साहित्य नंदिनी, जनवरी 2024






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समीक्षा


डॉ. राकेश रंजन,  सहायक प्राध्यापक,  अध्यक्ष, हिन्दी विभाग

एम. डी. डी. एम. कॉलेज, मुजफ्फरपुर, बिहार-842002

 ईमेलः rakeshranjancritic@yahoo.in मो. नं. : 9435413575


‘अक्षयवट’ : एक अप्रतिम नाट्य-प्रयोग 

‘अक्षयवट’ डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह विरचित एक ऐसी नाट्यकृति है जो मानव और मानव सभ्यता के विकास का रूपक है । साथ ही वर्तमान युग की आपाधापी और भौतिकता के अंधे दौर में प्रस्तुत यह नाटक वैश्विक उष्णता से परितप्त मानव-जाति को शांति और शीतलता की छाँव प्रदान करता है ।1 

मानव सभ्यता का विकास काफी उथल-पुथल भरा रहा है, कभी वह हर्ष से आह्लादित हुआ है तो कभी विषाद के अँधेरे में भी छटपटाता दिखा है, किन्तु वह जीवट का धनी है, लाख-लाख बाधाओं को पार कर आगे बढ़ता ही रहा है । ‘अक्षयवट’ समाज का यही मिथकीय प्रतीक है । ‘अक्षयवट’ इस अर्थ में अक्षय है, अक्षर है । नाटककार ने नाटक भी भूमिका में इस ओर संकेत भी किया है- ‘अक्षयवट तो अक्षयवट है । इसका विनाश नहीं होता । वह आघातों को सह लेता है और बदले में आघात पहुँचानेवालों का हरे-हरे पत्तों से स्वागत करता है ।’2 नाटककार ने ऋग्वेद के एक मंत्र3 का आशय लेकर यह ध्वनित किया है कि वनस्पति यदि सैकड़ों बार क्षत-विक्षत होता है तो उसमें हजार-हजार नये पल्लव उगते रहते हैं-

‘‘शस्त्रों से कट कर भी

बार-बार महावट

सौ शाखों नवकल्लों से

पाता विकास है सदा ।’’4

अर्थात् समाज की यात्रा अनन्तकालीन यात्रा है । संभव है, उसके कोई पेड़ किसी कारण से गिर जायें, किन्तु उसका बीज अंकुरित हो उसकी यात्रा को जारी रखता है । समाज-यात्रा की यही सार्वकालिकता छहों अंकों के साथ ‘अक्षयवट’ नाटक की सर्जना करती है । 

प्रथम अंक में सभ्यता के अभ्युदयकालीन समाज का चित्रण हुआ है । प्राकृतिक घटनाएँ मनुष्य के लिए जिज्ञासामूलक हैं । वह आँधी-तूफान, उमड़ते-घुमड़ते बादलों से अपने को घिरा पाता है । वह भयाक्रांत हो अपनी सुरक्षा के लिए अपने नायक इन्द्र का आह्वान करता है । उसे विश्वास है कि उसका नायक इस ‘वृत्त’ का संहार करने में सक्षम है, जिसने उसे आवृत्त कर रखा है । यह विदित है कि वैदिककालीन समाज की आस्था इन्द्र के प्रति थी और वह इन्हें संकटों से उबारने में सक्षम नायक था । इस आह्वान के बीच नाटककार ने बड़ी चालाकी से अपने युग को ध्वनित किया है-‘‘अब विलम्ब न करो । तुम कलियुग के नेताओं की भाँति राहत सामग्री जुटाने, भेजने और वितरण करने की योजना ही बनाते न रह जाओ । तुम नये कल्प के नायक ही नहीं, जनक भी हो । अतः शीघ्र आओ, शीघ्र आओ ।’’5 भय से त्राण दिलानेवाले इन्द्र के आवाहन के साथ प्रथम अंक का पटाक्षेप होता है । 

द्वितीय अंक में हम यह देखते हैं कि समाज की आस्था ने अपनी सुरक्षा व संवर्द्धन के लिए जिस इन्द्र को नायक बनाया वह तो ऐशो-आराम में लिप्त होता जा रहा है । यहाँ नाटकार ने इन्द्र के बहाने आधुनिक नेताओं और अधिकारियों की सत्ता-लिप्सा, भोग-लिप्सा का जीवन्त चित्र उपस्थापित किया है और लोमश जैसे अनासक्त ऋषि के द्वारा उनकी तुच्छता का अवबोेधन कराया है । इन्द्र कहता है- ‘‘अशरीरी होते हुए मैं शरीर को जी रहा
हूँ । भाग्य की कैसी विडम्बना है ऋषिवर कि मैं कामना के हाथ की पुत्तलिका बनकर रह गया हूँ । मैंने द्यौ और अन्तरिक्ष का भ्रमण करना छोड़ नन्दनवन को ही सबकुछ मान लिया है । मेरी कूपमण्डूकता का यह अपराध अक्षम्य है ऋषिवर! अक्षम्य! मुझे मेरे अपराधों के लिए क्षमा कर दीजिए प्रभो! मैं अपने पूरे पार्षदों के साथ आपकी शरण में हूँ । 6’’

नाटककार गाँधीवाद से अत्यधिक प्रभावित है । पाप-शोधन के लिए पश्चात्ताप का विधान गाँधी दर्शन स्वीकार करता है और यह भारतीय मनीषा और समाज स्वीकृत भी है । महर्षि लोमश कहते हैं-‘‘ पश्चात्ताप में बड़ा बल
है । पश्चात्ताप ने आप सबके कलुष को धोकर निर्मल कर दिया है । जानते नहीं, अपने अपराधों के लिए पश्चात्ताप वही करता है जिसका आत्मभाव जग गया हो । जाग्रत आत्म-भाव ही विश्वात्मा के दर्शन करता है । ’’7 पश्चात्ताप से पूत इन्द्रादि देवगणों के प्रति शुभाशिष एवं स्वस्तिवाचन के साथ द्वितीय अंक समाप्त होता
है । 

तृतीय अंक में उद्दण्ड और निष्ठुर मानव अपने तीक्ष्ण कुठार से वनस्पति जगत् का संहार कर रहा है, उसकी महत्त्वाकांक्षा की अग्नि में प्रकृति की सुषमा झुलस रही है । पर्यावरण संबंधी अपने चिन्तन की प्रस्तुति के लिए नाटककार सत्यवान्-सावित्री के पौराणिक आख्यान को नये संदर्भों में प्रस्तुत करता है । पेड़-पौधों को काटकर पर्यावरण का संहार करने वाला प्रकृति के द्वारा अभिशप्त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है । फिर मनुष्य की ऊर्ध्वचेतना अनेक बाधाओं को पार कर मृत्यु पर विजय पाती है । उसे यह बोध हो जाता है कि प्रकृति पर प्रहार अपने आप पर प्रहार है, क्योंकि यह वट ही ब्रह्मा है, जनार्दन है, शिव है । वट ही सावित्रीस्वरूपा है । वह पूज्य है । 

‘‘वटमूले स्थितो ब्रह्मा वटमध्ये जनार्दनः । 

वटाग्रे तु शिवोदेवः सावित्री वट संश्रिता । 

वटं सिंचामि ते मूलं सलिलैरमृतोपमैः ।’’ 8

चतुर्थ अंक में लोभ और मोह ने मनुष्य के समाज - धर्म को लँगड़ा बना दिया है । समाज अपने लँगड़ेपन के इस संत्रास को भोगने के लिए बजबूर है । नाटककार ने सीता, लक्ष्मण, रावण और जटायु के माध्यम से ‘रामायण’ के ‘सीताहरण’ प्रकरण को नये संदर्भों में प्रयुक्त किया है । जटायु का कथन-‘‘यद्यपि मैं नीच कुलोत्पन्न, मृत पशुओं का आहार करनेवाला और वृद्ध हूँ तथापि किसी अबला के साथ बलात्कार जैसे नीच कर्म को नहीं देख सकता । उस पर तुम तो मेरे मित्र की पुत्रवधू होने के नाते मेरी भी पुत्रवधू ही हो । यह उच्च कुलोत्पन्न होने का दम्भ भरनेवाला नीचकर्मा रावण शीघ्र ही मेरे तीक्ष्ण पंजों और प्रबल डैनों के प्रहार से यमराज का प्रिय बनेगा ।’’9 यहाँ सीता और रावण के द्वारा मानवीय दुर्बलताओं से छिन्न-भिन्न हुए सामाजिक मूल्यों का संवेदनशील चित्र उपस्थित किया गया है । 

पंचम अंक में यह दिखलाया गया है कि समाज का अमरत्व सिर्फ वरदान ही नहीं, उसका अभिशाप भी है । समाज जीवन का दंश रात-दिन झेलने के लिए विवश है । विजयी पाण्डव और उनकी सेना सुख की नींद में है और पराजय का दंश अश्वत्थामा को सोने नहीं देता । कृपाचार्य और कृतवर्मा को छोड़कर उसके सारे साथी मारे जा चुके हैं और यह जीवन का दंश झेलने को विवश है, लेकिन यह विवशता उसे स्वीकार नहीं है । वह अब वीरता-कायरता की परिभाषा, जिसे समाज ने अपनी सुविधा के अनुसार बना रखी है, उससे अलग सोचने और करने की बातें करता है । वह आचार्यों की मान्यताओं पर नहीं, अपने स्तर से जय-पराजय को परिभाषित करता है और उसे कार्यान्वित भी करता है । उसके प्रतिशोध की ज्वाला में सब कुछ स्वाहा हो जाता है और वह गर्भ पर प्रहार करने के लिए भी निकल पड़ा है । मानवीय त्रासदी की भयंकरता के साथ इस अंक का पटाक्षेप होता है । 

षष्ठ अंक में वैदिक काल के पहले से चली आती हुई मानव-सभ्यता का दीर्घकालिक समाज आधुनिक युग के चौखट तक आते-आते जाति, धर्म, सम्प्रदाय, समुदाय, प्रान्त, राष्ट्र इत्यादि में टूटकर बिखरता जा रहा है । अब समाज के अस्तित्व को लेकर, उसके स्वरूप को लेेकर, उसके गुण-धर्म एवं औचित्य-अनौचित्य को लेकर तरह-तरह के तर्क-वितर्क हो रहे हैं । ऐसी स्थिति बनाने में आम जनता ही नहीं, पुरोहित और बुद्धिजीवी वर्ग, सरकार और प्रशासन वर्ग - सभी के हाथ हैं । नाटककार की चिन्ता है- ‘‘हम कब एक होंगे? हमारे बाहर-भीतर कब एक होंगे? सदी पर सदी गुजरती जा रही है, अक्षयवट अब भी मौन खड़ा है, किन्तु हम कितने बदलते जा रहे हैं और उसे क्षत-विक्षत करते जा रहे हैं ।’’10 स्पष्ट है कि ‘अक्षयवट’ यानी हमारा जातीय सांस्कृतिक गौरवपूर्ण समाज विकास के दंश को भोगते जा रहा है । उसकी शाखों पर बैठे पक्षीगण कभी-कभी अपने डैने फड़फड़ा लेते हैं और खामोश हो जाते हैं । 

इस तरह हम देखते हैं कि वैदिक युग का मानव-समाज प्राकृतिक आपदाओं - वर्षा, आँधी, तूफान आदि से भयाक्रांत था जबकि आधुनिक समाज अपने द्वारा सृजित आपदाओं, समस्याओं, साम्प्रदायिक दंगों, भूख, भ्रष्टाचार, प्रशासनिक अराजकता आदि से । नाटक के सभी अंकों में किसी न किसी रूप में भय व्याप्त है और मनुष्य अपने अस्तित्व की रक्षा को बेचैन । 

जिस प्रकार कालिदास ‘रघुवंश’ में किसी एक कालखण्ड के एक राजा या उससे सम्बद्ध अन्य चरित्रों की कथा नहीं, बल्कि राजा रघु के पूरे वंश के नायकों का उसमें चरित्र निरूपण है उसी प्रकार ‘अक्षयवट’ में वैदिक युग से लेकर आद्यावधि भारतीय समाज की अन्विति उसके वैविध्यपूर्ण चरित्रों के द्वारा उद्भासित हुई है । 

प्रथम अंक में नाटककार ने प्रकृति और समाज के रहस्यमय चित्रों को कल्पित चरित्रों के द्वारा नाट्य रूप देने का प्रयास किया है । ऋग्वेद के कई मंत्रों का शोधन करके ऐसे चरित्रों की सृष्टि की गयी है । ऐसा देखने में आता है कि वैदिक काल में जो व्यक्ति देवता (दीप्तिवान्) थे, उन्हें प्रायः प्रकृति के स्वभाव और साधनों के देवकृत प्रतिनिधि मान लिये गये और उनमें मानवीय भावनाओं की चेष्टाओं की प्रतिष्ठा कर दी गयी । नाटक में इन्द्र से सभी लोग प्रार्थना करते हैं ।11

यहाँ इन्द्र की भौतिक ऐषणाएँ आरोपित गुणों के कारण छिप गयी हैं । इन्द्र मुख्यतः मेघ गर्जन के देवता हैं, किन्तु उनके चारों ओर विचित्र कल्पनाएँ इकट्ठी हो गयी हैं ।12 जबकि वे भारत के अनार्य निवासियों के विरुद्ध आर्यों का नेतृत्व करनेवाले एक आदर्श आर्य सेनापति प्रतीत होते हैं । 13 नाटककार ने प्रथम अंक में इन्द्र को मंच पर तो उपस्थित नहीं किया है, किन्तु उसके चरित्र की सृष्टि उसके सम्बन्ध में प्रचलित वैदिक मिथकों के आधार पर ही किया है कि वह मेघ-गर्जन करता है, वृत्त का संहार करता है, वह प्रजा का नायक है, सेनापति है, अपने दुर्ग की रक्षा करने में समर्थ है, प्रजा उसके अधीन है, उसके सत्कर्मों के कारण उसके प्रति कृतज्ञ है । उनका शौर्य और पराक्रम सभी पात्रों पर हावी है । वे महिमावान् चरित्र नायक हैं । 

वैदिक समाज में यज्ञ और प्रार्थनाओं का ही प्राधान्य था । यज्ञ के संबंध में कुछ रहस्यवादी भावनाएँ भी जोड़ दी गयी थीं जिनका संबंध एक ऐसी महाशक्ति से जोड़ा गया था जो सृष्टिक्रम को जारी रखती हैं । यहाँ तक कि यज्ञ से ही देवताओं और विश्व की उत्पत्ति की कल्पना की गयी । इस प्रतीकवाद से आगे चलकर यह मान्यता निकली कि प्रकृति की सारी व्यवस्था ही निरंतर चलने वाला एक महायज्ञ है । इस रहस्यवादी कल्पना के पीछे सत्य चाहे जो हो, किन्तु इतना तो सत्य है कि इससे सौंदर्य की चकाचौंध उत्पन्न होती है जिससे प्रभावित हुए बिना कोई नहीं रह सकता ।14 किन्तु इससे भिन्न पौराणिक कथाओं का प्रभाव द्वितीय अंक पर है । इसमें महर्षि लोमश एवं उनके शिष्यगण तथा इन्द्र, अग्नि, वरुण विश्वकर्मादि देवगण के चरित्रांकन के बहाने नाटककार ने वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था की पोल खोलने का प्रयास किया है । लूट-खसोट, अत्याचार-भ्रष्टाचार, अनाचार-व्यभिचार के अनेक रूपों का दर्शन कराया है । इन्द्र और अन्य देवगण विकास कार्य के नाम पर प्रजा के धन का दुरुपयोग अपनी सुख-सुविधा के साधनों को बढ़ाने में करते हैं । ब्रह्मचारी-3 कहता है- ‘‘इन्द्राणी के लिए नये अन्तःपुर, नये सचिवालय, सभासदों के लिए नये सभा-भवन एवं रंगशालाओं का निर्माण, उनके आवासों का आधुनिकीकरण, उद्यानों की सजावट, स्थल-स्थल पर सोमरस-पान-केन्द्र की व्यवस्था -ऐसी-ऐसी न जाने कितनी योजनाएँ सुनने में आ रही हैं ।’’15 महर्षि लोमश उन्हें संसार और वासनाओं की क्षणभंगुरता का अवबोधन कराते हैं । वे किसी उपदेशक की तरह ज्ञान नहीं बघारते, अपितु अपने आचार-विचार से उनलोगों को आत्म-साक्षात्कार के लिए विवश कर देते हैं । वे कहते हैं-‘‘देवराज! शरीर का पतन निश्चित है । आत्मिक तेज और बल से दीप्त होने के कारण ही आप देव है, कलुषित भोगों का उपभोग करने के कारण नहीं ।’’15 इससे पूर्व महर्षि लोमश ने अपने शिष्यों को कहा है कि चेतन वह नहीं है जो दिन-रात आपाधापी में, महत्त्वाकांक्षाओं की ज्वाला में दूसरों को जलाता है और स्वयं भी उसमें तिल-तिल जलता है । उससे श्रेष्ठतर तो ये जड़ पदार्थ हैं जो दूसरों को निरंतर देते ही रहते हैं, लेते कुछ नहीं ।’’16 स्पष्ट है कि चरित्रों का संयोजन अत्यन्त ही जीवन्त तरीके से हुआ है जिनमें पर्यावरण संरक्षण, नेताओं द्वारा राजकोष के दुरुपयोग को ध्वनित किया गया है । 

‘महाभारत’ के ‘वनपर्व’ पर आधारित तृतीय अंक की कथा है । वस्तुतः ‘महाभारत’ में अन्तर्भुक्त होने से पहले यह कथा भारतवर्ष के कोने-कोने में ख्यात थी । प्राच्य विद्याविद वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है- ‘‘ज्ञात होता है कि पंजाब के सावित्रीपुत्रकों में ही सावित्री और सत्यवान् का यह महद् उपाख्यान जातीय पवाड़े के रूप में सुरक्षित चला आता था । जहाँ से वह महाभारत में अन्तर्भुक्त हुआ ।17 डॉ. अग्रवाल ने ‘कर्ण पर्व’ और ‘अष्टाध्यायी’ से हवाले यह सिद्ध किया है कि सावित्रीपुत्रक प्राचीनकाल में गणराज्य था जिसकी स्थापना सावित्री के पुत्रों ने की थी । यहाँ ‘पुत्र’ शब्द ‘ख्यात’ या ‘कबीले’ का वाचक है ।18 स्पष्ट है कि ‘महाभारत’ से पूर्व सत्यावान्-सावित्री की कथा ही ख्यात नहीं थी, अपितु उनके पुत्रों द्वारा स्थापित राज्य गणराज्य की भी प्रसिद्धि थी । इसी कथा को आधार बनाकर डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह ने अपने समकालीन युग की चेतना की अभिव्यक्ति की है । इसके लिए नाटककार ने पुरुष-1,2 तथा 3 एवं स्त्री-1,2 तथा 3 की सृष्टि की है । काल्पनिक पुरुष एवं स्त्री पात्रों के चरित्र एवं चिन्तन के द्वारा सामयिक बोध एवं सामन्ती समाज के ‘अहं’ को भी वाणी दी गयी है । 

सावित्री के चरित्र में संयम, गाम्भीर्य, विनम्रता, निष्ठा और बुद्धिमत्ता है । वह पुरुष-1 से कहती है- ‘‘समय का फेर है आर्य! कभी सामान्य विशिष्ट बनता है तो कभी विशिष्ट सामान्य ।’’19 इसी तरह वह यमराज से कहती है- ‘‘धर्मदेव! धर्म कोई रूढ़ और अंध अवधारणा नहीं है, वह सतत गतिशील युग-सापेक्ष ऊर्ध्वमुखी चेतना है । वह प्रारब्ध के हाथ की मृत्त पुत्तलिका नहीं, कर्म क्षेत्र से उत्पन्न सचेतन ज्ञान-तत्त्व है ।’’20 उसके विनम्र तर्कों के सम्मुख यमराज अपने को पराजित अनुभूत करते हैं, किन्तु सावित्री शालीनतापूर्वक कहती है-‘‘पराजित न कहे तात! हम दोनों में कोई युद्धभाव न तो था और न है । मैंने तो बस आपको प्रसन्न करने का प्रयास किया है ।’’21 और दूसरी ओर यमराज, जो विधि के विधान के अनुयायी हैं, उसके कार्यान्वयन में मनमानी नहीं करते । उनका यंत्रवत् जीवन भी मानव-संवेदना से अभिभूत हो जाता है । वे विधि के निर्मम विधान को छोड़ देते हैं- ‘‘नहीं, मैं परास्त हूँ और परास्त व्यक्ति के पास जो कुछ भी होता है उस पर विजेता का अधिकार होता है । इसलिए तुम सत्यवान को स्वीकार करो । सत्यवान् सिर्फ तुम्हारा है, तुम्हारा है ।’’22

आलोच्य अंक का प्रारंभिक भाग नाटककार की मौलिक उद्भावना है । नाटक में सत्यवान् अकेले वन में लकड़ी काटने जाता है जबकि ‘महाभारत’ में उसके साथ सावित्री भी जाती है,23 क्योंकि उसे नारद का कथन याद है ।24 वह आज घटित होनेवाली घटना के प्रति आश्वस्त है ।25 नाटक में सत्यवान के पेड़ से गिर जाने के बाद सावित्री को घटना की सूचना दी जाती है, तब वह घटना-स्थल पर आती है । घटना-स्थल पर स्त्री-पुरुष का जमघट लगना और इनलोगों की बातों से धीरे-धीरे सत्यवान् और सावित्री के चरित्र और जीवन के अँधेरे पक्ष पर प्रकाश पड़ता है । नाटककार ने पूरी नाटकीयता के साथ सावित्री और सत्यवान् तथा उनके परिवेश को मूर्त करने में सफलता पायी है । 

चतुर्थ अंक में सीता, लक्ष्मण, रावण और जटायु वाल्मीकिकृत ‘रामायण’ से लिये गये पात्र हैं । रामायण-काल तक आते-आते धर्म का एक पैर टूट गया है, फिर भी वह लँगड़ाता हुआ आगे बढ़ता जा रहा है । समाज भिन्न-भिन्न समुदायों, वर्गों से अभिहित होने लगा । उसकी अखण्डता को तोड़ने के प्रयास तो हुए है, किन्तु वह अब भी सबका संरक्षक और पालक ही है । ‘अक्षयवट’ को वह महावट, न्यग्रोध इत्यादि नामों से पुकारा तो जा रहा है, किन्तु वह सबकी गतिविधियों के प्रति समान रूप से संवेदनशील है । समाज भी देवता, मनुष्य, गंधर्व, राक्षस, पशु-पक्षी इत्यादि समुदाय और जातियों में बँट चुका है । अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए एक-दूसरे से लड़-झगड़ रहे हैं । 

निर्वासित राजकुमार राम, जो संन्यासी के वेश में पंचवटी में रह रहे हैं, मंच पर दिखायी नहीं देते, किन्तु सीता, लक्ष्मण, रावण और जटायु सभी किसी न किसी रूप में उनसे प्रभावित हैं, उनकी प्रतिक्रिया या अनुक्रिया में काम करते हैं । सीता यहाँ एक दुर्बल नारी चरित्र के रूप में चित्रित है । राम के वनवास के कारणों के प्रति उसने अपने मन में जो धारणा बना रखी थी, उन दमित भावनाओं को वह लक्ष्मण के सम्मुख खुलेआम व्यक्त करती है- ‘‘चुप रहो कुलांगार । तुम्हारी भ्रातृभक्ति की ओट में मेरे प्रति घृणित आसक्ति प्रकट हो रही है । और यदि ऐसा नहीं है तो भरत ने कूटनीतिक चाल चलकर हमलोगों के साथ तुम्हें भेजा है ।’’26 रामायण की सीता कुछ इसी तरह कहती है- 

सुदुष्टस्त्वं वने राममेकमेकोऽनुगच्छसि । 

मम हेतोः प्रतिच्छन्नः प्रयुक्तो भरतेन वा । ।27

मैं तुमसे नियोग नहीं कर सकती, तुम्हारी नैमित्तिक अंकशायिनी भी नहीं बन सकती । ’’28 रामायण की सीता बोलती है-

पिबामि वा विषं तीक्ष्णं प्रवेक्ष्यामि हुताशनम् । 

न त्वहं राघवादन्यं कदापि पुरुषं स्पृशे । ।29

सीता ने भ्रातृधर्म पर प्रहार किया और भ्रातृभक्त लक्ष्मण अपने भ्राता के आज्ञा-बंधन को तोड़ने के लिए विवश हो जाता है-

स्त्रीत्वाद दुष्टस्वभावेन गुरुवाक्ये व्यवस्थितम् । 

गच्छामि यत्र काकुत्स्थः स्वस्ति तेऽस्तु वरानने।। 30

धर्म के पैर टूटते ही सीता का अपहरण हो जाता है । 

रावण राक्षसों का अधिपति है । श्रीराम ने जनस्थान में चौदह हजार राक्षसों को मार डाला है । दोनों का वैरसम्बन्ध और प्रबल हो उठा है । भूल जाता है कि वह ब्राह्मण कुलोत्पन्न है, सीता संन्यासिनी है । वह अपनी कामाग्नि इससे शान्त करेगा, इसलिए उसका अपहरण कर लेता है । वह ब्राह्मणोचित इन्द्रियसंयम, त्याग, तपस्या के स्थान पर मांस लोलुप हो गया है । उसकी इस मांस-लोलुपता को मांसभक्षी जटायु नामक गीध भी निकृष्ट कर्म बतलाता है । ब्राह्मण रावण व्यभिचार, दुराचार और अनाचार में लिप्त है जबकि नीच गीध परदुःखकातर, दयालु और आत्मबलिदानी है । इसीलिए वह रावण का प्रतिरोध करता है और द्वंद्व-युद्ध में रावण से आहत होकर गिर जाता है । लँगड़ा समाज अपहृता सीता का आर्त्तनाद-‘‘हा लक्ष्मण । हा रघुनंदन । ’’ सुनने को विवश है । लोभ और मोह के प्रहार से कर्तव्य-बोध या तो लाचार हो जाता है या विवश हो जाता है । मूल्यों का यह टकराव समाज के मंच पर अँधेरा बनकर छा जाता है । 

पंचम अंक की कथावस्तु महाभारत के ‘सौप्तिक पर्व’ के अध्याय एक से लेकर पाँच तथा आठवें से ली गयी है । इसमें कुल तीन पात्र हैं- अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य । अश्वत्थामा द्रोणाचार्य का पुत्र है । यह पराक्रमशाली है और दुर्योधन का मित्र भी है । द्वन्द्व युद्ध में क्षत-विक्षत दुर्योधन ने अपना सेनापति उसे बना दिया है । कृपाचार्य अश्वत्थामा के मामा हैं । द्रोणाचार्य के साला हैं । कौरव कुल के आचार्य भी हैं । कृतवर्मा दुर्योधन की ओर से युद्ध करनेवाला सात्वतवंशी योद्धा है । ये तीनों युद्धोपरांत बचे हुए हैं, थके हुए हैं, लेकिन अश्वत्थामा को नींद नहीं आती, वह प्रतिशोध की अग्नि में जल रहा है । इन तीनों पात्रों के माध्यम से वर्तमान राजनीति के खेल और पेंच में मानवता के अस्तित्व को ध्वस्त होते हुए दर्शाया गया है । राजनीति में अच्छे-बुरे सब जायज हैं । वीरता और कायरता की अपनी-अपनी परिभाषा गढ़ ली जाती है । अश्वत्थामा कृपाचार्य से कहता है- ‘‘मामाश्री! वीरता जहाँ परास्त होती है, कायरता वहीं जन्म लेती है और सच्ची कायरता पराजय का दंश नहीं झेलती, जय का गला घोंट देती है, जिसे आप जैसे विद्वत् जन असहिष्णुता और क्रूरता की पराकाष्ठा कहते
हैं ।’’31

‘महाभारत’ का अश्वत्थामा भी कृपाचार्य से अपनी क्रूर योजना बतलाता है-

‘‘अहं तु कदनं कृत्वा शत्रूणामद्य सौप्तिके । 

ततो विश्रमिता चैव स्वप्ता च विगतज्वरः ।।’’32

कृपाचार्य अलग विचार रखते हैं । उनका कहना हैै-‘‘वीरता जय-पराजय की सीमा से काफी ऊपर की साहसिक, स्वच्छन्द और लोकरंजक उदात्त भावना है जो मानवता की संरक्षा और समृद्धि के लिए संकल्पित होती है ।33

इसलिए ‘महाभारत’ का कृपाचार्य सुषुप्तावस्था में शत्रुओं को मारना निन्दित कर्म बतलाते हैं । अतः मन को वश में करके उसे कल्याणसाधन में लगाना चाहिए ताकि फिर कभी पश्चात्ताप न करना पड़े । 

‘‘स कल्याणे मनः कृत्वा नियम्यात्मानमात्मना । 

कुरु मे वचनं तात येन पश्चान्न तप्यसे ।’’34

कौरव दल के सेनापति अश्वत्थामा किसी की बात मानता नहीं । उसके हृदय में प्रतिशोध की अग्नि जल रही है-

‘‘न स जातः पुमाँल्लोके कश्चिन्न स भविष्यति । 

यो मे व्यावर्तयेदेतां वधे तेषां कृतां मतिम् ।35

अश्वत्थामा सभी को अपनी बात मानने के लिए विवश करता है, फिर वह अपनी बर्बर योजना को अंजाम देता है । प्रतिशोध के तांडव में सब कुछ नष्ट हो जाता है । कृपाचार्य और कृतवर्मा सहमत न होते हुए भी वही करने को विवश हैं जो अश्वत्थामा चाहता है जबकि महाभारत का कृतवर्मा अश्वत्थामा की व्याकुलता और दृढ़ निश्चय देखकर कहता है- 

एक सार्थप्रयातौ स्वस्त्वया सह नरर्षभ । 

समदुःखसुखौ चापि नावां शड्.कितुमर्हसि ।। 36

कृपाचार्य तो जानते ही हैं कि वज्रपाणि इन्द्र भी अश्वत्थामा को अपनी प्रतिज्ञा से डिगा नहीं सकते- ‘न त्वां वारयितु शक्तो वज्रपाणिरपि स्वयम् ।37

अतः दोनों अश्वत्थामा के साथ हो जाते हैं । अश्वत्थामा वीर ही नहीं, क्रूर भी है, वह प्रतिशोध लेना जानता है । उसके फलाफल पर वह विचार करना उचित नहीं समझता । 

जय-पराजय, वीरता-कायरता, सहिष्णुता-प्रतिशोध, धर्म-अधर्म, धर्मसापेक्षता-धर्मनिरपेक्षता, उदात्त-अनुदात्त भावना, हिंसा-अहिंसा, प्रक्षेपास्त्रों का अनुसंधान एवं प्रयोग, मानवता और निकम्मेपन के तर्कों के बीच इन चरित्रों का संघटन हुआ है । विचारों का द्वन्द्व द्वापर युग के चारित्रिक वैशिष्ट्य को उभारने में समर्थ हुआ है । इस द्वन्द्व का अंत नहीं होता, बल्कि यह द्वन्द्व आगे भी जारी रहेगा, गर्भ-संहार होता रहेगा, इसका स्पष्ट संकेत अन्त में दे दिया गया है । इसी संकेत में वर्तमान युग की त्रासदी मुखर हो उठती है तथा आज की वैश्विक समस्याएँ प्रेक्षकों को मथने लगती है- क्या ‘अक्षयवट’ की शाखाओं पर आश्रय लिये हुए पक्षियों का संहार उलूकराज करता रहेगा, उसके विशाल डैनों की फड़फड़ाहट से समाज कम्पित होता रहेगा? मंच पर प्रकाश और अंधकार का खेल जारी रहेगा?

षष्ठ अंक में वर्तमान युग की अनेकानेक समस्याओें को उभारने का प्रयास किया गया है । इस अंक में कुल बारह पात्र हैं । इन बारहों पात्रों के माध्यम से वर्तमान जीवन में व्याप्त अध्यात्म, प्रकृति और संस्कृति के यथार्थपरक भावों को मूर्त किया गया है । आस्था की जगह कुतर्क का बोलबाला है । हर चीज को व्यावसायिक और कार्यालयी नजरिए से देखा जाता है । सद्भाव खत्म होता जा रहा है । साम्प्रदायिकता की राजनीति में अपनी-अपनी रोटी सेंकी जा रही है । वनस्पतिशास्त्री, समाजवैज्ञानिक एवं मानविकी शास्त्री जैसे बुद्धिजीवी कापुरुष बन गये हैं । समस्याओं की आहट सुनते ही घर में दुबक जाते हैं । नेता, प्रशासन, सरकार, पत्रकार सभी समाज की बेहतरी के लिए तथाकथित काम कर रहे हैं, काम से ज्यादा तर्क-वितर्क कर रहे हैं । वे सभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच रहे हैं क्योंकि सभी ने अपनी-अपनी अलग दुनिया बना ली है । अब ‘अक्षयवट’ को भी साम्प्रदायिक नजरिए से देखा जाने लगा है । गाँव में दंगा होने वाला है । सलीम कहता है- ‘‘यह क्या बतलाएगा? मैं बताता हूँ । वहाँ हनुमान मंदिर के सामने बाला बरगद का पेड़ तो तुमने देखा है?

 हसन- देखा तो है । 

सलीम- बस, वही है सारे फसाद की जड़ । उसकी टहनियाँ बढ़कर सड़क तक आ गयी है । उनकी पत्तियाँ पाक ताजिये से सट जायंेगी तो ..... । 38

इस तरह साम्प्रदायिक तनाव और दंगों के केन्द्र में ‘अक्षयवट’ आ जाता है और खून-खरावे की घटना घटने लगती है । फिर तो पुलिस, अधिकारी और मीडिया का दौर-दौरा शुरू होता है । नाटककार ने मीडिया के बारे में अधिकारी से कहलवाया है- ‘‘ आधुनिक अमीरों की रिमोट से चलनेवाले बेरोजगारों का समूह । उनके सवालात भी अपने नहीं होते, एडिटोरियल बोर्ड से तैयार किये जाते हैं । हमलोगों से उल्टे-सीधे कुछ पूछकर सुर्खियाँ बटोरना उनका उद्देश्य होता है । ’’39

मीडिया प्रश्न कुछ करता है, छापता कुछ है । हर चैनल किसी न किसी पार्टी से सम्बद्ध है, बिके हुए हैं । जनता को केवल उल्लू बना रहे हैं । नाटककार ने अधिकारी से कहलवाया है- ‘‘तभी तो कहता हूँ अपना पेपर ठीक रखो । चलो, सब ठीक कर लो ।’’40

अधिकारी और कर्मचारी अभिलेखों को बनाने में लगे हैं ताकि समय पर किसी घटना से सम्बद्ध प्रश्नों के उत्तर दिये जा सकें । उनके निदान पर किसी का ध्यान नहीं है । इन्हीं समस्याओं में आकण्ठ डूबा हुआ नाटक यहीं समाप्त हो जाता है और ‘अक्षयवट’ की ‘आयरनी’ के साथ प्रेक्षक सिहर जाता है और उसकी संवेदनाओं के कई-कई पट एक के बाद एक खुलने लगते हैं । 

नाट्य-शिल्प की दृष्टि से ‘अक्षयवट’ हिन्दी नाट्य-साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । नाटक छह अंकों में नियोजित है और सभी अंक की कथावस्तु भिन्न-भिन्न काल-खण्डों से सम्बद्ध है, सिर्फ अक्षयवट है जो सभी कालखण्डों के कथानकों को आपस में जोड़ता है । फिर तो कोई भी कालखण्ड पृथक् प्रतीत नहीं होता, अपितु अक्षयवट के जीवन के अभिन्न अंग प्रतीत होने लगते हैं । 

नाटककार ने आलोच्य नाटक के प्रथम और द्वितीय अंकों में नाट्य-गीतों का प्रयोग किया है जो वास्तव में ऋग्वेद के कई मंत्रों के भावानुवाद हैं । ये मंत्र संस्कृत के विभिन्न छन्दों, यथा- नाराचिका, प्रमाणिका, वक्त्र, भद्रिका, पथ्यावक्त्र इत्यादि में अनूदित हुए हैं । ऐसा करके नाटककार ने वैदिक कालीन परिवेश एवं वातावरण की सृष्टि करने में सफलता प्राप्त की है । 

विभिन्न भावों और संवेगों को सम्प्रेषणशील बनाने के लिए नाटककार ने प्रकाश और अंधकार का मंचन की दृष्टि से प्रयोग किया है, जो उनके नाट्यानुभव को भी दर्शाता है । 

आलोच्य नाटक में कई स्थलों पर नेपथ्य में भी संवाद-योजना की गयी है, जो प्रेक्षक के हृदय में कुतूहल पैदा करती है और वह कथा की मूल संवेदना से जुटा रहता है । 

‘अक्षयवट’ की नाट्यभाषा देश-काल और पात्रानुकूल प्रयुक्त हुई है । गम्भीर विषयों के प्रतिपादन में भाषा गम्भीर और संश्लिष्ट हो गयी है तथा सामान्य अवसरों पर प्रवाहमयी है । यों तो सर्वत्र संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है, किन्तु छात्रों के वार्तालाप में अंग्रेजी के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं । इसी तरह मुसलमान पात्र उर्दू-फारसी के शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं । 

निष्कर्षतः ‘अक्षयवट’ नाटक वैदिक संस्कृति की मूलधारा से वर्तमान समाज, संस्कृति के ताप-शाप का हरण कर मानवता को नयी अर्थवत्ता देता है । अपने पात्रों द्वारा मानव की मूल प्रवृत्तियों और परिस्थितियों का सूक्ष्मांकन कर नाटककार ने आधुनिक समाज को नयी दिशा देने का प्रयास किया है । निश्चय ही, डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह रचित ‘अक्षयवट’ हिन्दी नाटक और रंगमंच की तलाश में एक अप्रतिम नाट्य-प्रयोग है । 

संदर्भ संकेतः-

1. ‘अक्षयवट’ः डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंहः फ्लैप (डॉ. शिवदास पाण्डेय) से

2. ‘अक्षयवट’ः डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह; भूमिका पृष्ठ-7, शान्ति पब्लिकेशन्स, मुजफ्फरपुर 

         संस्करण 2016 ई. । 

3. वनस्पते शतवल्शो वि रोह सहस्रवल्शा वि वयं रुहेम । 

         यं त्वामयं स्वधितिस्तेजमानः प्रणिनाय महते सौभगाय । । ऋ.वे. 3,1,8,11

4. ‘अक्षयवट’ः डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह; पृष्ठ-14, शान्ति पब्लिकेशन्स, मुजफ्फरपुर । 

5. वही, पृष्ठ. 12

6. वही, पृष्ठ. 22

7. वही, पृष्ठ. 22-23

8. वही, पृष्ठ. 36

9. वही, पृष्ठ. 44-45

10. वही, पृष्ठ. 07

11. वही, पृष्ठ. 10

12. वही, पृष्ठ. 11

13. प्राचीन भारतः आर.सी. मजूमदार, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, द्वि. सं. 1973, पृष्ठ. 36

14. ‘अक्षयवट’ः डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह, पृष्ठ.17

15. वही, पृष्ठ. 22

16. वही, पृष्ठ. 20

17. भारत सावित्रीः डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं0 2014, 

        पृष्ठ. 313

18. वही, पृष्ठ. 313

19. ‘अक्षयव’: डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह, पृष्ठ.29

20. वही, पृष्ठ. 35

21. वही, पृष्ठ. 36

22. वही, पृष्ठ. 36

23. उभाभ्यामभ्यनुज्ञाता सा जगाम यशस्विनी । 

सह भर्त्रा हसन्तीव हृदयेन विदूयता । । महा. वनपर्वः 296ः29

24. श्वोभूते भर्तृमरणे सावित्र्या भरतर्षभ । 

दुःखान्वितायास्तिष्ठन्त्याः सा रात्रिर्व्यत्यवर्तत । । वहीः 296ः9

25. अद्य तद् दिवसं चेति हुत्वा दीप्तं हुताशनम् । 

युगमात्रोदिते सूर्ये कृत्वा पौर्वाह्णिकीः क्रियाः । । वहीः 101

26. ‘अक्षयवट’ः डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह, पृष्ठ.38

27. वा. रा., अरण्यकाण्ड. 45ः24

28. ‘अक्षयवट’ः डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह, पृष्ठ.39

29. वा. रा., अरण्यकाण्ड. 45ः37

30. वही, 45ः33

31. ‘अक्षयवट’ः डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह, पृष्ठ. 48

32. महाभारतः सौप्तिक पर्वः 4ः34

33. ‘अक्षयवट’ः डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह, पृष्ठ. 5

34. महाभारतः सौप्तिक पर्वः 5ः10

35. वही, पर्व. 5ः29

36. वही, पर्व. 5ः32

37. वही, पर्व. 4ः1

38. ‘अक्षयवट’ः डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह, पृष्ठ. 57-58

39. वही, पृष्ठ. 63

40. वही, पृष्ठ. 63 

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समीक्षा

सुश्री कांति शुक्ला, समीक्षक : कान्ति शुक्ला, एम. आई. जी. 35, सेक्टर-डी,
अयोध्यानगर, भोपाल (मध्य प्रदेश) मो. 9993047726


श्री रामनगीना मौर्य, रामनगीना मौर्य, गोमती नगर, लखनऊ, मो. 9450648701


जीवन जगत के साधारण संदर्भों को अर्थगर्भित बना देने का सूक्ष्म पर्यवेक्षण : "खूबसूरत मोड़" 
(कहानी संग्रह)

चर्चित कहानीकार राम नगीना मौर्य जी द्वारा प्रणीत 'ख़ूबसूरत मोड़' कृति कहानियों के माध्यम से जीवन के व्यवहार पक्ष की क्रिया विविधता तथा अन्तर्पक्ष की वृत्ति विविधता को प्रकृति, परिवेश और जीवन जगत में विद्यमान सूक्ष्म सत्य को उसके मूल चारुत्व में देखने और जो सुंदर और श्रेष्ठ है उसे बचाने का सर्वथा मौलिक बौद्धिक प्रयास है । 'ख़ूबसूरत मोड़' में विविधवर्णी कहानियां संग्रहित हैं जो अपने आस पास के परिवेश और पात्रों की जीवन शैली और उनकी अनेकानेक विशिष्टताओं के प्रस्तवन में पूर्ववर्तिता अथवा परिवर्तिता का कारण, उनकी प्रकृति विशेष या प्रकार विशेष को रोचक ढंग से व्याख्यायित करतीं हैं । सूक्ष्म पर्यवेक्षण की पैनी दृष्टि द्वारा कथाओं का ऐसा प्रस्तुतीकरण लेखक द्वारा किया गया है कि कोई पक्ष छूटने नहीं पाया- निश्चित ही यह एक विशिष्ट अभिनव प्रयोग है । हास्य- व्यंग का पुट कृति को अधिक प्रभावी, पठनीय और संग्रहणीय बनाता है । 'ख़ूबसूरत मोड़' । 

जीवन-यथार्थ, अस्तित्व बोध की गहन जटिलता के संवेदनात्मक धरातल और बौद्धिकता के आग्रह को अभिव्यक्ति प्रदान करती कहानियों का संग्रह है । उक्त कृति में विषय वैविध्य से संपन्न दस कहानियां संग्रहीत हैं जिनमें अनुभूतिजन्य कथ्य, जीवन मूल्यों का संस्कार, अनुभवों का अनुशीलन और परिवेश के प्रति सजग संवेदनशील सूक्ष्म संधानी दृष्टि है । 

जीवन- बोध का अनुभव और विचार की पक्षधरता का साहित्य में रूपांतरण कठिन कार्य है । मानवीय अनुभूतियों के साथ ईमानदारी से अपनी बात कहानियों के माध्यम से कहना वैचारिक और सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण और विशिष्ट है । अच्छे को अच्छे रूप में समझा देना बड़ा कठिन है । अरूप को रूप देना और पाठक को उसी भावमयता में निमग्न करने की क्षमता और कहानी को एक लावण्यमय रूप देना, लेखक का अपूर्व कौशल है । वस्तुतः भारतीय समाज की संरचना और विकास की प्रक्रिया में असमानताएं और विसंगतियां रहीं हैं जो समाज के चरित्रों में विषमता- समता, सामाजिक दायित्व, साहस और उत्साह का सृजन करतीं हैं, वही चेतना बनकर शोषण, दमन और भय के खिलाफ मानव को संघर्ष और समाधान के लिए तैयार करतीं हैं । 

संग्रह की पहली कहानी 'खूबसूरत मोड़' ही है जिसमें पूर्व परिचितों का अनायास मिलना, इस अंतराल के काल खंड के बीच का सच जानने की उत्कंठा स्वरूप कथानायिका के घर जाना पर उसकी उपेक्षा तटस्थता और सच छिपाने की चेष्टा के मध्य उसके सोच के विपरीत नीरस सी भेंट जो नायक के मन को क्षुभित और अपराध बोध से ग्रसित कर देती है परंतु पत्नी द्वारा किंचित विषयांतर करने पर उसका मन मिलने आने के अपने निर्णय को सही न समझ एक ख़ूबसूरत मोड़ की संज्ञा दे लेता है- में नायक के अन्तर्बाह्य चरित्र का विश्लेषण और संश्लेषण बड़ी सहजता और सरलता से प्रस्तुत हुआ है । रचना की प्रासंगिकता और अर्जित मूल्य बोध हमारे समय के कटु यथार्थ से संबोधित हैं, जीवंत मनस्थितियों का बौद्धिक विश्लेषण हैं । समस्या के मूल कारण से संवेदनात्मक रिश्ता नहीं बन पाता । आर्थिक गतिविधियों के दुष्प्रभाव के कारण मध्यम वर्ग से संबंधित व्यक्ति का संस्कृतिविहीन आचरण का मोहरा बन जाना उसके अतीत के संस्कारों से वंचित होने की मजबूरी का बयान करता है । 

संग्रह की दूसरी कहानी 'शास्त्रीय संगीत' है जिसमें नये-नये माता-पिता बने शिशु-पालन से अनभिज्ञ दम्पत्ति की समस्याएं और उनके रोचक समाधान हैं जो कहानी को पठनीय और मनोरंजक बनाते हैं । जिन अत्यंत साधारण घटनाओं को हम सामान्य रूप में लेते हैं, उसे कुशल लेखक अपने कथन और विवरण की विलक्षणता से विशिष्ट रुचि और आकर्षण का केन्द्र बना देता है और यह विवरणात्मकता हमें उबाऊ नहीं करती क्योंकि लेखक की दृष्टि प्रांजल है जो सत्य को देख भी सकती है और दिखा भी सकती है । 

तीसरी कथा 'सरनेम' शीर्षक से है जिसमें अखबार में त्रुटिपूर्ण सरनेम से छपी ख़बर से उपजे नायक के अन्तर्द्वन्द्व का जीवंत चित्रण है । इस कहानी में भावों के रूपात्मक समन्वय को त्याग कर विचारों के द्वंद्वात्मक वैषम्य का वर्णन अत्यंत कुशलता से हुआ है । 

 संग्रह की चौथी कहानी 'खिड़की के उस पार' है जिसमें कथानायक अपनी बहन के घर आया हुआ है और वहाँ कमरे की खिड़की से बाहर की तमाम गतिविधियों और विभिन्न प्रकार के शोरगुल का अनुभव करता है । 

वस्तुतः आज का मानव जीवन अपनी संकुलता में जड़ हो रहा है, उसकी चेतना व्याकुल और जीवन दर्शन अपूर्ण है, उसकी आकुल चेतना संघर्षों में अपना इतिहास ढूंढ़ रही है । अनुभूति असंतोष की अभिव्यक्ति देने में संलिप्त है । पूर्ण जीवन दर्शन के निर्माण के लिए संयम और साधना अपेक्षित है क्योंकि मानव का अंतस विविध मानसिक प्रवृत्तियों से संघटित है, उसके बाह्याचार में ये प्रवृत्तियां प्रच्छन्न रूप से कार्य करतीं हैं । इसी तथ्य का बोध लेखक सहजता से अपनी अबिछन्न प्रवहमान शैली में करा देता है । 

संग्रह की अगली कथा ' गुरुमंत्र' है जिसमें लेखक को सद्य सेवानिवृत्त सहकर्मी से जो कार्यकालीन शिक्षा प्राप्त होती है, उसका अपने जीवन में एक दिवस का उपयोग ही चमत्कारिक रूप से उसे सुखद आश्चर्य से भर देता है । वास्तव में युग विशेष का मानव अपनी बाह्य क्रियाशीलता में वृत्ति विशेष से परिचालित होता रहा है । जैसे- जैसे व्यक्तिगत जीवन विषयक तथ्यों का अन्वेषण आज की मानसिकता से लोक प्रचलित धारणाओं का आश्रय लेकर कृतिकार करता जाता है, - वह मानव के विश्रब्ध विलास, अलस स्वार्थपरक प्रवृत्ति और बुद्धि- चातुर्य को भी मूर्त करता जाता है और कर्तव्यहीनता के सूक्ष्म सत्य को अपने प्रांजल रूप में विश्लेषित कर देता है । मानव-अंतस की विविध मानसिक वृत्तियों से संघटित आशाएं- निराशाएं, अनुभूतियां, एकरसता-सरसता जो उसके बाह्याचार में प्रछन्न रूप से प्रतीत होतीं हैं- का कथा में सामंजस्य स्थापित करना, सामयिक व्यवस्था में उपयोग करना और बौद्धिक सांचे में ढ़ालकर लौकिकता का रूप देना- लेखक की सक्षम सुलेखनी की नैसर्गिक सृजन क्षमता का अनायास परिचय दे जाता है । उक्त कथा सत्य की अपेक्षा कार्यालयों में झूठ का पोषण होना और अच्छे परिणाम मिलने पर उत्तम सटीक कटाक्षयुक्त संरचना है । 

 अगली कथा 'आदर्श शहरी' एक मर्मस्पर्शी कथा है जिसमें कथानायक अस्त व्यस्त अपराधी जीवन त्याग कर एक नेक शहरी बनकर आदर्श जीवन जीना चाहता हैं परंतु अपराध जगत के उसके साथी निर्ममतापूर्वक उसे ऐसा नहीं करने देना चाहते और वह अत्यंत विवश और निराश होकर पुनः उसी नारकीय जीवन में लौट जाता है । यह कथा सिद्ध करती है कि एक बार दलदल में जिसकी प्रविष्ट हो जाती है, उसकी निवृत्ति की राह आसान नहीं
होती । 

 अगली कथा ' सौदा' है जिसका केन्द्रीय भाव है कि एक अनुभवी वरिष्ठ युवा पीढ़ी को सुचारु रूप से निर्देशित कर सकता है और सबक भी सिखा सकता है । जीवन की बाह्य परिस्थितियों में सद्-असद् के विवेक द्वारा विधि निषेधमय संघटन तब तक अधूरा है जब तक मनुष्य के बाह्य आचारों का समर्थन उसकी अंतर्वृत्तियों के संतुलन द्वारा न कराया जाए । 

 अगली कथा 'छुट्टी का एक दिन' है । आज की भाग दौड़ और अति व्यस्तता जो अवकाश के दिन भी चैन नहीं लेने देती- को इंगित करके लिखी गई है । वैयक्तिक जीवन के खंड विशेष के अनुभव को भावपरक रूप में स्वयं की अनुभूतियों और संवेदनाओं का जीवंत चित्रण इतने सहज स्वाभाविक और निश्छल ढंग से हुआ है कि व्यक्ति विशेष के जीवन या किसी घटना के महत्वपूर्ण पक्ष के उद्घाटन का उद्देश्य अत्यंत स्वाभाविक रूप से हो जाता है । 

संग्रह की अगली कथा 'हस्बेमामूल' है जो एक ट्रेन यात्रा के रोचक अनुभव को लेकर लिखी गई है । यात्रा हमारे जीवन में परिवर्तन, अनुभव, ऊर्जा और उत्साह लाती है । हम सभी प्रायः.किसी न किसी उद्देश्य को लेकर यात्राएं करते रहते हैं और प्रत्येक यात्रा हमें कुछ न कुछ संदेश दे जाती है । सुखद यात्राएं हमारे जीवन को संतोषप्रद अनुभूतियों से परिप्लावित कर देतीं हैं तो कष्टप्रद यात्राएं कटु अनुभव लेकर आतीं हैं । हस्बेमामूल इन्हीं अनुभवों से प्रेरित मनोरंजक कथा है । 

संग्रह की अंतिम यानी दसवीं कहानी ' फैशन के इस नाज़ुक दौर में' है - जो इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को स्पष्ट करने में सक्षम है कि आप सही होते हुए भी किसी औपचारिक सम्बंध वाले व्यक्ति को अपने स्पष्टीकरण से संतुष्ट नहीं कर सकते वह आप पर अविश्वास भी करेगा और संदेह की दृष्टि से भी देखेगा और यदि आपके तर्क को आधे अधूरे मन से स्वीकार भी कर ले तो भी असमंजस की स्थिति पूर्ववत रहेगी ही जो उसकी देहभाषा से प्रत्यक्षतः परिलक्षित होगा । 

कृति में भावों के रूपात्मक समन्वय को त्याग कर विचारों के द्वंद्वात्मक वैषम्य का वर्णन भी अत्यंत कुशलता से हुआ है । कथानक के वर्ण्य विषय की सूक्ष्मता, भाषा की सरलता, सहजता, वर्णन का प्रभाव और ओजस्विता का सुंदर समावेश हमें चौंकाता है, चमत्कृत करता है । सजीव जागरूक वर्णन में अनुभूति संकुलता है, व्यापकता है, सघनता है तो उसमें निहित अर्थ बोध में उतनी ही प्रखरता है । सत्य की प्रकृति भले दुर्बोध लगे पर वाणी रूप में लेखक की चेतन सत्ता और अन्तर्दृष्टि का योग होता है । लेखक के पास अपनी अभिव्यक्ति को वाणी रूप देने में भाषा की व्यापकता और विविधता का अक्षय कोष है जो सहज संप्रेषणीय है । अधिकांशतः सभी कहानियां नायक के गुण-दोष दोनों को चित्रित करतीं हैं । लेखक की शुद्ध, शुचि और पारदर्शी दृष्टि किसी वस्तु के भीतर ऐसे भाव खोज लेती है जो पाठक को सर्वथा नवीन, सत्य और तथ्यपूर्ण लगते हैं । इस स्वानुभूति का साथ देती है सूक्ष्म कल्पना जो सम्बन्धित वर्णन को इतना आत्मसात कर लेती है कि पाठक की भावनाएं उससे जुड़कर अपनी सी हो जातीं हैं - यही लेखक की प्रतिभा और अन्तर्दृष्टि है । 

समग्रतः कहानी संग्रह 'खूबसूरत मोड़' मानव जीवन के प्रयोगों, शंका समाधानों से समन्वित नवीन जीवन दर्शन का उन्नयन हैं, वृत्ति और तत्व रूप में स्थूल जीवन का विस्तार कर अपनी अन्तर्धारा में आसपास के परिवेश और घटनाओं को जिनको हम प्रायः अनदेखी और उपेक्षित कर जाते हैं- को बिम्बात्मकता में समेट कर चलने वाली कृति है जो सुधी साहित्यकार राम नगीना मौर्य के वृहद ज्ञान, सघन अनुभूति और सूक्ष्म पर्यवेक्षण का दर्पण है । जिसमें अनुभूतिजन्य कथ्य, जीवन मूल्यों का संस्कार, अनुभवों का अनुशीलन और परिवेश के प्रति सजग संवेदनशील दृष्टि है । निष्णात लेखनी की परिपक्वता ने विषय और कथानक की तथ्यपूर्ण संवेदना, नवीन मौलिकता, प्रयोगधर्मिता, बोधगम्यता, लोक- चिंता और सामयिक कलात्मकता बोध से जिन प्रामाणिक परिस्थितियों के मध्य कहानियों की रूपरेखा निश्चित की है, उसकी प्रखर धार निश्चित रूप से पाठक को सराबोर करने में सक्षम है जो जीवन जगत के साधारण संदर्भों को भी अर्थगर्भित बना देने का सूक्ष्म पर्यवेक्षण है । जीवन और परिवेश के प्रति गहरा संपर्क कहानियों का प्राणतत्व है । लेखक की यथार्थ निरीक्षण की क्षमता, कल्पनाशीलता, जीवन के सत्य, लोक संस्कृति विघटन और जन मानस से जुड़ने की सामाजिक समरसता के स्वर संबंधों में नैतिकतावादी दृष्टिकोण और नया बदलता यथार्थ प्रभावित करता है । कहानियां भारतीय समाज के यथार्थ और उसमें उपस्थित संकटों, अन्तर्विरोधों और प्रश्नों से टकरातीं और समाधान खोजतीं हैं । यह वर्तमान समय के विभिन्न रूपों के साथ निरंतर क्षरण होते जा रहे जीवन मूल्यों को बचाने की सार्थक कोशिश है । 

संरचनात्मक लक्षणों में रचनाओं की नवीन सौन्दर्य सृष्टि, संघर्ष, घर परिवार और स्मृतियां हैं । पात्रों के अनुसार भाषा और लोक भाषा का ललित प्रयोग है । अभिव्यंजना और वर्णन कला से संपन्न, सामयिक कलात्मकतायुक्त देश काल और परिस्थितियों का रोचक ढंग से सटीक विश्लेषण करतीं संग्रह की कहानियां मनीषी लेखक श्री राम नगीना मौर्य के यश में और अधिक वृद्धि करेंगीं, ऐसा मेरा विश्वास है । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित हैं । 

कहानी संग्रह : खूबसूरत मोड़

मूल्य : 225/-

लेखक :  श्री रामनगीना मौर्य

प्रकाशक : रश्मि प्रकाशन, लखनऊ


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समीक्षा

डॉ. अवधबिहारी पाठक, डॉ. अवधबिहारी पाठक, सेंवढ़ा, जिला दतिया (म.प्र.), मो. 9826546665

ले. डॉ. उमा त्रिलोक

नानी के बोल- यानि उन्नत भविष्य की दागबेल

डॉ. उमा त्रिलोक लेखन के क्षेत्र में एक सुपरिचित नाम उनकी पुस्तक नानी के बोल मुझे देखने को मिली इश्क हकीकी और इश्क मिजाजी की वैचारिकता में आकण्ठ डूबा लेखक/कवि बच्चों की ओर भी देखने में सक्षम है यह रचना उन्हें एक उच्च विचारक सिद्ध करती है । इनकी यह रचना बच्चों के लिए एक आदर्श है । 

बाल बुद्धि के धरातल पर खड़े अपने नाती रिशान के 11वें जन्मदिवस पर कृति उसे समर्पित है । रिशान को यह अर्पण लेखिका को भी गौरवान्वित करता सा नजर आया क्योंकि यह केवल आशीष नहीं जिन्दगी की गाइड लाइन है रिशान के लिए, यह कृति आगे आयु बढ़ने पर जो महज अभी कविता में खेल सा लगा होगा रिशान को परन्तु भावी जिन्दगी में नानी के बोलों में समाये आदर्श रिशान आदर्श चरित नागरिक बनाने की गहरी नींव डालते हैं । समझ आने पर वह कह सकता है ओफ! इतनी चिन्ता और मुझमें उम्मीदों का इतना बड़ा सैलाब । कभी नानी ने मन में उड़ेल दिया यह रचना एक ओर नानी की वैचारिक फितरत है तो दूसरी ओर नानी का उल्लास और स्नेहिल कामनाओं का फलन भी । 

रचना में छोटे प्रसंगों द्वारा गुरु गम्भीर चिन्तन ढाल दिया गया है यथा- ‘‘धर्म दर्शन और संस्कृति के आधार राम का अपनी माँ कैकई और पिता की आज्ञा का पालन करते हुए वन में चले जाना’’(पृष्ठ-22) इसी तरह ‘‘कृष्ण सुदामा की मैत्री बाँटकर खाना’’(पृष्ठ 30) सुन्दर प्रतीक हैं, जो चरित्र निर्माण में नींव का काम करने में सक्षम हैं । इन पुरा प्रसंगों से रचना शिक्षापूर्ण है तो दूसरी ओर उत्सर्गीय भावों का जागरण भी । 

समय का मूल्य जीवन में महत्व रखता है । यदि समय को पकड़ लिया जाये तो जीवन की उपलब्धियाँ आपने आप झोली में आती हैं । बाद में कविता समय को पीछे सरकाने से रोकती दिखती है- ‘‘तुम जो काम को ! सरकाओगे!काम तुम्हें सरका देगा! पिछड़ जाओगे! पीछे रह जाओगे!’’(पृष्ठ 68) भलाई कविता में घूँघी बहती हुई धार में चींटी की रक्षा पेड़ का पत्ता तोड़कर सहारा देकर किनारे पहुँचाती है यही चींटी घूँघी का शिकार करने वाले शिकारी को काटकर निशाना चूक जाने में घूँघी का मदद करती है । यह है उपकार का प्रतिदान का भाव जो जीवन्त है । कविता के माध्यम से ये ऐसे प्रसंग है जो बाल मन में जगह बनाकर व्यक्तित्व का मजबूती देने में सक्षम हैं । 

शब्द की अपनी महत्ता होती है अस्तु बोलने में उसका सही प्रयोग होना चाहिए- ‘‘शब्द सम्हाल का बोलिए!शब्द के हाथ न पाँव! एक शब्द औषधि बने! एक लगावे घाव!’’(पृष्ठ 39)

कहने देखने को पुस्तक बालकोपयोगी लगे परन्तु यह भारतीय दर्शन में व्याप्त सहयोग, श्रम, शान्ति पर आधारित बाल क्षणिकाएँ और तो दूसरी वयस्क लोगों के लिए भी चेतावनी हैं । जिससे उनके जीवन का रास्ता यदि गलत है तो अभी बदल जाए । 

रचना मनुष्य जीवन के लिए संजीवनी की तरह है बाल, युवा कोई भी इस रसायन का लाभ ले सकता है । मैं सभ्या प्रकाशन के संचालक श्री डी.के.बहल की मेहनत से अभिभूत हूँ कि उन्होंने बहुत बढ़िया कागज, बोल के अनुकूल चित्रों की साज-सज्जा, और कविता के लिए वैसा ही चित्रमय परिवेश पृष्ठों पर उभार लिया है जो बाल मन को सहज ही आकर्षित करता है । इससे कथन और कथाएँ दोनों ही प्राणवान हो गई हैं । लेखक और प्रकाशक दोनों को शत-शत बधाइयाँ । 


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समीक्षा


डॉ. रानू मुखर्जी,  बड़ोदरा, गुजरात, 
मो. 09825788781, ईमेल: ranumukharji@yahoo.co.in

मृणाल सेन अपने समय के इतिहासकार थे...
डॉ. रानू मुखर्जी 


मृणाल सेन भारतीय फिल्मों के प्रसिद्ध निर्माता व निर्देशक हैं । इनकीअधिकांश फिल्में बांग्ला भाषा में हैं । बंगाली, उडिया, तेलगु और हिन्दी फिल्मों में समान रूप से सक्रिय रहे । मृणाल सेन भारत में समानांतर सिनेमा आन्दोलन के अग्रणी माने जाते हैं । 

 इनका जन्म ( 14 मई 1923) फरीदपुर, बांग्लादेश में हुआ और मृत्यु (30 दिसंबर 2018) कोलकाता में हुआ । अपने समकालीन सत्यजित रे, ऋत्विक घटक और तपन सिन्हा के साथ बेहतरीन फिल्म निर्माताओं में से एक माने जाते हैं । 

 अपने समय के सक्रिय वामपंथी रहे । उनका विवाह गीता सेन के साथ हुआ था जो फिल्म अभिनेत्री थी । उनकी मृत्यु मृणाल सेन से एक वर्ष पूर्व हुई । फिल्मों में जीवन के यथार्थ को रचने के लिए जुडे और पढने के शौकीन मृणाल सेन ने फिल्मों के बारे गहराई से अध्ययन किया । सिनेमा के विषय में उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं ।  ' न्यूज ऑन सिनेमा ( 1977), ' सिनेमा, आधुनिकता ' ( 1992) प्रतिष्ठित हैं । 

 मृणाल सेन की 1969 की क्लासिक फिल्म भुवन सोम में एक दृश्य है, जहां पर्दे पर विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सत्यजित राय और रविशंकर को एक साथ दिखाया गया है, फिर एक आवाज यह कहती है : " बांगला ! सोनार बांगला ! महान बांगला ! विचित्र बांगला ! " इसके साथ ही, एक बम विस्फोट की आवाज के साथ दिखाया गया, अशांति, हिंसा और विरोध का दृश्य है । 

 मृणाल सेन ने फिल्मों में निर्देशन की शुरुआत 1956 में बांगला फिल्म ' रात भोर ' से की । 1958 में उनकी दूसरी सफल फिल्म ' नील आकाशेर नीचे ' आई । इस फिल्म में उन्होने ' भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ' में चीनियों के जापानी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष दिखाया है । 1960 में आई उनकी फिल्म ' बाइशे श्रावण ' जो कि 1943 में बंगाल में आए भयंकर अकाल के बारे में थी । 'आकाश कुसुम' 1965 के निर्देशन से मृणाल सेन एक प्रतिष्ठित निर्देशक के रूप से जाने जाने लगे । 

 मृणाल सेन की अन्य सफल बांगला फिल्मों में... 

'इन्टरव्यू ' (1970), ' कलकत्ता 71' (1972), और 'पदातिक ' ( 1973) है जिसे ' कलकत्ता ट्रायोलोजी' कहा जाता
है । 

इंटरव्यू (1971) प्रसिद्ध भारतीय कला फिल्म निर्देशक मृणाल सेन द्वारा निर्देशित एक बांगला फिल्म है । कथा में नवीनता और सिनेमाई तकनीक के कारण यह एक अग्रणी फिल्म रही । यह फिल्म व्यवसायिक और आलोचनात्मक रूप से सफल रही । यह फिल्म कलाकार रंजीत मल्लिक की भी पहली फिल्म थी । हालाँकि यह औपनिवेशिकता पर बनी फिल्म है, लेकिन इसमें सत्ता- विरोधी, मध्यमवर्ग की कायरता और बेरोजगारी जैसे विविध मुद्दों को उभारा गया है । 

रंजीत मल्लिक एक स्मार्ट युवक है । उनके एक पारिवारिक मित्र ने, जो की एक विदेशी फर्म में कार्यरत है, रंजीत को अपनी फर्म में एक आकर्षक नौकरी का आश्वासन देतें है । शर्त केवल यह थी कि रंजीत को वेस्टर्न स्टाइल का सूट पहनकर इंटरव्यू के लिए जाना है । 

अगर देखा जाय तो बात बहुत ही साधारण है, परंतु होता कुछ और ही है । श्रमिक संघ की हड़ताल शुरू हो जाती, जिसका मतलब यह होता है कि उसे लाॅन्ड्री से अपना सूट वापस नहीं मिल सकता है । उसके पिता का पुराना सूट उसे फिट नही आता है । रंजीत एक सूट उधार लेते हैं । लेकिन बस में हुए एक झगडे में वह उसे खो देते हैं । अंतत: रंजीत को पारंपरिक बंगाली पोशाक, धोती और कुर्ते में इंटरव्यू देने के लिए जाना पडता है । इस फिल्म में रंजीत मल्लिक- रंजीत के रूप में, रंजीत की मां के रूप में करूणा बनर्जी ने, रंजीत की प्रेमिका के रूप में बुलबुल मुखर्जी ने और इस फिल्म से जुड़े विभिन्न कलाकारों ने अभिनय में अपनी दक्षता का प्रदर्शन किया है । 

कोलकाता 71 (1971) में माणिक बन्दोपाध्य, प्रबोध सान्याल और र समरेश बसु की अलग अलग कहानियां शामिल  हैं । कलकत्ता 71 युगों युगों से हो रही हिंसा और भ्रष्टाचार का वर्णन करती है । यह फिल्म प्रतिष्ठित लेखकों की चार लघु कहानियों पर आधारित है । एक सशक्त बयान देने के लिए सभी कहानियां एक दूसरे से जुडी हुई हैं । सत्तर के दशक की राजनैतिक उथल-पुथल का सीधा अध्ययन, कलकत्ता 71 में आम लोगों की पीडा को दर्ज किया गया है । इसमें ऐसे दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं जो भारतीय सिनेमा में शायद ही कभी फिल्माए गए हों । मृणाल सेन 1966 से इस फिल्म की विषय वस्तु को एकत्रित करने के लिए जुटे रहे । इसे बनाने में पांच साल
लगे । और 1972 में यह फिल्म रिलीज हुई । 

 पदातिक ( 1973 ) यह फिल्म मृणाल सेन की कलकत्ता त्रयी की दूसरी फिल्म मानी जाती है । यह फिल्म सत्तर के दशक को दर्शाती कहानियों का संग्रह है । नक्सली गतिविधि, आमलोगों की भुखमरी, सामाजिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार को दिखाया गया है । फिल्म में चार कहानियाँ दिखाई गई हैं । 

 एक राजनीतिक कार्यकर्ता जेल वेन से भाग जाता है और उसे एक संवेदनशील युवा महिला के अपार्टमेंट मे आश्रय मिलता है । अपार्टमेंट उस महिला का अपना होता है और वह उस आलीशान मकान की मालकिन होती है । दोंनो ही विद्रोही हैं... एक राजनीतिक विश्वासघात के खिलाफ सक्रिय और दूसरा सामाजिक स्तर पर । अपने अपने क्षेत्र में दोनों का ही कटु अनुभव है । एकांत कारावास में रहते हुए, भागा हुआ आसामी स्वयं की आलोचना में व्यस्त रहता है । वहां बैठे बैठे नेतृत्व पर सवाल उठाता है । प्रश्न पूछने की अनुमती नहीं है । अप्रसन्नता कटु परिस्थिति को जन्म देती है । संघर्ष को जारी रखना होगा, राजनीतिक कार्यकर्ता, जो अब अलग हो गए है, और निर्वासित महिला दोनों के लिए इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला । - जो मृणाल सेन और आशीष बर्मन को मिला । इस फिल्म में धृतिमान चटर्जी, सिमी ग्रेवाल, बिजोन भट्टाचार्य ने अद्भुत अभिनय किया है । 

मृणाल सेन ने अपने पीछे काम की एक शानदार श्रृखला छोड़ी है । जिनमें से अधिकांश को भारतीय सिनेमा का मील का पत्थर माना जाता है,जिनमें "नील आकाशेर नीचे " (1959) भी शामिल है । " बाइसे श्राबन "(1960), " आकाश कुसुम " (1965), " भुवन सोम" (1969), " इन्टरव्यू " (1971), " कलकत्ता 71" (1972), " पदातिक " (1973), " मृगया "(1976), " एक दिन प्रतिदिन "( 1979)," अकालेर संधाने"(1980), " खारिज " (1982) और खंडहर ( 1983) आदि इनकी प्रतिष्ठित फिल्म हैं । 

 इतालवी नव यथार्थवाद से प्रेरित, समानांतर सिनेमा फ्रेंच न्यू वेव और जापानी न्यू वेव से ठीक पहले शुरू हुआ, और 1960 के दशक की भारतीय न्यू वेव का अग्रदूत था । इस आन्दोलन का नेतृत्व शुरू में बंगाली सिनेमा ने किया था और सत्यजित रे, मृणाल सेन ऋत्विक घटक, तपन सिन्हा और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित फिल्म निर्माताओं को तैयार किया था । बाद में इसे भारत के अन्य फिल्म उद्योगों में प्रमुखता मिली । 

समानांतर सिनेमा यह अपनी गंभीर विषय वस्तु, यथार्थवाद और प्रकृतिवाद के लिए जाना जाता है । उस समय के सामाजिक- राजनीतिक माहौल पर गहरी नजर रखनेवाले प्रतिकात्मक तत्वों से समृद्ध है । मुख्य धारा की भारतीय फिल्मों की विशिष्टता और सम्मिलित गीत और नृत्य, दिनचर्या की सामान्य प्रवृत्ति को अस्वीकार करते हुए मुख्यधारा की भारतीय फिल्मों से विशिष्ट है । 

1950 और 1960 के दौरान, बौद्धिक फिल्म निर्माता और कहानीकार संगीतमय फिल्मों से निराश हो गए । इसका मुकाबला करने के लिए उन्होंने फिल्मों की एक ऐसी शैली बनाई जिसमें कलात्मक दृष्टिकोण से वास्तविकता को दर्शाया गया । इस अवधि के दौरान बनी अधिकांश फिल्मों को भारतीय फिल्मों की एक प्रमाणिक शैली को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार द्वारा वित्त घोषित किया गया था । सबसे प्रसिद्ध भारतीय 'नव यथार्थवादी ' बंगाली फिल्म निर्देशक सत्यजित राय थे । उनके बाद श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अपूर्व गोपालकृष्णन, जी अरविंदन और गिरीश कासारवल्ली थे । सत्यजित राय की सबसे प्रसिद्ध फिल्म ' पथेर पांचाली (1955), ' अपराजिता (1956) और 'अपुर संसार' (1959) थी, जिसने ' अपु त्रयी ' का गठन किया । तीनों फिल्मों ने कान्स, बर्लिन और वेनिस फिल्म समारोह में बडे बडे पुरस्कार जीते और आज इन्हे सर्वकालिक महान फिल्मों की श्रेणी में रखा जाता है । 

हिन्दी सिनेमा के सबसे सफल फिल्मकारों में ' हृषीकेश मुखर्जी ' का नाम ' मध्य सिनेमा ' के अग्रणी के रूप में जाना जाता है । वे मध्यमवर्ग की बदलती परिस्थित को बडी दक्षता के साथ दर्शाते थे । उन्होंने " मुख्यधारा के सिनेमा की विशेषता और कला सिनेमा के वास्तविकता के बीच एक मध्य मार्ग बनाया । " और व्यवसायिक सिनेमा को एकीकृत करनेवाले फिल्म निर्माता थे । एक प्रसिद्ध कला फिल्म के सफल होने का श्रेष्ठ उदाहरण हरप्रीत संदूक कनाडियन - पंजाबी फिल्म 'वर्क वेदर वाइफ' है । पंजाबी फिल्म उद्योग में सिनेमा के शुरुआत का प्रतीक है । मृणाल सेन ने केवल बांगला भाषा में ही नहीं बल्कि हिन्दी, उडिया और तेलगु भाषा में भी कई फिल्में बनाई । 

सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, बिमल राय, मृणाल सेन, तपन सिन्हा, ख्वाजा अहमद अब्बास, बुद्धदेव दासगुप्ता, चेतन आनंद, गुरू दत्त और वी. शांताराम जैसे अग्रदूत द्वारा 1940 के दशक के अंत से समान्तर सिनेमा आन्दोलन ने आकार लेना शुरू किया । इस काल को भारतीय सिनेमा के ' स्वर्ण युग ' का हिस्सा माना जाता है । 

भारतीय सिनेमा में मृणाल सेन का योगदान अद्वितीय है । उनकी लगभग सभी फिल्में आज भी प्रासंगिक है । सिनेमा की दुनिया में मृणाल सेन ' मृणाल दा ' के नाम से प्रसिद्ध है । उन्होने 19 69 मे ' भूवन सोम ' नामक फिल्म बनाई थी जिसे हिन्दी मे समानांतर सिनेमा का शुरूआत माना जाता है । कुल 28 फीचर फिल्मों का निर्देशन करने वाले मृणाल दा द्वारा निर्मित ' एक अधूरी कहानी ', ' मृगया ', 'खंडहर ' जेनेरिक' और ' एक दिन अचानक ' जैसी श्रेष्ठ हिन्दी फिल्में भी है । 

 रोचक बात यह है कि मृणाल सेन को हिन्दी नहीं आती थी । फिर भी फिल्म निर्देशन में भाषा कभी आडे नही आई । जिस भाषा मे भी उन्होंने फिल्म बनाई उसी भाषा के मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग किया । फिल्म बनाते समय लोक व्यवहार की भाषा और व्यवहार के प्रति संवेदनशील और सावधान रहते थे । इन सब के बावजूद मृणाल दा हर समय फिल्म को तीन कसौटियों पर कसते थे । पहला टेकस्ट, जिस पर फिल्म आधारित होती है । दूसरा, सिनेमा का फार्म, जिसमें कलाकारों के प्रदर्शन पर ध्यान दिया जाता है और तीसरा, समय, जब फिल्म अपनी समकालीनता से जुडती है तभी प्रासंगिक बनती है । 

कदाचित इन कसौटियों पर कसने के कारण ही मृणाल दा ने 28 श्रेष्ठ कला फिल्में, तीन महत्वपूर्ण वृत्तचित्र और दो टेली फिल्म बनाया । इनकी अधिकांश फिल्में बांगला भाषा में ही रही । उन्हे वैश्विक मंच पर बंगाली समानांतर सिनेमा के सबसे बडे अग्रणियों में एक माना जाता है । 1955 में पहली फिल्म ' रात भोर ' बनाने के पश्चात उन्होने अगली फिल्म ' नील आकाशेर नीचे ' बनाई जिसने उनको स्थानीय पहचान दी और फिल्म ' बाईशे श्रावण 'ने उनको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कर दिया । 

 1969 में बनी मृणाल सेन द्वारा निर्देशित 'भुवन सोम' हिन्दी फिल्म है । बलाई चन्द्र मुखोपाध्याय की कहानी पर आधारित इस फिल्म को आधुनिक भारतीय सिनेमा में एक मील का पत्थर माना जाता है । यह फिल्म भारत में आर्ट हाउस या न्यू वेब सिनेमा के रूप में जाने जाने वाले शुरुआती प्रयासों में से एक है । 

 भुवन सोम 1940 के दशक में रेलवे में एक ईमानदार और अनुशासन प्रिय बंगाली अधिकारी हैं । 50 वर्ष के अकेले विधुर सोम इतने कठोर है कि अपने बेटे को भी नौकरी से, बिन बताए छुट्टी पर जाने के कारण, निकाल दिया । अत: उसके साथ काम करनेवाले उनसे असंतुष्ट रहते और उनके पीठ पीछे उनकी निन्दा करते रहते । पर इन सबसे भुवन सोम को कोई फर्क नहीं पड़ता था । अपने उसूलों पर उन्हे गर्व था और अपने उसूलों की रक्षा बड़ी दक्षता के साथ करते थे । 

 कहानी में मोड़ तब आता है जब एक दिन वे अचानक आफिस की चारदीवारी से निकलकर कच्छ इलाके में गाँव की एक चंचल युवती से मिलते हैं । युवती का पति रेलवे में कर्मचारी है । देहात का धूलभरा जीवन लेकिन यहां का सहज सरल जीवन का सौंदर्य उनको आकर्षित करता है । यहां पर आकर उनका जीवन को देखने का दृष्टिकोण बदल जाता है । उनके मन से कठोरता कम होने लगती है । 

कुछ समय के पश्चात उनकी जिन्दगी से उब कम होने लगती हैं और छुट्टियों में गुजरात का कच्छ भ्रमण उनके जीवन को बदल देता है । 

जंगल प्रदेश मे पक्षियों के शिकार की यात्रा पर निकल जाते हैं । उस नई दुनिया में साधारण, अनपढ ग्रामीण लोग, लम्बी मिट्टी की पगडंडियों पर बैलगाड़ी का चलना, गुस्सैल भैंस और गौरी शामिल है । गौरी में, सोम को मरती हुई दुनिया में एक ताजा, धडकती, हुई धड़कन मिलती है । अचानक सब कुछ जगमगा उठता है । रेलवे का वह कठोर नौकरशाह एक अल्हड बच्चा बन जाता है । 

 फिल्म को मानवीय एकांत और साहचर्य की लालसा पर एक ग्रंथ के रूप में भी देखा जा सकता है । जहां एक शहरी नौकरशाह अपने आसपास के सभी लोगों के प्रति कठोर बर्ताव करता है, वही गाँव के लोग अजनबियों के प्रति मिलनसार और मददगार होते हैं । ' भुवन सोम ' मानवीय सौहार्द और विश्वास पर आधारित फिल्म है । गौरी (सुवासिनी मुले) गाँव की सरल भोली लडकी एक अजनबी की मदद करती है । 

भुवन सोम अपने पक्षी शिकार के दौरान गौरी पर आँख मूंदकर भरोसा करतें हैं । 

 फिल्म का सबसे आकर्षक दृश्य तब आता है जब गौरी भुवन को एक ' पुरानी हवेली' के आसपास को दिखाती है और वहां रहनेवाले राजाओं और महाराजाओंकी कहानियों को याद करती है । एक रानी की कहानी को याद करती है जिसका उसी स्थान पर झूला था । वह अपनी बाहें उपर उठाती है जैसे झूले पर बैठी हो और के के महाजन (फोटोग्राफी के निर्देशक ) झूले की गति का आभास देने के लिए जूम इन और जूम इन करते हैं । महाजन कैमरे का उपयोग इस तरह से करते हैं कि सोम पर छाए अकेलेपन को उजागर करता है और धीरे -धीरे अन्य लोगों को जगह देता है जिनका अब उनके जीवन मे स्थान है । उत्पल दत्त ने भुवन सोम के चरित्र में जान डाल दी है । भुवन सोम के किरदार को जीवंत कर दिया । इसके साथ ही सुवासिनी मुले का जीवंत अभिनय की जितनी तारीफ की जाय कम है । इस फिल्म से भारत मे 'नई धारा सिनेमा आन्दोलन' की शुरुआत हुई । 

 इसके बाद उन्होने जो भी फिल्में बनाई सब राजनीतिक हैं । इस तरह से उन्होने एक मार्क्सवादी के रूप में ख्याति अर्जित की । भारत में उस समय राजनीतिक अशांति का समय भी था । विशेष कर कोलकाता और उसके आसपास, इस अवधि को नक्सली आंदोलन के रूप में जाना जाता है । इस दौर के बाद उनकी फिल्मों की एक नई श्रृंखला आई । जिसमें उन्होने अपना ध्यान बाहर के दुश्मनों के बजाय, अपने मध्यमवर्गीय समाज के भीतर के दुश्मनों पर केंद्रित किया । 

 मृणाल सेन अपने समय के इतिहासकार थे ; यह इस बात से स्पष्ट है कि उन्होंने अपने दृश्यों को समसामयिक घटनाओं के साथ जोडा । वह और उनके कैमरामैन अक्सर राजनीतिक संघर्ष और सामाजिक अशांति के दृश्यों पर उपस्थित रहते थे और " उस अवधि को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने " के लिए घटनाओं को रिकार्ड करते थे । बहुत कम फिल्म निर्मिताओं ने सेन की इस विचारधारा को अपनाया । 

संभवतः युरोपीय विचारधारा को पेश करनेवाले वे पहले व्यक्ति थे, जिससे देश में सिनेमा में क्रांति आ गई । 

 'भुवन सोम' ने तीन राष्ट्रीय पुरस्कार जीते...

1. सर्वश्रेष्ठ फिचर फिल्म 

2. सर्वश्रेष्ठ निर्देशक 

3. सर्वश्रेष्ठ अभिनेता । 

मृणाल सेन भारतीय सिनेमा में अग्रणी थे, लेकिन उनके सभी महान कार्यों में भुवन सोम एक ऐसी फिल्म है जिसने भारत में नई लहर की शुरुआत की, जिसे दर्शकों ने स्वीकार किया । मृणाल सेन को भारत सरकार ने 1981 में कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया । 

 भारत सरकार ने उनको ' पद्म विभूषण ' पुरस्कार एवं 2005 में ' दादा साहेब फाल्के ' पुरस्कार प्रदान किया । 

वह उन भारतीय फिल्म निर्माताओं में से थे जिन्होने कान्स, वेनिस, और बर्लिन जैसे तीन बडे समारोह में पुरस्कार जीते थे । वे मार्क्सवादी थे । मृणाल सेन को साल 2000 में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने अपने देश का श्रेष्ठ सम्मान ' ऑर्डर ऑफ फ्रेंडशिप ' प्रदान किया । ये सम्मान पानेवाले वो अकेले भारतीय फिल्ममेकर हैं । 

 उन्हे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार चार बार मिला । अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भी उन्हे कई पुरस्कार मिले । फिल्म ' खारिज ' के लिए कान्स में 'द प्रिन्स ड्यू ज्यूरी' सम्मान भी शामिल है । 

1982 में 32 वें बर्लिन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में निर्णायक मंडल के सदस्य बने । 1983 में 13 वें मास्को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में निर्णायक मंडल के सदस्य बने । 

27 अगस्त 1997 से 26 अगस्त 2003 तक मृणाल सेन राज्य सभा के सदस्य थे । 2004 में मृणाल सेन अपनी आत्मकथा ' आलवेज बिंग बार्न ' को समाप्त किया । 2008 में उन्हे ओसिएन सिने फैन फेस्टिवल द्वारा ' लाईफ टाईम अचीवमेंट ' सम्मान से सम्मानित किया । 

 मृणाल सेन ने भुवन सोम में अमिताभ बच्चन की बैरिटोन आवाज का इस्तेमाल किया । कथावाचक की मध्यम आवाज- फिल्म की शुरुआत और अंत में पांच मिनट से भी कम समय तक सुनी गई- बाद में प्रसिद्ध हो गई । 

 मृणाल सेन उन फिल्मकारों में से थे जिनका मानना था कि फिल्मों का मनोरंजन से इतर, एक बडा योगदान समाज के प्रति होना चाहिए । उनकी हर फिल्म, समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करनेवाली एक शानदार कला कृति होती है । उनकी फिल्मों में समाज के दलित, वंचित, शोषित लोगों की भावनाओं को बडी कुशलता से उकेरा गया है । मृणाल सेन स्वयं एक विस्थापित थे और विभाजन के दर्द को बडी गहराई से महसूस किया था । यह दर्द उनकी फिल्मों के जरिए फिल्म के पर्दे पर भी दिखाई पडता है । उन्होने अपनी फिल्म ' बाइसे श्राबन ' (1960) और 'अकालेर संधाने' (1980) के जरिए बंगाल के भीषण अकाल और उससे पीड़ित लोग और पिछडे वर्ग के लोगों के जीवन में उठनेवाले परेशानियों को बडी दक्षता के साथ उभारा । मृणाल सेन भारतीय समानांतर सिनेमा के ध्वजवाहक थे । वे उन चुनिंदा भारतीय फिल्म निर्देशकों में से थे जिन्होने अपनी कला से विश्व पटल पर भारत की ख्याति फैलाई । मृणाल सेन, महान फिल्मकार सत्यजित राय, ऋत्विक घटक के समकालीन थे । इन तीनो महान विभूतियों को, भारतीय समानांतर सिनेमा का त्रिदेव भी कहा जाता है । 

 मेरा यह लेख मृणाल सेन के जन्म शत वार्षिक में श्रद्धा पुष्प स्वरूप है । 

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समीक्षा


श्री अजित कुमार राय, कन्नौज, मो. 9839611435


संजीव की प्रेरणा - स्रोत

वरिष्ठ कथाकार संजीव को उनके उपन्यास "मुझे पहचानो" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा हुई है । मैं उन्हें उनकी एक कहानी के माध्यम से पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ । वे ग्राम - चेतना के नागर बोध के सुष्ठु शिल्पी हैं । राजेन्द्र यादव के साथ वे 'हंस' के सह संपादक रह चुके हैं । संजीव के 'प्रेरणास्रोत' में ग्रामीण यथार्थ और जीवन के तलस्पर्शी अनुभवों और अन्तर्विरोधों को उद्घाटित करते हुए एक स्त्री के संघर्ष का आख्यान निरूपित है जो बाहर से भोली भाली दिखती है लेकिन अन्याय और अत्याचार के मुखर प्रतिरोध की चेतना से लैस है । वस्तुतः 'जंगली बहू' नाम से संज्ञापित यह नायिका समाज के आन्तरिक भूगोल में व्याप्त जंगलराज से मुठभेड़ करती है । कहानी का अन्तिम वाक्य बड़ा अर्थवाही है । लेखक ने या नैरेटर ने नायिका को जन्म दिया अथवा नायिका ने लेखक को पुनर्जीवित किया...... यह प्रश्न साहित्य मात्र का सनातन सवाल बन जाता है । जीवंत अन्तःक्रिया करते हुए दोनों एक दूसरे को निर्मित करते हैं , दोनों एक दूसरे की प्रेरणा हैं । सामाजिक , आर्थिक और दैहिक शोषण की शिकार एक दलित महिला के भीतर प्रतिरोध - चेतना कल्पित करती हुई यह कहानी लेखक और उसके विषय के बीच के अन्तराल को पाटने का आह्वान करती है । 

इस कहानी की भाषा में जीवंतता लेखक की अनुभूति की प्रामाणिकता से आई है । किन्तु कहीं - कहीं गालियों का प्रयोग वितृष्णा या जुगुप्सा पैदा करता है । वैसे लेखक ने प्रायः शालीन और संयत प्रतिरोध का आश्रय लिया है । कहानी के भीतर एक कहानी चल रही है और लेखक स्वयं कहानी का एक पात्र है । कहानी की रवानी देखते ही बनती है और उसमें पूर्व दीप्ति ( फ्लैश बैक) शैली का भी प्रयोग परिलक्षित होता है । इस कहानी में दलित प्रतिरोध दबे स्वर में सवर्ण स्त्रियों को भी शामिल करता है और अन्याय तथा शोषण की वैष्णवी चाल का पर्दाफाश करने के साथ ही संघर्ष करते हुए पराजित होता है । दुविधा ग्रस्त लेखक अपनी नायिका के प्रति मसृण भाव रखते हुए भी उसके साथ खुलकर खड़ा नहीं हो पाता । और युयुत्सु जंगली बहू धूल के बगूलों में कहीं गुम हो जाती है । लेखकीय संकल्पना तो यह है कि " एक दिन ये बगूले मिलकर किसी बड़ी आंधी की शक्ल अख्तियार कर इन पुराने खोढ़राए बरगद, पीपल और पाकड़ के दरख्तों को उखाड़ कर मेड़ों पर रख देंगे । उनके साए में घुटते बेशुमार पौधों को आसमान खुल जाएगा । सात परदों में रहने वालों की धोतियां बगुले के परों सी आसमान में उड़ती नज़र आएंगी और वे नंगे होकर उसे पकड़ने को दौड़ेंगे । मगर यह खयाली पुलाव था । " इस उद्धरण से लेखक के सवर्णों के प्रति क्या खयाल हैं, यह स्पष्ट हो जाता है । पराजित जंगली बहू जब साही की तरह अपने कांटों को फुलाए अकेली रह गई और लाठियां खाकर उसकी फौज छूमंतर हो गई और लेखक स्वयं को लाचार महसूस करते हुए साथ खड़ा नहीं हो पाता तो वह बड़बड़ाते हुए कहता है कि यह जीवन तो व्यर्थ गया । काश, इसे फिर से जिया जा सकता! यह कहानी उसका पुनर्जन्म है । 

किन्तु इन कहानियों की एक सीमा यह है कि इनमें ऐकान्तिक रूप से सवर्ण संस्कृति को खलनायक और दलित को देवता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है , जबकि ऐसा सरलीकरण सम्भव नहीं है और इस व्यवस्था में जो एक जगह पीड़ित है वही दूसरी जगह पीड़क भी है । यदि परम्परा की विकृति शोषण का उदात्तीकरण करती है तो उसी के भीतर की एक धारा बुद्ध , कबीर , निराला और प्रेमचंद के रूप में उसका निषेध भी करती है । इसलिए विवेकानंद और गाँधी तक की हजारों वर्षों की ऋषि - परंपरा का सामाजिक विखंडन समीचीन कैसे कहा जा सकता है जिसमें सत्य , अहिंसा , परोपकार , सेवा , बलिदान , सहिष्णुता , उदारता तथा सर्वधर्मसमभाव एवं विश्वबन्धुत्व जैसे जीवन - मूल्य अर्जित किए गए हैं । वर्तमान समय में अतार्किक कथानकों वाले नियंत्रित अधिकांश धारावाहिकों में भी सवर्ण - विरोध की यही प्रवृत्ति देखने को मिलती है । जबकि उनके अधिकांश दर्शक इसी समाज से आते हैं और वंचितों के पक्ष में लिखने वाले अधिकांश रचनाकार भी गैरदलित ही हैं । यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि ब्राह्मणवाद का सबसे अधिक विरोध करने और झेलने वाले ब्राह्मण ही हैं लेकिन अनुभूतिपरक भावबोध और सहानुभूतिमूलक भावपट के द्वंद्व ने समग्र जीवन - बोध को खंडित कर दिया । पंकज मित्र विमर्शों को कहानीपन की राह में स्पीड ब्रेकर के रूप में देखते हैं तो "बैल बैल के लिए सोचे" की अन्तश्चेतना से परिस्फूर्त विमर्शवाद से मधु काँकरिया भी आतंकित हैं । महुआ माजी को भी लगता है कि विमर्श हों लेकिन लादे न जाएँ । 

ओमप्रकाश वाल्मीकि जब अपने संस्मरणों को अभिव्यक्ति दे रहे थे तो वह उनका अनुभव - यथार्थ था किन्तु जे एन यू के प्रोफेसर जब दलित विमर्श के अनुष्ठान में उतरते हैं तो यह पाखंड की सृष्टि करता है । 'मुझे पहचानो' में संजीव राय साहब और लाल साहब के सामंती चरित्र को पहचानने में तत्परता दिखाते हैं लेकिन क्या ये लेखक मायावती के सामंती चरित्र का उद्घाटन कर सकते हैं? ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी 'शवयात्रा' दलित समुदाय के भीतर मौजूद भेदभाव और स्तरीकरण के कटु अनुभव की प्रभावशाली अभिव्यक्ति है । कल्लन महसूस करता है कि "चमारों की नजर में भी हम सिर्फ बलहार हैं । " उसकी बेटी की चिकित्सा करने से डाक्टर मना कर देता है और चमारों के श्मशान में उसके मुर्दे को फूंकने की इजाजत नहीं है । उसके मुर्दे को हाथ लगाने या शवयात्रा में शामिल होने गाँव का कोई व्यक्ति नहीं आता । मेरे कालेज में भी कोई दलित शिक्षक रमेश वाल्मीकि के हाथ का छुआ पानी नहीं पीता । यह कहानी दलित चेतना में आत्मालोचना का एक संस्कार विकसित करती है ।  

 

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पं. मधुकर गौड़ सार्थक साहित्य सम्मान – 2023

पं. मधुकर गौड़ सार्थक साहित्य सम्मान – 2023 हिंदी भाषा’ श्री हृदयेश मयंक को एवं राजस्थानी भाषा का पं. ताऊ शेखावाटी को पं. मधुकर गौड़ सार्थक साहित्य संस्थान, मुंबई द्वारा संचालित, पं. मधुकर गौड़ सार्थक साहित्य सम्मान स्व. मधुकर गौड़ जी के हिंदी और राजस्थानी साहित्य की सेवा में समर्पित जीवन की स्मृति को बनाये रखने की दिशा में एक प्रयास है ।

यह वार्षिक सम्मान हिंदी और राजस्थानी भाषाओं में दिया जाता है । इस सम्मान के अंतर्गत सम्मानित साहित्यकारों को इक्कीस हजार रूपए, शाल, श्रीफल और संस्थान का प्रतीक चिन्ह दिया जाता है । इस वर्ष का हिंदी भाषा का सम्मान श्री हृदयेश मयंक, मुंबई और राजस्थानी भाषा का सम्मान श्री ताऊ शेखावाटी को दो अलग अलग आयोजनों में दिया गया । 

पंडित मधुकर गौड़ की कर्म भूमि मुंबई में आयोजित एक कार्यक्रम में श्री हृदयेश मयंक का सम्मान किया गया । हिन्दी साहित्य - की विभिन्न विधाओं में श्री हृदयेश मयंक की दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं, हिंदी साहित्य जगत में उनका योगदान सराहनीय है । समारोह की अध्यक्षता नवभारत टाइम्स, मुंबई के भूतपूर्व संपादक श्री विश्वनाथ सचदेव ने की, सम्माननीय अतिथि के रूप में दैनिक भास्कर, मुंबई के कार्यकारी संपादक श्री भुवेन्द्र त्यागी तथा प्रमुख अतिथि के रूप में साहित्य अनुरागी श्री कन्हैयालाल सराफ उपस्थित थे । श्री सचदेव ने कहा कि जिस तरह पं. मधुकर गौड़ ने गीत साहित्य को आगे बढ़ाने की जिद में आजीवन संघर्ष किया, उसी तरह श्री हृदयेश मयंक ने हिंदी गीत, ग़ज़ल और कविता को नयी दिशा और नया आयाम देने का उल्लेखनीय प्रयास किया है । श्री सचदेव ने आगे कहा कि पं. मधुकर गौड़ ने न सिर्फ गीत को जिया, बल्कि एक ऐसे समय में गीत की अस्मिता, उसके सम्मान को बरकरार रखने के लिए पूरे समर्पण भाव से कार्य किया, जब एक ओर मुक्तछंद कविता ने साहित्य की कमान अपने हाथ में ले ली थी तो दूसरी ओर मंच पर सस्ती चुटकुलेबाजी ने कब्जा कर लिया था । इसी के समानांतर हृदयेश मयंक भी मुंबई में रहकर पिछले ४० साल से गीत और कविता के सृजन कार्य को बड़े मनोयोग से करते रहे हैं । 

पंडित मधुकर गौड़ की जन्म स्थली चूरू राजस्थान में आयोजित एक अन्य कार्यक्रम में श्री ताऊ शेखावाटी का सम्मान किया गया । हिन्दी-अवधी-संस्कृत और विशेषकर राजस्थानी- भाषा और विभिन्न विधाओं में पं ताऊ शेखावाटी की लगभग दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हैं तथा कवि सम्मेलनों के संचालन एवं संयोजनों में भी उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है । कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए साहित्य अकादमी, उदयपुर के पूर्व अध्यक्ष श्याम महर्षि ने कहा कि मधुकर गौड़ का मातृभूमि चूरू एवं कर्मभूमि मुम्बई के प्रति जो प्रेम था वह अनुकरणीय है । इसलिए उनके परिजन दोनों ही जगह साहित्यकार-सम्मान का आयोजन करते हैं । उन्होंने कहा कि गौड़ जीवट वाले गीतकार थे, जो जीवन के अंतिम क्षणों तक साहित्य सर्जन में लगे रहे । विशिष्ट अतिथि डॉ. रामकुमार घोटड़ ने कहा कि सम्मान के चयन में साहित्यकार के कृतित्व को ही केन्द्र में रखा जाता है । उन्होंने राजस्थानी भाषा के प्रति मधुकर गौड़ के प्रेम और योगदान का उल्लेख किया । स्वागत भाषण में राजेन्द्र शर्मा मुसाफिर ने संस्थान द्वारा की गई गतिविधियों की जानकारी दी । कार्यकारी अध्यक्ष - श्री कमलेश गौड़

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कला-संस्कृति, साहित्य और सामाजिक सरोकारों
को समर्पित सविता चड्ढा जन सेवा समिति ने दिए 
चार सम्मान

1.  हीरों में हीरा सम्मान, श्री प्रसून लतांत

2.  साहित्यकार सम्मान, डॉ. संजीव कुमार

3.  शिल्पी चड्ढा स्मृति सम्मान, श्रीमती शाहाना परवीन 

4.  गीतकारश्री सम्मान, श्रीमती रंजना मजूमदार 

सविता चड्ढा जन सेवा समिति, दिल्ली द्वारा हिन्दी भवन में चार महत्वपूर्ण सम्मान प्रदान किए गए । अपनी बेटी की याद में शुरू किए सम्मानों में, अति महत्वपूर्ण "हीरों में हीरा सम्मान" इस बार गांधीवादी विचारक प्रसून लतांत को, साहित्यकार सम्मान साहित्यकार एवं प्रकाशक डॉ संजीव कुमार और शिल्पी चड्ढा स्मृति सम्मान श्रीमती शाहाना परवीन और श्रीमती रंजना मजूमदार को गीतकारश्री सम्मान महामहोपाध्याय आचार्य इंदु प्रकाश और श्री इंद्रजीत शर्मा के कर कमलों से प्रदान किया गया । श्री अनिल जोशी की उपस्थिति ने कार्यक्रम को गरिमा प्रदान की । शिल्पी चड्ढा स्मृति सम्मान समारोह की संस्थापक एवं महासचिव, एवं साहित्यकार सविता चड्ढा ने श्रीमती शाहाना परवीन को सम्मान के साथ साथ पाँच हज़ार एक सौ रुपए की नकद राशि भी प्रदान की और देश भर से पधारे लेखकों, कवियों का स्वागत किया । उन्होंने कहा कि ये सम्मान माँ और बेटी के मधुर संबंधों को समर्पित है । 

इस अवसर पर प्रसून लतांत ने स्वयं को हीरों मे हीरा सम्मान दिये जाने पर समिति का आभार व्यक्त किया और सभा को संबोधित करते इन सम्मानों को दिए जाने को साहित्य में सकारात्मकता के रूप में लिए जाना कहा । अपनी बेटी के लिए पिछले सात साल से प्रारम्भ इन सम्मानों के लिए सविता जी की सराहना की । इस अवसर पर डॉ.संजीव कुमार, डॉ. स्मिता मिश्रा । शकुंतला मित्तल ने अपने विचार रखें और इन सम्मानों की निष्पक्षता और चुने जाने की प्रक्रिया अपनी बात कही । 

इस वर्ष प्राप्त पुस्तकों में से अन्य 14 लेखकों की पुस्तकों का चयन भी किया था । इस अवसर पर डॉ. विनय सिंघल निश्छल को उनकी पुस्तक, संबंध, व्यक्त अव्यक्त, श्रीमती नाज़रीन अंसारी को, मां और लफ्जों का संगम पुस्तक के लिए, श्रीमती अर्चना कोचर, को तपती ममता में गूंजती किलकारियां संग्रह के लिए, श्रीमती आशमा कौल को स्मृतियों की आहट के लिए, श्री राही राज को उनकी पुस्तक पिता के लिए, श्रीमती कमल कपूर को जिएं तो गुलमोहर के तले, के लिए श्रीमती रत्ना भादोरिया को "सामने वाली कुर्सी" के लिए, डॉ पुष्पा सिंह बिसेन को उनके उपन्यास "भाग्य रेखा" के लिए, श्रीमती अंजू कालरा दासन 'नलिनी' को उनके संग्रह "आईना सम्बन्धों का" के लिए, श्रीमती यति शर्मा को उनकी पुस्तक "आधी रात की नींद", श्रीमती हेमलता म्हस्के को ""अनाथों की माँ सिंधुताई" के लिए शिल्पी चड्ढा स्मृति सम्मान समारोह " में सम्मानित किया गया । 

 इस अवसर पर जापान, लंदन, अमेरिका के आलावा दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम, मध्य प्रदेश, लखनऊ, आगरा, राजस्थान, मुरादाबाद, इंदौर, बैंगलोर, पंजाब, नोएडा और दिल्ली के साहित्यकार और गणमान्य उपस्थित थे । कार्यक्रम का कुशल संचालन डॉ कल्पना पांडेय ने किया । 



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अशोक 'अंजुम' को मिला "डॉ. रामकुमार वर्मा 

बाल नाटक सम्मान"

लखनऊ, 30 दिसम्बर, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा अपने 47 वें स्थापना दिवस पर प्रतिष्ठित "डॉ. रामकुमार वर्मा बाल नाटक सम्मान' कवि अशोक अंजुम को प्रदान किया गया है । सम्मान समारोह का आयोजन संस्थान के निराला सभागार में किया गया । श्री अशोक 'अंजुम' को यह पुरस्कार वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित तथा पद्मश्री डॉ. विद्या विन्दु सिंह द्वारा प्रदान किया गया । पुरस्कार के अंतर्गत 51 हजार रुपए, शाल, स्मृति चिह्न व प्रमाण पत्र प्रदान किए गए । इस अवसर पर अशोक 'अंजुम' के बाल नाटकों की नयी किताब 'विद्यालयीय रोचक नाटक' का लोकार्पण पर भी सम्पन्न हुआ । 

डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित जी ने इस अवसर पर कहा कि बीज वैसा ही अंकुरित होता है, जैसा हम बोते हैं । साहित्य का बीज सही मायने में तब सफल पौधे का रूप लेगा, जब सयाने लोग खुद बच्चा बनकर लिखेंगे । 

डॉ विद्या विंदु सिंह ने कहा कि वही साहित्यकार अच्छा है, जो स्थिति के अनुसार रचना करता हो । बाल साहित्य के लेखन में हम बच्चों के रुझान का खास ख्याल रखें । 

पुरस्कृत कवि/ नाटककार श्री अशोक 'अंजुम' ने अपने वक्तव्य में कहा कि ग़ज़ल, गीत, दोहे आदि प्रौढ़ साहित्य की मेरी अनेक किताबें आयी हैं । किन्तु बाल साहित्य की रचना अधिक कठिन कार्य है । इसके लिए रचनाकार को बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ होनी चाहिए । आज के बचपन और हमारे बचपन में बहुत अंतर आ गया है । इस परिवर्तन को समझना पड़ेगा । 

कार्यक्रम का सरस संचालन हिंदी संस्थान की प्रधान संपादक श्रीमती अमिता दुबे ने किया । 

आयोजन में व्यंग्यकार श्री पंकज प्रसून, संजीव जायसवाल 'संजय', गौरीशंकर वैश्य 'विनम्र', सुश्री श्रद्धा पांडे (गाजियाबाद) श्री पवन कुमार वर्मा (वाराणसी) श्री लाल देवेंद्र कुमार श्रीवास्तव (बस्ती) डॉ. मनीष मोहन गोरे (ग़ाज़ियाबाद) सुश्री शताब्दी गरिमा (लखनऊ) तथा अलीगढ़ से कवयित्री भारती शर्मा, कवि डॉ. दौलत राम शर्मा तथा युवा कवि श्री सुधांशु गोस्वामी आदि सैकड़ों साहित्यकार उपस्थित रहे । —प्रस्तुति : सुधांशु गोस्वामी, प्रचार सचिव: शिखर साहित्य संस्था, मो. 9457280923

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डॉ. रेनू यादव की कहानी-संग्रह ‘काला-सोना’ को प्रथम पुरस्कार प्राप्त

साहित्यिक एवं सांस्कृतिक नवोन्मेष हेतु गठित संस्था बैखरी द्वारा आयोजित गोवर्धन लाल चौमाल स्मृति कहानी प्रतियोगिता 2023 पुरस्कार 25 दिसंबर को रानी बाजार बीकानेर स्थिति होटल राजमहल में आयोजित किया गया । संस्था की सचिव इंजी. आशा शर्मा ने बताया कि अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित की गई इस कहानी प्रतियोगिता में देश विदेश से लगभग अस्सी कहानी संग्रह प्राप्त हुए थे । विभिन्न स्तरों पर हुए मूल्यांकन के पश्चात् नोएडा, उत्तर प्रदेश की कथाकार डॉ. रेनू यादव की कृति काला सोना को प्रथम पुरस्कार के योग्य पाया गया । कार्यक्रम में डॉ. रेनू यादव को पुरस्कार स्वरूप शॉल, प्रशस्ति पत्र एवं रूपए ग्यारह हजार की राशि प्रदान की गई । उत्तराखंड के शूरवीर रावत एवं झारखंड के नीरज नीर की कृतियाँ क्रमशः द्वितीय एवं तृतीय स्थान पर रही । समारोह में अन्य दो श्रेष्ठ कृतियों के कथाकारों को भी पुरस्कृत किया गया । इस समारोह में डॉ. इंदुशेखर तत्पुरूष अध्यक्ष एवं डॉ. ब्रजरतन जोशी अतिथि वक्ता रहें । संचालन संजय पुरोहित ने किया । 

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डॉ. सीमा शाहजी : परिचय

निकल चुका है मंथन से अमृत, पर मंथन अब भी जारी है और सृष्टि के क्रम निर्माण से निर्वाण तक, जैसे भावों के कविता में आरेखित होने से स्पष्ट है कि, डॉ. सीमा शाहजी की अथक लेखनी अपनी सृजन धर्मिता से, सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक सरोकारों का, मंथन करती ही रहती है । 

आपने अंग्रेजी एवं हिंदी साहित्य में एम. ए. और हिंदी में पीएचडी किया है । सन 2001 से म.प्र. के विभिन्न महाविद्यालयों में हिंदी भाषा और साहित्य का प्राध्यापन कर रही है । 

पिछले 20 वर्षों से आपकी रचनाएं, आलेख, शोध पत्र, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्र पत्रिकाओं में, प्रकाशित हुए हैं आकाशवाणी से नियमित रूप से लघु कथा कहानियों कविताओं आदि का प्रसारण होता रहता है । चूंकि डॉ. सीमा झाबुआ जिले के थांदला कस्बे की निवासी हैं, इसीलिए आदिवासी संस्कृति और आदिवासी महिलाओं के बीच रहकर, उनकी स्थिति पर, इनका व्यापक अध्ययन है, जो आपकी रचनाओं पर भी स्पष्ट दिखाई देता है । 

उल्लेखनीय शोध कार्य में भारत सरकार संस्कृति मंत्रालय के द्वारा "*21वीं सदी और* *आदिवासी*महिलाओं के विकास की ओर बढ़ते कदम* *संदर्भ झाबुआ जिला"* पर इन्हें सीनियर फैलोशिप प्राप्त हुई है । उल्लेखनीय है कि झाबुआ की महिलाओं पर यह प्रथम शोध कार्य है । आपने प्रसार भारती में लोकगीत समन्वयक के रूप में कार्य किया है, भीली बोली में रचनाएं लिखी है । 

आपने अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद के जीवन के अनछुए पहलुओं पर शोध कार्य किया है, जिसका भोपाल दूरदर्शन पर प्रसारण भी हुआ है । यूं तो कई साझा संकलनों में आपकी रचनाएं प्रकाशित हुई है, लेकिन स्वतंत्र रूप से प्रथम काव्य संकलन का प्रकाशन *ताकि में लिख सकूं* शीर्षक से हुआ है । यह संकलन मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा चयनित एवं अनुमोदित किया गया है । आपको राष्ट्रीय स्तर पर लेखन के क्षेत्र में अनेक सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है, जिनमे *नईदुनिया द्वारा नवोदित लेखिका सम्मान पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी*शिलांग द्वारा डॉ. महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ द्वारा विद्यासागर की उपाधि, अभिव्यक्ति विचार मंच* *नागदा द्वारा राष्ट्रीय विष्णु जोशी अंशु सम्मान, भव्या *इंटरनेशनल फाऊंडेशन जयपुर* *द्वारा इंडियन बेस्टीज* *अवार्ड आदि** *उल्लेखनीय है*

आप इंदौर लेखिका संघ, मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य भारती, शब्द धरा वनांचल झाबुआ, आजाद साहित्य परिषद, हिंदी लेखनी डॉट कॉम ई पत्रिका की सक्रिय सदस्य हैं । वर्ष 2001 से अब तक हिंदी साहित्य एवम भाषा के प्राध्यापन के साथ-साथ, निरंतर लेखन में सक्रिय होकर, राष्ट्रभाषा की सेवा में संलग्न है । वर्तमान में आप शासकीय महाविद्यालय बाजना जिला रतलाम में सहायक प्राध्यापक हिंदी के रूप में कार्यरत है । 

*थांदला अंचल की डॉ. सीमा* *शाहजी के काव्य संग्रह का* *विमोचन*

थांदला अंचल की लेखिका डॉ सीमा शाहजी के प्रथम काव्य संग्रह का इंदौर लेखिका संघ के द्वारा श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति इंदौर में विमोचन हुआ । इस काव्य संग्रह में ऐसी 61 कविताएं है, जो किसी गहरे अंतर्द्वंद से बाहर आने की कोशिश कर रही है । इस संघर्ष का मिजाज थोड़ा अलग है । यह ह्रदय से फूटी सच्ची कविताएं है, इसीलिए इनका जन्म स्थल लेखिका का ह्रदय ही हो सकता है । इस अवसर पर लेखिका संघ की सदस्य डॉ अलका भार्गव ने डॉ जया पाठक द्वारा लिखी गई समीक्षा का वाचन बहुत ही सुमधुर आवाज में किया । समस्त आयोजन को मूर्त रूप देने में लेखिका संघ की पूरी टीम का महत्वपूर्ण सहयोग रहा । 

लेखिका डॉ. सीमा शाहजी ने बताया कि इस काव्य संग्रह की पांडुलिपि को मप्र साहित्य अकादमी ने चयनित एवम अनुमोदित किया है । इसके अंतर्गत प्रकाशन का समस्त खर्च अकादमी ने ही वहन किया है । 

गौरतलब है कि डॉ शाहजी पिछले बीस वर्षो से हिंदी लेखन एवम प्राध्यापन कार्य से जुड़ी है । उन्हें लेखन के क्षेत्र में अनेक पुरस्कार प्राप्त हुवे है । संस्कृति मंत्रालय नई दिल्ली की और से आपको झाबुआ की आदिवासी महिलाओं पर शोध कार्य हेतु सीनियर फैलोशिप प्रदान की गई है । इसके अलावा उन्होंने अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद के जीवन के अनछुए पहलुओं पर शोध कार्य किया है । जिसका प्रसारण भोपाल दूरदर्शन से भी हुआ है । 

डॉ. शाहजी के प्रथम काव्य संकलन के विमोचन के अवसर पर इंदौर लेखिका संघ की संस्थापक अध्यक्ष स्वाति जी तिवारी वर्तमान अध्यक्ष विनीता जी तिवारी महासचिव संध्या रॉय चौधरी जी सचिव मणिमाला जी एवम सभी सदस्यों, झाबुआ के साहित्यिक समूह शब्द धरा वनांचल एवम आजाद साहित्य परिषद, जैन कवि संगम मप्र के सभी सदस्यों, डॉ. के. के. त्रिवेदी, डॉ. जया पाठक, डॉ. गीता दुबे, डॉ. स्नेहलता श्रीवास्तव डॉ. अंजना मुवेल, जय बैरागी, भारती सोनी, नगीन शाहजी अमित शाहजी, जितेंद्र घोड़ावत, प्रदीप गादिया आदि गणमान्य नागरिकों एवं मीडिया बंधुओ ने हर्ष व्यक्त कर बधाई प्रेषित की है ।








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