Sahitya Nandini October 2023



 

लेखिका : डॉ वीणा विज, 

अनुवाद : प्रो. सीमा जैन

समीक्षक उमा त्रिलोक

दिल से " हिन्दी में लिखें या किसी अन्य भाषा में, दिल की बात तो दिल की ही होती है .... मधुर, मनोरम, मनमोहक और यदि कोई मंजी हुई कवियित्री कहे, फिर तो, क्या ही कहने ।

वीणा जी में अपने सलोने, सुंदर और सजीले अन्दाज़ में अपने प्रेयस को कुछ कुछ ( यानी बहुत कुछ ) कहा और कुछ अनकहा भी छोड़ दिया लेकिन सीमा जी ने उनकी कविताओं के रोम रोम, ज़र्रे ज़र्रे को पूर्णतयः काग़ज़ पर उतार दिया है।

यह तो सभी जानतें ही हैं कि किसी भी कलात्मक कृति को किसी अन्य भाषा में अनुदित करना, उसका पुनः निर्माण करना होता है जो सीमा जी ने बखूबी निभाया है। ऐसा प्रतीत होता कि उन्होंने पहले उसे जिया है फिर उसका अनुवाद ही नहीं बल्कि उसे पुनः अवतरित किया है ।

वीणा जी ने अपनी काव्यमयी प्रेम पाती को पहले मधुर पलों में पिरोया है फिर बड़े ही मनोहर ढंग से अपने आंतरिक संघर्ष को गतिशीलता देते हुए, प्रणय बिंब विधान द्वारा प्रस्तुत किया है, फिर क्यों न पाठक भी इसे सोमरस की भाँति चुस्कियाँ लेते हुए इस का पान करें ?

कविताओं में जिस शिद्दत से मिलन का ज़िक्र हुआ है उसी प्रकार विछोह का भी हुआ है ।

वीणा जी ने क्या खूब लिखा है, " है क्षणिक यह मिलन विरही का / कुछ खोने का कुछ पाने का / आया प्राची से ज़ोर का झोंका / स्वागत विछोह' 

उसी तरह सीमा जी के शब्द, पाठक के अंतःकरण को चीर जाते है, जब वह लिखती है,

"Moments to lose oneself / Moments to gain love / A gust of wind comes from / the orient / Time to welcome the moment of separation"

वीणा जी की लेखनी केवल प्रेम विछोह तक ही सीमित नहीं रही, उनका दर्द अन्य विषयों पर लिखते हुए भी खूब छलका है, जब उन्होंने लिखा

“लहू के कुछ कतरे / झील में गिरे / लील लिया / झील का अमनोचैन / रक्ताम हो गई / छाती नीली झील की " इसी भाव को आगे बढ़ाते हुए, सीमा जी ने कैसे मार्मिक शब्दों का प्रयोग करते हुए लिख डाला 

It's azure bosom / Sullied and blooded / Thorny cacti prick all over / Its air vitiated / Reeks of poison every / where "

कवि मन प्रकृति की बदलती आभा से कभी विमुख नहीं रहा . वृक्षों की हरियाली, भीनी भीनी ख़ुशबू से लदी मन्द मन्द हवा और मुस्कुराते फूल तो उसे प्रभावित करते ही हैं, साथ साथ पतझड़ में पीले पड़ गये गिरते पत्ते भी उसे छू जाते हैं ।

वीणा जी लिखती हैं : “ तरुणाई ने ली अँगड़ायी / जागी है भोर / ऋतु वसंत रंगीली आयी / गेहूं की बालियाँ भी लगी गदराने / हवा की ताल पर ता- थाइया / नचाया "

Seema Ji's words can stand alone and can be adjudged as true to the original as required, when she writes,

"With the rise of dawn wake youthful dreams / The vibrant spring spreads a colourful jubilee / The wheat grains begin to ripen / The rhythmic wind plays a dancing tune"

प्रो सीमा जैन, स्वयं एक कवियित्री है इसलिए उन के लिए मूल कविता के भाव में पूर्णता डूब कर उस का अनुवाद करना संभव हो पाया है अन्यथा कविता का कविता में अनुवाद करना बहुत कठिन काम है ।

सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा करते हुए कविता का भाव और सौंदर्य नष्ट नहीं होना चाहिए, जो सीमा जी ने बिलकुल नहीं होने दिया बल्कि कहीं कहीं तो ऐसा लगा कि मूल कविता को एक और ऊँचे अय्याम पर पहुँचा दिया गया है।

वीणा जी और सीमा जी, आप दोनों, मेरी ओर से बधाई स्वीकार करें । 

मेरी यही कामना है कि पाठक इस अनुपम कृति को भरपूर सराहना दें और पुस्तक दूर दूर तक पहुँचे ।



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Veena Vij's poetic world fascinates as well as perturbs, enchants as well as compels you to ponder, over life, its intricacies, its diversity, its multiple shades and hues, where the truth of each moment is different, and keeps changing, like the 'rainbow hues.' Her poems pointedly and unabashedly engage with one's own self, its thousand dilemmas and conflicts, with protean relationships that are never static but dynamically keep growing, altering, for better or worse. Her poetry, on the one hand, captures beautiful moments of romance, love and union, but on the other hand, does not shy away from the most ruthless interrogation of these bonds, when they disturb, disappoint and distress. Many of her poems focus on nature, social and political issues, the pain of Kashmir and its people, mercy-killing etc. It is the captivating imagery, and the richness of the multiple metaphors, one embedded into another, evoking multiple layers of meanings, and the beauty of her language and diction that form the central charm of her poetry.

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Dr. Meenakshi Mohan 

"If only I could borrow... A single ray of hope, I would wash my inner self anew" these lines from the poem "Inner Shower" speak volumes of heartache, struggle, pain, yearning, and hope from the galaxy of po- ems in Dil Sé, a collection of forty-five translated poems by Seema Jain, an award-winning poet, writer, and translator. Jain's seamless translation of Dr Veena Vij 'Udit's' Hindi verses brings forth emotions of different shades with precise accuracy, naturalness, and ease. In the poem "Blood Soaked Lake" these heart-touching ad thought-provoking lines "Have you heard the anguish of the wind, I have heard its silent song, " resonate with the Sahitya Akademi Award-winning poet Naseem Shafaie's words: "I asked the rose where your scent is. It said the autumn took it away." Likewise, the following line from the poem "Canvas " in this collection "Every line drawn up by the brush narrates countless tales" is valid for this book. Academic, Writer, Poet & Critic Editor, Inquiry in Education, a Peer - Reviewed Journal National - Louis University, Chicago IL USA

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समीक्षाएँ

डॉ. नीरा शर्मा


डॉ. वीणा विज ‘उदित’

‘सन्नाटों के पहरेदार’

बहुआयामी प्रतिभा संपन्न सुश्री वीणा विज की कृतियाँ अपना परिचय आप ही हैं। साहित्य की हर विधा से जुड़ कर उन्होंने कीर्तिमान स्थापित किए हैं। निरंतर घटतें हिन्दी लेखन, पठन-पाठन ने जिस मशीनीकरण को बढ़ावा दिया है उसमें हमारी मानसिक संवेदनाओं को कुठित करने में इन्टरनेट की भूमिका भी निर्विवाद अहम है । पुस्तकों को पढ़ने, ग्रहण करने और मन की गहराई तक जोड़ने में जो काम हमारी आँखें करती थीं आज हाथों की उंगलियाँ छूकर पल भर में समाप्त कर देती हैं। पर कई समर्थ रचनाकार यंत्रीकरण की इस काई को हटा कर उत्तम कृतियों के कमल खिलाने को प्रतिबद्ध हैं भाषाओं को समृद्ध करने के उनके अथक प्रयासों का हर साहित्य आभारी है। सुश्री वीणा जी की रचनाएँ इसका जीवन्त प्रमाण हैं । गद्य और पद्य दोनों क्षेत्रों में उनका योगदान स्तुत्य है। उनकी कविताएँ और कहानियों उनके सशक्त हस्ताक्षर हैं।

'सन्नाटों के पहरेदार' काव्य-संग्रह आज के बेहद वाचाल समाज में रहने वाले हर मानव मन की एकान्त खामोशी की गाथाएँ हैं। संघर्षरत हर व्यक्ति ऊपर से जितना मुखर है, मन के खालीपन से उतना ही आक्रांत है। दोहरे मापदंडों को निभाते हुए वह अपने स्वत्व की रक्षा को प्रतिबद्ध है। पीड़ा के सागर से आत्म-मंथन कर उसका हंस मन जो अनमोल मोती चुन लेता है-जीवन यात्रा में वही उसका पाथेय हैं और उनकी रक्षा वह सन्नाटों का पहरेदार बन कर करता है। संघर्ष, वेदना और उपलब्धि की तृष्टि वीणा जी की कविताओं में उभरी है। 'झील की खामोशी' में कवयित्री 'अधूरी रेखाएँ भी उकेरती हैं, 'कुछ लम्हें' भी संजोती हैं, 'अकेली पड़ती मैं के बाद भी थम जाए क्षण यहीं की चाह भी व्यक्त करती हैं- 'नए शब्दों की तलाश' कर पत्थर को भी खुदा बना देती हैं। ये उनकी काव्य यात्रा के अनेक सोपान हैं जो अभिव्यक्तियों के सजग पहरेदार हैं।

'श्रृंखलाबद्ध आत्मानुभूति के ये मोती' उनकी काव्य यात्रा की समीक्षा स्वयं हैं। हिन्दी भाषा की गरिमा को प्रमाणित करती कुछ कविताएँ उनकी मातृभाषा के प्रति प्रतिबद्धता और लगाव की सूचक हैं। पद्य लेखन में पारंगत लेखिका की लेखनी गद्य लेखन में भी सक्षम है। उनका कहानी संग्रह 'पिघलती शिला' इसका साक्षात प्रमाण है।

'पिघलती शिला' आधुनिक भारतीय नारी जीवन की गाथाओं का संकलन हैं। महिला सशक्तिकरण के इस युग में संस्कारों की गरिमा निभाती, जीवन व परिवेश की विसंगतियों से उलझाती नारी की ये गाथाएँ हैं। घर की चारदिवारी में सिमटी सीता को लक्ष्मण रेखा पार करने का आह्वान करती हैं ये कहानियाँ । परिवेश से जूझने, घुटन, आँसू और हताशा की लहरों से टकराते हुए खुले आसमान के नीचे साँस लेने की आतुरता इसके पात्रों में है। आदर्शों को व्यवहार के धरातल पर परखने का साहस इनके नारी पात्र करते हैं और निर्णय लेने की क्षतमा जुटाते हैं । पुरुषप्रधान भारतीय समाज में, सदियों से शापित शिक्षा बन  गए नारी के अहिल्या - मन को पिघलते दिखाना यही बताता है। गौतम से शापित होकर सदियों राम की प्रतीक्षा अब वह नही करती - भारतीय नारी अपनी शक्ति स्वयं जुटा रही है। अपनी स्वायत्तता की जमीन की तलाश करते नारी पात्रों की ये कहानियों हैं और आज के समाज व नारी मन की वाणी हैं। वीणा जी ने प्रमाणित कर दिया है कि स्त्री की पीड़ा, उसकी सहनशीलता, दृढ़ता, सहिष्णुता और योग्यता को एक स्त्री सहज अभिव्यक्ति दे सकती है। लेखिका आज के युग के एक प्रमुाव वर्ग विशेष की आवाज बन कर उभरी हैं। हिन्दी साहित्य को उनसे ऐसी अनेकानेक कृतियों की अपेक्षा बनी रहेगी। उनकी लेखन यात्रा के अनेक पड़ावों के लिए असंख्य शुभेच्छाएँ। प्रधानाचार्या, जालंधर, पंजाब 

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मानवीय चेतना की महाश्वेता वीणा विज डॉ. विनोद कुमार मानविकिसंकाय, लवली प्रोफैशनल यूनिवर्सिटी, फगवाड़ा (पंजाब), 

Email: mrvinodsharma750@gmail.com, 

Mobile: 9876758830

दाएं से डॉ. तरसेम गुजराल, मोहन सपरा और डॉ. विनोद कुमार, डॉ. वीणा विज, प्रो. सीमा जैन, डॉ. नीलम जुल्का


वीणा वाणी से सर्वदा सत्य की झनकार होती है, परिभाषा जीवन की नित्य ही साकार होती है। कविता जीवन-दर्शन है, आज बोलती है वीणा । सम्पूर्ण सृष्टि के छिपे हुए जो, राज़ खोलती है वीणा । कला, साहित्य और अध्यात्म की आधार भूमि पर अवस्थित जीवन सार्थक तभी बनता है, जब प्रकृति को सूक्ष्म दृष्टि से देख पाने की सामर्थ्य आती है। अणु-परमाणु और प्रकृति के कण-कण में वैदिक नाद सुनाई देता है, पक्षियों के कलरव में ऋषि संवाद सुनाई देता है। कला, अध्यात्म ज्ञान के अंश ले साहित्य का जो सर्वोत्कृष्ट रूप है, वह कविता है, जो संवेदन से संवलित मानव मन की स्वच्छ एवं निर्मल सरिता है । कविता सहजानुभूति की स्वाभाविक सरस अभिव्यक्ति है । कविता प्रकृति-स्पन्दन की मौन तान है, कविता सृष्टि-संवेदना का सर्वार्थ हित शर-सन्धान है, कविता सत्यं शिवं सुन्दरं का निदर्शन है, कविता जीवन-दर्शन है।

नृत्य की नयनाभिराम प्रस्तुतियाँ देकर राष्ट्रिय सम्मान अर्जित करने वाली, अभिनय कला में कितने ही कीर्तिमान स्थापित करने वाली, वीणा विज साठ सालों से निरंतर साहित्य-साधना में संलग्न हैं। पिघलती शिला, तुरपाई तथा अन्य कहानियाँ, साहित्य संसार को समर्पित करने के साथ, अपने काव्य संग्रहों, सन्नाटों के पहरेदार, कदम ज़िन्दगी के और दरीचों से झांकती धूप के माध्यम से कविता - जगत में वीणा विज 'उदित' होती हैं और सहृदय के ह्रदय को साहित्य- मलयानिल से सुरभित कर जाती हैं, अंधियारे कोने को भी प्रकाशित कर जाती हैं। वीणापाणि की कृपापात्र वीणा विज को, उनकी गहन गम्भीर विचार राशि, साहित्य-साधना के सम्माननीय पद पर अधिष्ठित करती है और सरल सरस भाषिक संरचना उन्हें कविता के उच्च मुकाम पर प्रतिष्ठित करती है।

वीणा विज की कविताओं में अपने समय की सच्चाई के अतिरिक्त भारतीय संस्कृति, सुरक्षित और संरक्षित दिखाई देती है। संवेदना को केवल साहित्य ही नहीं अपितु वैज्ञानिक कसौटी पर भी परखने का पक्ष रखती हैं और अध्यात्म को भी नव दर्शन के रूप में कविताओं के माध्यम से प्रकट करने का साहस करती हैं। कवियित्री का यह दृढ़ विश्वास है कि कविता जीवन है; जीवन की परिभाषा है, कविता जीने की आशा है... कविता अंधकार में प्रकाश है; कविता ही धरा है और कविता ही आकाश है।

सचमुच वीणा विज की भावात्मक अभिव्यक्ति कविता को जीवन के पर्याय के रूप में देखती हैं और जब जीवन को परिभाषित करने के प्रयास में स्वर संधान करती हैं तो कविता स्वयं नव अलंकरण धारण कर वर्तमान हो उठती है। बिलकुल सच है कि जब तक व्यक्ति मौन से वार्तालाप नहीं करता, तब तक भीतर की आवाज सुनाई नहीं देती; जब तक भीतर की आवाज सुनाई नहीं देती, कविता, कविता नहीं बनती और न ही वह जीवन झाँकी को प्रस्तुत कर सकती है।

मैं और मेरी कविता के माध्यम से वीणा विज जीवन और कविता के संबंधों को स्पष्ट करते हुए कहती हैं कि जीवन की व्यस्तता के मध्य कभी भावनाओं का सागर उमड़ा, एक संगीत लहरी लहू के साथ-साथ सारे अंतर्मन को लय में बांधने लगी तो चार शब्द प्रस्फुटित हुए फिर कभी विचारों की आंधी उठी, भीतर उमड़ते तूफानों ने संबल दिया तो बेबसी क्या कहिए कि आंसुओं के सैलाब आ गए... भावुकता को शब्द मिलते गए।

सचमुच वीणा विज जीवन कविता के इस संबंध को केवल स्वीकार ही नहीं करती, अपितु उसको जीती हैं, तभी तो कहा जा सकता है कि उनकी कविताएं उनका किया हुआ मौन- वार्तालाप है। पंडित सुरेश नीरव के शब्दों में यह कविताएं हैं। ही ऐसी, जो हमारे भीतर के भी जो भीतर है, उस भीतर से मौन संवाद करती हैं। इन कविताओं के रचनालोक से गुजरने पर यह एहसास होता है कि कविताओं में जड़े लफज़ बड़े सलीके से खामोशी को पीते हैं और फिर सन्नाटों के पहरेदार बन जाते हैं। - चुप्पी टूटी आया होश / जुबां पाई खामोशियों ने/ सावन की बूंदे बरसी / सीपी में छिपी स्वाति -बूँद / अमूल्य मोती बन निकली (सन्नाटों के पहरेदार1)

घने कोहरे में, घुप अंधेरे में, सन्नाटों के शोर में आस का दीपक जलाए हुए, नमी को दबाए हुए होठों में, मंजिल पाने की तलाश में पथ पर चलती हैं, शायद कहीं कोई क्षणिक मिलन का शुभ अवसर मिले, लेकिन अंधेरे में दूर तक कुछ दिखाई नहीं देता तो निराशा के बादल छा जाते हैं। काली अंधेरी रात के उस वातावरण में सूखे वृक्षों बेलों से गुजरती हुई हवा संगीत पैदा करती है, जो हृदय को पल भर के लिए व्याकुल कर देती है- तूफान उठा है मन में / कांप कांप जाता है तन / ख्याल जो उठता जहन में सवाल उठ रहे हैं ढेरों आज । वीणा विज ज़िंदगी की इस दुविधा को झेलते हुए अपने जीवन की एक नई कहानी के पृष्ठों को पलटती हैं और पूछती हैं- किसने समझी, -किसने जानी/ लम्बी राहें जीवन की अन्जानी / हर मोड़ में इक छिपी कहानी ( सन्नाटों के पहरेदार 10) और इस कहानी का अंजाम क्या होगा, न जाना किसी ने, न समझा। इसके बावजूद मन में एक विश्वास लिए और मिलन की आस लिए यही कहती हैं जीवन मेरा है प्रेम तुम्हारा / प्रातः संध्या सब सिमट गए हैं। मुंदे नैनों में बसा रूप तुम्हारा (सन्नाटों के पहरेदार 12 ) लेकिन कवियित्री केवल व्यक्तिगत पीड़ा और वेदना को कविता नहीं मानती ।

मानवीय व्यवहार जब तक मन को स्पर्श नहीं करेगा, न तो मानव, मानव कहलाएगा, न उसे कविता का सलीका आएगा और न कविता का सृजन हो पाएगा।- तुम उसे कविता का रूप कह लो / या आत्मानुभूति के उद्गार मान लो / यथार्थता, गहराई, कल्पना के भाव समझ लो । ( सन्नाटों के पहरेदार 26 ) लेकिन विडंबना यह है कि सपने तो आखिर सपने हैं, यथार्थ का हथौड़ा जब पड़ता है, जीवन रूपी कांच बिखर-बिखर जाता है और कहना पड़ता है- अतीत के पिछले पहर के सन्नाटों से भयभीत हो, / वर्तमान के पट खोले सपनों को संजोए बैठे थे। कभी जीते थे, हम भी हंसते थे खिलखिला कर / जीवन उत्सव था, रंग-बिरंगा मेला ही जीवन था / अब...../ अधूरी लाशें ढोए कहां जाएं, सपने तो सपने ही रहे यही जीवन है तो जीते-मरते जिए जा रहे हैं । (सन्नाटों के पहरेदार 37 ) कारण बहुत से हैं, बहाने सैकड़ों हैं, समस्याओं से बच निकलने के, लेकिन जो मानवीय संवेदना से सिक्त है, वह पत्थर के दर्द को भी महसूस करता है, लेकिन दिल की खामोशी की तरह अंदर ही अंदर उबलता है, मचलता है, पिघलता है, फूट निकलना चाहता है और अंततः कविता के माध्यम से अपनी वेदना को प्रकट करता है। कहीं भुखमरी ने, गरीबी ने, बेरोजगारी ने अपंग बना दिया है मानव को, कहीं दुनिया की आधी आबादी, आधा जहान अपनी अस्मिता और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते-लड़ते चूर-चूर हो रहा है; बहरी दीवारों से सिर टकराकर लहूलुहान हो रहा है लेकिन उनके पक्ष में गवाही में सिर हिलाने वाले दिखाई नहीं देते। बड़े-बड़े मंचों से भले ही हुंकार सुनाई देती हैं, लेकिन व्यवहारिकता में सच की जमीन बंजर दिखाई देती है। शायद पुरुष सत्तात्मक समाज के हृदय बांझ हो चुके हैं। और ऐसे समय में कहना पड़ता है- टूटी उम्मीदों का बोझ उठा सको तो जानो/ रिसते छालों को बहता देखो तो जानो/ जब कदम बढ़ते हैं आशा की किरणें ले/ इक टीस जन्म लेती है। संग ही बुझती लौ में । ( सन्नाटों के पहरेदार 57 )

सुख और समृद्धि में अंतर न करता हुआ मनुष्य, सुविधाओं को जुटाने में, संपूर्ण प्रकृति के साथ जिस प्रकार का व्यवहार कर रहा है, उसका दुष्परिणाम महामारी के रूप में हमारे सामने है, जिसे बार-बार कविता चेतावनी के रूप में देती रही, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी- फूलों की कलियाँ, गेहूं की बालियां कैसे खुद को बचाएं / रक्षक भक्षक बने, बाड़ खेत की, स्वयं खेत को खाए / बलात्कारियों की कैसे हो पहचान कैसे हो गिनती / कौन सुनेगा फरियाद किससे हो रक्षा की विनती । (सन्नाटों के पहरेदार 99 ) बकौल सुरेश नीरव वीणा विज की कविताएं, अपने समय से बताती हैं, उससे सवाल जवाब करती हैं और कान में अस्तित्व का संगीत सुनाती हैं।

वीणा विज जीवन के अनुभव को फलक पर देखती समझती और आत्मसात करती हैं। व्यष्टि से समष्टि तक का सफर तय करने के पश्चात यह भावनाएं कविताओं का चोला पहनकर अनेक अलंकारों से सुसज्जित होकर इस वीणा से झंकृत होती हैं और आसपास के सारे आलम को गुंजित कर देती हैं। अणु में परमाणु और परमाणु में अणु के दर्शन करती हुई चलती हैं और उन्हें प्रेषण युक्त शब्दों में सामने रख देती हैं। ऐसा लगता है कि वीणा कविता को नहीं ढूंढती अपितु कविताएं वीणा को ढूंढती हैं।

जीवन के कोमल एवं कठोर दोनों ही रूपों को इनकी कविताओं में देखा जा सकता है किंतु जीवन की उबड़ खाबड़ पगडंडियों पर चलते हुए भी अंतर दिखाई नहीं देता; सरिता के प्रवाह की तरह वीणा की कविताएं सर्वदा शीतलता प्रदान करती हैं, ताजगी का अनुभव कराती हैं, बाधाओं को हटा कर मार्ग बनाती हैं। विपरीत से विपरीत परिस्थिति को भी वीणा स्वीकार करती हुई, जिंदगी के कदम आगे बढ़ाती हैं, जहां उन्हें वीराने में भी बहारों की आमद का एहसास होता है, तनहाई की तंद्रा को तोड़ते हुए, प्रभात के इशारे को देख पाने की दृष्टि, अद्भुत एवं अनुपम है। ( कदम जिंदगी के 19)

बीते हुए समय की काली परछाइयों को पीछे छोड़ते हुए, नव आशा के दीप जलाती हुई, कवियित्री उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ती- उज्जवल इस समय की कालिमा को हटा प्रकाश छाएगा / नूतन वर्ष हृदय में हर्षोल्लास के फूल खिलाएगा। (कदम जिंदगी के 20)

जीवन में कभी ऐसा भी होता है जब चारों ओर घनघोर घटाएं छा जाती हैं लेकिन रोशनी की एक किरण उम्मीद जगाती है और वीणा रोशनी की एक किरण को ही नव प्राण मानकर उसका स्वागत करती है। बकौल सिमर सदोष वीणा विज अपनी कविताओं में शब्दों को ऐसे पिरोती हैं, सजाती हैं, जैसे किसान अपने खेतों में हल चलाने के बाद बीज डालता हैं। पढ़ने के बाद एक और एहसास जो पैदा हुआ, वह यह कि वह अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की तलाश हेतु जंगल बेलो में नहीं भटकती, वे तो जैसे उपवन के एक फूल की तरह कोई एक शब्द लिख देती हैं..... और वह एक शब्द ही जैसे एक बीज के रूप में कविता बन प्रकट हो जाता है। कविता उनके भीतर से स्वतःस्फूर्त झरने की तरह प्रकट होती है। बाकायदा एक संगीत को लिए हुए वीणा विज अपनी प्रत्येक कविता में अपनी बात बड़ी सादगी से कह जाती हैं। कविताएं अपने होने का एहसास खुद कराती हैं.... जैसे हवा का कोई झोंका पास से गुजर गया हो। वीणा की कविताओं में सभी तरह के रंग हैं.... सावन भादों के किसी एक दिन वर्षा के बाद खिली धूप के साथ उतर आया हो पश्चिमी आकाश पर कोई एक इंद्रधनुष.. सात रंगों वाला ।

वीणा विज की कविताओं में कोमलता और कठोरता के भाव एक साथ देखे जा सकते हैं। उनकी कविताओं में प्रेम का राग भी है और विप्लव की आग भी है। उनकी कविताओं में अमृत रस है और अमृत रस बरसाने के लिए सामाजिक विषमताओं के गरल को पी जाने की सामर्थ्य भी है। समय की नजाकत को समझते हुए विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी हार न मानने की जिद वीणा विज की कविता की प्राणधारा है- तूफानी इरादे जब चट्टानों से टकराते हैं । दुविधा में लांघकर भी आगे बढ़ जाते हैं। बुलंदियों की चाह कुछ सोचने नहीं देती / मजबूत इरादे स्वयं राहें बनाते हैं। ( कदम जिंदगी के 31 )

भूमण्डलीकरण के इस दौर में सर्वाधिक ज्वलन्त तथ्य बाजारीकरण भी है। अर्थतन्त्र के इस कंटीले घेरे में उपभोक्ता के सपनों का संसार मानों उसे खींच ले आता है और अदृश्य जंजीरों में जकड़ लेता है जिससे मुक्त होना न तो मानव चाहता ही है और न ही संभव ही लगता है। 'संस्कृति और भूमण्डलीकरण' के अन्तर्गत एजाज अहमद भूमण्डलीकरण की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि 'भूमण्डलीकरण बाजार को एक कर रहा है और मनुष्य को बांट रहा है क्योंकि भूमंडलीय बाजार के लक्ष्यों के लिए मनुष्यों को सर्वोत्तम इस्तेमाल तभी किया जा सकता है, अगर वे एक दूसरे से जुड़े लोगों की तरह नहीं, बल्कि व्यक्तिगत उपभोक्ता की तरह व्यवहार करें। समता की राजनीति को विषमता की राजनीति से और सहयोग के समाज की अनन्त प्रतियोगिता के समाज से विस्थापित करने के इस युद्ध में भूमंडलीय स्तर पर उत्तर आधुनिकता और तीसरी दुनिया के सन्दर्भ में उत्तर 3 र औपनिवेशिक सिद्धान्त मुख्य औजार है वर्ग चेतना और साम्प्रदायिक चेतना । (संस्कृति और भूमण्डलीकरण, आलोचना सहस्त्राब्दी अंक 72)

सुरसा के मुख की तरह विकराल होती जा रही इस भद्दी संस्कृति के सजीव चित्र कविता में भी देखने को मिलते हैं। इस उपभोक्ता संस्कृति के कसते जा रहे पंजों में पिसती जा रही मानवीयता के दर्शन सम्बन्धों के बीच आते इस बाजार की परतों को अपनी कविताओं के माध्यम से उघाड़ने के साहसिक काम कवियों ने बखूबी अन्जाम दिया है। वीणा भी इसकी अपवाद नहीं हैं, आपाधापी के इस युग में वीणा विज समष्टि कल्याण भावना को संप्रेषित करने का संकल्प लिए हुए हैं- आओ मांगे यह दुआ / मुंह से निकले यह सदा / मेरे वतन की राह में जिंदगी चलती रहे सब के दर पर ज़िन्दगी आए और फिर आहट भी दे फिर से सब नाशाद हों। यह कदम ज़िन्दगी के / सबके घर आबाद हों। यह कदम जिंदगी के ।

आज समय की विडम्बना यह है कि जिस सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था को मानव ने अपने जीवन की खुशहाली और समृद्धि के लिए स्थापित किया था, वह व्यवस्था ही मानव को निगल रही है। शोषण, उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, अत्याचार और तिरस्कार से मानव त्रस्त है। ऐसी दशा में मानवाधिकारों की घोषणा मात्र से काम नहीं चलेगा बल्कि यह भी देखना होगा कि उसे संवैधानिक संरक्षण और सामाजिक सम्मति भी प्राप्त हो सके। हर युग के समाज ने अपने ढंग से प्रयास किए हैं, ताकि मानव जीवन जीने योग्य बन सके।

साहित्यकार समाज का चितेरा होता है और वह समाज के सबसे महत्वपूर्ण घटक यानि मानव की इस लड़ाई को शब्दों के माध्यम से जारी रखता है। हिन्दी कविता भी इसका सशक्त प्रमाण और दस्तावेज बनकर सामने आई है। विशेष रूप से स्वतन्त्रता के बाद लिखी गई हिन्दी कविता ने मानवीय आशाओं, आकांक्षाओं और निराशाओं को व्यक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। नए वातावरण में नई समस्याएँ सामने आई, जिनको कविता ने बखूबी अभिव्यंजित किया है। मानव की पीड़ा, दुख-दर्द और आर्थिक विषमता की खाई बढ़ती जा रही थी, समाजिक, आर्थिक और राजनैतिक विसंगतियों ने सामान्य जन के साथ-साथ कवि हृदय को भी झकझोर डाला था। बहुत से कवियों ने समाज में व्याप्त, मानव की मानव विरोधी गतिविधियों से साक्षात किया है, वहीं से प्राप्त वेदना को सहन करते हुए, इनके प्रति अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की । पूंजीवादी समाज के अनुरूप वर्ग विभक्त समाज में मानव की संवेदनाओं को लेखनी दी है, उनमें इसके लिए व्याकुलता और भयानक छटपटाहट भी है।

आज मनुष्य ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के बल पर वह कुछ भी कर दिखाया है, जिसके परिणामस्वरूप जीवन की अधिकाँश सुख सुविधाएँ उसकी अंगुलियों पर नाचती हैं। जीवन को सुविधापूर्ण बनाने का प्रत्येक साधन आज उपलब्ध है, इन सबके बावजूद व्यक्ति के मन का अन्तरतम प्रसन्न नहीं है, वह हँसता तो है लेकिन उसकी हँसी बनावटी लगती है। चल तो  रहा है लेकिन आगे बढ़ नहीं पा रहा । व्यक्तिगत उन्नति तो बहुत से लोगों की हो गई है और प्रतिदिन हो रही है, लेकिन सामाजिकता के स्तर पर यह उपलब्धि थोथी, खोखली और भद्दी दिखाई देती है । तस्वीर का यह पक्ष बेहद निराशाजनक एवं घृणित है और विडम्बना यह है कि इस उपलब्धि का श्रेय भी आज के मानव को ही जाता है। कारण स्पष्ट है कि मानवीयता का स्थान वस्तु ने ले लिया है। प्रतिदिन, प्रतिपल मूल्यों का क्षरण हो रहा है, जो मनुष्य और समाज दोनों ही के लिए घातक है । अर्थतन्त्र के इस कंटीले घेरे में उपभोक्ता के सपनों का संसार मानों उसे खींच ले आता है और अदृश्य जंजीरों में जकड़ लेता है जिससे मुक्त होना न तो वह चाहता ही है और न ही संभव ही लगता है। बिगड़ती स्थिति आम जनता को यह अहसास कराती है कि स्वाधीनता के पहले जिस प्रकार विदेशी शासक भी दोनों हाथों से हमारी अर्थव्यवस्था को लूट नहीं पाए थे, उस सुदृढ़ अर्थव्यवस्था का हमारे अपने शासकों ने बंटाधार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मुक्तिबोध के शब्दों में- पीठ पर चिपकी हुई घटनाओं को / ज़ख्म की तरह लेकर / वह हर साल नंगा होने की हद तक कांपेगा / और फिर कर्ज के कपड़े पहनकर / इधर-उधर खून की तरह नाचेगा | धूमिल का 'मोचीराम', जिसके लिए सभी ग्राहक हैं, वह जिन्दा रहने के पीछे तर्क की खोज करता हुआ अन्तत: इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि हर बार मुझे लगा है कि कहीं / कोई खास फर्क नहीं है / जिंदगी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है। जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है । जिस समाज में मानव की स्थिति ऐसी हो ? वहाँ पर मानवाधिकारों की बात का क्या अर्थ रह जाता है? लेकिन कवि ने उसकी अदम्य जिजीविषा को भी व्यक्त किया है। कवियों ने न केवल मानवाधिकार हनन को ही अभिव्यक्त किया है, बल्कि जिम्मेदार लोगों को अनावृत करते हुए होठों की मुस्कान छीन लेने वाले बेरहम पैशाचिकों की, जो सिर्फ आदमीयत को नष्ट करने की साजिश है, से बचकर एक बेहतर दुनिया के लिए, एक छोटी सी लड़ाई के लिए तैयार हो रहा है।

वीणा भी इस युद्ध में सन्नद्द होती हुई, दरीचों से झांकती धूप मे जीवन के सघन अनुभवों की तपिश को आत्मसात करती हुई, कहीं जीवन को परिभाषित करती हैं, तो कहीं जीवन को गढ़ने का प्रयास करती हैं। जीवन व्यक्तिगत स्वार्थ की तंग गलियों में भटकता न रहे जन-जन की भावना को संबोधित करते हुए जनपथ पर अग्रसर हो, इसी भावना के साथ वीणा की कविता, जहां समाज में विघटन और विद्रूपता देखती है, वहां एक हथियार बन कर प्रस्तुत होती है।

डॉ. अभिलाष सिंह, भारतीय संस्कृति: कल आज और कल पुस्तक समीक्षा में लिखते हैं कि आज के इस सांस्कृतिक क्षरण के युग में 'रीति और 'सदाचार जैसे शब्दों का विलोप होता जा रहा है, जिससे मनुष्य के जीवन में परिवर्तन भी तीव्र गति से प्रारंभ हुए हैं। इस परिवर्तन की आँधी ने सांस्कृतिक संक्रमण एवं जीवन मूल्यों का क्षरण शुरू कर दिया है परिणामस्वरूप जन सामान्य के जीवन मूल्यों में भी बदलाव आना स्वाभाविक है। ऐसे समय एक कवि रामानुज त्रिपाठी के नवगीत 'शब्द हो गए बहुत दुरूह की कुछ पंक्तियाँ स्मरण हो उठती हैं: ये बीमार अपाहिज सुबहें ये अन्धी अन्धी शामें / आ न जाएं दरवाजे पर / टूटी बैसाखी थामें, भावनाओं का अपने ही हाथों गला घोंट कर आज का मानव जीवन की सुविधाओं को ओढ़ता और बिछाता है। फिर कैसे कहें कि मानवता से मानव का अब भी नाता है। क्यों अभिशप्त हुई मानवता / मुख खोलो कुछ बोलो तो / लगे मुखौटे जिसके ऊपर / चेहरा जरा टटोलो तो / कहिए किसको / कहें आदमी / सिर्फ खड़े हैं ढाँचे जी बीच सड़क पर मरे हुओं की / पड़ी हुई लावारिस लाशें / जब मुँह फेरे चले जा रहे / मानवता को कहाँ तलाशें ।

वीणा विज की कविता उपभोक्तावादी विकृति में संलिप्त आज के मानव की त्रासदी को, प्यार और संस्कार को तार- तार होते हुए देखने की पीड़ा का सच्चा दस्तावेज है। अनकही वेदना की पुकार को वीणा शब्दों में पिरोती हुई कहती हैं- नरम मुलायम मिट्टी को रौंद, ईंटें मजबूत / आँधी, तूफां, कूट/ 'आवा' में पका बनाते ज़िंदगी की आंच उसे / पिघला न सके रह गए स्तब्ध / शायद यही है उसका प्रारब्ध । / फिर भी 'तबूला रासा' जीवन के लिए चाहते आने वाला कल उसपे उकाराने (दरीचों से झांकती धूप 21 )

साहित्यकार समाज की एक ऐसी संरचना चाहता है, जिसमें मानव-मानव का प्रेम और पारस्परिकता बनी रहे । यदि ये सब कुछ नहीं है तो मनुष्य की समस्त कमाई और तरक्की किसी भी कीमत की नहीं। आज के समाज में उपर्युक्त भावनाओं और संस्कारों का तो मानो लोप ही हो चुका है। हर तरफ़ मक्कारी है, फ़रेब है और चालाकी है। सहयोग, सेवा, संस्कार तो जैसे शेष ही हो चुके हैं। सभी ओर लालच और स्वार्थ का बोलबाला हो रहा है। कवि भवानी प्रसाद मिश्र जी का कहना है कि जब तक हम एक दूसरे से प्यार से व्यवहार नहीं करेंगे तब तक हमें भी कहाँ से प्राप्त होगा। जबकि चल रही है जब ज़िंदगी बस बैसाखियों के सहारे तो उम्मीद की ली कहीं दिखाई नहीं देती क्योंकि उसे निरंतर निगलते जा रहे घने हैं, अंधियारे । आम आदमी की खाहिशें डूबती जा रही हैं, उम्मीद का दामन छूटता जा रहा है। बंद दरवाजों से झांकती मजबूर आँखें रास्ता निहारती हैं कि कोइ तो दिन आये जो सूरज की किरणों के साथ हमारे जीवन में भी कुछ उजाला दे जाए। वीणा की कविता 'अपने-अपने शून्य' में यही स्वप्न लिए है- अन्धकार को बींध पार ताकते / स्मित-पुष्प लता खिली देख हर्षते/ धवल चन्द्र-रात्रि में अभिसार करने/ पुष्प लताओं को बीनने स्वप्न निकलते (दरीचों से झांकती धूप 42 )

पत्थर का सीना फाड़ मुलायम कोपलें कुछ झाँकती हैं, देखो जिजीविषा अदम्य जीवन रौशनी ये माँगती हैं, लेकिन किसी के भाग्य में वसंत शायद लिखा ही नहीं गया, या फिर मिटा दिया गया है और विडम्बना यह कि अनुकूल स्थिति भी बन जाए तो जीवन रूपी वृक्ष हरा-भरा नहीं हो पाता- फूट पड़े सभी में/ नव अंकुर बसंत में / लहलहाए धीरे-धीरे / अभागा हूँठ ही रहा सूखा / धूप ने सेंका / बासंती झोंके लहराए / मेघों से बूँदें झरीं/ फिर भी गोद न भरी / बाँझ की पीड़ा / झेलता मायूस / ठूंठ... । (दरीचों से झांकती धूप 53 )

भौतिकता के द्वंद्व में फंसे मानव की दौड़ अंधी मृगतृष्णा है, जो कभी पूरी नहीं होती। नारी को सदियों से इक अदद जिंदगी की तलाश है लेकिन पुरुष का अहंभाव जाता ही नहीं, स्त्री जीवन रंगहीन ही रहा गया, उसकी कामनाएं, उसकी इच्छाएं और उसके स्वप्न अधूरे ही रह गए। तभी तो वीणा को कहना पड़ा - सदियों से अंतर्न्यास लिए बैठी हूं/ क्षुधा बुझाने अन्तर्जल बरसा नहीं / शुभ्र चन्द्रिका नित उतरती नभ में / मुझको छूती कोइ चन्द्रकिरण नहीं... । (दरीचों से झांकती धूप 41 )

परम्परागत मान्यताओं चाहे वे सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक अथवा साहित्यिक हों सभी पक्षों में जड़ हो चुके और पुराने पड़ चुके ध्रुवों को नये रंग-रूप और आकार देने का बीड़ा समाज के सच्चे प्रतिनिधि होने के नाते प्रत्येक सजग नागरिक को उठाना चाहिए। कवि का कर्म इस सन्दर्भ में अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। वीणा ने एक सच्चे साहित्यकार होने का पूर्ण परिचय दिया है और अपने कर्म को अत्यन्त निष्ठा के साथ पूरा किया है। युग की संकटपूर्ण स्थिति को समझते हुए, उसकी दुर्बलताओं पर कुठाराघात करना और अतीत की गौरवशाली परम्परा में आस्था और विश्वास रखते हुए भारत के पुनर्निर्माण के संकल्प को साकार करने में निरन्तर प्रयास किया है। विपरीत समय में भी वीणा निराश नहीं होती - धरती हुलसे, झुलसे मन, अंतः सलिला की आशा है, सुख दुख में दुख सुख में ढूंढें, कैसी जीवन परिभाषा है, ताल नदी नाले सूखे खलिहान देखती हैं आँखें, खेत सिकुड़ते, बढ़ते रेगिस्तान देखती हैं आँखें इंतज़ार में ठूंठ खड़ा, इस बार जो सावन आएगा, नव अंकुर फुटेंगे और जीवन मेरा सरसाएगा । और इसी आस को काव्य का उजास बना प्रस्तुत करती हुई वीणा कहती हैं सन्नाटों में छटपटाता रहा मौन / हरता अंतर्तम काव्य का उजास / आत्मा में समाया ताप बन प्रकाश / विमुक्त दिगन्त मुखरित है प्रभास । (दरीचों से झांकती धूप 87 )

अमानवीयता की मार को सहते हुए एक अर्सा हुआ, रक्त-रंजित होते हुए, भारत के शीश को आशीष देती वीणा की कविता कहती है कि स्वप्न खुशहाल भारत का तामीर हो जाए, स्वर्ग धरा का फिर से ये कश्मीर हो जाए। पत्थरों का रुदन है चारों तरफ, मानवता बची हो शायद कहीं होती परेशाँ, सच है कि ज़िन्दगी का बच्चा न कोइ निशाँ । भोले भाले थे जो मानव वो भटक क्यों गए, दिशाभ्रम क्यों सबको हुआ हैं, और परिणाम ये हुआ है, हर तरफ बस धुआँ ही धुआँ है। लाशों की गंध ढोती बोझिल हवा है, साँस लेना भी अब तो दूभर हुआ है, वेदना स्वर वीणा छेड़ती, कराह रही दीवाली, रहा सुदामा निर्धन का झोला आज भी खाली । महलों को अमा- रात में चमकती चाँदनी आली है। झौंपड़े की पूर्णिमा लेकिन, अभी भी स्याह काली है। बेचारगी से सनी ज़िन्दगी में परेशानियाँ बेहिसाब हैं, निस्तेज आँखों में टूटते बनते, तलाशते उनींदे खाब हैं, स्वप्न बहुत हैं आँखों में जिनका पूरा होना मुश्किल है, वीणा झंकृत हो कहती है, प्रयास तो हमको हासिल है। वीणा विज अपनी कविताओं में जीवन जगत के प्रत्येक आँगन को झाँक कर देखती हैं और प्रत्येक आँगन की स्थिति को, परिस्थिति को आशा को निराशा को, वेदना को, पुचकार को, कर्तव्य को अधिकार को शब्द देती हैं।

वीणा स्वभाव से ही प्राकृतिक सौन्दर्य की पिपासा लिए, उसकी सुषमा को अपनी कविताओं का शृंगार बनाती हैं। वीणा विज का स्पष्ट कहना है कि मैंने एकांत के क्षणों में प्रकृति की गोद में बैठ कर निर्जीव वस्तुओं प्रकृति से निस्पंद वार्तालाप कर इर्द-गिर्द घटती सच्चाइयों और स्वयं के भोगे हुए सत्य को एक सरल भाषा में रूप में ढाल आपके सम्मुख रखने की चेष्टा की है। मेरी दृष्टि में काव्य रचना एक साधना है, जिसे निरंतर साधते रहने से परिपक्वता दृष्टिगोचर होने लगती है । मेरे परिवेश समाज व सामाजिक विचारधारा का प्रभाव संग चलता लगता है, विशेषता या स्वयं भुक्त जीवन के खट्टे-मीठे कड़वे तीखे अनुभव उकेरने की सार्थकता मेरी कलम ने की है। लेकिन उन्हें सजाने, शब्द रूप में मोती सदृश माला में पिरोने का सौंदर्य पूर्ण रचनात्मक कार्य मैंने किया है।

काव्य-शिल्प की बात करें तो निःसंकोच कहा जा सकता है कि सरलता, सहजता और सम्प्रेषणीयता को वीणा विज बहुत अच्छी तरह से समझती हैं। प्रत्येक भाव के अनुकूल सही एवं संतुलित शब्द चयन, उनकी कविता की शक्ति बना है वे स्वयं कहती हैं कि मैंने मूर्त-अमूर्त रूपों का बखान करते हुए भावनाओं का स्वरूप प्रकट करने के लिए कलिष्ट नहीं अपितु साधारण जनमानस की भाषा का जामा अपनी कविताओं को पहनाया है । वीणा ने विषय को जहाँ नए आयाम प्रदान किए, वहीं शिल्प को भी सजाया-संवारा है। भाषा को नई शब्दावली देने के लिए अनुकूल शब्द चयन किया है। एक ओर भाषा में चित्रोपमता और जीवंतता है, वहीं अपनी सांस्कृतिक झाँकी को प्रस्तुत करने की सामर्थ्य भी है। भाषा के कल्पनामयी, सौंदर्य सम्पन्न, खीझ, घुटन की और टूटन अभिव्यक्ति, रोमानी भाव, संस्कारित सब रूप दिखाई पड़ते हैं। वह अपनी सशक्त और सजग भाषा के माध्यम से युगबोध को जीवंतता प्रदान करती हैं। उनके प्रतीक, बिम्ब और अलंकार प्रयोग सराहनीय है। विषय की गंभीरता के संग- संग उनकी भाषा भी अपनी भंगिमा एवं अभिव्यंजना-शक्ति में कहीं भी लाघव - दोष को आने नहीं देती। शब्दों का चयन उनकी स्थितप्रज्ञता का स्पष्ट संकेत देता है। वीणा विज की कविताएं छंद से मुक्त होते हुए भी एक अद्भुत रसाधार लिए हुए हैं, जो सरिता की लहर की भांति मन भावन गान गाती हैं। भावों और उनके अनुकूल भाषा-शैली अत्यन्त सहज ग्राह्य है, संवेदना और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से निश्चय ही कविता उत्कृष्टता को अग्रसर है।

वीणा जीवन उपवन से स्नेह सुमन भी चुनती हैं और उनकी खुशबु को अपनी कविताओं में सजाकर सम्प्रेषित भी करती हैं ताकि सहृदय भी प्रकृत प्रेम का निश्चल आनन्द ले सके और प्रेम के विविध पक्षों को इनकी दृष्टि से देख सके । सामाजिक विषयों पर भी वीणा स्वर संधान करती है, जो उनकी सामाजिक संवेदना का सुलभ प्रत्यक्ष प्रमाण है । जन-जन के मन के संघर्ष, तनाव, कष्ट और पीड़ा को वीणा वाणी देती है । कवियित्री वीणा विज का व्यक्तित्व उनकी बहुपक्षीय कविताओं में स्पष्ट झलकता है। उनकी कविताएं एक तरफ हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं के शिखरों को स्पर्श करती हैं; तो दूसरी तरफ सृष्टि के अंत:तल में सिमटी हुई पीड़ा के गहन गंभीर भाव को भी उद्घाटित करती हैं। वीणा विज की कविताएं सीधे ह्रदय तल को स्पर्श करती हुई मानवीय संवेदना तंतु को स्पंदित करने की सामर्थ्य रखती हैं । कविताओं के माध्यम से जो कुछ भी बयान करती हैं वह उनका अनुभव है, उनके जीवन का भोगा हुआ, अनुभव किया हुआ यथार्थ है, लेकिन यह व्यष्टि नहीं समष्टि भावना को आत्मसात करता है। सामाजिक विषमता को देखती कहीं निराला सी विद्रोहिणी, तो कहीं वेदना की कवयित्री महादेवी वर्मा के निकट जान पड़ती हैं, कहीं पंत की तरह प्रकृति के सौंदर्य का कोमलतम शब्दावली में चित्रांकन करती हुई प्रतीत होती हैं। भौतिक साधनों संसाधनों को सहेजने के उपक्रम में, संवेदनाओं से रिक्त होते जा रहे भूखण्ड के लिए, वीणा-काव्य की पुष्पांजलि में स्नेह, संस्कार और सदाशयता है; वीणा विज मानवीय चेतना की महाश्वेता है। 

सन्दर्भ ग्रन्थः

1. सन्नाटों के पहरेदार, वीणा विज, 'उदित', लोटस पब्लिशर्ज, जालन्धर (1999) 2. कदम ज़िंदगी के, वीणा विज, 'उदित', विशाल पब्लिशिंग कम्पनी, जालन्धर (2011) 3. दरीचों से झांकती धूप, वीणा विज, 'उदित', स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली (2019)

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प्रतिक्रिया

सुश्री नीलम कुलश्रेष्ठ


डॉ. वीणा विज ‘उदित’

छुट पुट अफसाने

कुछ भी लिखने से पहले मैं अपने अनुभव से एक सत्य सामने रख रहीं हूँ -- इस पुस्तक में भी प्रमाण है । 

कोई बेहद बुरा काम करता है तो बाद में उसकी भरपाई करनी पड़ती है। जिसके साथ ये किया जाता है, उसे तब पता नहीं चले लेकिन बरसों बाद भी प्रकृति या ऊपर वाला संकेत करता है उसके साथ बुरा काम किसने किया है ?

'छुटपुट अफ़साने का एपीसोड-4 इस बात का गवाह है- 

वीणा जी के मामा जी के घर शादी की तैयारियां चल रहीं थीं, दहेज़ से घर भरा हुआ था। उनका बँगला कोलकत्ता में शहर से कुछ अलग सा था। एक दिन वे टूर पर थे उनके बंगले पर नक्सलियों ने अटैक कर दिया, बेटी को बचाने में मामी की आँखों में घाव हो गया, फिर भी वे उसे बचा नहीं पाईं। बाद में उनकी आँखों की रोशनी चली गई और जीवन भर के लिये दिल का घाव तो था ही।

तब उनकी माँ ने किस्सा सुनाया कि इन्हीं भाई की पत्नी बहुत दुष्ट थी, उन्हें तंग करती रहतीं, आगे हॉस्टल में रहकर पड़ने नहीं दिया । पिता नहीं थे किससे शिकायत करतीं ? जब पहली बार इनकी मम्मी को सूर्य की रश्मियों में छत पर खड़े हुए सड़क पर जाते छः फुट लम्बे नौजवान [पापा ] ने देखा । उनके दोस्त अलीबाबा के चालीस चोरों की तरह उस घर पर निशाँ लगा आये । - ऐसी ही दिलचस्प भाषा इस पुस्तक में जगह जगह पढ़ने को मिलती है।

महाराजा रणजीत सिंह के दीवान के ख़ानदान में इनका रिश्ता हुआ, चुनरी की रस्म में ये भाभी जल भुनकर अपने कमरे में ताला लगाकर भाग गईं। शादी के बाद  दहेज़ दिखाई के लिए इनका बॉक्स खोला गया तो सब हैरान सारे शादी के जोड़े गायब थे। उनके स्थान पर रक्खे थे पुराने जोड़े। वो तो इनके पति अच्छे थे उन्होंने बात सम्भाल ली। बाद में उसी भाभी ने अपनी बेटी व आँख खोकर इनके पैर पकड़ कर माफ़ी माँगी। 'छूट-पुट अफ़साने 'बेहद रोचक भाषा में लिखे संस्मरण की श्रंखला है ।

इन संस्मरणों को समयाभाव के कारण मैं एफ़ बी पर पढ़ नहीं पाती थी । इंतज़ार था कि ये पुस्तक रूप में आएं। एक प्रबुद्ध महिला, जो पढ़ाई में स्वर्ण पदक लातीं थीं। कॉलेज की तमाम गतिविधियों में बाद-विवाद की प्रतियोगिताओं में चढ़कर हिस्सा लेतीं थीं. वे इतने समृद्ध घराने की थीं कि माँ ने अपने सारे गहने किसी रिश्तेदार की सहायता के लिए उठाकर दे दिए। ये बात और है कि उन्होंने धोखा दिया। पंजाब के किसी परिवार के शौकीन व रईस अनुभवों को पढ़ना व उस समय की जीवन शैली को जानना भी एक अनुभव है।

ये एक ऐसी महिला के संस्मरण हैं जिसे तकदीर ने दोनों हाथों से बहुत कुछ दिया है - व्यक्तित्व व पारिवारिक माहौल शादी के बाद का भी । वही कुछ इन संस्मरणों के सृजन में झलकता है । हमारी पीढ़ी की कौन कल्पना कर सकती थी कि पति के साथ वह कश्मीर की नदी मैं पड़े पत्थर पर लेट फ़िल्मी गाने गाएगी ? पति का फोटो स्टूडियो कश्मीर में था इसलिये इनका महीनों हनीमून ही चलता रहा। ये वो दौर था जब बहुत से फ़िल्मों की शूटिंग काश्मीर में हो रही थी । इनके पति रवि से राज कपूर की बेतक्कलुफ़ दोस्ती लेकिन रवि जी की समझदारी कि वे कभी मुंबई गए तो राज कपूर से मिलने नहीं गए क्योंकि समझते थे कि वे यहाँ व्यस्त होंगे तो जो काश्मीर की दोस्ती का मज़ा है वह कम न हो जाए। बहुत से सितारों से ये मुलाक़ात करवातीं हैं । खासकर डिम्पल कापड़ियाँ तो इनके बेटे की इतनी फ़ैन थी कि बॉबी की शॉटिंग में सेट से जाने से पहले उससे खेलती थी। बाद में राजेश खन्ना जब आये तो इस बच्चे से मिलने चले आये। 

बाद में इनके जीवन का मोड़ किस तरह से ये दूरदर्शन में नाटकों से जुड़ीं फ़िल्मों में अभिनय किया, ये जानना एक सुखद कहानी पढ़ने जैसा लगता है कुछ संस्मरणों में इतने पर्यटन स्थल का वर्णन है, जहाँ वे सपरिवार घूमी हैं कि मन करता है इन स्थानों पर तो मैं भी सपरिवार गईं हूँ, मैं भी एक संस्मरण की पुस्तक लिख ही डालूँ। मैं वीणा जी जैसी दिलचस्प मैं इसका परिचय नहीं दे पा रही इसलिए हरीश नवल जी की प्रस्तावनी में से कुछ शब्द ले रहीं हूँ "इस संकलन में समाज शास्त्र, दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, सौंदर्यशास्त्र, और साहित्यिक अनुशीलन गठबंधन है जो इसे ज्ञानवर्धक और संग्रहणीय बनाने की क्षमता रखता है। -अहमदाबाद, मो. 9925534694

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डॉ. वीणा विज ‘उदित’


हिंदी दिवस पर एक हल्का-फुल्का आलेख

यहाँ यू. एस में किसी ने मुझसे कहा 'आप अपनी रचनाएँ रोमन अंग्रेज़ी में भी लिखें, जिससे हम पढ़ सकें। भाषा भी ईज़ी होनी चाहिए, जो समझ आ सके। वही जिसमें हम-आप बोलते हैं। वैसे बैस्ट तो यही रहेगा कि आप कैसेट ही बनवा दें, जिससे हम कार में सुन एक्चुअली यहाँ टाईम बहुत कम सकें । मिलता है न, आपको तो पता ही है। इस तरह हिन्दी भी एन्जॉय कर सकेंगे, और लगेगा हम अपने देश के करीब हैं। '.. हमारे देशवासी जो विदेशों में जाकर बस गए हैं, सच पूछिये तो वे अपनी माटी की सुगंध पीछे ही छोड़ आए हैं । विदेशी "रॉल्फ एण्ड लॉरेन", “इन्ट्यूश", "ब्यूटीफु", "प्वाईज़"," "प्लैज़र" आदि की सुगंध ने उन्हें अपने से बाँध लिया है।

भारत के विद्यालयों एवम् महाविद्यालयों में जो हिन्दी पढ़ी थी, वो मिसीसिप्पी मसूरी नदियों में विसर्जित कर दी गई है। वे अंग्रेजीयत में खाने पीने व जीने लगे हैं। अब ऐसे माहौल में आप हिन्दी साहित्य की क्या बातें करेंगे। बहुत लफड़े हैं, विदेश में अपने देशवासियों को हिन्दी - साहित्य के प्रति आकर्षित करने के लिये। वहीं घोर आश्चर्य होता है, जब अन्तरजाल से आपकी काव्य और कहानी की किताबें विदेशी मूल के लोग खरीदते हैं । एक आस की किरण दिखाई देती है कि आज भी हिन्दी साँस ले रही है ।

विदेशों में हिन्दी को बचाने के लिए अन्तरजाल का आकर्षण काम कर गया है । हर कवि व लेखक एक प्लेटफ़ॉर्म पर आना चाहता है, और यह प्लेटफ़ॉर्म दिया है .. अन्तरजाल ने । लगता है, अपने देश में नहीं, अपितु अन्तरजाल पर ही हिन्दी का फलने-फूलने का भविष्य निर्भर है ।

पढ़ने वालों की भारत में भी बहुत कमी है । यहाँ समय की कोई कमी नहीं है, किन्तु इच्छा, जिज्ञासा, उत्साह, उमंग भारी कमी है। सस्ता साहित्य तो हाथों हाथ बिक जाता है । अच्छे साहित्य की बावत आप प्रकाशकों से पूछे कितन बिकता है? सोचने की बात है कि यहाँ के लेखकों व प्रकाशकों का क्या भविष्य है? हिन्दी साहित्य की भारी भरकम बातें करने वाले दिल पर हाथ रखकर सच्चाई से कहें कि क्या वे आज के वक्त में घर का खर्च साहित्य के बल-बूते पर चला सकते हैं?... नहीं न! तो कहाँ से आएगा वो साहित्य जो सदियों तक अपने पैरों के निशां छोड़ेगा । कहा है न कि 'भूखे पेट होए न भजन गोपाला । ' फिर ऐसे में वैसा साहित्य कैसे लिखा जाएगा? यह बहुत ही गम्भीर समस्या है, हमें इससे कैसे निबटना है, पहले हिन्दी सम्मेलनों में इस पर विचार होना चाहिए ।

आज के युग में जनता दूर-दर्शन की दीवानी है। एकाध चैनल हो तो कुछ कहें। ढेरों चैनल और उनपर ढेरों सीरियल चलते हैं। पुराने समय में जिस वक्त गृहणियाँ पुस्तकें व पत्रिकाएँ पढ़ा करतीं थीं, अब वे दूर-दर्शन पर सीरियल्स से जुड़ी रहतीं हैं । सो ज़ाहिर है कि 40% पाठक तो हमने यूँ खो दिए, बाकि के राम भली करें। मुन्नाभाई एम. बी. बी. एस जैसी फिल्मों से जनता विशेषकर युवा वर्ग की हिन्दी तो रसातल में चली गई है। वे अटपटी हिन्दी बोलने लगे हैं। अब आप बताएँ कैसे बचाया जाए हिन्दी - साहित्य को? पिछले दिनों एक नामी अख़बार में ऐसी भाषा की कविताएँ भी पढ़ने को मिलीं। अब हिन्दी भाषा कितनी समृद्ध हो रही है, यह तो हिन्दी के ठेकेदार जान लें ।

हिन्दी भाषा बचाने के लिये लम्बे-लम्बे व्याख्यान देने वाले राजनेता व नामी साहित्यकारों के परिवारों के बच्चे हजारों व लाखों के डोनेशन देकर अंग्रेजी स्कूलों में भर्ती कराए जा रहे हैं। साईंस या विज्ञान की पढ़ाई के लिए अंग्रेजी पढ़ना अनिवार्य है । हमें इससे कब इन्कार है। पर वे ढिंढोरा तो न पीटें। महेशचन्द्र द्विवेदी के हास्य व्यंग्य में कितनी सच्चाई है 'पाठकों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए हिन्दी दिवस को अंग्रेजी में मनाना पड़ेगा और हिन्दी के पक्ष मे प्रबुद्ध पाठकों को कोई संदेश देना चाहते हैं तो भाषणों को अंग्रेजी में छपवाईए। '

आज का कटु सत्य यह भी है कि हमारा भारत हंग्रेजी भाषा में जी रहा है। कई बार आप परेशान हो जाते हैं कि इस विशेष शब्द को हिन्दी में क्या कहते हैं। उलझन सही है। कारण अंग्रेज हमें अपनी भाषा का गुलाम बना गए हैं। राजनैतिक रूप से हम स्वतंत्र हो गए हैं, लेकिन सांस्कृतिक व आत्मिक रूप से हम सदा से उनके गुलाम बन गए हैं। पैदा होने के बाद से बच्चे को टा-टा, बाय-बाय से अंग्रेजी शुरू कर दी जाती है। पहले जन्मदिन पर किसके घर केक नहीं कटा.. जरा बतायें तो? या किसके घर 'हैप्पी बर्थ डे' नहीं गाया गया? किसी भी पार्टी में आप कोट पैंट की जगह धोती-कुर्ता तो नहीं पहनते न! सो, हिन्दी सम्मेलन चाहे विश्व हिन्दू सम्मेलन हो या राष्ट्र हिन्दी सम्मेलन । भारत में हो या न्यूयार्क में । सब जगह सुननेवाले कम अपितु भाग लेनेवाले ही चारों ओर दृष्टिगोचर होते हैं। सबको बातें करते सुनिए... कहते हुए हँसी आती है कि आधी अंग्रेजी तो चल ही रही होती है। किसी की क्या कहें आप सच सच बताएँ कि आपका लिखा आपके घर में कितने लोग पढ़ते हैं। पहले अपना परिवार सँभालिए फिर बाहर सुधारें । जहाँ स्वतंत्रता दिवस घर बैठकर मनाते हो, वहीं हिन्दी दिवस भी मना लो। क्यों शोर मचाते हो !!! 

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व्यक्ति चित्र एवं समीक्षा

श्री सत्य प्रकाश उप्पल


डॉ. वीणा विज ‘उदित’


मोह के धागे

आदरणीया वीणा विज 'उदित' का कहानी संग्रह ' मोह के धागे प्राप्त हुआ । वीणा विज 'उदित' हमारे समय की अप्रतिम लेखिका हैं । वीणा विज कहानी, कविता और आत्मकथा इत्यादि में समान रूप से लेखन करती हैं। इनकी रचनाएं जड़ों से जुड़ी हुई और युगीन सन्दर्भों को समेटे हुए होती हैं। इनके 'भूले-बिसरे' एवं 'छुट-पुट अफसाने' संस्मरणात्मक शब्दचित्र बहुत देर तक सोचने को मजबूर करते हैं कि आखिर एक अकेले इन्सान का जीवन इतना रोमांचक, नाटकीय और फिल्मी कैसे हो सकता है? पर यही सच है । इनका पूरा जीवन सूक्ष्म से वृहत्तम चीजों का खुद में समावेशन है ।

कटनी से लेकर कश्मीर तक और जालंधर से लेकर अमेरिका तक चहुंदिशी - चहुंओर इनकी पदधूलि पड़ती है । जो इनके ज्ञान एवं विद्वत्ता को और तराशने का काम करती है । ये सर्वव्याप्ति ही इन्हें बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न बनाती है। सच में निर्विवाद रूप से वर्तमान समय की ये साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।

जिस तरह अट्ठारह पुराण हैं, जिस तरह महाभारत में अट्ठारह पर्व हैं, उसी तरह 'मोह के धागे' अट्ठारह कहानियों का एक नायाब गुलदस्ता है । जिसमें पात्र, शब्द-संयोजन तथा कथा-विन्यास इत्यादि सब कुछ अच्छा बन पड़ा है। कहानी संग्रह के नाम की ही पहली कहानी 'मोह के धागे' की शानी देर तक मानस पटल पर तैरती रहती है। कमोवेश शानी की तरह ही सभी स्त्रियों का सच एक जैसा लगता है । शानी से हमारा इस तरह तादात्म्य जुड़ जाता है कि वो हमारे बीच की लगती है । इसी तरह और कहानियों की पात्र तारा, देवी, ऊर्जा तथा अमिता इत्यादि भी बहुत आकर्षित करती हैं । संग्रह की सभी कहानियां एक से बढ़कर एक हैं। अपने आप में अनूठी और लाजवाब । जिन्हें बिना पढ़े, पूरा रसास्वादन नहीं किया जा सकता। पाठकों के बीच इतनी सुन्दर पुस्तक प्रस्तुत करने के लिए वीणा विज बधाई की पात्र हैं । उनको मेरी तरफ से ढेर सारी शुभकामनाएं। यह एक पठनीय और संग्रहणीय पुस्तक है।  मोगा, पंजाब, मो. 9876428718

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आप सबके साथ सांझा करते हुए हर्षित हूं... अमेरिका में हिंदी के जनक और खेवनहार डॉक्टर अरुण प्रकाश की प्रतिक्रिया | उन्होंने मेरे कहानी संग्रह "मोह के धागे" को अमेरिका की हिंदी की उच्च शिक्षा के लिए सिलेबस में शामिल कर लिया है ।

"कहानी अभिव्यक्ति की मृदुभाषा है, सहज- सरल और विकसित ! संस्कृत जिसकी माता है। हिंदी भाषा व इसमें रचित साहित्य, साहित्यकार, लेखक और कवियों से मुझे बनारस के समय से ही अपार प्रेम, मधुर संबंध एवं सत्कार बचपन से ही रहा है जो अमरीका के अपने लगभग पचास वर्षो के प्रवास में लगातार बढ़ता ही रहा है ।

संग्रह अभी हाल ही में हिंदी की जानी मानी कवियत्री व लेखिका सुश्री डॉ. वीणा विज 'उदित' जी का लघु कहानी संग्रह 'मोह के धागे' पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ । 'मोह के धागे' पढ़ते ही संपूर्ण पुस्तक पढ़ जाने का मोह जागृत हो बावजूद समयाभाव के कारण पुस्तक की सभी रचनाओं को पढ़ने की हर कहानी ने मुझको प्रभावित किया और पढ़ कर ऐसा लगा जैसे कि कथानक मेरे अपने जीवन अथवा पड़ोसियों मित्रों से जुड़ा है । भाषा शिल्प की बुनाई ऐसी जैसे सारे किरदार मेरे आसपास ही हों पंजाबी, भोजपुरी, खड़ी बोली, बाल भाषा हो अथवा बड़े-बूढ़े बोल रहे हों - सब कुछ स्वभाविक व समाज के हर पहलू के जीवन उदाहरण भयंकर बाढ़ से जूझते परिवार, पुनर्जीवन से संबंधित कथानक, प्रेम प्रसंगों के बनते बिगड़ते रिश्ते, उदाहरण, प्रवासी भारतीयों की उलझनें, भ्रूण हत्या अथवा पारिवारिक जीवन की अत्याधुनिक समस्याएं व उनके निवारण हेतु किए गए प्रयास जीया हो या अनुभव किया हो । 'मोह के धागे' से लेकर 'सलेटी बदलियाँ तक अठारह कहानियों के इस संग्रह ने मुझको इतना प्रभावित किया कि इस पुस्तक को मैंने हिंदी की उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की पाठन सूची में भी सम्मिलित किया है - कारण है कथानक की विविधता, विषय का निर्वाह और भाषा की सहजता, सरलता व स्वभाविकता 21वी सदी के छात्र अपने को कथानकों से जोड़ सकेंगे- मेरी बात में कितना सच है इसको जानने के लिए हिंदी प्रेमियों को 'मोह के धागे' कहानी संग्रह अवश्य पढ़ना चाहिए। - डॉ. अरुण प्रकाश, ह्यूस्टन, अमेरिका


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समीक्षा 


डॉ. वीणा विज ‘उदित’


मोह के धागे

शानी का मन आज किसी भी करवट चैन नहीं पा रहा था। अम्भुज एक हफ़्ते के लिए विदेश चले गए थे और राजू भी आज रात दोस्तों के पास रहने चला गया था। समस्या घिर आई कि घर में पसरे सन्नाटे को वो किस युक्ति से झेले? तो उसे याद आया कि वह कई बार सोचती थी कि कितने ही काम पड़े हैं करने को, कभी ख़ाली समय मिले तो निबटाए। यह ख्याल आते ही उसने टीवी का स्विच ऑफ़ किया तो लगा उसके नीचे की अलमारी जो काफ़ी सालों से बंद पड़ी थी, उसके भीतर से जैसे खटखटाने की आवाज़ उसे सुनाई दी। मानो इल्तिजा कर रही हो, "आज मुझे खुली हवा में साँस लेने का मौक़ा दे दो। शानी ने झट उसके पलड़े खोल दिए। भीतर ढेरों सर्टिफ़िकेट्स, स्कूल-कॉलेज के ज़माने के एलबम्स, सखी-सहेलियों के पत्रों के पुलिन्दे रिबन से बँधे धूल-धूसरित हुए रखे थे। इस धारणा से कि फ़ुर्सत पाते ही कभी -कभी इन मोह के धागों को अपने इर्द-गिर्द फिर से बाँध लिया करेगी। क्या मालूम था कि वक़्त, परिस्थितियाँ और प्रत्याशाएँ इन मोह के धागों का अस्तित्व ही नकार देंगी । सो बरसों से जीवन की आपाधापी में यह वक़्त कभी आया ही नहीं और आज इतने वर्षों पश्चात् उसका मन मचल उठा है कि अब इसे सँवार ही ले । जो लोग अविशिष्ट हो चुके हैं, जिनके सम्बन्धों के तार न जाने कहाँ गुम हो चुके हैं- उनके पत्र अन्तिम बार पढ़ कर उनके मोह के धागे जो कभी उसके मन को बाँधे रखते थे, उनसे सदा के लिए निवृत्ति पा ली जाए। वह देख रही थी कि कुछ के तो परिचय भी यादों की परतों तले दब चुके थे। चेहरे अजनबी और संदर्भ तक विस्मृत थे । स्मृति का धरातल ही मानो बदल चुका था ! तब का वक़्त गया सो गया। इस अब के जीवन ने उस वक़्त पर कोहरे का आवरण डाल दिया था। इतना घनत्व था कि कुछ धुंधला भी नहीं दिखाई पड़ रहा था। सो, सुरक्षित रखने जैसा उसमें कुछ बचा ही कहाँ था । उस विशिष्ट काल के सभी अपने प्रिय लोग वक़्त की पगडंडियों से गुज़र कर न जाने कहाँ-कहाँ समाए हुए थे अब !

ख़ैर, शानी ने सारी फ़ाइलें, एलबम्स और पेपरों के ढेर- कुछ बँधे हुए तो कुछ क्लिप में फँसे हुए - सब निकाल कर बाहर अपने पलंग की चादर पर रखे। कुछ रसीदें और नाटक की स्क्रिप्ट्स (जो, मैं स्टेज, रेडियो व टीवी पर करती थी) भी थीं। उन्हें सामने पा अनुभवों के आवेग कुछ पाने को अधीर हो उठे। कहीं कुछ उमड़ता-घुमड़ता अतीत के द्वार पर दस्तक देने लगा। कई कलाकार थे साथ में, न जाने सब कहाँ- कहाँ खो गए थे। सबके मध्य आत्मीयता थी, एक स्वच्छन्द अपनापन । असल में कलाकार सरसता के धरातल पर जीते हैं । इन्हीं भावनाओं में डूबती-उतराती उसके हाथ अपनी शादी से पूर्व की ज़िप वाली डायरी आ गई। सबसे पहले वो उसी को खोल कर बैठ गई। मानो कारू का ख़ज़ाना हाथ लग गया हो। उसमें कॉलेज के ज़माने में पुरस्कार पाती तस्वीरें, एक छोटी सी ऑटोग्राफ बुकलेट और कुछ पत्र सहेज कर रखे हुए थे। उन्हें उठाते ही एक पाँच बाई सात (5" x 7") की फोटो अप्रत्याशित नीचे गिरी, उसकी दुखती रग से उपजती! जिसे देखते ही उसके चेहरे पर अजीब सी चमक ने आधिपत्य जमा लिया। उसे ग़ौर से देख वह सोच के सागर में गोते लगाने लगी कि जब इसे सात पहरों में क़ैद किया था सबकी नज़रों से बचाकर ज़िप में, तब आहों का सर्द मौसम था ।

अपराध-बोध तो कभी था ही नहीं थी तो केवल भाग्य की चपल-चाल ! वैभव का होना या न होना जीवन के इस मोड़ पर कोई महत्व नहीं रखता, फिर भी उसने सबसे छिपा कर उसकी तस्वीर अभी तक क्यों सहेज कर रखी है? क्या उसे डर है कि अम्भुज इसे देख लेगा... तो क्या सोचेगा! क्या अभी भी अपने दाम्पत्य जीवन में दरार पड़ जाने का उसे अंदेशा है? यह भी तो हो सकता है। कि तब तक उसके मोह के धागों से अभी वो विच्छिन्न नहीं हो पाई थी। सो, कमज़ोर पड़ कर घर के इक कोने में जगह दे दी होगी! वह स्वयं ही इसे कभी देख नहीं पाई तो कोई और कैसे देखता? और आज जब दिख ही गई है तो कितना कुछ तालाब की तलहटी से उठ कर ऊपरी सतह पर दिखाई देने लग गया है । वह स्वयं से साक्षात्कार करने लगी....

अम्भुज के विदेश जाते ही उसने अपने अतीत को कुरेदने का क़दम उठाया ! क्या इसीलिए कि वह अपने वर्तमान को चिंदी - चिंदी होता नहीं देखना चाहती थी? मानो इस गोपनीयता को छूने और इसके सान्निध्य में बैठकर इसे दुलारने और मनुहारने के लिए उसे एकान्त की आवश्यकता थी! अब कुछ रातें उसकी अपनी हैं, उन पर कोई जवाबदेही नहीं है। वैभव के ख्याल का आना है कि रैन का बोझिलपन, क्या फ़र्क पड़ता है । उसके अन्त में उफनता आवेग सीमाएँ तय नहीं कर पाया तो वह निश्चिंतता से भावों के आवेग में बहेगी- उतरायेगी। किसी खलल का डर नहीं है, न ही विचारों के प्रवाह पर बांध बँधने का या उघड़ जाने का डर। यह प्रक्रिया है उन स्मृतियों से बाहर आने की जो क़ब्र में दफ़्न हो चुकी थीं और जिनका रिसना एक भावुकता मात्र था।

तस्वीर को उठाते ही शानी का हाथ काँप सा गया । मानो इसके उद्घाटन से उस पर लांछनों की बौछार होने लगेगी। जब कि अम्भुज स्वभाव से ही मस्त हैं। उसने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि वो क्या-क्या सहेजती है। पूर्णरूपेण विश्वास से भरा हुआ। फिर उसका हाथ क्यों काँपा? उसका अपना अन्तरतल ही कमतरी के भाव से क्षीण हो चला है । स्पष्ट है कि इस कार्य में औचित्य नहीं है, यह अनैतिक है । नहीं तो यदि ये इतना ही निरीह-निरापद होता तो अम्भुज के सम्मुख भी किया जा सकता था। वो बात अलग है कि अम्भुज बहुत डिमांडिंग है। घर में उसके रहते समय ही कहाँ होता है। कि वह कुछ स्वयं से बँधा भी खोलकर उसमें झाँक सके। यूँ भी कितना विशिष्ट है, यह ख्याल कि अपनी सत्ता को तो आगत की अन्तिम ऊँचाइयों तक तान के रखना है लेकिन पिछले पहर की धूप के छींटे भी दिखाई न दें। मानो कि उद्भव यही वर्तमान है। वैसे ही बैठी वह विचारों के उलझे धागे सुलझाने लगी — 

किसी एक के विच्छिन्न हो जाने से जीवन तो नहीं समाप्त हो जाता। वैभव से संबंध बना वो क्यों टूटा- यह कथानक तो उसके जीवन से जुड़ा है। मँझदार में डोलती नैया को साहिल पर लगाने तब उसका खेवनहार बन अम्भुज ही आगे आया था। अपने निश्छल प्रेम से उसने शानी को अपनी अंतरंगता के सूत्र में बाँध लिया था। जिस में किसी तरह के छल या असत्य का अस्तित्व नहीं रहता। तो फिर उसने वैभव की तस्वीर क्यों सहेज कर छिपाकर रखी है? आख़िर क्यों ? अपने ख्यालों के अंधड़ को वह आज रोक नहीं पा रही है। असमर्थता के आलम में वह उद्विग्न हो उठी । व्यतीत से एक दृश्य उसके समक्ष उभरा- 

उसका दुपट्टा गुलाब की झाड़ी में फँसने पर वैभव कह उठा था, "तुम कॉटों से ही उलझने चली हो, सँभल सको तो सँभलो। " 

उसके इश्क़ में दीवानी कहाँ भाँप सकी थी वो उसके इरादे, बल्कि उसके नैनों के मोहपाश में बँधी झट बोल पड़ी थी, "काँटों में उलझकर ही तो फूल पा सकूँगी ना।

प्रेम का तन्तुजाल बेहद नाजुक और कोमल होता है। विश्वासघात का एक ही झोंका उसे छिन्न-भिन्न कर देता है । वह दो नावों पर सवार होकर दरिया पर चलना चाहता था झूठ, छल और फ़रेब से लिप्त आश्वासन देकर और वह सत्य, निष्ठा और सादगी से उसे रुमानी उपन्यास की पंक्ति जैसा उत्तर दे आह्लादित हो बिन समझे काँटों की उलझन को स्वीकार कर बैठी थी। कहाँ मिला उसे उन कॉटों के मध्य खिला हुआ गुलाब ? हाँ, अलबत्ता अति कष्टदायी थी काँटों की खरोंचें; जिनसे लहू-लुहान होने पर अम्भुज ने उसके ज़ख़्मों को अपने प्यार के उजास से सींचा और ता उम्र के लिए अपने बाहुपाश में गुलाब की कलियों जैसे सहेजकर प्यार की भीनी-भीनी सुगन्ध से सराबोर कर दिया था।

अलमारी से निकला सारा सामान उसके सम्मुख पलंग पर बिखरा पड़ा था और वह मध्य में बैठी थी तस्वीर लेकर। अचानक उसने तस्वीर को बीच से दो टुकड़ों में फाड़ दिया।

एक टुकड़ा उसने अपने दाईं ओर तो 'दूसरा बाईं ओर रख लिया। फटे टुकड़ों में एक-एक आँख भी बॅट गई थी, जो उसे दोनों ओर से अपने घेरे में बाँध रही थीं- और वह शांत, निर्विकार सी अपनी प्रतिशोधात्मक प्रक्रिया से अन्तरतर में उग आए काँटों की चुभन को महसूस कर पा रही थी । इस हरक़त ने उसके होठों पर विजयी मुस्कान ला दी । वह वहीं तकिए पर सिर टिकाकर मुँदी आँखों से अतीत के जंग लगे बंद किवाड़ों को धकेलती भीतर घुसे जा रही थी । कितने ही सोपानों को लाँघता, भटकता एक रुआँसा तत्कालीन विशिष्ट उभरने लगा था । जो हृदय के अतल गह्वर में अपनी सत्ता जमाए अभी भी था । अतीत का ऐतिह्य उद्विगनता का संचार कर पाता कि इससे पूर्व आँधियों का दौर चल पड़ा, जो सभी मूर्त-अमूर्त भावनाओं को संग ले उड़ चला इक अनजाने सफ़र पर - जहाँ चेतना की दीवारें किरकिरा उठीं - अपूर्ण ! संवेदनाएँ आहत हो उठीं ।

अपने पार्थिव शरीर को वहीं छोड़ वायु वेग सी अविरल धार बन बहती हुई बरसों से लम्बे अंतराल पश्चात वह एक तिलस्मी यात्रा पर अग्रसर थी । जहाँ नवीन आवृत्त बने थे- जिन्हें उसकी सोच ने बिसरा दिया समझा था । लेकिन यह क्या- यहाँ पार्श्व में दर्द भरा संगीत सुनाई दे रहा था। उसने वैभव को आवाज़ दी । क्षीण स्वर की गूँज वहाँ व्याप्त रुदन में गुम हो गई । उन हवाओं में चीखें थीं। सम्मुख काल का प्रतिरूप वैभव सफ़ेद चादर में लिपटा धरती पर निश्चल पड़ा था । यह देख वह आर्त्तनाद कर उठी थी । सदियों की छाती में चुभती पीड़ाओं का एहसास लिए वह चेतना में लौटी । उठ कर उसने देखा कि उसका तकिया आँसुओं से भीगा हुआ था । मानो आज उसने वैभव को अन्तिम विदाई दी हो । उस अध्याय की समाप्ति की हो । रात का अन्तिम पहर था और उसका कमरा बिजली की रोशनी से भरा था। यादों के घेरे से बाहर निकल उसने वैभव की तस्वीर के दोनों टुकड़े दोनों ओर से उठाए। पहले उन आँखों में काले मार्कर से काला रंग भरा फिर उनको चिंदी - चिंदी कर डाला । शायद उन नज़रों को सदा के लिए दफ़्न करने के लिए- जिन्होंने उसे कभी प्यार से भरमाया था, फिर जी भरकर रुलाया था । अपनी छाती की जलती हुई आग की परछाईं उसे कभी नहीं दिखी थी, पर आज उसकी बुझती राख पर वो संतुष्ट थी ।

यथार्थ के धरातल पर लौटती वह अपने भीतर घटे हादसे पर चकित हो उठी। अपने विपन्न, अविच्छन्न होते मन को तसल्ली दे- वैभव के व्यक्त अनुष्ठान से अब वह सदा के लिए बाहर आ गई थी। और उसके अन्तर्लिप्त मोह के धागों ने अपना स्वरूप बदल लिया था। साभारः साहित्य कुंज, अंक, 148 जनवरी 2020 

‘‘मोह के धागे’’ पर चर्चा-परिचर्चा


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समीक्षा 

श्री उपेन्द्र यादव


मोह के धागे

आदरणीया वीणा विज 'उदित' का कहानी संग्रह 'मोह के धागे' प्राप्त हुआ । वीणा विज 'उदित' हमारे समय की अप्रतिम लेखिका हैं। वीणा विज कहानी, कविता और आत्मकथा इत्यादि में समान रूप से लेखन करती हैं। इनकी रचनाएं जड़ों से जुड़ी हुई और युगीन सन्दर्भों को समेटे हुए होती हैं। इनके 'भूले-बिसरे' एवं 'छुट-पुट अफसाने' संस्मरणात्मक शब्दचित्र बहुत देर तक सोचने को मजबूर करते हैं कि आखिर एक अकेले इन्सान का जीवन इतना रोमांचक, नाटकीय और फिल्मी कैसे हो सकता है? पर यही सच है। इनका पूरा जीवन सूक्ष्म से वृहत्तम चीजों का खुद में समावेशन है। कटनी से लेकर कश्मीर तक और जालंधर से लेकर अमेरिका तक चहुंदिशी- चहुंओर इनकी पदधूलि पड़ती है। जो इनके ज्ञान एवं विद्वत्ता को और तराशने का काम करती है ।

 

ये सर्वव्याप्ति ही इन्हें बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न बनाती है । सच में निर्विवाद रूप से वर्तमान समय की ये साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर हैं। जिस तरह अट्ठारह पुराण हैं, जिस तरह महाभारत में अट्ठारह पर्व हैं, उसी तरह 'मोह के धागे' अट्ठारह कहानियों का एक नायाब गुलदस्ता है। जिसमें पात्र, शब्द-संयोजन तथा कथा - विन्यास इत्यादि सब कुछ अच्छा बन पड़ा है। कहानी संग्रह के नाम की ही पहली कहानी मोह के धागे' की शानी देर तक मानस पटल पर तैरती रहती है। कमोवेश शानी की तरह ही सभी स्त्रियों का सत्र एक जैसा लगता है। शानी से हमारा इस तरह तादात्म्य जुड़ जाता है कि वो हमारे बीच की लगती है। इसी तरह और कहानियों की पात्र तारा, देवी, ऊर्जा तथा अमिता इत्यादि भी बहुत आकर्षित करती हैं। संग्रह की सभी कहानियां एक से बढ़कर एक हैं। अपने आप में अनूठी और लाजवाब । जिन्हें बिना पढ़े, पूरा रसास्वादन नहीं किया जा सकता। पाठकों के बीच इतनी सुन्दर पुस्तक प्रस्तुत करने के लिए वीणा विज बधाई की पात्र हैं । उनको मेरी तरफ से ढेर सारी शुभकामनाएं। यह एक पठनीय और संग्रहणीय पुस्तक है। सभी साहित्य प्रेमियों के सेफ में ये पुस्तक जरूर होनी चाहिए। इसी आशा में 

 

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समीक्षा 


सुश्री प्रोमिला अरोड़ा

"दिल से" गहन गंभीर कविता का प्रस्फुटन

यह ज्ञात तथ्य है कि कविता भावों के आवेग से स्वतः स्फूर्त प्रस्फुटन है जो नदिया के प्रवाह की भांति बहता हुआ सागर की गहराई में समा जाता है । इस तथ्य को पूर्णतया प्रमाणित करता है डा वीणा विज का यह काव्य संग्रह "दिल से "जिसमें भावो का आवेग भी है ,नदी का प्रवाह भी है , नदी के किनारे के प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा से सुवासित हो अध्यात्म के समुद्र की गहराई में समा जाती है ।इस काव्य का महत्त्व इस लिए भी बढ़ जाता है कि हिन्दी के साथ साथ इसका अंग्रेजी में भी अनुवाद किया हुआ है जो प्रो सीमा जैन ने किया है जो हिन्दी और अंग्रेजी भाषा की प्रतिष्ठित कवियित्री हैं और कन्या महाविद्यालय के अंग्रेजी के स्नातकोत्तर विभाग की अध्यक्ष पद से सेवानिवृत हुई हैं। ऐसे काव्य संग्रह बहुत कम मिलते हैं जिनके एक पन्ने पर हिन्दी की कविता और दूसरे पर अंग्रेजी में अनुवाद हो।इस लिए यह काव्य संग्रह और भी आकर्षक हो जाता है।

जहां तक डा. वीणा विज का प्रश्न है वे अपने बहुविधावी साहित्य सृजन से साहित्यिक गलियारों में अपनी छाप छोड़ चुकी हैं और बहु आयामी व्यक्तित्व की स्वामिनी है।लेखन के अतिरिक्त चित्रकारी, नृत्य और संगीत और अदाकारी जैसी ललित कलाएं उनके व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती हैं । दूरदर्शन पर अदाकारी से वे बाखूबी अपनी पहचान बना चुकी हैं । लेखन में जितनी सुंदर कविता लिखती हैं उतनी खूबसूरती से कहानियां और संस्मरण रचती हैं।सीमा जैन भी प्रबुद्ध द्विभाषी लेखिका और अनुवादक हैं और दोनों के संयुक्त प्रयास से मूल और अनुवाद पठनीय है ।

" दिल से" काव्य संग्रह में दिल से प्रस्फुटित प्राकृतिक सौंदर्य में प्रेम भावना और उस से जनित विरह वेदना, जीवन के उतार चढ़ाव,कुंठाएं, आशा निराशा,उद्वेग और उस पर ठंडी बयार से प्रेम की बौछार, नारी अस्मिता से संबंधित प्रश्न, कश्मीर घाटी और विश्व में अमानवीय व्यवहार से क्षोभ,विश्व शांति के लिए सद्भाव ,निराशा से जीवन को उभारने वाली प्रेरणा, प्रकृति और मानव मन का सामंजस्य और सामाजिक परिदृश्यों में से सकून तलाशती कविता मौन हो कर अंतर्मन में से सलिला की भांति प्रवाहित हो आत्म चिंतन के गहन गंभीर समुद्र में समा जाती है ।

वीणा जी की कविता में भाव प्रवाह और लयबद्धता है।इसकी भाषा मूलतः हिन्दी है परंतु कही कही पंजाबी और उर्दू भाषा का भी प्रयोग है क्योंकि अक्सर उर्दू को कविता में मिठास लाने के लिए प्रयोग किया जाता है । "तुमसे जुदा है ही नहीं " एकात्मकता पर बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति है ।

काव्य संग्रह की एक एक कविता अपने आप में पूर्ण विषय संजोए है और मानव मन को सराबोर करती हैं और कुछ कविताएं तो अंतर्मन में पैठ जाती हैं। भीतरी बारिश, अंतस्सलिला,हर पल अंतिम पल, मैं और मेरा मौन कुछ ऐसी कविताएं हैं जो आत्मबोध की ओर प्रवाहित होती हुई आध्यात्मिकता का आभास देती हैं। जैसे अंतस्सलिला में बचपन से लेकर ख्वाहिशों का वर्णन करते हुए वे अंतर्मुखी हो जाती हैं:

लेकिन

मुक गए ख्वाहिशों के ढेर

बेहतर है

अंतस्सलिला का रुख मोड़ लूं।

मैं और मेरा मौन एक ऐसी कविता है जो मन को छूकर निकलती है और मन मौन होकर सृजन के क्षणों में खो जाता है क्योंकि मौन क्षणों में ही तो सृजनात्मकता पनपती है। कितने सुंदर शब्दों में अभिव्यक्त किया है :

" रिक्त हो गए शब्द जिव्हा तट से अविरल

मौन अभिव्यंजना से होता है उद्वेगों का सृजन

भावों का उफान समय के पृष्ठ रंगता

शब्दों का जमघट कविता का रूप धरता।"

कश्मीर की वादी से तो वीणा जी का गहरा रिश्ता है क्योंकि वे गर्मियां अक्सर उस खूबसूरत स्वर्गनुमा घाटी में अपने घर में बिताती हैं। जब उस घाटी में डल झील की शांत लहरों में से उत्पन्न आतंक का आर्तनाद गूंज उठता है तो एक कोमल कवयित्री उद्वेलित हुए बिना कैसे रह सकती है और कह उठती है :

आर्तनाद कर उठी काश्मीर की घाटी

क्षीण स्वर में बिलख रही वादी।

इसी तरह विदेश में रोजी रोटी की तलाश में बसे बच्चे और उनकी न लौट आ पाने की बेबसी मां बाप की निराशा की हूक बन निकलती है तो उसकी गूंज कवयित्री के मन में मार्मिक शब्द बन कह उठती है :

मेरी आवाज की गूंज तब

अंतरिक्ष से आकर तुझसे टकराएगी

तू तड़प कर देगा आवाज मुझे

तेरी गूंज पलट कर तुझे रुलाएगी ।

डा वीणा विज अपनी कविता में हृदय के कैनवस पर शब्दों से सुन्दर चित्र खीचती है क्योंकि वे कहती हैं:

आखिर सामने तो लानी हैं

दिल में अंकुरित चाहतों की

सजी संवरी गुलाबी लालियां।

वे भोर के तारे को बालमन से जोड़ कर उस से तूलिका से गगन में अरुणिम भोर के रंग रंगवाती हैं।प्रेमाभिव्यक्ति को वे प्रकृति के संग जोड़ कर एकात्मकता से आध्यात्मिक रंग में रंग देती हैं। दूसरी ओर विरह वेदना में जीवन का परित्याग करने की भी बात कह देती हैं:

सहृदय बढ़ कर प्रेम से लगाया जिसको गले

नहीं चाहते लगाना व्यथित को वो गले

तिल तिल घुलना अथाह पीड़ा सहना

कौन जीता जो आसां होता मौत से मिलना।

दिल से लिखी कविता में वैर- विरोध , अहं, अशांति, युद्ध की विभीषिका, सामाजिक कुरीतियों के प्रति आक्रोश भी है। वे कहती हैं:

रण विभीषिका जिन जिन पर है गहराई

क्यों न शान्ति दूत बन हम करें अगुवाई।

क्योंकि वे मानती हैं:

' तुम्हारे पंखों में समाहित है ऊर्जा

वक्त कहता है पहचानो स्वयं को

चलो भरो हौसले की उड़ान

अपने हिस्से का आकाश थाम लो।'

इसके साथ वे साधारण मानव की तरह बीते हुए कल की यादों को भी सहेज कर स्मृति दंश से पीड़ित होती हैं :

यादों का जनाज़ा लिए

जीवन में पड़ गई हैं

सिलवटें बेढंगी

जो नहीं था अब है

गहन अवसाद भरा

स्मृति दंश।

इस बहुत आयामी काव्य संग्रह की एक उपलब्धि प्रो सीमा जैन का अंग्रेजी में अनुवाद है जिससे काव्य संग्रह दोनों भाषाओं के पाठकों के लिए महत्वपूर्ण है। भावों का एक भाषा से दूसरी में अनुवाद करना टेड़ी खीर है जिसे सीमा जी ने निभाया है । अतः इस काव्य संग्रह लिए दोनों ही बधाई की पात्र हैं। इन दोनों लेखिकाओं को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं कि इसी तरह साहित्य को समृद्ध करती रहें।

(सेवानिवृत्त प्रिंसीपल, लेखक, अनुवादक और समाज सेविका ) कपूरथला । 98149-58386

EMail : promilasparora@gmail.com


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व्यक्ति चित्र


डॉ. प्रणव भारती

जीओ तो ऐसे जीओ

एक मधुर झंकार है जिंदगी, न मानो तो कुछ भी नहीं वरना अनवरत प्यार है ज़िंदगी ।

समय की देहरी पर सिर टिकाए ठिठके चेहरे कभी उल्लास जगा देते हैं तो कभी एहसास जगा देते हैं। कभी आँखें न जाने क्यों हो जाती हैं नम, यूँ तो कोई नहीं है गम ! एक संवेदन से भरा रहता है मन और चीर-फाड़ करता रहता है बीते समय की, वर्तमान की और भविष्य की ओर आँखें उठाए स्वाति नक्षत्र की ओर उस बूँद को तलाशता रहता है जो शायद भाग्य से उसके मुख में टपक पड़े और वह उम्र भर संतुष्ट हो अपने ही राग में निमग्न हो सके ।

यू तो मनुष्य को आसानी से संतुष्टि नहीं मिलती क्योंकि वह असंतुष्ट रहने का आदी है। एक बात और है, वह अधिक महत्वपूर्ण है कि मनुष्य के अपने कर्मों से प्रारब्ध तैयार होता है। हम वाकिफ़ नहीं हैं इस संसार के रचयिता से लेकिन कोई तो ऐसी शक्ति है जो हमें जन्म देने के बाद जीवन-दान देती है । अचानक खिलता हुआ गुलाब किसी को सुरभित कर जाता है तो किसी को चुभन दे जाता है। यह अवश्य ही अपना- अपना भाग्य है जो कर्मों के बिना पर रच दिया गया है।

मुझे सदा से यही लगता रहा है कि किसी भी लेखक के लिए वही विधा उत्तम है जो उसे 'सूट' करती है, जो उसके अपने भावों से जन्म लेती है, जो उसके अनुभवों की गठरी बना देती है और समय-समय पर उसे उद्वेलित करती है साझा करने के लिए ! उसकी आपनी आत्मा की दरकती छाती को फाड़कर निकलती है, बाध्य करती है उसे पृष्ठों पर उकेरने के लिए ।  

श्रीमती वीणा विज के अनुभवों की गठरी भरी है उनके अपने अहसासों, संवेदनाओं के उन लम्हों से जो उन्हें ताउम्र छूकर महसूस करवाते रहे हैं कि वे उनके साथ हैं। उन्होंने स्वयं को किन्हीं वादों, विधाओं, विधियों में बाँधकर उनका पुलिंदा नहीं बनाया है बल्कि जीवन ने उन्हें जो कुछ भी खूबसूरत दिया है उसे संभालकर वे एक-एक तह खोलती रही हैं जिनमें से सुगंध बिखरती रही है और उन्होंने उसमें सबको समाहित किया है।

वीणा जी को जानने, समझने वाले सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि उनके जीवन में इत्तफ़ाकों का कुछ अधिक ही संवेग रहा है जो सबके जीवन में होता है लेकिन उनके जीवन में वास्तव में अनूठा है। कहाँ का जन्म, कहाँ का बालपन, कहाँ की किशोरावस्था कहाँ की युवावस्था, कहाँ का वर्तमान ! और उसमें ऐसे क्षणों का मिलना जो बालपन व किशोरावस्था को सुरभित कर जाएँ ! यह प्रारब्ध का ही आशीष रहा है।

नृत्य, संगीत, स्टेज, फिल्म- लेखन सभी कलाओं यहाँ तक कि NCC में शिरकत करने वाली वीणा विज का जीवन एक स्वप्न का सा विस्तार लगता है। ये सपने शायद उन्होंने कभी देखे नहीं थे किन्तु समय तो अपने अनुसार सबको कर्मों के फलस्वरुप सदा देता ही आया है। इनको जो दिया, इन्होंने उससे आनंद लिया और इतना ही नहीं, अपने लेखन के माध्यम से बहुत सी ऐसी बातों का रसास्वादन करवाया जिनके बारे में आम आदमी कि पहुँच नहीं थी।

वीणा जी की आकर्षक लेखनी ने कभी पहाड़ों की सैर करवाई, कभी जंगलों की कभी पठारों की कभी फ़िल्मों के उन किरदारों से भी मिलवाया जिनसे आम आदमी आकर्षित तो रहता है किन्तु उनका दीदार उसके लिए सपना होता है ! जिंदगी का ग्राफ़ तो प्रत्येक मनुष्य के जीवन में ऊपर-नीचे होता है किन्तु प्रत्येक परिस्थिति में जो आनंदित रह सके, उस पॉवर के प्रतिनतमस्तक रह सके सच में रंग-बिरंगे फूलों से भरा जीवन बहुत कुछ कहता है, उस मनुष्य की सच्चाई के बारे में जिसने अपने जीवन को हर पल धन्यवाद ही दिया, चाहे परिस्थितियाँ कुछ भी, क्यों न रही हों। और यही जीने का सही तरीका है।

मनुष्य शिकवे-शिकायतें करते हुए नहीं थकता और यहाँ शिकायतों का कोई चिन्ह ही नहीं !

कहा जाता है कि सकारात्मक सोच जीवन में सकारात्मकता ही लाती है, वही वीणा के साथ हुआ । यदि आप 'छुट-पुट' अफ़साने पढ़ेंगे तो बहुत से अनोखे आकर्षक रेखा- चित्रों से आप बबस्ता होंगे। बहुत से मनोरंजक व जीवन के उठते-गिरते ग्राफ़ों के साथ इस बात का भी एहसास होगा कि किन कठिन परिस्थितियों में से निकलकर वे एक 'छींक के सहारे' बिस्तर में से उठकर खड़ी हो गईं। ये सब बातें उनके लेखन में से निकलकर उस परमपिता के प्रति समर्पण का भाव और भी सुदृढ़ कराती हैं और जीवन को एक दूसरे नज़रिए से देखने का अवसर देती हैं।

अनेकानेक परेशानियों के बीच भी जहाँ खिलखिलाहटों का विस्तार हो, उसे क्या कहा जा सकता है ? श्रीमती वीणा वीज का शब्दों का एक अनुपम संसार है जो प्रत्येक रचनाकार का अलग होता है । वास्तव में वास्तविक रचनाकार किसी वाद के या बदलाव के गिरोह में नहीं फँसता । बस, वह अपनी बात सब तक पहुँचना चाहता है और उसकी बात पाठक तक पहुँचना, पाठक के मन को छू लेना ही है उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि !

मैं बहुमुखी प्रतिभा की धनी श्रीमती वीणा वीज को बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ, वे सदा कर्मठ रहें और अपने लेखन से सदा साहित्य जगत को नए आयाम देती रहें !! 

अनेकानेक शुभकामनाओं सहित

डॉ. प्रणव भारती, साहित्यकार, अहमदाबाद, गुजरात, मो. 99405 16484


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संस्मरण


डॉ. वीणा विज ‘उदित’


कदमों की थाप

जीने पर चढ़ते भारी भरकम जूतों के कदमों की थाप सुनते ही कढ़ाई में चलती मेरे हाथ की कड़छुली वहीं रुक गई। मैं अपने ध्यान में काम में मस्त थी, किन्तु अब आगुन्तक को देखने को आँखें दरवाज़े की ओर लग गईं। जूतों की थाप बता रही थी कि कोई बहुत थका है या सोच में डूबा है, जिससे उसके कदम उठ नहीं पा रहे या फिर वो किसी ऊहापोह में डूबा है कि ऊपर जाऊँ कि नहीं। पहाड़ों के घर मिट्टी व लकड़ी के बने होते हैं। लकड़ी के ज़ीने हर तरह के कदमों की थाप का राज़ खोल देते हैं । आगुन्तक के मन व सोच का आईना बन जाती है यह थाप । जहाँ बच्चों की भगदड़ एहसास दिलाती है कि वे अन्जाम से बेपरवाह बस जल्दी ही मंज़िल पाना चाहते हैं, वहीं ठहरे ठहरे कदम, ध्यान से सीढ़ी चढ़ते व उतरते बुज़ुर्ग सँभल कर कदम रखते हैं कि कहीं टेली मेढ़ी सीढ़ियों पर पाँव न जमा.. तो गए नीचे । लेकिन कदमों की थाप भारी पकड़ वाली होती है। ऊपर आते हुए इन कदमों की थाप सबसे हट कर थी। कोई अन्जाना व्यक्ति हिचकता हुआ ऊपर आ रहा है, इतना तो आनेवाले की वायब्रेशन्स जो मुझ तक पहुँच पा रहीं थीं, वे बता रहीं थीं। कि, तभी गोद में एक सूखे से बच्चे को उठाए, दूसरे कंधे पर मैला-कुचैला झोला लटकाए एवम् हाथ में डोरी से बँधी एक हाँडी लटकाए हुए एक गूजर औरत मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। उसे देखते ही मैं समझ गई कि इसके दोनों हाथों का वज़न ही इसके वज़नी कदमों का कारण बन रहे थे।

स्वर को मृदुल बनाकर बडे ही मनुहार बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी आँखों में देखती एकदम से बोली, "बिब्बी!" और मेरी ओर मुस्कुराते हुए प्रत्युत्तर की आशा में देखने लगी । वह आवाज़, वह मुस्कुराहट मेरे भीतर दूर-दूर तक जाकर उसे इस हाल में भी पहचान गई हठात मेरे मुँह से निकला, "रेशमा, हो न !"

"सियांणया नहीं मैनूं?" (मुझे पहचाना नहीं क्या?) उसके चेहरे पर हक़ीक़त की रेखा खिंच गई लगी। उसने भाँप लिया था कि उसकी माली हालत के फलस्वरूप उसमें जो ज़मीन-आसमान का बदलाव आ गया था, वो बिब्बी को पता चल गया है। क्षण भर में उस मुस्कुराहट की जगह बेचारगी छलकने लगी थी। उसके स्वर की आद्रता ने मुझे बुरी तरह मथ दिया। मैंने चेहरे पर स्वागत भरे भाव लाते हुए उसे दिलासा देते हुए कहा कि वह कुड़ी (लड़की) से जनानी (औरत ) बन गई है इसीसे पहली नज़र में पहचान नहीं पाई।

कहाँ वो शर्मीली, यौवन से भरपूर, गुलाबी गालोंवाली कुछ वर्षों पहले की कश्मीरन! जो सिर पर चुनरी इस तरह करती कि चुनरी का एक हिस्सा दाहिनी ओर से दाँतों तले दबा लेती व होंठों से मंद-मंद मुस्कुराती रहती थी। सिर पर दूध की मटकी रखकर यूँ सीधी तनकर चलती कि हर देखनेवाला 'हाय, क्या बात है' कह उठता था। वह भी सब समझती थी, तभी इतराती थी और कहाँ यह निचुडे नींबू सी पीली, हड्डियों का ढाँचा बन गई रेशमा !! उसकी मोटी मोटी आँखें चंचल हिरनी सी हमेशा मेरे बच्चों को ढूँढतीं, उनको प्यार जताने के लिए वह उनका नाम लेती, झूठ-मूठ साथ चलने का आग्रह करती फिर ही वो मटकी खाली करवाकर वापिस जाती । उसका बाप कालिया गूजर हमें दूध-घी की किल्लत नहीं होने देता था। जबकि कश्मीर घाटी में पाऊडर के दूध का चलन है । वादी में पहाड़ों के दामन में बसे पहलगाम में सैलानियों के आने के कारण अच्छा खासा बाज़ार भी है। रेशमा कभी-कभी दूध का बर्तन वहीं छोड़कर यह कहकर भाग जाती कि हाट करके वापसी में बर्तन ले जाएगी। लौटते हुए अपने आने का एहसास कराए बिना वो जाती नहीं थी । क्यूँकि मैं उसे बची-खुची साग-सब्जी, मिठाई, पुराने कपड़े इत्यादि दे देती थी । यह सिलसिला टूटा 1989 में, जब कश्मीर में उग्रवाद ने अपना आँचल फैलाया। इससे सब तितर-बितर हो गए। दोबारा 1996 में जब बर्फानी बाबा अमरनाथ के दर्शनों को श्रद्धालु उमड़ पड़े तो हम मौसमी लोग भी अपने छूटे हुए घोंसलों में पुनर्स्थापित होने का साहस जुटा पाए। इसी तरह कश्मीरी गुज्जर लोग भी जो न जाने किन जंगलों में इस दौरान खोए रहे, उन्होंने भी अपने पुराने ठिकानों का रुख किया। इसी कारण रेशमा भी आ गई। लेकिन उस रेशमा व इस रेशमा में कहीं कुछ मेल नहीं खा रहा था । इस बीच वो लगातार बहुत कुछ यानि अपनी आत्मबीती सुना रही थी । अपना काम खत्म कर मैं तसल्ली से उसके पास आकर बैठ गई, व उससे पूछा, “तेरा गबरू करता क्या है?”

बोली, “जंगलूँ लक्कड़ कट्के थल्ले होटल इच देसी । ढोर-डंगर वी हे, जमीं च मक्की वी होए हे। ऍ तेरे लई अपणी गाई दा घ्यो सारी स्याल बणाया हे । " (जंगल से लकड़ी काटकर, यहाँ नीचे एक होटल में देता है। मेरे पास ज़मीन व जानवर भी है । तेरे लिए अपनी गाय का घी सारी सर्दियाँ बनाती रही) यह कहकर उसने अपने हाथ में लाई मटकी मेरे सामने रख दी । जितनी देर वो बोल रही थी, उसका नवजात शिशु उसकी कमीज़ के गले से, जिसके ऊपर से लेकर नीचे तक सारे बटन खुले थे, उसके लटके सूखे स्तनों को बाहर निकालकर कभी दूध पी रहा था तो कभी उनसे खेल रहा था । रेशमा जैसे इस सब की आदी हो इसीसे इस सबसे बेख़बर बस अपना अफ़साना सुनाए जा रही थी मैं सोच रही थी कि दुपट्टे से अपना मुँह-सिर ढँक लेने वाली रेशमा आज अपनी खुली छाती से बेपरवाह बैठी थी । वह स्वयं तो कमज़ोर व पीली लग ही रही थी, उसका बेटा भी सूखे के रोग से पीड़ित लग रहा था । न जाने इन सूखी छातियों में उसके बच्चे को कुछ मिलता भी था या फिर केवल चूसने का संतोष ही था ।

“बिब्बी! ऍ कलाड़ी वी न्याणे खासी", यह कहते हुए उसने कलाड़ियाँ (पनीर की कच्ची रोटियाँ) जो पहाड़ों पर सौग़ात समझी जाती हैं, एक पोटली में से न्याणों (बच्चों) के खाने के लिए बाहर निकालीं । ग़ाय का ज़र्द पीला ख़ालिस घी एवम् पनीर की कलाड़ियाँ, देखकर मेरी तो बाँछें खिल गईं। मैंने पूछा कि कितने रुपये हुए। तो वह झिझकती हुई बोली, “डेढ़ सो ते देगी ना!" सुनते ही मुझे कुछ कचोट सा गया । मैं सोचने लगी कि किन मुश्किलों से उसने एक-एक दिन मेहनत व बचत करके अपने व अपने बच्चे के मुँह से दूध छीनकर यह घी बनाया होगा। सिर्फ़ इस आस में कि..... मात्र डेढ़ सौ रुपये नहीं नहीं यह तो ठीक नहीं । उसकी मासूमियत पर मेरी आँखें उसके प्रति स्नेह से भर उठीं । शीतकालीन सर्द हवाओं से बचाकर जो आस का दीपक उसने जलाए रखा था, उसके प्रकाश से मेरा अन्तर आलोकित हो उठा था । उस प्रकाश से निकलती आस व उम्मीदों की किरणें मुझ तक पहुँच पा रही थीं। रेशमा की मनःस्थिती मेरे सम्मुख स्पष्ट थी । उसकी प्रतीक्षातुर प्रत्याशा मैं महसूस कर रही थी ।

उसकी शादी का शगुन, उसके बेटे का शगुन और उसके द्वारा लाई गई चीज़ों के पैसे व कुछ और सामान भी उसे दे कर मैंने उसकी पीठ पर स्नेह से हाथ फेरा। लगा मैंने उस आस के दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया। वो आत्म-विश्वास से भरी मुस्कुराते हुए, कृतज्ञता के भाव ओढ़े जा रही थी । वही रबर के भारी- भरकम बूट अब जीने से फटाफट उतर रहे थे । लगता था.....इन कदमों की थाप में खुशी से भरकर उड़ने की उमंग थी। 







 

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