साहित्य नंदिनी सितंबर 2023

 

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समीक्षा

श्री कैलाश आहलूवालिया, चंडीगढ़, मो. 9888072599

\Dr. Nirmal Jaswal, Mississauga,Toronto Canada


रेड वाइन ज़िन्दगी : एक समीक्षात्मक अवलोकन

यूँ तो मैं, अंग्रेजी समीक्षक आई ए रिचर्ड्स की इस धारना से सहमत हूँ कि किसी भी लेखक को उसकी समीक्षा करते समय उसकी रचना से अधिक अधिमान नहीं देना चाहिये । पर जब "रेड वाइन जिन्दगी " की बात हो तो उपन्यासकार को जगह-जगह पर स्मरण करने अथवा उसके विषय में विचार करने के लोभ का संवरण मैं नहीं कर सकता । नहीं कर सका । और मुझे ऐसे भी लगता है कि क्योंकि यह उपन्यास मनोविज्ञानिक है इस लिए मन की बात होगी तो मन की स्वामिनी लेखिका का ज़िक्र भी अनिवार्य है । एक बात ज़रूर यहाँ कहना चाहता हूँ कि यह ज़रूरी नहीं कि आप इसे केवल मनोविज्ञानिक उपन्यास ही मानें । आप चाहें तो इसे खालिस सामाजिक उपन्यास भी कह सकते हैं । और चाहें तो इसमें राजनीतिक एवं नैतिक आग्रहों के सन्दर्भ भी ढूंढ सकते हैं । उपन्यासकार के दृष्टिकोण को मानें तो समाज में व्याप्त जीवन शैलियों की उपस्थिति ही,उपन्यास की आधार भूमि है । और फिर एक और प्रश्न यहाँ उत्पन्न होता है की कौन सा समाज— भारतीय या पाश्चात्य? और नैतिकता के किन मानदंडों को लेकर हम इस उपन्यास की नायिका तथा अन्य चरित्रों का विश्लेषण करें । मेरा ख्याल है कि इस दुविधा को हम यहीं छोड़ दें तो उचित होगा । हमने अज्ञेय की "शेखर एक जीवनी", "अपने अपने अजनबी", ": नदी के द्वीप", जैनेंदर के अनेक उपन्यास, रजनी पणिकर का "जाड़े की धूप". और कितने ही पाश्चात्य उपन्यासों को अब तक पढ़ा है । यहाँ तक कि कमला दास और अरुंधति राय तक को पढ़ा है । और अब तक हम इतने प्रौढ़ और सजग तो हो ही गए हैं कि अब कोई भी इस तरह का उपन्यास हमारे सामने आये तो हम उसका स्वागत उसे इतिहास की सशक्त इकाई के रूप में करें । और इस द्वारा प्रस्तुत की गई चुनौती को स्वीकार करें । मैं किसी पूर्वाग्रह मैं नहीं भटक रहा हूँ, केवल हम इस उपन्यास को उसके अपने कलेवर और ऊर्जा को दृष्टि में रखकर इसका मूल्यांकन करें, मेरा यह आग्रह है । 

बहरहाल, डॉ निर्मल जसवाल : एक बिंदास, साहसी, मानव मन की बारीकियों को समझने वाली, समाज विशिष्ट अथवा विभिन्न समाजों में खुले मन और मस्तक से विचरण करने वाली, साहसिक और जुझारू महिला हैं । और इस पर सशक्त और स्वछन्द व्यक्तित्व की स्वामिनी हैं । किसी अवरोधक बंधन अथवा कड़े अनुशासन को वह नहीं मानती । और यदि मैं कहूँ की वह इक्कीसवीं शताब्दी की ज़ोरदार आवाज़ों में से एक हैं, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी । इनका यह उपन्यास बहुत कुछ कहता है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता । और मुझे यह भी लगता है कि इसे दूसरी भाषाओं में अनुवादित किया जाये तो इसका आयाम अथवा मूल्य बढ़ेगा ही । यह उपन्यास रूढ़िवादी विचारधारा और संकुचित दृष्टिकोण के विरुद्ध आवाज़ उठाता है । पर यह सब एक आंदोलन के रूप में नहीं बल्कि एक स्वप्नद्रष्टा के रूप में किया गया प्रयास समझना चाहिए । क्योंकि आज के सन्दर्भ मे इस तरह के आंदोलन में खतरा हो सकता है, स्वप्नद्रष्टा के प्रयासों में नहीं । 

मैं यहाँ समय को ध्यान में रखते हुए " रेड वाइन ज़िन्दगी" के केवल कुछ आग्रहों अथवा आंशिक सन्दर्भों तथा पहलुओं और उपन्यास के कलेवर के बारे में संक्षेप में बातें करूंगा । 

पढ़ने से पूर्व हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए की उपन्यासकार एक घुमन्तु और खोजी रचनाकार है । वह घूमती रहती हैं । कभी कैनडा, आस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड, तो कभी हांगकांग,, चीन, या थाईलैंड । उसके विलक्षण अनुभवों को नकारात्मक रचना अथवा मज़ाक़ में नहीं लिया जा सकता । उसने लिप्त अथवा निर्लिप्त भाव से ये अनुभव एकत्र किये हैं । और साहस के साथ उन्हें पाठकों तक पहुंचाया है । जहाँ तक उसकी भाषा का सम्बन्ध है वह हिंदी, पंजाबी और अंग्रेजी भाषाओं की ज्ञाता है । और अधिकार के साथ इनका प्रयोग करती है । एक और बात मैं यहां साफ़ कर देना चाहता हूँ कि वह सपष्टतया नारीवादी हैं पर विडम्बना यह है की पुरुष के अस्तित्व को कहीं नकारती नहीं हैं, न पूर्णतया उसे अपने लेखन में कोई आदर्श भूमिका प्रदान कराती हैं । उसकी कहानियां नायका प्रधान हैं । अपनी इस विचारधारा को पुष्ट करने का सजग प्रयास उसकी रचनाओं में दिखाई देता है । उसकी रचनाओं में स्त्री- पुरुष संबंधों का मनोविज्ञानिक आधार है । इस उपन्यास का तो आधार है ही मनोविज्ञानिक । 'समंदर नीली आँखों का', उसका प्रसिद्ध काव्य संग्रह भी स्त्री के दुःख सुख और उसकी पीड़ा और उसकी सहनशीलता की व्याख्या से सम्बंधित है । 

प्रथम अध्याय-नगीना और महेश्वरम । यूं तो हर उपन्यास का प्रथम अध्याय इस लिए महत्वपूर्ण होता है कि कथा की आगामी घटनाओं तथा मुख्य पात्रों का यहीं पर पूर्वाभास हो जाता है । पर यहाँ यह अध्याय कई और बातों का भी संकेत देता है । इसी मैं मुख्य पात्रों - नगीना और महेश्वरम की प्रवेश- टिप्पणियां उपन्यासकार की सुघड़ता और दुनियादारी की समझ के जीते-जागते प्रमाण हैं । और इस बात का भी आभास हो जाता है कि यही कहानी के मुख्य पात्र हैं । 'नीला सा लिफाफा' में एक लेख है जिस में कश्मीरी पंडितों के पलायन, 1947 के बंटवारे का ब्यौरा इसी चैप्टर मैं मिल जाता है । नगीना की पीड़ा का संकेत भी यहीं मिल जाता है । मौसम और पर्यवरण का भी निर्धारण हो जाता है । 'बर्फीली रात है । बाहर घुप अँधेरा है ' और ऐसे क्षणों के विवरण से उपन्यास की भाषा शैली का भी थोड़ा सा आभास हो जाता है । नगीना की मित्र मिसिज़ गोसाल का प्रवेश यहीं होता है । नगीना की एकांतिक प्रकृति का भी पता चलता है । कैनडा वाली बेटी, एक अन्य पात्र, अनुज का भी ज़िक्र होता है । दिवास्वप्नों का भी ज़िक्र यहीं पर हो जाता है । नगीना के अंतर्मन की ध्वनि, उसकी पीड़ा, अतीत की स्मृतियाँ, उसकी बेचैनी, दिवास्वप्न, किसी एक बलिष्ठ पुरुष की बाँहों में बंंधने की इच्छा, चार्जर लेना न भूलने की बारम्बार ध्वनि, स्वप्न शैली, देह के पार की उसकी आवाज़, उसकी मानसिक भटकन के अनेक संकेत, आर्टिक्ल 370,35 ए की व्याख्या, महेश्वरम से नज़दीकियों का आभास -- इस प्रथम चैप्टर में हो जाता है । इस के अतिरिक्त यह उपन्यास मनोविज्ञानिक है, और इस की शैली समृत्यालोक और चेतना प्रवाह जैसी है - इसकी आहट भी इसी चैप्टर में मिल जाती है । 

दूसरे चैप्टर में नगीना के मित्रों -लीना, इन्दर, कश्मीरा, भोपाली का आगमन । संदेह होने लगता है कि यह भी संभवतः उसकी शैली का एक विशिष्ट नमूना है । कहीं लीना नगीना ही तो नहीं, इन्दर महेश्वरम तो नहीं, और कश्मीरा मिसिज़ गोसाल तो नहीं... संशय होने लगता है । कैनडा की जीवन-शैली की एक झलक हमें यहाँ मिलती है । यहाँ यह भी पता चलता है कि उपन्यासकार में जीवन को नज़दीक से देखने और परखने की भी अपार समझ है । आदमी भी घोड़े जैसा होता है, इपर वह उस से भी दूर हो गई । बड़ी उम्र में हड्डियां सरकंडे सी हो जाती हैं, मर्द भी घोड़े जैसे होते हैं, इन्हें रस्सी से खींच के रखना पड़ता है, इन्दर के साथ पुराने संबंधों की एक धुंधली सी झलक, लेना और इन्दर रिलेशनशिप में, भोपाली से रिश्ता जुड़ने की सम्भावना,- इन सब गंभीर अथवा लिजलिजे रिश्तों का आभास होने लगता है । यह भी कि नगीना में एक फक्कड़ -भाव यानि बोहिमियन प्रकृति वाली लड़की होने की आशंका का आभास होने लगता है । हर एक का अपना एक आसमान होता है-- अपने आस पास की जगहों और व्यक्तियों के बारे में गहरी सोच और उनके विश्लेषण की यह अद्भुत गुणवत्ता नगीना में है - इसका भी एहसास होने लगता है । 

तीसरा चैप्टर -नगीना, चंद्र, अनुज, भ्रूण । पिघली बर्फ के नालों का शोर एक सशक्त संकेत मन में उथल पुथल के भावों को प्रदर्शित करता है । और यह संकेत कि नगीना की एक बेटी कैंनडा में है और नगीना का एक घर चंडीगढ़ में भी है । भ्रम की हलकी सी पुष्टि यह भी करता है कि यह उपन्यास हो न हो, उस की - आत्म-कथा के बहुत समीप है । कभी उसने चंद्र के साथ पहाड़ों में भटकने की कल्पना की थी । पर चंद्र खो गया कहीं । इस बात का दुःख है उसे । उसका ताजमहल तो बचपन में ही टूट गया । पर धीरे धीरे चंद्र का पर्याय अनुज बनने लगा । धीरे धीरे यह सम्बन्ध घनिष्ठ प्यार में बदल गया । नगीना के पेट में अनुज का शिशु - एक महत्त्वपूर्ण 

घटना । अनुज बेवफा न था । कैलिफ़ोर्निया में दुर्घटना के कारण अनुज जब अपनी टांगें खो बैठा तो उसने नगीना से रिश्ता तोड़ लिया । इस मध्य जब नगीना के पेट में शिशु था, उस दशा का वर्णन लेखिका ने इस प्रकार किया है जैसे खेतों से आती हुई झंका-सी कैसे नसों में शोर सा मचाती, पुलकित करती हुई मेरे रोम-रोम को सुन्न सा करती चली जा रही है (थी) । खेतों से आती हुई झंकार... एक भूमि से जुड़ा प्रतीक । नगीना अपने भावी बच्चे के बारे में ममता के साथ सोचती । अजन्मे शिशु के प्रति उसका स्नेह भरा निवेदन देखिये : मेरे किसलय नवीन पल्लव, क्षमा प्रार्थी हूँ... मेरे स्वत्व, मैं तुझे बनाने का जो कारण हूँ - तुझे मिटाने का कार्य मेरा नहीं -... भ्रूण हत्या नहीं ? समाज के नियमों का पालन करना उसे इस संसार के दुखों से बचने का विकल्प मात्र । ( पृ० 47 ) . पर वह अपना भ्रूण नहीं बचा पाई । यह उसके मन में एक याद सा सदा जीवित रहा । 

भ्रूण खो जाने के उपरान्त फिर से पढ़ाई का निश्चय । वह चंडीगढ़ में पढ़ने लगी । वहां एक नई मित्र मंडली -- दिलरूप, विशाल, समीर, तनुश्री आदि । अब वह सम्मोहन से दूर हो गई थी । अब नगीना में बदलाव आ गया था । वह मुक्त हो गई थी । फिर भी एक बार फिर वह मोहपाश में बंध गई समीर के साथ । पर वह उस से भी दूर हो गई । वे जम्मू में मिले थे । वह चंडीगढ़ से बस द्वारा जम्मू पहुंची. बहुत थक गई थी । वह एक पड़ाव चाहती थी जीवन में । वह उसे समीर में दिख रहा था । पर उसे अधूरा पुरुष नहीं चाहिये । उसे एकाधिकार चाहिये । वे पत्नीटाप एक साथ गये । वहीँ उन्हें समीर की पत्नी और बेटा मिले । समीर ने अंत में अपना निर्णय सुना दिया । नगीना के स्वप्न चकनाचूर हो गये । उसने भी निर्णय कर लिया कि वह अब इन टुकड़ों को संभालेगी नहीं । इस तरह से ये सम्बन्ध समाप्त हो गया । 

छठे चैप्टर में, नगीना का फिर शिमला में एक आर्मी जवान से परिचय हुआ । नगीना को बराबर एक दुःख सालता था और वह दुःख था कि वह अपने बेटे को बचा नहीं पाई थी । अब उसका ध्यान अपनी दोनों बेटियों की तरफ था । 

उस ने बड़े सुँदर ढंग से अपने हृदय में उठते तूफ़ान का वर्णन किया है : "एक रात उसे सफेद लबादे वाला देव पुरुष नज़र आया । उसने उस से नदी में नहाने का आग्रह किया । उसे अकेला नदी में तैरने के लिए छोड़ दिया गया । उसके इर्द गिर्द देव कन्याएं अठखेलियां कर रही थीं । जैसे वह पानी से बाहर निकलने वाली थी कि उस की नज़र एक नन्ही सी परी पर टिक गई । उसने उसे छुआ । तभी उसकी आंख खुल गई । यह उसका पति था । वह उसके माथे का पसीना पोंछ रहा था । " प्रथम बार उसे लगा की वह बेसहारा नहीं है । उसका पति उसके साथ है । पर वह भी खो गया । वास्तव में भागती दौड़ती अपनी ज़िन्दगी से तंग आ कर हैंडसम फुर्तीले आर्मी अफसर से शादी रचा ली थी । पांच छह बर्ष के अंतराल में दो बेटियों ने जन्म लिया । अब वह अपनी पिछली ज़िंदगी को व्यतीत कर चुकी थी । और अपने खोये हुए शिशु को, भ्रूण को भूल चुकी थी । अचानक उसे पता चला कि उसके पति को कैंसर है । काफी इलाज करवाया पर वह बच नहीं पाया । दो वर्ष पश्चात ही उसके पिता ने दामोदर के साथ को सुझाया । वीज़ा लगवा कर अपनी छोटी बेटी को लेकर दामोदर के पास आ गई । दामोदर उससे 20 बरस बड़ा था । उसमें उसे एक पति नहीं, पिता नज़र आने लगा । यहाँ पर वह एक महत्वपूर्ण टिपण्णी करती है -पुरुष पति तो बनाना चाहता है, परन्तु सुख प्राप्ति के लिए । ग्रेवाल की सहायता से वह चंडीगढ़ आ गई । उसकी बेटी परी को अपनी माँ से प्यार हो गया । पढ़ने गई तो वहां भी किसी से प्यार हो गया । वह गौरवर्ण के विदेशी परिवार का हिस्सा बन गई । 

चेतना प्रवाह शैली का एक नमूना देखिये । दूध का घूँट भरते ही उसे उबकाई सी आई । इसी के साथ पंजाब और जर्मनी की याद आई । पंजाब में गाय के थनों से दूध हाथ से निकला जाता है और जर्मनी में मशीनों से । इसी के साथ उसे याद आया कि गाँधी बकरी का दूध पीते थे । गाँधी से याद आया कि भारत में सारे झगड़ों की जड़ गाँधी की फोटो है । हर जगह गांधी का चित्र । ये गांधीवादी नोट । गाँधी नीति न होती तो हमारे शहीदों की कुछ और ही राह होती । देश बहुत पहले आज़ाद हो जाता । .... यहाँ राजनीतिक विवाद खड़ा किया जा सकता है, पर नहीं । यहाँ हम चेतना प्रवाह की बात कर रहे हैं । माबोविज्ञान में हम इसे 'असोसिएशन' कहते हैं । विचारों, नामों, जगहों , व्यक्तियों, घटनाओं, दुर्घटनाओं की एक साथ याद आने लगाती है । इस उपन्यास में कई ऐसे स्थल हैं जहाँ लेखिका ने इस स्ट्रीम ऑफ़ कोंशियसनेस्स का प्रयोग किया है । इस से स्थितिओं, और व्यक्ति की मानसिक दशा को सही सही समझने में आसानी हो जाती है । हैलोवीन से उसे अपने देश की 'लोहड़ी' याद आती है । 

बूढा हेनरी अकेला है । नगीना उसे बताती है की उसकी दो बेटियां हैं । फिर वह विधवा कैसे हुई । एक बेटी बेंगलुरु में है दूसरी कैनडा में । वह चार पांच महीने एक बेटी के साथ तो चार पांच महीने दूसरी के साथ रहती है । अब देखिये मनोविज्ञानं सम्बंधित असोसिएशन लेखिका के मस्तक में कैसे काम करती है । हेनरी आयरलैंड की बात करता है । और लेखिका के मस्तक में इतिहास का एक पृष्ठ फड़फड़ाने लगता है । 

अगले चैप्टर में लीना, इंद्र, दिलजोत । नगीना सोचती है- विवाहेतर उसके जीवन में कई बही खाते खुले और बंद हुए । वह पढ़ाई के दिनों को याद करती है । दिलजोत कहती थी- मैं अपना जिस्म उस लड़के के साथ शेयर करती हूं, उसी के कारण मैं कैनडा में हूँ । इंद्र भीतर से आवाज़ देता है । दिलजोत की बातें उसके मस्तक में गूंजती रहती हैं । दिलजोत लीना को उकसाती है अच्छे पैसे कमाने हैं तो वह भी बारटेंडर बन जाय । मिताली भी लगभग यही सुझाती है । लीना अपने बॉयफ्रेंड के साथ चले जाने की बात कहती है । लिव इन रिलेशन । लड़कियां कैनडा के माहौल में घुलमिल कर रहना चाहती हैं । इसीलिए इस ज़िन्दगी के साथ ऐसा समझौता कर लेती हैं । सुविधा के लिए सिगरेट पीती हैं । भांग के पकौड़े खाती हैं और लड़कों के साथ हम बिस्तर होती हैं । स्वछन्द हैं । इन में डॉलर की भूख है । यहाँ 'पीले पत्तों ' का बार-बार ज़िक्र है । जो बासीपन या अधोपतन का सशक्त प्रतीक हैं । लेखिका इन लड़कियों के बहाने अपने को और अधिक जानने लगी है । डॉलर कमाने के निमित मितली अपना ब्रेस्ट मिल्क तक बेचती है । 

'रेड वाइन ज़िन्दगी " में बहुत सी जगहें खाली हैं । चैप्टरों को एक दुसरे से जोड़ना तक मुश्किल हो जाता है । नगीना और महेश्वरम का एक साथ ज़िक्र होता है किताब के शुरू में । महेश्वरम नगीना के लिए नीला सा लिफाफा' छोड़ जाता है । उसमें एक लेख है । हलकी सी आस बंधने लगाती है । लेख कश्मीर के बारे में है । कश्मीरियों पर अत्याचार के बारे में है । उनके दुःख दर्द के बारे में है । राजनीतिज्ञों के प्रति आक्रोश से भरा है कश्मीरी पंडितों के निष्कासन के बारे में है । दूसरे भाग में आर्टिकल 370, 35ए के विषय में है । पत्र पढ़ने के पश्चात नगीना को लगने लगा कि इस आर्टिकल का लेखक महेश्वरम कोई अपना सा है । वह श्रीनगर का रहने वाला है । जम्मू में परिचय हुआ था । पर वह भूल क्यों गई थी ? उसके मन में हलचल मच गई । पांचवें चैप्टर में महेश्वरम फिर अवतरित होता है । उसे लगता है कि महेश्वरम विवाहित है? उसकी पत्नी होगी और बच्चे भी ? पर वह स्पष्ट कर देता है की वह विवाहित नहीं है । और उसकी उम्र 40 बरस की है । असिस्टेंट प्रोफेसर है । रिसर्च कर रहा है । समय के विषय में महेश्वरम की एक परिपक्व धारना है... यस टाइम इस प्रोग्रेशन ऑफ कॉस्मिक इवैल्यूएशन सिग्निफाइंग ट्रांजीशन ऑफ बीइंग ईंटू बिकमिंग । द मोशन ऑफ़ बीइंग मोशनलेस । ' नगीना ने जान लिया कि महेश्वरम किताबी कीड़ा है । वह पूछती है- मेरी एक लम्बी कविता है । सुनो गे ? नहीं मैं पढ़ना चाहता हूं । तुम्हारी लिखत में एक नयापन है उसको सूंघना चाहता हूँ । उन दोनों के बीच उम्र का अंतराल है । फिर भी जाने क्यों नगीना के मन में एक आकर्षण है उसके प्रति । दोनों के मध्य बौद्धिक बातचीत का सिलसिला चलता रहता है । किताबी सन्दर्भ हैं । ये सब बातें फोन पर होती हैं । धीरे-धीरे दोनों पर एक दूसरे का रंग चढ़ने लगा । फिर समीर सोनी जम्मू, गांदरवाल-मिलन, वार्तालाप... कितने ही सन्दर्भ महेश्वरम फिर उभरता है दसवें चैप्टर में । अभी तक के विवरण में महेश्वरम और नगीना के बीच एक बौद्धिक रिश्ते के अतिरिक्त और कुछ लग नहीं रहा था और मैं इस असमंजस में था कि इस सम्बन्ध को परिभाषित करने के लिए मैं क्या करूं । बहरहाल दसवें चैप्टर में कुछ सन्दर्भ दृष्टिगोचर होने लगे हैं । लेखिका ने स्वयं इस ओर इंगित किया है । उसे यह अनुभव होने लगा है कि महेश्वरम से जैसे रूह का रिश्ता हो । पुनर्जन्म का कोई नगीना का शिशु, प्रेमी बनकर ख्वाबों में ढल कर ज़िन्दगी में रस लाने वाला, जीवन देनेवाला । पिछले जन्म की बात से वह कितना गंभीर हो जाया करता है । जैसे वह उससे अंतरालाप कर रही हो... क्यों छोड़ आई थी तुम मुझे वहां श्रीनगर के उस गांव में भ्रूण रूप में तनहा... मैं मिट्टी में भी बिलख रहा था । इस ब्यौरे से पता चलता है कि पाश्चात्य संसार में प्रवेश करती है तो खालिस दूध अथवा मां के दूध को भूल कर, दूध-ज़िन्दगी को त्याग कर अनजाने एक जाल में फंस जाती है और प्रलोभन-वश रेड वाइन ज़िन्दगी जीने लगाती है । अपने संस्कारी जीवन को हेय और आधुनिक संसार के दुराग्रह के आगे निम्नतर आंकते हुए एक चक्रव्यूह में घिर जाती है । और फिर चकरघिन्नी की तरह घूमने लगती है । गंगाजल अथवा मां के दूध के बदले रेड वाइन अथवा विदेशी संस्कृति के भ्रमात्मक वातावरण में रेड वाइन कल्चर का शिकार हो जाती है । और अपनी सांसारिक अवधारणाओं को तिलांजलि दे मोह के अतल समंदर में खो जाती है । कोई-कोई नगीना इस भ्रामक सागर के यथार्थ को समझ कर अपना अंतिम निर्णय लेती है - कि अंतिम बात यही है की रूह का रिश्ता ही ठीक
है । प्लेटोनिक लेवल पर । 

देखा जाय तो जीने के लिए जीवन, शेष जीवन कितना बचा रहता है । रेड वाइन ज़िन्दगी का यही सार है । रेड वाइन ज़िन्दगी अद्भुत उपन्यास है । यह एक मनोविज्ञानिक कृति है-सुप्त और अभुक्त लालसाओं की सजग और निडर, साहसपूर्ण साहित्यिक अभिव्यंजना । स्त्री के विभिन्न रूपों और भावनात्मक स्थितियों का विश्वसनीय वर्णन । और यह वर्णन पूरे विवेक तथा प्रकरणों और संदर्भों के साथ हुआ है । रेड वाइन ज़िन्दगी एक ईमानदार साहित्यक कृति है जो नगीना, लीला, अदि अनेक स्त्री चरित्रों के माध्यम से न केवल कैनडा में भारतीय नारी की लालसाओं, सफलताओं, असफलताओं, बल्कि समस्त आधुनिक समय की नारी का बृहद, पूर्ण और आधिकारिक विवरण प्रस्तुत करता है । 

रेड वाइन ज़िन्दगी के अनेक गुह्य रहस्यों, नाजुक संवेदनाओं, कमजोरिओं और नारी की आंतरिक क्षमताओं की अद्भुत अभिव्यक्ति है । इस में कई ऐसे स्थल हैं जो नारी के साहस और संहार वृति को आश्चर्य ढंग से 'ब्लो उप ' कर, व्यक्ति को समाज के सामने सावधान रहने का अनुनय अथवा ज़ोरदार तरीक़े से आग्रह करते हैं । नारी कैसे जब सोच, अभिव्यक्ति और प्रदर्शन के मूड या प्रक्रिय में होती है तो अपने को भीतर बाहर से समान रूप से उधेड़ कर समाज के सामने सही तस्वीर प्रस्तुत करती है । अंतत: कलात्मक दृष्टि से भी यह उपन्यास आधुनिक हिंदी साहित्य में एक नया मील-पत्थर स्थापित करता है । यह एक 'डोज़ ' है जिस का नशा धीरे धीरे चढ़ता है और फिर 'नाम खुमारी' की तरह चढ़ा ही रहता है । 

यह उपन्यास एक घुमन्तु नारी के व्यवहार के बोहिमिनियन पक्ष उजागर करता हुआ यशोदा को कृष्ण के मुख में ब्रह्माण्ड की पूर्ण तस्वीर प्रस्तुत करता सा प्रतीत होता है । बर्फ का कंकाल सा दिखना, पीले पत्ते, भ्रूण की मृत्यु, जैसे लेखिका की ऑब्सेसिव मेमोरीज हैं । पर इस से उसे पश्चाताप नहीं होता । पाप पुण्य की लौकिक भावना से ऊपर उठ कर अपने टूटे हुए जीवन खंड के बिखरे टुकड़ों को बटोर कर वह आगे बढ़ती है । जगह-जगह पर वह अनेक युक्तियों का प्रयोग करती है । यही उसकी लेखन शैली की विशेषता है । चेतना प्रवाह शैली के कारण उपन्यास की कथावस्तु अनेक धाराओं में बहने लगती है । एडमंटन, टोरंटो, वैंकूबर, बॉस्टन, अमृतसर, जम्मू, चंडीगढ़, बेंगलोर, श्रीनगर आदि अनेक ऐसी जगहें हैं, जो "रेड वाइन ज़िन्दगी" के अनेक तहलका मचाने वाले सन्दर्भों, चरित्र चित्रण के आश्चर्यजनक उद्भव स्थल हैं । नगीना एक अनुभवी, स्वालम्बी,, धैर्यवान, सत्यान्वेषी, साहसिक, साहसी, और निडर नायिका है । 

नगीना पुनर्जन्म की रौशनी में जी रही है । महेश्वरम को वह शिव रूप समझती है । वह कुछ पंक्तियाँ गुनगुनाती है...मैं अलमस्त सी/तेरी नीली आँखों के / समुद्र में / कहीं गहरे उतर, / शेष नाग के विष दंश / करती रास/ की रात में नहाई,/ कृष्ण बांसुरी की / मुग्ध तान में डूब जाती हूँ..... वह अपने इस संशय को निश्चय में बदल देना चाहती है । वह अपने से कहती है --महेश्वरम, शिव की पूजा-आराधना भी कृष्ण की चौंसठ कलाओं की तरह ही करता है । महेश्वरम उसके अंदर एक नाग फन उठाये, डंक मारने को तैयार रहता है । पलायन का विद्रोही है वह । उसके अंदर का युवक तड़प कर अपने पूर्वजों के घर वापस कश्मीर की वादियों में जाना चाहता है । कश्मीर उसकी सांसों में स्पंदन की तरह विद्यमान है । इस बिंदु पर कश्मीर एक व्यक्ति के रूप में दोनों के सम्बन्ध में उतरने लगता है । महेश्वरम नगीना को सावधान सा करता दिखाई देता है- नगीना, मेरे चारों और घुप अँधेरा है । अलगाववादियों से डर कर माँ बाप रौशनी की तलाश कर रहे हैं । मैं सन्नाटे में तारों को गिनते-गिनते रात दिन अकेले सफर में हूँ । (पृष्ठ 120 ) नगीना अंतिम निर्णय कर लेती है । अभी तक तो वह अधेड़बुन में ही थी, पर अब अंतिम निर्णय वह स्वीकार कर लेती है कि यही उसकी यात्रा का अंतिम पड़ाव है । शायद भ्रूण रूप में खोया मेरा शिशु यही महेश्वरम है । और उसके होंठों से यह शब्द अपने आप पानी के चश्मे की तरह फूट पड़ते हैं -- अक्षर बन /तेरी सांसों की / घुल रही थी / मिश्री / मेरी सांसों में, / जब बंद कर लिया तू ने /मेरे अक्षरों को / तूने अक्षरों के साथ /नीले लिफाफे में / चुम्बन की लगाकर/ एक डाक टिकिट । ( पृष्ठ 123 ). यह मार्मिक भी है और दुखांतक भी । दोनों आलिंगन में बंध जाते हैं । रूह का रिश्ता पक्का हो जाता है । महेश्वरम कश्मीर में अपने परिजनों में - जैसे दो पाटों में पिसने लगता है । वह इस इंद्रजाल में इस तरह फंस गया था कि उस से छुटकारा पाकर पूरे रूप से नगीना को समर्पित हो जाना उसके बस में नहीं था । लेखिका नगीना के चरित्र को उभारने के प्रयास में एक महत्वपूर्ण, पर रहस्यात्मक टिप्पणी करती है...नगीना को 'रेड वाइन' या 'वाइट वाइन' के अतिरिक्त' ब्लडी मैरी' बहुत पसंद थी । नगीना ने अपने जीवन के सारे पन्नों को एक पुस्तक में समेट लिया था जिसका नाम था 'रेड वाइन ज़िन्दगी' पर महेश्वरम अब भी उसके अवचेतन में विद्यमान था । वास्तव में नगीना जिस रूह के रिश्ते की बात कराती रही है, वह रिश्ता पक्का होने वाला था । अब वह उसमें अपना वर्तमान ढूंढती है । उसका मस्तक, उसी के कथन के अनुसार शून्य हो गया है । नगीना को रेड वाइन का लाल रंग कोविद -19 के दौरान ताबूत और ढेरों लाशों के ऊपर, असफलताओं को उंडेलता सफेद रंग में ढलता नज़र आ रहा रहा था । उसे लगने लगा है कि जैसे धुंध ने उसे पूरी तरह जकड़ लिया हो । 

यहीं उपन्यास का अंत हो जाता है । पाठक असमंजस में पड़ा रहता है । दरअसल ऐसी खानाबदोश ज़िंदगिओं की कहानी का यही अंत उचित और तर्कसंगत है, यानि कोई अंत होना न होना ही श्रेयस्कर है । ऐसे अंतर्मन के के संघर्ष का कोई अंत भी कष्टकर और ट्रैजिक हो सकता है । शायद नगीना को भी यही लगता है कि अपनी चिर स्थापित आस्था में लौट आना ही श्रेयस्कर है कि जीवन की असली कहानी में न तो कोई अर्ध विराम है और न ही कोई पूर्ण विराम जीवन एक बहाव है नदी की तरह । एक अविरल बहाव है । आधुनिक, विशेषकर भारतीय नारी, जब अकस्मात् चकाचौंध से भरे उसमें कही नकारात्मक भाव नहीं । ऑटो -सज्जेशन से अपनी कई मानसिक और सांसारिक समस्याओं का समाधान ढून्ढ लेती है । आगे बढ़ना उसकी प्रवृति है । उसकी नियति भी । वह अपना रास्ता स्वयं खोजती है । अपने इस नैरेटिव के माध्यम से वह अनेकों चुनौतियों की निर्मात्री भी है । 

मैं इस समीक्षा का अंत उपन्यासकार, डॉ निर्मल जसवाल के शब्दों में ही करना चाहता हूँ ताकि पाठकों को महसूस हो जाय कि यह सारी प्रतिक्रिया उसके उपन्यास में व्याप्त घटनाओं, विवादों, प्रतिवादों, विचारों, धारणाओं, अवधारणाओं के कारण संभव हुई । उद्धरण प्रस्तुत है : उसका ( नगीना का) भटकना अच्छा लगता है...... ज़िन्दगी के मरुस्थल में भटकती, लोगों से मिलती, देश विदेश में घूमती, कुछ न कुछ ढूंढती रहती है । " ऐसे ही नहीं सब कुछ... संसार के तन्तु एक दूसरे से जुड़े रहते हैं । 

इसी बिन्दु पर मैं इस विमर्श को, बंद करने की आज्ञा चाहता हूं ।


 



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समीक्षा

डॉ. अवध बिहारी पाठक, सेंवढ़ा, जिला दतिया (म.प्र.) मो. 9826546665


डॉ. उमा त्रिलोक, मोहाली पंजाब, मो. 9811156310


जटिल विगत को आवाज देती कविताएँ यानि स्मृतियाँ

डॉ. उमा त्रिलोक का कविता संग्रह मेरे सामने है । आपके कृतित्व से साहित्य और समाज परिचित है । आपने हिन्दी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखा । पुस्तक में संग्रहीत कविताओं से गुजरना वकौल प्रकाशक "माज़ी में पेश आये त्रास, वेदन, रुदन और रोमांस को एक साथ जीना है ।" ऐसी स्थिति मेरे लिए लेखे बड़ी भयावह होती है और इस भावाव्यक्ति से मेरा मन आतंकित है । कवि के भाव-बोध में सर्वत्र ‘‘खामोशी और मौन छाया है, खामोशी ने/रोक दिया है/शब्द को/शब्द बन गया होता/काव्य दर्शन संगीत/या फिर त्रास वेदना और क्षमता’’ पर यहाँ कविता में तो ‘‘खामोशी/खुद को सुनती है और उसी में रचती है/ अपना भव्य संसार’’/ऐसी जटिल जानलेवा खामोशी आतंक पैदा ही करेगी न । यह बताना जरूरी है कि उमा जी की काव्य संवेदना तक पहुँचने का मेरा रास्ता थोड़ा अलग सा है क्योंकि उनकी अनुभूति को मुलाकातों की जरूरत नहीं ‘‘सिर्फ मौन ही डोलता रहे’’ । उनकी दृष्टि मंें ‘‘एक दूसरे के लिए होना/बस होना ही बहुत है’’ । इसी कवि कथन में तृप्ति का एक बड़ा संसार समाया है आश्चर्य होता है ।

तमाम लेखकों ने आपकी कविता को ‘‘इश्क हकीकी और इश्क मिजाजी’’ माना है । प्रेम उनके चिन्तन का आधार वही कबीर वाला ढाई आखर प्रेम जो सांसारिकता का व्यवहार करते हुए उसे ब्रह्म तक पहुँचाता है । इसी कारण कवि की मानसिकता में शरतचन्द्र का प्रेम है पारो के पाजेब की टीस है बड़ी दीदी की सिसकियाँ हैं, श्रीकान्त है, चेखब और उसकी प्रेमिका लीडिया इबलोव है और अमृता की धड़कन भी । इन सब में प्रेम की पीड़ा है जो गन्तव्य तक न पहुँची । कवि के काव्य में एक टीस है, एक अनाम खालीपन । महादेवी जी ने लिखा है कि ‘‘तुमको ढूँढ़ा है पीड़ा में, तुममें ढूँढ़ूंगी पीड़ा’’ डॉ. उमा का मन कहता है ‘‘दर्द की इन कड़ियों में/यकीनन कोई साझेदारी है/हैरान हूँ/कि कहीं ऐसा तो नहीं/कि मैने भी अपनी/कोई एक कड़ी इसमें जोड़ दी हो’’ । कवि का यह कथन इन प्रेम उत्सर्गियों से एकमेव हो जा रहा है । यह तय है कि उनका प्रेम वायवी नहीं स्वर्गिक है । जिसका प्रतिनिधि अनन्त मौन है, ब्रह्म का प्रतीक है । कवि कहता है कि ‘‘मौन/तुम शक्ति हो/तेज हो धैर्य हो/अनुभव विहीन अनुभव हो/ साधू का स्वप्न हो/योगी का लक्ष्य हो/मोक्ष हो/मुक्ति हो/परमगति हो । उसका प्रेम अस्तित्व ‘‘न होने में भी/होना है’’ । यह अनुभूति की चरमावस्था है । सभी कुछ एकीकृत संदली शाम के पूछने पर, ‘‘तू क्यों बैठी है अकेली’’ मन उत्तर देता है ‘‘मैं हूँ कहाँ अकेली/मैं हूँ उसमें/रम गए एक दूजे में’’ एक समृद्ध संसार के वावजूद ‘‘अब तलाशती है रूह एक कोना सुनसान/वीरान/एकाकी मौन’’ अपने प्रिय की न उसको पहिचान है न परिचय पर बसंत के आने की कामना कर रही है । सवाल पूछती है कि ‘‘कहते-कहते रुक गए, कहने को, सुनना चाहती है’’ अपने पूछे सवालों का उत्तर भी उसको नहीं मिला ‘‘लिख भेजना उन सबके जबाव क्योंकि बसंत के बीत जाने का डर है । यह तो तय है कि उसकी बेरहमी और खुद के पैरों में वक्त की बेड़ियों के कारण अपने न किए कौल न दिए गए उलाहने परस्पर की आँखों में नमी को/अपने मंदिर के पिछवाड़े वो दिया है/सुना है वहाँ एक उपवन खिला है/हो सके तो हो आना वहाँ/हो आना बस एक बार’’ यहाँ कविता का अन्तरतम भी पिघला दिखता है । अनुभूति की तरलता का चरमोत्कर्ष अपने न किए जाने वाले कौल के पेड़ ही वह उसको दिखाने से अपनी पीड़ा का परिहार समझ लेती है । बरसते बादलों में भीगती खड़ी रही ‘‘तुमने मुझे एक गीत ओढ़ा दिया/ जिसे ओढ़े मैं आज भी/वहीं हूँ’’ गीत में इतनी ताकत है कि उस अन्चीन्हें अपनेपन के आज भी आने के प्रति आश्वस्त हूँ । सामीप्य के अवसर भी आये परन्तु ‘‘पथरा गए बोल/मगर बोल बोले ही नहीं/बहुत चाहा था/कि बोलकर/कसम देकर पकड़कर हाथ तेरा/रोक लेती/मगर बोल/कभी थिरकते तो कभी थरथराते रहे/मगर बोले नहीं ।’’ किन्तु फिर भी वह अपनी कविता की अधूरी सतर को पूरा करने प्याली से दो घूँट चाय पी जाने की बिना किसी शिकायत के आग्रह करती है कि यह-– ‘‘जरूरी तो नहीं/एक दूजे के लिए होना/बस होना ही बहुत है’’। कमाल है कवि के धौर्य का, वह अपने प्रिय की आभासी उपस्थिति को वस्तुतः न होकर भी होना मान लेती है । कवि की अनुभूतियाँ इतनी बारीक हैं कि हिन्दी कविता के प्रेमतात्विक संबंधों की इतनी तरलता से चित्रण कम ही कवियों ने किया है । परन्तु ऐसा क्षीण एहसाह स्थूल में परिणित होने की प्रतीति उमा जी के अलावा दुलर्भ है ।

कवि मन का अभिप्रेत सर्वव्यापी है ‘‘ममता के मोह में तू/प्यार का सिंगार में तू/कैसे सजदा करूँ/कण-कण के नूर में तू’’ सब जगह व्याप्त है वह जिसे वह जानती भी नहीं और कहीं न मिलने पर मत है कि वह है ही नहीं ‘‘उसका ढूँढ़ना सत्य है’’ उसकी न पहिचान है वह कहते-कहते ‘कहने को सुनना चाहती है’’ यहाँ कविता का मर्म पिघला दिखता है जो भावों का चरम और परम है । अपनी पीड़ा के पेड़ दिखाने में ही तलाश लिया है कवि मन ने समाधान । बरसे बादलों से भीगने में न होने पर भी कुछ होता रहा । इसी स्थिति में गालिब ने कहा था ‘‘मिटाया मुझको होने ने’’ यहाँ कवि का लक्ष्य एक ऐसे बिन्दु तक पहुँचना है जो होकर भी हो और न होकर भी हो ।

यह था उमा जी के काव्य का भाववादी पक्ष और सक्रिय भावुक चेतना का अन्तर्द्वन्द्व । इसी संग्रह में कवि का विचार पक्ष भी सबल है यहाँ शोषित नारी की अन्तर्वेदना, भ्रूण हत्या, श्रम जीवियों की दुर्दशा, पारिवारिक संबंधों का क्षय और बच्चों के प्रतिनिधि कृष्णकली के दर्दनाक बिम्ब हैं । तभी तो उसने कहा है ‘‘वह जीना चाहती है हंसध्वनि सा/गुनगुनाता जीवन/गीत सा लहराता जीवन’’ कवि का काव्य फलक विस्तृत है ।

रचना के निष्कर्ष में यदि कहा जाये तो कविताएँ भले ही वाई द वे समय का पाठ हों परन्तु डॉ. उमा का चिन्तन केन्द्र दर्शन है जो प्रेम के मार्ग से चलकर आध्यात्म में बदल जाता है । क्या वही हो तुम कविता में यह स्पष्ट हो गया है । पूछती है वह क्या तुम शक्ति के शिव हो, रुक्मणि के माधव, क्या राधा के कान्हा गीतों के गान, स्वांसों के प्राण क्या तुम वही हो, जो सस्सी के घर गए, हीर को ले जाओगे क्या, कच्चे घड़े से सोनी तर जायेगी । कवि मन अपने ध्येय को साधना का प्रसाद हो । सारी प्रतीक्षा के फल हो तो मेरे सारे प्रश्नों के उत्तर भी मिल जायेंगे । क्या तुम वही हो उनका प्रेम उस विराट ब्रह्म का अंग बन सारे प्रश्नों के उत्तर पाने को बैचेन है ।

कुल मिलाकर कहना होगा कि कवि का मैं आध्यात्म भाव है जो किसी एक प्रेम तात्विक ध्रुव पर पहुँचना चाहता है और वह पीड़ा का सामना करने पर ही मिलेगा । उसमें गहन अनुभूति अपेक्षित है अन्यथा कविता का पीड़ा जनक बाना ओढ़े बिना काव्य अपना प्राणत्व खो देगा । प्रसाद इसी पीड़ा के साथ बहकर कह उठे थे । ‘‘जो घनीभूत पीड़ा थी, स्मृति में छायी/दुर्दिन में आँसू बनकरा आज बरसने आयी ।’’ 

डॉ. उमा की रचना स्मृतियाँ समय पर कविता के हस्ताक्षर हैं । उसका आदर होना चाहिए और पाठ भी ताकि इन्सान पीड़ा का साक्षात्कार कर खुद का माँजता रहे ।



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नाम  डॉ. मधु संधु 

जन्म स्थान  अमृतसर, पंजाब

शिक्षा  एम ए, पीएच. डी. (हिन्दी)

    पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्व विद्यालय, अमृतसर । 

    द संडे इंडियन ने 21वीं सदी की 111 हिन्दी लेखिकाओं में गणना की है।

कहानी संग्रह  : 1.   नियति और अन्य कहानियां, 2001  

                2.   दीपावली@अस्पताल कॉम, 2014  

संकलन :         3.   गद्य त्रयी, 2007   

                4.   कहानी श्रृंखला, 2003

काव्य संग्रह  : 5.   सतरंगे स्वप्नों के शिखर, 2015  

                6.   संकल्प सुख 2021

कोश ग्रंथ :         7.   कहानी कोश (1951-1960), 1992 

                8.   हिन्दी कहानी कोश (1991-2000), 2009 

                9.   हिन्दी लेखक कोश (सहलेखिका) , 2003 

                    10. प्रवासी हिन्दी कहानी कोश 2019

शोधपरक ग्रंथ : 11. कहानीकार निर्मल वर्मा, 1982 

                12. साठोत्तर महिला कहानीकार, 1984  

                13. महिला उपन्यासकार, 2000  

                14. कहानी का समाजशास्त्र, 2005  

                15. साहित्य और संवाद, 2014 

                16. हिन्दी का भारतीय और पाश्चात्य महिला कथालेखन, 2013 

                17. वैश्विक संवेदन संसार और प्रवासी महिला कहानीकार 2019

                18.  इक्कीसवीं शती का हिन्दी उपन्यास और प्रवासी महिला उपन्यासकार, 2021  

अन्य : ‘मानव मूल्यपरक शब्दावली का शब्दकोश’ ( डॉ. धर्मपाल मैनी) तथा  ‘तुलनात्मक साहित्य                                 विश्वकोश’ ( डॉ. पाण्डेय शशि भूषण शीतांशु) के लिए प्रविष्टियाँ। 

        कम्प्यूटर के ‘गद्यकोश’ और ‘कविता कोश’ के अतिरिक्त अनेक संकलनों में रचनाएँ संकलित। 

सम्पादन : प्राधिकृत (शोध पत्रिका) अमृतसर, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, 2001-2004  

निर्देशन : पच्चास के लगभग शोध प्रबन्धों एवं शोध अनुबंधों का निर्देशन। 

अनुभूति, अनुवाद भारती, अभोयक्ति, अम्सटेल गंगा, आधारशिला, औरत, कथाक्रम, कथादेश, गगनाञ्चल, गर्भनाल, गुरमति ज्ञान, चंद्रभागा संवाद, जन श्री, पंजाब सौरभ, पंजाबी संस्कृति, प्रतिलिपि, परिशोध, परिषद पत्रिका, प्राधिकृत, प्रवासी दुनिया, बरोह, मसि कागद, युद्धरत आम आदमी, वागर्थ, वितस्ता, विभोम स्वर, वेब दुनिया, रचनाकार, रचना समय, शोध भारती, संचेतना, संरचना, समकालीन भारतीय साहित्य, समीक्षा, सृजन लोक, साक्षात्कार, साहित्य कुंज, साहित्य सुधा, सेतु, हंस, हरिगंधा, हिन्दी अनुशीलन आदि पत्रिकाओं में लगभग अढ़ाई- तीन सौ शोध पत्र, आलेख, यात्रा संस्मरण, कहानियाँ, लघु कथाएँ एवं कविताएं प्रकाशित।

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कथारंग

डॉ. मधु संधु


देश- देशांतर की कहानियां और विमर्श

कथारंग में देश- देशांतर की सत्रह कहानियां संकलित हैं । इसका सम्पादन टोरेंटों की कथाकार हंसा दीप ने किया है और इसमें समालोचक के रूप में मुकेश दुबे के विमर्श भी मिलते हैं । संकलन के चयन में विषय विविधता और विमर्श में बौद्धिक चिंतन का प्राचुर्य है । हंसा दीप लिखती हैं, “दुनिया के कई रंगों की कहानियाँ कथारंग में लेकर शब्दों का इंद्रधनुष रचने की महज एक कोशिश है ।... अपनी- अपनी ज़मीन के कण- कण से बोलती कलमकारों की संवेदनाएं इस संग्रह की हर कहानी में उभर कर सामने आती हैं ।... रचना के साथ समालोचना, कहानी के मुख्य बिन्दुओं को रेखांकित करके पाठकों तक पहुंचाने का एक विनम्र प्रयास है ।“1 

देशांतर की बात करें तो इसमें अमेरिका से सुधा ओम ढींगरा की ‘कमरा नंबर 103’ और अनुराग शर्मा की ‘मुटल्लो’, ब्रिटेन से दिव्या माथुर की ‘हब्शन’, शैल अग्रवाल की ‘आधे- अधूरे’ और वंदना मुकेश की ‘अजनबी शहर में’, कैनेडा से हंसा दीप की ‘पेड़’, डेनमार्क से अर्चना पेन्यूली की ‘क्या रिश्ता था तुमसे मेरा’, दुबई से आरती लोकेश की ‘फ्रीबोनाची प्रेम’ यानी आठ कहानियाँ संकलित हैं । 

भारत के कर्नाटक से गोविंद सेन की ‘ अधूरा घर’, पश्चिमी बंगाल से महावीर राजी की ’तंत्र’ मध्य प्रदेश से सुषमा मुनीन्द्र की ’नाम बड़े और दर्शन छोटे’, अरुण अर्णव खरे की ‘चरखारी वाली काकी’ और मनीष वैद्य की ‘खिरनी’, महाराष्ट्र से आशा पाण्डेय की ‘इंतज़ार’, राजस्थान से प्रगति गुप्ता की ‘उसका आना’ और हरिप्रकाश राठी की ‘पिंजरे’, पंजाब से मधु संधु की ‘महाकाल’ यानी नौ कहानियों को लिया गया है । 

सुधा ओम ढींगरा की ‘कमरा नंबर 103’ मुख्यत: संवेदनशून्य, स्वार्थी, अर्थसजग बेटे- बहू और उस उम्रदराज, वृद्ध माँ की कहानी है, जिसका देशीय घर बेच, बैंक के लाखों छीन- हथिया घर के काम की ज़िम्मेदारी दे विदेश लाया जाता है और फिर बीमार होने पर घर में लगे जाले की तरह उतार अस्पताल फेंक दिया जाता है और अर्ध कोमा में होने के कारण वहीं से नर्सिंग होम की तैयारी करवा दी जाती है । अस्पताल की नर्सें ऐसे अनेक दक्षिण एशियाई लोगों की बात करती हैं, जिनको बच्चों की देख- रेख और घर के काम के लिए अमेरिका लाया जाता है और अच्छी कमाई होने के बावजूद भी उनका स्वास्थ्य बीमा नहीं करवाया जाता । अमानवीयता यहाँ तक है कि बीमार होने पर फ्री इलाज के लालच में सिटी अस्पताल के बाहर छोड़ देते हैं । अपनों की अपनत्व विरोधी मानसिकता ने नायिका मिसेज वर्मा की जीने की इच्छा ही छीन ली है । गोविंद सेन की ‘अधूरा घर’ दाम्पत्य में स्त्री की सदेह- विदेह अनिवार्य उपस्थिति की कहानी है । नायक अनाम है और पत्नी सुधा है- अमृत रस- जिसका जीवट दाम्पत्य को संजीवनी देता है । पति पुरुष एयरपोर्ट से बैग उठाने, खाने से पहले डायबटीज़ की गोली लेने, पैतृक या मामा के घर की चर्चा करने, बंद बेतरतीब घर में तरतीब लाने, गरम खाने को मिस करने - यानी हर स्थान और समय पर पत्नी को याद करता है । “सुधा होती तो किसी बात की चिंता ही नहीं करनी पड़ती । उसके पास हर समस्या का समाधान होता है । -- सुधा के बिना उसे घर अधूरा लग रहा था ।”2 

दोमुंहे प्रशासनतंत्र के व्यंग्य चित्र महावीर राजी की ‘तंत्र’ में मिलते हैं । एक ओर वैश्वीकरण की गूंज- अनुगूँज है और दूसरी तरफ किसी बिजूके की तरह समाज की छाती पर बेआवाज खड़े प्रेमचंद हैं । एक ओर बड़े- बड़े शोरूम, माल, व्यावसायिक प्रतिष्ठान हैं और दूसरी ओर मुट्ठी भर खिचड़ी से पेट भरने वाला पाँच लोगों का परिवार । एक ओर सर्वशिक्षा अभियान के विज्ञापन हैं, दूसरी ओर भीख से पेट भरने के लिए अभिशप्त बच्चे । एक ओर चाउमीन और पासता वाले होनहार हैं, दूसरी ओर भिखमंगे बच्चे । एक ओर दलित विकास की योजनाएँ हैं, दूसरी तरफ वसूली करने वाला पुलिस/प्रशासनतंत्र । लेखक यह संदेश भी देता है-“हक को पाने ओर बचाने के लिए चौकन्ना रहने के साथ- साथ हाथ पाँव चलाते हुये संघर्ष करना जरूरी है ।“3 झुमकी की तरह हर दलित को अपना छीना हुआ हक वापिस लेना आना चाहिए । दिव्या भारती की ‘हब्शन’ उत्तर भारत से लंदन पहुंची एक एकल कामकाजी स्त्री के संस्मरणों का समुच्चय सा है । आवास समस्या से बार-बार दो- चार होती इस स्त्री की यात्रा जहां विराम लेती है, वहाँ बेसमेंट में रहने वाली नर्स रोजमेरी अफ्रीकन है और बड़े से लान वाले फ्लैट के वृद्ध स्मिथ दंपति अंग्रेज़ । अफ्रीकी स्त्री को इसके यहाँ होने वाला शोर- शराबा ज़रा नहीं भाता, उसकी रोक- टोक भयभीत करती है । अंग्रेज़ अफ्रिकियों को कलर्ड या निग्गर और एशियाई हब्शी कहते हैं और मिसेज स्मिथ की तरह कोई भी इन्हें पसंद नहीं करता । अफ्रीकिन रोज़मेरी को मिसेज स्मिथ ब्लैक बुल कहा करती हैं । किन्तु मिसेज स्मिथ का फ्रेक्चर होने पर, जब डॉ. और परिवार के लोग उनके ठीक होने की उम्मीद छोड़ देते हैं, वही ब्लैक बुल एक संवेदन शील नर्स बन अस्पताल में उनको अपने पैरों पर खड़ा करने के प्रयासों में जुट जाती है । 

अगली कहानी ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’ सुषमा मुनीन्द्र द्वारा बाजारवाद पर लिखी गई है । डॉ. मुकेश दुबे के शब्दों में, “बाजारवाद और बाज़ारूपन ही इस कहानी का मूल है ।“4 पनवाड़ी सूबेदार ‘जय भवानी’ को पत्नी तिली द्वारा और सर्वश्रेष्ठ होटल का मालिक बेटे कोविद द्वारा बाज़ार लायक बनने के लिए अपनी माया दिखाते हैं । बाजारवाद में बाजाररूपन तब घुसता है, जब मेनकाओं की उपस्थिति और दो पर एक फ्री का फंडा सक्रिय कर ग्राहकों को लुभाया जाता है । आशा पाण्डेय की ‘इंतज़ार’ की स्त्री बेटी रानू द्वारा सारे नाते तोड़ कैनेडा में बस जाने के बाद किरायेदार मोहिनी में अपनत्व पाती है । किन्तु मोहिनी का तबादला उसे पुन: धूप में नंगे पाँव छोड़ जाता |है ।

शैल अग्रवाल की ‘आधे- अधूरे’ में शादी के चालीस वर्ष बाद छवि को भूलने की बीमारी यानी अल्जाइमर हो जाता है और सोश्ल वर्कर, डॉक्टर, बच्चों के कहने पर पति रोहण को बेमन से उसे केयर सेंटर छोड़ना पड़ता है । प्रगति गुप्ता की ‘उसका आना’ में भी शादी के सात- आठ वर्ष बाद कस्तूरी जिस बच्ची वेदिका को जन्म देती है, वह मस्तिष्क पक्षाघात / सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित है । माँ पूरे इक्कीस वर्ष वेदिका की सेवा में बिता देती है । सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित बच्चों के लिए सेंटर खोलती है । विशेषज्ञ रखती है । ऐसे बच्चों के हिसाब से प्रशिक्षण लेती है । बेटी की मृत्यु के बाद उसे ऐसे सेंटर के लिये पुरस्कृत किया जाता है, तो इसका श्रेय भी वेदिका को ही देती है । 

मनीष वैद्य की ‘खिरनी’ में बाल सखा तीस वर्ष बाद मिलते हैं । तीन दशक के बाद मिलना भी कोई मिलना होता है । अब तो आँखों में विस्मय, दृष्टि में तीक्ष्णता, सूक्ष्मता,  मन में वैराग्य, चेहरे पर उदासी, बालों में मेहंदी और लटों में रूखापन है । लड़की सुदूर बचपन में पहुँच जाती है । जहां जंगल की, पहाड़ी के नीचे जाने की, खिरनी खाने की, नदी में नहाने की, चुहलबाजी की ढेरों यादें हैं । यह अधूरे प्रेम की कहानी है, क्योंकि लड़के ने तीन दशक पहले अपने सपनों के लिए अपनी मिट्टी, गाँव, घर और उसे छोड़ दिया था । “बचपन की मीठी खिरनी तीस साल के बाद कड़वी निंबोली बन गई ।“5

अर्चना पेन्यूली की कहानी ‘क्या रिश्ता था तुमसे मेरा’ खून के रिश्तों की कम और इंसानियत के रिश्तों की अधिक बात करती है । गुरमीत सिंह अपने घर- परिवार, गाँव- शहर- देश, जाति- बिरादरी से दूर है, लेकिन कहानी कहती है कि मन के रिश्ते, भले ही कोई नाम न ले पाएँ, पर उनमें लिपटा स्नेह, चिंता, आत्मीयता कहीं कम नहीं होती । ऐसा ही रिश्ता गुरमीत सिंह और पाँच वर्ष उसकी लैंड लॉर्ड रही बेन्टे के बीच है । बेन्टे की बेटी भी इस रिश्ते को पहचान बेन्टे की मृत्यु पर उसे श्रद्धांजलि के लिए कहती है । कोपेनहेगेन में रहने वाले दो- ढाई सौ भारतीयों का भी परस्पर ऐसा ही रिश्ता है, तभी तो पत्नी की मृत्यु पर भारत आने के लिए सभी मिलकर उसके लिए दस हजार क्रोनर जुटा देते हैं । मधु संधु की ‘ महाकाल’ कोविद महामारी को लेकर है । नायक उच्च मध्यवर्ग का वरिष्ठ नागरिक है । कोविद के राक्षसी पंजे उसके बालसखा डॉक्टर, पड़ौसी, बेटे के सास-ससुर, अपने बड़े भाई- सभी को दबोच चुके हैं । वह हर अनिवार्य रोग निरोधी एहतियात के प्रति सजग हैं । अपनी योग और वर्जिश की दिनचर्या से अतिरिक्त आश्वस्त हैं । खुश हैं कि भाई की मृत्यु ने उन्हें और बहू के माता- पिता की मृत्यु ने बेटे को सम्पन्न कर दिया है । लेकिन महामारी तो उनपर भी घात लगाकर बैठी थी । “महाकाल कहानी एक प्रयास है उस महामारी के स्वरूप को शब्दों में ढालकर संरक्षित करने का, जिसमें सफल हुई है लेखनी ।“6 

हरिशंकर राठी की ‘पिंजरे’ फैन्टेसी शिल्प में लिखी गई मनोविश्लेषणात्मक कहानी है । फ्रायड कहते हैं कि चेतन मन का भाग एक तिहाई और अचेतन मन दो तिहाई है । निद्रा की अवस्था में यही अचेतन सक्रिय हो उठता है । ‘पिंजरे’ कहानी का कथ्य यही दो- तिहाई मन है । किसी दुर्घटनावश नायक एक म्यूज़ियम और वाचनालय में एक रात के लिए कैद हो जाता है । यहाँ प्रेमचंद, टोलसटाय, गांधी, फ्रायड की पुस्तकें हैं । मिश्र की ममी और राजस्थान की नृत्यांगनाओं की प्रतिमाएँ है । बेंच पर लेटे-लेटे कथा नायक की आँख लग जाती है, अचेतन मन के पिंजरे खुल जाते हैं और वह स्वप्न यात्रा में सभी से जीवंत भेंट कर लेता है ।कहानी कल और आज के तुलनात्मक चित्र भी लिए है । कुछ सूत्र वाक्य भी मिलते हैं- “अत्यधिक विकट स्थितियों में मनुष्य का हौंसला कभी- कभी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाता है ।“7 वंदना मुकेश की ‘अजनबी शहर में’ के केंद्र में इक्कीस वर्षीय सुभाष है । काम होता है तो आदमी को काम का साथ होता है । यू. के. से आगे जर्सी आयलैन्डस में आए सुभाष की चिंता यह है कि वह छुट्टी वाला शनि-इतवार कैसे बिताए । उसे देश की, घर की, मम्मी- पापा- चिन्नी की बहुत याद आती है । देश में विदेश जाना कद ऊंचा कर जाता है जबकि यहाँ अपने देश की याद बेचैन करती है । देश में अङ्ग्रेज़ी बोलने वाले को अभिजात मान लिया जाता है और यहाँ गेहुयेँ रंग के हिन्दी भाषी व्यक्ति का मिलना मानो उसे सारे सुख, खुशियाँ, अपनत्व दे जाता है । 

मान ही लेना चाहिए कि सारे विश्वास- अंधविश्वास स्त्री को दोयम दर्जे पर रखने, उत्पीड़ित करने के लिए ही होते हैं । अरुण अर्णव खरे की कहानी ‘चरखारीवाली काकी’ कहती है कि विवाह होते ही स्त्री की नामाधारित पहचान समाप्त हो जाती है । वह जिस गाँव से है वही उसका नाम, सम्बोधन, पहचान बन जाता है, जैसे चरखारीवाली । अगर पति की मृत्यु हो जाती है, वही पति को खा जाने वाली डायन है । विधवाओं से चाकरी का हर काम करवाया जा सकता है, लेकिन मंगल कार्यों के लिए उनकी छाया भी अवांछित है । शादी के चार दिन बाद ही चरखारी वाली काकी का पति दारू पीकर तेज रफ्तार मोटर साइकल चलाने से दुर्घटना मृत्यु का शिकार बन काकी को विधवा कर जाता है । जिस बच्चे को वह जन्म से लेकर युवावस्था तक पुत्रवत स्नेह करती रही, उसी के विवाह में अपशकुनी कहकर उसे पीछे धकेलना ही काकी की मृत्यु का कारण बनाता है । अनुराग शर्मा की ‘मुटल्लों’ भाई- बहन की कहानी है । भाई- जो नए भविष्य की तलाश में घर छोड़ देता है । बहन- जिसे माँ बाप की मृत्यु के बाद हर पल भाई की प्रतीक्षा रहती है- व्यवसायी, धनी, मर्सीडीज़ में लौटने वाला भाई । भाई उसे मिलता तो है, लेकिन रेलवे के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के रूप में- अधेड़, बीमार- वह उसे पहचान तो लेती है, लेकिन रुकती नहीं । कहानी उस भूमिहीन, धनहीन, आरक्षणहीन युवक की है जो मास्टर का बेटा होकर भी मास्टर नहीं बनना चाहता और व्यवसायी बनने के चक्कर में साहूकार और सूदखोर के चक्रव्यूह में फंस कर नष्ट हो जाता है । बहन सुषमा पढ़ी लिखी है, नौकरी करती है, यानी मर्दजोर औरत है, इसीलिए अनब्याही रह जाती है । कुछ वाक्य सूत्रात्मक हैं, जैसे- “दबंगों की आवाज़ दुनिया सुनती है, जबकि संस्कारी परिवार की दुर्गति ही होती है ।“8 

आरती लोकेश की ‘फ़िब्रोनाची प्रेम’ की चचेरी बहनें सुनंदा- रंजिनी और आश्विन पहले बैंगलोर के इसरो में सौरमंडलीय पिंडों पर फ़िब्रोनाची प्रभाव पर अनुसंधान कर रहे थे । सुनन्दा आश्विन की बॉस थी और रंजिनी असिस्टेंट । अब विवाहोपरान्त रंजिनी और आश्विन आबूधाबी के यूएई स्पेस सेंटर में ब्रह्मांड और अन्तरिक्ष की गुत्थियाँ सुलझाते हैं और सुनन्दा ने नासा से फ़िब्रोनाची पर अनुसंधान पूरा कर लिया है । सुनंदा आश्विन को पसंद करती थी, इसीलिए शादी के दस वर्ष बाद रंजिनी ने आश्विन से अपना वही वरदान पूरा करने को कहा, जिसे उसने शादी के समय मांगा था और वह सुनंदा आश्विन को कमरे में छोड़ चल देती है । हंसा दीप ने ‘पेड़’ में एक रूपक रच दिया है । एक विशालकाय पेड़ चार घरों को ताजी हवा, छाया, हरीतिमा, हिमकणों का सौंदर्य, मोहक दृश्यावली- सब देता है । एक दिन भयंकर तूफान आता है और शायद बिजली गिरने से विराट पेड़ धरती पर आ गिरता है । चारों घरों में से कोई भी पेड़ को उठवाने के लिए डॉलर खर्च करना नहीं चाहता । जिला प्रशासन से संपर्क करके पेड़ उठवाया जाता है । नायक भी चार भाई हैं । पिता ने चारों को पढ़ाया, हर जरूरत पूरी की । नौकरियाँ लगी, विवाह किए । अब वृद्ध पिता बोझ है । चारों भाई एक-एक महीना पिता को रखते हैं । जैसे वृक्ष को जिला प्रशासन लेकर गया, वैसे ही कोरोना काल में पिता की मृत्यु होने के कारण प्रशासन उनका दाह संस्कार करवाता
है ।           

हर कहानी पाठक को एक नवीन भाव लोक की यात्रा पर ले जा रही है । ‘ कमरा न. 103’ में प्रवास में रुग्ण वृद्धा माँ है तो ‘अधूरा घर’ घर को संपूर्णता देने वाली, बेतरतीब को तरतीब में बदलने वाली स्त्री । ‘तंत्र’ में प्रशासन तंत्र का दोगलापन और स्वेच्छाचारिता है तो ‘हब्शन’ में एक स्त्री में सांस ले रही ब्लैक बुल और रोजमेरी जैसी नकारात्मक और साकारात्मक भावनाओं की स्थिति । ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’ में बाज़ार और बाज़ारूपन है तो ‘इंतज़ार’ में अपनेपन की प्रतीक्षा करती अकेली स्त्री है । ‘आधे अधूरे’ अल्जाइमर रोग से पीडित स्त्री के पति का दर्द है तो उसका आना में सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित बेटी की माँ की चिंताएँ हैं । ‘खिरनी’ में तीन दशकों पुरानी खिरनी सी मीठी यादें हैं तो ‘क्या रिश्ता था तुमसे मेरा’ खून के रिश्तों की कम और इंसानियत के रिश्तों की अधिक बात करती है । ‘पिंजरे’ फैन्टेसी शिल्प में लिखी गई मनोविश्लेषणात्मक कहानी है तो ‘अजनबी शहर में’ कहती है कि विदेश में देशीयता का हल्का सा स्पर्श भी आनंद का स्त्रोत बन जाता है । ‘मुटल्लो’ धनहीन, भूमिहीन, आरक्षणहीन परिवार की कहानी है तो ‘फ़िब्रोनाची प्रेम’ खगोलीय और गणित की शब्दावली के साथ बुनी गई कहानी है । ‘पेड़’ में पेड़ और पिता एक ही स्थिति में हैं । सब का पोषण करते हैं, लेकिन अर्थतन्त्र के कारण उन्हें अपना मानने वाला कोई नहीं ।   

संपादक हंसा दीप का चयन अछूते कथ्य और भावलोक की यात्रा करवा रहा है और समालोचक मिस्टर मुकेश दूबे ने जिसे टिप्पणी कहा है, वह विद्वान आलोचक द्वारा प्रत्येक कहानी में समाये विमर्श का गंभीर, सर्वपक्षीय, अद्वितीय अवलोकन, समीक्षा, मंथन है ।



पुस्तक:  कथारंग- देश देशांतर की कहानियाँ और विमर्श  / संपादक: हंसादीप / समालोचक: मुकेश दुबे / प्रकाशक: हंस, दिल्ली, 110002/ समय: 2023 / मूल्य: 595 रुपये

संदर्भ: (Endnotes) : 1. मुकेश दुबे, हंसा दीप, कथारंग: देश देशांतर की कहानियाँ और विमर्श, हंस, दिल्ली, 2023, अपनी बात, पृष्ठ 5, 2. वही, गोविंद सेन, अधूरा घर, पृष्ठ 22, 3. वही, महावीर राजी, तंत्र, पृष्ठ 38, 4. वही, मुकेश दुबे, पृष्ठ 62, 5. वही, पृष्ठ 96, 6. वही, पृष्ठ 115, 7. वही, हरिप्रकाश राठी, पिंजरे, पृष्ठ 117, 8. वही, अनुराग शर्मा, मुटल्लों, पृष्ठ 146 पूर्व प्रो. एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब ।

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समीक्षा

सन्दीप तोमर, उत्तमनगर, नई दिल्ली, मो.  8377875009

कुलबीर बड़ेसरों


उदासी के बीच जीने की राह, मुमकिन है इनसे पार पाना…

“तुम उदास क्यों हो?” कुलबीर बड़ेसरों के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह का नाम है जो 2021 में पंजाबी में छपा, लेकिन इसका हिन्दी अनुवाद सुभाष नीरव ने किया जो 2023 में भावना प्रकाशन से छपकर आया । स्पष्ट है कि अनुवाद स्वयं में एक स्वतंत्र विधा भी है, जाहिर तौर पर लेखिका के साथ अनुवादक भी किसी कृति के लिए बराबर का उत्तरदायी होता है । कुलबीर अपने समय और व्यवसाय की शिनाख्त करते हुए इस संकलन की कहानियों को बुनती हैं । अपने कथानक के लिहाज से ये कहानियाँ कुछ ‘हटके’ हैं ।

कुलबीर की कहानियाँ न तो कलावादी शिल्पकारी से निर्मित होती हैं और न ही कथ्य की सपाट प्रस्तुति से । सधी हुई संप्रेषणीय भाषा और बेहद कसे हुए महीन शिल्प के सहारे वह विषय के इर्द-गिर्द एक ऐसा ताना-बाना रचती हैं कि पाठक कहानी के अंतिम शब्दों तक खुद को कहानी से बंधा पाता है, वे परिस्थितियाँ जिन्होंने कुलबीर से ये कहानियाँ लिखवाई है, कहीं अधिक सशक्त रही हैं, लेखिका की पैनी और महीन नजर उन परिस्तिथियों को कालजयी बना देती है । ये कहानियां पाठक के मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करने में सक्षम दीख पड़ती हैं । इन कहानियों की कसक पाठक के भीतर तक अपनी पैठ बनाने की क्षमता रखती हैं । मन की उलझनें, प्रेम का भटकाव, मानव स्वभाव की दुर्बलताएँ, जीवन का एकाकीपन, रिश्तों का बनावटीपन, अभिनय, फ़िल्मी दुनियाँ  के विविध पहलू इन कहानियों में पूरी शिद्दत के साथ उपस्थित हैं । ये कहानियाँ एक सकारात्मकता के साथ जिजीविषा  को नए तरीके से प्रस्फुटित करती हैं । 

संग्रह की पहली कहानी है- “तुम उदास क्यों हो?” इस कहानी को लिखने में लेखिका ने अपने प्रोफेशन का भरपूर प्रयोग किया है, यह कहानी पाठक को एक अलग लोक में ले जाती है । कहानी एक तरफ असंगठित कार्य स्थल पर मजदूरों की मनोदशा का वर्णन करती है, प्रतीत होता है मानो यू.पी., बिहार मजदूर बनाने की फैक्ट्री मात्र हैं । मजदूर लड़का अभिनेत्री लड़की के ख़यालों में इतना खो जाता है कि सपने में लड़की द्वारा दुःख-सुख बांटना उसे अच्छा लगने लगता है, यहाँ लेखिका ने अच्छा खाका खींचा है । 

“स्कूल ट्रिप” कहानी एकल अभिभावक के पारिवारिक अर्थ-तंत्र (बजट) की कहानी है जो इस बात की तरफ ध्यान ले जाती है कि अधिकांश मध्यम-वर्गीय परिवारों का जीवन बीमा और बैंक-कर्ज की किस्तों को निपटाने में ही बीत जाता है । यह कहानी पारिवारिक रिश्तों की पड़ताल भी करती है, जहाँ झूठी इज्जत के लिए पैसा बहाना है तो दूसरी ओर बिना बात का गर्व है । कहानी इंगित करती है कि अभाव में बच्चे इच्छाओं पर नियंत्रण करना सीख जाते हैं और उम्र से पहले समझदार हो जाते हैं ।

मौत का भय कितना भयानक होता है, उसी कशमकश को लेकर “फिर” लिखी गयी है । ओशो कहते हैं- “मैं मृत्यु सिखाता हूँ” लोग मृत्यु से भयग्रस्त हैं । इंसान की मंशा होती है कि लोग बीमार व्यक्ति की सुने, लेकिन सुनने वाले कम होते हैं, बात पूरी सुने बिना सुनाने की प्रवृति अधिक लोगों में पाई जाती है, यह व्यथा इस कहानी में बार-बार व्यक्त हुई है ।

“माँ री” कहानी में डायरी शैली की झलक है, यहाँ भी क़िस्त भरने का दर्द झलकता है, बार-बार धन बचाने की चिंता दिखाई देती है । यहाँ पिता के न रहने का दर्द भी उभरता है, मानो लेखिका कहना चाहती है- जिसका जीवन में अभाव रहता है, उसकी कीमत रहती है । कहानी हमें बताती है- माँ का सही-सही आकलन उसके बच्चे ही करते हैं, कहानी हमें एक अलग एंगल पर ले जाती है जब लड़की कहती है- “मुझे पहले अपनी माँ का ब्याह करना है”, ऐसे ही “बहन जी” कहानी में रिश्तों की शिकायतों का पिटारा है, यह संस्मरणात्मक शैली में लिखी कहानी है जिसमें चिट्ठी, शिकायतें, टोकाटाकी, जलन, इतनी ऊँचाई तक जाती हैं तब लेखिका कह उठती है- “...आपसे पूछूंगी कि मेरी होशियारी, मेरी समझदारी, मेरे गुणों को ही आप मेरा दोष क्यों बना देती हैं”, लेखिका की मंशा है कि- बड़ों की टोकाटाकी से हम अपनी पसंद तक छोडने को विवश हो जाते हैं । लेखिका बड़ी बहन से बहुत से सवाल करना चाहती है लेकिन ये ‘पूछना’ हमेशा ही रह जाता है, बस लेखिका के हिस्से एक अफ़सोस ही आता है । बड़ी बहन का चरित्र कुछ यूँ उभरता है कि लेखिका का बड़ी होकर अमीर बनने का कथन भी टोंटिंग के रूप में सामने आता है जब वह कहती है- “...अभी तक अमीर नहीं बनी, छोटी होती कहा करती थी कि अमीर बनना है ।“ ‘माँ री’ कहानी का दर्द इस कहानी से मेल खाता है । लेखिका के मन की विदेश जाकर न बस पाने की एक अलिखित टीस भी इस कहानी में उभरी है । ‘मज़बूरी’ कहानी भी फ़िल्मी सैट, सूटिंग के समय को दर्शाती है, यहाँ का शोषण कहानी में स्वाभाविक रूप से उभरता है, जिसमें लेखिका को अतिरिक्त प्रयास नहीं करने पड़ते । कहानी में करुणा निल्हानी और नीति का चरित्र खूब उभरा है । 

कुलबीर की कहानियां परिवारिक कहानियाँ हैं, यहाँ बहन है, भाई, है, सास है, ससुर है, ‘सास-बहू’ कहानी के माध्यम से कुलबीर ने कहना चाहा  है- “न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन...” तब सजना-सवरना भी अच्छा लगता है । हरबंस और सरदार गुरनाम सिंह का प्रेम अनूठा है, सास-ससुर के प्रेम से जलन होने पर बहू कह उठती है- “क्या फायदा इतने रोमाँस का, जब एक रोमाँटिक लड़का पैदा न कर सकें ।” रोमाँस से महरूम होने के चलते बहू की मानसिक स्थिति को भांप ससुर उसका फायदा उठाता है, चोट लगना और गर्म दूध को यहाँ सिम्बोलिक तरीके से कुलबीर इस्तेमाल करती हैं, परिणति ये होती है कि सास-बहू की खुशखबरी एक ही वक़्त की होती है, सांझी भी है । ‘आक्रोश’ कहानी में एपिसोड सूट होने की पूरी प्रक्रिया को लेखिका चित्रित करती हैं, कहानी विवाहेत्तर प्रेम-प्रसंगों का खुलासा करते हुए आगे बढती है, लेखिका इस कहानी में पुरुष की फरेबी मानसिकता को एक वाक्य से प्रकट करती हैं- “तू मेरे पास नहीं होती तो भी मेरे पास होती हो, ...तूने तो मुझे जीना सिखा दिया ।” घर तोडू स्त्रियों पर वे लिखती हैं- “...उन्हें पति से वंचित करके वहाँ एक अधूरापन भर दो... एक शून्य भर दो... एक ऐसा खालीपन जो कभी भरा न जा सके.... ।” यहाँ लेखिका सभी पीड़ित स्त्रियों के दर्द की बयानी करती हैं । ‘बक बक’ ड्राईवर पर लिखी एक हलकी-फुलकी कहानी है । ‘दो औरतें’ आपसी रिश्तों की औरतों की कहानी है, जिसमें वे पति की बेवफाई पर चर्चा करती हैं, इस कहानी में कुछ वाक्य आधार-वाक्य बने हैं, यथा- शादी निभे न निभे, पर वह बच्चों को छाती से लगाकर रखती हैं ।, मैं एक गृहस्थ जीवन जीना चाहती थी, एक आम साधारण जीवन जैसा स्त्रियों का होता है ।, बहुत आवश्यक होता है, प्रोफेशनल होना ।, कभी जगह बदलने से किस्मतें भी बदली हैं? आदि ।   

कुलबीर की कहानियों में गुस्सा, नाराज़गी और रिश्तों का तनाव अधिक दिखाई देता है, एक बात और उनकी अधिकांश काहनियों में पिता की नौकरी, उनका तबादला साथ-साथ चलते हैं, लेखिका के पिता खुद सरकारी अधिकारी रहे, शायद यह सब उनके निजी अनुभवों के कारण दृष्टिगत हुआ है । उनकी कहानियों में इंग्लॅण्ड, कैनाडा, अमेरिका बहुतायत में है लेकिन ऐसा लगता है इन देशो को भारत में बैठकर देखा गया है, उन जगहों की खुशबू यहाँ सिरे से गायब है, काहनियों में जिन जगहों का जिक्र हो अगर वहाँ के कल्चर, वहाँ की भाषा, उस जगह के चरित्र से लेखक रूबरू नहीं है यानि वर्णन शोधपरक नहीं है तो कहानी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाती जो उसे छोड़ना चाहिए, गीताश्री की कहानियों में हर वो जगह उपस्थित होती है, जिसका जिक्र उनकी कहानियों में होता है । लेखिका को इस पर संज्ञान लेने की जरूरत है । एक और महत्वपूर्ण बात है- लेखिका अधिकांश कहानियों में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बहुतायत में करती हैं, जिसके लिए उनकी भाषा में सहज शब्द हैं, यहाँ अनुवादक से भी सवाल होना चाहिए कि हिंदी में अनुदित कहानियों में अंग्रेजी शब्दों के हिंदी शब्द न लिखने के पीछे उनकी मंशा क्या रही? ऐसे शब्दों की भरमार इन कहानियों में है, यथा- एयरपोर्टो, मार्किटों, मैश, एडमिट,  इंटेलिजेंट, सैटिल, टीचर, परसेंटेज, ओपन, डे, कांफिडेंस, एप्रिसियेट, एन्जॉय, गेम, प्रोफेशन, आर्टिस्ट, पैशन, जॉब सेर्टिस्फेक्शन, मेकअप रूम, मेट, वर्किंग होस्टल, स्टार, हिट, शोर्ड, ऐड. अंडर रेटिड, मेन स्ट्रीम, वन-फोर्थ, एक्नोलिज, शो, बिजी, डेट्स, एक्सेंट, नोटिस, पैरेलल, टाइम, मॉडर्न, प्राइवेट, नम्बर वन, प्रोग्राम, सीन, रीशूट, ग्रेस पीरियड. टेक्नीशियनों, सॉफ्ट- कार्नर, चैलेंज, स्ट्रेस, इंट्रोडक्शन, इंटेलिजेंट, डाउन टू अर्थ, लैंग्वेज, कमाँड, कालेजियेट, प्लेटों, स्लॉट, लंडन, इन्कुआरी । ऐसा नहीं है कि इन सब शब्दों के इस्तेमाल से नहीं बचा जा सकता था, सवाल है कि अनुवादक को क्या इतनी छूट नहीं मिलनी चाहिए कि वह अनुदित कृति की भाषा के शब्द ले, भले ही मूल लेखक ने अंग्रेजी शब्दों को बहुतायत प्रयोग किया हो  ।   

कथ्य और पात्रों का चरित्र, चित्र, वातावरण निर्माण या संवाद के स्तर पर बात की जाये तो यहाँ कुलबीर सभी तत्वों का समुचित व सार्थक प्रयोग करती हैं । इन कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि इनमें कहीं ठहराव या बोझिलपन नहीं है । पाठक की उत्सुकता को बनाये रखने में लेखिका पूरी तरह कामयाब हुई हैं । वे मानवीय आवेग को तन्मयता के साथ प्रयुक्त  करती हैं । उसके पात्र  हमें अपने आसपास महसूस हो सकते हैं । कुलबीर की कहानियों के पात्र संजीदा हैं जिनका चित्रण पाठक को स्तब्ध करता है ।

आधुनिक बोलचाल की भाषा के साथ लिखी सहज सरल अभिव्यक्ति वाली इन कहानियों का यह संग्रह पठनीय बन पड़ा है । पंजाबी से इन कहानियों का हिंदी में अनुवाद करके एक पुस्तक हिंदी पाठको को सुपुर्द करने के चलते कथाकार सुभाष नीरव  बधाई के पात्र हैं  । 

सभी कहानियों के कथानकों की विविधता, लेखक के विस्तृत अनुभव, प्रकांड ज्ञान व अत्यंत सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का परिचय देती हैं । लेखिका अपने खुले नेत्र, संवेदनशील हृदय और सक्रिय कलम से अपनी रचनाओं में स्मरणीयता के साथ-साथ पठनीयता जैसे गुणों को जन्म देकर पंजाबी जगत के साथ-साथ हिंदी-जगत के सुधी पाठकवृंद को बरबस अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हैं । भाषा और शिल्प की बात की जाए तो हम पाते हैं कि लेखिका ने कहानी के लिए किसी विशेष शिल्प को नहीं अपनाया । उनकी कथा कहने की शैली इतनी सरल और सहज है कि उनके पात्र बड़े ही सहज-सरल शब्दों में संवाद करते हैं । लेखिका जो भी जैसा भी घटते हुए देखती है, उन घटनाओं से बड़ी आसानी से कथा बुनती चलती है । वाक्य-विन्यास एकदम सहज है और संवाद कथा की माँग के हिसाब से ही प्रयुक्त किये गए हैं, कुल मिलाकर कहानियां  पठनीय है । 

पुस्तक —  तुम उदास क्यों हो? (कहानी संग्रह) / लेखक – कुलबीर बड़ेसरों (अनुवाद : सुभाष नीरव) / प्रकाशक- नीरज बुक सेंटर, पटपड़गंज, दिल्ली । / प्रकाशन वर्ष: 2023 / मूल्य:  200 /-     

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एक पाठकीय प्रतिक्रिया -

डॉ. अवध बिहारी पाठक, सेंवढ़ा, जिला दतिया (म.प्र.), मो. 9826546665


श्रीमती मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 9712921614


‘‘सपनों का यथार्थोत्तर यथार्थ - यू एण्ड मी’’

‘‘कूबत-ए-तामीर थी ऐसी खशो-ए-शाख में,

आँधिया चलती रहीं औ आशियाँ बनता रहा’’  -अज्ञात

मल्लिका मुखर्जी और अश्विन मैकवान के चैट उपन्यास की पत्रिकाओं में बड़ी धूम थी, मैं भी उसका अवगाहन करना चाहता था । मल्लिका जी ने ‘‘यू एण्ड मी’’ के दोनों भाग भेजे तदर्थ उनका बहुत आभारी हूँ ।

रचना के दोनों भागों से गुजरते हुए महसूस हुआ कि आस्था और विश्वास में एक अदृश्य शक्ति निहित होती है, अन्तहीन और बेलाग, उपरिलिखित पंक्तियाँ इस रचना पर ठीक बैठती हैं कि जहाँ विचार हो या क्रिया, यदि तामीरी का जज्बा उसमें जिन्दा है तो लाख आँधी-तूफान आवें घास-पूस के नाजुक तिनकों से घोंसला बनता ही रहता है ।

भवन्स कॉलेज में अध्ययनरत सोलह वर्ष की नाजुक सी लड़की भवन की तीसरी मंजिल पर खड़े होकर गुजरने वालों को देख रही थी । तभी वहाँ से गुजरे एक सुदर्शन युवक को देखकर उसका मन कहने लगा ‘‘अरे यही तो है तेरे सपनों का राजकुमार’’ उसने परिचय विहीन उस व्यक्तित्व की चाहत के नायाब अहसास (प्रेम) को अपने हृदय में कई तहें बनाकर सुरक्षित रख लिया, बाद में पता चला कि वह लड़की का सहअध्यायी है और जाति से ईसाई, दोनों का कॉलेज अध्ययन चार वर्ष जारी रहा, परस्पर का दर्शन सुलभ, परन्तु कोई गम्भीर बात नहीं हो पाई और न संवाद, जो प्रेम की भावना को आगे बढ़ाता, कॉलेज काल समाप्त हुआ, दोनों अलग-अलग हो गए, मन के तमाम सपने टूट गए, अब अपने सपने को महसूसने की बैचेनी को लड़की ‘‘आकार’’ पत्रिका में छपे उसके चित्र को देखकर शांत कर लेती जबतक कि अश्विन न मिला ।

समय रुकता नहीं, लड़की की जिन्दगी चल निकली, गंगा के पानी की तरह गतिशील, उसने समाज-संसार के सारे दायित्वों को तल्लीनता से निबाहा, उसके इकतालीस वर्ष बीत जाने पर भी मन मंें अन्तस्थ प्रेमी छवि की उपस्थिति की भनक उसने किसी को न होने दी जो ठीक थी, क्योंकि आत्मा के रहस्य दुनियावी जिन्दगी में व्याख्यायित नहीं किए जाते । समय ने प्रेम के अंकुर को रौंद डाला पर वह मरा नहीं क्योंकि आस्था की तामीरी को फलित होना ही होना था, जिन्दगी के इकतालीस वर्ष बीत जाने के बाद मल्लिका ने उस सुदर्शन व्यक्तित्व को अन्ततः फेसबुक पर खोज ही निकाला, जो मुझे विश्व का आठवाँ आश्चर्य सा लगता है । अश्विन मैकवान विश्व के धरातल पर एक छोटा सा नाम, परन्तु उस विश्वास का ही फल था, कि मल्लिका की फ्रेण्डरिक्वेस्ट पर अश्विन का पॉजीटिव रिस्पान्स मिला । मल्लिका को सारी कायनात में उसके हृदय का प्रेम दिगन्त तक छाया दिखा । वह अपने को एक नए रूप में पा रही थी, जो न माँ थी, न बेटी थी, न बहिन थी, न पत्नी थी, थी केवल एक स्त्री, सांसारिक सम्बन्धों से परे वह भवन्स कॉलेज में मनोमय प्रेम के साथ पहुँच गई, जहाँ उसके पहले प्रेम का साम्राज्य था, प्रेम वहाँ ईश्वर रूप हो जाता है, प्रेमी अनन्त में समा जाते हैं, जीते हैं उस शब्द को जिसे प्रेम कहते हैं।

सांसारिक बुद्धि लौटी, अध्ययन काल में परस्पर पहल न करने की भूल का पश्चाताप मन पर हावी रहा, प्रेम के भव्य द्वार से परस्पर की स्थितियाँ साँझा कीं, उस स्थिति का भी जिक्र था, जहाँ मल्लिका और अश्विन अपने-अपने जीवन साथी की तलाश में ठगने से बचे किन्तु बाद में मल्लिका ने पाया निस्पृह पार्थों को, और अश्विन ने स्मृति को । जिन्दगी के अनुभव बाँटने में ऐसी उन्मुक्तता थी कि बातचीत का फ़लक विहंगम् होता चला गया, परिणाम में ये किताबी रूप ।

इस चैट वार्ता में दो हृदय सीमातीत हो गए । कहने सुनने की बाध्यता तो थी परन्तु दायरा नहीं था । इसलिए सोच का फलक, स्तर, और अनुभूत तथ्यों की तरलता बेमिसाल, क्या नहीं यहाँ, जिन्दगी के आखरी सिरे पर खड़े दो हृदयों की मुक्ताकाश में जीने की बेताबी है, तो भारतीय जीवन का दर्शन भी, उसमें परिवर्तन की अदम्य कामना भी, जिसमें किसी तरह की जिद् की जिद् न हो, प्रेम की सामाजिकता का ललित आग्रह हो, मनोमय संकल्पों को उतना ही मान मिले, जीवन को जीवन की तरह पढ़ने का विचार भी हो, यहाँ एक सख़्त इन्कार तो जिन्दगी में किसी भी गोपन भाव से, जो उसे सहज नहीं रहने देता । अपेक्षा है प्रेम का ही जीवन लक्ष्य हो और इस चैट वार्ता में यह मुक्त रूप से समाविष्ट दिखा है ।

इस रचना को कोई समीक्षा की दृष्टि से देखे तो देखे, मैं नहीं देख पा रहा हूँ क्योंकि मैं इसके वैचारिक प्रस्फुटन से हतप्रभ हूँ, क्या किसी विस्फोट को भी शब्द दिए जा सकते हैं? नहीं, विस्फोट तो अनुभूति का सबब है, यहाँ सब कुछ इतना निर्द्वन्द्व और निस्पृह है, कि परस्पर का  सम्बोधन भी एक ठौर नहीं पकड़ सका, कवि पंत ने अपनी प्रेयसी को ‘‘देवी माँ, सहचरी प्राण’’ कहा है, यहाँ तो परस्पर के सम्बोधन जिनका दुनिया में अर्थ है, परन्तु आकाश के अनन्त में बेनाम किन्तु उतने ही सारगर्भित अर्थपूर्ण । यानि प्रेम का मिलन जहाँ आसमान के दोनों छोर मिलकर मानवीय काँइयाँपन की खिल्ली उड़ा रहे हैं, उल्लास में, यह सोचकर कि हम दोनों ने संसारी अहम को चूर-चूर कर ही दिया फिलहाल, अपने मनोलोक के अनन्त में ।

रचना के सम्बन्ध में एक मुख्य तथ्य है लेखक का पढ़ाकूपन, कवित्व शक्ति, विश्व साहित्य में दखल, इनके स्वर वार्ता के साथ वैचारिक एकता में रहते हैं । वार्ता के उसी प्रेमसिक्त तारतम्य में वेदों की स्मृतियों, पुराण के निर्माण, कथन, प्रचलन का भी जिक्र है, तो दूसरी ओर अज्ञेय जैसे चिन्तक के विचार, सर्वेश्वरदयाल सक्सैना की कविता की छटा, विश्वप्रसिद्ध कवि तस्लीमा नसरीन की रचनाओं की चर्चा अपने चैट में कर देना केवल मल्लिका का ही कौशल है । पुस्तक में कुछ ऐसे भी कथन है, जो उनकी निर्भीकता को समाजोपयोगी होना सिद्ध करते हैं । जहाँ खुलापन मानव जीवन का वरदान बन जाए । सोशल मीडिया पर दोनों की भेंट उस समय हुई जब अश्विन का ऑपरेशन हुआ था । भीषण तकलीफ में भी उन्होंने मल्लिका के वैचारिक साहचर्य को जिया, यहाँ मल्लिका जी अपने आँसुओं के अर्घ्य से उनकी कल्याण कामना कर रही थीं । दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहें? अश्विन ने अपनी आखरी बात में मल्लिका से अपनी पत्नी और बच्चों का ध्यान रखने को कहा, उससे केवल एक दिन पहले लेखिका ने पहली और अन्तिम बार अश्विन से ‘‘आई लव यू’’ कहा और दोनों ने जैसे मनमाना प्राप्य पा लिया हो । यह रचना का सबसे कठिन, जटिल और मार्मिक स्थल है ।

एक ओर मल्लिका और अश्विन तो दूसरी ओर स्मृति और पार्थो इस कथानक रूपी समानान्तर चतुर्भुज की भुजाएँ हैं । पार्थो की मल्लिका के प्रति विन्ध्याचल जैसी अचल निष्ठा, इतने खुलेपन के बावजूद गहरा विश्वास । अस्तु हिन्दी उपन्यास अप्रतिम दूसरी ओर स्मृति ने अश्विन से दूर रहकर भी सरस्वती जैसी गहरी निष्ठा अपने में बनाए रखी, आज के समाज में ऐसी द्वेष हीनता कहीं दिखाई नहीं देती ।

कुल मिलाकर यह कहने दिया जाए, तो कहूँगा कि रचना अनुभूति के स्तर पर हृदय को हिलाता भूचाल जैसा कुछ है, और तंग हो रही बौद्धिक चेतना का शून्य में विलीनीकरण का आवाहन भी । कबीर ने सिद्धान्त रचा था ‘‘ढाई आखर प्रेम का’’ परन्तु मल्लिका ने अपने भौतिक संसार की बेहतर साज-सम्हार के साथ अव्यक्त प्रेम को भी जिया, सांसारिक तकाजों को जीते हुए भी खुल्लमखुल्ला प्र्रेम का नारा बुलन्द किया । लेखिका ने सिद्ध कर दिया, कि दुनिया में जिए गए सम्बन्ध केवल साँसों की आवाजाही की दिशा तो हो सकती है किन्तु प्रेम को जीने के लिए ऐसी अनन्त यात्रा की अपेक्षा होती है जहाँ बौद्धिक विमर्श, आदर्श चलन और परम्पराएँ गैर जरूरी और नाकाम हो जाते हैं ।

मल्लिका ने प्रेम की उत्कटता के प्रसंग में मैत्रेयी देवी के ‘‘न हन्यते’’ का, रवीन्द्र नाथ के प्रेम का जिक्र किया है परन्तु उनमें मल्लिका जैसी मुखरता और बेलागपन नहीं है । वहाँ प्रेम गुमसुम हो कर रह गया । शिल्प की बात की जाए तो पात्रों के कथोपकथन में अभिव्यक्ति बहुत तरंगित है, जो वस्तुतः हिन्दी गद्य का एक नया अध्याय रचती है । यहाँ एक बात जो अप्रसांगिक है किन्तु तारतम्य में कि ‘‘साहित्य नन्दिनी फरवरी 23’’ में छपा मल्लिका जी का पत्र दोनों भागों के वर्ण्य पर भारी पड़ता है, जो वस्तुतः लेखिका का उच्छ्वास है । इसे दूसरे भाग के अंत में श्रृद्धांजलि स्वरूप होना चाहिए था । मल्लिका जी की रचना धर्मिता का व्यक्तित्व एकहरा है उसमें कहीं द्वैत नहीं है । हृदयोक्ति में उन्होंने कहा कि ‘‘अश्विन के अनगिनत विषयों पर संवाद करते हुए मुझे लगा कि अब जितने भी दिन बचे हैं जीवन के, मैं नहीं मानती किसी के व्यर्थ आदेश, नहीं सुनती किसी के व्यर्थ उपदेश, नहीं चलती उस पथ पर जो मुझे पीड़ा देता हो, नहीं निभाती वो रिश्ते जो मुझे यातना देते हों, नहीं सोचती वे बातें जिनसे मेरा कोई वास्ता न हो । मैं जैसे चुनौती बनकर खड़ी हूँ दुनिया के सामने’’ यह कथन उनकी रिजर्वनेश का प्रतीक है । उनके जीवन का लक्ष्य प्रेम का वह अद्भुत संसार पाना है जो परमात्मा का अपररूप है और उसी में विलीन हो जाना उनके जीवन की कामना है ।

अंत में मैं कहूँगा कि रचना में चेतना की जागरूकता, विचार की तटस्थता और सामाजिक क्रांति का आवाहन है । उनका यह वैचारिक आन्दोलन लिखने के माध्यम से जारी रहे यही कामना है ।           




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रिपोर्ट



डॉ. मेधावी जैन, नई दिल्ली, मो. 9811200773

यह वक्ता पर हर किसी का विश्वास है जो उसे आत्मविश्वास से आगे बढ़ने और एक बहुत ही जटिल विषय को दक्षता के साथ निपटाने में सक्षम बनाता है ।

दिल्ली के डिफेंस कॉलोनी में सुशील मुनि आश्रम के शांत वातावरण के बीच, जैन दर्शन में आत्मा की अवधारणा पर व्याख्यान देने के लिए इंटरनेशनल स्कूल फॉर जैन स्टडीज के अध्यक्ष, आदरणीय डॉ शुगन चंद जैन द्वारा आमंत्रित किया जाना मेरे लिए सम्मान की बात थी । चूंकि मैं पिछले 5 वर्षों से महान ग्रंथ समयसार का स्वाध्याय कर रही हूं, इसलिए मैंने उसी की विषय-वस्तु पर प्रकाश डालने का प्रयास किया । मेरे व्याख्यान का शीर्षक था: 21वीं सदी में समयसार की प्रासंगिकता. इसमें डीयू की पूर्व प्रोफेसर डॉ. कमला जैन सहित समाज के कई विद्वान लोग शामिल हुए ।

जब हम भौतिकवाद, उपभोक्तावाद, अत्यधिक प्रतिस्पर्धी और तुलनात्मक दृष्टिकोण और प्रौद्योगिकी के प्रति अपने वास्तविक सार से संपर्क खो देते हैं । इतना कि एक निश्चित तरीके से रहना, दिखना और खाना ज़रूरी लगने लगता है; समयसार की शिक्षाएँ सर्वाधिक बेचैन दिमागों को सर्वाधिक तार्किक उत्तर प्रदान करती हैं । महान ग्रंथ की मुख्य पांच शिक्षाओं की व्यावहारिकता पर चर्चा हुई , जो हैं:

1. व्यावहारिक एवं वास्तविक दृष्टिकोण

2. ब्रह्माण्ड में ज्ञात किये जाने वाले दो मुख्य पदार्थ

3. साधन एवं मूल कारण

4. निमित्त-नैमित्तिक संबंध

5. सही ज्ञान का महत्व

'समयसार' आत्मा की मूल प्रकृति पर आधारित एक उच्च कोटि का दार्शनिक ग्रन्थ है । यह ज्ञान ग्रंथ पहली शताब्दी ईसा पूर्व में दिगंबर जैन संप्रदाय के अत्यधिक सम्मानित भारतीय संत कुंदकुंद आचार्य द्वारा लिखा गया था ।

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समीक्षा


डॉ० राकेश रंजन, हिन्दी विभागाध्यक्ष, एम० डी० डी० एम० कॉलेज, मुजफ्फरपुर ( बिहार ) - 842002 

मो. नं०– 7488392077, वाट्सएप— 9435413575 ,

ईमेल:- rakeshranjancritic@yahoo.in


'कृषक वेदना ': भारत की मूल वेदना


राजनीति चहुँ ओर है, खेत-खेत हर मेड़ । 

चला कृषक सीधा-सरल, जैसे चलती भेड़।।1 

भारत एक प्रगतिशील देश है जिसकी प्रगतिशीलता के मुख्य कारकों में किसान महत्त्वपूर्ण है, लेकिन किसान विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रस्त है । उनकी समस्या भारत की मूल समस्याओं में शुमार है । जबतक किसान समस्यामुक्त नहीं होंगे तब तक भारत के वास्तविक विकास की बात बेमानी होगी । एक समय था जब कृषक बेरोजगार नहीं थे, आज वे खुद बेरोजगार बन गये हैं । सरकार की कृपा का मुखापेक्षी बन गये हैं । ऐसे दौर में समकालीन कविता के वरिष्ठ कवि डॉ० राजेश्वर प्रसाद सिंह की सद्यः प्रकाशित काव्यकृति 'कृषक वेदना' अनेक ज्वलंत प्रश्नों को लेकर खड़ी है । जैसा कि नाम स्पष्ट है, यह रचना किसान की दयनीय दशा, समस्याओं और विडम्बनाओं का मार्मिक अभिव्यंजन है । आज किसान, किसान नहीं रहे, वे हर तरफ से ठगी का शिकार हो गये हैं । अन्नदाता राशन की दुकानों पर लम्बी कतारों में याचक की भाँति पाँच किलो अन्न के लिए खड़े हैं । उनका जीवन विडम्बनाओं का आगार हो गया है । 

'तकदीर जिसकी खोटी, तदबीर से क्या होगा । 

गुमसुम खड़ा है देहकां, यहाँ राशन बँटता है । 2

कहते हैं, भारत गाँवों का देश है । भारत की आत्मा गाँवों में विराजती है । गाँवों में किसान और कृषि मजदूर बसते हैं । वास्तव में भारत की आत्मा उसके किसान और कृषि - मजदूर हैं । महात्मा गाँधी गाँवों के विकास में भारत का विकास मानते थे । कवि ने प्रस्तुत पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है " महात्मा गाँधी आत्मतत्त्व के अनुसंधाता थे, इसलिए उन्होंने गाँवों की ओर चलने का आहवान किया था । किसानों के रहन-सहन, रीति-रिवाज और कार्यशैलियों में उन्हें शुद्ध आत्मीयता और आध्यात्मिकता के दर्शन होते थे । वे आधुनिक वैज्ञानिक युग की उपज अवश्य थे, किन्तु इस वैज्ञानिक कर्मकाण्ड के प्रति आस्थावान् न थे । वे सतत प्रवाहमयी भारतीय पारंपरिक चेतना के संधारक थे, अंधविश्वासी या रूढ़िवादी न थे ।3

वस्तुतः गाँवों के देश भारत की मूल वेदना 'कृषक वेदना' है । भारत की कृषि संस्कृति विघटित हो रही है और कृषक उपेक्षित । कृषि जीविका का लाचार व्यवसाय बन गयी है । कृषि के प्रोत्साहन के लिए तरह-तरह की योजनाएँ सरकार द्वारा चलायी जा रही हैं जो अपनी अवैज्ञानिकता, स्वार्थपरता और भ्रष्टाचार के दलदल में आकण्ठ डूबी हुई हैं जिसके फलस्वरूप आज किसान के सामने तीन रास्ते बचे हैं- विस्थापन, आत्महत्या और प्रतिरोध । बिहार और उत्तर प्रदेश के किसान विस्थापित होकर देश के आद्यौगिक प्रान्तों में भागे चले जा रहे हैं और जीवन निर्वाह हेतु वहाँ मजदूरी करने को विवश हो रहे हैं । महाजनी और बैंक ऋण के तले दबे कुछ किसान आत्महत्या कर ले रहे हैं और प्रतिरोध करने वाले किसान सरकार और प्रशासन के पैरों तले कुचल दिये जा रहे हैं । केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों में तालमेल का अभाव है । फलतः किसान केन्द्र और प्रांतीय सरकारों की परस्पर विरोधी नीतियों और कार्यशैलियों के बीच पिस रहे हैं । कविवर के शब्दों में-

“दो नारी के बीच में, घिस के मरा किसान । 

दोनों की दो जीभ हैं, हैरत में इनसान । । 4

किसान की किसानी के सहयोगार्थ सरकार द्वारा अनेकानेक योजनाएँ यथा - बैंक लोन, कृषि राहत, कम दर पर बिजली, बाढ़ - सूखा राहत, मत्स्य पालन, मधुमक्खी पालन, पोल्ट्री फॉर्म, पशुपालन आदि । इनसे संबद्ध सभी विभागों एवं मंत्रालयों में अधिकारी और कर्मचारियों के बीच बिचौलिये की भरमार है । उनकी सहमति - असहमति के बिना किसानों का कोई काम नहीं होता है । तभी तो किसान के नाम पर अन्य लोग भी इन योजनाओं के लाभुक बन जाते हैं । किसान को समुचित लाभ नहीं मिल पाता है और वे ठगी के शिकार हो जाते हैं । सरकार भी किसान को अच्छा आसामी मानती है । तभी तो कवि चीख उठता–

"दुर्बल एक किसान है, जिसको मारे तीन । 

केन्द्र प्रांत व पंचायत, वह क्यों रहे न दीन । ।5


“लू न लगती किसान को, भूख न करती वार । 

नेताजी की नीति से, मचता हाहाकार । । 6

छोटे-छोटे मामले आज विकट समस्या के रूप में किसानों के सामने खड़े हैं, तभी तो दाखिल खारिज करवाना या मालगुजारी रसीद कटवाना साधारण बात नहीं, दलाल कर्मचारी और अंचलाधिकारी के नेटवर्क को तोड़ने में सभी लाचार हैं, विवश है । एक उदाहरण देख–

"दाखिल खारिज को चले, मियाँ अब्दुल मजीद । 

दो हजार दे खुश बड़े, दो की मिली रसीद । । 7

अनेक समस्याओं के बीच एक ज्वलंत समस्या यह उठकर सामने आयी है कि वैधानिकता के नाम पर किसानों की जमीन सरकार छीन रही है । वह इसके लिए सड़क, रेलमार्ग, बाँध, सरकारी परिसर एवं भवन निर्माण, औद्योगिक क्षेत्र - संरचना इत्यादि जन कल्याणकारी योजनाओं का हवाला देती है । सरकार उसका उचित मुआवजा नहीं देती और जो देती है उसके लिए किसानों को धरना-प्रदर्शन करना पड़ता है । किन्तु मुख्य समस्या यह है कि कृषियोग्य जो जमीन दिनानुदिन घट रही है, उसका समाधान क्या है । कवि व्यंग्य भरे लहजे में कहता है-

शहर सड़क कैनाल में सिमट रहा है खेत । 

नेताजी दिलवा रहे, सबको मुफ्त निकेत । ।8 

इसी तरह संकर बीज और क्लोन बीज मूल बीज के लिए समस्या बन गये हैं । आज पेड़-पौधे, साग-सब्जियों, अनाजों के मूल बीज किसान के लिए दुर्लभ हो गये हैं । 

बीज बचा के क्या करे, बीता मनु का राज । 

क्लोन माँग के कीजिए, पल में अपना काज । । 9


घर का बीज न बोइए, ले लो कोई ब्रांड । 

रुतबा इसका देखिए, कहती है रोनाल्ड । ।10 

प्रकृति संतुलन के लिए यह एक बड़ी चुनौती है । गौर से देखें तो पता चलेगा कि कृषि अब भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग नहीं, व्यवसाय का अंग बन गयी है जो बाजारवाद के संकेत पर नाचने को मजबूर है । इस बाजारवाद ने किसानों को लाचार बना दिया है । खेती घाटे का सौदा बन गया है । फसल कम हुई या बर्बाद हुई तो किसान मारा जाता है और अच्छी हुई तो समुचित मूल्य नहीं मिल पाता है । हर अवस्था में किसान अपने को ठगा महसूस करता है । सरकार किसान और किसानी के प्रोत्साहन और संरक्षण की बात करती है तो दूसरी ओर कॉरपोरेट के हाथों किसानों की जमीन को औने-पौने दाम पर बेचने को मजबूर करती है । विकास की चकाचौंध में कृषि का गला घोंटा जा रहा है I 'जमीन' खरीद-बिक्री का नया बाजार बनी है । इस व्यवसाय ने कृषि को मूल्यहीन कर दिया है । जमीन की कीमत आसमान चूमती और धरती का बेटा धरती में धँसता जा रहा है

भूमंडलीकरण के दौर में किसानों को लाभ होने की बजाय हानि हो रही है । किसानों को वैश्विक बाजार की जानकारी नहीं है और दलाल इसका लाभ उठा लेते हैं । किसानों की अनेकानेक समस्याओं और परेशानियों के बावजूद कवि उनमें निराशा और दीन भावनाओं को पनपने देना नहीं चाहता । वह उन्हें अन्नमय ब्रह्म का उत्पादक 'प्रजापति' मानता है । उनमें अगाध शक्ति और अपार संभावनाएँ देखता है । वह उन्हें प्रेरित करते हुए कहता है—

वीर बहादुर कर्म उपासक भाग्य सदा तुझको ललकारे। 

किन्तु कहाँ कब हार गये तुम टूट गये तुम साँझ सकारे ।।11 


देव किसान तजो निज आलस भाग्य विधायक नाथ हमारे । 

हाथ हलायुध कौन निरंकुश जो तुमसे लड़ भाग्य बिगाड़े ।12 


भागे प्रमाद आये प्रभात,

फैले प्रकाश जागे जवान । 

जागो किसान, जागो महान । " 13

प्रस्तुत काव्य में मत्तगयंद, दोहा, सोरठा, कुण्डलिया आदि छंदों द्वारा कविवर डॉ० राजेश्वर प्रसाद सिंह ने किसानों की दयनीय दशा का बड़ा ही मार्मिक, कारुणिक और हृदयविदारक अभिव्यंजन किया है । 'कृषक वेदना' काव्य में कुल पाँच उपखण्ड हैं— 1. कृषकाष्टक, 2. जागो किसान, जागो महान, 3. कृषक दोहाशतक ( अंत में सोरठा एक), 4. कृषक कुण्डलिका पचासा (51 कविताएँ), 5. भोजपुरी गीत (18)

स्वच्छन्द और उच्छृंखल नर्तन करती हुई कृषि - व्यवस्था को छन्दोबद्ध रचनाधर्मिता के द्वारा कवि ने कृषक जीवन की वेदना को और ही गहरा कर दिया है और पाठक अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्न उठाने को मजबूर हो जाते हैं । भोजपुरी गीतों में बिहार के कुख्यात पशुपालन घोटाला, भुखमरी, बाढ़ - सुखाड़, पलायन आदि के मार्मिक चित्र लोकधुन एवं लय में प्रस्तुत हैं-

खाइ गइले सोना चानी

पसुअन के चारा पानी

सुन्न भइल खेत खलिहनवा हो रामा । 14

किसानों के पलायन पर निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

खेती छोड़ऽऽ बान्ह गठरी

शहर में चलs जनि

दुखवा से मिलिहें निजात हो रामा । ।15 

महात्मा गाँधी के चम्पारण आंदोलन के शताब्दी वर्ष पर प्रकाशित यह पुस्तक किसानों की ज्वलंत समस्याओं को उजागर कर सरकार की विकासात्मक अवधारणा को आईना ही नहीं दिखाती, आगे की राह भी दिखलाती है । इसी उद्देश्य से इसे तत्कालीन केन्द्रीय कृषिमंत्री को समर्पित भी किया गया था जो कि मूल रूप से चम्पारण के निवासी ही थे और अब भी हैं । 

यहाँ यह प्रश्न उठता है कि शताधिक वर्ष पहले शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य को यहाँ के शोषित, दमित, दुर्बल, अहिंसक किसानों ने जैसी सफल चुनौती दी थी और अपने हक में उन्हें निर्णय देने के लिए बाध्य किया था, उनका वह आत्मविश्वास, तप और लक्ष्य-प्राप्ति के प्रति समर्पण का भाव आज सुषुप्ति के किस गुहा में निश्चिन्त हो सो रहा है या उन्हें उसमें सोने के लिए विवश कर दिया गया है? या वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति से संतुष्ट हैं या इनसे अन्यमनस्क या उदासीन हो गये हैं या उनमें लड़ने की क्षमता ही नहीं रही? गाँधी की रणनीति से निलहे जमींदार तो परास्त हो गये, किन्तु आज तो 'नये निलहों' का नया जमाना है, नया पैंतरा है, इन्हें भगाने के उपायों को खोजना है, तो प्रश्न है, इस भुतहा घर में प्राण - शक्ति कौन लाएगा?

निलहा तो कब का गया, गया न सिर से टैक्स । 

जान बचाने के लिए, बना लिया है पैक्स । ।

 बना लिया है पैक्स, कृषक की जय ही जय है

दौड़ता है नित दिन, अद्भुत यह क्रयाक्रय है । । 

थक कर बैठा संत, अजी, यह घर है भुतहा । 

करो कोई उपाय, भागे यह नया निलहा । ।16

कृषि और कृषक के उत्थान के लिए 'हरित क्रांति' लायी गयी जो 'भुक्खड़-क्रांति' के रूप में दृश्यमान है

अहरह झखता संत, गजब की देख के क्रांति । 

भुक्खड़ का समुदाय, चलाता यह हरित–क्रांति” । । 17

ऐसा भी नहीं है कि आज किसान आन्दोलन नहीं कर रहे, किन्तु इन किसानों को देखकर आकाश भी अचम्भित
है । 

रैलीकट किसान देख, विस्मत भू-आकाश । 

ए.सी. से बाहर हुए, बन जनता के दास । ।18 

कवि का निवेदन है कि चम्पारण सत्याग्रह के ऐतिहासिक शत - वार्षिकी महोत्सव

मनाने वाले क्या निम्नलिखित समस्या का समाधान ढूँढ़ेंगे । 

यह भारत की शान, किसान है जिसका नाम । 

देकर सबको अन्न, विपन्न हो भजता राम । ।19

अस्तु! यों तो डॉ० राजेश्वर प्रसाद सिंह जन - सामान्य में 'सन्त' उपनाम से ही जाने जाते हैं; किन्तु इस संकलन की कविताओं में शायद पहली बार इन्होंने अपने 'संत' उपनाम का उपयोग किया है । 

निष्कर्षतः ‘कृषक वेदना' भारतीय किसानों की चेतना की करूण अभिव्यक्ति है । भाव–पक्ष एवं कला– पक्ष दोनों दृष्टियों से 'कृषक वेदना' एक उत्कृष्ट काव्यकृति है जिसमें भारतीय आत्मा का स्वर मुखरित है । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के 'किसान' प्रबंध काव्य के बाद किसान जीवन का समग्रता से चित्रण करनेवाला संभवतः यह दूसरा महत्त्वपूर्ण काव्यग्रंथ है |

संदर्भ संकेत:-

1. ‘कृषक वेदना’– डॉ० राजेश्वर प्रसाद सिंह, पृ0 सं0-24, शांति पब्लिकेशन्स, मुजफ्फरपुर, बिहार, 2. वही, पृ. सं.– 14 3. वही, पृ० सं० –7, 4. वही, पृ. सं. 15 5. वही, पृ. सं. – 16 6. वही, पृ. सं. 16 7. वही, पृ. सं. – 17 8. वही, पृ० सं० –35 9. वही, पृ. सं. –19 1.. वही, पृ. सं. – 2. 11. वही, पृ. सं. – 11 12. वही, पृ. सं. – 12 13. वही, पृ. सं. -13 14. वही, पृ. सं. – 51 15. वही, पृ. सं. – 64 16. वही, पृ. सं. –43 17. वही, पृ. सं. 44 18. वही, पृ० सं० –26 19. वही, पृ. सं. −27

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नरेंद्र नागदेव के चित्रों की प्रदर्शनी -' होमेज टू मून'

दि. 22 अगस्त 2023 की शाम दिल्ली की त्रिवेणी गैलरी में वरिष्ठ कहानीकार - उपन्यासकार श्री नरेंद्र नागदेव की कलाकृतियों की एकल प्रदर्शनी का शुभारंभ हुआ । 'होमेज टू मून' शीर्षक इस प्रदर्शनी के चित्रों में चंद्रमा का अत्यंत कल्पनाशील चित्रण है । एक सुखद संयोगवश 23 अगस्त को इसरो के चंद्रयान ने चांद की सतह को छुआ जाना था । अतः इस अवसर पर श्री नागदेव ने अपनी यह प्रदर्शनी इसरो के वैज्ञानिकों को समर्पित की तथा कहा कि यह प्रदर्शनी कलाकारों की ओर से वैज्ञानिकों के लिए अग्रिम बधाई संदेश है ।

विख्यात साहित्यकार तथा कला मर्मज्ञ श्री ज्योतिष जोशी, अभिनव इमरोज़ के संपादक श्री देवेंद्र बहल, तथा श्री हरीश चावला ने दीप प्रज्वलित कर प्रदर्शनी का शुभारंभ किया । सामान्यतः बड़े आकार के कैनवास पर चित्रण करने वाले श्री नागदेव ने इस बार लघु आकार के 35 चित्र प्रदर्शित किए ।

प्रस्तुत प्रदर्शनी में चांद के यथार्थवादी चित्रण से हटकर उन्होंने उसे जमीन पर उतारा है । चांद अपना वृत्ताकार स्वरूप भी खोकर आयताकार और अन्य आकारों में नजर आने लगता है । वह कभी फूलों की झाड़ियों में उलझा नजर आता है, कभी सागर में चलती नाव का पाल बन जाता है, और कभी तूफान में कपड़े की तरह उड़ कर डगालियों में उलझ जाता है । कभी क्रीड़ारत शिशु के खिलौनों में एक हो जाता है, तो कभी किसी बादशाह के हाथ में फूल का स्थान ले लेता है । 'गुड मॉर्निंग' चित्र में वह खिड़की पर लगा पर्दा बन जाता है, जिसे समेटने पर सूर्य नजर आता है, तो 'प्रीहिस्टोरिक मून' में वह शिकारी आदिमानव के भालों के निशान पर आ जाता है । 'टाउन बाई नाइट' के एकाधिक चित्रों में वह रहस्यमय चांदनी रात का हिस्सा बनकर प्रकट होता है ।

नरेंद्र नागदेव जी की कला जगत में एक अति यथार्थवादी कलाकार के रूप में पहचान है । प्रस्तुत चित्र भी उसी शैली में हैं । वे विख्यात कलाकार साल्वाडोर डाली से प्रभावित रहे हैं और प्रदर्शनी में उन्होंने डाली पर एक कृति भी रची है जिसमें टेबल पर चांद एक कपड़े की तरह सूख रहा है ।

नरेंद्र जी व्यवसाय से वास्तुकार रहे हैं । इसलिए उनकी कृतियों में वास्तुकला का प्रभाव झलकता है । उनकी कृतियों में निश्चित स्ट्रक्चर तथा संयोजन होता है । वे लंबे अरसे तक साहित्य से जुड़े रहे हैं, अतः उनकी कृतियों में कल्पनाशीलता प्रचुरता से होती है । उनके चित्र विभिन्न विधाओं का सामंजस्य लगते हैं । नागदेव जी अपने चित्रों में अक्सर गहरे रंगों का उपयोग करते हैं ।

प्रदर्शनीके शुभारंभ के अवसर पर दिल्ली के कला व साहित्य जगत से जुड़ी हस्तियों की उल्लेखनीय उपस्थिति रही, जिनमे धूमिमल गैलरी की श्रीमती उमा जैन व श्री उदय जैन, मनीष पुष्कले, हेमराज, सिराज सक्सेना, प्रयाग शुक्ल, अभिषेक कश्यप, सुश्री बाल कीर्ति के अलावा श्री राजेश जैन, राकेश भारतीय, हीरालाल नागर, अनिल सिन्हा व डॉक्टर विष्णु सक्सेना जैसे साहित्यकार भी शामिल रहे ।

प्रदर्शनी 28 अगस्त तक राजधानी के कला जगत के आकर्षण का केंद्र बनी रही ।  

–अखिल नागदेव, akhiln2k@gmail.com

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`अस्मिता`के वार्षिक कार्यक्रम में सम्मान और दो पुस्तक विमोचन 

अस्मिता, महिला बहुभाषी साहित्यक संस्था, अहमदाबाद जिसकी संस्थापक नीलम कुलश्रेष्ठ हैं के चौदहवें वर्ष में प्रवेश के उपलक्ष में वार्षिक कार्यक्रम व राष्ट्रीय महिला समानता दिवस [26 अगस्त ] के अवसर पर 27 अगस्त 2023 को आई सी ए सी म्युनिस्पल आर्ट गैलरी में हुए अहमदाबाद बुक क्लब के संयुक्त तत्वावधान में कार्यक्रम की अध्यक्षता की अधिवक्ता, इंडिया नेटबुक्स, देल्ही के निदेशक, 49 विधि पुस्तकों व 102 पुस्तकों के लेखक डॉ. संजीव कुमार जी ने । अन्य विशिष्ट अतिथि थे डॉ. धीरज वनकर, हिंदी विभागाध्यक्ष जी एल एस गर्ल्स कॉलेज व साहित्यकार, मोनिका गुप्ता, अंग्रेज़ी लेखिका, प्रेसीडेंट अहमदाबाद बुक क्लब । डॉ सुधा श्रीवास्तव, अध्यक्ष, नीलम कुलश्रेष्ठ व निशा चंद्रा, सचिव, मोनिका गुप्ता ने अस्मिता व अहमदाबाद बुक क्लब की तरफ़ से संजीव जी को `विशिष्ट साहित्य सम्मान` से सम्मानित किया । अस्मिता अखिल भारतीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने वाली सदस्य को `विशिष्ट साहित्य सम्मान` से सम्मानित करती है । इस बार सम्मानित की गईं सुदीर्घ हिंदी सेवा हेतु कवयित्री श्रीमती मधु प्रसाद । आनंदी बेन पटेल ने अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल में 1 अगस्त से 15 अगस्त तक नारी सशक्तिकरण पखवाड़ा घोषित किया था । उनका कार्यकाल समाप्त हो जाने के बाद नीलम कुलश्रेष्ठ ने इस अवधारणा को अस्मिता से जोड़ कर ऐसी गुजरात की महिलाओं को `नारी सशक्तिकरण सम्मान` देने आरम्भ किये जो साहित्य सृजन के साथ नारी सशक्तिकरण के लिए भी उल्लेखनीय काम कर रहीं हैं । इस वर्ष इस सम्मान के लिये सुप्रसिद्ध टी वी फ़िल्म मेकर, लेखिका, पत्रकार सुप्रसिद्ध मनीषा शर्मा को चुना गया । बाईस वर्ष की आयु में बीस पुरुस्कार व सम्मान पाने वाले `अनुभवों की बात अनुभवी से` शीर्षक से वरिष्ठ लोगों के वीडियों बनाने, इन्हें प्रकाशित करने वाले वाले किशन कल्याणी को `युवा साहित्य सम्मान` दिया गया । नीलम कुलश्रेष्ठ की कहानी रुपरेखा पर अस्मिता की डॉ. सुधा श्रीवास्तव, डॉ. प्रणव भारती, 

डॉ. मीरा रामनिवास, मधु सोसी व निशा चंद्रा को साझा उपन्यास `लाईफ़ @ट्विस्ट एन्ड टर्न को डॉ मनोरमा चीफ़ एग्ज़ेक्युटिव इण्डिया नेटबुक्स, सम्मानित किया गया क्योंकि ये अहमदाबाद की मातृभारती पर प्रकाशित देश का द्वितीय व गुजरात का प्रथम डिजिटल साझा उपन्यास है जिसकी लोकप्रियता के कारण देल्ही के वनिका प्रकाशन ने प्रकाशित किया है ।

अति विशिष्ट सारस्वत साधकों की गरिमामय, समृद्ध उपस्थिति में नीलम कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह `हरे र्स्कट वाले पेड़ों तले` और मधु प्रसाद के हायकु संग्रह `झुरमुट से झाँकते हुए` का लोकार्पण सम्पन्न हुआ । निशा चंद्रा, डॉ. धीरज वणकर द्वारा पुस्तकों पर सार्थक, सटीक, अभिप्रेरक और सृजनात्मक समीक्षा प्रस्तुत की । कार्यक्रम के दूसरे सत्र का मधु प्रसाद के कुशल संचालन में काव्य व रचना पाठ किया डॉ. संजीव कुमार, डॉ. सुधा श्रीवास्तव, डॉ. प्रणव भारती, श्रीमती मधु सोसी, श्रीमती मधु प्रसाद, डॉ.ऋषिपाल धीमान, श्री बसंत परिहार, श्री सरस्वतीचंद्र आचार्य, डॉ..मीरा राम निवास, डॉ.अंजना संधीर, डॉ.प्रभा मजूमदार, श्रीमती निशा चंद्रा, डॉ. नियति सप्रे, श्रीमती प्रतिभा पुरोहित, श्रीमती स्मिता ध्रुव, डॉ. नयना डेली वाला, श्रीमती निकुंज जानी ने । इस कार्यक्रम के मीडिया पार्टनर थे `हेलो गुजरात` चैनल के सरस्वती आचार्य, जिन्होंने व जिनकी टीम ने बहुत तत्परता से कवरेज ली । अंत में नीलम कुलश्रेष्ठ ने सभी सहभागी व शहर के गणमान्य गुणीजनों को धन्यवाद दिया । 




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चर्चा के बहाने


रेनू यादव

असिस्टेन्ट प्रोफेसर

भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग

गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, 

यमुना एक्सप्रेस-वे, गौतम बुद्ध नगर, 

ग्रेटर नोएडा – 201 312

ई-मेल- renuyadav0584@gmail.com


घर-घर में बतिकही

गाँव घरों में दादी-नानी द्वारा सुनाई गई कहानियाँ स्मृत्तियों में हमेशा रहती हैं । यही नहीं, बचपन की कुछ ऐसी घटनाएँ कहानी बनकर हृदय में घर बना लेती हैं कि समय समय पर उसकी याद आ ही जाती है । कुछ ऐसी ही उत्तर प्रदेश की आँचलिक कहानियों का संग्रह है – हूक-हुँकारी । भोजपुरी भाषा में लिखी गई ये कहानियाँ पढ़ते हुए प्रतीत होता है कि सामने से बैठकर दादी-नानी की कहानियाँ सुन रहे हैं अथवा गाँव-घरों में औरतें बतिकही कर रही हैं या खेत खलिहानों में लोग गलचऊर कर रहे हों । 

पहली ही कहानी ‘मंतोरना फुआ’ में मंतोरना जैसी स्त्रियाँ समान्यतः सभी गाँव में पायी जाती हैं । जिनके पेट में बात न करने से अपच हो जाता है । अत्यधिक बात करने के कारण सबसे उपेक्षित भी होती हैं लेकिन जहाँ होती हैं अपनी जगह बना ही लेती हैं । ‘फो...रन....सी...रन’ कहानी में भी दादी के बोलने के कारण दादी मजाक का पात्र बनी रहती है, जिस पर उसके पोते को शर्म आती है । ‘बउरहिया’ कहानी में जिस स्त्री को बउरहिया समझा जाता है उसकी उपयोगिता उसके न होने पर समझ में आता है । ‘जादूगरनी’ कहानी में एक सुघड़ और सर्वगुण सम्पन्न बहु को परिवार वालों की उपेक्षा और अंधविश्वास मृत्यु के मुँह में ढ़केल देता है । ‘नरियर बाबा क भूत’ में अंधविश्वास के कारण उत्पन्न भय हँसी मजाक में भयानक रूप ले लेता है । ‘करमदाता’ कहानी में करमदाता मात्र एक है लेकिन इस दुनियाँ में स्त्रियों के करमदाता वर्चस्ववादी सत्ता स्वयं को समझने लगता है । ‘कुलदीपक’ कहानी में कुल का दीपक ही अपने पूर्वर्जों का अपमान करने से नहीं चूकता । 

काहे के त सब केहू आपन, आँखी किरिया, अन्हरा बिना रहियो न जाय, मउगा चच्चा, नौटंकी, बेकहला, परेम-वरेम, बंगड़ गुरू क बतकुच्चन आदि कहानियाँ मात्र कहानियाँ नहीं है बल्कि दैनिक जीवन में घटने वाली घटनाएँ हैं जो लेखन में ओझल हो जाती हैं । ऐसी ओझल घटनाओं एवं बतिकही को डॉ. सुमन सिंह अपनी कहानियों में हूक-हुँकारी परवाते हुए सामने ले आती हैं । 

वैसे तो भोजपुरी में अनगिनत साहित्य लिखे गए हैं लेकिन बंग्ला भाषा की तरह भोजपुरी, भोजपुरी साहित्य में अपनी जगह नहीं बना पायी है और संविधान में भाषा के स्तर पर भी । इसकी बड़ी वजह भोजपुरी के ऊपर हिन्दी का छा जाना भी कहा जा सकता है अथवा भोजपुरी भाषियों का भोजपुरी के प्रति हीनताबोध का भाव भी । यह आवश्यक हो गया है कि अपने पुरखों-पुरनियों के द्वारा लिखे गए साहित्य को याद करते हुए भोजपुरी साहित्य के माध्यम से भोजपुरी भाषा को न सिर्फ समृद्ध बनाया जाए बल्कि भोजपुरिया समाज के विश्वास, अंधविश्वास, गीतों, कथाओं, मान्यताओं आदि संस्कृति से अधिक से अधिक परिचति करवाने का प्रयास भी किया जाए । 











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