Sahitya Nandini December 2023




 समीक्षा

समी. श्री विजय कुमार तिवारी, भूवनेश्वर, (उडीसा), मो. 9102939190

डॉ. सीमा शाहजी, झाबुआ (म.प्र.), मो. 7987678511 


'ताकि मैं लिख सकूँ' काव्य संग्रह की भाव-प्रधान कविताएं

हमारी संवेदनाएं काव्य विधा में सर्वाधिक प्रकट होती हैं और प्रायः हर रचनाकार पहले कवि होता है । कविता, कवि को जीवन्त करती है या कवि द्वारा कविता का कोई स्वरुप निखर कर पाठकों को प्रकाशित, आलोकित करता है, यह कोई तर्क या विरोध का विषय नहीं है, दोनों की अपनी-अपनी स्थितियाँ हैं और अपनी-अपनी आवश्यकताएं हैं । महत्वपूर्ण यह है कि कविता के बिना दुनिया का काम नहीं चलता और कविता किसी न किसी रुप में जनमानस के बीच रची-बसी होती है । कविता में सौन्दर्य-बोध, मानवीय संवेदनात्मक अनुभूतियों के साथ स्वतः उभरता रहता है और कविता सुख व आनन्द देती है और विपरीत परिस्थितियों में सम्बल प्रदान करती है । 

डॉ. सीमा शाहजी का काव्य संग्रह ''ताकि मैं लिख सकूँ'' मेरे सामने है । समीक्षात्मक विवेचना के क्रम में लगता है, नवोदित रचनाकारों की पुस्तकों पर समीक्षकों/आलोचकों को अवश्य ध्यान देना चाहिए और उनके लेखन के बारे में पाठकों के सामने सही राय रखनी चाहिए । स्वाभाविक है, प्रथम पुस्तक होने का दबाव लेखकों के मन में बना रहता है, उन्हें उत्साहित-प्रोत्साहित करना चाहिए । हमारे देश में ऐसी कोई व्यवस्था सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं द्वारा उपलब्ध नहीं है कि किसी नए लेखक को उचित मंच या उनके लेखन के प्रकाशन की व्यवस्था हो । यहाँ हर लेखक को संघर्ष करना पड़ता और गिरते-उठते वह अपनी यात्रा करता है । इस लिए मेरी भावना है कि नए रचनाकार के लेखन पर या किसी लेखक की प्रथम पुस्तक पर चिन्तन-मनन प्राथमिकता के तौर पर किया जाना चाहिए । विगत दो वर्षों के समीक्षा लेखन में मैंने यह धर्म निभाने का प्रयास किया है । 

''ताकि मैं लिख सकूँ'' डॉ. सीमा शाहजी का प्रथम काव्य संग्रह है जिसकी भूमिका संस्कृत के महान विद्वान, वेद व सनातन साहित्य के मर्मज्ञ डॉ. मुरलीधर चाँदनीवाला ने लिखी है । उन्होंने वैदिक ऋचाओं को हिन्दी कविता में प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया है और इस श्रृंखला में उनकी सात काव्य पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । उन्होंने अपनी भूमिका का शीर्षक दिया है-'शहद की मिठास है इन कविताओं में' और आचार्य पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी को उद्धृत किया है-आचार्य ने अपने लोकप्रिय निबंध 'क्या लिखूँ' की शुरुआत में लिखा है-'मन में ऐसा आवेग उठता है कि लिखना ही पड़ता है । ' चाँदनीवाला जी ने सच लिखा है-'सच्चे साहित्यकार के साथ लिखना मजबूरी का नाम नहीं है । मन कहता है, हृदय में उमंग की हिलोरें उठती हैं तो कलम खुद-ब-खुद चलने लगती है । उसे कोई रोक नहीं सकता, स्वयं कवि या लेखक भी नहीं । ' मैं इसे किंचित हास्य के साथ कहा करता हूँ, 'ईश्वर कुछ लोगों के भीतर लेखन का कोई कीड़ा डाल देता है और वह जीवन पर्यन्त उस व्यक्ति को बिना लिखे चैन से बैठने नहीं देता । ' चाँदनीवाला जी की इन पंक्तियों से असहमत होने का प्रश्न ही नहीं है-'ताकि मैं लिख सकूँ' शीर्षक से ही ध्वनित है कि ये किसी गहरे अन्तर्द्वन्द्व से बाहर आने का संघर्ष कर रही हैं । इस संघर्ष का मिजाज थोड़ा अलग है । ' उनकी सारगर्भित भूमिका के बाद किसी दूसरे की विवेचना के लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया है । इस काव्य संग्रह में भिन्न-भिन्न भाव-भूमि की कुल 61 कविताएं संग्रहित हैं जो कवयित्री की भाव-संवेदनाएं दिखाती हैं और पाठक उनका संदेश महसूस करते हैं । डॉ. सीमा शाहजी का 'एक कहानी अपनी भी' भावुक करने वाला सम्बोधन है, उनकी सच्ची भावनाएं बहुत कुछ कहती और स्पष्ट करती हैं । उन्हें अपने पिता के खोने का दुख है, मां का साथ बना हुआ है और काव्य लेखन में मां का सहयोग मिलता है । डॉ. सीमा शाहजी को काव्य लेखन विरासत में मिला है और जिंदगी ने उन्हें खूब मौके दिए हैं लिखने के लिए । उनकी कविताओं में सहजता है, सही सोच व चिन्तन है तथा कुछ करने-रचने का जज्बा है । 

बच्चों की निश्छल हँसी के लिए, बहनों के सुहाग के लिए, पिता को न देखनी पड़े जवान बेटे की मौत, मां की आँखों को पुत्र के आने की प्रतीक्षा न करनी पड़े, मानव न बने मानव का दुश्मन और इंसान बना रहे इंसान जैसी भावनाओं के साथ डॉ० सीमा शाहजी कविता लिखती हैं । प्रथम कविता के शीर्षक 'ताकि मैं लिख सकूँ--' को ही उन्होंने अपने काव्य संग्रह का नाम दिया है जो उनकी प्रबल भावनाओं का संकेत है । 'मेरे कमरे की दुनिया' जीवन के नाना रंगों को जीती, संघर्ष करती और जीवन की मधुरिमा समेटती स्त्री के बीतरागी मन की कविता है । वह दमदार बात करना चाहती है ताकि समझ सके अपने कमरे की खूबसूरत दुनिया । कवयित्री अपने आसपास के दृश्यों को देखती है, उनकी गरिमा, सौन्दर्य महसूस करती है और प्रकृति की अद्भुत बेला को नमन करती है । 'वक्त-वक्त की बात है' कविता का संदेश यही है, लोग अक्सर उधर जाने से रोकते हैं जहाँ नागफनी में फूल खिलते हैं, बस्ती में बच्चे खिलखिलाते रहते हैं, लड़की से प्यार मिलता है, प्राणायाम करना आत्महत्या नहीं है जैसे सारे बिंब उम्मीद और खुशी देने वाले हैं । 'क्योंकि आसमान मेरा है' बदलते सुखद मन-भाव की कविता है, अब आकाश जलाने नहीं, शीतलता से भिगोने आता है और मन बौरा जाता है । स्वीकार लेने और अपना मान लेने से सारी स्थितियाँ बदल जाती हैं और जीवन सुखद लगने लगता है । 

'अभिव्यक्ति' कविता में कवयित्री का मन मुस्कराना, अभिव्यक्त होना चाहता है । पोटली में सांसों के साथ विचार गूँथे पड़े हैं, उन्हें व्यक्त करना है, कोई ठौर देना है । मन के पास ही मन गाँठों को खोलता है और रच देता है कोई रचना । 'ऐ मन तू जाग जा' कविता में वर्तमान में जीने, प्रकृति के हर रंग-रुप के साथ आनंदित होने, स्फूर्तिवान रहने और मुस्कराते हुए जाग जाने का संदेश है । कवयित्री मन को लेकर बार-बार विचार करती है, समझना चाहती है, अपने गूढ़ चिन्तन के लिए प्रकृति से सारे बिंब चुनती है और उनके बीच कोई सार्थक, काव्यात्मक संवाद रचती है । 'मन की आकांक्षा' के संवाद जीवन की परतों को खोल रहे हैं और जी लेने का संदेश दे रहे हैं । प्रकृति से प्राप्त उपहारों के साथ कवयित्री ने 'टिक जाने दो पंखों को' कविता में अपने चिन्तन को विस्तार दिया है । उनके अपने प्रश्न हैं, उत्तर हैं, भाव-विचार हैं और नाना बिंबों से भरे निष्कर्ष हैं । वह जीवन के मनोविज्ञान को समझती हैं, प्रकृति में समाधान पाती हैं, परोक्ष रुप से भीतर की यात्रा करती हैं और सुख-शांति अनुभव करती हैं । 'कुम्हलाए से फूल धूप के' कविता में बिंब अद्भुत चमत्कार दर्शाते हैं । प्रकृति के साथ ऐसी सहजता किसी सुलझे मन में ही हो सकती है । 

कवयित्री के पास शब्दों के बीज हैं । वह जानती है, बोने के बाद वे मेरे नहीं, कविता-कहानी बन दूसरों के हो
जायेंगे । उनकी भावना देखिए-मेरे पीछे-पीछे/आ रही नव पीढ़ी/इससे खेले, इसे दुलारे/इनमें से/संचित करे/नव बीज/और बना लें/एक वटवृक्ष/साहित्य का--- । 'नव पुष्प' को वे आशीर्वाद देती हैं-जाओ तुम, खुश रहो और अपनी हर इच्छा पूरी करो । ''बेटियाँ पानी की तेज धार'' कविता में बिंबों के साथ उनको तीव्र धार वाले पानी से तुलना करती हैं और वे तोड़-फोड़, सृजन के साथ सुन्दर संसार बसाती हैं । 'बेटियाःतीन सन्दर्भ' कविता में उन्होंने बेटियों को लेकर तीन दृश्य चित्रित किया है और विस्तृत संभावनाएं रचती हैं । 'मां' कविता के सारे बिंब मार्मिक तरीके से उभरे हैं जिसमें मां का हर रुप अंकित हुआ है । वैसे ही डॉ. सीमा शाहजी 'हमारे पिता हैं वे' कविता में पिता के व्यक्तित्व को याद करते हुए उनका संघर्ष, घर-परिवार को संभालना व कवच की तरह उनकी उपस्थिति महसूस करती हैं । 'बच्चा' अत्यन्त मासूम व मार्मिक कविता है जिसमें बच्चे की चंचलता, मासूमियत व मनोविज्ञान के साथ छोटे बच्चे की हर स्थिति, भाव-दशा का जीवन्त चित्रण हुआ है । वैसा ही भाव-चित्रण शिशु बछड़े का है । कवयित्री को ऐसे जीवन्त अनुभव हुए हैं तभी ऐसे भाव की कविताएं सृजित हुई है । 'मायके का हरसिंगार' और 'रिश्तों की उजास भरी बतकहियाँ'' स्त्री जीवन की आह्लादकारी भावनाओं से भरी स्थितियाँ हैं । स्त्रियों के लिए मायका का अपना महत्व है और बतकही सर्वप्रिय सुखद अहसास देने वाली घटना होती है । 

कवयित्री स्वयं को जीवन यात्रा का प्रारब्ध मानती हैं और सारा बोझ उठाने का साहस रखती हैं, लिखती हैं-पोषित करती हूँ/इस/अचेतन संसार को । रीति-रिवाजों का बोझ उठाती हैं और अपनी तुलना रेल इंजन से करती हैं । 'पत्थर की चक्की' मार्मिक, भावपूर्ण कविता है । दादी मुँह अंधेरे चक्की चलाया करती हैं । जिसने भी गाँव का जीवन जीया है, चक्की उन्हें याद होगी ही । कवयित्री अपनी कविता में चक्की को श्रद्धा-भाव से याद करती हैं । उनकी स्मृतियों में पिता हैं, उनके आँसू, उनके संघर्ष हैं और उनका गमछा जीवन्त हुआ है नाना सन्दर्भो में । 'गाँव' कविता में वह पिता को, मां को और पूर्वजों को तलाश रही हैं और उनके प्रश्न पाठकों को विह्वल करते हैं । डॉ. सीमा शाहजी जी का गाँव को लेकर समझ और लगाव कविता के माध्यम से समझा जा सकता है । उन्हें लगता है, गाँव को भी शहर की हवा लग गई है । उनकी कविता में गौरैया है, गड़रिया है, अपना बचपन और बाजार है । बड़ी सहजता से गौरैया की हर गतिविधि को चित्रित करती हैं और पूछती हैं-कहाँ गई तुम? 'गड़रिया कभी नहीं भटकता'' कविता में भेड़ों के साथ यात्रा करते गड़रिया को सूरज से जोड़कर देखना कोई गहन भाव दिखाता है । 'अकेले-अकेले' मां के चले जाने के बाद पिता की स्थिति पर सशक्त भावों से भरी कविता है । 'आज का युवा सन्दर्भ' कविता में युवाओं को लेकर उनकी चिन्ता समझने योग्य है और समाज में व्याप्त नाना विसंगतियाँ उन्हें विचलित करती हैं । 'टूटे मन की वेदना' की पंक्ति देखिए-मन टूटता नहीं/केवल एक हथियार से/वह टूट जाता है/एक छोटे-से शब्द से/एक छोटी-सी घटना से । यह अनुभूति देखिए-कोमल मन/इस क्रूरता के लिए/तैयार नहीं हो पाता/अपनी सफाई में/कुछ भी/कहने नहीं दिया जाता । डॉ. सीमा शाहजी के अनुभव का दायरा विस्तृत है और उनकी संवेदनाएं खूब प्रकट हुई हैं उनकी कविताओं में । भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उनके पास शब्द हैं, शैली और अद्भुत सहजता है । 

'मृग मरीचिका' गहन भाव-चिन्तन की कविता है । कवयित्री मृग, मरीचिका, प्यास, प्रकृति, संत, श्राप जैसे गहरे भाव के शब्दों को स्पष्ट करती हैं और व्याख्या सहजता से करती हैं । 'कोमल बीज' कविता प्रकृति का रहस्य समझाती है कि पत्थर पर बीज अंकुरित नहीं होता, उसमें नहीं घुलता । 'रेखाओं का सच' कविता का संदेश यही है, भले ही दूसरों की रेखाएं उनका भूत, भविष्य, वर्तमान खोल कर बता दे, कवयित्री लिखती हैं-मेरी अपनी ही रेखाएं/मेरा परिचय देती कुछ और हैं/पर--जीवन में होता कुछ और है । 'कर दो मुक्त मुझे' थकी, हारी स्त्री मन की कविता है । वह ईश्वर से मुक्त कर देने की कामना करती है क्योंकि उसके साथ सब कुछ उल्टा ही होता है और उसके मन को तोड़ दिया जाता है । पराये घर जाने का भय लिए स्त्री बचपन से जीती रहती है, उसका सहज मन कहीं नहीं लगता न खेल में, न स्कूल में । लोग उसके खुशहाल जीवन की बातें करते हैं परन्तु सच्चाई यही है--बंधन-शोषण की कड़ियाँ/जुड़ती ही चली जाती हैं । 'मैं हूँ ना'' पुत्री और पिता के बीच के मार्मिक रिश्ते पर सशक्त कविता है । अकेली लड़की का जीवन स्वयं मे संघर्षपूर्ण होता है, रिश्ते-नाते दुख देते हैं । पिता के आँसू उसे विचलित करते हैं । वह ढाँढस बँधाती है-मैं हूँ ना । 'यक्ष की पीर' कविता में कवयित्री ने कालिदास के मेघ और उसकी प्रियतमा की पीड़ा को गहन भाव से लिखा है । 'आम हो गए खास' कविता में बाजारवाद और लोगों के बदलते स्वभाव को लेकर प्रकृति सहित हर क्षेत्र में हो रहे परिवर्तन की त्रासदी का चित्रण हुआ है । कवयित्री की गहन अनुभूति देखिए-अब कहाँ मिलता है/प्रेम संदेश/मेघों से--वर्षा से/कँवल के फूलों से/पराग--- । अब तो भूखा रह जाता है किसान, शहर अपनी गंदगी समुद्र में उड़ेल रहे हैं, बरसात का पानी जहरीला हो जाता है, ऐसे में क्या करे मानव? वह चाहती है-मेघ को/लौटा दे उसका प्यार/पानी को पवित्रता/समुद्र को गहराई/ताकि गुनगुना सके/फिर से कालिदास/एक नया ऋतु संहार/मेघभूमि पर/भारत भूमि पर । 

संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए स्पष्ट है, इन्हें सहजता के साथ, जब जैसा भाव बना, रचा गया है । उनके आसपास जो घटित होता है, जो दृश्य उभरते हैं, मन की अनुभूतियों के साथ रचना करती हैं । चाँदनीवाला जी ने सही कहा है-''ये कविताएं हृदय से फूटी सच्ची कविताएं हैं, इसलिए इन कविताओं का जन्म स्थल लेखिका का हृदय ही हो सकता है । '' ''बस---ऐसा जतन हो'' कविता में अनेक प्रसंगों, संयोगों की चर्चा करते हुए प्रेम की तलाश करती हैं और संकेत करती हैं--खोज उत्तर की मत करो/ क्योंकि अब झूठ/ बन जाते उत्तर/खोज करो उस प्रेम की/पर्याय जिसका भारत है/पर्याय जिसका कृष्ण है/कालिदास है । मेघ को नमन करती हैं और चाहती हैं, वह हर मानस में/बूँद-बूँद अमृत बरसाए । 'प्रेम की पगी वह एक बूँद' कविता में कवयित्री सीप के भीतर के मोती से प्रेम के गहन भाव का साम्य रचती हैं और बिंब के माध्यम से सम्पूर्ण प्रक्रिया समझा देती हैं । प्रेम की चाह सबको है और सबका प्रेम भिन्न-भिन्न भाव-स्तरों पर उभरता व जीवन्त होता है । 'प्रेम की जैवकीय आशाएं' कविता का संदेश शायद यही है और ये बिंब इस रुप में शायद ही कभी चित्रित हुए हैं । प्रेम में स्वयं को मिटा देने की तत्परता और समर्पण होता है । प्रेम को लेकर कवयित्री के भाव चमत्कृत करते हैं और कोई सात्विक संदेश देते हैं । 

दुनिया के सभी महान कवियों ने मन के भावों को प्रकृति से जोड़कर सुख-शांति और आनन्द की अनुभूति की है । 'तुम कौन हो?' कविता में डॉ. शाहजी के प्रश्नों के उत्तर प्रकृति के जीवन्त दृश्यों में मिलते हैं । वे बार-बार पूछती हैं-आखिर तुम कौन हो? और नाना संदर्भों में उत्तर ढूँढ़ लाती हैं । उनके चिन्तन का विस्तार ब्रह्माण्ड की गहराई, लहरों की गिनती, चाँद की शीतलता, सूरज की तपिश और अपने-उनके तन-मन, प्राणों व सांसों तक फैला है । प्रेमियों को संदेश देती बहुत सुन्दर भाव की कविता है ''दोस्ती मेरी और तुम्हारी'' । संदेश देखिए-मैं क्यूँ मानूँ/तुम्हारे व्यवहार का बुरा/या तुम भी/क्यूँ मानो बुरा/चलो--/शिकायतों का दौर खत्म करें/और दोस्ती की नई दुनिया की/ शुरुआत करें । 'पात और शाख' कविता में जीवन चक्र और सतत सृजन की पूरी प्रक्रिया स्पष्ट हुई है । कवयित्री उम्मीदों से भरी हुई है और निराशाओं में भी सुखद संभावनाएं खोज लेना उनके चिन्तन में है । उन्हें सुरमई, तितली, हरीतिमा, पतझड़, शाख व पात जैसे शब्द बहुत प्रिय हैं और इनके सहारे उनकी कविताएं अद्भुत आलोक फैलाती हैं । 'आएगा रंग रंगीला फागुन' में अलग ही रंग चित्रित हुआ है । ''कटीले नयन' कविता के भाव दृश्य और नायक-नायिका के बीच के संवाद कवयित्री के सुखद चिन्तन का दर्शन है । भला कौन होगा जिसे इनमें डूबने का मन न होता हो? ''पर्व कटी पतंग का'' कविता में कवयित्री ने बहुत कुछ समझाया है और अपनी गहन भावनाओं को उड़ेल कर रख दिया है- लूटने का उत्सव/या कि उत्सव है लुट जाने का--- । 

''होती है एक अक्षय तृतीया'' कविता को सीमा शाहजी ने सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी के सम्बन्धों, भावों तथा मान्यताओं से जोड़ा है और धरती के हरे-भरे होने, लहलहाने के साथ अक्षय होने की उम्मीद करती हैं । ''अमावस के पक्ष में दीपक का संवाद'' प्रकाश पर्व की कविता है । कवयित्री द्वारा चित्रित यह संवाद अमावस को नाना सनातन सन्दर्भों से जोड़ता है और आलोक, प्रकाश का संदेश देता है । अमावस बुराई नहीं है बल्कि अंधकार शाश्वत है/और उजाले की पहचान/अंधकार से ही है । डॉ. सीमा शाहजी दीपोत्सव के पर्व को लेकर ''लक्ष्मी के पर्व पर सरस्वती की साधना' कविता लिखती हैं और अमावस की प्रतीक्षा करती हैं । इन कविताओं में कवयित्री की हर बार उठ खड़ा होने व फिर से लग जाने की सहज विशेषता बार-बार उभरती और मूर्त होती है । 

डॉ. सीमा शाहजी की अपनी सीमा है, भीतर बहुत कुछ उमड़ता-घुमड़ता रहता है, नए-नए बिंबों, काव्य प्रसंगों में चित्रित करती हैं, स्वयं दबावों से मुक्त होती हैं और काव्य-प्रेमियों को सुखद अनुभूतियों से भरती रहती हैं । ''मेरी ऊर्जा के दूत चाँद'' कविता में उन्होंने चाँद के नाना रुपों, भाव-संवेदनाओं और मान्यताओं को चित्रित किया है । चाँद से ईद है, करवा चौथ और शरद पूर्णिमा का गौरव है । कवयित्री लिखती हैं-ओ चाँद!/तुम हो तो/आशाओं के मधुमास हैं/तुम हो तो/आँखों में नए स्वप्न हैं । 'बूँदों का भाग्य' कविता में बूँदें जहाँ-जहाँ गिरती हैं, नाना दृश्य पैदा करती हैं । यह सशक्त भाव-चिन्तन की रचना है । 'बस, जमीं ही मेरी है'' जीवन के यथार्थ की कविता है । संदेश यही है-जीवन तो बस वहीं है/जहाँ कदम चलते हैं/पीढ़ी-दर-पीढ़ी । ''ओ! मानसून'' कविता में मानसून को लेकर उन्होंने उसके नाना विस्तार स्वरूपों का चित्रण किया है और जीवन से जोड़ा है । वैसे ही ''मैं जिन्दगी की डोर हूँ'' कविता में कवयित्री नाना प्रसंगों में स्वयं को जिन्दगी की संभावनाओं से सम्बद्ध करती हैं । ये सारे बिंब झकझोरने वाले हैं, उनकी यह सोच जगाती है और हर किसी को उम्मीदों का संदेश देती है । 'ओ समुद्र! कभी दिल बनो' कविता में समुद्र को खारेपन से बदल दिल, आँख, बहता पसीना बनने की सलाह रोमांचक है । 

कवयित्री का मन गाँवों में बसता है और उनके अनुभव इन कविताओं में बार-बार मुखरित होते हैं । 'दिसम्बर की धूप' कि पंक्तियाँ देखिए-धूप कुनमुनाई है/दिसम्बर की/दूर-दूर तक/चने के खेत/पियराए हैं/गेहूँ की फसल भी/लहलहाई है/विंध्य के अंचल में/गाँव-गाँव खेतों में/बीज अंकुराएं हैं । महिलाएं सोयाबीन चुन रही हैं, मेथी का साग, चने की भाजी, हरी मटर के दाने, गुड़ बनने की खुशबू और चतुर्दिक उल्लास, दिसम्बर की धूप-सी कवयित्री का मन कुनमुना रहा है । ''झाबुआ जिले की आदिवासी महिलाएं'' कविता में उनका खेतों में जाना, दिन भर संघर्ष करना, हँसना-बतियाना, लोकगीत गुनगुनाना, थिरकना, फसल तैयार होने की प्रतीक्षा करना आदि-आदि जो भी है उनके जीवन में कवयित्री ने चित्रित किया है अपनी कविता में । वह स्नेह, आलम्बन, हर क्षण छनकती पायल-सी हँसी वाली ऊँचाइयों पर, तन-मन खिला रहने वाली गहराइयों में और सिंदूरी संभावनाओं के छोर पर पहुँचना चाहती हैं । संग्रह की अंतिम कविता ''फूल की यात्रा चलती रहे'' में कवयित्री मां और पिता को याद करती हैं–नन्हीं आँखें/मैंने अपनी/मां, तेरी गोद में खोली...फिर पिता की गोद में खेली । आगे लिखती हैं-मैं संस्कारों की/सीमा में/अपने कदम/बढ़ा रही हूँ । डॉ. सीमा शाहजी कलियों से फूल बनने की यात्रा के लिए लिखती हैं-फूल की यह यात्रा/चलती रहे/अपनों की दुआएं/फलती रहें । 

किसी भी रचनाकार के प्रथम प्रयास में कुछ कमजोरियाँ रह जाती हैं जिनका निराकरण धीरे-धीरे हर लेखक करता ही है । यहाँ कवयित्री में वैसा कुछ नहीं दिखता बल्कि विशेष तरह की परिपक्वता दिखाई देती है । उनके पास गँवई अनुभूतियों से भरी भाषा-शैली है, प्रेम की स्पष्ट समझ है और अपनी सीमा में रहते हुए व्यक्त करती हैं । प्रकृति से उन्हें हमेशा साहस और सम्बल मिलता है । "ताकि मैं लिख सकूँ'' संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए खुले मन से कहना चाहता हूँ, अपने अनुभव, अपना चिन्तन और विचार साहित्य की विधाओं में लिखें और खूब लिखें । 

समीक्षित कृति : ताकि मैं लिख सकूँ (कविता संग्रह)

कवयित्री : डॉ. सीमा शाहजी, मूल्य : रु. 250/-, प्रकाशक : आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल

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समीक्षा

डॉ. जया पाठक, वरिष्ठ चिंतक एवं रचनाकार, 

सेवानिवृत्त प्राचार्या. शा. महाविद्यालय, थांदला जिला झाबुआ, मो. 8964988269

डॉ. सीमा शाहजी, झाबुआ (म.प्र.), मो. 7987678511 


"ताकि मैं लिख सकूं" : डॉ. सीमा शाह जी 

डॉ. सीमा शाह जी का प्रथम काव्य संकलन "ताकि मैं लिख सकूं" पाठकों के सम्मुख है । संकलन में सीमा जी की 61 कविताएं हैं, हर कविता एक अलग सुवास, अलग रंग और बिल्कुल ताजे खिले पुष्प की ताजगी लिए, मनोहर गुलदस्ते सी । 

इन कविताओं में कवियित्री ने अपने जीवन से जुड़े हर महत्वपूर्ण रिश्तों को बहुत आत्मीयता और संजीदगी से कविताओं में जिया है । सीमा जी स्वयं एक बेटी है तो बेटियों के बड़े होने में माता-पिता और रक्त से जुड़े रिश्तो की व्यापक भूमिका का गहराई से निष्पक्ष आकलन किया है । 

'बेटियां पानी की तेज धार' 'बेटियां: तीन संदर्भ' 'मां' 'हमारे पिता हैं वे' और 'बच्चा' कविताएं कवियित्री के हर्ष, कृतज्ञता, और मासूमियत के वे अभिलेख हैं, जो हृदय की लेखनी, रक्त की मसि से समय पत्र पर उकेरे गए चित्रावलियों से लगते हैं । 

बंद हथेलियों से / पकड़ लेती है / उत्ताल तरंगे / हर बार.......बार......बार..... / देती रहती चुनौतियों का संसार (पृष्ठ 40)

यहां, बार शब्द का तीन बार प्रयोग, त्रिकाल (भूत, भविष्य, वर्तमान, प्रातः, मध्यान्ह, सांझ ( दैहिक, दैविक, भौतिक) त्रिलोक को, एक चंचल बाला द्वारा कर्म और पुरुषार्थ की मुट्ठी में बंद करने का प्रतीक है । 

बेटियां: तीन संदर्भ, रचना मे पहला संदर्भ भारत की गौरवशाली संस्कृति की संरक्षक ललनाओ, दूसरा तथाकथित आधुनिकाओ का और तीसरा उन नारियों का, जो संघर्ष के बीच अपनी राहें चुनती है, परिवार और समाज को जीने का पाठ पढ़ाती है, प्रकाश की राह दिखाती है । कहना ना होगा कि पहले प्रकार की नारियों और आज की नारियों की देशकाल परिस्थितियों मैं बहुत भिन्नताए हैं तथापि उनके अंतस में आदि नारी की गौरवशाली गाथाओं के संस्कार हैं । वह तीसरे प्रकार की नारी का आह्वान अपने संस्कारों के अनुरूप करती है- बेटियों, वैदिक ऋचाओं की स्वयंभू रचनाएं बनो / वंचनाए नहीं... (पृष्ठ 43)

'मां' उनकी चर्चित और प्रशंसित रचना है । ' मां ' उनके व्यक्तित्व का उत्स है उनके जिए हुए सत्य को इस रचना में वाणी मिली है, इसी तरह पिता भी केवल कल्पना की उपज ना होकर उनके जीवन का यथार्थ है--

विरासत की जड़ें / संस्कृति संस्कार के पल्लवो के संजोए/ सहेजे / सहलाए / टूटते- झरते -बिखरते / मूल्यों के बीच स्नेहिल उष्मा का कवच बन जाएं, / हमारे पिता है वे, / सघन कलुष को तोड़ / दीप से दीप जलाएं (पृष्ठ 46)

यहां संजोए, सहेजे, और सहलाए शब्द एक पंक्ति में आ सकते थे किंतु कवियित्री ने उन्हें अलग-अलग लिखकर यह संकेत दिया है कि पहले तो किसी महान विरासत को संजोना फिर उसे सहेजना याने बिखरने नहीं देना और सहलाना यानी दुलार कर आगे की योग्य पीढ़ी को सौंपना.... यह तीन महान कार्य हैं जो एक पंक्ति में नहीं समा सकते । पीढ़ियां खप जाती है, इस लक्ष्य को प्राप्त करने में जैसे गंगा को धरती पर लाने में रघुकुल की तीन पीढ़ियां निरंतर तपस्या और शोधरत रही । 

कहना न होगा कि कवियित्री का भाव जगत जितना समृद्ध है, उतना ही शिल्प जगत भी, जो तीन शब्दों की गागर में सागर को भर गया है । 

बच्चे और मां के अंतरसंबंधों को बच्चा कविता में देखा जाना चाहिए / अ-अनार का / आ-आम का देखे नहीं है उसने / आम-औ-अनार / बस किताबों के दर्पण में / देखा है रसभरा जलजला (पृष्ठ 48)

जलजला भी रसभरा हो सकता है? यह कवियित्री का नया उपमान है । वैसे वह यहां अधिक भावुक हो गई है । शिक्षा का एक सिद्धांत है-'ज्ञात से अज्ञात की और ....अनार और आम उसी यात्रा का आरंभ है । 

डॉ. सीमा को सागर, झरने, नदियां, और, बादल आदि जल के उपादान मन के निकट लगते हैं । मेघदूत, ऋतुसंहार के जनक कालिदास में उनका मन बहुत रमा है । उज्जैन के पास ही उनका ननिहाल है, अतः वह कालिदास की काव्य क्रीडा भूमि से सहज ही जुड़ी हुई है । जग की विद्रूपता के बीच कालिदास उनकी चेतना में है, जो संस्कारजन्य है-

बस मेघ को / लौटा दे उसका प्यार / पानी को पवित्रता / समुद्र को गहराई / ताकि गुनगुना सके / फिर से कालिदास........(पृष्ठ 96)

 या

खोज करो उस प्रेम की / पर्याय जिसका भारत है / पर्याय जिसका कृष्ण है / कालिदास है.......(पृष्ठ 98) 

यही कवियित्री आधुनिकता को फटकार भी लगाती है-

यही तुम्हारी स्वार्थपरता / मेघ और कालिदास का / सामीप्य तुम्हें कब रास आया? / तुम्हें तो मेघ के पानी में / व्यापार ही नजर आया(पृष्ठ 92)

या

एक मानसून / बिक जाता है / बोतल में कैद होकर (पृष्ठ 130)

इसी तरह जमी ही मेरी है (पृष्ठ 128)

बूंदों का भाग्य (पृष्ठ 126)

ए मन तू जाग जा (पृष्ठ 30)

मेरी ऊर्जा के दूत चांद(पृष्ठ 123)

ओ मानसून (पृष्ठ130)

आदि रचनाओं में उनका जलीय (सरल-तरल) व्यक्तित्व उस युवती की तरह दिखता है, जो ज्येष्ठ की धूप में झुलसी, वनांचल के जलाशय में, शीतलता की आस में तैर रही है ....ऊपर धूप और नीचे पानी और उसके बीच नीले नैनो से हाथ पैर मारती हुई स्वयं और तट के बीच की दूरी मापती हुई.... । 

जल ही की तरह प्रकृति के अन्य उपादान जैसे धूप, गौरैया, पुष्प, बीज, आम, अमराई, फागुन, पत्ते, पतझड़, कोयल, पलाश आदि को वर्तमान जीवन के संदर्भ में रखते हुए संस्कारित स्पर्श दिया है । इसलिए कठोर सत्य और आधुनिक विडंबनाओं को समेटने वाली यह रचनाएं कुंठा, उपदेशात्मकता और रोदन की नीरसता से मुक्त होकर भावात्मक संसार को सृजित करने में सफल रही है । 

इस संग्रह की रचनाएं विविध पारिवारिक रिश्तो, भारतीय सांस्कृतिक पर्वों, गांवो, ससुराल को आबाद करती बेटियों, जीवन के काम आने वाली रेलों, पत्थर की चक्कियों आदि को बारीकी से परखती है, इन कविताओं में उनकी दृष्टि अतीत और वर्तमान पर बराबर है । 

दीपावली, अक्षय- तृतीया, संक्रांति, शरद पूर्णिमा आदि पर्वों ने उनसे आधुनिक दृष्टि प्राप्त की है । (रक्षाबंधन नवरात्रि पर्युषण पर्व और दशहरे के लिए हमें उनके अगले संकलन की प्रतीक्षा करनी होगी) 

इन रचनाओं का जीवन दर्शन सकारात्मकता लिए हुए हैं--

 पूरा चंद्रमा / अमावस बनने के लिए / छुपा लेता है / अपने आप को ब्रह्मांड में / सारी चांदनी........ चमक शीतलता और रोशनी को भी / कर देता है स्वाहा / तब ही जाकर / जन्म होता है / अमावस का (पृष्ठ 119-20)

अंधकार शाश्वत है और उजाले की पहचान अंधकार से ही है 

या 

ओ चांद! / तुम हो तो / आशाओं के मधुमास हे / तुम हो तो आंखों में नए स्वप्न हैं और चांद ! / कभी अस्त मत होना / जीवन की किसी भी सांझ में क्योंकि तुम रोशनी देते हो / जलाते नहीं( पृष्ठ 125)

तुम कौन हो (पृष्ठ 103) कविता तो जैसे खोज का अनंत सिलसिला है । किसकी खोज? कैसी खोज? सब कुछ अस्पष्ट, फिर भी एक प्रवाह है जो लहर- दर -लहर खुलता चला जाता है एक निष्कर्षहीन गंतव्य पर पहुंचकर पाठक के मन को उद्वेलित करता है । 

यह शाश्वत प्रश्न है - तुम कौन?, मैं कौन? कुत:आगत:? कुत: गच्छन्ति? उपनिषदों से लेकर आचार्य शंकर तक, कबीर से लेकर विवेकानंद तक, आदि पुरुष विष्णु के प्रथम अवतार मत्स्य से लेकर बुद्ध तक, जिज्ञासाओं का विशाल गगन और गहन सागर है । कवियित्री डॉ. सीमा शाहजी का मन भी उसी जिज्ञासा की एक छोटी सी कड़ी है, जिसका उत्तर मिलना शेष है । 

'मायके का हरसिंगार' नारी मन की पूरी 'रील' है / मायके का हरसिंगार / प्रीत की लड़ियों का / सुंदर संसार........( पृष्ठ 52) 

पंक्ति में कवियित्री ने बसंत ऋतु में हरसिंगार को याद कर मानो मायके के महत्व को रेखांकित कर दिया है । इस कविता में मालवी बोली का शब्द 'उछेर' माटी की अपनत्व भरी सोंधी गंध का एहसास कराता है । यहां शिल्प और भाव का एकीकरण द्रष्टव्य है । 

मेरे कमरे की दुनिया, धूप रथ, पिता का गमछा, गडरिया कभी नहीं भटकता, बचपन और बाजार, मृग मरीचिका, शिशु बछड़ा आदि रचनाएं कवियित्री के रचना संसार की व्यापकता को दर्शाती है । संकलन की हर कविता स्वतंत्र समीक्षा के योग्य है ; पठनीय है । 

यह संकलन सीमा जी के मन की बगिया है, जहां नारी - मन के बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक के मनोभावों को पिरोया गया है । 

इस माला में रंग -रंगीले, सुवासित, कड़वी गंध वाले, और कांटो के बीच खिलने वाले सभी तरह के पुष्प हैं । इन्हीं में से विविध सुगंधो की तरह अनजाने ही कई -कई संदेश निसृत होकर पाठकों को स्फूर्ति और ताजगी देते हैं । 

अंतिम कविताएं'चले अब'और फूल की यात्रा चलती रहे, में एक नन्ही बालिका का बिंब बनता है, जो एक ओर मां पिता और दूसरी ओर जग के रक्त संबंधों के रिश्तो की उंगलियां थामें, संस्कार पथ पर चलती हुई, आनंद की खोज में, अपने गंतव्य की और आगे बढ़ रही है । 

यह बालिका बहुत आगे बढ़े ...बहुत ऊंचाई पर पहुंचे... यह मां सरस्वती से प्रार्थना है । पुस्तक का कलेवर सुंदर और सार्थक है । प्रत्येक कविता के बाद,, कविता में निहित भावों को अभिव्यक्त करते रेखांकित नि:संदेह 'चित्रकार 'की भाव समृद्धि और अंतर्भेदी दृष्टि के परिचायक हैं । 'ग्राफिंग' आकर्षक और दृष्टिप्रिय है, अतः यह दोनों प्रशंसा, अभिनंदन, बधाई और साधुवाद के पात्र हैं । इत्यलम! 

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समीक्षा

ललितपुर के गुमनाम घटनाओं और इतिहास को 

विस्तार से सामने लाने का विशिष्ट प्रयास


सम्पत्ति कुमार मिश्र

सुरेन्द्र अग्निहोत्री

“उत्तर प्रदेश स्वतंत्रता संग्राम ललितपुर “ पुस्तक में हाशिए के बाहर कर जिसे बिसरा दिया गया था उस अलिखित इतिहास को पुन: संजोने का प्रयास है । जीवन, उद्भव, विकास और सामाजिक स्थितियों को लिपिबद्ध करने का गम्भीर प्रयास हुआ वह थोड़ा बहुत ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश शासन से पूर्व कभी नहीं हुआ था । उन लोगों के भी अपने कारण थे, निहित स्वार्थ थे । वे लोग सर्व समाज के तत्कालीन जागीरदारों के सरोकारों की बात के स्थान पर हमारे मन में एक ऐसी छवि बनाते है, वह आपराधिक, शोषणकर्ता और खूंखार निर्दयी, अल्पज्ञानी लोगों की होती है, पर उनकी इस मानव निर्मित छवि को समझने के लिए क्या कभी आपने उन्हें जानने का कोई छोटा-सा भी प्रयास किया है? ब्रिटिश शासन से विद्रोह कर लोहे के चने चबाने को मजबूर करने वाले अमर शहीद मधुकर शाह का नाम बीस वर्ष पूर्व तक उनके वंशज तक नहीं लेते थे! इस विडम्बना उन लोगों के दैनंदिन जीवन की परतों को अलग कर विभिन्न आयामों, व्यथाओं उनकी जिजीविषा को लिपिबद्ध रोमांचित करता है । 

उत्तर प्रदेश सरकार ने अमृत वर्ष के अवसर पर अनूठी पहल पर ललितपुर के गुमनाम घटनाओं और इतिहास को विस्तार से सामने लाने का विशिष्ट प्रयास सुप्रसिद्ध पत्रकार संपादक सुरेन्द्र अग्निहोत्री की विद्वता के साथ पाठकों की रुचि और जानकारी को समृद्ध करने के लिए किया है । यह दावा किया जा सकता है इस कृति में भाषा-बोली, संस्कृति, रीति-रिवाजों और इतिहास एवं घटनाओं पर लेखकीय दृष्टि बहुत गहनता से पड़ी है । इन सब को बेहतर रूप से गूंथ कर जिस प्रकार आठ भागों में कथावस्तु का शाश्वत अंग बनाया गया है, वह लेखकीय विद्वता को रेखांकित करता है । विशेष बात यह है कि लेखक ने इस कृति के माध्यम से स्थितियों का जो जीवंत वर्णन किया है, जो शैली अपनाई है, यह उसी का कमाल कहा जा सकता है कि पाठक के सामने चाक्षुक सुख पूरी शिद्दत से मौजूद है । भाषा मुहावरेदार है और प्रभावित करती है । इतिहास की जानकारीयों का प्रयोग पुस्तक के लगभग हर पृष्ठ पर हुआ है परंतु इससे पाठकीय रुचि में जो परिवर्तन होता है वह सकारात्मक है, वह उसे पढ़कर विस्मित नहीं होने देता है । देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के साढ़े सात दशकों बाद भी विपरीत परिस्थितियों में विकास के लिए जूझते बुन्देली समाज को मुख्यधारा में अगर वह स्थान जिसका वह हकदार है मिले । ब्रिटिश शासन का काला कालखंड असंवेदनशील प्रशासनिक मशीनरीकी कलई खोलता है । 

इस कृति की एक विशेष बात यह लगी कि लेखक ने जहां 1840-42 से शुरू हुए सुराज के आजादी आन्दोलन में सभी जातियों के योगदान को खोजकर लिखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, वहीं तत्कालीन काल के विशिष्ट और समृद्ध समाज की गतिविधियों को भी भली-भांति प्रस्तुत करने में सफलता पाई है । लेखक ने ऐसे दृश्य उत्पन्न किए हैं जो उनके लेखन को और भी दृढ़ता देते हैं । 

पुस्तक का यह अंश महत्वपूर्ण है- महमूद गजनवी 1023 में ललितपुर के मार्ग से कांलिजर युद्ध करने गया । विद्याधर ने राजनैतिक कौशल के बल पर महमूद गजनवी को समझौता के लिए विवश कर दिया । महमूद गजनवी युद्ध लड़े बिना लूटपाट करता हुआ वापिस लौट रहा था, मध्यकाल में तब मुगल छोटे-छोटे राजाओं के आपसी संघर्ष का लाभ लेकर अपना राज्य कायम करने की ओर अग्रसर हो रहे थे । ऐसे ही समय देश के अन्तरदेशीय व्यापार के कुछ बिखरे सूत्र संयोग से नागा गुसाई साधुओं के हाथ आ गये । “ नागा गुसाइयों ने विधर्मी आक्रान्ताओं द्वारा धर्म स्थानों को अपवित्र करने तथा मूर्तियों को खंडित करने के कारण धर्म रक्षा हेतु अनेक युद्ध लड़े और ललितपुर में सिरसी में गढ़ी (मठ) स्थापित कर छोटी जागीरदारी तक स्थापित की थी । नागा गुसाई ऐसे ही योद्धा साधुओं के एक वर्ग से ललितपुर के गिन्नोट बाग के पास पड़ाव डाले महमूद गजनवी का संघर्ष हुआ था । गुसाई मुख्य रूप से शैव थे । वे अपने मृतकों की भूमि में समाधि के ऊपर वृक्ष लगा देते थे, कुछ स्थानों पर शिव मंदिर बनाने के भी प्रमाण मिलते हैं । गिन्नोट बाग में पांच वृक्षों की मौजूदगी इस काल खण्ड की घटना की पुष्टि करती है । 

“उत्तर प्रदेश स्वतंत्रता संगाम ललितपुर “ पुस्तक हालांकि यह कोई शोध प्रबंध नहीं है । परंतु अपने पर्याप्त विस्तार तथा दृष्टि के कारण उन लोगों के जीवन पर किए गए एक शोध से कम भी नहीं है । 

“उत्तर प्रदेश स्वतंत्रता संगाम ललितपुर “ पुस्तक की कथावस्तु के साथ ही भाषा और प्रस्तुतिकरण की सुगठता के बल पर पाठकों के मन में अपनी छाप छोड़ती है । अगर लेखक को एक बेहतरीन शब्द-शिल्पी कहा जाए तो अनुचित न होगा । आठ अध्याय में प्रस्तुत यह “उत्तर प्रदेश स्वतंत्रता संगाम ललितपुर “ पुस्तक एक अंतराल के बाद भी इसे पढ़ने में निरन्तरता टूटने का आभास नहीं होता है । लेखक आंचलिक बोली बुन्देली के शब्दों से पाठकों को एक जीवंत इतिहास की याद दिलाते है । बुन्देलों की ठसक और आन वान शान को जीवंतता से लिखा है । 

लेखक सुरेन्द्र अग्निहोत्री किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं । बुन्देलखंड गौरव तथा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के सरस्वती पुरस्कार से सम्मानित अग्निहोत्री जी के लेखन पर अन्य कई राष्ट्रीय/राज्य स्तरीय पुरस्कार मिल चुके हैं । वह पत्रकारिता कहानी, लघुकथा, नाटक, और आलोचना विधा में एक अच्छी पहचान रखते हैं । उनकी रचनाओं के अंग्रेजी, मराठी, उड़िया भाषा में अनुवाद हुए हैं । 

“उत्तर प्रदेश स्वतंत्रता संग्राम ललितपुर “ पुस्तक के अंत मे आठ पृष्ठ रंगीन है जिसमें 24 महत्वपूर्ण चित्र और पत्र है । प्रस्तुतिकरण और मुद्रण स्तरीय है । 

पुस्तक: “उत्तर प्रदेश स्वतंत्रता संग्राम ललितपुर“ 

लेखक: सुरेन्द्र अग्निहोत्री / प्रकाशक: नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली / मूल्य: 550/- / पृष्ठ संख्या: 160 / समीक्षा : 

–लखनऊ, 

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एक उपयोगी शोध-प्रबन्ध: 

डॉ. हरिशंकर भारती, सहायक प्राचार्य, हिन्दी विभाग, प्रियारानी डिग्री कॉलेज, बैरगनियाँ, सीतामढ़ी, बिहार, मो.9431092621

डॉ. राकेश रंजन,  मुजफ्फरपुर, बिहार, मो. 7488392077


भीष्म साहनी का नाट्य-शिल्प: प्रेरणा एवं स्रोत

डॉ. राकेश रंजन प्रणीत ‘भीष्म 

साहनी का नाट्य-शिल्पः प्रेरणा एवं स्रोत’ एक श्रेष्ठ शोधात्मक कृति है जिसमें भीष्म साहनी के नाट्य लेखन की विषयगत विविधता और प्रयोगशीलता का रेखांकन  है । इन्होंने अपनी रचनाओं में परंपरा और इतिहास का सदुपयोग तो किया ही है, समकालीन परिस्थितियों का बहुविध चित्रण और अभिव्यंजन भी किया है । पुरातन एवं अधुनातन, भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्यावधारणाओं के बीच हिन्दी के सही नाटक के लिए, नाटक और रंगमंच के बीच संवाद कायम करने के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहे हैं । यही कारण है कि उनके नाट्य प्रयोगों से नाटक और रंगमंच का स्वाभाविक स्वरूप विकसित हुआ । 


आलोच्य शोधात्मक कृति सात अध्यायों में विभक्त है । प्रथम अध्याय ‘विषय-प्रवेश’ के अन्तर्गत हिन्दी नाटकों के विकासक्रम पर सिंहावलोकन करते हुए निष्कर्ष दिया गया है कि उसकी यात्रा के चार सौ वर्ष पूरे हो चुके हैं जिसमें प्रारंभिक ढाई सौ वर्ष सिर्फ आधार भूमि के निर्माण में ही बीत गये । वस्तुतः भारतेन्दु-पूर्व नाटकों में नाट्य-गुणों का अभाव था, नाटकों में मौलिकता के कतिपय दर्शन तो शीतलाप्रसाद त्रिपाठी के ‘जानकी मंगल’ और भारतेन्दु के नाटकों में ही हुए । भारतेन्दु ने पारसी नाटक और रंगमंच की रूढ़ियों से हटकर हिन्दी नाटक और रंगमंच में जीवन की वास्तविकता को स्थापित किया । तदन्तर प्रसाद के अभ्युदय ने उसे बौद्धिक वर्ग से जोड़ते हुए साहित्यिक वैशिष्ट्य प्रदान किया । प्रसाद ने इसे साहित्यिकता के गौरव शिखर पर स्थापित तो किया, पर रंगमंच न दे पाये । प्रसाद की अतीतोन्मुखी नाट्यवस्तु के विरोध में लक्ष्मीनारायण मिश्र ने समस्या नाटकों की सर्जना की, किन्तु प्रतिक्रियात्मक होने के कारण बहुत दिनों तक अपने सिद्धांत पर कायम न रह सके और प्रसाद के अनुगामी हो गये । 

हिन्दी नाटक और रंगमंच अपनी नवीनता और वैशिष्ट्य बनाये रखने के लिए सदैव प्रयोगशील एवं प्रयत्नशील रहा । उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, जगदीशचन्द्र माथुर, भुवनेश्वर, मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल प्रभृति नाटककारों ने इसे उसके वास्तविक स्वरूप के पास लाया । किन्तु, जीवन और दर्शन के सामंजस्य की आवश्यकता बनी रही, जिसे बहुत सीमा तक भीष्म साहनी ने अपने नाटकों में पूर्ण करने की कोशिश की । स्वयं अभिनेता होने के कारण भीष्म साहनी को रंगमंच की सीमा और सम्भावनाओं का विपुल अनुभव था, जिसका उपयोग उन्होंने नाट्य सृजन में समुचित रूप से किया है । 

द्वितीय अध्याय ‘भीष्म साहनी: व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ के अन्तर्गत उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से जुड़े विशिष्ट बिन्दुओं को प्रस्तुत करते हुए प्रतिपादित किया गया है कि वे एक सत्यान्वेषी कलाकार थे । उन्होंने जीवन की आपाधापी, विडम्बना और विसंगतियों के खिलाफ न सिर्फ आवाज उठायी, बल्कि उन्हें अपनी रचनाओं में सर्जनात्मक स्वरूप भी प्रदान किया । यही कारण है कि उनके नाटक मानव अस्मिता की खोज करते हैं । 

भीष्म साहनी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे । उन्होंने अपनी लेखनी से उपन्यास, कहानी, नाटक, जीवनी, संस्मरण जैसी विधाओं को समृद्ध किया । उनके छह मौलिक और एक अनूदित नाटक; सात उपन्यास, बारह कहानी संग्रह, दो बाल साहित्य, एक निबंध संग्रह, एक आत्मकथा और एक जीवनी साहित्य इसके प्रमाण हैं । 

भीष्म साहनी ने अपने नाटकों की कथावस्तु जहाँ पुराण, इतिहास और समसामयिक जीवन-संदर्भों से निर्मित की है, वहीं उपन्यासों और कहानियों में विभाजन के दंश, वर्तमान जीवन की विसंगति और विडम्बनाओं के चित्र अंकित हुए हैं । भीष्म साहनी का जनास्थावादी स्वर सर्वत्र मुखरित हुआ है जो प्रतिक्रियावादी शक्तियों एवं जड़तावादी शक्तियों की चूलें हिला देने में सक्षम है । 

तृतीय अध्याय ‘नाट्य अवधारणा’ में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य सिद्धांतों का सिंहावलोकन करते हुए उनके विचार-बिन्दुओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । साथ ही, यह भी प्रतिष्ठापित किया गया है कि हिन्दी के सही नाटक और रंगमंच की तलाश में भारतीय एवं पाश्चात्य-दोनों अवधारणाएँ सहायक सिद्ध हुई हैं । भीष्म साहनी की नाट्य प्रतिभा इन अवधारणाओं को आगे बढ़ाती हैं । उनके सभी नाटक नाट्यकार और रंगनिर्देशक के परस्पर सहयोग के उदाहरण हैं । उनके नाटक जनता से सीधे संवाद करते हैं, प्रेक्षक नाटक का अभिन्न अंग बनकर एकरूप हो जाते हैं । नाटककार और निर्देशक अपने-अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त हो एक मंच पर आ जाते हैं । 

चतुर्थ अध्याय ‘भीष्म साहनी के नाटकों की कथावस्तु: प्रेरणा एवं स्रोत’ के अन्तर्गत उनके छहों मौलिक नाटकों-‘हानूश’, ‘कबिरा खड़ा बजार में,’ ‘माधवी’, ‘मुआवजे’, ‘रंग दे बसन्ती चोला’ तथा ‘आलमगीर’ की कथावस्तु की प्रेरणा एवं स्रोत की क्रमशः खोजबीन तथा उनका मूल्यांकन किया गया है । इस क्रम में यह स्पष्ट हुआ है कि ‘मुआवजे’ को छोड़कर उनके शेष पाँचों नाटकों की कथावस्तु पौराणिक एवं ऐतिहासिक संदर्भों एवं घटनाओं से सम्बद्ध हैं । 

पंचम अध्याय ‘भीष्म साहनी के नाटकों में चरित्र: प्रेरणा एवं स्रोत’ विषय पर केन्द्रित है जिसके अन्तर्गत उनके नाटकों के मुख्य-मुख्य चरित्र पर क्रमशः विचार किया गया है । यह सही है कि भीष्म साहनी के नाटकों की कथावस्तु उनके चरित्र के सम्मुख गौण हैं । उनके गौण पात्र भी अपने चारित्रिक वैशिष्ट्य से अपने वर्ग या वर्ण की मानसिकता और परिस्थितियों का प्रभावकारी प्रतिनिधित्व करते हैं । उनके पात्रों का चरित्र सहज, स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक रूप से विससित हुआ है । 

षष्ठ अध्याय ‘भीष्म साहनी के नाटकों में नूतन नाट्य-शिल्प की तलाश’ है जिसके अन्तर्गत नाटककार के नाट्यशिल्प से सम्बद्ध मुख्य अवदानों एवं अवधारणाओं यथा-रंगमंचीयता, वस्तुविन्यास, इतिहास का मिथकीय प्रयोग, लोकनाट्य शैली, संवाद योजना, नाट्यभाषा इत्यादि को रेखांकित और विश्लेषित किया गया है । 

भीष्म साहनी के नाटकों में नाटक और रंगमंच अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि नाटकों में ही रंगमंच की सत्ता समाहित है । नाटक और रंगमंच यहाँ एकाकार हो गये हैं । 

भीष्म साहनी के नाटकों में वस्तु-विन्यास विविधतापूर्ण है । यहाँ नये-नये प्रयोग किये गये हैं । दन्तकथा, पुराण, इतिहास, समकालीन परिवेश और परिस्थितियाँ सभी मिलकर कथावस्तु को निर्मित करते हैं । उत्पाद्य तो केवल ‘मुआवजे’ की कथावस्तु ही है, शेष तो प्रख्यात ही हैं, किन्तु वे भी वर्तमान जीवन संदर्भों को ध्वनित करती हैं । 

लोकनाट्य शैली का प्रयोग कर साहनीजी ने अपने नाटकों विशेषकर ‘हानूश’, ‘कबिरा खड़ा बजार में’ तथा ‘माधवी’ को सहज संवेद्य और चित्ताकर्षक बनाया है । 

भीष्म साहनी के नाटकों में दीर्घ और संक्षिप्त-दोनों तरह के संवाद प्रयुक्त हुए हैं । संवादों की भाषा पात्रोचित और विषयानुकूल है । वाक्यों का गठन सरल-सहज है, जटिलता प्रायः नहीं है । इसलिए नाटक में पात्रों से प्रेक्षकीय संवाद स्थापित हो सका है । 

भीष्म साहनी कुशल शब्द शिल्पी हैं । इनकी नाट्यभाषा विशिष्ट है और शब्दों में निहित अर्थों की नयी-नयी संभावनाओं को उद्भासित करने की शक्ति भी है । 

सप्तम अध्याय ‘समाहार’ है जिसमें उपर्युक्त सभी अध्यायों के तथ्यों का निरूपण किया गया है । 

निष्कर्षतः आलोच्य ग्रंथ नाटककार भीष्म साहनी के नाटकों और नाट्य प्रयोगों को समझने में मील का पत्थर साबित होगा । डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह के शब्दों में-‘‘युवा अनुसंधाता डॉ. राकेश रंजन ने नाटकों की प्रेरणा एवं स्रोत का अध्ययन कर एक बड़े अभाव की पूर्ति की है । भीष्म साहनी के अध्येताओं के लिए यह एक उपयोगी ग्रंथ है । ’’

पुस्तक का नाम-भीष्म साहनी का नाट्य-शिल्पः प्रेरणा एवं स्रोत (शोध-प्रबन्ध)

लेखक-डॉ. राकेश रंजन, एक उपयोगी शोध-प्रबन्धः

प्रकाशक-जागृति संस्थान, प्रकाशन प्रभाग मुजफ्फरपुर, बिहार

मूल्य-750/- रूपये, पृष्ठ संख्या-255

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समीक्षा


 डॉ. पिंकी कुमारी, सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, आर. एम. कॉलेज, सहरसा, (बी. एन. मंडल वि.वि. मधेपुरा), ईमेलः drpinkihindi@gmail.com, मो.-9117471425

डॉ. राकेश रंजन,  मुजफ्फरपुर, बिहार, मो. 7488392077


भूमिका: एक नयी साहित्यिक विधा की अधिकारिणी

‘भूमिका और डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह की भूमिकाएँ’ डॉ. राकेश रंजन द्वारा संपादित एक विशिष्ट कृति है जिसमें भूमिका लेखन के सिद्धांत को स्थापित करते हुए कहा गया है कि किसी भी पुस्तक की भूमिका उसकी विशिष्टता को सरसरी तौर पर दर्शाती है । साथ ही, वर्ण्य-वस्तु और पाठक के बीच संवाद स्थापित करने के कारण पुस्तक में इसका अतीव महत्त्व है । भूमिका पुस्तक का दर्पण होती है, उसका सिंहावलोकन होती है । अतः भूमिका का महत्त्व स्वयंसिद्ध है । आलोच्य पुस्तक में डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह की कतिपय पुस्तकों की भूमिकाओं को विभिन्न प्रकार की भूमिकाओं के उदाहरण के रूप में संकलित भी किया गया है जो इसके महत्त्व को उत्कृष्ट बनाता है । 

हिन्दी साहित्य में भूमिका लेखन की परंपरा प्राचीन है, लेकिन अर्वाचीन काल में भी उसके स्वरूप, विवेचन, मूल्यांकन और अनुसंधान की दिशा में स्वतंत्र रूप से प्रयत्न नहीं किये गये हैं । यही कारण है कि भूमिका लेखन का कोई मानक स्वरूप निर्मित न हो सका जिसके कारण उसे एक स्वतंत्र विधा के रूप में पहचान नहीं मिल सकी है । इस दिशा में डॉ. राकेश रंजन द्वारा संपादित ‘भूमिका और डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह की भूमिकाएँ’ एक प्रथम प्रयास है जो भूमिका लेखन को मजबूत आधार प्रदान करने में सक्षम है । भूमिका लेखन के साधन, स्वरूप, स्रोत, विश्लेषण एवं मूल्यांकन पद्धति तथा अन्यान्य अंग-उपांगों पर विचार-विमर्श की अपेक्षा है । ऐसा करके ही हम इसे एक नयी विधा के रूप में पहचान दिला पाने में समर्थ होंगे । 

कुशल संपादक डॉ. राकेश रंजन ने प्रस्तुत पुस्तक में भूमिका की महत्ता, स्वरूप विश्लेषण और भेदों की विशद चर्चा करते हुए उसकी संपुष्टि के लिए पंत, प्रसाद, बेनीपुरी, पंडित बलदेव उपाध्याय, रामचन्द्र शुक्ल, दिनकर, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि की भूमिकाओं का उदाहरण दिया है तथा उसी परंपरा में कवि, नाटककार, नाट्यालोचक, संपादक, समीक्षक डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह की कुछ महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं को संकलित-संपादित कर उन्हें पुस्तकाकार रूप दिया है । 

डॉ. राकेश रंजन ने भूमिका के महत्त्व को प्रतिपादित करने के क्रम में यह माना है कि मंगलाचरण से भूमिका का उद्भव हुआ है जो प्रस्तावना, विषय-प्रवेश, आमुख, मुखबंद, तमहीद, उपोद्घात, प्राक्कथन, पुरोवाक्, पृष्ठभूमि, उपक्रम, निवेदन, दो शब्द, अपनी बात इत्यादि कई नामों से प्रचलन में है । तदन्तर इसके आकार, प्रकार, स्वरूप और उद्देश्य में परिवर्तन-परिवर्र्द्धन-संवर्द्धन होते गये और आज वह एक स्वतंत्र साहित्यिक विधा की अधिकारिणी बन गयी है । लेखक का आग्रह है कि इसे एक विधा के रूप में इसकी सशक्त परंपरा को देखते हुए मान्यता मिलनी चाहिए तथा इसके संरक्षण, संवर्द्धन तथा मूल्यांकन की दिशा में प्रयत्नशील होना चाहिए । 

डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह की भूमिकाओं में परंपरा और आधुनिकता का, लोक और वेद का, कथ्य और शिल्प का, प्रेरणा एवं स्रोत का, हृदय और मस्तिष्क का अद्भुत सामंजस्य है । उनमें जहाँ मर्मस्पर्शी भावुकता है, वहीं चिन्तन की गहराई है । शोध और समीक्षा की तत्त्वदर्शी दृष्टि है । 

हिन्दी साहित्य की भूमिकाओं को निम्नांकित वर्गों में विभाजित करने का प्रयास किया गया है-(i) भावात्मक एवं चिंतनपरक, (ii) समीक्षात्मक, (iii) शोध समीक्षात्मक, (iv) परिचयात्मक, (v) सूचनात्मक, (vi) प्रोत्साहनपरक एवं (vii) संस्मरणात्मक भूमिकाएँ । 

प्रस्तुत पुस्तक में कुल आठ उपवर्ग हैं । प्रथम उपवर्ग में ‘भूमिका लेखनः एक साहित्यिक विधा’ है जिसमें भूमिका के महत्त्व, स्वरूप और उसके प्रकार का विश्लेषण है । द्वितीय उपवर्ग में ‘भावात्मक एवं चिन्तनपरक भूमिकाएँ’ हैं । तृतीय उपवर्ग में ‘समीक्षात्मक भूमिकाएँ’ हैं । चतुर्थ उपवर्ग में ‘शोध समीक्षात्मक भूमिकाएँ’ हैं । पंचम उपवर्ग में ‘परिचयात्मक भूमिकाएँ’ हैं । षष्ठ उपवर्ग में ‘प्रोत्साहनपरक भूमिकाएँ’ हैं । अष्टम उपवर्ग में ‘संस्मरणात्मक भूमिकाएँ’ हैं । इन सभी उपवर्गों के अन्तर्गत डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह द्वारा लिखित भूमिकाओं के कई-कई उदाहरण दिये गये हैं जो संपादक को अपनी मान्यताओं को सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण आधार देते हैं । 

कुल मिलाकर यह पुस्तक भूमिका लेखन की दिशा में एक सार्थक और आवश्यक प्रयास है । ‘भूमिका लेखन का इतिहास’ इस पुस्तक में होता तो इसका महत्त्व और बढ़ जाता । इसके बावजूद संपादक का प्रयास साधुवाद का अधिकारी है । कथाकार एवं आलोचक चितरंजन भारती के शब्दों में-

‘‘प्रस्तुत पुस्तक का ऐतिहासिक महत्त्व है ही और साहित्यिक-सांस्कृतिक संदर्भ भी है । यह पुस्तक हिन्दी में भूमिका लेखन की परंपरा में शोध की संभावनाओं का नया द्वार खोलती है । ’’(पुस्तक के फ्लैप से)

पुस्तक का नाम-भूमिका और डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह की भूमिकाएँ (भूमिका-संग्रह)

सम्पादक-डॉ. राकेश रंजन, प्रकाशक-जागृति संस्थान, प्रकाशन प्रभाग मुजफ्फरपुर, बिहार,

मूल्य-400/- रूपये, पृष्ठ संख्या-144 

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आलेख

श्री अजित कुमार राय, कन्नौज, उत्तर प्रदेश, मो. 9839611435

परम्परा में प्रगति की टंकार : राम.....

त्याग, ग्रहण और उपेक्षा के संश्लिष्ट विवेक ; शक्ति, शील और सौन्दर्य के समुच्चय तथा आसुरी शक्तियों के अत्याचार और उत्पीड़न के विरुद्ध धनुष - बाण उठाने वाले राम धर्म के मूर्तिमान स्वरूप हैं...

रामो विग्रहवान् धर्म: ।

राम और कृष्ण भारतीय मानसिकता के अक्षांश और देशान्तर हैं । जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों में राम व्याप्त हैं । यहाँ तक कि धिक्कार के लिए भी "राम - राम! " पदावली का प्रयोग दर्शाता है कि सामूहिक अवचेतन में राम कितने गहरे रमे हुए हैं । काल का कोदंड धारण करने वाले राम का कालजयी व्यक्तित्व ऋषियों के व्यापक संहार से पीड़ित होकर प्रतिज्ञा करता है...

निसिचर हीन करउँ महि, भुज उठाइ पन कीन्ह ।

राम नवनीत की तरह अपने परिताप से नहीं, दूसरे के संताप से द्रवित होते हैं । दूसरों को अकारण संताप बांटने के कायल वे नहीं हैं । किन्तु आज राम को हमारी अंतश्चेतना से निर्वासित करके मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया गया है । राम का स्वभाव है आनन्द या प्रसाद बांटना...

जो आनन्द सिंधु सुख रासी ।

किन्तु लोकमत और वेदमत का सम्मान करने वाले राम के अनुयायी आज राष्ट्र गान से "जन गण मन" को हटा कर अपने मन को प्रत्यारोपित कर चुके हैं । हे मध्यवर्ती राम! जड़ता के इस महाधनुष को तोड़ना होगा । अन्यथा रामलीलाएं बचेंगी और राम अंतर्धान हो जाएंगे । मर्यादा के उच्चतम मानदंड और सम्बन्धों के सेतुबंध हैं राम । वृहत्तर अर्थों में परिवार नामक संस्था यदि विश्व को भारत की देन है तो एक पत्नी व्रत भारतीय संस्कृति को राम की देन है । राम चाहते तो सोने की लंका में बस जाते या उसे अपना उपनिवेश बना लेते । अथवा अनेक सुन्दरियों को वहाँ से उठा लाते । लेकिन तब राम राम नहीं होते । वे तो वैदेही के विश्लेष में विदेह हो चुके हैं...

हे खग मृग! हे मधुकर श्रेनी । तुम देखी सीता मृगनैनी ।

और खग मृग ( जटायु और सुग्रीव) ने ही सीता का पता बताया । आर्य और अनार्य संस्कृति के बीच अनूठा सेतु बंध! परंपरा की गहरी स्वीकृति के भीतर से ही उसके अतिक्रमण की क्रान्तिदर्शिता या अग्रगामिता का नाम है राम । वर्णाश्रम व्यवस्था के कठोर बंधन के बीच निषादराज को गले लगाना और शबरी के जूठे बेर खाना असाधारण घटना है । किन्तु आज के निषाद राम को गले लगा नहीं पाते । और सोने की लंका फैलती जा रही है हमारे भीतर । राम के स्निग्ध स्वभाव से सारे प्राणी अभिभूत थे और सांप - बिच्छू दंशन का स्वभाव छोड़ दिया करते थे...

जिन्हहिं निरखि मग सांपिनि बीछी । तजहिं बिषम विष तामस तीखी.

और मग तो मर्यादा से जगमग है...

सीय राम पद अंक बराए । लखनु चलहिं मगु दाहिन लाए ।

राम ने ऐसा दक्षिणावर्त शंख फूंका है कि सीता और लक्ष्मण उनके पदचिह्न पर भी पैर नहीं रख सकते । रावण यदि मनुष्य को पशु ( मारीच) बना देता है तो राम पशु को मनुष्य बना देते हैं...

अंगदादि मारुत सुत बीरा । धरें मनोहर मनुज सरीरा ।

राम तो रावण के यहाँ भी अंगद को शान्ति दूत बनाकर भेंजते हैं । किन्तु जब युद्ध अपरिहार्य हो गया तो महाविनाश की विभीषिका का नर्तन भी दिखा । शायद वह पहला विश्व युद्ध था । जहाँ एक गिद्ध जैसा आमिषभोगी पक्षी भी एक नारी अस्मिता की रक्षा के लिए रावण जैसे विश्व विजेता को चुनौती देता है और रावण जैसा प्रतिनायक भी सीता को महीनों अशोक वाटिका में सुरक्षित रखता है, वहाँ गैंगरेप जैसी टर्मिनालाजी का डी. एन. ए. टेस्ट करने की जरूरत  है । लिटमस टेस्ट इस बात का भी होना चाहिए कि हम राम से कितने दूर हो गए हैं! राजा राम कहते हैं कि

जौं अनीति कछु भाखौं भाई । तौ मोहिं बरजेहु भय बिसराई.

आज तथाकथित लोकतंत्र के पहरुआ अपनी आलोचना के प्रति बधिर, असहिष्णु और आक्रामक हो गए हैं । हनुमान जी कहते हैं कि रावण में भी राम की ही शक्ति निहित है और वाराह में भी वही अवतीर्ण हो रहा है । फिर ब्राह्मण और शूद्र में भेद क्यों? हिन्दू और मुसलमान में दुर्भावना और अन्तराल क्यों?

करे रौशन जो मस्जिद के भी गुंबद को,

दिया ऐसा शिवालों में जलाएं हम.

खुदा के साथ ईश्वर हो नमाजों में,

कोई ऐसा नया मजहब चलाएं हम.

मीर, गालिब, जायसी और रसखान को आत्मसात करके ही भारतीय संस्कृति पूर्ण होती है । ताजमहल के बिना भारतीय स्थापत्य अधूरा है । किन्तु औरंगजेबों का इकबाल हम नहीं कर सकते । और यह भी तथ्य है कि हिन्दू धर्म जिन्दा है तभी सह अस्तित्व सम्भव है । अन्यथा तो शेष काफिर हैं । बुद्ध ने तलवार के बल पर धर्म चक्र प्रवर्तन कभी नहीं किया । सत्य और अहिंसा यहाँ परम धर्म के रूप में स्वीकृत हैं । बुद्ध तो अंगुलिमाल को नहीं, उसके भीतर की बर्बरता को मार देते हैं । इसलिए वे राम के विकसित अवतार हैं और फिर राम भी पातकी विप्र को अबध्य नहीं मानते । विडम्बना यह है कि हमारे आठ - आठ हाथों में आयुध हैं और फिर भी हम हारते रहे और सहस्राब्दियों तक पराधीन रहे किन्तु तुलसी दास जैसे लोकनायकों के कारण सांस्कृतिक स्वाधीनता अक्षुण्ण रही । और जिस धर्म का मसीहा सेवा और अहिंसा का उपासक था, उस क्रिश्चियन धर्म ने देशों की अस्मिता को धर्षित किया । राम लोकतंत्र के प्रवर्तक थे । जनता की परोक्ष भावना का सम्मान करते हुए अपनी प्राणवल्लभा का परित्याग कर देते हैं । एक ओर यह आदर्श आचरण का प्रतिमान है तो दूसरी दृष्टि से निर्दोष नारी के उत्पीड़न का महापाप भी है । हर महान मिथक या चरित्र में अन्तर्विरोध का समाहार होता है । राम के कीर्तन के बजाय उनके चरित्र की उपासना होनी चाहिए । राम सभ्यता - विमर्श के उद्गम हैं.

अजित कुमार राय, कन्नौज


'मराल' का नीर - क्षीर विवेक...

कुबेर नाथ राय ने दक्षिणावर्त शंख फूंका है जो सनातन भारतीय वामधारा को भी अपने वैचारिक अनुष्ठान में शामिल और अन्तर्भूत करके चलता है। वे "त्रेता का वृहत्साम" गाते हुए भी समकालीन "चिन्मय भारत" की खोज करते हैं। वे आर्ष मनीषा के अन्वीक्षक हैं। वे एक वृहत्तर सांस्कृतिक भारत का पुनराविष्कार या पुनर्गठन करते हैं। वे डॉ. रामविलास शर्मा की तरह अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। इसीलिए प्रोफेसर विद्यानिवास मिश्र को उनका संस्कृति का 'तलस्पर्शी संज्ञान' विस्मित करता है। उनकी वाग्मिता का अनुशीलन करते हुए सबसे पहले ध्यान उनकी भाषिक संस्कृति और शीर्षकों पर जाता है... रस आखेटक, प्रिया नीलकंठी, पर्णमुकुट, गंधमादन, त्रेता का वृहत्साम, निषाद बांसुरी, किरात नदी में चन्द्र मधु, विषाद योग, दृष्टि - अभिसार, मनपवन की नौका, महाकवि की तर्जनी.. । जो बरजती रहती है अवघट - घाट पर जाने से। जो हर क्रौंच - वध पर व्याध को शापित करती है। यह तो सूचक - वृत्त है। आज के बौद्धिक व्याधों ने मायामृग के सहयोग से सीता का मृगया कर राम को सीता से अलग कर दिया है। स्त्री विमर्श ने पति - पत्नी के द्वंद्व समास पर बीचों बीच आघात करके समास को तोड़ दिया है, केवल द्वंद्व शेष रह गया है। शेषशायी विष्णु क्या करें? समष्टि - चित्त के क्षीरसागर में मन के सहस्र फणों पर अधिष्ठित परम चैतन्य आज चिन्ता मग्न है। कलि तो कलह की अधिष्ठान - भूमि है। रस को बूंद बूंद स्रवित करके श्रावण कैसे उपस्थित किया जाए? यहाँ तो रस का भी आखेट करना पड़ता है। वह दलित द्राक्षा की भांति जीभ की मुट्ठी में आने वाला नहीं। आज तो काव्य से रस निर्वासित हो चुका है। इसीलिए विश्व नाथ त्रिपाठी को कुबेर नाथ राय का विषाद योग "विषाद रोग" प्रतीत होता है। ज्वर - पीड़ित व्यक्ति का स्वाद चला जाता है। विचार धारा के बुखार से आक्रान्त व्यक्ति अपनी देसी संस्कृति को अजनबी की तरह देखता है और अपनी मातृभाषा के साथ व्यभिचार करता है। ऐसे असंख्य शब्द - स्वैराचारी आज बरसाती मेढकों की तरह टर्र - टर्र कर रहे हैं। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बावजूद सम्राट अशोक वार्धक्य में भी मयूर का मांस खाना नहीं छोड़ सका और न ही तिष्यरक्षिता की कटि मेखला के मादक संस्पर्श से स्वयं को वंचित कर पाया। आज के साहित्य सम्राटों का सामिष चिन्तन और पर्दे के पीछे का स्त्री विमर्श काव्य में क्रांतिकारी परिवर्तन उपस्थित कर दिया है। साहित्य के ये नेता वस्तुतः बदलाव की नहीं, बदले की राजनीति से ग्रस्त हैं। पृथक् वैचारिकी के प्रति ये असहिष्णु हैं। सच पूछें तो ये साहित्य के नेता नहीं, चालू राजनीति के चारण हैं। अब तो दक्षिण पंथी राजनीति ने भी अपने नये चारण पैदा करने शुरू कर दिए हैं। दो पाटों के बीच पिस कर सबसे अधिक दुर्गति 'धर्मनिरपेक्षता' की हुई है। सर्वधर्म समभाव की भावना से निर्मित इस संवैधानिक पद के दूरारूढ़ आशय धर्म - निषेध या इस्लाम - सापेक्षता के रूप में ग्रहण किए गए। हिन्दुत्व - विरोधी इस अन्तर्निहित मंतव्य को भाजपा ने खूब भुनाया। अब गांधी किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। उन्हें बार बार गोली मारी जाती है। राजनीति के लिए घृणा इतनी सरस और जायकेदार है कि वो अपना सारा नीति शास्त्र और जीवन - दर्शन इसी पर आधृत किए हुए है। ईश्वर ने जो शस्य और मधु दान किया है उसे भी ये बलात्कारी मुद्रा में ही भोगते हैं और जातिवाद के लौह कवच से बाहर आकर ये मल मूत्र तक नहीं त्यागते।

"देह - वृन्दावन में वंशीधुन" शीर्षक निबन्ध में धर्मनिरपेक्ष मानववाद के विषय में कुबेर नाथ राय कहते हैं कि यह गौतम बुद्ध, कार्ल मार्क्स या जवाहरलाल नेहरू के सन्दर्भ में एक यथार्थ हो सकता है। जिनका बोध इतना विकसित है कि धर्म और ईश्वर की अपेक्षा के बिना ही सारे मानवीय मूल्यों की क्षमता उनके पास आ गई है। सत्य, अहिंसा, करुणा, मैत्री, परोपकार, सेवा, विनय, सात्विक चेतना और सहिष्णुता जैसे जीवन - मूल्य ईश्वर से जुड़े बिना समाज के चरित्र का स्थायी अंग नहीं बन सकते। परम सत्ता से संलग्न हुए बिना वे वैकल्पिक ही बने रहेंगे और अनिवार्य करण या वरण के बिना उनमें दृढ़ता नहीं आएगी। वे मूल्य हमारा रक्षा - कवच बनने में असमर्थ रहेंगे। जिस द्रव्य में भगवान् का तुलसी दल नहीं पड़ा है, वह किसी भी क्षण राजनीति द्वारा शैतान के डिनर - टेबल पर भी सजाया जा सकता है। यह ईश्वर ही है जो हमारे हाथ को पकड़ कर फिसलने से रोकता और बचाता है। समू भागवत यान पर चढ़कर ही भवसागर को पार कर पाता है। यह अलग बात है कि आसाराम और राम रहीम ईश्वर का हाथ पकड़ कर ही फिसल जाते हैं। ये क्या जानें कि बौद्ध संन्यासी की मानसिक मुदिता या शुचि मानस की निर्विकार प्रसन्नता क्या होती है। इसीलिए शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट के शास्त्रों के द्वारा बौद्ध धर्म इस देश से विदा नहीं हुआ, भारत की आत्मा में प्रतिष्ठित हो गया। स्वयं शंकराचार्य ने अपने मायावादी वेदान्त का पुनर्गठन बौद्धों के शून्य वाद और विज्ञान वाद के तत्त्वों को ग्रहण करके किया है। तथा अपने आम्नाय का संगठन बौद्ध संघ के अनुकरण पर किया है। इस देश में अतीत के प्राणवान तत्त्वों को लेकर चलने वाले की ही चली है। वे चाहे व्यास हों या बुद्ध, महावीर हों या फिर कबीर, शंकराचार्य हों या रामानुजाचार्य, विवेकानंद हों या गांधी, छिन्नमूल को यहाँ कभी स्वीकार नहीं किया गया। किन्तु आज तो भारतीय साहित्य में मार्क्सवाद का ही शासन है, जबकि केन्द्र में दक्षिण पंथी सरकार बैठी है।

अजित कुमार राय, कन्नौज

संशय की एक रात: युद्ध का प्रत्याख्यान...

नरेश मेहता लघु मानव के विराट सन्दर्भों के रचनाकार हैं। उनका मिथकीय विवेक जीवन और जगत के बड़े प्रश्नों से जूझता है। मिथकों को समकालीन सन्दर्भों से जोड़ कर संस्कृति की ऐतिहासिक हलचलों के आधुनिक त्रास को नये सिरे से पहचानने की उद्यमिता ही नई भाषा की तलाश करती है। उन्होंने अपनी स्वतंत्र सैद्धान्तिकी गढ़ी है। कोरी समकालीनता से करोड़ों प्रकाशवर्ष दूर वे ऋतम्भरा प्रज्ञा की पराब्रह्माण्डता के अन्वेषी हैं। फोटोजेनिक चेहरों से अलग उनका कास्मिक विजन सृष्टि के भागवत स्वरूप को सश्रद्ध नमन करता है। उनकी कविता का वैष्णव व्यक्तित्व हर पाथर को प्रभु का विग्रह बना देता है और वहीं प्रभु को लोक विशिष्ट जननायक। उनके वैश्वानर का आत्मोपनिषद् जब भाषा का भोजपत्र पहन लेता है तो अतीत का सांस्कृतिक राग मनुष्यता के नये अनुष्टुप रचता है। उनकी प्रार्थनाओं को भी अपने समय में परीक्षा देनी पड़ती है कोटि कोटि जनों के बीच। उनकी तरल संवेदनीयता संस्कृति - बोध को बिम्बात्मक माध्यमों से युगान्तर तक ले जाती है। भारतीयता के विश्वजनीन दृष्टि कोण से अपने समय के विमर्श को प्रस्तुत करने और इतिहास की गतिज ऊर्जा को एक नये परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करने में वे अद्वितीय हैं। लोकोत्तर भाषा में विन्यस्त होते हुए भी उनका आर्ष चिन्तन लोक विमुख नहीं होता। उनके ज्ञानपीठ को पुरस्कृत करते हुए उनके सामाजिक शिवत्व की अवधारणा को माथे पर त्रिपुण्ड की तरह धारण किया जाना चाहिए। सृष्टि के महाभाव से एकात्मता स्थापित करने के लिए वे भाषा की पार्थिवता का परिहार करते हैं और एक नूतन काव्याध्यात्म का शिलान्यास करते हैं। उनकी दृष्टि में इतिहास सड़क से नहीं, मानवीय उदात्तता से लिखा जाना चाहिए। पृथ्वी की एक लघुतम इकाई यह मनुष्य अपनी संवेदनशीलता के विकसित परिसर में ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से आवेष्टित होकर अपनी आत्मसत्ता में महत्तम हो उठता है। इसीलिए मर्यादा - संहिता राम की छाया बन जाती है।

युद्ध की सनातन समस्या को सम्बोधित नरेश मेहता के खण्डकाव्य "संशय की एक रात" में युद्ध के प्रति वितृष्णा, हिंसा - प्रतिहिंसा का विलोपन और सहज बंधुता का विस्तार संलक्ष्य है। लोकोन्मुखी मानवीय इयत्ता का प्रति इतिहास पृथ्वी की सर्जनात्मक वृत्ति से संवलित है। सांस्कृतिक प्रज्ञा प्रेम के जिस अक्ष पर आघूर्णित है, वह युद्ध को व्यर्थ मानती है। किन्तु क्या युद्धों का इतिहास समाप्त हुआ? क्या व्यक्ति का स्फीत अहं - द्रव्य चूर्ण होकर मानवीय संवेदना की तरलता में घुल पाया? क्या व्यक्ति और लोक मनस् के युगपत् आचरण में युयुत्सा का तिरोभाव हो सका? मनुष्य का विकास युद्धोन्माद और हिंसा के माध्यम से सम्भव नहीं है। इसीलिए युद्ध का प्रतिकार करने वाले राम के लिए संग्राम एक आवेश नहीं, कर्तव्य है। समष्टि के निर्णय के पश्चात् राम के लिए युद्ध एक पारिस्थितिक अनिवार्यता बन जाता है और उनके इकाई का विलय असंख्य अंकों की महाशून्यता में हो जाता है। सेतुबंध के बाद युद्ध की पूर्वसंध्या पर राम युद्धों के प्रति संशय से भर उठते हैं और विकल्पों की तलाश में बेचैन हो उठते हैं। पाश्चात्य विद्वान् डेकार्टे ने कहा था कि " मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ। " राम के चिन्तन की दिशा यह है कि व्यक्ति गत समस्या के समाधान के लिए रक्तरंजित इतिहास का निर्माण अनुचित है...

धनुष - बाण, खड्ग और शिरस्त्राण...

मुझे ऐसी जय नहीं चाहिए,

बाणबिद्ध पाखी सा विवश

साम्राज्य नहीं चाहिए।

मानव के रक्त पर पग धरती आती

सीता भी नहीं चाहिए।

वह सीता, जिसका सिन्धु के सैकत तट पर बालुकामय भित्तिचित्र बनाने में राम की उंगलियाँ कांपने लगती हैं। वह सीता, जिसे राम अशोक वृक्ष जितनी छाया भी नहीं दे पाए और वंचक संन्यासी के पैरों में सौमित्र रेखा सर्प बनकर लिपट भी नहीं सकी। वह विदेह के प्रति उत्तर दायी हैं, यह सोचते हुए राम खुद विदेह हो जाते हैं। जल की अंधेरी गहराइयों में डूब कर राम की यात्रा लघु शंख सी बालू में गिर कर खो गई है। आकाश के असंगी उत्सव में एक भी टूटा हुआ दिनपंख नहीं है। सबके नयनों के उत्सव अमृत पुत्र राम इतिहास के हाथों बाण बनने की अपेक्षा अपने अंधेरों में यात्रा करते हुए खो जाना अधिक पसन्द करते हैं। वे युद्ध से नियति को पाने के पक्षधर नहीं हैं। लक्ष्मण दूसरी बार समुद्र - मंथन के लिए तैयार हैं और एक बार फिर अगस्त्य के आचमन की तरह सागर को सोख लेना चाहते हैं। लंका यदि ध्रुव पर भी होती तो उसे विध्वस्त करके राम के ब्रह्म लेख के रूप में उभरी राम के माथे पर चिंता की रेखाओं को मिटा देने पर आमादा हैं। ज्योति छाया के रूप में उपस्थित पिता दशरथ की प्रेतात्मा भी उन्हें आश्वस्त करती है कि कीर्ति, लक्ष्मी और वीरभोग्या वसुंधरा अनुदान में नहीं मिलते। वर्चस्वी पौरुष से इन्हें अर्जित करो। किन्तु अतीत की छाया राम का पीछा नहीं छोड़ती। वे अपरीक्षित आस्थाओं और आप्त सत्य को निष्प्रश्न तेजस् मस्तक पर तिलक की तरह धारण करने को तैयार नहीं। उनका वर्चस्वी तर्क प्रदत्त सत्य को प्रश्नांकित करके बौना बना देता है ----

यदि सारे शुभाशुभ

युद्धों से ही प्रतिपादित होने हैं,

तब वे सत्य तो नहीं ।

दो क्षणों के बीच अनन्त समय का अन्तराल बिखरा हुआ है। संशय की यह एक रात भी कालव्यापी है और अनन्त युगों पर पसर गई है। समुद्र तट के समानांतर ही राम के मन में भी एक विचार - सिन्धु लहरा रहा है। उनके राम परंपरा में प्रगति की टंकार हैं। आज रूस - यूक्रेन युद्ध और इजराइल - हमास युद्ध की पृष्ठभूमि में राम का यह चिरंतन चिन्तन कितना प्रासंगिक हो उठा है!

आज तक मैं निमित्त ही रहा

कुल के विनाश का,

लेकिन अब नहीं बनूंगा कारण

जन के विनाश का ।

किन्तु हनुमान साधारण प्रजा का प्रतिनिधित्व करते हुए युद्ध को न्याय, स्वत्व और अधिकार - अर्जन का अनिवार्य साधन मानते हैं और दसों दिशाओं की नियति बन चुके क्रूर सम्राट के अत्याचार के विरुद्ध सरयू से लेकर सागर तक अहोरात्र चलकर पीड़ित जनमानस को अवधूत भाव से चेताने के लिए राम को धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। रावण के अशोक वन की सीता उन्हें साधारण जन की अपहृत स्वतंत्रता सरीखी लगती हैं और साधारण जनों द्वारा निर्मित सेतुबंध अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष रत विश्व जनमत का साक्षी है। हनुमान अनागत युद्धों के भय से न्याय और अधिकार छोड़ देने के पक्ष में नहीं हैं। सम्भव है कि यह युद्ध अनागत युद्धों को जन्म दे और युद्ध का उत्तर युद्ध ही हो, किन्तु दक्षिण भारत के सामन्त अब किसी रावण का उपनिवेश बनकर रहने को तैयार नहीं। इसलिए यह रण साधारण जनता का व्यापक मुक्ति - अभियान है। राम सोचते हैं कि युद्ध ऐतिहासिक फेन है। इसके बाद शान्ति व्यवस्था स्थापित होगी अथवा अनेकों लंका और नये रावणों का जन्म होगा और मेरे ही बनाए सेतुबंध से आक्रान्ता नयी उपनिवेशी योजनाएँ लेकर लौटेंगे। क्या युद्धों के द्वारा ही शान्ति स्थापित किया जा सकता है? विभीषण युद्ध को मंत्रणा नहीं, एक दर्शन मानते हैं। वे अपने ही राष्ट्र के ध्वंस के प्रकल्पक होने के अनुताप से भर कर भी संग्राम का समर्थन करते हैं...

मेरे राष्ट्र की टूटी हुई

अपमानित पताकाएं

भग्न अंगों की शोभा यात्रा सी जा रही हैं।

जले और खंडित भवन

जिह्वा हीन भिखमंगे सरीखे

हाथ फैलाए खड़े हैं।

राजपथ बेहोश, ऐंठी देह से नंगे पड़े हैं।

यह आज के यूक्रेन और गाजापट्टी का चाक्षुष बिम्ब है। किन्तु उपनिवेश का विद्रोह आततायी के इतिहास तक को भस्म कर डालता है। किन्तु इस मंत्र को रावण ने पैरों से ठुकरा दिया। बहुमत वृद्ध ठंडी शिला पर गिद्ध वत बैठा हुआ है। जब हमारा नियंत्रण अपने जन्म और अवसान पर ही नहीं है तो युद्ध भी तो एक परिस्थिति जन्य अनिवार्यता है। तापस वेशी शान्ति कामी राम के भीतर कल का युद्ध आज ही संभावित हो चुका...-

मध्य रात्रि के इस निर्णय से

जाने कितने सूर्य आज ही

कल के लिए मर चुके ।

जनसमूह के सीने में इतिहास - खंग घोंप दिया गया। आत्म हनन के बजाय खड्ग से पाताल चीर कर राम ने ज्वालामुखी - समूह को जगा दिया। विचारों में जो घटित हो चुका, उसे अब भुजाओं से होना है...

अनन्त सूर्यों को

एक सम्भावना की तरह

घटित हो जाने दो ।

क्योंकि अब सूर्य वंशी राम के सम्मुख संघर्ष के निरोध की सारी संभावना समाप्त हो गई है...

मुझ पिनाक जयी ने

संशय की प्रत्यंचा को

असफल साधा था

औ उठाकर रख दिया था

अपना व्यक्ति - धनुष ।

सूर्य के जयकार सा दिन प्रस्फुटित हो गया है और राम अपने भीतर भी एक सूर्यागम का अनुभव करते हैं। पार्थिव - पूजन के उपरांत सेना प्रयाण करती है। वह पार्थिव शिव जो...

पुराकथाओं के बाघम्बर लपेटे

वह आग्नेय नेत्री रुद्र

सूर्यों पर लेटा हुआ

संहार का धूम पी रहा है और

सृष्टि का प्रकाश उगल रहा है।

इस प्रकार युद्धों के बीच मूल्यान्वेषण की तर्कशीलता इतिहास को चीरकर युग सत्य को पहचान लेती है और लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करती है। प्रत्येक व्यवस्था के पास अपने बघनख होते हैं। उन्हें घिसकर संतप्त मानवता के स्वाहात्व के लिए प्रज्ञा की दाक्षिणा प्रदान करते हुए कवि ने युयुत्सा की आदिम वृत्ति को प्रश्नांकित करके मनुष्यता के पक्ष में अपना मतदान किया है। युद्धप्रियी जैसे इस ग्रंथ में आए अनेक शब्दों के प्रति भी मैं संशयात्मा हो उठता हूँ कि यह भाषिक प्रयोग है या विचलन? नरेश मेहता जी की काव्य शक्ति और भाषिक संस्कृति उनके उत्तर काव्य 'महाप्रस्थान' में अपना निर्वाण प्राप्त करती है और प्रस्तुत काव्य उस निर्वेद मूलक खंडकाव्य की पूर्व पीठिका रचता है। मेहता जी महदाश्रयी औदात्य के ऋषि कल्पी कवि हैं। वे प्रगति से परम्परा की ओर क्षिप्रगतिक प्रस्थान करते हैं। 

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समीक्षा


डॉ. प्रोमिला अरोड़ा, सेवामुक्त प्रिंसिपल,लेखिका, अनुवादिका और समाज सेविका, 

कपुरथला, मो. 98149 58386, 

Email : promilasparora@gmail.com

डॉ. उमा त्रिलोक, चंडीगढ़, मो. 9811156310

नानी के बोल : डॉ. उमा त्रिलोक

लेखन की विधाएं और उनकी परिधि बहुत विशाल है । अक्सर लेखक एक भाषा और एक या दो विधा तक ही लेखन को सीमित रखते हैं । परंतु डॉ.उमा त्रिलोक एक ऐसी लेखिका हैं जो हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में सिद्धहस्त हैं और हिन्दी साहित्य में एक कवियित्री , उपन्यासकार, कहानीकार और संस्मरण लेखिका के रूप में अपनी पहचान बना चुकी हैं और उनकी किताबें दूसरी भाषाओं में अनूदित हो प्रकाशित हो चुकी हैं । इसके अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा में भी उपन्यासकार और कवियित्री के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा चुकी हैं । पेंगुइन बुक्स द्वारा उनकी किताबों का छपना और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा द्वारा उनकी कहानियों पर नाटक खेलना उनकी उपलब्धियां हैं । 

जहां तक उमा त्रिलोक के लेखन का सम्बन्ध है वे मानव मन की गहराई की स्याही में अपनी कलम डुबो कर प्रेम के शब्दों को संजोती हैं क्योंकि प्रेम तो उनके हृदय में रचा बसा है और जिसने अमृता इमरोज़ के मन को समझ लिया तो साधारण मानव की अनुभूतियों को समझना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं । इसी लिए तो बहुत संजीदा पेचीदा विषयों पर सुगमता से बात करते हुए बालमन में झांक लेती हैं और उसे अपने बोलों का एक नायाब तोहफा देती हैं "नानी के बोल " रच कर जो उन्होंने अपने दोहित्र रिशान को समर्पित किया है क्योंकि आम धारणा है कि मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है । यह पुस्तक उसके साथ सभी बच्चों के लिए एक उपहार है, एक जीवन संदेश है । 

नानी के बोल काव्य संग्रह 27 कविताएं हैं जो कविताओं के भावों के अनुसार अति सौम्य रंगो से सुसज्जित हैं जो बालमन को लुभाते हैं । यदि यह कहा जाए कि ये कविताएं ही नहीं अपितु जीवन के मूल मंत्र हैं जो केवल बालमन के लिए ही नहीं बल्कि प्रबुद्ध जनों के लिए भी स्मरण पत्र है कि समाज में नैतिक मूल्यों को ही से उभरने का प्रयत्न करें । 

रिशान तो अबोध बालक है जो अपनी छोटे छोटे क्रिया कलाप से परिवार को लुभाता है और नानी मां का दुलारा है तो उसे तुम यूं ही हंसते रहना का आशीर्वाद देते हुए उसे मां बाप के अथाह "प्यार" का वास्ता देकर कहती हैं: -

कस कर पकड़ा जैसे

तुम भी पकड़ना उनका हाथ

नहीं छोड़ना कभी भी हाथ

नहीं छोड़ना कभी भी साथ । 

नानी मां नन्हे बालक की अंगुली पकड़ कर उसे चांद तारे दिखाती है, उड़ते हुए बादल दिखाती है, प्रकृति के सौंदर्य से परिचय करवाती हुई रास्ता भूले बालक को घर पहुंचाने के लिए चिड़िया को दोस्त बना कर भेजती है और मुसीबत में भगवान पर भरोसा करना सिखाती है और उसे प्यार की रिवायत सिखाती हैं: -

प्यार का बदला प्यार होता है

इबादत का नाम प्यार होता है । 

उमा जी अपने नाती को स्वार्थ से ऊपर उठ कर बाबा नानक जी का जीवन दर्शन कर्म करना, बांट कर खाना और नाम जपना का संदेश बिल्कुल सरल भाषा में कथा - काव्य रच कर देती हैं जो हर बच्चे के समझ आती है । वे कितने दुलार से समझाती हैं :-

फल देती है धरती

जल देती है नदिया

देता सूरज किरण

हवा देती है श्वास

देना तो खुद ही तोहफा है

इसमें कुछ नहीं लेना । 

कितना त्याग भरा संदेश है । इसके अतिरिक्त नानी मां नाती को विनम्र रहने की सीख देते हुए सद्भावना और प्रेम की शक्ति का आभास करते हुए कृष्ण सुदामा की उदाहरण देकर दोस्ती के अर्थ बतलाती हैं और भारतीय संस्कृति के तीन ऋण देव ऋण, पितृ ऋण ,ऋषि ऋण से मां बाप, गुरु और ईश्वर के प्रति श्रद्धा,प्यार, ईमानदारी से उनके प्रति प्रेम और वफा से ऋणमुक्त हो सकते हैं । परिश्रम, साहस के साथ मृदुभाषी होने का संदेश देती हुई कहती हैं:-

शब्द संभाल कर बोलिए

शब्द के हाथ न पांव

एक शब्द औषध बने

एक लगावे घाव । 

बालक और चिड़िया अति सुंदर काल्पनिक कथा है जो ईश्वर में विश्वास जगाती है तो ऊंट और हिरण की दोस्ती संदेश देती हैं कि दोस्ती सुंदरता से नहीं मन की सुंदरता से करो । आज के बच्चों को वातावरण सुरक्षा का संदेश देना तो अति आवश्यक है बच्चो के भविष्य के लिए तो वे कहती हैं:-

गर चाहो तुम लाना

स्वच्छ हवा हरियाली

पेड़ पौधे लगाना

फैलाना मन भाती खुशहाली । 

इसी तरह कविताओं का सार और युगीन संदेश अंतिम कविता" खत "में दिया है कि बड़ा होकर बच्चा इस खत को पढ़े और जो शिक्षा दी है याद रखे और नानी की सोच को अपनाता रहे , अपनी मां के प्रति कृतज्ञ रहे जो कि आज की युवा पीढ़ी के लिए आवश्यक है । 

इस नानी के बोल काव्य संग्रह के लिए डॉ. उमा त्रिलोक जी बधाई की पात्र तो हैं ही , इसके साथ सभ्या प्रकाशन भी इस काव्य संग्रह को इतनी आकर्षक छवि देने के लिए प्रशंसा का पात्र है । सुन्दर आवरण और भीतर चित्रों की आकर्षक छटा बच्चो को खींचते हैं । इसका प्रमाण मैने काव्य संग्रह प्राप्त करने के दिन ही देख लिया था जब छ: साल का मेरा पौत्र दिव्यांश यह पुस्तक हाथ में लेकर पढ़ने लगा और उसे सब समझ भी आया तो मुझे लगा कि आज के मोबाइल युग में इस पुस्तक ने बाल हृदय को आकर्षित किया है तो डॉ. उमा त्रिलोक का प्रयास सफल हुआ है क्योंकि भाषा और विषय वस्तु नन्हे बच्चे को समझ आ रही थी । 

यह पुस्तक बाल साहित्य में एक विशेष स्थान दर्ज करेगी ऐसा मेरा अनुमान है । रिशान के जन्म दिन पर बाल साहित्य को यह अमूल्य उपहार देने पर डॉ. उमा त्रिलोक जी को हार्दिक बधाई और मंगल कामना करती हूं कि उनकी लेखनी निरंतर नया सृजन करते हुए साहित्य की बगिया महकती रहे । आमीन!



पुस्तक: नानी के बोल

ले. : डॉ. उमा त्रिलोक

सभ्या प्रकाशन । 

कीमत : 500/- रू. 

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समीक्षा

डॉ. गौरीशंकर रैणा, नोएडा, उत्तर प्रदेश, मो. 9810479810


अगस्त- 15 : (कुमारि एस. नीलकंठन के उपन्यास की समीक्षा)

अगस्त 15, हम भारतीयों के लिए एक महत्वपूर्ण दिवस है । लाखों लोगों की कुर्बानी और आत्मोत्सर्ग के बाद हमें आज़ादी नसीब हुई थी । स्वाधीनता दिवस एक शुभ-दिन है जिस की गाथा कईयों ने गाई, लाखों ने सुनाई और करोड़ों को प्रेरित कर गई । इसी गाथा को नए ढंग से उपन्यसकार कुमारि एस. नीलकंठन ने कहा है । इस उपन्यास को नीलकंठन ने मूल रूप से तमिल भाषा में लिखा जिसका हिन्दी अनुवाद डॉ. एच बालसुब्रहमण्यम ने किया है । यह पुस्तक हिन्दी जगत में खूब सराही जा रही है क्योंकि इसमें कथा कहने का ढंग अलग है । लेखक ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, गांधी जी के अहिंसा आंदोलन तथा विभिन्न घटनाओं को एक काल्पनिक पात्र के माध्यम से बलॉगस्पॉट की शैली में लिखा है । पुस्तक के आमुख में तमिल भाषा के विख्यात लेखक अशोक मित्रन लिखते है कि "सत्य कथा और काल्पनिक कथा दोनों परस्पर गूथते हुए आकर अंत में हमें एक आशाजनक संदेश दे जाते हैं ।" 

डॉ. एल बालसुब्रह्मण्यम के हिन्दी अनुवाद से पहले ही बैंगलुरू में तमिल संस्करण का लोकर्पण साहित्य अकादेमी के पूर्व अध्यक्ष डॉ चन्द्रशेखर कंबार ने किया था । अनुवादकीय में डॉ. बालसुब्रह्मण्यम लिखते हैं कि यह पुस्तक इस लिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें गांधी जी के अंतिम पाँच वर्ष उनके अंतरंग, सचिव की तरह सेवारत, कल्याणम ने बापूजी के जीवन, विचार, दैनिक कार्यकलाप तथा उनसे मिलने आने वाले व्यक्तियों के सम्बन्ध में ऐसी बातों का खुलासा किया है जो अब तक अज्ञात रही हैं । 

कुमारि एस. नीलकंठन अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए कई बार पुरस्कृत हुईं हैं तथा इस उपन्यास के लिए भी उन्हें चिन्नप्प भारती साहित्यिक कृति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है । इस से पहले इन्होंने कविता शैली में 'तिरुक्कुरल' तथा 'साम मनेकशा' रची हैं । इनका एक कहानी संग्रह 'मेरे प्रिय बाबूजी के नाम भी खूब चर्चा में रहा है । नीलकंठन ने कई फ़िल्मों के संवाद तथा पटकथाएँ भी लिखी हैं तथा आकशवाणी कें चेन्नै केन्द्र से 'युवा भारत' कार्यक्रम को सफलता पूर्वक प्रसारित किया है । 

इस उपन्यास को एक लड़की, सत्या के माध्यम से कथा बताने का बहुत अच्छा प्रयोग किया गया है । गाँधी जी के निजी सचिव रहे कल्याणम उपन्यास की रचना के दौरान 96 वर्ष के हो गए थे । उनकी धर्मपत्नी का निधन 30 वर्ष पहले हो गया था । स्वतंत्रता सेनानी के रूप में सरकार ने जो सुवधाएँ कल्याणम जी को दीं उन्हें उन्होंने स्वीकार नहीं किया बल्कि अपनी ज़मीन चाइल्ड ट्रस्ट अस्पताल को दान में दे दी । जो भी था वह प्रधान मंत्री राहत कोश, मुख्यमंत्री राहत कोश, रेड क्रॉस आदि को दान में दिया और अपने पास केवल जरूरत का कुछ सामान ही रखा, 96 वर्ष की आयु में भी वे सुबह चार बजे जागते हैं और झाड़ू लेकर खुद ही अपने घर की सफाई करते हैं । उसके बाद घर के सामने की सड़क की भी सफाई करते हैं । फिर घर के चारों तरफ लगे पौधों को पानी देकर घर में आते हैं । अंगीठी सुलगा कर अपने लिए कॉफी तैयार करते हैं । खुद ही अपना खाना बनाते हैं और खुद ही बर्तन मांज लेते हैं । अब तक उन्होंने दस करोड़ रुपये से ज्यादा दान में दिए हैं । यदि कभी दस रुपये भी मिलते हैं तो उसे किसी गरीब का पेट भरने के लिए रखते हैं । रोज़ आपको पत्रों का उत्तर अपने पुराने टाइ‌पराइटर पर टाइप कर के देते हैं । एक बार जब उनकी नाती अपना लैपटॉप लोकर उस में गूगल खोलकर उन्हें उनको फोटो गाँधीजी के साथ दिखाती हैं तो वे आश्चर्यचकित रह जाते हैं । इस समय विस्मय और प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रहती । उसी समय से उनकी कंप्यूटर के प्रति रुचि पैदा होती है । नातिन उन्हें कंप्यूटर के बारे में सब कुछ समझा देती है और उन का एक ब्लॉग 'कल्याणम, कॉम' शुरू होता है । उसी बलॉग के माध्यम से सत्या और कल्याणम जी जुड़ते हैं । हर रोज़ सत्या द्वारा लिखने वाली प्रविष्टि और फिर कल्याणम की प्रवष्टियों में एक पुल बनता है । यह पुल दोनों को जोड़ता है । सत्या लिखती है कि वह आठवीं कक्षा की छात्रा है और उन्हें अपनी सारी कथा सुनाती है । ब्लॉग के साथ और भी लोग जुड़ते हैं और इस प्रकार उपन्यास आगे बढ़ता है । कल्याणम अपने ब्लॉग के माध्यम से अपने बचपन, अपनी शिक्षा आदि के बारे में बताते हैं और यह भी बताते कि उनका जन्म भी 15 अगस्त को ही 1922 ई. में हुआ था । मैं अपने दोस्तों से कहता हूँ कि पूरा भारतवर्ष मेरा जन्मदिन मनाता है । ' इस प्रकार कल्याणम जी के गाँधी जी के साथ बिताये हुए वर्षों की कथा भी धीरे-धीरे सामने आती है । एक नई शैली में रचा गया एक अनुपम उपन्यास है:

एक संवाद उद‌हारण के तौर पर उद्धृत—

"रत्नवेल: सत्या, तुम्हारा ब्लॉग पढ़ते हुए मुझे गर्व हो रहा है । 

कल्याणमः अच्छे लोग हर वर्ग में रहते हैं । सारे ही गरीब लोग अच्छे है.... सभी अमीरों को बुरा नहीं कह सकते । सदाचार के लिए जाति, धर्म, आर्थिक स्थिति, भाषा आदि भेद नहीं है । सभी वर्गों में अच्छे लोग हैं । (पृ०-31)

ऐतिहासिक उपन्यासों की एक परम्परा रही है । कई प्रख्यात कथाओं का चित्रण इन में हुआ है तथा 'भृगनयनी, 'विराटा की पद्यमिनी 'झाँसी की रानी, 'अहिल्याबाई' 'तोड़ो कारा तोड़ो' जैसे कई उपन्यास रचे गये हैं जो अपने युगों के प्रामाणिक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं । वस्तुतः उपन्यास एक ऐसी विधा है जिसमें किसी भी प्रसंग अथवा विषय को निपुणता के साथ रूपांतरित किए जाने की क्षमता है। "अगस्त 15" 424 पृष्ठों का उपन्यास है तथा इस में भी कथा को पठन के अनुकूल बनाने हेतु ब्लॉग शैली का प्रयोग किया गया । यह एक नया अनुप्रयोग है तथा इस प्रयुक्ति के कारण उपन्यास रोचक बना है । ऐसे उपन्यासों का स्वागत है । 



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22 वाँ हेमंत स्मृति कविता सम्मान  पूनम ज़ाकिर को





सुश्री संतोष श्रीवास्तव, भोपाल (मध्य प्रदेश), मो .09769023188

सुश्री पूनम जाकिर

एक प्रेस विज्ञप्ति में पुरस्कार की घोषणा करते हुए संस्था की संस्थापक अध्यक्ष संतोष श्रीवास्तव ने कहा– हेमंत फाउंडेशन प्रोपराइटर विश्व मैत्री मंच द्वारा आयोजित वर्ष 2023 का हेमंत स्मृति कविता सम्मान युवा कवयित्री पूनम ज़ाकिर को उनके कविता संग्रह " नाच" (बोधि प्रकाशन जयपुर ) के लिए दिया जाना तय हुआ है । पुरस्कार जनवरी 2024 को भोपाल में आयोजित समारोह में प्रदान किया जाएगा । जिसके अंतर्गत पुरस्कार राशि, शॉल एवं स्मृति चिन्ह प्रदान किया जाएगा ।

अपनी संस्तुति में संस्था की संस्थापक सचिव डॉ. प्रमिला वर्मा ने बताया- इस संग्रह की कई कविताएं मन को उद्वेलित करती हैं , और उनकी संवेदना हर दृष्टि से निथर कर भाषा में विन्यस्त होती जाती हैं, और प्रत्येक कविता अपने अर्थों में एक नया संसार रचित करती  हैं।

  कुछ कविताएं जैसे उर्मिला का मौन संवाद, अनिश्चितता ,प्रेम की 4 कविताएं, पन्ना और ऐसी बहुत सी कविताएं मन के भीतर तक उतर जाती हैं और अपनी हलचल बनाए रखती हैं । हलचल में गूंज होना अनिवार्य है और पूनम की कविताएं लंबे समय तक गूंज बनाए रखने में सक्षम रहेंगी ।"

   हेमंत फाउंडेशन पिछले 21 वर्षों से साहित्य में अपनी पारदर्शिता को लेकर अलग पहचान बनाए हुए है ।

22 वां 'हेमंत स्मृति कविता सम्मान' पूनम ज़ाकिर को प्रदान करते हुए संस्था गर्व का अनुभव करती है  एवं पूनम जी को बधाई देते हुए उनके उज्जवल भविष्य की कामना करती हैं।  –प्रस्तुति, संतोष श्रीवास्तव, संस्थापक /अध्यक्ष 

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दीपोत्सव अयोध्या में होगा डॉ. राजेश श्रीवास्तव की पुस्तक रामायणदर्शनम का लोकार्पण

रामायण केंद्र भोपाल के निदेशक डॉ. राजेश श्रीवास्तव की रामायण आधारित नई पुस्तक रामायणदर्शनम का लोकार्पण दीपोत्सव अयोध्या में 11 नवंबर को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ करेंगे । वाणी प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित इस पुस्तक में 111 रामायण ग्रंथों का विवेचनात्मक एवं शोधपरक विश्लेषण किया गया है । संस्कृति विभाग उत्तर प्रदेश की परियोजना ग्लोबल इनसाइक्लोपीडिया आफ रामायण के अंतर्गत अयोध्या शोध संस्थान द्वारा इस पुस्तक को प्रकाशित कराया गया है।

डॉ. राजेश श्रीवास्तव की रामायण आधारित यह तीसरी पुस्तक है । इसके पूर्व प्रकाशित रामाअयन को मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया जा चुका है । रक्षायन के पश्चात यह पुस्तक रामायणदर्शनम अनेक नवीन जानकारियों से भरी हुई है ‌।

वैश्विक रामायण के अध्येता  डॉ. राजेश श्रीवास्तव ने देश-विदेश में प्रचलित विविध रामायणों का विशेष अध्ययन किया 

है ‌। रामकथा के विविध क्षेत्रों जैसे रामलीला, रामकथावाचन में भी उनका शोधपरक कार्य है । श्रीलंका की रामलीला का उन्होंने समन्वय किया है तथा उत्तर प्रदेश संस्कृति विभाग की परियोजना ग्लोबल इनसाइक्लोपीडिया आफ रामायण के वे राष्ट्रीय समन्वयक हैं ‌।

उनकी आने वाली पुस्तकों में राम का दण्डक प्रवास किन्नर प्रदक्षिका डायरी में रामकहानी तथा कुश रामायण महत्वपूर्ण है‌। वे वरिष्ठ कथाकार एवं कवि हैं । उनके तीन कहानी संग्रह तथा आठ आलोचनात्मक पुस्तकें भी प्रकाशित हैं । विश्व के 20 से भी अधिक देशों की यात्रा, रामायण संबंधित व्याख्यानों एवं साहित्यिक क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण योगदान है । 2018 में मॉरीशस में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में उन्हें भारत सरकार के प्रतिनिधि मंडल में सम्मिलित किया गया था । 2019 में मास्को में डॉ श्रीवास्तव को विश्व हिंदी साहित्य परिषद द्वारा रामायण भूषण सम्मान प्रदान किया गया ।

वर्ल्ड रामायण कॉन्फ्रेंस जबलपुर में 2016, 2020 तथा 2023 में वे फैकल्टी रहे हैं । राम महोत्सव  मांडू, हनुमान महोत्सव हम्पी कर्नाटक के संयोजक तथा राम महोत्सव ओरछा के आप सहसंयोजक रहे हैं ।

आने वाले दिनों में वे मध्य प्रदेश के दण्डक क्षेत्र की यात्रा करने वाले हैं ।

मूलतः हिन्दी विषय के प्राध्यापक डॉ. राजेश श्रीवास्तव इन दिनों म. प्र. शासन के तीर्थस्थान एवं मेला प्राधिकरण में मुख्य कार्यपालन अधिकारी के रूप में पदस्थ हैं।

रामायणदर्शनम पुस्तक के प्रकाशन पर उनके समस्त मित्रों ने उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित की हैं ।


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उर्दू लेखक डॉ. केवल धीर को मिलेगा राष्ट्रीय गालिब अवार्ड

साहित्य के क्षेत्रों में यह ख़बर गर्व के साथ सुनी जायेगी कि पंजाब के उर्दू भाषा के शिरोमणि साहित्यकार डॉ. केवल धीर को बर्ष 2023 के लिए राष्ट्रीय गालिब अवार्ड से सम्मानित किया जा रहा है । यह घोषणा गत दिवस दिल्ली में सम्पन्न गालिब इन्स्टीट्यूट की गवर्निंग काउंसिल की मीटिंग में की गई । उर्दू, हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा में सौ से भी अधिक पुस्तकें लिख कर विश्व भर में नाम कमाने वाले डॉ. केवल धीर फगवाड़ा के स्वर्गीय डॉ. हंस राज धीर के सुपुत्र हैं। उन्हें विश्व के अनेक देशों में उनके कार्यों के लिए सम्मानित किया जा चुका है। वे आजकल  लुधियाना में रह रहे हैं।

भारत के अनेकों राज्यों की साहित्यिक अकादमियों द्वारा श्रेष्ठ सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है । पंजाब के भाषा विभाग द्वारा दिए गए श्रेष्ठ साहित्यिक अवार्ड शिरोमणि साहित्यकार प्राप्त डॉ. केवल धीर को पिछले महीने उनकी लिखी पुस्तक मैं लाहौर हूं पर ज्ञानी ज्ञान सिंह पुरस्कार दिया गया है । इनके छोटे भाई प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. जवाहर धीर ने बताया कि डॉ. केवल धीर को यह पुरस्कार आगामी 22 दिसम्बर को ग़ालिब अकादमी इन्स्टीट्यूट में प्रदान किया जाएगा ।

दोआबा साहित्य एवं कला अकादमी के संरक्षक ठाकुर दास चावला तथा प्रि. कैलाश भारद्वाज, अध्यक्ष डॉ. जवाहर धीर,लेखक रविन्द्र सिंह चोट,राजेश अध्याय दिलीप पांडेय, मनोज फगवाड़वी, हरचरन भारती व अन्य सदस्यों के अलावा सीनियर सिटीजन कौंसिल ने डॉ. धीर को बधाई देते हुए कहा है कि यह गौरव की बात है कि फगवाड़ा के सपूत ने इतनी ऊंचाई हासिल की है तथा फगवाड़ा का नाम रौशन किया है ।

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साहित्य अकादेमी बाल साहित्य पुरस्कार 2023 अर्पण समारोह

9-10 नवंबर 2023, नई दिल्ली, आदरणीय महोदय/महोदया, आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि साहित्य अकादेमी द्वारा प्रतिवर्ष दिए जाने वाले प्रतिष्ठित बाल साहित्य पुरस्कार 2023, बृहस्पतिवार (9 नवंबर 2023) को सायं 5.00 बजे तानसेन मार्ग स्थित त्रिवेणी सभागार में आयोजित हो रहे एक भव्य समारोह में प्रदान किए जाएँगे। साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष माधव कौशिक पुरस्कार प्रदान करेंगेे। पुरस्कार समारोह के मुख्य अतिथि प्रख्यात अंग्रेज़ी लेखक और विद्वान हरीश त्रिवेदी होंगे तथा साहित्य अकादेमी की उपाध्यक्ष कुमुद शर्मा समापन वक्तव्य देंगी।

बाल साहित्य पुरस्कार 2023 प्राप्त करने वाले लेखक हैं - रथींद्रनाथ गोस्वामी (असमिया), श्यामलकांति दाश (बाङ्ला), प्रतिमा नंदी नार्जारी (बोडो), बलवान सिंह जमोड़िया (डोगरी), सुधा मूर्ति (अंग्रेज़ी), रक्षाबहेन प्र. दवे (गुजराती), सूर्यनाथ सिंह (हिंदी), विजयश्री हालाडि (कन्नड), तुकाराम रामा शेट (कोंकणी), अक्षय आनंद ‘सन्नी’ (मैथिली), प्रिया ए.एस.  (मलयाळम्), दिलीप नाङ्माथम (मणिपुरी), एकनाथ अव्हाड (मराठी), मधुसूदन बिष्ट (नेपाली), जुगल किशोर षडंगी (ओड़िआ), गुरमीत कड़िआलवी (पंजाबी), किरण बादल (राजस्थानी), राधावल्लभ त्रिपाठी (संस्कृत), मानसिंह माझी (संताली), ढोलन राही (सिंधी), के. उदयशंकर (तमिऴ), डी.के. चादुवुल बाबु (तेलुगु) और स्व. मतीन अचलपुरी (उर्दू)।

10 नवंबर 2023 को पुरस्कृत बाल साहित्यकारों के साथ ‘लेखक सम्मिलन’ का आयोजन साहित्य अकादेमी के प्रथम तल स्थित सभागार में किया जा रहा है। इसमें पुरस्कार विजेता अपने स्वीकृति वक्तव्य तथा रचनात्मक लेखन के अनुभवों को साझा करेंगे। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता साहित्य अकादेमी की उपाध्यक्ष कुमुद शर्मा करेंगी।

इस महत्त्वपूर्ण समारोह पर अगर आप स्वयं उपस्थित होंगे तो हमें प्रसन्नता होगी। यदि यह संभव न हो तो कृपया इसकी उचित कवरेज हेतु अपने संवाददाता/कैमरामैन को नियुक्त करने का अनुग्रह करें।

समारोह का विस्तृत कार्ड इस पत्र के साथ संलग्न है। 

–अजय कुमार शर्मा, सह संपादक साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, मो. 9868228620

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"वैखरी" द्वारा आयोजित 'गोवर्धन लाल चौमाल स्मृति कहानी प्रतियोगिता' का परिणाम घोषित

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अभिनव इमरोज़ एवं साहित्य  नंदिनी परिवार की ओर से सभी कहानीकारों का हार्दिक अभिनन्दन एवं बधाई!

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साहित्यिक एवं सांस्कृतिक नवोन्मेष हेतु गठित संस्था वैखरी द्वारा आयोजित "गोवर्धन लाल चौमाल स्मृति कहानी प्रतियोगिता– 2023" का परिणाम आज घोषित किया  गया । संस्था की सचिव इंजी. आशा शर्मा ने बताया कि अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित की गई इस प्रतियोगिता में देश–विदेश से लगभग अस्सी कहानी संग्रह प्राप्त हुए । प्राप्त कहानी संग्रहों का तीन चरणों में मूल्यांकन करवाया गया । अंतिम चरण के मूल्यांकन के पश्चात प्राप्त परिणामों के अनुसार ग्रेटर नोएडा की कहानीकार 'डॉ. रेणु यादव की कृति काला सोना को प्रथम पुरस्कार' के योग्य पाया गया. 'दूसरा स्थान देहरादून के कहानीकार शूरवीर रावत को उनकी कृति "रुकी हुई नदी" के लिए दिया गया । तीसरे स्थान पर 'रांची के नीरज नीर कृति "ढुकनी एवं अन्य कहानियां" के लिए चुने गए ।

संस्था द्वारा 25 दिसंबर को बीकानेर में आयोजित किए जाने वाले समारोह में प्रथम पुरस्कार स्वरूप 11 हजार रुपए नगद, द्वितीय पुरस्कार हेतु 2100 रुपए मूल्य समरूप साहित्य एवं तृतीय पुरस्कार विजेता को 1100 रुपए समरूप साहित्य भेंट किया जाएगा ।

शीर्ष दस स्थानों पर रही पुस्तकों का वरीयता क्रम इस प्रकार रहा-

  1. डॉ. रेनू यादव, नोएडा
  2. शूरवीर रावत, देहरादून
  3. नीरज नीर, रांची
  4. राज नारायण बोहरे, दतिया
  5. माधव नागदा, लालमादड़ी एवं अंतरा करवड़े, इंदौर
  6. अरुण अर्णव खरे, भोपाल एवं प्रगति गुप्ता, जोधपुर
  7. विनीता बाड़मेरा, अजमेर एवं रजनी गुप्त, लखनऊ
  8. आशा पांडे, अमरावती एवं अमित कुमार मल्ल, देवरिया
  9. धर्मेंद्र कुमार सैनी, 
  10. दिव्या शर्मा, गुड़गांव एवं हंसा बिश्नोई, जोधपुर

सभी को 'वैखरी परिवार' की ओर से बधाई

अभिनव इमरोज़ से जुड़ी स्थापित लेखिकाएँ













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