Abhinav Imroz November 2023



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 कविताएँ


सुश्री संतोष श्रीवास्तव, –भोपाल (मध्य प्रदेश), मो .09769023188


अवाक है अस्तित्व

एक दर्दनाक चीख 

आसमान को बेधती चली गई


चेहरे पर सुलग उठी 

कई मन लकड़ियों की चिता 

जिसमें चेहरा तो जला ही 

साथ ही जल गए अरमान 

रंग भरे इंतजार

 

अभी सुबह ही तो सजाया था चेहरा

काजल बिंदी से 

नहीं जानती थी 

आईने में उसका अक्स 

यह अंतिम होगा 

कुछ ही पलों में आईना 

उसे देखने से इंकार कर देगा


छिन गया था 

सतरंगी सपनों का संसार 

बिना पतवार की नाव पर 

वह हिचकोले खा रही थी 

अम्ल घात के अंधेरों में 


वह चीख 

किस नस्ल की देन थी

खरपतवार सी बढ़ रही 

इस नस्ल ने 

परिभाषा बदल दी

मानवता की 

अवाक है अस्तित्व स्त्री का

रिक्त जाल

मछुआरे का जाल 

आज रिक्त है 

पूरनमासी का चाँद 

खिला है आकाश में 

समुद्री ज्वार की लहरों पर

डगमगा रही है नौका 

मछुआरा रिक्त जाल को 

आसमान में तान देना चाहता है 

कुछ तारे, थोड़ी सी रोशनी 

अपने हिस्से कर लेना चाहता है 

पर वहाँ भी कई प्रकाशवर्ष पहले 

टूटे तारों के टुकड़े हैं 

रोशनी का दर्द है

जाल को कंधे पर ढोता

वह लौटा है झोपड़े में 

वह ठंडे चूल्हे से 

नज़रें नहीं मिला पाता 

न ही पत्नी से 

जो घुटने मोड़े वही लुढ़क गई है 

जहाँ उसने जलाई थीं

धूपबत्तियां गणपति वंदना में 

जाल के भरे होने की कामना में 

उसके समंदर में जाने से पहले

कथड़ी में अपने बच्चों की 

बेनूर आँखों के सुलगते सवाल से

कविताएँ


वह सिहर उठा है 

सब कुछ आर -पार 

दिखाई देने लगा है 

जाल की तरह रिक्त जिंदगी का 

विकृत सच 

अब उसके पास 

न जिव्हा है न दाँत

जिव्हा और दाँतविहीन  मुख से 

उदर पूर्ति असंभव है 

वह अपने बच्चों के मुँह टटोल रहा है 

उनके गाल से गाल सटा कर

आश्वस्ति को दरकिनार कर 

एक शापित सच को धारे 

वह भूख का दर्द निभा रहा है 

रिक्त जाल पर खुद को समेट कर 


मुश्किल है समझना

मैं तब भी नहीं 

समझ पाई थी तुम्हें 

जब सितारों भरी रात में 

डेक पर लेट कर 

अनंत आकाश की 

गहराइयों में डूबकर 

तुमने कहा था 

हां प्यार है मुझे तुमसे

समुद्र करीब ही गरजा था 

करीब ही उछली थी एक लहर 

बहुत करीब से 

एक तारा टूट कर हंसा था 

तब तुमने कहा था 

हां प्यार है मुझे तुमसे 

जब युद्ध के बुलावे पर 

जाते हुए तुम्हारे कदम 

रुके थे पलभर 

तुमने मेरे माथे को 

चूम कर कहा था 

इंतजार करना मेरा 

तुम्हारी जीप 

रात में धंसती चली गई 

एक लाल रोशनी लिये

मुझे लगा 

अनुराग के उस लाल रंग में 

सर्वांग मैं भी तो डूब चुकी हूं

हां मैं बताना चाहूंगी 


तुम्हारे लौटने पर 

कि तुम्हारी असीमित गहराई 

तुम्हारी ऊंचाईयों

को जानना

मेरी कुव्वत से परे है

मैंने तो तुम्हारी 

बंद खिड़की की दरार से 

तुम्हें एक नजर देखा भर है

और बस प्यार किया है 


पाजेब कहती है

मैं तुम्हारे शहर में 

अजनबी हूँ सुल्तान अब्राहिम 

तुम्हारी बादशाहत की 

गवाही देता शहर बुखारा

 

पर कहीं नहीं दिख रहे 

तुम्हारे 18 लाख

घोड़ों, हाथियों के निशान 

तुम्हारे सवा लाख के जूते 

हीरे, पन्ने, जवाहरात 

कुछ भी तो नहीं 

एक सन्नाटा है 

तुम्हारी बादशाहत का

 

सूने वीरान महल, दरीचे 

न जाने क्यों मौन हैं 

तिलिस्म सा रचती 

उंगली पकड़कर 

राजपथ की ओर ले जाती 

गलियाँ मौन घुटन 

और सन्नाटे से भरी हैं 

इन गलियों में घूमते हुए 

सुल्तान अब्राहिम मैंने तुम्हारी 

16 हज़ार पटरानियों के 

महल भी देखे

महल के हरम भी देखे

हम्माम भी देखे

मीना बाजार भी देखे

जहाँ बिकते थे जिस्म

तुम्हारी हवस 

और विलासिता की गवाही देते 

सारे के सारे 


बुर्जियाँ, नक्कारखाना, 

दीवानेखास बारादरी 

उठते बैठते कबूतर 

एक ठंडा सन्नाटा 

एक दर्द भरा इतिहास 

16 हज़ार मलिकाओं का 

चलते चलते रुकी हूँ

सुनाई दी है पाजेब की 

समवेत आवाज़ें

छन छन छन छन 

जैसे गर्म तवे पर पानी की बूंदे 

तुम नहीं हो सुल्तान अब्राहिम 

पर तुम्हारे औरत पर किए 

जुल्म जिंदा है 

उन जिंदा जुल्मों के साथ 

तुम भी सुलग रहे हो 

आसान नहीं है 

औरत पर जुल्म कर 

एक पल को भी चैन पाना 

(बुखारा 5 हज़ार साल पुराना उज्बेकिस्तान का प्राचीन शहर जिसका स्थापत्य भी 5 हजार साल पुराना है)


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संपादकीय



मेरी तीन बेटियाँ हैं । मोनिका, भावना, और प्रतिमा- प्रखर, प्रकटा एवं व्यवहार कुशल व्यक्तित्व की मालिक हैं । और तीनों जिंदादिल, हास्यप्रिय और संवेदनशीलता का स्तर भी एक समान हैं परंतु प्रतिमा- बहिर्मुखी, स्पष्टवादी, मुखर, मस्त, देखने में बेपरवा लेकिन फित्रतन होती है फ़िक्रमंद इसके बावजूद जीवन को उत्सव मानना और मनाने की चेष्टा करते रहना ही उसका जीवन यापन है । उसका ख्वाहिशनुमां फर्मान हेाता है कि मैं उसके जन्म दिन पर कविता या कवितामय संदेश भेजूँ । जो, जैसा वह चाहती है वैसा मैं आज तक कर ही नहीं पाया । कारण: शब्दों का अकाल, सुयोजन में बिखराव और सटीक अभिव्यक्ति का लोप हो जाना ।

इस बार उसका पचासवाँ जन्मदिन था जो उसने अमरीका में अपनी बेटियों के संग मनाया । वहाँ से धमकी भरा फोन आया कि आप को कुछ न कुछ लिखना ही पड़ेगा- मैं हैरान और परेशान था क्योंकि दिमाग में कुछ आ ही नहीं रहा था और जो आ रहा था- उसका त्रुटिहीन संयोजन या कह लें कि ‘ख्याल’ की सही तरजुमानी नहीं हो पा रही थी- दिमाग़ी तवाज़ुन ही गड़बड़ा रहा था । मैं आदत से मजबूर मात्र औपचारिकता निभाने में यक़ीन नहीं रखता । अब करूँ तो क्या करूँ । पसोपेश एक तरफ तो असंमजस दूसरे छोर पर- दिमाग़ी मोतीयाविंद से ग्रसित स्थिति से जूझना और कुछ भी न सूझना इस हद तक पहुँच चुका था कि मैं जुलाई-अगस्त, सिंतबर और अक्टूबर के अंक भी ढंग से नहीं प्रकाशित कर पाया । इसी दौरान मेरी सिस्टोसकॉपी का अपरेशन भी होना था- ख़ैर! मैं अपनी बेटी को कुछ भी न लिखकर भेज सका । सिवाए एक साधारण सा व्हाटसअप मैसेज जिससे मैं आत्मग्लानि से ग्रस्त हो गया । 

अक्टूबर में मुझे डॉ. सीमा शाह जी द्वारा कृत एक कविता संग्रह ‘ताकि मैं लिख सकूँ’ प्राप्त हुआ । जिसने मेरी साहित्य के प्रति आस्था और प्रतिबद्धता सिद्ध कर दी कि साहित्य संजीवनी है । और हमारे अंतर  द्वंद्वों का समाधान एवं सरलीकरण साहित्यिक अध्ययन से हो सकता है । जीवन में जीर्णोद्धार साहित्य अध्ययन से ही सम्भव है । 

जब मैंने ‘ताकि मैं लिख सकूँ’ में रचित कविता ‘बेटियाँ’ पढ़ी तो मुझे अपनी बेटियों के संदर्भ में अभिव्यक्ति का उपहार मिला जो मेरे ‘ख्याल’ का सटीक दर्पण है । आओ इस कविता का आनन्द उठाते हुए अपनी बेटियों का उत्सव मनाएँ—

बेटियाँ (कविता के कुछ अंश)

बेटियाँ
नन्ही वंदनाएँ
नवल प्रभात-सी आशाएँ
घरों की शीतल हवाएँ
देहरियों की अल्पनाएँ...
बेटियाँ
वैदिक ऋचाएँ
सुकुमार कोमल कल्पनाएँ
कवि की सुन्दर गीतिकाएँ
हर युग की स्वर्णिम गाथाएँ
बेटियाँ
समय की धार में 
द्रौपदी का चीरहरण
सीता की अग्निपरीक्षा
जैसी युग सन्दर्भ कथाएँ....

बेटियाँ
वैदिक ऋचाओं की 
स्वयंभू रचनाएँ बनो,
वंचनाएं नहीं...
छलकती घटाएँ बनो,
नदी सी बहो
कूल कगारों की 
मर्यादा निभा जाओ,
ढूँढों 
अपने ही भीतर
नन्हा बचपन
मुँडेर पर 
जलते दीपक का स्पंदन...
टिमटिमाती अठखेलियों से
हरो तिमिर के बन्धन,
सु-मधुर
तरुणाई के उपवन की
नन्ही कलिकाओं
उठो 
फूल बनो
सौरभ बिखेरो
छा जाओ
अपने अम्बर पर
सिलवटों में लिपटे
अनुभवों को
खो न देना
मेरी अनुपम ललनाओं...!

डॉ. सीमा शाहजी, थांदला जिला झाबुआ, मो. 7987678511


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कहानी
डॉ. कमला दत्त, -Georgia, USA, Email : kdut1769@gmail.com

मछली सलीब पर टंगी

लाइनों वाला उसका कार्ड सामने पड़ा है - 'मैं यहाँ तीस को शादी करवा रहा हूं, हो सके तो माफ कर देना । मुझे खुद ही नहीं मालूम, किस मुसीबत में पड़ रहा हूं ।' पढ़ने के कुछ देर बाद तक एक अंधेरा-सा छाया रहा था । दोबारा पढ़ने की कोशिश करने पर कोई अक्षर उभरता और कोई मिटता-सा नजर आया था । दिमाग ने कुछ भी महसूस करने से इंकार ही कर दिया था । कुछ देर के लिए सभी कुछ बर्फ के मानिंद जम कर रह गया था । होश आने पर सिर में नगाड़े से बजते रहे थे । बस एक ही आवाज गूंजती रही थी— उसने शादी कर ली । कुछ देर तक वह निष्चेष्ट - सी बैठी रही थी । उसे पता भी नहीं चला कि वह सांस भी ले रही थी, या उसकी धड़कन चल रही थी । इसी तरह न जाने कितनी देर तक बैठे रहने के बाद जब उसकी सोयी हुई एक टांग हिली थी और ढेर सारी सूइयां एक साथ चुभ गयी थीं, तो लगा था, अभी वह पूरी तरह से नहीं मरी थी । एकाएक उसकी आंखों के सामने ढेर सारे चूहे घूम गये थे । लैब में एक आदमी झटके से गर्दन खींच चूहे मारता है और दूसरे को पकड़ता चला जाता है । दूसरा आदमी चीर-फाड़ से पहले चूहे को सूइयों से कार्डबोर्ड पर लगाता है, और ऐसे में कभी-कभार कोई चूहा हाथ-पाँव हिला यह जाहिर कर देता है अभी मैं मरा नहीं, अभी मैं जिंदा हूं । तुम मुझे नहीं मार सकते । और फिर किसी का फोन आने पर देर तक वह रोना नहीं बन्द कर पायी थी । एक कमरे से दूसरे में, दूसरे से तीसरे तक बस लगातार घूमती रही थी । मन हुआ था, जोर से चिल्ला ही दे ; घर के सभी बर्तन - क्रॉकरी तोड़ डाले, शीशे दरवाज़े सभी कुछ फोड़ डाले, अपना सिर दीवार पर पटक दे, ढेर सारी गोलियां एक साथ खा ले, या सभी खिड़कियां दरवाजे बन्द कर गैस ही खुली छोड़ दे । लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ । फिर टेलीफोन उठा उसे एक तार भेज दिया था - 'तुम जो सुख चाहते हो, और जिसके हकदार हो, वह तुम्हें जरूर मिले ।'

वह सोचती है कि हर बार यह सब कुछ उसी के साथ क्यों हुआ है । अब तो कुछ याद भी नहीं रहता । बीस साल से लेकर पैंतीस साल की उम्र तक यह सब कुछ कितनी बार हुआ है ! बस उसकी भी जैसे जिद भर है - मैं टूट नहीं सकती । मैं जिन्दा रहूंगी । तब वह कैन्साज में थी । तीन दिन लगातार बर्फ पड़ती रही थी । तीन दिन कमरे में कैद रहने के बाद जब वह पास वाले स्टोर तक खाने की कुछ चीजें लेने गयी थी, तो वापस आते हुए उसका पैर बर्फ के अन्दर काफी गहरे तक फंस कर रह गया था । बड़ी मुश्किल से खींचकर जब उसने जूता बाहर निकाला, तो देखकर हैरान रह गयी थी । साथ में बाहर निकल आयी थी, जंगली घास की एक हरी कोपल । उसने सोचा था, उसकी जीने की तासीर भी इस जंगली घास की तरह ही है, जो इतनी बर्फ के नीचे भी हरी रह गयी । वह हमेशा किसी-न- किसी बात को लेकर जूझती ही रही है । और कुछ-न-कुछ पकड़ने को भागती रही है, पर हर बार उसके हाथों में खालीपन आया है और उसकी जिन्दगी में सिर्फ ठण्डक ही बढ़ी है, कुछ देर की गर्मी के बाद तो ठण्डक - और भी भेद डालती है । और फिर उसके इर्द-गिर्द एक दीवार -सी घिर जाती है । वह दफ्तर से घर, घर से दफ्तर -- बस अपने कमरे में बन्द - सी हो जाती है ।

यह सब कुछ इतनी बार हुआ है कि वह बहुत-सी बचकानी बातों में विश्वास करने लगी है । जैसे कि पूर्व जन्म के कर्म, या वह एक अभिशप्त पत्थर की शिला - सी है, जो हर पास से गुजरने वाले को राम मान कोई आशा बाँध लेती है । इस बार तो वह अकेलेपन की आदी सी होने लगी थी । काम और खूब जी भर कर काम । शनिवार को घर की सफाई, ग्रॉसरी शॉपिंग, डिपार्टमेंटल स्टोर्स में भटकते रहना । इतवार को वेदान्त सेंटर या फिर हिन्दी की कोई फिल्म । बस सभी कुछ बँधा - बँधाया, ऐसे ही एक आध दोस्त से टेलीफोन पर बात कर ली, या कुछ लोगों को खाने पर बुला लिया, या स्वयं ही किसी के घर चली गयी । ऐसे में एकाएक तुम क्यों कर आ गये थे ?

'देखो तुमने कुछ भी तो नहीं पूछा मेरे बारे में कि मैं कौन ? कैसी हूं ? इतने साल क्या करती रही हूं ? मेरे साथ इन सालों में क्या हुआ है ? और या यही कि मैंने अब तक शादी क्यों नहीं करवायी, या क्यों हुई ही नहीं ?"

'मुझे तुम्हारी बीती जिन्दगी से कुछ भी नहीं लेना । इस वक्त तुम मेरे पास हो और सिर्फ मेरी हो, और अगर मैं तुम्हारे अतीत के बारे में सवाल पूछूंगा, तो तुम भी तो मेरे बारे में सवाल पूछोगी ।'

'यह ठीक नहीं है । तुम सवाल इसलिए नहीं कर रहे कि तुम्हें जवाब देने पड़ेंगे । तुम डर रहे हो, तुम डरते हो । तुम कुछ छुपा रहे हो ।'

'मैं अतीत को कुरेदना नहीं चाहता । अपने अतीत में मुझे अंधेरा-ही- अंधेरा दिखाई देता है और अब जबकि मेरे पास सभी कुछ है, मैं भूत के अंधेरे में भटकना नहीं चाहता, उसे कुरेदना नहीं चाहता । तुम चाहो तो सवाल पूछ सकती हो । बोलो, क्या पूछना है ?"

वह हँस कर रह गयी थी । लगा था, कितना समझदार है, कुछ भी तो नहीं पूछना चाहता । उसे वह अपनी धुन में कहती चली गयी थी, मेरे लिए किसी भी रिश्ते के लिए ईमानदारी बहुत जरूरी हो जाती है । तुम पूछो या न पूछो, मैं सभी कुछ बताऊँगी ।' और वह शुरू से अन्त तक सभी कुछ बना गयी थी । उसने कटघरे में खड़े कैदी की तरह उसकी ओर देख कर कहा था, 'तुम अभी भी अपना फैसला बदल सकते हो । मैं अभी इतनी इनवॉल्ड नहीं कि टूट ही जाऊँ । देखो, मेरे साथ धोखा मत करना ।'

बाद में जब वे बहुत करीब आ गये, तो एक दिन कहने लगा था - 'मैं तो आजमा रहा था कि ईमानदारी का दावा करने वाली लड़की कितनी ईमानदार हो सकती है ।' मन में आया था - तो यह आदमी शक भी कर सकता है ! फिर लगा था, नहीं, वही हर बात पर नोंक-झोंक -सी करती रहती है ।

फिर एक दिन कहने लगा था, 'मैं तो लिजा के तलाक के बाद एकदम टूट ही गया था । तुमने उबार लिया है । लगता है, मेरी जिन्दगी में इतना सुख कभी था ही नहीं । इतने गुण, शील वाली, इतनी सुन्दर, इतनी अच्छी लड़की इतनी देर तक कहाँ छुपी रही ! मैं तुम्हें कभी भी दुख नहीं पहुंचाऊंगा !'

एक बार फिर यह कहने पर कि 'देखो, मैंने तुम्हें अपने बारे में सभी कुछ बता दिया है, तुम अपने बारे में कुछ भी नहीं बताते, क्या यह ठीक है ?' कहने लगा, 'अरे भई, मेरे बारे में बताने को है ही क्या । लिजा से शादी की, जो नहीं निभी । बस हमें जिस लड़की की बरसों से तलाश थी, वह हमें मिल गयी । अब हमें कुछ भी नहीं चाहिए ।'

यह लगने पर भी कि वह टाल रहा है, वह चुप रह गयी थी । वह जो कुछ भी कह रहा था, मान गयी थी ।

इससे पहले कि दिमाग ढेर सारे सवाल करे वह स्टीरियो की आवाज ही ऊंची कर देती थी, या कोई और काम करने लग जाती थी । वह अकेलेपन से बेहद घबरा गयी थी । वह मान लेती थी कि वह इतनी बार ठगी गयी है कि हर किसी को शक की निगाह से देखने लगी है । तब सोचा था, अब अकेलापन भरने लगा है, तो भरने देगी । बाद का एक साल कैसे बीता, यह तो उसे भी याद नहीं । हर साल वह हास्पिटल लेने पहुँच जाता, फिर सोने भर के लिए ही घर जाता और कभी वह भी नहीं । किसी छुट्टी के दिन, कभी भी एक घण्टे को भी अकेले नहीं रहने दिया । हास्पिटल में भी तो सभी कहने लगे थे कि डॉक्टर आलोका आजकल तो आपका रंग ही बदल गया है । लगता ही नहीं कि आप वही पुरानी डॉक्टर आलोका हैं, एकदम चुप रहने वाली, बात-बात पर खीझने वाली । हिन्दुस्तानी सहेलियां भी कहने लगी थीं— क्या बात है, अब तो तुम मिलती ही नहीं, बोलो तो खुशखबरी कब सुना रही हो ?

उसके एकाएक हिन्दुस्तान जाने की बात सुन कर उसे शक -सा हुआ था । बोला था - माँ बेहद बीमार है, जाना जरूरी है ।' उसके पूछने पर कि सच कहो, शादी के लिए तो नहीं जा रहे हो, वह कह उठा था - 'बस माँ से सारी बात कर जल्द वापस लौट आऊंगा । हो सकता है, हम क्रिसमस पर शादी ही कर लें । 

और अब 'माफ कर देना !' लोग समझते हैं, महज कह देने से वे उऋण हो जाते हैं । सारे बोझ हट जाते हैं । और माफ कर देना ही कौन इतना आसान है ! इस गुस्से और दुख के बीच भी उसे हंसी आने लगती है । तब वह नयी-नयी वेस्ट इण्डीज से आयी थी । रिसर्च लैब में अपने बॉस से यह पूछने पर कि 'शुड आई किल दी माइस', वे हंस कर बोले थे, 'वी डोण्ट किल, वी सेकरीफाइस' । अजीब लगा था । मारने को 'बली' कह कर लोग कितनी आसानी से अपनी तसल्ली कर लेते हैं । उसका लैब असिस्टेण्ट भी तो हर बार यही कहता था - 'हे भगवान् मुझे क्षमा करना, यह सब तो 'एक नेक काम के लिए है ।'

उसे लगता है, इसने भी कुछ ऐसा ही सोच लिया होगा कि किसी अबोध, गरीब हिन्दुस्तानी लड़की का उद्धार ही कर रहा है, या कि अपनी मां की मुक्ति के लिए ही सभी कुछ कर रहा है । कैसे कहता था और हां, अपना सेलिंग परमिट तैयार रखना । टेलीग्राम दूं, तो जल्द पहुँच जाना । मुमकिन है, मां शादी के लिए ही जोर दे ।'

उसे लगता है, यह सब कुछ इतनी बार हुआ है, तो उसकी भी कुछ न कुछ गलती जरूर है । वह अपने को बार-बार कुरेदती है । इस बार कहां गलती रह गयी, कहां गलती हो गयी ! इस बार तो उसने बहुत संभल- संभल कर हर बात की थी, समझदारी के साथ हर कदम उठाया था । घबरा कर वह खिड़की खोल लेती है । चारों तरफ बर्फ ही बर्फ है । ढेर सारी बर्फ, जो पहले मुलायम रही होगी । बस अब पत्थर की सफेद चादर बन कर रह गयी है । उसे लगता है, बर्फ भी उसी की तरह है । उसका मन हाथ बढ़ा कर बाहर झाड़ी पकड़ने का होता है । ठूंठ पर जमी बर्फ नलियों की तरह लग रही है । वह हाथ बढ़ा कर पकड़ लेती है । पहले बड़ी ठण्डक महसूस होती है और फिर बर्फ पिघलने लगती है । बाद में उसके हाथ में बच जाते हैं - कुछ ठण्डे पानी के कतरे । वह अपने को शायद यही याद दिलाना चाहती है कि अभी वो जिन्दा 

है । अभी वह ठण्डक और गर्मी महसूस करती है । उसके तन्तुं अभी भी संवेदनशील हैं । वह हैरान-सी होती है. कि अभी तक उसका नर्वस ब्रेकडाउन क्यों नहीं हुआ । उसकी जिन्दगी के पिछले पन्द्रह साल दुरुह रेगिस्तान की तरह रहे हैं, जिनमें कभी-कभार कोई कैक्टस फूला तो है, पर ढेर सारे कांटे भी साथ उभरे हैं । और जब कभी उसने सुन्दर रंगोंवाले कैक्टस के फूलों को हाथ में लेना चाहा है, उसके हाथ लहूलुहान होकर रह गये हैं, बरसों पहले किसी ने कहा था; 'क्या: तुमने कभी सोचा है, कैक्टस के भी फूल निकलते हैं और वे बेहद सुन्दर होते हैं, डॉक्टर आलोका, आपने अपना घर कैक्टस से भर डाला है । आप में भी कितना विरोधाभास है । कहां कैक्टस और कहा गुलाब के फूल ! '

डॉक्टर आलोका - वेस्ट इण्डीज की सबसे पहली हिन्दुस्तानी लेडी डॉक्टर, उसकी अपनी उपलब्धियां ही उसकी सीमाएं बनती रही हैं । अगर वह डॉक्टर न बन कर टीचर या नर्स ही बन गयी होती, तो कितना अच्छा रहता ! उसे अपनी जान पहचान वाली लड़कियों की याद आती है, जो हर लिहाज से उससे कम हैं, पर सभी की शादियां अच्छे-अच्छे लड़कों से हो गयी हैं । उसकी अब की जान-पहचान की लड़कियों को ही लो । कितनी मामूली हैं, पर सभी की शादियां हो चुकी हैं । कितना नाज दिखाती हैं अपने खाविन्दों का, कितनी ऐंठ-ऐंठ कर बातें करती हैं । वह सोचती है,. इनका और उसका मुकाबला ही क्या है । कहां उसका इन्टेलेक्चुअल सामर्थ्य और कहां ये सब की सब फूहड़ औरतें । पर वह जानती है कि यह सब तो वह अपने अहम् को तुष्ट करने के लिए ही कर रही है । वह जानती है कि वह हार गयी है और कहीं न कहीं बेहद ठगी गयी है ।

तब वह शायद चौबीस की थी । माँ का लन्दन से खत आया था- जल्दी पहुंचो, हमने बड़ा अच्छा लड़का ढूंढ़  लिया है । वहां पहुंच कर सगाई के बाद क्लब में डांस करते वक्त उसने कहा था, 'आप अपनी नौकरी छोड़ देंगी न ! मैं नहीं चाहता, मेरी बीवी नौकरी करे । मैं चाहूंगा कि मेरी बीवी घर पर रहे । बच्चों की देखभाल करे । बच्चे बड़े हो जायें, तो भले ही नौकरी शुरू कर दे । मुझे पैसे का कोई लालच नहीं, मेरे पास बहुत पैसा है ।'

उसने पूछा था, 'क्या आप अपनी नौकरी छोड़ना पसन्द करेंगे ।' और बस वह अंगूठी देकर वापस लौट आयी थी । तब सिर्फ चौबीस की थी और अपने ऊपर ढेर सारा गुमान था । माँ का दूसरा टेलिग्राम पांच साल बाद आया था । हमने बड़ा अच्छा लड़का ढूंढ़ लिया है ।

अच्छा लड़का ! उसे तो आदमी कहना चाहिए था । विधुर और एक बच्चे का बाप भी । तभी नया-नया हिन्दुस्तान से लन्दन पहुंचा था । लाल बी में सड़क पार करने पर जब उसने टोका, तो भड़क पड़ा था- 'तुम अपने को समझती क्या हो ? तुम वेस्ट इण्डीज में क्या पैदा हुईं, लन्दन में, क्या पली, बस किसी को कुछ समझती ही नहीं । तुम साड़ी पहनने के बावजूद भी एकदम अमरीकन हो । मुझे तो सही मायनों में एक हिन्दुस्तानी लड़की चाहिए तुम मेरे लिये बहुत ही ज्यादा एडवांस्ड हो ।'

उसने सिटपिटा कर हार मान ली थी । कहा था- 'मैं तो बस यूं ही कह रही थी, आप चाहेंगे, तो मैं कुछ भी नहीं  कहूंगी ।' बाद में उसने किसी छोटी उम्र की खूबसूरत लड़की से शादी कर ली थी । और इसीलिये उसे बेहद खूबसूरत लड़कियों से चिढ़ हो गयी थी । वैसे देखने में वह खुद बुरी नहीं है । उसे अपनी शादीशुदा सहेलियों की बातें याद आयी थीं - 'देखो भाई, लड़कों के साथ एकदम साफगोई नहीं चलती । थोड़ा-सा भ्रम डाले रहो, थोड़ी रहस्यमयी  बनो । बस ऐसे ही थोड़ा यह थोड़ा वह ।

उसे अपनी मां पर बड़ा गुस्सा आया था, जिन्होंने उसे बेहद हिन्दुस्तानी बनाने की कोशिश में डाक्टरी की पढ़ाई के साथ खाना बनाना, सिलाई- कढ़ाई, घर के सभी काम तो सिखा दिये, पर वैसा कुछ भी नहीं सिखाया । माँ, तुमने ऐसा-वैसा कुछ भी कभी नहीं करने दिया, हमेशा 'हिन्दुस्तानी लड़कियां ऐसा नहीं करतीं, वैसा नहीं करतीं, बस ढेर सारा सलीका यही कह कर सिखा दिया । अब हालत यह है कि मुझे कोई हिन्दुस्तानी मानने को तैयार ही नहीं है ।

पर वह जानती है कि उसके अपने आपसे कुछ भी कहते रहने के बावजूद वह एकदम सीधी-सादी ही रहेगी जान बूझ कर खेल खेलना, हाव-भाव दिखाना उसके बस की बात नहीं । यह सब उससे कभी नहीं हो पायेगा । यह सब तो आम लड़कियों वाली बातें हैं ।

इस बीच कुछ साल और फिसल गये थे, कुछ-कुछ सफेद बाल और दिखने लगे थे । शुरू-शुरू में गिन-गिन कर निकाल देती थी, फिर तो बाल ही दूसरे ढंग से बनाने लगी थी । बचपन में एक बार स्कूल में किसी ने कह दिया था, हर एक बच्चे के लिए सिर में एक सफेद बाल रहता है । अगर वह बाल न हो, तो कोई भी उसे प्यार नहीं करता । सहेलियाँ उसके सिर में कोई भी सफेद बाल नहीं ढूंढ पायी थीं । घर आकर कितना रोयी थी ! मां और पापा ने कितनी मुश्किल से मनाया था । आज ढेर सारे सफेद बाल निकल आये हैं, पर प्यार नहीं ।

'आप पहले जैसी नहीं दिखतीं । अब बुझी बुझी क्यों रहती हैं ?' ऐसी- वैसी बातों को सुनने के बाद उसने बाल रंगने शुरू कर दिये थे । अगर किसी का पति उसमें जरा भी दिलचस्पी दिखाता और अपने पति का सहारा लिये कोई भाग्यवती कुछ चिढ़ना या कुलबुलाना शुरू कर देती, तो उसे अच्छा ही लगता था ।

फिर माँ ने खत लिखने बन्द कर दिये थे । शायद पूजा-पाठ करवा- करवा कर तंग आ गयी थी, उस बार पापा का खत आया था — इस बार तेरे लिए एक बिलकुल, 'परफेक्ट मेच' ढूंढ़ लिया है । वह उसे लेने कैंसाज से न्यूयार्क गयी थी । दूसरे दिन ही - 'आप खुल कर नहीं जीतीं, इतनी झिझकी क्यों रहती है ? अपने-आप को जरा खुला क्यों नहीं छोड़तीं ? आप तो वेस्ट इण्डीज में पैदा हुई, लन्दन में पली हैं, लेकिन फिर भी दकियानूसी बातों में विश्वास करती हैं ? छोड़िये भी उन पुरानी जमाने वाली बातों को । आप विवाह पूर्व सेक्स सम्बन्धों के इतनी खिलाफ क्यों हैं ? आप कितनी अच्छी-भली और सुन्दर तो हैं देखने में । तब क्यों ? '

वह तब पहली बार पत्थर हुई थी । लगा था, जैसे किसी ने बर्फ की बड़ी-बड़ी सिलों में जड़ दिया हो । पता नहीं, लोग क्यों कर मान लेते हैं कि वह कुछ कहती नहीं, तो महसूस भी नहीं करती । बस पत्थर भर है । तब तक यह सुनते-सुनते तंग आ गयी थी । हर चीज में समझौता है, चाहे वह कोई भी काम, लोग, या पढ़ाई ही क्यों न हो, जिन्दगी का नाम ही शायद समझौता है ।

उस आदमी का उसे औरत ही न मानना उसे एकदम झकझोर गया था, कितना उद्वेलित कर गया था । जैसे कुछ कर दिखाने भर के लिए, कुछ साबित करने के लिए ही मान गयी थी । और बाद में 'आप तो सब कुछ समझती हैं, मैं सोचता था कि एकदम नासमझ होगी, तभी इतना डर रही थी । उसका मन हुआ था कि चिल्ला कर कहे, मेरी उम्र बत्तीस साल की है । मैं डाक्टर हूँ । मैं क्या नहीं जानती या समझती । फिर न जाने किस बात पर वे दोनों उलझ पड़े थे ।

'मुझे कैसे विश्वास हो कि आप यही सब पहले से नहीं करती रही हैं ।'

इस हादसे के बहुत देर बाद तक वह अपराध भावना से घिरी रही थी । इतने वर्षों का संयम उसने क्यों तोड़ डाला । उसके बाद तो जब-तब और भी भूख लगती है ।

इस सबके बाद उसने मान लिया था । उसकी अपनी सीमाएँ हैं । वह घर चाहती है, पति चाहती है, बच्चे चाहती है, लेकिन उसकी उम्र और डिग्रियाँ ही उसकी सीमाएँ बन कर रह गई हैं । या उसमें ही ऐसा कुछ है कि हर बार बात बिखर जाती है, लोग इतनी करीब आ कर पलट जाते हैं । उसे अपने एक पुराने टीचर की याद आती है । कहते थे – तुम इतनी कुशाग्र बुद्धिवाली हो कि लड़के तो सहम कर तुमसे दूर हट जाते हैं ।

शादीशुदा सहेलियों के लेक्चर कुछ और बढ़ गये थे । 'माना, तुम्हारे पास अच्छा घर है । ढेर सारा सलीका है, डॉक्टर होने के अलावा सिलाई- कढ़ाई, खाना बनाना, सभी कुछ में प्रवीण हो । बट हू वाँट्स ए परफेक्ट वाइफ एनी हाऊ ? '

उसका मन हुआ था कि इस जाहिल औरत से चिल्ला कर कहे- तुम अभी मेरे घर से निकल जाओ । बिल्कुल इसी वक्त । बड़ी हमदर्द बनने की कोशिश करती हो । क्या है तुम्हारे पास, जो इतना अच्छा खाविंद मिल गया । भाग्य भी तो मूरखों की मदद करता है । सोचा था, कभी इसे करारा-सा जवाब देकर तिलमिला देंगी । मन में एक दिलचस्प खयाल भी आया था कि इसके पति को, जो उसके पीछे बराबर लगा रहता है और जिसे वह हमेशा निरुत्साहित करती रहती है, कभी थोड़ी लिफ्ट ही क्यों न दे दे । देखती हूं, तब कैसे न रोते हुए मेरे पास भागी आयेगी । पर नहीं, हे भगवान, ये लोग अपने को संभालें । मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें । कितना गंदा घर रखती है यह । खाना बनाना तक नहीं आता । वैसे बड़ी इन्टेलेक्चुअल बनने की कोशिश करती है ।

ऐसे ही टूटन भरे दिनों में वह मिला था । तब तक वह सभी बंदिशें तोड़ चुकी थी । बस सोच लिया था कि किसी के मिलते ही लिफ्ट का जवाव लिफ्ट से देगी । उसने उसके साथ कोई बन्दिशें नहीं रखीं । बस मान 'भर लिया था, उसको अपनी कुछ जरूरतें हैं, जिनका पूरा होना भी निहायत जरूरी है, उसने भी तो पहले से ही कह दिया था, 'मुझे कुछ भी ठीक से समझ नहीं आता । मुझे लगता है, मैं अब शादी के बंधन में नहीं बंध पाऊँगा । असल में मैं किसी भी चक्कर या जिम्मेदारी में नहीं फंसना चाहता ।'

वह इतनी टूट चुकी थी कि किसी के साथ जुड़ा रहना उसके लिए बहुत जरूरी हो गया था । अपना अहम् पुष्ट करने के लिए ही कुछ करना जरूर हो गया था । भले ही वैसा रिश्ता पूरी तरह से शारीरिक स्तर पर ही क्यों न हो । शादीशुदा औरतें उसे चिढ़ाती या उससे चिढ़ती हुई नज़र आती थीं । अब तक वह एक मकान खरीदा, बेचा, दूसरा खरीदा; यह सोशल वर्क, वह सेवा कार्य किया, इस सबसे भी तंग आ गयी थी । फिर तो लोगों की शादियों या पार्टियों पर जाना एक आदत बन गयी थी ।

'लिजा ने तो मुझे महसूस ही नहीं होने दिया कि मैं भी आदमी हूं, या मेरा भी अहम् है । मैं भी किसी तरह उससे कम नहीं था ।'

उसे लगा था, उसने किसी दुखी बच्चे को शान्त कर दिया है । उसका सब दुख बाँट लिया है और साथ में खुद भी हल्की हो गयी है । लगा था, जिन्दगी में कोई अर्थ है । उसने कहा था, 'देखो मुझे उलझाओ मत, मैं साफ बात करना और साफ़ ही बात सुनना पसन्द करती हूं । अगर शादी करवाने ही हिन्दुस्तान जा रहे हो, तो मुझसे कह कर   जाओ ।'

'तुम मेरे बारे में ऐसे कैसे सोच लेती हो । जानती हो, तुम कैसी हो !

तुम मुझे एस्कीमों के बर्फ के घर की तरह लगती हो । जो बाहर ठंडा और अन्दर से बेहद गर्म होता है, कभी-कभी बाहर भी थोड़ी गर्मी दिखाया करो ।

उसके जाने के दो हफ्ते तक लगा था कि यह जरूर लौट आयेगा, क्योंकि यह दूसरों की तरह नहीं है । शायद उसने सच से घबरा कर यह भ्रम भी पाल लिया था । उसने बार-बार सोचा था, इस बार ऐसा कुछ हो भी गया, तो वह पहले की तरह टूटेगी नहीं । बचकानी बातोंवाली उसकी अब उम्र कहां रही थी ! अब तो वह समझदार है और हर बात का सामना समझदारी से करेगी । अपने आपको हर तरह से समझते रहने के बावजूद उसे लगा था कि किसी ने उसे ढेर सारी बर्फ में खूब गहरे दबा दिया हो ।

शादीशुदा दोस्तों ने इस बीच कुछ और भाषण दे डाले थे – 'गेम्स खेलनी चाहिए, हताश तो कभी होना ही नहीं चाहिए, अपनी जरूरतें कभी जाहिर मत करो, छूट तो कभी मत दो ।' वह इन गृहलक्ष्मियों को यह नहीं समझा पाती कि वह कहीं गहरे में बहुत ही हिन्दुस्तानी है, जो घर चाहती है, पति चाहती है, बच्चे चाहती है ।

पिछली बार छुट्टियों में मिनीसोटा चली गयी थी । ढेर सारे लोग मछलियाँ पकड़ रहे थे । मुंह में से कांटा निकाल, पूंछ से एक लम्बी सलाख से लटकाते चले जा रहे थे । उल्टी टंगी मछलियां, जिनकी आँखें बाहर निकल आयी थीं, देर तक तड़पती रही थीं । वह पहले उन्हें नहीं देख पाती थी, उठ कर दूसरी ओर चली जाती थी । बाद में अभ्यस्त हो गयी थी । बस उन्हें एकटक देखती रहती थी । उसे लगता है, वह उन्हीं मछलियों में से एक है । जिनकी नियति में सिर्फ फड़फड़ा कर शान्त हो जाना होता है ।

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आलेख

कुछ अर्सा पहले अब्दुल कादिर साहब का इंतकाल हो गया, किंतु उनके यहां आज भी उन्हीं रवायतों का पालन होता है जो वे बनाकर गए थे ।
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सुश्री निर्मला डोसी, मुम्बई, मो. 9322496620



अब्दुल कादिर चौधरी - ' क्राफ्ट प्रिंट' रेशम पर स्क्रीन प्रिंटिंग के पहले कलाकार

'फिर भी रवां दवां ये जिंदगी का कारवां'

'इंदिराजी ने हमारी बनाई साड़ियां खूब पहनी हैं । यह इत्तफाक दुःखद ही रहा कि अंतिम दिन भी उनके छलनी हुए शरीर पर हमारी साड़ी थी ।' उनके लिए ब्लाक प्रिंट की स्पेशल साड़ियां बनती थीं 'प्रिंट क्राफ्ट' में । पुपुल जयकर बता कर जाती थी कि रंग, डिजाईन, बार्डर, पल्लू कैसा बनाना है । पारंपारिक कलाओं को प्रोत्साहन देनेवाले लोगों का 'प्रिंट क्राफ्ट' से गहरा नाता रहा है ।' कमलादेवी चट्टोपाध्याय, रोशनकाला पेशी, पुपुल जयकर से हमें अच्छा रेस्पांस मिला था ।' 'प्रिंट क्राफ्ट' के मालिक अठत्तर वर्षीय अब्दुल कादिर चौधरी पुरानी यादों में डूब जाते हैं यह बताते हुए । उन्हें अच्छी तरह याद है जब सन् 1983 में दिल्ली में 'ललित कला अकादमी' का उद्घाटन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तथा ब्रिटेन की प्रधानमंत्री माग्रेट थ्रेचर के हाथों हुआ था । उस समय वे भी अपना माल लेकर गये थे वहां ।

अब्दुल कादिर चौधरी के परदादा इलाहाबाद से मुंबई आये थे अपना पैतृक छपाई का हुनर लेकर । आज चौधरी का बेटा और पोता भी इसी काम में सलंग्न है, अर्थात् छः पीढ़ियों से लगे हैं वे अपने इसी काम में । उनके यहां शुद्ध रेशम पर स्क्रिीन प्रिंटिंग होती है । पहले ब्लाक प्रिंटिंग भी किया करते थे वनस्पति रंगों से । आजकल वह बंद है ।

एयर इंडिया के साथ वर्षों से उनका अनुबंध है । उनकी एयर होस्टेस की खूबसूरत साड़ियां 'प्रिंट क्राफ्ट' से जाती है । साबु सिल्क साड़ी, रूप कला, कलानिकेतन जैसे बड़े-बड़े शो रूम में वर्षों से उनका माल जाता है । कलात्मक डिजाइन व सुंदर रंग संयोजन 'प्रिंट क्राफ्ट' की खूबी है । उनके यहां साड़ियां, ड्रेस मेटीरियल, स्कार्फ, दुपट्टे, स्टोल इत्यादि बनते हैं ।

आज के संक्रमण काल में यह हैरत की बात है कि 'प्रिंट क्राफ्ट' का वास्ता बाजार के अवसरवादियों से कम पड़ता 

है । उनकी साख ऐसी बनी हुई है कि आर्डर देना, तैयार माल उठाना और पेमेंट देने का काम उनके ग्राहक खुद दुकान पर आकर करके जाते हैं । बिल चालान वे बना देते हैं । संतोष की इंतिहा ही है चौधरी साहब की कि न वे अपना काम बढ़ाने, दाम बढ़ाने या पड़ताल करने बाहर निकलते है और नतीजा यह है कि दो-चार अपवाद छोड़ दें तो उन्हें हमेशा अच्छे लोग मिलते रहे हैं ।

1992 के मुंबई के दंगों के वक्त 'प्रिंट क्राफ्ट' का कुर्ला स्थित विशाल कारखाना दंगाइयों ने आग के हवाले कर 

दिया । ताड़देव के पीछे के ब्लाक चुनिट में भी बहुत नुकसान हुआ । टेबिल्स, ब्लाक्स तोड़ कर जला दिये गये । एक बारगी पूरा काम चौपट हो गया । 'तब से ब्लाक यूनिट तो बंद ही है । चौधरी साहब की अनुभवी आंखों ने हिंदुस्तान के तमाम उतार चढ़ाव देखे हैं । वे कहते हैं कि 'सारे फसादात के पीछे सियासत का हाथ होता है । आम आदमी का न किसी से बैर है न 

नफरत ।' पुराने वाकयात् को याद करते वे भावुक हो उठते 

हैं । 'उस वक्त हमारे साथियों, दोस्तों ने हम पर अपना विश्वास कायम रखा, सहयोग दिया, हिम्मत बंधवायी तभी हम वापस यहां जम पाएं ।'

छः बेटियों और एक बेटे के पिता चौधरी साहब की पत्नी का निधन कुछ समय पहले ही हुआ है । जीवन के उत्तरार्ध में सहयात्री से विलग हो जाना संभवत कारण है उनकी सूनी आंखों में पसरे वैराग का । नाती-पोतों से भरा-पूरा परिवार उन्हें 'बाबूजी' कह कर संबोधित करता है । पिछले वर्ष अपने पोते आमिर के साथ थे हज कर आएं हैं ।

यद्यपि अब्दुल कादिर चौधरी के पास यादों का जखीरा भरा है पर वे बेहद संजीदा, मितभाषी व सरल इंसान हैं । बड़े-बड़े लोगों से उनका परिचय रहा है और हिंदुस्तानी कलाओं के सरंक्षण में उनका काम अहम स्थान रखता है । उनको मिले इनाम - इव रामों का जिक्र आया तो उन्होंने अपने दामाद व पोते को सख्ती से बरज़ दिया । उन्हें उसके बारे में बताना जरूरी नहीं लगता । बहुत पूछने पर कह उठे -

'कैसे कैसे लोग यहां आये आ कर चल दिये

इस जहां में चंद रोज दिल लगा के चल दिये 

फिर भी रवां दवां ये जिंदगी का कारवां

'पैसा और पुरस्कार सब आनी जानी चीजें हैं, इखलाक मोहब्बत बहुत बड़ी चीज होती है, उसी के कारण इंसान को याद किया जाता है', यह कह कर अपनी पेशानी पर हाथ फिरा कर बोले- 'बहुत चांस मिलें हमें पर कभी लोभ-लालच नहीं किया । बस 'ये चाहिए । हमने अपने काम में कभी बेईमानी नहीं की, अपने देश का हुनर बचा कर रखा, वही हम अपने बच्चों को दे रहे हैं ।'

अब्दुल कादिर चौधरी न केवल पारंपारिक छपाई कला के जानकार हैं बल्कि एक तालीम याफ्ता टेक्सटाइल सांइटिस्ट की सी समझ भी रखते हैं । 'क्रेप' बनाने का पूरा विधान बेंगलोर की मिलों में जाकर सर्वप्रथम उन्होंने ही सिखाया । रेशम तैयार होने के पूरे तौर तरीकों की सूक्ष्मता वे जानते हैं । कपड़े की किस्म, रंगों को बनाना, डिजाइन की नफासत इत्यादि तमाम तकनीकी चीजें बखूबी मालूम है उन्हें । वे एक चलते-फिरते स्कूल हैं । सिल्क में स्क्रीन प्रिंटिंग को सर्वप्रथम शुरू करने का श्रेय उन्हें ही है । उनके खानदान में छपाई की कला रची बसी है जो पीढ़ी दर पीढ़ी परवान चढ़ी है । 'पारंपारिक कारीगर' की प्रदर्शनी में हर वर्ष भाग लेते हैं । उसके लिए विशेष तैयारी भी करते हैं ।

अब अस्वस्थता के कारण नियमित आफिस नहीं आ 

पाते । विशेष काम हो तभी आते हैं । घर में मजहब की किताबें पढ़ते हैं । पुराने दिनों को याद करते हुए कह उठते हैं - 'देखते ही देखते बंबई का नक्शा बदल गया । कभी हाजीअली जाने के लिए पूरा खुला मैदान हुआ करता था । घोड़ा गाड़ियां चलती थीं । बड़े-बड़े नारियल के पेड़ हुआ करते थे सड़कों के 

किनारे । रोज सड़कों पर पानी का छिड़काव होता था । फायर बिग्रेड वाले सप्ताह में दो दिन गटर की धुलाई पाइपों से करते थे । अब वे दिन कहां रहे । किसी को अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं रहा अब । अपनी फोटो तक देने में संकोच करनेवाले बुर्जुग कलाकार की सादगी, सरलता तथा विनम्रता काबिले तारीफ व दुर्लभ सी चीज लगी । 

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(गीत)



श्री विजयकान्त द्विवेदी, नयी मुम्बई, मो. 7977801626


माना हम ने तिमिर सघन है।

माना हम ने तिमिर सघन हैं,

सूना-पथ मंजिल भी दूर।

रहें गतिमान चरण तुम्हारे,

चाहत साहस युत् भरपूर ।।

मीलों की कम होगी दूरी

निश्चित हसरत होगी पूरी।

तुम प्रदीप आशा का बोलो

राह रोशनी होगी नूरी ।।

हम ने यह कब कहा कि तुम में

दारा सिंह, गामा का बल है ?

भावा, विश्वेशरैया जैसा

विज्ञान बुद्धि संबल है ।

पर, तुम में अकूत शक्ति है,

उठो, स्वयं को पहचानो।

छेड़ो अन्तरस्तम की वीणा,

राग नवल अधरों पर आनो ।।

जब तक हार नहीं माना मन,

है नहंी जीत की तुम से दूरी।

हो आत्मबल भीत्त न कम्पित

चाहे जो भी हो मजबूरी।।

जीवन पीड़ा या क्रीड़ा है, 

चाहे जो वह जैसा जी ले।

है संसाधन बाहरी न सब कुछ, 

कुछ साधक भी हुए रंगीले।।

छोड़ गये पद्-चिन्ह जो पथ पर

उन अमर पथिक को सत् नमन है।

माना हम ने तिमिर सघन है।


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कहानी

सुश्री मीना पाठक, कानपुर, मो. 09140044021 

काश...!

 राष्ट्रपति भवन के अशोका हॉल की कुर्सियाँ भरी हुयी थीं । जिनको सम्मानित किया जाना था, वे अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठ चुके थे । दीया भी अपनी सीट पर बैठ गयी थी । आमंत्रित अतिथिगण शालीनता से एक दूसरे को बधाइयाँ दे रहे थे । सबके चेहरे खिले हुए 

थे । सभागार में महामहिम के आगमन की घोषणा होते ही उनके सम्मान में सभी उठ खड़े हुए थे ।

राष्ट्रगान के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हो चुका था पर दीया कुछ अनमनी-सी बैठी थी । वैसे तो आज उसके लिए प्रसन्नता का दिन था । अपने ऊपर गर्व करने का भी लेकिन इन सब बातों से परे उसका मन कुछ उदास था । आँखें उसे खोजती हुयी बार-बार मुख्य द्वार की ओर उठ जातीं । न जाने आज वह यहाँ आया होगा भी या नहीं । दीया के मन में बार-बार यही ख़याल आ रहा था । कानों में रह-रह कर उसके कहे वाक्य ज्यों के त्यों बज रहे थे ।

“तुझे तो एक दिन राष्ट्रपति खुद इनाम देंगे और तब भी मैं वहीं तेरे पास ही खड़ा रहूँगा । देख लेना दीया !”

सोच कर आँखों की कोरें भीग गयीं । उसने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि सूरज का मज़ाक यूँ सच हो कर उसके सामने आ जाएगा । पलकों के बाँध लांघ कर कुछ बूँदें गालों पर ढलक गयीं । उन बूँदों को जल्दी से दीया ने रुमाल में ज़ब्त किया और सामने देखने लगी । रोशनी से नहाया और तरह-तरह के फूलों से महमहाया सभागार खचाखच भरा था लेकिन इन सब के बीच भी उसका ध्यान छिटक कर अपने गाँव की गलियों में जा पहुँचा था ।

टन-टन-टन-टन घंटी बजते ही मास्टर साहब ने कुर्सी छोड़ दी । उनके जाते ही पहले से बंध चुके बस्ते सबकी पीठ पर लद गए और देखते ही देखते बगीचे से एक रेला-सा निकला और सड़क पर पहुँच कर तितर-बितर हो गया । जिसे जिधर जाना था, मुड़ गया । कुछ सड़क पर आगे बढ़े, कुछ ने खेतों के बीच मेड़ पकड़ ली पर दीया सूरज की प्रतीक्षा में अभी तक वहीं एक पेड़ की छाँव में खड़ी थी, तभी सूरज भी अपना बस्ता लादे आ पहुँचा ।

“चल घर ।” उसे देखते ही बोला वह ।

“आज देरी काहे हो गयी?” साथ चलते हुए पूछ लिया दीया ने ।

“कल गणित की कॉपी जमा की थी सही कराने के लिए, वही लेने में देरी हो गयी ।“

“कितने सवाल कटे?”

“एक भी नहीं । तेरी तरह गणित में फिसड्डी नहीं हूँ कि दस में से दो सवाल ही सही होते बाकी सब कट जाते हैं ।“

“नहीं समझ आते सवाल तो क्या करूँ?”

“कितनी बार तो कहता हूँ की मुझसे पूछ लिया कर पर तुझे अपनी कविता-कहानी से फुरसत मिले तब न!” बातें करते दोनों सड़क पर पहुँच गए थे ।

“कल शनिवार है न!”

“हाँ, तो?” 

“अरे कल बालसभा है ! उसके लिए कुछ तैयारी की है या नहीं?” अबकी दीया की तरफ देखते हुए कहा उसने ।

“अरे हाँ! मुझे तो याद ही नहीं था कि कल बालसभा है ।“ चौंक कर बोली दीया ।

“अबकी बार क्या लिखी है ?” पूछा सूरज ने ।

“नहीं बताऊँगी, कल ही सुनना सबके साथ ।” दीया इतरा कर बोली ।

“इतना तो बता कि क्या लिखी है? कहानी या कविता ? ज्यादा बन मत, समझी..!” 

“नहीं, ये सब कल बालसभा में ही पता चलेगा ।” दीया आँखों पर आयीं अलकों को सिर झटक कर हटाते हुए   बोली ।

“उंह्ह ! मत बता । थोड़ा सा लिख क्या लेती है, नखरे दिखाती है ।” सूरज ने मुँह फुला लिया । सोचा कि उसके मुँह फुलाने पर दीया अभी सब बता देगी, फिर भी जब वह कुछ ना बोली तब सूरज ने घुड़की दी, “बता ना! भाव खा रही है ।”

“कविता है; पर रास्ते में सुनाने को मत कह देना, सुनाऊँगी नहीं, समझे न..!” दीया ने दृढ़ता से कहा । तब तक ताल वाला मोड़ आ गया था । दोनों सड़क से उतर कर मेड़ पर आ गए ।

दीया कविताएँ लिखने में माहिर थी । छोटी-मोटी कहानियाँ भी गढ़ लेती थी । इस लिए हर बार बालसभा में उसका नाम चर्चा में रहता था और स्कूल में आध्यापकों से उसे विशेष स्नेह और प्रोत्साहन भी मिलता था ।

सूरज दीया से दो क्लास आगे था; पर क्या मजाल कि दोनों कभी स्कूल अकेले आए-गए हों! रोज सुबह तैयार हो कर सूरज अपने द्वार पर तब-तक खड़ा रहता जब-तक उधर से दीया न आ जाती । कभी गाँव से किसी का ट्रैक्टर, जीप या बैलगाड़ी कस्बे की ओर जाते मिल जाते तो दोनों बैठ लेते नहीं तो इतना पैदल चलना तो उनका रोज का काम था । स्कूल से लौटने का दृश्य भी यही था । गाँव की तरफ कोई जाता दिख गया तो ठीक, नहीं तो दोनों ताल वाला छोटा रास्ता पकड़ लेते और खेतों से चना-मटर का साग तोड़ते खाते चले आते ।

वैसे तो गाँव में भी प्राइमरी स्कूल था; पर यहाँ का हाल यह था कि कमर तक घास उगी थी । न कोई मास्टर न ही छात्र ! परंतु जब अधिकारिक दौरा होने वाला होता तब स्कूल की खूब साफ़-सफ़ाई होती । प्रधान बाबा दक्खिन टोला के घर-घर में सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए कहलवाते और अपने टोला के बच्चों से भी कह देते, “मिठाई खाना हो तो स्कूल आ जाना ।“ काहें से कि उनकी मझिलिकी पतोह उसी स्कूल में पढ़ाती थीं । मिठाई खाने और स्कूल जाने की ख़ुशी में बच्चे रेडियो की खराब बैटरी तोड़ कर अपनी पटरी को उसकी कालिख से मल-मल चमकाते और खढ़िया का ढेला ले कर उछलते-कूदते स्कूल पहुँच जाते ।

आठ-दस दिन खूब गिनती, ककहरा, अद्धा, सवैया पढ़ाया-रटाया जाता । उसके बाद जिस दिन अधिकारी लोग आते, हर कक्षा में घूम-घूम बच्चों को देखते फिर नाश्ता-पानी करते और चले जाते । उस दिन बच्चों को भी खूब नमकीन, मिठाई खाने को मिलता और फिर से स्कूल की छुट्टी! मझिलको अपना लयिका खेलातीं और घर में देयादिन लोग के साथ ढेंका, जांत चलातीं ।

स्कूल में फिर से धीरे-धीरे खर-पतवार जमने लगता । कुत्ते लोटने लगते । गाँव के मनबढ़ लड़के वहीं छुप कर बींड़ी-पत्ता और हँसी-ठट्ठा करते । औरतें स्कूल की बाहरी दीवारों पर गोबर के उपले थाप जातीं । इस लिए उत्तर टोला के बबुआन लोगों के लगभग सभी बच्चे कस्बे के स्कूल में ही पढ़ते थे ।

वे दोनों बगीचे के नज़दीक पहुँच गए थे । रोज की तरह दौड़ कर बरगद के नीचे बैठ कर सुस्ताने लगे । सामने ही कुछ दूर खेत में पंपिंग सेट चल रहा था । गाँव के कुछ बच्चे उसकी मोटी धार में उछल-कूद करते हुए नहा रहे थे । सूरज ने दीया की तरफ देखा; जैसे कह रहा हो, “हम भी नहाएँ?” 

“बहुते पिटाएगा सूरज!” दीया उसकी मंशा बूझ कर आँखें दिखाती हुयी बोली ।

“हाँ, ये तो है!“ दोनों हँस पड़े ।

“दिखा न कविता ! हमेशा तो लिखने के बाद मुझे दिखा कर ही पढ़ती है बालसभा में फिर आज़ काहे नहीं?” 

“तेरा पेट खदबदाता रहेगा जब तक सुन नहीं लेगा, चल सुना देती हूँ; पर हुँकारी भरते रहना ।” बस्ते से कॉपी निकलती हुयी बोली दीया । 

“कहानी में हुँकारी भरते हैं । समझी!”

“अच्छा! तो वाहवाही दे देना ।” कह कर मुस्कुराती हुयी दीया कॉपी खोल कर कविता पढ़ने लगी--

“सावन की घनघोर घटा/ नित उमड़-घुमड़ जब आती है / ताप -प्रचण्ड सहती वसुधा को / शीतलता दे जाती है / पशु-पक्षी जल बिन विह्वल थे / वर्षा से मदमस्त हुए / सूख ठूँठ हो गए वृक्ष जो / जल पाते ही पुष्ट हुए / नदी-कुएँ-तालाब-बावड़ी / सूख गए थे तल जिनके / सावन ने छलकाई गगरी / खूब भिगोया जी भरके / धरा ने ओढ़ी धानी चूनर / मुस्काए हर चमन प्रसून / डाल-डाल पर गूँजा कलरव / कोयल गाए कजरी झूम / दादुर-मोर-पपीहा नाचे / पवन ने छेड़ी है सरगम / सज-धज कर आयी है बरखा / झूम के बरसी छम-छम-छम । ।” 

कविता पढ़ कर वह सूरज का मुँह देखने लगी । सूरज भी उसी को ताक रहा था । उसे यूँ चुप देख कर दीया का दिल धड़क उठा । हमेशा तो वह सुनते ही ताली बजा कर उसका मनोबल बढ़ाता था या मीनमेख निकालता था; पर इस बार शायद यूँ ही तुकबंदी कर दी उसने! वह तो सोच रही थी कि बहुत अच्छी कविता लिखी है इसी लिए वह बालसभा में सुना कर सबके साथ सूरज को भी अचम्भित कर देना चाहती थी पर...!

दीया का चेहरा लटक गया । अब वह ये कविता बालसभा में नहीं सुनाएगी । किताब से याद की हुयी कोई कविता सुना देगी या स्कूल ही नहीं जाएगी कल । सोचते हुए मायूसी से कॉपी बस्ते में रख कर दीया घर जाने के लिए उठ खड़ी हुयी । तभी ताली की आवाज सुन कर चौंक पड़ी । सूरज मुस्कुराता हुआ ताली बजाता उसके पास आ खड़ा हुआ । दिया की आँखें पनिया गयी थीं । 

“अच्छा सही-सही बता कि ये कविता तूने ही लिखी है न! या कक्षा आठ वाली अपनी किसी दीदी से लिखवा ली है ?” शरारत से पूछा सूरज ने । सुन कर दीया ने धबर-धबर पीट दिया उसे ।

सूरज ने हँस-हँस कर अपना पेट पकड़ लिया । दीया गुस्से से आँखें पोंछती, नाक फ़ुलाती, घर की ओर चल दी ।

“अरे सुन तो...! बहुत अच्छी कविता है । सच्च में!” कहता हुआ सूरज उसके पीछे-पीछे चला आ रहा था पर वह थी कि उसकी बात को अनसुना कर धप्प-धप्प पैर पटकती भागी जा रही थी ।

“मान जा दीया! देख, सच कह रहा हूँ । बिद्यारानी की कसम! बहुत अच्छी कविता है ।“

“तूने तो डरा ही दिया था न मुझे ।“ पलट कर नाक सुड़कती बोली दीया ।

तभी सूरज की नज़र सामने से आते दीया के चाचा पर पड़ी । अब उसे ध्यान आया कि कविता के चक्कर में उन्हें बहुत देर हो गयी है ।

“चुपचाप निकल ले दीया...!” धीरे से कहा सूरज ने । उसकी बात सुन कर जैसे ही दीया घूमी तो सामने चाचा खड़े थे ।

“सारे बच्चे घर आ गए और तुम दोनों अब पहुँच रहे हो!”

उस दिन दोनों को खूब डाँट पड़ी; पर अगले दिन बालसभा में दीया को इनाम में सुन्दर-सा पेन मिला था । उसके पास खड़ा सूरज सबके साथ तालियाँ बजा रहा था । उस दिन बगीचे में बरगद के नीचे बैठ कर दोनों उसी पेन से एक दूसरे के हाथ पर अपना नाम लिख रहे थे ।

“तुझे तो एक दिन राष्ट्रपति खुद इनाम देंगे और तब भी मैं वहीं तेरे पास ही खड़ा रहूँगा । देख लेना!” पेन का ढक्कन बंद कर उसे देता हुआ बोला था सूरज । सुन कर जोर से खिलखिला कर हँस पड़ी थी वह । 

“तू भी न ! कुछ भी कहता है । वो भला क्यूँ आएँगे मुझे इनाम देने ? वो तो इत्ती दूर दिल्ली में रहते हैं ।“ 

“एकदम बकलोल है तू !” कह कर दीया को एक चपत लगा दिया था सूरज ने ।

बचपन की उम्र जाने क्यों इतनी छोटी होती है! देखते ही देखते जीवन से ऐसे जाती है कि फिर लौट कर नहीं आती । समय अपना स्वरूप स्वयं रचता है । गाँव के स्कूल के पास वाले खेत में जो कलमी आम रोपे गए थे, इस साल उन पर बौर आ गये थे । प्रधानी के चुनाव में इस बार सूरज के बाबा जीते थे । जीत के कुछ दिन बाद ही गाँव की गलियों में खड़ंजे बिछने लगे थे । स्कूल की बेरंग दीवारों पर सफेदी हो गयी थी । समय की मार और अनदेखी से धूमिल हो चुका स्कूल का नाम पुनः बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा गया था । मझिलको घुंघट ओढ़ कर रोज हाज़िरी के रजिस्टर में अपना नाम भरने लगी थीं ।

बदलाव की बयार चली तो बहुत कुछ बदल गया । दोनों के शरीर और मन भी । अब अम्मा दीया को हमेशा ऊँच-नीच समझाती रहतीं, “दुपट्टा छाती पर ठीक से लिया कर, रास्ते में हँस-हँस कर खींसे मत निपोरा कर, लड़कों के साथ ज्यादा मत बतिआया कर और हाँ, अब तूँ सूरज के साथ स्कूल नहीं जाएगी, समझी ना ! इतनी बड़ी हो गयी है पर अक्कल नाम की चीज नहीं है लड़की के पास, जब देखो तब उसी के साथ चल देती है ।” सुन कर दीया उदास हो जाती । कुछ कहती तो अम्मा डाँट देती, “लड़की जात है, ज्यादा मुँह मत चला!” वह सहम जाती । मन होता कि पूछे, “तुम्हीं तो कहती थी ताल वाली मेंड़ पर सूरज का हाथ पकड़ लेना दीया नहीं तो जो फ़िसली तो सीधे पानी में जा गिरेगी ।“ अब क्या हो गया? क्यूँ नहीं जा सकती उसके साथ?“ लेकिन अम्मा की चढ़ी त्यौरियाँ देख कर मुँह से बोल न फूटता ।

धीरे-धीरे सूरज का साथ छूटता चला गया । उसके भैया, जो महीने में दो बार स्कूल झाँकते थे । अब वे उसे छोड़ने और लेने जाने लगे । परिस्थियाँ बदल गयी थीं; पर एक चीज अब भी नहीं बदली थी । सूरज आज भी अपने द्वार पर वहीं खड़ा दीया की प्रतीक्षा करता रहता । जब तक वह उसके सामने से निकल नहीं जाती तब तक वह खड़ा रहता । उसके बाद अपनी साइकिल से वह भी स्कूल पहुँच जाता ।

समय ने उनका पहले जैसा निःसंकोच बोलना-हँसना-खिलखिलाना, सब छीन लिया था । दोनों के बीच एक अनचाहा संकोच आ खड़ा हुआ था । उनके होंठ सिल चुके थे परंतु उनकी आँखों से झरती मूक भाषा एक दूसरे के दिलों तक पहुँच जाया करती थी ।

उन दिनों विवाह में नचनिया-नाच का प्रचलन था । गाँव के धनिक घरों के वैवाहिक उत्सवों में नाच, प्रतिष्ठा का विषय था । सूरज की बुआ का विवाह था और सबसे नामदार ‘विदेशिया’ का नाच आया था । बारात की धूमधाम के बाद द्वारचार हुआ फिर रात्रि भोज! उसके बाद उधर आँगन में वैवाहिक कार्यक्रम आरंभ हुए और इधर बगीचे वाले खलिहान में लगे बड़े से पांडाल में नाच! बारातियों के साथ गाँव के लोग भी नाच देखने उमड़ पड़े थे ।

औरतें भी कहाँ पीछे रहने वाली थीं । लुक-छिप कर बोरी-बोरा जो भी मिला, ले कर पहुँच गयीं और इधर-उधर देख कर उन्होंने मर्दों के पीछे कुछ दूर हट कर वहाँ बोरा बिछाया जहाँ रौशनी नहीं पहुँच रही थी । वे जानती थीं कि उजाले में बैठे लोग देखना भी चाहें तो अंधेरे में उन्हें नहीं देख सकेंगे और वे चैन से नाच का आनन्द ले पाएँगीं । इधर दीया भी घर के बुजुर्गों से छुप-छुपा कर बुआ के साथ वहाँ पहुँच गई थी ।

आधी रात बीत चुकी थी । सारे मर्द नचनिया के लटके-झटकों पर लोट-पोट हो रहे थे । ढोलक, हारमोनियम, मंजीरे और झाँझ की ताल पर जब नचनियाँ अपनी साड़ी की चुन्नटों को उठाता और कमर पर रख, मटक कर जो ठुमका लगाता तो सीटियों के साथ ‘जिया हो बिदेशियाआआ’ के कोलाहल से बगीचा गूँज उठता । साड़ी का पल्ला गिरा कर नकली जोबन हिलता तो सारे मर्द आहें भरने लगते । कुछ तो अंगोछा से घूँघट कर स्टेज पर चढ़ जाते और उसके साथ ठुमके लगाने लगते फिर रुपया उछाल कर उतर आते । अपनी अदाएँ दिखा-दिखा वह सबकी जेबें खाली कर चुका था ।

ये सब देख कर पीछे बैठी औरतें एक दूसरे को चिकोटी काट कर आँचल से मुँह दबाये हँस रही थीं ।

“ऊ देखा मर्दन के अधिकई! 

“देख न! कइसे नकली जोबन पर लरियाए रुपया लुटा रहे सब ।”

“हँ, अब्बे मेहरारू मांग ले त एही लोग बमकने लगते हैं ।” 

“अरे त मेहरारू के देहिं से मसला तेल महकता है न!” 

हँअअअ...रेएए! ई अभगवा महकुआ सेंट लगाया है का!” 

“अउर नाहीं त का! देख नहीं रही कि कैसे सटे जा रहे सब ।”

“ए मोर मई रे..! कैसे नकली छाती द...!” लजा कर मुँह पर हाथ रख ली वह ।

“मलेछवा, मेहरारू बन के कहाँ-कहाँ हाथ लगवा रहा रे सब से !” सिर जोड़े हँस पड़ी थीं सब ।

दीया की बुआ भी उसकी बगल से खिसक कर उन्हीं के झुण्ड में नाच के साथ-साथ भौजाइयों की ठिठोली का रस ले रही थीं ।

इस रास-रंग और धूम-धड़ाम से पेड़ों पर बैठे पक्षी बार-बार पंख फड़फड़ा उठते । दीया भी नाच में मगन थी कि तभी किसी का हाथ ढक्कन-सा उसके मुँह पर आ लगा । दिल उछल कर हलक में आ फँसा । वह कुछ समझती कि तभी उसके कान के पास कोई बोला, “मैं हूँ, सूरज!”

“सूरज..!” उसका हाथ अपने मुँह से हटा कर फ़ुसफ़ुसाई वह । दिल की धड़कन कनपटियों तक गूँज उठी । 

उसका हाथ थाम कर पेड़ की ओट में ले आया सूरज और जाने कब तक दोनों एक-दूसरे के अंक में समाए साँसों के साथ धड़कनों का संगीत भी सुनते रहे ।

“कैसी है रे!” उसके कान के पास मुँह सटा कर बोला वह ।

“जैसे तुम हो सूरज !”

“दीया !”

“हम्म... ।”

“हम कभी आँखों में आँखें डाल कर बातें करते थे और एक दूसरे का हाथ थामें खेतों के बीच मेंडों पर दौड़ा करते थे, याद है तुझे?”

“हाँ सूरज, सब याद है ।”

“और आज हम रात के अंधेरे में सबसे छुप कर मिल रहे हैं ।“ 

“........” लता-सी लिपटी रही दीया । कुछ ना बोली ।

“आगे की पढ़ाई के लिए मैं बाहर जा रहा हूँ दीया ।”

“कब?” चौंक पड़ी वह ।

“जल्दी ही ।”

“फिर लौटोगे कब?”

“समय लगेगा दीया!”

“जल्दी लौटना सूरज!” दीया की आवाज़ थरथरा गयी थी ।

“छुट्टियों में तुझसे मिलने आता रहूँगा !”

अभी वह कुछ कहती कि तभी बुआ उसे पुकारती पास से गुजर गईं । काँप उठे दोनों । पेड़ का तना बहुत मोटा था । झट से दीया को खींचकर दूसरी तरफ ले आया सूरज और एक बार फिर से बाँहों में जकड़ कर उसके होंठों को चूम लिया उसने और दीया की मुट्ठी में कुछ दबा दिया । वह भागकर अपनी जगह पर बैठ गई और सूरज अँधेरे में कहीं गुम हो गया ।

दीया का दिल धाड़-धाड़ बज रहा था । सूरज के स्पर्श से उसका रोम-रोम ऐसे पुलक उठा था जैसे वर्षा की पहली फ़ुहार से धरती । उसकी देह से उठती इत्र की सुगंध दीया की साँसों में अब भी घुल रही थी । जैसे वह सुगंध बगीचे की हवा में ही रच-बस गई हो! उसे नाच अब कहाँ दिख रहा था! उसे तो अँधेरे में भी चारों तरफ सूरज ही सूरज नजर आ रहा था । तभी बुआ ने एक धौल जमा दिया उसकी पीठ पर ।

“कहाँ गई थी बिना बताए ? पूरा बगीचा छान आई, कुछ ऊँच-नीच हो जाता तो! खा जाते घरवाले मुझे ।” बुआ गुर्रायीं ।

अपनी कानी उंगली उठा कर बुआ के आगे कर दी दीया, मुँह से कुछ ना बोली । दिल की धुकधुकी अब भी बज रही थी ।

“तो मुझे बता कर जाना था न! मेरी तो जान ही निकल गई थी ।” अपने सीने पर हथेली रख कर बोलते हुए बुआ फिर बैठ गईं । थोड़ी देर बाद ही धीरे-धीरे औरतें अपना बोरा उठा कर सरकने लगीं । उजाले की आँच भी धरती तक पहुँचे, उससे पहले उन्हें घर पहुँच जाना था ।

घर आकर दीया सीधे कमरे में चली आयी । माँ और चाची बुआ के साथ खेतों की ओर निकल गईं । दरवाजे की चिटकनी चढ़ा कर दीया ने लालटेन की बत्ती तेज कर ली और मुट्ठी में बंद मुड़ातुड़ा कागज़ खोल कर पसार ली । सूरज का लिखा हुआ प्रेम पत्र और उसमें लिपटा सफ़ेद पर लाल छींटदार चौड़ा-सा रिबन! रिबन को उठा कर होंठों से लगा ली और धड़कते दिल से पत्र पढ़ने लगी ।

मेरी दीया आज बहुत हिम्मत जुटाकर तुझे पत्र लिख रहा हूँ । हम कब बड़े हो गए, पता ही नहीं चला और क्यों बड़े हो गए? हम छोटे ही अच्छे थे । कम से कम साथ तो रहते थे । किसी का कोई भय तो नहीं था । जब से बड़े हुए; बात करना तो दूर, नज़र भर देख भी नहीं सकते । तू भी न जाने क्या सोचती है मेरे बारे में! बचपन की दोस्ती जो दुनिया के सामने की थी, बड़े होकर उसे क्या हो गया? तेरी आँखों में लज्जा कब आ गई और मेरे भीतर संकोच कब समा गया ! पता ही नहीं चला । पर अब भी वहीं, बर-तर बैठ कर तुझसे बतियाने का बहुत जी करता है दीया! 

खैर...!

मैं जा रहा हूँ । जब लौटूँगा तब तक शायद मुझमें इतनी हिम्मत आ जाए कि घर वालों के सामने अपनी बात कह 

सकूँ । मेरी प्रतीक्षा करना दीया! और हाँ, लिखती-पढ़ती रहना, गाँव की दूसरी लड़कियों की तरह सिलाई-कढ़ाई में मत उलझ जाना । समझी...!

तेरा अपना

सूरज 

पढ़ते ही उसकी आँखों से धारोधार आँसू बह चले ।

“सूरज ! तुम्हारे बारे में क्या सोचती हूँ? कैसे समझाऊँ तुम्हें? कहाँ से हिम्मत लाऊँ? कैसे कहूँ कि मैं...!” मन ही मन जैसे सूरज से कह रही थी वह ।

रिबन चूम कर पत्र छाती से लगा लिया दीया ने फिर जल्दी से आँखें पोंछ कर पत्र को अपनी किताब में दबा दिया । अलमारी में अपने कपड़ों के नीचे रिबन रख कर दरवाजा खोल दिया और लालटेन मद्धिम कर पलंग पर लेट    गयी ।

सूरज के बिना दीया का मन अब न तो स्कूल में लगता न ही किसी काम में । धीरे-धीरे दिन बीते फिर मास । दीया ने दसवीं की परीक्षा दी और उसके बाद ही घर में उसके विवाह को लेकर चर्चा होने लगी । ना जाने कब से उसके लिए दूल्हा खोजा जा रहा था । उसे तो तब पता चला जब सब कुछ तय हो कर दिन भी निकल आया । उसके आँसू नहीं रुक रहे थे । 

“अभी मैं शादी नहीं करुँगी अम्मा ।” सरसों डगराती अपनी अम्मा के सामने जा खड़ी हो गयी दीया ।

“चुप कर, अपने ब्याह के बारे में कोई लड़की बोलती है भला!” अम्मा ने झिड़की दी । 

“अभी मुझे और पढ़ना है अम्मा...! कहते हुए सूप पकड़ लिया दीया ने ।

“अपने घर जा कर पढ़ लेना जितना पढ़ना हो ।“ अम्मा की बात सुन कर दीया सिसक पड़ी । 

“ये घर मेरा नहीं क्या अम्मा ?” सुनते ही अम्मा का कलेजा काँप गया । सूप किनारे रख लरज कर बेटी को गले से लगा लीं । 

“बहुत अच्छा घर-बार देखे हैं तेरे बाबूजी और पढ़ाई का क्या है! वो तो ब्याह के बाद भी हो जायेगी बबुनिया ।“ अम्मा जितना समझातीं उसके आँसू और भी तेजी से बहने लगते । वह चाह कर भी अम्मा से अपने दिल की बात नहीं कह पायी । 

कोई तो एक बार उसकी भी इच्छा पूछ लेता; पर नहीं, सबने मिल कर उसका भाग्य तय कर दिया था । मन बेचैन था दीया का । कैसे सूरज तक यह खबर पहुँचे? कैसे पता चले कि वह कब तक लौटेगा? काश ! कि वह एक बार उससे मिल कर अपने दिल की बात कह पाती । विवाह की पूरी तैयारी हो गयी । झाँपी-झोरा सज गया । अम्मा ने बक्सा लगा कर उसमें सास-ननद, जेठानी आदि को कौन-कौन सी साड़ियों पर कितना-कितना रूपया रख कर गोड़धराई देना है, ये सब उसे समझा दिया ।

हल्दी वाले दिन सुबह से ही घर में चहल-पहल थी । किसी तरह सबकी नज़र बचाकर दीया अपने कमरे का दरवाजा बंद कर ली और आलमारी खोल कर अपनी किताब में संभाल कर रखा पत्र आख़िरी बार पढ़ने लगी । सूरज का चेहरा उसकी आँखों के सामने घूम गया । पलकों से बिन बुलाए मेहमान-से आँसू छलक पड़े । उसने पत्र को चूमा, दिल से लगाया और जल्दी से पास रखे लोटे में डुबो दिया । सारे अक्षर पानी में उतर गए । रोशनाई पी कर लोटे का पानी समुद्र-सा नीला हो गया । धुला काग़ज निकाल कर वहीं पसार दिया उसने और सूखने पर उसी में रिबन लपेट कर अपने बक्से में कपड़ों के नीचे रख कर दरवाजा खोल दिया । 

अगले ही दिन विवाह के हवन कुण्ड में सब स्वाहा हो गया । मांग में सिंदूर भर गया । एक झलक भी सिंदूर भरने वाले का नहीं देख सकी और सूरज के गाँव लौटने से पहले ही वह रोती-बिलखती जीप में बैठकर विदा हो गई ।

ससुराल में पाँव रखते ही एक अल्हड़ लड़की कहीं बिला गयी और एक समझदार, गंभीर स्त्री उग आयी दीया के भीतर । धीरे चलना, धीरे बोलना और धीरे हँसना, अम्मा का बताया सब सहूर आ गया था उसे । सास ने भी खूब मान-जान किया । छुट्टियाँ ख़त्म होते ही दीया को वहीं छोड़ कर पति लखनऊ लौट गए । दीया ससुराल में रह  गयी ।

कुछ वर्षों बाद उसे पता चला कि सूरज भिलाई स्टील प्लांट में अफ़सर बन गया है । सुन कर वह ख़ुश हुयी थी । लेकिन सूरज अब उसके जीवन में नहीं है, मन में कहीं इस बात की टीस भी उठी थी । कहाँ पता था कि उन दोनों की राहें इतनी अलग हो जायेगीं!

जिंदगी को बढ़ना है, सो आगे बढ़ चली । अपने देवर के ब्याह के बाद दीया ससुराल से पति के संग लखनऊ आ गयी । घर-परिवार, पति, बच्चे...! उनके पालन-पोषण फिर उनकी शिक्षा-दीक्षा में ऐसा उलझी कि सब कुछ भूल गयी । उसकी दुनिया अब पति और बच्चों तक सिमट गयी थी । देखते ही देखते इतने बरस कैसे बीत गए, वह जान ही नहीं पाई । होश तब आया, जब जॉब के लिए बच्चे घर से दूर निकल गए । उनके चले जाने से घर में कुछ करने को रह ही नहीं गया था । उन्हीं के कारण रसोई में दिन भर काम और घर में रौनक थी । उनकी किताबें, कपड़े, उनका खान-पान, पसंद-नापसंद से अलग उसके मन को कुछ सूझता ही नहीं था । उन्हीं से दिन शुरू होता और उन्हीं पर ख़त्म...! उनसे अलग दीया के पास ना कुछ सोचने को था ना ही कुछ करने को ।

पति आलोक के ऑफिस जाने के बाद समय काटना मुश्किल हो जाता दीया का । दिन में कितना टीवी देखती वह! कभी यूँ ही आलमारी का सामान बाहर निकालती और दोबारा सजा देती तो कभी कढ़ाई-बुनाई में लग जाती । यूँ ही एक दिन स्वेटर बुनते हुए अचानक ही सूरज के लिखे शब्द मन-मस्तिष्क में बिजली-से कौंध गए । 

‘सिलाई-बुनाई में मत उलझ जाना दीया, लिखती-पढ़ती रहना ।‘ 

चलती सलाइयाँ रुक गयीं । लगा जैसे एक पल को सब कुछ थम गया है । न जाने बादलों ने धरती पर कितना पानी ढरकाया, नदियों में कितना पानी बह गया, वृक्षों ने कितनी बार चोला बदला, उसे पता ही नहीं चला और उम्र की दहाई बढ़ती रही । तभी जैसे कुछ याद आया । वह एक झटके से उठी और स्टोर रूम की ओर भागी । लाइट ऑन की । बड़े बक्से के ऊपर एक पुराना बक्सा रखा था । उसके ऊपर भी ढेर सारा सामान लदा था । आलमारी से चाबियों का गुच्छा निकला और बक्से के ऊपर से सामान हटा कर एक-एक चाबी लगा कर ताला खोलने का प्रयास करने लगी । लेकिन कोई चाबी लग ही नहीं रही थी । एक-एक पल भारी लग रहा था । शायद इसकी चाबी दूसरे गुच्छे में हो, सोच ही रही थी कि तभी खट्ट से ताला खुल गया ।

वह जब पहली बार आलोक के साथ लखनऊ आयी थी तब यही बक्सा ले कर आयी थी । अम्मा के हाथ का लगाया हुआ बक्सा बीतते समय के साथ स्टोररूम की शोभा बन गया था । ढक्कन खुलते ही एक-एक सामान हटाने लगी । बच्चों के छोटे-छोटे कपड़े, बड़े बेटे के जन्म पर सास द्वारा भेजे गए कुछ लकड़ी के खिलौने, उसकी बियहुती और उसके हाथ का सूत खींच कर काढ़ा हुआ रुमाल, मेजपोश, टिकोजी, ट्रे कवर, आदि सामान निकालने के बाद सबसे नीचे बिछा कपड़ा हटा कर वहाँ पड़ा हुआ कागज़ उठा ली । वर्षों नीचे दबा-दबा काग़ज हर मोड़ से कट चुका था; पर रिबन सुरक्षित था । दोनों चोटियों में बाँधने के लिए दो रिबन...! जिसे वह एक बार भी अपनी चोटी में नहीं गूँथ पायी थी ।

बहुत देर तक रिबन की परतें खोल कर निहारती रही । सफ़ेद रंग पर कहीं-कहीं पीले धब्बे जरूर पड़ गए थे परंतु लाल रंग ने अपना चटकपन नहीं खोया था । आज भी वैसे ही था जैसे पहले दिन । फिर उसकी नज़र उन कागज के टुकड़ों पर अटक गयी । कुछ सोच कर वह धड़कते दिल से उन्हें आपस में जोड़ने लगी । आस ये, कि शायद उस पर कोई धुँधला अक्षर बचा रह गया हो । आज उन्हें फिर से पढ़ना चाहती थी दीया लेकिन कागज़ पर एक भी अक्षर नहीं मिला । मिलता भी कैसे! उसीने तो उन अक्षरों की हत्या की थी । टाइटेनिक के यात्रियों की तरह ही एक-एक कर उन सारे अक्षरों ने भी लोटे के समन्दर में डूब कर दम तोड़ दिया था । परंतु कहीं-कहीं कुछ स्याही के धब्बे अबतक बचे रह गए थे । उँगलियों के पोरों से उन धब्बों को सहलाते हुए उसकी आँखें डबडबा आयीं ।

वर्षों बाद सूरज की याद आयी थी । वो बचपन के लड़ाई-झगड़े, रूठना-मनाना, उम्र के साथ बढ़ती पाबंदियाँ और फिर एक दिन दोनों का अलग हो जाना । एक लम्बी साँस भर कर आँसू पोंछ ली दीया और रिबन के साथ उस धुले पत्र को वैसे ही रख कर बक्से को ज्यूँ का त्यूँ लगा कर ताला बंद कर दी । सूरज की याद ने उसके दिल में हलचल-सी मचा दी थी । वर्षों पीछे छूटा उसका लेखन भी स्मृति पटल पर उग आया था । वहाँ से निकल कर वह बच्चों की आलमारी के सामने आ खड़ी हुयी । काँपते हाथों से रजिस्टर-पेन तो उठा ली; पर लिखने बैठी तो उंगुलिया थरथरा उठीं । लगा कि लिखना तो दूर कलम पकड़ना भी भूल चुकी है वह पर सूरज के कहे शब्द रह-रह कर उसे लिखने को प्रेरित कर रहे । 

आखिरकार सुई-सलाई किनारे रख कर दीया ने अब मजबूती से कलम थाम लिया और उसका लेखन पुनः जीवंत हो उठा । फिर लिखना आरम्भ की तो लिखती ही चली गयी । इसी बीच उसके पति आलोक ने स्मार्ट फोन ला कर फेसबुक पर उसका अकाउंट भी बना दिया । पति से मिला ये उपहार उसके लिए वरदान साबित होगा, वह नहीं जानती 

थी । यहाँ उसे एक ऐसा प्लेटफार्म मिला कि उसके लेखन को नए आयाम मिलते गए और उसकी लेखकीय यात्रा धीरे-धीरे ही सही अपनी मंजिल की ओर बढ़ चली; पर जब भी कोई रचना पूरी होती उसे सूरज की बहुत याद   आती । 

दीया लगन से लिखती गयी और काल का पहिया अपनी रफ़्तार से घूमता गया । देखते ही देखते किताब-दर-किताब दीया का कद बढ़ता चला गया । साहित्य जगत में मजबूती के साथ दीया ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवा ली थी । ऐसा नहीं था कि ये सब आसान था उसके लिए । आलोचनाओं का सामना करते हुए कितनी बार उसे निराशाओं के भँवर में गोते भी लगाने पड़े थे । परंतु इन्हीं आलोचनाओं ने उसकी कलम को धार भी दी थी ।

अलोक बैंक की नौकरी से रिटायर हो गए थे । समय के साथ बच्चों के ब्याह हुए । परिवार भी बढ़ा और वह अलग-अलग शहरों में सेटल भी हो गए थे । अब वह पूरी तरह लेखन में रम गयी थी । इसी बीच उसका एक उपन्यास चर्चा-परिचर्चा की सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ बुलंदी के फ़लक की ओर बढ़ने लगा । अब तो फोन, मेल और पत्रों के माध्यम से भी पाठकों की प्रतिक्रिया मिलने लगी थी । 

इन्हीं दिनों सोशल मीडिया पर एक मित्रता निवेदन देख कर चौंकी वह; डीपी में विवेकानन्द की फ़ोटो थी पर नाम...! तुरंत ही अपने विचारों को झटक दिया और मित्रता स्वीकार कर ली । रचनाओं की प्रशंसा से बात आरंभ हुई और धीरे-धीरे घनिष्ठता में बदल गई । उससे बातें करते हुए कई बार दीया को लगता कि वह उसे जानती है । इसी बिना पर जा कर उसकी प्रोफाइल खंगाल आती । पर वहाँ तो उसकी या उसके परिवार की कोई फोटो भी नहीं थी ।

“आपने अपनी फोटो क्यों नहीं लगाई?” एक दिन यूँ ही पूछ ली वह ।

“ये मेरे प्रेरणास्रोत हैं । वैसे भी बार-बार डीपी बदलना मुझे पसंद नहीं ।” जवाब लिख कर आ गया था ।

दीया उसके दो टूक जवाब और अपने प्रश्न पर झुंझला उठी थी । उसे क्या ? एक प्रसंशक ही तो है । उसके बारे में जानने की इतनी भी क्या अधीरता! नाम सूरज हैं इसका मतलब ये तो नहीं कि ये वही...! पर उसके कुछ दिन बाद ही अचानक उसकी डीपी बदल गयी थी । 

जिसे देख कर दिया की आँखें फ़टी की फ़टी रह गयी थीं । जैसे उसका पाँव बिजली के नंगे तार पर पड़ गया हो ।

“दीया अस्थाना..!” एकाएक अपना नाम सुन कर चौंक पड़ी वह । उसके नाम की पुकार हो रही थी ।

अतीत से वर्तमान में ऐसे लौटी जैसे सैकड़ों मील पैदल चल कर आई हो । थकी-सी, चेहरे पर उदासियों के बादल लिए उठी और आगे बढ़ गई । एक बार फिर हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा । कुछ देर बाद ही महामहिम की अनुमति लेकर कार्यक्रम का समापन हो गया और राष्ट्रगान के लिए सब खड़े हो गए ।

सम्मान पा कर वह फूली नहीं समा रही थी लेकिन उसकी आँखें अब भी सूरज को तलाश रही थीं । एक उम्मीद उसके मन में घुमड़ रही थी कि बीते लगभग चार दशक बाद उसे आज देखेगी ।

“एक बार दिख जाओ । एक उम्र के बाद चेहरा भी बदल जाता है । तुम्हें पहचानूँगी कैसे ?” सम्मान की सूचना देते हुए कितनी बार मैसेज किया था उसने । 

“अब लाल गुलाब तो दे नहीं सकता । मेरे हाथ में पीले फूलों का गुलदस्ता होगा । पहचान लेना ।“ स्माइली के साथ हर बार यही जवाब लिख कर आ जाता था । 

“तुम्हें देखने का बहुत मन है सूरज ।“ चाह कर भी नहीं लिख सकी थी वह । 

सोचते हुए वह सबके साथ सीढियाँ उतर कर अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गयी । गाड़ी रायसीना हिल् से नीचे उतर रही थी । आँखें सामने शीशे के पार देख रही थीं कि शायद कहीं पीले फूलों का गुलदस्ता लिए वह खड़ा हो; पर पीला रंग जैसे आज धरती से उड़ गया था ।

अब सारी आस खत्म हो चुकी थी । पर्स से फोन निकाल कर ऑन किया उसने कि शायद सूरज ने कोई मैसेज भेजा हो; पर ये क्या...! बार-बार उसका नाम सर्च करने पर भी उसकी प्रोफाइल नहीं दिख रही थी । तो क्या मुझसे बात करने के लिए उसने फ़ेक अकाउंट बनाया था या मुझे ब्लॉक कर दिया था उसने! मन में अनेक प्रकार के विचार उमड़ पड़े थे । एक लंबी साँस भरते हुए आँखें मूँद कर उसने अपना सिर सीट पर टिका दिया ।

“मैम..! ये आपके लिए कोई दे गया था ।“ 

सुन कर चौंक पड़ी वह । आँखें खुलीं तो जैसे वसंत खिल उठा था । ड्राइवर के एक हाथ में पीले गुलाबों का गुच्छा उसके सामने था । देख कर दीया के चेहरे से जैसे उम्र की लकीरें मिटती जा रही थीं और दिवाभिसारिका-सी उसकी आँखों में सौ-सौ वसंत खिल उठे थे ।

“अरे ! ये किसने दिया तुम्हें ?” कहते हुए जल्दी से गुच्छा झपट लिया उसने और हर-एक फ़ूल को ऐसे निहारने लगी जैसे उनमें सूरज का अक्स दिख रहा हो ।

“कोई साहब थे । कह रहे थे जल्दी में हैं नहीं तो आपके आने तक जरूर रुकते ।“

सुन कर एक ही पल में चेहरे पर मायूसी छा गयी कि तभी उन पीले गुलाबों के बीच लाल रंग झाँकता हुआ दिख गया । 

“अरे...! लाल गुलाब !” दिल की धड़कनों को कनपटियों पर महसूस करते हुए उस गुलाब को आहिस्ता से खींच लिया उसने और जैसे ही उसकी पूरी डंडी बाहर आयी, वह चिहुक पड़ी । तह की हुयी एक पर्ची उसकी डंडी से चिपकी थी । सावधानी से टेप हटा कर उस पर्ची को डंडी से अलग कर के खोल लिया दीया ने । वर्षों बाद भी सूरज की हैण्डराइटिंग पहचानने में उसे पल न लागा । छोटे-छोटे सुंदर अक्षरों में लिखा था--

....दीया!

ढेर सारी शिकायतें थी तुमसे । नाराज़गी भी, क्योंकि मेरी खुशियों की थैली ले कर तुम चली गयी थी । तुम्हारे ब्याह की खबर पाते ही लगा था कि सब खत्म हो गया । जीवन निरूद्देश्य-सा व्यर्थ लगने लगा था । मैं निराशाओं के गर्त में ढह गया था । परंतु माँ-बाबूजी के प्रति मेरी जिम्मेदारियों ने संभाल लिया था मुझे । सब कुछ ख़त्म हो कर भी कुछ न कुछ शेष रह ही जाता है दीया! भले ही वह शून्य ही क्यूँ न हो । हाँ, ये बात अलग है कि कुछ लोगों के लिए शून्य का अर्थ अंत होता है लेकिन मेरे लिए वह नया आरम्भ था । तुम्हारे बिना ही मुझे जीवन के बाकी अध्याय लिखने-पढने थे जो बहुत मुश्किल था मेरे लिए पर जानती हो दीया! तुम न हो कर भी हमेशा मेरे साथ ही रही ।

 बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ दीया लेकिन सब कुछ लिखना संभव कहाँ होता है! सोचा तो ये था कि जब तुम इस मुकाम पर पहुँचोगी तो मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा । पर काश कि ऐसा हो पाता.....! 

तुम्हारा 

सूरज 

पत्र पढ़ते-पढ़ते दीया की आँखें बरस पड़ी थीं । 

“काश...!” उसके होंठ हिले थे । 

तभी अचानक फोन की घंटी दिमाग पर हथौड़े-सी बजी । लगा जैसे गहरी नींद से जागी है । दीया ने हड़बड़ा 

कर अपनी आँखें खोल लीं । छल्ल से दो बूँद गर्म आँसू उसके गलों पर छलक पड़े । जल्दी से उन्हें पोंछ कर अपने हाथ देखने लगी; पर हाथ तो खाली थे और न तो वह गाड़ी में बैठी थी, न उसके पास कोई पत्र था, न गुलदस्ता ! कुछ भी तो नहीं था । नज़र घुमा कर अपने आस-पास देखा उसने । पश्चिम में आकाश की लाली सिमट गयी थी और सूरज क्षितिज के उस पार उतर गया था । 

हे भगवान् ! वह तो शाम होते ही अपनी किताब के साथ ऊपर आ गयी थी । कुछ देर उन अनुभूतियों के साथ अकेले रहने के लिए जो उसकी अपनी किताब से उपजी थी । उन अथाह खुशियों को जीना चाहती थी जिसकी कभी उसने कल्पना भी नहीं की थी । न जाने कब ठण्डी हवाओं नें उसे थपकी दे कर कुछ देर के लिए सुला दिया था और.....! 

अपनी उँगलियों से अपना माथा दबाने लगी थी दीया । एक दिन पहले ही तो साहित्य अकादमी पुरस्कारों में उसकी किताब, ’उजाले की आँच’ के लिए उसके नाम की घोषणा हुयी थी, तबसे वह फोन उठाते-उठाते थक गयी थी । इसीलिये वो सिम एक-दो दिन के लिए मोबाइल से निकाल कर रख दी थी । उसका ये नम्बर परिवारीजनों तक ही सीमित था । गोद में किताब के नीचे पड़ा फोन लगातार बजने के साथ वाइब्रेट भी हो रहा था । जल्दी से फोन उठा लिया दीया ने । देखी तो गाँव से भाभी का फोन था ।

“हेल्लो..! भाभी, आप सूरज को जानती हैं न ?” उनके कुछ बोलने से पहले ही बिना किसी लाग-लपेट के पूछ बैठी दीया । 

“कौन सूरज बबुनी ?” उधर से अकबकाई-सी आवाज आयी भाभी की ।

“अरे वही पकड़ी-तर वाले ।” उसे लग रहा था कि अभी रो पड़ेगी । भाभी पर गुस्सा भी आ रहा था । उम्र हो गयी गाँव में रहते हुए और सूरज को नहीं जानतीं ।

“.......................”

“हेल्लो...! क्या हुआ भाभी? आप बोलतीं क्यों नहीं?” उधर के सन्नाटे से उसका मन आशंकित हो उठा था ।

“का बताएँ बबुनी! उनको ख़तम हुए तो चार बरीस हो गये । दिल की बेमारी हो गयी थी उनको । दिल्ली के बड़का-बड़का डॉक्टर लोग का दवाई हुआ बाकिर कौनो फायदा नाहीं हुआ । और जानती हैं! यहीं गाँव में पकड़ी-तर बैठे-बैठे ही उनका परान निकल गया..... ।“ 

भाभी बोलती जा रही थीं । दीया के हाथ में जैसे फोन थामे रहने भर को भी जान नहीं बची थी । सरक कर फोन नीचे जा गिरा । वह जहाँ थी वहीं जड़ हो गयी । रोम-रोम से पसीने की धारा फूट पड़ी । हवा के एक झोंके से मानो दीया की लौ भी झप्प से बुझ गयी थी और उसकी बाती से निकलती धुएँ की पतली-सी लकीर क्षितिज की ओर बढ़ती जा रही थी ।

ईमेल : meenadhardwivedi1967@gmail.com 

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कहानी

सुश्री दीपक शर्मा, लखनऊ, मो. 98391 70890


आंख-मिचौनी

पाँच मंज़िली उस इमारत की तीसरी मंज़िल पर स्थित पुस्तकालय की ओर से कपड़े की एक बड़ी ध्वजा उसी दिन, सतरह मार्च को, आयोजित एक गोष्ठी की सूचना वहीं प्रांगण के प्रवेश द्वार पर दे रही थी ।

सूचना के अन्तर्गत बड़े अक्षरों में एक घोषणा थी- पुस्तकों की मांग, हमें हरी जिल्द दो तथा उस घोषणा के नीचे छोटे अक्षरों में उस मांग का तत्त्व कारण दिया गया था, पेड़ ही हमारे पुस्तक उद्योग के कागज़ तथा मुद्रण के साधन हैं तथा उन के योगदान की प्रशस्ति-स्वरुप हमें अपनी पुस्तकों को हरी जिल्द देनी चाहिए ।

विषय मुझे मनोरंजक लगा था तथा मैं ने दूसरी मंज़िल पर बने बिजली के दफ्तर जाना टाल दिया । सोचा, पहले पुस्तकालय ही जाऊँगी । उस की सदस्या तो मैं थी ही ।

अभी मैं अपना मन बना ही रही थी कि वहीं प्रांगण में एक तिपहिया आन रुकी ।

“भाड़ा कितना हुआ?”

उतरने वाली कुन्ती थी । तीन वर्ष पूर्व के मेरे पुराने पुरुष-मित्र, सुरेश की नयी सहेली, जिसे सुरेश ने अभी पिछले माह ही मुझे इसी पुस्तकालय में मिलवाया था, इसी चार मार्च को हम ‘कोर्ट मैरिज कर रहे हैं ।’

“एक सौ बीस, बिटिया,”

तिपहिया-चालक वृद्ध था ।

“तुम बाकी चेंज रख लो...”

सौ सौ के दो नोट कुन्ती ने उस चालक की ओर बढ़ा दिए थे ।

“मगर बिटिया...”

“तुम रखो...”

और कुन्ती ने अपना हाथ खाली कर दिया था ।

तभी मैं ने उसकी मांग और कलाइयों पर ध्यान दिया तो उन्हें भी खाली ही पाया ।

पहनावा भी उसका एकदम फीका था, धूसर हो चुकी जीन्स के ऊपर उसने जो टी-शर्ट पहन रखी थी कभी नीली और गुलाबी रही उसकी धारियों के रंग मंद पड़ चुके थे । उसके पैरों की चप्पल भी किसी कूड़े के ढेर में फेंकी जाने वाली थी ।

“सुरेश कहाँ है?” मेरी जिज्ञासा ने मुझे उस के कदम के साथ कदम उठाने पर बाध्य कर दिया ।

“तीन मार्च की सुबह वह वाशिंगटन के लिए निकल गया है,”

उस की आँखों में आँसू छलक आए ।

मैं जानती थी सुरेश के पिता उन दिनों तीन वर्ष के लिए विश्व बैंक में हुई अपनी तैनाती के अन्तर्गत वाशिंगटन में रह रहे थे ।

“शादी के बगैर?” मैं मन ही मन मुस्करायी । उस से पहले भी मैं सुरेश को तीन लड़कियों को अपने मन में बिठालने के बाद उन्हें मन से उतारते हुए देख चुकी थी ।

“हाँ,” और कुन्ती अपने आंसुओं को संभालती हुई इमारत के सुरक्षा जांच वाले बूथ की ओर चल दी ।

मैं भी उस के पीछे पीछे वहीँ चली आयी ।

“आप अपने साथ कुछ नहीं लायीं?” जांच के बाद लॉउन्ज में पहुँचते ही मेरी जिज्ञासा खुल कर प्रकट हो ली ।

“नहीं,” उसकी आँखें अब अपने आँसू संभाल नहीं पायीं ।

लॉउन्ज में लिफ्ट के पास खड़े लोग हमारी ओर देखने लगे । “आज पुस्तकालय नहीं जा रहीं?” मुझे उसकी चिन्ता हो आयी । “नहीं...” उसने नीचे आ चुकी लिफ्ट की ओर मुड़ना चाहा । “लिफ्ट में अभी इन सब को जा लेने दीजिए ।” मैं ने उस का हाथ पकड़ कर उसे उस में जाने से रोक दिया, “मुझे आप से एक जरूरी बात करनी है... सुरेश ही के बारे में...” “क्या-या-या?” वह चौंक गयी । “चलिए, इस दूसरी लिफ्ट, में चलते हैं... अकेली हम दोनों...” जब तक नीचे आ चुकी दूसरी लिफ्ट मुझे नज़र आ गयी थी । “आप की मंजिल?” लिफ्ट का दरवाजा बंद होते ही मैंने अपना द्विअर्थक प्रश्न उस की ओर निर्दिष्ट किया । “आखिरी...” इस इमारत की आखिरी मंज़िल में एक रेस्तरां था, आधा छतदार एवं आधा खुला । किंतु उस के खुले भाग के एक कोने में अशुभ वह बालकनी भी थी जहाँ से नीचे कूद कर अभागे कई युवक एवं युवतियां स्वेच्छा से मृत्यु प्राप्त कर चुके थे । “मैं भी उसी आखिरी मंजिल पर ही जा रही हूँ,” उसे अपने पक्ष में लाने के लिए मैंने गप उड़ा दी, “लेकिन उस के रेस्तरां में नहीं । उस की बालकनी पर...” “सच?” भौचक हो कर वह मेरा चेहरा ताकने लगी । “वहां जाने से पहले बेशक सुरेश के बारे में तो मुझे आप से बात करनी ही है...” “हाँ...हाँ... सुरेश ने क्या किया?” वह उत्सुक हो आयी ।

“उस ने मुझे धोखा दिया । आप से मुझे मिलाते समय बोला था वह आप से शादी कर रहा है जब कि उसने न तो शादी ही की और न ही अपनी दोस्ती ही निभायी...” मैं ने दूसरी गप हांकी । “दोस्ती? कैसी दोस्ती?” वह लगभग बौखला गयी । संयोगवश ऊपर जाते समय लिफ्ट के रास्ते में पड़ रही अन्य मंजिलों से भी हमारे साथ कोई शामिल नहीं हुआ और पांचवी उस मंज़िल पर हम दोनों अकेली ही उतरीं । “सोचती हूँ, आप के साथ थोड़ी देर के लिए इस रेस्तरां ही में बैठ लूँ, अपना दुख बाँट कर ही उधर बालकनी में जाऊं । मगर पहले बताइये इधर इस रेस्तरां में आप किसी से मिलने आयी हैं क्या?” लिफ्ट से उतरते ही मैं रेस्तरां की ओर बढ़ ली । “अब मुझे किसी से भी मिलना मिलाना नहीं है । बस, सुरेश के बारे में आप की बात सुननी बाकी है और फिर...” “फिर क्या?” उसे निरस्त्र करने के लिए मैंने अपने शस्त्र उठा लिए । मैं मनोविज्ञान में लेक्चरर थी और जानती थी उसकी इष्ट धारा से उसे अपने मार्ग पर लाने के लिए मेरा उस पर सीधा प्रहार करना सर्वथा ठीक था । “फिर...फिर...” वह घबरा गयी । “चलिए, अभी रेस्तरां में बैठते हैं, फिर की फिर देखी जाएगी । अभी कॉफ़ी पीते हैं, सेंडविच लेते हैं । अच्छा हुआ जो अपना बटुआ मैं लेती आयी । आप की तरह खाली हाथ नहीं आयी...” मैंने मेज़-कुर्सियों पर अपनी नज़र दौड़ायी और बीच वाली एक मेज़ की ओर बढ़ चली । “हाथ खाली करते समय आप ने अपने कंधे नहीं खाली किये?” उसके आसन ग्रहण करते ही मैं शुरू हो ली । “कंधे? मैं समझी नहीं...” “अपने कंधों पर आप अभी भी सुरेश को लादी हुई हैं । अपने कंधे मुक्त करिए । अपनी जिन्दगी में नया अपना खाका उतारिए । अपने लिए नयी लकीर खींचिए । सुरेश को एक दु:स्वप्न समझिये, मानो वह आपकी बाजू से हो कर निकल गया । अपना भविष्य उस के साथ जोड़ने की बजाए अपने लक्ष्य, अपने सपने के साथ जोड़िए...”

तभी वेटर हमारी मेज़ पर पानी के दो गिलास ट्रे में रखे हमारा आर्डर लेने आ पहुंचा ।

“यहाँ की टिकिया और पानी-बताशे...”

“फिर आप दो कॉफ़ी लाइए और दो दो प्लेट यही दोनों...”

“मैं कुछ नहीं लूँगी, प्लीज”, वह लगभग उठने उठने को हुई ।

“तुम यह लाओ । हम दोनों खाएंगी...”

मैंने अपना हाथ कुन्ती के हाथ पर जा टिकाया ।

“क्या सुरेश के बारे में आप कुछ जानना नहीं चाहती थी?”

“हाँ...हाँ...”

“तो फिर बैठिए अभी । आप को जल्दी किस बात की है?”

“असल में मैं यह सोच कर आयी थी अब मुझे इस संसार से कुछ लेना-देना नहीं...”

“सिवा सुरेश के?” मैंने व्यंग्य छोड़ा । उसे मैं उस दुहरी गांठ से दूर करना चाहती थी, “आप बहुत गलत रास्ते पर जा रही हैं । सुरेश से मिलने से पहले भी तो आप कुछ थीं । कुछ कर रही थीं...”

“हाँ, मैं जे. आर. एफ., जूनियर रिसर्च फ़ैलोशिप पा रही थी । अब भी पा रही हूँ । बल्कि आज ही उस का नया चेक कैश करवा कर लायी हूँ...”

“जे. आर. एफ. तो केवल नेट परीक्षा में मेरिट लिस्ट पाने वालों ही को मिलता है । मतलब, आप पढाई में बहुत तेज़ हैं?” “थी, कहिए । थी । सुरेश की बेफ़िक्री और अमीरी की चकाचौंध ने मेरी आँखें मगर धुंधली कर दीं । मेरी समझ भटका दी और अपना शोध, अपना अध्ययन, अपना परिवार भूल कर मैं उस के साथ आंख-मिचौनी खेलने लगी...”

“आप के परिवार में कौन-कौन हैं?”

“मेरे पिता हैं तथा छोटे दो भाई । पिता एक सरकारी दफ़्तर में क्लर्क हैं और भाई दोनों पढ़ रहे हैं । इसीलिए आज फ़ैलोशिप पाते ही मैं ने अपने सभी बिल चुका दिए, धोबी के, अखबार वाले के, खाने के, होस्टल के ताकि मेरे पीछे उन पर कोई अतिरिक्त बोझ न पड़े । अपना सारा सामान बांध-समेट कर अपनी होस्टल वार्डन के सुपुर्द कर आयी हूँ- एक लिफ़ाफ़े के साथ...”

“लिफ़ाफ़े में क्या है? मेरी चेक-बुक, मेरी पास-बुक, मेरे सभी पहचान-पत्र और मेरी आत्महत्या का नोट...”

“आत्महत्या?” मैंने हैरान होने का स्वांग भरा हालांकि कुन्ती को देखते ही वह मेरे संदेह के घेरे में आ चुकी थी । आखिर मनोविज्ञान पढ़ी हूँ, पढ़ा रही हूँ ।

“हाँ, अब मैं जीना नहीं चाहती । अपने को मृत्युदंड देना चाहती हूँ । अपने पिता तथा भाइयों को धोखा देने के लिए । खुद को, धोखा खाने के लिए...”

“और जिस ने सब को धोखा दिया है । आप को, आप जैसी कितनी ही लड़कियों को और अपने उस दोस्त को जिस से उस ने अपनी शादी के नाम पर एक लाख रूपया ऐंठा और वाशिंगटन का टिकट कटा लिया...” “किस दोस्त से?” “मुझ से...” मैंने दूसरी गप हांकी ।

“आप उस की दोस्त हैं?” “थी, मगर अब नहीं । और सोचती हूँ हमें अपना अपना भविष्य बिगाड़ना नहीं चाहिए । सुरेश को एक दु:स्वप्न की भांति भुला देना चाहिए और अपने आप को महत्व देना चाहिए उसे नहीं...” “शायद आप ठीक कह रही हैं” कुन्ती ने मेरे रुमाल से अपना चेहरा पोंछा और मेरा हाथ पकड़ कर बोली, “अगली बार मेरे बटुए से बिल चुकाया जाएगा...” तभी वेटर हमारा सामान ले कर हमारे पास आ पहुंचा और हम सुरेश को भूल कर उस पर टूट पड़ीं । 

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आचार्य नीरज शास्त्री

(राष्ट्रवादी चिंतक व साहित्यकार)

मथुरा, Email : shivdutta121@gmail.com


'हर जगह गंदगी के ही अंबार हैं, क्यों जहन्नुम बना है अपना शहर ??


एक महका गुलिस्ताँ है अपना शहर ।

यह अमन का फरिश्ता है अपना शहर ।।

आरती कृष्ण की और खुदा की अजाँ । 

 रोज होती जहाँ, है अपना शहर ।।

ये महका सदा ही मलय गंध से ।

यूं ही जग ने चुना है अपना शहर ।।

यहां पुण्य - पावन, परम प्रेम था ।

आज वैसा कहाँ है अपना शहर ।।

दिखता यहाँ हर जगह अतिक्रमण ।

 देखो जर्जर हुआ है अपना शहर ।। 

हर जगह गंदगी के  अंबार हैं ।

उफ़ जहन्नुम बना है अपना शहर ।।

'नीरज' सुनो दर्द इसका कभी।

ग़म को करता बयां है अपना शहर ।।

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यात्रा-संस्मरण

डॉ. प्रमोद पाण्डेय, —मुंबई, मो. 9869517122


मेरी पहली लंदन यात्रा

मेरा मन उस समय खुशी से झूम उठा जब लंदन (यूके) से आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी ने फोन करके यह सूचना दी कि 25 मई 2023 को ब्रिटिश पार्लियामेंट में साहित्यिक परिचर्चा तथा सम्मान समारोह कार्यक्रम आयोजित होने की अनुमति मिल गई है । अपना ईमेल देख लीजिए, सारी जानकारी प्रेषित कर दिया हूं । काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई थी उस समय क्योंकि बचपन से लंदन शब्द सुनते आ रहा था, आज प्रत्यक्ष देखने का सुअवसर मिला है । इससे ज्यादा खुशी की बात मेरे लिए और क्या हो सकती थी । कुछ देर तक सोचता रहा । एकांत में बैठकर चिंतन-मनन करने के पश्चात लंदन जाने की तैयारी शुरू हुई । मन में बार-बार यही ख्याल आ रहा था कि अजनबी देश, अजनबी लोग, कैसा होगा लंदन शहर, कैसा होगा ब्रिटिश पार्लियामेंट ? मुझे डरने और घबराने की जरूरत ही नहीं थी क्योंकि जिस प्रेम भाव से आदरणीय तेजेंद्र शर्मा ने हम सबको आमंत्रित किया था उसमें अपनापन था । इसी अपनेपन के कारण ही हिम्मत बांधकर जाने की तैयारी में लग गए । अंततः 40 लोगों का एक दल लंदन और यूरोपीय देशों की यात्रा के लिए तैयार हुआ । वीजा की प्रक्रिया शुरू हुई । आदरणीय तेजेंद्र शर्मा द्वारा प्रेषित पत्र के आधार पर सभी 40 लोगों को यूके का वीजा तो मिल गया पर उनमें से आठ लोगों को यूरोप का सेनेगन (Schengen visa) वीजा नहीं मिल सका । उन आठ लोगों में से एक मैं भी था । थोड़े समय के लिए दु:ख तो हुआ पर खुशी इस बात की थी कि मैं भारत से 40 लोगों का दल लेकर ब्रिटिश पार्लियामेंट में कार्यक्रम आयोजन के लिए जा रहा हूं । इससे बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती थी । अतः वह गम खुशी में कब बदल गया पता ही नहीं चला । शायद उस समय सभी के मन में यही विचार आ रहे होंगे कि भारत की संसद भवन के दर्शन तो हुए नहीं और शायद कभी होंगे भी नहीं तो ब्रिटिश पार्लियामेंट में जाकर कार्यक्रम का हिस्सा बनना गर्व की बात है । 

कार्यक्रम की तैयारी होने लगी प्रमाण-पत्र, बैनर, सम्मान-पत्र, साहित्य सेतु स्मारिक बनवाने के साथ-साथ स्वयं की जरूरत की सामग्री जुटाने में लग गया । नित नए-नए विचार मन में हिलोरे मारने लगे । दिन बीतते गए और आखिरकार वह दिन आ ही गया, जिसे हम सभी को बड़ी बेसब्री से इंतजार था । 24 मई 2023 रात को 2:00 बजे मुंबई छत्रपति शिवाजी महाराज अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंचकर सुबह 7:00 बजे की हवाई यात्रा का इंतजार शुरू हुआ । निर्धारित समय पर हवाई जहाज मुंबई से कुवैत के लिए रवाना हुआ । कुवैत में 3 घंटे के इंतजार के पश्चात पुनः दूसरी फ्लाइट कुवैत से लंदन के लिए रवाना हुई । निर्धारित समय पर हम लोग सुरक्षित लंदन के हिथ्रो एयरपोर्ट पर लंदन के समयानुसार शाम 4:30 बजे पहुंच गए । भारत के समय से लंदन का समय 4:30 घंटे पीछे चलता है । हीथ्रो एयरपोर्ट पर उतरने के बाद बाहर जाते समय हिंदी और गुजराती में लिखी हुई सूचना को देखकर ऐसा लगा सचमुच भारतीय भाषा और संस्कृति महान है । सिर्फ सूचना ही नहीं बल्कि एयरपोर्ट पर कार्यरत अधिकांश कर्मचारी भी भारतीय भाषाओं में बात कर रहे थे । मेरे कुछ साथी मित्र दूसरी फ्लाइट से आ रहे थे । अतः उनका हवाई जहाज लंदन के समयानुसार शाम 7:00 बजे हिथ्रो एयरपोर्ट पर पहुंचा । होटल पहुंचकर रात का भोजन करने के पश्चात सभी लोग सोने के लिए अपने-अपने कमरे में चले गए । जाने से पहले अगले दिन के कार्यक्रम की सूचना दी गई । 

सूचना के अनुसार सुबह तैयार होकर नाश्ता (ब्रेकफास्ट) करने के बाद बस में बैठकर लंदन की सैर तथा ब्रिटिश पार्लियामेंट में कार्यक्रम के लिए रवाना हुए । हमारा होटल लंदन हिथ्रो एयरपोर्ट के पास था । अत: होटल से लंदन शहर की दूरी लगभग डेढ़ घंटे की थी । लंदन का दृश्य देखते हुए लंदन शहर पहुंचे । सर्वप्रथम ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट, बकिंघम पैलेस, पार्लियामेंट हाउस, लंदन आय, लंदन ब्रिज आदि देखने के पश्चात लंदन टावर देखने के लिए निकले । यही वह लंदन टावर है जहां पर भारत से ले जाया गया कोहिनूर हीरा रखा हुआ है । यह कोहिनूर हीरा रानी के मुकुट में जड़ा हुआ है । इसे लंदन टावर के अंदर स्थित म्यूजियम में रखा गया है । यह सब खूबसूरत दृश्य प्रत्यक्ष रूप से देखने के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट हाउस में आयोजित कार्यक्रम हेतु निकले । ठीक शाम 4:00 बजे ब्रिटिश पार्लियामेंट हाउस के सामने पहुंच गए । यहीं पर जिनका बेसब्री से मुझे इंतजार था वे भी मेरा इंतजार कर रहे थे । मिलते ही आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी ने मुझे अपने गले से लगा लिया । मुझे लंदन के उस अजनबी शहर में अपनेपन का एहसास हुआ, आँख भर आई, काफी देर तक हम एक-दूसरे के गले से लिपटे रहे । ऐसा अनुभव हुआ जैसे हमारी बरसों से पहचान हो । उस अजनबी देश के अजनबी शहर में, अजनबी लोगों के बीच वही एक सच्चा व्यक्ति मुझे अपना-सा लगा जिसने मुझे प्रेम से गले लगाकर बेटा कहकर बुलाया । वह क्षण, वह पल हमेशा के लिए मेरे मन में बस गया । जब भी वह यादगार पल याद आता है, उन बीती हुई यादों में खो जाता हूँ और आँख भर आती है । 

कोई किसी के लिए नि:स्वार्थ भाव से इतना कुछ कर सकता है, वह भी सात समंदर पार । यह अनुभव मुझे लंदन जाने के बाद आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी से मिलने के पश्चात हुआ । एक सच्चे गुरु, मार्गदर्शन, एंजेल गार्जियन की तरह उन्होंने न सिर्फ मेरा बल्कि भारत से गए हुए मेरे सभी 40 प्रतिनिधियों का हँसते हुए उन्होंने स्वागत किया । यही हँसता-मुस्कुराता चेहरा, अपनत्व का भाव ही तो सच्चे इंसान की पहचान होती है । 

मुलाकात के पश्चात एक कुशल अभिभावक की तरह सभी लोगों की सिक्योरिटी जांच करवाने के पश्चात ब्रिटिश पार्लियामेंट हाउस के अंदर लेकर गए । पार्लियामेंट के अंदर का अद्भुत दृश्य देखकर सभी की आंखें खुली की खुली रह गईं । सभी लोग अपनी मनपसंद चीजों के साथ सेल्फी लेकर उस क्षण को कमरे में कैद करने लगे क्योंकि हमारे पास 30 मिनट का समय बाकी था । कार्यक्रम 5:00 बजे से 7:00 तक निर्धारित था । इसलिए 30 मिनट तक लोगों ने ब्रिटिश पार्लियामेंट हाउस के अंदर घूमकर फोटोग्राफी की । पूर्व निर्धारित समयानुसार ठीक शाम 5:00 बजे लोकसभा के अंदर कार्यक्रम हेतु सभी लोगों ने प्रवेश किया । 

कथा यूके के संस्थापक महासचिव तथा ख्याति-प्राप्त प्रवासी साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा एमबीई द्वारा संकल्पित “साहित्य के माध्यम से सेतु निर्माण” की पहली कड़ी का सफल आयोजन ब्रिटिश पार्लियामेंट के हाऊस ऑफ़ कॉमन्स, लंदन में किया गया । 

इस कार्यक्रम की मेज़बानी लंदन ईलिंग के सांसद श्री वीरेंद्र शर्मा ने की तथा इस अवसर पर भारतीय उच्चायोग के मंत्री समन्वयक श्री दीपक चौधरी, लंदन की काउंसलर तथा सुप्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार ज़किया ज़ुबैरी, पंजाबी लेखक एवं काउंसलर के. सी. मोहन तथा प्रवासी साहित्यकार जय वर्मा विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे । इस कार्यक्रम में ब्रिटेन, युरोप तथा भारत के साहित्यकार, पत्रकार, अध्यापक व समाजसेवी भी शामिल थे । 

कथा यूके की संरक्षक ज़किया ज़ुबैरी ने कार्यक्रम में उपस्थित सभी अतिथियों तथा गण्यमान्य व्यक्तियों का आदर पूर्वक सत्कार किया । उन्होंने कहा, “यह बहुत ख़ुशी की बात है कि कोविद-19 की दहशत के बाद अब हम सब मिल-जुलकर एक छत के नीचे कुछ सार्थक कार्य कर सकते हैं । वो समय गुज़र गया जब हम ज़ूम पर मिलने को बाध्य हो गये थे । बस यही दुआ है कि यह मुहिम जारी रहे और हम ऐसे ही निरंतर मिलते रहें और काम करते रहें । ”

सांसद वीरेंद्र शर्मा ने अपने संबोधन में कहा कि "यह एक नया सफल प्रयास है । ऐसे कार्यक्रमों की आज आवश्यकता है । इस कार्यक्रम की जितनी सराहना की जाए उतनी कम है । मेरा विश्वास है कि ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन के लिए सभी देशों को पहल करनी चाहिए । जिससे न सिर्फ यूके अपितु विश्व के सभी देशों के बीच साहित्य व संस्कृति के माध्यम से आपसी संबंध और भी मजबूत होंगे । "

सुप्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार तेजेंद्र शर्मा ने कहा कि "साहित्य एक ऐसा माध्यम है जो लोगों को आपस में जोड़ता है । ऐसे कार्यक्रमों से न सिर्फ दो देशों के बीच में आपसी संबंध मजबूत होंगे बल्कि साहित्य एवं संस्कृति का आदान-प्रदान भी होगा । राजनीति में उठा-पटक चलती रहती है, जबकि साहित्य में केवल सकारात्मकता होती है जो आपस में मनुष्य को मनुष्य से जोड़ती है । "

भारतीय उच्चायोग के मंत्री समन्वयक श्री दीपक चौधरी ने कार्यक्रम की सोच की सराहना करते हुए भारत से आए अतिथियों का स्वागत किया और ब्रिटेन की सम्मानित हस्तियों को बधाई दी । उन्होंने घोषणा करते हुए कहा कि "भारतीय उच्चायोग सदैव ऐसे कार्यक्रमों के समर्थन में हर संभव सहायता करेगा । "

हिन्दी अकादमी, मुंबई के अध्यक्ष डॉ. प्रमोद पाण्डेय ने कहा कि "यह सकारात्मक सोच का परिणाम है कि आज भारत और लंदन के साहित्यकार व शिक्षाविद् ब्रिटिश पार्लियामेंट में एक साथ एकत्रित होकर एक ऐसे सेतु का निर्माण कर रहे हैं जो आने वाली पीढ़ी को न सिर्फ प्रोत्साहित करेगी अपितु साहित्य लेखन एवं पठन के प्रति रुचि निर्माण करेगी । प्रवासी साहित्य ही एक ऐसा माध्यम है जिससे युवा पीढ़ी विश्व के सभी देशों की कला, संस्कृति व साहित्य से परिचित होगी और आपसी नजदीकियां बढ़ेंगी । "

इस कार्यक्रम के दौरान मेरे द्वारा संपादित प्रवासी काव्य-संग्रह ‘प्रवासी पंछी’ तथा प्रवासी कहानी-संग्रह ‘कैलिप्सो” का लोकार्पण भी किया गया । इसके साथ ही साथ ब्रिटेन, युरोप तथा भारत के साहित्यकारों, पत्रकारों, अध्यापकों एवं हिन्दी सेवियों को सम्मानित किया गया । 

विश्व के मानस पटल पर विराजमान एकता का प्रतीक ‘हिंदी’ आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जन-जन के मन तक पहुंचकर लोगों को आपस में जोड़ने का कार्य कर रही है इसीलिए आज हिंदी विश्व में सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा बनने की ओर अग्रसर है । हिंदी को विश्व स्तर पर पहुंचने का कार्य गिरमिटिया मजदूरों से लेकर वर्तमान में जनसंचार माध्यमों के साथ-साथ भारतीय तथा प्रवासी साहित्यकारों ने किया है । 

मेरा मानना है कि भारत की असली ताकत हिंदी भाषा है क्योंकि हिंदी यह आम बोलचाल की भाषा है, जिसे भारत देश की कुल आबादी की लगभग 80% से अधिक जनसंख्या बोलती और समझती है । इस देश में अधिकतर लोग हिंदी में ही संवाद करते हैं । अतः हिंदी दो अहिंदी भाषियों के बीच संपर्क स्थापित करते हुए उनके बीच सेतु निर्माण का कार्य करती है । 

कथा यूके के संस्थापक महासचिव तथा सुप्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार तेजेंद्र शर्मा जी ने जिस नि:स्वार्थ भाव से प्रवासी साहित्य को आगे बढ़ाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उससे न सिर्फ प्रवासी साहित्य व साहित्यकार अपितु भारतीय साहित्यकार व युवा पीढ़ी भी प्रेरणा प्राप्त करेगी । 

मेरे मन में यह प्रश्न उठा कि प्रवासी साहित्य की आवश्यकता क्यों है? प्रवासी साहित्य को पढ़ने से क्या लाभ है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर मुझे लंदन में आयोजित इस कार्यक्रम में मिला । प्रवासी साहित्य को पढ़ने तथा प्रवासी साहित्यकारों से प्रत्यक्ष मिलने के पश्चात यह पता चला कि प्रवासी रचनाकार जिन परिस्थितियों तथा वातावरण में रहकर अपने आस-पास की घटित घटनाओं, दृश्यों आदि को अपनी लेखनी के माध्यम से काव्य तथा कहानी के द्वारा उकेरकर पाठकों के समक्ष लाता है, उससे प्रवासी काव्य तथा कहानी में अंतर्निहित भावनाओं व विचारों का गूढ़ार्थ खुल जाता है । प्रवासी रचनाकार जिस देश में रहकर काव्य, कहानी आदि का लेखन करता है, उनके लेखन में वहां की संस्कृति, भाषा, रीति-रिवाज, परिस्थिति, वातावरण आदि की झलक उनके साहित्य में दिखाई देती    है । 

आज हर कोई अपने देश के अलावा दूसरे देशों की संस्कृति, भाषा, स्थिति-परिस्थिति, समस्याओं आदि से परिचित होना चाहता है । इसीलिए आज प्रवासी साहित्य की आवश्यकता है, जिससे दो देशों के बीच न सिर्फ भाषा व संस्कृति का आदान-प्रदान होगा बल्कि आपसी संबंध भी मजबूत होंगे । 

यहाँ पर कुछ प्रवासी रचनाकारों व उनकी रचनाओं में अंतर्निहित स्थिति-परिस्थिति, परंपरा, रीति-रिवाज, संस्कृति आदि का चित्र आप सभी के सामने उपस्थित करना चाहता हूँ । जिससे यह सिद्ध हो जाएगा कि किस प्रकार साहित्य के माध्यम से दो देशों के मध्य आपसी संबंध मजबूत होंगे तथा साहित्य के माध्यम से सेतु का निर्माण हो सकेगा । 

भारत में गंगा, यमुना, सरस्वती से लेकर कई नदियां इस धरती पर प्रवाहित होती हैं । हर नदी की कोई न कोई विशेषता है । भारतीय रचनाकारों ने इन नदियों के बारे में बहुत कुछ लिखा है परंतु भारत में रहने वाले लोग लंदन में बहने वाली टेम्स नदी से अनभिज्ञ हैं । यूके में लंदन शहर में रहने वाले प्रवासी साहित्यकार तेजेंद्र शर्मा ने अपनी दूरदृष्टि से सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए लंदन की टेम्स नदी के संदर्भ में लिखते हैं कि –

टेम्स का पानी, नहीं है स्वर्ग का द्वार / यहाँ लगा है, एक विचित्र माया बाजार । / पानी है मटियाया, गोरे हैं लोगों के तन / माया के मकड़जाल में, नहीं दिखाई देता मन । / टेम्स कहाँ से आती है, कहाँ चली जाती है / ऐसे प्रश्न हमारे मन में, नहीं जगह पाती है । / टेम्स बस है ! टेम्स अपनी जगह बरकरार है

कहने को उसके आसपास कला और संस्कृति का संसार है । 

तेजेंद्र शर्मा जी सिर्फ टेम्स नदी के द्वारा कला और संस्कृति की पहचान कराने तक ही नहीं रुकते हैं । इसी कविता में आगे माँ और गंगा का भी जिक्र करते हुए मार्मिक दृश्य प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि-

बाजार संस्कृति में नदियाँ, नदियाँ ही रह जाती हैं

बनती हैं व्यापार का माध्यम, माँ नहीं बन पाती हैं । 

टेम्स दशकों, शताब्दियों तक करती है गंगा पर राज

फिर सिकुड़ जाती है, ढूंढती रह जाती है अपना ताज । 

टेम्स दौलत है, प्रेम है गंगा; टेम्स ऐश्वर्य है भावना गंगा

टेम्स जीवन का प्रसाद है, मोक्ष की कामना है गंगा । 

जी लगाने के कई साधन हैं, टेम्स नदी के आसपास

गंगा मैया में जी लगाता है, हमारा अपना विश्वास । 

तेजेंद्र शर्मा जी ने उपरोक्त कविता में कई भाव, दृश्य, बिंब, प्रतीक आदि बड़े ही सुन्दर ढंग से उपस्थित किए हैं जो न सिर्फ लंदन की कला, संस्कृति का वर्णन कराती है अपितु भारतीय कला व संस्कृति के बीच आपसी संबंध स्थापित करती है । 

डॉ. वंदना मुकेश जी इंग्लैंड का दृश्य प्रस्तुत करते हुए अपने काव्य में लिखती हैं कि- इंग्लैंड के मेरे घर में, / आकाश में उड़ता, / िड़ियों का कुटुंब, / जब मेरे आंगन में उतर जाता है, / तब / मेरे बचपन का घर / मुझे बहुत याद आता है । 

इन पंक्तियों में कहीं न कहीं इंग्लैंड और भारत के बीच तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जो इंग्लैंड तथा भारत के बीच आपसी संबंध को दर्शाता है । 

नॉर्थ कैरोलिना, अमेरिका से सुधा ओम ढींगरा अपनी “पतंग” कविता में दो देशों की संस्कृतियों के टकराव को प्रदर्शित करते हुए लिखती हैं –

देसी मांजे से सनी / आकांक्षाओं से सजी / ऊंची उड़ती मेरी पतंग / दो संस्कृतियों के टकराव में / कई बार कटते-कटते बची, / शायद देसी मांजे में दम था / जो टकराकर भी कट नहीं पायी / और उड़ रही है / विदेश के ऊंचे-खुले आकाश पर / बेझिझक, बेखौफ… । 

कहना न होगा कि उपर्युक्त रचनाओं में अधिक क्लिष्टता न होने के कारण पाठकों को समझने में काफी आसानी होगी । प्रवासी रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में सहज एवं सरल भाषा का प्रयोग किया है, जिससे भावी युवा पीढ़ी कविताओं के भाव को आसानी से समझ सकेगी तथा विभिन्न देशों की कला व संस्कृति आदि से परिचित होगी । 

प्रवासी रचनाकारों के जीवनानुभवों का दस्तावेज है प्रवासी साहित्य । यह सच है कि सपने कभी मरा नहीं करते । मेरी दूसरी संपादित प्रवासी काव्य-संग्रह “प्रवासी-पंछी” में संकलित ज़किया ज़ुबैरी जी की कविता ‘सपने मरते नहीं’ इस बात का प्रमाण है । वे लिखती हैं कि-

शोक संतप्त सुनसान खलिहान / मिथ्यावादी – जुड़े मिथ्य से / जकड़े परिधि में / गोत्र जात–पात / अनावश्यक गुप्त अहम् / लबरेज़ उसूलों से वंचित / सपने मर जाते हैं आंखों में । 

इसी क्रम में संस्कृति और रीति-रिवाज की बात करते हुए लंदन की रचनाकार जय वर्मा जी लिखती हैं कि-

शाम ढले साजन घर आए मैं दुल्हन -सी शरमाऊं

हुई बावरी मैं तो घर का हर एक दीप जला जाऊं

कदमों की आहट सुनते ही चौखट के पीछे छुप जाऊं

छुपा-छुपी के खेल में अपनी सुध-बुध खो जाऊं । 

भारतीय संस्कृति के कण-कण में यह रीति-रिवाज समाया हुआ है वही चीज लंदन में भी रचनाकार ने महसूस किया, जिसे अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त किया है । दो देशों की संस्कृतियों एवं रीति-रिवाजों के आपसी संबंधों का सबसे बड़ा उदाहरण है जय वर्मा की यह कविता । 

पचास वर्ष पहले लखनऊ की यादें ललित मोहन जोशी जी के मन में आज भी ताजा हैं । लखनऊ की उन यादों को वे अपनी कविता ‘लखनऊ’ में जिक्र करते हुए लिखते हैं कि-

लखनऊ / अब भी छलकते हैं / मेरे भीतर / तेरे वो राज़ / वो लम्हे / चोरी से लिखे खत / बचपन की मसली हुई / पहली मोहब्बत / महानगर की / अमलतास सुबहे / यादों की / उदास शामें / पचास बरस बाद / आज भी उतरती हैं / मेरे भीतर न जाने क्यों?

मेरी तीसरी संपादित पुस्तक “कैलिप्सो” कहानी-संग्रह में भी कुछ इसी प्रकार के दृश्य व चित्र प्रवासी रचनाकारों ने अपने अनुभवों के आधार पर अपनी लेखनी के द्वारा उकेरे हैं । “कैलिप्सो” यह प्रवासी साहित्यकार तेजेंद्र शर्मा जी की कहानी का नाम है । इसी कहानी के आधार पर पुस्तक का शीर्षक दिया गया है । यह दिल को छू लेने वाली मार्मिक कहानी है । ऐसी घटनाएं भारत में भी घटित होती हैं और कहानी का रूप लेती हैं परंतु तेजेंद्र शर्मा जी ने लंदन में घटित उस सत्य घटना को कुछ अलग ही अंदाज में कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है । इस कहानी में संपूर्ण दृश्य लंदन का है लेकिन लेखक ने कहानी के अंत तक कैलिप्सो को राज ही रखा है । वैसे कैलिप्सो के बारे में पता करना इतना भी कठिन नहीं है । जागरूक पाठक बड़ी आसानी से समझ जाएंगे । 

उपरोक्त संपादित तीनों पुस्तकों में नस्लवादी आलोचना, नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, सांस्कृतिक-ऐतिहासिक बोध जैसे विविध विमर्शों के साथ-साथ, वैश्वीकरण, बहुसांस्कृतिकतावाद आदि विविध दृश्यों को एक साथ देखा जा सकता है । 

अंत में बस इतना ही कहना चाहता हूं कि हिंदी यह मात्र एक भाषा ही नहीं है अपितु लोगों को आपस में जोड़ने का माध्यम भी है जो आज विश्व स्तर पर लोगों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य कर रही है और इस कार्य में न सिर्फ प्रवासी साहित्यकार अपितु भारतीय साहित्यकार भी निरंतर प्रयासरत हैं । इन पुस्तकों को संपादित एवं प्रकाशित करने का उद्देश्य यही है कि वर्तमान समय में भारत से बाहर रहने वाला लेखक क्या सोच रहा है, उसकी विचारधारा क्या है, समसामयिक परिस्थितियों के प्रति कितना सजग है तथा अपने सृजन के प्रति कितना गंभीर है? इन पुस्तकों में इन्हीं प्रश्नों के उत्तर को ढूंढने का एक सार्थक प्रयास किया गया है । इन पुस्तकों में सम्मिलित प्रवासी कवियों एवं लेखकों के कहानियों एवं कविताओं को पढ़कर निश्चित हमें विश्व चेतना के प्रवाह को समझने में मदद मिलेगी । यही मेरी यात्रा का मुख्य उद्देश्य है । 

कार्यक्रम के सफ़लतापूर्वक समापन के पश्चात कुछ नए अनुभव, नई यादों के साथ रात्रि भोजन के पश्चात होटल में विश्राम करने के लिए अपने-अपने कमरे में चले गए । अगली सुबह जिनका यूरोप का वीजा था, वे लोग यूरोप के लिए रवाना हुए और जिनका वीजा नहीं था, वे लोग लंदन से वापस भारत आ गया । लंदन से भारत वापस आने से पहले लंदन में एक दिन और रुकना था । उस दिन ज़किया ज़ुबैरी जी ने अपने घर पर आमंत्रित किया । उनके घर पर जाकर साहित्यिक वातावरण का अनुभव हुआ । घर की आलमारी में किताबें ही किताबें भरी हुई    थीं । ज़किया जी से मिलकर बहुत अच्छा लगा । अपनेपन का भाव आतिथ्य सत्कार आदि बहुत कुछ देखने को मिला । साहित्य की यात्रा के बारे में बातचीत हुई । उन्होंने अपने जीवन के कई अनुभव मुझसे साझा किए । अपनी गाड़ी से हम सभी को लंदन शहर घुमाया । हम सभी ने शाम का डिनर आदरणीय तेजेंद्र शर्मा तथा ज़किया ज़ुबैरी जी के साथ किया । उसके पश्चात हम सभी होटल वापस आ गए । अगले दिन लंदन हिथ्रो एयरपोर्ट से मुंबई के लिए रवाना हुए । 

लंदन शहर की साफ-सुथरी सड़कें, साफ-सुथरे पर्यटन स्थल देखकर मन प्रसन्न हो गया । वहाँ का हर व्यक्ति सफाई के प्रति सजग है । हर कोई अपनी जवाबदारी समझता है । शायद इसीलिए कोई भी कचरा यहाँ-वहाँ नहीं फेंकता है । प्रदूषण की बात करें तो वहाँ का प्रदूषण बहुत ही कम है । गाड़ियों और कारखानों से धुआं नहीं निकलता इसलिए वायु प्रदूषण नहीं होता है । ध्वनि प्रदूषण का तो नामोनिशान ही नहीं है क्योंकि वहाँ पर शायद ही किसी गाड़ी को मैंने हार्न बजाते हुए सुना होगा । वहाँ पर गाड़ी चलाने वाले लोग जल्दबाजी नहीं करते, ओवरटेक नहीं करते, हार्न नहीं बजते, ट्रैफिक के नियमों का पालन करते हैं क्योंकि वहाँ पर नियम तोड़ने वालों पर कड़ी कार्रवाई की जाती है । प्रदूषण को लेकर वहाँ का हर नागरिक सजग और सचेत है । साफ-सुथरी टेम्स नदी पर्यटकों का मन मोह लेती है । लंदन में बस और ट्रेन की यात्रा आनंददायी एवं सुखद होती है । वहां पर अधिकांश लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट बस अथवा ट्रेन का उपयोग करते हैं । इसलिए नहीं की पब्लिक ट्रांसपोर्ट सस्ता होता है बल्कि सुविधाजनक और आरामदायक होता है । वैसे अगर मौसम की बात न करें तो यात्रा वृतांत अधूरा रह जाएगा । सुहाना खुशनुमा मौसम, हल्की-फुल्की ठंड, साफ और प्रदूषण मुक्त वातावरण से परिपूर्ण है लंदन शहर । ऐसा वातावरण न सिर्फ स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है बल्कि जीवन को तनाव मुक्त बनाता है । होटल से लेकर पर्यटन स्थल तक लगभग सभी जगह पर हिंदी समझने व बोलने वाले मिल ही जाते थे । इस आधार पर मैंने अनुमान लगाया कि लंदन (यूके) में लगभग 70% लोग हिंदी समझते और बोलते हैं । लंदन की सबसे महत्वपूर्ण सीखने वाली बात यह है कि वहां के लोग समय के बड़े पाबंद हैं, नियम से चलते हैं और लोगों को भी नियम से चलना सिखाते हैं । लंदन (यूके) की एक और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वहाँ सब कुछ ऑनलाइन है, कोई भी ट्रांजैक्शन (खरीदारी, बस व रेल टिकट आदि) ऑफलाइन नहीं होता है । आवश्यकता पड़ने पर ही कहीं-कहीं कैश ट्रांजैक्शन किया जाता है । 

इसलिए वहाँ पर अधिक पारदर्शिता है । कोई भी देश तरक्की तभी करता है जब वहां पर पारदर्शिता होती है तथा लोग ईमानदारी से टैक्स भरते हैं । वहाँ की खूबसूरती को शब्दों में बयां करना भी चाहें तो शब्द कम पड़ जाएंगे । प्रत्यक्ष रूप से देखने पर ही वहाँ की खूबसूरती को अनुभव किया जा सकता है । 


मन में इस यात्रा के अनुभव का अपार भंडार भरा हुआ है, लिखना भी चाहता हूं पर मेरा संक्षिप्त लेखन ही यात्रा की विस्तृत जानकारी के लिए अपने आप में परिपूर्ण है । 

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कहानी


जनाब सागर सियालकोटी, लुधियाना, मो. 9876865957


नदिया के उस पार


डॉक्टर शान्ति प्रसाद रायपुर के एक जाने माने एम. डी. स्पेशलिस्ट थे । उनकी पत्नी डॉक्टर शिखा भी एक नाड़ी रोग आयुर्वेदिक विशेषज्ञ थीं, जो सरकारी अस्पताल भिलाई में कार्यरत थीं । दोनों की शादी एक इत्तिफाक नहीं बल्कि एक हादसा थी । डॉक्टर शान्ति प्रसाद अपनी माँ जी को याद करते हुए बताते हैं कि मेरे पिता जी रेलवे में मुलाजिम थे, माता एक गृहणी थीं । पिता जी 2nd House guard थे जो भोपाल से मालगाड़ी लेकर नागपुर तक जाते थे । मेरा एक छोटा भाई राजन था, जो आई.टी.आई. से हार्डवेयर का डिप्लोमा करने के बाद गल्फ कन्ट्रीज में चला गया था । भोपाल में हमें रेलवे क्वाटर मिला हुआ था । मैंने भोपाल में सरकारी मेडिकल कॉलेज से M. B. B. S. और बाद में M.D. भी वहीं से किया ।

समय का पहिया चलता रहा एक साल तक मैंने भोपाल में ही एक नर्सिंग होम में नौकरी शुरू कर दी ताकि कुछ तजुर्बा हासिल कर सकूँ, इसी दौरा छत्तीसगढ़ मेडिकल विभाग में कुछ नौकरियों का विज्ञापन पढ़ा । काफी सोच के बाद मैंने अप्लाई कर दिया । विज्ञापन में एक शर्त ये भी दर्ज थी कि आपको तीन साल आदिवासी क्षेत्र में नौकरी करनी अनिवार्य होगी जिसमें तीन जिले थे बस्तर, जगदलपुर और कौरबा, मैंने अपनी choice के मुताबिक जगदलपुर पर टिक () लगा  दी । दो माह के बाद पेपर था । अपने माता-पिता को बताया कि मैंने यह सोचकर अप्लाई किया है कि कुछ पिछड़ा वर्ग और आदिवासी लोगों की सेवा कर सकूँ और जो थोड़ा बहुत सुधार भी, जितना हो सकेगा । पिता जी ने तो हाँ कह दिया मगर माता जी ने बहुत समझाया बेटा ये जंगली लोग इतने अच्छे नहीं होते मेरा तो मन है कि तू यहीं भोपाल में ही नौकरी कर ले, लेकिन मैं अपनी ज़िद पर अड़ा रहा । पिता जी ने माता जी से कहा अभी तो दो महीने बाद टेस्ट है फिर इन्टरव्यू है, तू क्यों इतनी चिंता करती है । शान्ति के बापू मुझे ऐसी नौकरी नहीं चाहिए, बस मेरा लाल मेरी नज़रों के सामने रहना चाहिए ।

आज शान्ति प्रसाद को Test के लिए रायपुर जाना था, जो छत्तीसगढ़ की राजधानी है, माता जी ने दही में शक्कर मिलाकर खाने को दिया और आशीर्वाद दिया कि जाओ बेटा जीवन में सदा कामयाब रहो । शान्ति प्रसाद अपने पिता जी के साथ रेलवे स्टेशन की तरफ रवाना हो गया । गाड़ी राइट टाइम थी । प्लेटफॉर्म नम्बर 1 पर गाड़ी रुकी, मैं बोगी संख्या एस-9 की तरफ बढ़ा, बोगी खचाखच भरी पड़ी थी मेरा बर्थ नम्बर 27 था और सामने 18 नम्बर बर्थ पर एक नौजवान खूबसूरत चौड़ा माथा और साँवले रंग वाली सादी ड्रेस में एक लड़की बैठी थी, गाड़ी ठीक समय पर चल पड़ी । जैसे ही गाड़ी सुबह चार बजे रायपुर पहुँची एक काले कोट वाला टी. टी. (T.T.) पान चबाता हुआ डिब्बे में आया और सबकी टिकट चेक करने लगा । मैंने अपनी टिकट दिखाई उसने टिकट पर काले पेन से टिक किया और सामने वाले केबिन में बैठी सवारियों की टिकट चेक करने लगा । जब 18 नम्बर बर्थ पर पहुँचा तो बोला- मैडम टिकट दिखाइये, मैडम ने पर्स खोला और अपना टिकट देखने लगी मगर उसमें टिकट नहीं था । टिकट चेकर मैडम इसका चार गुना जुर्माना भरना पड़ेगा । मुझ से रहा नहीं गया, मैंने कहा- मैडम जी आराम से देखिये टिकट मिल जाएगी । मैडम ने फिर देखा टिकट पर्स में न होकर पर्स की डायरी में मिल गई, टिकट टी. टी. को दिखाई और मैडम ने मेरा धन्यवाद करते हुए पूछा कि आपको कैसे ये ख्याल आया । मैंने अक्सर ऐसा हो जाता है, बस हम थोड़ा घबरा जाते हैं, ये Human Psychology है, मैंने परिचय के तौर से पूछा- आपको कहाँ जाना । मैडम ने बताया मैं एक स्टाफ नर्स हूँ और आजकल जगदलपुर ग्रामीण आदिवासी हास्पिटल में जॉब करती हूँ, बड़ा मुश्किल है आदिवासी लोगों के बीच काम करना, मेरी सरकारी नौकरी है, और तीन साल के लिए आदिवासी संभाग में service करना कम्पलसरी यानी ज़रूरी है, मेरा नाम विजेता माथुर है और मैं भोपाल में रहती हूँ मेरे हसबैण्ड एक टीचर हैं और एक चार साल का बेटा है और आजकल दोनों ही जगदलपुर में posted हैं परमानेंट तो हम भोपाल के रहने वाले ही हैं ।

विजेता माथुर ने मेरा परिचय जानना चाहा मैंने बस इतना ही बताया कि भोपाल में रहता हूँ और पेशे से डॉक्टर हूँ । मैंने चाहकर भी उसे पूरी जानकारी नहीं दी थी । मेरा नाम शान्ति प्रसाद है; विजेता ये नाम कुछ जाना पहचाना - सा लगता है शायद आपको कहीं देखा है, इतने में रायपुर स्टेशन आ गया, सवारियाँ उतरने लगीं मैं भी उतर गया और स्टेशन से बाहर आया थोड़ा - सा हाथ-मुँह धोया और नाश्ता किया । AIMS रेलवे स्टेशन से कोई साढ़े तीन किलोमीटर था, मैंने ऑटो पकड़ा और जहाँ पर Test था वहाँ पहुँच 

गया । Test के लिए अपने डाकूमेन्ट्स चेक करवाए और Test के लिए चला गया । Test देने वाले मात्र नो कंडीडेट्स थे आठ लड़के और एक लड़की । शाम को Test समाप्त हुआ और मैं शाम की ट्रेन से वापस भोपाल के लिए चल पड़ा । दूसरे दिन 10 बजे अपने घर पहुँच गया । ठीक एक सप्ताह बाद रिजल्ट आ गया और मेरा चयन हो गया । मैंने अपने पिताजी को बताया वह बहुत खुश हुए माता जी थोड़ी नाराज़ हुई परन्तु मान गईं । दस दिन का समय मिला ड्यूटी Join करने का । मैंने दो दिन पहले ही duty-join कर ली । पहले दिन स्टाफ परिचय हुआ तो स्टाफ नर्स विजेता माथुर हैरान हो गई और मन ही मन सोचने लगीं डॉक्टर शान्ति प्रसाद वर्मा जी ने उस दिन ट्रेन में तो अपना पूरा परिचय क्यों नहीं दिया । इसी उधेड़-बुन में दो-तीन दिन सोचती रही, एक दिन शाम के वक़्त विजेता ने पूछा सर आप जिस दिन रायपुर ट्रेन में आये थे आपने तो उस दिन आधा-अधूरा परिचय ही दिया था । विजेता जी उस दिन मेरा परिचय वही था । आज duty-join की है तो यही मेरा पूरा परिचय है ये मेरी पहली posting है और मुझे आदिवासी समाज के साथ काम करने का मौका मिला है, मैं खुश हूँ ।

शान्ति प्रसाद विजेता जी आप कहाँ रहती हैं सर मैं नदिया के उस पार रहती हूँ जो नदिया के इस ओर शहरी आबादी है और नदिया के उस पार आदिवासी बाहुल्य इलाका है और सरकारी हॉस्पिटल भी नदिया के पार आदिवासी इलाके में है । शान्ति प्रसाद वर्मा को दो कमरे का एक सरकारी क्वाटर हॉस्पिटल में ही अलॉट हो गया । आदिवासियों की कहानी सुन-सुनकर शान्ति प्रसाद कई बार परेशान भी हो जाता । आदिवासी आज भी गुफाओं में, घने जंगलों और सरगा नदी के आसपास रहते थे । वो शहरी माहौल से आज भी दूर रहते हैं, जंगल के कन्दमूल खाते हैं ।

कालू विरसा एक आदिवासी चपरासी था, जो अस्पताल के छोटे-मोटे काम करता था । एक इतवार छुट्टी के रोज़ शान्ति प्रसाद ने कालू विरसा को अपने घर बुलाया और आदिवासी समाज के बारे में कुछ जानने की इच्छा जाहिर की, कालू विरसा ने बताया कि हमारे पूर्वज 'सरमा-उपासक' मतलब कि हम प्रकृति के पुजारी हैं, हमारे पूर्वज वृक्षों को काटने नहीं देते थे उनका यह मानना था कि जल, जंगल और ज़मीन बची रहेगी तो इन्सान खुशहाल रहेगा आज भारत में 10 करोड़ आदिवासी समाज के लोग हैं, जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ा तो जंगल कटने शुरू हो गये, फिर इन लोगों को Naxalite का नाम दे दिया गया मगर आज भी ये लोग जल, जंगल, ज़मीन के पुजारी हैं, लोग पढ़ना चाहते हैं शाम हो गई थी कालू विरसा अपने घर को चला गया ।

दूसरे दिन हॉस्पिटल में कुछ मरीज़ आये उनमें एक 18 साल की लड़की थी जिसे एक जहरीले साँप ने काट लिया था, जैसा कि उसकी माँ ने बताया । डॉक्टर साहब मेरी लड़की शिखा पढ़ाई में काफी होशियार है, कल रात लकड़ियाँ काटते वक़्त इसे साँप ने काट लिया था, मैंने ओझा, आदिवासी वैद्य से कुछ दवाई लेकर ज़ख़्म पर लगा दी और आज आपके पास ले आई हूँ । मैंने विजेता माथुर से कहा कि इस लड़की को सीरप - 16 नम्बर का इंजेक्शन लगा दो, दस दिन के बाद वह लड़की ठीक हो गई शायद साँप इतना जहरीला नहीं रहा होगा । शिखा ने कहा क्या मैं भी डॉक्टर बन सकती हूँ । क्यों नहीं बन सकती हो शिखा ने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की, वह पढ़ाई में काफी होशियार थी और होनहार भी । डॉक्टर शान्ति प्रसाद ने उसका मार्गदर्शन करते हुए उसे धनवन्तरी वैद्य आयुर्वेदिक की पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित किया, क्योंकि डॉक्टर शान्ति प्रसाद जानते थे कि शिखा एक आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती है उसे जंगल की बहुत सी जड़ी-बूटियों का ज्ञान पहले से ही है, इसलिए वो आयुर्वेदिक में अच्छा नाम पैदा कर सकती है और आदिवासी समाज भी उसका इस शिक्षा का आदर-सत्कार करेगा । शिखा ने ऐसा ही किया और धनवन्तरी वैद्य आयुर्वेदिक डिग्री कॉलेज, रायपुर में दाखिला ले लिया । आज आमजन भी आयुर्वेदिक प्रणाली की ओर आकर्षित हो रहा है । दिन, महीने, साल बीते शिखा ने इस साल अन्तिम वर्ष परीक्षा की खूब तैयारी कर रही थी । आज उसका अन्तिम प्रेक्टिकल था । उसके Exam. सम्पन्न हुआ । एक माह के बाद रिज़ल्ट (Result) आना था ।

आज सुबह जब डॉक्टर शान्ति प्रसाद ने अख़बार देखा तो उनकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा । शिखा धनवन्तरी वैद्य आयुर्वेदिक डिग्री में राज्य भर प्रथम पायदान पर आई । शिखा के माता-पिता डॉक्टर शान्ति प्रसाद को मुबारकबाद देने आये । शिखा के पिता ने कहा कि डॉक्टर साहिब जहाँ आपने आदिवासी समाज के लिए इतना काम किया है एक काम और कर दें तो आपकी मेहरबानी होगी । हम चाहते हैं कि शिखा का विवाह आपसे हो जाए । ये आपका हम पर एहसान होगा । नहीं, नहीं एहसान वाली कोई बात नहीं मैं शिखा के साथ विवाह के लिए तैयार हूँ । इस विवाह के साथ ही आदिवासी समाज के साथ मेरा तीन साल का contract पूरा हुआ ।  

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हैन्स क्रिश्चियन ऐंडरसन की कहानी नाइटिंगेल का अनुवाद



श्री द्विजेंद्र द्विज, धर्मशाला (हि.प्र.), मो. 9418465008


बुलबुल

चीन में, आप जानते हैं, सम्राट एक चीनी है, और उसके आसपास के सब लोग भी चीनी ही हैं । कहानी जो मैं आपको सुनाने जा रहा रहा हूँ, वर्षों पहले घटी थी, इसलिए अच्छा रहेगा कि इसे भूल जाने से पहले ही सुन लिया जाए । विश्व में सबसे सुन्दर था सम्राट का महल । यह राजभवन समूचा चीनी-मिट्टी का बना था, और बेशकीमती था, परन्तु इतना नाज़ुक और भुरभुरा कि जो भी इसे एक बार छू लेता था, दूसरी बार के लिए सावधान हो जाता था । उद्यान में अत्यन्त अद्भुत फूल थे जिन पर आकर्षक चांदी की घंटियाँ बँधी हुई थीं जो बजती रहती थीं ताकि उधर से गुज़रने वाले का ध्यान फूलों की ओर अवश्य जाये । वास्तव में सम्राट के उद्यान में सब कुछ दर्शनीय था और यह उद्यान इतना फैला हुआ था कि स्वयं माली को भी इसके दूसरे छोर का पता नहीं था । इसकी सीमाओं से आगे निकल कर जाने वाले यात्री जानते थे कि आगे विशाल वृक्षों वाला एक भव्य जंगल था जिसकी ढलान गहरे नीले सागर तक जाती थी और बड़े विशाल जहाज़ उन वृक्षों की छाया तले होकर गुज़रते थे । ऐसे वृक्षों में ही किसी एक पर एक बुलबुल रहती था जो इतना सुरीला गाती थी कि बेचारे मछुआरे, जिन्हें ढेरों काम करने को होते, उसे सुनने के लिए रुक जाते, और कहते "क्या यह बहुत सुरीली नहीं है?" परन्तु जब फिर से मछलियाँ पकड़ने लगते तो अगली रात तक इस पंछी को फिर भूल जाते फिर अगली बार इसे गाते हुए सुनकर चकित होते, "कितना विलक्षण है बुलबुल का गाना!"

सुदूर देशों से यात्री सम्राट के शहर में आए ; शहर, राजभवन और उद्यानों की प्रशंसा की परंतु जब उन्होंने बुलबुल को सुना तो यही कहा कि बुलबुल सबसे बढ़िया है । और अपने-अपने घरों को लौट कर अपने देखे हुए का वर्णन किया, विद्वान लोगों ने किताबें लिखीं जिनमें शहर, राजभवन और उद्यानों का वर्णन किया, परंतु वे बुलबुल का वर्णन करना नहीं भूले थे जो कि वास्तव में एक महान आश्चर्य था । कवियों ने गहरे सागर के निकट जंगल में रहने वाली बुलबुल के बारे में पद्य रचे । किताबें समूचे विश्व तक पहुँचीं और कुछ सम्राट के हाथ भी आईं; अपनी सोने की कुर्सी में बैठा सम्राट इन किताबों में अपने शहर, राजभवन और उद्यानों के भव्य वर्णन को पढ़ता हुआ, प्रशंसा भाव में झूमने लगा परंतु जैसे ही उसने पढ़ा "बुलबुल सबसे सुन्दर है" वह चकित हो कर बोला, " यह क्या है । मैं तो बुलबुल के बारे में कुछ नहीं जानता । क्या ऐसा कोई पंछी मेरे साम्राज्य में है? और वह भी मेरे उद्यान में? मैंने तो कभी इसके बारे में नहीं सुना । लगता है किताबों से कुछ सीखा जा सकता है ।" तब उसने अपने एक सामंत को बुलाया जो इतना कुलीन था कि अगर उससे निम्न दर्ज़े का अधिकारी बात करता या कुछ पूछता तो वह कहा करता था "उँह" जिसका अर्थ कुछ भी नहीं होता । "इन किताबों में बुलबुल नाम के एक अद्भुत पंछी का वर्णन है ।" सम्राट ने कहा, " कहते हैं मेरे विशाल साम्राज्य में पाई जाने वाली सर्वोत्तम वस्तु वही है । मुझे इसके बारे में क्यों नहीं बताया गया?"

"मैंने तो कभी नाम भी नहीं सुना" अश्वारोही सामंत ने उत्तर दिया, "उसे कभी आपके दरबार में प्रस्तुत ही नहीं किया गया । " "आज शाम को हम उसे अपने दरबार में हाज़िर चाहेंगे ।" सम्राट ने कहा, "सारी दुनिया मुझसे बेहतर जानती है कि मेरे पास है क्या!" अश्वारोही सामंत ने कहा " मैंने कभी उसके बारे में नहीं सुना, फिर भी मैं उसे ढूँढने का प्रयास करूँगा ।" परंतु बुलबुल मिलती कहाँ? सामंत सीढ़ियाँ चढ़ा-उतरा, राजभवन के गलियारों में घूमा; सबसे पूछा लेकिन बुलबुल को कोई नहीं जानता था । सामन्त ने वह वापिस लौट कर सम्राट को बताया कि बुलबुल तो किताब लिखने वालों की मात्र कपोल-कल्पना है ।" महाराजाधिराज को किताबों में लिखी हर बात पर विश्वास नहीं कर लेना चाहिए ; कई बार ये किताबें कल्पित होती हैं या काली कला । " "परन्तु जिस किताब में मैंने उसका वर्णन पढ़ा है," सम्राट ने कहा "मुझे जापान के महान शक्तिशाली सम्राट ने भेजी है और इसलिए इसमें झूठ तो हो ही नहीं सकता । हम बुलबुल का गाना सुनेंगे, उसे आज शाम हमारे दरबार में होना चाहिए । वह आज हमारी कृपा-पात्र है और अगर वह नहीं आई तो सारे दरबारी रात्रि-भोज के शीघ्र बाद कुचल दिए जाएँगे ।" "जो आज्ञा" सामंत चिल्लाया, और वह फिर राजदरबार की तमाम सीढ़ियाँ चढ़ा-उतरा, सभी कक्षों व गलियारों को फलाँगता हुआ; और उसके पीछे-पीछे भागे आधे दरबारी जिन्हें कुचला जाना पसन्द नहीं था । अद्भुत बुलबुल जिसे दरबार के इलावा सारा संसार जानता था के बारे ज़ोरदार पूछताछ हुई । 

अंतत: पाकशाला(रसोई) में उन्हें एक नन्ही निर्धन बालिका मिली, जिसने कहा, "हाँ, मैं बुलबुल को अच्छी तरह जानती हूँ; वह वास्तव में अच्छा गाती है हर शाम मुझे अपनी ग़रीब बीमार माँ के लिए मेज़ों पर बचा हुआ खाना ले जाने की अनुमति है; वह सागर-तट पर रहती है । लौटते हुए मैं थक जाती हूँ और जंगल में विश्राम करने बैठती हूँ और बुलबुल को गाते हुए सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं यह मुझे अपनी माँ के चुंबन-सा लगता है ।" "नन्ही नौकरानी," सामन्त ने कहा, "मैं तुम्हें रसोईघर में पक्की नौकरी दिला दूँगा तुम्हें सम्राट को रात्रिभोज करते हुए देखने की अनुमति होगी अगर तुम हमें बुलबुल के पास ले चलो; क्योंकि बुलबुल को राजदरबार में गाने के लिए बुलवाया गया है । " वह जंगल को चल दी जहाँ बुलबुल गाती थी और आधा दरबार उसके पीछे-पीछे चल दिया । जैसे ही वे आगे बढ़े एक गाय के रँभाने की आवाज़ आई । "ओह!" एक युवा दरबारी ने कहा," अब हमें बुलबुल मिल गई है, छोटे -से प्राणी में कितनी अद्भुत शक्ति है; मैंने अवश्य इसे पहले भी गाते हुए सुना है ।"

"नहीं, यह तो बस गाय के रँभाने की आवाज़ है" नन्ही बालिका ने कहा " अभी तो हमें राजभवन से बहुत दूर जाना है ।" तभी दलदल में कुछ मेंडकों के टर्टराने की आवाज़ आई । "सुन्दर!" युवा दरबारी ने कहा, "अब मैं बुलबुल को गाते हुए सुन पा रहा हूँ, यह गिरजे की घंटियों की-सी टन-टन है ।"

"सुनो, सुनो! वो रही बुलबुल," लड़की ने कहा "वो बैठी है बुलबुल,"टहनी से चिपके हुए धूसर रंग के एक पंछी की ओर इशारा करते हुए उसने कहा । "क्या यह संभव है?" सामंत बोला," मैंने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि छोटी-सी, सादा-सी साधारण-सी यह चीज़ बुलबुल होगी । ज़रूर इसने इतने राजसी लोगों को अपने आस-पास देख कर अपना रंग बदल लिया होगा ।" "नन्ही बुलबुल" ऊँची आवाज़ में लड़की ने उसे पुकारा " हमारे अत्यन्त कृपालु सम्राट चाहते हैं कि तुम उनके सामने गाओ ।" "मैं बड़ी ख़ुशी से गाऊँगी । " कहते हुए बुलबुल ने आनंदित होकर गाना आरंभ कर दिया । यह तो छोटी-छोटी कांच की घंटियों के बजने की आवाज़ है । " सामंत ने कहा, " और देखो उसका छोटा-सा गला काम कैसे करता है । हैरानी की बात तो यह है कि हमने इसे कभी पहले क्यों नहीं सुना; आज दरबार में यह बहुत कामयाब होगी ।" "क्या मैं एक बार फिर सम्राट के सामने गाऊँ?" यह समझते हुए कि शायद सम्राट भी वहीं है, बुलबुल ने पूछा । "मेरी श्रेष्ठ नन्ही बुलबुल," सम्राट ने कहा, "मुझे तुम्हें आज शाम को दरबारोत्सव के लिए आमंत्रित करते हुए हार्दिक प्रसन्नता हो रही है । तुम्हें दरबार में अपने मोहक गाने से राजकृपा की प्राप्ति होगी ।" "मेरे गीत हरे जंगल में अधिक सुंदर गूँजते हैं ।" बुलबुल ने कहा; लेकिन फिर भी वह राजदरबार में स्वेच्छा से गई जब उसे सम्राट की इच्छा का पता चला । 

अवसर के लिए महल को बहुत सुरुचि-सम्पन्न ढंग से सजाया गया हज़ारों दीयों के प्रकाश से चीनी-मिट्टी की दीवारें चमचमा उठीं । गलियारे फूलों से सजे थे, फूलों के इर्द-गिर्द छोटी-छोटी घंटियाँ बँधी थी यह अलग बात है कि गलियारों की चहल-पहल और लोगों की भाग-दौड़ में ये घंटियाँ इतनी ज़ोर-से टनटना रही थीं कि किसी का बोला हुआ कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था । बड़े कक्ष के बीचो-बीच बुलबुल के बैठने के लिए सोने का चक्कस लगवाया गया था । सब दरबारी उपस्थित थे । रसोईघर की नन्ही नौकरानी को भी दरवाज़े के पास खड़े होने की अनुमति मिल गई थी । उसे रसोई घर में बावर्ची नहीं बनाया गया था । सब अपनी राजसी वेश-भूषा में थे, हर आँख नन्हें धूसर पंछी पर जमी थी अब सम्राट ने उसे गाने के लिए इशारा किया । बुलबुल ने इतना मधुर गाया कि आँसू सम्राट की आँखों से निकल कर उसके गालों तक बह गए । बुलबुल का गाना और भी मर्मस्पर्शी हो उठा । सम्राट इतना आनन्दित हो उठा कि उसने अपनी सोने की कण्ठी बुलबुल को पहनाने की घोषणा कर दी परन्तु बुलबुल ने इस सम्मान के लिए धन्यवाद सहित मना कर दिया । उसे पहले ही पर्याप्त सम्मान मिल चुका था । "मैंने सम्राट की आँखों में आँसू देखे हैं । " उसने कहा,"यही मेरे लिए सबसे बड़ा सम्मान है । अद्भुत शक्ति होती है सम्राट के आँसुओं में और यही मेरे सम्मान में पर्याप्त है । और उसने एक बार फिर और भी मन्त्र-मुग्ध करने वाला गाना गाया । 

"यह गान तो बहुत सुन्दर उपहार है; " दरबार की औरतों ने आपस में कहा । वे भी वे भी अपने मुँह में पानी भरकर अपनी आवाज़ में बुलबुल के सुर जैसी गड़गड़ाहट निकालने की कोशिश में मन ही मन स्वयं के भी बुलबुल होने की कल्पना करने लगीं उनकी बातचीत का लहज़ा भी बदल गया । वे भी बुलबुल-सा सुरीला गाने का प्रयास करने लगीं और इसपर महल के वर्दीधारी नौकरों और नौकरानियों ने भी संतोष प्रकट किया जोकि एक ‘बड़ी बात’ थी,जैसे कि कहावत भी है कि ‘उन्हें’ प्रसन्न करना बहुत ही कठिन है । वास्तव में बुलबुल का राजमहल का यह दौरा बहुत ही सफल रहा था । अब उसे दरबार में ही रहना था,अपने ही पिंजरे में । उसे दिन में दो बार और रात को एक बार बाहर जाने की आज़ादी थी । इन अवसरों पर उसकी सेवा में बारह नौकर तैनात थे जो बारी-बारी से बुलबुल की टाँग में बँधी रेशमी डोर को थामे रहते थे । बेशक ऐसे उड़ने में ज़्यादा मज़ा भी नहीं था । 

अद्भुत पंछी की सारे शहर भर में चर्चा थी । जब भी दो लोग मिलते, पहला कहता,"बुल..." और दूसरा ...बुल" कह कर शब्द को पूरा कर देता और इसी से स्पष्ट हो जाता कि बात बुलबुल की ही होगी क्योंकि और तो कोई बात थी ही नहीं करने के लिए । " यहाँ तक कि फेरी वालों ने भी अपने बच्चों के नाम बुलबुल के नाम पर ही रख लिए यह अलग बात है कि वे एक भी स्वर गा नहीं पाते थे । 

एक दिन सम्राट को एक पेकेट मिला जिस पर लिखा था "बुलबुल । " "ज़रूर,इसमें हमारी यशस्वी बुलबुल के बारे में ही कोई किताब होगी । " सम्राट ने कहा । लेकिन यह किताब नहीं एक सन्दूकची में रखी हुई कलाकृति,एक नकली बुलबुल थी जो हू-ब-हू असली की तरह दिखाई देती थी जिसपर हीरे जवाहरात और नीलम जड़े थे । चाबी भरने पर यह नकली पंछी, असली बुलबुल की तरह गाते, दुम ऊपर नीचे करते हुए सोने चांदी-सा चमचमा उठता था । इसके गले में एक रिबन बँधा था जिसपर लिखा था "जापान के सम्राट की बुलबुल चीन के सम्राट की बुलबुल की तुलना में बहुत तुच्छ है । "

"लेकिन यह तो बहुत सुन्दर है!" सब देखने वालों ने हैरान होकर कहा, और इस कृत्रिम पंछी को जापान से लाने के लिए "शाही बुलबुल को लाने वाले प्रमुख" की उपाधि से अलंकृत किया गया । 

"अब दोनों बुलबुलों को इकठ्ठे गाना चाहिए । " दरबारियों ने कहा, " यह तो बहुत सुन्दर जुगलबन्दी होगी । " परन्तु वे लोग यह नहीं समझ पाए कि असली बुलबुल सहजता से गाती थी जबकि नकली बुलबुल का गाना भी नकली था । "लेकिन यह कोई त्रुटि नहीं है," संगीताचार्य ने कहा । "मुझे तो इसका गाना बहुत ही कर्ण-प्रिय लगता है । " फिर नकली पंछी को अकेले गाना पड़ा, यह असली पंछी की तरह ही सफल भी हुई और फिर यह देखने में भी तो बहुत सुन्दर थी क्योंकि यह कंगनों और गहनों की तरह चमचमा भी तो रही थी । बिना थके उसने तैंतीस बार लगातार गाया, लोग उसे और भी सुनते लेकिन सम्राट ने कहा कि अब असली बुलबुल को भी अवश्य कुछ गाना चाहिए । परन्तु वह थी कहाँ ? उसे खुली खिड़की से निकलकर अपने हरे जंगल की ओर जाते किसी ने नहीं देखा था । "यह तो विचित्र व्यवहार है ! " और जब पता चल ही गया कि असली बुलबुल वहाँ नहीं थी,सब दरबारियों ने उसे कोसा, उसे कृतघ्न प्राणी कहा । 

"परन्तु अब तो हमारे पास सर्वोत्तम पंछी है" किसी ने कहा और उन्होंने बार बार उसे सुना, भले ही वे लोग एक ही धुन को चौंतीसवीं बार सुन रहे थे,फिर भी वह धुन सीखना उनके लिए कठिन था, उन्हें वह धुन याद ही नहीं हो पा रही थी । परन्तु संगीताचार्य ने नकली पंछी की और भी अधिक प्रशंसा की और यह घोषणा भी कर डाली कि यह तो असली बुलबुल से भी बेहतर है, न केवल अपनी सुन्दर पोषाक और हीरों के कारण अपितु अपने आकर्षक संगीत के कारण भी । "क्योंकि महाराजाधिराज, देखने वाली बात तो यह है कि असली बुलबुल के साथ हमारी समस्या यह है कि वह एक धुन के बाद आगे क्या गाएगी, हमें पता ही नहीं चलता, जबकि यहाँ सब कुछ निश्चित है, इसे खोल सकते हैं, इसकी व्याख्या कर सकते हैं ताकि लोगों को पता चले धुनें बनती कैसे हैं और कैसे एक के बाद दूसरी धुन बजती है?

" हम भी तो यही सोच रहे थे । " उन सबने कहा और तभी संगीताचार्य को अगले रविवार लोगों के लिए बुलबुल की प्रदर्शनी लगाने की अनुमति मिल गई । और सम्राट ने आदेश जारी किया कि सब लोग नई बुलबुल का गाना सुनने के लिए हाज़िर हों । जब लोगों ने उसे सुना तो वे सब नशे में झूम रहे लोग थे; बेशक यह नशा बुलबुल के गाने का कम, पारंपरिक चीनी चाय का ज़्यादा था । सब ने हाथ उठा कर दाद दी लेकिन एक ग़रीब मुछुआरे जिसने असली बुलबुल को गाते हुए सुना था, कहा,"यह काफ़ी अच्छा गाती है, सब मधुर धुनें भी एक ही जैसी हैं; फिर भी इसके गाने में कुछ कमी ज़रूर है मगर मैं आपको सही-सही नहीं बता सकता कि वह कमी क्या है । "

और इसके बाद असली बुलबुल को साम्राज्य से बाहर निकाल दिया गया और नकली बुलबुल को सम्राट के निकट रेशमी गद्दे पर स्थान मिल गया । सोने और बहुमूल्य हीरों के जो उपहार नकली बुलबुल के साथ आए थे, उसके पास ही रख दिए गए और इसे नन्ही शाही शौचालय गायिका की और भी उन्नत उपाधि से अलंकृत किया गया, और सम्राट के बायीं तरफ़ सर्वोत्तम स्तर प्रदान किया गया क्योंकि राजा को अपनी बायीं तरफ़ बहुत पसंद थी, जहाँ हृदय का वास होता है,श्रेष्ठ स्थान, और राजा का हृदय भी वहीं होता है जहाँ प्रजा का हो । संगीताचार्य ने नकली बुलबुल पर पच्चीस भागों वाला विद्वतापूर्ण और लम्बा ग्रंथ लिखा जो कलिष्टतम चीनी शब्दों से अटा पड़ा था फिर भी मूर्ख समझे जाने और अपने शरीरों के कुचले जाने के भय से लोगों ने कहा कि उन्होंने इसे अच्छी तरह पढ़ और समझ लिया है । 

एक वर्ष बीत गया और सम्राट सहित सब दरबारियों और चीनी लोगों को नकली बुलबुल के गाने की हर बारीकी का पता था और इसीलिए उन्हें यह अधिक पसन्द भी थी । वे प्राय: पंछी के साथ गा सकते थे । गली के लड़के भी "ज़ी-ज़ी-ज़ी,क्लक क्लक,क्लक" गाया करते थे; सम्राट भी इसे गा लेता था । यह सब बहुत मज़ेदार था । एक शाम जब नकली बुलबुल अपनी स्वर-लहरियों का जादू बिखेर रही थी और सम्राट स्वयं बिस्तर में लेटा इसे सुन रहा था, पंछी के भीतर कहीं से ‘विज़’ जैसी कोई ध्वनि सुनाई दी, तभी एक स्प्रिंग चटक गया । " वर्रर्रर करके पहिए घूमते रहे और संगीत बन्द हो गया । सम्राट उछल कर बिस्तर से बाहर निकल आया और अपने वैद्यराज को बुलवा भेजा, लेकिन यहाँ उसका भी क्या काम था? तब उसने घड़ीसाज़ को बुलवाया जिसने कुछ गंभीर बातचीत और परीक्षण के बाद बुलबुल को काफ़ी ठीक कर दिया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि इसे बहुत सावधानी से प्रयोग करना होगा, क्योंकि इसके भीतर की एक विशेष नली घिस गई है, नई बदलने की कोशिश में संगीत को क्षति पहुँच सकती है । बहुत दु:ख की बात थी क्योंकि अब वर्ष में केवल एक बार ही इस बुलबुल से गाना सुना जा सकता था, हालाँकि यह भी बुलबुल के भीतर के संगीत के लिए हानिकारक हो सकता था । और फिर संगीताचार्य ने बहुत ही कठोर शब्दों में भाषण दिया और घोषणा की, "बुलबुल हमेशा की तरह ठीक-ठाक है ।" भले ही उसकी यह बात काटने का साहस किसी में नहीं था । 

पाँच वर्ष बीत गये, और अचानक देश पर वास्त्विक दु:ख के बादल मँडराते दिखाई देने लगे । चीनी सचमुच अपने सम्राट से प्रेम करते थे और वह अचानक इतना बीमार हो गया कि उसके बचने की कोई आशा न रही । पहले ही नया सम्राट चुन लिया गया था और गलियों में खड़े लोग जब मुख्य सामंत से सम्राट का कुशल-क्षेम पूछते तो वह "उँह" कह कर सिर हिला देता था । 

सम्राट अपने शाही बिस्तर में ठण्डा और निस्तेज पड़ा था जबकि दरबारी उसे मृत समझ रहे थे । हर दरबारी उसके नए उत्तराधिकारी को सम्मान देने के प्रयास में था । विशेष कक्षों की नौकरानियाँ इस विषय पर चर्चा के लिए ‘बाहर’ चली गईं और दरबार की औरतों की नौकरानियों ने काफ़ी पर कम्पनी के लिए अपने विशेष मित्रों को बुलवा लिया । 

कक्षों और गलियारों में कपड़ा बिछवाया गया था ताकि कदमों की आहट बिलकुल भी सुनाई न दे सके; बहुत शांत था सब कुछ परन्तु सम्राट अभी मरा नही था; वह श्वेत और अकड़ा हुआ लम्बे मख़मली पर्दों और सुनहरी रस्सियों वाले अपने शाही बिस्तर पर लेटा हुआ था । एक खिड़की खुली थी, चाँदनी सम्राट और नकली बुलबुल को नहला रही थी । लाचार सम्राट ने अपने सीने पर एक अजीब-सा बोझ महसूस किया, उसने अपनी आँखे खोलीं और उसने मृत्युदेव को अपने पास बैठा हुआ पाया । मृत्यु्देव ने राजा का सुनहरी मुकुट पहन लिया था, एक हाथ में उसकी शाही तलवार थी, दूसरे हाथ में उसका सुन्दर ध्वज था । बिस्तर के चारों ओर लम्बे मख़मली पर्दों में से झाँकते हुए कुरूप, सुन्दर और दयालु दिखाई दे रहे बहुत -से अजनबी चेहरे थे । ये सम्राट के सब अच्छे बुरे कामो के चेहरे थे जो उसे घूर रहे थे जबकि मृत्युदेव उसके हृदय पर सवार हो चुके थे । 

"तुम्हें याद है यह?" "क्या यह याद आ रहा है तुम्हें?" चेहरे बारी-बारी से सम्राट से पूछ कर सम्राट को पुरानी वे परिस्थितियाँ याद दिला रहे थे जिनके कारण उसके माथे पर पसीना आ चुका था । " मैं इसके बारे में कुछ नहीं जानता । " सम्राट ने कहा,"संगीत, संगीत!" वह चिल्लाया," बड़ा ढोल बजाओ, ताकि मैं उनकी(चेहरों की) आवाज़ें न सुन सकूँ । परन्तु वे पूछे जा रहे थे और मृत्युदेव एक चीनी की तरह चेहरों के अनुमोदन में सर हिला रहे थे । 

"संगीत! संगीत!" सम्राट चिल्लाया । "नन्ही कीमती सुनहरी बुलबुल, तुम गाओ! मैंने तुम्हें सोना और कीमती उपहार दिए हैं; मैंने तो अपनी सोने की कण्ठी भी अब तुम्हारे गले में डाली है, गाओ, गाओ । " लेकिन नकली बुलबुल चुप थी, उसमें चाबी भरने वाला कोई नहीं था, वह गाती कैसे?

मृत्युदेव सम्राट को अपनी क्रूर, धँसी आँखों से निरंतर घूरे जा रहे थे और कमरे में भयानक सन्नाटा था । तभी खुली खिड़की से मधुर संगीत सुनाई दिया । बाहर एक पेड़ की टहनी पर असली बुलबुल बैठी थी । उसने सम्राट की बीमारी के बारे में लोगों से सुना था और और वह सम्राट के लिए आशा और विश्वास का गीत गाने आई थी । काले साये प्रकाश में बदलने लगे, सम्राट की शिराओं में रक्त का संचार तेज़ होने लगा; उसके क्षीण अंग स्फूर्त हो उठे; मृत्युदेव ने स्वयं सुना और कहा, "गाती रहो नन्ही बुलबुल, गाती रहो । "

"मैं गाउँगी, और बदले में आप मुझे सुन्दर सुनहरी तलवार और अपना कीमती ध्वज देंगे और साथ ही सम्राट का मुकुट भी । " बुलबुल ने कहा । और मृत्युदेव ने एक -एक करके बुलबुल के गाने के बदले में ये सब कीमती चीज़ें लौटा दीं; और बुलबुल गाती रही । उसने शांत चर्च जहाँ सफ़ेद गुलाब होते हैं, जहाँ बूढ़े पेड़ अपनी सुगन्धि हवा पर लुटाते हैं, और ताज़ा मख़मली घास जो शोकग्रस्त लोगों के आँसुओं से नम रहती है, के बारे में गाया । तब मृत्यु देव अपने उद्यान में लौट जाने के लिए लालायित हो उठे और सर्द सफ़ेद धुन्ध के आकार में खिड़की के रास्ते से अपने उद्यान को लौट गए । 

"धन्यवाद,धन्यवाद, नन्हीं बुलबुल! मैं जानता हूँ तुम्हें । मैंने तुम्हें एक बार अपने साम्राज्य से निकाल दिया था और फिर भी तुमने उन बुरे चेहरों को अपने संगीत के जादू से मेरी शैय्या से दूर भगा दिया है । और मेरे हृदय पर आन बैठे मृत्युदेव को निकाल दिया है, मैं तुम्हें कैसे पुरस्कृत करूँ?"

"आपने मुझे पहले ही पुरस्कृत कर चुके हैं । मैं कभी नहीं भूलूँगी वे क्षण जब मेरे गाने से आपकी आँखों में अश्रु आ गए 

थे । यही वे मोती हैं जो एक गायक को सबसे प्रिय होते हैं । अब आप सो लीजिए और फिर से स्वस्थ हो जाइए मैं फिर आपके लिए ज़रूर गाऊँगी । " वह फिर गाने लगी और सम्राट गहरी मीठी नींद सो गया । कितनी तरो-ताज़ा करने वाली थी यह नींद!

स्वस्थ-प्रसन्न हो कर जब सम्राट जागा खिड़की में से ताज़ा धूप आ रही थी, लेकिन कोई भी नौकर वहाँ नहीं आया था- वे सब यही सोच रहे थे कि सम्राट मर चुका था; सिर्फ़ बुलबुल उसके पास बैठी गा रही थी । 

"तुम्हें मेरे ही पास हमेशा के लिए रहना चाहिए । " सम्राट ने कहा । "तुम तभी गाना जब तुम्हारा मन करे; और मैं इस नकली बुलबुल के हज़ार टुकड़े कर दूँगा । "

" नहीं,ऐसा मत कीजियेगा । " बुलबुल ने कहा, "जब तक यह गा सकती थी इसने अच्छा गाया । इसे अभी यहीं रहने दीजिए । मैं राजभवन में अपना घोंसला बना कर नहीं रह सकती । हाँ, जब चाहूँ तब आ सकूँगी । मैं हर शाम खिड़की के पास एक टहनी पर बैठ कर आपके लिए गाऊँगी, ताकि आप प्रसन्न रहें और आनन्ददायक विचारों से भरे रहें । मैं आपके लिए उनके बारे में गाऊँगी जो प्रसन्न हैं, जो दु:खी हैं, अच्छे-बुरे, आपके आसपास छिपे हुए लोगों के बारे में गाऊँगी । मैं आपसे बहुत दूर उड़कर चली जाती हूँ, आपके दरबार से बहुत दूर मछुआरों और किसानों के घरों तक । मुझे आपके मुकुट से अधिक आपके हृदय से प्रेम है; आपके मुकुट में भी बहुत पवित्रता है । मैं गाऊँगी, आपके लिए गाऊँगी लेकिन आप मुझे एक वचन दीजिए । "

"कुछ भी माँग लो । "सम्राट ने कहा । सम्राट अपनी राजसी वेशभूषा धारण कर चुका था और हाथ में अपनी तलवार थामे हुए था । 

"बस एक चीज़ । " बुलबुल ने कहा "किसी को पता न चले कि आपके पास एक नन्ही बुलबुल है जो आपको सब कुछ बता देती है । यह बात बिल्कुल गुप्त रखिए । "और यह कहकर बुलबुल उड़ गई । नौकर आए, मृत सम्राट को देखने, लेकिन चौंक उठे जब सम्राट ने कहा, "शुभ प्रभात!"

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समीक्षा

समीक्षक : -राजगोपाल सिंह वर्मा,  आगरा,  फोन: 9897741150

ई-मेल: rgsverma.home@gmail.com


सुश्री दीप्ति गुप्ता


स्त्री मन की नैसर्गिक परिणति है ‘देवयानी’!

एक पँक्ति में कहूँ तो - पाठक मन को सहज ही बाँध लेने वाला, एक जानदार और शानदार उपन्यास ‘देवयानी’....!!

देवयानी नाम ने मुझे हमेशा आकर्षित किया । देवयानी अर्थात एक देवी की तरह, देवी-तुल्य! वह ऐसी स्त्री है जिसमें देवत्व है । पर क्या वास्तव में ऐसा होता है? स्त्री क्या किसी आराध्य का अंश हो सकती है? एक जानदार और शानदार उपन्यास ‘देवयानी’ ।

मेरे विचार में इसका उत्तर ‘हाँ’ में है । अपने सामान्य और प्राकृतिक रूप में हर स्त्री वास्तव में देवी-सरीखी होती है । वह प्रेमल भावनाओं से ओत-प्रोत होती है, एक सकारात्मकता का स्रोत होती है और घर को, समाज को एक सूत्र में बांध कर चलने की सामर्थ्य रखती है, भले ही इस प्रक्रिया में उसका सर्वस्व ही क्यों न न्यौछावर हो जाए । 

बात ‘देवयानी’ उपन्यास की ! मुझे नहीं पता था कि इस पुस्तक का कथानक क्या होगा, इसका मुख्य चरित्र यानी नायिका, किस तरह से स्वयं के मन को, अपनी भावनाओं और चरित्र को अनावृत्त करेगी, इसी रहस्य ने मुझे इस उपन्यास के प्रति आकर्षण से बांध लिया था । लेखिका दीप्ति गुप्ता कहती हैं—

“हर अध्याय उसी के (देवयानी) इर्द-गिर्द घूमता है ! वह अपने घर के छोटे-बड़े, खास और आम, हर प्राणी से लेकर, दरो-दीवार तक से, गहराई से जुडी है ! सबके प्रति संवेदनशील है, सबके बारे में बारीकी से सोचती है! जड़ समझी जाने वाली चीजों से उसका भावनात्मक इंसानी जुड़ाव अनूठा है! देवयानी की ज़िंदगी के सुखद और दुःखद अनुभव, दर्द और पीड़ा की तरंगें, उत्साह और उल्लास की लहरें, एकाकी मन में उठने वाले तरह-तरह के मृदुल, रुपहले, तो कभी विषैले और अवसाद में लिपटे विचार, अंदर पसरा सूखा रेगिस्तान, तो कभी सावन बन लहकता उसका अंतर्मन, कभी उसका बौद्धिक जगत में उतर जाना, तो कभी जीवन-दर्शन पर उसका विचार-विमर्श, किशोरावस्था में जीवन-साथी मनु का, उससे रागात्मकता से जुडना, लेकिन उसी साथी का जीवन के अर्द्ध शतक में विमुख हो जाना, फिर भी, देवयानी का अपने साथी से रूहानी नाता.....और उसकी उस, सघन रूहदारी की कशिश से.... विमुख जीवन-साथी का फिर से, देवयानी की ओर खिंचे चले आना और अंतत: दोनों का एक हो जाना, अपने में एक अनहोनी है! देवयानी और मनु की यह गाथा मात्र उनकी अपनी ही गाथा नही है, बल्कि, वह कमोबेश, हर स्त्री-पुरुष और उनके जीवन के उतार-चढ़ाव का प्रतिनिधित्व करती है!”

तो यह लेखकीय सम्मति अवश्य ही हर पाठक के मन में बैठी धारणाओं से मेल खाती है । यह लेखिका की ही नहीं, इसे एक सामान्य पाठक की पड़ताल का प्राकृतिक परिणाम भी कहा जा सकता है, पर लेखिका के इस कथन से कुछ अलग, मैं यह भी सोचता हूँ कि इस पुरुष वर्चस्ववादी समाज में पुरुषों से प्रेम की अनुभूतियाँ दर्शाने या अपने मन में पल्लवित करने भर का खामियाजा पुरुषों को नहीं, मात्र स्त्रियों को ही भुगतना पड़ता है । पर ऐसा क्यों है कि इसके बाद भी स्त्रियाँ पुरुषों से प्रेम करती हैं, अपने पुरुष के लिए जीवन न्योछावर कर देने की भावना रखती हैं । इसके विपरीत पुरुष प्रेम करता है, तो वह नारी को सुरक्षा देने के नाम पर, उसके शरीर पर अपना अधिकार जताने के हक से प्रेम करता है, वह इन प्रेमल रिश्तों को आर्थिक और परिस्थितिजन्य परिधियों में बांधकर सामाजिक वर्जनाओं के निर्वहन के रूप में तौल कर देखता है ।

तो, यह और कुछ हो, पर प्रेम तो नहीं है । जिस संबंध में समानता नहीं है, वह प्रेम हो ही नहीं सकता । ऐसे में, नए सिरे से प्रेम को रचने, परिभाषित करने की कोशिश देवयानी जैसी स्त्रियों को ही करनी होगी, और इसमें असहज होने का कोई कारण भी नहीं होना चाहिए । यथास्थितिवादी कह सकते हैं कि स्त्रियों के बदलने से समाज तो नहीं बदलेगा । हाँ, वे सही कहते हैं । जरूरत है कि पुरुषवर्चस्ववादी समाज व्यवस्था की बुनियाद हिले, वह अंततः ध्वस्त हो, और उसकी जगह एक नया ढांचा खड़ा होने की परिस्थितियाँ उपजें, तभी पुरुष तंत्र द्वारा रची गई प्रेम की परिभाषा भी नए रूप-स्वरूप में अवतरित हो सकेगी । 

पुरुषों ने तो जता ही रखा है कि नारी के लिए प्रेम की परिभाषा क्या होनी चाहिए । हमारा सामाजिक विमर्श सुझाता है कि स्त्री का जीवन पुरुष के बिना अर्थहीन है, लेकिन हर विमर्श का पुरुष सत्ता के आगे समर्पण कर देना, सिर्फ उसी वर्ग का हित सोचना भी क्या स्त्री के लिए स्वयं को दोयम दर्जे का मान लेने की कवायद भर नहीं है?

ऐसे में स्त्री का पुरुष हो जाने का मतलब है, पुरुषवादी सोच को स्वीकार कर लेना । एक स्वतंत्रचेता स्त्री पुरुषवादी सोच को क्यों स्वीकार करे? वह भी तब, जब पितृसत्ता ने तमाम पुरुषों को जिस मानसिकता से तैयार किया है, उस मानसिकता को अस्वीकार करना ही पुरुष होने को अस्वीकार करना है । जब तक महिलायें इस सोच को विकसित नहीं करेंगी, तब तक वे पुरुषवर्चस्ववादी मानसिकता के साथ ही खड़ी मिलेंगी । यही कारण है कि अक्सर महिलाओं के खिलाफ पुरुषों की लड़ाई में महिलाओं के एक अच्छे-खासे वर्ग को भी पुरुषों के पाले में खड़े देखा जाता है ।

पुरुष भले ही अपने अधिकार महिलाओं को न देना चाहे, लेकिन वह चाहता है कि उसकी पुरुषवादी मानसिकता को औरतें भी जस की तस स्वीकार करें । औरतों में भी यह मानसिकता है, तभी प्रेम करती लड़कियों को निर्ममता से मार डालने वाली माताएं हैं, अपराधी पतियों का साम्राज्य संभालती पत्नियां हैं, परिवारों में तानाशाह माँ या दादियां हैं । दुनिया में पुरुष वर्चस्ववादी सोच पर टिकी हुई है, तो सिर्फ इसलिए नहीं कि पुरुष ऐसा चाहते हैं, बल्कि यह इसलिए भी है, क्योंकि महिलाओं ने भी इस पुरुषवादी सोच को बनाए रखने में जाने-अनजाने मदद की है । इस सोच से मुक्ति में ही महिलाओं की मुक्ति छिपी है ।

स्वयं लेखिका ने पुरुष और स्त्री के सृजन से आरंभ हुई यात्रा के पल्लवित होने के बाद विकसित हुए काल में आए अंतरों को बेहतर ढंग से रेखांकित करते हुए बताया है कि कैसे स्त्री अपनी कोमलता बनाए रखती है, और किस तरह पुरुष निर्ममता के रास्ते पर चल पड़ता है । इसके लिए उदाहरण के रूप में पुरुष सत्ता का प्रतिनिधित्व करते हुए मनु, दुष्यंत हैं, तो महिलाओं की ओर से सीता, श्रद्धा और शकुंतला के सटीक उदाहरण सामने हैं । 

यह अद्भुत है कि देवयानी किस तरह निर्लिप्त भाव रखने वाली निष्प्राण चीजों में अपना सुकून ढूंढती है, उनसे जुड़ाव की अनुभूति व्यक्त करती है, वह भी बिना किसी प्रयास के, अनायास । उसके मन का विषाद उसे आक्रोशित करता जरूर है, पर उसका निर्मल अंतर्मन उसे उस धरातल पर बनाए रखता है, जिस आदर्श रूप में उसे होना चाहिए । एक स्त्री या कहें कि इंसान के लिए ऐसी परिणति का होना, देवयानी का सौभाग्य नहीं तो क्या है! 

एक अच्छे उपन्यास में उसके मुख्य चरित्र हमेशा आपकी निगाहों में बने रहते हैं । यह इस कथानक की खूबी है कि कृति की नायिका देवयानी इस उपन्यास में लगभग हर जगह मौजूद है । हर स्थान पर या तो उसकी उपस्थिति बनी हुई है, अथवा उसका प्रभाव दिखता है । चाहे वह अन्य पात्रों के माध्यम से हो, अथवा परिस्थितियों से निर्मित हो । जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के मोड़ इस नायिका को आपके मस्तिष्क से अलग नहीं होने देते । लगता है कि देवयानी आपके ही परिवार का हिस्सा है, जो उसके साथ घटित हो रहा है, वह कहीं आसपास ही हो रहा है । ऐसा तब होता है जब कलमकार की कृति डूब कर लिखी गई हो । यही उसके लेखन को सबसे अलहदा और महत्वपूर्ण बनाता है । 

देवयानी के जीवन के पलों को निर्विकार अथवा एकाकी भाव से नहीं देखा जा सकता । वे भारतीय संस्कृति में स्त्री को व्याख्यापित करती वर्जनाओं के परिप्रेक्ष्य में देखे जा रहे विमर्श का हिस्सा हैं । देवयानी का चरित्र कोई गढ़ा हुआ, अप्राकृतिक चरित्र नहीं, वह हमारे समाज का ही प्रतिनिधित्व करता, लगभग हर नारी से जुड़ा एक उदात्त चरित्र है, जिसे लेखिका ने अपनी गहन संवेदनशीलता और सम्मोहक भाषा कौशल से हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया है । दरअसल, अगर हम एक व्यापक दृष्टि डालें तो देवयानी हमारे आसपास ही है, वह प्रमुखता से हमारे समाज का हिस्सा है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती । 

देवयानी के जीवन की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरती हुई यह यात्रा हमें जिस समाज का परिचय कराती चलती है, वह कितने दशक बीत जाने के बाद भी वो समाज अपनी अंदरूनी परतों में ज्यों का त्यों है । क्यों नहीं यह प्रश्न किसी स्त्री-विमर्श को मथता, क्यों नहीं यह बात इस समाज के ठेकेदारों के सामने लाई जाती? अगर जीवन की इस गहन यात्रा के विभिन्न चरणों में देवयानी की संबद्धता, उसकी आत्मीयता पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगा, तो यह उसकी वह निष्ठा और प्रतिबद्धता है, जो उसने अपने मन के प्रति की है । यह उसके लिए उसकी आत्मा की शुद्धता की अनुभूति है, इसके विषय में उपन्यास के आरंभिक अध्याय में प्रस्तुति की गई है । 

देवयानी की बच्चों के साथ होने वाली बातचीत में, उस दृश्यात्मकता के दर्शन होते हैं जिससे हम अपरिचित नहीं हैं, या कहें कि वह घर-घर की कहानी की तरह हैं । मेरठ के घर में देवयानी-मनुज के साथ ही उनके बच्चे हैं, सेना में मेजर पद से सेवानिवृत्त ससुर हैं, ममतामयी सास है और हैं घरेलू सेवक हरिया काका है । घर के इन हरिया काका को नौकर नहीं, घर का हिस्सा मानते हुए ही रहते आए हैं परिजन, न जाने कब से । तब से जब मनुज भी छोटा था । उसकी बाल्यकाल की स्मृतियाँ भी हैं उन काका के पास । 

फिर मनुज के देवयानी से विवाह और देवयानी तथा उसके साथ की बात है । पर यह कैसा साथ है, जिसमें बाद के समय में पति मनुज साथ कम, उससे दूर अधिक रहता है । ऐसी अनुपस्थिति देवयानी को स्वयं को तो बुरी लगती ही है, बच्चों को भी वह कैसे भाए ! केतकी और कनु के जीवन में देवयानी के जीवन के अप्रिय पल उन बच्चों को कैसे प्रभावित करते हैं, यह जानना विस्मित इसलिए नहीं करता, क्योंकि सार्वभौमिक तथ्य यह है कि ऐसे संबंधों की परिणिति बच्चों पर ही प्रभाव डालती है । वह बात अलग है कि विवाह से पूर्व देवयानी नहीं, मनुज ही उसका दीवाना हुआ करता था । 

इस ऊहापोह के वातावरण में उस परिवार के मित्र ‘तोषी’ की उपस्थिति एक शुभेच्छु की तरह है । वह मनु और देवयानी की स्थिति को समझ कर ही, विवाह की संस्था से अपनी एक सम्मानजनक दूरी बना कर रखता है, तो इसमें कुछ भी असहजता नहीं । पर तोषी की इस असहजता का सुखद-सा परिणाम एक विस्मित करने वाली घटना है । कहते हैं कि सब अपना भाग्य लिखवा कर लाते हैं, तो तोषी के भाग्य ने उसे बाद में उपहार स्वरूप जो पत्नी दी, वह एक आदर्श स्त्री रूपा थी । 

पति के जीवन की दूसरी स्त्री या उसकी पसंदीदा महिला किसी भी महिला के जीवन का सबसे खराब समय होता 

है । फिर देवयानी तो मनुज की पसंद थी, उसकी एकतरफा पसंद । ऐसे में उसने क्यों दूसरी जगह अपना आकर्षण ढूंढा, यह पहेली देवयानी समझने में हमेशा नाकामयाब बनी रही । जब देवयानी को उन संबंधों की पुष्ट जानकारी मिली तो उसके हृदय को कैसा आघात लगा होगा, यह समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं है । लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ । पहले उदासीनता हुई, जैसे मनुज को कई-कई दिनों के लिए घर से बाहर जाने और लौट कर पत्नी और बच्चों के पास,घर आने पर, जैसे कोई फर्क ही न पड़ता हो । देवयानी को मनु की इस उदासीनता को देखकर लगता है कि मनु किसी कुंठा से ग्रसित है । देवयानी यह कभी नहीं सोच पाई कि इस बदलाव का कारण बीच में आई एक स्त्री थी - एक विदेशी स्त्री । 

ऐसे समय पर जब पीड़ा अवसाद बन कर अंतस में गहन जगह बना ले, तब नायिका की स्थिति कैसी रही होगी? पर देवयानी ने, न केवल वह सब सहा, उस स्थिति से स्वयं को मुक्त करने का निर्णय भी ले लिया, दिल टूटा होने पर भी, देवयानी के इस निर्णय में उसकी अपनी अस्मिता और एक अलग अस्तित्व सामने आता है । मनु के छल और अन्याय के आगे अपने व्यक्तित्व को कुचल कर झुकने के बजाय, ‘उससे अलग होने का साहस, देवयानी की अपनी एक पहचान बनाता है ।‘

देवयानी एक निरीह स्त्री नहीं है, वह उच्च शिक्षा प्राप्त है, किसी भी तरह के अहंकार और दम्भ से दूर, प्रेममयी, मृदुल, घर-परिवार, बच्चों और सास-ससुर सबके प्रति जिम्मेदारी से अपने कर्तव्य निबाहने वाली और मुसीबत के समय, अकेली पड़ने पर, उचित निर्णय लेना भी जानती है । परिस्थितियों से उलझना नहीं, उनसे संघर्ष कर अपनी राह चुनना जानती है, इसलिए वह आसपास घटित होते हुए परिवर्तनों को भी उसी सहजता से लेना सीख गई है, जिस तरह उसने पति की उदासीनता, फिर अलगाव को लिया था । उसने अब उस घर से दूर अपना रास्ता खोज लिया था । यही उसका प्रारब्ध लगता था, पर क्या जीवन उसे यहीं रुक कर अपनी राह चुनने का, खुद को स्थिर बनाए रखने का विकल्प दे रहा था ?

एबटाबाद हाउस में जाना एक औपनिवेशिक काल की स्मृतियों को उकेरने के समान है । उसके साथ देवयानी की  कितनी यादें जुड़ी रहीं, अच्छी-अच्छी यादें, कुछ रोमांचित करने वाली स्मृतियाँ, कुछ भूत-प्रेतों से जुड़ी किंवदंतियों की चर्चाएं, पर ये सब उसे इतनी असहज नहीं करतीं, जितनी उसे अब तक एक अपने विशिष्ट पुरुष से ही मिल चुकी थी, वह अपना जिसे कोई भी स्त्री जीवन का प्रथम पुरुष मानती है । यहाँ हमें देवयानी की दृष्टि में, उसके विचारों में दार्शनिकता का भान भी मिलता है, पर जिंदगी अपने रंग में ढलती हुई, बिना किसी निर्धारित राह पर चलती हुई, मार्ग तय करती जाती है । लेखिका यथार्थ का चित्रण करती है जिससे पता चलता है कि नायिका अपने सहयोगियों और परिचितों के समाज में अपनी छाप छोड़ने में सफल होती रही है । जीवन के इस मोड़ पर आकर और विपरीत परिस्थितियों में होते हुए यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी देवयानी के लिए । 

एक ओर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ वहन करती हुई, विश्वविद्यालय में अध्यापन की भूमिका में और एक लेखिका के रूप में अपनी जगह बनाने वाली देवयानी के जीवन का यह हिस्सा अद्भुत है । होना भी चाहिए! क्योंकि यहाँ तक आने की जो यात्रा देवयानी ने पूरी की है, वह एक समर्थ और काबिल स्त्री की कहानी है, एक दृढ़ महिला का अफसाना है, जिसने अपने आत्मबल के अनुसार अपनी ही शर्तों पर निर्धारित मार्ग पर चलने का जुनून पूरा किया, किन्हीं अड़चनों से घबराकर कभी रास्ते नहीं बदले । 

इसमें कोई दो राय नहीं कि देवयानी एक संवेदनशील और चिन्तनशील स्त्री के रूप में सामने आती है । उसका यह व्यक्रित्व उसके लिए एक नैसर्गिक रूप में मौजूद है । वह ऐसे लोगों के जीवन से प्रेरणा पाती है, जो अनजाने में ही ऐसी ही समान परिस्थितियों में भी सफलताओं के सोपान चढ़ते गए । पर यहाँ एक अंतर है । जिनका उदाहरण दिया गया है, वे लोग पुरुषसत्ता प्रधान स्थितियों में सफलता की सीढ़ियों पर चढ़े, जबकि देवयानी तो एक स्त्री थी, मात्र एक स्त्री, जिसे आगे बढ़ने के लिए हर कदम पर पुरुष सत्ता का सहारा लेने की दरकार थी । पर ऐसा नहीं हुआ तो कहीं यह पुरुष समाज को, उनकी संप्रभुता को चुनौती तो नहीं ?

इस कृति की लेखिका दीप्ति गुप्ता स्वयं हिन्दी की विद्वान हैं, भाषा विज्ञानी हैं, ऐसे में उनकी कृति से जैसी अपेक्षा थी, वह उसी तरह से समृद्धता के धरातल पर है, चाहे वह भाषायी स्तर पर हो, प्रस्तुतिकरण के विषय में हो, अथवा कथानक की समग्रता पर हो । भाषा में उर्दू और अंग्रेजी के शब्द आम जन के बीच प्रचलित होने के कारण प्रवाह को सुगम बनाने का काम करते हैं, और जरूरी प्रतीत होते हैं । एक उदाहरण देखिए, 

“पूनो के खिले चाँद के रजत उजाले में देवयानी और मनु बालकनी में बैठे मीठी-मीठी बतकही में मशगूल थे ।”

एक दूसरा उदाहरण है, “... देवलोक सा यह स्थान मैंने पहली बार देखा... जो अनुभूति मुझे इस निश्छल, पाक-साफ, बेहद प्यारी और दुलारी-सी जगह और इस सलोने-से घर में हुई, यहाँ चारों ओर के नजारे, अद्भुत शांति, सुकून भरी फिजायें, उन्हें शब्द दे पाना मेरे लिए मुश्किल है! इस शानदार ट्रिप के लिए मैं तुम्हारी तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ, मनु!”

इसके अतिरिक्त शुद्ध हिन्दी का खूबसूरत लेखन भी प्रवाहमय बना रहता है, जैसे, “शरद के चाँद की अमृत बरसाती शीतल चाँदनी के उस रजत माहौल में दोनों जैसे साकार प्रेम ही बन गए थे । दोनों की रूह, दोनों के दिल, एक से भावों और एक-सी अनुभूतियों से स्पंदित थे!”

 निर्दोष देवयानी के प्रति अपराध-बोध से भरा और लम्बे समय तक उससे दूर रहा, मनुज अपनी पूर्व पत्नी और प्रेयसी रही - देवयानी के पास लौट आने की मन:स्थिति में आ जाता है, अपनी दूसरी यानी विदेशी पत्नी से उखडा हुआ सा हो जाता है और वो विदेशी पत्नी भी इससे विमुख सी रहने लगती है । वो महसूस करता है कि देवयानी कभी भी उसके दिलोदिमाग से दूर ही नहीं हुई थी । वो तो दूसरी स्त्री का अस्थाई तिलस्म था, जिसके चलते वो देवयानी से विमुख हो गया था और इस हद तक विमुख हो गया कि अपना वैवाहिक जीवन ही होम कर दिया । लेकिन उस घर में दूसरी पीढ़ी के प्रेम-विवाह के जोड़े के विछोह और पुनर्मिलन का इतिहास एक बार फिर से अपने को दोहराता है । वही इतिहास जिसे हम अभी तक पूजनीय मानते हैं, श्रद्धा से परिपूर्ण आदर देते आए हैं । इस उपन्यास के अंतिम अध्याय में उसी विश्वास-अविश्वास से जूझती देवयानी है, तो वे ही आत्मिक मिलन के पल हैं, जो कभी उनके आरंभिक साथ के साक्षी रहे थे । यह कथा उस देवयानी की है, जो अकारण ही प्रेम से वंचित कर दी गई, परन्तु फिर भी, न जाने कितने वर्षों बाद, खुद को समझाकर और चुनौतियों से जूझ कर रास्ते बनाने के उपरांत उसी पुरुष में अपना प्रारब्ध देखने का साहस कर बैठी, जिससे वो छली गई थी । 

यहाँ कामायनी के मनु और श्रद्धा की कहानी के साम्य पर बात होती है । देवयानी की एक मित्र के माध्यम से, जिससे वह अपने सब सुख-दुख के पल साझा किया करती है । देवयानी उस मनु श्रद्धा और इस मनुज-देवयानी के संबंध में तर्क देते हुए प्रतिप्रश्न करती है ____

“... उस मनु को श्रद्धा द्वारा स्वीकारने के दो सकारात्मक कारण थे– एक तो मनु ने विवाह नहीं किया था, और इस तरह वापस लौटने का एक मजबूत कारण सुरक्षित रखा था, दूसरे उसने टूट कर अपनी गलतियों को महसूस किया था और एक निश्छल मन से सिर्फ श्रद्धा का होने की सच्ची निष्ठा के साथ लौटा था । ऐसे में श्रद्धा क्या, दुनिया की कोई भी नारी कैसे द्रवित न होती, और अपने दिग्भ्रमित पति का स्वागत न करती?”

शायद इसीलिए उसे सुख और बेहतर जीवन जीने की अनुभूति जीवन के एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर बिना पुरुष के नजर आई, तो इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है । 

ऐसा शायद देवयानी ही कर सकती थी । क्या पुरुष के पास ऐसा आत्मिक और नैतिक बल होगा कभी ? 

पर बाद में उसे मनु को, उसके पश्चाताप को स्वीकार करते हुए, पुनर्मिलन ने जैसे पूरी सृष्टि को प्रेममय बना दिया था । तब मानो, वे शिव और गौरा हो गए थे । यही इस कथानक के बेहतरीन लम्हे थे, जिनमें डूब कर ही उदात्त प्रेम को अनुभूत किया जाना संभव है । तब सारी वर्जनाएं टूट जाती हैं, और सब पुरानी बातें, टूटन के पल, संघर्ष तथा जुझारूपन भी कहीं पृष्ठभूमि में चला जाता है, और शेष बचता है वह प्रेम, जो संभवतः दोनों ने इसी समय के लिए बचा कर रखा था । बहुत दूर जाने के बाद वापस आने और फिर से उन्हीं अनुभूतियों का, नारी और पुरुष का एक दूजे का पूरक बनने का यह खूबसूरत प्रारब्ध इस उपन्यास का सकारात्मक सुन्दर सन्देश है, जीवन की सदियों से बरकरार सच्चाई है । 

प्रो. दीप्ति गुप्ता की यह महत्त्वपूर्ण कृति, जो किसी भी स्त्री-पुरुष के नैसर्गिक संबंधों की मनोवैज्ञानिक, अनुरागात्मक और दार्शनिक पृष्ठभूमि के आलोक में लिखा गया, एक बेहद प्रभावशाली आख्यान है, जो उनके स्वयं के कई वर्षों के सतत परिश्रम, सोच, विषय के प्रति एक विशिष्ट प्रतिबद्धता और मनन का परिणाम है, यह समझना मुश्किल नहीं है । उनकी लेखनी सतत इसी तरह सक्रिय रहे और साहित्य जगत को समृद्ध बनाती रहे !         


उपन्यास – देवायानी,  कुल पृष्ठ – 255,  मूल्य पेपर बैक – रु. 325/-, हार्ड बाउंड – रु. 625/-,  प्रकाशक़ – ‘अमन’ प्रकाशन, कानपुर 

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आलेख



डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता, उज्जैन (म.प्र.), मो. 9424560115


भारत में रामलीला की परम्परा

भारत अपनी इन्द्रधनुषी-संस्कृति की एकता के सतरंगे सूत्रों में बांधकर धरती पर प्रेम और भाईचारे की ज्योति निरन्तर जलाये हुए हैं । श्रीरामकथा सत्य, अहिंसा सेवा, त्याग, तप, प्रेम, शील, करूणा शांति आदि का अक्षय भण्डार है । इस सन्दर्भ में हम नई पीढ़ी को चरित्र निर्माण की शिक्षा श्रीरामकथा के माध्यम से दे सकते हैं । आज से लगभग 40 से 50 वर्षों पूर्व तक भारत के नगरों-गाँवों में श्रीरामलीला के माध्यम से लोकशिक्षण-लोकरंजन होता रहा है । श्रीरामलीला का मंचन का आयोजन इन दोनों क्षेत्रों में भरपूर देखा गया । श्रीरामलीला समाज में चरित्र निर्माण एवं नैतिक शिक्षा का माध्यम रही है । वर्तमान समय में दूरदर्शन ने इसका स्थान लेकर घर-घर में रामायण का प्रसारण दिखाकर एक श्रेष्ठ कार्य का निर्वाह किया है । इस कारण श्रीरामलीला मंचन नगरीय तथा ग्रामीण क्षेत्रों में कम देखा जाता है किन्तु भारत में आज भी कई पूर्वोत्तर प्रान्तों में रामलीला का मंचन हो रहा है । विदेशों में आज रामलीला की लोकप्रियता कम नहीं हुई है । रामलीला का संक्षिप्त ज्ञान युवा पीढ़ी को उपलब्ध कराने के उद्देश्य से आलेख दिया जा रहा है ।

श्रीरामलीला नाटकों की प्राचीन परम्परा में श्रीरामचरितमानस के आधार पर गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामलीलाओं की परम्परा भारत में स्थापित की है । वह देश-विदेश के विभिन्न क्षेत्रों में विकसित हुई तथा आज भी श्री रामलीला का मंचन हो रहा है । ऐसा माना जाता है कि वाराणसी की अस्सीघाट वाली रामलीला जो गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा स्थापित मानी जाती है, इसमें श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी से लेकर श्रीराम के राज्याभिषेक तक की लीलाएँ अभिनीत होती है । वाराणसी के ही पल्लीपार (उस पार) रामनगर की लीलाओं में श्रीरामचरित विस्तार से प्रदर्शित किया जाता है । अन्य क्षेत्रों की रामलीलाएँ यद्यपि कथा की एकरूपता से जुड़ी रहती है परन्तु प्रदर्शन पद्धतियों की विभिन्नता के कारण वे अपना पृथक-पृथक स्वरूप रखती है । भारत में रामलीला की अनेक शैलियां हैं जिन सबका मूलाधार 'श्रीरामचरितमानस' है परन्तु स्थानीय रुचि-संस्कृति और अन्य प्रभावों के अनुसार उनका साहित्य व प्रदर्शन-पद्धति भिन्न-भिन्न है ।

रामलीला अभिनीत करने की पुरानी परिपाटी खुले मैदान में रात्रि में लीला करने की रही है । उस समय लीला स्थान भी समय-समय पर बदले जाते थे । किन्तु वर्तमान में मंचीय लीलाओं का प्रभाव बढ़ गया है और उसका रूप भी आधुनिक होता चला जा रहा है । कहीं-कहीं तो व्यावसायिक मंडली जो रामलीला करती है उसमें फिल्मी धुनों की भारी भरमार देखी गई हैं । दादरा, ठुमकी, थियेटरी धुन, विभिन्न भावाओं में लोकगीत का प्रयोग इन लीलाओं में देखा जाता है । वर्तमान में भारत में रामलीला के अनेक रूप और रंग देखने को मिलते हैं ।

हमारे देश में श्रीरामलीलाओं में मथुरा नगर की रामलीला अपनी एक विशेष महिमा और गरिमा रखती है जिसके कारण पूरे भारत में आज भी लोकरंजन व लोकप्रिय है । मथुरा की रामलीला की परम्परा लगभग 150 से 175 वर्ष पुरानी है । जिसमें भी समयानुसार विकास और परिवर्तन होता देखा जा सकता है । यह रामलीला प्राचीन व आधुनिक प्रदर्शन शैलियों का सामंजस्य करके अपना रूप दिखाती रहती है । मथुरा की रामलीला पहले देवर्षि नारदजी के मोह के कथा प्रसंग से आरम्भ होती थी किन्तु बाद में गोस्वामी तुलसीदासजी का चरित्र और शिव विवाह की लीला और सम्मिलित कर दी गई । अब यह रामलीला पूरे भारत में लगभग 20 दिनों तक मंचन की जाती है ।

मथुरा की रामलीला में कथोपकथन (संवाद) पात्रों द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं और चौपाइयाँ व्यासपीठ से गायी जाती है । व्यासपीठ से एक बार में एक या दो चौपाइयों ही गायी जाती हैं । सम्बन्धित पात्रों द्वारा उसके आधार पर संवाद बोलने के बाद चौपाई गाने का क्रम आगे बढ़ जाता है । वाराणसी की रामलीला की तरह मथुरा में 'नारद वाणी' का सतत पाठ नहीं होता है । जबकि वाराणसी में रामलीला का पूरा पाठ होता है और उसके उपरान्त पात्र संवाद एक साथ बोलते हैं ।

आज भी श्रीरामकथा की व्यापकता विश्वविदित है । भारत के अतिरिक्त नेपाल, तिब्बत, हिन्देशिया, जावा, सुमात्रा, बाली, श्याम, कम्बोडिया, थाईलैण्ड, लाओस, वर्मा तथा श्रीलंका में श्रीरामकथाओं की रचनाएँ लिखी गईं और आज भी भारत तथा इन देशों में रामलीला का व्यापक रूप से लोकप्रिय-लोकरंजन होने से मंचन किया जाता रहा है । हमारे देश में तो विशेष रूप से विजयादशमी (दशहरे) के 10-12 दिन पूर्व से ही रामलीला जगह-जगह प्रारम्भ हो जाती है । दशहरे के दिन श्रीराम आज भी नगरों में रावण-वध करते हैं, रावण दहण का कार्यक्रम महानगरों में आज भी आयोजित होता है । 

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कविता

डॉ. सीमा शाहजी, थांदला जिला झाबुआ, मो. 7987678511


लक्ष्मी के पर्व पर सरस्वती की साधना

कल थी दीपोत्सव की रात अमावस और

बूझ चुके 

दीपक से था संवाद 

लिखी थी कुछ पंक्तियां

लेकिन .....

पर्व और भोर की

धींगा मस्ती में

खो दिया उसे 

लक्ष्मी के पर्व पर 

सरस्वती की साधना

ऐसे ही तो खो जाती है

दीपोत्सव के आभा मंडल से बाहर आए

बीतते बीतते कुछ दिन

अब याद आती है वह कविता अमावस की रात 

जन्म लिया था जिसने 

और खो गई 

नव वर्ष के पहले दिन

ताने मारती है कलम

और कलम के कदरदान 

खो चुका है दीपक के साथ अमावस का प्यार

चलो बहुत हुए उलाहने 

फिर से इंतजार करें

उस अमावस का 

जब फिर से मनेगी दीपावली

और होगा दीपों का उत्सव

हम तुम मिलकर

फिर एक रचना को

जन्म देंगे 

और वादा है 

इस बार खोएंगे नहीं 

उसे दुलारेंगे अपनी डायरी में

फिर वह 

कभी नहीं खोएगी 

हमारे बीच में

प्यार बनकर

हमेशा मुस्कुराएगी








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