Abhinav Imroz December 2023












 वक़़्ते शहादत-साहबज़ादों की उम्र थी:

बाबा जोरावर सिंह जी (7 साल 11 महीने) 

बाबा फतेह सिंह जी (5 साल 10 महीने)

दोनों साहबज़ादों को बचपन से ही धर्म के प्रति आस्था, सौगंध और संस्कार परिवार एवं गुरु साहिवान की विरासत से ही मिले थे । उनकी दादी माता गुजरी जी उन्हें गुरु साहिवान के आदर्शों के बारे में बतातीं तो साहबज़ादे कहते ‘‘माता जी हम दशमेश पिता के पुत्र हैं हम अपने धर्म की लाज रखने में सक्षम हैं—

धन भाग्य हमारे है माई

धर्म हेत तन जे कर जाई

माता जी यह सुनकर बहुत खुश होतीं और दोनों साहबज़ादों को आशीर्वाद दिया करतीं । 

जब सिपाहियों ने साहबज़ादों को नवाब के सामने पेश करने को ले गए तब वहाँ का बड़ा दरवाज़ा बंद था, बस एक छोटा सा खिड़कीनुमा दरवाज़ा खुला था जहाँ से सिर झुकाकर अंदर जाना था । साहबज़ादों के संस्कारों में सिर झुकाना कहां लिखा था । उन्होंने सिर की बजाये पहले अपने पांव अंदर किए और सिर झुकाए बगैर अंदर चले
गए । 

      



नवाब वज़ीरख़ान की कचहरी लगी हुई थी, साहबज़ादों ने अंदर पहुँचते ही गरज के फतेह बुलाई - वाहे गुरु जी का ख़ालसा/वाहे गुरु जी की फतेह । उनके गुंजते जयकारे से कचहरी भी गूँज उठी । सारे दरबारियों की नज़रे बहादुर ते निडर साहबज़ादों पर टिक गईं । 

बज़ीरखान पुचकार कर कहने लगा‘- ‘‘ आप जी बहुत सुन्दर लग रहे हो । इस्लाम कौम को बहुत फक्र होगा अगर आप कलमा पढ़कर मोमन बन जाओ, आप को मुँहमांगी मुराद मिलेगी ।" दोनों साहबज़ादे ग़रज कर बोले- 

‘‘हमारा धर्म हमें प्यारा है ।" 

 संसारी वस्तुओं को हम तुच्छ समझते हैं’’ । 

यह सुनकर नवाब को गुस्सा तो आया फिर भी उसने और एक बार उन्हें लालच दिया कि आपको खूब धन, दौलत, ऊँचे रुतबे और शाही सुख प्रदान किए जाएँगे- अगर आप दीन कबूल कर लोगे । दोनों साहबज़ादों ने फिर जोश से कहा :

‘‘हम सच और धर्म के लिए अपना

हर जन्म कुरबान कर देंगे । । ’’

नवाब गुस्से में आ गया और उसने काज़ी से फतबा लाने के लिए कहा-

नवाब बज़ीर खान ने एक बार फिर समझाने की कोशिशर की और कहा- ‘‘आप अभी मासूम हो, आप की उम्र खाने पीने की है । हमारा कहा मान जाओ- आप को हम जागीरें देंगे- यहां भी मौज रहेगीं और अगले जहांन में भी आप को जन्नत नसीब होगी । ’’

बेखौफ होकर साहबज़ादा जोरावर सिंह जी बोले ‘‘हमारी जंग-जबर और बेइन्साफी के विरुध है । हम श्री गोविन्द सिंह जी के सपुत्र हैं । गुरु तेज बहादुर जी के पोते हैं । गुरु अर्जन देव जी के वंशज हैं । उनके उकारे हुए उपदेशों पर चलेंगे । हम अपने धर्म की रक्षा के लिए हर कुर्बानी देने के लिए तत्पर हैं । ’’

नवाब वजीर खान हैरानी में बोला ‘‘इतना फक्र धर्म के लिए’’ दीवान सुच्चा नंद जो कचहरी में मौजूद था, उठकर साहबज़ादों के पास गया और पूछने लगा ‘‘अगर हम आप को छोड़ दें तो आप कहां जाओगे’’ साहबज़ादे बाबा ज़ोराबर सिंह जी ने कहा ‘‘जंगलों में जाकर सिख इक्ट्ठे करेंगे, घोड़े लाएंगे ओर आप के साथ आकर मुकाबला
करेंगे । ’’

दीवान सुच्चा नंद ने उन्हें बताया कि ‘‘आपका पिता मारा गया है । ’’ दोनों साहबज़ादे गरज कर बोले- हमारे पिता को मारने वाला कौन है? वो आप समर्थ हैं । आप की नसीहत की जरूरत नहीं है । जब तक यह जालिम राज नष्ट नहीं हो जाता तब तक हम लड़ते रहेंगे । दीवान सुच्चा नंद को सिख धर्म की रीत वारे साहबज़ादों ने कहा- ‘‘

"हमरे वंश रीति ईम आई

सीस देती पर धर्म न जाई । ’’

दीवान सुच्चा नंद गुस्से में आकर नवाब बज़ीर खान के पास जाता है और कहता है- ‘‘नवाब साहिब सांप को मारना और सांप के बच्चों को पालना सयानापन नहीं है । यह बड़े होकर बगावत ही करेंगे । इनको सज़ा देवें । 

पूरा दरबार हैरानी से दोनों साहबज़ादों को देखकर कहने लगा ‘‘इनकी ज़िन्दगी और मौत का फैसला हो रहा है और यह दोनों बे-फिक्र हैं । 

नवाब ने कहा कि इनका गुस्ताख दृष्टिकोण के मद्देनजर यह भी अपने बाप की तरह बागी रहेंगे । 

काज़ी ने फतवा दिया कि यह बच्चे बगावत पर तुले हुए हैं इन्हें ज़िंदा दीवार में चिनवा दिया जाए । 

दरबार दंग था और साहबज़ादे निडर । दरबार की सारी भीड़ कह रही थी-

‘‘क्या जुल्म किया है इन नदान बच्चों ने’’

‘‘हनेर साईं का, कितना बड़ा जुल्म हो रहा है’’

‘‘बहना ! देख कितने बेख़ौफ हैं यह बालक’’

‘‘गुरु गोविन्द सिंह के चिरागे चश्म हैं’’

जब चिनाई हो रही थी तब साहबज़ादों ने कहा कि ‘‘जल्दी-जल्दी मुगल राज का खात्मा करो, पापों की दीवार और ऊँची करो-ढील क्यों कर रहे हो ?’’



जब दीवार छाती तक पहुँची तो नवाब और काज़ी ने एक बार फिर से साहबज़ादों को इस्लाम कबूल कर लेने के लिए राज़ी कर लेना चाहा और कहा-

‘‘अब भी मौका है, जान बख्शी जा सकती है- कलमा पढ़ लो तो दीवार गिरा दी जाएगी । ’’

साहबज़ादे गरज कर बोले-

‘‘हम अपना धर्म त्याग नहीं करेंगे

मरने से हम नहीं डरते । धर्म के लिए

हम करोड़ों बार जिंदगी दे सकते हैं । ’’

लोगों ने अश्रुभरी आंखों से कहा:

‘‘धन है जननी, जिन जाया

धन पिता प्रधान’’

आस-पास खड़े लोग कह रहे थे- 

‘‘ऐसा ज़ुल्म ! रब की कचहरी में यह

क्या जवाब देंगे यह नवाब और काज़ी’’

ईधर साहिबज़ादे शहीद हुए और उधर बुर्ज के अंदर समाधिरत माता गुजरी जी ने प्राण त्याग दिए । खबर देने के लिए गया सिपाही जब वहाँ पहुँचा तो देखा- माता जी तो संसार से कूच कर चुके हैं । सरहिन्द शहर में सनसनी फैल गई । घर-घर में इस जुल्म की चर्चा होने लगी । 


लोग कहने लगे:

‘‘कितना कहर है’’

‘‘दुनिया में ऐसा ज़ुल्म कभी नहीं हुआ’’

‘‘अपना राज मुगलों ने आप ही नष्ट कर लिया’’

जब यह खबर गुरु गोविन्द सिंह जी के पास पहुँची तो उन्होंने भी अपने तीर की नोक से काही के पौधे को जड़ से उखाड़कर कर कहा:

अब मुगल राज की जड़ें उखड़ गईं । 

‘‘कटवा के सिर चार इक आंसु न गिराया

रूह फूंक दी गोविन्द ने औलाद कटाकर’’




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अतिथि संपादकीय

डॉ. आशुतोष गुलेरी ‘निःशब्द’

दो शब्द

एक दिन का जीवन देना हो तो भूखे को रोटी भिक्षा में दी जा सकती है । लेकिन यदि आजीवन जिन्दा रहने की प्रेरणा देनी हो तो बालकों को शिक्षित करना होगा । वे लोग बिरले होते हैं जो अपना जीवन बालकीय शिक्षा की महत्ता को समर्पित कर देते हैं । जीवन की आपाधापी में हम भूल जाते हैं, शिक्षा का वास्तविक अर्थ केवल स्कूली शिक्षा नहीं । 

स्कूली शिक्षा हिसाब-किताब में माहिर बना सकती है, अक्षरों का जोड़-तोड़ सिखा सकती है, मगर जीवन जीने की कला नहीं सिखा सकती । जीवन जीने की कला अनुभव का खेल है । नैतिक मूल्यों की क्या आवश्यकता है, यह हमें जीवन की खट्टी-मीठी चुनौतियाँ सिखाती हैं । कतिपय लोग ही अनुभव की इस थाती पर बालकीय जीवन को प्रौढ़ अनुभव से सराबोर करने का साहस जुटा पाते हैं, बाल साहित्य सृजित करते हैं । 

बालसाहित्य सृजन कदाचित बेहद चुनौतीपूर्ण उद्योग है । साधारण गंभीर प्रौढ़ सुलभ रचना आसान कार्य है । मगर बालकीय मन तक पहुँच कर अपने प्रौढ़ अनुभव को बालपन की भाषा में गढ़ना, समुचित शब्द जुटाना, उन शब्दों के मोतियों का उनके प्रकार एवं आकार के अनुरूप वर्गीकरण करना तथा जीवन सूत्रों को करीने से पिरोना - ऐसी प्रतिभा को निश्चित ही बालसुलभ नहीं कहा जा सकता । 

अधिकतर रचनाकार आयु की दीर्घता के साथ बेहद गंभीर होते जाते हैं । उनके लेखन में वह गांभीर्य उठकर स्पष्ट दिखने लगता है । ऐसा लेखक मौलिक सृजनात्मकता से दूर एक कुम्हार की तरह घड़ासाज़ होकर रह जाता है जिसका परम लक्ष्य अपनी बौद्धिकता की पराकाष्ठा मनवाना शेष है । जबकि बालसुलभ लेखन की विशेषता यही है कि बालसाहित्य में रचनात्मकता के साथ-साथ सृजनात्मक बने रहने की चुनौती सदैव बनी रहती है । कदाचित यही कारण हो सकता है कि बहुत से लेखक बालसाहित्य विधा को लेखन का विषय नहीं चुनते । रचनात्मक होना आसान है, किन्तु सृजनात्मकता को बेहद कठिन अध्यवसाय माना जाए । 


सृजनात्मकता की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बीच एक ऐसा रचनाकार उठकर सामने आता है जिसने अपना समग्र जीवन बालसाहित्य को संकलित करने में व्यतीत कर दिया । इस रचनाकार का नाम है स्व. संतराम वत्स्य । आपका जन्म 12 मई 1923 में हिमाचल प्रदेश के जनपद कांगड़ा में पालमपुर के समीप स्थित गाँव धनीरी में हुआ था । पारिवारिक पृष्ठभूमि साधारण थी । जीवन का पहला पड़ाव ग्रामीण परिवेश में पड़ा, इसलिए यह कहना कि आपके व्यक्तित्व में सदाशयता, आत्मीयता एवं बालकीय सृजनात्मकता का बहुतांश बीज हिमाचली वातावरण की देन है, अतिशयोक्ति न होगा । 

बाल्यावस्था में आपके पिता का देहांत हो गया था । समग्र पालन-पोषण का भार माँ के कंधों पर रहा । माँ किस्से कहानियों के माध्यम से बेटे में जिन संस्कारों का बीजारोपण कर रही थी, वही किस्से कहानियां बेटे के जीवन का अभिन्न हिस्सा साबित हुईं । वत्स्य जी के सम्पूर्ण सृजन पर माँ के महती प्रयासों की छाप स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है । 

‘अमलतास के फूल’ निबंध संग्रह के एक निबंध में संस्कृति और सभ्यता के महीन अंतर पर वत्स्य जी लिखते हैं : ‘अंतःकरण चतुष्टय - मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार के परिष्कार को संस्कृति और शरीर की बाहरी साज-सज्जा को सभ्यता कह सकते हैं । ये दोनों एक-दूसरी की पूरक हैं । ’ बालकों को सुसंस्कृत बनाने में उन्होंने जीवन समर्पित कर दिया । 

संतराम जी द्वारा संकलित, संशोधित, परिमार्जित, संस्कारित एवं सम्पादित साहित्य यही बयान करता है । प्रस्तुत अंक में बालसाहित्य के सच्चे संत, संतराम वत्स्य की रचनात्मकता को उनकी वेबसाइट पर उद्धृत उनकी कृतियों को, निरपेक्ष भाव से यथारूप पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि बालमन को मौलिक एवं नैतिक विचारों से ऊर्जासम्पन्न करने का उद्योग रचने वाला संत अनभिज्ञता की परछाइयों में खोकर न रह
जाए । 

उनके साहित्य का पुनर्लेखन श्रमसाध्य कार्य था । इससे भी बड़ी चुनौती अतीत हो चुकी उनकी सृजनात्मकता को आधुनिक पीढ़ी के समक्ष लाने हेतु माध्यम उपलब्ध होने की थी । वत्स्य जी के परिवार ने एक वेबसाइट बनाकर उनके सम्पूर्ण लेखन को संजोए रखा है । मगर इस पुनीत कार्य में श्री देवेंद्र बहल जी का विशेष धन्यवाद इसलिए भी कि पत्रिका प्रकाशन की समस्त चुनौतियों के बाद भी उन्होंने वत्स्य जी पर अभिनव इमरोज़ का एक अंक समर्पित करने का साहस दिखाया । साथ ही, मुझे वत्स्य जी की कुछ रचनाओं का पुनर्लेखन करने का सौभाग्य दिया, इसके लिए भी बहल जी का हृदय की गहराइयों से आभार, धन्यवाद । 

आशा है यह प्रयास आपको पसंद पड़ेगा ।         

सत्कीर्ति-निकेतन, गुलेर, काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश - 176033

मो. 9418049070             

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स्वर्गीय संतराम वत्स्य की बाल कथाएँ

पूँछ कटा बन्दर

विजय नगर के बाहर एक बाग़ था । इस बाग़ में छोटे-बड़े कई पेड़-पौधे थे । फलवाले पेड़ भी थे । अमरुद के, आम के, बेर के, जामुन के, कई पेड़ थे । 

इस बाग में बन्दर बहुत थे । उन्हें खाने को फल मिल जाते । पीने को पानी मिल जाता । वे दिन भर उछल-कूद मचाते रहते । 

कोई आदमी इस बाग में आराम करने आ जाता तो वे उसके हाथ की चीज़ छीन लेते । छीन का भाग जाते और पेड़ पर चढ़ जाते । कोई इन्हें पत्थर मारने लगता तो सब इक्कठे हो जाते । खों-खों कर के डराने लगते । चारों ओर से घेर लेते । बेचारा किसी तरह जान बचाकर वहाँ से भागता । 

बंदरों के दल में एक छोटा बन्दर था । उसका नाम था खों-खों ! खों-खों बड़ा नटखट था । वह दिन भर ऊधम मचाता रहता था । फल वाले पेड़ पर चढ़ता तो एक फल खाता और चार फल गिराता । पक्षियों के घोंसलों को उठाकर फेंक देता । वह शरारत करने में सबसे आगे रहता । 

विजय नगर में एक सेठ था । वह इस बाग़ में एक मंदिर बनवाने लगा । कई कारीगर काम करने लगे । कोई छैनी से पत्थर गढ़ता । कोई नींव की चिनाई करता । कोई सामान ढोता । 

कारीगर दोपहर को खाना खाने के लिए छुट्टी करते । वे विजय नगर में खाना खाते । थोड़ी देर आराम भी करते । फिर काम शुरू कर देते । 

बढ़ई लकड़ी चीर रहे थे । एक बड़ा शहतीर आधा चिर चुका था । दोपहर का समय हो गया । उन्होंने आधे चिरे हुए शहतीर में एक कीला फँसा दिया । लकड़ी चीरने वालों को इससे काम करने में आसानी होती है । उनका आरा फंसकर अटकता नहीं है । सब कारीगर खाना खाने नगर की ओर चले गए । 

नटखट खों-खों पेड़ से कूदकर नीचे उतर आया । वह कारीगरों के औज़ारों को इधर-उधर बिखेरने लगा । वहाँ उसे खाने की कोई चीज़ नहीं मिली । 

अब वह अध-चिरे शहतीर पर जा चढ़ा । वह शहतीर में फँसाए कीले को पकड़कर बैठ गया । वह कीले को दोनों हाथों से पकड़कर हिलाने लगा । उसकी पूँछ चिरे हुए शहतीर के बीच आ गई । 

दो-चार बार ज़ोर से हिलाने पर कीला ढीला पड़ गया । बन्दर फिर भी उसे दोनों हाथ से पकड़ कर हिलाता रहा, हिलाता रहा । 

कीला ढीला होकर निकल गया । कीले के निकलने से शहतीर के चिरे हुए भाग आपस में मिल गए । इससे दरार के बीच लटकी हुई बन्दर की पूँछ दब गई । पूँछ दबने से बन्दर को बड़ा दर्द हुआ । 

वह चीखने लगा । सारे बन्दर उसके पास दौड़ आए । नटखट बन्दर पूँछ को खींचने के लिए जितना जोर लगाता, उतना ही ज्यादा दर्द होता । बार-बार खींचने से पूँछ कट गई । कटी जगह से खून बहने लगा । पूँछ का कटा हुआ भाग शहतीर की दरार में ही फंसा रहा । 

जब बढ़ई खाना खाकर लौटे तो वहाँ खून ही खून पड़ा था । 

जब वे शहतीर को चीरने लगे वहां कीला नहीं था । कीले के पास नटखट बन्दर की पूँछ फंसी हुई दिखाई दी । बढ़ई समझ गए कि क्या हुआ है । 

उनमें जो बड़ा बढ़ई था, वह बोला - जो लोग यों ही दूसरे के काम में, या दूसरे की बात में टांग अड़ाते हैं, उनका यही हाल होता है । 

(सन्दर्भ - बाल कथा सरोवर, खिलौनों का पेड़; भाग 3; संतराम वत्स्य;यूनाइटेड पब्लिशिंग हाउस, सेक्टर 3, शॉप नं 15, आर के पुरम, नई दिल्ली - 22; पृष्ठ - 5 से 8) 

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नकली शेर 

एक आलसी आदमी था । काम करने को उसका मन नहीं करता था । जब पढ़ने-लिखने की उमर थी, तब पढ़ा-लिखा नहीं । घर से पाठशाला जाता तो रास्ते में खेलने लगता । वह अनपढ़-गंवार ही रहा । 

अनपढ़ को अच्छी नौकरी कैसे मिलती । मज़दूरी का काम वह करना नहीं चाहता था । भूखों मरने लगा तो भीख माँगने निकला । पर उसे कोई भीख नहीं देता था । सभी कहते, तुम नौजवान हो, भीख क्यों माँगते हो? कोई काम करो !

उसने भीख माँगने का एक नया तरीका निकाला । वह कहीं से शेर की खाल ले आया । खाल को ओढ़ कर और लम्बी पूँछ लगाकर वह गली-गली घूमने लगा । उसने ढोल वाले को साथ मिला लिया । ढोल वाला ढोल बजाता । लोग घरों से बाहर निकल कर देखने लगते । शेर बना हुआ आदमी उनसे पैसे माँगता । 

छोटे बच्चों का झुण्ड इस नकली शेर के पीछे-पीछे चल पड़ता । यह नकली शेर अपनी लम्बी पूँछ को घुमाता, नाचता-कूदता गली-गली घूमता रहता । इस तरह उसे खूब भीख मिलने लगी । 

एक दिन वह एक बड़े बंगले में जा घुसा । ढोल पीटने वाला भी साथ था । छोटे बच्चों का झुण्ड भी शोर मचाता साथ चल रहा था । 

सबसे आगे तो यह नकली शेर ही था । इतने में एक मजेदार घटना घटी । बंगले में झबरे बालों वाला एक बड़ा कटखना कुत्ता था । ढोल-ढमाके और शोर से वह जाग गया । जब उसने शेर की खाल वाले इस आदमी को देखा तो जोर से भौंकने लगा । और उस पर जा झपटा । 

अब नकली शेर आगे और कुत्ता पीछे । घबराहट में नकली शेर की खाल गिर पड़ी । पर वह आदमी रुका नहीं । आगे काँटों वाली तार लगी हुई थी । उसमें जा फंसा । उसका सारा शरीर छिल गया । खून बहने लगा । 

उधर कुत्ता शेर की खाल को सूंघने लगा था । वह उसे फाड़ने लगा । 

ढोल बजाने वाला पहले ही भाग कर बंगले से बाहर निकल गया था । बच्चों की भीड़ बंगले से बाहर खड़ी तालियाँ पीट-पीट कर हंस रही थी । 

नकली शेर हाँफता हुआ किसी तरह बंगले से बाहर पहुंचा । उसे देखकर बच्चे उसकी हँसी उड़ाने लगे । वे शोर मचाने लगे - “देखो लोगो, शेर कुत्ते से हार गया । ” 

नकली, नकली ही होता है और असली, असली ही । 

‘नकली’ भले बड़ा बन जाए । 

‘असली’ छोटे से घबराए । । 

(सन्दर्भ - बाल कथा सरोवर, खिलौनों का पेड़; भाग 3; संतराम वत्स्य;यूनाइटेड पब्लिशिंग हाउस, सेक्टर 3, शॉप नं 15, आर के पुरम, नई दिल्ली - 22; पृष्ठ - 9 से 12)

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चिड़िया और कौआ 

 एक थी चिड़िया और एक था कौआ । चिड़िया को मिले मोती, कौए को मिले चने । कौए ने चने के दाने खा लिए । फिर चिड़िया के पास जाकर बोला, “चिड़ी रानी, चिड़ी रानी, जरा अपने मोती तो दिखा । ”

चिड़िया बोली, “ना बाबा ना, मैं नहीं दिखाऊँगी तुझे अपने मोती । तुम तो उचक्के हो । दूसरों की चीजें उठा कर भाग जाते हो । मेरे मोती लेकर तुम फुर्र से उड़ जाओगे । ” 

कौआ बोला, “नहीं जी, मैं क्यों लूँगा तुम्हारे मोती । मैं जरा देखकर वापस कर दूँगा । ” 

चिड़िया बेचारी भोली थी । उसने कौए का विश्वास कर लिया । उसने मोती कौए को दे दिए । 

मोती मिलते ही कौआ फुर्र से उड़ गया । और डाल पर जा बैठा । 

चिड़िया बोली, “कौए-कौए ! मेरे मोती दे । ” 

कौआ बोला, “नहीं देता, जा । ” 

तब चिड़िया पेड़ के पास गई और पेड़ से बोली, “पेड़-पेड़ ! इस कौए को गिरा । इसने मेरे मोती छीन लिए हैं । ”

पेड़ बोला, “नहीं गिराता, जा । ” 

तब चिड़िया बढ़ई के पास गई । और बोली, “बढ़ई-

बढ़ई ! तू इस पेड़ को काट । ”

बढ़ई बोला, “नहीं काटता । जा । ”

तब चिड़िया राजा के पास गई और बोली, “राजा-

राजा ! बढ़ई को सजा दे । ”

राजा बोला, “नहीं देता, जा । ” 

तब चिड़िया रानी के पास गयी और बोली, “रानी-रानी, राजा से रूठ जा । ”

रानी बोली, “नहीं रूठती, जा । ” 

तब चिड़िया चूहे के पास गई और बोली, “चूहे-चूहे ! रानी की साड़ी कुतर । ” 

चूहा बोला, “नहीं कुतरता, जा । ” 

तब चिड़िया बिल्ली के पास गई और बोली, “बिल्ली-बिल्ली, चूहे को खा । ”

बिल्ली बोली, “नहीं खाती जा । ”

तब चिड़िया कुत्ते के पास गई और बोली, “कुत्ते-कुत्ते ! बिल्ली को काट । ”

कुत्ता बोला, “नहीं काटता जा । ” 

तब चिड़िया डंडे के पास गई और बोली, “डंडे-डंडे ! कुत्ते को पीट । ”

डंडा बोला, “नहीं पीटता जा । ” 

तब चिड़िया आग के पास गई और बोली, तू डंडों को जला, आग बोली - जा नहीं जलाती । ”

तब चिड़िया पानी के पास गई और बोली, “पानी-

पानी ! तू आग को बुझा । ”

पानी बोला, “जा-जा, मैं नहीं बुझाऊँगा । ”

तब चिड़िया हाथी के पास गई और बोली, “हाथी-

हाथी ! तू पानी को सूंड में भरकर बिखेर दे । ” 

हाथी बोला, “मैं नहीं बिखेरता, जा । ” 

तब चिड़िया चींटी के पास गई और बोली, “चींटी-

चींटी ! तू हाथी की सूंड में घुस जा । ”

चींटी बोली, “बहन ! मैं तेरा काम जरूर करुँगी । ” 

चींटी हाथी की सूँड में घुसने लगी । 

तब हाथी बोला, “मेरी सूँड में मत घुसो । मैं पानी बिखेर दूंगा । ” 

पानी बोला, “अरे भाई, ऐसा क्यों करते हो । लो, मैं आग को बुझा देता हूँ । ”

आग बोली, “छोड़ो जी, झगड़ा क्यों करते हो । मैं ही डंडे को जला डालती हूँ । ”

डंडा बोला, “लो जी, मैं कुत्ते को पीट देता हूँ । अब तो प्रसन्न हो न । ” 

कुत्ता बोला, “मुझे क्यों पीटते हो ! मैं बिल्ली को 

काटूँगा । अब तो ठीक है न?” 

बिल्ली बोली, “अजी रहने भी दो । मैं चूहे को खाऊँगी । ”

चूहा बोला, “जान है तो जहान है । मैं ही रानी की साड़ी कुतर डालता हूँ । ” 

रानी बोली, “मेरी साड़ी मत कुतरो । मैं राजा से रूठूँगी । ” 

राजा बोला, “रानी तुम मत रूठो । मैं बढ़ई को अभी सज़ा देता हूँ । ”

बढ़ई बोला, “मैं पेड़ काट देता हूँ, बाबा । मुझे सज़ा मत दो । ” 

पेड़ बोला, “मैं ही कौए को गिरा देता हूँ । तब तो ठीक है न?” 

अब तो कौए की अकल ठिकाने आ गई । कौआ झट से चिड़िया के पास गया और उसके सारे मोती वापस कर
दिए । 

चिड़िया तो यही चाहती थी । उसके मोती उसे मिल गए तो सारा झगड़ा मिट गया । वह अपने मोती लेकर फुर्र से उड़ गई । 

(सन्दर्भ - बाल कथा सरोवर, खिलौनों का पेड़; भाग 3; संतराम वत्स्य;यूनाइटेड पब्लिशिंग हाउस, सेक्टर 3, शॉप नं 15, आर के पुरम, नई दिल्ली - 22; पृष्ठ - 18 से 23)

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तुम भी योजना बनाओ 

तुम्हारी नई कक्षा की पढ़ाई शुरू हुई है । अगले वर्ष तुम्हारी परीक्षा होगी । परीक्षा में तुम उत्तीर्ण हो जाओ, न केवल उत्तीर्ण हो जाओ बल्कि तुम्हारे बहुत अच्छे नम्बर आएँ, इसके लिए अभी से तैयारी करनी होगी । पर तुम कहीं ऐसा तो नहीं सोचते हो कि अभी से पढ़ाई करना आवश्यक नहीं है - परीक्षा से महीना-भर पहले पढ़ाई पर जोर देने से काम हो जाएगा । न, ऐसा कभी मत सोचना । कहीं यह भूल मत कर बैठना । ऐसी भूल करने वालों को बाद में पछताना पड़ता है । 

तो फिर पढ़ाई की योजना बना लो । योजना समझते हो न? योजना यानी कार्यक्रम । तुम्हारे पास कितना समय है? इस समय में तुम्हें कितनी पुस्तकें पढ़नी हैं? किस विषय में अधिक परिश्रम करने की जरूरत है, यह सोचकर काम करो । तभी कहेंगे कि तुम योजना बनाकर काम कर रहे हो । 

योजना बनाते समय एक बात का ध्यान रखना । खेल-कूद के लिए भी समय रख लेना । पढ़ाई-लिखाई की तरह खेल-कूद भी आवश्यक है । खेलने-कूदने से शरीर में चुस्ती और ताजगी आती है । फिर सुबह से शाम तक लगातार पढ़ा भी तो नहीं जाता । दिमाग थक जाता है । बस इतना ध्यान रखो कि खेल के समय खेलो और पढ़ने के समय पढ़ो । 

यह मत सोचो कि तुम्हे केवल पाठशाला में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकें ही पढ़नी हैं । बच्चो के लिए सैंकड़ों अच्छी-अच्छी पुस्तकें छपी हुई हैं । अपनी पाठशाला के पुस्तकालय से लेकर तुम उन्हें पढ़ सकते हो । तुम यदि अपने पिताजी को कोई पुस्तक खरीदकर लाने को कहोगे तो वे बड़ी प्रसन्नता से तुम्हें पुस्तक ला देंगे । अपने जेब-खर्च में से कुछ बचाकर भी तुम अपने काम की पुस्तकें खरीद सकते हो । बच्चों के लिए कई अच्छी पत्रिकाएं भी छपती हैं । वे भी तुम्हें पढ़नी चाहिएँ । 

योजना बनाते समय पाठशाला की पढ़ाई, खेल-तमाशा, सैर, दूसरी पुस्तकें और पत्रिकाएँ सभी के लिए समय रख लेना चाहिए । इसी तरह खेलने, खाने तथा सोने का समय भी निश्चित कर लेना चाहिए । इससे काम ठीक और समय पर होता है । इस कार्यक्रम को निश्चित करने के लिए तुम अपने अध्यापक जी की सहायता ले सकते हो । 

जो व्यक्ति अपना समय योजना के साथ बिताते हैं, वे जीवन में सफलता पाते हैं । यदि तुम सफल होना चाहते हो तो अपनी दिनचर्या को निश्चित कर लो । फिर उसका आनंद के साथ पालन करो । तुम्हें सफलता अवश्य मिलेगी। 

सन्दर्भ: ‘हिमाचल पाठमाला (तीसरी कक्षा के लिए); बोर्ड ऑफ़ स्कूल एजुकेशन, हिमाचल प्रदेश द्वारा 1979 में स्वीकृत पाठ्य-पुस्तक से; प्रथम प्रकाशन - फरवरी 1980; पृष्ठ 7-9)

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भाई हो तो ऐसा

कई सौ साल पुरानी बात है । एक दिन काँगड़ा का राजा कुछ लोगों के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए निकला । काँगड़ा की घाटियों में बड़े घने जंगल हैं । शिकार खेलते-खेलते लोग बिखर गए और ऐसे बिखरे कि एक-दूसरे से बहुत दूर छूट गए । राजा भी अपने साथियों से बिछुड़कर जंगल में भटकने लगा । वह सारा दिन भटकता रहा, पर उसे अपने महल की ओर जाने का मार्ग नहीं मिल सका । जंगल में भटकते भटकते साँझ हो गई । 

राजा को जंगल में जहाँ भी जरा सी पगडंडी दिखाई पड़ती, वह उसी पर चल पड़ता । राजा एक मामूली सी पगडंडी पर चलता जा रहा था । मार्ग में एक गहरा अँधा कुआँ था । कुआँ जंगली घास से ढँक गया था । राजा को दिखाई न पड़ा और वह चलते-चलते धड़ाम से कुँए में जा गिरा । 

जब राजा महल में न पहुँचा तो हाहाकार मच गया । चारों ओर सिपाही राजा की खोज में निकल पड़े, पर राजा का कुछ पता नहीं लगा । अंत में यह निश्चित हुआ कि किसी जंगली जानवर ने राजा को मार डाला है । राजा के वियोग में तड़प तड़प कर रानी मर गई । 

प्रश्न उठा कि राजगद्दी को कब तक सूना छोड़ा जाए? सभासदों ने राजा के छोटे भाई को राजगद्दी पर बैठा दिया । 

एक दिन एक आदमी उस जंगल से गुजर रहा था । जब वह कुऍं के पास पहुंचा तो उसे किसीके कराहने की आवाज सुनाई दी । वह रुक गया । काफी देर तक आवाज सुनता रहा । उसने कुऍं में झांककर देखा । कुऍं में आदमी को देखकर उसके मन में दया आ गई । 

पथिक ने राजा को बाहर निकाला । बाहर निकलते ही राजा ने अपना परिचय दिया । राजा ने उससे कहा, “मेरे राज्य का हाल जल्दी सुनाओ । ” 

उसने उत्तर दिया, “महाराज ! आपकी कई दिनों तक खोज होती रही । अंत में रानी आपके वियोग में तड़प-तड़पकर मर गई । राजगद्दी को सूना छोड़ना भी ठीक न था । सभासदों ने फैसला करके सबकी सलाह से छोटे भाई को राजगद्दी पर बैठा दिया है । ” 

राजा के सामने एक समस्या खड़ी हो गई । 

यदि वह अपने महल में जाता है तो वह राजगद्दी का अधिकारी बनेगा । इस प्रकार भाई को मिला हुआ आदर उससे छिन जाएगा । इससे भाई को अपमानित होना पड़ेगा । उसने भाई से राज्य वापस लेना ठीक नहीं समझा । राजा ने अपने राज्य का मोह छोड़ दिया । 

राजा गुलेर की ओर चल पड़ा तथा अपने पौरुष से प्रथम बार गुलेर राज्य की स्थापना की । उसने काँगड़ा की राजगद्दी अपने भाई से छीनना अनुचित मानकर इतना बड़ा त्याग भाई के लिए किया । 

भाई हो तो ऐसा हो ! 

सन्दर्भ: ‘हिमाचल पाठमाला (तीसरी कक्षा के लिए); बोर्ड ऑफ़ स्कूल एजुकेशन, हिमाचल प्रदेश द्वारा 1979 में स्वीकृत पाठ्य-पुस्तक से; प्रथम प्रकाशन - फरवरी 1980; पृष्ठ 28-30)

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माँ ! यह कौन ?


बेटा - माँ ! यह कौन चढ़ा घोड़े पर लिए हाथ में भाला ?

लगता जैसे शूर-वीर यह सैनिक हो मतवाला । 

माँ - बेटा ! यह राणा प्रताप है राजपूत-कुलदीप ,

आजादी प्राणों से बढ़कर इनके रही समीप । 

दिल्ली में सम्राट मुग़ल था, अकबर महा महान ,

घुटने टेका करते सब ही, उसको स्वामी मान । 

बने दास कुछ लालच-भय से, गए शरण कुछ आप ,

नहीं झुका जो उसके सम्मुख, वह था वीर प्रताप । 

छोड़ामहल, राजसी भोजन, छोड़ा सुखमय जीवन ,

भू पर शयन, मिला सो भोजन, रहा घूमता वन-वन । 

चेतक घोड़ा मरा कूदकर, जब नाले के तीर , 

पहली बार महाराणा के गिरा नयन से नीर !

गई घास की रोटी भी छिन, भूखी बेटी सोई ,

रानी उधर अचेत, न फिर भी आन कभी थी खोई । 

शक्ति और सेना अकबर की, मिली धरा में आप ,

किन्तु गगन में उठता जाता राणा वीर प्रताप । 

सन्दर्भ: ‘हिमाचल पाठमाला (तीसरी कक्षा के लिए); बोर्ड ऑफ़ स्कूल एजुकेशन, हिमाचल प्रदेश द्वारा 1979 में स्वीकृत पाठ्य-पुस्तक से; प्रथम प्रकाशन - फरवरी 1980; पृष्ठ 38-39)

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जंगल में मंगल 

जंगल हमारे लिए कितने लाभदायक हैं, इस बात को समझने में हम जितनी देर करेंगे, उतनी ही हानि उठाएँगे । यह सच है, जब इस धरती पर पेड़-पौधे नहीं रहेंगे, तो कोई प्राणी भी जीवित नहीं बचेगा । 

मनुष्य को अन्न, दालें, तेल, फल-सब्जियाँ और कपड़े पेड़-पौधों से ही तो मिलते हैं । जिन पशुओं से दूध मिलता है, वे भी तो घास-पात खाकर ही जीते हैं । यही नहीं, हमारी दूसरी बहुत-सी आवश्यकताएँ भी पेड़-पौधों से ही पूरी होती हैं । बहुत-सी जड़ी-बूटियाँ तो पेड़-पौधों से ही मिलती हैं । इसके अतिरिक्त कपास भी पौधे देते हैं । असली रेशम बनाने वाले कीड़े भी शहतूत नामक पेड़ की पत्तियों पर ही पलते 

हैं । ऊन हमें भेड़ों से जरूर मिलती है, पर भेड़ भी घास-पात ही खाती है । नकली रेशम भी पेड़ों की लुगदी से बनता है । बोरियाँ और टाट-पट्टी भी तो पौधों की छाल के धागों से बनते हैं । रबड़ पेड़ों से मिलता है । 

आज जिस पत्थर के कोयले और मिटटी के तेल का हम प्रयोग करते हैं, वह भी पेड़ों से ही बना है । दियासलाई की तीली से लेकर बड़े शहतीर तक, मेज-कुर्सी से लेकर बड़ी नाव तक, चौखटें, दरवाजे, खिड़कियाँ सभी कुछ तो पेड़ों से बना है । चूल्हे में जलाने की लकड़ी भी पेड़-पौधों से मिलती है । लाख, तारपीन का तेल और कितने ही रंग पेड़ों से प्राप्त होते हैं । पुस्तकें जिस कागज़ से बनती हैं, वह भी पेड़-पौधों से ही बनता है । कहाँ तक गिनाया जाए । 

वैसे भी पेड़-पौधे हमारे जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं । ये मिटटी के कटाव को रोकते हैं । ये धरती को उपजाऊ बनाने के अतिरिक्त वर्षा के पानी धरती में गहरे तक पहुंचाने में सहायता करते हैं । यह कार्य जड़ों के गहरे में जाने के मार्ग से होता है । मरुस्थल को बढ़ने से रोकने का काम भी पेड़-पौधे करते हैं । ये नमी को बनाए रखने में सहायता करते हैं । अब तो सभी मानने लगे हैं कि वनों से वर्षा होने में भी सहायता मिलती है । बाढ़ों को रोकने में भी वृक्ष सहायता करते हैं । पहाड़ों की ढलानों पर के वृक्ष बहते पानी की चाल को धीमा करते हैं । मैदान में आंधी के वेग को रोकते हैं । जहाँ पेड़-पौधे नहीं होते, वहाँ वर्षा का जल धरती में गहरा नहीं उतरता और बहने लगता है । इससे बाढ़ आती है । पेड़-पौधे मौसम को भी प्रभावित करते हैं । वे सर्दी-गर्मी को अपने ऊपर ले लेते हैं । जब धरती में गहराई तक पानी पहुँचता है तो नमी भी देर तक रहती है । इससे खेती को सहारा मिलता है । 

जहाँ पेड़ नहीं होते, वहाँ धरती की सतह पर मूसलाधार वर्षा की सीधी चोट से धरती कटने लगती है । वहाँ की धरती में बरसात के पानी को सोखने को शक्ति भी कम होती है । धरती पानी को तो तब सोखेगी जब वृक्ष हों और उनकी जड़ों के साथ-साथ पानी नीचे उतर सके । जब धरती पानी को नहीं सोखेगी तो वह बहने लगेगा । जब पानी ढाल पर बहता है तो उसमें तेजी आ जाती है । ढाल पर वृक्ष न हों तो पानी के जोर से धरती का कटाव होने लगता है । मिटटी बहकर नदी के पाट में भर जाती है । इससे नदी का पानी किनारों की तरफ बढ़ने लगता है । बस, बाढ़ें शुरू हो जाती हैं । इस तरह विनाशलीला का प्रारम्भ होता है । 

वनों के एक जानकार ने कहा है - “वन नष्ट होते हैं तो जल नष्ट होता है । मछलियाँ और वन के जानवर नष्ट होते हैं, फसलें नष्ट होती हैं, पशु नष्ट होते हैं, पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति नष्ट हो जाती है और तब ये पुराने प्रेत एक के पीछे एक प्रकट होने लगते हैं - बाढ़, सूखा, आग, अकाल और महामारी । ” 

कहते हैं, हिमालय की कैलास चोटी के आस-पास जगदम्बा पार्वती ने एक देवदार के वृक्ष को पुत्र बनाकर पाला था । एक बार एक हाथी ने उसे कुछ हानि पहुँचाई थी तो देवी पार्वती ने उसकी रखवाली के लिए एक सिंह को रखा था ।

हमारे प्रदेश में बड़े घने जंगल हैं । इनमें देवदार, चीड़, बुरांश आदि के वन हैं । वन हमारे प्रदेश की प्राकृतिक संपत्ति में प्रमुख हैं । नये वन भी खूब लगाए जा रहे हैं । पहाड़ियों पर कतारों में खड़े चीड़ के छोटे वृक्ष, जो अभी एक तरह से बच्चे ही हैं, बड़े भले लगते हैं । इस वर्ष सरकार ने प्रदेश-भर में चार करोड़ नये पौधे लगाए हैं । इनमें से बहुत सारे बचे रहेंगे और बढ़कर एक दिन बड़े वृक्ष बन जाएँगे । 

हमें भी वन-महोत्सव के समय अपनी पाठशाला, गाँव के मंदिर, गाँव की गोचरभूमि और शामलात भूमि में मिल-जुलकर वृक्ष लगाने चाहिए । पर ध्यान रहे, लगाने के बाद, उसे बाड़ देकर पालना भी जरूरी है । पशुओं से रक्षा के लिए इनके चारों ओर काँटेदार झाड़ियों की ऊँची बाड़ लगानी चाहिए । विशेष रूप से इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बकरियाँ पौधों को हानि न पहुँचाएँ । तुम्हें प्रण करना चाहिए कि प्रति वर्ष बरसात में कम से कम एक पौधा तो लगाऊँगा ही और उसे पालूँगा भी । 

सन्दर्भ: ‘हिमाचल पाठमाला (तीसरी कक्षा के लिए); बोर्ड ऑफ़ स्कूल एजुकेशन, हिमाचल प्रदेश द्वारा 1979 में स्वीकृत पाठ्य-पुस्तक से; प्रथम प्रकाशन - फरवरी 1980; पृष्ठ 40-44)

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पत्र-लेखन 

पत्र इस ढंग से लिखना चाहिए कि पढ़ने वाला लिखने वाले की बात को अच्छी तरह समझ सके । लिखावट साफ़ होनी चाहिए । पता लिखते समय तो लिखावट का और भी ध्यान रखना चाहिए । पत्र पेन्सिल से नहीं लिखना चाहिए । इसके अतिरिक्त पत्र लिखने में नीचे लिखी बातों का ध्यान रखना चाहिए : 

पत्र का पहला भाग - इस भाग में ऊपर दाहिने कोने में उस जगह का नाम लिखा जाता है, जहाँ से पत्र भेजा जाए । इसमें मकान नंबर, गली या मुहल्ले का नाम तथा शहर और गाँव का नाम लिखा जाना चाहिए । इसी के नीचे पत्र भेजने की तारीख लिखनी चाहिए । 

दूसरा भाग - इसी भाग में बाईं ओर जिसे पत्र भेजा जा रहा हो, उसके सम्बन्ध या पद के अनुसार सम्बोधन के शब्द लिखे जाते हैं । इसी के नीचे थोड़ा-सा स्थान छोड़कर सम्बन्ध के अनुसार नमस्कार या प्रणाम आदि लिखा जाता है । यह बात केवल निजी पत्रों में लिखी जाती है । व्यापारिक और कार्यालयों को लिखे पत्रों में इसकी आवश्यकता नहीं होती । 

तीसरा भाग - यह पत्र का मुख्य भाग कहलाता है । इस भाग को नये अनुच्छेद की तरह थोड़ा-सा छोड़ कर शुरू करना चाहिए । इस भाग में सभी तरह की बातें लिखी जा सकती हैं । 

चौथा भाग - इस भाग में, जहाँ पत्र का तीसरा भाग समाप्त होता है, उससे नीचे, दाहिनी ओर आदर अथवा प्रेम आदि के भाव प्रकट करने वाले शब्द जैसे - ‘आप का सेवक’ या ‘आपका मित्र’ लिखे जाते हैं । ठीक इसीके नीचे पत्र लिखने वाले को अपने हस्ताक्षर करने चाहिए । 

नमूने के लिए नीचे एक पत्र दिया जाता है । चारों भागों को (1), (2), (3), (4) अंक लगाकर दिखाया गया है । 

पालमपुर 

15-10-78

(2) पूज्य पिताजी, 

सादर प्रणाम । 

(3) हम यहाँ कुशलपूर्वक हैं । नवरात्रों में हम चाचाजी के साथ चामुण्डा और ब्रजेश्वरी देवी के दर्शन करने काँगड़ा गए थे । काँगड़ा मंदिर में मामाजी और मामीजी भी आए हुए थे । वहाँ से वे भी हमारे साथ हमारे घर आए थे । दो दिन रहकर चले गए । काँगड़ा मन्दिर में बहुत भीड़ थी । हमने गुप्त गंगा में स्नान भी किया । 

बस में भी बड़ी भीड़ थी, पर हमें बैठने की जगह मिल गई थी । आप हमारे स्वैटरों के ऊन अवश्य लेते आएँ । अच्छी सी तीन-चार पुस्तकें भी मेरे लिए ले आएँ । आप घर कब आ रहे हैं, इसकी सूचना दें । 

(4) आपका आज्ञाकारी

आशुतोष 

सन्दर्भ: ‘हिमाचल पाठमाला (तीसरी कक्षा के लिए); बोर्ड ऑफ़ स्कूल एजुकेशन, हिमाचल प्रदेश द्वारा 1979 में स्वीकृत पाठ्य-पुस्तक से; प्रथम प्रकाशन - फरवरी 1980; पृष्ठ 48-50)

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मौसम 

‘मौसम’ हमारी प्रतिदिन की बातचीत में सबसे अधिक बोला जाने वाला शब्द है । गावों में भी और शहरों में भी । गावों में इसकी चर्चा खेती-बाड़ी से सम्बंधित होती है और शहरों में सेहत से । सर्दी-जुकाम से लेकर मलेरिया और मियादी बुखार तक इसका सम्बन्ध मौसम से जोड़ा जाता है । किसी परिचित को सर्दी-जुकाम होने की बात सुनकर हम कहते हैं : मौसम बदल रहा है । इन दिनों ऐसा हो ही जाता है । मलेरिया, हैजा और दूसरी अनेक बीमारियों में मौसम का हाथ होता है । और हमारे जीवन के आधार अन्न पर तो मौसम का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है । आजकल सेहर और फसलों के अलावा और भी कई ऐसे काम हैं, जिनके लिए मौसम बड़ा महत्त्व रखता है । जैसे हवाई जहाज की उड़ान । समुद्री जहाज की लम्बी यात्रा । अनाज के भावों को भी मौसम प्रभावित करता 

है । तूफानों का पूर्वानुमान, पौधों का बढ़ना और विकास मूल रूप से उस क्षेत्र की मिट्टी, वातावरण और मौसम पर निर्भर करता है । खेती की सफलता और असफलता भी मौसम की अनुकूलता और प्रतिकूलता पर निर्भर करती है । 

शहरों में रहने वालों के लिए बदलता हुआ मौसम विशेष महत्त्व नहीं रखता । बरसात का मौसम शुरू होने पर वे बाहर निकलते समय छाता ले लेते हैं । चमड़े के जूते खराब हो जाते हैं, इसलिए रबड़ के जूते पहन लेते हैं । 

सर्दी शुरू होगी गर्म कपड़े निकाल लेने से काम चल जाएगा । साधारणतया शहर में रहने वालों का ध्यान मौसम की ओर कम जाता है । हाँ, जब लू चलने लगती है, ठंड से दांत किटकिटाने लगते हैं या लम्बी रोज-रोज की वर्षा उनका ध्यान जरूर खींचती है । एक तरह से जब वे मौसम के कारण असुविधा का अनुभव करते हैं, तब मौसम को जरूर कोसने लगते हैं । पूर्व दिशा में निकला सिन्दूरी रंग का सूर्य का गोला, रंग-बिरंगे बादलों के बीच डूबता सूर्य, उमड़ते-घुमड़ते बरसाती बादल, वर्षा की फुहारें उनसे अनदेखी ही रह जाती हैं । वर्षा में नहाए हुए वृक्षों की पाँतें, पत्तों और फूलों पर मोती जैसी ओस की बूँदें उन्हें कहाँ देखने को मिलती हैं ! मकानों की लम्बी कतारों के बीच से अगर कभी वे आकाश की ओर ताकें भी तो टेलीफोन और बिजली के तारों के जाल में ही दृष्टि उलझकर रह जाती है । विस्तृत आकाश बेढंगे कटे-फटे टुकड़ों के रूप में ही उन्हें दिखाई देता है । चाँद और तारों को देखने के लिए मकान की छत पर जाने की आवश्यकता होती है और किराये के मकानों में छत पर जाने की सुविधा कम लोगों को होती है । 

दूसरी ओर गांव वालों के लिए मौसम का बड़ा महत्त्व है । वे खुले चौड़े खेतों के एक ओर वृक्षों के झुरमुट से घिरे मकानों में रहते हैं । आकाश में होने वाला कोई भी परिवर्तन उनसे अनदेखा नहीं रहता । वे न केवल हर छोटे-मोटे परिवर्तन को देखते हैं, उसके अर्थ को भी समझते हैं । उनके लिए सब तरह के बादल केवल बादल नहीं हैं । विभिन्न दिशाओं से आने वाली हवा भी केवल हवा नहीं है । 

वे बादलों के रंग और रूप को देखकर जान जाते हैं कि कौन-से बादल बरसने वाले हैं । पूर्व की ओर से आने वाली हवा पुरवा और पश्चिम की ओर से आने वाली हवा पछवा है । दोनों हवाएं दो तरह के मौसम का संकेत देती हैं । 

एक देहाती के लिए मौसम ही उसकी ख़ुशी है और गमी है । मौसम देहात के जीवन पर सबसे अधिक असर डालता है । 

सभी जानते हैं कि जब खेती के अनुकूल वर्षा होती है तो अच्छी फसल की आशा से बाजार भाव गिरने लगते हैं । और जब फसल मारी जाने की सम्भावना होती है तो बाजार भाव पहले ही बढ़ने लगते हैं । 

हमारा देश खेती प्रधान देश है । इस देश के 80 प्रतिशत लोग देहातों में रहते हैं ,इसलिए हमारे देहाती भाइयों के लिए मौसम की जानकारी बड़ी महत्त्वपूर्ण है । वे मौसम के बारे में बहुत कुछ जानते हैं । अनुभव की लम्बी परंपरा उनके पास है । फिर भी विज्ञान की उन्नति के साथ मौसम-विज्ञान में भी बहुत उन्नति हुई है । इस उन्नति का लाभ किसानों तक पहुँचाने के लिए रेडियो, टेलेविजन और समाचार पत्रों में प्रतिदिन मौसम की भविष्यवाणी की जाती है । 

मौसम क्या है? पहले इसे समझ लें तो ठीक होगा । हम सभी जानते हैं कि मौसम सदा बदलता रहता है । दिन-प्रतिदिन तो मौसम में परिवर्तन तो होता ही है, कई बार एक ही दिन के मौसम में भी सुबह-शाम बड़ा परिवर्तन दिखाई देता है । 

जब आम लोग कहते हैं कि मौसम बदल गया तो इसका मतलब इतना ही होता है कि पिछले दिनों की अपेक्षा गर्मी अधिक बढ़ गई या ठंडक । अभिप्राय यह कि तापमान में परिवर्तन हो गया । किन्तु मौसम को बनाने वाली चार चीजों में तापमान केवल एक चीज है । 

मौसम जिन चार चीजों से बनता है अथवा मौसम में जो तरह-तरह के परिवर्तन होते रहते हैं उनका मूल कारण ये चार बातें हैं: 

1. ताप 

2. वायुमण्डल का दबाव 

3. वायु की दिशा 

4. नमी 

इन चार कारणों के अतिरिक्त भी कुछ कारण हैं पर वे इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, जैसे: 1. बादलों की किस्में और ऊंचाई, 2. वर्षा, ओले और तुषार । 

मौसम की वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त करने से पहले मौसम सम्बंधित भूगोल और सूर्य के बारे में कुछ बातों की जानकारी प्राप्त कर लेना बहुत आवश्यक है । उन बातों को समझे बिना इस विषय को समझना हमारे लिए कठिन होगा । 



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कुछ जरूरी जानकारी 

यह धरती जिस पर हम रहते हैं, गेंद की तरह गोल है । इसकी गोलाई का नाप कोई 25000 मील है । पर यह बिलकुल गोल नहीं है । यह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के पास कुछ चपटी है । इस दह्रति के गोले के दो छोर, जहाँ धरती कुछ चपटी है, उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव कहलाते हैं । 

धरती का तीन-चौथाई भाग समुद्र है । केवल एक चौथाई भाग थल है । 

धरती के सब ओर दो सौ मील तक हवा फैली हुई है । इसे वायुमंडल कहते हैं । 

धरती दो तरह से घूमती है । एक तो अपनी ही धुरी पर लट्टू की तरह और दूसरे सूर्य के चारों ओर । पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है । पृथ्वी चौबीस घंटे अर्थात एक दिन और एक रात में अपनी धुरी पर एक चक्कर लगा लेती है । इस तरह चौबीस घंटों में पृथ्वी के प्रत्येक भाग को सूर्य की गर्मी और प्रकाश मिल जाता है । घूमती हुई पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सामने होता है, उसमें दिन और दूसरे भाग में रात होती है । पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के कारन ही रात और दिन बनते हैं । दूसरी गति में पृथ्वी सूर्य का चक्कर 365 दिनों में लगाती है । इस चक्कर में पृथ्वी अंडे की शक्ल के गोल घेरे में घूमती है । 

पृथ्वी की धुरी बिल्कुल सीधी न होकर एक ओर झुकी हुई है । 

पृथ्वी की धुरी के एक ओर झुके होने के कारण ही दिन और रात एक बराबर नहीं होते । घटते-बढ़ते रहते हैं । 

मौसम में दो तरह के परिवर्तन होते हैं । एक तो अचानक और दूसरे निश्चित समय पर, जैसे ऋतुएँ : सर्दी, गर्मी, बरसात और पतझड़ । ये ऋतुएँ अपने नियत समय पर होती हैं । इनका कारण यह है : 

पृथ्वी की चार स्थितियाँ - एक ओर को झुकी हुई पृथ्वी जब सूर्य के चारों ओर घूमती है उसकी मुख्य चार स्थितियाँ बनती हैं । पृथ्वी की धुरी के एक ओर के कारण, पृथ्वी के भिन्न-भिन्न भागों में सूर्य की किरणें, अलग-अलग महीनों में सीधी या तिरछी पड़ती हैं । यही कारण है कि जिन दिनों पृथ्वी के किसी भाग में जोर की गर्मी पड़ रही होती है, उन्हीं दिनों किसी दूसरे भाग में सर्दी और उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव प्रदेशों में तो बारहों मास बर्फ जमी रहती है । 

समूची पृथ्वी को कुछ काल्पनिक रेखाएँ खींच कर बांटा गया है । ये रेखाएं पृथ्वी की वार्षिक गति के कारण विभिन्न भागों पर सूर्य की किरणों के प्रभाव को दर्शाती हैं । वास्तव में पृथ्वी पर इस प्रकार की कोई रेखाएं नहीं    हैं । ये रेखाएं केवल नक़्शे पर ही होती हैं । 

इनमें पहली है : भूमध्य रेखा । 

पृथ्वी के गोले को बीच में से दो भागों में बाँटने वाली यह रेखा है । भूमध्य रेखा का अर्थ यह है कि भूमि के बीच की 

रेखा । 21 मार्च और 23 सितम्बर को पृथ्वी के भूमध्य रेखा वाले भाग में सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं । 

भूमध्य रेखा से उत्तरी ध्रुव की ओर कर्क रेखा है । 21 जून को कर्क रेखा पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं । 

इसी प्रकार दक्षिणी शीट कटिबंध और मकर रेखा के बीच का भाग भी समशीतोष्ण कटिबंध कहलाता है । 

यहाँ न तो बेहद गर्मी होती है और न बेहद ठण्ड । उत्तरी वृत्त से उत्तरी ध्रुव के बीच का भाग और दक्षिणी वृत्त से दक्षिणी ध्रुव के बीच का भाग शीत कटिबंध कहलाता है । शीत कटिबंधों पर बेहद ठंड पड़ती है । यहाँ बर्फ जमी रहती है । 

ताप, वायुमंडल का दबाव, वायु की दिशा और नमी में से किसी एक में भी परिवर्तन होने से मौसम बदल जाता है । यही नहीं, ये चारों आपस में इतनी घुली-मिली हुई हैं कि एक में परिवर्तन होने से बाकियों में भी परिवर्तन हो जाता है । उदाहरण के तौर पर जब ताप बढ़ता है तो वायुमंडल के दबाव में कमी हो जाती है । इसका परिणाम यह होता है कि वायु कम दबाव वाले स्थानों की ओर चलने लगती है । इसके परिणामस्वरूप चलने वाली हवाएँ सूखा मौसम भी ला सकती हैं और नमी भी । अब आपने समझ लिया होगा कि मौसम बनाने वाली चीजों में से एक में परिवर्तन होने से बाकियों में परिवर्तन कैसे होता है । 

सन्दर्भ: ‘मौसम की कहानी’;पुस्तक; इंद्रप्रस्थ प्रकाशन; प्रथम संस्करण - 1986; पृष्ठ 5-8)

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अमलतास

 अमलतास के बारे में मेरा सौंदर्य बोध ‘घर का जोगी जोगड़ा’ जैसा ही रहा है । मैंने कभी उसे महत्व नहीं दिया उसकी भीनी-भीनी सुगंध मुझे अनायास सराबोर करती रही । उसकी मंजरियों को निर्दयता से तोड़कर हमजोलियों से खेला भी हूँ । घर के किसी बड़े-बूढ़े के कहने से उसकी पक्की फलियों को तोड़ भी लाया हूं जिनका रेचक दवाई के रूप में उपयोग किया जाता है । वे उपेक्षित-सी किसी ताक पर रखी रहतीं और उपयोग में न आने पर उठाकर फेंक दी जाती । शहद खरीदने में इस बात का ध्यान रखा जाता कि वह अमलतास के फूलों से संचित हो और इसलिए अमलतास फूलने के बाद उतारे छत्तों का ही शहद खरीदा जाता । 

आप जानते हैं अपने गांव के आसपास का आदमी यदि नई दिल्ली में मिल जाए तो ऐसे में ममत्व एकदम उमड़ पड़ता है, वैसे ही गांव के इस उपेक्षित पुष्पपादप को नई दिल्ली में देखकर मेरा ममत्व भी उमड़ पड़ा है । वह गांव में था और मैं भी वहीं था, तो वह उपेक्षित रहा । मैं दिल्ली में गया और उससे नई दिल्ली में मिला तो हमारा रागात्मक सूत्र जुड़ गया । अब जब गांव में भी उसे देखता हूँ तो गांव के सहज संबंध के कारण नहीं, दिल्ली के संबंध के कारण अधिक मान देने लगा हूँ । यही मानव स्वभाव है-सहज की उपेक्षा और असहज का समादर । 

हमारे यहां अमलतास को अल्ही कहते हैं । थोड़ा-सा ध्यान देने पर पता चल जाता है कि यह संस्कृत का शुद्ध ‘अलि:’ शब्द है । अलि का अर्थ है भौंरा । अलिकुल-संकुल-कुसुम होने के कारण इसका यह नाम पड़ा होगा, इसमें मुझे तो संदेह नहीं है । मेरी इस बात पर संदेह करके आप भी अपना नाम संदेहशीलों में नहीं लिखवाना चाहेंगे । 

गर्मियों को बिताने अपने पहाड़ी गांव में आता हूँ तो अनायास काल पर विजय पा लेता हूँ । घड़ी आते ही जो उतार कर रखी तो फिर उसकी सुध नहीं ली । यही मेरी काल पर विजय है । 

तीसरे पहर सोकर उठा हूँ और अलसाया-सा हूँ । चाय पीकर शरीर के महान शत्रु आलस्य पर विजय पाकर स्फूर्ति अनुभव कर रहा हूँ । गाँव चारों ओर से बांस के झुरमुटों, शिरीष और कचनार के वृक्षों से घिरा हुआ है । बाहरी परिधि में आम के पेड़ छितरे खड़े हैं । गाँव से बाहर के ढालू रास्ते पर निरुद्देश्य चल पड़ा हूँ । अनायास सामने की बनखंडी पर दृष्टि जाती है तो आधुनिक कला का एक अमूर्त चित्र दिखता है । बड़े से, ओर-छोर हरे पुते पट पर, बीच से जरा दाएँ को वासंती रंग का एक बड़ा स्पाट है । मैं खड़ा हो जाता हूँ और ध्यान से देखने लगता हूँ तो निर्मल पानी में से डुबकी लगाने के बाद निकलते व्यक्ति के स्पष्ट होते आकार की तरह, जगाए जा रहे व्यक्ति की चेतना की तरह, कैमरे का फोक्सिंग सही करते समय स्पष्ट होते फोकस की तरह वह चित्र मुझे लैंडस्केप-सा दिखने लगा है । कैमरे का फोकस बिल्कुल सही हो गया है और अब मैं सामने की बनखंडी की छोटी-छोटी हरी कांटेदार झाड़ियों के बीच उनसे कुछ बड़े, खड़े अमलतास को देख रहा हूँ । ‘खड़े’ इसलिए कहा कि झाड़ियों में और इस अमलतास के आकार में अंतर बैठे और खड़े जैसा ही था । 

मैं चल रहा था, फोकस फिर गड़बड़ा गया । मुझे लगा कि समूह नृत्य की किसी विशेष मुद्रा में सखियाँ घेरा बनाकर उचक कर बैठी हुई हैं और प्रधान नर्तकी बीच में स्थिर नृत्य-भंगी के साथ खड़ी है । मैं फिर रुक जाता हूँ । आज अमलतास का सम्मोहन मुझे अपनी ओर खींच रहा है पर मुझे लगता है कि पास चला गया तो ये सारे चित्र खलत-मलत हो जाएँगे । फिर दूसरे एक क्षण एक दूसरे भय ने आ घेरा । कोई पूछ बैठा कि कहाँ जा रहे हो तो क्या कहूँगा! क्या यह कहूँ कि अमलतास के पास जा रहा हूँ । कभी नहीं । गांव में इस तरह की भावुकता से आदमी हास्यास्पद बन जाता है और मैं वैसा नहीं बनना चाहता । पर मुझे रोकेगा कौन? रास्ते में बावली है पर इतनी धूप में कौन पानी भरने आता है । कुछ आगे प्राइमरी स्कूल है, वहाँ छुट्टी हो चुकी है । पर स्कूल के साथ वाला जो दुकानदार है न, वह जरूर टोकेगा । अक्सर जब मैं उदास होता हूँ तो उसका दिल बहला आता हूँ । मेरे जाते ही वह हुक्के का पानी बदलकर और नई चिलम भरकर ले आता है । 

ज्यों-ज्यों पास पहुंचता जाता हूँ, पीतांबर बौद्ध भिक्षु-सा वह बिरछा ही मेरे दृष्टिपथ में रहता है और झाड़ियां आउट ऑफ फोकस हो जाती हैं । ‘ओं मणि पद्मे हुँ’ का उपांशु जाप जपते उसे पता हूँ । मैं नहीं चाहता कि उसकी उपासना में विघ्न डालूं । हाथों को जोड़कर, सिर झुका कर धीरे से कहता हूँ, ‘भंते ! प्रणाम करता हूँ । ’ और पास पड़े छोटे पत्थर पर बैठ जाता हूँ । भंते अविचल मन्त्र गुनगुनाते जाते हैं । कभी-कभी पावनान्दोलित उनका पीत उत्तरीय जरा-सा हिल जाता है । 

मैं बद्ध और बुद्ध के अन्तर पर विचार करता बैठा रहता हूँ । जैसे प्रतीक्षा कर रहा होऊं कि कब भंते का जाप समाप्त हो और वे मुझे जीवन की क्षण-भंगुरता और निःसारता के बारे में अपने श्री मुख से कुछ बताएँ । 

मन फिर सूक्ष्म से स्थूल की ओर उतर आता है । मैं अमलतास के नीचे बैठा हूँ । भौंरों का गुँजार सुन रहा हूँ । मेरे चारों ओर पीली-पीली पंखुड़ियाँ बिखरी पड़ी हैं । उनकी भीनी-भीनी सुगंध से नासा पुटों को भरता हूँ । नीचे से दो-चार पंखुड़ियाँ उठाकर उनकी परिणति पर विचार करता हूँ - देवता के शीश पर चढ़ना या वन में बिखर जाना । 

ऊपर देखता हूँ । सारे बिरछे पर एक भी पत्ता नहीं है । जो कुछ है, वह पुष्प ही है । यह पत्रहीन सही पर इस हीनता में भी गरिमा है । अमलतास किसी की दया का पात्र नहीं है । यह रिक्तता पुष्पों की पूर्णता के लिए है । अमलतास अमितदानी है, सर्वस्व लुटा देने वाला । कुछ दिन बाद जब वह सारा हिरण्यमय कोष भी समाप्त हो जाएगा, तब भी उसे देखकर दैन्य की अनुभूति नहीं होगी । दाता की रिक्तता भी गौरवमयी होती है । 

मैं वापस लौटना चाह रहा हूँ । मेरा हाथ अनायास पुष्प मंजरी को तोड़ने के लिए बढ़ता है । एक मंजरी तोड़ लेता हूँ और पछताता हूँ कि मैंने कैसा अनर्थ कर डाला ! फिर इस मंजरी को देवताओं को समर्पण करने का संकल्प करके मन को समझाता हूँ । 

साँझ उतर आई है । छाया एकदम लंबी हो चली है । ग्वाले गायों को वापस लाने लगे हैं । मैं इस मंजरी को भगवान भास्कर को समर्पित कर देता हूँ । कुछ सोचकर फिर बैठ जाता हूँ । गोधूलि को देखकर गोपाल कृष्ण की स्मृति हो आती है । और मैं रासलीला में खो जाता हूँ । हरितवसना गोपियों के बीच तड़ितपीत पीतांबर कृष्ण नृत्य कर रहे   हैं । गोपियाँ उनके नृत्य माधुरी से अभिभूत चित्र लिखित-सी स्तब्ध निर्निमेष खड़ी नेत्रों से उनकी रूप माधुरी का पान कर रही हैं । 

चंद्रमा निकल आया है । मुझे डर लग रहा है कि चोरी-छिपे इस दिव्य रासलीला को देखने के लिए नटवर मुझे गूंगा होने का शाप न दे डालें । मैं चुपचाप खिसक आता हूँ । 

मैं कल्पना करता हूँ कि कुछ दिनों बाद यह पुष्प झड़ जाएंगे । लंबी फलियाँ लगेंगी और पककर काली हो जाएँगी, उस समय यह अमलतास समाधिस्थ जटाधारी सन्यासी-सा दिखाई देगा । किल्लोल करते बंदर छोटे डंडे-सी इन फलियों को तोड़कर एक दूसरे पर दे मारेंगे और खूब ऊधम मचाएँगे । इसीलिए तो इसका एक नाम बंदर-लाठी भी है । फिर किसी बड़े-बूढ़े का या वैद्य का भेजा हुआ कोई आदमी औषधि के लिए इन फलियों को तोड़ने आएगा । 

सारा हिरण्यमय कोश लुटा चुके इस राजर्षि की जटाएँ लोकोपकार के काम आएँगी । फिर पीत-रंजक गुणयुक्त इसकी छाल को भी कोई चर्मकार चमड़ा रंगने के लिए उतार लेगा । तब चरितार्थ जीवन यह बिरछा पीलिया के रोगी की तरह प्राण त्याग देगा और इसकी जर्जर काया ईंधन के रूप में काम आएगी । ‘देहे पित्तं गेहे वित्तं चित्ते हरि’ श्रेष्ठ उपलब्धियाँ हैं । बड़ों ने कहा है तो सच ही होगा । पर इन उपलब्धियां के साथ चिरायुष्य का मेल ‘देहे पित्तं’ वाले अमलतास में तो नहीं बैठता । हो सकता है अमलतास अपने सुकृति जीवन से संतुष्ट हो, पर उसे चाहने वालों को तो उसके अकाल काल कवलित होने का दु:ख सालता ही रहेगा । 

भगवान पतंजलि ने योग सूत्रों की रचना द्वारा चित्त के दोषों को, व्याकरण द्वारा वाणी के दोषों को, चरक की रचना द्वारा शरीर के दोषों को दूर करने का प्रशंसनीय कार्य किया है । वे महान ऋषि थे । इस दृष्टि से अमलतास ‘ऋषि पादप’ उपाधि का अधिकारी है । वह रूप, रस, गंध का दाता है । उसके दर्शन से चित्त प्रसाद और मधुस्यन्दी पुष्पों से रसना तृप्त होती है । आंखें उसे देखते नहीं अघातीं, उसकी भीनी गंध में बड़ा आकर्षण है । उसकी मंजरियों पर गूंजते भौंरे किसी रहस्यमय वार्तालाप का आभास कराते हैं । उसकी मृदु मंजरी का स्पर्श रोमांचकारी है । पर हाय ! बेचारे के ये गुण ही प्राणलेवा बन गए हैं । 

सन्दर्भ: ‘अमलतास के फूल’’; ललित निबंध पुस्तक; पुस्तकायन; प्रथम संस्करण - 1985; पृष्ठ 5-10)



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वृक्ष-विज्ञानी डॉ. जगदीशचंद्र वसु 

‘वृक्ष मध्यरात्रि को सो जाते हैं और आधुनिक लोगों की तरह सूर्योदय के बाद उठते हैं । ’ 

‘मादक पेय वृक्षों पर भी वैसा ही प्रभाव डालते हैं, जैसा अन्य प्राणियों पर और विष जितनी देर में किसी प्राणी को मारता है, उतनी ही देर में वृक्षों को भी । ’ 

ये चौंकाने वाली बातें सन् 1901 में वनस्पति विज्ञानी डॉ वसु ने जब वैज्ञानिक जगत के सामने रखीं तो हलचल मच गई । 



जगदीशचंद्र वसु का जन्म 30 नवम्बर, 1858 में ढाका जिले के (अब बंगलादेश में) विक्रमपुर कसबे के पास राढ़ी खाल नामक ग्राम में हुआ था । इनके पिता भगवानचन्द्र वसु उस जमाने में डिप्टी कलक्टर थे और यह बड़ी प्रतिष्ठा का पद समझा जाता था । 

जगदीशचंद्र वसु की प्रारंभिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में ही हुई थी । उनके पिता ने जान-बूझकर उन्हें किसी अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश नहीं दिलाया था । जगदीशचंद्र वसु ने स्वयं लिखा है : “मेरे पिता ने मुझे बंगला पाठशाला में भेजा जबकि मेरे पिता के अधीन कर्मचारी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में भेजते थे । इस पाठशाला में मुझे उन लोगों के लड़कों के साथ रहने का अवसर मिला, जो जमीन तोड़कर उस पर फसलें उगाते थे । वहां मुझे मछुआरों के लड़कों से नदियों में रहने वाले भयंकर जीव-जंतुओं की रोमांचकारी कहानियां सुनने को मिलीं, जिनसे मुझे सच्चे पौरुष का पहला पाठ मिला । बचपन में पुराने ढंग की पाठशाला में पढ़ने का परिणाम यह हुआ कि मैंने अपनी भाषा सीखी, अपने ढंग से सोचना सीखा और सीखा अपनी राष्ट्रीय संस्कृति का पहला पाठ । वहां मैंने अपने को दूसरों के बराबर समझना और झूठे बड़प्पन से दूर रहना सीखा । ” 

गाँव की पाठशाला की शिक्षा समाप्त करके जगदीशचंद्र वसु कलकत्ता चले गए और यहाँ से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की । बाद में डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए किन्तु शवों की चीर-फाड़ करते समय, दुर्गन्ध को न सह सकने के कारण डाक्टरी की पढ़ाई छोड़नी पड़ी । फिर उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय से बी.एस.सी की उपाधि ली और भारत लौट आए । 

जगदीशचंद्र वसु की अस्थाई नियुक्ति प्रेसीडेंसी कालेज कलकत्ता में भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक के रूप में हो गई पर उन्हें बहुत कम वेतन दिया गया । वसु महोदय ने, दूसरे प्राध्यापकों के मुकाबले में उन्हें कम वेतन दिया जाने के विरोध स्वरूप वेतन लेना अस्वीकार कर दिया । तीन वर्ष तक डॉ वसु बिना वेतन लिए बड़ी लगन से छात्रों को विज्ञान पढ़ाते रहे । अंत में विजय उनकी ही हुई । अधिकारीयों को झुकना पड़ा और तीन साल का पूरा वेतन एकसाथ मिल गया । 

प्रेसीडेंसी कालेज की प्रयोगशाला में अच्छे उपकरणों और यंत्रों का अभाव था । डॉ वसु के बार-बार जोर देने पर भी सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही थी । अंत में उन्होंने सरकारी रवैये से निराश होकर 1893 ई. में अपनी निजी प्रयोगशाला स्थापित करने का निश्चय किया । उनके पास पर्याप्त धनराशि तो नहीं थी परन्तु संकल्प की दृढ़ता के कारण सीमित साधनों से प्रयोगशाला प्रारम्भ हो गयी । 

वसु महोदय ने अपनी प्रयोगशाला के कामचलाऊ उपकरण स्थानीय कारीगरों से ही बनवाने का निश्चय किया । उनका पहला यंत्र विद्युत्-तरंगों की खोज के लिए था । उन्होंने विद्युत् चुम्बकीय तरंगों के गुणों का अध्ययन करना प्रारम्भ किया । ये वे तरंगे थी जिनसे रेडियो द्वारा ध्वनि प्रसारित की जाती है । 

1895 ई. में एशियाटिक सोसायटी के जनरल में उनका पहला शोध-पत्र प्रकाशित हुआ । एशियाटिक सोसायटी में उनका भाषण भी हुआ किन्तु उपयुक्त यंत्रों के अभाव में अपनी बात समझाने में उन्हें काफी कठिनाई हुई । इसी वर्ष उन्होंने बेतार द्वारा बिजली के संकेतों को भेजने का प्रदर्शन, बंगाल के तत्कालीन गवर्नर की उपस्थिति में कलकत्ता के टाउन हाल में करके दिखाया । उन्होंने दूसरे कमरे में बिजली की घंटी बजाकर दिखाई, एक भारी बोझ को सरकाया और विस्फोट करके दिखाया । ये कार्य अदृश्य विद्युत तरंगों द्वारा किए गए थे । संसार में चुम्बकीय तरंगों द्वारा सन्देश भेजने और कार्य कर दिखाने का यह सर्वप्रथम प्रदर्शन था । 

रॉयल सोसायटी को जब जगदीशचंद्र वसु की खोजों का पता लगा तो सोसायटी के अधिकारियों ने उनकी खोजों का विवरण प्रकाशित करने और उनकी सहायता करने का वचन दिया । इसी वर्ष विद्युत के सम्बन्ध में उन्होंने अपने दो शोधपूर्ण लेख ‘इलेक्ट्रीशियन’ नामक पत्रिका में प्रकाशित किए । 1896 में उन्हें लन्दन विश्वविद्यालय से डी. एस. सी. की उपाधि प्रदान की । 

डॉ जगदीशचंद्र वसु के बेतार द्वारा सन्देश भेजने के प्रदर्शन के कुछ समय बाद इटली के वैज्ञानिक मारकोनी ने इस विधि में सफलता प्राप्त कर ली । 

1896 में डॉ वसु को बंगाल सरकार ने लन्दन भेजा । वहां उन्होंने उपकरणों द्वारा अपनी खोजों का प्रदर्शन किया । इंग्लैंड के इलावा फ्रांस और जर्मनी में भी उन्होंने अपनी खोजें प्रदर्शित कीं । 

1901 ई. में जब डॉ वसु दुबारा इंग्लैंड गए और रॉयल सोसायटी में अपने उपकरणों का प्रदर्शन किया तो एक बड़े उपकरण-निर्माता ने डॉ वसु से उपकरणों के निर्माण का अधिकार प्राप्त करने के लिए अनुबंध करना चाहा पर डॉ वसु ने अस्वीकार कर दिया । 

बिजली की तरंगों का अध्ययन करते समय एक महत्त्वपूर्ण बात की ओर वसु महोदय का ध्यान आकर्षित हुआ । बिजली की धारा के स्पर्श से प्राणियों को करंट लगता है । वसु अपने परीक्षणों द्वारा इस परिणाम पर पहुंचे कि बिजली की धारा को छूने से यह प्रतिक्रिया केवल प्राणियों में नहीं, जड़ पदार्थों में भी होती है । इससे जड़ और चेतन की एकता पर उनका ध्यान गया । इस दिशा में और परीक्षण करने पर पता चला कि विद्युत् तरंग को ग्रहण करने वाले द्रव्यों में कुछ समय तक बराबर काम करते रहने से थकान-सी आ जाती है । परिणामस्वरूप उन द्रव्यों की तरंग ग्रहण करने की शक्ति धीरे-धीरे कम होती जाती है । परन्तु यदि उन्हें कुछ देर सुस्ताने दिया जाय, उन पर काम न किया जाए तो उनकी शक्ति फिर लौट आती है । इन परीक्षणों से जड़-चेतन की एकता की धारणा और दृढ़ होती गई और डॉ वसु इस परिणाम पर पहुंचे कि सभी पदार्थों में एक-सा ही जीवन प्रवाह विद्यमान है । बहुतिक जगत और आध्यात्मिक जगत के बीच समन्वय स्थापित करने का यह कार्य भारतीय मनीषियों की परंपरा का ही नए सिरे से और वैज्ञानिक पद्धति से अनुसरण था । यह सुनिश्चित हो गया था कि जड़ और चेतन के बीच कोई सुनिश्चित सीमा-रेखा नहीं खींची जा सकती । जगन्नाथ की मूर्ति जड़ नहीं, चेतन ही है । जडं पश्यति नो यस्तु जगत्पश्यति चिन्मयं । । (तत्त्वदर्शी इस जड़ जगत को मृणय न देखकर चिन्मय ही देखते हैं) । यह तत्त्वदर्शी की दृष्टि है । डॉ वसु ने लिखा है : “मैंने पहली बार अपने पूर्वज महर्षियों के उस सन्देश को किंचिन्मात्र समझा जो उन्होंने तीन हजार वर्ष पूर्व गंगा के तट पर दिया था । ” 

अब डॉ वसु ने अपनी शोध का क्षेत्र वनस्पति जगत को चुना । ‘पौधे बाहरी प्रभावों के प्रति क्या प्रतिक्रिया करते हैं’ इसे उन्होंने अपने विशेष अध्ययन का विषय बनाया । उन्होंने अनुभव किया कि प्राणियों और पौधों के स्नायुतंत्र में कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती । छुई-मुई के पौधे में तो उन्हें मानव-शरीर जैसी ही व्यवस्था दिखाई दी । इस नई शोध की सफलता का आधार मुख्य रूप से वह यंत्र था जो सूक्ष्म गति, सूक्ष्म संवेदन को भी आलेख के रूप में दिखा देता था तथा स्नायुओं की गति को भी बता देता था । डॉ वसु ने इस यंत्र को ‘रेजोनैंट रिकॉर्डर’ नाम दिया था । 

डॉ वसु ने प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया कि प्राणियों की तरह ही पौधों में भी संवेदना को ग्रहण करने वाली इन्द्रियां अपनी प्रारंभिक विद्यमान हैं । डॉ वसु की दूसरी विदेश यात्रा के समय फ्रांस में विज्ञान-कांग्रेस का सम्मलेन होने वाला था । इस अवसर पर वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रदर्शन का भी आयोजन था । विज्ञान-कांग्रेस के आयोजकों ने डॉ वसु को भी निमंत्रित किया था । इस प्रदर्शनी में उन्होंने अपने उपकरण भी प्रदर्शनार्थ रखे । विज्ञान-कांग्रेस में उनका व्याख्यान भी हुआ । आश्चर्यजनक खोजों के कारण उन्हें ‘पूर्व का जादूगर’ कहा जाने लगा । 

इन्हीं दिनों स्वामी विवेकानंद भी पेरिस पधारे हुए थे । धर्मेतिहास सभा में उनका व्याख्यान हुआ था । यहीं पर डॉ वसु से स्वामी जी का परिचय हुआ । स्वामी जी ने डॉ वसु के सम्बन्ध में लिखा था “....... अनेक विद्वानों के बीच जिस एकमात्र युवा यशस्वी वीर ने हमारी मातृभूमि के गौरव की घोषणा की, वह वीर है विश्वविख्यात वैज्ञानिक डॉ जगदीशचंद्र वसु । ” उनकी वनस्पति जीवन सम्बन्धी खोजों को मान्यता देने के बारे में जब रॉयल सोसायटी ने स्वीकार नहीं किया तो डॉ वसु ने उन्हें मुंहतोड़ उत्तर देते हुए कहा, “विज्ञान की प्रगति के बारे में यह कहना कि वह यहाँ तक हो और इसके आगे न हो, बड़ी बेतुकी बात है । यह तो अवैज्ञानिक दृष्टिकोण है । जहाँ तक मेरे परीक्षणों का सम्बन्ध है, मैं उनके विरुद्ध तब तक कोई बात मानने को तैयार नहीं हूँ, जब तक वैज्ञानिक विधि से उनका खंडन नहीं किया जाता । ”

वैज्ञानिकों के इस पक्षपातपूर्ण और अवैज्ञानिक रवैये से डॉ वसु का मन यद्यपि क्षुब्ध हुआ पर वे हताश नहीं हुए । सच तो यह है कि इस विरोध ने डॉ वसु में नई शक्ति का संचार किया । डॉ वसु ने गूंगे वनस्पति-जगत को वाणी दी और उसके सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, निद्रा-जागरण तथा अनुकूल-प्रतिकूल प्रतिक्रिया के संवेदनों को प्रत्यक्ष कर दिखाया । ‘रेजोनैंट रिकॉर्डर’ के बाद उनका दूसरा आश्चर्यजनक यंत्र 1914 में तैयार हुआ । यह ‘अस्वीलेटिंग रिकॉर्डर’ था । इसके द्वारा बहुत ही छोटे पौधों के सूक्ष्म अवयवों में जीवन के स्पंदन का अंकन संभव हो गया । 

1914 में डॉ वसु अपने उपकरणों के साथ फिर विदेश-यात्रा पर गए । इस बार ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय, कैंब्रिज विश्वविद्यालय, रॉयल इंस्टिट्यूट और रॉयल सोसायटी में भी उनके व्याख्यान हुए । उपकरणों के द्वारा उन्होंने अपने शोध के परिणाम प्रदर्शित कर दिखाए । राष्ट्रसंघ (लीग ऑफ़ नेशन्स) ने उन्हें वैज्ञानिक कार्यों की एक विशेष समिति का सदस्य मनोनीत किया । 1915 ई में स्वदेश लौटने पर सर्वत्र उनका स्वागत अभिनन्दन हुआ । कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. एस. सी. की उपाधि से सम्मानित किया । 

1915 ई. में वे कॉलेज से सेवामुक्त हुए । 1916 ई. में बंगाल सरकार ने उनका सार्वजानिक अभिनन्दन किया और बाद में ‘सर’ की उपाधि दी । भारत सरकार पहले ही उन्हें सी. आइ. इ. की उपाधि से सम्मानित कर चुकी थी । 

1917 ई. में उन्होंने ‘वसु विज्ञान मंदिर’ की स्थापना की । इसी वर्ष क्रेस्कोग्राफ नामक यंत्र का आविष्कार किया । जिसकी सहायता से पौधों की बढ़वार की गति को नापा जा सकता था । 

1919 ई. में जब प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो गया तो डॉ वसु फिर विदेश-यात्रा पर निकले । इस बार उनके नए यंत्र क्रेस्कोग्राफ की सब जगह प्रशंसा हुई । 

सन 1920 में रॉयल सोसायटी ने उन्हें अपना सदस्य बना लिया । विज्ञान-जगत का यह सबसे बड़ा सम्मान था । कुछ समय बाद डॉ वसु ने अपना चौथा यंत्र ‘मैग्नेटिक क्रेस्कोग्राफ’ भी पूरा कर लिया । इसके द्वारा पौधों के भीतर के काष्ठ-रंध्रों में होने वाली क्रियाओं को जाना जा सकता था । पौधों के हृदय की धड़कन इस यंत्र द्वारा अंकित हो जाती थी । 

1922 में डॉ वसु फिर विदेश-यात्रा पर गए । इस बार वियना, जिनेवा और वापसी पर मिस्र गए । मिस्र के शाह ने अपने मंत्रिमंडल सहित उनका स्वागत किया । 

कवीन्द्र रवींद्र से उनकी प्रगाढ़ मैत्री थी । डॉ वसु ने अपनी बंगला रचना ‘अव्यक्त’ कवीन्द्र को समर्पित की थी । कवीन्द्र ने भी डॉ वसु की प्रतिभा की प्रशंसा में कविता लिखी थी । कवीन्द्र रवींद्र की बंगला कविता के एक अंश का हिंदी रूपांतर : 

तुमने वाणी दी अशब्द को, वन के मर्म-बसी हर 

गहन वेदना सुनी विजन में बैठ, करुण वह क्रंदन 

जोकि निरंतर निर्वाणी निवन का बनता स्पंदन 

मातृवृक्ष में धरणी के, उठकर अंकुर-अंकुर में 

शत-शत व्याकुल डालें, फैला पत्र-पत्र के डर में 

बेचैनी भर मूल-मूल में जीवन द्वंद्व निरत है 

सहसा तुम पर खुला भेद, उसका अद्भुत लिपिवत है । 

जॉर्ज बर्नार्ड शा ने अपनी सारी रचनाएँ उन्हें भेंट करते हुए लिखा था : 

‘एक नई दुनिया का द्वार खोलने वाले को । ’ 

महान वैज्ञानिक प्रो. आइंस्टीन ने उनकी प्रशस्ति में कहा था : “डॉ वसु का एक-एक कार्य इतना महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक के लिए विजय स्तम्भ स्थापित किया जाना चाहिए । ” 

1927 ई. में भारतीय विज्ञान-कांग्रेस के लाहौर में हुए अधिवेशन की अध्यक्षता डॉ वसु ने की । 

1 दिसंबर 1928 में उनकी सत्तरहवीं वर्षगांठ समारोहपूर्वक मनाई गई । देश के गणमान्य विद्वान और वैज्ञानिक उसमें सम्मिलित हुए । संसार के कोने-कोने से बधाई सन्देश आए । ‘पूर्व का जादूगर’, ‘एशिया का गौरव’, ‘पूर्व की आध्यात्मिकता और पश्चिम की भौतिकता में समन्वय के साधक’, ‘जड़-चेतन में व्याप्त एक ही सत्ता के मंत्र का द्रष्टा आधुनिक ऋषि’, ‘गूंगे वनस्पति जगत को वाणी देने वाला’ आदि अनगिनत प्रशस्तियाँ की गईं । 

इस अवसर पर उन्होंने सन्देश में एक बड़े ही महत्त्व की बात कही थी : ‘विज्ञान को आत्मज्ञान का साधन बनाने से ही संसार की रक्षा हो सकती है । ’ 

सन 1937 के नवम्बर की 23 तारीख को उनासी वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया । 

उनका जीवन प्रकाश पुंज था । 

सन्दर्भ: ‘अमलतास के फूल’’; ललित निबंध पुस्तक; पुस्तकायन; प्रथम संस्करण - 1985; पृष्ठ 63-71)

सर जगदीश चंद्र वसु द्वारा अविष्कारित यंत्रों के छाया चित्र


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आलेख

डॉ.निशा नंदिनी भारतीय, असम, मो. 9435533394


फूलों की तरह जिएं

फूल पवित्रता और शुद्धता के प्रतीक माने जाते हैं इसलिए देवताओं को यह खूब भाते हैं । 

फूलों से हम काँटों के बीच भी खिलना सीख सकते हैं । दूसरों को सुगंध बाँटना सीख सकते हैं । लोगों की भावनाओं को समझते हुए... विभिन्न अवसरों पर अपनी उपयोगिता सिद्ध करना सीख सकते हैं । 

महात्मा बुद्ध ने एक बार कहा था कि "अपने काम से समय निकाल कर कभी-कभी हम फूलों को ध्यान से देख सकते हैं । यदि हम फूल के गुणों को समझ जाएं तो हमारा पूरा जीवन बदल सकता है । हमें खुशियां मिल सकती हैं । " 

सचमुच हमें फूलों की तरह खिलना चाहिए । हर परिस्थिति में खुश रहने की कोशिश करनी चाहिए । इससे सफलता ना मिलने के बावजूद भी हम खुश रहना सीख सकते हैं । हमारी जिंदगी फूल की एक कली की तरह है जो हमेशा फूल की तरह खिलकर खुश होना चाहती है । 

प्रकृति का प्रत्येक फूल खिलता है । खिलकर वह हम इंसानों को जीवन के कई सबक देता है । प्रेम और धूप के बिना न तो फूल खिल सकते हैं और न हम खुश रह सकते हैं । जब भी समय मिले लॉन में अपने खिले हुए फूलों को देखें । चाहे हम कितना भी स्ट्रेस में क्यों न हों...कांटों से ढके होने के बावजूद भी फूलों को देखकर हमारा मन खुश और प्रसन्न हो जाता है । उदास और थके होने के बावजूद भी फूलों की एक झलक ताजगी का एहसास करा देती हैं । यह हमारे वातावरण को शुद्ध करके हमें स्वस्थ भी रखते हैं । 

फूल कई अलग-अलग सुंदर और आकर्षक रंगों वाले होते हैं । उनकी कोमल और मुलायम पंखुडियां गर्मी,ठंढ और बरसात झेलने के बावजूद वैसी ही बनी रहती हैं । मौसम की मार झेलने के बावजूद भी पंखुडियां कठोर नहीं होती हैं । फूल हमें सिखाते हैं कि हमारे आसपास के लोग चाहे हमारे साथ कितना भी बुरा व्यवहार करें । हमें अपने मूल स्वभाव को कभी नहीं छोड़ना चाहिए । किसी भी प्रकार के तनाव का सामना करने पर अवसाद, क्रोध जैसे नकारात्मक भाव से ग्रस्त नहीं होना चाहिए । 

नाजुक होते हुए भी फूल हमेशा हमारे दिलों में अनमोल जगह बनाने में कामयाब रहते हैं । उनकी सौम्यता और सुगंध हमारे रोजमर्रा के जीवन पर अपना प्रभाव छोड़ती है । फूल देखते ही हम खुश हो जाते हैं । दुनिया में सबसे अच्छा काम दूसरों को खुशी देना है । जब हम दूसरों के चेहरे पर मुस्कान का कारण बनते हैं...तब हमें पूर्णता का एहसास होता है । दूसरों के लिए खुशी का स्रोत बनने पर ही हम वास्तव में खुश हो सकते हैं । 

एक फूल में कई गुण होते हैं जिन्हें हम सब अपने जीवन में उतार सकते हैं । फूल हर तरह के प्राकृतिक परिवेश में खिलते हैं । वह हर जगह खिल सकते हैं । वे सोसाइटी कंपाउंड में खिल सकते हैं । वे सामान्य से ग्राउंड में भी खिल सकते हैं । वह अपनी सुंदरता सभी के साथ साझा करते हैं । वह व्यक्ति-व्यक्ति के बीच अंतर नहीं करते हैं । वह सभी के साथ समानता का व्यवहार करते हैं । 

आपने देखा होगा कि ऊंचे पहाड़ों और चट्टानों की छोटी-छोटी दरारों में भी फूल खिल जाते हैं । छोटे-बड़े गमलों और बगीचों में भी फूल खिलते हैं । सकारात्मक वातावरण और उचित पोषण फूलों के विकास को बढ़ाता है लेकिन इसकी कमी फूलों को बढ़ने से नहीं रोकती है । कमल कीचड़ में खिलता है लेकिन इसके फायदे अनेक हैं । फूलों की तरह ही हर परिस्थिति में हमें आगे बढ़ते रहना चाहिए । 

कुछ फूलों में कांटे भी होते हैं । ये कांटे उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं । यदि कोई अनुचित ढंग से फूलों को तोड़ता है तो कांटे उसके हाथों में चुभ जाते हैं । इसके माध्यम से फूल हमें सीख देते हैं कि प्यार जरूर बाँटें, विनम्र व्यवहार रखें... लेकिन जहां जरूरी हो, विरोध अवश्य करें । अपनी बात स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करें । 

फूल हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग हैं और यह न केवल हमारे आसपास की सुंदरता को बढ़ाते हैं बल्कि पोषण और औषधीय उपयोग के लिए भी इस्तेमाल होते हैं । सुंदर से दिखने वाले कई तरह के फूलों में त्वचा की समस्याओं से लेकर कई तरह के संक्रमण तक को ठीक करने की शक्ति होती है । 

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सुंदरता और सुगंध से भरपूर फूलों के प्रयोग से हमारी हर मनोकामना पूरी हो सकती
है । वास्तु के अनुसार पेड़-पौधों में देवताओं का वास माना जाता है । कई पौधे घर में सकारात्मकता के लिए लगाए जाते हैं जिससे घर परिवार में खुशहाली आती है । फूल हमारी श्रद्धा और भावना का प्रतीक हैं । 

हमारे जीवन में चाहे कितने भी उतार-चढ़ाव आएं...एक फूल की तरह खिले रहना चाहिए । खुशियां फैलाकर जीवन को सही तरह से जीना चाहिए । 

फूल हमारे सच्चे साथी

देते खुशियों की सौगात । 

स्नेह प्रेम लुटाते सब पर

कभी नहीं करते आघात । 


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कहानी


सुश्री दीपक शर्मा, लखनऊ, मो. 9839170890


मुरादों के दिन

उन दिनों मेरे पिता एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में ट्रक ड्राइवर थे और उस दिन मालिक का सोफा-सेट उसके मकान में पहुँचाने के लिए उनके ट्रक पर लादा गया था । 

मकान में उसे पहुँचाते समय उन्होंने अहाते से मुझे अपने साथ ले लिया । अहाता भी इसी मालिक का था जहाँ उसके मातहत रहा करते । 

’’मुकुन्द?’’ मालिक के फाटक पर तैनात रामदीन काका ने मुझे देखकर संदेह प्रकट किया । 

हम अहाते वालों को मकान में दाखिल होने की आज्ञा नहीं थी । 

’’बालक है । बाल-मन में मालिक का मकान अंदर से देखने की इच्छा उठी है’’, आठवें वर्ष की मेरी उस आयु में मेरे पिता मेरा कोई भी कहां बेकहा नहीं जाने देते । और उन दिनों मुझ पर इस मकान का भूत सवार था । 

’’ठीक है’’, रामदीन काका ने फाटक से सटे अपने कक्ष के टेलिफोन का चोंगा उठा लिया, ’’मैं अंदर खबर कर देता हूँ मगर ध्यान रखना, मुकुन्द बराबर तुम्हारे साथ ही बना रहे । इधर-उधर अकेले घूमता हुआ कहीं न पाया जाए....’’

’’बिल्कुल मेरे साथ ही रहेगा...’’

सोफा-सेट मकान के परःसंगी प्रकोष्ठ में पहुँचाया जाना था और ट्रक उसके द्वार मण्डप (पोर्च) का रास्ता न पकड़कर उसकी बायीं वीथी की तरफ मुड़ लिया । 

ट्रक रूका तो दो टहलवे तत्काल हमारी ओर बढ़ आए । 

’’फरनीचर के साथ यह कौन लाए हो?’’ वे उत्सुक हो लिए । 

’’मेरा बेटा है-’’

’’इकलौता है? जो उसे ऐसा छैला-बांका बनाकर रखे हो?’’ एक टहलवा हंसा । 

’’हाँ’’, मेरे पिता भी हँस पड़े, ’’इसकी माँ इसकी कंघी-पट्टी और कपड़ों की प्रेस-धुुलाई का खूब ध्यान रखा करती है...’’

’’कौन सी जमात में पढ़ते हो?’’ दूसरा टहलवा भी उत्साहित हो लिया । 

’’चौथी में’’, मेरे पिता ने मेरी पढ़ाई मेरे तीसरे ही साल में शुरू करवा दी थी । उस पर पढ़ाई में तेज़ होने के कारण मैं एक ’डबल प्रमोशन’ भी पा चुका था । 

’’हमारे साथ अंदर जाना, अकेले नहीं’’, मुझे चेताते हुए मेरे पिता ट्रक की पिछली सांकलें खोलने के लिए दूसरी दिशा में निकल लिए । 

सांकलें खुलते ही वे दोनों टहलुवे ट्रक की पिछली चौकी पर जा चढ़े । मेरे पिता के संग । 

इधर वे तीनों सोफा-सेट के संग हाथ-पैर मारने में व्यस्त हुए ,उधर मेरी जिज्ञासा मुझे मुख्य द्वार की ओर झांक रही गैलरी में ले उड़ी । 

गैलरी उस लाॅबी में मुझे पहुँचा गयी जिसके सामने वाली दीवार में एक टी.वी. चल रही थी । दो उपकरण से  संलग्न । बिना आवाज़ किए । 

मैं खड़े होकर टी.वी. देखने लगा । उस में एक साथ विभिन्न स्थलों के चित्र पर्दे पर चल-फिर रहे थे । कुछ पहचाने से और कुछ निपट अनजाने । उस समय मैं नहीं जानता था वह टी.वी. कोई साधारण टी.वी. नहीं थी । सी.सी.टी.वी. 

थी । क्लोज्ड सर्किट टेलिविजन । जो अपने से संबद्ध कम्प्यूटर के माध्यम से मालिक के मकान के प्रवेश-स्थलों पर फिट किए गए कैमरों द्वारा उनकी चलायमान छवियां बटोरने तथा उन्हें सजीव प्रदर्शित करने के प्रयोजन से वहाँ रखी गयी थीं । 

’’तू यहाँ कैसे आया?’’ एक हल्लन के साथ मालिक के बेटे ने मुझे आन चौंकाया । 

हम सभी अहाते वाले उसे खूब पहचानते थे । उसकी उम्र तेरह और चौदह वर्ष के बीच की रही होगी मगर उसकी कद-काठी खूब लम्बी-तगड़ी थी । अपने छज्जे अथवा छत से हमारी ओर कंकर फेंकने का उसे अच्छा अभ्यास
था । 

’’आप लोग का फ़रनीचर ले कर आया हूँ’’, मैं ने आधी सच्चायी बतायी । 

’’फरनीचर वालों का बेटा है?’’

’’नहीं । ट्रक-ड्राइवर का....’’

"इस लद्दू का?’’ एक ठहाके के साथ उसने टी.वी. के एक कोने पर अपना हाथ फेरा । 

उस कोने में मेरे पिता ही थे: सजीव-सप्राण । 

मालिक के सोफा-सेट की बड़ी सीट को अपने कंधों की टेक देते हुए…

ट्रक की शैस-इ की पार्श्वव भुजा के खुले सिरे पर…

बाहर वाले उन दो टहलुवों के संग उसे नीचे उतारने की सरगरमी के बीच…. 

पिता की श्रमशीलता का व्यावहारिक एवं मूर्त रूप मैं पहली बार देख रहा था... 

उसके प्रत्यक्ष एवं ठोस यथार्थ को पूर्णरूप से पहली बार देख रहा था...

’’यही लद्दू तेरा बाप है?’’उसने एक और ठहाका छोड़ा । 

मेरे मुँह से ’’हाँ’’ की जगह एक सिसकी निकल भागी । अजानी घिर आयी उस किंकर्तव्यविमूढ़ता के वशीभूत । 

’’बाप लद्दू और बेटा उठल्लू?’’ उसके वज़नी स्पोर्टस शूज़ वाले पैर बारी-बारी से मुझे लतियाए । 

’’नहीं’’, मैं सहम गया," मैं ने कोई चोरी नहीं की । "

" सच बोल क्या चुराया है?" उस ने मेरे कानों पर अपने हाथ ला जमाए । 

’’कुछ नहीं...’’

’’तेरे कान नहीं मरोड़ूं?’’ उसने मेरे दोनों कान ज़ोर से उमेठ दिए । 

’’नहीं...’’

उसके हाथ मेरे कानों से अलग होकर नीचे मेरे कंधों पर आन खिसके । 

’’मैं बाहर जाऊँगा....’’ मैं ने कहा । 

"कैसे जाएगा?" मेरे कंधे छोड़कर उसने मेरी गरदन पकड़ ली । 

नितांत अनिश्चित वैसी आग्रही निष्ठुरता मैंने अभी तक केवल छद्मधारणा ही में देखी-सुनी थी: अपने अहाते एवं स्कूल के अन्य जन-जीव के संग । या फिर फिल्म एवं टीवी पर । व्यक्तिगत रूप में कभी झेली नहीं थी । बल्कि शारीरिक स्पर्श भी जब जब मुझे दूसरों से मिला था तो लाड़- प्यार ही के वेश में मिला था, हृदयग्राही एवं मनोहर । । स्कूल में अध्यापकों की थपथपाहट के रूप में तो घर में माँ एवं पिता के चुम्बन अथवा आंलिगन के बझाव में । ऐसे कभी नहीं । 

’’सौरी बोलकर जा सकता हूँ?" स्कूल में अध्यापक द्वारा दिए जा रहे दंड से बचने हेतु अपने सहपाठियों की युक्ति मैं परीक्षण में ले आया । 

’’अंग्रेजी जानता है?’’ उसके हाथ मेरी गरदन मोड़कर उसे नीचे की ओर ले आए, ’’फिर अपने जूते के ये अंगरेजी अक्षर पढ़कर बता तो...’’

’’ए बी आई बी ए एस...’’ घुट रहे अपने दम के साथ मैंने वे अक्षर पढ़ दिए । 

’’अब मेरे जूते के अक्षर पढ़...’’ मेरी गरदन उसके हाथों ने उसके जूतों की ओर मोड़ी । 

’’ए डी आई डी ए एस...’’

’’बी और डी का अंतर जानता है?’’ ऊधमी उसके हाथ मेरी गरदन छोड़कर मेरे बालों की मांग उलटने पलटने लगे......

मेरी टी-शर्ट की आस्तीन 

खींचने-मरोड़ने लगे…

मेरी निक्कर तानने-झटकने लगे….

’’मैं बाहर जाऊँगा’’, मैंने दोहराया । 

’’तू अभी नहीं जा सकता’’, उसने मेरा सिर अपनी छाती से चिपका लिया, ’’अभी एडीडैस और एबीबैस का अंतर तुझे समझाना बाकी है...’’

घबराकर मैंने अपनी निगाह सामने वाली टीवी पर जा जमायी । 

मालिक की बड़ी सोफा-सीट गैलरी में पहुँच चुकी थी । 

’’बप्पा’’ मैं चिल्ला दिया । 

’’मुकुन्द?’’ मेरे पिता तत्क्षण लौबी के दरवाजे पर आन प्रकट हुए । 

’’बप्पा’’, मैं सुबकने लगा । 

मुझे उस दशा में देखकर वे आपे से बाहर हो गए । 

और उस पर टूट पड़े । 

वेगपूर्वक । 

मालिक के सत्ता-तत्व से स्वतंत्र….. 

प्रथा-प्रचलित अपने दब्बूपन के विपरीत…. 

बढ़ रहे उस धौंंसिया के हल्ला- गुल्ला से बेपरवाह…..

कद-काठी और लम्बाई-चौड़ाई में मेरे पिता मालिक के बेटे से दुगुने तो रहे ही; मुझे उसके पंजों से छुड़ाना उनके लिए कौन मुश्किल रहा?

और अगले ही पल वह जमीन पर ढह लिया । 

औंधे मुँह । 

बिना अगला पल गंवाए मेरे पिता मेरी ओर बढ़े और मुझे अपनी बाहों में बटोर कर गैलरी में घुस पड़े । 

पूरे वेग से । 

उसी गैलरी में,जहाँ वह सोफा-सीट इधर लाते-लिवाते समय बीच रास्ते ही में टिका दी गयी थी । उन दो टहलुवों की संगति में । जो अपने को वहीं रोक लिए थे । बुत बनकर । 

उनका वेग हमें जल्दी ही फाटक तक ले आया जहाँ रामदीन काका खड़े थे । 

’’कहा था मैंने । मुकुन्द को अकेले अंदर मत जाने देना । दुर्गति होगी,’’ रामदीन काका की उतावली ने मेरे पिता की हड़बड़ी को घेरने की चेष्टा की । 

’’इसे अहाते पहुँचाकर अभी लौटता हूँ; बालक का बाल-हठ था, बीत गया । ’’

मेरे पिता ने हवा में अपना वाक्य छोड़ा और आगे बढ़ आए । 

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कहानी



सुश्री मुकुल रानी वार्ष्णेय, नई दिल्ली, मो. 9953571874


अपने भाग्य का खाती हूँ

बच्चो! सुनो एक कहानी तुम्हें सुनाऊँ...

एक राजा था । राजा के सात बेटियाँ थीं । राजा सातो बेटियों को बहुत प्यार करता था । एक दिन राजा ने सातों बेटियों को अपने पास बुलाया और उनसे पूछा कि तुम मुझे कितना प्यार करती हो और तुम किसके भाग्य का खाती हो?

इस पर बेटियाँ बड़े सोच में पड़ गयीं फिर सबसे बड़ी बेटी बोली पिता जी मैं तो आपके भाग्य का खाती हूँ । आप ही तो सब कुछ हमको देते हैं और मैं तो आप को मीठी-मीठी मिठाई के जैसा प्यार करती हूँ । राजा बड़ा ख़ुश हुआ । 

इसी प्रकार फिर दूसरी ने भी यही उत्तर दिया कि मैं तो आपके भाग्य का खाती हूँ और आपको मीठे-मीठे मधु की तरह प्यार करती हूँ । राजा और अधिक खुश हो गया । 

फिर तीसरी बोली लड्डु की तरह, चौथी बोली पेड़े की तरह, पाँचवीं बोली मिश्री की तरह, छठी बोली बर्फी की तरह । और सभी ने कहा कि वे राजा ही के भाग्य का खाती हैं । राजा खुशी से फूला न समाता रहा । 

अब आखिर में नम्बर आया सातवीं सबसे छोटी बेटी का । जिसे राजा सबसे ज्यादा प्यार करता था । 

राजकुमारी राजा की गोद में बैठी-बैठी बोली पिता जी मैं तो आपको नमक की तरह प्यार करती हूँ । और अपने भाग्य का खाती हूँ । 

इतना सुनना था कि राजा तो गुस्से से आग बबूला हो गया और उसने फिर से पूछा, पर राजकुमारी अपनी बात पर अड़ी रही कि वह नमक की तरह प्यार करती है और अपने भाग्य का खाती है । राजा और भी क्रोधित हो उठा और उसने मन्त्री को बुलाया । मन्त्री हाजिर हुआ और हाथ बाँधकर राजा की आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगा । राजा गुस्से में भुनभुनाता हुआ बोला मन्त्री कल सुबह-सुबह रास्ते पर जो भी सबसे पहले दिखाई पड़े उसी को यहाँ लेकर आओ इस एहसान फरामोश लड़की का विवाह उसी से करूंगा । फिर देखता हूँ कि कैसे ये अपने भाग्य का खाती है?

मन्त्री ने हाथ जोड़कर राजा को समझाया पर राजा को तो क्रोध चढ़ा था हारकर मंत्री दूसरे दिन सुबह-सुबह आदमी ढूँढने निकला । तो उसे चौराहे पर एक कोढ़ी दिखायी दिया। मन्त्री उसी को राजा के पास ले आया । ऐसे घिनौने गन्दे कोढ़ी को देख सारी बहनें और रानी रोने लगीं । राजा को समझाया पर राजा तो कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था । उधर छोटी राजकुमारी जरा भी दुखी नहीं थी । उसने उस कोढ़ी को एक टोकरी में रख और अपने सर पर उठा कर महल से बाहर निकल आयी । चलते-चलते दोपहर हो गयी तो वह एक तालाब के किनारे जंगल में पहुँच गयी ठंडक देख उसने टोकरी नीचे रखी और अपने कोढ़ी पति से बोली कि आप डरना नहीं मैं कुछ देर में खाने का बन्दोवस्त करके आती हूँ । और वह चली गयी । इधर अब कोढ़ी टोकरी में बैठा-बैठा चारों तरफ देख रहा था । 

अचानक उसने देखा कि तालाब से काले काले कौऐ नहा-नहा कर सफेद सफेद हँस बन-बन कर निकल रहे हैं । उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । काले काले कौऐ सफेद-सफेद हँस बन बन कर कैसे उड़े जा रहे हैं? उसके मन में ख्याल आया क्यों न मैं भी नहा कर देखूं ? और वह किसी तरह टोकरी से निकल कर सरकता-सरकता तालाब के पास पहुँच ही गया और उसने फिर तालाब में डुबकी लगा दी । आश्चर्य कि वह तो सचमुच एक स्वस्थ नौजवान बन कर निकल आया । उसका कोढ़ एकदम अच्छा हो गया और वह रूपवान सुन्दर राजकुमार बन गया । 

कुछ देर बाद जब राजकुमारी लौटी तो टोकरी खाली देख वह रोने लगी । तब दूर खड़ा कोढ़ी आया और बोला कि रोओ नहीं यह मैं ही हूँ और उसने सारा किस्सा राजकुमारी को सुनाया । तब राजकुमारी तो खुशी से पागल होने लगी । 

अब राजकुमारी और वह राजकुमार दोनों सोचने लगे कि जीवन चलाने के लिये क्या काम करे । आज के जैसा जमाना नहीं था कि कल कारखाने होते या बड़े-बड़े व्यापार होते । तब दोनों ने कुछ भी धन पास न होने के कारण जंगल से लकड़ी बीन-बीन कर शहर में बेचने का काम शुरु किया । ईमानदारी और मेहनत से लकड़ी का काम करते-करते उन्होंने अच्छा पैसा कमा लिया और फिर लकड़ी की बड़ी सी टाल बनाई । लोग दूर-दूर से उसकी लकड़ी लेने आते । धीरे-धीरे उनका काम इतना बढ़ गया कि वे वहाँ के सेठ जी कहलाने लगे । 

उन्होंने गरीब बच्चों के लिये स्कूल बनवाये, भूखे गरीबों को खाना खिलाने के लिये सदाव्रत चलाये । धर्मशाला बनवायी । इस प्रकार वे खूब प्रसिद्ध हो गये । और राजकुमारी उसी शान से रहने लगी थी जिस प्रकार वह अपने घमंडी पिता के यहाँ रहती थी । 

अब उधर का हाल सुनिये । राजकुमारी के पिता के ऊपर दुश्मनों ने चढ़ाई कर दी और राजा को हरा दिया । राजा अपनी छहों बेटियों, रानी और परिवार के साथ जंगल में भाग गया । उसके पास कुछ भी नहीं बचा था । न धन, न दौलत, न नौकर, ना चाकर । देश-देश भटकते-भटकते वह उसी नगर में आ गया जहाँ उसकी छोटी बेटी का राज चलता था । वहाँ वे लोग सदाव्रत में खाना खाने लगे और भीख माँगकर किसी प्रकार जी रहे थे । राजा रानी बूढ़े अंधे से हो गये । राजकुमारियाँ पहचानने में भी न आती थी । छोटी राजकुमारी सदाव्रत का मुआयना करने जाती थी कि व्यवस्था ठीक चल रही है या नहीं । एक दिन अचानक उसकी नजर अपने बूढ़े, मैले कुचले माँ बाप और बहनों पर पड़ी । उसे पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ फिर जब उसे यकीन हो गया कि हो न हो ये उसके ही माता-पिता और बहनें हैं वह चुपचाप चली आयी और फिर अपने मनेजर को बुलाकर उसने हुक्म दिया कि ये जो सारे लोग हैं इन्हें आदर से ठहराओ । नये वस्त्र दो, पूरी देखभाल करो । और मेरा नाम मत बताना । इन्हें किसी प्रकार का भी कष्ट नहीं होना चाहिए । 

अब तो राजा रानी और सारे परिवार के दिन फिर गये । अच्छे से अच्छा खाना मिलने लगा । अच्छे से अच्छा पहनने को और ऊपर से पूरा सम्मान भी मिलने लगा । तब राजा रानी और छहों बहनों में सलाह होने लगी कि कौन है जो हमारे लिये इतना कर रहा है । पर उन्हें किसी से पता नहीं चला । तब एक दिन छोटी राजकुमारी ने अपने मनेजर के हाथ अपने माता पिता के पास निमंत्रण भेजा । राजा रानी बड़े प्रसन्न हुये वे सोचने लगे कि अब पता चल जायेगा कि कौन हम पर इतनी दया कर रहा है?

निश्चित दिन पर राजा का पूरा परिवार छोटी राजकुमारी के महल पर पहुँच गया । राजकुमारी के मन्त्री और नौकर चाकरों ने खूब आदर सत्कार से उन्हें बिठाया पर राजकुमारी नहीं आयी । उसने अपने पिता की पसन्द का बढ़िया बढ़िया भोजन बनवाया । अनेकों व्यंजन बनवाये पर नमक किसी में नहीं डाला । बिना नमक का फीका भोजन बिना स्वाद का ही बनवाया । 

राजकुमारी ने राजा की पसन्द के अनुसार ही बैठने की व्यवस्था की और सभी कुछ राजा की रुचि के अनुसार ही किया अब राजा यह सब देख कर आश्चर्य में पड़ गया । खैर अन्त में सब लोगों को भोजन के लिए बैठाया गया । ऐसा ठाठ वाट देख कर और जाना पहचाना तौर तरीका देख कर राजा बड़े पशो पेश में पड़ा था । खैर सबने भोजन किया । भोजन समाप्त होने पर राजकुमारी के आदमियों ने पूछा कि महाराज भोजन कैसा लगा? पसन्द आया । अब राजा क्या कहे आखिर में वह बोला कि भई भोजन तो बहुत बढ़िया था और अनेकों तरीकों का बना था पर नमक नहीं था । भाई बुरा मत मानना बिना नमक के भोजन स्वादिष्ट होकर भी फीका होता है । नमक भोजन की जान होता है । तब पर्दे के पीछे खड़ी राजकुमारी यह सुनकर सामने आयी और बोली पिता जी यह मैं हूँ । अब आपको समझ में आया कि नमक के जैसा मैंने क्यों कहा था? और आपने तो कोढ़ी के साथ मुझे बाँधकर घर से निकाल दिया था । आज जो यह ठाट वाट धन दौलत आया देख रहे हैं यह मेरी अपनी मेहनत का और भाग्य का फल है । मैंने इसलिए कहा था कि मैं अपने भाग्य का खाती हूँ । कोई किसी के भाग्य का नहीं खाता । 

यह देख सुन राजा बड़ा दुःखी हुआ । पछतावा करके सब राजा, रानी बहनें और रोने लगे । 

बच्चों—फिर सब मिलकर खुशी-खुशी से रहने लगे । कुछ दिन बाद राजा ने परिश्रम करके फिर अपना राजपाट वापस कर लिया और अपनी गलती समझ गया । 

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कहानी



सुश्री मुकुल रानी वार्ष्णेय, नई दिल्ली, मो. 9953571874

ज्ञान पाण्डे

एक गाँव में एक परिवार रहता था । पति पत्नी और उनका बेटा । बेटे की शादी हो चुकी थी और उसकी पत्नी अपने मायके गयी हुयी थी । तब एक दिन वह अपनी पत्नी को लाने के लिये ससुराल चला । लड़के की माँ ने लड़के से कहा कि जहाँ शाम हो जाय वही सो ज्ञाना । आगे मत ज्ञाना । लड़के ने कहा ठीक है । रास्ते में जंगल पड़ा । वह जंगल पार कर ही रहा था कि आँधी पानी आ गया । ऐसे में उसकी ससुराल के धोबी का गधा भटकता हुआ जंगल में आ पहुँचा । लड़का आँधी पानी रुकरने का इंतजार करने लगा उसने गधे की इधर-उधर भटकते देखा तो एक पेड़ से बाँध दिया और फिर आगे ससुराल को चल दिया । वह ससुराल के पिछवाड़े पहुँचा ही था कि सूरज छिप गया रात हो गयी । अपनी माँ के कहे अनुसार वह वहीं सो गया । उस समय छत पर उसकी ससुराल के लोग खाना खा रहे थे । उसकी सास किसी से पूछ रही थी पूड़ी लोगे, किसी से पूऐ लोगे, पूछ रही थी । लड़के को यह सब सुनायी दे रहा था । दूसरे दिन सुबह सुबह लड़का ससुराल पहुँच गया । सास उसकी आश्चर्य में आकर बोली अरे जमाई जी इतनी जल्दी आ गये? कब चले? कब आये ? वह बोला हाँ मुझे पता है मैं तो जभी आ गया था । जब आप पूये पूड़ी खिला रही थी रात को । सास सकते में आ गयी कि इन्हें कैसे पता कि हमारे यहाँ पूड़ी पूये बने थे । खैर जमाई की खूब खातिरदारी होने लगी । यह बात गाँव भर में फैल गयी । और लोगों ने लड़के को ज्ञान पाण्डे नाम रख लिया । जिसे सब बातों का पता चल जाता है । तभी गाँव के धोबी का गधा खो गया जो दो दिन से नहीं मिल रहा था । लोग बोले ज्ञान पाण्डे के पास चलो वह जरूर मन्त्र पढ़ कर बता देगा । धोबी लड़के के सास स्वसुर के घर आया और गधा खो ज्ञाने की बात बतायी । अब लड़का क्या करता उसे याद आया कि हाँ एक गधा वह जंगल में पेड़ से बाँध तो आया था । अब तक लड़का भी चलाक हो गया था । उसने झूठ झूठ को मन्त्र पढ़ने का नाटक किया और बोला ‘‘फलाने फलाने जंगल में गधा पेड़ से बँधा हुआ है । फिर क्या था सारे लोग उस जंगल को दौड़े तो देखा कि सचमुच ही गधा बँधा हुआ खड़ा था । अब तो लड़के की जय जयकार होने लगी । गाँव के राजा तक खबर पहुँच गयी । तभी क्या हुआ कि राजा की रानी का नौलखा हार चोरी हो गया । ढूँढ-ढूँढ कर सब हार गये पर हार तो मिल ही नहीं रहा था । तब रजा ने हुक्म दिया कि ज्ञान पाण्डे को बुला कर लाओ वही बतायेगा । राजा के सिपाही लड़के को बुलाने आ पहुँचे । हँसी हँसी में इतनी बड़ी बात झुठ मूठ को बन गयी । लड़का कोई ज्ञान पाण्डे नहीं था । डर के मार लड़का ना भी नही कह सकता था । वह सिपाहियों के साथ राजा के यहाँ गया । राजा बोला देखो रानी का नौलखा हार खो गया है या चोरी हो गया है तुम बताओ नहीं तो तुम्हें फाँसी लगेगी । लड़का बोला महाराज मुझे कुछ समय दीजिये राजा बोला ठीक है । 

अब लड़का परेशान क्या करे? समय पर उसे बताना ही था । इधर का हाल सुनिये राजा के महल में एक निंदिया नाम की नौकरानी थी उसी ने रानी का हार चुराया था । जब उसे पता चला कि राजा ने यह काम ज्ञान पाण्डे को सौंपा है तब तो वह बहुत ही डर गयी । उसे विश्वास हो गया कि वह अब पकड़ी जायेगी तो उसने खुद ही ज्ञान पाण्डे क पास जाकर कबूल करने में भलाई समझी । निश्चित दिन से एक दिन पहले लड़का नींद का मारा शाम को तालाब के किनारे लेटा लेटा नींद बुला रहा था क्योंकि चिन्ता के मारे उसे नींद नहीं आ रही थी सो वह लेटा-लेटा गा रहा था ‘‘आजारी निंदिया, आजा नही तो कल कटेगी गरदनियाँ बार-बार कल कटेगी गरदनियाँ-गरदनियाँ गा रहा था । निंदिया नौकरानी इसी समय ज्ञान पाण्डे को ढूँढते-ढूँढते वहीं पहुँच गयी जहाँ वह गा रहा था । आजा री निंदिया, आ जा नहीं कल कटेगी गरदनियाँ । यह सुन निंदिया नौकरानी ने ज्ञान पाण्डे के पैर पकड़ लिये और खुशामद करने लगी कि पाण्डे जी मुझे बचा लीजिये । बताइये ये हार का क्या करूँ ? क्षण भर में लड़के को सब समझ में आ गया । उसने नौकरानी को खूब डराया और फिर कहा कि ऐसा कर कि तू महल में चूहे के बिल में हार छुपा दे बाकी मैं देख लूंगा । 

निंदिया नौकरानी ने जाकर चुपचाप हार महल के एक चूहे के बिल में डाल दिया । लड़के को भी ज्ञान में ज्ञान
आयी । इस रात वह खूब सोया । दूसरे दिन वह तैयार हो कर राजा के दरबार में पहुँचा । राजा ने पूछा- पता चला या नहीं तब लड़के ने वही मन्त्र पढ़ने का नाटक किया और बोला महाराज हार आपके महल ही में किसी चूहे के बिल में पड़ा है । 

तब स्वयं राजा मंत्री और नौकर चाकर सब मिलकर महल में ढूँढने चले उसमें निंदिया दासी भी थी । उसे तो पता ही था । आखिर में चूहे के बिल में हार मिल गया । राजा बड़ा प्रसन्न हुआ । इतना कीमती नौ लाख का हार था । राजा ने प्रसन्न होकर लड़के को खूब इनाम में हीरे मोती दिये और उसकी हाथी पर सवारी निकाली । लड़के को ससुराल में कई दिन हो गये थे । वह भी इनामों से लहा फंदा अपने गाँव को चला । और इज्जत से खुशी-खुशी रहने लगा ।  

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कहानी



सुश्री मुकुल रानी वार्ष्णेय, नई दिल्ली, मो. 9953571874

भुल्लकड़

एक बुढ़िया थी उसका एक बेटा था । बेटा दिमाग का भूला था । वह भूल जाता था । लोग उसे कभी-कभी शेखचिल्ली कह देते थे । बुढ़िया ने लड़के की शादी कर दी थी और इस समय उसकी बीवी अपने मायके गयी थी । लड़का अपनी माँ से बोला माँ-माँ मैं बहू को लिवा लाऊँ । माँ बोली हाँ-हाँ जरूर-जरूर जाओ । मुझसे अब अकेले काम नहीं होता है । 

बुढ़िया ने लड़के के जाने की सारी तैयारी कर दी । जाने के लिये घोड़े का इन्तजाम कर दिया और चलते समय उसने घी और बूरा (चीनी) डालकर गरम गरम खिचड़ी खाने को दी । वह लड़के को बहुत अच्छी लगी । वह बोला माँ, माँ यह क्या खिलाया तूने ? इसका नाम क्या है ? तब बुढ़िया ने बताया ‘‘खिचड़ी’’ । लड़के ने खिचड़ी-खिचड़ी कई बार बोल कर याद रखने के लिये कोशिश की कि ससुराल में भी बनवायेगा । 

लड़का खिचड़ी खिचड़ी बोलता घोड़े पर चढ़ कर चल दिया । थोड़ी दूर जाकर एक नाली रास्ते में पड़ी घोड़े ने नाली कूद कर पार की तो धक्का लगने से लड़ाका खिचड़ी भूल गया और खाचिड़ी खाचिड़ी करने लगा । 

खाचिड़ी-खाचिड़ी कहते लड़का जा रहा था कि आगे एक किसान अनाज से चिढ़िया भगा रहा था । उसने लड़के से कहते सुना खाचिढ़ी-खाचिढ़ी तो उसने लड़के को दो झापड़ लगा दिये । बोला मैं उड़ा रहा हूँ और तू खा खा कर रहा है । मार खाकर लड़का बोला कि क्या कहूँ? तो किसान बोला बोला ‘‘उड़ चिढ़ी उड़ चिढ़ी’’ कहता हुआ आगे बढ़ा । आगे एक बहेलिया चिढ़िया पकड़ रहा था । उसने लड़के को कहते सुना ‘‘उड़ चिढ़ी-उड़ चिढ़ी’’ उसे बहुत गुस्सा आया उसने लड़के को और दो चपड़े लगा दीं । लड़का बोला मैं क्या कहूँ उसने कहा उड़ चिड़ी नहीं, आते जाओ फंसते जाओ कहो । लड़का पिट कर आते जाओ फंसते जाओ कहता-कहता चलने लगा । कुछ दूर चला होगा कि चार चोर जा रहे थे । चोरों ने जब सुना कि लड़का आते जाओ फंसते जाओ कह रहा है तो उसकी चोरों ने भी अच्छी पिटाई कर दी । लड़का बेचारा पिट-पिट कर परेशान हो गया उसकी हड्डियाँ दर्द करने लगी । हारकर उसने चोरों से पूछा भाई मैं क्या कहूँ तो वह बोले कि कहो ‘‘ऐसा सब के हो’’ वह ऐसा सबके   हो । कहता जाने लगा तो उधर से कोई मर गया था । उसकी अर्थी आ रही थी लोग रो रहे थे । लड़के को ‘ऐसा सब के हो’’ कहते सुना तो भीड़ ने लड़के की और जम कर पिटाई कर दी । पिट पिट कर लड़के का बुरा हाला हो गया । पूछने पर कि भई मैं क्या कहूँ लोग बोले कि कहो ‘‘ऐसा किसी के न हो’ वह यह कह कर ऐसा किसी के न हो...ऐसा किसी के न हो... चलने लगा । और आगे बढ़ा तो सामने से राजा की बारात आ रही थी । राजा के बारातियों ने जब यह सुना ‘‘ऐसा किसी के न हो’’-2 तो लड़के को इतना पीटा कि उसका बुरा हाल हो गया । पिट पिट कर उसे ससुराल पहुँचना भारी हो गया । आखिरकार वह किसी तरह ससुराल पहुँच गया । 

वहाँ लड़के की पत्नी और सास ने लड़के की खूब देख भाल दवा दारु की तब जाकर लड़का कुछ सोचने लायक   हुआ । तब उसे खिचड़ी की याद आयी पर खिचड़ी का नाम बहुत याद करने पर भी याद नहीं आया । वह अपनी पत्नी से बोला कि वही बना दे जो मेरी माँ ने बना कर खिलायी थी । उसकी पत्नी ने ढेरो पकवानों के नाम पूछे लड्डु, पेड़े, बालूशाही, कलाकन्द, रबड़ी घेवर, पूड़ी कचौड़ी समोसे वह सब पर नहीं नहीं करता रहा और उसने हार कर गुस्से से अपनी पत्नी को पिटाई कर दी । इतनी पिटाई की कि बेचारी की कमर टेढ़ी हो गयी । 

उससे उठा बैठा भी न जाय । वह बोला कितनी बार कहा कि वही बना दे जो मेरी अम्मा ने बना कर खिलायी थी । लड़ाई की आवाज सुन पास पड़ोस की दो औरतें आ गयी । उन्होंने जब बहू को इस हालत में देखा तो गुस्से से बोली हत्यारा ने ऐसा मारा है कि बेचारी खिचड़ी के जैसी ढीली ढाली हो गयी । बस फिर क्या था खिचड़ी का नाम सुन लड़का एकदम फूर्ती में आ गया और बोला हाँ हाँ अरे यही खिचड़ी ही के लिये तो मैं कह रहा था । तब बहू ने खिचड़ी बनायी और लड़के ने खायी । कहानी खत्म पैसा हजम

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कहानी



सुश्री मुकुल रानी वार्ष्णेय, नई दिल्ली, मो. 9953571874

वण्डा भइया

एक राजा था । उसके चार बेटे थे । चारों की अच्छी अच्छी सुंदर राजकुमारियों से ब्याह हो गये थे । पर एक बात थी तीन बहुओं के तो बड़े आलीशान माँ के घर थे पर सबसे छोटी का पीहर नहीं था । 

सब बहुएँ अपने मायके जाती थीं पर सबसे छोटी नहीं जा पाती थी । इससे वह बहुत उदास रहती थी । एक दिन वह अपने पति छोटे राजकुमार से बोली कि राजा साब, राजा साब मैं मायके जाऊँगी । राजा बोला कि तुम्हारा तो मायका नहीं है कहाँ जाओगी? बोली नहीं चलो है मायका । और जाने की जिद्द करने लगी तब राजा ने अपने लाव लश्कर को तैयार करने का हुक्म सुनाया । ठीक टाइम पर राजा रानी नौकर चाकर और फ़ौज राजकुमारी के पीहर को चल पड़े । राजा बोला कि किधर को चलें, तो रानी बोली बस चलते चलो । 

चलते-चलते सब लोग एक हरे भरे जंगल में पहुँच गये । दोपहर का भोजन करने का समय हो गया और गर्मी भी पड़ रही थी सो राजा ने रुकने का हुक्म दे दिया और तम्बू डेरों का नौकरों ने प्रबन्ध कर दिया । रानी का तम्बू अलग था वह सोचने लगी कि मैं सभी को ले तो आयी पर जाऊँ कहाँ ? सोच में पड़ी वह बैठी थी कि एक दासी ठंडा मीठा गुलाब का शरवत ले कर आयी । ठंडा ठंडा मीठा गुलाबी दूध देख कर भी रानी यूँ ही बैठी रही । चिंता के कारण उसकी भूख प्यास सब भर गयी थी । इतने में उसने जमीन में दो सूराख दिखायी दिये रानी ने क्या किया कि दूध के दोनों ग्लास उन सूराखों मे उलट दिये । वह सुस्त उदास बैठी थी इतने में उन सूराखों से एक जोड़ा नाग नागिन निकला और बोला कि कौन है जिसने इस गर्मी में हमें ठंठा मीठा दूध का शरबत पिलाया है? माँगों क्या चाहिये तुम्हें । उदास रानी को कुछ नहीं सूझा वह नाग नागिन को देख कर डर गयी । 

तब नाग नागिन बोले बेटी डरो नहीं हमें बताओ तुम इतनी उदास क्यों हो? यह सुन कर रानी ने कहा मेरा मायका नहीं है । और मैं सभी को लेकर मायके के लिये निकल पड़ी हूँ । अब कहाँ जाऊँ ? यह सुन नाग नागिन बोले इतनी सी बात है । आज से तुम हमारी बेटी हो । और तुम चिन्ता मत करो हम तुम्हारे लिये मायका    बनायेंगे । और नाग नागिन ने रानी को कहा कि तुम राजा से उत्तर दिशा में चलते जाना कहना आगे एक सुन्दर शहर मिलेगा वहाँ एक बहुत सुंदर महल मिलेगा । महल के बाहर हम राजा रानी के वेश में तुम्हारा स्वागत करेंगे । हमें तुम अपना माता-पिता बताना । जितने दिन तुम्हारा दिल चाहे रहना और वे बिल में वापस चले गये । 

अब शाम होने आयी तो राजा रानी से बोला कि बताओ किधर चलें तो रानी बोली उत्तर दिशा की ओर चलिये । उधर ही मेरे मायके का नगर है । राजा ने फ़ौज को हुक्म दिया और चलने लगे । चलते-चलते सचमुच वे लोग नदी किनारे एक शहर में पहुँच गये । वहाँ एक महल दिखायी दिया वे महल पर पहुँचे वहाँ नाग-नागिन राजा रानी ने खूब स्वागत किया । रानी माँ बाप से लिपट गयी छोटे-छोटे बहन भाई आ गये । इस प्रकार रानी राजा खूब खुशी खुशी रहने  लगे । नाग नागिन ने फौज और नौकर चाकरों सभी का खूब प्रबन्ध किया । किसी ने नहीं सोचा था कि रानी का मायका इतना बढ़िया होगा । महल में बहुत से कमरे थे । रानी सब कमरों में जाती रहती थी । तब एक दिन नागिन रानी ने रानी को एक कमरा दिखा कर कहा कि बेटी तुम इस कमरे में कभी मत जाना । रानी बोली ठीक है । पर उसके मन में उस कमरे में जाने की खलबली मची रहती थी । और एक दिन वह चोरी-चोरी उस कमरे में चली ही गयी । 

वह कमरा क्या था धूल से पटा पड़ा था । मकड़ी के जाले चारांे ओर लटक रहे थे । जगह-जगह कूड़ा कचरा जमा था और एक तरफ एक मिट्टी की हाँड़ी उल्टी रखी थी । ऐसे भुतहे कमरे से लड़की भाग ही रही थी कि उसकी नजर उल्टी पड़ी हाँड़ी पर पड़ी । उसके मन में आया कि देखूँ इसमें क्या है? उसकी नागिन माँ ने मना किया था पर रानी नहीं मानी और उसने धीरे से हाड़ी को उलट दिया । अब क्या था उसमंे तो सात साँप के नन्हें-नन्हें बच्चे बुलबुला रहे थे । रानी ने डर कर जल्दी से हाँड़ी को पलट दिया । जल्दी-जल्दी में साँप के सबसे छोटे बच्चे की पूँछ कट   गयी । रानी भाग कर बाहर आ गयी । 

कई दिन मायके में रहने के बाद रानी नाग नागिन से अब वापस जाने को कहने लगी । उन्होंने और रहने के लिये कहा रोका पर रानी राजा संतुष्ट हो गये थे और वापस विदाई के लिए जोर देने लगे । तब नाग नागिन ने विदा में खूब सामान हीरे मोती कपड़े लत्ते दिये । चलते समय बहुत रोना भी हुआ आखिर रानी खुशी-खुशी अपने घर वापस आ गयी । 

बहुत दिन बीत गये । हाँड़ी के नीचे जो नाग नागिन के छोटे छोटे बच्चे थे वे बड़े हो गये । लेकिन जो सबसे छोटा बच्चा था जिसकी पूँछ कट गयी थी उसे सब बण्डा बण्डा कहकर चिढ़ाते । इससे वह बहुत चिढ़ता था । बार-बार अपनी माँ से पूछता था कि किसने मेरी पूँछ काटी कैसे कटी? पर नागिन ने कभी नहीं बताया । एक दिन बण्डा ज़िद कर बैठा तब नागिन को बताना ही पड़ा । वह बोली देख तेरी एक बहन है गलती से उससे ही तेरी पूँछ कट गयी थी । अब तो बण्डा बहुत ही नाराज हो गया और बोला कि मैं तो उसे जरूर डसूंगा । नागिन ने बहुत समझाया पर वह मानता न था सुनता ही न था । इधर रानी रोज रात को सोने से पहले जब दीपक बुझाती थी तो प्रार्थना करती थी कि सबको दीर्घ आयु दो और सबसे ज्यादा मैं अपने बण्डा भइया को प्यार करती हूँ, चाहती हूँ उसे कुछ दुख न हो ? उसकी लम्बी आयु हो । ऐसे ही एक दिन बण्डा भइया गुस्से में भर कर रानी के महल में आया और फिर रानी के बिस्तर में घुस कर बैठ गया कि जैसे ही रानी सोयेगी । वह उसे काट लेगा । उसके किये का बदला उसे मिल जायेगा । 

रानी काम खत्म करके जब दीपक बढ़ाने लगी तो प्रार्थना करने लगी । बण्डा सुन रहा था । उसने जब सुना कि वह तो उसी के लिए सबसे ज्यादा प्यार करती है, उसी का सुख और लम्बी आयु की प्रार्थना कर रही है । तो बण्डे को बहुत पछतावा हुआ । वह बोला मैं अपनी इतनी अच्छी बहन को काटने चला था । अब कभी नहीं काटंूगा । और वह चुपचाप बिस्तर से निकल गया । फिर बण्डा न कभी चिढ़ा न गुस्सा हुआ । यह रही बण्डा भइया की कहानी पोता रानी । 


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कहानी

स्व. सत्येन्द्र शरत्


मन की बात

एक राजा था । वह बहुत न्याय-प्रिय था और अपने न्याय के लिए देश- विदेश में प्रसिद्ध था । सब लोग यही कहते थे— राजा से बढ़कर न्याय करने वाला कोई नहीं है । वह तो दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है । 

किन्तु बड़ी विचित्र बात यह थी कि राजा को स्वयं अपने न्याय से संतोष नहीं था । न्याय करने के बाद हर बार उसे यही लगता कि उसका फैसला ठीक नहीं हुआ है । कभी उसे यह लगता कि उसने दोषी को तो मुक्त कर दिया है, निर्दोष को सजा दे दी है । कभी उसे यह लगता कि जो लोग उसके सामने लाये गये हैं, वे जबरदस्ती लाये गये हैं और उनका उस मामले से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है, और जिन लोगों का उस मामले से सीधा सम्बन्ध है, वे अपने प्रभाव या अपनी पहुँच के कारण छिपे बैठे हैं और किसी को मालूम नहीं है कि असली अपराधी तो वे हैं । 

जब राजा के मस्तिष्क में इस तरह के विचार आते, तो राजा बड़ा परेशान हो उठता । उसकी समझ में नहीं आता कि वह क्या करे । किस प्रकार पता लगाये कि उसके सामने खड़े व्यक्ति सच बोल रहे हैं या झूठ ? कैसे करे कि उसके इर्द-गिर्द लोग जो कुछ कह रहे हैं, वह मन से कह रहे हैं या ऊपर- ऊपर से कह रहे हैं ?

एक दिन सहसा उसे यह खयाल आया कि अगर किसी तरह उसे यह शक्ति मिल जाए कि वह अपने चारों ओर के लोगों को देखते ही उनके मन के विचार जान जाए, तो कितना अच्छा हो । उसे दोषी और निर्दोष को पहचानने और सही न्याय करने में तब किसी भी तरह की कोई दिक्कत ही नहीं होगी । लेकिन यह शक्ति तो भगवान् के अतिरिक्त उसे कोई दे ही नहीं सकता । तो ठीक है, वह भगवान् से यह शक्ति माँगेगा । 

अगली सुबह वह मन्दिर में भगवान् की मूर्ति के आगे खड़ा होकर भगवान् से प्रार्थना करने लगा - "हे प्रभु! मुझे यह शक्ति दे दे, जिससे मैं लोगों को देखते ही उनके मन की बात जान सकूं । ”

राजा को देर तक बड़ी निष्ठा के साथ प्रार्थना करते देखकर भगवान् स्वयं प्रकट हुए और राजा से बोले, 

“राजन् ! तू यह शक्ति मत माँग । इस शक्ति के मिल जाने से तू बहुत दुःखी हो जायेगा । "

किन्तु राजा पर तो जैसे कोई ज़िद सवार थी । वह भगवान् के कहने के बावजूद बार-बार यही कहता रहा, 

“प्रभु ! मुझे यह शक्ति आप दे ही दीजिए । " भगवान् ने राजा को बहुत समझाया, परन्तु राजा की समझ में कुछ न आया । वह अपनी जिद पर अड़ा रहा । 

हारकर भगवान् ने राजा को यह शक्ति दे दी । 

राजा बहुत प्रसन्न हुआ । 

मन्दिर से वह महल में पहुँचा ही था कि बड़ा राजकुमार आया और राजा का अभिवादन करते हुए बोला, “महाराज की जय हो !"

राजा उसे आशीर्वाद देने जा रहे थे कि उन्होंने राजकुमार का चेहरा देखा और दूसरे ही क्षण उन्हें राजकुमार के मन की बात मालूम हो गई । 

राजकुमार मन-ही-मन कह रहा था - "कब मरेगा बुड्ढे ? जल्दी कर न ! हमें भी कुछ साल सिंहासन पर बैठकर संसार का सुख भोगने दे । "

अपने बेटे के विचार जानकर राजा को बहुत आघात पहुँचा, किन्तु प्रकटतः उसने कुछ नहीं कहा । राजकुमार को आशीर्वाद देकर राजा दरबार में जाने की तैयारी करने लगा । 

तैयार होकर वह राजसभा में पहुँचा । सिंहासन पर बैठते ही उसने सबसे पहले मन्त्री का प्रणाम स्वीकार किया । मन्त्री का चेहरा देखते ही उसे मन्त्री के मन की बात मालूम हो गई । मन्त्री मन-ही-मन कह रहा था - "तू कितना मूर्ख है, राजा, जो मेरी चापलूसी से प्रसन्न होकर मुझे अपना विश्वास- पात्र समझ बैठा है ! तू शायद भूल गया है कि दो वर्ष पहले तूने भरी सभा में मेरा अपमान किया था । लेकिन मैं उसे नहीं भूला हूँ । भूल कैसे सकता हूँ ? मुझे तो तुझसे अपने उस अपमान का बदला लेना है । "

राजा ने घबराकर मन्त्री की ओर से दृष्टि हटा ली और दूसरी ओर देखने लगा । उस ओर सेनापति खड़ा था । सेनापति का चेहरा देखते ही राजा को सेनापति के मन की बात का भी पता चल गया । सेनापति मन-ही-मन सोच रहा था – “बस, कुछ ही दिन की बात है, बच्चू ! पड़ोसी राज्य की तैयारी पूरी होने दो । तब देखूंगा, कैसे टिकी रहती है तुम्हारी ये गद्दी ? खुद गद्दी पर बैठकर सारे शहर में तुम्हारा जलूस न निकाला, तो समझूँगा, जीवन व्यर्थ गया । क्या जीवन-भर सेनापति ही रहूँगा ?"

राजा सेनापति की ओर से दृष्टि हटाकर दरबार के मुख्य द्वार की ओर देखने लगा । वहाँ पर शहर कोतवाल खड़ा हुआ था । जैसे ही उन दोनों की दृष्टि मिली, कोतवाल के मन में उठने वाली बातें राजा के कानों में पड़ने लगीं । शहर कोतवाल सोच रहा था - "यह राजा कितना जिद्दी है ! कितने वर्षों से कह रहा हूँ, मेरे साले को नदी के उस पार का चुंगी-मुंशी बना दो, लेकिन मेरी सुनता ही नहीं । यह नीच किसी को ऊपर के चार पैसे कमाते तो देख ही नहीं सकता । घास में बैठा कुत्ता न खुद खाये, न दूसरों को खाने दे !"

राजा ने झटपट दृष्टि कोतवाल के निकट खड़े सिपाही की ओर केन्द्रित की । उसे लगा, सिपाही मन-ही-मन हँस रहा है और कह रहा है- “राजा को अपने न्याय पर कितना घमण्ड है ! यह कितना अज्ञानी है, जो इसे यह नहीं मालूम कि इसके आधे से ज्यादा फैसले गलत होते हैं ! उस जौहरी की हीरे की अँगूठी मैंने उठाई थी । जिस असहाय और निर्दोष आदमी को चोर कहकर मैं दरबार में लाया था, राजा ने उसे हो असली अपराधी समझकर उसके हाथ कटवा दिये । देखना, इसे ईश्वर भी माफ नहीं करेगा । "

राजा को इतनी घबराहट हुई कि वह अधिक देर दरबार में न रह सका । वह सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और यह कहकर कि आज उसकी तबीयत ठीक नहीं है, दरबार बर्खास्त किया जाता है, अपनी आँखों पर हाथ रख, गिरता- पड़ता मन्दिर में पहुँचा और भगवान् की मूर्ति के सामने नाक रगड़ते हुए गिड़- गिड़ाने लगा - "प्रभु ! दूसरों के मन की बात जानने की यह शक्ति मुझसे वापस ले लीजिए । आपने ठीक ही कहा था । इस शक्ति को पाकर मैं संसार का सबसे अधिक दुःखी व्यक्ति हो गया हूँ । मुझे यह शक्ति नहीं चाहिए । मैं किसी के मन की बात नहीं जानना चाहता । आप मुझ पर दया कीजिए, प्रभु ! मुझे पहले जैसा ही बना दीजिए । "

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कहानी

स्व. सत्येन्द्र शरत्


चार बातें

किसी शहर में एक साहूकार रहता था । एक बार उसे व्यापार में बहुत नुकसान हुआ । उसका सारा पैसा डूब गया । तब उसने कोशिश की कि उसे कहीं से थोड़ा-बहुत पैसा मिल जाए, जिससे वह नये सिरे से व्यापार शुरू कर सके, परन्तु किसी ने उसे पैसा नहीं दिया । उसकी हालत बिगड़ती चली गई और एक दिन ऐसा भी आ गया, जब उसके घर में चूल्हा तक न जला और उसके बच्चों को भूखा ही सो जाना पड़ा । 

बच्चों को भूखे सोते देख, साहूकार को नींद नहीं आई । उसे बिस्तर पर करवटें बदलते देखकर उसकी पत्नी ने उससे कहा- “साहजी, मेरी बात मान लो । ये झूठा संकोच छोड़ दो और मेरे मायके चले जाओ । वहाँ मेरे पिताजी से बात करो । दुःख-सुख में अपने ही काम आते हैं । तुम्हें जरूर पैसा दे देंगे । " साहूकार को पत्नी की बात जंच गई । अपने सोते हुए बच्चों को प्यार कर, वह सुबह-ही-सुबह अपनी ससुराल चल पड़ा । 

ससुराल में साहूकार का बहुत आदर हुआ । वहाँ वह तीन-चार दिन रहा । रोज वह सोचता कि वह अपने ससुर से पैसों के लिए कहेगा, परन्तु संकोच के कारण कह न पाता । जब उसने देखा कि यहाँ बात बननी कठिन है, तब वह अपने सास-ससुर से विदा माँग, वहाँ से चल पड़ा । चलते समय उसकी सास ने चार लड्डू एक कपड़े में बाँध दिये और उन्हें साहूकार को देते हुए बोली - "रास्ते में कलेवा कर लेना । "

रास्ते में साहूकार को एक बजन्त्री (एकतारा लेकर गाँव-गाँव जाकर गीतों-भरी कहानियाँ सुनाकर लोगों से अनाज माँगने वाला) मिल गया । दोनों साथ-साथ चलने लगे । पाँच-छह कोस चलने के बाद रास्ते में एक तालाब आया । 

धूप तेज हो गई थी; इसलिए दोनों मुसाफिरों ने तालाब में स्नान किया और पास ही एक पेड़ की छाया में नाश्ता करने बैठ गये । दोनों ने अपनी पोटलियाँ खोल लीं और खाना शुरू कर दिया । साहूकार ने लड्डू तोड़ा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही । लड्डू के अन्दर सोने की एक मुहर थी । साहूकार ने तब दूसरा लड्डू तोड़ा । उसके अन्दर भी सोने की एक मुहर मौजूद थी । साहूकार ने बाकी दोनों लड्डू तोड़े । उनके अन्दर से भी सोने की एक-एक मुहर निकलीं । साहूकार समझ गया कि उसकी सास ने इस तरह उसकी मदद की है कि उसका मान भी रह जाये और किसी को कुछ मालूम भी न हो सके । 

साहूकार ने लड्डू खा लिये और मुहरें अपने पल्ले में बाँध लीं । बजन्त्री ने उन मुहरों को देख लिया था, पर वह बोला कुछ नहीं था । खा-पीकर दोनों ने कुछ देर आराम किया और उसके बाद वे फिर अपने रास्ते चल पड़े । 

रास्ते में साहूकार ने बजन्त्री से कहा, “संगी, कुछ बात कहो, जिससे रास्ता कटे । " बजन्त्री ने कहा, "बात कहूँगा, लेकिन बात कहने की एक मुहर लूँगा । ”

साहूकार ने कुछ सोचकर कहा, "अच्छा, बात कहो । मैं एक मुहर दूंगा । " बजन्त्री ने कहा, “किसी भी जगह अच्छी तरह देखभाल कर बैठना चाहिये । '

साहूकार ने कहा, “हाँ-हाँ, आगे कहो । ” बजन्त्री ने कहा, “बस, बात इतनी ही है, मुहर दो । " साहूकार ने बजन्त्री को एक मुहर दे दी । दोनों आगे चलने लगे । 

कुछ दूर चलने पर साहूकार ने फिर कहा, “संगी, कुछ बात कहो, जिससे रास्ता कटे । ” बजन्त्री ने कहा, "बात कहूँगा, परन्तु मेरी बात की कीमत एक मुहर होगी । " साहूकार ने कुछ सोचकर कहा, "तुम बात कहो । मैं उसके लिए एक मुहर दूँगा । " बजन्त्री ने कहा, "पंच लोग जिस काम को कहें, वह अवश्य करना चाहिए । " साहूकार ने कहा, "ठीक है । आगे कहो । " बजन्त्री ने हँसकर कहा, "बस, बात इतनी ही है । लाओ, मुहर लाओ । " साहूकार ने उसे मुहर दे दी । दोनों आगे चलते रहे । 

कुछ और आगे बढ़ने पर साहूकार ने फिर कहा, “संगी, कुछ और बात कहो । " बजन्त्री ने कहा, "बात कहूँगा, लेकिन एक मुहर देनी पड़ेगी । "

साहूकार ने सोचते हुए कहा, “अच्छा तुम कहो । मैं उसके लिए मुहर दूंगा । बजन्त्री ने कहा, "भेद की बात, यानी अपना रहस्य, किसी को नहीं बतलाना चाहिये । " साहूकार ने कहा, "मैं समझ गया । आगे कहो । " बजन्त्री ने कहा, "बात इतनी ही है । मुहर निकालो । " साहूकार ने तीसरी मुहर भी बजन्त्री को दे दी । दोनों रास्ता तय करते रहे । 

काफी दूर निकल आने पर साहूकार ने फिर कहा, “संगी, रास्ता नहीं कट रहा है । कोई बात कहो । " बजन्त्री ने कहा, बात कहूँगा, लेकिन उसकी कीमत एक मुहर होगी । " साहूकार ने कहा, "तुम बात कहो, मैं मुहर दूँगा । " बजन्त्री ने कहा, “राज दरबार में कभी झूठ नहीं बोलना चाहिये । " साहूकार ने कहा, "ध्यान रखूंगा । आगे कहो । " बजन्त्री ने कहा, "बात इतनी ही है । लाओ, मुहर दो । " साहूकार ने चौथी और आखिरी मुहर निकाली तथा बजन्त्री को दे दी । बजन्त्री ने वह भी जेब में रख ली । 

कुछ दूर आगे चलने पर बजन्त्री ने साहूकार से कहा, “भाई, मेरा रास्ता तो इधर से है । मैं तो इधर मुड़गा । मेरी बातों का ध्यान रखना । राम-राम । और अपने रास्ते चल पड़ा । साहूकार अपने रास्ते पर सीधा चलता रहा । शाम होने ही वाली थी कि वह एक गाँव के नजदीक पहुँचा । वहाँ एक खेत में चार ठग बैठे हुए थे । साहूकार को आते देख, वे चारों उठकर खड़े हो गये । बड़े प्रेम से उन्होंने साहूकार को नमस्ते की और उसके साथ बातें करते हुए वे गाँव में आये । अपने घर पहुँचकर उन्होंने हाथ जोड़कर साहूकार से कहा, “साहजी दिन-भर चले हो । थक गये होगे । कोई हर्ज न हो, तो आज रात हम गरीबों पर ही कृपा कर दो । आज हमारे यहाँ ही ठहर जाओ । " साहूकार उनकी बातों में आ गया । बोला, "अच्छा, जैसी आप लोगों की इच्छा । "

ठगों ने एक कमरे में साहूकार के रहने का प्रबन्ध किया । पलंग पर दरी-चादर बिछी हुई थी । उन्होंने साहूकार से कहा, “साहजी, तुम यहाँ आराम करो । हम तुम्हारे लिए खाने का प्रबन्ध करते हैं । ” साहूकार पलंग पर बैठने ही वाला था कि उसे बजन्त्री से एक मुहर में खरीदी हुई बात याद आ गई कि कहीं भी बैठने से पहले अच्छी तरह देखभाल कर लेनी चाहिए । उसने फौरन पलंग पर बिछी हुई चादर व दरी हटाई । उसने देखा कि पलंग में निवाड़ नहीं है और नीचे एक बहुत गहरी खाई है । अगर वह पलंग पर बैठ जाता, तो एकदम खाई में गिरकर मर जाता । उसने बजन्त्री को बहुत आशीष दिया, जिसके कारण उसकी जान बच गई । तब उसने अपनो गठड़ी और चादर उठाई, और वहाँ से चलने लगा । ठगों ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की, मगर वह नहीं रुका । 

इसपर ठगों ने साहूकार को दो मुहरें दीं और उससे हाथ जोड़कर प्रार्थना की, "आप इस बात को किसी को मत बताइयेगा । नहीं, तो हम पकड़े जायेंगे । हम आपको वचन देते हैं कि हम अब भविष्य में ठगी नहीं करेंगे । " साहूकार ने 'अच्छा' कहा और उनसे दो मुहरें लेकर चलता बना । 

बाजार में जाकर साहूकार ने खाना खाया और एक धर्मशाला में सो गया । सुबह उठने पर उसे मालूम हुआ कि पड़ोस में एक लावारिस बनिया मर गया है और कोई भी उसका अन्तिम संस्कार करने के लिए तैयार नहीं है । साहूकार भी वहाँ पहुँचा । उसे मैले कपड़ों में देख, कुछ लोगों ने उससे कहा, "देखो भाई, एक काम करो । तुम्हारा भी भला हो जाएगा और इस मरे हुए बनिये का भी उद्धार हो जायेगा । ” साहूकार ने पूछा, "क्या काम है ?” उन लोगों ने कहा, "इस बनिए का अन्तिम संस्कार कर दो । हम तुम्हें पचास रुपये देंगे । " साहूकार ने सोचा-ये बात पंच लोग कह रहे हैं और पंचों की बात हमेशा माननी चाहिये । सो उसने पचास रुपये ले लिये और बनिये को उठाने अन्दर चला गया । जब वह कपड़े उठाने लगा, तो उसने देखा कि बनिये का गद्दा बहुत ही भारी है । उसने गद्दे को मोड़कर एक तरफ डाल दिया और बनिये को श्मशान ले जाने की तैयारी करने लगा । 

श्मशान से लौटकर साहूकार ने उस गद्दे को अपनी चादर में लपेटा । तथा सीधा अपने घर की ओर चल पड़ा । घर पहुँचकर रात में उसने गद्दे को फाड़ा । यह देखकर वह आश्चर्य से अवाक् रह गया कि उस गद्दे में ढेर सारी मुहरे सिली हुई थीं । साहूकार ने मुहरें सँभालकर रख लीं और गद्दे को फेंक दिया । 

अब साहूकार के पास बहुत धन हो गया । उसने नये सिरे से व्यापार शुरू किया और बहुत शीघ्र ही धन दुगुना व तिगुना होने लगा । 

साहूकार के पड़ोस में ही एक दूसरा साहूकार रहता था । पहले साहूकार की उन्नति देखकर वह ईर्ष्या से जल मरा । उसने अपनी पत्नी से कहा, "तुम पहले साहूकार की बीवी से यह मालूम करो कि उसके पति के पास इतना सारा धन आया कहाँ से है । उसकी पत्नी ने इधर-उधर की बातें करने के बाद पहले साहूकार की पत्नी से पूछा, "बहन, तुम यह तो बताओ कि तुम्हारे साहजी के पास अचानक इतना पैसा कहाँ से आ गया ?” साहूकार की पत्नी ने कहा, "बहन, मुझे तो मालूम नहीं । पूछकर बताऊँगी । '

रात हुई, तो साहूकार की पत्नी ने अपने पति से पूछा, “साहजी, मेरे पिताजी ने तो तुम्हें इतना धन नहीं दिया होगा । फिर इतना धन तुम्हारे पास कहाँ से आया ?” साहूकार ने मन में सोचा — मैंने एक मुहर देकर बजन्त्री से यह बात खरीदी है कि भेद की बात किसी को नहीं बतानी चाहिये । इसलिए उसने झूठमूठ कह दिया, “मन्दिर के पास वाले सूखे तालाब के किनारे एक आक का पेड़ है । मैंने उसका दूध अपनी आँखों में लगाया । वैसा करने से मुझे तालाब के अन्दर गड़ा हुआ धन दीखने लगा । मैं रात को वहाँ गया और वहाँ से धन निकाल लाया । "

उसकी पत्नी ने अपनी पड़ोसिन को यह बात बता दी कि बहन, हमारे घर वाले ने तो ऐसा किया था । पड़ोसिन ने जाकर अपने पति से यह बात कही । दूसरा साहूकार फौरन तालाब पर गया । वहाँ उसने आक की एक टहनी तोड़कर उसका दूध अपनी आँखों में लगाया । ऐसा करते ही उसकी आँखों को देखने की शक्ति जाती रही और वह अंधा हो गया । लड़खड़ाता हुआ वह अपने घर पहुँचा । उसकी पत्नी ने उसे अंधा देखा, तो पहले साहूकार की पत्नी को गाली देने लगी और रोने-पीटने लगी । 

अगले दिन दूसरे साहूकार की पत्नी ने दरबार में शिकायत की कि पहले साहूकार ने मेरे पति को अंधा करवा दिया है । पहला साहूकार दरबार में बुलाया गया । साहूकार को ध्यान आया कि उसने एक मुहर में यह बात खरीदी है कि दरबार में झूठ नहीं बोलना चाहिये । इस कारण दरबार में पहुँचकर उसने न्यायाधीश के सामने सब बातें बिलकुल सही ढंग से बतला दीं । साहूकार के सच बोलने से न्यायाधीश प्रसन्न हो गया और उसने पहले साहूकार को यह कहकर छोड़ दिया कि इसका कोई दोष नहीं है । लालची आदमियों को ऐसा ही परिणाम भुगतना होता है । 

साहूकार खुशी-खुशी अपने घर लौट आया और मजे में अपना कारोवार करने लगा । 

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कहानी

स्व. सत्येन्द्र शरत्

अधूरा ज्ञान

एक गाँव में मंदबुद्धि नाम का लड़का रहता था । मंदबुद्धि उसका असली नाम नहीं था । वह पढ़ने-लिखने में बिलकुल ध्यान नहीं देता था, इसीलिए उसका नाम धीरे-धीरे मंदबुद्धि ही पड़ गया । मंदबुद्धि ने भी बाद में अपने नाम के अनुरूप होने में ही अपनी भलाई देखी । सो पढ़ाई-लिखाई को नमस्कार कर, उसने खेल-कूद में अपना ध्यान लगाया । उसके साथी और मित्र परीक्षाएँ पास कर, ऊँची-ऊँची कक्षाओं में जाते रहे और मंदबुद्धि उसी तरह दिन-प्रतिदिन अंधकार और अज्ञान के गड्ढे में नीचे-ही-नीचे धँसता रहा । अपनी पढ़ाई समाप्त कर उसके मित्र अपने-अपने काम-धंधों को सँभालने लगे । मंदबुद्धि तब तक गाँव का सबसे ज्यादा निकम्मा, ऊधमी, बेकार और आलसी युवक बन चुका था । 

जब तक मंदबुद्धि के माता-पिता जीवित रहे, उसे खाने-पहनने के लिए किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी पड़ी, किन्तु उन दोनों की मृत्यु के कुछ दिन बाद वह दाने-दाने के लिए भटकने लगा । लोग उसे देख, मुँह मोड़ लेते । मित्र लोग उससे कतराते । उसकी सहायता कौन करता ? भूख से पीड़ित होकर मंदबुद्धि की समझ में आया कि उसने पढ़ाई-लिखाई की ओर ध्यान न देकर कितनी बड़ी गलती की है । किन्तु अब तो चिड़िया खेत चुग चुकी थीं । अब पछताने के सिवा और क्या हो सकता था ?

तंग आकर मंदबुद्धि पड़ोस के एक दूसरे गाँव में चला गया । वहाँ एक वैद्यजी रहते थे, जो उसके पिता के मित्र थे । वैद्यजी ने मंदबुद्धि की दशा पर तरस खाकर उसे अपने साथ रख लिया और वायदा किया कि यदि वह ध्यान देगा और मेहनत करेगा, तो वे उसे वैद्यक सिखा देंगे । मंदबुद्धि प्रसन्नता से फूल उठा और छाया की तरह वैद्यजी के साथ रहने लगा और देखने लगा कि वैद्यजी किस तरह लोगों का इलाज करते हैं । 

एक बार वैद्यजी पेट-दर्द के एक रोगी को देखने 

गये । रोगी के कमरे में पहुँचकर उन्होंने इधर-उधर देखा, रोगी से कहा – “तुमने बदपरहेजी की है । मैंने कहा था, जब तक तुम्हारा बुखार न उतर जाये तुम मूंग की दाल के सिवाय और कुछ न लेना, लेकिन तुमने कच्चे चने और मटर खाई है ?"

रोगी का पीला मुँह और भी पीला हो गया । उसने डरते हुए कहा, "वैद्यजी, मुझसे यह गलती तो हो गई है । आप मुझे इसके लिए माफ कर दें और कोई दवाई भी दे दें । "

दवाई देकर जब वैद्यजी घर लौट रहे थे, तो मंदबुद्धि ने वैद्यजी से सवाल किया, "वैद्यजी आपको कैसे पता चला कि बीमार ने कच्चे चने और मटर की फलियाँ खाई हैं ?"

वैद्यजी ने मुस्कराकर कहा, “बड़ी सीधी-सी बात है । तुमने देखा नहीं, उसकी चारपाई के नीचे चने और मटर के छिलके पड़े हुए थे । बस, मैं समझ गया कि इसके पेट में इसी कारण दर्द हुआ है । 

वैद्यजी की और बातें तो मंदबुद्धि की समझ में नहीं आती थी, लेकिन यह बात उसकी समझ में आ गई । 

कुछ दिन बाद एक कुम्हार के बुलाने पर वैद्यजी मंदबुद्धि के साथ कुम्हार के यहाँ गये । कुम्हार के गधे का गला सूज गया था और दर्द के कारण गधा बुरी तरह छटपटा रहा था । वैद्यजी ने गधे के गले को ध्यान से देखकर कुम्हार से पूछा, "इसकी यह हालत कब से है ?"

कुम्हार ने जवाब दिया, “कल रात से । ये गन्ने के खेत में चर रहा था । मैं इसे वहाँ से लाया था । तभी से इसके गले में तकलीफ है । "

वैद्यजी ने कुछ सोचते हुए कहा, “मेरे खयाल से गन्ने का कोई बड़ा टुकड़ा इसके गले में फँस गया है । ऐसा करो, तीन-चार आदमी इसे पकड़कर जमीन पर लेटा दो और तब एक आदमी जोर से इसके गले पर मुंगरी मारो । ऐसा करने से गन्ने का फँसा हुआ टुकड़ा निकल जायेगा । "

लोगों ने वैसा ही किया । गन्ने का टुकड़ा सीधा हो गया और गधे के मुंह से बाहर निकल आया । वैद्यजी ने तब एक लेप गधे के गले पर लगाने को दिया और घर वापस आ गये । 

गधे के ठीक होने पर मंदबुद्धि ने वैद्यजी से पूछा, “आपको ये कैसे पता चला कि गधे ने गन्ना खाया था और उसका टुकड़ा उसके गले में फँस गया था ?'  वैद्यजी ने मुस्कराकर कहा, "बड़ी सीधी-सी बात है, भाई । गधा गन्ने के खेत में चर रहा था और उसके बाद उसके गले में सूजन हो गई । गले में गन्ना फँस जाने के अलावा और क्या कारण हो सकता था ?"

एक मंदबुद्धि की समझ में वैद्यजी की यह बात भी आ गई । 

कुछ दिनों बाद मंदबुद्धि सोचने लगा कि काफी कुछ वैद्यक तो वह अब जान ही गया है । उसने यह भी देख लिया कि वैद्यजी रोगियों का इलाज कैसे करते हैं । अब उसे अपने गाँव लौटकर खुद ही वैद्यक करनी चाहिये । 

एक दिन उसने वैद्यजी से कहा, "अच्छा, वैद्यजी, अब मैं अपने गाँव लौटना चाहता हूँ । बात ये है कि वैद्यक तो मैं सीख ही गया हूँ । अब मैं लोगों का इलाज करना चाहता हूँ।

वैद्यजी ने मुस्कराकर कहा, "मंदबुद्धि, अभी तो तुम्हें बहुत कुछ सीखना है । अभी तो तुमने कुछ भी नहीं सीखा । तुम अभी बीमार का इलाज नहीं कर सकते । "

मंदबुद्धि बोला, "आप मुझे इतना मूर्ख न समझिये, 

वैद्यजी । आपके साथ रहकर मुझे काफी अनुभव हो गया 

है । बाकी अनुभव तो लोगों का इलाज करने पर मुझे हो ही जायेगा । "

वैद्यजी ने उसे बहुत समझाया, मगर मंदबुद्धि अपनी जिद पर अड़ा ही रहा । हारकर वैद्यजी ने उससे कहा, "अच्छा, मंदबुद्धि, तुम अगर जाना ही चाहते हो, तो जाओ । मगर तुम्हें लोगों का इलाज करने का पूरा ज्ञान अभी तक नहीं हुआ है । ये ध्यान रखना कि अधूरा ज्ञान उलटा तुम्हें ही हानि न पहुँचाए । अधूरा ज्ञान बहुत खतरनाक होता है । "

वैद्यजी की बात अनसुनी कर, मंदबुद्धि अपने गाँव लौट आया और वहाँ उसने यह बात चारों ओर फैला दी कि मैं वैद्यक सीख आया हूँ और अब गाँव में ही रहकर लोगों का इलाज करूँगा । 

दो-तीन दिन बाद ही मंदबुद्धि को अपनी योग्यता दिखाने का अवसर मिल गया । एक आदमी उसके पास आया और बोला, “वैद्यजी, मेरी माँ के गले में शायद फोड़ा निकल आया है । उसका गला सूज गया है और उसे बहुत दर्द हो रहा है । क्या आप चलकर उसे देखेंगे ?"

मंदबुद्धि बहुत ही प्रसन्नता के साथ रोगी को देखने के लिए तैयार हो गया । उस आदमी ने उसे वैद्यजी कहा था न, इसलिए उसे बहुत ही खुशी हो रही थी । 

बीमार के पास पहुँच मंदबुद्धि ने वैद्यजी की तरह कमरे में चारों ओर देखा । बुढ़िया की चारपाई के पास उसे घोड़े की काठी या जीन पड़ी दिखाई दी । फौरन ही मंदबुद्धि जोर से बोल उठा, “हूँ मैं समझ गया, इस बुढ़िया ने जरूर कोई घोड़ा खाया है । '

मंदबुद्धि की बात सुन, पास खड़े लोग आश्चर्य से मंदबुद्धि को देखने लगे । बुढ़िया के लड़के ने कहा, "वैद्यजी, आप यह क्या कह रहे हैं ? एक हफ्ते से तो मेरी माँ ने एक घूँट दूध तक गले से नीचे नहीं उतारा है और आप कह रहे हैं कि इसने घोड़ा खाया है और फिर हमारा घोड़ा भी खेत में चर रहा है । 

मंदबुद्धि ने अकड़कर कहा, "वैद्य तुम हो या मैं ? मैं जो कुछ कह रहा हैं, ठीक कह रहा हूँ । तुम्हें मेरी बात माननी ही चाहिये । "

बुढ़िया दर्द से कराह रही थी । उसके गले को ध्यान से देख, मंदबुद्धि बोला, "जरूर कोई चीज अन्दर फँस गई है । चिन्ता की कोई बात नहीं है । मैं मिनटों में इसे ठीक किये देता हूँ । आप लोग कोई डण्डा या सोटा मुझे दीजिये और कमरे के बाहर चले जाइये । "

मंदबुद्धि की अकड़ और उसका रोब देख, लोग सहम गये थे । चुपचाप उसे एक छोटा-सा डण्डा दे, वे सब कमरे के बाहर चले गये । 

मंदबुद्धि ने डण्डे को तानकर बुढ़िया के गले पर दे मारा । बुढ़िया बहुत जोर से चिल्लाई और आखिरी साँसें गिनने लगीं । उसके मुँह से खून निकलने लगा । 

बुढ़िया की चीख सुन, सब लोग अन्दर आ गये । बुढ़िया को मरते देख वे लोग समझ गये कि मूर्ख मंदबुद्धि ने ही उसके गले पर डण्डा मारकर उसके प्राण लिये हैं । उन्होंने मंदबुद्धि से डण्डा छीना और उससे पूछा, “तू वैद्य है या राक्षस ? तूने इस बुढ़िया को क्यों मारा ? जब तुझे लोगों का इलाज करना नहीं आता, तो तू इलाज करने के लिये तैयार क्यों हो गया ?"...

मंदबुद्धि के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं था । वह डर के मारे थरथर काँपने लगा । 

फिर क्या था ? लोगों ने उसी डण्डे से मंदबुद्धि की खूब पिटाई-बुनाई की और उसे मारते-मारते गाँव के बाहर कर दिया । 

और तब मंदबुद्धि को वैद्यजी की सीख याद आई-अधूरा ज्ञान बहुत खतरनाक होता है । 

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स्व. हरिकृष्ण देवसरे



भोलाराम

भोलाराम ने दरवाज़ा खटखटाया । मकान मालिक दरवाज़ा खोलकर सामने खड़ा था । 

'गोडबोले साहब, नमस्ते!' भोलाराम ने हाथ जोड़कर कहा । 

'तो अब क्या लाए हो?' गोडबोले ने पूछा । 

'नया डिटरजेंट पाउडर और नयी डिटरजेंट टिकिया । नाम है 'जादूगर' - एकदम जादू की तरह काम करती है । 

अच्छा, आओ । '

भोलाराम ड्राइंग रूम में जा बैठा । गोडबोले सा. ने उसे एक बाल्टी पानी और एक मैली कमीज़ लाकर दी । उनकी पत्नी और बेटा फिर से दर्शक बनकर बैठ गए । 

भोलाराम ने कहा- 'जादूगर डिटरजेंट का जादू दिखाने से पहले आपको मैं बताना चाहता हूं कि 'डिटरजेंट' क्या होता है?'

'अच्छा तो डिटरजेंट कैसे बनता है?' गोडबोले ने पूछा । 

'डिटरजेंट एक प्रकार का कार्बनिक रासायनिक पदार्थ 

है । इसे कार्बन, ऑक्सीजन, सल्फर और हाइड्रोजन के यौगिकों को मिलाकर बनाया जाता है । इसमें मैल हटाने वाला एक खास तत्व मिलाया जाता है जिसे 'सरफेक्टेन्ट' कहते हैं-यानी जो सतह पर जमे मैल को साफ कर दे । वह सतह कपड़े की भी हो सकती है, बर्तन की भी और फर्श की भी । '

'यानी ये कई चीजें साफ करने के काम आता है । ' गोडबोले की पत्नी ने पूछा । 

जी हां, यह विशेष रूप से घरेलू काम के उपयोग के लिए ही बनाए गए हैं । चाहे आप टिकिया इस्तेमाल करें या पाउडर । मैंने जैसा आपको बताया कि इसमें सरफेक्टेन्ट मिलाया जाता है जो सहतह पर जमे मैल के कणों को, गहराई तक जाकर धो देता है । पर कुछ और पदार्थ भी मिलाए जाते हैं जो कपड़ों में चमक पैदा करते हैं, सफेदी को स्थायी बनाते हैं । '

'इनमें झाग बनता है?' गोडबोले ने पूछा । 

'जी हां!' अब भोलाराम ने कमीज़ को पानी में भिगोया । फिर उसके कालर पर लगे मैल पर डिटरजेंट टिकिया रगड़कर सारा मैल धोकर दिखा दिया । फिर उसने बाल्टी के पानी में डिटरजेंट पाउडर घोला और पूरी कमीज़ भिगो दी । कुछ ही मिनटों बाद उसे भोलाराम ने रगड़कर साफ कर दिया । गोडबोले यह देखकर बहुत खुश हुए । 

'थोड़ा पाउडर देना' गोडबोले की पत्नी ने भोलाराम से कहा । भोलाराम ने पाउडर दे दिया । श्रीमती गोडबोले पाउडर लेकर अंदर गयीं और थोड़ी देर में एक चमचमाता हुआ बर्तन हाथ में लेकर मुस्कराती हुई लौटीं । :

'वाह! सचमुच कितना अच्छा साफ़ हुआ है । ' गोडबोले ने देखकर कहा । 'अच्छी चीज है । ले लो । ' श्रीमती गोडबोले ने कहा । 

गोडबोले ने कहा, 'ठीक है दो टिकिया और एक पाउडर पैक दे दो । ' गोडबोले इतना खुश थे कि आस-पड़ोस के घरों में भी भोलाराम का माल बिकवा दिया । 

शाम को भोलाराम का थैला खाली था । भोलाराम हर रोज़ डिटरजेंट वालों का माल भरकर ले जाता और शाम को बेचकर लौट आता । उसकी अच्छी आमदनी होने लगी थी । 

एक दिन भोलाराम ने अपने मामा-मामी को यह कहकर चौंका दिया कि उसने डिटरजेंट वालों का काम छोड़ दिया है । 

भोलाराम अपने मामा-मामी के पास ही रहता था । मामा-मामी ने कहा-'तेरा दिमाग फिर गया है । इतनी अच्छी नौकरी छोड़ आया । 

भोलाराम सिर झुकाए चुपचाप मामा-मामी की बातें सुनता रहा । जब वो शांत हो गए तो उसने सिर ऊपर उठाया । वह मुस्करा रहा था । 'मामी, और कहना हो तो कह लो । फिर मौका नहीं मिलेगा-क्योंकि अब मेरे बोलने की बारी है । ' भोलाराम ने कहा । 

'तो अब बता न! बात क्या है? पहेलियां क्यों बुझा रहा है?' मामा ने कहा । 

'मामा जी ! मुझे उससे ज्यादा अच्छी और ज्यादा पैसों वाली नौकरी मिल गयी है । ' भोलाराम के यह कहते ही मामी का गुस्सा दूर हो गया । 

'हां, मामाजी ! मुझे टूथपेस्ट और टेल्कम पाउडर बनाने वालों ने सात हजार पर नौकर रख लिया है । ' और उसने जेब से उनकी चिट्ठी निकालकर दिखा दी । 

'मेरा काम है उनका नया टेल्कम पाउडर 'खुशबू' बेचना-उसे लोगों तक पहुंचाना । '

इसका मतलब है, तू इस काम में उस्ताद हो गया है । ' मामाजी ने हंसकर कहा । 

'हां, मामाजी ! टेल्कम पाउडर बनाने वाले मेरे पीछे पड़े थे कि हमारा माल बेचो । मैंने कहा- ज्यादा पैसे दोगे तो तुम्हारा काम करूंगा । बस, वो मान गए । '

भोलाराम धीरे-धीरे एक मशहूर सेल्समैन से बढ़कर, उन्नति करते-करते एक कंपनी का मैनेजिंग डाइरेक्टर बन 

गया । मेहनत और लगन का यही फल मिलता है । 

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सच्चा पुरस्कार

ग्रैंड पार्क में, बच्चों के लिए, 'ऑन द स्पाट पेंटिंग कम्पटीशन' आयोजित किया गया था । नगर की संस्था 'कला संगम' ने यह कार्यक्रम आयोजित किया था । संस्था की अध्यक्षा शीला बहन स्वयं वहां उपस्थित थीं । वह एक अच्छी कलाकार हैं । प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए बहुत से बच्चे आए थे । सबको छूट थी कि जो जिस विषय पर चित्र बनाना चाहे, बनाए । 

छोटी-बड़ी सभी उम्र के बच्चे अलग-अलग किस्म के रंगों से चित्र बना रहे थे । शीला बहन उनके पास जा-जाकर उनका हौसला बढ़ा रही थी । वैसे व्यवस्था के लिए स्कूल की कुछ शिक्षिकाएं भी वहां उपस्थित थीं । वे भी बच्चों की मदद कर रही थीं । 

मीनू ने कागज पर एक घर का चित्र बनाया था । पर चित्र बनाते-बनाते वह रुक गयी । उसे कुछ सोचते देखकर एक शिक्षिका मिसेज़ कालरा उसके पास आयीं । 

'क्या हुआ मीनू ? क्या सोच रही हो? अपना चित्र पूरा करो न !

'मैडम ! इन रंगों को कैसे बनाते हैं?' पेस्टल कलर को दिखाते मीनू ने कहा । 

'तुम ये क्या बेकार के सवाल पूछ रही हो? ये रंग तो बने बनाए बाज़ार में मिलते हैं । ' मिसेज़ कालरा ने मीनू को डांट दिया । 

शीला बहन ने यह बातचीत सुन ली । वह तुरंत वहां आयीं । 

'ऐसे मत डांटिए मिसेज़ कालरा ! बच्ची ने जो बात पूछी है उसका जवाब देना चाहिए । ' शीला बहन ने कहा, 'तुम्हारे हाथ में जो रंग हैं- इन्हें 'पेस्टल कलर' कहते हैं । यानी वो रंग जो कागज पर घिसने से चिपक जाएं । पहले इन्हें चिकनी मिट्टी को रंग कर बनाते थे । सुविधा के लिए मिट्टी की छोटी-छोटी बत्तियां बनाकर उन पर कागज चिपका दिया जाता था । बाद में इन्हें मोम मिलाकर भी बनाया जाने लगा । इससे इन रंगों में चिकनापन और चमक आ गयी । अब उनको 'वैक्स कलर्स' भी कहते हैं । '

'आंटी, मिट्टी से रंग कैसे बनते हैं?' एक बच्चे ने पूछा । 

शीला बहन ने अपने पर्स से गेरू, पीली मिट्टी, खड़िया और कोयले के टुकड़े निकालकर दिखाए । उन्होंने गेरू दिखाकर कहा-' इसको गेरू कहते हैं । यह भी एक प्रकार की रंगीन मिट्टी है । शुरू-शुरू में लोग इसी से दीवारों पर चित्र बनाते थे । फिर इसी तरह पीली मिट्टी, खड़िया मिट्टी का प्रयोग करने लगे । काले रंग के लिए कोयले का इस्तेमाल करते थे । '

एक बच्चे ने 'वाटर कलर' का डिब्बा दिखाकर कहा - 'लेकिन आंटी, इन रंगों को तो पानी में घोलकर पेंटिंग बनाते हैं । '

'हां, धीरे-धीरे रंगों को घोलकर चित्र बनाने लगे । सूखे रंग की बजाय गीले रंग से बनाए चित्र ज्यादा दिन तक चलते थे । जब गीले रंगों का प्रयोग शुरू हुआ तो कुछ और चीज़ों को भी रंगों के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा, जैसे हल्दी, पत्तियां, नील वगैरा । फिर कई रंगों को मिलाकर भी नये रंग बनाए गए । '

'आंटी! पानी के रंगों से जो पेंटिंग बनाते हैं, वो क्या कभी खराब नहीं होती?' मीनू ने पूछा । 

'यों तो पानी में भीगकर कोई भी पेंटिंग खराब हो सकती है । पर कच्चे रंगों की पेंटिंग जल्दी खराब हो जाती 

थी । इसलिए रंगों को पक्का बनाने के उपाय सोचे गए । रंगों को घोलकर पकाया गया, उनमें कुछ और चीज़े मिलायी गयीं । आजकल केमिकल्स मिलाए जाते हैं । '

'कपड़ों के रंग भी तो कच्चे-पक्के होते हैं, आंटी !' एक लड़के ने कहा । 

'कपड़ों को रंगने की क्रिया को 'डाई करना' कहते हैं । अगर रंग कच्चा है तो उस कपड़े को धोने पर वह रंग पानी के साथ निकलेगा । अगर रंग पक्का है तो नहीं निकलेगा । ' शीला बहन ने बताया । 

आंटी ! आयल पेंट किसे कहते हैं?'

'तेल में मिलाकर बनाए गए रंग आयल पेंट कहलाते 

हैं । इनसे तस्वीरें भी बनाते हैं । आजकल तो कई केमिकल्स का गरम घोल मिलाकर चमकदार रंग भी बनाए जाते हैं । इनसे घर की दीवारें और दरवाज़े-खिड़कियां रंगी जाती हैं । '

शीला बहन इधर बच्चों से बातें कर रही थीं । उधर लगभग सभी बच्चों ने अपने चित्र पूरे कर लिए थे । वहां नियुक्त शिक्षिकाओं ने उनके चित्र इकट्ठे कर लिए थे । शीला बहन ने सभी चित्र लिए और उन्हें निर्णायक मंडल के पास ले गयीं । 

अब तक, बच्चों के साथ आए माता-पिता ग्रैंड पार्क के गेट पर ही रोक दिए गए थे । प्रतियोगिता खत्म होने पर उन्हें अंदर आने दिया गया । 

मीनू भी अपने मम्मी-पापा से मिली । अपना लंच खाते हुए मीनू बोली- 'मम्मी! मुझे प्राइज चाहे न मिले । पर मैंने रंगों के बारे में बहुत कुछ जान लिया है । '

अच्छा, ऐसी बात है!' पापा ने कहा-'तो बताओ, हमें चीजें रंगीन क्यों दीखती हैं?'

'क्या पापा! कोई कठिन सवाल पूछते न ! अरे चीजें रंगीन होती हैं, इसलिए रंगीन दिखती हैं । '

'गलत' पापा ने कहा, 'चीज़ों के रंगीन दिखने का कारण कुछ और है । ' 'वह क्या?' मीनू ने पूछा । 

'जब हम कोई वस्तु देखते हैं तो उस पर पड़ने वाली रोशनी लौटकर हमारी आँखों पर पड़ती है-तभी वह चीज़ हमें दिखती है । अब उस वस्तु पर यदि सफेद रोशनी पड़ रही है तो हमें उसका वही रंग दिखेगा, जो उसका वास्तव में  है । अब जैसे गुलाब का लाल फूल है । अभी हमें लाल दिख रहा है । लेकिन इस पर अगर लाल रोशनी पड़े तो यह सफेद दिखेगा । होता यह है कि जब किसी वस्तु पर, दूसरे रंग की रोशनी पड़ती है तो वह उसमें से दूसरे रंगों को सोख लेती है और केवल एक ही रंग दिखलाती है । '

'मतलब यह कि इस लाल फूल ने, अपने ऊपर पड़ने वाली सफेद रोशनी से बाकी रंग तो सोख लिए और हमें केवल लाल रंग दिखा दिया । '

'हां! मान लो, इस पर नीली रोशनी पड़े तो यह काला दिखेगा, क्योंकि तब यह नीली रोशनी को पूरी तरह सोख लेगा और हमारी आंखों तक कोई दूसरा रंग नहीं पहुंचेगा । कौन-सी वस्तु, किस रंग की रोशनी ज्यादा सोखेगी, यह उस वस्तु के अपने रंग पर निर्भर करता है । '

इस बीच मीनू का दोस्त राजू पार्क में लगे अलग-अलग रंगों के फूल तोड़ लाया । 

'इन फूलों का क्या करोगे राजू ! इस तरह फूल तोड़कर तुमने पार्क की खूबसूरती कम कर दी । अब कभी ऐसा मत करना । ' मीनू की मम्मी ने समझाया । 

'पापा! इन फूलों को इतने सारे अलग-अलग रंग कैसे मिल जाते हैं?' मीनू ने पूछा । 

'फूलों को रंग देता है, उस रंग का एक खास रंग-द्रव या रंजक, जिसे अंग्रेजी में 'पिगमेंट' कहते हैं । हर फूल के पौधे में, यह रंग-द्रव मौजूद होता है । इनको तीन हिस्सों में रखा गया है । पहला है हरा रंग जो क्लोरोफिल से मिलता है । यही रंग पत्तियों और घास को हरा बनाता है । इसी के कारण संसार का समस्त वनस्पति जगत, सूर्य की रोशनी से अपना भोजन बनाकर ग्रहण करता है । अगर 'क्लोरोफिल' न हो तो धरती पर कोई वनस्पति पनपना असंभव हो जाए । '

'दूसरा हिस्सा है 'पीला' जिसे अंग्रेजी में 'कैरोटिनायड' कहते हैं । पीले रंग के भी साठ से ज्यादा हिस्से किए गए हैं- यानी गहरा पीला, उससे कम, उससे कम... फिर नारंगी, केसरिया आदि । इसलिए इसे दो भागों में बांटा गया-एक तो शुद्ध पीला यानी 'कैरोटिन' और दूसरा नारंगी पीला यानी 'जेन्थोफिल', पीले और नारंगी रंग के सभी 'शेड्स' या 'रंग भेद' इन्हीं दोनों से बनते हैं । '

'तीसरा हिस्सा है - लाल-नीला यानी 'एन्थोसायनिन'। यह वर्ग सबसे ज्यादा विविधता वाले रंग पैदा करता है । इसमें 'शेड्स' यानी 'रंग भेद' की संख्या ज्यादा होती है । लाल से लेकर हल्के गुलाबी रंग, नीले रंग के सभी शेड्स और बैंगनी रंग - 'एन्थोसायनिन' नामक रंग-द्रव द्वारा ही बनते हैं । 

‘क्लोराफिल' और ‘कैरोटिनायड' नामक रंग-द्रव फूलों की कोशिका में एक खास भाग में बंद होते हैं । उस भाग को 'क्लोरोप्लास्ट' और 'क्रोमोप्लास्ट' क्रमश: कहते हैं जबकि 'एन्थोसायनिन' का रंग- द्रव कोशिका में ही मौजूद रहता है, उसके किसी खास हिस्से में बंद नहीं होता । '

'पापा! हम अलग-अलग रंग के फूलों को देखकर कितना खुश होते हैं । पर शायद ही कोई सोचता हो कि इनको रंग कैसे मिलते हैं?' मीनू ने कहा । 

राजू बैठा उन फूलों को सूँघकर कह रहा था-'आहा! कितनी अच्छी महक है । '

मीनू की मम्मी ने कहा- 'बेटे राजू! फूल को कभी भी नाक से लगाकर नहीं सूंघना चाहिए । इनमें कई बार बहुत छोटे-छोटे कीड़े छिपे होते हैं । वे नाक के अंदर जा सकते हैं । '

'पापा! फूलों में महक कैसे आती है?' मीनू ने पूछा । 

'हां, यह भी बहुत अच्छा सवाल पूछा है तुमने !' पापा ने कहा 'फूलों में अपना एक विशेष किस्म का तेल होता है । खुशबू भी इसी में होती है । हवा चलने पर इस तेल की खुशबू हवा में शमिल हो जाती है और हमें महसूस होती है । फूलों के इसी तेल से फूलों के इत्र बनते हैं जैसे गुलाब, मोगरा, चमेली आदि । '

'अच्छा, अब काफी बातें हो चुकीं । ' मीनू की मम्मी ने कहा-'तुमने तो लंच भी ठीक से नहीं किया । जल्दी से खत्म करो । '

'मम्मी भूख नहीं है । ' मीनू ने लंच का डिब्बा बंद करके कहा । पार्क के बच्चों में हलचल शुरू हो गयी थी । निर्णायक मंडल ने चित्रकला प्रतियोगिता का परिणाम तैयार कर लिया था । उसकी घोषणा होने वाली थी, इसलिए सब बच्चे उधर ही जा रहे थे । मीनू और उसके मम्मी-पापा भी तुरंत उठे और उधर ही चल दिए जहां निर्णायक मंडल सदस्य बैठे थे । सभी बच्चों में उत्सुकता थी कि किसे-किसे आज पुरस्कार मिलेंगे । पर मीनू खुश थी कि आज उसने बहुत-सी जरूरी बातें जान ली हैं । उसके लिए यही सच्चा पुरस्कार था । 

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कंबल हमें गरम पर बरफ को ठंडा क्यों रखता है?

यह तो तुम जानते ही हो कि गरम करने से सब चीजें गरम हो जाती हैं । यह दूसरी बात है कि कुछ चीजें जल्दी गरम हो जाती हैं और कुछ देर में । जो चीजें जल्दी गरम हो जाती हैं, मतलब गरमी को जल्दी अपने अंदर ले लेती हैं, वे गरमी की अच्छी परिचालक कहलाती हैं । सोना, चांदी, लोहा, तांबा, पीतल आदि धातुएं गरमी की अच्छी परिचालक हैं । जो चीजें बहुत देर में गरम होती हैं, मतलब गरमी को जल्दी नहीं लेतीं, उन्हें गरमी की बुरी परिचालक कहते हैं, जैसे- हवा, लकड़ी और मिट्टी । 

कंबल भी गरमी का बुरा परिचालक है । यही कारण है कि जब हम उसे ओढ़ लेते हैं तो वह हमारे शरीर की गरमी को बाहर नहीं जाने देता, इसलिए हम गरम रहते हैं । 

बरफ गरमी पाकर पिघलता है । हम बरफ को कंबल में लपेट कर रखते हैं । कंबल गरमी का बुरा परिचालक होने के कारण बाहर की गरमी को बरफ तक पहुंचने नहीं देता । इसलिए बरफ नहीं पिघलता और ठंडा ही बना रहता
है । 

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जाड़ों में रंगीन और गरमियों में सफेद कपड़े
क्यों पहनते हैं?

रंगीन कपड़े सफेद कपड़ों के मुकाबले जल्दी गरमी ले लेते हैं और गरम हो जाते हैं । क्योंकि जाड़ों में हमें गरमी की जरूरत होती है, इसलिए रंगीन कपड़े पहनते हैं ताकि वे सूरज की गरमी लेकर जल्दी गरम हो जाएं । काले रंग में गरमी को सोखने की सब रंगों से अधिक शक्ति होती है, यही कारण है कि जाड़ों में ज्यादातर लोग काले कपड़े पहनते हैं । 

लेकिन गरमियों में हम गरमी से बचना चाहते हैं, इसलिए सफेद या हलके कपड़े पहनते हैं । ऐसे कपड़े सूरज से बहुत कम गरमी लेते हैं । और गरम नहीं होते । 

गरमियों में घड़ियां सुस्त क्यों हो जाती हैं?

यह हम तुम्हें बता चुके हैं कि गरमी पाकर सब चीजें फैलती हैं । धातु का बना होने के कारण घड़ी का पैंडुलम भी गरमी पाकर फैल जाता है । और, यही कारण है कि इसके चलने की गति धीमी पड़ जाती है । 

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जम्हाई क्यों आती है?

थक जाने पर जब हमें आलस के कारण नींद आने लगती है तो हम जम्हाई लेते हैं । दूसरे शब्दों में, जम्हाई तभी आती है जब हम गहरा सांस नहीं ले पाते और हमारे खून में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है । 

हमारे मस्तिष्क में एक छोटा-सा ज्ञान-तंतु होता है जिसका संबंध हमारी सांस लेने की क्रिया से है । खून में किसी भी प्रकार का परिवर्तन होते ही इसे सूचना मिल जाती है । जब इस ज्ञान-तंतु को पता चलता है कि खून में ऑक्सीजन की कमी हो गयी है तो यह हमें गहरा सांस खींचने के लिए मजबूर करता है । गहरा सांस खींचते ही खून में ऑक्सीजन की कमी पूरी हो जाती है । यही कारण है कि हम जम्हाई लेते हैं । 

जम्हाई लेना एक प्रकार से गहरा सांस खींचना ही है । 

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सुराही में पानी ठंडा क्यों रहता है?

मिट्टी की सुराही या घड़े को गौर से देखो । तुम देखोगे कि उसमें नन्हें-नन्हें अनगिनत छेद होते हैं । इन छेदों के कारण ही सुराही और घड़े पानी हर समय ठंडा रहता है । जानते हो कैसे? इन छेदों से सुराही का पानी भाप के रूप में बराबर बाहर निलकता रहता है । भाप बनते रहने से पानी की गरमी कम हो जाती है और वह ठंडा हो जाता है । 

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हमें पसीना क्यों आता है?

पसीना हमारे शरीर से निकलने वाला एक प्रकार का खारी पानी है । इसमें लगभग 99 हिस्से पानी और एक हिस्सा नमक होता है । पसीना हमारे शरीर से हर समय निकलता रहता है लेकिन हमें दिखाई नहीं देता । पसीने के रूप में हमारे खून और शरीर के बहुत-से हानिकारक पदार्थ भी बाहर निकल जाते हैं । अगर ये बाहर न निकलें तो हमारा शरीर तरह-तरह के रोगों का घर ही बन जाए । हर मनुष्य के शरीर में लगभग 23,00,000 पसीने की ग्रंथियों होती हैं । हर ग्रंथि की लंबाई 25 से.मी. होती है । अगर जोड़ें तो कुल ग्रंथियों की लंबाई लगभग चार कि.मी. हो जाती है । 

पसीने की ये ग्रंथियां दिन-रात काम करती रहती हैं और पसीना हर समय शरीर से निकलता रहता है लेकिन दिखाई नहीं देता । गरमियों के दिनों में या शारीरिक मेहनत करने पर शरीर का तापमान अधिक हो जाता है और खून का बहाव खाल की ओर होने लगता है । इस क्रिया से पसीने की ग्रंथियों को तेजी से काम करना पड़ता है और उसके फलस्वरूप बूंदों के रूप में पसीना खाल के ऊपर निकल आता है । चौबीस घंटे में एक-डेढ़ सेर तक पसीना निकलता है । 

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हम काले और गोरे क्यों होते हैं?

कुछ लोग एकदम काले होते हैं और कुछ गोरे । रूस और अमरीका के निवासी बहुत गोरे होते हैं जबकि अफरीका के लोग बहुत काले । हमारे देशवासियों का रंग प्राय: सांवला होता है; फिर भी दक्षिण के लोग कुछ काले और उत्तरी भारत के लोग प्रायः गोरे होते हैं । जानते हो, यह रंगभेद क्यों होता हे ?

हमारे शरीर के ऊपर की चमड़ी में अनगिनत छोटे-छोटे छेद जैसे कोष होते हैं । इन कोषों में एक खास तरह का रासायनिक पदार्थ होता है जिसमें चमड़े के रंगने का गुण होता है । किसी मनुष्य का गोरा या काला होना इसी रासायनिक पदार्थ पर निर्भर है । जिस मनुष्य की चमड़ी में यह पदार्थ कम मात्रा में होता है वह गोरा होता है । जिसकी चमड़ी में सामान्य मात्रा में होता है वह सांवला और जिसकी चमड़ी में बहुत अधिक मात्रा में होता है, वह काला होता है । पर इन सब पर जलवायु का बहुत अधिक असर पड़ता है । जब हम बीमार पड़ जाते हैं या कमजोर हो जाते हैं तब हमारा रंग पीला या सफेद पड़ जाता है । इसका कारण भी इस रासायनिक पदार्थ की मात्रा का कम होना ही है । 

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