के लिए लालायित थे । आज तक वह किसी और से रिश्ता नहीं जोड़ पाए । यह प्रेम है ही ऐसी शय जिसने भी इसका रसास्वाद चखा उसी में सम्मोहित होकर रहना चाहा फिर वह चाहे एक तरफा ही क्यों न हो ।

प्रोमिला चली गई थी बीस वर्ष पहले उनकी सहधर्मिणी का सिहासन छोड़कर । पर ऐसा क्या था प्रोमिला के व्यक्तित्व में कि आज भी वह सिंहासन रिक्त ही था । कोई और उस सिंहासन पर आरूढ़ होने का साहस ही नहीं जुटा पाई । आज भी मि. सिन्हा उस सिंहासन की सही साम्राज्ञी के इंतज़ार में बैठे थे । उन्हें पूरा विश्वास था वह एक दिन ज़रूर लौट कर आएगी । उस भद्र पुरुष का यह कैसा बनवास था । बीस वर्ष पूरे बीस वर्ष किसी के इंतज़ार में बिता दिए । यह कैसा प्यार था? यह कैसा विश्वास था? यह कैसी चाहत थी? इतने वर्षों की क्षति की क्या कोई भरपाई हो सकती थी? यह सब लिखते-लिखते वर्षों पहले पढ़ी कविता की पक्तियां जाने क्यों स्मरण हो आई हैं । आज यह भी याद नहीं कवि ने ये पक्तियां किस संदर्भ में कही थीं ।

हम कौन थे 

क्या हो गए 

और क्या होंगे अभी 

आओ विचारें आज मिलकर 

यह समस्याएं सभी ।

और फिर प्रोमिला लौट आती है । उसका श्वेत लिबास आज कुछ कहना चाहता था । उसके आते ही उस ग्रह के द्वार उसके लिए अचानक जैसे स्वयं ही खुल गए । घर की देहरी लांघ धीरे-धीरे वह हाल की तरफ जा रही थी । आज भी उसका कद्दावर तैल चित्र वहीं रखा था जहां वह छोड़ कर गई थी । मि. सिन्हा को एक नज़र देख वह अपने कमरे में चली गई । कमरे में प्रवेश करते ही नज़र ग्लास के मेंटल पीस पर जाकर ठहर गई । बीस वर्ष पहले विदेश से लाए गए तोहफे आज भी सहेज कर वही अनछुए से रखे थे उन्हें पहनने वाली साम्राज्ञी की प्रतीक्षा में । उसका यू लौट कर आना क्या मि. सिन्हा के प्रति उसका प्यार था या नवीन से वह अब ऊब गई थी या अचानक उस गृह की गृह स्वामिनी कहलाने की इच्छा आज अपने चरम पर थी या कोई पश्चाताप  । कुछ नहीं कहा जा सकता वह क्या था । प्रोमिला ने स्नान कर स्वयं को शुद्ध किया । स्वच्छ वस्त्र धारण किए । पूजा गृह के ठडे संगमरमर के फर्श पर अगरबत्तियों से सुवासित कक्ष में दीया जला वह घंटों आंखें मूदे बैठी रही । आंखों से बस यूं ही काजल की धार बह निकली ।

यह जानने के बाद कि मिस्टर सिन्हा कई दिन अस्पताल में बिता कर आए थे वह आज उनकी सेवा में पूरी तरह रत थी। 

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