Abhinav Imroz October 2023

 



 परिचय- 

डॉ. वीणा विज’ उदित’

वीणा विज ‘उदित’- कलाकार,  कवयित्री व साहित्यकार

लाहौर में जन्मी वीणा ने विभाजन के पश्चात मध्यप्रदेश की सोंधी मिट्टी की सुगंध में जीवन की ऊँच-नीच की शिक्षा पा कर पंजाब की धूप में चमक कर,  पति के संग कश्मीर में रह कर शिकन और झुर्रियो को पनाह दी । एम.एड में जबलपुर विश्वविद्यालीय स्वर्ण पदक मिला ।

आचार्य रजनीश "ओशो" से दर्शनशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की ।

1963 में गणतंत्र दिवस परेड में मध्यप्रदेश को रिप्रज़ैंट कर बैस्ट एन.सी.सी अंडर आँफिसर बनीं ।

तूलिका से कैनवस र्ंगकर भी भावाभिव्यक्ति करती रहती हैं । 

भरतनाट्यम‌ की शिक्षा 4 वर्ष ली । नृत्य-नाट्य़ में बचपन से ही गहन अभिरुचि रही ।

1980 से दूर-दर्शन और आकाशवाणी जलंधर से जुड़ गईं । हिन्दी और पंजाबी के तकरीबन सौ नाटकों, धारावाहिकों व छैः फिल्मों में सन 2000 तक अभिनय किया ।

रंगमंच के विभिन्न नाटकों जैसे नूरजहां,  भिक्षुणी,  हाड़ा रानी,  दुल्ला भट्टी,  शहीदे आज़म भगत सिंह वासवदत्ता आदि में मुख्य किरदार निभाए ।

शिक्षा-एम ए एम एड जबलपुर में,  विश्वविद्यालय स्वर्ण पदक विजेता के फल स्वरूप 1969 में एनसीईआरटी दिल्ली की ओर से स्कॉलरशिप के साथ शोध हेतु आमंत्रण ।

1970 में स्वामी श्रद्धानंद (श्री मुंशीराम विज ) के परिवार की बहू बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।

पति-कश्मीर में बिज़नेसमैन ।

कश्मीर में बॉलीवुड और ग्लैमर वर्ल्ड से तालमेल रहा ।

संतान- दो इंजीनियर बेटे अमेरिका में बिजनेसमैन व दामाद भारत में बिजनेसमैन

लेखन--हिंदी, पंजाबी,  उर्दू और अंग्रेजी में कविताएं आदि ।

टीवी और ऑल इंडिया रेडियो जालंधर के लिए भी नाटक स्क्रिप्ट लिखीं । अभी भी प्रोग्रामों में कार्यरत ।

सम्मान -ढेरो ईनाम । कहानियो व कविताओं के लिए देश-विदेश में । जैसे 2007 में कहानी-संग्रह ‘पिघलती-शिला’को आथर्स गिल्ड़ औफ इंड़िया ने वर्ष का सर्वोत्तम कहानी-संग्रह घोषित कर लेखिका को ‘साहित्य सर्वोदय’ की उपाधि और नगद धनराशि दी । साहित्य शिरोमणि पंडित दामोदर दास साहित्य सम्मान,  विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित-जैसे पंजाब कला साहित्य अकादमी, श्री कृष्ण कला साहित्य अकादमी इन्दौर, सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति-कश्मीर महोत्सव में सम्मानित,  सन् 2018 में “पंजाब कला साहित्य अकादमी” द्वारा " आधा जहान सम्मान",  2019 में “अकादमी अवार्ड” और 2020 में " विद्यावाचस्पति अवार्ड " आदि से समय-समय पर सम्मानित ।

निवास-चार माह कश्मीर,  छैः माह अमेरिका व दो माह जालंधर- पंजाब

सम्प्रति- आज भी देश-विदेश में रहते हुए भी राष्ट्रीय एवम ई-पत्रिकाओं से जुड़ी रहती हैं । विदेशी व प्रवासी बच्चों को हिन्दी सिखाने एवम भारतीय संस्कृति से पहचान कराने में सपरिवार प्रयत्नशीलता रहती हैं ।कई रचनाएं अंग्रेजी,  पंजाबी एवम् उर्दू में अनूदित!

प्रकाशित कृतियाँ-

सन्नाटों के पहरेदार- काव्यसंग्रह

पिघलती शिला- कहानीसंग्रह

कदम ज़िंदगी के – काव्यसंग्रह

तुरपाई तथा अन्य कहानियाँ- कहानीसंग्रह

दरीचों से झाँकती धूप -काव्य-संग्रह

मोह के धागे--कहानी -संग्रह("अमेरिका में सिलेबस के लिए चयनित ।")

सुरमई कहानियां--पंजाब सूफी मंच द्वारा उर्दू में प्रकाशित-कहानी संग्रह

वीणा विज के संस्मरण,  "छुटपुट अफसाने"-संस्मरण संग्रह

"दिल से"--द्विभाषीय काव्य संग्रह

आईना और एक्स"--आत्मकथा (प्रकाशनाधीन)

50 संस्मरण -- मातृभारती (फ्री साईंट) पर प्रकाशित

फेसबुक पर"भूले बिसरे संस्मरण" के 27 एपिसोड प्रकाशित हो चुके हैं!

आजकल  : महीने में 15 दिन देश और विदेश में किसी ना किसी वेबीनार से जुड़ी रहकर काव्य पाठ और साहित्यिक विषयों पर व्याख्यान देती रहती हैं!

"अजब साहित्यकारों के गजब किस्से",  "रूबरू थिएटर" दिल्ली, "चर्चित चेहरे" एन नरेश चंद्रा पटल "गुलमोहर" न्यूयॉर्क तथा कई बार"सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति"के और "महिला काव्य मंच" की पंजाब की संरक्षक होने के नाते कई साक्षात्कार टी . वी. और रेडियो पर भी दे चुकी हैं! देश -विदेश में अन्य साक्षात्कार भी चलते हैं ।

फोन # 9682-639-631 जालंधर

225-288-7679…US,  408-375-6353..US

Email ID– vij.veena@gmail.com

Website : www.veenavij.com

You tube– Veena vij in’Rachna’program and lots of TV programmes since 1980.No related posts.

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पेश है ग़ज़ल

महाज़े जिंदगी

अपनी ही मस्ती में डूबे थे तुम

संग साथ जीते तो दिखते थे हम ।

दंभी थे,  व्यावहारिक कुशल थे तुम

सर्द आहों के आलम में डूबे थे हम ।

तुम्हें शिरकत की आदत ना थी कभी

बेबस निगाहों से तुम्हें तकते थे हम ।

तिरे वक्त का लम्हा हूं तुमसे जुड़ा

उदासी भरी दास्तां बन गए हैं हम ।

तुम महाज़े जिंदगी में सुर्खरू हो जाओगे

तुम्हें ज़हन में बिठा शिकस्त खाए हैं हम ।

तुम्हारी ख्वाहिशों में जब हम ही नहीं

तुम्हारी आंखों में पनाह क्या पाएंगे हम ।

खुशामदें कर पहलू में लिपटाते हो जब

तुम्हारी असलियत तब जानते हैं हम ।

बादल सी मोहब्बत की बारिश "वीना" पे करो

खुशबू बन तुम पर बिखर जाएंगे हम ।।


अर्थ-

महाज़े जिंदगी --जिंदगी का युद्ध

सुर्खरू --कामयाब

शिकस्त -- हार

पनाह-- आसरा

शिरकत --बांटना

दास्तां-- कहानी

***

एक नज़्म.......

अल्फ़ाज़ में ढली नज़्म

कुछ अल्फ़ाज़ की इक बारात आई है

कलम से कहो  के रोशनाई लाए

और ख़ैर मकदम करे इनका कागज़ पर ।

दीगर,  ज़हन से,   रूहानियत का जाम इन्हें पेश करे

लेकिन,  इनके तर्ज़-ए- बयां को भी हर तरह से परखें  !

तन्हाइयों का आलम था बरपा

और फ़ज़ा में भी खामोशी थी हर सूं

ख़्यालों के कारवां भटक रहे थे इधर से उधर

लेकिन,  बिला- तरतीब थीं दास्तानें सब की सब

और होंठ भी थे बिला- हरकत !

ना -उम्मीदी की सहर भी होने को थी !

कुछ भी हो

भूली- बिसरी दास्तानें सभी,  आखिर तो बयां होंगी ही, 

अफसाने भी बदलेंगे सूरत, के,  इक हक़ीक़त बयां होगी;

कौन जाने,  के,  लब शीरीं  हो जाएं सिफ़त में !

या के तल्ख़ी में मुंह तुर्श हो जाए !

कुछ भी हो

अल्फ़ाज़ की तरतीब हो उम्दा,  के,   ख़्याल हो उम्दा, 

और ख़्याल रहे,  के,  लापरवाही में माने ही ना बदल जाएं !

लो, 

इन अल्फ़ाज़ ने-- इन ख़ुशनुमा अल्फ़ाज़ ने

ओढ़ लिया है यूं,   इक नज़्म का जामा

अल्फ़ाज़ का ख़ैर मकद़म करो हमेशा ही इसी तरह

अल्फ़ाज़ ही ढलते हैं नज़्म में !

अर्थ-

रोशनाई-स्याही,  खैर मकदम - स्वागत,  अल्फाजों- शब्दों, 

सिफ़त-तारीफ,  लब शीरीं-मिठास,  तुर्श-खट्टा, जामा-पहनावा!

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संपादकीय


81वां जन्मदिन मुबारक हो :                                                                                       प्रेम ही जीवन उत्सव है ! 

नायक ने 2009 में दोस्ती के रिश्ते की स्वर्ण जयंती पर नायका के जन्मदिन पर भेजी नज़्म नुमां शुभकामनाएँ ।  हालांकि 10-11 साल पुरानी रचना लगती है। लेकिन इसकी ताज़गी से प्रेरित होकर इसे प्रकाशित किया जा रहा है। 
1959 में 31 अक्टूबर को दिवाली का पर्व और नायका का 16वां जन्मदिन एक साथ पड़ा था। —संपादक


मुबारक़ हो सालगिरह तुम्हें
और मुझे तुम्हारा ‘सोलहवां बसंत’-
मुझे क्यों ? 
कि उसी साल तुम बनीं थीं मेरे वुजूद की तासीस,
वज्ह और सिला भी, राह और मज़लें-मक़सूद भी;
मरकज़ और मक़सद भी; आज भी रूहे-सकुं हो तुम, 
मेरे पास न हो कर भी मेरे पास हो तुम;
सब कुछ हो जो न होकर भी हो तुम,
ग़ुलाब हो यक़ीनन, मेरे लिए आज भी 
निरी अनार क़ली हो तुम लेकिन
मैं क्यों पूंछूं कितने मील चल चुकी हो, 
आज कैसी लगती हो तुम.....
ज़िद्द है-तो मेरी कल्पना से पूछो, मेरे अतीत से पूछो
मेरी हक़ीकते- ज़िन्दगी हो तुम; 
मेरे लिए आज भी सोहनी, सुलखणी मुटियार हो तुम
कितनी ही मौनसून बरस चुकी हैं,
और मैं ‘सोहलवीं बरसात’ के मील-पत्थर को 
अपना निशाने-हस्ती समझ, ठहरे वक्त का पाबंद 
किसी करिश्में की इंतज़ार में बैठा हूँ
इत्तफाक़ तो देखो उस दिन का
दिपावली का दिन था,
शुरु-ए-शबाब लेकर आया तुम्हारा जन्मदिन था,
ज़िन्दगी के अहम मोड़ पडे़ एक ही दिन थे!
ख़ूब मनाया था-जश्ने सालगिरह, जश्ने रौशनी
जश्ने शवाव, जश्ने मोहब्बत
बात ही कुछ और थी उस दिन की
दीपमाला लिए तुम थीं दहलीज़ के उस पार
और मैं उम्मीदों की बारात लिए था इस पार उस दिन...
लौ रौशन हो चुकी थी- चांद की चाहत में 
ज़िन्दगी उड़ान भर चुकी थी!
मैं मग्न था मनाने में तुुम्हारा ‘सोहलवां बसंत’ 
और शामे रौशनी का वो दिन शुभ था-शुभ है-शुभ हो
बार-बार आए यह चाहतों का दिन-
साठ साल पहले नई मुलाक़ात का दिन, 
चाँद को चांदनी मुबारक़..., दुआऐं ही दुआऐं,
प्यार ही प्यार; जीवन भर की सुहासों का दिन
बची हुई चंद सांसों की क़सम....
ज़िन्दगी भर न भूल पाऊँगा...
अपनी हस्ती से मुलाक़ात का वो दिन.... 
तुम्हारा जन्म दिन
और आज उस समय की साजिश का शिक़ार,
न पहुंच सका उस पार,
तारों में सिमट के रह गई ज़िन्दगी मेरी,
साथ दो साल का ही सही; लेकिन
फासलों के फलसफे में खिल खिल उठी ज़िन्दगी मेरी 
भरी रही बसालत से खुशग़ुबार ज़िन्दगी मेरी....
पहाड़ी के पीपल तले मनाता रहूँगा
तुम्हारा जन्मदिन, रौशन करता रहूँगा दीए
जैसे कि हो दिवाली का दिन,
बेगरज़ बंदगी का, मन्नत और मिन्नतों का,
अहसासे ‘‘पास’’ होने का दिन.....
तुम्हारा जन्मदिन!!
हाँ याद आया 31 अक्टूबर 1959 ही था
वो शुभ दिन जब पड़ी थी
एक साथ दिवाली और तुम्हारा जन्मदिन, 
आज रिश्ते की स्वर्ण जयंती भी है इसी मौसम में 
‘गोगी’ से प्रियदर्शिनी तक का सफर,
नफीसा से हमीदा तक की कहानी में 
लिप्त है निश्छल, शाश्वत प्रेम 
गूंगे हरफों में,
अब तक का सफर अच्छा रहा
दुआ है महफूज़ रहे यह कशश, 
बड़ता रहे काफिला यादों की निगरानी में
हम खुशनसीब हैं जो रब ने 
रखा बुढ़ापे को क़ायम
रिश्ते की जवानी में...

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कविताएँ

वो लम्हे
जिंदगी से लम्हे चुरा
लॉकर में सहेजती रही
फुर्सत से खर्चूंगी
बस,  यही सोचती रही ।
उधड़ती रही जेब की सीन
करती रही तुरपाई
फिसलती रही खुशियां
करती रही भरपाई । 
एक दिन फुर्सत जो पाई
सोचा--
स्वयं को आज रिझाऊं
बरसों से जो सहेज रखे
वह लम्हे खर्च कर आऊं -
खोला लॉकर- लम्हे ना थे !
जाने कहां रीत गए ---?
मैंने तो खर्चे नहीं
जाने कैसे बीत गए---?
अब जाकर फुर्सत मिली थी
सोचा,  खुद से ही मिल आऊं !
आईने में देखा जो
पहचान ही ना पाऊं
ध्यान से देखा बालों पे
चांदी सी चढ़ी थी
लगती थी कुछ मुझ जैसी
जाने कौन खड़ी थी ??

चाहत का आवेग
मन में ढेरों बातचीत के टुकड़े,  शब्द अधूरे
मदद की गुहार करती तुम्हारी आंखें बसूरें
मौन त्यागो तो शब्द बन बोलूं कंठ से तेरे
मेरी आंखों से बतियाओ, वे बोलें शब्द पूरे ।

दिल पर लगा किवाड़ कभी देखो खोलकर
तुम्हारे दिल में धड़कते हैं धड़कन बनकर
बहती हवाओं से क्यों पूछते हो मेरा पता
तेरी रूह के इर्द-गिर्द ही तो है बसेरा मेरा ।

ये रातों के साए,  उजालों में क्यूं आए उमड़
जग को बिसारो, आओ क्षितिज को लें पकड़
तेरी चाहत का उद्दाम आवेग ऐसा तीव्र बहता
सागर की निचली तहों में मानो कंपन करता ।

वैसे भी दिल का कलमा पढ़ो,  तो ज़ुबान बंद
इश्क़ की बातें शब्दों की मोहताज हुईं कब
दिल खुश है प्यार की जुल्फ की जंजीर में बंध
दीवानों को चारों सूं दिखे बयानगी-ए-इश्क़ ।।

किरचें
चांद की किरणें
रात मेरे संग सोई
चादर की सिलवटें
तड़पतीं सुना दास्तां
विछोह की–भोर को !
ओस की कुछ बूंदें
पत्तों से लिपटी रोईं
मिट्टी में मिल मिट्टी बनीं
मर मिटने का सवाल बीज
नागफनी बन गईं ।
कब्रों पे लिखे मरसिए
चुप सिसकते रहे
रफ्ता रफ्ता
पत्थर संग पत्थर हो
मौत बन गए ।
पत्थरों से टकरा
ज़ख़्मी कर देगी हवाओं का सीना
मौजों पर सवार
इश्क़ की बंदगी
साहिलों से टकरा मांगेगी जवाब ।
पत्थरों का कलेजा चीर
मर मिटने की फसल उगेगी
इश्क़ पत्थर हो गया
पत्थरों पे कब उगेगीं पत्तियां
जो ओस को ठांव मिलेगी ।
हवाएं रुदन भरी
लहर-लहर लहराईं क़श्तियां
साहिलों पर सर पटक
शिलाएं बेज़ुबान रोईं
खरोंचें ही खरोंचें थीं ।
रिसता था लहू
धरती पर लाल गड्ठे
एहसास की सलीब पर टंगी
बवाई फूट-फूट कर रोई
और…
किरचें चुभती गईं ।।

अनपढ़ी किताब
काश! तुमने मुझे ढंग से पढ़ा होता
एक अनपढ़ी किताब की तरह
उत्सुकता से हाथों में लिया होता ! काश !...
बाह्य आवरण की रंगीनियों की अपेक्षा 
भीतर खिंचे सादे चित्रों में छिपे भाव 
समझने का एक यत्न किया होता ! काश !... 
उंगलियों की पोरों को होठों से भिगो
इक-इक पन्ने का जिस्म टटोल कर
पाने की चाह में अधीरता से छुआ होता ! काश !...
नीरस गूढ़- ज्ञान से भरी ना सही 
सरसता से भरे तिलस्मी गद्यांश 
खोज कर दिल में स्थान दिया होता ! काश !.... 
पेज मार्क लगा शैल्फ पर रख 
पुनः वहीं से पठन की ललक लिए
करीब से मेरी तन्हाईयों को छुआ होता ! काश !... 
हृदय के नीरव कोने में 
बार-बार पढ़ने 
तल्लीनता से पढ़ते रहने की 
प्रबल इच्छा बनी रहने से 
यह किताब आखिर पढ़ी जाती!
तब आज की भांति 
तुम्हें मुझ से गिला शिकवा ना होता !!


राहें जब बतियातीं...
जिस राह चला राहीअकेली डगर थी
एक राह से दूसरी राह बेखबर थी
एक राह संभाले थी इन्सां का वजूद
एक डगर जिंदगी की भी थी मौजूद।
मरू में बूंद जल की नहीं,  बीहड़ हैं वन
रेतीली राहें कैसे भींगें,  बेबस है सावन
शब्दों की राहों में उद्गार बिछ जाते हैं
नई राहों में अपना,  कुछ रच जाते हैं ।

कुछ राहें गाहे-बगाहे गुमनाम हो जाती हैं
लोगों की आमद वहां बदनाम हो जाती है
भटकों को थाम लेती हैं कुछ राहें बढ़कर
मुखरित हो उठती हैं, उम्मीदें सहारा लेकर ।

सुरंग के अंधेरों को राहें जब चीर जाएं
अंतिम छोर पहुंच प्रकाश से मिल जाएं
राहें उन्हीं राहों के समक्ष जब बिछ जाएं
राहें मंजिल पर जा ठहर जाएं मुक जाएं ।

सरहदों पे बांट जोहतीं राहें उन्हें चूमतीं
चली राहें आकाश की राह आंखें मूंदतीं
सारी राहें आपस में मिल जब बतियातीं
सीने के ज़ख़्म भूल, मिलकर गुनगुनातीं ।।

चांदनी
चंद्रमा की सुधा सिक्त शीतल धवल चंद्रिका
देती सुख की अनंत विस्तार वाली चदरिया
मानो आकाश के सीने पर दिव्य ज्योत्स्ना का
वितान तनकर जन जन को प्रकाशित करे ।

ज्यूं विस्मित होता मन गहरे ताल में कंकर फेंक
प्रफुल्ल हो जाए संगीतमय आवर्त्त बनता लख 
जिंदगी का ठहराव अविरल गतिशील हो जाए
ऐसी मीठी छेड़खानी से जल-क्रीड़ा आनंदित करे ।

हृदयासन पे विराज प्रिये,  नेह की ऊष्मा बहाओ
रोम-रोम में नवल सरगम की मधुर तान बजाओ
धूमिल छवियां धवल रूप धर चांदी सी चमकें
इन्द्रधनुषी ऊर्जा ले नेह रंगोली रंगों का नृत्य करे ।

चांदनी खेले झांक मेघों से आच्छादित गगन से
छिटक रही कुछ संभावनाएं प्रकाश की ओट से
निखर रही रोशनी में कण-कण रुपहली चांदनी
फूलों,  कलियों पे सोई चांदनी डाब सी शीतल करे ।

चंद्रिका से खुल रही हैं कसी शिराएं धीमे-धीमे
प्यार से सींची खिल उठी है कुमुदिनी धीरे-धीरे
सरगोशियों में छिपी रूह को ठंडक देती है चांदनी
पत्तों के रन्ध्र पे ठौर ढूंढ ओस की बूंद उन्माद करे ।


गणतंत्र दिवस
राष्ट्रप्रेम की कविताओं से गूंज उठी हैं गोष्ठियां
दिल्ली में गणतंत्र दिवस की सज गई हैं झांकियां ।
वंदे मातरम् वंदे मातरम्
26 जनवरी की दस्तक से जाग उठी है राजधानी
हर गांव हर शहर में तिरंगे ने खुलने की है ठानी ।
गूंज उठी हैं दसों दिशाएं,  
सुन देशभक्ति के गीतों को होंठ थिरकते लोगों के,  
सुन जन गण मन की धुन को ।
वंदे मातरम्  वंदे मातरम्
गौरवान्वित होते देख टीवी पर,  
देश की तीनों सेनाएं आकाश में अठखेलियां करते,  
विमानों की संरचनाएं
मध्य में श्वेत सूर्य,  
नभ से किरणों ने भगवा तिरंगा किया
धरा की हरियाली से प्रकृति ने सजाया तिरंगा बढ़िया । 
वंदे मातरम् वंदे मातरम्
जात- पांत के भेद हटा सर्वोच्च पद नारी को सौंपा
धन्य है विश्व का सबसे वृहद लोकतंत्र देश अनोखा ।
जहां हर डाल पर सोने की चिड़िया करती थीं बसेरा बांटे 
विश्व के हर देश में ज्ञान,  
विश्वगुरु देश है ये मेरा ।
वंदे मातरम् वंदे मातरम्
नव भारत के पुनर्गठन में हर वीर की थी भागीदारी
वीर सावरकर, सुभाष, भगत शहीदों पे जाऊं बलिहारी ।
भारतीय संस्कृति,  नारी-अस्मिता का परिवेश खिलाएंगे
तिरंगा लहरा, कानन महका,  गणतंत्र दिवस मनाएंगे । ।
वंदे मातरम् वंदे मातरम्

नारी! तुम अतुलनीय हो.
नारी तुम अतुलनीय हो
घटते बढ़ते चंद्र की भांति
जीवन की ऊंच नीच से जूझ
तुम पूर्णचंद्र बन चमकती हो ...
गृहस्थी में भी और बाहर भी
कर्मठ योगिनी बनकर
प्रगति पथ पर अग्रसर होती हो...
रूढ़िवादी रीतियों को त्याग
नव पथ की मन में नई तरंग भर
इर्द-गिर्द मुस्कान बिखेरती हो...
ब्रह्म के वत्सल हृदय की धारिणी
धरा सम गुणों से अलंकृत
उन्मुक्त हंसी बिखेर बसंत लाती हो....
पीड़ा को अंतस में उतार
मुखोटे लगा,  आंसू छुपा कर
रिश्तों की तुरपाई सेतु बनती हो...
अंधियारी रातों में युगों से जगी
चूल्हे से अब कंप्यूटर पर आ टिकी
प्रताड़ना से उद्वेलित शक्तिपुंज हो....
संवेदनाओं को काव्य में ढाल
मकाम के पटल पे अभिव्यक्त कर
अनुभूतियों के गहनों से लदी हो....
सृजन,  सृष्टि,  समष्टि की आधार
स्वयं सिद्धा,  स्वयंपूर्णा,  संस्कार
युक्त,  नारी तुम वंदनीय हो.....
नारी तुम अतुलनीय हो...
नारी तुम अतुलनीय हो !!

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कहानी

डॉ. वीणा विज ’उदित’

लौह संकल्प
मदनलाल कॉलोनी के पार्क में बैठा अपने ही ख्यालों में खोया हुआ था । उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसके पास कुछ भी नहीं है । उसके हम उम्र मित्र थोड़ी गप शप मार कर अपने अपने घरों को जा चुके थे । किन्तु आज उसके पैर नौ मन के हो रहे थे । उठने का नाम ही नहीं ले रहे थे । संध्या के धुंधलके में उसके समक्ष पिछले तीस वर्ष चलचित्र की भाँति चल पड़े थे । 

बैंक की नौकरी फिर सुशील पत्नि का आगमन और तभी बैंक से लोन लेकर घर बनवाना । नए घर में पहले पुत्र का जन्म । लड्डू बाँटते वह थकता नहीं था । पिता बनने का सुख... वह भी पुत्र का पिता । हमारे समाज में गर्व माना जाता है । अभी दो वर्ष भी न बीते थे कि दूसरा पुत्र भी हो गया । गर्व से छाती फूल गई थी मदनलाल की । दो बेटों का बाप... । प्रसन्नता के मारे मदनलाल और उसकी पत्नि के धरती पर कदम नहीं पड़ते थे । दोनो पुत्रों का नामकरण बहुत धूमधाम से किया था । शादी की तरह खर्चा किया था । सुनील और अनिल समय के साथ साथ बढ़े । सुनील इंजीनियर बना लेकिन अनिल ने पढ़ाई में रुचि नहीं दिखाई । केवल बी.ए. करी । सुनील की एक अच्छी नामी कम्पनी में नौकरी लग गई वह हैदराबाद चला गया । उसका विवाह...फिर उसके दो प्यारे से बच्चे हुए । मदनलाल पत्नि के साथ उसके घर तीन चार बार रह आए थे । किन्तु अपना घर अपना शहर अपना पड़ौस अपने दोस्त...इन सबको व्यक्ति घर से दूर रहकर बहुत याद करता है । सो.. वे वहाँ अधिक देर तक नहीं रह पाते थे । अपने घर वापिस आकर ही उन्हें चैन आता था ।

अनिल कभी कहता उसे एक वैन दिला दो चलता फिरता फास्ट फूड रेस्टोरेंट खोलना चाहता है वह । तो कभी वह गिफ्ट शॉप खोलने की बात कहता । आखिरकार अपने प्राविडेंट फंड से लोन लेकर मदनलाल ने उसे ऑडियो वीडियो कैसेट की दुकान अपनी कॉलॉनी की ही मार्केट में खुलवा दी । उसीका फैशन था उन दिनों । फिर अनिल का विवाह हो गया । मदनलाल ने सोचा ‘गंगा नहा गए’ । सब तरह से जीते जी अपनी जिम्मेदारियाँ नौकरी रहते ही पूरी कर लीं । अनिल की दूकान अच्छी चल पड़ी थी । घर में खुशहाली छा गई थी । मदनलाल ने कभी भी अनिल से पैसों की बावत कोई बात नहीं की और न ही अनिल ने अपने पापा को कभी कुछ बताया । सुनील ने भी कभी माँ बाप को एक पैसा नहीं भेजा । मदनलाल ने एक बार पत्नि से इस विषय पर बात की तो वह झट बोली ‘हमने पैसे क्या करने हैं । हमें क्या कमी है । बच्चों की अपनी जरूरतें ही पूरी हो जाएँ आज की महँगाई के दौर में यही क्या कम है ।’ सो बात आई गई हो गई ।

अनिल ने अपनी शादी से पहले अपने ममी पापा का बैडरूम लेने की ज़िद की तो मदनलाल को यह बात बेतुकी लगी । किन्तु तब भी अनिल की माँ ने मनवा लिया कि बेटे की खुशी में ही हमारी खुशी है । बच्चों के कोई अरमान अधूरे न रह जाएँ । शादी के साल के भीतर ही अनिल के बेटी हो गई । माँ का सारा समय बहू की सेवा व बच्चे की देखरेख में व्यस्त रहने लगा । बहू घर के काम से जी चुराती थी । ऊपर से काम वाली बाई भी कुछ दिनो के लिए छुट्टी चली गई । माँ दमे की मरीज़ थी । वो बेहद थक जाती कमजोर थी । शीघ्र ही बिस्तर से लग गई । तभी मदनलाल भी रिटायर हो गए । वो पत्नि की दवा दारू आदि देखने लग गए । पर होनी को कौन टाल सकता है । तीन महीनों में ही वह स्वर्ग सिधार गई । बच्चों व बाप के बीच माँ सेतु बनी रहती थी । सो अब मदनलाल एकदम अकेले पड़ गए । सुनील माँ के निधन पर सपरिवार आया बहुत दुखी था । किन्तु वह पापा को साथ चलने के लिए कहने की औपचारिकता भी नहीं निभा सका । मदनलाल तो वैसे भी जाने वाले नहीं थे पर खैर... ।

हमारे समाज में पुरूष का विधुर जीवन औरत के विधवा होने की अपेक्षा अधिक करुणामय होता है । पुरूष ने जीवन पर्यन्त स्त्री पर हुक्म चलाया होता है । वह बहू बेटों से समझौता नहीं कर पाता । जबकि विधवा स्त्री घर के काम काज पोते पोतियों के पालन, सत्संग आदि में मन लगा समय काट लेती है । मदनलाल की स्थिती बहुत करुणामय हो गई थी ।

अनिल की साली विदेश से दस पंद्रह दिनों के लिए बहन के घर आई । अनिल ने पापा को लॉबी में कुछ दिनों के लिए सोने की प्रार्थना की । वे मान गए । आज घर के मालिक से दोनो बैडरूम छिन गए । वे लॉबी में दीवान पर सोने लग गए । पर..मदनलाल के मन पर गाँठ सी पड़ गई ।

बहू की माँ भी आ गई । वह नातिन को लेकर मदनलाल के बैडरूम में सोने लग गई क्योंकि बहू को दूसरा बच्चा होना था । बेटा हुआ..घर खुशियों से भर उठा । बहू के मायके वालों का मेला लगा रहा । उन दिनो लॉबी में भी भीड़ लगी रहती । मदनलाल कभी लॉबी में लेटते...तो कभी बैडरूम में । रात देर तक सब बैठे गप्पें मारते उनकी उम्र या उनके आराम के बारे में कोई भी नहीं सोचता । पत्नि होती तो सोचती । वे उसके बिना असहाय हो गए थे । वह अपने मन की बात किससे कहें.. । अनिल अपना खून था....पर कितना बेगाना । दिल की गाँठ पर और गाँठ पड़ रही थी ।

उस दिन मदनलाल ने दाँत निकलवाए थे सो उसे छोड़ सब घूमने चले गए । वह पीछे से अखबार पढ़ता रहा । दोपहर ढाई बजे जोरों की भूख लगी फ़्रिज में देखा वहाँ कुछ भी नहीं पका रखा था । हाँ ब्रैड रखी थी दो तीन पीस खा लिए । रात आठ बजे सब की वापसी हुई । किसी को उसकी चिन्ता ही नहीं थी । उनके साथ ढाबे की दाल व तंदूरी रोटी भी थी । अपने दाँतों की दर्द के कारण मदनलाल ने कहा कि उसे मूँग की दाल और नरम सी रोटी बना दो । इतना सुनना था कि बहू ने बर्तन पटकने के साथ साथ चिल्लाना भी शुरू कर दिया । मदनलाल बिना कुछ खाए पीए जाकर चुपचाप लेट गए । अनिल उसका अपना खून...सब कुछ देख सुन रहा था । पापा की हालत भी समझ रहा था । पर...शायद अपनी पत्नि से कुछ कहने का साहस वह नहीं जुटा पा रहा था । मदनलाल के दिल पर फिर एक गाँठ पड़ गई ।

उसका दर्द बाँटने वाला कोई नहीं था । वह दिन पर दिन पत्नि की कमी बहुत महसूसने लगा था । सुनील का फोन आए बहुत दिन हो चुके थे । मदनलाल ने उसे फोन किया । औपचारिक हाल चाल के सिवाय और कोई बात नहीं हो सकी । उसने एक बार भी नही कहा कि पापा आप कुछ दिनों के लिए हमारे पास आकर घूम जाओ । मदनलाल सोचता कि सरकार ने रिटायर करके निकम्मा कर दिया । घर वाले उसे घर में देखना नहीं चाहते । सब्जी दूध लाना बाजार का काम करवाते हैं जो काम उसने कभी नहीं किए थे । पर फिर भी.... दुत्कार । तिरस्कार.. । आखिर वह कहाँ जाए अपना घर छोडकर.. । बहुत बड़ा सवाल था सामने... ।

पिछले ज़ख्म अभी सूखे भी न थे कि अचानक एक दिन सुबह नींद जल्दी न खुलने के कारण मदनलल दूध लेने नहीं जा सका । असल में सारी रात खाँसी ने उसे परेशान किया तो तड़के जाकर कहीं उसकी आँख लगी थी । उस पर बहू ने तो घर को सिर पर उठा लिया । अनिल जाकर पैकेट का दूध ले भी आया परन्तु बहू ने जली कटी सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । मदनलाल के दिल पर गाँठ पड़ने का सिलसिला इसी तरह चलता रहा । एक दिन बहू टी वी उठाकर अपने कमरे में ले गई । वहाँ ए सी में बैठकर टी वी प्रोग्राम देखने होते थे । वे लोग खाना भी वहीं खाते थे अब । मदनलाल खबरें भी न सुन पाता था अब । अपने लिए उसने एक ब्लैक एण्ड व्हाईट टी वी लाने की सोची । और सोचा कि करने दो बच्चों को अपनी खुशी ।

स्कूलों में छुट्टियाँ हो रही हैं । सुनील एक हफ्ते के लिए सपरिवार आ रहा है । मदनलाल को लगा जीवन में बहार कदम रख रही है । परन्तु.. तभी उन पर एक गाज गिरी । उनका बिस्तर लॉबी से उठाकर गराज...जिसमें कार कभी नहीं आ पाई थी.. में लगा दिया गया । वे फटी ऑखों से अनिल का मुँह तकने लगे । सकपकाकर अनिल झटपट बोला, “पापा भैया भाभी व बच्चे आ रहे हैं । बेडरूम में भाभी व भैया और लॉबी में बच्चे सोएँगे । यहाँ शान्ति है..आप चैन से सोना । आपको थोड़ा एडजस्ट तो करना पड़ेगा न ।”

रात की गाड़ी से सुनील का परिवार आ पहुँचा । जब औपचारिक हाल चाल पूछना समाप्त हुआ तो मदनलाल सोने गए । पापा को गराज में सोते देखकर सुनील का मन विचलित हो उठा । लेकिन वह किस मुँह से कुछ कहता । वह स्वयं तो पापा को ले जा नहीं सकता था । उसका फ्लैट छोटा था और बीवी बच्चों को अपने आप में रहने की आदत सी हो गई थी । फिर पापा की खाँसी की आवाज में वो सब रात को सोएँगे कैसे । यहाँ अनिल तो सुबह आठ बजे उठता और दस बजे आराम से दुकान पर जाता है । जबकि वह सुबह सात बजे नौकरी पर चला जाता है । सुनील को पापा से प्यार तो बहुत है लेकिन उसकी अलग तरह की मजबूरियाँ हैं । सो वह सब देखकर भी चुप रहा ।

दबे होंठों से एक दिन उसने इतना अवश्य कहा कि उसका गुजारा उस छोटे से फ्लैट में मुश्किल से हो रहा है । यदि उसे भी उसके हिस्से के पैसे मिल जाते तो...तो वो भी वहीं पर मकान ले लेता । इतना सुनते ही अनिल व उसकी पत्नि सारा दिन मुँह फुलाए रहे । खैर...वो लोग चले गए बिना किसी फैसले के ।

उनके जाने के कोई चार महीने बाद गर्मियों में अनिल सपरिवार अपने किसी मित्र व उसके परिवार के साथ पंद्रह दिनों के लिए शिमला चला गया । एक बार भी उसने पापा को साथ चलने को नहीं कहा । उसका मन रखने को ही कह देता । बल्कि जाते हुए वे दोनो बेडरूम बंद कर गए । गर्मी जोरों पर थी । हमेशा की तरह मदनलाल शाम की सैर के बाद अपने दोस्तों के साथ पार्क में बैठे सब याद कर रहे थे । बढ़ते धुंधलके के साथ साथ धीरे धीरे सभी मित्र अपने घरों को चले गए । इसके विपरीत मदनलाल आज चुप था । उसके भीतर की गाँठें इतनी ज्यादा हो गई थीं कि वो एक नया रूप धारण करना चाह रही थीं ।

वह सोचने लगा उसने इतना बड़ा घर अपने लिए बनाया था । अपने परिवर के सुख के लिए । आज उसी घर में उसी के लिए जगह नहीं बची । और न ही परिवार के नाम पर कोई व्यक्ति । तो फिर क्या है यह सब । ढेर सारी गाँठों ने मजबूत होकर एक लौह संकल्प का रूप धारण कर लिया । वह उसी पल वहाँ से एक प्रॉपर्टी डीलर के पास गया । उसे साथ लेजाकर अपना घर दिखाया । अब इस घर की कीमत डेढ़ करोड़ के करीब थी । एक हफ्ते में मदनलाल ने घर बेच दिया और पास ही किराए का एक मकान लेकर उसमें सारा सामान रखवा दिया । उस घर का एक साल का किराया साठ हजार पेशगी दे दिया । उसके बाद दुकान के पुराने नौकर को एक बंद लिफाफा पकड़ा दिया जिसमें नए घर की चाबी किराए की रसीद पाँच लाख रूपये का चैक और एक पत्र था । बड़े बेटे सुनील को भी पाँच लाख रूपये का ड्राफ्ट बनवा कर रजिस्ट्री भेज दी । स्वयं वह किसी को बताए बिना अनजानी मंज़िल की ओर चल पड़ा ।

शिमला से वापिस आकर अपने घर के बाहर किसी और के नाम की नेम प्लेट देखकर एकबारगी अनिल व बहू घबरा गए । घंटी बजाने पर सामने नए चेहरे थे । वे बोले..‘यह मकान हमने खरीदा है ।’ यह सुनते ही अनिल बदहवास सा दुकान की ओर दौड़ा । वहाँ नौकर ने उसके हाथ में वही लिफाफा पकड़ा दिया । उस में रखे पत्र को वह पढ़ने लगा.......

“प्रिय कहलाने योग्य तुम में से कोई भी नहीं है । सो सुनो मैं अपनी बची हुई ज़िन्दगी अपने पैसों से आराम से अपनी तरह से गुज़ारूँगा । मुझे ढूँढने का यत्न ना करना । तुम लोग करोगे भी नहीं..मैं जानता हूँ । मैंने मकान अपने नाम रखकर बहुत अक्ल का काम किया था । तुम भी अपने बुढ़ापे के लिए कुछ सोच लेना । क्योंकि इतिहास स्वयं को दोहराता है । धन्यवाद... ।

तुम लोगों ने ही मुझे स्वार्थ का पाठ पढ़ाया है ।”

तुम्हारा पिता

 मदनलाल

अनिल धम्म से वहीं बैठ गया । उसकी आँखों की कोरों से आँसू लुढ़क कर धरती पर गिर रहे थे । उसकी करनी का फल उसके सामने था ।

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पंजाबी कविताओं, लघु कथाओं की पुस्तकें छपने वाली हैं।

आत्म कथा "आईना और अक्स" प्रेस में है!

एक छोटी सी लघु कथा,    ...ममता की मारी

तीन-चार दिनों से बेटे का विदेश से फोन ना आने पर रमा को हर पल बेचैनी घेर रही थी । आखिरकार हार कर रमा ने व्हाट्सएप पर उसे कॉल कर ही दी। उधर से बेटे ने खीझ कर कहा ," क्या करती हो मां ? मैं काम निपटा कर सोने लगा था। बहुत रात हो गई है। थका हुआ हूं । सुबह ऑफिस भी जाना है।"

रमा ने छूटते ही कहा," सो जा बेटा, बस तेरी आवाज सुन ली है। चैन आ गया है ।"

और झट फोन बंद कर दिया।

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कहानी

डॉ. वीणा विज ’उदित’


समाधान

पल्लवी ने कॉलेज से आकर मेज पर किताबें पटकी तो उसकी नज़र घर की साफ सुथरी सज्जा पर ठहर गई । उसे लगा अवश्य ही कोई विशेष बात है जो घर को सजाया गया है । माँ को पुकारती वह रसोई की ओर चली गई । रसोई से आती महक से उसका शक यकीन में बदलने लगा । माँ नई प्लेटों में नाश्ते का सामान परोस रही थी । पल्लवी को देखते ही बोली, "आ गई । चल जल्दी से तैयार हो जा । वो नया गुलाबी सूट पहन ले । बहुत सुन्दर दिखती है तू उसमें ।"

"पर क्यों माँ", पल्लवी ने पूछा ।

"तेरी नीरजा मौसी के रिश्तेदार हैं । उनका बेटा पी.डब्ल्यू.डी.में एस.डी.ओ. के पद पर लगा है । वह किसी काम से यहाँ आया है । तेरी मौसी ने उसे हमसे मिलने को कहा । सो वह आ रहा है । क्या पता ...", और बात अधूरी छोड़ माँ काम में लग गई ।

यह सुनकर पल्लवी की आँखों के सामने तुषार का चेहरा घूम गया । एकदम सामने वाली कोठी में तुषार डा. वर्मा का बेटा मेडिकल का विद्यार्थी है । पल्लवी और तुषार दोनों ही एक दूसरे को किसी न किसी बहाने देखते रहते थे । रात में भी दोनों देर तक पढ़ते । पढ़ते हुए खिड़की तक आते और नज़रों से एक दूसरे को पढ़ने लग जाते । फिर दोना ही झेंप जाते । पल्लवी मुस्कुराकर, शरमाकर ओट में हो जाती व तुषार वहीं खड़ा मुस्कुराता रहता । दोनों एक दूसरे को पसंद करते थे । तुषार किसी न किसी बहाने पल्लवी के पापा के पास आता रहता, तो पापा भी उसकी तारीफ़ करते थकते नहीं थे । दोनों सुनहरे सपनों के जाल बुनने लग गए थे । पल्लवी बी.ए. फाईनल में तो तुषार एम बी. बी.एस.फाईनल में था ।

आज पल्लवी के प्यार की बेल परवान चढ़ने से पूर्व ही मुर्झाने चली थी । अपने माँ बाबा के ऊपर तीन तीन बेटियों का बोझ ...वो अच्छी तरह समझती थी । अनमने मन से उसने माँ का कहना माना कि तभी एक सरकारी गाड़ी उनके दरवाजे पर आकर रुकी । उसमें से एक सज़ीला, ऊँचे कद वाला, आकर्षक व्यक्तित्व का नौजवान बाहर उतरा । उसे देखते ही सबके चेहरे खिल उठे । माँ के तो खुशी व उत्साह से कदम ही धरती पर नहीं पड़ रहे थे । पल्लवी को चाय की ट्रे देकर भीतर भेजा गया । गेहुँए रंग की पतली, लम्बी और मृगनयनों वाली पल्लवी ने जैसे ही पलकें उठाकर धीरे से मुस्कुराकर, नमस्ते कहा, तो अरुण सब कुछ भूल उसे अपलक देखता ही रह गया । उसे लगा, वो उन नैनों के अथाह सागर में डूबता चला जा रहा है । अब उसका बाहर निकलना मुश्किल है । सबने उसके भाव पढ़ लिए । पापा गर्वित थे अपनी बेटी पर । उसी पल रिश्ता पक्का हो गया । आती सर्दियों में पल्लवी और अरुण का विवाह सम्पन्न हो गया । पल्लवी भी तुषार के आर्कषण से हट अरुण के प्यार में खो गई और अपने घर चली गई । तुषार मूकदर्शी बना अपने प्यार को लुटता देखता रहा ।

अरुण की नौकरी इन्दौर में होने से पल्लवी कुछ दिन सास ससुर के पास रुककर अपना नीड़ बसाने इन्दौर ही आ गई । अरुण तो पल्लवी की नशीली आँखों का दीवाना था । वह उसे भरपूर प्यार देता । तुषार ने प्यार की जो चिंगारी लगाई थी.उसमें प्यार की लपटें अरुण ने जलाईं । पल्लवी भी सब कुछ भूलकर अरुण के प्यार के रंग में पूरी तरह रंग गई थी । अरुण बहुत ही हँसमुख व साथ ही बुद्धिमान था । उसके साथी व अफ़सर उसे बहुत चाहते थे । पल्लवी को अरुण को पाने का गर्व था ।

पापा लिवाने आए तो वह मायके आई । पता चला कि तुषार भी एम.बी.बी.एस.में पास हो गया है । आगे पढ़ने विलायत जा रहा है । उसके पिता ने बताया कि अभी शादी के लिए वह नहीं मानता । पल्लवी ने उड़ती नज़रों से उसे देखा, ख़ास ध्यान नहीं दिया । अरुण तीसरे दिन आकर उसे वापिस लिवा ले गया ।

 पता ही नहीं चला कब पल्लवी और अरुण की शादी का एक साल बीत गया । सुख के दिनों के पर होते हैं, वे हवा में उड़ जाते हैं । उन दोनों को लगता जैसे वे जन्म-जन्म से साथ रहते हैं । तभी सासु माँ ने बुला भेजा । दोनों के पहुँचने से वहाँ आनन्द छा गया । दबे शब्दों में सासु माँ ने बताया कि साथ वाली शान्ति की बहू के ब्याहते ही पाँव भारी हो गए थे । साल हुआ है शादी को, गोद में बेटा है । पल्लवी ने कनखियों से अरुण की ओर देखा । अरुण झट बोला, "माँ, देश की आबादी पहले से ही ज्यादा है, थोड़ा सब्र करो तो ।"

"अरे ना," माँ झट बोली "हम ही बचे हैं क्या देश की चिंता करने को, ना लला हमें तो पोता चाहिए ।" अरुण हँस के बोला, "अगली बार ला दूँगा भई ।" यह सुन पल्लवी मुँह में पल्ला दबा लाज के मारे वहाँ से भाग गई । इस प्रकार सास की उम्मीदों को हवा दे वे वापिस लौट गए । जब भी वहाँ से फोन आता, उन्हें ख़्‍ाबर का इंतज़ार रहता । पल्लवी और अरुण के चाहने पर भी जब पल्लवी के पाँव भारी नहीं हुए, तो हारकर पल्लवी ने अपना डॉक्टरी मुआइना करवाने की अरुण से ज़िद की । डॉक्टर ने बताया कि सब कुछ नॉर्मल है । यूँ ही ताकत की गोलियाँ दे दीं । इसी ऊहापोह में दूसरा साल भी बीत गया । पल्लवी की हिम्मत ही नहीं होती थी, ससुराल जाने की । पर...जाना तो था ही आख़िर....

अब की बार सासु माँ ने देसी टोटके कराए । गरम तासीर की चीजें बनाकर खिलाईं । पंडित से धागा भी लाकर उसको बाँधा । पर फिर भी बात नहीं बनी । पल्लवी खोई खोई सी रहने लगी । माँ पिता जी ने बुला भेजा, सो मायके जाना हुआ । धीरे से माँ ने कहा कि अरुण को भी अपना टेस्ट करवाना चाहिए । लेकिन अरुण से यह बात कहे कौन । पल्लवी को अचानक तुषार की याद आई । दो साल में विदेश से एम.डी. कर के आने के बाद तुषार ने यहीं प्रैक्टिस शुरू कर दी थी । अरुण जब पल्लवी को वापिस लिवाने आया तो पल्लवी ने प्यार से उसे अपना टेस्ट करवाने को कहा, तो अरुण एकदम मान गया । वह बात को समझता था ।

डॉ तुषार ने जब पल्लवी और अरुण को अपने क्लीनिक पर देखा तो बहुत प्यार से मिला । तुषार अपने सपनों की देवी को सामने देख भीतर ही भीतर दर्द से छटपटा उठा था । वह पल्लवी को भूल नहीं पाया था । पल्लवी ने भी तुषार की आँखों के दर्द को पढ़ लिया था, पर वो ऊपर से मस्त बनी रही । अरुण ने टेस्ट करवाया । तुषार ने कहा वह शाम को घर आते हुए रिपोर्ट लेता आएगा । एक बार और पल्लवी को देखने का लालच वह छोड़ नहीं पाया । शाम को आकर उसने बताया कि सब नॉर्मल है । अरुण व पल्लवी अगले दिन वापिस चले गए । .सब कुछ ईश्वरेच्छा पर छोड़ दिया गया ।

इसी बीच पल्लवी की छोटी बहन वैष्णवी का विवाह तय होने पर, तकरीबन छै: महीने बाद ही पल्लवी का पुन: मायके आना हो गया । माँ अकेले शादी की तैयारी नहीं कर सकती थी, इसलिए पल्लवी एक महीने के लिए रहने आ गई थी । खैर, एक दिन किसी सहेली के जाते जाते उसने रिक्शा तुषार के क्लीनिक की तरफ मुड़वा लिया । तुषार अचानक उसे सामने देखकर अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर पाया । कुशल क्षेम के पश्चात्‌ उसने पूछा कि कैसे आना हुआ । पल्लवी ने बताया कि छै: महीने बीत गए हैं, पर कोई बात नहीं बनी । इस पर तुषार ने जो भेद खोला, उसे जानकर तो पल्लवी के पैरों के तले से ज़मीन ही खिसक गई । "अरुण कभी बाप नहीं बन सकता ।" इतना सुनते ही वह रोने लगी । वह नाराज़ हुई कि तुषार ने उन्हें धोखे में क्यों रखा । तुषार ने कहा कि वो अरुण को ठेस नहीं पहुँचाना चाहता था, पर उसे अवश्य बताना चाहता था । लेकिन मौका ही नहीं मिला, और वह चली गई थी । बहुत अच्छा हुआ जो आज वह उसे मिलने आ गई है ।

घर वापिस आकर पल्लवी चुपचाप कमरे में गई व बिस्तर पर औंधी पड़ी देर तक रोती रही । उसे लगा, अब माँजी अवश्य अरुण की दूसरी शादी करवा देंगी । पीर बाबा की तावीज बाँध कर भी कुछ फल नहीं मिला । माँ भी ज्योतिषियों के चक्कर लगाकर दान पुण्य करवा चुकी है । सभी चिन्तित थे उसके लिए । उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, कहाँ जाए । पल्लवी का जीवन तो अरुण के बिना खतम ही है । फिर भी अरुण की बात को उसने अपने तक ही सीमित रखा । किसी से कोई बात नहीं की ।

अगले दिन टी.वी.पर सभी महाभारत देख रहे थे । राजा शान्तनु के पुर्नविवाह पर जब भीष्म ने प्रतिज्ञा की कि वे आजीवन विवाह नहीं करेगें, और दूसरी रानी के दोनों पुत्रों की मृत्यु हो जाने पर उनकी पत्नियों को महारानी अपने विवाह पूर्व के ऋषि पुत्र से सम्भोग करवाकर क्रमश: पांडु, धृतराष्ट्र और दासीपुत्र विदुर को प्राप्त करती है....तो यह देखकर पल्लवी अन्दर कमरे में जा विचार में डूब गई । सारा दिन सर दर्द का बहाना कर वो किसी से नहीं मिली । 

सोमवार को वह माँ से अरुण के किसी काम से किसी से मिलने का बहाना कर दो तीन घंटे में आने का कह तुषार के क्लीनिक पहुँच गई । तुषार पुन: उसे वहाँ देख प्रसन्न व साथ ही चकित भी हुआ । भीतर ले जाकर उसने इत्मीनान से पूछा कि कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं हो गई । पल्लवी ... कुछ देर तक मुँह से कुछ नहीं बोली । अपलक उसकी आँखों में देखती रही । उस नज़र को नज़रन्दाज़ करते हुए वह उसे पानी पूछ रहा था । पर वह...कुछ नहीं सुन रही थी । अचानक उसने कस कर तुषार के दोनों हाथ पकड़ लिए । वह फफक फफक कर रोने लगी..... "तुषार, मुझे बचा लो, मेरी गृहस्थी को बचा लो । मैं अरुण के बिना नहीं रह सकती । मुझे इस घनघोर अंधेरे में केवल एक ही प्रकाश की किरण दिख रही है । वो ......तुम हो ।"

तुषार अचानक उसे भावुक देखकर घबरा उठा । उसने बहुत ही दुलार से पल्लवी के हाथों को अपने हाथों में ले लिया । मानो वे बेशकीमती हों, कहीं हल्का सा धक्का लगने से चूर चूर न हो जाएँ । स्नेह से बोला कि उसकी तो जान भी हाजिर है पल्लवी के लिए । वह बात तो बताए । पल्लवी ने जो कुछ कहा उसे सुनकर तुषार झटके से खड़ा हो गया । मानो बिच्छु ने डस लिया हो । नैतिकता को ताक पर रखकर पल्लवी ने अपनी डूबती जीवन नैय्या के लिए एक तिनके का सहारा ’ढा था । उसने तुषार से एक बच्चे की माँग की......... । एक सम्भोग की माँग......... ।

इसी से वो अपने पति की प्रेयसी व अर्द्धांगिनी बनी रह सकती है । उसे बुल्लेशाह की क़ाफ़ी याद आई....जिसमें यार की ख़ातिर वो कंजरी बनने को तैयार थी, "नी मैं यार मनाना नी, चाहे लोग बोलियाँ बोले"....कितना दीवानापन है न... । पल्लवी भी आज अपने अरुण को किसी भी हालत में खोना नहीं चाहती । तुषार पल्लवी का अरुण के प्रति प्रेम व आसक्ति देखकर दंग रह गया । और....इसके बाद वे दोनों जीवन में कभी..भी नहीं मिलेंगे ... व यह राज़ दोनों के सीने में दफ़न हो जाएगा । यह वादा हो गया ।

वैष्णवी के विवाह पर अरुण व उसके परिवार के सभी लोग आए । पल्लवी भी खुशी खुशी काम में लगी रही । वापिस जाकर कुछ दिनो बाद सुबह उठते ही पल्लवी का जी मचलाया और उल्टी आई । अरुण उसे डॉ. के पास ले गया । डॉ. ने अरुण को बधाई दी । अरुण ने पल्लवी पर चुम्बनों की बारिश कर दी । माँ को झटपट फोन लगाया । माँ तो फोन पर खुशी से रोने ही लग गई । अरुण ने माली से ढेरों लाल गुलाब मँगवाए । पल्लवी को पलंग पर बैठा उस पर फूलों की वर्षा करता वह थकता न था । और....और पल्लवी अपने अरुण को इस कदर प्यार करते व खुशी से पागल होते देख मुस्कुरा रही थी । उसकी आँखों में भी संतोष के दो आँसू ढुलके और फूलों की पंखुड़ियों में समा गए ।

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ग़ज़ल ....

दिल के परवाज़ की सिसकी

सुलगते धुंए में लिपटी

ख़ाक होते ख़्यालों को

नींद की आगोश मिले कैसे...?

पलकें पत्थर का बुत हुईं

हरकत हो तो झपकें

उनींदे हो चुके ख़्वाब

अपने होने का गुमां करें कैसे...?

रेशमी सिलवटों पर चला

करवटों का सिलसिला

ख़्याल पंखों पर उड़ते रहे

रात का आलम मुके कैसे...?

आंखों का आंचल बोझिल

स्पंदन करने को आतुर

धुएं के अंबार छाए 'वीणा' ऐसे

कहर की रात ढले कैसे...?

वीणा विज 'उदित'

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कहानी


डॉ. वीणा विज ’उदित’


सलेटी बदलियां

वादी में आए दिन हो रही वारदातों को सुन- सुनकर भय से जकड़े मन के दरीचे मानो सुबह की स्वर्णिम आभा से कुछ खिल से गए थे । सलेटी बदलियों से छाया अंधकार छंटता दिखाई दे रहा था, तभी तो ताहिरा की अम्मी हाथों में नुन चाय(नमकीन चाय) और गिर्दा (तंदूरी छोटी रोटी) लेकर आई और गहरे काले रंग के चट्टान नुमां पत्थर पर बैठ गई जहां उसके खाविंद अपने ख्यालों में गुम बैठे हुए थे । हवा में साथ बहते दरिया के पानी के शोर के साथ – साथ उनकी चाय की चुस्कियों का स्वर भी घुल रहा था । श्रीनगर से पहलगाम जाते हुए वहां पहुंचने से तकरीबन 10- 11 किलोमीटर पूर्व ही पहाड़ की तलहटी में दरिया किनारे सौ डेढ़ सौ घरों से आबाद एक छोटा सा गांव है “बटकुट”, जहां हर घर की खिड़की खुलते ही नदी का शोर भीतर के हर हिस्से पर अपना आधिपत्य जमा लेता है । पहाड़ी की ढलान पर कुछ पक्के घर जिनकी खपरैल व टीन की छतें हैं, अपने – अपने खेतों की हरियाली के मध्य सजे खड़े हैं । वहीं सांप सी रेंगती सिलेटी रंग की सड़क पहाड़ों के घनत्व को अपने से बांधती उत्तर की ओर पहलगाम यानी कि आखिरी पड़ाव तक बढ़ रही है । इसी सड़क के बाएं ओर घनी बस्ती है । तराई में बसी इस बस्ती के बाएं ओर लिद्दर दरिया पहाड़ों से गिरता-पड़ता आकर कुछ पल का चैन पाता है । फिर आगे बढ़ जाता है शोर मचाते हुए । बस्ती का पश्चिमी सिरा इसी दरिया की मस्त धाराओं से घिरा रहता है । वहां खेत ही खेत हैं, जिनके बीच-बीच में पक्के घर बने हुए हैं । खेतों की बाड़ के साथ-साथ “यईड़”( विलो ) के ऊंचे- ऊंचे वृक्ष हर खेत की शोभा हैं, जो हवा के साथ डोलते रहते हैं । इनकी पतली लंबी पत्तियां धूप में चांदी सी चमकती, हवा में लहराती अनुपम सौंदर्य बिखेरती हैं । कई खेतों की हदें पेड़ों की डालियों, टाट के टुकड़े, टीन के टुकड़े, लकड़ी के फट्टों और भारी-भरकम वादी के पत्थरों से भी बनी हैं । वहां सड़क किनारे पहाड़ों की तलहटी पर कई खेतों के किनारे अखरोट के पेड़ बहुतायत में हैं । यहां तक कि सड़क के किनारे घनी छांव देते अखरोट के पेड़ों तले कश्मीरी बालाएं और युवतियां बैठ कर गपशप कर लेती हैं । अखरोट के पेड़ किसी ना किसी की मिल्कियत होते हैं सो आम जनता इनको फलों से लदा देख कर भी किसी और के अखरोट नहीं तोड़ती । यह वहां का आम चलन है । बस्ती के करीब दो फर्लांग पहले ही “दारु -उल- उलूम” मदरसा है । यहां बच्चों को उर्दू व फारसी की आयतें पढ़ाई जाती हैं, और कुरान शरीफ की तालीम दी जाती है । फिज़ा में अच्छा खासा अमन-ओ-चैन है— कुदरत से मेल खाता । लेकिन 27 साल पहले जब से उग्रवाद ने कश्मीर में अपने जबड़े फैलाए हैं तब से आम जनता ज़हनी तौर पर डरी – डरी रहती है कि ना जाने कब यह भयंकर जबड़े उन्हें भी चबा डालेंगे … क्या मालूम? और वो किस शक्ल को इख़्तियार करेंगे ? मसलन, घर से नव जवान लेकर, जवान लड़की लेकर, धन दौलत लेकर या कोई और जुल्म ढा कर? वो भी जिहाद के नाम पर ! जबकि सच्चा जिहादी वही है जो भीतर के शैतान से जिहाद करता है । कुरान-ए-शरीफ का तो यही असूल है । लेकिन मुंह खोल कर कोई भी इस विषय पर नहीं बोलता हां, अलबत्ता उनकी रूह डरी और सहमी सी रहती है कि ना जाने कब यह लोग उनकी औलादों को बंदूक की नोक पर सरहद पार ट्रेनिंग पर ले जाएंगे और उनके पाक हाथों में “ए के ४७ ” थमा कर उग्रवादी बना देंगे !! सारी की सारी वादी स्वर्ग सी सुंदर होते हुए भी अपने सिर पर इन सलेटी बदलियों की छाया देखकर भीतर ही भीतर कराह रही है । हर शख्स यहां सच्चा मुसलमान बना फिरता है— पांच नमाज़ें पढ़कर और खासकर जुम्मे के जुम्मे मस्जिद में हाजिरी देकर अपने इर्द-गिर्द घूमते अनजाने दहशत गर्दों से बचे रहने का भरसक यत्न करता है । गुलबाबा एक पाक़ बंदे हैं खुदा के । वह भी सारे रोज़े रखते हैं हमेशा से ही । लेकिन हालात बिगड़ते देख कर वे मायूस हो बैठे रहते थे किसी सोच में डूबे ! हसीना बानो उन्हें कभी छोड़ती नहीं थी कि वह क्या और क्यों इतना सोचते हैं । आज भी हसीना बानो नुन चाय की चुस्कियां लेती गुपचुप बैठी रही पास । बस्ती से दो फर्लांग से भी पहले गुल बाबा ने चार एकड़ के सेबों के बाग के बीचों बीच अपना पक्का मकान बनाया हुआ है । पहाड़ के दामन से लेकर दरिया तक का कछार बहुत मीठे फल देता है । साथ ही घर के पीछे किचन गार्डन बनाया हुआ है । हसीना बानो का हसीन ख्वाब है वह सब्जियों का बाड़ा । बस्ती में तो आठ -दस दुकानें हैं रोजमर्रा की खरीदारी करने को एक ओर, बाकी मदरसे के पास पेंट की और गैस की दुकान भी है । एक बैंक भी है जिससे आगे है टीन का लाल छत वाला अधूरा मकान जिसकी बाउंड्री की टीन की खड़ी चादरों पर” एयरसैल ” ‌‌वालों ने अपने विज्ञापन छापे हुए हैं । जब 2014 में कश्मीर में बाढ़ आई थी तो केवल यही काम कर रहा था । मानो घर -घर पर अपना नाम लिखकर आड़े वक्त में उसने लोगों का साथ निभाया था । ख़ैर, काफी छाया है “एअरसैल” का नाम यहां पर । गुल बाबा के मकान के पीछे की ओर पहाड़ी नदी ढलान पर उतरती हुई कई बार रुख़ बदल लेती है । सो, उसकी तीन धाराएं बह रही है थोड़ी थोड़ी दूरी पर । 

उनके बीच की जमीन के टुकड़ों पर “यीड़” के पेड़ भरे हुए हैं । ये छोटे-छोटे नदी के द्वीप हैं । सूर्य की सीधी रोशनी पड़ने से पानी के साथ लुढ़कते आते पत्थरों से इन द्वीपों के तट चमचम चमकते हैं और इस ओर पानी का शोर भी तिगुना हो जाता है । घर में टीवी भी जोर से लगाना पड़ता है, नहीं तो दरिया का शोर ही अपना राग अलापता रहता है । दरिया के उस पार एक मील पर “मोहरा” गांव से गुल बाबा अपने बेटे सालिक के लिए बहू लाए थे शाजिया । वह बहुत सुंदर और सुशील थी । उसके आ जाने से ताहिरा को भाभी के रूप में सखी मिल गई थी । वह उसकी पढ़ाई में भी मदद करती और दोनों हाथ में हाथ डाले बाग़ की सैर भी करतीं । यहां तक कि दोनों लेट कर टी वी भी साथ ही देखतीं । इन दोनों को हंसी-ठिठोली करते देखकर अम्मी- अब्बू के चेहरे भी खिले रहते थे! सालिक “चेनानी हाइडल प्रोजेक्ट” में सरकारी नौकरी में था । वह घर आने के बहाने ढूंढता रहता और नई नवेली दुल्हन के साथ वीकेंड मनाने आता था । ताहिरा अभी पंद्रहवें साल में थी और “ऐश मुकाम” में बस द्वारा आठ मील दूर स्कूल जाती थी । ईद की छुट्टियां थीं । सालिक ईद पर घर आया हुआ था । सुबह उठकर उसने अम्मी अब्बू से कहा हम तीनों पहलगाम जा रहे हैं अपनी मारवती में (मारुति में) और रात किसी होटल में ठहर कर कल शाम को वापस आ जाएंगे । गुलबाबा ने खुशी-खुशी हसीना बानो को हिदायत दी कि बच्चों को टिफिन तैयार कर दो दरिया किनारे बैठ कर खाएंगे । ताहिरा दौड़ी आई और अब्बू के गले में झूल गई उनकी लाडो उनकी कमजोरी थी और उसे Rs. 100 का नोट पकड़ाते हुए बोले ढेर सारे आइसक्रीम के कोन खाना यह ले और दो घंटे में वे तीनों निकल गए पिकनिक पर । मौसम खुला था बाग में पेड़ों को देखते रहे —अभी छोटा-छोटा फल आया था । शाम ढले भीतर आ अपनी गद्दी पर बैठे और हुक्का सुलगवा लिया । हसीना बानो कश्मीरी गीत गुनगुनाती चूल्हे पर खाना बना रही थी । सालिक के आने से उसका सारा का सारा ममत्व खाना बनाने में दिखाई देता था । ढेर सारा रोगन जोश पक रहा था भत्त (चावल) और कड़म के साग के साथ चिकन बनाया गया था । दोनों ने खाना खाया और गुलबाबा पुनः अपनी मसनद के सहारे बैठ हुक्के की नीलचा को मुंह में डाले, गुड़गुड़ाने लगे । उन्हें लगा सेंक कुछ कम है वह नशा नहीं बन रहा तो थोड़ा तंबाकू डाल, दो दहकते अंगारे चूल्हे से हुक्के की चिलम में और डलवाए, फिर बैठ गए गुड़ गुड़ाकर सूटे लगाने । अपने परिवार में व्याप्त हंसी खुशी देख अपनी किस्मत पर वह स्वयं ही रश्क कर उठे । हसीना बानो से बोले जा रहे थे लेकिन वह तो उनकी बातों की लय में -हूं… हां करती कब नींद के आगोश में जा थमी, उन्हें पता ही नहीं चला । उन्होंने उस पर नजर डाली और मुस्कुराकर स्वयं भी बड़ा सा मुंह खोलकर जम्हाई ली, हुक्का हटाया और उसके हमबिस्तर हो गए । ठंडी जमीन पर पहले तिरपाल बिछा, उस पर कंबल, फिर दरी और उस पर नमदा (गर्म ऊनी कालीन) बिछाने के बाद बिस्तर लगता है कश्मीरी घरों में ! पलंग का रिवाज तो शहरों में अब चालू हो गया है । जूते- चप्पल घर के भीतर लाए ही नहीं जाते सो कालीन बिछे रहते हैं । ज़्यादातर कुशन दीवार के साथ रखे रहते हैं । गुल बाबा और हसीना बानो भी प्रथम पहर की गहरी नींद की एक झपकी अभी ले भी ना पाए थे कि बाहर से सांकल खटखटाने की जोर- जोर से आवाजें सुनाई दीं । दोनों ही नींद की कगार से बाहर निकल घबराए, ‘हे अल्लाह, रहमत करना हमारे बच्चों पर ।’ हंसी ना बानू ‘ला, इल्लाह – इल्लाह अस्तक -फ्रू- अल्लाह ‘ कलमा पढ़े जाने लगी । गुल बाबा ने किसी भावी आशंका में दरवाजे की ओर क़दम बढ़ाए क्योंकि आज बच्चे जो बाहर गए थे —उसे उनके साथ कुछ अनहोनी घटने का भय था! ख़ैर, जैसे ही अंदर से कुंडी खोली तो किवाड़ खुलते ही सामने बड़ी-बड़ी बंदूकें थामें कुछ लोग उसे भीतर की ओर धकेलते घर के भीतर घुस आए । हसीना ने बत्ती जला दी थी तब तक । रोशनी में अपने खाविंद(पति) ‌को पिस्तौलों से भीतर धकेलते कुछ अनजाने लोगों को देखकर वह ज़ोर से चीखी और थर-थर कांपने लगी । तभी पीछे से एक बंदूकधारी ने आगे बढ़ अपना गंदा बदबूदार हाथ उसके मुंह पर रखकर उसकी आवाज बंद कर दी । वैसे भी उस बियाबान में व घर में भी कोई और व्यक्ति ना होने के कारण उस बेचारी की चीख़ दरिया के पानी के शोर में दब कर रह गई थी । तीसरा बंदूकधारी बड़े रूआब से सब को पीछे से भीतर धकेलता गुर्राया, ” जल्दी कर, कुछ खाण को रख । बहुत भुक्ख लगी है ।” वे तीनों पहनावे से अफगान लग रहे थे । 

उनका रंग रूप डील – डौल लंबा ऊंचा था और पहरावा कश्मीरी उग्रवादियों या जिहादियों से अलहदा था । मज़हब के लिए मर मिटने का जज़्बा तो कहीं था ही नहीं । यह दहशतग़र्द सरहद पार के लग रहे थे । ख़ैर, हसीना बानू को क्या खबर थी कि आज वह इतना स्वादिष्ट ढेर सारा सालण (खाना) इन अल्लाह के बंदों के लिए बना रही थी ! भूखे की भूख मिटाना तो सवाब ‌है । यह सोचकर उसने बुझे मिट्टी के चूल्हे में फटाफट बालण डालकर पीपणी से फूंक मारी । आग भकाभक जल पड़ी और उसने चावल चढ़ा दिए । साथ ही लगी आधी अंगीठी के सेंक पर सालण गर्म करने को रख दिया । भूख की बात सुनकर गुलबाबा भी संयत हो गए थे । वे आगे बढ़कर तीनों के हाथ धुलवाने लगे । खौफ ज़दा होते हुए भी बहुत सलीके और इज्जत से हसीना बानो ने स्टील की थालियों में उन्हें भत्त और भेड़ू के गोश्त का सालण परोसा । वे आपस में पश्तो में कुछ बातें कर रहे थे । खाना खत्म होने पर हाथ धुलवाए । तीनों ने हुक्के की चिलम फिर सुलगवाई और बारी-बारी से कश ‌खींचे । जोर से डकार लेते हुए तीनों ने अपनी बंदूकें कंधों पर डालीं । आंधी की तरह वे आए थे तूफान की तरह घर से बाहर निकल गए । शायद दूर अंधेरे में पेड़ों के झुरमुट में उनकी गाड़ी खड़ी थी छिपी हुई, क्योंकि रात के सन्नाटे को चीरती उसके स्टार्ट होने की आवाज आई और फिर गुम हो गई । उनके बाहर जाते ही गुल बाबा ने सांकल लगाई और ऊपर वाले का शुकराना किया । हसीना बानो तो जलता चूल्हा वैसा ही छोड़कर उनसे आकर लिपट गई थी । अब दोनों खुदा का शुक्र कर रहे थे कि इतने में ही बच गए । वह सुना करते थे कि उग्रवादी या जिहादी सरहदी इलाकों में आधी रात को खाने – पीने वहां के घरों में आया करते हैं । और रात का अंधकार बढ़ते ही यह दहशत वहां के घरों में समाई रहती थी । लेकिन आज की रात उनके साथ यह वाक्या गुजरा तो उन्हें उन लोगों का दर्द पता चला । दोनों लिहाफ ओढ़े बैठे रह गए थे । नींद तो कोसों दूर चली गई थी । पास की मस्जिद से अज़ान की आवाज आई तो नमाज़ अदा कर शायद बैठे-बैठे दोनों ने एक झपकी ले ली । मानो खुदा ने अपनी रहमत का हाथ उनके सर पर रखा हो । अब सुबह की स्वर्णिम बेला में दोनों के दहशत से जकड़े मन के दरीचे कुछ खुल गए थे । दोनों ने तय किया कि गुज़िश्त रात (बीत गई) का ज़िक्र वे कभी भी, किसी से भी नहीं करेंगे । दोनों ने इस घटना पर मुंह सी लिया । खुदा की बंदगी करी कि खुदा ने उन दरिंदो से अपने बंदों को अपनी रहमत में ले लिया था । उधर दिन बीता तो शाम ढलते ही तीनों बच्चों की कार आ गई । उनके उल्लासित चेहरों पर खुशियां बिखरी देखकर यह दोनों भी खूब खुशी जताने लगे । बच्चों को लगा कि अम्मी – अब्बू भी पीछे से खूब मस्त रहे । उनकी बनावटी हंसी ज्यादा ही बिखर रही थी क्योंकि जब हम किसी से कुछ छिपातें हैं तो कुछ ज्यादा ही दिखा जाते हैं । 

ख़ैर, अगले दिन सालिक को वापस ड्यूटी पर जाना था, उसे हंसी- खुशी सब ने विदा कर दिया । जिंदगी आम चल पड़ी । शाजिया और ताहिरा आपस में चुहलबाज़ी कर रही थीं । अपने पहलगाम ट्रिप से बेहद उत्साहित हो ताहिरा अम्मी- अब्बू को भी ढेरों किस्से सुनाती रही । ” चार बार आइसक्रीम कोन खाए और अब्बू के पैसे बचा लाई ।” कहकर उसने अब्बू का सौ का नोट उन्हें दिखाया । अब्बू की दुनिया उनकी बेटी में समाई हुई थी ! शैतान ! कहकर वे हंस दिए । दो-चार दिनों में दहशत की संजीदगी थोड़ी हल्की पड़ गई थी । मानो एक बुरा ख्वाब डरावना – सा आया था, जिसकी तासीर अब मिट गई थी । दोबारा से नींद ने आंखों में बसर कर लिया था । पहले की तरह ही जीवन अपनी धुरी पर चल पड़ा था कि 10 दिनों बाद फिर रात के भयावह सन्नाटे को चीरती वैसी ही सांकल की ठक-ठक दरवाजे पर हुई । गुल बाबा और हसीना बानो के काटो तो खून नहीं । हसीना बानो ने वहम के मारे जरूरत से ज्यादा खाना बनाना ही बंद कर दिया था कि कहीं वे फिर ना खाने आ जाएं । बेटी और बहू एक ही कमरे में टीवी पर अपना पसंदीदा प्रोग्राम देख रही थीं । भीतर टीवी का शोर बर्फीले पहाड़ों से उतरते दरिया की चीखती आवाज में गुम था । बर्फीले पहाड़ों के पीछे सूरज के सरकते ही मानो ठंड से कांपते बदन, जमीन और आसमां भी थम कर शांत हो जाते हैं, सो ऐसे ठहरे हुए सन्नाटे में ठक ठक की थाप…! गुलबाबा ने अपना लिहाफ फेंका और लपक लिए दरवाजे की ओर । दहशत से स्नायु वेग की अधिकता थी व हाथों में कंपन ! शुबहा सही निकला, सामने वही दरिंदे थे । छै: फुट ऊंचा आदमी सलवार- कुर्ते के ऊपर वास्केट पहने हुए, हाथों से कंधे की ए के-47 राइफल संभाले मैला- कुचैला साफा बांधे हुए गुल बाबा को धकेल ता हुआ भीतर आते ही बोला, ”कहां है तेरी जनानी ? उसनूं बोल खाण लई दस्तरखान लगाए । उसके पीछे वही दोनों उसके साथी थे । बोले उन्हें बड़ी भूख लगी है । हसीना बानो झट से सिर पर कपड़ा बांध चूल्हे की ओर दौड़ी । भत्त बनाने को और पिछले भीतरी चूल्हे की लपटों पर कड़म का बैंगन वाला साग जो बचा था, गर्म करने को रख दिया । खाना बनाने में समय लगता देखकर वे भीतर की ओर चल पड़े । यह देख, गुलबाबा ने उन्हें रोकना चाहा तो उन्होंने गुल बाबा को जोर का धक्का देकर पीछे धकेला । इस उठा -पटक की आवाज को सुनकर ननद भाभी ने पलट कर अपने दरवाजे की ओर देखा, तो उन लोगों को सामने देखकर उन दोनों की चीखें निकल गई । और वह एक दूसरे से भय के मारे लिपट कर रोने लगीं । वह चिल्ला रही थीं “अम्मी! -अब्बू”! उधर टी वी की आवाज में उनकी चीखें दूध में पानी सी घुली जा रही थीं । वे सरकती हुई पीछे की ओर दीवार भेदकर उस में समाने का यत्न करने लगीं और कि तभी लार टपकाते वहशी दरिंदे वापस मुड़ आए । वे बाकी कमरों में भी जांच पड़ताल करने गए —वहां और कौन हैं ! और उधर चूल्हे की आग उनकी उदराग्नि को मिटाने के लिए तत्पर थी । बेचारी हसीना बानो की आंखों से घबराहट, डर और दु:श्चिंता के कारण आंसू बहे जा रहे थे । हाथों से बर्तन छूट रहे थे । वह खुदा की बंदगी में कलमा पढ़े जा रही थी । ‘ला -इला-ह- इल्लाह अस्तक -फ्रू- अल्लाह'( हे खुदा मेरे गुनाह बख्श)! वे तीनों अब अपनी नकाब हटा चुके थे । उन्हें समझ आ गया था कि यहां कोई खतरा नहीं है । गुल बाबा दस्तरखान बिछा रहा था और सोच रहा था कि कैसे इन बद्जातों की आंखें नोच ले, जो उसके घर की इज्जत पर उठी थीं । धिक्कार रहा था वह अपने नेताओं को, जो शुतुरमुर्ग बने बैठे थे । जिन्हें आम जनता पर हो रहे जुल्म का इल्म होते हुए भी, चैन की नींद आ जाती थी । सी आर पी एफ जगह-जगह तैनात थी, फिर भी बाहरी ताकतें घाटी में क्रियाशील थीं । ढेरों उग्रवादी संगठन थे जैसे हिजबुल मुजाहिदीन, जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, हुर्रियत नेता ऑडी जिन्होंने कश्मीर घाटी को लूटा हुआ है । राष्ट्रीय राइफल्स के आने से कुछ फर्क पड़ेगा, लोग सोचते थे । पर कहां है अमन…? उधर दोनों लड़कियों ने डर के मारे भीतर से कुंडी बंद कर ली थी, लेकिन रो-रोकर बुरे हाल थे उनके । यह इलाका सुनसान था, बस यही गलत था । ख़ैर, खाना परोसा गया उन्होंने खाना खाया । डकार लेकर उठे और बंदूक की नोक पर गुल बाबा को कहा, ” तुम बाहर खड़े होकर पहरा दो, हमने चिलम के कश लेने हैं ।” गुलबाबा ने सोचा कि ये लोग पहले की तरह चले जाएंगे । सो, वह बाहर खड़ा हो गया । उन्होंने भीतर से कुंडी लगाई और हसीना बानो से शाजिया और ताहिरा के कमरे की कुंडी खुलवाई । इन तीनों ने उन तीनों औरतों के हाथ-मुंह वहां रखे दुपट्टों से बांध दिए । और एक-एक को लेकर तीनों एक-एक लिहाफ में घुस गए । उधर गुलबाबा इस घटना से बेखबर अपनी लाचारी पर स्वयं के बाल नोच रहा था । अपनी छाती पर दोहत्थड़ मारता हुआ बुदबुदा रहा था, “हे खुदा मुझे मर्द क्यों बनाया? मुझ में इनसे मुकाबला करने की हिम्मत बख़्श या अल्लाह रहम कर!” वह दरवाजा खटखटाने लगा जोर- जोर से । भीतर तो कोई नहीं सुन रहा था, अलबत्ता बाहर सड़क पर निकली गश्त की टुकड़ी ने कुछ सुना और आवाज की ओर राष्ट्रीय राइफल्स के 10 जवानों की टुकड़ी चुपचाप वहां आ पहुंची । आते ही कैप्टन ने पूछा, “भीतर कौन है ? क्या बात है? तुम डरे हुए हो और बाहर क्यों हो ? मानो खुदा ने गुल बाबा की फरियाद सुन ली थी । वह बोला, ” जी, भीतर घर की औरतें सो रही हैं और ररर…रो पड़े !” इतना सुनते ही गुल बाबा के हाव भाव से मामला संदिग्ध जानकर किसी तेज औजार से उन्होंने दरवाजा खोल लिया और बिना एक मिनट गंवाए, दबे पांव से वे बारी- बारी भीतर घुसे । सामने पड़ी तीन ए के 47 राइफल्स देखकर एक्शन में आ गए पहले तीनों राइफल्स कब्जे में करें फिर जो कन्ने हो इशारे से भीतर झांकने लगे देखते हैं कि 3 लिखा बिना आवाज की डोल रहे हैं स्पीड में मामला समझने में देर नहीं लगी और उसी शान उन तीनों ही हाथों को गोलियों की बौछारओं से छलनी कर दिया गेहूं के साथ घुन भी पिस गया गुल बाबा पीछे खड़े सब देख रहे थे उनकी शान से मानो वही थम गई थी आंखें फाड़े वह जो मंजर देख रहे थे अपने आशियाने के लूटने का …वह बयां होना मुश्किल है! वे वहीं निढाल हो जमीन पर गिर गए । जब जवानों को तसल्ली हो गई कि काम हो गया है तो कुछ एक ने आगे बढ़कर उनके लिहाफ नीचे की ओर सरकाए । उस एक पल के नजारे ने दुनिया के सारे रब्ब, भगवान, वाहेगुरु… को वहशी इंसानों की दरिंदगी पर शर्मिंदा कर दिया । गोलियों से सब के अंग -प्रत्यंग छितरे पड़े थे बहते आते लहू के दरिया में!!! वज्र प्रहार से तो अभेद्य चट्टानें भी टूट कर बिखर जाती हैं— फिर यह तो गुल बाबा का दिल था, जो इस भीषण आघात से क्षत-विक्षत हो विदीर्ण हो गया था । उनका दिल विद्रोह कर उठा ।उन्होंने जवानों के जाते ही बकरा हलाल करने वाला चाकू उठाया और भीतर जाकर उन तीनों दरिंदों के सिर एक झटके में उनके धड़ से अलग कर दिए और अट्टहास कर कर उठे जोर-जोर से । इस वक्त वह एक सताया हुआ इंसान था ना कि हिंदू या मुसलमान! खून से लथपथ तीनों मुंडो ( सिरों ) को हाथों में उठाए —स्वयं भी खून से भीगते हुए, वह बस्ती के चौंक की ओर भागे । चौराहे पर उन तीनों के मुंड फेंक कर वह जोर-जोर से अल्लाह -हो- अकबर, अल्लाह -हो-अकबर पुकारने लगे । दर्द में भीगी चीखती आवाज सुन बस्ती के सारे दरवाजे और खिड़कियां फटाफट खुल गए…! पौ फटते ही वहां की सुबह कराह रही थी क्योंकि घाटी पर छाई दहशती सलेटी बदलियों ने धवल शिखरों को ढंक कर उनका अस्तित्व ही नकार दिया था ।

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डॉ. वीणा विज ‘उदित’ अपने पति श्री रविन्दर कुमार विज के साथ

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कहानी

डॉ. वीणा विज ’उदित’


लाल ड्रेस सुनहरे जूते

मानव मन की संवेदनाएं किसी विशेष देश या सरहदों से भिन्न नहीं हो जातीं । भारतीय परिवेश या अमेरिकन वातावरण भावनाओं को वॉटता नहीं । किसी के भी व्यक्तित्व पर सुख दुख सामान्य रूप से हावी होते हैं । ये अमेरिका में रहती एक नारी की कहानी है ।

बैटन रूश के जनरल अस्पताल में प्रौढ़ सैक्शन के बाहर लॉन में ढेरों बुजुर्ग कुर्सियों पर बैठे आज इतवार को अपने सगे सबंधियों की बाट जोह रहे हैं । कुछ बातों में मशगूल हैं . तो कई चुप्पी साधे बैठे हैं । किसी बुजुर्ग के होंठ कुछ बुदबुदा रहे हैं तो किसी की गर्दन नींद से बोझिल आँखे लिए कमान सी टेढ़ी हो रही है । तभी एक युवा पुरूष सजीला जवान पच्चीस की उम्र रही होगी... भीतर की ओर आया । बुजुर्ग मिसेस होम्स उसे हैरी. हैरी पुकारती हुई उसकी ओर लपकीं । शेष बुजुर्ग भी एकदम सजग हो. उसे देख प्रसन्न हो उठे । मानो ममत्व की संवेदना सबके भीतर एक साथ जाग उठी हो । अमेरिका के बुजुर्ग भली भांति समझते हैं कि उनके देश में जीवन की तेज रफ्तार ममत्व पर हावी हो चुकी है । स्वस्थ वृद्ध अपने ही घर में एकाकी जीवन बिताते हैं । अस्वस्थ होने पर उन्हें ओल्ड एज होम में रखते हैं । जहाँ उनको हम उम्र साथी मिल जाते हैं । डॉक्टर व नर्से भी होते हैं . देखभाल के लिए । 'जितना गुड़ डालो उतना मीठा' यानि कि जहाँ अधिक पैसा लगता है. वहाँ पर बहुत अच्छी देखभाल भी होती है । जीवन के इस सत्य को वहाँ की संस्कृति का हिस्सा मान लिया गया है । अतएव क्षोभ के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं है ।

सो मिसेस होम्स ने हर्ष विह्वल हो हैरी को अपने सीने से लगा लिया । उसे अपने साथ भीतर ले जाते हुए बोलीं. 'इस बार बहुत दिनों बाद आए हो वेटे क्या बात है ?

हैरी - बहुत बार आना चाहा माँ ! लेकिन काम से निकल नहीं पाया ।

मॉ- ( सामने बैठकर ) बेटा ! केक खाएगा ? मैंने तेरे लिए बना कर रखा था । चाय लेगा या कॉफी ? देख न. मुँह कितना सूखा लग रहा है । खाना खाया है कि नहीं?

हैरी - ( एकदम खीझकर ) माँ ! खाना पीना छोड़ो । मेरे पास आकर बैठो । मैं तो तुम्हे देखने मिलने. तुम्हारा हाल पूछने आया हूँ । देखो. मैं विल्कुल भला चंगा हूँ ।

मॉ- वेटा! मेरी तो आँखें ही तरस गई हैं तेरी राह देख-देखकर । तेरे पिता जब जिंदा थे ( सॉस भरकर ) हम सब अपने घर में साथ- साथ थे । घर में कितनी रौनक थी ..

हैरी- मॉ ! मैं अब काम करने लग गया हूं । फिर से अपना घर होगा । ( माँ को प्यार करते हुए) बस तुम ठीक हो जाओ ।

माँ - तूं कितना कमा लेता है मेरे बच्चे ? अब शादी कर ले । मुझे पोते का मुँह तो दिखा दे । ( रूआंसी होकर ) 

मैं बूढ़ी हो गई हूं । दवाइयाँ खाते ही चक्कर आ जाते हैं । फिर..... फिर बाद में ठीक भी लगता है ।

हैरी - ( चिंतित होकर ) माँ ! अपनी दवाई दिखाना । कहीं तुम नींद की गोलियाँ तो नहीं खाती ? कितनी बार तुमसे कहा है कि डॉक्टर को कहना तुम्हारा इलाज करे . तुम्हे नींद की दवाई देकर सुलाए न रखे ।

मॉ - नहीं.. नहीं हैरी ! बाद में सब ठीक लगता है । डॉक्टर ठीक है ।

हैरी – ( मॉ को प्यार से कंधों से पकड़कर ) मॉ ! मैं कुछ ही दिनों में तुम्हे एक टेलीविज़न सैट का तोहफा यहाँ भिजवा रहा हॅू । फिर तुम्हारा मन लगा रहेगा ।

मॉ यह तो बहुत अच्छा किया मेरे लाल ! ( धीरे से ) पर मुझे जल्दी जल्दी मिलने आया करना । कोई लड़की भी देख ले अपने लिए । घर बसा ले मेरे बच्चे !

हैरी - ( नज़र चुराते हुए ) मॉ ! इस बार मैं जल्दी आऊंगा । 'मरियम'... वो जो मेरे साथ ड्रामें में काम करती थी न याद है तुम्हे ? बस उसी से शादी करने का पक्का इरादा किया है ।

माँ - ( खुशी से भरकर ) अच्छा है । बस तेरा घर बस जाए । मरियम के लिए लाल ड्रेस व सुनहरे जूते अवश्य लाना । वो उनमें तेरे साथ बहुत सुन्दर लगेगी । ( ख्यालों में खोकर ) ... मैं भी तेरे पिता के साथ लाल ड्रेस व सुनहरे जूते पहनकर स्टेज शो में गई थी । सभी कहते थे 'रूवी होम्स को तो सौन्दर्य प्रतियोगिता में भाग लेना चाहिए । ' ( उत्साह से खड़े होकर ) देख न हैरी ! मैं दस किलो वजन घटा चुकी हूँ । अब मुझे मेरी लाल ड्रेस ज़रूर पूरी आ जाएगी ।

मॉ को इतना उत्साहित देखकर हैरी को मॉ पर बहुत प्यार आया । साथ ही उसकी बीमार हालत देखकर तरस भी आया । उसने बहुत प्यार से मॉ को पकड़कर उसे पलंग पर लेजाकर लिटाया । और अपनी आँखों की कोर से बहते पानी को चुपके से पोंछा ।

हैरी - अब तुम सो जाओ माँ । तुम प्रतियोगिता में अवश्य हिस्सा लेना । बस तुम ठीक हो जाओ ।

(हैरी की बॉह पकड़ते हुए )

मॉ - बेटा! मैं ठीक हो जाऊंगी । तूं जल्दी आना । मुझे ले चलेगा न प्रतियोगिता में ? मुझसे पक्का वायदा कर । हैरी ने मॉ से वायदा कर उसे चादर ओढ़ा दी । वह भरे हुए मन से बाहर निकल गया । अपनी मजबूरी पर और मॉ की दयनीय दशा.... दोनों पर ही उसका मन व आँखें रो रही  थीं । हैरी स्वंय नशे के इन्जेक्शन लेता था । रहने के लिए उसके पास किसी रेस्तरां के छत की बरसाती मात्र थी । वह जो भी कमाता था. उससे उसका अपना गुजारा ही मुश्किल से हो पाता था । शादी के बंधन में बँधने की तो वो सोच भी नहीं सकता था । मॉ को झूठे दिलासे दे देकर वो माँ का दिल बहलाता रहता था । वापिस आकर उसने अपने दोस्त माइकल को मॉ की हालत बताई । हमेशा की तरह दोनों ने आदतन नशा किया और वहीं बरसाती में कबाड़ के ढेर पर पड़े रहे ।

मॉ को एक हफ्ते में टेलीविज़न सैट मिल गया । वो खुशी से झूम सारे चैनल लगाती । फिर उनमें स्टेज शो ढूंढती । उसे फैशन शो में हिस्सा लेती प्रत्येक लड़की में अपनी छवि दिखाई देती । प्रत्येक प्रतिद्वन्द्वी की ड्रेस लाल व जूते सुनहरे प्रतीत होते । अपने कमरे में वह उनकी नकल करके चलती व उसी भाँति बोलने का प्रयत्न करती । जैसे... " अब आपके सामक्ष आज की सबसे हसीन और नम्बर वन रूबी होम्स पेश हो रही है ।

शो समाप्त होने पर वह थक कर एक की जगह दो गोलियाँ खा लेती । उससे उसका सिर चकराता । उसे लगता सारा कमरा घूम रहा है। टी. वी. में जोर जोर से तालियां बज रही हैं । सब लोग खड़े होकर जोश में 'रूबी'.. 'रूबी नम्बर वन' चिल्ला रहे हैं। ऊपर से फूल बरस रहे हैं । फिर उन सबके चेहरे कभी बड़े, कभी छोटे, कभी टेढ़े, कभी दाँत निकालकर भयानक से लगते हुए छत में लुप्त होते जा रहे हैं । सारे कमरे में चेहरे ही चेहरे देखकर मिसेस होम्स जोर- जोर से चीखने लग जातीं । उनकी चीखें सुनकर बाकि अन्य कमरों से लोग आ जाते । डॉक्टर बुलाया जाता । नर्स आकर मिसेस होम्स को नींद का इंजेक्शन लगा जाती । शान्त खाली कमरे में टी.वी. की आवाज़ गूँजती रह जाती ।

मिसेस होम्स ने धीरे- धीरे बाहर अन्य बुजुर्गों में बैठना छोड़ दिया । वे अपने ख्यालों में ही सिमटकर रह गईं। सुबह उठते ही टी. वी. चालू करतीं, फैशन शो ढूंढने का जूनून उन पर सवार रहता । न मिलने पर चैनल बदल -बदल कर अन्त में थक जातीं । वो बहुत कमजोर हो चली थीं । उनके सोए हुए ख्वाब.... हकीकत का रूप पाने के लिए मचल उठे थे । दबी इच्छाएं जाग गई थीं । न वो कपड़े बदलतीं. न बाल सॅवारतीं ।   खुली हथेली पर एक दवाई की गोली रखतीं ... तो लगता हाथ बहुत बड़ा हो गया है । एक गोली और.. एक गोली और... हॉ । अब कुछ बात बनी । फिर वो ढेर सी गोलियाँ झट से खा लेतीं । मानो कोई आकर मना कर देगा । इस तरह उनकी कमजोरी और लाचारी बढ़ती चली गई ।

हैरी भी पुनः जल्दी मॉ के पास नहीं आ पाया । वह जब भी मॉ को याद करता. मायूसी के आलम में खो जाता । पैसे हाथ में आते ही वो शराब व नशे के इन्जेक्शन में खत्म कर देता । एक दिन माइकल ने हैरी की बाई बाजू में ज़ख्म का नीला गड्ढा बना देखा । हैरी उसी ज़ख्म में फिर सुई चुभो रहा देखकर ... माइकल ने उसका हाथ रोका । वह उसे उसी वक्त जबरदस्ती डॉक्टर के पास ले गया । डॉक्टर ने बताया हैरी को गैगरिन हो गया है । फलस्वरूप हैरी की बाई बाँह को कोहनी से काट दिया गया । हैरी अपनी लाचारी व बेज़ारी पर रोता रह गया । अब वह माँ के समक्ष कभी भी नहीं जा पाएगा । उसे मॉ का ग़म सताने लगा ।

उधर,  एक दिन मिसेस होम्स अपने कमरे से निकल . सब की आँख बचाते हुए ओल्ड एज होम के गेट से बाहर सड़क पर निकल गई। राह में जिस किसी को देखतीं. उससे पूछतीं कि फैशन शो कहाँ हो रहा है । कहतीं कि उन्हें वहाँ समय पर पहुँचना है . अभी तैयार होने ब्यूटी पार्लर भी जाना है । कृपया रास्ता बता दें । लोग अनदेखा करते व पागल समझते । एक भलेमानस लड़की को तरस आया । वह बहुत प्यार से उनकी 'हॉ' में हॉ मिलाते हुए उन्हें पास के अस्पताल में ले गई । डॉक्टरों ने मिसेस होम्स को पागलपन के बिजली के शॉक दिए । वहाँ बेहोशी में भी वे चिल्लाती रहीं. ' मेरा मेकअप करा दो... मुझे देर हो रही है । 'उसी बेहोशी में उन्हें चारों ओर से तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दे रही थी व दिख रहा था कि वे स्टेज पर हैरी की वॉह पकड़कर लाल ड्रेस व सुनहरे जूते पहनकर शान से चलते हुए लोगों का धन्यवाद कर रही थीं । रंग विरंगे गुब्बारे व चमकीली . सुनहरी पत्तियाँ हवा में उड़ रही थीं । रूबी नम्बर वन.... रूबी नम्बर वन की गूंज से हॉल गूंज उठा था । चारों ओर रोशनी ही रोशनी थी । उधर डॉक्टर की पकड़ मिसेस होम्स की बाँह पर ढीली पड़ती जा रही थी । मिसेस होम्स को अव दूर बहुत दूर स्टेज पर लाल ड्रेस पहने एक धुंधला सा आकार कुछ- कुछ दिखाई दे रहा था. जो और धूमिल होता जा रहा था... जिसके पैरों में सुनहरे जूते थे ।

***********************************************************************************वीणा विज 'उदित' कलाकार, कवयित्री, साहित्यकार, समीक्षक हैं। पंजाबी की कविताएं भी लिखती हैं हिंदी में।


पंजाबी गीत


हनेरयां दा चानण

ओ आया सी

मेरी दहलीज टपया ही नहीं

ते परत गया ।

मैं ओनूं टुट्टी कंद तों

चाहती मार के वेख लया सी

ख़ौरे,ओदी मेरे ते नज़र ही नहीं पई।

मैं आवाज़ ना मार सकी

मेरे अक्ख़र मेरे गल्ल विच रैह गए सी।


इश्के दी फेरी मारि आ

ते इश्के दी नजर तां विखा

किस सोच ने तैनु बन्न लया ए

तुर पया एं तूं बीयाबानां नूं-?

अक्खां पिजाह गयां एं

मुड़ ,गवाच न जाईं किदरे -!


लब्बण गई सी तैनूं

अग्गे बंद गली सी, राह कोई न लब्बी

राहां तूं फड़िया उच्चियां

मेरी थांह न वेखी तूं

मैंनूं चार कदमां तक ही चन्न दिसया

मीलां लंबे हनेरयां ने राहां खोह लइयां ।


तैनूं लब ही लांगी

हनेरे विच जुगनू बण के

बीयाबानां विच

पपीहे दी कूक मार-मार

ते उच्चियां राहां दे आसमां ते

बदली बण के ।


तेनु लै ही औड़ां ए

दहलीज टपा के अंग- संग बिठौणा ए

अक्खों ओहले न होंवीं

मेरे हौंसले पस्त ना करीं ।

तूं आ जावीं !

मेरे हनेरयां दा चानण बण जावीं !!

वीणा विज

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कहानी

डॉ. वीणा विज ’उदित’


 मैग्नोलिया जैसी खिली

 जाड़ों में जब वृक्ष एकदम रूखे और नंगे हो जाते हैं यहां तक कि उनकी चमड़ी भी उधड़ने लगती है, तब झील की ओर से ठंडी तेज हवा वैसे ही हाहाकार करती हुई उठती है जैसे बर्फ से जमी हुई ठोस झील से आती हवाएं ! मेरा अकेलापन मुझे कुछ यूं ही कचोटने लग जाता है और बांसों के जंगल की चुभीली पत्तियों सी चुभन तन बदन में चुभने लग जाती है । केवल अकेलापन, नितांत अकेलापन!

वृक्षों की उधड़ती चमड़ी पर नज़र टिकी थी कि तभी लगा पीठ पर एक छोटा सा बालक मुझ से लिपटा है जिसकी नन्ही- नन्ही बाहें मेरे गले के इर्द-गिर्द हैं ।" मामा उठो ना, मुझे भूखू लगी है । बोनोइता (बॉर्नविटा) वाला दूधू दे
दो ।"

झट से उठने का उपक्रम करती हूं मैं ! बेटू की बांहें पीछे करती हुई, तो वहां कुछ भी नहीं-----मेरे हाथ खाली फिसल जाते हैं । वह केवल एक ख्याल था ! अतीत की गलियों में भटकता हुआ कहीं सताने आ गया था । मैं वृक्ष से लिपटी लता के टूट के गिरने सी मुर्झाने लगती हूं कि ...

तभी कानों में शरद की पुकार सुनाई देती है कि भई बच्चों से फुर्सत मिले तो मुझे भी एक कप चाय का पिला दो । सिर को झटक कर वर्तमान में लौटती हूं और जल्दी से चाय का पानी चढ़ा कर प्लेट में दो रस्क रखती हूं क्योंकि इनको खाली चाय पीना पसंद नहीं । ट्रे में दो कप चाय और रस्क की प्लेट रखकर बाहर बालकनी में टेबल पर रखती हूं । और अखबार उठा कर देखने का उपक्रम करते हुए शरद को आवाज़ लगाती हूं ।

"अब आ भी जाओ ना यार, चाय ठंडी हो रही है । कहीं बाथरूम तो नहीं चले गए हो?"

अखबार वहीं पटक कर खिझी हुई भीतर जाती हूं और देखती हूं कि पलंग पर केवल एक ही लिहाफ पड़ा है । जिसे देखकर दिमाग में टन न न न एक घंटी बजती है---अचेतन मन से चेतन में लौटती हूं । और दरवाजे की चौखट को पकड़कर वहीं जमीन पर बैठ कर रोने लगती हूं जोर- जोर से । कहां है शरद? मैं तो अकेली हूं । मैं जोर-जोर से उस अदृश्य आत्मा से बोलने लगती हूं। 

"तुम भी मुझे छोड़ कर चले गए । कुछ ना सोचा कि मैं कैसे रहूंगी ? किसके सहारे जीवन काटूंगी ??"

मैं किसको सुना रही हूं? मेरा जोर- जोर का रोना कौन सुन रहा है? मैं परिस्थिति की यथार्थता को भांप कर अचानक स्वयं ही चुप कर जाती हूं । 

दूsssर तक नजर जाती है तो काले कुरूप पेड़ों के झुरमुट में वर्षा से भीग-भीग कर काले हो गए पेड़ों के तने नींव से उखड़ कर, उन्हीं सूखे पेड़ों में औंधे गिरे पड़े, शरण मांगते दिखते हैं । बेचारगी... इस बार की पतझड़ ने उन्हें मार ही डाला है । गुल्म तरु के आस की किरणें तब भी बुझती नहीं है क्योंकि उन सब की दृष्टि सदाबहार"ओक, मैग्नोलिया, चीड़, देवदार"जैसे वृक्षों से पुन: जी उठने की उमंग धारण करती रहती हैं । तभी तो वे उसी हाल में अपने आप को स्वीकार कर लेने की शांति और सहजता से खड़े रहते हैं । उन्हें विश्वास है भविष्य के जल भरे मेघों, सुगंधित पवन और अपनी मिट्टी पर ---जो अभी शिशिर से प्रताड़ित है और मलय पवन की राह देख रही है, वसंत ऋतु के आगमन पर दृष्टि जमाए । इसी तरह शायद उनका आस का दीपक जल उठता है । मेरी दृष्टि भी तो कमरे की खिड़की से दिखाई देते मग्नोलिया पर जाकर ठहर जाती है ...

लेकिन, यहां नजदीक तो क्या दूर भविष्य में भी किसी तरह का कोई आस का दीप नहीं दिखाई दे रहा है । बेटी अपनी दोनों बेटियों का भविष्य बनाने में व्यस्त है लंदन में और बेटा भारतीय सेना में ई एम ई में मेजर है । उसकी पोस्टिंग होती रहती है । सास मॉडर्न है फिर भी उसके आ जाने से बहू को बंदिश लगती है । वह क्लबों में खुले आम व्हिस्की नहीं पी पाती और लोअर नेक नहीं पहन पाती । उसकी आजादी में खलल पड़ता है । ऐसी बातें बेटे ने दबी जुबान से मां के साथ कीं, तो रूपा ने ठान लिया कि वह अब उनके पास नहीं जाएगी । उसने उनके पास जाने के लिए अपनी डायरी में से उनका पृष्ठ ही फाड़ दिया था । हां, बेटे का फोन फिर भी आता रहता है कुशल-क्षेम पूछने के लिए ।

‌शरद सारी उम्र बाहर देशों में पैसा कमाने की खातिर ऑयल और गैस कंपनी के ठेके लेता रहता था, जबकि मैं बच्चों को लेकर उसके पास छुट्टियों में जाने को सदैव उतावली रहती । बाकी समय बच्चों की पढ़ाई के कारण दिल्ली में रहती थी । इकलौती औलाद होने के कारण मेरी मम्मी की जब अचानक सोए- सोए मृत्यु हो गई तो मैं अपने पापा को अपने घर ले आई थी । उनकी तीमारदारी के लिए किसी एनजीओ से एक लड़की भी घर में आ गई थी । जिम्मेदारियों में मैं ऐसी घिर गई थी कि मुझे पता ही नहीं लगा कब बच्चों की पढ़ाई भी खत्म हो गई और एक दिन मेरे पापा भी हमें छोड़ गए । 

अब बच्चों की शादी के समय शरद ने दिल्ली में कभी खरीद के रख छोड़ी ज़मीन पर एक शानदार घर बनाया और अपने सारे अरमान पूरे किए । उसे क्या मालूम था कि वह इस संसार से इतनी जल्दी रुखसती पा लेगा! बस दो दिन का बुखार और हॉस्पिटल एडमिट हुआ । न जाने किस मुहूर्त में वह घर से निकला था कि उसका नाम ही खत्म हो गया । वहीं अस्पताल के रजिस्टर तक रह गया और वह एक डैड बॉडी बन के घर लाया गया । बच्चों ने इस सत्य को भी स्वीकार कर लिया था कि उनके पापा भी नानू की तरह उनको छोड़ गए हैं, और अपनी- अपनी गृहस्थी में जाकर रम गए थे । जब फूल डाल से झड़ जाती है तो कलियां फूलों का स्थान लेने लगती है । यही तो प्रकृति का नियम है । लेकिन पीछे तड़पने और रोने को, शरद की यादों में लिपटी रह गई केवल उसकी रूपा! "मैं "!!

ऊपर का पोर्शन किराए पर दे कर सोचा गुज़ारे के लिए काफी है किराया । कोई सरकारी नौकरी तो थी नहीं की पेंशन आने की आस होती, बस जो कुछ था, यही कुछ था । हां, हेमंत ने औपचारिकता निभाते हुए एक बार पूछा अवश्य था, 

"ममी, आप को हर महीने कितने पैसे भेज दिया करूं?"

मैंने मना कर दिया था । और वह भी मान गया था । अपने बड़े बुजुर्गों को जैसे पहले परिवार में देखा करते थे हम, मैंने भी अपने आप को भक्ति में लगाने का यत्न किया । क्या करूं पूजा- पाठ में मन नहीं रमता था । एक सहेली ने मेडिटेशन भी सिखाने की कोशिश की लेकिन मैं नहीं सीख पाई । मेरा ध्यान भटक जाता था । 

हम दोनों मियां बीवी तो अब जगह-जगह घूमने के प्रोग्राम बना रहे थे । बच्चों की जिम्मेवारी से फारिग जो हो गए थे, अब मौज मस्ती के दिन आने थे! वही ख्याल दिमाग में घूमता रहता था । कहते हैं ना "बिना भाग्य के कुछ नहीं मिलता", नसीब में बिरहा का रोग जो लिखा लाई थी । वही भुगतना था अब ।

मेरी एक पुरानी सहेली कम्मी मुझे मिलने आई और उसने बताया कि वह दुबई अपनी बहन के पास जा रही है क्यों नहीं वह भी उसके साथ चलती दोनों घूम फिर आएंगी ।

"रूपा जगह बदलने से तेरा ध्यान भी बदलेगा और मन भी लग जाएगा क्या बिरहन सी बैठी रहती है?"

यह सखी सहेलियां ही होती हैं जो दर्द को कम कर देती हैं सो, वो तो मेरे पीछे ही पड़ गई । उसके बहुत पीछे पड़ने पर मैंने प्रोग्राम बना लिया और अपनी बहन रीता दी को फोन कर दिया । सिया को भी अमेरिका बताया तो वह बेहद खुश हुई कि मां अवश्य जाओ शायद आपका मन बहल जाए ।

हमारा पांच दिन का प्रोग्राम था । शारजाह अंतरराष्ट्रीय विमान स्थल बेहद ही सुंदर है । दुबई की इमारतें और समुद्र में गगनचुंबी इमारतों का जमघट ऐसा कि देखते हुए आंखें भी चुंधिया जाएं । सोने के जेवरात की पूरी मार्केट ! चम- चम चमक रही थी मेरे सामने पर अब मेरे किस काम की थी? मेरे साथ शरद होते तो जरूर शॉपिंग होती! अब कोई कपड़े और जेवरात मुझे नहीं भाते हैं । ख़ैर, यह सब तो था लेकिन कम्मी मुझे अकेला नहीं छोड़ती थी, फिर भी मेरे मन में घटाएं घिर आती थीं और बरस कर रीत कर ही लौटती थीं । कोई भी चोट जब लगती है तो बहुत तकलीफ देती है, मेरी चोट भी तो अभी नई है । रात भर मेरी बाहें शरद को ढूंढती है और मेरा सिर शरद की बांह को ढूंढता है! उसे क्या मालूम कि वो दिल्ली में है कि दुबई में! उसे तो शरद की बांह की तलाश होती है ।

वापिस आई तो रीता दी का पानीपत से फोन आया कि अगले हफ्ते हम लोग शिरडी साईं बाबा के दर्शन के लिए चल रहे हैं तुम्हारी टिकट करा ली है अपने साथ । लो जी, पैर में फिर चक्कर था । रीता दीदी और जीजाजी दो दिन पहले ही आ गए थे । घर में रौनक आ गई थी । घर की चहल-पहल में मैं अपना अकेलापन भूल गई थी और उनके साथ हंस रही थी । सोचा यही जादू है परिवार का जो एकल परिवार में नहीं है । मानो मुझ में जान आ गई है । घर में खाना भी बन रहा है और मुझे भूख भी लग आई है । ऐसा लगा मुद्दत बाद खाना खा रही हूं । नियत समय पर हम शिर्डी गए और अगले दिन वापस आ गए दर्शन करके । मन में भक्ति की जगह घूमने का ध्यान रहा ---तो शायद ऐसे दर्शन निरर्थक रहे । जो भी रहा हो, मेरा मन कहीं नहीं लग रहा था ।

वक्त तो अपनी चाल से गुजर रहा था! अब यह मुझ पर था कि मैं अपने को कैसे संभालूं? बुक शॉप पर जाकर कुछ किताबें उठा लाई मैं एक दिन । अपने पलंग के सिरहाने उन्हें सजा लिया । सिडनी शेल्डन का उपन्यास " इफ टुमौरो कम्स " के कुछ पन्ने पढ़कर रात को रख दिया और अपने जीवन से उसका मिलान करने लग गई । आधी रात यूं ही सोच में बीत गई । दूसरे दिन सुबह दस बजे आंख खुली । मेरी एनजीओ वाली नौकरानी की शादी हो गई थी तो अब कामवाली बाई 11:00 बजे आती है सो मैं आराम से सो सकी । मेरे घर कोई नहीं आता सुबह सवेरे! नाही किसी ने कहीं जाना होता है ! है ही कौन?

"साफ चकाचक घर है बीबी तुम्हारा, क्या साफ को और साफ करूं?"कहते हुए बाई सफाइयां कर रही थी ग्रेनाईट के फर्श की । मैं तैयार होकर अपना मूड बदलने के लिए कहीं बाहर जाने की सोच रही थी । बाई जैसे ही गई, मैं भी घर बंद करके कार स्टार्ट करके नीता के घर की ओर चल पड़ी । बिना फोन किए वहां पहुंची तो वह हैरान हो गई । (शुक्र है वह घर पर थी) मैंने पहले चाय और नाश्ता उससे मांग कर खाया पिया फिर उससे बातें करने बैठ गई । 

बातों बातों में उसने बताया कि वह एक एनजीओ से जुड़ी है जहां अनाथ और गरीब बच्चे होते हैं । जिनको कुछ सिखाना होता है । लेकिन किस तरह--?

उनके लिए सामान भी इकट्ठा करना होता है इसके लिए किसी मंदिर या किसी स्कूल में आम घरों से सामान मंगवाया जाता है जो उनके काम का नहीं होता । लोग बहुत प्रसन्न होकर अपने घर का फालतू सामान कपड़ा, किताबें, खिलौने, वुलेन आदि दे जाते हैं ।बस इसी सामान से अनाथ आश्रम में रहते इन बच्चों से कुछ नई चीजें बनवाई जाती हैं । यह तैयार किया सामान फिर बेचा जाता है, कभी किसी प्रदर्शनी में या किसी मेले में । इससे बच्चों में आत्मविश्वास की बढ़ोतरी होती है और वह कोई स्किल या गुण भी सीखते हैं । जो आगे चलकर उनके जीवन यापन में काम आता है ।

जो पत्रिकाएं और किताबें लोग दान में देते हैं वह इन बच्चों के मानसिक ज्ञान को बढ़ाने में सहायक होती हैं । इन्हीं बच्चों में कई कवि और लेखक भी निकलते हैं और किसी कॉलेज के शिक्षक और प्रिंसिपल भी बनते हैं । इन्हें शिक्षा भी दी जाती है ।

इतनी सारी बातें सुनकर मेरा मन नीता के प्रति आदर से भर गया । सोचा, यह तो ईश्वर की मर्जी है कि मैं आज सीधे नीता के घर अपने आप पहुंच गई । ईश्वर ने मेरे लिए यही इशारा किया लगता है । मेरी आस का दीप, मेरे एकाकीपन, मेरे अकेलेपन को दूर करने का यही एक उपाय मुझे सुझाई दे रहा है । मैंने नीता के दोनों हाथ पकड़ लिए और उसे कहा कि कल से मैं भी उसके साथ उस एनजीओ में चला करूंगी और उन बच्चों के साथ समय बिताया करूंगी । जितना मुझसे हो सकेगा मैं मदद करूंगी ।

भला नीता को इसमें क्या एतराज था बोली जरूर चलना । 

सांझ ढले मैं उत्साह से भरी हुई घर आई । मैंने आकर अपने घर का सारा फालतू सामान जो अब मुझे नहीं चाहिए था और शरद की अलमारी से उसके कपड़े वगैरह कुछ चादरें निकालकर उनमें बांधे । उनकी पोटलियां बना लीं जो मैंने सुबह नीता के साथ उस एनजीओ में लेकर जानी थीं । बहुत बड़ा काम हो रहा था यह, जिसे मैंने अभी तक छूने की हिम्मत भी नहीं की थी क्योंकि मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं उनका क्या करूं? अब एक राह सामने दिखाई दे रही थी । तो सब कुछ सहज भाव से हो रहा था । इस सब से फ्री होकर मैंने दूध का एक गिलास पिया और खूब थकी हुई बिस्तर पर लेटते ही सो गई कल के इंतजार में!

अगले दिन नीता के साथ मैं एनजीओ में पहुंची । वहां छोटे- बड़े सभी बच्चे थे । वह मुंह उठाए दरवाजे की ओर ही देख रहे थे । नीता ने जैसे उन्हें प्यार किया मैंने भी एक बच्चे को प्यार किया तो उसने मेरा हाथ चूम लिया । इस पर भाव-विह्वल हो मैंने उसे गोदी में उठा लिया । मेरी आंखें अश्रुपूर्ण हो उठीं, और उनमें आस के दीप जल उठे ।

सारी दोपहर उत्साह पूर्वक उनके साथ बीती । मैंने उनकी शिक्षा में आत्मनिर्भरता का गुण पनपते देखा ।

मैं यह सब देख कर आत्म विभोर हो उठी थी । घर पहुंच कर मैंने सिया को फोन लगाया और उसे यह खबर दी । मेरा उत्साह देखकर सिया रोने लगी और प्यार से बोली, "मां आप मेरे पास आ जाओ और यहीं आकर रहो । मेरा ध्यान सारा समय आपकी ओर लगा रहता है । मैं और ऋषि दोनों ही आपकी चिंता करते रहते हैं ।"

मेरा मन भी भर आया और उसे तसल्ली दी, " मैं जल्दी ही आने का प्रोग्राम बनाऊंगी, पर कितने दिन? आखिर तो यहीं लौटना है ना! यदि तुम आ सको तो बहुत अच्छा लगेगा । अब तो बेटियां दोनों बड़ी हो गई हैं वह पापा का भी ध्यान रख सकतीं हैं । 

अगले महीने तुम्हारे पापा का "वरीना "( बरसी) है तुम पहुंच जाना मैं डेट बता दूंगी ।"

यह बेटियां क्यों इतनी नरम दिल होती हैं, मां-बाप के दुःख -दर्द में शामिल हो उनका ध्यान रखती हैं! सिया के रोने से मैं अंदर तक हिल गई थी, कुछ अच्छा नहीं लग रहा था ।

मैं एनजीओ में जाने लग गई थी, लेकिन मेरी सेहत गिरती जा रही थी और मुझे सारा समय थकान लगी रहती थी। खाने पीने के लिए भी पूछने वाला कोई नहीं था कि अचानक ऋषि का फोन आया कि सिया आपके पास आ रही है । और उसकी आर्टिनरी उसने मुझे भेज दी । मुझ में एकदम से जान आ गई आखिर मेरी बेटी मेरी जान आ रही थी मेरे पास । एयरपोर्ट पर उसे देखते ही मेरा माथा ठनका । इतने वर्षों बाद वह पुनः मां बन रही थी । उसे देख कर मुझसे कुछ बोलते नहीं बना । घर पहुंच कर कुछ सेटल हो कर मैंने उससे आराम से पूछा, "यह सब क्या है सिया?"

सिया ने मेरे दोनों कंधों को पकड़ा और अपना चेहरा मेरे चेहरे के पास लाकर मुझे ढेर सारे चुंबन दे डाले । जितना मुझे आलिंगन में ले सकती थी उतना लेकर बोली, "मां यह सब तुम्हारे लिए है । जो भी होगा तुम्हारा होगा और तुम ही उसे पालोगी । मैं डिलीवरी करने तुम्हारे पास आई हूं, मेरे और ऋषि की ओर से तुम्हारे लिए सौगात लाई हूं।"

मैं अवाक उसका मुंह ताक रही थी । क्या कोई ऐसी भी बेटी होती है, जो इस हद तक सोच जाए! हक्की बक्की मैं उसकी बातें सुन रही थी ।

"मां, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कब तुम सालों की दूरियां तय कर लोगी । तुम पतझड़ में नहीं रहोगी, तुम्हारी आस का दीप जलेगा । हां मां, मैगनोलिया की तरह तुम सदा खिली रहोगी ।

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जनश्री ‘‘आस्था प्रकाशन’’ द्वारा कहानी संग्रह ‘‘तुरपाई’’ का लोकार्पण प्रिंसिपल सुरेश सेठ द्वारा एवं चर्चा परि चर्चा

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कहानी

डॉ. वीणा विज ’उदित’


रेखाओं की करवट

दिसम्बर की छुट्टियों में कनु होस्टल से घर आई थी । जी तो चाहता था कि लम्बी तान कर सोई रहे । होस्टल की घंटी से बंधी दिनचर्या से कुछ दिनों के लिए छुटकारा तो मिला । पर कहाँ....? मम्मी है कि अपनी अपेक्षाओं को संजोए बैठी थीं । कनु आएगी तो यह करूँगी । वह करूँगी । कनु के साथ फलां-फलां के घर जाऊँगी । सो घर आकर भी मन की करना कठिन हो गया था ।

आज शाम को डैडी के एक करीबी मित्र के घर बेटी की शादी की बधाई देने उसे साथ ले जाना चाहती थीं । शादी तो उन्होंने अपने पुश्तैनी गाँव में जाकर की थी । अब शहर में उनकी बेटी ’दम्मी’ पहली बार मायके आई थी । हमउम्र कनु से मिलकर उसे अच्छा लगेगा... ऐसा मम्मी का विचार था । सो.. बलि का बकरा कटने को तैयार..... कनु चल पड़ी मम्मी के साथ उनके घर ।

आंटी ने कनु को साथ देखते ही बड़ी गर्मजोशी से उनका स्वागत किया । बोलीं, ’आज तो बिटिया रानी भी आई है कैसी हो ।’ मम्मी इस पर गर्व से मुस्कुरा दीं । कनु को कनखियों से देखा । मानो कनु को साथ लाना सार्थक हो गया । दम्मी भी झट आकर मिली । काफ़ी सजी धजी थी वो । कनिका व दमयंती हमउम्र ही थीं, लेकिन औपचारिकता के सिवाय वहाँ कुछ भी नहीं था । सो, बनावटी मुस्कुराहट से दोनों मिलीं । कुछ था. .जो कनु को वहाँ भा नहीं रहा था । खैर....मम्मी ने दामाद के विषय में पूछा कि वे नहीं आए क्या । कि आंटी तपाक से बोलीं, ’लो पहली बार अकेले थोड़े ही भेजा है, साथ आए हैं । कहते हैं साथ ही ले भी जाएँगे ।’ बोलने में गर्व का पुट था । कनु ने सोचा कि ठीक ही है । आजकल के माँ बाप दामाद को अपनी बेटी के आसपास मंडराते देखते हैं तो सोचते हैं.. बाजी मार ली । फिर भी अपना अपना ढंग है जीने का । कनु को बोरियत लगने लगी थी । उसका उठने का मन हो रहा था कि तभी आंटी ने कुछ भाँपते हुए कहा कि वे लोग एलबम देखेंगे कि वीडियो कैसेट लगाएँ? मम्मी ने छूटते ही जवाब दिया कि वीडियो कैसेट घर मँगवा कर देख लेगें । अभी एलबम ही.....मम्मी का वाक्य अधूरा ही रह गया, क्योंकि तब तक आंटी ने दम्मी व उसके पति की फोटो दिखा दी । बोलीं, ’कैसे लगे?’ दम्मी ने भी गर्व से कनु की ओर देखा । कनु ने मजबूरन उचटती नज़र फोटो पर डाली । उसकी नज़र वहीं अटक गई । शरीर में बिजली का करंट दौड़ गया । वह हैरानी से भर उठी । ये... ये.... ये तो निपुण-- उसका निपुण है । उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं । पलकें झपकना ही भूल गईं । क्या.. क्या. . निपुण ही दम्मी का... । हे भगवान्‌ कनु अभी सकते की हालत से सम्भल भी नहीं पाई थी कि बाहर किसी कार के रुकने व हॉर्न की आवाज़ आई । अंकल के साथ निपुण...... । आज उसका निपुण उसके सामने था परन्तु उसका नहीं था । निपुण भी अचानक अपनी कनु को सामने देख. . दोनों ही क्षण भर को ठगे से खड़े रह गए । दोनों ही सोच रहे थे कि. ....क्या कभी सोचा था कि कभी मिलना होगा और वो भी इन हालात में । कनु मम्मी की ज़िद पर यदि आज यहाँ न आती तो....तो इसके आगे सोचना भी उसे सह्य नहीं हुआ ।

मम्मी भी तपाक से बोलीं अरे यह तो अपना निपुण है । निपुण ने भी मम्मी के पैर छुए । ढेरों सवालों से भरी नज़रें कनु से चोरी से मिलीं । कनु व निपुण दोनों ही चुप थे । मानो दोनों को साँप सूँघ गया हो । निपुण वहाँ से हट कर खिड़की के पास खड़ा हो बाहर देखने लगा, बीच बीच में कनु को भी देखता रहा । मानो पूछ रहा हो, कहाँ गुम हो गई थीं तुम? और अब मिली हो जब....जब सब कुछ ख़त्म हो गया है । उधर अंकल ने मम्मी से शादी पर न पहुँचने का गिला किया । दम्मी के पापा सतना में रहते थे । दम्मी की शादी से कुछ पहले ही भोपाल आए थे । सो, निपुण को कुछ ज्ञात नहीं था । निपुण ने मम्मी से मनु और साहिल का हाल पूछा । उन्होंने वादा किया कि वे कल निपुण से आकर अवश्य मिलेंगे । वे लोग चलने के लिए उठने लगे, पर कनु के पाँव पत्थर हो रहे थे । वो वहाँ से हटना ही नहीं चाहती थी । काश, वक्त वहीं थम जाता । क्या करे... क्या न करे । बेबसी थी । उधर निपुण भी जैसे भीतर ही भीतर टूटता जा रहा था । यह कैसा मोड़ आया है उनके जीवन में । यह कैसी मजबूरी थी कि तभी फोन पर बात पूरी करके दम्मी भीतर से आई । छूटते ही बोली, ’निपुण, यह कनिका । याद है डिंकी भैया की शादी में कोटा आई थी ।’ काश, निपुण कह सकता कि पिछले दो साल उसने एक उम्र की तरह इसी याद में ही तो काटे हैं । कितना तड़पा था वह हर पल । पर अब शिष्टता के नाते मुस्कुराकर उसने सिर हिला दिया । उसके भीतर झंझावत चल रहा था । कनु के चेहरे को पथराया देखकर वह अनुमान लगा पा रहा था कि आग दोनों ओर बराबर थी । पर भाग्य से चूक हो गई थी । सभ्यता व शिष्टता में कनु व दम्मी कहीं मेल नहीं खाती थीं । कनु हर लिहाज़ से ऊपर थी । कनु और निपुण ने अचानक ही एक ही समय एक दूसरे की ओर देखा और एक दूसरे के दिल में दूर तक उतरते चले गए । गिले शिकवे धोते व हालात के समक्ष घुटने टेकते से हुए ।

मम्मी ने उन सबको दो दिन बाद अपने घर खाने पर आने का निमंत्रण दिया । तब तक डैडी भी दौरे से वापिस आ जाएँगे । कनु तो कल ही होस्टल वापिस चली जाएगी । अब पुन: निपुण को वो कहाँ मिल पाएगी, यह सोचकर कनु परेशान हो उठी । कि तभी.....वैसे मिलकर करना भी क्या है अब । निपुण तो अब पराया है....उसका नहीं है । अपने पागल मन को समझाती, निपुण को फिर भी जी भर कर आँखों में समेटती वह मन कड़ा कर घर की ओर चल पड़ी।

घर पहुँचकर वह अपने कमरे में जा कर पलंग पर गिर पड़ी । खूब फफक फफक कर रोई । अविरल आँसू बहाती धुँधली आँखों से वह छत निहारने लगी । चलचित्र की भाँति वहाँ करीब दो वर्ष पूर्व की परछाईयाँ उभरने लगीं....वह दसवीं कक्षा का आखिरी पेपर देकर घर आई, तो देखा पैकिंग हो रही है । बिशन अंकल के बेटे की शादी उनके पुश्तैनी गाँव में हो रही है.... राजस्थान में कोटा के पास । वहीं जाना है । गर्मियों में राजस्थान....सुनकर अटपटा सा लगा । पर नई जगह देखने की इच्छा सब पर हावी हो गई । मम्मी व बच्चे जा रहे थे, जबकि दादी व पापा पीछे घर पर रहेंगे ।

दूसरे दिन दोपहर को ट्रेन जैसे ही बिना प्लेटफॉर्म के स्टेशन पर रुकी, गाँव का खुला उन्मुक्त वातावरण कनु को बहुत भाया । बिशन अंकल का बेटा डिंकी अपने दोस्त निपुण के साथ खुली जीप में उन्हें लेने आया था । हाँ, पहली नज़र में एक दूसरे को छुप छुप कर देखना स्टेशन से ही शुरु हो गया था । मम्मी पाँच साल के साहिल को गोद में लिए सामने की सीट पर डिंकी के साथ बैठीं । जबकि दस वर्ष की मनु लगी निपुण से बतियाने, और झट दोस्ती करली उससे । कनु को भी निपुण भा रहा था । असल में वो था ही कुछ आकर्षक व्यक्तित्व वाला । निपुण मुँह से कम बोलता था । उसकी, आँखें अधिक बातें करती थीं । वह कनु को घूरता रहा । कनु परेशान हो कभी इधर, कभी उधर देखती । कच्ची सड़क पर हिचकोले लगने से ज्यूँ ही कनु सँभलने लगती, तो एकटक घूरती आँखों से कनु की नज़रें टकरा जातीं । उसके सारे बदन में एक सिहरन सी दौड़ जाती । इससे पहले उसने ऐसा कभी महसूस नहीं किया था । कभी वो बालों की झूलती लट को चेहरे पर से हटाती, तो कभी यूँ ही घबराकर दुपट्टा ठीक करने लग जाती । उसके भीतर कुछ हलचल मच गई थी । अपलक तकना, ..... ऐसे में तो कोई भी घबरा जाए ना । सोलहवें वर्ष में पाँव रखा था कनु ने. ..क्या ऐसा होता है इस उम्र में । छि: क्या सोचने लगी वह, उसने अपने आप को समझाया ।

गाँव का बड़ा सा खुला घर । सीधे साधे लोग । आवभगत शुरु हो गई । कनु के दिलो दिमाग पर तो निपुण छाया हुआ था । मनु की गहरी छनने लगी थी उससे । कुल आठ दिनों का कार्यक्रम था । शादी की गहमा गहमी में कनु को हर पल यही लगता जैसे दो आँखें उसे घूर रही हैं । वह ज्यूँ ही इधर इधर देखती तो सामने निपुण बैठा उसे ही ताक रहा होता । मनु यानि कि मनीषा निपुण की उँगली पकड़े हर कहीं घूमती दिखती । दोनों कुछ न कुछ बातें करते रहते । एकाध बार कनु ने मनु को डाँटा भी, पर मनु कहाँ मानी । कनु भी निपुण के विषय में कुछ पूछना चाहती थी उससे, पर हिम्मत नहीं जुटा पाई । तभी कनु को एक प्यारी सी गाँव की भोली भाली सखी मिली ’कृष्णा’ । वह तो पास आकर उसके बदन की सुगंध को भी सूँघती, जो उसे सबसे भिन्न लगती । कृष्णा तो साये की तरह कनु के आसपास मंडराने लगी । उसीसे पता चला कि निपुण इंजीनियरिंग कर रहा है, डिंकी का दोस्त है । वह भी उनकी तरह शादी पर गाँव आया है । रात को गाने बजाने का दौर चला । कनु अपने स्कूल की बेहतरीन कलाकार थी । उसने भी ढोलकी की थाप पर लोक गीत सुनाए । आवाज़ में लोच थी । सामने लड़कों की टोली बैठी थी । खूब सीटियाँ व तालियाँ बजीं । कि तभी लड़कियों ने सिर पर दुपट्टा बाँधकर बोलियाँ डालीं.... ’मैनूँ इक बराण्डी चढ़दी जाए’....अचानक कनु व निपुण सब कुछ भूलकर एक दूसरे की आँखों में समाने लग गए । कितना गहरा नशा छा रहा था उफ्फ़ दोनों पर. । अगली सुबह दोनों के जीवन में इन्द्रधनुषी रंग भर कर लाई । अब तो पल भर को भी आँखों से ओझल होना उन दोनों को गंवारा न था । कनु का मन उसके बस में नहीं था । वह तैयार भी होती तो चाहती, निपुण उसे जी भर के देखे । आईने के सामने बैठती, तो स्वयं से ही शरमा जाती । इन तीन दिनों में ही कनु का चेहरा एक नई चमक से भर उठा । पानी का गिलास माँग कर निपुण ने पूछ ही लिया.. कितने दिन ठहरने का प्रोग्राम है । एक हफ़्ते का... बताया कनु ने ।

बारात मथुरा जानी थी । रेल की दो बोगी बुक थीं । निपुण दूल्हे के पास होगा या बोगी के अन्दर.जानते हुए भी कनु हर पल निपुण की राह तकने लगी । कृष्णा कनु की हालत देख देख कर मुस्कुरा रही थी । उसके साथ रहने से वह सब कुछ समझ गई थी । खिसियाकर कनु खिड़की की ओर करवट लेकर नींद को पलकों के घेरे में बंद करने का असफल प्रयास करने लगी । उस बोगी में सब सो रहे थे । हल्की नीली रोशनी का प्रकाश था बस । तभी ख्यालों के भँवर में डूबती उतराती उसने ज्योंही करवट ली, कि सामने ऊपर वाली बर्थ पर निपुण को लेटे हुए अपनी ओर टकटकी लगाए देखा । वो तो मारे खुशी के अरे..रे..रे कहते हुए उठ बैठी । दोनों ही मुस्कुरा दिए । मानो कोई छिपा हुआ खजाना मिल गया हो । एक दूसरे को आँखों ही आँखों में न जाने क्या क्या अफ़साने सुनाते रहे । उन्हें पता ही नहीं चला कब प्रभात की पहली किरण फूटी और चार बज गए । नींद का तो कहीं नामो निशान तक न था वहाँ । साढ़े चार बजे गाड़ी मथुरा पहुँचती थी.. सो सभी उठ रहे थे । इन दोनों ने आँखें मूँदकर झट सोने का बहाना किया । जो कुछ आँखों ने इस बीच पाया था, मानो उसे अपने भीतर संजो रखने के लिए । कृष्णा ने उठकर कनु को झकझोरा, ’उठ न । कनु..जल्दी कर ।’ कनु आँखें मलती झूठ मूठ उठी । तभी ट्रेन रुकी । सब उतरने लगे । जैसे ही नीचे उतरने व ऊपर चढ़ने की भीड़ उमड़ी...निपुण ने अचानक ही कनु को अपनी बाहों के घेरे में कस लिया । कनु को भी सारी रात की बेचैनी का सिला मिल गया । काश, पल वहीं थम जाता ।वे दोनों यूँ ही एक दूसरे से लिपटे रहते।

कनु और निपुण इस नवीन अनुभव के अजीबो ग़रीब सुख से सिहर उठे । पहली बार का आलिगंन. .. .... .उफ्फ़ यह कैसा नशा छा रहा था दोनों पर? गर्मियों में भी ठंडी हुई जा रही थी कनु तो । उसे लगा उसकी धमनियों में रक्त जमता जा रहा था । ख़्‍ामोशी का दामन ओढ़े गुमसुम सी वह कब सबके साथ बारात घर पहुँच गई उसे पता ही नहीं चला ।

सब की चुहलबाजियों में कनु हिस्सा नहीं ले पा रही थी । पर फिर भी आज वो खुश थी । दोपहर को निपुण ने मम्मी के पास आकर बातें की । कनु आगे क्या पढ़ने का सोच रही है । वह इंजीनियरिंग करके अपना काम देखेगा..वगैरह..वगैरह । रात को बारात में कनु खूब नाची । वह खिली कली सी महक रही थी । उसकी खुशी उसके हर अंग से टपक रही थी । निपुण उसके इर्द गिर्द ही मँडराता रहा । उसने कई बार उसे अपनी बाँहों में सँभाला शादी की भीड़ भाड़ में दोनों खिलखिलाते रहे । सारी रात फेरों के समय वे साथ साथ बैठे रहे । अंजाने भविष्य के सपने बुनते हुए । और भोर होते ही विदाई का समय हो गया. । अब सब के बिछुड़ने की घड़ी करीब आ गई थी । मनु ने निपुण भाई से उनका पता लिया । चिट्ठी लिखने के वादे हुए । कनु इशारा समझ रही थी । बस यहीं...यहीं तो भाग्य ने करवट ले ली और कनु व निपुण ने आख़िर उसके समक्ष घुटने टेक दिए ।

आँसुओं से नम आँखें लिए कनु प्लेटफॉर्म पर खड़े हाथ हिलाते निपुण को देखती रही जैसे कभी अर्जुन ने तीरन्दाज़ी के लिए मछली की आँख को देखा था । उसे आसपास और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था निपुण के सिवाय । फिर हाथ में पकड़े नॉवल में झूठ मूठ को आँखें गड़ा दीं । मनु का बचपना एक बहाना बन गया, एक कहानी को शुरू होते ही खत्म करने के लिए । मनु ने निपुण के पते वाला कागज़ न जाने कहाँ रख दिया था या फिर वो कहीं गिर गया था । भोपाल पहुँचने पर निपुण की चिट्ठी आई, लेकिन उसमें उसका पता नहीं था । कनिका उसे जवाब दे भी तो कहाँ.... । दोबारा उसकी चिट्ठी मनु के नाम से आई, लेकिन पता फिर नदारद । तड़प कर रह गई कनु । इसी बीच नई एडमिशन्स चालू हो गई । वह आगे पढ़ने होस्टल चली गई । वहाँ भी वह सारी सारी रात जागती, पर किसी से कुछ कह न पाती । डिंकी से पता माँगे भी तो कैसे । उससे तो कभी बात ही नहीं की थी । वह लाज में डूबी रह गई । उन मीठी यादों की सुलगती भट्टी पर राख झड़ी भी तो शोले ही शोले थे अब जलने के लिए । दिल के किसी कोने में जो एक इंतज़ार था समय की ओट में....वह आज खत्म हो गया था । यादों के झरोखे से अतीत में झाँकते हुए गालों पर आँसू अविरल बहे जा रहे थे । कनु झटके से उठी, भरे मन से अपना सामान पैक करने लगी । उसे होस्टल जाना है, आगे जीने के लिए । भाग्य ने हाथ की रेखाओं की जो करवट ली उसके समक्ष वह हार गई थी ।

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लघुकथाएँ

डॉ. वीणा विज ’उदित’


नौलखा हार

शादी की 25वीं सालगिरह पर मिस्टर राम ने केक काटते वक्त मिसेज राव के गले में नौलखा हार पहनाया खूब तालियां बजी पार्टी में सभी खुशी जाहिर कर रहे थे लेकिन कहीं ईर्षा की लहर सभी के दिलों पर लौट रही दिख रही थी खैर बत्रा साहब ने उनकी बहुत तारीफ की भाई दोस्तों को तो यही शोभा देता है ऐसे मौकों पर ।

 लेकिन घर पहुंचते ही मिसेज बत्रा ने उन को आड़े हाथों लिया । मिसेज राव की किस्मत पर भब्ती भी कसी । उनका 7 वर्षीय पुत्र अंगद वहीं बैठा उनकी बातें सुन रहा था । उसने मम्मी से पूछा कि नौलखा हार कैसा होता है, जो उसकी मम्मी के पास नहीं है पर मिसेज राव को उपहार मिला है । उसकी मम्मी ने समझाया कि उसमें 9 रंगों के नग यानी कीमती पत्थर होते हैं । बहुत खूबसूरत । अभी वह छोटा है । जाकर खेले, जब बड़ा होगा तो उसे पता चल जाएगा ।छोटा सा अंगद सोच में डूब गया उसकी मम्मी की किस्मत क्यों अच्छी नहीं हो सकती है ? उनके पास नौलखा हार क्यों नहीं हो सकता ! कुछ तो करना पड़ेगा । कुछ दिन बीत गए । 

एक दिन मिसेस बतरा बैठी टीवी देखने में व्यस्त थीं कि अंगद पीछे से आकर बोला, "मम्मी आप आंखें बंद करो आपकी किस्मत भी अच्छी होने वाली है ! आपकी मनपसंद चीज आपको मिल रही है!

मिसेस बत्रा ने लाड़ में भरकर आंखें भींच लीं । तभी अंगद ने मां के गले में मोतियों की एक माला धागे वाली डालकर पीछे से पकड़े रखा और बोला, " मम्मी देखो आपके गले में क्या है ?....".नौलखा हार "! मम्मी अब आपकी किस्मत अच्छी है ना! मिसेस राव आंटी से भी अच्छी ।

मिसेस बतरा ने देखा कि एक धागे में 9 रंगों के मोती डाले हुए थे उसमें । उन मोतियों को ना जाने कहां कहां से ढूंढा व इकट्ठा किया होगा उस छोटे से बच्चे ने ! उन्होंने खींचकर अंगद को छाती से लगा लिया । वात्सल्य के मोती उनकी आंखों से झर कर अपने बच्चे को भिगो रहे थे । उन्हें हर तरफ यही हार दिख रहा था बेशकीमती...!

कुत्ते की जून


शिब्बू की ड्यूटी में यह भी शामिल था कि वह सुबह और शाम रॉकी को बाहर घुमाकर फ्रैश करवाएगा । ऐसे वक्त में वह ढेरों (मां बहन की) गालियां निकाल -निकाल कर अपने मन का गुस्सा व भड़ास उस पर निकालता रहता था! पूरा परिवार रॉकी को लाड़ -प्यार करता था ।

जब मेहमानों के सामने उसकी शान बखारी जाती थी, तो शिबू बहुत कुढ़ता र्और सोचता काश ! उसे भी कुत्ते की जून मिली होती । वह तो सारा दिन चाहे जितनी मेहनत करे लेकिन झोली में उसके हिस्से डांट ही आती है । और एक यह कुत्ते महाराज जी हैं सारा दिन अपने गद्दे वाली सीट पर बैठे पूछ हिलाते हैं या मन चाहे तो भोँभौं करके एक्स्ट्रा लाड बटोरते हैं । सुबह उठते ही आधी ब्रैड, दूध, अंडा खाते हैं जबकि हम केवल चाय का कप । और बाकी खाना भी स्पेशल बनता है । आखिर क्या मिला उसे मनुष्य जन्म लेकर ...!

एक बार घूमने जाने पर रॉकी कुछ सड़क छाप कुत्तों से घिर गया । चिढ़ के मारे शिबू ने उसकी चेन छोड़ दी । तभी एक गंदे कुत्ते ने रोकी की टांग पर काट खाया । शिबू ने घर आकर यह बात किसी को नहीं बताई । रॉकी दर्द से चूं चूं करता । किसी को समझ नहीं आ रहा था । लेकिन फिर भी मालिक उसे डॉक्टर को दिखाने ले गए । उसकी टांग में गैंग्रीन हो गया था । तब तक इलाज में कोताही बरतने से जहर फैल गया था और रॉकी को बचाया नहीं जा सका । पूरा परिवार उसकी अचानक मौत से उदासीन था ।लेकिन शिबू को राहत मिल गई थी । एक काम तो छूटा । फिर भी वह गुमसुम बैठा था दिखावे के लिए । मालिक को तरस आया और बोले, "उठ तू चाय पी जाकर तेरा साथी तो गया । चाय के साथ अब ब्रैड तू ही ले लिया कर ।" यह सुनते ही शिबू की तो लॉटरी लग गई ! उसे लगा कि उसे सच में ही कुत्ते की जून मिल गई है । वह भी दुम हिला रहा है । बाहर गेट पर जाकर वह खुशी से भौं- भौं करने लगा ।

जुम्मे की नमाज़

अहमद मियां ने बेटे युसूफ ‌के घिसे- पिटे जूते देखे, तो उन्हें अपने आप पर शर्मिंदगी महसूस हुई कि उनकी नजर उस पर पहले क्यों नहीं गई । उन्होंने अपने जवान बेटे को बुलाया और बातों- बातों में कहा, " मियां कहां खोए रहते हो आजकल? चलिए आपको आज नए जूते ले देते हैं ।"

युसूफ मियां गुमसुम थे । चाहा कि अब्बू को टाल दें लेकिन अब्बू नहीं माने और उसे साथ ले मार्केट चल पड़े । उन्हें कोई जूता पसंद नहीं आ रहा था । एक दुकान, दूसरी दुकान आखिर हार कर तीसरी दुकान पर भी जब कुछ उनकी नाक के तले नहीं आया तो अहमद मियां खीझ उठे । गुस्से में बोले, "आखिर जनाब कैसा जूता चाहते हैं?"

युसूफ मियां बड़े धीरज से बोले, "कल जुम्मे की नमाज़ अदा करने मस्जिद जाना होगा ही अब्बू, बस वहीं.... मसला सुलझ जाएगा । आप इत्मीनान रखें ।

जलेबी की छत

जब कभी गरीबी का फाका करना पड़ता था तो लल्लू भगवान को कोसता था, "माना तुमने मुझे पैदा किया लेकिन पेट क्यों दे दिया? मैं कहां से अपना पेट भरूं? उसके दोस्त रशीद की आपा की शादी थी । रशीद ने अपने जिगरी गरीब दोस्त लल्लू को भी न्योता दिया था ।आज जी भर कर आठ पूरियां खा ली थीं उसने । अब वह मिठाई खाने के लिए ललचा रहा था सो एक दोने में ढेर सारी जलेबी और लड्डू भी लेकर आ गया था । मिठाई देख- देख कर वह रशीद को बोल रहा था, 

"मैं बड़ा होकर घर बनाऊंगा जिस की दीवारें लड्डू की खड़ी होंगी और उसकी छत जलेबी की होगी ।" कहते हुए लल्लू ने जलेबी मुंह में डाली और सारा शीरा जलेबी में से निकलकर उसके कपड़ों पर गिर गया । यह देख रशीद तालियां बजाकर हंसने लगा और उसे चिढ़ाते हुए बोला, "फिर तो ऐसे ही शीरे की तरह गिर जाएगी तेरी जलेबी की छत भी एक दिन । मीठा पसंद है तो मीठा जी भर के अभी खा ले । हवाई किले मत बना । कल की भी मत सोच । क्या मालूम कल मीठा मिले ना मिले । जा, एक दोना और ले आ ।"इधर लल्लू आज भगवान को कोस रहा था कि पेट तो थोड़ा बड़ा देना था । पांच दोने खाने के बाद उसके पेट का बुरा हाल था । वह भर चुका था गले तक और छठा दोना हाथ में लिए वह अब भी उसे ललचाई दृष्टि से देख रहा था । उसकी नजर सामने बैठे मोटे पेट वाले लाला जी पर थी । काश! उसका भी पेट ----!!!

ममता की मारी

तीन-चार दिनों से बेटे का विदेश से फोन ना आने पर रमा को हर पल बेचैनी घेर रही थी । आखिरकार हार कर रमा ने व्हाट्सएप पर उसे कॉल कर ही दी । उधर से बेटे ने खीझ कर कहा, " क्या करती हो मां ? मैं काम निपटा कर सोने लगा था । बहुत रात हो गई है । थका हुआ हूं । सुबह ऑफिस भी जाना है ।"

रमा ने छूटते ही कहा, " सो जा बेटा, बस तेरी आवाज सुन ली है । चैन आ गया है ।"और झट फोन बंद कर दिया ।

आशीष 

छाती ठण्ड से जकड़ जाने से जुकाम व खाँसी का जोर था जिससे मनु तेज बुखर से बेसुध पड़ी थी । पाँच साल की नन्ही जान को इतने कष्ट में देखकर भारती का अपना हौंसला भी टूट रहा था । दवाई तो मानो असर ही नहीं दिखा रही थी । कमरे में रूम-हीटर चलने के बावज़ूद भी ठंड़ महसूस होती थी । सारा दिन वो मनु को गोद में लेकर बैठी रही थी । सोमेश के आँफिस से लौटते ही भारती ने मनु को उनकी गोदी में दिया और अपने चेहरे पर आई मायूसी को ताज़ी हवा के झोंके से कुछ कम करने के लिए निक्कू पार्क के सामने की सड़क पर टहलने निकल गई । साँझ के ट्रेफिक से बचने के लिए, सड़क के किनारे लगे घने पेड़ों के नीचे चलते हुए उसने देखा – एक दुबली पतली भिखारिन एक बच्चा गोद में उठाए व तकरीबन चार-पाँच साल की बच्ची को दूसरे हाथ से घसीटती हुई मार्केट की ओर तेज कदमों से बढ़े जा रही थी । उसके पाँव में रबड़ की चप्पल थी लेकिन बच्ची, जिसके सिर व छाती पर एक दुपट्टा लिपटा था वो इस कड़ाके की ठंड में नंगे पाँव थी । उसका नाक बह रहा था व उसकी साँस खड़क रही थी, मनु की ही तरह । भारती के मातृत्व को यह गँवारा न हुआ । उसने उस औरत को रोककर पूछा कि इस बच्ची को पैरों में कुछ पहनाया क्यों नहीं ?

वो बोली, ‘हमार पास ए के लाने चप्पल नाही है ” प्रत्युत्तर में भारती का मातृत्व उसे नम्र बना गया । उसने उस बच्ची का हाथ पकड़ा और उसे मार्केट की ओर ले गई । वहाँ ‘अवतार शूज़’ पर पहुँचकर उसे जूते ले दिए । 

पीछे-पीछे आती वह भिखारिन भाव -विभोर हो भारती के पाँव छूने लगी तो भारती ने उसे बीच में ही पकड़ कर उठा लिया व स्नेह से उसका कंधा थपथपाया । इस पल वे दोनो” माँ ” थीं । वो भिखारिन उसे आशीषें दिए जा रही थी । भारती वापिस आ रही थी । शांत व संयत ! एक आत्मिक सुख का बोध हो रहा था उसे । जैसे ही वो घर पहुँची, हैरान हो गई । देखती है कि मनु पापा के साथ खेल रही है । उसका बुखार उतर गया था । भारती की आँखों के सामने भिखारिन की आशीषें थीं, जो उस पर बरस रही थीं ।

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यात्रा संस्मरण

डॉ. वीणा विज ’उदित’


कन्याकुमारी के दर्शन

इस बार सर्दियों में भारत माता के चरण छूने और नतमस्तक होने हम कन्याकुमारी के दर्शन को जा रहे थे । बहुत अरमान था विवेकानंद रॉक्स देखने का, वह भी पूरा होने जा रहा था । कन्याकुमारी तक सीधे हम रेल गाड़ी से जा रहे थे । 2 टायर का डब्बा हमारा घर जैसा बन गया था । अब तक के सफर में यह सबसे लंबा सफर था । दक्षिण भारत जाने की आदत सी बन गई थी अब ।

घर से हर बार की तरह गुड़ पारे, पिन्नी, बेसन के लड्डू और बिस्कुट बनवा कर साथ रख लिए थे । इसके अलावा दक्षिण भारत पहुंचे नहीं कि टोकरी में वड़े लेकर ट्रेन में वड़ा बेचने वालों की आस शुरू हो गई थी । शायद नारियल के तेल में तले होने के कारण उनका स्वाद कुछ अलग ही था । वह भी हम खूब स्वाद से खाते रहे ।

हम सब बहुत उत्साहित थे । होटल में सामान रखकर, तैयार होकर हम सीधे भारत के चरणों में बिछी काली चट्टानों पर पहुंचे और उन पर चढ़कर जोर- जोर से चिल्ला रहे थे । भारत माता की जय! जय हिंद! देश भक्ति की भावना से हम सब ओतप्रोत थे । मेरे मुख से वंदे मातरम गान निकल रहा था.....!

सबसे बड़ा अचंभा था उन चट्टानों के पांव पखारते जल को देखना । भारत माता के मस्तक पर सजे हिमालय से ही तो हम आए थे । सिर से पांव तक पहुंच कर बहुत गर्व हो रहा था । नीली छतरी वाले का कोटिश धन्यवाद किया कि उसने हमें ऐसा मौका दिया । यहां पर sunrise और sunset अद्भुत दिखाई देता है । समुद्र के भीतर से आग के गोले को जन्म लेते या ऊपर आते देखना संपूर्ण जीवन में शक्ति संचारित कर देता है । उसी प्रकार संध्या काल में सूर्य का सागर में धीरे- धीरे अपना अस्तित्व खोना विस्मित कर देता है ।

काली चट्टानों के तीनों ओर तीन रंगों का पानी और तीन रंगों की रेत थी--- काली, ब्राउन व सफेद ! हर तरह का पानी हाथ में ले लेकर हम चट्टानों के ऊपर डाल रहे थे मानो मां के पैर धो रहे हों । एक आत्मिक संतुष्टि का बोध था । मां के पैर पखारने ही तो आए थे हम । वहां कन्याकुमारी के मंदिर के भी दर्शन करने गए, जो मां पार्वती का रूप माना गया है---उसकी बड़ी मान्यता है । प्रचलित गाथाओं के अनुसार, कहते हैं राजा भरत की कुंवारी कन्या ने यहां बाणासुर का वध किया था इसीलिए इसे शक्तिपीठ माना गया है ।

वापस आने पर बच्चों ने 3 रंग की रेत के पैकेट एक दुकान से खरीदे । प्रिंसिपल को दिखाने के लिए । लेकिन प्रिंसिपल मिस्टर दुबे बेहद खुश होकर बोले कि सारे स्कूल को जानकारी देनी चाहिए । बड़े बेटे मोहित ने फिर वहां के बारे में morning assembly में जानकारी दी और रेत की किस्में दिखाई थीं । यह बातें सब को अविश्वसनीय लगीं, पर यही सच है ।

विवेकानंद रॉक मेमोरियल

कन्याकुमारी में तट से एक छोटे जहाज में, जो लहरों पर खतरनाक तरीके से डोल रहा था और जिस में बीच-बीच में लहरें उछलकर पानी डाल जाती थीं । डरते हुए हम श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य विवेकानंद को समर्पित "विवेकानंद रॉक मेमोरियल" पर पहुंचे! यह समुद्र तल से 17 फीट की ऊंचाई पर एक छोटे से द्वीप के पर्वत की चोटी पर स्थित है । इसके चारों ओर बंगाल की खाड़ी वाले समुद्र की ऊंची- ऊंची लहरें उठ रही थीं ।

‌ वहां पर बहुत बड़ा मेडिटेशन सेंटर भी था भीतर की ओर । जब सब लोग भीतर घूम रहे थे तो मैं वहां थोड़ी देर के लिए मेडिटेशन करने बैठ गई । बरसों से यह मेरी ख्वाईश थी, जिसे मैं हकीकत का जामा पहना रही थी । हैरानी की बात है कि बाहर चट्टानों से टकराती लहरों का शोर भीतर मेडिटेशन सेंटर में आता ही नहीं । वहां पूर्ण शांति थी।

कहते हैं ना तुम ख्वाब देखो तो सही, फिर परिस्थितियों के साथ-साथ कायनात भी तुम्हारा साथ देती है उसे पूरा करने में । वहां बैठते ही अश्रु जल धाराओं से मेरे गाल भीग रहे थे । ईश्वर का धन्यवाद करते मैं थक नहीं रही थी । मेरी बचपन की ख्वाईश अब पूरी हो गई थी । मेरे आदर्श थे स्वामी विवेकानंद क्योंकि उनका कहना था

"Prayers can move the mountains, " and I solemnly believe it.

उम्र का वह दौर परफेक्ट था चलने के लिए । अब इस उमर में हम इतना नहीं चल सकते क्योंकि वहां बहुत चलना पड़ता है । खूब नारियल पानी पिया नारियल खाया और कन्याकुमारी घूमने के बाद अब हम केरला की ओर चल पड़े थे । और त्रिवेंद्रम के लिए ट्रेन में बैठ गए ।

त्रिवेंद्रम (Kerala)

त्रिवेंद्रम में मेरी बहन की ननद शशि रहती थी । उनके पास ही जा रहे थे हम । शशि के तीन बेटे थे और मेरे तीनो बच्चे सब आपस में मस्त हो गए थे । वहां एक दिन हम त्रिवेंथापुरम चिड़ियाघर देखने गए । यह दुनिया में बहुत बड़ा और काफी पुराना चिड़ियाघर माना जाता है, इसे पैदल नहीं देखा जा सकता । हम जीप में सांझ ढले थके मांदे जब वहां से बाहर निकले तो सामने वहां रेहड़ी पर लाल, पीले, हरे केले बिकते देखे । इतनी किस्में देखकर हम चकित थे । और उन्हें खाने की लालसा हो आई । लाल केले 2-3" इंच के भी थे और बहुत मीठे थे ।

दूसरे दिन हम "पद्मनाभास्वामी मंदिर" गए । इसके प्रवेश द्वार को " गोपुरम"कहते हैं । जो 100 फुट ऊंचा है और 40 फुट जमीन के भीतर है । पद्मनाभास्वामी अर्थात नाभि से निकले कमल पर ब्रह्मा । वहां भीतर दर्शन करने के लिए धोती पहन कर जाना पड़ता है । मैं साड़ी पहनती हूं इसलिए मैं तो आराम से गई । लेकिन हमारे साथ मर्द और बेटे कपड़े बदलने को तैयार नहीं थे, इसलिए वह लोग भीतर नहीं गए ।

मजेदार बात यह है कि हमें मलयालम आती नहीं और उनको हिंदी आती नहीं । अपने ही देश में लगता है हम विदेश में हैं । ख़ैर, इसलिए वहां के दुकानदार अंग्रेजी के दो चार शब्द बोलते हैं ।सो, जहां हम खड़े थे, दुकानदार ने इशारे से पूछा, where?

इस पर रवि जी बोले, "पंजाब!"

वह हैरानी से बोला, " भिंडरावाले---?"

यह सुनते ही हम सब हैरान कि इसे पंजाब का इतना ही ज्ञान है । हमने" हां" में सिर हिला दिया ।

मैं भीतर जाकर देखती हूं --भीतर छोटा सा मंदिर था, बीच में एक खंभा था । इसमें शेषनाग शैया पर श्री विष्णु भगवान लेटे हैं । खंभे से दूसरी ओर देखने पर उनकी नाभि से निकले खिले कमल पर ब्रह्मा जी विराजमान हैं । ऐसा मंदिर उत्तर भारत में या मध्य भारत में मैंने कभी नहीं देखा था । यह मंदिर 7 मंजिला है । बहुत ही सुंदर कारीगरी के मध्य में हर मंजिल पर एक दरवाजे जितना झरोखा था ।

और हैरानी की बात है कि सूर्य उदय होने पर बारी - बारी हर झरोखे से सूर्य नीचे आता दिखाई देता है । लगता है, 16 वीं शताब्दी में बहुत ही कुशल इंजीनियर और आर्किटेक्ट्स ने यह मंदिर बनाया होगा!

भारत के मंदिरों में बहुत अजूबे देखने को मिले । गर्व होता है भारत की कलाकृति और संस्कृति पर ।

केवल किताबों में ऐसी तस्वीर देखी थी ।(अभी कुछ वर्षों पूर्व वहां के सोने के आभूषणों से भरे खजाने के बारे में बहुत कुछ पढ़ा । जो उस मंदिर के नीचे था समुद्र तट की ओर । कहते हैं इसका एक गर्भ गृह अभी भी बंद पड़ा है ।) इसे दुनिया का सबसे धनाढ्य मंदिर माना जाता है । त्रिवेंद्रम के कोवलम बीच पर भी बच्चे फिर पानी में मस्ती करने उतर गए और मौसम भी उनका साथ दे रहा था ।

कोचीन

त्रिवेंद्रम से हम भारत के पश्चिम तट अरब सागर की ओर लक्षद्वीप सागर के साउथ वेस्ट में "कोचीन" पहुंचे । इसे Ernakulam भी कहते हैं । वहां पर कश्मीर की तरह हाउसबोट तो नहीं थीं । हां, पानी में गोल झोपड़ी नुमा बेंत के बुने हुए घर की नाव चलती है । टूरिस्ट लोग उन्हीं में रहना पसंद करते हैं । और सैर के लिए भी जाते हैं । वहां से मैं अपनी रसोई के लिए स्टील की मटकी खरीद कर लाई थी बहुत सुंदर । जो मैंने पहले कहीं नहीं देखी थी ।

यहां मल्लाहों की पानी में नौका रेस होती है । नौकाएं भी दोनों छोर पर सुंदर तरीके से डिजाइन वाली बनी होती हैं। वहां बंदरगाह पर जहाज भी बहुत देखे । Cochin का shipyard famous है । लेकिन बीच देखते ही बच्चों ने समुद्र में यहां भी स्नान किया और मस्ती की ।

इस तरह केरला का टूर करके ढेरों मीठी यादें लिए हम लौट आए थे ।

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कहानी

डॉ. वीणा विज ’उदित’


बैसाखियाँ

आधी रात को डैडी जी को जो खाँसी लगी, तो बंद होने का नाम ही न ले| ममी जी घुटनों के दर्द से पीड़ित पास ही लेटी, बस शोर ही मचाए जा रहीं थीं कि वे उठकर कफ़ सिरप ले लें या फिर मुलट्ठी-मिसरी ही मुँह में डाल लें । लेकिन खाँसी जो एक बार छिड़ी, तो डैडीजी बेदम से हो गए । बुढ़ापे की खाँसी कितनी जानलेवा होती है, यह तो अनुभवी ही समझ सकते हैं । ख़ैर, अपने को उठने में असमर्थ पा, ममीजी ने पूरे ज़ोर से रामू-रामू की रट लगाई । जवानी की नींद गहरी होती है, फिर भी रामू को दूर से ममीजी की आवाज़ आती लगी तो वह किसी भावी आशंका के डर से उठकर उनके कमरे की ओर भागा । आते ही उसने कुनकुने पानी में कफ़-सिरप डालकर डैडीजी को दिया। उनके गले एवम्‌ छाती पर विक्स मली, तब कहीं जाकर उनको कुछ आराम मिला । फिर दो-‍तीन तकिए रखकर उनका सिर टिकाया । इस बीच ममीजी लगातार हिदायतें देती जा रहीं थीं, साथ ही दुआएँ भी । जब उसने देखा कि दोनों अब आराम से लेट गए हैं तो वो भी वहीं कारपेट पर लेट गया कि कहीं उनको फिर उसकी ज़रूरत न पड़ जाए। 

सुबह सवेरे जब डैडीजी की आँख खुली, रामू को वहाँ ही सोया देखकर उनकी आँखों की कोर भीग गई । वे गहरी सोच में पड़ गए । उनके मनोःमस्तिष्क पर एक गहरी सी धुन्ध छाने लगी । उसमें वे रिश्तों के मायने ढूँढने लगे । लेकिन कुछ साफ-साफ दिखाई नहीं दे रहा था । डाल के पके फल से वे न जाने कब टूटकर गिर पड़ें । उनके न रहने पर लाली की ममी का क्या होगा? आदित्य तो जो एक बार पढ़ने को घर से निकला तो समझो सदा के लिए चला गया । ब्याहकर बीवी को भी साथ अमेरिका ही ले गया । पहले-पहले हर हफ़्ते फोन आता था, धीरे-धीरे फोन आने की रफ्तार भी धीमी पड़ गई । वे भी क्या करें, आदि का बहुत काम है और हिना भी काम पर जाती है । घर अकेली नहीं बैठ सकती । जब-कभी आदि बात करता है, तो यही कहता है कि कैसी तबियत है? कब आना है? कब टिकट भेजूँ? बता देना । डैडीजी को लगता किसी नाटक के रटे रटाए संवाद बोल रहा हो । लेकिन-ममीजी का पुत्र-प्रेम तो सागर की तरह कभी न सूखने वाला अथाह जल-प्रवाह है । वे मेरे बच्चे ! मेरे लाल ! तूँ ठीक है न! कहकर सिसकने लगतीं । वो सदैव यही कहता कि वे किसी किस्म की कँजूसी न करें और किल्लत न सहें । वो उनको छोड़कर इसीलिए तो इतनी दूर कमाई करने आया हुआ है । हाड़-माँस के ऐसे रिश्ते भी क्या हुए, जिन्हें बनाए रखने के लिए नाट्कीय बातें करनी पड़ें । ममीजी की समझ में यह सब नहीं आता और वे उसे याद कर के रोने लगतीं । 

वास्तविकता को तो झुठलाया नहीं जा सकता । अमेरिका में मैडिकल इतना महँगा है कि दोनों बुजुर्ग बीमारी की हालत में वहाँ जाने कि हिमाकत कैसे कर सकते हैं । फिर रहन-सहन का भी ज़मीन-आसमान का अन्तर है । यहाँ सेवा करने के लिए रामू सदा हाज़िर है । वहाँ सब काम स्वंय करो । बेटे को अपने हाथों खाना खिलाने का मोह-संवरण ममतामयी बीमार माँ कहाँ कर पायेगी वहाँ- सो न चाहते हुए भी थकावट से बीमार हो जाएगी । यही सब सोच कर डैडीजी बेटे को स्पष्ट शब्दों में कह ही देते कि तुम लोग आ जाना जब समय मिले । हम दोनों का आना संभव नहीं है । इसके उपरान्त वे कुछ समय तक निराशा से घिर जाते । भावी असुरक्षा उन्हें अवसादग्रस्त कर देती । यही बातें उन्हें भीतर ही भीतर सालती रहतीं । ऐसे समय रह-रह कर वे एक कंधा तलाश करते जिसपर सिर रख कर वे चैन पा सकें । 

दरिया की रवानगी आगे ही आगे है| कभी दरिया भी पीछे मुड़कर देखता है कि जिन किनारों को वो पीछे छोड़ आया है वो कायम भी हैं या नहीं| जिन पत्थरों की गोद में खेलकर उसने जीवन जीया, निरंतर आगे बढ़ना सीखा वो किसी बिजली के गिरने से टूट तो नहीं गए । प्रेम भी ऐसा ही बहता दरिया है । माँ-बाप अपने बच्चों के प्यार में तड़पते हैं, उनके बच्चे समय आने पर अपने बच्चों के लिए बेचैन रहते हैं—और यही सिलसिला सदा से चलता आ रहा है । यही सोच कर डैडीजी अपने भीतर छायी निराशा की धुन्ध में भी रोशनी लाने का यत्न करते । हर शाम को अँधेरा घिरते ही उसकी परछाईयाँ उन्हें अपने ऊपर रेंगती हुई उस अँधेरे में उनके अस्तित्व को लपेटती हुई लगतीं । कारण–एकाकीपन व असुरक्षा !!!

बेटी लाली अपनी गृहस्थी में मान-सम्मान पा रही है, ससुराल में उसकी प्रशंसा होती है जानकर डैडीजी-ममीजी गौरवान्वित होते । कभी-कभी ममीजी उदास हो जातीं तो हर किसी से उसकी ही बातें करती रहतीं । जब कभी बच्चों को लेकर वो मायके आती तो घर-आँगन चहक उठता । उनके पास बैठकर वह उनसे दुख-सुख साँझा करती व उनपर स्नेह उड़ेलती । वक्त को भी पंख लग जाते । उन सब के जाते ही घर में कितने ही दिनों तक उनकी गूँज सुनाई देती रहती । शुरू हो जाता इंतज़ार ! उनके दोबारा आने का । 

रामू दिल से बहनजी की सेवा करता एवम्‌ बच्चों के आने से खुशी-खुशी खूब काम करता । लाली ने देखा कि वह माता-पिता को रोज़ काढ़ा बना कर देता व उनके पाँव भी दबाता है । सच कहो तो पूरा घर ही उसी ने सँभाला हुआ था । ढेर सारी बिमारियों के चलते ममीजी उसे डाँटतीं, तो डैडीजी कहते, “रामू को न डाँटा कर भागवान!” लेकिन रामू ने उस डाँट को कभी डाँट नहीं समझा था । उस गुस्से के पीछे छिपे नरम व प्यार भरे दिल की उसे पहचान थी । वह तो हर रिश्तेदार की असलियत भी खूब पहचानता था । आदि की पुरानी घड़ी व कपड़े मिलने पर वह बहुत गर्व महसूस करता था । रामू दिल का नरम व नियत का साफ़ था, यह डैडीजी ने कई बार परख लिया था । उन्हें उस पर भरोसा था । 

लाली के बेटे के मुंडन हैं, फोन आया । रामू को लेकर ममी-डैडीजी तीन दिन पहले ही कार से आगरा पहुँच गए । अमेरिका से आदि अकेला ही आया था, सीधे आगरा पहुँचा । बहुत धूमधाम से फंक्शन सम्पन्न हुआ, साथ ही आदि के आने से सभी हर्षित थे । 

वापसी में आदि रामू के साथ आगे ही बैठ गया । आदि का हाल-चाल पूछने की बजाय डैडीजी को न जाने क्या सूझी कि लगे रामू की तारीफों के पुल बाँधने । ऐसे में आदि अपने को हयूमिलेटेड अर्थात नीचा महसूस करने लगा । उसे लगा - उसकी मज़बूरियों को नज़रन्दाज़ कर जान-बूझकर डैडीजी उसे नौकर के समक्ष जलील कर रहे हैं । यूँ कतरा-कतरा जलील होने से तो अच्छा है वो अपना अस्तित्व ही मिटा दे । उसकी रीढ़ की हड्‌डी अचानक अकड़ गई । न जाने उसे क्या हुआ कि उसने फुल स्पीड जाती हुई गाड़ी को एकदम से अपना पैर अड़ाकर ऐसी ब्रेक लगाई कि पीछे से आता ट्रक बाईं ओर से जहाँ ममीजी बैठी थीं, वहाँ आकर लगा । रामू भी गड़बड़ा गया, लेकिन उसने भैयाजी की यह हरकत अपने तक ही सीमित रखी । भैयाजी भी बुरी तरह घायल हो गए थे, वो भी बाईं ओर बैठे
थे । 

अस्पताल में होश आने पर डैडीजी ने देखा कि रामू का खून ममीजी को चढ़ाया जा रहा है । डॉ. ने बताया कि केवल रामू का ब्लड-ग्रुप ममीजी से मेल खाया था और वो सीरियस थीं । उधर आदि की बाँह पर पलास्तर चढ़ा हुआ था व आँख पर टाँके लगे हुए थे । डैडीजी ईश्वर की न्यारी लीला पर हैरान थे कि सगा बेटा पास होते हुए भी माँ को खून नहीं दे सका । उनकी आँखों की कोरों से आँसू बहने लगे । हृदय से सैंकड़ों मूक आशीर्वादों की झड़ी लग गई । 

रामू स्वस्थ था । वह भैयाजी के पास उनका हाल पूछने गया तो शर्मिंदगी से आदि की आँखों से आँसू बह निकले व उसने दूसरे हाथ से रामू के हाथ पर अपना हाथ रख दिया । रामू ने मुस्कुराकर दोनों पलकें बंद कर के सिर हिलाकर उसे विश्वास दिलाया कि वह निश्चिंत रहें-उनकी ग़लत हरकत उसके अंदर दफ़न हो गई है । यह राज़ कभी नहीं खुलेगा । 

रामू आज सचमुच पूरे परिवार की बैसाखी बन गया था । ममीजी से खून का रिश्ता बनने से सबको उसमें अपनत्व लगा । लाली का परिवार भी पहुँच गया था । डैडीजी ने तो भावना के स्तर से ऊपर उठकर अपनी वसीयत में भी फेर-बदल कर डाला । जिस कँधे की उन्हें तलाश थी वह केवल रामू का ही है–यही उनके बुढ़ापे की बैसाखियाँ हैं । अब वहाँ क्षोभ के लिए कोई स्थान नहीं था । आदित्य के लिए अमेरिका में रहकर यह सब करना असंभव था सो वह कुंठा-मुक्त हो गया था । और डैडीजी निश्चिन्त !

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कहानी

डॉ. वीणा विज ’उदित’


"रक्तबीज दानव"

"हैलो", हैलोओओ! रजत । "घबराई आवाज..

"जी, पापा आप घबरा क्यों रहे हैं? क्या बात है?"लेकिन पापा की आवाज़ की टोन पर स्वयं उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं । पापा का फोन हो या मम्मी का, वह बिना देर किए उठाता था क्योंकि वह उन दोनों को अकेला इंडिया में छोड़ कर सिडनी (आस्ट्रेलिया) आ गया था ।

"बेटा, तुम्हारी मम्मी 3 दिन से ठीक नहीं है खांस भी रही है और उसको 103 डिग्री बुखार भी है । मेरी हालत भी ठीक नहीं है । मुझे भी लगातार 100 डिग्री बुखार चल रहा है । मुझे शक है कि कहीं हम कोरोना वायरस के शिकंजे में तो नहीं कसे गए!"

इतना सुनते ही रजत का सिर घूम गया । वह उनसे सुबह शाम पूछता था कि आप दोनों ठीक है ना? इतनी दूर, दूसरे देश में बैठकर वह और कर भी क्या सकता था! उसका कर्तव्य बोध उसे धिक्कार रहा था । उसने पापा को तसल्ली दी और कहा, " मैं विशाल, अरुण अपने दोस्तों से बात करता हूं ।"

उसी समय उसने चंडीगढ़ में अपने दोस्त विशाल को हालात से अवगत कराया और उससे प्रार्थना की कि उनका ध्यान रखे । बचपन से ही चार दोस्तों का उनका अच्छा खासा ग्रुप था चंडीगढ़ में । उसके दोस्त भी डॉक्टर से बात करने अस्पताल पहुंच गए थे ।

उसने स्वयं भी पीजीआई अस्पताल में फोन करके उन्हें अपने घर का पता दिया और उन्हें एंबुलेंस भेजने के लिए कहा । पुनः पापा को फोन पर तसल्ली दी और कहा कि आप अस्पताल जाने की तैयारी करें । उसका मन और मस्तिष्क विपत्ति की बेला में एक साथ भाग रहे थे--- इस आपदा से लड़ने के लिए और इसे हराने के लिए ! साथ ही साथ में अपने इंडिया आने की टिकट की तैयारी में भी लग गया था । सिडनी से इंडिया के लिए काफी एयरलाइंस थीं । उसने एड़ी- चोटी का जोर लगाया । उसे किसी में भी सीट नहीं मिल रही थी । उधर फोन पर वह लगातार कभी पापा से और कभी अपने दोस्तों से बातें कर रहा था । अजीब कशमकश चल रही थी । सीट ना मिलने के कारण बार-बार उसकी आंखें भर आ रही थीं । 

रजत के पापा डॉ खन्ना, डॉक्टर होते हुए भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे । इस भयावह बीमारी की संभावना से ही वे भयभीत हो गए थे । इसमें मन की अवस्था का स्थिर होना और सकारात्मक होना आवश्यक होता है लेकिन हर दिन न्यूज़ और लोगों के अनुभव सुनकर, इसके दुष्परिणाम देखते हुए वे क्षण-प्रतिक्षण भीतर से टूट रहे थे । कोई भी न्यूज़ चैनल लगाओ वहां पर कोरोना से होने वाली मौतों के आंकड़े दिखाए जारहे थे, जिससे नकारात्मकता अनजाने में ही घर कर लेती है । चारों और बेईमानी और धूर्त लोग इस आपातकालीन स्थिति का फायदा उठाते भी दिखाते हैं । 

पूरा विश्व ही इस आपदा से ग्रसित दिखाया जा रहा है । लॉकडाउन लगाकर लोगों को घरों के भीतर सुरक्षित रखा जा रहा है । सोशल डिस्टेंसिंग और मांस्क का उपयोग आवश्यक कर दिया गया है । वे दोनों तो हाथ भी सारा दिन धोते रहते हैं । फिर यह नामुराद उनके घर कैसे आ सकता है? वह यही सोच कर परेशान थे, इसके होने का विश्वास नहीं कर पा रहे थे ।

 रिटायर्ड लोगों का एक ही काम होता है न्यूज़ चैनल बदलते रहना और राजनैतिक और सामाजिक स्थितियों का जायजा लेना । कई राजनीतिक प्रपंच भी होते दिखते रहते हैं--- बैठे-बिठाए लाखों मजदूर अपने-अपने गांव जाने को कैसे मुश्किलें झेलते हुए अपने ठिकानों से बाहर की ओर निकल पड़े थे--- मानो मधुमक्खियां अपने छत्ते से बाहर की ओर निकल पड़ी हों!

इन भयभीत मजदूरों की मानसिक स्थिति को समझते हुए अपने घर बैठा हर व्यक्ति व्यथित हो उठा था । खन्ना साहब का सारा ध्यान तो उन्हीं में रहता था । कि कहीं यह गरीब लोग कोरोनावायरस की महामारी से संक्रमित ना हो जाएं! अपने विषय में तो वे ऐसा कभी सोच ही नहीं सकते थे । कामवाली बाई के ना आने से सुधा को सारा काम करना पड़ रहा था तो उन्होंने सोचा थकावट हो गई होगी, एकाध दिन आराम करके ठीक हो जाएगी ।

अपनी पत्नी सुधा को बारंबार खांसी का दौरा पड़ने से उनके विचारों में व्यवधान पड़ रहा था, वह उससे बात भी नहीं कर पा रहे थे । उन्हें याद नहीं कि कभी जिंदगी में वह बीमार पड़ी हो! आज उसकी असहाय अवस्था देखकर वे घबरा गए थे । उसने दोनों हाथों से अपनी छाती को दबाया हुआ था । वह उसे आवाज देकर कह रहे थे कि उठो सुधा कुछ खा पी लो । और स्वयं भी बुखार में होते हुए वह घर को संभाल रहे थे ।

घर बंद करते समय घर का हर कोना सजीव होकर उनसे पूछ रहा था कि जल्दी लोटोगे ना ? और वह घर से बातें कर रहे थे । पश्चिम की ओर छुपता जाता सूरज भी आंख चुरा रहा था, कहीं जाने वाले को आखरी सलाम तो नहीं दे रहा था? डॉ खन्ना के "हार्ट" में चार वर्ष पूर्व तीन स्टंट डल चुके थे । इससे उन्हें तो अपने आशियाने से जाना कुछ -कुछ अंतिम यात्रा पर प्रस्थान करना लग रहा था । वह बेसुध पड़ी सुधा के पास बैठ कर उसे सहलाने लगे थे । जो आंखें बंद किए हुए बीच- बीच में बुरी तरह बेदम होकर खांस रही थी ।

वे अल्मारियां बंद कर रहे थे और विदाई की बेला में उनकी आंखें बरस कर अपने निशान फर्श पर छोड़ रही थीं । डॉक्टर साहब ने घर में रखा कैश कुछ अपने पास रखा और बाकी सब सुधा के पर्स में डाल कर उसे पकड़ कर उठाया और बताया कि चलो, एंबुलेंस आ रही है । दोनों खड़े हुए तो सुधा उनके गले लग गई और उस घड़ी-" वक्त" भी रो रहा था । उन दोनों की रुलाई फूट रही थी । वे डरे हुए कस के एक- दूसरे के साथ कभी ना बिछड़ने के लिए चिपके हुए थे । मानो, अंतिम सफर की तैयारी थी अब...! 

अभी पिछले हफ्ते ही तो उनकी शादी की 50वीं सालगिरह उन्होंने धूमधाम से यहां के नामी होटल में मनाई थी! सुधा, आज के जमाने की स्टाइलिश दुल्हन बनी थी । जयमाला और सगाई की रस्म भी की गई थी । अभी तो फोटोग्राफर की एल्बम भी नहीं आई है । आजकल सैल फोन से ढेरों फोटोस तो खींची ही गई थीं । बहुत सुंदर तस्वीरें आईं थीं । वह भी इतने चाव से सब रस्में निभा रहे थे ---उनकी सोच 50 वर्ष पूर्व के माहौल में पहुंच गई
थी । उन दिनों में शादी सीधे-साधे ढंग से होती थी लेकिन आज पार्टी में तकरीबन पच्चीस कपल्स, उनके दोस्त और कुछ दूर के रिश्तेदार आए थे ।

असल में सुधा की दोनों बहनों ने उसे कहा था कि वह 50 वीं सालगिरह अवश्य धूमधाम से मनाए क्योंकि परिवार में इतनी किस्मत वाली कोई विवाहित जोड़ी नहीं है कि यह दिन देख सकती । एक बहन छोटी विधवा हो गई थी और दूसरी इतनी रईस नहीं थी कि खुशकिस्मती से उसका ऐसा समय आ भी जाए तो वह धूमधाम से कोई फंक्शन कर सके! सुधा ने इसीलिए दुल्हन जैसे कीमती गहने और नए कपड़े भी बनवाए थे । वंदनवार भी सजा, हंसी- मजाक, नाच - गाना, खाना सभी कुछ हुआ । ना मालूम ऐसी नजर लगी किसी की या कहीं से उन्हें पता ही नहीं चला... किसने उन दोनों को सबसे अमूल्य उपहार दे दिया था ...."कोरोनावायरस!"

तीन दिनों से खांसी और बुखार के कारण सुधा खाना नहीं बना पा रही थी उसकी हिम्मत जवाब दे गई थी तो उसकी पड़ोसन सहेली "कांता" उसके डाइनिंग टेबल पर उन दोनों का खाना रख जाती थी और ऊंची आवाज में हाल-चाल पूछ कर दवाई भी मंगवा कर रख जाती थी! मुसीबत के समय पड़ोसन और उसका परिवार ही सारे रिश्ते... मां, भाई- भाभी, बहन, बेटी के निभा रहे थे । लेकिन इस नामुराद बीमारी में चाहते हुए भी मन मार कर सबको दूर रहना पड़ता है! कैसी मजबूरी में डाल दिया है इस मुसीबत ने !!

तभी एंबुलेंस की टीं-टीं-टीं सायरन की आवाज़ दूर से आते सुनाई दी । सब पड़ोसी दूर से उन्हें हाथ जोड़ रहे थे और सब के मुंह उतरे हुए थे । कोई सहानुभूति दिखाने नहीं आ पा रहा था । क्योंकि सब को डर था कि मौत का फरिश्ता अपने जबड़े फैलाएं कोरोना के मरीज को निगलने की तैयारी करके आता है, तो हो सकता है इन्हें कोरोना ही हुआ हो । कोई खतरा मोल लेने को तैयार नहीं था ।

जिन सीनियर सिटीजन्स के बच्चे बाहर हैं और वह अकेले रहते हैं उन उम्रदराज लोगों का अपने पड़ोसियों से प्यार हो जाता है और मुसीबत में वही अपनत्व दिखाते हैं । लेकिन इस महा घातक और जानलेवा बीमारी ने यह परिभाषाएं भी बदल के रख दी हैं ।

 वहीं दूसरी ओर एंबुलेंस में बैठकर चार आदमी अपनी ड्रेस में छिपे से उनको स्ट्रेचर पर ले जा रहे थे । वे पूरी तरह से ढंके हुए थे । ज़रा सी चूक - ! तो वे भी मौत के मुंह में जा सकते थे । धन्य हैं, यह सेवक! ये भी अपनी माता के लाल हैं । डॉक्टर साहब को लगा - यही उनके रक्षक हैं ! इस भीषण आपदा की बेला में इस महामारी से संघर्ष करते हुए सारी दुनिया ही आज अभूतपूर्व कठिनाई से जूझ रही है । ऐसे में मनोबल और उत्साह आसानी से टूट सकता है ! लेकिन इन लोगों का सेवा भाव देखकर हौंसला मिलता है और नकारात्मकता दूर होती है । मन ही मन में दोनों ईश्वर के समक्ष नतमस्तक हो प्रार्थना कर रहे थे कि हे सर्व शक्तिमान ! मुश्किल में उन्हें उनका ही सहारा रह गया है, रक्षा करें । स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है ---"प्रेयर्स कैन मूव द माउंटेंस ।"

अस्पताल के नियमों के अनुसार दोनों को अलग-अलग कमरे में रखा गया । सुधा तीसरे फ्लोर पर थी, तो डॉक्टर साहब दूसरे फ्लोर पर । भाग्य ने दोनों के साथ आंख- मिचौंली खेलनी आरंभ कर दी थी लेकिन भाग्य की अदृश्य भाषा कोई कैसे जान सकता है? वार्ड ब्वाय से वे सुधा के विषय में जानकारी चाह रहे थे लेकिन उसे कुछ ज्ञात नहीं था । वे फोन भी कर रहे थे लेकिन सुधा उठा नहीं रही थी क्योंकि सुधा पर कोरोना का कहर टूटा हुआ था । उसको बुखार के कारण बात करने का होश ही नहीं था । वहां कोई डॉक्टर उसे व्यक्तिगत रूप से देखने नहीं पहुंचा था । हां, नर्स से फोन पर रिपोर्ट पूछ कर डॉक्टर दवाई लिखवा देते थे । 

रजत के पापा- यानी डॉक्टर साहब पूजा पाठ में विश्वास करते थे । " देवी भागवत पुराण" में राक्षसों की सेना को मारने के लिए मां भगवती शेर की सवारी करके एक हुंकार करती है तो उस फूंक से सब मर जाते हैं । चाहे वह शुंभ निशुंभ शक्तिशाली राक्षस थे या राक्षस रक्तबीज! - - -जिसका रक्त जहां भी गिरता था वहां और राक्षस सेना पैदा हो जाती थी । यह वायरस भी जहां जाता है सब को मार रहा है । क्या भागवत पुराण में सांकेतिक स्वरूप समझाएं गए हैं? लगता है प्रकृति रुष्ट हो गई है । वे लेटे हुए जाप करते रहते थे, वे अस्पताल में क्वारन्टीन थे । ऑस्ट्रेलिया से रजत का फोन आता, तो वे उसे तसल्ली देते रहते कि सब ठीक हो जाएगा ।

रजत मम्मी को भी फोन लगाया था तो नर्स जवाब देती थी कि वह अभी खांस -खांस के थक गई है बात नहीं कर सकती हैं, या सोई हैं । अस्पताल में चौथे दिन नर्स ने इसी नंबर पर फोन करके कहा कि आपकी मम्मी नहीं रहीं । चीत्कार कर उठा रजत । उसने नर्स से कहा कि वह पापा को न बताए । वह आ रहा है । रजत के दोस्त और चाहने वाले तथा सुधा की बहनें पहुंच गई थीं, लेकिन उनको पार्थिव शरीर नहीं दिया गया, उसे मोर्चरी में रख दिया गया । बेटे के पहुंचने के इंतज़ार में ! ‌उधर डॉक्टर साहब सोच रहे थे कि सुधा भी क्वारंटीन है । अस्पताल वालों ने रजत के दोस्तों से कहा कि हम 5 दिन से ऊपर पार्थिव शरीर को मौर्चुरी में नहीं रखेंगे और संस्कार कर देंगे । 

बहुत जद्दोजहद के बाद रजत को इंडिया की फ्लाइट में एक सीट मिली तदोपरांत कहां आसान था आना ? करोना टेस्ट सिडनी एयरपोर्ट और दिल्ली एयरपोर्ट पर भी करवा कर रजत चौथी रात को इंडिया पहुंच गया था और वह सुबह चंडीगढ़ अस्पताल पहुंचा । जहां उसे एक बैग में रखी हुई उसकी सुंदर सी ममता की मूरत मां, थोड़ी सी ज़िप खोल कर दिखाई गई । उसे लगा, उसकी मां चिर निद्रा में मग्न मीठे सपने देख रही है । कोरोना के कारण वह मां को मुखाग्नि भी नहीं दे सका । सारे संस्कार, रीति-रिवाज ताक पर रखे रह गए थे । अस्पताल वाले दाह संस्कार करने के लिए कोरोना मरीजों को गैस चेंबर में जला रहे थे । कोई मंत्रोच्चारण नहीं किया किसी ने ।

कहां गए वह मंदिरों के पुजारी? इंसान जन्मता है मृत्यु शाश्वत सत्य है और अटल है उसने मृत्यु का ग्रास बनना ही है । रजत के दिमाग में सारे विचार उथल-पुथल मचा रहे थे । वह अपनो के कंधों पर, अपनी भोली- भाली मां के लिए विलाप कर रहा था । हार्ट पेशेंट पापा को जब हकीकत से दो-चार कराया गया, तो वे बुरी तरह टूट गए और बार-बार धरती पर लोट रहे थे । रजत उन्हें भी संभाल रहा था । कोरोना साक्षात यमराज और "काल" बनकर उनके परिवार पर टूट पड़ा था । घर-घर में इस त्रासदी से पीड़ित लोगों में हाहाकार मच गया है घर टूट गए और बर्बाद हो गए हैं, और होते जा रहे हैं । 

आज डॉक्टर खन्ना भी घर के दरवाजे के भीतर सुधा के बिना जाते हुए फफक रहे थे और घर के हर कोने के सवाल का जवाब देने में अपने को बेबस पा रहे थे---!

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कहानी


डॉ. वीणा विज ’उदित’


हथेली पर सूरज

पारदर्शक लिफाफे में स्टैपल कर सहेज कर रखे कुछ पन्ने हाथ के स्पर्श को पाकर मानो सजीव हो उठे । बिना विलंब पन्नों को बाहर निकाल टटोलने लगी वह--- तो पन्नों के मटमैले चेहरे जो बीते समय की एक किशोर अनुभूति से रंगे हुए थे, सिर निकालकर अमिता की ओर ललचाई दृष्टि से तकने लगे थे... अम्मू की उंगली पकड़कर उसे स्मृतियों के अतीत गह्वर में ले जाने के लिए, जो राख के ढेर के नीचे दबी धीरे-धीरे ज़मीं दोज़ हो चुकी थीं ।

सबसे गहरी अनुभूति जिसने उसके मनो: मस्तिष्क पर से हटने का नाम ही नहीं लिया था आज फिर से सिर निकालकर उसके सामने वहीं स्टेशन का दृश्य लेकर आ गई थी ।

स्टेशन से जब रेलगाड़ी सरक रही थी, तो वह खिड़की पर हाथ रखकर साथ- साथ चलने लग गया था कि शायद अकुलाए हुए कोंपलों की कोमलता और स्निग्धता से तरल हो आई अमिता की आंखें बरसेंगी और होठों से कुछ प्रस्फुटन होगा ! या फिर क्या पता उसके कान अपना नाम उसके होंठों से सुनने को तरस रहे थे लेकिन अमिता गाड़ी के सरकने की आवाज कानों से ही नहीं आंखों, एहसासों, सांसो और रोम छिद्रों से भी सुन रही थी ---अपनी व्यग्रता से व्यथित ! ‌और थी वहां हमेशा की तरह अब भी एक चुप्पी !! भावनाओं का ज्वार - भाटा उसके भीतर समुद्र मंथन को उतारू था लेकिन बाह्य रूप ---सागर की गहराई सा शांत था ।

गाड़ी की गति तेज़ होती जा रही थी, प्लेटफार्म के कोने की ढलान अब छोड़ चुकी थी । खिड़की से बाहर मुंह निकाल कर वह देख रही थी---गौतम! की धूमिल होती छवि पीछे छूट रही थी और वह आंखों से अदृश्य हो चुका था!! अपना मुंह भीतर कर हथेली में मुंह छुपा विक्षुब्ध वह फफक-फफक कर रो पड़ी थी । फिर अपने को संयत करने का यत्न करने लगी थी इस तार- तार होते संबंध पर!

भैया को कुछ नहीं सूझ रहा था, वह तो उसे मायके के लिए लिवाने आया था । वह सोच रहा था कि अम्मू पहली बार गौतम को छोड़कर जा रही है तो दुखी है । वह उस की पीड़ा को किस तरह बंटाए, किन शब्दों से सहलाए कि वह संयत हो स्वयं को बटोर सके । उसने दिलासा देते हुए उसके कंधे पर हाथ रख स्नेह- स्पर्श का आभास कराया । क्योंकि वह पल भर के लिए भी गौतम और अमिता के संबंध में कुछ गड़बड़ है, यह कल्पना भी नहीं कर सकता था । उन दोनों का प्रेम संबंध तो जगजाहिर था ।

वह नहीं जानता था अमिता की समूची चेतना अविच्छिन्न हो बिखर गई थी ।

वह यादों की सुरंग में भीतर उतरती चली जा रही थी । जवानी की दहलीज पर घटी मीठी -मधुर यादें भी कभी बिसरती है कहीं ? नई उम्र की पहली सीढ़ी पर पैर रखते ही तो वह फिसल गई थी । मां की बचपन की सखी राधा मौसी के पति "बबीना" में पीडब्ल्यूडी में एसडीओ बनकर आए थे तो अपने परिवार सहित मौसी उन सब को मिलने अपनी गाड़ी में आ गई थीं । उनकी दो बेटियां सुधा और भारती एवम् छैल- छबीला बेटा गौतम उनके साथ थे । हम व्यस्क भारती को पाकर जहां वह खिल उठी थी, वहीं गौतम जैसे सजीले आकर्षक व्यक्तित्व वाला नौजवान उसके समक्ष इससे पूर्व अभी तक कोई नहीं आया था ।

बात -बात पर चुटकुला सुनाकर वह माहौल में रंगीनियां भर रहा था, जिस पर विमुग्ध होते हुए वह उसके मोह- आकर्षण में खिंच रही थी । असल में गौतम " क्विक विटी"था और बोलने के पश्चात अपने कहे की प्रतिक्रिया हर बार अमिता की आंखों में झांक कर देख लेता था । ऐसे में दोनों जवान दिलों की नजरें मिल जाती थीं, और अंजाने में एक नए अफसाने की नींव पड़ रही थी । 

जब वे लोग चले गए तो अमिता भागी हुई भीतर गई और जाकर दर्पण में अपना चेहरा देखा । उस पर खिली लालिमा को देख वह स्वयं से ही शरमा गई थी । अब से उसका सजने -संवरने का मन करता था । वह चुपके- चुपके अपने आईने से मूक वार्तालाप किया करती । गर्मी की छुट्टियां थी तो मौसी ने चिट्ठी लिखकर अपनी सखी को परिवार सहित आने का निमंत्रण भेज दिया । बाबू तो काम में व्यस्त थे, लेकिन अम्मा तो उत्साह से भर उठीं और सखी से बतियाने और संग समय बिताने के चाव में वह अपनी दोनों बेटियों यानि अमिता और बावा को लेकर पहुंच गईं बबीना ।

स्टेशन पर गौतम उनको रिसीव करने आया हुआ था । दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उनकी उठती- गिरती नजरों का ऐसा आदान-प्रदान हुआ कि वहां का मौसम ही बदल गया था । फिर तो अगले 10 दिनों में, वे दोनों हर पल को इकट्ठे जी रहे थे । ढेरों शरारतें, गीत -गजलों की महफिलें, रात को देर - देर तक जाग कर फिल्मों की बातें होती
थीं । क्योंकि उस जमाने में फिल्मी हीरो- हीरोइनों का युग था ! बिनाका गीतमाला और विविध भारती के गानों की तूती बोलती थी । एक दूसरे को कुछ कहना हो या दर्दे दिल का इज़हार करना हो तो फिल्मी गीत गुनगुना कर कहा जाता था । उस पर से आग में घी का काम करते थे गुलशन नंदा के उपन्यास!

अमिता अज्ञेय के उपन्यास " नदी के द्वीप" के बारे में बोली तो भारती ने उससे साहित्य की चर्चा में प्रतिभागिता करी थी जिससे अम्मू को वहां का परिवेश भा रहा था । और इन्हीं दिनों यह प्यार की बेल परवान चढ़ रही थी । केवल मूक नज़रों का आदान-प्रदान ही चलता था उन दिनों । किताबों में गुलाब के फूल सुखाए जाते थे उस जमाने में ।

विछोह की बेला में दहकते हुए गुलमोहर और अमलतास के फूल इस भयंकर धूप में अपनी ताजगी बिखेरते हुए भी उसे गीलेपन का आभास दे रहे थे । उधर उसकी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति मां की अनुभवी पगी दृष्टि को शायद कुछ सोचने को विवश कर रही थी । क्योंकि अमिता के स्वभाव में चारों ओर खिली खुशबुओं का कोलाहल, कोयल के कंठ की कूक और चिड़ियों की तरह फुदकती धूप अब मद्धम पड़ गई थी । उसकी चढ़ती उम्र की आहटें मां तक पहुंच पा रही थीं । उनका ख्याल विश्वास में पनप रहा था यह देखकर कि किसी ना किसी बहाने से गौतम उनके घर हफ्ते दो हफ्ते बाद आ धमकता था ।

चूंकि गौतम अपनी बातों से सबका मन मोह लेता था तो अमिता की छोटी बहन बावा भी उसके आने से खिल उठती थी और उसके पहुंचते ही झट अपनी दीदी के चेहरे पर खिली आभा को भी ---उसकी आंखों में झांक कर ताड़ लेती थी । गौतम का बार-बार अमिता की आंखों की डोर से बंध खिंचे चले आना और खुली आंखों से अमिता की छवि को निहारना बहुत कुछ कह जाता था और जिसका उन्हें पता नहीं चलता था लेकिन जिसे सब नोटिस कर रहे थे ।

दोनों की पढ़ाई चल रही थी । शनै: शनै: वक्त अपनी रफ्तार पकड़ रहा था और दोनों घरों में काना-फूसियां चल रही थीं उनको लेकर । अमिता की ग्रेजुएशन हुई तो गौतम भी आई.ए.एस की परीक्षा में बैठा । अब इसे इश्क की बेइंतहाई ही कहेंगे ना कि वह एक पेपर पर केवल- उसका नाम ही लिखता रह गया ....! गौतम को उसके सिवा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था । जब उसे होश आया तो तीर, कमान से निकल चुका था । और सिर धुनने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं बचा था । वापिस आकर उसने अमिता को सारी सच्चाई बता दी, जिसे सुनकर भविष्य में होने वाले उसके निष्कर्ष से वो तड़प उठी थी । उन दिनों छब्बीस वर्ष की आयु तक ही लिमिट थी इस परीक्षा के लिए और वह अब खत्म हो गई थी उसके लिए ।

ख़ैर, दोनों की चाहत रंग लाई क्योंकि असलियत से कोई वाकिफ नहीं था । उसकी लियाकत को देखते हुए सबको उसके सफल होने का पूर्ण विश्वास था । सो, उनका संबंध सात फेरों में परिणित हो कर रहा । वह तो गौतम की प्रेम धारा से ओतप्रोत थी । उसकी कल्पनाएं भविष्य के आसमां पर पहुंच नृत्य करने लग गईं थीं और आकाश से उतरी ज्योत्सना में वह अंतर्मन से भीग-भीग जा रही थी ।

डोली विदा हुई तो मायके के छूटने का दर्द तो था ही लेकिन प्रीतम के गले का हार बनने की तलब उसे सहज कर रही थी । सुहाग की सेज पर वह सजी-धजी गठरी बनी बैठी रही । शनै:-शनै: रात गुजर रही थी, कहीं कोई आहट नहीं थी । चिर-प्रतीक्षित रात्रि में उसका प्रियतम गौतम न जाने कहां था? प्रतीक्षा..! ---एक लंबी प्रतीक्षा ---!! सारी रात की प्रतीक्षा ...!!! सुरसा (समुद्री राक्षसी) के मुख सी रात को निगल रही थी !!! जब उसे हल्की सी चिड़ियों की चहक सुनाई दी, तो वह हैरान-परेशान कि रात बीत गई थी--- क्योंकि वह चैन से बैठ ही नहीं पा रही थी ! कभी सोई, कभी जागी, कभी द्वार तक जाकर लौट आती रही । शगनों वाली रात में वह आंसुओं को आने से रोक रही थी । पर मुई आंखें उसकी कहां सुन रहीं थीं? वह तो दिल के टूट जाने पर बरस जाने को अकुला हो रहीं थीं । बरस- बरस कर उसे भिगो रही थीं । सारा साज-सिंगार भी थक- हार कर मुर्झा गया था ।

अचानक दरवाजा खुला और गौतम उसके सामने आ गया और बोला, "सॉरी यार, दोस्तों ने बहुत पिला दी थी मैं वहीं पड़ा रह गया था ।"

इतना कहकर वह बाथरूम की ओर चला गया । उसने उसे छूकर आलिंगनबद्ध तो क्या करना था, उसने तो उसे नजर भर के देखा तक नहीं और ना ही उसके मचलते अरमानों की सजी हुई अर्थी को कंधा देने की सोची । यह सब देख, अमिता को काटो तो खून नहीं ।

अमिता के जीवन का कठोर सत्य उसके समक्ष था अब । संपूर्ण वातावरण और परिवेश जैसे किसी अवांछित रहस्य के रोमांच से भरा था । अपने शृंगाार को वह स्वयं उतार रही थी, उसकी उंगलियां कांप- कांप जा रही थी इस बोझ को उतारने में ----जिस पर गौतम का नाम लिखा था । थोड़ी देर में गौतम बाथरूम से बाहर आया और उसे उसकी मम्मी के घर जाने के लिए तैयार होने को कहकर उल्टे पांव लौट गया था । 

उसे तब चक्कर आ रहे थे और वह बड़ी मुश्किल से तैयार हो रही थी कि तभी भारती आई और उसे बड़े स्नेह और प्यार से अपने साथ परिवार के बीच ले गई थी । मानो वहां पर किसी को कुछ मालूम ही नहीं था कि रात को क्या हुआ । बाहर, परिवार में सब कुछ सहज था । सभी लोगों ने स्नेहसिक्त स्वागत करते हुए उसे आशीर्वाद दिया । तत्पश्चात उन्हें मम्मी के घर रिवाज के मुताबिक भेजा ।

अमिता ने मुखौटा ओढ़ लिया था, सहज और प्रसन्न दिखने का । सहेलियां और भाभियां चुहलबाज़ी कर रही थीं और वह धीमे-धीमे मुस्कुराकर शर्माने की एक्टिंग कर रही थी ।

आज शाम की ट्रेन से ये लोग वापस घर जा रहे थे । क्योंकि उनके मेहमान वहीं से वापस चले गए थे । अब असली विदाई हो रही थी । अमिता ने चुप्पी साध ली थी लेकिन घटनाक्रम असहज और असह्य थे क्योंकि रात भर सुधिया उसे कहां चैन लेने दे रही थीं ? उनमें बाहर आने की होड़ लग गई थी । ढेरों मृदुल स्मृतियों में वह अटकी हुई थी--- जिनके वशीभूत होकर यह निर्णय लिया गया था गौतम के संग जन्म जन्मांतर के बंधन बांधने का और अब उस पर गाज गिर गई थी । 

एक रात में ही वह मुरझा गई थी और शिथिल, लाचार, बेबस हो गई थी । गौतम की आंखों की कशिश मृतप्राय हो चुकी थी उसके लिए । उसे समझ नहीं आ रही थी कि वह किस से पूछे और क्या पूछे!!!

अमिता को लगा वह अपने घर पहुंच कर शायद नॉर्मल हो जाएगा लेकिन वह उसके सामने आने से भी कतराता रहा । कुछ तो बात है जो उसकी चाहत मर गई है ! चार दिनों बाद दोपहर को वह बंगले के पीछे की ओर पेड़ों के झुरमुट में जाकर बैठ गई थी एक किताब लेकर कि तभी गौतम भी उधर आया और उसके पास कुर्सी लेकर बैठ गया था । उसकी ओर देखते हुए बोला था, "क्या तुम मुझसे कुछ पूछोगी नहीं?

उसे अभी भी याद है कि उसका मन चाहा था कि वह उसका मुंह नोच ले और उसकी छाती पर जोर-जोर से मुक्के मारे! लेकिन वह संयत रही । उसने मौन रहकर केवल अपनी प्रश्नोभरी दृष्टि उस पर टिका दी थी । अपने धैर्य की पराकाष्ठा पर वह स्वयं हैरान थी । 

उसे लगा उसका तालु जुबान से चिपक गया है, वह बोल ही नहीं पाएगी । 

उस दिन गौतम ने कन्फेशन किया (मालूम नहीं उसमें कितनी सच्चाई थी)----

"विवाह के पूर्व मैं तुमसे कुछ बताना चाहता था लेकिन मां ने अपनी सौगंध देकर, मुझे रोक लिया था । मैं तुम्हें धोखे में नहीं रखना चाहता था । मैं समझ रहा हूं तुम कांटों पर चल रही हो । असल में, मेरे जीवन में एक हादसा हो चुका है । मुझे किसी के साथ गंधर्व विवाह करना पड़ा था किसी मजबूरी में । तुम्हें मैं अब छूना भी पाप समझता हूं । मैंने मां और बाबूजी को बोला था, लेकिन वह माने नहीं । उनकी और तुम्हारे बाबूजी की इज्जत का वास्ता देकर उन्होंने यह विवाह करवा दिया । मैं लज्जित हूं तुम्हारे समक्ष ! ‌तुम जो चाहे मुझे सजा दे दो । वैसे मेरा रिजल्ट भी आ गया है मैं अनुत्तीर्ण हो गया हूं । यह आखिरी चांस था मेरा । अब मैं कुछ भी बन नहीं पाऊंगा । तुम्हें मैं जीवन में निराशा के अलावा कुछ भी नहीं दे पाऊंगा । अब तुम बताओ क्या करना है?"

यह सब सुनते- सुनते अमिता की आंखों से आंसूओं की झड़ी चेहरा भिगोते हुए ब्लाउज भी भिगो रही थी । वह इतने बड़े सदमे से ठंडी होती जा रही थी । नतीजतन, वहीं बेसुध होकर गिर पड़ी थी कुर्सी से नीचे ।

बेहोशी की हालत में उसे गोदी में उठाकर गौतम भीतर कमरे में पिछले द्वार से ले गया था और पलंग पर लिटा कर उसके मुंह पर छींटे मारे फिर न जाने कहां चला गया था । 

घर में किसी को कानों कान खबर नहीं लगी थी कि घर के पिछवाड़े किसी का संसार लुट रहा था क्योंकि कई बार चोटों की मार से उभर आए जख्मों के जवाब में एक रिक्तता होती है जिसे भरना असह्य होता है चोट खाने वाले के लिए । उसकी अनुभूतियां चोटिल होकर भी अभिव्यक्त नहीं हो पाती हैं । आशाएं, उमंगे धराशायी होने पर बर्दाश्त भी हार जाती है एक बिंदु पर आकर । वे खंड- खंड बिखर कर अखंड रूप धारण कर लेती हैं और बोझ लाद देती हैं मनो: मस्तिष्क ही नहीं ----संपूर्ण जीवन पर ।

अमिता को यहां पर इन ग्रंथियों का उभरकर गौतम के व्यक्तित्व पर छा जाना परिलक्षित हो रहा था गंधर्व विवाह की बात या बहाना उसके गले नहीं उतर रहा था या फिर वह शारीरिक रूप से अयोग्य था विवाह के! यह सब कन्फेशन सुनकर भी वह उस पर विश्वास नहीं कर पा रही थी । उसे गौतम के प्रेम पर पूर्णतया विश्वास था । सोचने लगी थी कि गौतम उसे इस हद तक प्रेम करता है कि उसे जीवन के समस्त सुख देना चाहता है और परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर उसका मन टूट गया है कि वह ऑफिसर नहीं बन पाएगा इसलिए उससे दूर हो रहा है । उसमें इंफेरियारिटी कंपलेक्स हावी हो गया है जिससे उसके मन की ऊर्जा शक्ति निढाल हो गई है ।

नपुंसकता---भी बहुत बड़ा कारण हो सकता है । यह तो उसे बाद में ख्याल आया था जब इसी दम पर उसे गौतम से बाबू जी ने छुटकारा दिलाया था । अमिता ने एकदम चुप्पी साध ली थी । कोई गिला, कोई शिकवा नहीं किया कभी किसी से और जब भैया मायके के लिए लिवाने आया था तो वह आत्मविश्वास से भर कर एक दृढ़ निश्चय लेकर उस घर को सदा के लिए त्यागने का निर्णय लेकर वहां से चल पड़ी थी । गौतम को सजा तो उसने क्या देनी थी । तभी से वह स्टेशन पर गौतम की धूमिल छवि को नकारने की यादों से---- यादों की सुरंग में उतर रही थी । और उसके हाथ उन सुधियों से लिपटे पन्नों के चिथड़े-चिथड़े कर रहे थे ।

उसने अपने आप को मज़ाक नहीं बनने दिया था । उसने हौसलों से वक्त का मुकाबला किया था । बीती उम्र की आहटें उसके जीवन की गतिविधियों में अवरोध नहीं बन पाई थीं । उसका आत्मविश्वास उसका संबल बना रहा था ताउम्र । क्योंकि उसने अपनी हथेली पर सूरज उगा लिया था !!!

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हाईकू

अभिव्यंजना
वंदना सुन मेरी
मैं नि:सहाय

स्त्री स्वतंत्रता
पुरुष बिन जीना
किसने कहा

जीवनसाथी
एक और जीवन
स्वयं चुनाव

प्रतीकात्मक
संकेत घुटन का
छटपटाना

मेरे भीतर
भयंकर सन्नाटों
का कोलाहल

परंपराएं
व्यक्तित्व विकास में
बनी बाधक

मंच नायिका
हो संवेदनशील
चाहे प्रीतम

अतलांतक
पीड़ा की पराकाष्ठा
व्यथित नारी

आंसू आंखों से
बहते निरंतर
किस्मत बुरी

इश्क की राह
कांटो भरा बिछौना
प्रेमी पागल

अंतर चीरें
संवेदना के जाल
जब बिखरें 

मां का हृदय
बेटी की सिसकियां
हुई विदाई

जवान बेटी
परिवार विचारे
जग जालिम

तुज़ुर्बा हो तो
संवार सकते हो
नई फसल

नारी विमर्श
स्त्री सशक्तिकरण
युग का नारा

नहीं खुशबू
तुम्हें आहट से भी
मैं पहचानूं

ग़म यूं बोला
लिपट के मुझसे
जग से लड़ो

जज़्बा चाहिए
सितम सहने का
इश्क करो तो

समझे नहीं
सदी का व्याकरण
नारे लगाते

वैतरणी से
सवाल जवाब की
रीत पुरानी।




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