Sahitya Nandini November 2023




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 आलोचनात्मक लेख


ले. अजित कुमार राय, कन्नौज, मो.9839611435


नवगीतः शिल्प और अन्तर्वस्तु की नवता

कविता अन्ततः एक कला है जो जीवन को सम्बोधित है । वह एक संवेदनात्मक सत्याग्रह है । कविता भावों का निवेश है, विचारों का उपनिवेश नहीं । कविता भावों का साधारणीकरण है, उदारीकरण नहीं । नई कविता में यदि नया युगबोध साँस लेता है तो नवगीत नूतन संवेदना की स्वरलिपि है । गीत कविता की कोमलतम त्वचा है और नवगीत कविता की जीवनरेखा है । आज जहाँ समकालीन कविता में काव्यार्थ की सान्द्रता और कलात्मकता का क्षरण होता जा रहा है, भाव - संयम और संवेदना की सघनतम अभिव्यक्ति की दृष्टि से नवगीत एक बहुत बड़ी आश्वस्ति है । डा. रामदरश मिश्र कहते हैं कि नवगीत हमारे सम्पूर्ण समय को समेटने में समर्थ नहीं है । मुझे लगता है कि यह नवगीत में समय का प्रभाव छनकर आना चाहिए और उसमें यथार्थ की प्रच्छन्न अभिव्यक्ति होनी चाहिए । कुछ लोग कहते हैं कि एक दो संकलनों के बाद गीतकार बुझता हुआ नजर आता है । गीत कोई गेहूँ नहीं है जिसे हार्वेस्टर से काटा जाए, वह तो गुलाब है जिसमें खेत - खलिहान की महक मिली हुई है–

सूने - सूने अलाव, शाम बिन ठहाकों की,

चर्चाएँ औरों की कटी हुई नाकों की,

छोटी सी दिल्ली हर कोना दालान का,

नहर गाँव भर की है, पानी परधान का ।  ---गुलाब सिंह

अब पारंपरिक सौन्दर्य बोध गाँव के दिगंचल और दृगांचल से निरस्त हो उठा है । गुलाब सिंह गाँव के सूनेपन की पुकार सुनकर कविता के गाँव लौटते हैं लेकिन अक्षय पाण्डेय को लगता है कि सब कुछ बदला, किन्तु न बदली माई की दुनिया ।

तुलसी के चौरे से लेकर दवाई की शीशी का वही प्रदत्त संसार माँ और मातृ - संस्कृति के उपचार वक्रता को प्रश्नांकित करता है । सरिया - संस्कृति से संचालित अफगानिस्तान भी कहाँ बदला है और कहाँ बदली है मनुष्य की युयुत्सा और बर्बर हिंसा - वृत्ति ! वीरेन्द्र मिश्र युद्ध की विडंबना को लक्ष्य करते हुए कहते हैं---

कंधे पर धरे हुए खूनी यूरेनियम,

हँसता है तम,

युद्धों के मलवे से उठते हैं प्रश्न

और गिरते हैं हम ।

वक्त की तकदीर को रक्त रोशनाई से लिखते हुए गीतों के राजकुमार गोपालदास नीरज भी सवाल उठाते हैं ---

क्या लाशों के पहाड़ पर सूरज उतरेगा ?

क्या चाँद सिसकियाँ लेगा ध्वंस - तबाही में !

आज विश्व के तालिबानीकरण की ओर बढ़ते हुए कदम को चीन द्वारा प्रवर्तित कोरोना महामारी या विश्व पर थोपे गए जैविक युद्ध में संलक्ष्य किया जा सकता है और गौरतलब है कि अमेरिका के आतंकवादी संगठनों की सूची में तालिबान का नाम नहीं है । क्योंकि इस भस्मासुर को तो उसी ने पैदा किया था । इस प्रकार धरती की भूगर्भ - प्लेटें खिसक रही हैं जो एक आगामी सुनामी की सूचना है । आतंकवाद के विश्वव्यापी प्रभाव और उसमें मनुष्य की नियति को परिभाषित करते हुए कुमार शैलेन्द्र कहते हैं ----

सोनचिरैया खेत में होती लहूलुहान,

घाटी की बन्दूक से घायल हिन्दुस्तान ।

किन्तु इस बन्दूक से न तो वातानुकूलित कक्ष में बैठी हुई सत्ता घायल होती है और न ही साहित्यिक सत्ता । सन् 1990 में लाखों कश्मीरी पंडितों का नृशंस संहार हुआ और लाखों अभागे अल्पसंख्यक विस्थापित हो गए किन्तु उनका पुनर्वास सरकार की प्राथमिकता नहीं है और इस त्रासदी पर प्रगतिशील लेखक सघों ने सलेक्टिव एप्रोच के कारण सयानी चुप्पी ओढ़ ली । मानों उसी विभीषिका में वे मर - खप गए । क्रौंच पक्षी की पीड़ा से रामायण का जन्म हुआ किन्तु असंख्य विप्र - बध की महात्रासदी काव्य लोक से निर्वासित हो गई । सम्बोधन हार गए और शोक श्लोक में पर्यवसित नहीं हो 

सका । यह मनुष्यता का आत्म - विस्थापन है --

सुविधाएँ मांग रही बेबसी अनाम,

धुँआ - धुँआ कड़ुआती काफी सी शाम ।

साँसों की नागफनी चुभा रही पिन,

बीत गया एक और दिन । ---रामसनेहीलाल ' यायावर '

आज हम एक ऐसे विपर्यय - बोध के युग में जी रहे हैं कि भाजपा का कांग्रेसीकरण हो गया है और कांग्रेस अपनी ही निर्मितियों के खिलाफ खड़ी है । भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन से जन्मे अरविन्द कमल का विलोम बनकर भ्रष्टाचरण के कर्दम में धँस गए----

सूरजपुत्रों की आँखों में भी झीलें उग आई हैं ।

---अखिलेश कुमार सिंह

कभी भवानी प्रसाद मिश्र ने लेखन की व्यावसायिकता पर बाजारू लहजे में व्यंग्य की मुद्रा में प्रहार किया था और उर्दू शब्दों के प्रयोग के द्वारा परिवेश की निर्मिति करते हुए तुकबंदों पर तुकबंदी से ही प्रहार किया था लेकिन आज अधिक प्रैक्टिकल होते हुए ज्ञानप्रकाश आकुल अपनी रस वर्षा और ज्ञान - गंध को बेंचने के अपराध को स्वीकार करते हुए भी अपराध - बोध से मुक्त हैं । वे कहते हैं कि हमने तो केवल फूलों की गंध बेचा है किन्तु इस वन के माली अर्थात् राजनयिकों ने तो समूचा उपवन ही बेच दिया है । हमने तो अपनी मुस्कान बेचने का पाप किया है लेकिन कुछ लोग तो आँसू का कारोबार करते हैं और रावण की तरह जग को रुलाते रहते हैं । राजनैतिक परिदृश्य के साथ ही कमोवेश प्रगतिशील सिंथेटिक गद्यब्राण्ड कविता भी आनन्द और अनुरंजन से रिक्त हो चुकी है । कोई आनन्द के लिए नाटक देखता है, माथे की नसें तड़काने के लिए नहीं । किन्तु यह कविता यह बात स्वीकार करती है कि आज कोई भी कला या वस्तु बाजार और तज्जन्य लालसा की संस्कृति में जगह बनाकर ही जीवित रह सकती है । ' हम फूलों के गंध बेंचने के अपराधी हैं ' यह इस कविता का ध्रुवक है और मंचीय कविता की व्यावसायिकता को समर्थन देता हुआ प्रतीत होता है । कितनी बड़ी विडंबना है कि जो रात भर सरस्वती - पुत्र बने रहते हैं, वे भोर होते ही लक्ष्मीपुत्र बन जाते हैं और लिफाफे की धनराशि गिनने लगते हैं । नहीं, मंच को ऊँचा उठना होगा और अपनी खोई हुई सत्ता को वापस पाने के लिए नकली कविता को विस्थापित करना ही होगा, जिससे स्वस्थ काव्य - मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा हो सके ।

हम फूलों की गंध बेचने के अपराधी हैं

उनका क्या ?

जो टुकड़ा-टुकड़ा उपवन बेच रहे ।

सब के आगे शीश झुकाना जिस दिन दिया नकार,

उसी दिवस से हम पर उछले प्रश्नों के अम्बार,

हम तुलसीदल चंद बेचने के अपराधी हैं

उनका क्या?

जो टुकड़ा-टुकड़ा आँगन बेच रहे ।

हम फूलों की गंध बेचने के अपराधी हैं

उनका क्या ?

जो टुकड़ा-टुकड़ा उपवन बेच रहे ।

अँधियारी रातों में रखते हम चन्दा सा रूप

बादल बनते हम जब-जब झुलसाने लगती धूप

बारिश का आनंद बेचने के अपराधी हैं

उनका क्या ?

जो टुकड़ा-टुकड़ा सावन बेच रहे ।

हम फूलों की गंध बेचने के अपराधी हैं

उनका क्या ?

जो टुकड़ा-टुकड़ा उपवन बेच रहे ।

जिनके घर होता आया आँसू का कारोबार

उन्हें बहुत खलता है यह मुस्कानों का व्यापार

हम मीठे संबंध बेचने के अपराधी हैं

उनका क्या ?

जो टुकड़ा-टुकड़ा अनबन बेच रहे ।

हम फूलों की गंध बेचने के अपराधी हैं

उनका क्या ?

जो टुकड़ा-टुकड़ा उपवन बेच रहे ।  ---ज्ञानप्रकाश 'आकुल'

प्रत्येक सार्थक सृजन किसी न किसी ऐतिहासिक प्रक्रिया के भीतर से होकर इतिहास - दिशा को अपेक्षित मोड़ देने की दायित्व - चेतना से परिस्फूर्त्त होता है । नवगीत में समसामयिकता का बोध बहुत प्रच्छन्न अथवा ध्वन्यात्मक रीति से ही सामने आता है । सत्येन्द्र रघुवंशी के इस गीत में विडंबना - ग्रस्त जीवन - बोध का अवसाद मुखर हो उठा है । लेकिन फ्लैश बैक या पूर्व दीप्ति के माध्यम से मनुष्य के आदिम उल्लास या नैसर्गिक जीवन - शिल्प को सहजता से परावर्तित किया गया है । विविध अनुभव - संदर्भों को स्मृत्यानुचिंतन प्रविधि से शिल्प की प्रासादिकता के साथ व्यंजित किया गया है । डा. परमानंद श्रीवास्तव कहते हैं कि इतनी सारी अधूरी चीजों के बीच कविता ही एक मुकम्मल और सुनिर्मित उत्पाद कैसे हो सकती है ? जाहिर है कि वाणिज्यिक दृष्टि कविता के थोक उत्पादन में विश्वास रखती है लेकिन गीत में भावुकता का आस्फालन, वैयक्तिक जीवनानुभवों का सारांश और प्रभावान्विति उसे एक सुगठित रूप तो देते ही हैं । इसीलिए कसे हुए गीत लिखना कलात्मक प्रतिभा की मांग करता है । यहाँ आरक्षण सम्भव नहीं है । किन्तु विडंबना यह है कि आज कविता के किसान आत्महत्या करने को प्रस्तुत हैं और कविता के व्यापारी मल्टीकाम्प्लेक्स में सेज पर सो रहे हैं । कविता पर अकवियों का वर्चस्व है । मंचीय भँड़ैती और गद्यब्राण्ड सिंथेटिक कविता के बीचोबीच एक सुनहली रेखा खींच देने वाले नवगीतकारों को हम कब तक हाशिए पर रखेंगे ?

मिथकीय चेतना को आधुनिक रूपक देते हुए कवि कहता है कि हमने दलितों पर अत्याचार किया, दुर्बल को सताया और निरीह जीवों की हिंसा करके उनका भक्षण करते रहे और इस प्रकार असंख्य शाप बटोरते रहे । फलतः अहिल्या की तरह सदियों तक शिला बने रहने के लिए हम अभिशप्त हैं । आज कोरोना - काल में सब कुछ फ्रीज हो गया है । हम जीवों को खाते रहे । आज ये जीव हमें खा जाएँगे । प्राचीन आरण्यक अनुभवों का नवीकरण नहीं किया हमने । सत्ता और संपत्ति के भूखे नेता जनता की भूख कैसे मिटाएँगे ? जो चुनावी कटोरा लेकर भिक्षाटन पर निकले हैं । सदियों के अन्तराल को भरती इस कविता की व्याख्या को भी नए अनुभवों से गुजरना होगा । संगीत और कलाओं की साधना की कीमत चुकानी पड़ती है और हर सृजन को प्रसव पीड़ा से गुजरना होता है । आज आलोक मंजूषाएँ मुरझा गईं । इसलिए अँधेरा और घनीभूत हो गया है । जीवनगंधी अनुभव इतिहास की सूची में शामिल हो गए हैं और पाथेय खो गए । संस्पर्शी मार्मिकताएँ विलुप्त हो गईं और मर्मस्पर्शी शब्द भी अछूत हो गया है । करुणा और पीड़ा भी सैनेटाइज हो गई है । इसलिए जख्मों को छिपाने के बजाय कवि यथार्थ में अंतःसंचरित सत्य का साक्षात्कार करता है----

जाल है भीतर नदी के, घाट से हटकर नहाना ।

अवरोधों से भरा ग्रंथिल जीवन छोटा होता जा रहा है । राजनीति के अपराधीकरण के दौर में मासूम निर्दोष नागरिकों का जीवन मूल्य हीन हो गया है । आज हम अपने मूल उत्स और परंपरा से कट गए हैं और संदर्भ से कटकर छिन्नमूल वैचारिकी को आयत्त करने लगे हैं । इस अन्तर्वस्तु को पूरी कविता प्रवाह और प्रवेग के साथ संप्रेषित कर जाती है । लोकानुभव को बोलचाल की भाषा में विन्यस्त कर फन्तासी और बिम्बों की सृष्टि की गई है । इस प्रकार इस कविता की दूरसंवेदी ध्वनियाँ मानस लोक में देर तक गूँजती रहती हैं ।

सदियों तक हम शिला रहेंगे

--- सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी

 हमने शाप बटोरे इतने,

सदियों तक हम शिला रहेंगे ।

कहाँ गये अपने हिस्से के

मोरों वाले जंगल सारे,

उल्लासों की लाल पतंगें

ख़ुशियों के नीले ग़ुब्बारे!

चीख़-चीख़कर इस अरण्य में

किससे अपनी व्यथा कहेँगे?

जिनको गुँथना था माला में,

वे गुलाब कितने बासे थे!

कागों को क्या पता कि घर के

सारे नल ख़ुद ही प्यासे थे!

कब तक मृग बनने की धुन में

हर दिन सौ-सौ बाण सहेंगे!

हाँ, कन्दीलों ने बुझ-बुझकर

और घनी कर दी हैं रातें ।

देखो कमरे में घुस आयीं

तिरछी हो-होकर बरसातें ।

चट्टानों से भरी नदी में

हम तुम कितनी दूर बहेंगे!

अपने ख़ुशबूदार झकोरे

रख आयी हैं कहाँ बयारें !

बैठी हैं नंगे तारों पर

चिड़ियों की मासूम क़तारें ।

दस्तानों में दुबके हैं सब,

हम किसकी उँगलियाँ गहेंगे!

हैं पाँवों के पास बाँबियाँ,

यह किन बीनों की साज़िश है!

क्यों सिर पर रूमाल बाँधकर

ज़ख़्म छिपाने की कोशिश है ।

कट-कटकर हम-तुम कगार-से

कब तक यूँ चुपचाप ढहेंगे!

ओम धीरज ऐसे नवगीतकार हैं जो समकालीन जीवन यथार्थ के प्रवक्ता होते हुए भी काव्य जीवन के प्रति अनन्त आस्थावान हैं । वे अपनी जड़ों से गहरे जुड़े हुए हैं और पारंपरिक मनीषा के मिथकों का आधुनिक युग - संदर्भों में रचनात्मक उपयोग करते हैं । वे जन सरोकारों से जुड़े हुए शब्द - शिल्पी हैं और प्राणि मात्र की पीड़ा की भाषा पढ़ने की कोशिश करते हैं ----

उद्यानों में शोध - शोधकर

बीज बहुत बोए,

खग मृग की भाषा पढ़ने को

पौध बहुत रोए ।

सोने के पत्तर में लिपटी हुई कला की सांकेतिक व्यंजना कवि को बहुत खलती है । जहाँ संवेदन घरौंदों में बँटा हुआ है और योग भोग से साँठ - गाँठ कर निकुंजों में नर्तन कर रहा है । आज की रंगीन दुनिया में धवल परिधान पसंद नहीं किया जाता । तमाम विमर्शों ने प्रेमचंद को भी अप्रासंगिक घोषित कर दिया है लेकिन निचाट ग्रीष्माकुल धरती पर भी चरवाहों के सूखे होठों पर गीत जन्म लेंगे -----

कम्पासों की सूई भटके,

चाहे लहरें माथा पटकें,

मल्लाहों के भींगे होठों

तब भी गीत जनम लेंगे ।

यह है सृजन के प्रति उद्दाम आकर्षण और निष्ठा । अनन्त धीरज से भरा हुआ कवि महानगर में रहते हुए भी गाँव को जीता है और उच्चाधिकारी होते हुए भी गाँव की सरलता को धारण करता है । आज नवोन्मेष शाली सृजन संकट ग्रस्त है ---

दर्द पहलू में लिए कुछ अनछुए

दीप ये कैसे जिएँ ?

तेल - बाती में अहर्निश द्वंद्व है,

साथ जीने का मगर अनुबन्ध है ।

दाम्पत्य जीवन से लेकर संपूर्ण सामाजिक जीवन में भी इस द्वन्द्व समास का साक्षात्कार किया जा सकता है लेकिन जब आँधियों से मिलकर हवा भी साजिश रच रही हो तो विश्वास के उधड़े सीवन को निरे शब्दों से कैसे सिएँ ?

भर गए कुहरे घने आकाश में,

मत्स्यगंधा को लिए भुजपाश में,

तंत्र के पाराशरी संजाल में

जन रहे नव व्यास को कैसे छुएँ ?

आज आखेट की नयी भाषा लिखी जा रही है और तंत्र नैतिकता की नई टीकाएँ कर रहा है । ठंड से ताल, पोखर, झील सब सिकुड़ गए हैं और कुमुदिनी कंदील को देखकर खिल रही है । ऐसे रचना समय में जब धरती की कोख बंजर हो गई है तो उसे रत्नगर्भा नाम देकर क्या करेंगे ? लेकिन ऐसे भारत रत्न देश को विश्व गुरु बनाकर ही छोड़ेगे । कवि आज के समय और समाज का लिटमस टेस्ट करता है लेकिन सिंथेटिक दूध से छाछ और नवनीत नहीं निकलता । विकास की रेल जो अब निजी मेल बन गई है, कागज की पटरियों पर दौड़ती 

है । गांव में चकबंदी अधिकारी की टीम को देख कर कवि की परछाई कांप उठती है और भैया जब खेत के डांड़े नहीं मिलते तो लगता है कि कोई बात हुई है । कैसा छद्मवेशी परिवेश है कि धूल चेहरे पर है और साफ आइना कर रहे
हैं । 'बेघर हुए अलाव' के कवि को 'सावन सूखे पांव' तक आते-आते गांव के संक्रमणशील यथार्थ का बोध होता है---

टायर के चप्पल के बूते

पहिने नार्थस्टारी जूते,

नीलगाय सा रौंद रहे हैं

सपनों की जैदाद अकूते,

सुस्ताएं, पगुराएं बैठे छांव - छांव में ।

कहीं कविता भी शब्दों की जुगाली न बन जाए । गांव - घर की छोटी-छोटी बातों और जीवन के मुहावरों में कविता तलाशने वाले ओम धीरज बधाई के पात्र हैं किंतु रागात्मिका वृत्ति और रस - साधना को और अधिक पुरस्कृत करने की जरूरत है । किन्तु कुछ तो युगबोध और कुछ अकविता के प्रभाव में गीत भी जब अगीत बनने के लिए उतावला हो तो रागात्मक संवेदना को संयमित और संतुलित करना अपरिहार्य हो जाता है । यह अलग बात है कि अक्षय पाण्डेय के माई की दुनिया बिल्कुल नहीं बदली है और न ही उसकी गलदश्रु भावुकता । लेकिन इसे एक रचनात्मक दूरी से देखते हुए कवि एक अक्षय भाव लोक की सृष्टि करता है ।

सबकी अपनी-अपनी

'हवा-हवाई' की दुनिया,

सब कुछ बदला

किन्तु न बदली

माई की दुनिया ।

तीन हाथ का एक 'खटोला'

एक 'बोरसी' थी,

सिरहाने 'हिमताज तेल'

'चेरी' की शीशी थी,

उसकी अपनी थी बस

दर्द - दवाई की दुनिया ।

आदर्शों की महत् कल्पना

अम्बर को छू ली,

पल्लू को माथे पर रखना

कभी नहीं भूली,

पूजन-अर्चन, भजन-भाव

चौपाई की दुनिया ।

मर्यादा की परिमिति 'देहरी'

'लछुमन-रेखा' है,

घर-आँगन-दालान यही

पाँवों ने देखा है,

सबकी चौगुन, उसकी बस

चौथाई की दुनिया ।

दीवारों से घिरी हुई

गहरी उदासियों में,

माँ के सपने साँस ले रहे

सिर्फ़ हाशियों में,

जिसने 'पर्वत' गढ़ा

उसी की 'राई' की दुनिया ।

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अक्षय पाण्डेय के इस नवगीत में परिवर्तन की विडंबनाओं को विवक्षित करने की सृजनात्मक आकांक्षा संलक्ष्य है । यहाँ एक ही कविता - समय में कई - कई समय उपस्थित हैं । विसंगति ही आज की वास्तविकता है । इस शोक - गीत में अवसाद केन्द्रस्थ है और इस की संरचना प्रगीतात्मक है । आत्म प्रलाप की निर्वैयक्तिकता इसे हर घर की हर माँ की व्यथा - कथा को सूचित और परावर्तित करती है । समाज से जीवंत सम्पर्क वाक्य - विन्यास की पूर्णता में परिलक्षित होता है और बोलचाल की सहज लय संप्रेषणीयता की सिद्धि में सहायक है । वास्तविकता की ठोस पहचान, अनुभूति की प्रामाणिकता और प्रभावान्विति इस गीत को एक संग्रथित कला - सृष्टि का रूप प्रदान करते हैं । सामाजिक परिवर्तनों से निरपेक्ष माँ की परिमित दुनियाँ उसकी जीवित मृत्यु का रूपक है । जो पर्वत गढ़ती है, उसकी राई की दुनिया हमारी सामाजिक चेतना के विरोधाभास को उद्भासित कर देती है । औसत मध्यवर्गीय सामाजिक संस्कारों और अभिजात संस्कृति की प्रतिगामी विडंबनाओं के बीच तुलसी - चौरा की आरती और तुलसी की चौपाई एक धार्मिक - सांस्कृतिक परिवेश की सृष्टि करते हैं । अपने दर्दों और दवा - दवाई की दुनियाँ में सिमटी माँ लक्ष्मण रेखाओं की सजीव परिभाषा है । छांदस् काव्य का यह मूल्य - बोधक परिवेश कितना स्पृहणीय है ! माँ जैसी ही निर्व्याज सहजता और प्रासादिकता शैली में भी विन्यस्त है जो सहज जीवन - शिल्प का सूचक है । उस जीवन - शिल्पी माँ को प्रणाम । 

ओढ़ि के मैली कीन्हिं चदरिया---

चपला चमकी

और पथ आलोकित हुआ कुछ दूर तक ।

मैं चल पड़ा जीवन में अर्थ भरने,

युद्धों की रोशनी में

शान्ति के आशय की तलाश की तलाश---

तलवारों की नोंक से आलिखित

इतिहास का साम्यवाद!

साधारण परिवार में जन्मा गाँव में,

उसमें असाधारण लालित्य था ।

परा वैज्ञानिक दृष्टि

जीवन के पिछले परिच्छेद से जुड़ती थी ।

आध्यात्मिक अनुभव के कस्तूरी - गंध पर

कोटि कोटि काव्य - संग्रह न्यौछावर होते हैं ।

अब जब गिलास आधी खाली हो गई है,

पीछे मुड़कर देखता हूँ ।

कांटों में खिला गुलाब

कांटों का ताज पहन कर मलिन हो गया ।

पड़ गई उस पर बाजार की धूल ।

प्रिंसिपुल आहत हुआ

प्रिंसिपल बनने के बाद ।

बचपन में चूसते थे ---

देसी रसीले मिश्रियवा आम ।

अब सिंदूरी आम का स्वाद चला गया ।

अब तो साहित्य में फास्ट फूड का जमाना है ।

कई बार मृत्यु के अंधेरे से गुजरा हूँ,

महामृत्युंजय मंत्र का जाप करता हुआ ।

कई बार तांत्रिकों के अद्भुत चमत्कार देखे हैं,

अपनी वैज्ञानिक आंखों से ।

शालीनता के संघर्ष का सूत्र मेरा बीज मंत्र था ।

ईमानदारी मुझ गरीब की पूंजी थी ।

सांस्कृतिक शील के विखंडन का प्रतिरोध

मेरा ध्येय वाक्य बन गया ।

अच्छी कविता के पक्ष में मतदान किया ।

साहित्य की राजनीति और

साहित्यिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध अनशन किया

और आत्म - निर्वासन झेला ।

लेखन की दौड़ में खरगोश की तरह

दशकों का अल्प विराम लेता रहा ।

जन्म भूमि की रंगबाजी को

रंगोत्सव में बदलने की लगन!

सृजन मेरी साधना है, शौक नहीं ।

मुझमें सत् भी है और असत् भी,

किन्तु कंचन को क्रीट नहीं बनाया,

मणि को खड़ाऊं में जड़ दिया ।

अर्द्ध सत्य के एजेंडे को

फुटबॉल की तरह उछाल दिया

और छिन्नमूल वैचारिकी के बजाय

देशी प्रज्ञा के आनुवंशिक उत्तराधिकार को

स्वीकार किया ।

पिया है मातृभाषा का दूध ।

मैंने क्रोध के सात्विक और तामसी

दोनों रूपों को भोगा है ।

इश्क मजाजी से इश्क हकीकी तक की अंतर्यात्रा में

अपने अहंकार को अंतर्यामी का रूप 

देने की उद्यमिता!

अब जब छप्पनवें वसंत में प्रवेश कर रहा हूँ,

चाहता हूँ कि मेरे भीतर

एक नये मनुष्य का जन्म हो,

जिसमें बाल रवि की लालिमा हो,

जो आकाश के वृक्ष का एक रक्त किसलय

बनकर मुस्कराए भौंहों में ।   


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एक विहंगावलोकनात्मक समीक्षा 


सुश्री प्रभा कश्यप डोगरा, पंचकूला, मो. 9501137575

डॉ. उमा त्रिलोक


नानी के बोल

उमा जी का बाल-साहित्यनुरूप यह काव्य संग्रह "नानी के बोल”; अपने ग्यारहवर्षीय नाती के जन्मदिवस पर उसे तोहफ़े के रूप में समर्पित है । यह इस संग्रह केनाम से ही स्पष्ट हो जाता है ।

बाल साहित्य के अनुरूप ही कवयित्री ने भाषा व शब्दों का चयन व वाक्यों कागठन बहुत सहज व सरल रखा है ।

इस संग्रह में उन्होंने अपने नाती के लिए लिखी; वात्सल्य भाव और एक गुरु कीतरह शिक्षात्मक रूप से ओतप्रोत रचनाएँ रखीं हैं; जो एक बच्चे को ही नहीं हर किसी व्यक्ति के लिए भी मार्गदर्शिका रूप हैं ।

स्वयं मैंने भी इन रचनाओं से जीवन जीने की कला और प्रकृति के विभिन्न आयामों का ज्ञान पाया है । परिवार के शीर्षस्थ सदस्य बनने पर या माता-पिता के रूप में नई पौध का मार्ग-दर्शन कैसे रोचकता से हो सकता है; इसकी समझ भी वयस्क पाठकों को मिलती है !!

अब पुस्तक की रचनाओं की चर्चा करें...

पहली रचना "रिशान", उमा जी ने अपने नाती को संबोधित कर लिखी है; जब रिशान चंद महीनों का ही रहा होगा! इस कविता में उन्होंने रिशान की बाल-क्रियाओं के वर्णन के साथ ही साथ उसे भारतीय संस्कृति के संस्कार देने का काम किया है–" माथा तेरा शिव का भाल, कानों से तू है गण-पाल !!” यहाँ कवयित्री ने एक तो हमारे संस्कारों के अनुरूप "शिशु में परमात्मा का रूप" देखा/पाया है, दूसरे जब शिशु समझने योग्य होगा / होगी तो उसे 'शिव' कौन और 'गण पाल' किसे कहते हैं; की सहज ही जिज्ञासा होगी! 

विद्वज्जनों के लिए यहाँ यह उल्लेखनीय है कि; "गण पाल" शब्द लिया है– कवयित्री ने; न कि "गणपति"! यहाँ 'गण पाल' के विभिन्न अर्थ हो सकते हैं ! ‘गणों (लोगों ) का पालनकर्ता, ‘गणों' लोगों का नायक या फिर "गणपति" या "गणेश"! यह देखें यहाँ गण पाल के कानों का उल्लेख है ‘मोदक’ या ‘मूषक' का नहीं ! "सुकर्ण" होगा तभी जो बातें (शिक्षा) वह पाएगा उन्हें ग्रहणकर मनन की क्षमता उसमें आएगी!! इस कविता में आगे चलकर रिशान में कभी बाल-कृष्ण तो कभी श्री राम का बाल स्वरूप दिखाई देता है! बड़ा होने पर बालक/ बालिका इस प्रकार के भावों को सुनेगा / सुनेगी तो इन चरित्रों के अनुरूपस्वत: ही यह गुण धारण करेंगे !! परिवार व समाज के बड़े; कुम्हार स्वरूप होते हैं और नन्हे शिशु चाक पर धरी गीली मिट्टी स्वरूप ! कुम्हार चाहे जो रूप / गुण उस माटी को दे सकते हैं !

इसके आगे की कविता है "प्यार"! यह भी शिक्षा से परिपूर्ण है । माता-पिता किस जतन और प्यार से लालन पालन करते हैं यह इसकी विषयवस्तु है साथ ही यह कि उसी जतन और प्यार से बालक को बड़े होकर माता-पिता की देख-रेख करनी है ।

तीसरी कविता "दोस्त " में बालक की कल्पना शक्ति को उभारते हुए, एक दोस्त के प्यार और दोस्ती की भावना को दृढ़ता से लेने का भाव है । इसमें दोस्ती क्या है, दोस्त के प्यार के बदले प्यार ही होना चाहिए; "प्यार एक "इबादत” है यह सीख भी बच्चा पाता है !

इसी तरह यह संग्रह बालक की बढ़ती उम्र के साथ उत्तरोत्तर अधिक गंभीरविषयों को बड़ी सहजता से प्रस्तुत करता है । यहाँ उमा जी का एक सफल शिक्षिका व ज़िम्मेदार ‘नानी' का स्वरूप निखर कर सामने आया है; इन कविताओं की सूची में हम जैसे जैसे आगे बढ़ते हैं यह बात बहुत सुंदर ढंग से खुलती जाती है; जैसे—-

"दुआ”, "देना 1”, "देना 2”, " विनय ( नम्रता)”, "सद्भावना ", बाँट कर खाना” ……आदि । 

यहाँ "ऋण” कविता का विशेष उल्लेख करना चाहूँगी; इस कविता के आरंभ में कवयित्री कहती हैं-" आज मैं तुमको बतलाऊँ, क्या होता है ‘ऋण’ ? माता-पिता, गुरु और ईश्वर के ऋण हम सब मानते समझते हैं किन्तु यहाँ उमा जी ने दो और ऋण कहे हैं - अपने नाती को /हम सबको, वे हैं "धाय माँ" का और "सखा” का ऋण !! इसे हम अक्सर भूल जाते हैं या फिर ”Matter of factly" ले लेते है!! आगे "मेहनत ","हारना नहीं " है और इसी तरह यह काव्य संग्रह बालक के ग्यारह जन्मदिनों पर की गई विभिन्न रचनाओं को समेटे हुए है !!

यहाँ इन कविताओं के विषय में मैं अधिक न कहूँ तो उचित; सुधि पाठकगण इस काव्य संग्रह के अनमोल मोती स्वयं चुनें तो बेहतर है !!

अब पुस्तक के स्वरूप पर कुछ चर्चा करना चाहूँगी । इस पुस्तक में हर कविता की विषयवस्तु के अनुरूप चित्र चुने हैं उमा जी ने; जो स्वयं एक बहुत ही माँझी हुईं चित्रकार भी हैं । सम्पादक महोदय ने भी बड़ी खूबी से इन्हें कोमल रंगों में छायारूप हर कविता की पृष्ठभूमि में छापा है । पुस्तक के पन्ने बड़ी अच्छी ‘ क्वालिटी ‘ के काग़ज़ के हैं, यह पुस्तक ‘हार्ड बाउंड' होने के कारण सहज रूप से वर्षों तक साथ रह सकती है! मेरे विचार से यह " नानी के बोल " एकमात्र नाती ही नहीं हम सबके जीवन में उपयोगी हैं अत: यह पुस्तक रूप "बोल” संग्रहणीय हैं!! 

अब अधिक न कह कर अपनी कलम को यहीं विराम देती हूँ । 


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ढाका (बांग्लादेश) के अग्रणीय समाचार पत्र "डेली स्टार" में छपी डॉक्टर उमा त्रिलोक की बहुचर्चित पुस्तक-


डॉ. आलम ख़ुर्शीद, बंग्ला देश, मो. 01713-109940

डॉ. उमा त्रिलोक



"अमृता इमरोज़-ए-लव स्टोरी"
के बांग्ला अनुवाद की समीक्षा के कुछ अंश 


आलम ख़ुर्शीद लिखते हैं – "पुस्तक एक आधुनिक प्रेम कहानी है और अनुवाद, एक साहित्यक आतिशबाज़ी"

"अमृता प्रीतम जब कि बंगाली नहीं थी फिर भी आज के बंगाली समाज में काफ़ी प्रसिद्ध हैं, ख़ासकर बुद्धिजीवी समाज में ।

वह अधिकतर अपने बेबाक़ व बहुमुखी साहित्यक कृतिओं की वजह से और कुछ उनके अपरंपरागत व चिरस्थायी संबंधों के कारण, जो उनके कलाकार इमरोज़ के साथ थे...

वास्तव में उनकी अपरंपरागत जीवन शैली ने पूरे उपमहाद्वीप में परंपरागत लोगों के बीच काफ़ी दिलचस्पी उत्पन्न कर दी थी ।

इमरोज़ अमृता से कई वर्ष छोटे थे । उन दोनों की शादी करने में कोई रुचि नहीं थी जब कि 40-45 वर्ष तक वे एक दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप से एक ही छत के नीचे रहते रहे । अमृता तलाक़शुदा थी और दो बच्चों की माँ भी । उन्हें शराब पीने और सिगरेट पीने में कोई संकोच भी नहीं था ।

मैं अमृता का प्रबल प्रशंसक था । जिन दिनों मैं नारीवादी कविताओं का बँगला में अनुवाद कर रहा था, उस दौरान मैंने अमृता की एक शक्तिशाली कविता पढ़ी, मैं उन्हें अधिक जानने लगा, ख़ासकर उनका घटनापूर्ण जीवन, इमरोज़ के साथ उनकी दोस्ती, मेलमिलाप और प्रेम । यद्यपि मेरी जानकारी अख़बारों से टुकड़ों टुकड़ों में एक एक कर आयी ।

हाल ही में, सौभाग्य से, मुझे एक भरी पूरी किताब मिली जिसे मेरे मित्र, दिलवर हसन ने बंगाली में अनूदित किया है । जिस का नाम है "अमृता इमरोज़ ए लव स्टोरी" जिसे उमा त्रिलोक ने लिखा है ।

दिलवर हसन अमृता के प्रशंसक रहे है और पिछले 40 वर्षों से उन्हें पढ़ रहे हैं ।

वह लिखतें हैं कि उमा त्रिलोक की इस किताब की सादगी, स्वच्छंदता और प्रामाणिकता ने उन्हें बहुत प्रभावित किया और उन्होंने निश्चय किया कि वह इसका बांग्ला में अनुवाद करेंगे ताकि पुस्तक बांग्ला पढ़ने वालों के पास भी पहुँच सके ।

तब उन्होंने उमा त्रिलोक के साथ संपर्क स्थापित किया ताकि वह अनुवाद के लिये लेखिका से अनुमति प्राप्त कर सकें ।

उमा त्रिलोक, पेशे से एक शिक्षाविद हैं । वह एक कवयित्री, चित्रकार व गायिका भी हैं । वह अमृता की प्रगाढ़ प्रशंसक रही हैं । वह बचपन से ही अमृता के गीतों और कविताओं को गाती रही हैं । बड़ी होकर वह अमृता की जीवन शैली व साहित्य की भी क़ायल रही हैं । वह लिखती हैं कि 1996 में जब उन्होंने अमृता प्रीतम की एक अनूदित पुस्तक "I tell this tale to the river " को पढ़ा तो उनकी तीव्र इच्छा हुई कि वह अमृता को मिलें । तब उन्होंने प्रसिद्ध गीतकार गुलज़ार को निवेदन किया कि वह उनकी मुलाक़ात अमृता से करवा दें ।

वह उमा की ज़िंदगी का सुनहरा दिन था । यहीं से कहानी शुरू हुई और 2005 अमृता की मौत तक चली ।

उमा त्रिलोक बताती हैं कि इस पुस्तक की नींव तब पड़ी जब वह अमृता इमरोज़ से लगातार मिलती रही ।

जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ी अमृता की इस कहानी के केंद्र बिंदु का स्थान इमरोज़ ने ले लिया ।

छोटे छोटे अध्यायों में लिखी यह पुस्तक इनकी निजी ज़िंदगियों की हद्दें भी पार कर गई और अमृता की पिछली ज़िंदगी पर रोशनी डालने लगी, इनका बचपन. जवानी और प्रीतम सिंह से इनकी शादी ।

और फिर देश का भयानक बँटवारा, इनका पलायन, इनका दो बच्चों की माँ बनना, इनकी मुश्किल, परेशान और संतप्त शादीशुदा ज़िंदगी और उसके बाद तलाक़ ।साहिर लुधियानवी और सजाद हैदर के साथ इनका पेचीदा भावनात्मक संबंध और फिर इमरोज़ की आमद ।

यह सब और साथ में और भी बहुत कुछ जो पुस्तक में निहित है ।

बांग्ला ग्यारहवीं भाषा है जिस में इस पुस्तक का अनुवाद हुआ है ।

पुस्तक की विषय वस्तु के अतिरिक्त इस में इमरोज़ द्वारा बने चित्रों की तस्वीरें, अमृता इमरोज़ के दुर्लभ चित्र, अमृता की कविताएँ और गीत भी हैं जिनका दिलवर हसन ने बहुत रुचि पूर्ण बांग्ला में अनुवाद किया है ।

पुस्तक के आरंभ में गुलज़ार द्वारा लिखित प्रशस्ति पत्र है और दो भूमिकाएँ हैं जो लेखिका ने स्वयं और प्रसिद्ध पंजाबी लेखिका डॉक्टर दलीप कौर टिवाना ने लिखी है ।

दिलवर हसन साहिब के सुबोधगम्य व विचारोत्तेजक अनुवाद द्वारा अमृता इमरोज़ के असाधारण व पेचीदा प्रेम व पारस्परिक रिश्ते के बारे में पता चलता है । इस विवरण में कुछ संस्मरण, कुछ जीवनी के अंश व कुछ कला और साहित्य की समीक्षा है । यह पुस्तक इनकी साहित्यक भावनाओं, लैंगिक विचारों, कामुकता, सामाजिक परंपराओं और राजनीति पर भी रोशनी डालती है ।

अंत में, मैं इस पुस्तक को पढ़ने की पुरज़ोर सिफ़ारिश करूँगा,ख़ासकर उन लोगों के लिए जो अमृता जैसी उत्कृष्ट लेखिका के साथ इमरोज़ के अनुभवातीत संबंधों के बारे में और अधिक जानना चाहते है, और जो चाहतें है यह जानना कि इन दोनों के सम्बंधों के बीच में क्या अनोखी संरचना और गतिविधा थी और प्रेम, शादी, कला, साहित्य और समाज के बारे में इनके क्या विचार थे ।


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समीक्षा


डॉ. अंजना अनिल, जालंधर, मो. 9682-639-631



डॉ. वीणा विज 'उदित', जालंधर  



 "तुरपाई एवं अन्य कहानियां"

कलाकार व साहित्यकार वीणा विज उदित--जीवन की संघर्षमयी यात्रा के दौरान आई हुई चुनौतियों, विषमताओं एवं विसंगतियों को जिस बखूबी से संवेदनात्मक शैली में पिरोकर --संभावनाओं सहित प्रस्तुत करती हैं- उनकी यह बेजोड़ कथ्यात्मकता है । संबंधों में उभर कर आता द्वंद्व ,पीड़ा और बेबसी जीवन की त्रासदी हैं लेकिन नई आकांक्षाओं का आसमान वीणा विज की कलम का जब आधार बनता है तो उनकी कई रचनाएं ( कविताएं और टिप्पणियां भी) बड़ी सहजता से हमें एक नया रास्ता दिखा रही होती हैं ।

‌ इसी क्रम में "तुरपाई "उनका एक नवीन कहानी संग्रह जिनके अधिकतम नारी पात्र संघर्ष और यातनाओं तक को चुनौती मानकर अपनी नैतिक समझ के आंगन को झाड़- बुहार कर संभावनाओं की देहरी तक आ खड़े होते हैं ।

तुरपाई--कहानी इस संग्रह की विशेष प्रतिनिधि एक ऐसी सामाजिक कटुता है ,जहां तक आते-आते नारी हृदय की अथाह पीड़ा बेबसी के गहरे रसातल तक को पुकार उठाती हैं । मैं कहां जाऊं ? कहना होगा कि एक अनपढ़ स्त्री की वेदना तमाम अस्वीकृतियों की उलझन का शिकार बनी है । वीणा विज यथार्थ के सहारे शोषण पर सवाल उठा रही हैं । तथाकथित मर्दानगी को व्यक्त कर रही हैं । हमारे एहसास कहानी की स्त्री पात्र से संवाद कर रहे हों जैसे ।

निस्संदेह ज्यों -ज्यों दृष्टि संग्रह की कहानियों से गुजरती है पाठक के दिल को आश्वस्त करती है कि इन पृष्ठों पर मात्र लफ़्ज़ों की कतारें नहीं --समयगत सच्चाइयों की मुहर लगी हैं ।

दहलीज, एक फौजी की दास्तान, कोहरे के पार, शह और मात, धुएं की लकीर--- अनुभूतियों का प्रभामंडल, संदेहों के घेरे और कहे -अनकहे के बीच का दर्द हमसे साक्षात्कार करता है । ऐसे सवाल पूछता है जिनके जवाबों का आधार हमारा मन है, मस्तिष्क है और मनोविज्ञान भी । बड़ी होती लड़की कंजक नहीं --क्यों? वीणा विज की समझ और तार- तार होते सपनों को जोड़ने का श्रम.... कभी खाली हाथों की परिणिति, हमारी अपनी ही मान्यताओं और चुनी-बुनी परंपराओं को प्रश्नों के घेरे में ले जाती हैं ।

‌ एक नारी मन में अनेक स्वप्न बु़नती है, इच्छाओं का सागर उसकी निजी धरोहर होती है उस पर किसी की सख्त पहरेदारी जब बर्दाश्त नहीं होती तो वीणा विज की कलम के सहारे उनकी कहानियों के कथानक एक सार्थक आकार बुन लेते हैं । व्यक्त- अव्यक्त के बीच का भेद तक उसे भ्रम में डाल तो देता है पर सूक्ष्म संवेदनाएं चुपके से उसके कानों में एक गीत भी उड़ेलने चली आती हैं । ऐसी हैं वीणा विज की कहानियां । जरूर मन को समझें और समझाएं कि "मृग मरीचिका" का कथानक हमें क्यों विचलित कर रहा है? जवाब कहीं बाहर नहीं, मन के भीतर   है ।

‌ सम्मोहन, अंतहीन जीवनधारा, अनुमोदन, ठहराव, अनकही आदि वीणा विज की रचनाएं जीवन के रंग मंच की कभी धुंधली, कभी चमचमाती, कभी हौंसले बटोरती, तो कभी आंखों की कोरों से आंसू बन पिघलती एक ऐसी धारा है जो मानवीय जीवन के अंतरंग पहलुओं को हर तरह से रेखांकित करती हैं ।

नि :संदेह स्त्री की मनोदशा को समझ पाना बड़ा कठिन कार्य है । मूलतः संबंधों की समरसता से अपना उजास ्और आत्मीयता से छल करने का दुस्साहस-- दोनों ही पहलुओं को जिस बखूबी से लेखिका ने अपनी कहानियों के जरिए समाज की विडंबना को दर्शाया है, उस पर गहरी दृष्टि का विश्लेषण अपेक्षित है । कहीं- कहीं पर उनकी कथ्यात्मकता एकदम भावनाशून्य हो जाती है । कहीं- कहीं उम्र का तकाजा अपने आप से प्रश्न पूछ रहा होता है ! संवेग और कल्पनाएं एक- दूजे से दोस्ती चाहती हैं ! अभिन्न होना मांगती हैं ।

एक बात और संग्रह की कहानियां --बीते हुए कल और आज के बीच एक सेतु भी हैं । विराट , व्यापकता और विस्तार को पा लेने की चाहत समेटे हुआ-- नव सृजन के पक्ष का भी स्वागत बोध है ।

अपने वैचारिक धरातल को और ज्यादा पुख्ता बनाने के संकल्प बताकर वीणा विज ने अपनी समयानुकूल सहजता को दर्शाया है । जड़ता से बाहर निकलने का रास्ता सुझाया है- दिखाया है ।

‌ व्यक्तित्व और कृतित्व को निखार कर अंधेरों के बीच से कोई कैसे प्रकाश की किरण खींच लाता है--- इन कहानियों का यह भी एक सफल संदेश है! कलियों की गुफ्तगू को वीणा विज ने अनुभूतियों के स्तर पर जिया है । इसलिए कहना होगा कि यह कहानियां भाव- प्रवणता का एक विरल प्रवाह हैं । 

जुर्म-ए-इश्क


राख से लिपटी चिंगारी

सुलगती रही रात भर

सुबह की आमद का करती इंतज़ार

अधबुझे कोयले बिखरे थे इधर-उधर

कर रहे थे कुछ यूं शक्ल इख़्तेयार !

मुंह ढांपे थीं राख में कुछ हक़ीक़तें

कोताही थी जिन्हें लबों तक आने की

मजबूरीए हालात तंग-ए- दिल थे

अनकहे अफसाने सुनाने थे बेशुमार !

इक नजर ने थे ज़ुल्म बरपाए

इक छुअन ने जिस्म गर्माए थे

इल्म ना था ग़म-ए-दौरां का शाम-ओ-सहर

करते रह गए शब-ए-इंतजार!

हर रात बेबसी में गुजरती रही

धड़कनों में बसा था तिरा क़ौल-ओ-क़रार

मिट गई "वीणा"आखिरकार

बन गई जुर्म-ए- इश्क़ की गुनाहगार!


डॉ. वीणा विज 'उदित'



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समीक्षा


डॉ. रेशमी पांडा मुखर्जी, सोदपुर, कोलकाता, मो. 9433675671


डॉ. सीमा शाहजी


जनमानस को स्पर्श करतीं विविधरंगी कविताएँ 

लिखने की इच्छा से लबालब डॉ. सीमा शाहजी का काव्य संग्रह ’ताकि मैं लिख सकूं’ से गुज़रने का मौका हाथ लगा । डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला की माने तो सीमा जी की ये कविताएं सरल-तरल हैं । ये नव पल्लव या किसी कोमल पुष्प की पंखुरी जैसा स्पर्श देती हैं हमें । कई जगहों पर ये हम सोये हुओं को जगाती हैं, और कई बार अधीर कर देती है निःसर्ग के उपवन को अपनी बाहों में भर लेने के लिए .....ये कविताएं हमें आमंत्रित करती है । मधुपान के लिए.....ये कविताएं हमें आश्वस्त भी करती हैं कि नई पीढ़ी में जागृति है, सृजनशीलता है और सुकुमार अभिव्यक्ति का अद्भुत सामर्थ्य भी । 

इकसठ कविताओं को समेटता सीमा शाहजी का प्रथम काव्य संग्रह ’ताकि मैं लिख सकूं’ हिंदी काव्य जगत में एक नवोदित कवयित्री का संदेशवाहक दस्तक है । आलोच्य कविताओं में कुछ गढ़ने, कुछ सोचने और विकसित होने का सतत प्रवाह है, आलोड़न का भाव है । पुस्तक का आवरण स्वयं अपनी सौम्यता के कारण कविता-प्रेमी को आकर्षित करेगा । प्रत्येक कविता के साथ जो चित्र संलग्न हैं, उन्होंने कवयित्री के भाव-संप्रेषण में सेतु की भूमिका निभायी है । ये रेखांकन कवयित्री के कथ्य को अधिक मुखर कर रहे हैं । यह संग्रह विषय-वैविध्य की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरा उतरता है क्योंकि डॉ. सीमा ने उन सभी भावों को स्पर्श किया है जो हमारे जीवन को उद्वेलित करते हैं, हमारे मानस को छूते हैं । इस विषय में कवयित्री की कामना उल्लेखयोग्य है- ’यही कामना कि मन को राहत देने वाला काव्ययात्रा का झरना, मन की गहराइयों में हमेशा बहता रहे । उसकी यात्रा, मेरी यात्रा से विशाल विस्तृत बनी रहे क्योंकि इन कविताओं ने मुझे कभी रोने नहीं दिया............वे स्वयं मेरी आंखें बनकर रोती रहीं...हंसती रहीं....खुश्बुएं बिखेरती रहीं... ।’

कवयित्री सीमा एक नवीन विश्व-निर्माण की आकांक्षा से आपूरित होकर संग्रह की प्रथम कविता का प्रणयन करती हैं जिसमें आप प्रभु के समक्ष अपने लेखन का उद्देश्य स्पष्ट करती हुईं ‘ताकि मैं लिख सकूं’ के भाव उजागर करती हैं । वे विश्व बंधुत्व, लोकमंगल, शांति, प्रेम, सौहार्द्र, आपसदारी की जड़ों को अपनी लेखनी के बल पर मज़बूत करना चाहती हैं ताकि मानव अपनी मानवीयता के साथ जीवित रह सके । कवयित्री आत्माभिव्यक्ति और विश्वानुभूति को एकाकार कर ’मेरे कमरे की दुनिया’ कलमबद्ध करती है जिसमें एक ओर आप स्वातः सुखाय से आप्लावित होकर कल्पना लोक से /किस्सागो दुनिया की/ कहानियां कहता है’ लिखती हैं तो वहीं ’यथार्थ के परिवेश को/ देखती हैं तब / अश्रुओं से/ खुद को भिगोती हूं‘ रचतीं हैं । तात्पर्य यह है कि सीमा शाहजी अपने मन को विस्तार और सुकून देने के लिए काव्य-संसार रचती हैं पर उनके मन में विश्व-स्तर पर व्यापक हित-साधन का संकल्प बराबर बना रहता है । आपका कोमल मन प्रकृति में सुबह की ताज़गी के कण-कण में समाकर ’धूप रथ’ सृजता है-

’पेड़ों की/ हरी पत्तियों पर

ओस की/ बूंदों की थिरकर,

पंछियों का कलरव/ ....

जब फैल जाए/ आंगन-आंगन/ धूप रथ

तब

ओप उजास की/ होती अनूठी बन-ठन

ताप संताप/ हर ले क्षण-क्षण

अहा...प्रकृति की/ इस अद्भुत बेला को

धूप की इस गरिमा को/ सुप्रभात को नमन..’ 

(पृ. 21-22)

’कोमल बीज’ कविता अपनी व्यंजनापूर्ण अभिव्यक्ति के कारण अनूठेपन से लैस है जिसमें आपने कठोर पत्थर में कोमल बीज के अंकुरित न होने की विवशता के माध्यम से ऐसे हृदयहीन व्यक्तियों की ओर व्यंग्य-बाण साधे हैं जिनके जीवन में कोमल-मसृण भावनाओं की कोई अहमियत नहीं होती या यों कहें जिन्हें किसी का दर्द, संताप, कष्ट पिघला पहीं पाता । ऐसे भावविहीन जगत से आप निराश हो जाती हैं । आपके भाव पहाड़ की ओट से उगते सूरज के साथ अपने भेड़-बकरियों को लेकर निकल पड़ने वाले गड़रिये के दिन भर की यात्रा के हमराही बन जाते हैं और आपकी कलम ’गड़रिया कभी नहीं भटकता’ जैसी व्यंजनापूर्ण रचना लिख बैठती है । मानव द्वारा प्राकृतिक दूषण व दोहन ने पशु, पक्षी, कीट-पतंगे, जलचर आदि को विनाश की कगार पर ला खड़ा कर दिया है । गौरैया हर भारतीय आंगन की नियमित साथिन थी जिसका कोमल व लघु अस्तित्व आज के अत्याधुनिक भारतीय जीवन से नदारद होता जा रहा है । ऐसे में कवयित्री सीमा की नज़र उसे तलाशती है- 

’तुम रोटी पर/ चोंच मारती

फूलों वाली/ सोच मारती

तुम चूल्हे के /पास फुदकती

आटे में फिर पंख रगड़ती

तुम दर्पण से/ रोज़ झगड़ती

मां के सुई-धागांे से/ घोंसले की दुनिया बुनती

तुम्हें तमाशा घर-आंगन में 

ओ! गौरैया/ कहां गई तुम...?’ (पृ. 69-70) 

कवयित्री का भाव-जगत मानव जीवन की उन तमाम गतिविधियों और दायित्वों को जी भरकर जीना चाहता है जो आम होते हुए भी खास बन जाते हैं । जैसे ’बचपन और बाज़ार’ कविता में आप दिखाती हैं कि बचपन में बाज़ार से लौटने वाले अपने पिता से बच्चे कितनी फरमाइशें करते हैं और कदाचित पिता भी उन फरमाइशो को मन में बसाकर ही बाज़ार की हर चीज़ को टटोलते हैं । पर जब ये बच्चे बड़े होकर अपने बल-बूते पर बाज़ार-दुकान-रेस्तरां जाने लगते हैं तब घर के लिए खुशियां खरीदने की बातें विस्मृत कर जाते हैं । वे अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर अपना जीवन ’एन्जॉय’ करने लगते हैं और बाज़ार से लौटने वाले अभिभावक के हाथ और मन रिक्त रह जाते हैं । रिश्तों में आए ठहराव, आपसदारी में लगी स्वार्थ की घुन, विश्वास पर लगी ईर्ष्या की वार और सहज कल-कल जीवन पर लगी दिखावटी नकलची प्रवृत्तियों से सीमा शाहजी का मन कलप उठता है और वे याद करती हैं-

’कभी/ देहरियों पर/ दीप जलाए थे

मां ने,/ और उतारी थी

रिश्तों के / उजास की आरतियां’ (पृ. 55-57)

भारतीय संस्कृति में पेड़ों को उनके औषधीय गुणों व पर्यावरण की देख-भाल के लिए आंगन में बड़े चाव-दुलार से लगाया जाता है । इसी भाव को प्रस्फुटित करती आपकी प्यारी-सी कविता ’मायके का हरसिंगार’ भारतीय संस्कृति में हरसिंगार की हरितिमा और उसके फूल के साैंदर्य और उससे परिवार के जुड़ाव को वाणी दी है ।

’अम्मा बताया करती/ छूने भर से

थकान होती दूर/ हृदय को देता संबल

हरित पत्तियों में/ छिपे हैं 

सौंदर्य-तकलीफों के उपचार,

फूल में/ कई औषध चमत्कार

छवि निरखे जब आंखों में 

दैवीय गुणों-सा आभास

अमृत-सा शीतल संसार/ बहुत याद आता है

मायके का हरसिंगार’ (पृ. 53-54)

आपकी कविताओं ने रिश्तों से गहरा नाता जोड़ा है । तभी तो आपने बेटियां पानी की तेज़ धार, मां, हमारे पिता हैं वे, रिश्तों की उजास भरी बतकहियां, कुम्हलाए से फूल धूप के, गांव, पिता का गमछा, मैं हूं ना, पात और शाख आदि कविताओं में पारिवारिक रिश्तों में बसी नरमी और गुनगुनाहट को उकेरा है । भारतीय चिंतन में परिवार को जीवन का अहम अंग माना गया है । परिवार ही हमारे मानव-मूल्यों के प्रतिस्थापन की नींव होता है । परिवार हमें त्याग, प्यार, जतन, कर्तव्य, सहनशक्ति जैसे गुणों से लैस करता है । आपकी स्त्रीवादी चिंतन को भी इन कविताओं के माध्यम से परखा जा सकता है । 

’बेटियां

वैदिक ऋचाओं की

स्वयंभू रचनाएं बनो,

वंचनाएं नहीं ...

छलकती घटाएं बनो,

नदी सी बहो

कूल कगारों की

मर्यादा निभा जाओ,

ढूंढों

अपने ही भीतर

नन्हा बचपन,

मुंडेर पर

जलते दीपक का स्पंदन...’ (पृ. 43)

प्रकृति अपने सौंदर्य, छुवन, विविधता व महत्व के साथ आपकी कविताओं में बसी हुई है । आपने धूप रथ, क्योंकि आसमां मेरा है, अभिव्यक्ति, ऐ मन तू जाग जा, मन की आकांक्षा, नव पुष्प, पात और शाख आदि कविताओं में प्रकृति के नाना रूपों को अभिव्यक्ति दी है । इन कविताओं में प्रकृति को अनोखे रंग में देखा जा सकता है । आपकी कविताओं में ग्रामीण प्रकृति की सादगी व शुद्धता है । प्राकृतिक सुषमा से पगी ये रचनाएं हिंदी काव्यांगन में प्रकृति-प्रेम को पुनः उर्जस्वित करती हैं । उदाहरणार्थ-

’देखना हर फूल को/ हर पत्ती को

हर कली को/ जो वर्तमान

और भविष्य को/ जानते हुए भी/ मुस्कुरा रही है

देखना उस सुबह की/ अलसाई किरण को

जो/ स्वर्णिम धूप के साथ/ तमतमा उठेगी’ (पृ-30)

आपने प्रेमाभिव्यक्ति की सौम्यता, नमी, आस्था, बिरहा और दुलार को कंटीले नयन, आएगा रंग रंगीला फागुन, दोस्ती मेरी और तुम्हारी, तुम कौन हो...?, प्रेम की जैवकीय आशाएं, प्रेम की पगी वह एक बूंद शीर्षक कविताओं में साकार किया है । आपने प्रेम को मानव जीवन का अत्यंत सुंदर और महत्वपूर्ण अंग मानते हुए उक्त कविताओं को रचा है । आपकी प्रेमाधारित कविताओं में मिलन की मिठास, बिछुड़न की टीस, इंतज़ार की टकटकी, चिंता की अकुलाहट और आकांक्षाओं की प्यास समायी हुई है । उदाहरणार्थ-

’ज़रूरत थी/तुम्हारे हाथों की

तुम पिरो देती काश! 

दोस्ती के उन धागों को,

थम जाती गर तुम

माथे की बिंदी बन

सजता मैं

लाली तेरे होठों की बन

गुनगुनाता चलता मैं’ (पृ. 106)

सारसंक्षेप यह है कि ’ताकि मैं लिख सकूं’ में डॉ. सीमा शाहजी ने उन सभी कविताआंे को संजोया है जिससे आपका यह दावा प्रमाणित होता है कि हां, आप लिखना चाहती हैं और आप लिखने की हकदार हैं । कविताओं की छोटी सीमा में आपने आसमान की तरह विस्तृत भावों को निपुणतापूर्वक उभारा है । भाषा में पहाड़ी झरने की उछाह और जाह्नवी का प्रवाह है । कवयित्री की आत्मा इन कविताओं में बंधी हुई है और इनके माध्यम से आप हिंदी काव्य जगत में काफी लंबी और सफल-सार्थक दूरी तय करने का भरोसा दिलाती हैं । 

समीक्षित कृति: ताकि मैं लिख सकूं (काव्य संग्रह)

लेखिका: डॉ. सीमा शाहजी, मो. 94259 72317

आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल, 2022

पृष्ठ: 144, मूल्य: 250/-

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समीक्षात्मक आलोचना





डॉ. रेनू यादव, 

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, यमुना एक्सप्रेस-वे, गौतम बुद्ध नगर, 

ग्रेटर नोएडा – 201 312 (उ.प्र.), ई-मेल- renuyadav0584@gmail.com


नेपथ्य से पथ्य की ओर : नाम नहीं 

गिरधर राठी उन लेखकों में से हैं जिन्होंने बहुत गहरी चुप्पी के साथ कविता का दामन थामे रहें । जब नई कविता, साठोत्तरी कविता और अस्मितापरक कविता के दौर में साहित्यकार अपना अपना झंड़ा बुलंद कर रहे थे तब गिरधर राठी चुप-चाप अपनी साप्ताहिक पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ का संपादन कर रहे थे । ज़ुबान खामोश थी और पत्रिका बोल रही थी जिसकी आवाज से तिलमिलायी तत्कालीन सरकार ने एमरजेन्सी के समय में इन्हें कारागार पहुँचा दिया । लगभग सत्तरह-अट्ठारह महिनों तक कारागार के सफ़र ने इन्हें और भी अंतर्मुखी बना दिया । अपने संकोची स्वभाव के कारण दृश्य होते हुए भी अदृश्य बने रहें । 

03.11.2019 को गांधी शांति प्रतिष्ठान में इनके नौ पुस्तकों का लोकार्पण हुआ । संभावना प्रकाशन, हापुड़ से ‘नाम नहीं’, ‘कविता का फ़िलहाल’, ‘कल, आज और कल’, ‘कथा-संसार : कुछ झलकियाँ’, ‘सोच-विचार’, रज़ा फाऊंडेशन के सहयोग से राजकमल प्रकाशन से ‘गाँधी की मृत्यु’, नियोगी बुक्स से ‘Hindi Short Stories: Editor’s Choice’, सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर से ‘बातचीत मित्रों से’ तथा ‘करिश्मों का ताना-बाना’ पुस्तकें प्रकाशित हैं । 

‘नाम नहीं’ राठी जी के चार काव्य-संग्रहों ‘बाहर-भीतर’, ‘उनींदे की लोरी’, ‘निमित्त’ और ‘अनिश्चय आरंभ के’ का संकलन है । 

‘कविता का फ़िलहाल’ में भारतीय एवं विदेशी कविता पर समीक्षाएँ, लेख-आलेख, सन् 2003 में गोवाहाटी में ‘भारतीय कविता का आधुनिकीकरण’ विषय पर दिए व्याख्यान आदि का संकलन है ।

 ‘कल, आज और कल’ में साहित्यिक एवं गैर-साहित्यिक विषय, समसामयिक विषयों तथा लेखक एवं सत्ता में अंतःसंबंधों पर लेख हैं । 

‘कथा-संसार : कुछ झलकियाँ’ में भारतीय एवं पाश्चात्य लेखकों के कुछ प्रमुख उपन्यास एवं कहानियों पर चर्चाएँ एवं लेख संकलित हैं ।

‘सोच-विचार’ पुस्तक आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता पर कुछ प्रश्न, भाषा एवं बोलियों पर लेख, अनुवाद पर सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्षों पर विचार तथा नाटकों एवं सिनेमा पर कुछ महत्त्वपूर्ण आलेखों पर आधारित    है । 

‘गाँधी की मृत्यु’ में ‘नेमेथ लास्लो’ नामक हंगेरियन नाटककार एवं कथाकार के नाटक का अनुवाद है ।

‘Hindi Short Stories: Editor’s Choice’ में अंग्रेजी में प्रकाशित नौ कथाकारों की 17 कहानियों का संकलन है । जिसका अनुवाद लेखक ने 70-80 के दशक में ही किया था लेकिन यह 2018 में संकलन के रूप में प्रकाशित हुआ । 

‘करिश्मों का ताना-बाना’ में चेक भाषा के प्रसिद्ध कहानीकार कारेल चापेक की कहानियाँ, डोरिस लेसिंग की अंग्रेजी कहानियों का अनुवाद, रूस के प्रसिद्ध कवि मंदेलश्ताम की पत्नी नदेज़्मा मंदेलश्ताम की आत्मकथा का अनुवाद, चीन के ‘अंतिम सम्राट की कथा’ जो 1988 में चीन से दो खंड़ों में छपी थी, संकलित हैं । 

‘बातचीत मित्रों से’ में गिरधर राठी से 25-30 सालों में अन्य लेखकों द्वारा लिए गए साक्षात्कारों का संकलन है । 

‘लिखना अच्छा लगता है’ को स्वीकार करते हुए लोकार्पण के समय वे कहते हैं, “मुझे ये कभी भ्रम नहीं रहा कि मेरे कवि होने और लिखने से समाज में कोई बहुत बड़ा बदलाव या आंदोलन आयेगा । लेकिन चेतना को जागृत करने का काम अवश्य करेगा । मुझे लिखना अच्छा लगता है इसलिए लिखता हूँ” । इससे अधिक सहजता भला किस कवि में हो सकती है...।

ग्रेटर नोएडा में स्थित ‘पोथी’ वितरण केन्द्र में बैठे बैठे न जाने क्या अपने मन में गुनते-बुनते रहते हैं जो उनकी कविताओं को धार दे जाते है । कम बोल कर बहुत कुछ कह जाने वाले धीर-गंभीर, शांत स्वभाव के धनी है गिरधर राठी । 

सचमुच, जब आपकी लेखनी बोलती हो, आपके कर्म बोलते हो तो आपको बोलने की जरूरत नहीं पड़ती । यह कहना गलत नहीं होगा कि गिरधर राठी जी के व्यक्तित्त्व की गुरूता, गरिमा उनके लेखनी में स्पष्ट झलकती    है । 

गिरधर राठी के चार काव्य-संग्रहों का संकलन है – नाम नहीं । इस पुस्तक के पहले पृष्ठ पर छपी ‘तस्वीर देख कर’ कविता इस संग्रह का रहस्य खोलती नज़र आती है – 

उनके फूलों में

हमारे जन्म-दिन छिपे थे

फूल उनके ही हाथों रहे

हमने पढ़े अखबार... 

राठी, गिरधर. नाम नहीं. पृ. 19.

इनकी कविताएँ विजयनारायण साही, रघुवीर सहाय और शमशेर की याद दिला जाती हैं । यह कहना गलत न होगा कि गिरधर राठी का गंभीर व्यक्तित्व इनकी कविताओं में भी झलकता है और गंभीर लोग आसानी से समझ में नहीं आतें और जब समझ में आते हैं तब परत-दर-परत कई-कई भावबोध के साथ उभरते चले जाते हैं । इसलिए इनकी कविताओं को कई-कई बार पढ़ना पड़ता है । उदाहरण के लिए एक कविता देख सकते हैं – पुल

नदी स्थिर है

पुल बह रहा है 

दोनों कूल जोड़ने वाला पुल 

बह रहा है 

ठीक नदी की विपरीत दिशा में 

आत्महत्या करने जा रहा पुल 

उद्गम-चट्टानों से कूदकर

टूट जायेगा

और पुल पर चढ़ा मैं 

जो तुम तर पहुँचना चाहता हूँ

और मुझ जैसे दूसरे मैं 

पुल के साथ 

तब नदी बहेगी

पुल के टुकड़ों को वक्ष पर लादकर

ख़ून की लकीरें उभारतीं । 

राठी, गिरधर. नाम नहीं. पृ. 99 

इस कविता की शुरूआत उलटबासी से होती है, उसके बाद प्रयोगवाद की छाप दिखायी देती है तीसरे अनुच्छेद में टूटन है चौथे में अस्तित्वबोध के साथ विपरीत परिस्थितियों में प्रेम करने वाला प्रेमी दिखायी देता है और अंत में नयी कविता की विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं । 

इस संग्रह की खास विशेषता है कि यह संग्रह किसी एक विचारधारा की मोहताज नहीं है । इसमें कई विशेषताओं से पूरित कविताएँ हैं जैसे कि प्रेमपरक कविता, वात्सल्यपरक कविता, आत्मान्वेषणात्मक कविता, सामाजिक चेतना, व्यंगात्मक कविता, राजनीति पर कटाक्ष आदि । 

इस संग्रह में सबसे पहले ध्यान जाता है प्रेमपरक कविताओं पर उसके बाद वात्सल्य पर । गिरधर राठी की कविताएं भावनाओं के खालीपन पर तैरती हुई कचोट की वह निशानी है जो पाठक के हृदय पर अपने निशान छोड़ जाते हैं और दूर तक चीखती चीख सुनायी देती है । चाहे वह एमजेन्सी का समय हो या उसके बाद जीवन की आपा-धापी । प्रेम उनके साथ-साथ चलता है । खासकर शुरूआती दौर की कविताएँ प्रेम में रची-बसी नज़र आती है । तिहाड़ जेल में लिखी गयी अधिकतर कविताएँ पत्नी के प्रेम और बच्चों की याद में लिखी गयी हैं । बहुत सुन्दर पंक्तियाँ है कि व्यक्ति कैसे दुःख के क्षणों में आत्मीयता और सहारा चाहता है किंतु प्रेमालम्बन के अभाव में खाली-खाली सा रह जाता है -

यहाँ, इस ज़मीन को छूता हूँ 

यह तुम्हारी आँख की तरह गीली है

तुम्हारी देह की तरह स्पृश्य

सोंधी

तुम्हारी साँसों की तरह 

इस जमीन पर लोट-पोट, मगर

यह मुझे बाँहों में भरती नहीं

इस ज़मीन में कोई प्रवेश नहीं 

राठी, गिरधर. नाम नहीं. पृ. 32

‘दुःख के समय पछतावे की तरह उमड़ता है प्यार’ या फिर ‘उसकी गोद में आने पर मिल जाती पूरी एक दुनियाँ’ जब अकेलेपन की दुनियाँ में विस्तृत हो तन-मन पर पसर जाती है तब कवि फिर से लिखते हैं –

अकेला करने के बाद

दूर तक साथ चला आता है

फिर अकेला नहीं छोड़ता 

प्यार 

राठी, गिरधर. नाम नहीं. पृ.34

वात्सल्य रस के लिए सूर का उदाहरण देना उचित न होगा क्योंकि यह कविता मध्यकाल में नहीं बल्कि नई कविता और उसके बाद के समय में लिखी गयी है । इसलिए सूर के साथ तुलना करना बेइमानी लगता है । एक तरफ बच्चों की चाहत - ‘पापा तुम मेरे घर आओगे ? हम रिंगाS रिंगS रोज़ेज़... रिंगS रिंगS... डाउन’ खेलेंगे... की इच्छा है तो दूसरी तरफ बिना छन्द अलंकारों के कुछ चन्द शब्दों में अपनी पूरी अस्मिता, अस्तित्व, आशाएँ, आकांक्षाएँ, सपने सब एक साथ एक धूरी पर ला कर खड़ा कर देते हैं । कविता का शिर्षक है – 

‘बच्चे’ 

उनके होने में 

हम हुए शामिल

हम 

होने लगे 

राठी, गिरधर. नाम नहीं. पृ. 35

‘पहाड़ हो जाता तिहाड़’, ‘तिहाड़ दृश्य’ कविता के साथ-साथ अन्य कविताओं में भी तिहाड़ जेल का दर्दनाक अनुभव, पीड़ा, छटपटाहट, बेवसी ‘अपनी-अपनी आत्मा में / फड़फड़ाते” (राठी, गिरधर. नाम नहीं. पृ. 27) स्पष्ट दिखायी देती है, ऊपर से कान्तासम्मति स्मृत्तियाँ और बच्चों की यादें जीने नहीं देतीं – “बच्चे तुम्हारे पास / मेरे पास यादें । / यादें धकेलता परे परे परे…” । (राठी, गिरधर. नाम नहीं. पृ. 33)

यह ध्यान देने योग्य बात है कि कवि-कर्म सिर्फ प्रेम की पीड़ा की अभिव्यक्ति से पूरा नहीं हो सकता । वह भी तब जब वह एक जिम्मेदार पत्रकार हो । पत्रकार होने के नाते पत्रकारिता में आने वाले विरोधों, अवरोधों के साथ-साथ समाज की पीड़ा को उन्होंने अपने अंदर भोगा है । राजनैतिक षड़यंत्रों के कारण समाज की चरमराती दीवारों की तड़प सुनी हैं । कदाचित इसीलिए वे जानते हैं कि जनता के अन्दर छद्मी नेताओं से ‘पहले डर था और अब लालच है’ (राठी, गिरधर. नाम नहीं. पृ. 86) । ‘तुरत बुद्धि का कमाल’, ‘मीडिया कोलाज एक मर्सिया’ कविताओं का संदर्भ इसी के नतीजे हैं । बलात्कार के डर से लड़कियाँ लोगों के पदचाप सुनते ही काँप उठती हैं तो बिकाऊँ न्याय के कारण पुलीस-थाने में अपनी शिकायत दर्ज करवाने से बचती हैं । रघुवीर सहाय का रामदास सिर्फ एक बार नहीं मरा बल्कि वह हर रोज कहीं न कहीं मॉब लीचिंग का शिकार हो रहा है । ‘रामदास का शेष जीवन’ अभी भी डरा हुआ है । वह राजनैतिक चक्रव्यूह में फँसकर कभी मुफ़्त के लैपटॉप, मोबाइल, साइकिल बटोर रहा है, तो कभी ‘ईश्वर’ को उछालने या बचाने की जद्दोजहद में लगा हुआ है । सच तो यह है कि वह कोई जद्दोजहद नहीं कर रहा... बल्कि उसका दिल और दिमाग एक अदृश्य सत्ता जो सर्वत्र फैली है, जो दिखायी दे रही है पर हम देखना नहीं चाहते, सुनायी दे रहा है पर हम सुनना नहीं चाहतें, समझ में आ रहा है पर हम समझना नहीं चाहतें, आवाज उठाना नहीं चाहतें... ऐसी सत्ता के द्वारा लगातार दी जा रही ‘श्लो-प्वाइजन’ से स्थगित हो गया है । समाज ऐसा रोबोट बनता जा रहा है, जो देखता है, सुनता है, बतियाता है, एक्प्रेशन भी देता है, लेकिन उसका रिमोट सत्ता के हाथ में है, वह वहीं करेगा जो सत्ता उससे करवायेगी । इसलिए कवि कहते हैं - 

कुल जमा तीन पात्र

होंठ, कान, आँख

तीनों अपंग

नेपथ्य हाथ भाँजता रह गया 

राठी, गिरधर. नाम नहीं. पृ. 28.

इसीलिए कवि समाज को सतर्क करते हुए बार बार कहते हैं की आह और डाह, राह और राह, गुस्से और गस्से, भूखे और भूक्खड़, गाली और जुगाली, दीन और हीन, कवि और तुक्कड़ में फ़र्क करना जरूरी है । तब जाकर कहीं हम अपने आपको बचा पायेंगे । वरना ‘दाँत और आँत, आँत और दाँत’ जैसे सवालों के जवाब हमें कभी नहीं मिल पायेंगे और हम “कुछ नसें हैं जो ख़ून दिल तक ले जाती हैं / दूसरी वे जो ख़ून लेकर चली जाती हैं” (राठी, गिरधर. नाम नहीं. पृ. 139) के बीच उलझे ही रह जायेंगे ।

अतः कह सकते हैं कि हमारे इर्द-गिर्द पसरी समय की छाती पर मानव के क्रूरता की कहानी कहने में गिरधर राठी सफल होते हैं । चीख-चिल्लाहटों से दूर शांत और सुघड़ भाषा (‘सुघड़’ शब्द इसलिए कि आज कविता बहुत चिल्लाने लगी है, कहती कम है, शब्दों की मर्यादा खोने लगी है) में असामाजिक तत्त्वों पर कटाक्ष करते नज़र आते हैं । प्रेम और वात्सल्य परक कविताओं में बेहद साफगोई है तो ‘अस्पर्श बचाता है पवित्रता’ लिखते हुए ‘सौन्दर्य प्रतियोगिता’ जैसी कविताओं में बाज़ारवाद के नग्न-जाल से सचेत भी करते हैं । वे समाज की पीड़ा देखकर अत्यंत दुःखी हैं तो राजनैतिक चक्रव्यूह में अपने आपको बार बार असहाय पाते हैं इसलिए ऐसी व्यवस्था के प्रति उनमें क्षोभ है, जिस पर गहरा व्यंग्य भी करते हैं । 

जरूरी नहीं कि रचनाकार को तत्काल समाज में नाम मिल जाये लेकिन यदि रचना सारगर्भित है, जीवंत है, समसामयिक है और समाज को नयी दिशा दिखाने में सक्षम है तो वह भीड़ से अलग होकर देर-सबेर ‘नाम नहीं’ को भी नाम दे जाती है । राठी जी की यह यादगार कविता समाज की कड़वी सच्चाई को हमेशा व्यक्त करती रहेगी - 

“आदमी जब हो गये आँकड़े / बन्द हो गयी उन की चीख़ / चीख़ने लगे लेकिन आँकड़े / बरसने लगे टप टप / आँसू” 

राठी, गिरधर. नाम नहीं. पृ.145


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समीक्षा


सुश्री नीलम कुलश्रेष्ठ, अहमदाबाद, मो. 99925534694


स्थापित एवं उभरती हुई प्रतिभाओं का अद्भूत संगम

`गुमशुदा क्रेडिट कार्ड्स` के बहाने तलाश मातृत्व और निजता की


नारी आंदोलन, स्त्री समानता, नारी विमर्श, स्त्री के अधिकार, इन सबकी विभिन्न कलाओं से अभिव्यक्ति, अपना व्यवसाय के अलावा होता है` स्त्रियों की अपने घर परिवार में उनकी अहम भूमिका` । मेरे अभिमत के अनुसार कोई वाद, कोई विमर्श, कोई आंदोलन न उसे बदल सकता, न मातृत्व या ग्रहणी के रोल का कोई पर्याय है जो उसके महत्व व उपयोगिता को कम कर सके । ये बात हर समझदार स्त्री समझती है चाहे उसे दोयम दर्ज़े का नागरिक समझा जाये, चाहे घर पर पड़ी चीज़ । स्त्रियां पीढ़ी दर पीढ़ी इस रोल को निबाहती आ रहीं हैं । 

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से कुछ अधिक मीडिया, स्वयं सेवी संस्थाओं व सामाजिक संगठनों ने स्त्री को सशक्त होने का, अपने पैरों पर खड़े होने का संकेत दिया, प्रोत्साहन दिया । क्या इतना सरल होता है पैरों पर खड़े होना या नौकरी करना ? परिवार, बच्चों की परवरिश व सामाजिक हदबंदी के ऑक्टोपस में जकड़ी वह कितना संघर्ष करती है, ये उससे जुड़े लोग भी नहीं समझ पाते । अक्सर जब हम किसी भी क्षेत्र की प्रथम शीर्षस्थ पद को तलाशने जायें तो हमारे हाथ में सिर्फ़ कुछ ही स्त्री नाम आएंगे । वैदिक काल के बारे में भ्राँति है कि स्त्री पुरुष समान थे लेकिन वेदों में हज़ार ऋषियों की रची ऋचाओं में नाममात्र की महिलाओं की रची ऋचायें हैं जिन्हें ब्रह्मवादिनी कहा जाता था । 

अपने नन्हे को सुरक्षा देता, अपने कोमल हाथों की गिरफ़्त में लिये अपने उत्कट प्रेम की परिभाषा क्या सनातन मातृत्व बदल सकता है ?स्त्री ही समझ सकती है कि उसकी ऊँची उड़ान कितने लोगों की आँखों का ऐसा कांटा बन जाती है कि वे उसमें ही ज़हरीले कांटे चुभा देते हैं । हर समझदार स्त्री अपने पंख कतर कतर कर उड़ान भरती है, अपनी सफ़लता के कम से कम ढिंढोरे पीटती है ।उस पर मातृत्व की ज़िम्मेदारी हो तो अधिकतर पड़ला मातृत्व का ही भारी रहता है । 

अपने जीवन की दूसरी पारी जीती आभासी दुनियां में अपने को तलाशती स्त्रियों से जिन्होंने कैरियर में ख़ुद ब्रेक लिया । अपने मातृत्व को सहेजा लेकिन उनके इस बलिदान को कौन समझता है ?

स्त्रियों ने जब घर की देहरी लांघी तो इस रोल व कैरियरिस्ट रोल में टकराव तो होने लगा । कभी किसी को नौकरी का त्याग करना पड़ा और कुछ स्त्रियों ने ब्रेक लिया । कैरियर की तरफ़ वापिस लौटीं तो लगा अपने साथियों से कितना पिछड़ गईं हैं । तो आइये स्त्री कलम से तलाश करते हैं उन गुमशुदा क्रेडिट कार्ड्स की जो परिवार की ज़रूरतें पूरे पूरे करते करते पता नहीं एक स्त्री से कहाँ गुम होते चलते हैं, उसे गुमान भी नहीं होता । 

मैंने गुस्ताख़ी की है -बरसों पहले लिखी अपनी लघुकथा `गुमशुदा क्रेडिट कार्ड्स `को क्रमांक में सबसे पहले इसलिये रक्खा है कि इसे पढ़कर नारी की पीड़ा की उन सूक्ष्म से सूक्ष्म भावनाओं को आप सब समझ सकें कि आप स्त्री की किस व्यथा की कहानियां पढ़ने जा रहे हैं । जो वह `घर`नामक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिये अपना समय, अपनी भावनायें, अपनी प्रगति, बाहर निकलकर संगी साथियों से मिली ख़ुशियों को कुर्बान कर देती है फिर भी तमगा मिलता है -`घर पर पड़े पड़े क्या रहीं थीं ?` 

ये सम्पादन करने की निरंतर स्थगित हो रही इच्छा को बल मिला अचानक मिले प्रगति गुप्ता जी के फ़ोन से उन्होंने बताया कि उन के पति डॉक्टर थे इसलिए बच्चों के लिए उन्हें अपना मनोवैज्ञानिक चिकत्सा के लिए बनाया अपना क्लीनिक बंद करना पड़ा । सोचिये उस महिला की अपने बच्चों के लिए बलिदान भरी तकलीफ़ जिसके क्लीनिक में चौदह कर्मचारी काम करते हों । मुझे ख़ुशी है मैंने उन्हें प्रेरणा दी कि इस विषय पर कहानी लिखें । 

मैंने एफ़ बी की अपनी टाइमलाइन पर इस लघुकथा के साथ इस विषय पर दो बार कहानियां आमंत्रित की थीं । मुझे लगा कि बहुत सी कहानियाँ मुझे मिलेंगी । मेरे पास वरिष्ठ व कनिष्ठ दोनों रचनाकारों के बहुत से फ़ोन, मैसेज एफ़ बी पर, वॉट्स एप पर आ रहे थे लेकिन बहुत सी रचनाकारों को ग़लतफ़हमी थी कि मैंने ` माँ `पर केंद्रित कहानी आमंत्रित की है । मुझे ख़ुशी है ऐसे चुनौतीपूर्ण विषय की महीन बारीकी को समझकर इस पर कहानियां भेजीं सुप्रसिद्ध संतोष श्रीवास्तव को छोड़कर उन रचनाकारों ने जिन्होंने अभी अभी हिंदी साहित्य में अपनी पहचान बनाई है या बना रहीं हैं । इन सभी को मेरा प्यार भरा हार्दिक आभार कि मैंने जो भी सुझाव देकर इनकी कहानी में बदलाव चाहा इन्होंने बहुत धीरज के साथ वह सुधार करके दिया । किसी किसी ने तो दो बार भी इनमें सुधार करके भेजा । मैंने भी नहीं सोचा था कि गर्भ में संतान धारण करने वाली स्त्री या नर्सरी में दाख़िल करवाने स्त्री से दादी बन जाने तक वाली स्त्री के खोये हुये वजूद, फिर पाने की जद्दोजेहद की दास्तान बन जाएगा ये दुर्लभ कहानियों का संग्रह । 

संतोष श्रीवास्तव की कहानी `पद्मश्री `में एक कत्थक डांसर की सफ़लता जानिये -` मृणालिनी राय का कहा सच साबित हुआ । आलोक और देविका ने हिंदू माइथोलॉजी के विषयों को आधार बना खूब मेहनत की और जर्मनी, फ़्राँस, इंग्लैंड, सिंगापुर, मलेशिया, हांगकांग और ऑस्ट्रेलिया में सफ़लतम शो की श्रंखला ही गूंथ दी । भारत में उड़ीसा का कोणार्क मंदिर, मुंबई की एलिफ़ेंटा केव्स और खजुराहो महोत्सव में नृत्य पेश कर तो जैसे जग ही जीत लिया देविका 

ने । कामयाबी, शोहरत और समृद्धि उसके कदम चूम रही थी । `

सोचिये जब ऐसी सफ़ल नारी संतान के गर्भ में आते ही कैरियर छोड़ देती है । जानिये उसके लिए `पद्मश्री `का क्या अर्थ है । 

जबकि प्रभा मुजुमदार व सीमा जैन की नायिका को तंज कसा जा रहा है, `` तुम मेन स्ट्रीम से बहुत पीछे या बाहर ही हो जाओगी! तुम कैसे संभाल पाओगी खुद को? आज सब आगे बढ़ने के लिए भाग रहे हैं! और तुम खुद को ही पीछे धकेल रही हो!” 

डॉ. जया आनंद की नायिका का उसके नाल से जुड़ा बच्चा कोख में करवटें लेकर उस में बहुत महीन बुनावट से बुनी कहानी में मातृत्व की हिलोरें पैदा करता है [मैं नहीं तू ही ---]--- `बाद में उसमें इतना अंतर आता जा रहा था कि जब बच्चा उसकी कोख में तेज़ तेज़ घूमता तो उसका दिल पता नहीं क्यों` कुछ `मोह में पगा धड़कने लगता लेकिन वह उस ` कुछ` को लैपटॉप पर तेज़ तेज़ उंगली चलाकर कुचल डालती है । ` लेकिन कब तक ?

शेली खत्री की पत्रकार नायिका बच्चा होने के बाद कैसे बदल जाती है... 'जब स्वस्ति का जन्म हुआ था; उसे लगा था बस इस दुनियाँ में वह है और स्वस्ति । दिन- रात, देश -दुनियाँ की ख़बरों के पीछे पड़ी रहने वाली शुभ्रा को स्वस्ति के अलावे दिखता ही कहां था कुछ । स्वस्ति की मुस्कुराहट ही उसकी ‘हैडलाइन’ थी, स्वस्ति को नहलाना- मालिश करना उसकी ‘एंकरिंग’, स्वस्ति की नींद, दूध का पूरा ध्यान रखना ‘चौबीस घंटे की खबर’ और स्वस्ति की रूलाई उसके लिए ‘ब्लंडर न्यूज़’ थी । `

`हंस `एप्रिल 2021 में जोया पीरज़ाद एक ईरानी लेखिका की यादवेंद्र द्व्रारा अनुवादित कहानी आई है जिसकी लेखिका नायिका कुछ दिन से कहानी लिखने के नोट्स लिखकर किचेन में दीवार पर लगाना चाहती है जिससे जब इसे लिखे तो उसे सुविधा रहे लेकिन अंतत;टमाटर की सूची वहां लगा देती है क्योंकि फ्रिज में वे ख़त्म हो रहे हैं । यही है एक गृहणी का कोलाज । जिन स्त्रियों की इच्छाशक्ति प्रबल है वही इसके पार जा सकतीं हैं । 

अंजु खरबन्दा की नायिका क्रेच देखते ही विचलित हो जाती है कि यहाँ नहीं पलेगी मेरी बच्ची । वह बीच का रास्ता निकलती है की उसका काम भी न छूटे, बच्ची आँखों के सामने बड़ी हो । 

मैं जब सन 1976 में शादी होकर बड़ौदा आई थी तो शौकिया पत्रकारिता के दौरान बहुमंज़िली इमारतों में देखती थी आयायें फ़्लैट्स में ज़मीन पर बैठी बोतल से बच्चे को दूध पिला रहीं हैं । मैंने उसी समय तय कर लिया था कि मेरे बच्चे इस तरह से आया की गोद में नहीं पलेंगे । मैंने स्वतंत्र पत्रकारिता व लेखन करने का निर्णय अपने बच्चों की ख़ातिर लिया था , सच मानिये ये परिवार व बच्चों के लिये बहुत सही निर्णय था । इस निर्णय के लिए खुद ही खुश होती रही कि मैंने अपने अपने कैरियर का कितना बड़ा बलिदान किया है, हाँलाकि अंदर से मैं कुंठित ख़ूब थी, ख़ूब तड़फड़ाती थी कि मैं जो अपना काम करना चाहतीं हूँ, वह नहीं कर पा रही । 

इसी कोरोनाकल में युवा आई टी प्रोफेशनल लड़कियों के लाइव देखकर समझ में आया है कि मातृत्व नूर की बूँद है जो सदियों से बह रहा है, बहता रहेगा क्योंकि ये ही नहीं आज की बहुत सी युवा माँयें भी समझदार माँ की तरह कैरियर ब्रेक ले रहीं हैं । अपने मातृत्व को एक उत्सव की तरह आनंद से जी रहीं हैं । आपको नहीं लगता इस नैट के कुछ भी परोसने के कारण, मोबाइल, लैपटॉप व तरह तरह के गेजेट्स की दुनियां में बच्चों पर नज़र रखना कितना ज़रूरी हो गया है ।जब तक वे इस मायाजाल को समझने लायक नहीं हो जायें । उस कैरियर ब्रेक के बीच एक माँ की कैरियर के प्रति तड़प व बच्चों के प्रति उनकी अनमोल ज़िम्मेदारी के बीच के द्वन्द व तकलीफ़ को समाज समझ पाये व उस स्त्री के जीवन के इस नाज़ुक मोड़ पर वह व परिवार साथ खड़ा हो पाये तब ही इस संग्रह की सार्थकता है । काश ! इस संग्रह को पढ़ने वाले पाठक ही स्त्री के रोल को समझ उसे दोयम दर्ज़े का नागरिक समझना छोड़ दें ।

जो संदेश अवकाश प्राप्त अधिकारी डॉ प्रभा मुजुमदार ने अपनी कहानी में दिया है । वे आज की बहुत लड़कियाँ स्वयं सीख चुकीं हैं, ` पूरे आत्मबल और विश्वास के साथ जीना सीखना ही होगा हर माँ को । अपने अरमानों और सपनों का वह उत्सव मनाएगी, न की कंधों पर उनकी गठरी टांग कर मातम और शहादत । उसकी मुस्कान असली होगी और आँखों मेँ आँसू नहीं, संकल्प और हौसले होंगे ।"

ये उन औरतों की कहानियां हैं जो अपने `संदूक में सपना `[पूनम गुजरानी ] बंद कर देतीं हैं । कुछ वर्ष घर पर निकालने के बाद सोचतीं हैं इसी कहानी की नायिका की तरह --`समय का चक्र घूमता रहा... मैं पिसती रही... अपना ही कोरमा बनाती रही... सेकती रही वक्त की भट्टी में हकीकत की रोटियां... परोसती रही अपने ही अरमानों को सबकी थालियों में ।``

बरसों बाद वे कहती है -`` सरगम को जीवन में आने वाली चुनौतियों के लिए भी तैयार करना था । मैनें बरसों पहले के अपने सपनों को इस संदुक में बंद कर दिया था जो आज मेरे सामने खुला पङ़ा था । ``

अनीता दुबे की कहानी `एक चिठ्ठी` की नायिका---` पति की पुरानी फटी टी शर्ट झट से उठाई और बक्से [ बरसों पहले जिसमें अपने बनाये हैंडीक्राफ़्ट बंद कर दिए थे ] की धूल साफ़ करने लगी । `

---यही है बच्चों को थोड़ा बड़ा करके अपने वजूद की तलाश । 

प्रभा मुजुमदार व शेली खत्री की कहानी में स्पष्ट द्वंद दिखाई देता है कि पितृ सत्ता मानने को तैयार नहीं है कि बच्चे पालना उसकी ज़िम्मेदारी है लेकिन हमारी पीढ़ी से नई पीढ़ी में कुछ बदलाव आ ही रहे हैं । प्रभा जी के शब्द हर माँ के दिल का आइना हैं- `आरुष की बीमारी में, उस दिन क्यों नहीं वह कह सकी कि अरुण, यह बच्चा तुम्हारा भी है और आज मुझे जाना ही होगा । थोड़ी सी प्रतिकूल टिप्पणियों से बचाव की मुद्रा में क्यों आ जाती थी वह और हमेशा ? अपने को सर्वगुण सम्पन्न कुशल स्त्री और सर्वश्रेष्ठ माँ साबित करने का ठेका क्यों ले रखा था उसने ?` 

डॉ । रंजना जायसवाल की कहानी में वही जद्दो जेहद है --` रोज़ सुबह आँख खुलते ही ज़िंदगी उसका इम्तिहान लेने के लिए खड़ी रहती... और अपने आप से सवाल करती... आज मैं पास तो हो जाऊँगी न...?

उसने वही किया वही जो हर आम औरत करती है-`विश्व के मानचित्र को हटाकर वर्णमाला और पहाड़े के पोस्टर चिपका दिए । `रंजना की `आधे अधूरे` कहानी से कुछ नीचे दिये सूक्ति वाक्य पढ़िए जो कमोबेश हर लड़की के जीवन का हिस्सा हैं : 

------आज कल की लड़कियों को अपने सारे सपनें ससुराल में ही पूरे करने होते हैं... मायके वालों से क्यों नहीं कहते कि हमारे कुछ सपने है पहले उसे पूरा कर दो फिर ब्याहना...सारे सपनें पूरा करने का ठेका ससुराल वालों ने ले रखा है ? " 

---लड़कियों के सपने हम नहीं समझेंगे तो फिर उन अनजान लोगों से क्या उम्मीद रखना ?

----पुरुष के सपनें पूरा करने के लिए औरत हमेशा परछाईं की तरह उसके पीछे खड़ी रहती है पर एक औरत के लिए?

----पुरूष या तो स्त्री को जूते की नोंक पर रखते हैं या फिर सीधे सिर पर ही चढ़ाते हैं ।बराबरी का हक देना तो उन्हें आता ही नहीं ।

ये बहुत बड़ा संकेत है समाज व परिवार पति के लिए कि उसे कहां पर अपने में सुधार करना है । 

अनीता दुबे की `एक चिठ्ठी `की नायिका के अनुभव हैं---` पत्नी के लिए पति तो जंगल का राजा सिंह के समान था । जो दो कदम कमरे में रखे तो धरती कांप जाये । दिशा के सारे सपने छूमंतर हो जाते रहे । कभी भी दिशा मन मुताबिक़ काम ना कर सकी । दिशा के मन में कम पढ़े लिखे दूधवाले तेजसिंह का स्थान किसी फ़िल्मी हीरो से कम नहीं था । जो अपनी पत्नी को पूरी सुरक्षा के साथ कदम मिलाकर चलने के लिए चल पड़ा था ।`

ये अपनी सेविका दिशा, कम पढी लिखी लड़की को आँखे फाड़ कर सुनती और सोचती है- इसके पास छत ज़रूर किराये की है लेकिन इसकी उर्जा,संसार,शरीर और मन उसका ही है । दिशा तब स्वयं के बारे में भी सोचती कि इधर उसकी उर्जा बस स्वयं को छुपाने, नक़ली खुशी का संसार दिखाने में लगा था और शरीर जैसे बिना धड़कन के मिट्टी और मन कठपुतली बन चुका था । क्रांक्रीट की छत तो खुद की थी पर उसमें रहने वाली दिशा का मन किसी खाई की गहराई में गुम क़ैदी सा था । `` -- ये उलझन, ये तड़प उस स्त्री दिल की है जो चाहकर भी अपनी ज़िंदगी में कोई काम नहीं कर पा रही । 

कितनी ही स्त्रियों को शादी के बाद सुनना पड़ता है - `तुम नौकरी नहीं करोगी क्योंकि नौकरी करते ही स्त्री चालू हो जाती है । ` या शादी के कुछ बरसों बाद -``इतना बड़ा शहर है तुम एक नौकरी भी नहीं ढूँढ़ सकतीं ?``या `` रूपा [पति की मित्र की पत्नी ]को पचास हज़ार रूपये बोनस मिला है । ``[आँखें जता रहीं होतीं हैं - एक तुम हो जो मुफ़्त में रोटी तोड़ रही हो  ] । ये बात और हैं की रूपा के बच्चों व नायिका के बच्चों के व्यक्तित्व में ज़मीन आसमान का अंतर है । यही बात इन कहानियों में पढ़ने को मिलेगी । स्त्री नौकरी करती है तो ताने --नौकरी छोड़ती है तो घरवालों की बौखलाहट । 

` ग्यारहवीं कक्षा की, छमाही परीक्षा वाली कापियां जांचकर, शीघ्रातिशीघ्र जमा करनी थीं । रिपोर्ट- कार्ड में नम्बर चढ़ाने का काम तो स्कूल के फ़्री - पीरियड में भी हो सकता था... ।`` ये ताना विनीता शुक्ला की नायिका को मिल रहा है । घर में स्कूल के काम में समय लगना था... और अपेक्षित थी मानसिक शांति भी! उसके भाग्य में, दोनों नहीं थे ।`

बकौल विनीता शुक्ला कि सुहागन कहलाने के लिए, खुशियों की बलि देनी होगी । विनीता शुक्ला की कहानी बहुत अलग उस जी तोड़ मेहनत करने वाली उस अध्यापिका की है जो डेली अपडाउन करती है । बदले में उसे क्या मिलता है ?

प्रभा जी की कहानी से...`याद आता है स्त्री अधिकार पर किसी परिचर्चा के दौरान उसकी सीनियर रेखा दी बोली थीं- “सिमोन दा बाऊवा के ही कथन को थोड़ा और विस्तारित करें, तो- `माँ` पैदा नहीं होती, बनाई जाती हैं । `सच, पैदा होते ही घरों के निर्देशों- संस्कारों से, स्कूल की शिक्षा से, समाज धर्म के विधि विधानों से, कविता-कहानी, गीतों से, फ़िल्मों और धारावाहिकों के घिसे-पिटे संवादों से, हर औरत के मन में `आंचल में है दूध और आँखों में पानी ` वाली माँ की ऐसी अमिट छवि उकेरी गई है कि उससे जरा भी दांये बांये होना, अक्षम्य अपराध जैसा लगता है ।"

मैं इस बात से अर्द्ध सहमत हूँ क्योंकि स्त्री के दिल में कोमलता, ममत्व प्रकृति प्रदत्त है लेकिन सिमोन की इस बात का प्रमाण है सीमा जैन की `रेवा और रंग `की नायिका के पति की ये हिदायत, ``, बाद में यह ना हो कि तुम्हारा सारा फ्रस्ट्रेशन हमारे उस मासूम बच्चे पर निकले । तुम उससे यह कहो कि ‘मेरा कैरियर इसके कारण बर्बाद हो गया । तुम्हें उस पर झुंझलाहट होने लगे । उसका आना कैरियर से भी ऊपर है । यदि तुम ऐसा सोचती हो तभी बच्चा होना चाहिए!” 

हाँलाँकि स्वत : अधिकतर स्त्रियों में बच्चे का आना कैरियर से ऊपर हो ही जाता है । 

इसी कहानी की नायिका आज की सास है इसलिये बहू को उसके कैरियर व परिवार में पूरा सहयोग करने की बात करती है । हाँलाँकि उसकी बहिन नसीहत देती है, ``साफ़ मना क्यों नहीं कर देती उसको? तूने कबीर के जन्म के समय अपनी पेंटिंग छोड़ी थी ना! तेरी सास ने भी तो साफ़ मना कर दिया था कि अब तुम्हें ही घर और बच्चे को देखना है । ”

अब दूसरी पारी यानि की संतान को पालकर बड़ा कर देना । जिनके पास कैरियर नहीं होता वे डॉ. लता अग्रवाल की नायिका की तरह घर में उलझी रहती है ---` बाज़ारवाद एवं देश दुनिया से बेखबर रोज इसी ताने-बाने में रहती रोहित को क्या पसंद है... आज राहुल की क्या फरमाइश है, उनके स्कूल के आने का वक्त हो गया है, उन्हें होमवर्क कराना है, रात को सोते वक्त कहीं चादर तो नहीं सरक गई बच्चों पर से ।`

डॉ. लता अग्रवाल की नायिका की वृद्धावस्था में बच्चे परदेस बस गये हैं । इन महिला को अवसाद में घिरा देखकर पड़ौसी व एक डॉक्टर के संवादों से - ‘‘ममता के छले जाने और अरमानों के टूटने का ग़म है आंटी का ।``

घर को समर्पित स्त्री की दूसरी पारी की व्यथा किस तरह ज्योत्सना कपिल की कहानी में छलकी है ये आपको `और कितने युद्ध ?`पढ़कर पता लगेगा--- " पागल हो गई हो क्या ? इतनी बढ़िया नौकरी छोड़ दी ! पर मुझसे पूछती तो । " अम्बर को उसकी मोटी सैलरी से वंचित रह जाने का बेहद मलाल हो रहा था । " ऐसी स्त्री बहू की नौकरी के कारण पोते पोती भी पालती है लेकिन उसे क्या मिलता है ?

बेटे जब छोटे थे कुछ शैतानी करते तो मैं कहती कि, ``जब पता लगेगा जब मम्मी सुबह से शाम तक की नौकरी कर लेगी ।`` मेरा छोटा बेटा पांच वर्ष का हो गया था । उसने कमर पर दोनों हाथ रखकर जवाब दिया, ``जाइये कर लीजिये नौकरी । ओये --होये हम तो बड़े हो गये हैं । ``बात साधरण थी लेकिन ये बात मेरे दिल में एक ज़बरदस्त घूँसे की तरह लगी थी । बस ऐसा लगा कि घर में मेरा कोई रोल नहीं बचा है । मैंने कहानी लिखी थी, `लौटी हुई वह `जिसमें नायिका को लगता है कि वह अँधेरे कुँये के तल में जी ही है, दुनियाँ के उजाले में अपनी हिस्सेदारी के लिये तड़प उठी है । 

और संतान पालकर वापिस लौटने की यात्रा इतनी आसान है ? बाहर की दुनियाँ में आकर लगता है हर स्त्री को कि वह अपने को ज्ञान शून्य उजबक सा क्यों महसूस कर रही है ? या प्रगति गुप्ता की नायिका किसी स्त्री रोग विशेषज्ञ के हाथ ऑपरेशन थिएटर में बरसों बाद जाकर औज़ार पकड़ने पर कांपने लगते हैं । क्यों ?

समय बदला है इसलिए अब सिर्फ़ अध्यापिका, प्राध्यापिका या डाक्टर की कहानियां ही नहीं लिखीं जातीं हैं । बहुत सी महिलायें घर पर अपना कुछ आमदनी का ज़रिया ढूंढ़ लेतीं हैं । आप इस संग्रह में इनके साथ मिलिये कत्थक, भारत नाट्यम नृत्यांगना, कवयित्री, पेंटर, हैंडी क्राफ़्ट मेकर , एक संस्थान की उच्चाधिकारी, पत्रकार व अपने जीवन की दूसरी पारी जीती आभासी दुनियां में अपने को तलाशती स्त्रियों से जिन्होंने कैरियर में ख़ुद ब्रेक लिया । अपने मातृत्व को सहेजा है । कहना होगा ये संग्रह वर्तमान में स्त्री जीवन में हुए बदलाव का भी दस्तावेज है । 

स्त्री जीवन के इन्हीं दुखते बिंदुओं पर ऊँगली रखना भी इस पुस्तक का उद्देश्य है । बस थोड़ी होशियारी की ज़रूरत 

है । स्त्रीं दोनों नावों पर सवार होकर जीवन यात्रा कर सकती है । ज़िम्मेदारी निबाहना बहुत अच्छी बात है लेकिन कहीं स्त्री का निजत्व न खो कर रह जाए । वह उसे बंद आँखों में, किसी कोने में संभालकर ज़रूर रक्खे जिससे वह अपनी संतानों से कह सके,``बस तू ही नहीं, मैं भी । ``

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समीक्षात्मक आलोचना

साधुओं के विषय में आम धारणाएं और भ्रम को तोड़ता उत्कृष्ट उपन्यास

"बचपन से ही मेरे मन में आकांक्षा थी कि मैं नागा साधुओं पर काम करूं । नागा साधु हर एक पल मेरे मन में जिज्ञासा जगाते थे किंतु उनके विषय में न तो मुझे आंकड़े मिल रहे थे और ना कोई संदर्भ ग्रंथ या पुस्तक । जब जनवरी 2012 में प्रयागराज में 55 दिनों का महाकुंभ का मेला भरा । इस मेले में जाने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ । नागाओं के विभिन्न अखाड़ों में से जूना अखाड़े के महंत से मेरा साक्षात्कार हुआ । उन्होंने मुझे नागा पंथ की संपूर्ण जानकारी दी । इस प्रत्यक्ष जानकारी के आधार पर ही मैंने यह उपन्यास लिखा । न केवल नागाओं के विभिन्न अखाड़े बल्कि अघोरी पंथ, शक्तिपीठ का भी इसमें जानकारी युक्त वर्णन किया है ।"

उक्त विचार संतोष श्रीवास्तव ने 31 अक्टूबर 2023, मंगलवार को हिंदी भवन के महादेवी वर्मा सभागार में "उपन्यास लेखन का उद्देश्य एवं नागा साधु बनने की प्रक्रिया पर" एक प्रश्न के उत्तर में व्यक्त किये । 

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री संचालक तथा कार्यक्रम के अध्यक्ष कैलाश चंद्र पंत ने इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि "साहित्यकार एक संवेदन शील व्यक्ति होता है । यही कारण है कि संतोष श्रीवास्तव ने अपनी सूझ- बूझ से, अपनी काल्पनिक शक्ति से एक महत्व पूर्ण रचना रची है ।

नागा साधु मूलतः धर्म रक्षक सेना थी । अपनी तंत्र साधना के बाद ये लोग कई रहस्यमय कार्य करने लगे । यह उपन्यास उन्हीं रहस्यों को उजागर करता है ।"

मुख्य अतिथि डॉ. राजेश श्रीवास्तव, मुख्य कार्यपालन अधिकारी तीर्थ एवं मेला विकास प्राधिकरण, अध्यात्म मंत्रालय, मध्य प्रदेश प्रशासन ने कहा कि मैंने कई कुम्भ मेले पहले भी देखे हैं । अनेक साधु - संतों का सान्निध्य प्राप्त हुआ है । उनकी दिनचर्या को बहुत ही करीब से देखा है लेकिन इस उपन्यास को पढ़ने के बाद, साधु संतों के बारे में जानने की जिज्ञासा और बढ़ गई है । उन्होंने कैथरीन और विभिन्न पात्रों की मनोदशा की विवेचना करते हुए कहा कि " संतोष जी ने विभिन्न प्रयोग किए हैं जिस पर शोध किया जाना आवश्यक है ।"

विशिष्ट अतिथि ने कहा कि मैंने समाज के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों से साक्षात्कार लिए हैं । उनकी ज़िन्दगी को नज़दीक से देखा है लेकिन आज की चर्चा के विमर्श ने मुझे एक नया उद्देश्य दिया है । वैसे भी इस पुस्तक को पढ़कर मेरे मन में साधुओं को कवरेज करने की जिज्ञासा बढ़ गई है । उन्होंने संतोष जी के जीवन को तुलसी के इस दोहे से तुलना की । 

"तुलसी इस संसार में दुख सुख सबको होय

ज्ञानी काटे ज्ञान से मूरख काटे रोय ।"

मधुलिका सक्सेना 'मधु आलोक', ने " कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया" उपन्यास के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करते हुए इस विमर्श को अपने उत्कर्ष पर पहुंचा दिया । उन्होंने कहा कि - "उत्कृष्ट साहित्य कृति में मानवीय संवेग होना जरूरी है । जो इस उपन्यास में है ।"

डॉ. क्षमा पांडेय ने बताया कि मैं संतोष जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से भली भांति परिचित हूँ । वे जब एक बार प्रण कर लेती हैं तो पीछे पलटकर नहीं देखतीं । मैंने उनका उपन्यास "मालवगढ़ की मालविका " भी पढ़ा है । जब एक बार पाठक पढता है तो पढता ही चला जाता है । वे अपने उपन्यास के पात्रों के साथ जीती हैं जब कहीं जाकर अपनी कलम उठाती हैं ।

मुज़फ्फर सिद्दीकी ने सभी उपस्थित सुधीजनों का आत्मीय स्वागत किया ।

कार्यक्रम का शुभारम्भ महिमा श्रीवास्तव वर्मा के सुमधुर स्वर में सरस्वती वंदना से हुआ ।

आभार डॉ. विनीता राहुरिकर ने व्यक्त किया ।

अक्षरा पत्रिका की सह संपादक जया केतकी शर्मा ने कार्यक्रम को एक सूत्र में पिरोकर सभी को बांधे रखा ।

प्रस्तुति : - मुज़फ्फर सिद्दीकी

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दोआबा अकादमी द्वारा पत्रिका साहित्य सिलसिला का विमोचन

फगवाड़ा, पंजाब के शिरोमणि साहित्यकार डॉ. अजय शर्मा द्वारा संपादित पत्रिका साहित्य सिलसिला के नये अंक का आज दोआबा साहित्य एवं कला अकादमी के कार्यालय में अकादमी के अध्यक्ष डॉ. जवाहर धीर, दूसरे शिरोमणि साहित्यकार तरसेम गुजराल तथा जाने‌ माने कवि दिलीप कुमार पाण्डेय की उपस्थिति में विमोचन किया गया ।

अपने संबोधन में अकादमी के अध्यक्ष डॉ. जवाहर धीर ने डा अजय शर्मा तथा संपादक मंडल के अन्य सदस्यों को बधाई देते हुए कहा कि प्रसिद्ध साहित्यकार ममता कालिया को फोकस में रखकर तथा डॉ. अजय शर्मा के सत्रहवें उपन्यास 'खारकीव के खंडहर', जो रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध पर आधारित है, को इस अंक में प्रकाशित करके इसे संग्रहनीय बना दिया है । डॉ. तरसेम गुजराल ने कहा कि साहित्य सिलसिला में ममता कालिया पर अनेक लेखकों के प्रकाशित लेख उनके लेखन व उनके व्यक्तित्व का दर्शन करवाते हैं । कवि दिलीप कुमार पाण्डेय ने अंक में प्रकाशित लेखकों की रचनाओं के‌ चयन की प्रशंसा की । डॉ. अजय शर्मा ने दोआबा साहित्य अकादमी का आभार व्यक्त करते हुए इस बात की प्रशंसा की कि अकादमी द्वारा समय समय पर लेखकों की पुस्तकों तथा पत्रिकाओं का लोकार्पण करके साहित्यकारों को मंच प्रदान करते हैं ।

साहित्य सिलसिला के इस अंक में जाने माने साहित्यकार डॉ. जवाहर धीर, गीता डोगरा, सरला भारद्वाज, पान सिंह, कमलेश भारतीय,मनोज धीमान,प्रेम विज, दिलीप कुमार पाण्डेय, नीलम कुलश्रेष्ठ आदि की रचनाएं प्रकाशित की गई हैं ।

चित्र : शिरोमणि साहित्यकार डॉ. अजय शर्मा तथा तरसेम गुजराल, डॉ. जवाहर धीर तथा दिलीप कुमार पाण्डेय साहित्य सिलसिला का विमोचन करते हुए ।




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