अभिनव इमरोज़, जनवरी 2024





कविता

डॉ. श्यामबाबू शर्मा,  लखनऊ, मो. 9863531572


नकटउरा

पुरुष ने चाहा कि वह महफूज रहे

पलने लगी पिता की देख रेख में

सयानी तो छोटे भाई की निगरानी में

ब्याही गई तो स्वामी की सुरक्षा में

जने सुपुत्र तो उनकी सहमति में

लड़े समाज तो भद्दी गालियों में

पूरे हुए प्रतिशोध उसके बलात् से

उसे संस्कार मिला...

पुरुष पर आंच आये

तो उससे पहले जलो

उसके लिए तपो

आयें यमदूत तो आगे रहो

तुम अपने भाई पति पुत्र के लिए जियो

पी जाओ विष औ मरजाद में जियो

पुरुष ने रचीं पोथियां प्रशंसा में

'बिधिउ न नारि ह्दय गति जानी'

उसने बारात सजाई

पुत्र की तुष्टि हो

बधू की पेटरिया जुटाई

हाथी घोड़ा रथ जुताये

मंगल गीत और गारी गवाई

कभी द्वार चार

औ पैंपुंजी करवाई

जिस मुहूरत में सात फेरे हुए

नकटउरा में वही रस्म कराई

मधुचंद्र विलास का टोटका हुआ

पुरुष ने विमर्श किया

बाजार बनी

स्त्री पर

देह पर

नख शिख पर

लंबाई चौड़ाई पर

ग्रीवा गौरांग पर

अधर अधरोष्ठ पर

कटि कमनीयता पर

अंग प्रत्यंग पर

रस और रास पर

शील तो अश्लील पर

संतति बढ़ी

समय बदला

वह सोच रही है

अश्लील क्या था

बलइया या शील का अश्लील

इधर रचे गए द्विअर्थी

उत्तेजक भद्दे गीत

इनका सम्मान बढ़ा

स्त्री..

उसने सौंप दिया सर्वस्व

पुरुष समाज को

वह सोचती है

ग़लती कहां हुई

शील में अश्लील में

पुरुष की बलइया में

पुरुष पर

विश्वास में

पिता में

भाई में

पति में

पुत्र में

कल में

आज में

भविष्य में

गलती कब कहां हुई

कदाचित

पुरुष के लिए नकटउरा में

या पुरुष की सृष्टि में..! 

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आलेख

श्री यतीन्द्र मिश्र

अंतहीन सागर में भटकता लहरों का राजहंस

हिंदी के मूर्धन्य नाटककार और उपन्यासकार मोहन राकेश के साहित्य के अध्येता और विमर्शकार जयदेव तनेजा ने उनकी जीवनी 'मोहन राकेश : अधूरे रिश्तों की पूरी दास्तान' लिखी है, जो अपनी विषयवस्तु और शोध के चलते दिलचस्प ढंग से इस नाटककार की जिंदगी के उन तमाम आयामों को चौंकाने के स्तर तक खोलती है, जिसे पढ़ते हुए मानवीय भावनाओं की सहजता और दुर्बलताएँ दोनों ही एक साथ सामने आते हैं । यह ध्यान देने योग्य बात है कि जयदेव तनेजा के लेखन का अधिकांश हिस्सा मोहन राकेश पर केंद्रित है । उनके लेखन में इस रचनाकार पर  एकाग्र कई कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं, जिनमें 'लहरों के राजहंस : विविध आयाम', 'मोहन राकेश: रंग-शिल्प और प्रदर्शन', 'मोहन राकेश रचनावली (13 खंड़)', 'राकेश और परिवेश पत्रों में', 'नाट्य-विमर्श' सम्मिलित हैं । 


यह जीवनी एक तरह से पाठकों के मध्य मोहन राकेश के व्यक्तिगत जीवन और रचनाओं की दुनिया में गहरे ड़ूबने का आमंत्रण है, जिसमें केवल एक साहित्यकार की उपस्थिति ही नहीं, बल्कि एक दोस्त और उससे बढ़कर एक ऐसे इंसान के रूप में उनकी शिनाख़्त हुई है, जो जीवन के संघर्षों और अनुभवों से जूझता हुआ अंतहीन प्रेम की तलाश में भटकता है । यह देखना भी मानीखेज है कि मोहन राकेश का अधिकांश जीवन जिन जटिलताओं से बुना गया है, उसके केंद्र और परिधि दोनों पर स्त्रियाँ  मौजूद थीं । दरअसल यह किताब, उन अधूरे रिश्तों की दुनिया का बेबाक ब्यौरा है, जिसे अधिकांश लोग सायास छुपाते हैं । यह भी समझने वाली बात है कि मोहन राकेश अपने जीवन की समस्याओं और ऊहापोहों से लड़+ते हुए भी उन पहलुओं को कभी छुपाने की कोशिश करते नहीं दिखते, जिसे उजागर करना किसी के सामाजिक जीवन के लिए घातक हो सकता है । इन्हीं जटिलताओं और बेबाकी ने उनका किरदार रचा है, जिसके तहत हम मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रश्नों से जूझने वाली उनकी बहुतेरी अमर कृतियाँ पा सके हैं, जिनमें 'आषाढ़ का एक दिन' और 'लहरों के राजहंस' जैसा लेखन शामिल है । लेखक ने इस जीवनचरित को साधने में बहुतेरे स्रोतों से सामग्री जुटाई है, जिनमें अधिकांश लोगों के जीवन- प्रसंग, संस्मरण, साक्षात्कार, इतिहास, आत्मालोचना, नाटक, कथा आदि शामिल रहे हैं। साहित्यिक स्रोतों का इस्तेमाल करते हुए जयदेव तनेजा जरा सा भी भटकते नहीं, बल्कि उसे तटस्थ ढंग से इतिहास और साहित्य के बीच ऐसे सुललित पाठ की तरह परोसते हैं कि किस्सागोई में भी यथार्थ का आनंद और सच्चाई में भी फ़साने जैसा आस्वाद मिलता है । गल्प और फंतासी, इतिहास और वर्तमान, संस्मरणों और आत्मसंवाद के बीच तराज़ू के दोनों पड़लों पर ड़ूबती-उतराती यह जीवनी बहुत सार्थक होने के बाद भी उस तरह की क्लासिक अनुभूति नहीं देती, जैसी निर्मम सच्चाई से भरी हुई पांड़ेय बेचन शर्मा 'उग्र' की आत्मकथा 'अपनी खबर' से मिलती है । बावजूद इसके मोहन राकेश की ईमानदारी और उनके इर्द-गिर्द का परिवेश जिस तरह की मासूमियत, संघर्ष और साहित्यिक गलाकाट प्रतिस्पर्धा का कोलाज बनाता है, वह पढ़ने में उत्सुकता जगाता है । किताब की शुरूआत में, हलफ़नामा के तौर पर जयदेव लिखते हैं- 'मैं ईश्वर को हाज़िर - नाज़िर मानकर शपथ लेता हूँ कि जो कहूँगा, सच कहूँगा...' . आगे इस बात का स्वीकार- 'मैंने यहाँ केवल मोहन राकेश के अधूरे रिश्तों की इस दिलचस्प, किंतु उतनी ही दुखद दास्तान की पूर्व परिचित कुछ हक़ीकत कुछ अफ़साना और कुछ तर्ज़े -बयाँ' से निर्मित सम्मोहक छवि में से, स्वयं उन्हीं के वक्तव्यों के उद्धरणों के बीच मौजूद 'अफसाने' के हिस्से को, केवल उद्घाटित करके, उसकी हकीकत और तर्ज़े बयां वाली वास्तविक तस्वीर पेश करने का प्रयास किया है । '

खंड़ों का जिक्र करें, तो उनकी प्रस्तावना पुराने दौर की समानांतर सिनेमा के कथानकों के वन लाइनर की तरह उभरती है, जिसमें स्त्रियाँ और उनके संबंध, मित्रताएँ और त्रासदियाँ, लेखन व अधूरेपन का एहसास, साहित्यिक उत्कर्ष और उससे बेनियाज़ बने रहने की कैफ़ियत, सभी कुछ मौजूद हैं । इन्हें धार देने के लिए जयदेव तनेजा, कमलेश्वर, रवींद्र कालिया के साक्ष्य भी लाते हैं, जिससे पाठ की प्रामाणिकता को चमक मिले । यहाँ गंधर्व विवाह और कयामत की रात है, तो राकेश - अनीता का पलायन प्रसंग भी शामिल है । 

मोहन राकेश की संवेदनशीलता का पता यह कथन बताता है- 'आओ प्यार करें, बिना ये जाने कि प्यार क्या है ?', इसी तरह यह स्वीकारोक्ति- 'मैं मानता हूँ कि मैंने घर तोड़े हैं, जो कि हमारे हिंदू मध्य आयवर्गीय परिवारों में अक्षम्य है । 'अव्यक्त, अप्रकाशित और अर्धव्यक्त तथ्यों के लिए लेखक ने पुस्तक के अंत में व्यक्तिगत बातचीत के लिए अमृता प्रीतम, विश्वमोहन बड़ोला, अनीता राकेश, सत्येंद्र शरत, नेमिचंद्र जैन, मोहन महर्षि, श्यामानंद जालान, कमलेश्वर, रामगोपाल बजाज तथा अन्य लोगों का ज़िक्र किया है, जिनके दृष्टिकोण ने किताब को समग्रता प्रदान की है । सोचने पर मजबूर करने वाली एक कहानी की तलाश में भटकती जीवनी ।  

– साभार: दैनिक जागरण, दिल्ली

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मोहन राकेश अपने आत्मानुभव के आधार पर बिलकुल सहज, सरल और स्वाभाविक शब्दों में केवल इतना ही कहते हैं, 'आओ, प्यार करें, बिना ये जाने कि प्यार क्या है?' उनके लिए प्यार सीखने की नहीं, करने की कला है । राकेश के प्यार का दायरा केवल व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक मानवीय सम्बन्धों तक ही सीमित नहीं है । उनका प्यार पशु- पक्षियों, पहाड़ों, नदियों, झरनों, समुद्र तटों, पेड+-पौधों, जंगलों, चाँद-सितारों, सृष्टि और प्रकृति के लघु-विराट् और अनन्त रूपों तक फैला है । 

इस पुस्तक का विषय राकेश के जीवन में अनेक बार आया प्यार और उस प्यार की आलम्बन रही स्त्रियों से उनके आधे-अधूरे रिश्तों के ज्ञात इकतरफा सच को, अनेक स्रोतों एवं सूत्रों से प्राप्त दूसरी तरफ के अल्पज्ञात सच के बरक्स रखकर, अपेक्षाकृत पूरे सच की तलाश पर केन्द्रित है । अपनी भावनात्मक ज़रूरतों और 'घर' की तलाश में राकेश आजीवन छटपटाते- भागते रहे । इस पुस्तक में आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, साक्षात्कार, इतिहास, आत्मालोचना और किसी हद तक नाटक एवं कथा, आदि विधाओं के भी कई तत्त्व समाहित हैं । इन्हीं के सहारे यह पुस्तक आधुनिक हिन्दी साहित्य और रंगकर्म के सम्मोहक तथा विवादास्पद मिथक पुरुष के व्यक्तित्व के रहस्यमय नेपथ्य-लोक की अन्तर्यात्रा करने का प्रयास करती है । 

—अधूरे रिश्तों की पूरी दास्तान, जयदेव तनेजा

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जयदेव जी ने पुस्तक में लिखा है कि वे कभी मोहन राकेश से मिले नहीं। इसके बावजूद अत्यंत प्रामाणिकता के साथ, अत्यंत परिश्रम से संपूर्ण सामग्री को एकत्र कर उन्होंने जो प्रस्तुत किया है, वह अद्भुत है…दुर्लभ है…साहित्य की धरोहर है…।

                                          –सुशील कुमार सिंह (सुप्रसिद्ध नाटककार एवं मीडियाकर्मी)

आपने मोहन राकेश जी को उनके साहित्यिक प्रभाव समेत अंतर्बाह्य समझकर, जानकर, बड़े सहज भाव से पाठकों के सामने कुशलतापूर्वक एक पितृभाव से उकेलकर रखा है। आपका सर्व समावेशी स्वभाव, सहृदयता और गुण ग्राहकता इस लेखन का विशेष गुणधर्म है।              

–कमलाकर सोनटक्के (वरिष्ठ नाट्यालोचक)

किताब का पहला आधा भाग पढ़ने में सचमुच research paper की तरह लगता है।… किताब का दूसरा भाग अत्यधिक जिज्ञासा पूर्ण है, छोड़ने का मन नहीं करता।…

मैं सोच सकती हूँ ये कितना कठिन काम था। पर अपने प्रिय नाट्य लेखक के लिये ये पुरस्कार की तरह ही है।

                                       किरण भटनागर (बहुमुखी रंगकर्मी)

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विशेष सूचना



मैं वैयक्तिक और साहित्यिक दोनों स्तरों पर अपने 
को ज़िंदगी से जुड़ा हुआ पाता हूँ— 

पर जुड़े होने का अर्थ ज़िंदगी की सब परिस्थितियों को 
स्वीकार करके चलना नहीं है । ज़िंदगी में बहुत कुछ है 
जिसके प्रति विद्रोह और आक्रोश मेरे मन में है...  मोहन राकेश


मोहन राकेश: अधूरे रिश्तों की पूरी दास्तान का यह ज़िक्र दरअसल एक छोटी-सी शुरूआत है । मोहन राकेश के जन्मशती वर्ष का आगाज़ हो चुका है । इसके मद्देनज़र अभिनव इमरोज़ की अपने आगामी अंकों में राकेश के लेखन से संबंधित कुछ सामग्री प्रकाशित करने की योजना है । इसी कड़ी में जनवरी 2025 अंक पूर्णतः राकेश पर केंद्रित होने जा रहा है। यह अंक बतौर अतिथि संपादक डाॅ. जयदेव तनेजा के मार्गदर्शन में निकलेगा । इस संदर्भ में राकेश के कृतित्व पर आधारित मौलिक एवं शोधपरक आलेख दिनांक 30.09.2024 तक ई-मेल आईडी : abhinavimroz@gmail.com पर आमंत्रित हैं। राकेश के व्यक्तित्व अथवा कृतित्व से संबंधित लेखकों और पाठकों के संस्मरण, साक्षात्कार, पत्र, व्यक्तिगत अनुभव इत्यादि का भी स्वागत है।

आलेख यूनीकोड अथवा Kruti Dev 10 फॉन्ट में होना चाहिए । 

शब्द सीमा 3000-4000 के बीच रहनी चाहिए । 

आलेख के साथ लेखक का संक्षिप्त परिचय और एक पासपोर्ट साइज फोटोग्राफ भी संलग्न होना ज़रूरी है । 

प्रकाशन के संबंध में संपादक का निर्णय अंतिम एवं मान्य होगा ।

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कहानी

डॉ. सुदर्शन प्रियदर्शिनी, Ohio, U.S.A., Mob. (440) 717 - 1699


निर्धनता

अरे कामिनी यह रोटी मेरी थाली में क्यों डाल दी, बच्चों के लिये और तुम्हारे लिये भी कुछ है या नहीं... विकास ने कहा । क्या अब पेट भर खाना भी नहीं खाइयेगा... दिन भर दफ्तर में माथा पच्ची करके, फाइलों में उलझ- उलझ कर सर खपाते हैं, फिर सूखी रोटी भी पेट भर न मिले तो कैसे चलेगा... और बच्चों को मैंने यह कहकर सुला दिया है कि आज रोटी देर से बनेगी । वह चाय पीकर सो गये हैं । कामिनी ने अपनी सफ़ाई पेश की । 

विकास की आत्मा हाहाकार कर उठी... कामिनी, मुझे नहीं चाहिये पेट भर खाना... जब तक मैं बच्चों को खाना न खिला सकूँ । उन्हें सुलाकर मैं पेट भर खा लूँ... यह कैसे हो सकता है । मैं पिता हूँ या राक्षस । तुम भी माँ हो या डायन... कहकर विलास वहाँ से उठकर चला गया । उसकी आत्मा चीत्कार कर रही थी । अभाव उसको कुरेद रहे थे और प्राणों में एक विष घुल रहा था । 

ग्रीष्म ऋतु की मन्द मन्द पवन चल रही थी परन्तु शिमला जैसे पहाड़ी प्रदेशों में यह हवा भी ठंडी और सिहरन सी पैदा करने वाली होती है । यहाँ रजाई के बिना रात को नींद नहीं आती । विकास ने खिड़की खोली तो सामने चाँद झाँक रहा था जैसे नई दुल्हन घूँघट में से पुष्पों की सुगन्ध जैसी मुस्कान बिखेर देती है । नई दुल्हन का ध्यान आते ही उसे कामिनी का ध्यान हो आया । यह घूँघट सचमुच बादलों की ही एक मोटी सी परत है, जिसमें से नारी की उज्जवल रूप-राशि चाँद की सी मधुर चाँदनी बिखेर रही है, परन्तु बादलों की घनी छाया पुनः अपना प्रभाव दिखाने लगती । आज वह अपने भाग्य पर खीजने लगा था । क्यों पिताजी ने मेरा विवाह इतनी जल्दी कर दिया जबकि मुझे अपनी राहों पर उगी हुई कँटीली झाड़ियों का ज्ञान तक नहीं था ? अभावों और भूखे बच्चों का ध्यान आया तो जो अंतर्वेदना निहित थी चेहरे पर एक अजीब उदासी बनकर आ गई । इस सब का कारण वह स्वयं ही तो था । उसने छोटे रम्मी को छाती से लगा लिया, बुरी तरह से उसे अपने साथ भींच लिया मगर वेदना कुछ हल्की न हो पाई । 

शिमला जैसे महँगे नगर में केवल 110 रुपये मासिक से अपना निर्वाह होना ही कठिन है, उस पर बीवी-बच्चे, न जाने कैसे विवशता के बीच अपने जीवन की गाड़ी धकेल रहा था वह । आज महीने की बीस तारीख है । आटा समाप्त हो चुका है क्योंकि पिछले दिनों कुछ मेहमान आ गये थे । घी तो जैसे सारा महीना नज़र ही नहीं आता । कभी रात को रूखी रोटी तो कभी दिन की रोटी मिलती ही नहीं । चारों ओर गहन अन्धकार अपनी लपेट में लिये जा रहा है । जीवन के अभाव मानों अब उसे निगल ही लेंगे । विकास का जी चाहा कि वह खिड़की से बाहर कूद पड़े और उन सभी झंझटों से छूट जाये परन्तु पत्नी और बच्चे । वह फिर लेट गया परन्तु नींद तो भाग्य की तरह रूठ गई थी । बहुत चाहा कि नींद आ जाये पर जीवन की कटु विडम्बनाओं, अभावों की चिन्ता ने उसकी पलकों को लगने न दिया । आज न जाने जीवन की और कौन-कौन सी उदासीनतायें उसके मस्तिष्क में बवण्डर उत्पन्न कर रही थीं । अभावों का अतीत वर्तमान और भविष्य आँखों में किरकिरी बन कर खटकने लगा । 

गहन शोकान्धकार में तारे डूब गये, बादलों के टुकड़े हवा के प्रखर झोंकों से तितर-बितर हो गये । रजनी का साम्राज्य किसी आततायी की पद- चाप से त्राहित हो उठा और धीरे-धीरे समाप्ति की ओर सरकने लगा और नीलाकाश पर ऊषा की लाली थिरकने लगी । 

रात भर नींद न आने के कारण विकास की आँखें भारी और सूजी हुई थीं । उनमें हल्की सी लाली थी जो शायद थकावट और दुःख की द्योतक थी । 

कामिनी भयभीत, सशंकित और दुःखी थी । उसने अब तक अपनी शादी के 12 बसन्त देखे परन्तु बसन्त की सी बहार उसने कभी देखी हो ऐसा नहीं हुआ था । जीवन में पतझड़ का वीरानापन, अभाव जनित पीड़ा और अतृप्ति ही अनुभव हुई है । उसी को उसने अपनी चिर संगिनी बना लिया है । कामिनी विकास के रात्रि के व्यवहार से और भी दुःखी हो उठी थी । उसके अभाव आज चुभन बन गये थे । इसीलिये उसने मूक रहना ही उचित समझा । 

विकास नहाया - धोया, कपड़े पहने और बिना खाए-पिए अपनी कर्तव्य की मन्जिल की ओर जल्दी-जल्दी पग बढ़ाता हुआ चलने लगा । कामिनी से अब न रहा गया उसकी आँखों में आँसू आ गये । कमरे से बाहर निकलते ही उसने विकास की बाँह पकड़ ली । बिना खाए पिए ही..? बस उसका गला रुँध गया था । 

कामिनी ! अपने आँसू बहाकर मेरी इस दुःखी आत्मा को और अधिक दुःखी न करो । मेरे घावों को न कुरेदो, मुझे जाने दो बच्चों को कुछ खिला देना । विकास की आँखें भर आई थीं । उसने झटका देकर कामिनी के हाथ को छुड़ा दिया और दफ्तर की ओर कदम बढ़ा दिये । 

समर हिल शिमला की सबसे नीची घाटी है । उतरते-उतरते और चढ़ते- चढ़ते दम निकल जाता है । क्वार्टरों के आगे एक उतना ही लम्बा मैदान है और उसकी चौड़ाई लगभग आधा फर्लांग होगी । उसके आगे छोटी-छोटी पगडंडियाँ नीचे खड्डों में उतर जाती हैं । उस सपाट लम्बे चौड़े स्थान के अंतिम छोर पर एक लम्बी कतार कँटीली झाड़ियों की भी है जिसके इर्द-गिर्द बैठ कर धूप सेंकी जाती है और सपाट स्थान से ऊपर की ओर जो दुर्गम रास्ते हैं वह शिमला के अभावजनित क्लर्कों को बहुत दूर, उनकी कर्तव्य की वेदी, दफ्तर की ओर ले जाती हैं । 110-20 के बीच वेतन, उस पर 3-4 बच्चे । लम्बी-लम्बी घाटियाँ जिन पर चलते-चलते उनका दम फूलने लगता है । परन्तु पेट के लिये वह यह सभी कुछ सहज पूरा करते हैं । 

प्रतिदिन के जीवन में हमें समाचार पत्र और पत्रों की जितनी तीव्र प्रतीक्षा होती है, उतनी शायद किसी की भी
नहीं । यही तो वह क्षण होते हैं जब सभी क्षण भर को अपने को इस दारिद्रयजनित दुनिया से कुछ ऊपर उठा हुआ देखते 

हैं । सामने डाकिया आ गया था । विकास उसी ओर बढ़ने लगा । पास आने पर पता चला कि तार वाला है । प्रसन्नता और आशंका की मिश्रित लहर उसके मुख पर दौड़ गई । पहले उसने पास से गुज़र जाना चाहा फिर सोचा चलो पूछ ही लो शायद छोटी साली के घर लड़का हुआ हो तो तार आया हो । आखिर उसने तार वाले को बुला कर कहा - भई समर हिल की कोई तार या एक्सप्रेस तो नहीं है? तार वाले ने एक गहरी दृष्टि विकास के मुख पर डाली फिर अपने कागज़ों को टटोलने लगा । विकास का दिल धक-धक करने लगा । आखिर में उसने एक तार विकास के हाथ में थमाते हुये कहा - बाबू यह तार है । श्री विकास दत्त आप ही हैं क्या?

उसने कहा- हाँ । 

तार वाहक चला गया । ये डाक वाहक और तार वाहक अपने निर्जीव झोले में न जाने क्या-क्या लिये फिरते हैं । किसी के लिये उजड़ी हुई दुनिया, किसी के लिये सुहाने और सलोने स्वप्न, आशायें और निराशायें, हृदय वेध देने वाली घटनायें और सूचनायें - न जाने क्या-क्या बवण्डर उनके उस झोले में समाया हुआ होता है । 

विकास ने तार खोला और जल्दी-जल्दी उसकी एक-एक पंक्ति पर दृष्टि दौड़ाई फिर पढ़ा जैसे उसके पल्ले कुछ न पड़ा हो । विकास के पिता जी दिल्ली में सख्त बीमार हैं उन्हें लकवा मार गया है पढ़कर वह चीख पड़ा । तार के ऊपरी लिफाफे के टुकड़े जमीन पर पड़े थे । हवा के झोके से तितर- बितर हो गये । विकास उन टुकड़ों की सरकती हुई चाल देखने लगा । उसने तार के कागज़ को लपेट कर जेब में रखा फिर निकाल लिया, फिर पढ़ा । बहुत बीमार हैं । लकवा मार गया है, क्या हाल होगा? ये शब्द उसकी आँखों ने उसके दिल में से पढ़ लिये थे । जीवन के पतझड़ में अगर बसंत की हरियाली कहीं दीख पड़ती थी तो वह उसके अन्तिम सहारा पिता के द्वारा । अब तो उसकी नैया भँवर में बुरी तरह चक्कर काटने लगी थी । जोर की लहरों के थपेड़े उसे पीछे धकेलने लगे थे । सामने फैला था जीवन का गहन विशाल समुद्र । कैसे पार होगा? वह सिहर उठा । 

विकास बुत बना वहीं खड़ा न जाने कितनी देर आसपास और ऊपर स्टेशन की ओर जाती हुई पगडंडी की ओर देखता रहा । अन्त में पैर आगे बढ़ाये, दो चार कदम रखे तो कल्पना में कामिनी की तड़पती आकृति आँखों के समक्ष घूम गई । विकास के पैर ऊपर की ओर जाने वाली पगडंडी की ओर नहीं बढ़ना चाहते थे, पीछे ही पड़ते थे । पाँव भारी-भारी हो रहे थे । टाँगे जैसे बलहीन होकर माँस के लोथड़े सी लटकने लगी हों । उसने सोचा कि आफ़िस जाये और एडवांस ले आये । उसकी जेब में तो बस दस-दस रुपये के दो नोट थे वो भी भाग्य से उसी दिन की उतराई पर उसे पड़े मिले थे । परन्तु जब पिता की काल्पनिक रोगग्रस्त सूरत सामने आई तो दूसरी ओर अपने अफ़सर की । वह तो शाम छः बजे से पहले छुट्टी नहीं देगा... बिल्कुल नहीं देगा । और फिर उधर चाहे पिता के प्राण चले जायें । मेरे जीवन की एकमात्र किरण भी क्षितिज के उस पार कहीं गहरे में लुप्त हो जाये और फिर जैसे मैं जीवन भर मारा-मारा फिरकर, रो कर, तड़प-तड़प कर भी फिर न पा सकूँ । अंत में उसके पैर घर की ओर बढ़ गये । घर अभी दफ्तर की अपेक्षा निकट था । कम रुपये हैं तो क्या करूँ? क्या रुपयों के पीछे पिता को खो दूँ । अभी दिल्ली पहुँचने में भी तो 10-12 घन्टे लग जायेंगे । यही सोचते हुए घाटियों में नीचे उतरने लगा । घर के द्वार पर आया तो कामिनी अभी वैसे ही दीवार के साथ खड़ी सिसक रही थी । 

कामिनी ! विकास ने जल्दी से पुकारा । कामिनी पति को रुष्ट रुप में ही दफ़्तर भेजकर पुनः अपने सामने देखकर दुखी हो उठी । उसका रोम-रोम काँप उठा । आप वापिस कैसे आ गये और यह हाथ में क्या है? कामिनी ने उमड़ती रुलाई को रोकते हुए कहा । विकास के सामने जीवन की सबसे बड़ी वस्तु जिसे वह सदा तुच्छ और काँटा समझता आया था आज देवी बनकर प्रकट हुई । उसे अपनी त्रुटि पर पश्चाताप हुआ । कामिनी का सिसकता रूप देखकर उसे अपने पर न जाने कितना क्रोध आया, पर दाँत पीसकर रह गया । कोई और समय होता तो शायद अपनी गर्दन मरोड़ लेता पर अब वह समय नहीं था । 

दिल्ली से तार आया है कि पिताजी को लकवा मार गया है और वह बहुत ही बीमार हैं । विकास एक ही साँस में सब कह गया । फिर कहा कि वहाँ चलने की तैयारी करो । लेकिन पैसे ... कामिनी ने शंका भरी दृष्टि विकास पर डालते हुए कहा । 

जो होगा देखा जायेगा कामिनी, पर अब तो तैयारी की बात सोचो । बच्चे कहाँ हैं? मैं उन्हें तैयार करता हूँ । तुम एक ट्रंक में कुछ कपड़े डाल लो और वही काला कम्बल रास्ते के लिये लेकर जल्दी चल पड़ने की तैयारी करो बस । अब देर न हो । विकास का सारा क्रोध, उदासीनता और अभाव इस आवेश में दूर हो गया था । 

कामिनी ने भी आँसू पोंछ लिये । आँसुओं के स्थान पर एक वीरानी और आशंका की लकीर खिंच गई । आधा घन्टे बाद वे स्टेशन की ओर रवाना हो गये । न किसी से कुछ कहा, न माँगा, न बोले, न बुलाया । सब आश्चर्यजनक दृष्टि से उनका जाना देखते रहे । 

अपने क्लर्की जीवन के दारिद्रय और 10 तारीख से पहले वेतन समाप्त हो जाने की करुण कहानी वह स्वयं अच्छी तरह जानता था । उसने अपनी जेब में केवल बीस रुपये होते हुये भी किसी से कुछ उधार माँगना उचित नहीं समझा था । वह जानता था कि घायल की गति घायल जाने । एक पीड़ित दूसरे की पीड़ा शीघ्र समझ जाता है । 

दूसरी ओर उसे अपनी सरकारी नौकरी का ध्यान आता । उसने अपनी टिकट केवल अम्बाला तक की ले ली फिर उसके आगे कुछ और सोचेगा । वह सोच रहा था कि अगर रास्ते में पकड़ा गया तो जीविका से भी हाथ धोने पड़ेंगे । फिर कामिनी और मासूम बच्चों पर न जाने क्या बीतेगी । यह सोचकर वह सिहर उठता । कहीं भी गाड़ी खड़ी होती तो मानों उसके हृदय की धड़कन भी बन्द हो जाती । उसके चेहरे पर एक पीलापन और भयानकता दौड़ जाती । उसे यही लगता जैसे इधर वह सिपाही के सामने हथकड़ियाँ बाँधे खड़ा है और उधर उसके पिता अपना दम तोड़ चुके हैं । कामिनी पति के मुख पर जब अजीब सी भय की रेखा देखती तो उसका पतिव्रत धर्म भड़क उठता । उसके अन्दर कुछ रिसने लगता । काश कि उसके पास कुछ भी रुपये होते या कोई गहना होता जिसे इस समय पति के हाथ में देकर उनके भय को दूर कर देती । उधर ससुर की कराहती हुई आवाज़ कानों में पड़ती और आँखों के कोरों में उसके अश्रु कण झलकने लगते जिन्हें वह खिड़की के बाहर मुँह निकालकर पोंछ लेती । विकास और कामिनी एक दूसरे की ओर देखते, पर टकटकी बाँधकर कुछ देर एक-दूसरे को देख सकने का उनमें साहस नहीं था । विकास अपने कर्मों के अपराध से समझता जैसे वह न जाने कितनों का गला घोंट रहा है । कामिनी की सरल प्रतिमा, सुन्दर पर दुर्बल काया जैसे उसके अपराध को चौगुना करके उसको बताने लगती और वह अपने किसी गहन पाप को सोच थर्रा उठता । कालका में गाड़ी बदली । पीछे छूटे हुए शिमले की लम्बी घाटियाँ ऐसे लगती जैसे उसके सिर पर पड़ा हुआ बोझ उतर गया हो । और आगे आते हुये अम्बाला - देहली का लम्बा रास्ता मानो बल खाते हुए साँप की भाँति फुंकार मार कर उसे काटने को दौड़ रहा हो । 

गाड़ी हवा से बातें कर रही थी । पर विकास को लग रहा था मानों वह ढेंचू ढेंचू करती किसी गधे की भाँति धीरे-धीरे आगे सरक रही हो और दिल्ली... और भी दूर होती चली जाती हो । जीवन की जिस कटु विभीषिका का आज वह सामना कर रहा था, उसके लिये नितान्त नई थी और असहनीय भी । सूखे भुने हुये चने चबाकर उसने रातें काटी थीं । कभी भूखे ही सो गया था परन्तु संसार के समक्ष कभी उसने अपने दारिद्रय की अर्थी नहीं निकलने दी थी । दुनिया को कभी यह अनुभव नहीं होने दिया था कि उसकी जीवन-गाड़ी इस तरह टक्करें खा-खाकर आगे बढ़ रही थी । उसे अपने लाहौर में बिताये हुये जीवन का एक-एक दिन याद था । वे तो अब उस के लिये स्वप्न हो गये थे अथवा केवल कल्पना मात्र थे । जब वह अपनी दुकान पर बादाम और पिस्ता की बोरियों पर बैठकर उन्हें ऐसे चबाया करता था जैसे माँ के प्यार का एक-एक ज़र्रा उसके शरीर में खप गया था । माँ भी उसे ही देखकर जीती थीं और पिता थे कि उसकी साँस के साथ साँस लेते थे और आज उसके पास उन तक पहुँचने के लिये भी रुपये नहीं हैं । आज वह दिन को खाता है तो रात को भूखा सो जाता है । और कभी तारों की गिनती करते हुए रात बिता देता है । 

उफ, जीवन तुमने कितना गहरा पलटा खाया है जो कि असहनीय है । पाकिस्तान - हिन्दुस्तान का बँटवारा क्या हुआ, मेरे भाग्य का और मेरा भी बँटवारा हो गया । आज शिमला की शीतकालीन बर्फीली रात्रि में वह ठिठुर- ठिठुर और दाँत से दाँत बजाकर स्वप्नों के स्थान पर कटु अनुभवों में रात्रि व्यतीत कर देता है । उसे लगा जैसे संसार का सारा का सारा प्रकाश अन्धकार में विलीन होता जा रहा है और रात्रि सारे प्रकाश को किसी डायन की भाँति निगले जा रही है । विकास को चक्कर आ गया और वह वहीं गिर गया । कामिनी ने उठाया । अगर आज विकास दरवाजे के बाहर गिर जाते तो अभी उसके सुहाग का बिन्दु, जो उसके भाग्य का सूर्य है, मिट जाता और वह सदा-सदा के लिये कंगाल हो जाती । कामिनी ने गड़वी में पड़े हुये पानी के छींटे दिये और विकास की मूर्छावस्था को दूर किया । कामिनी का अपना साहस छूटा जा रहा था मगर उसने कहा- अगर आप ही ने साहस छोड़ दिया तो हम क्या करेंगे? आप हैं तो जहान है । आखिर जब प्रभु हमारी कठिन परीक्षा ले रहा है तो हमें धैर्य रखना चाहिये । बेचैनी और घबराहट दुःख और सुख के बीच की खाई को और भी लम्बा चौड़ा बना देती है । 

अम्बाला का स्टेशन चीं.. चीं.. पौं.. पों.. मैं.. मैं.. तू.. तू.. कुली.. कुली, चाय गर्म, चाय गर्म की आवाजों से गूँज रहा 

था । किसी को कुछ सुनाई नहीं देता था । धीरे-धीरे यात्री तितर-बितर होते जाते थे । यही गाड़ी देहली तक जानी थी । 

विकास और कामिनी का मन धक-धक कर रहा था कि अभी भी क्या होगा? उन्हें आज वह दिन स्मरण हो आया था जब वे पाकिस्तान से हिन्दुस्तान आ रहे थे । खिड़कियाँ बन्द थीं । गाड़ी की ओर तड़-तड़ करती गोलियाँ दरवाज़े को तोड़ रही थीं । अन्दर बैठे यात्रियों के प्राण हलक में अटके थे । इसी तरह विकास और कामिनी, दो बच्चे और पिता दुबक कर बैठे थे । परन्तु तब प्राणों का भय था, आज इज्जत को खतरा है । आज की बात का मूल्य अधिक है । आज अपनी जीविका से हाथ धोना पड़ेगा । जब गाड़ी चली तो उनकी जान में जान आई । 

विकास को बच्चों का ध्यान आया । बेचारे सुबह से भूखे प्यासे हैं । छोटा रम्मी तो माँ का दूध पी सकता था परन्तु बाकी तीन बच्चे... वह सिहर उठा । अगर पिता की बीमारी का हाल सुनकर वह इतना घबरा गया है और प्राणों को हथेली पर रखे जा रहा है तो अगर कोई बच्चा भूख के मारे मर जाये तो क्या होगा? वह इस पाप का प्रायश्चित कभी भी न कर पायेगा और वह स्वयं जीते जी घुल-घुल कर मर जायेगा । उसने देखा कि बड़ी लड़की रमा किस तरह दुबकी हुई एक कोने में बैठी थी । विकास का हृदय भर आया और आँसू ढलक आये । उसने बुलाया- रमा, इधर आ बेटी, तुझे भूख नहीं लगी, विकास ने जैसे किसी पाप को कोख में दबा कर कहा । लगी है, पर अब कुछ खाने को ही नहीं है । उस नादान का उत्तर सुनकर विकास का रोम-रोम चीख उठा । उसने मन ही मन प्रतिज्ञा कर ली कि अगले स्टेशन पर वह बच्चों को और पत्नी को कुछ खिलायेगा अवश्य, जो होगा देखा जायेगा । कुरुक्षेत्र के स्टेशन पर उसने सबको कुछ न कुछ खिलाया पर ज्यादा न खर्च कर सका केवल एक रुपया ही खर्च किया । शेष अब जेब में 2 रुपये चार आने रह गये । 

दिल्ली का विशाल स्टेशन आया । इतना साज-बाज कि अब तो स्टेशन पहचाना नहीं जाता था । उसका जी चाहता था कि अपनी सरकार के मुँह पर थूक दे । जहाँ साधारण से काम चल सकता है वहाँ करोड़ों रुपये खर्च कर देती है और दूसरी ओर कई निर्धन बेचारे दर-दर की ठोकरें खाते फिरते हैं । हम यहाँ दाने-दाने को मोहताज हैं और वहाँ स्टेशनों, वेटिंग रूम, बाथ रुम, और न जाने क्या-क्या बना हुआ है । उसका हृदय प्रतिशोध की ज्वाला से धधक उठा । 

रात्रि के 11 बज रहे थे । विकास ने सोचा अगर पिता जी... वह बस आगे कुछ न सोच सका । अब तक भीड़ तितर-बितर हो चुकी थी । कोई इक्का-दुक्का आदमी प्लेटफार्म पर दृष्टि गोचर होता था । विकास ने ट्रंक उठाया और पत्नी और बच्चों को अपने पीछे आने का संकेत किया । 

कहिये जनाब... टिकिट टी टी ने रोक लिया । विकास ने जेब में से एक टिकिट निकाल कर उसके हाथ पर रख दी और कठोर होकर उसके मुख की और देखने लगा । क्यों बाबू... छः आदमी और एक टिकट और वह भी अम्बाला तक की । यह किस राज्य का नियम है, कौन सी दुनिया में रहते हो बाबू... जवाब दो... बोलते क्यों नहीं, आँखें फाड़-फाड़ कर क्या देख रहे हो? पागल हो क्या? वह कड़क कर बोला । 

टी. टी. इसी भाँति कड़क कर अपना रोब गाँठते हैं तभी तो उनकी जेब गरम होती है । वह विकास पर भी अपना रोब जमाने लगा । उसके प्रत्युत्तर में विकास की आँखों से आँसू बह निकले । वह रुआंसी आवाज़ में कुछ कहना चाहता था मगर कह न सका । 

टी. टी. ने कड़क कर कहा अगर रो के डराना था तो सैर को क्यों निकल पड़े । सैर शब्द विकास के हृदय पर हथौड़े की चोट सा लगा । एक ओर हमारे पिता बेटे की सूरत देखे बिना कराह - कराह कर मर जायें और यहाँ यह हमें सैर सुना रहा है । विकास ने उस मूक अभिनय में जेब में पड़ी तार टी. टी के समक्ष रख दी । टी. टी ने एक सरसरी निगाह से उसे पढ़ डाला फिर बोला- जेब में और कुछ भी है या नहीं? विकास की जेब में से दो रुपये चार आने निकले । उसने उन्हें चुपचाप टी. टी की हथेली पर रख दिया । टी. टी. ने पूछा और कुछ? और कुछ तो शरीर पर कपड़े हैं या इस ट्रंक में इन्हीं बच्चों के थोड़े कपड़े हैं । और क्या चाहते हो? फिर उसने पूछा- जैसे जानता ही न हो, कितने बच्चे हैं? चार... विकास ने हृदय पर हाथ रख कर 

कहा । विकास इस समय अपराधी था । टी. टी. उससे चाहे उठक-बैठक करवा सकता था । वह इस समय राजा
था । पैसे लेकर टी. टी. दूर चला गया । विकास उसकी पीठ की ओर देखता ही रह गया । वह उसकी रही सही पूँजी भी ले गया था । दानव था वह, विकास ने सोचा- क्या उसकी आत्मा धिक्कारती नहीं होगी ? विकास बुत बना खड़ा रहा । उसकी आँखें जैसे पत्थर सी एक जगह जम गई थीं । उसकी आँखें टी. टी की पीठ पर ही थी । वह जैसे-जैसे दूर जा रहा था उसके हृदय की धड़कन तेज होती जा रही थी, प्रतिशोध की ज्वाला और अधिक भड़क उठती थी । 

क्षण भर पश्चात् उसने देखा कि सिपाही उसको हथकड़ियों में बाँध रहा था । वह टी. टी. भी पास खड़ा था । विकास कराह कर रह गया । वह नहीं जानता था कि रिश्वत लेकर भी मानव दया नहीं कर सकता । पत्नी पास ही खड़ी थी और सिसक-सिसक कर रो रही थी । जाते हुये विकास ने कहा- कामिनी घर पास ही है धीरे-धीरे पहुँच जाना । अगर पिता जी के भाग्य में हुआ तो अपने पुत्र की निशानी देख सकेंगे वर्ना.... । मेरे मन में तो धनी और निर्धन के बीच में यह जो गहरी खाई है दिन-पर-दिन विशाल ही होती जायेगी । रोओ मत... मेरी कामिनी... अगर जीवित रहा तो एक दिन तेरे सुहाग को वैभव की ज्योति से उज्जवल बना दूँगा । कामिनी देखो इन बच्चों को मेरे बारे में कुछ न बताना । इनकी मासूम आँखें मेरी ओर देख रही हैं, इन्हें दूर ले जाओ कामिनी । चलो सिपाही... कामिनी की चीख निकली और रमा की मासूम आँखें बरस पड़ीं- पिताजी कहाँ जा रहे हो? विकास ने चिल्लाकर कहा मुझे जीवन भर अफ़सोस रहेगा कि मैं पिता की अंत्येष्टि भी न कर सका... वह जरूर मर गये होंगे । 


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नाटक

डॉ. गौरीशंकर रैणा, नोएडा, मो. 98104 79810


पातालकेतु


पात्र

योगनाथ : एक साधक (आयु 40 वर्ष) 

बलभद्र : गाँव का मुखिया (आयु 45 वर्ष) 

हेमवती : ग्रामीण महिला (आयु 50 वर्ष)

सौरभ : हेमवती का पुत्र (आयु 20-21 वर्ष) 

पातालकेतु : एक दैत्य

(कुछ ग्रामीण स्त्रियाँ, कुछ ग्रामीण पुरुष और एक मुनादी करनेवाला)

(मंच दो भागों में बँटा है । ऊपरी मंच पर एक चबूतरा बना है, जिसकी दो दिशाओं में दो ढलान हैं । वे मंच से जुड़ते हैं । चबूतरे के पीछे एक ऊँचा शिलाखंड जैसा ब्लॉक है । इस पर नटराज की प्रतिमा रखी हुई है । पीछे गगनिका पर कहरूबा रंग फैला हुआ है । पृष्ठभूमि में मृदंग बज उठता है । दाहिनी ढलान पर एक प्रकाश-वृत्त उभरता है । एक नर्तक मृदंग की थाप के साथ प्रवेश करता है । नृत्य करते- करते वह चबूतरे के मध्य में, ठीक नटराज की प्रतिमा के नीचे, नृत्य करता है । नृत्य करते-करते वह दूसरी ढलान से अग्रमंच पर आता है । नृत्य द्रुतगामी हो जाता है । पार्श्व से शिवतांडव स्तोत्रम् गूँजने लगता है । )

जटाटवी गलज्जल प्रवाहपावितस्थले

गलेवलंब्य लम्बितां भुजुंगतुंग मालिकम् । 

डमड्डमड्डभन्निनाद वड्डर्मण्यं

चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥

(बाईं ओर से एक ग्रामीण प्रवेश करता है । यह बलभद्र है । )

बलभद्र : रुकिए ! रुकिए !! रुकिए योगनाथ । 

योगनाथ : क्या है ?

बलभद्र : बंद कर दीजिए यह नृत्य । 

योगनाथ : (रुक जाता है ।) क्यों ? नंदीश क्षेत्र में भगवान शंकर को प्रसन्न करने का यह नृत्य बंद क्यों हो?

बलभद्र : क्योंकि यहाँ के लोग भयभीत हैं । 

योगनाथ : भयभीत ? सेनाध्यक्ष, थानाध्यक्ष, कोषाध्यक्ष के होते हुए भी कुव्यवस्था ?

बलभद्र : सभी अधिकारी अपने कर्मस्थानों पर स्थापित हैं । 

योगनाथ : तो फिर तुम मेरे पास क्यों आए हो ? मैं क्या कर सकता हूँ ?

बलभद्र : आप वह कर सकते हैं, जो वे नहीं कर सकेंगे । 

योगनाथ : मैं ?

बलभद्र : जी आप । 

योगनाथ : कदापि नहीं । जानते ही हो तुम कि चूने से बने इस जीण-शीर्ण भवन को तुड़वाकर इसे पत्थरों से बनवाया । नंदीश क्षेत्र के इस पवित्र स्थल पर, इस प्रांगन में नियम से पूजा करता हूँ इस नटराज के सामने ! और मैं क्या कर सकता हूँ ?

बलभद्र : हमारी रक्षा । 

योगनाथ : वह तो राजा का कर्म है । 

बलभद्र : परंतु जब तक राजा और प्रजा में सहयोग न हो, हम सुरक्षित नहीं रह सकते । 

योगनाथ : मैं न राजा हूँ, न प्रजा, न ही कोई अधिकारी । 

बलभद्र : इसी कारण बता रहा हूँ कि जल के भीतर से प्रकट हुए नरमांस खानेवाले दैत्य को कोई नहीं पकड़ पाया है । न राजा के सैनिक न अष्टादश अधिकारी । 

योगनाथ : नरमांस खानेवाला दैत्य ?

बलभद्र : हाँ योगनाथ  ! इसमें हैरान होने की बात नहीं । यह एक समस्या है । मैं आपसे समाधान पूछने आया हूँ ।

योगनाथ : (कुछ सोचकर) अहिंसाव्रती राजा जलोक के समय भी ऐसी ही समस्या आन पड़ी थी । एक स्त्री ने नरमांस खाने की इच्छा प्रकट की थी, तब राजा अपने ही शरीर का मांस देने के लिए सामने आए । किंतु जब वह जान गई कि राजा सत्य का पालन करता है, अपनी प्रजा की रक्षा करता है और अहिंसाव्रती है तो वह लज्जित होकर चली गई । 

बलभद्र : यह तब की बात है, अब की नहीं । सहस्रों वर्ष पुरानी बातें नए युग में किस काम की ! अब ऐसा संभव नहीं । हमें कोई उपाय करना होगा । कोई समाधान ढूँढना होगा, नहीं तो स्त्रियाँ विधवा होती रहेंगी । चलिए मेरे साथ और देखिए कि कैसा अनर्थ हुआ है । 

(दोनों का प्रस्थान)

(अग्र-मंच पर प्रकाश । कुछ स्त्रियों का गायन करते-करते प्रवेश । ये पारंपरिक नाट्य संगीत की लय पर गाती हैं ।)

सुनो सुनो री

सुनो सुनो री

सुन री बहना, सुन री माई

उसने कैसी कथा सुनाई

रोते-रोते आँगन आई

पति को अपने ढूँढ न पाई

ढूँढ न पाई ढूँढ़ न पाई

सुनो सुनो री, सुनो सुनो री

सुन री बहना, सुन री माई । 

वह तो अपने नित नियम से 

नित नियम से, नित कर्म से

तट पर जाकर खड़ा हुआ था 

थोड़ा आगे बढ़ा हुआ था 

ज्यों ही पाँव को जल में डाला 

जल में आया बड़ा उछाला

जलचर नीचे खींच ले गया

जाने कैसे भींच ले गया

जाने कैसे भींच ले गया

जाने कैसे खींच ले गया

सुन री बहना

सुनरी माई

आस न टूटे

साँस न टूटे

उस बहना की सुध तो ले लें

उस बहना से कुछ तो कह लें

उस बहना की बात सुनें हम 

उस बहना का दुःख बाँटें हम

चलो चलो री, 

चलो चलो री

हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ !

चलो चलो री

चलो चलो री

(प्रस्थान )

(मंच पर प्रकाश बहुत कम हो जाता है । फिर एक प्रकाश-वृत्त मंच-मध्य पर उभरता है । बलभद्र और योगनाथ दिखाई देते हैं । जैसे किसी ऊँचे स्थान से नीचे की तरफ़ देख रहे हों !)

बलभद्र : वह देखिए, वहाँ पड़ा था हेमवती के पति का कंकाल । आप सोचिए, क्या बीती होगी उस पर ! पूरा दिन उस कंकाल से लिपट लिपटकर रोती रही वह । पिछले सप्ताह एक गया, कल भी एक गया, अगले सप्ताह एक और जाएगा । यह जल दैत्य तो सबको खा जाएगा । 

योगनाथ: मैं अभी जाकर ग्रामाध्यक्ष से मिलूँगा । कहूँगा कि वितस्ता की ओर जाने से ग्रामीणों को रोकें । 

बलभद्र : परंतु यह तो कोई समाधान नहीं हुआ न ! वितस्ता तो जीवनदायिका है । 

योगनाथ : फिर तुम ही बताओ ?

बलभद्र : हमें जल-दैत्य को मारने की कोई युक्ति ढूँढ़नी होगी! दूषित जल को निर्मल करना होगा !

योगनाथ : यह तो बड़ा कठिन कार्य है । 

बलभद्र : बस यही एक उपाय है । 

योगनाथ: मैं राजाधिकारियों से मिलूँगा । इस जल- दैत्य को पकड़वाने की किसी युक्ति पर विचार करवाऊँगा । 

बलभद्र : तो हो लिया फिर समाधान । 

योगनाथ : फिर भी राजाधिकारियों से मिले बिना यह कैसे संभव है ?

बलभद्र : क्या आपको लगता है हम राजाधिकारियों से मिले नहीं होंगे ! 

योगनाथ : उनका परामर्श तो लेना ही होगा । 

बलभद्र : वे परामर्श ही देते रहेंगे, तब तक यह दैत्य पूरे गाँव को खा जाएगा । जो व्यक्ति राजधानी में, पक्के पत्थरों के भवनों में रहते हैं, उन्हें कोई हानि नहीं होगी, परंतु हम जैसे साधारण ग्रामीण जो वितस्ता के तटों पर बसे हैं, उनका क्या होगा! यह आपने कभी सोचा है ? जब यह गाँव ख़ाली हो जाएगा, तब आप अकेले ही करते रहना प्रसन्न अपने आराध्य देव को । जब यहाँ कोई नहीं होगा तो कैसे लगेगा सोमअमावस्या का मेला ? कौन जाएगा वितस्ता पर स्नान करने को ? कौन चढ़ाएगा चढ़ावा ? कौन गाएगा स्तुति ? कौन सजाएगा पूजा की थाली ? कौन जलाएगा मंदिर के प्रांगण में दीप ?

योगनाथ : बस! बस !! ऐसा कदापि नहीं होगा । 

बलभद्र : तो फिर कुछ कीजिए । हम ग्रामवासी आपको अपना सखा, विद्वान मित्र और श्रेष्ठ मानते हैं । प्रतिदिन आप हमारे कुशल के लिए पूजा करते हैं । आपने ही हमें पुराणों की कथा सुनाई है । आपने कठोर तपस्या की है । 

योगनाथ: मैं इस ग्राम की रक्षा के लिए फिर से साधना करूँगा । 

बलभद्र : धन्य योगीनाथ धन्य ! कैसे आभार व्यक्त करूँ ! हम ग्रामवासी यही चाहते हैं । 

योगनाथ : मेरी साधना सफल होगी । मेरे आराध्य देव मुझे निराश नहीं करेंगे । 

बलभद्र : यह साधना कब तक चलेगी ?

योगनाथ : केवल तीन दिन । मैं पहले मातृचक्र की पूजा करूँगा, फिर नंदीश्वर के सामने नतमस्तक हो याचना करूँगा । 

बलभद्र : तो चलता हूँ, यह शुभ - समाचार ग्रामवासियों को दूँ । बतलाऊँगा उन्हें कि उनका सखा उनके लिए प्रार्थना करेगा । जप करेगा । 

(हाथ जोड़कर प्रणाम करता है और प्रस्थान) 

(योगनाथ आकाश की ओर प्रणाम करता है और फिर दूसरी दिशा से प्रस्थान करता है । प्रकाश लुप्त हो जाता है । )

अग्रमंच पर प्रकाश । बीस वर्षीय युवक (सौरभ) भाला लिए प्रवेश करता है । जैसे भाले का निरीक्षण कर रहा हो !)

सौरभ : यही है मेरा अस्त्र । अस्त्र-विद्या में निपुण हूँ । देखूँ मैं भी, कितना बलशाली है वह ! लूँगा प्रतिशोध । प्रतिशोध !

(पचास वर्षीय स्त्री (हेमवती) प्रवेश करती है । वह हाँफती हुई आती है । ) 

हेमवती : रुको पुत्र, रुको ! छोड़ दो यह भाला । वह बड़ा शक्तिशाली है । 

सौरभ : माँ! देखा मैंने तुम्हारा विलाप । तुम्हारा संताप । लूँगा प्रतिशोध, अपने पिता की मृत्यु का । कंकाल को घर में रखे कब तक विलाप करोगी? मैं भी आहत हूँ, किंतु लूँगा प्रतिशोध । 

हेमवती : नहीं, पुत्र नहीं ! मैं तुम्हें भी खोना नहीं चाहती हूँ । नहीं, लड़ सकते हो तुम अकेले उस दैत्य से । 

सौरभ : माँ, मैं सैनिक हूँ । राजा की विजयशालिनी सेना का सैनिक । हमने पर्वतों पर फैले कितने ही आक्रमकों को परास्त किया है । 

हेमवती : परंतु पुत्र, जिससे तुम युद्ध करना चाहते हो, वह कोई साधारण जीव नहीं । वह अपार शक्तियोंवाला दैत्य है । 

सौरभ : तो क्या हुआ माँ, मेरे भाले के प्रहार से वह बच नहीं पाएगा । 

हेमवती : मेरे सौरभ, वह अत्यंत शक्तिशाली है । 

सौरभ : माँ, मैं भी एक साधारण सैनिक नहीं हूँ । मैंने पिछले अभियानों में अपने समूह का नेतृत्व किया है । तुम नहीं जानती माँ, कि कैसे-कैसे आक्रमणकारियों का मैंने पर्वतों में नाश किया है । (अपना अंगवस्त्र हटाते हुए दिखाता है) यह देख रही हो ना माँ, यह घाव । इन्हीं पर्वतों में लगा था । सात आक्रमणकारियों ने आ घेरा था । लड़ता रहा । घाव लगते रहे, परंतु वे मुझे परास्त नहीं कर सके, तुम्हारे पास विजयी होकर लौट आया । माँ, तुम्हारा आशीष हर बार की तरह मुझे इस बार भी विजयी बनाएगा । मुझे कुछ नहीं होगा । उस दुष्ट का अंत करके ही लौटूंगा । 

(सौरभ निकलने लगता है । )

लौटूँगा विजयी होकर माँ । 

हेमवती : (पीछे-पीछे जाती है) नहीं पुत्र नहीं । अपना निर्णय बदल लो पुत्र... (प्रकाश, धीरे-धीरे लुप्त होता है)

(मंच-पार्श्व से नाट्य संगीत सुनाई पड़ता है । मंच पर फिर से प्रकाश । ग्रामीण स्त्रियाँ गुनगुनाते हुए मध्य - मंच पर आती हैं । )

ग्रामीण स्त्रियाँ : हूँ हूँ, हूँ हूँ, हूँ हूँ हूँ हूँ....

ऐ री बहना

ऐ री माई 

तेरे गाँव में

मेरे गाँव में

कैसी विपदा आई 

सुन री माई

आया जलचर 

एक निशाचर

शिशुमार-सा कैसा दानव 

क्या न बचेगा कोई मानव

हर-हर कर जो घर-घर जाते 

अब वे नहीं यहाँ पर आते


जाने क्या होगा अब आगे

कोई न पीछे कोई न आगे

रात कटे री जागे-जागे

रात कटे री जागे-जागे

कैसी विपदा आई 

सुन री बहना

सुन री माई

ऐ री बहना, ऐ री माई

हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ. हूँ हूँ...

(प्रस्थान )

(प्रकाश लुप्त होकर फिर से ऊपरी चबूतरे पर उभरता है । कुछ ग्रामीण पुरुष प्रवेश करते हैं । उनके हाथों में लाठियाँ हैं । )

पहला : ये ले भैया, यह मेरी लाठी । 

दूसरा : मैं भी देख कितनी बड़ी लाठी ले आया । 

तीसरा : पूरी रात जागना होगा । कोई न सोवेगा । क्या पता कब वह घड़ियाल पानी से बाहर आवे । 

पहला : लाठियाँ बरसेंगी तो वह ऊपर न आवेगा । पानी में ही डोलता रहेगा । 

दूसरा : हाँ भैया, हाँ ऊपर आया तो सतियानास करेगा । खा जाएगा हम सबको । 

चौथा : नहीं, नहीं वह ऊपर नहीं आएगा । वह जल का जीव है, जल में ही रहेगा । इन लाठियों से हम उसको मार नहीं सकते । 

तीनों : क्या बात कर रहे हो भैया ?

चौथा : सच कह रहा हूँ । उसको मारना इतना आसान नहीं । मान लो वह ऊपर आया भी तो क्या हमारी चार लाठियों से उसका अंत होगा ? कभी नहीं । उसे किसी युक्ति से मारना होगा !

पहला : तो बताओ युक्ति । तुम जो अपने को विद्वान कहते हो, तो करो कोई उपाय ! 

चौथा : सोच रहा हूँ! सोच रहा हूँ !

दूसरा : हाँ, सोचो - सोचो । 

तीसरा : सुना, हेमवती का बेटा गया है उससे संघर्ष करने । 

पहला : हाँ! हाँ! तट पर खड़ा था । हेमवती रोक रही थी । 

दूसरा : पिता तो गया, अब क्या पुत्र भी जाएगा ?

तीसरा : नहीं, बच पाएगा । 

पहला : कलजुग है भैया, कलजुग । पहले कहाँ आते थे इस नदी में ऐसे घड़ियाल । 

तीसरा : घड़ियाल नहीं काल । 

दूसरा : कुछ सूझा ?

चौथा : हाँ ! मगर क्या तुम लोगों को मेरा सुझाव पसंद आएगा ?

तीनों : क्यों नहीं ?

पहला : अरे भैया, हमें तुम पर पूरा विश्वास है । पिछली बार भी तो तुमने ही युक्ति से उस नरभक्षी तेंदुवे से बचाया था । 

चौथा : तब की बात और थी । वह देखा हुआ जीव था । यह घड़ियाल न जाने कितना बड़ा होगा? कैसा होगा ? किसी ने अब तक देखा नहीं है !

दूसरा : फिर भी तुम अपना उपाय तो बतला दो । 

चौथा : लो सुनो !

तीनों : बतला दो । 

चौथाः हमें अपने साथ कुछ ओर लोगों को ले जाना चाहिए । नदी के तट पर पानी के साथ ही एक बड़ा-सा गड्ढा खोदना होगा !

तीसरा : गड्ढा ?

चौथा : हाँ । 

तीसरा : कितना बड़ा ?

पहला : अरे बड़ा मतलब बड़ा । 

तीसरा : मगर कितना गहरा ?

चौथा : इतना कि उसमें एक हाथी समा सके । 

पहला : यह तो बहुत बड़ा है । 

चौथा : अरे बहुत बड़ा ही होना चाहिए । क्या पता वह कितना बड़ा हो ! 

दूसरा : उससे क्या लाभ ?

चौथा : जब घड़ियाल पानी में प्रकट होगा तो उसका ध्यान गड्ढे के पास खड़े किसी मानुष की ओर जाएगा । वह उस पर झपटने के लिए जैसे ही तट पर आएगा तो घास से भरे गड्ढे में गिर जाएगा । फिर हम में से कोई तुरंत उस घास में आग लगाएगा । घड़ियाल उस अग्निकुंड में भस्म हो जाएगा । 

पहला : और यदि वह मानुष ही उसमें गिरे तो ?

चौथा : नहीं, ऐसा नहीं होगा । 

दूसरा : बड़ा कठिन उपाय बताया है भाई । 

चौथा : बताओ, गड्ढा खोदें ?

पहला : सोचने दो भैया । 

दूसरा तथा तीसरा : हाँ हाँ सोचने दो । 

चौथा : हाँ, हाँ सोचते रहो । जब तक हम एकजुट होकर इस विपदा से निपट न लें, तब तक कुछ नहीं होगा । 

पहला : देखो भैया, हम एक परिवार के जैसे हैं । 

चौथा : इसलिए हमें संयुक्त रूप से संकट को टालने के लिए प्रयास करना होगा । बलभद्र जी को बताना होगा और पूरे गाँव को इकट्ठा करके गड्ढा खोदने का काम प्रारंभ करना होगा । यह संकट बहुत बड़ा है । केवल इन लाठियों से काम नहीं चलेगा । 

(एक ग्रामीण प्रवेश करता है । उसके मुख पर चिंता का भाव है । ) 

ग्रामीण : बलभद्र जी, यहाँ आए क्या ?

सभी : क्यों ? तुम चिंतित से क्यों लग रहे हो ?

ग्रामीण : वह जलचर हेमवती के बेटे को खींचकर ले गया पानी में । 

सभी : हे प्रभु!

चौथा : कब हुआ यह ?

ग्रामीण : अभी, थोड़ी देर पहले । अब भैया क्या करें हम सभी ग्रामवासी बलभद्र को ढूँढ रहे हैं । कुछ लोग तट पर खड़े हैं । बलभद्र वहाँ भी नहीं है । 

पहला : कलजुग है भैया कलजुग । हम सब मारे जाएँगे । 

चौथा : चलो, हम भी तट पर ही चलते हैं । 

ग्रामीण : आप लोग चलो, मैं बलभद्र को ढूँढता हूँ । 

(पहले, दूसरे, तीसरे तथा चौथे ग्रामीण पुरुष का प्रस्थान )

अब कहाँ ढूँढूँ बलभद्र को । सब जगह तो ढूँढ लिया । न जाने क्या होगा । सभी ग्रामवासी डरे-डरे हैं । कौन बचाएगा हमें । बलभद्र  भी क्या - क्या करेंगे !

(बलभद्र का प्रवेश । उसको आते देखकर ग्रामीण उसकी ओर दौड़ता हुआ आता है ।)

ग्रामीण : अरे कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा आपको । 

बलभद्र : मैं योगनाथ को देखने गया था । उसकी पूजा समाप्त होने ही वाली है । हमारी रक्षा के लिए वे साधना कर रहे हैं । परंतु तुम चिंतित से क्यों हो ? 

ग्रामीण : हेमवती के पुत्र सौरभ को वह जलचर खींचकर ले गया वितस्ता में । 

बलभद्र : त्राहि ! त्राहि !

(मंच पर अँधेरा )

(अग्र-मंच पर एक प्रकाश-वृत्त उभरता है । उसमें सौरभ छटपटाता नज़र आता है । जैसे उसे किसी ने जकड़ रखा हो! पार्श्व में नगाड़े की ध्वनि । मंच की बाईं ओर एक और प्रकाश- वृत्त उभरता है । उसमें एक विशालकाय पुरुष प्रकट होता है । देखने में तो मनुष्य जैसा है, परंतु उसके सिर पर पशुओं- जैसे दो सींग हैं । दाँत भी बड़े-बड़े हैं । मुँह बहुत बड़ा है । वह सौरभ को, अपने स्थान से, घूर घूर कर देख रहा है । )

रक्तग्रीव : हा! हा!! हा!!! मैं तुम्हारा भक्षण नहीं करूँगा । 

सौरभ : मुझे मुक्त करो । 

रक्तग्रीव: तुम्हें क्या लगता था कि तुम मेरा वध करोगे, फिर बचकर निकल जाओगे और कहते फिरोगे कि तुमने रक्तग्रीव का अंत किया है । मुझे कोई नहीं मार सकता । अग्नि मुझे जला नहीं सकती, वज्र मुझे काट नहीं सकता और जल में मुझे कोई मार नहीं सकता । 

सौरभ : मुझे मुक्त करो । 

रक्तग्रीवः कदापि नहीं । 

सौरभ : यह तुम कौन-सी गुफ़ा में ले आए हो मुझे ? छल से मूर्छित कर यहाँ लाए, बल का प्रयोग नहीं किया ?

रक्तग्रीव: आवश्यकता नहीं । यही है मेरी कंदरा । यहीं मैं नरमांस का आहार करता हूँ । तुम तो कहते थे, मेरी हत्या करोगे । इस वितस्ता प्रदेश को मुझसे मुक्त कराओगे । उठो, करो मेरा वध । कहाँ है तुम्हारा भाला ?

सौरभ : वह तो तुमने छल से छीन लिया । अब मैं निरस्त्र हूँ । तुमने मुझे निरस्त्र कर दिया । मैं तुम्हें शक्तिशाली मानता था, परंतु यह नहीं जानता था कि तुम कुटिल हो । तुमने मुझे चेताया होता तो अपना भाला मैं तुम्हें छीनने नहीं देता । 

रक्तग्रीवः तेरा भाला ! लौटा दूँ ?

सौरभ : हाँ, दे दो मेरा भाला और फिर करो मुझसे युद्ध । छल से नहीं बल से । तब मैं मर भी जाऊँ तो कोई बात नहीं । 

रक्तग्रीवः नहीं, नहीं, अभी तो मुझे नरमांस का आहार करना है । 

सौरभ : छी ! कैसे दानव हो तुम !

रक्तग्रीवः न दानव, न मानव, न जल से उत्पन्न हुआ जीव । 

सौरभ : तो फिर कौन हो तुम ?

रक्तग्रीव: अंधकूप में जन्मा शूलप्रेत । अंधकार में मेरा जन्म हुआ है । संसार के कल्याण को ही अपना कर्तव्य समझने वाले जहाँ तप करते थे वहाँ, नंदी क्षेत्र के पर्वतों के ऊपर, मेरे अदेव माता-पिता ने उन महात्माओं के तप में विघ्न डाला था । तब उन्होंने क्रोधित होकर मेरी माँ को शाप दिया था कि उसका पुत्र रक्तग्रीव पातालकेतु बने । मैं शापग्रस्त, तलातल में रहनेवाला देहधारी हूँ । यही तलातल मेरा निवास है और नरमांस मेरा आहार । यहाँ से निकलकर वितस्ता से जाते हुए मैं अपना आहार खोज लेता हूँ और लौट आता हूँ इस अतल में । 

सौरभ : मेरा भी अन्य लोगों की तरह क्यों नहीं वहीं अंत किया । क्यों ले आए हो मुझे इस अंधकारमय तल में ?

रक्तग्रीवः क्योंकि तुम साहसी हो । तुम पहले ऐसे व्यक्ति हो, जिसने मुझे चुनौती दी । यदि तुम्हारा भाला तुम्हारे पास रहता तो तुम मुझे हतचेत कर सकते थे । 

सौरभ : तो क्या तुम मुझे अपना आहार नहीं बनाओगे ?

रक्तग्रीवः क्यों नहीं । आहार नहीं करूँगा तो जीवित कैसे रहूँगा । पहले अपने यह विषाण तुम्हारे अंदर घुसाऊँगा । लाल-लाल रक्त फूट पड़ेगा । उस रक्त को चाटूँगा । स्वादिष्ट रक्त । फिर तुम्हारे युवा शरीर का मांस धीरे-धीरे खा जाऊँगा । 

सौरभ : तो खा लो मुझे, देख क्या रहे हो !

रक्तग्रीव: आज नहीं । पहले उस साधु का आहार करूँगा, जो अमरनाथ की यात्रा पर आया हुआ है । 

सौरभ : तुम एक साधु की हत्या करोगे ? 

रक्तग्रीव: हत्या नहीं, भोजन करूँगा । 

सौरभ : धिक्कार है । 

रक्तग्रीवः जैसे ही वह वितस्ता पर अपने पात्र में जल भरने आया, वैसे ही मैं उसे नीचे खींच लाया । वह पड़ा है वहाँ । अभी करूँगा उसका अंत । हो जाएगी उसकी यात्रा पूरी । 

सौरभ : कैसे पातालकेतु हो तुम?

रक्तग्रीव: पाषाण-हृदय ! हा! हा! हा! पड़े रहो यहीं और करो अपने पूर्वजों का स्मरण । अब तुम्हारा साहस और पुरुषार्थ नहीं कर सकता है तुम्हारी रक्षा । बनोगे आहार तुम भी मेरे । केवल बचेगा कंकाल तुम्हारा । खा जाऊँगा सारा मांस । न बचेगा कुछ भी शेष । केवल एक कंकाल । क्या हो तुम, केवल एक कंकाल । जिसमें जीवन है न प्राण । कंकाल हा ! हा! हा! ( जाता है) 

सौरभ : तो क्या मेरा अंत निश्चित है ? क्या मुझे कोई नहीं बचा सकता ? इस ऋषि भूमि पर क्या ऋषियों के तप का प्रभाव कम हो गया है ? क्या कश्यप की कथा झूठी है ? क्या यहाँ के युवक यूँ ही प्राण गँवाते रहेंगे ? क्या आस्थाएँ और विश्वास टूटते रहेंगे ? क्या अब ऐसा कोई नहीं, जो ऐसे दुष्ट का अंत कर सके ? जब मैं न रहूँगा तो क्या करेगी मेरी माँ ? क्या दशा होगी उसकी ? हे देव । यदि तुम हो तो मेरी प्रार्थना सुनो! मेरी माँ की प्रार्थना सुनो! 

(प्रकाश लुप्त, मंच पर पुन: प्रकाश । स्त्रियाँ गुनगुनाते हुए प्रवेश करती हैं । ) 

ग्रामीण स्त्रियाँ: सुन सुन, सुन सुन री सुन 

सुन सुन, सुन सुन री सुन 

मनका ढलका, मनका ढलका 

भरे घड़े का जल भी छलका

कौन करे उद्धार

कौन करे उद्धार

कौन करे उपकार

कोई न जाने सार

दहके हैं अंगार

कौन करे उद्धार री बहना

कौन करे उद्धार

सुन री बहना, सुन री माई

कौन करे उद्धार

सुन सुन, सुन री

सुनो सुनो री

हूँ हूँ, हूँ हूँ हूँ हूँ

(प्रस्थान )

(ऊपरी मंच पर, जहाँ नटराज रखा है वहाँ, एक प्रकाश-वृतत उभरता है । नटराज के ठीक नीचे ध्यान मुद्रा में, आँखें बंद किए हुए, योगीनाथ बैठा है । पार्श्व में संगीत बजता है । वह आँखें खोलता है और चारों तरफ़ देखता है ।) (बलभद्र का प्रवेश । उसके हाथ में एक जल- पात्र है ।)

बलभद्र : प्रणाम योगीनाथ ! जल ग्रहण करेंगे ! 

योगनाथ : नहीं बलभद्र, अभी कहाँ हुए हैं चिंतामुक्त । 

बलभद्र : कल भी देखने आया था आपको, परंतु आप ध्यान-मग्न थे ।

योगनाथ : हाँ भीतर था कुटिया में, आज उषा-वेला में बाहर आया । आज अच्छा दिन है । 

बलभद्र : हाँ, वह तो है किंतु ....

योगनाथ : किंतु...

बलभद्र : कुछ नहीं । आप साधक हैं, मैंने यूँ ही आपको परिभावना में डाल दिया । 

योगनाथ : साधक समाज से अलग कहाँ है !

बलभद्र : फिर भी । यह जल पात्र यहाँ रखता हूँ । आप निराहार हैं । जब मन करे, यह शुद्ध, निर्मल जल पी लीजिएगा । मैं वितस्ता के तट पर जा रहा हूँ । 

(दो ग्रामीण प्रवेश करते हैं । )

पहला : प्रणाम योगनाथ । 

दूसरा : प्रणाम योगनाथ जी !

योगनाथ : प्रणाम !

बलभद्र : कहो, क्या है समाचार ?

पहला : बलभद्र जी, अभी तक हेमवती के पुत्र का कोई अता-पता नहीं । 

दूसरा : हमने सोचा था कि वह उस दैत्य का अंत करके वापस आएगा । 

पहला : न वह आया, न उसका कोई समाचार । 

दूसरा : हेमवती बेसुध पड़ी है घर में । न खाती है कुछ न पीती है । 

पहला : जीते जी मरी हुई । 

दूसरा : योगनाथ जी, कोई समाधान बताइए । इन विपदाओं और बाधाओं से कैसे रहें हम सुरक्षित । 

(पार्श्व में मुनादी की आवाज़ )

बलभद्र : सुनो तो ज़रा !

पहला : वह इसी दिशा में आ रहा है । 

(मुनादीवाले का प्रवेश)

मुनादीवाला : सुनो! सुनो ! वह जल- दैत्य, जिसने पूरे क्षेत्र में उत्पात मचा रखा था, हमारे वीर सैनिकों द्वारा मारा गया । अब यह गाँव, यह क्षेत्र, यहाँ के लोग सब सुरक्षित हैं । हमारे प्रतापी राजा के सैनिकों ने आज उसका वध किया । सुनो! सुनो !

बलभद्र : (प्रसन्न होकर) अरे यह तो बहुत ही अच्छा समाचार है । 

पहला ग्रामीण : इससे अच्छा समाचार और क्या हो सकता है ? 

दूसरा ग्रामीण : बलभद्र भैया, लगता है हमारी सारी विपदाएँ टल गई हैं । 

योगनाथ : हमें सौरभ की चिंता करनी चाहिए । 

बलभद्र : हाँ योगनाथ, केवल वही एक युवक है इस गाँव का, जिसने उस दैत्य से युद्ध करने का साहस दिखाया । 

पहला ग्रामीण : वह अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेना चाहता था । 

दूसरा ग्रामीण: परंतु ऐसा पुरुषार्थ किसी में नहीं देखा । 

पहला : लगता है, वह आ रहा है । 

दूसरा : हाँ, कुछ ग्रामीण इसी ओर आ रहे हैं । 

बलभद्र : सच में वह आ रहा है ?

पहला : हाँ हाँ, वही है । वह देखिए । 

(सभी देखने लगते हैं । सौरभ लँगड़ाते - लँगड़ाते प्रवेश करता है । उसके पूरे शरीर पर घाव हैं । दो-तीन ग्रामीण उसे सँभाल - सँभालकर चला रहे हैं और चबूतरे के किनारे बिठाते हैं । )

पहला : अरे सौरभ, तुम जीवित हो !

दूसरा : काल के मुँह से निकल आए हो !

पहला : हमने तो तुम्हारी आस ही छोड़ दी थी । 

बलभद्र : अरे कोई हेमवती को तो बता दे कि उसका बेटा जीवित लौट आया है । 

(योगनाथ जल पात्र उठाता है और सौरभ को पीने के लिए जल देता है । )

योगनाथ : सौरभ, यह जल पी लो । 

(सौरभ सारा जल पी जाता है । सौरभ के साथ आए हुए ग्रामीणों में से एक निकलने लगता है । )

(प्रस्थान )

ग्रामीण : मैं हेमवती को यह शुभ समाचार देकर आता हूँ । 

पहला ग्रामीण : सौरभ ! तुम बच कैसे पाए ?

बलभद्र : फिर कभी पूछ लेना । यही क्या कम है कि यह जीवित है । 

सौरभ : बताता हूँ । 

(सभी ध्यान से सुनने लगते हैं ।)

वह मुझे अपना आहार बनाने के लिए अपनी कंदरा में ले गया था । बहुत नीचे एक तल में । उसने मुझे कई यातनाएँ दीं । लगा कि यम के मुँह में चला गया, जहाँ से निकलना असंभव है । 

पहला ग्रामीण : फिर संभव कैसे हुआ ?

सौरभ : जिस समय वह मुझे अपना आहार बनाने के लिए मेरी तरफ़ बढ़ा, उस समय उसके मुख का रंग काला हुआ । मैंने उसे ज़ोर का एक धक्का दिया । वह उठ खड़ा हुआ और अपना सींग मेरे पेट में गाड़ने के उद्देश्य से मेरी ओर बढ़ा । मैं एकदम से हटा । उसका सींग कंदरा की दीवार में जा लगा । उसे दर्द हुआ । मैंने उसे फिर एक धक्का दिया और लंबी, अँधेरी सुरंग से भागने लगा । वह मेरे पीछे-पीछे भाग रहा था । मैं हाँफ रहा था । जब मैं वितस्ता पार करने के लिए पानी में उतरा । वह भी तैरने लगा । वितस्ता के उस तट से मैंने अपना गाँव देखा । तट पर गाँव के लोग खड़े थे । वह मुझे खींचकर नीचे ले गया और अपनी कंदरा की दिशा में तैरने लगा । न जाने कहाँ से मेरे शरीर में अद्भुत स्फूर्ति आ गई । मैंने अपने पैर से उसके पेट पर वार किया । उसे दर्द हुआ । उसने मुझे छोड़ दिया । मैं फिर से अपने गाँव की ओर तैरने लगा । मैं तैरता रहा, वह खींचता रहा और अपने सींग मेरी भुजाओं, पैर, जाँघों में चुभाता रहा । किसी तरह मैं उसे तट तक ले आया । ज्यों ही मैं ऊपर आया, वह भी मेरे पेट में अपने सींग गाड़ने के लिए ऊपर आया, परंतु पानी से बाहर आते ही वह शक्तिहीन हो गया । मेरा अस्त्र उसने पहले ही छीन रखा था । तट पर खड़े सैनिकों को मैंने प्रहार करने के लिए संकेत किया । सभी सैनिकों ने उस पर प्रहार किया, किंतु वह जीवित ही था । वह बार-बार पानी की ओर जाने का प्रयास करता था । तब मैंने वहाँ खड़े लोगों को लाठियाँ बरसाने के लिए कहा । तब मुझे याद आया कि वह जल, अग्नि या अस्त्र से मर नहीं सकता । मैंने सैनिकों को कहा कि वह बड़ा-सा पत्थर उठाकर उसके वक्ष पर वार करें । सभी ने पत्थर फेंकने शुरू किए । एक बड़ा पत्थर उसके मस्तिष्क पर लगा । सिर फूट गया और उसका अंत हुआ । 

ग्रामीण : धन्य हो भैया, धन्य !

दूसरा ग्रामीण : कितना संघर्ष किया तुमने हमारे लिए !

बलभद्र : मैं युवा शक्ति को प्रणाम करता हूँ । सौरभ तुम्हारा साहस और पुरुषार्थ विलक्षण है । गर्व है हमें तुम
पर । 

योगनाथ : ऐसे ही पुरुष हमारा भविष्य सुरक्षित बना सकते हैं । मैं भीतर से इसके लिए लेप लाता हूँ । 

(जाते हैं)

(स्त्रियों के साथ हेमवती का प्रवेश)

हेमवती : मेरे लाल! (भागती हुई बेटे के पास जाती है) कितने घाव लगे हैं रे तुझे ! 

सौरभ : यह घाव भर जाएँगे माँ । तुम्हारा आशीष, योगनाथ की प्रार्थना और इस गाँव का स्नेह मेरा संकल्प दृढ़ करता रहा । मुझे शक्ति प्रदान करता रहा । 

योगनाथ : देवियो ! एक तरफ़ हो जाइए, मुझे इसके घावों पर लेप लगाने दीजिए । 

हेमवती : मुझे दीजिए!

(योगनाथ लेप का पात्र हेमवती को देता है । )

योगनाथ : यह लीजिए । 

बलभद्र : संध्या होने को आई है । देखो, दिवस का रात्रि से हो रहा है मिलन । 

एक स्त्री : जैसे माँ और बेटे । ।

बलभद्र : जैसे यौवन और बुढ़ापे का, जैसे शक्ति और विश्वास का, जैसे पुरुषार्थ और अनुभव का, जैसे शरीर और आत्मा का, जैसे दुःख और सुख का । 

दूसरी स्त्री : चलो, इस सुख की वेला सभी अपने-अपने घरों को चलें । 

योगनाथ : चलो बेटा सौरभ, उठो । जाकर विश्राम करो । 

स्त्रियाँ : उठो हेमवती । घर पर लेप लगा लेना । 

हेमवती : हाँ ! हाँ!

(सभी निकलने लगते हैं । दो ग्रामीण सौरभ को सहारा देते हैं । स्त्रियाँ हेमवती के पीछे-पीछे गुनगुनाती हुई चलती हैं । )

बधाई हो बधाई

ओ मेरी माई, 

सुन मेरी माई

है शुभ घड़ी आई । 

बधाई रे बधाई

बहना बधाई । 

सुन मेरी माई

है तुमको बधाई । 

बधाई रे बधाई, बधाई रे बधाई...

हूँ हूँ! हूँ हूँ! हूँ हूँ हूँ...

(प्रस्थान)

(मंच पर केवल योगनाथ और बलभद्र रहते हैं)

बलभद्र : योगीनाथ! आपका न परिवार है न घर । केवल यह स्थल है, जहाँ आप अपने आराध्य की पूजा करते हैं । न आपको किसी लाभ, न किसी हानि की चिंता है । न आपको सांसारिक नियम विचलित करते हैं, फिर भी आपने हमारे लिए निराहार प्रार्थना की । 

योगनाथ : साधक का कर्म ही यही है, निःस्वार्थ सेवा । हर युग में किसी-न-किसी रूप में कोई-न-कोई दैत्य आता रहेगा । हमें उनसे युद्ध करते रहना होगा । 

बलभद्र : हाँ, योगनाथ । 

योगनाथ : अब तो अपनी स्तुति पूरी कर सकता हूँ ना ?

बलभद्र : (मुस्कुराते हुए) हाँ! हाँ! अवश्य । चलता हूँ । प्रणाम !

(प्रस्थान)

(प्रकाश केवल ऊपरी मंच पर । नटराज की प्रतिमा पर फिर से एक प्रकाश वृत्त उभरता है । पार्श्व से स्तोत्रम् गूँजने लगता है । योगनाथ फिर से नृत्य करता है । )

जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले

गलेवलंब्य लम्बितां भुजुंगतुंग मालिकम् । 

डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डर्मण्यं

चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥

(योगनाथ नृत्य करते-करते ढलान से उतरकर भीतर जाता है । मंच से प्रकाश लुप्त हो जाता है । )

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कहानी

सुश्री प्रगति गुप्ता,  उदयपुर, मो. 94602 48348 


गुम़ होते क्रेडिट-कार्ड्स 

रात तीन बजे एकाएक ही वैदेही सोते-सोते विवाह के बाद गुज़रे उन पंद्रह सालों में पहुँच गई जहाँ उसे मरीज़ों के बीच घिरा रहना सकून देता था । ऑपरेशन थिएटर, सर्जिकल इन्स्ट्रूमेंट्स, ख़ुद के मरीज़ और स्टाफ़…सभी उसका आत्मविश्वास बढ़ाते थे । घर और अस्पताल का काम सँभालते हुए कब दिन निकल जाता, वैदेही को पता ही नहीं चलता था । कुछ ऐसे ही स्वप्नों के साथ उसकी नींद सालोंसाल से उचट रही थी । समय के साथ ठहरे हुए स्वप्न अक्सर जागरण करवा ही देते हैं । 

फिर अचानक वैदेही को महसूस हुआ... जैसे श्रीकांत ने उसको आवाज़ देकर पूछा हो-"वैदेही! सो गई हो क्या?”

"हम्म... मुझे बहुत नींद आ रही है श्रीकांत । आज दिन काफ़ी हेक्टिक था । तीन डिलीवरी केस थे । आउटडोर में भी काफ़ी मरीज़ थे । बहुत थक गई हूँ । कुछ बहुत जरूरी न हो तो... कल सवेरे बात करते हैं ।"

“अभी सिर्फ़ साढ़े दस ही बजे हैं । तुम सो भी गई । हम दोनों अपना सारा वक़्त मरीजों के साथ गुज़ारते हैं । बात करने का वक़्त ही नहीं निकलता । तुम अपने मरीज़ों की सर्जरी सवेरे-सवेरे रख लेती हो । फिर तुम्हारा आउट्डोर । घर कब आती और जाती हो पता ही नहीं चलता ।"

श्रीकांत की बात सुनकर वैदेही कुछ बोलना चाहती थी, मगर बुदबुदा कर रह गई-‘जब कभी लंच या डिनर सभी के साथ लेने के लिए पहुँचती हूँ । ....तब भी तो सभी को खिलाने-पिलाने में लगी रहती हूँ । किसी के दिलो-दिमाग़ में नहीं आता कि मुझे भी बैठकर तसल्ली से खाना खाने को कोई कहे । लंच पर डिनर और डिनर पर ब्रेक-फ़ास्ट में क्या खाना है....सब उन फ़रमाइशों की चर्चा ज़रूर कर लेते । ’

वैदेही को बहस करने की आदत नहीं थी । उसको लगता था बहसों से घर की शांति भंग हो जाती है । अक्सर अपनी बात ख़ुद से ही बोलकर शांत होना, उसका मूल स्वभाव था । 

उस रात भी सबको खाना खिलाकर वह बच्चों के साथ उनके बेड-रूम में ही लेट गई थी । यह उसकी दिनचर्या थी, ताकि बच्चों के साथ वक़्त गुज़ार सके । बच्चे समझदार हो चुके थे । अपना होम-वर्क ख़ुद कर लिया करते थे । बस उन्हें बीच-बीच में माँ की ज़रूरत होती थी । 

वैदेही अस्पताल से भी बच्चों को फ़ोन लगाकर निर्देशित किया करती थी । 

बहुत थकी हुई होने के कारण वैदेही जैसे ही अपने बिस्तर पर आकर लेटी, उसे नींद आ गई । उसका डिनर अक्सर ही छूट जाता था । हमेशा की तरह श्रीकांत डिनर लेकर टी.वी. पर समाचार देखने बैठ गए थे, और माँ पापा के कामों में लग गईं । वैदेही ने डिनर लिया या नहीं यह सिर्फ़ वैदेही को पता होता था । 

छोटे-मोटे वैचारिक मतभेदों को वैदेही बहुत तवज़्ज़ो नहीं देती थी । उसे श्रीकांत पर बहुत प्यार आता था । श्रीकांत जब भी वैदेही को सोते से जगाता, उसे लगता श्रीकांत को उस पर प्यार उमड़ा है । अक्सर बहुत थके होने पर वैदेही में स्त्री-सुलभ अपेक्षाएं स्वतः ही जन्म ले लेती । वह सोचती-‘कोई उसके माथे पर हाथ रख दे या बालों में उंगलियों की पोरों से सहला दे । ’ पर सच में ऐसा होना मन के सोचे से नहीं, बल्कि निमित्त के अधीन होता है । 

दोनों के पास सीमित समय था । जिसमें घर की ज़िम्मेदारियों से जुड़ी बातें हावी होती रही थीं । कैसे ज़िम्मेदारियाँ अंतरंग रिश्तों में घुसपैठ करके उन्हें आम ज़रूरत-सा बना देती हैं, वैदेही को अक्सर ही महसूस होता था । अपनी सोच पर विराम लगाते हुए वैदेही ने श्रीकांत से कहा-"तुम भी तो सारा दिन बिज़ी ही रहते हो श्रीकांत । ... अच्छा बताओ क्या बात करनी थी तुम्हें?... मैं सुन रही हूँ ।"

श्रीकांत के बात शुरू करते ही वैदेही सजग हो गई । 

"वैदेही! मुझे माँ-पापा के बारे में बात करनी है । दोनों की ही तबीयत अब काफ़ी ख़राब रहने लगी है । पापा के लकवाग्रस्त होने के बाद माँ का काम काफ़ी बढ़ गया है । दोनों का बी.पी. और ब्लड शुगर काफ़ी घटता-बढ़ता रहता है । जिसको बराबर मॉनिटर करना ज़रूरी है । मुझे पापा के लिए रखे हुए स्टाफ़ पर कम विश्वास है कि वह सब काम सुचारु रूप से करता होगा । ... हमारे बेटे भी अब बड़े हो रहे हैं । वह दोनों भी अपने भविष्य के प्रति सजग और केंद्रित रहें, यही चाहता हूँ । अब उन्हें भी व्यक्तिगत तौर पर देखना बहुत ज़रूरी हो गया है । ... तुम तो जानती ही हो वैदेही, ख़ुद के मरे स्वर्ग नहीं मिलता ।"

वैदेही की मुँदी हुई आँखे देखकर श्रीकांत ने उसे हल्का-सा हिलाकर पूछा- “सुन रही हो न वैदेही मुझे.....।"

"हम्म सुन रही हूँ श्रीकांत । मुझे लगा तुम्हें हम दोनों से जुड़ी हुई कोई बात करनी थी । एक बार को तो मुझे लगा कि शायद तुमको प्यार आ रहा है । तभी तुम....मुझे सोते से जगा रहे हो । ... श्रीकांत! एक अरसा हो गया न हमें भी कुछ... हर रात जब थककर चूर होकर लेटती हूँ तो लगता है थोड़ी देर के लिए बस तुम मेरे सिर पर हाथ ही फेर दो, और मैं एक गहरी नींद लूँ । पर तुम्हारे दिल में कभी ऐसा ख्याल आया हो....मुझे महसूस ही नहीं हुआ ।"

"क्या वैदेही तुम भी... मैं इस वक़्त बहुत परेशान हूँ । हमारे घर के लिए चिंतित हूं । तुम्हें तो बस यही सूझता है... छोड़ो अगर तुम्हें सोना है... तो सो सकती हो । घर के बारे में सोचने की ज़िम्मेदारी, अगर अकेले मेरी है तो मैं ही सोच लूँगा । तुम मेरी बातों को नज़रअंदाज करके अपने काम को तवज़्ज़ो देना चाहती हो...तो देती रहो । क्या होगा इतने सारे रुपए कमाकर, जब घरवाले ही उपेक्षित हो जाए ।"

श्रीकांत अपने शब्दों के बाण चलाकर शांत हो चुका था । अब उसे वैदेही की प्रतिक्रिया का इंतज़ार था । 

“तुम अपनी बात बोलकर हमेशा ही निष्कर्ष पर क्यों पहुँच जाते हो श्रीकांत । जबकि मुझे पूरी बात पता ही नहीं । बात पता चलने के बाद मुझे भी अपना पक्ष सोचने व रखने दो । आम घरेलू महिला के जैसे मेरे साथ, उनके पतियों जैसा व्यवहार मत करो । घर और बच्चे मेरी भी प्राथमिकता हैं । तभी हर बात को व्यक्तिगत स्पर्श देने की कोशिश भी करती हूँ । क्या कहना चाहते हो वो साझा करो? आज घर में तुम्हारी किससे और क्या बात हुई है?.. सभी कुछ मुझे विस्तार से बताओ । हो सकता है व्यस्तता के रहते कुछ ऐसा हो... जो मैं देख नहीं पा रही हूँ ।"

थोड़ी देर तक जब श्रीकांत की ओर से कोई बातचीत शुरू नहीं हुई तो वैदेही ने वापस पूछा-“कुछ हुआ है क्या श्रीकांत?”

श्रीकांत के उल्टी तरीक़े से बात करने की वज़ह से वैदेही की नींद अब कोसों दूर भाग चुकी थी । कहने को दोनों का विवाह प्रेम-विवाह था । पर जब भी श्रीकांत को वैदेही से अपनी कोई बात मनवानी होती टेड़ा ही टेड़ा बोलता और चलता । उसकी यही बात वैदेही को बहुत आहत करती । पर उसकी शांत होने की प्रवृति उसको और अधिक मरीज़ों के साथ झोंक देती । जब भी ऐसा कुछ होता तो वह अपना अधिकतम समय अस्पताल में रहकर गुज़ारना
चाहती । 

लगातार सर्जरी करने के बाद जब भी अस्पताल का स्टाफ़ उसे थका हुआ देखता तो कोई न कोई उसके लिए चाय या कॉफी बनाकर ले आता । ऐसे में वैदेही को महसूस होता कम-से-कम उसकी ज़िंदगी में कुछ लोग तो ऐसे हैं... जिन्हें उसके थकने का पता चलता है । इसके अलावा पैदा होने वाले नवजात शिशुओं की किलकारियाँ उसके चेहरे की मुस्कुराहट को दुगना कर देती थी । 

वैदेही को ख़ामोश देखकर श्रीकांत ने बताना शुरू किया-‘आज लंच के समय माँ बोल रही थी कि ‘पापा के लकवाग्रस्त होने के कारण उनके पास बहुत काम रहते हैं । इसलिए अब उनसे घर व बच्चों की ज़िम्मेदारी नहीं संभाली जाती । ’... उन्होंने तुम्हें भी शायद हिंट दिया था । उनको तुम्हारा घर में और नौकर बढ़ाने का सुझाव पसंद नहीं 

आया । माँ का कहना है कि ‘नौकरों की मनमानियाँ भी उनसे नहीं देखी जाती... नौकरों को निर्देश देने और उन पर आँख रखने के लिए घर का ही कोई इंसान होना चाहिए । ’

वैदेही ने श्रीकांत के चुप होते ही कहा- “अस्पताल से फ़ोन कर-करके सब कुछ सँभालने की कोशिश करती तो हूँ । नौकरों पर आँख रखने का क्या मायने है? तुम्हारी और माँ की मेरे से क्या अपेक्षा है श्रीकांत?"

“कुछ तो सोचना ही पड़ेगा वैदेही । आख़िरकार इक़लौता बेटा हूं उनका ।"... अपनी बात बोलकर श्रीकांत शांत हो गए । 

“तुम मुझसे क्या चाहते हो? मरीज़ों की डिलीवरी के हिसाब से मुझे अपना टाइम सेट करना पड़ता है । हमारे बेटे भी अब बड़े हो रहे हैं । उनकी आगे की पढ़ाई व खर्चों को भी तो देखना होगा । कहीं बाहर पढ़ने भेजना है तो रुपया चाहिए ही न ।"

“रुपया तो मैं भी अब काफ़ी कमा लेता हूं । आज की परिस्थितियों को देखकर हम दोनों में से किसी एक को कोई न कोई निर्णय लेना ही होगा ।"

“कैसा निर्णय?"

“यही...हम दोनों में से एक...घर को ज़्यादा समय दे और ज़िम्मेदारी सँभाले ।"

“तुम सँभाल पाओगे घर की ज़िम्मेदारियाँ? न तो तुमने कभी घर का काम किया है... न ही तुम्हें कोई इंटरेस्ट है । अगर हम दोनों सामने खड़े हो... तो माँ और पापा को भी अपने सभी काम मेरे से ही करवाने होते हैं । उनको हमेशा से ही अपना बेटा बहू से ज़्यादा थका हुआ दिखाई देता है । बच्चों के स्कूल जाने से लेकर उनकी पढ़ाई अब तक मैंने ही सँभाली 

है ।"... वैदेही की नींद अब पूरी तरह गायब हो चुकी थी । 

वैदेही की बातों का जवाब दिए बग़ैर श्रीकांत ने अपनी ही बात ज़ारी रखी-“यह तुम्हें सोचना है वैदेही । मैं सोलह से अठारह घंटे काम कर सकता हूँ... तुम नहीं कर सकती । अब निर्णय तुम्हें ही लेने है । तुम कहोगी तो मैं अपनी नौकरी छोड़ देता हूँ । अगर तुम्हें लगता है माँ-पापा मेरे हैं...तो मुझे ही सोचना चाहिए तो सोच लूँगा । या फिर सोच कर देखो....कुछ सालों की ही तो बात है । तुम अपनी प्रैक्टिस बाद में भी शुरू कर सकती हो । अपनी बात बोलकर श्रीकांत करवट लेकर लेट गए । 

उस रोज़ ख़ुद को घर की चारदीवारी में कैद करने का ख़्याल आते ही वैदेही सिहर गई थी । वह मेडिकल की जिस ब्रांच से जुड़ी थी... मरीज़ प्रेग्नन्सी के पहले दिन से डिलीवरी तक एक ही डॉक्टर को दिखाना चाहता था । बौख़लाहट में वैदेही अपने बिस्तर पर उठकर बैठ गई और श्रीकांत से बोली-“श्रीकांत! तुम सो गए हो क्या... नींद से उठाकर मेरे से बात शुरू की है... तो बात तरीक़े से पूरी भी करो प्लीज़ । माँ-पापा तुम्हारे या मेरे क्या होता है । माँ-पापा बस माँ-पापा ही होते हैं ।"वैदेही को श्रीकांत की यह बात आहत कर सकती है... उसने नहीं सोचा । तभी पुनः बोला-  “वैदेही! बात पूरी हो चुकी है । तुम जो भी निर्णय लोगी मुझे सवेरे बता देना । मैं वैसा ही कर लूँगा ।"

थोड़ी ही देर में श्रीकांत के ख़र्राटों की आवाज़ कमरे में गूँजने लगी । वैदेही के दिलो-दिमाग़ पर इस समय ख़र्राटों की आवाज़ हथौड़े के जैसे लग रही थी । श्रीकांत के बात करने का अंदाज़ कुछ ऐसा ही होता था, जब वह अपनी मनमानी करवाना चाहता था । 

इतने साल साथ गुज़ारने के बाद वैदेही अक्सर सोच में पड़ जाती...अगर दोनों का प्रेम विवाह हुआ था, तो उनके बीच से प्रेम ऐसे मौकों पर गुम कहाँ हो जाता था । 

अक्सर नींद में वैदेही को मेडिकल कॉलेज वाला समय भी चलचित्र जैसा चलता हुआ दिखता था । जब उनका प्रेम परवान चढ़ा । दोनों प्रेम में सराबोर थे । पर अपने कैरियर और प्रैक्टिस को जमाने के भी असंख्य स्वप्न देखते थे । बग़ैर किसी अड़चन दोनों का विवाह भी हो गया था । शुरू के सालों में जो गायनेकोलॉजिस्ट पत्नी और बहू गर्व का एहसास करवाती थी । समय के साथ ज्यों-ज्यों वह व्यस्त होती गई, घर के लोगों की अपेक्षाएं उसके समर्पण की घर पर भी ज़्यादा माँग करने लगी । 

दोनों एक ही अस्पताल में काम करते थे । श्रीकांत भी जनरल सर्जन था । शुरू के सालों में श्रीकांत के पास मरीज़ नहीं होते थे, क्योंकि किसी भी नए सर्जन के मरीज़ बनने में समय लगता है । जबकि स्त्री-रोग विशेषज्ञ के मरीज़ जल्दी बन जाते हैं । ऐसा ही वैदेही के केस में भी हुआ । वैदेही का शांत व सौम्य व्यवहार मरीज़ों को बहुत राहत देता था । 

जिस प्राइवेट अस्पताल में दोनों काम करते थे, उसके मालिक डॉ. कामथ नामी हृदय-रोग विशेषज्ञ थे । वह हमेशा ही वैदेही को बोलते थे- “वैदेही यू आर परफ़ेक्ट फ़ॉर योर प्रॉफेशन...योर डेडिकेशन इस रिमार्केएबल ।"वैदेही उनकी बात पर मुस्कुरा देती और अपना बेस्ट देने की कोशिश करती । 

शुरू में वैदेही घर और बच्चों को अधिक समय देना चाहती थी । पर श्रीकांत के बहुत मरीज़ न होने से अप्रत्यक्ष रूप से वैदेही पर ज़्यादा घंटे काम करने का दबाव डाला गया था । तभी घर सुचारु रूप से चल सकता था । जब वैदेही का काम बढ़ने लगा... सास-ससुर से अनचाही बातें भी सुनने को मिली । जबकि उस समय वह दोनों स्वस्थ थे । 

‘हम दोनों तो घर की चौकीदारी कर रहे हैं....तुम दोनों तो होटल के जैसे घर में आते-जाते हो । सारा दिन हमारी आँखें दरवाज़े पर लगी रहती हैं । कब तुम दोनों आओ और घर सँभालो । ’

वैदेही को यह सब बातें, मिलकर समाधान न खोजने की वज़ह से आहत करती थीं । 

समय अप्रत्याशित होता है । जब पापा को अचानक ही लकवा हो गया तो परिस्थितियाँ और भी बदल गई । साथ में माँ की उलहाना बदल गई । 

“तुम लोगों ने पापा के लिए जो स्टाफ रखा है । वह पापा की अस्पष्ट भाषा नहीं समझ पाता तो मुझे ही उसको समझाना पड़ता है । तुम दोनों के आने-जाने का कोई समय तो है नहीं । तो बच्चों के स्कूल से आने के बाद मुझे उनको भी देखना पड़ता है । तुम लोग कम से कम खाने के निर्देश तो अस्पताल से ही दे दिया करो, ताकि मुझे रसोई की चिंता नहीं करनी पड़े । अब मेरे से इस उम्र में इतना कुछ नहीं सँभाला जाता ।"

अधिकांशतः वह खाने में क्या बनना है, निर्देश देकर जाती, मगर कभी एमर्जेंसी आने पर बताना छूट भी जाता था । बढ़ती उम्र के साथ सभी को दिक्कतें आती हैं, वैदेही बहुत अच्छे से समझती थी । तभी समस्याओं के समाधान खोजने की भी कोशिश करती थी । ऐसे में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से मिलने वाली उलाहनाएं उसको पीड़ा देती थीं । पर वैदेही उन कही बातों को मुस्कुरा कर भूलने की कोशिश करती । 

कहीं-न-कहीं यह भी सच था कि ज़रूरत से ज़्यादा सुविधाएं इंसान को आराम तलब बना ही देती है । 

श्रीकांत ने किसी भी बात पर प्रतिक्रिया न देने का मानस बना रखा था । शायद यह उस समय की ज़रूरत भी थी । अपनी-अपनी प्रैक्टिस को जमाने के लिए बाक़ी बातों से दोनों को ही ध्यान हटाना था । 

वैदेही ने भी अपने मुँह पर संस्कारों का पट्टा बाँध कर रखा था । न सिर्फ़ घर और श्रीकांत को उसके काम की ज़रूरत थी, बल्कि काम करना उसका पैशन भी था । कुछ इस तरह विवाह के बाद पंद्रह साल निकल गए थे । वैदेही का शहर की अच्छी स्त्री-रोग विशेषज्ञों में नाम था । 

वैदेही को विवाह के पंद्रह साल बाद श्रीकांत का इस तरह बात करना, बहुत स्वार्थी-सा महसूस हुआ था । पहले उसे बारह-बारह घंटे काम करने दिया । जब घर में ज़रूरत हुई तो मिलकर विकल्प सोचने की बजाय उसकी भावनाओं को आहत किया । जब बातों में थोपने जैसा व्यवहार दिखाई दे, तब इंसान पीड़ा महसूस करता है । 

उम्र के इस पड़ाव पर वैदेही कोई कड़ा निर्णय नहीं ले सकती थी, जिससे घर की शांति भंग हो, और जब बच्चे अपने-अपने कैरियर बनाने की तैयारियों में लगे हो । उस रोज़ वैदेही को समझ नहीं आ रहा था कि वह कहाँ खड़ी है? और उसके साथ कौन-कौन खड़ा है । एक बार को तो उसका सभी रिश्तों से मन उचट गया था । 

जिस विवाह की नींव पर सारे रिश्ते खड़े थे, वहाँ शांति की क़ीमत क्या हो सकती थी....यह वैदेही से बेहतर कोई नहीं समझ सकता था । खूँटे पर बंधी गाय के जैसे उसके हालात थे । ऐसे में कड़े से कड़ा निर्णय एक औरत कितनी जल्दी ले लेती है, वैदेही को ख़ुद पर भी आश्चर्य हुआ । 

उसके इतने बड़े फैसले को भी फॉर ग्रांटिड ही ले लिया गया । स्वप्न वैदेही के थे तो उनका मूल्य सिर्फ़ उसके लिए था । तभी तो उनका दर्द वैदेही को सालों साल गुज़रने के बाद पीड़ा-सा सालता रहा । जब भी उसको एकांत काटने दौड़ता है... पीड़ाएं भी साथ-साथ हावी हो जातीं । 

वैदेही की नींद अब पूरी तरह खु़ल चुकी थी । ख़ाली बिस्तर पर असंख्य दर्द और पीड़ाएं बिखरी पड़ी थीं । ख़ुद को शांत करने के लिए उसे बहुत जतन करने पड़े... नहीं तो वह अवसादित हो जाती, या किसी के लिए भी मन से नहीं कर पाती । 

रात तीन बजे वैदेही की नींद छूटे हुए स्वप्नों की वज़ह से उचट गई थी । पुरानी बातें सोचते-सोचते अब सवेरे के पाँच बज चुके थे । वैदेही उठकर अपने लिए कॉफी बना लाई थी । आज वैदेही बेड साइड पर बैठकर उन सभी घटनाओं को एक ही बार में दोहरा लेना चाहती थी... जो किश्तों में बार-बार आकर उसकी नींद को उचाट देते थे । 

वैदेही ने उस दिन अपनी मर्जी के खिलाफ़ अपना इस्तीफ़ा डॉ.कामथ को भिजवा दिया था । जब डॉ.कामथ ने वैदेही को फ़ोन करके पूछा तो उसके पास कहने को सिर्फ़ एक ही बात थी- ‘डॉ. कामथ! हाल-फिलहाल घर को मेरी बहुत ज़रूरत है । सब सेटल होते ही आपके अस्पताल को फिर से जॉइन करूँगी । ’

उसकी बातों को सुनकर डॉ.कामथ ने कहा था- ‘वैदेही! याद रखना गुज़रा हुआ समय फिर से नहीं आता । समस्याओं के समाधान खोज सको तो खोज लो.. और जल्द ही अस्पताल वापस जॉइन करने की कोशिश करना । यू आर ऑलवेज वेलकम...’

‘जी ज़रूर... थैंक्स... आई विल डेफ़िनेटली लेट यू नो...’

उस रोज़ पंद्रह साल की मेहनत पर घर की ज़िम्मेदारियाँ भारी पड़ गई थीं । हर महीने दो से तीन लाख रुपए का चैक उठाने वाली वैदेही का अकाउंट बच्चों की पढ़ाई व विभिन्न कामों में खर्च हो गया । 

एक रोज़ अपनी अलमारी सँभालते हुए जब उसका हाथ अपनी ज़ीरो बैलन्स वाली पास-बुक पर पड़ा तो... शब्द गुम हो गए बस आँखों में एक नमी तैर गई । अपने कैरियर से जुड़ा पहला क्रेडिट कार्ड उसने ख़ुद ही श्रीकांत को सौंप दिया था । ख़ुद कमाने का एक एहसास जो वैदेही को आत्मविश्वास देता था, वो उसके क्रेडिट कार्ड के साथ श्रीकांत के पास चला गया था । 

बाद में श्रीकांत ने जो भी कमाया उससे जॉइन्ट नेम में घर और बाक़ी निवेश भी किए । आज उसी घर के एक कमरे में वैदेही अकेली बैठी थी । काम करना उसका पैशन था । तभी स्वप्न उसका पीछा नहीं छोड़ते थे । उसकी पढ़ाई, उसके मरीज़, उसका नाम, उसकी मेहनत सब बार-बार आकर उसको जगा देते थे । 

जिस रोज़ वैदेही ने अपना निर्णय घर के सभी लोगों को सुनाया । श्रीकांत ने सभी के सामने ख़ुश होकर कहा- “मैं तुम जैसी पत्नी पाकर बहुत ख़ुश हूँ वैदेही । मुझे तुमसे यही उम्मीद थी । पत्नी हो तो तुम जैसी । जैसे ही बच्चे थोड़ा सेटल हों और माँ-पापा की तबीयत सुधरे तुम वापस जॉइन कर लेना । मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ ।"

श्रीकांत की बात सुनकर वैदेही मुस्कुरा दी थी । वह श्रीकांत से कहना चाहती थी-  ‘श्रीकांत! साथ होने के मतलब तुम आजीवन नहीं समझ पाओगे । पंद्रह साल की जमी-जमाई प्रैक्टिस को छोड़ना कितनी पीड़ा देता है, इसका एक प्रतिशत भी तुमने महसूस किया होता तो तुम हर जगह मेरे साथ खड़े हो जाते । ’ 

दरअसल पापा तो हक़ीक़त में बीमार थे, पर माँ ज़िद में वैदेही की माँ बनकर नहीं सोच पाई । 

घर की शांति को बरक़रार रखने के लिए उसने सालोसाल एक झूठ को अपनी मुस्कुराहट में छिपा कर रखा कि वह अपना करिअर छोड़कर ख़ुश है । 

कैसे ख़ुश हो सकती थी वह? जैसे आज उसके बच्चों के स्वप्न उसके लिए बहुमूल्य थे । ....ऐसे ही उसके भी स्वप्नों में उसकी माँ-बाबा का किया हुआ त्याग शामिल था । उसका मेडिकल का इम्तहान होता या कोई और भी इम्तहान, माँ सारा-सारा दिन मंत्रों के जाप करती । वह आज जो भी थी... अपने माँ-बाबा की वज़ह से थी । 

निर्मूल कारणों से पौराणिक वैदेही को ज़मीन में समाना पड़ा था । और इस वैदेही ने ख़ुद अपना कैरियर उन लोगों के लिए ज़मीन में दफ़ना दिया था... जिन्होंने उसको डॉक्टर से नर्सिंग स्टाफ़ बना दिया । 

‘वैदेही! पापा का बी.पी. ले लो... पापा की ब्लड शुगर कर दो... इंसुलिन लगा दो । वैदेही! पापा की मेडिसन का वक़्त हो गया है । जब तुम उनकी दवाइयाँ हाथ पर रखोगी, वह तभी खाएंगे । ’ 

पापा की नर्सिंग केयर व बाक़ी काम संभालने में कब वक़्त उड़न छू हो जाता, वैदेही को पता ही नहीं चलता । 

हालांकि पापा के लिए एक फुल-टाइम नर्सिंग स्टाफ़ रखा हुआ था । पर जब वह अस्पताल जाती थी...तब भी पापा को वैदेही के लौटने पर उसी से अपने काम करवाने होते थे । अब सारा दिन वह घर पर दिखती थी तो सभी की निर्भरता उस पर बढ़ गई थी । 

घर पर रहने के बाद वैदेही को बेफ़जूल की उलहानाओं से तो मुक्ति मिल गई । पर उसका पैशन एक प्रश्नचिन्ह बनकर लटक गया था । 

जिस रोज़ वैदेही ने अपना इस्तीफ़ा लिखकर एक महीने का नोटिस देकर अस्पताल भेजा...घर में सभी के चेहरे पर मुस्कुराहट की लहर दौड़ गई । पर किसी ने उसके मन की थाह लेने की कोशिश नहीं की । 

पापा के लिए रखा हुआ स्टाफ़ पंद्रह दिन की छुट्टी माँग कर अपने गाँव क्या गया तो वापस ही नहीं लौटा । उसके बाद जो भी स्टाफ़ मिले पार्ट-टाइम ही मिले । वैदेही के घर पर होने से फुल-टाइम स्टाफ़ को ढूँढने की कोशिश भी नहीं की गई । 

समय के साथ ज़िम्मेदारियों का एक ऐसा चक्र शुरू हुआ....जिससे वैदेही अगले दस-बारह सालों तक नहीं निकल सकी । पापा के जाने के बाद मम्मी का मानसिक संतुलन बिगड़ गया । वैदेही को हमेशा उनका संबल बनकर खड़ा रहना 

पड़ा । लगभग दो साल तक माँ के ऐसे ही हालात रहे । फिर माँ भी चल बसी । इस बीच बच्चे भी अपना-अपना भविष्य बनाने विदेशों को निकल गए । वैदेही भी अब सत्तावन साल की हो चुकी थी । 

वैदेही की अपनी भावनाओं का क्रेडिट कार्ड भी, इस बीच न जाने कब और कहाँ गुम हो गया । उसने कभी किसी से फिर कोई अपेक्षा ही नहीं की । बस उसको अपने ज़िंदा होने का एहसास भर रहा । उसका घर में रुकना क्या हुआ कि उसके कैरियर और दिनचर्या पर सबकी अपेक्षाओं ने अपना कब्ज़ा जमा लिया । इन सबके बीच वैदेही का डॉक्टर होना भी कहीं खो गया था । 

श्रीकांत एक बार घर से निकलता तो रात को ही थका-हारा प्रवेश करता । पहले एक ही अस्पताल में काम करने से दोनों के पास कोई न कोई बात करने को होती थी । फिर दोनों के बीच बातों पर भी धीर-धीरे पूर्ण-विराम लगता गया । 

ख़ुद के कमाने पर वैदेही को बहुत गर्व था । शायद इसी वज़ह से वह ताउम्र कभी भी श्रीकांत से माँग कर रुपया नहीं ले पाई । वैदेही के लिए रुपया कभी प्राथमिकता नहीं थी । तभी उसने अपना कैरियर दाँव पर लगा दिया था । 

समय के साथ जब बेटे भी अपनी राहों पर निकल गए । तब श्रीकांत ने वैदेही से कहा- 

“वैदेही! अब तुम अस्पताल जॉइन कर सकती हो । तुम्हें अभी भी अस्पताल वाले बुला रहे हैं । मम्मी-पापा भी नहीं 

रहे । अब तुम्हें जॉइन करने का सोचना चाहिए ।"

श्रीकांत की बात मानकर वैदेही ने ख़ुद को मानसिक रूप से तैयार करके अस्पताल जाने का फ़ैसला किया । 

वैदेही को अब चौदह साल से अधिक प्रैक्टिस छोड़े हुए हो चुके थे । जब वह पहले दिन अस्पताल पहुंची । वहाँ का वातावरण उसको उत्साहित करने की बजाय डरा रहा था । जो सर्जिकल इन्सट्रूमेंट उसको उत्साह से भर देते थे....आज वही खौफ़ दे रहे थे । मुश्किल से आधा घंटे वह अस्पताल में रुक पाई । इस तरह अपना आत्मविश्वास खोते हुए देखकर वैदेही का रोना छूट गया । जब डॉ.कामथ ने उसे रोते हुए देखा तो उसकी मनो:स्थिति को भाँपते हुए बोले-

“हिम्मत रखो समय के साथ सब ठीक हो जाएगा ।"

डॉ. कामथ की बातों ने उसे बहुत हौसला दिया । पर वैदेही के हाथ सर्जरी करने के लिए तैयार ही नहीं हो पा रहे थे । डॉ. वैदेही को मारकर, वैदेही की हिम्मत टूट चुकी थी । 

फिर अचानक दो महीने पहले ही श्रीकांत भी कार्डियक अरेस्ट से चले गए । एक खौफ़ से वह निकली नहीं थी कि श्रीकांत का अचानक चले जाना उसको बहुत तोड़ गया । 

अतीत के पृष्ठ एक बार क्या उलटना शुरू हुए कि वह पलटना ही बंद नहीं कर रहे थे । जिन रिश्तों के लिए उसने अपने फिजिकल और इमोशनल अकाउंट ख़ाली कर दिए थे । वह सब अपनी-अपनी राह निकल गए । साथ में उसका आत्मविश्वास भी ले गए थे । आज बिस्तर पर अकेली पड़ी वैदेही अपने अतीत के पन्नों को बराबर उलट-पलट रही थी । 

जीवन में उसने कभी कोई क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल नहीं किया । पर वह ख़ुद क्रेडिट कार्ड के जैसे ताउम्र इस्तेमाल होती रही या ख़ुद को इस्तेमाल करवाती रही । पता नहीं किन जन्मों का कर्ज़ था कि बरसों बरस की मेहनत को छोड़ना पड़ा । 

श्रीकांत के अचानक ही चले जाने के बाद उसके क्रेडिट कार्ड्स उसका ही मज़ाक उड़ा रहे थे । जिनका बैलन्स ज़ीरो था....और उसकी ज़िंदगी अकेलेपन में गुम़ थी । 

किसी के कहे हुए चंद वाक्य क्षणिक सुखों का अनुभव तो करवा सकते हैं, पर इंसान का काम करना उसको जीवंत महसूस करवाता है । यह बात वैदेही बहुत अच्छे से समझ चुकी थी । 

वैदेही अब उन ठहरे हुए चौदह-पंद्रह सालों से जुड़े उन स्वप्नों से भी बाहर निकलना चाहती थी....जो उसको रात-रात भर का जागरण करवा देते थे । 

बच्चे अपने पास आकर रहने को बोल रहे थे । पर हिंदुस्तान के बाहर जाकर रहना उसको अच्छा नहीं लगता था । 

श्रीकांत के रहते हुए उसने अस्पताल का एडमिनिस्ट्रेशन संभालने का काम शुरू किया था । वो आज भी ज़ारी था ताकि वह मरीज़ो के बीच रहकर उनकी मदद कर सके । मरीजों का प्यार व विश्वास ही उसका अकेलापन भर सकता था । वैदेही अपने सोये हुए आत्मविश्वास को फिर से जगाना चाहती थी, ताकि भविष्य में वह सर्जरी भी कर सके । साथ ही वह उन स्वप्नों से भी निकलना चाहती थी... जिन्हें परिस्थितियों ने उस पर थोप दिया था ।   

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संस्मरण

डॉ. देवी नागरानी, dnangrani@gmail.com


वृद्धावस्था एक दुशाला ओढ़ते हुए मौसमों का सफ़र

मौसम का तालुक दिल के मौसम से भी होता है । मनमौजी झोंके दुख सुख की याद के गलियारे से गुज़रते हुए, दर्द के फफोलों पर शीतल मरहम सा काम कर जाते हैं । 

पेड़ों के झुरमुट तले, शाम के वक्त खुली हवा में बहार का मौसम, हवा में हिचकौलों के साथ डाली डाली पर फूल पत्तों को झूला झुलाते हुए ज़मीन पर एक मखमली कालीन बिछा रहा था । जन्नत जहन्नुम, ये फ़क़त नाम मात्र उपयोग की अवस्थाओं को नहीं दर्शाता, पर उन हालातों में कुछ गहराई से कयामत की पगडंडियों पर लाकर छोड़ देता है, जहां से वापस लौट आने के निशान तक बाकी नहीं दिखते । रिश्ते भी भूलभुलैया की तरह-घुमा फिरा कर उसी मोड़ के किनारे लाकर पटकते हैं, जहाँ से मन भाग निकलने के रास्ते ढूंढने में प्रयासरत रहता है । 

आज के इस मशीनी दौर में वृद्धावस्था एक दुशाला बन गया है जिसे एक बार पहन लिया सो पहन लिया । उतार फेंकने का अवसर फिर हाथ आने से रहा । 

रिश्तों के जंगल का वह भी एक बूढ़ा वृक्ष है-जड़ें फिर भी ज़मीन से जुड़ी हुईं । जब तक जुड़े रहने की संभावना बनी रहती है तब तक पौष्टिकता मिलती रहती है । सूर्य की ऊष्मा, बरसात का पानी, बहार व् खिज़ां के परिवर्तनशील झोंकों से खुद को बचाने की आस्था बनी रहती है । वरना बूढ़े पेड़ों को मात देकर ज़मीन पर गिराने के लिए एक झोंका आंधी का बहुत है । 

आज मैंने उसे पीपल के पेड़ के नीचे बैठे देखा-निरीह, असहाय अवस्था में । मैला कुचैला अंगोछा कंधे पर पसरा हुआ, पीठ तने से टिकी हुई, टांगे सपाट सीधी सामने फैली हुई जैसे खड़े होने की असमर्थता ने उसे सहारा देकर बैठने पर मजबूर किया हो । 

आदमी को बूढ़ा होने के लिए उम्र के उस पड़ाव का इंतजार करना पड़े ऐसा कतई नहीं है । होने के कारण कई बन जाते हैं, सामाजिक व्यवस्थाएं, सियासती धारणाएं, व् अपनी ही परिधि के आसपास पाए जाने वाले अपने-पराये और परिवार नामक संस्था के सदस्य भी । 

अब यह कहना मुश्किल है कि कौन किस ‘कारण’ का शिकार बना है । पर इस ‘काका’ को मैं जानती हूँ और थोड़ा बहुत पहचानती भी हूँ । अपने समय से समय निकालकर किसी कमतर के काम आने में पहल करने वालों में से थे । गली के नुक्कड़ पर किसी को चोट लगे तो भागे भागे घर से पानी, रुई, लाल दवाई ले आते । जख्म भरे न भरे पर उन पर मरहम जरूर लगा देते । ठंडा पानी बिना पूछे पिला देते । कोई जान पहचान वाला अस्पताल में हो तो उसे शाम के समय ज़रूर मिलकर आते । पूछने पर कहते ’उसका भी भरे जहान में कोई नहीं, कुछ पल पास जा बैठा, दो चार बातें कीं, वह भी बहल गया और मैं भी!"सुनकर अच्छा लगता था । 

चालीस बरस से एक गली में रहते रहते एक मोह का धागा इंसान को बांध ही लेता है । और वही बंधन निभाने की कोशिश में ‘काका’ की पहल काबिले-तारीफ थी । पत्नी साथ निभा न पाई, परमात्मा के पास चली गई । संवेदना मन में भर गई । नितांत: अकेलापन उनकी हड्डियों में निर्बलता भर गया और वह कार्य शक्ति को कम करने में सहकारिणी बनी । ध्यान जो पत्नी रखा करती थी, प्रेम से परोस कर पेट भरने तक- ‘यह खाओ, थोड़ा और लो, खाने के बाद कुछ मीठा, कुछ मुखवास, क्या कुछ नहीं पाया उस परस्पर स्नेह के संग में, पर जिंदगी का कठोर नियम कहाँ किसी के साथ रियायत करता है?

पत्नी परमात्मा को प्यारी हो गई । उसे जाना था वह गई और उसके स्थान पर बेटों की पत्नियां आ गई । घर में दो-दो मालकिनों के बीच एक अकेला मर्द, दिन भर घर में पड़ा रहता, बस बेकार सा, किसी अनचाही, अनुपयोगी चीज़ की तरह । 

‘ मैं कुछ कर दूँ? कुछ बाहर का काम हो तो बताना बहू । ’ कहता फिरता जब भी उसकी बहुएं सामने से दनदनाते हुए गुज़रतीं । 

‘हाँ पिताजी, आप धोबी के कपड़े दे आएँ । पर गिनकर देना और गिनकर ले आना । ’-एक कहती । 

‘अब क्या काम कहें आपसे । आप अपने कपड़े खुद ही धो लें तो बेहतर होगा बाबा । गंदे दाग होते हैं, धोने पर घिन्न आती है । ’ कहते छोटी बहू नाक पर उंगली रखते हुए सामने से निकल जाती । 

कपड़े धोना सुखाना, यह काम तो पत्नी के होते हुए उसने कभी किया ही नहीं । वह फक़त बाहर से सामान ले आता, कभी उसके बीमार पड़ने पर रसोई घर में कुछ मदद कर दिया करता । तब दोनों बेटे भी छोटे थे 12 और 15 साल के । और अब बढ़ते हुए कामों का निस दिन नया ताँता रहता । बेकार बैठने की भी तो कीमत चुकानी पड़ती है या नहीं? 

-मुन्नी को स्कूल छोड़ आएं और वापसी में सामने वाली दुकान से ब्रेड भी लेते आइए बाबा’ । एक कहती । 

-पानी बंद होने वाला है बाथरूम में खाली बाल्टियां भर दें । ’ दूसरी ऊंची आवाज़ में बोल देती । 

-मुन्नी को स्कूल से लाना न भूलियेगा । मैं किटी में जा रही हूँ । ’ पहली वाली फिर से हिदायत देती । 

और वह अपने तन के कवच में सिकुड़ता जाता, ऐसे जैसे उसका अस्तित्व एक बेकार, बेजान, घर में पड़ी चीज़ सा होता गया । 

खाना खाते समय भी एक उसे परोसती तो दूसरी कहती-‘एक और रोटी चाहिए? ‘

‘हाँ एक रोटी देना ।"उसका धीमा स्वर होता । 

‘कुछ और चाहिए? 

पहले तो वह हामी भरते हुए ले लेता, पर फिर ‘यह चाहिए, वह चाहिए’, सुनते सुनते अपनी ही अना की शर्मिन्दगी में डूबने लगा, और धीरे-धीरे उसकी हर चाहत सिकुड़ते हुए मरने लगी । वैसे भी मांगें तो ज्यादा नहीं थी, पर खाना तो जिस्म की ज़रूरत है । उसपर हर समय इस ‘चाहिए’ का परचम टंगा हुआ मिलता । हर दिन, हर समय, कानों में जैसे"चाय चाहिए, नाश्ता चाहिए, कुछ और चाहिए”, की आवाज़ सुनते सुनते वह अपनी हर चाह को दबाकर हर ‘चाहिए’ के उत्तर में हाथ हिलाकर कहता-"बस"। 

बस वह जिंदा था, और जानता था उसे वह सब कुछ चाहिए जो एक इंसान को, व् घर के हर सदस्य को चाहिए । घर के उस पालतू कुत्ते को भी चाहिए, जो कुछ उसकी तरह ही दरवाजे के पास न जाने क्या-क्या सोचते सोचते, पूँछ हिलाते हिलाते अपनी बेज़ुबानी को ओढ़कर लेटा पड़ा रहता । 

उसके ज़हन पर वे दिन उतर आते, जब कोई फकीर उसके द्वार पर आता । वह अपने हिस्से की रोटी का टुकड़ा उसे देते हुए कहता- ‘भाई अगर कभी इधर आओ तो सेवा का मौका ज़रूर देना । ’ आज हालात का पासा पलटा है । अपना पेट भरने के लिए कितने घूंट पानी के पी जाता, जिसमें उसके अनगिनत आंसू भी घुले रहते । यही उसकी मानसिक वेदना भी बन गई जो उसे दीमक की तरह खोखला किए जा रही थी । 

अंतर्मन की वेदना से भीगी पलकें, पेड़ तले बैठकर साँसों की घुटन से रिहाई का रास्ता ढूंढती रहती । एक दो बार मेरे पूछने पर आँसू पोंछते हुए कह देता-’ अरविंद भाई, पत्नी की याद आ जाती है अक्सर । ’

उसके बाद मैंने कभी नहीं पूछा- ‘कोई क्या पूछे किसी और से जब उसकी आप बीती, अपनी आपबीती बन जाए । मेरी पत्नी भी मुझे छोड़ गई, पंद्रह साल के तन्हा तवील सफ़र के बाद यह जान गया हूँ कि जीवन के सफर में पत्नी हमसफर होती है और बाकी अधिकतर नाते स्वार्थ के पैमाने पर निर्वाह कर लेते हैं । 

इस ज़िंदगी के लिए इसके सिवाय क्या कहा जाय: 

     चंद सांसों की दे के मोहलत यूँ 

     जिंदगी चाहती है क्या मुझसे?

और एक सुबह मैंने उसे पीपल के पेड़ के नीचे बैठे नहीं देखा-जैसे हमेशा देखता रहता था । निरीह, असहाय अवस्था में । मैला कुचैला अंगोछा काँधे पर पसरा हुआ, पीठ तने से टिकी हुई, टांगे सपाट सीधी सामने फैली हुई जैसे खड़े होने की असमर्थता ने उसे सहारा देकर बैठने पर मजबूर किया हो । 

आज वह पाँव पसारे लेटा हुआ था । तन सफ़ेद चादर से ढका हुआ । घर के सामने खलबली सी मची हुई थी, कुछ लोग इर्द गिर्द बाहर भीतर आते जाते देखे । यकीनन उस बूढ़े वृक्ष का टिमटिमाता दिया बुझ गया था । अब वह दफनाया जायेगा और साथ में उसके, उसकी हर हर मांग, हर चाहत, सभी 

कुछ । मौसमों के सफ़र का अंत यही है, बहार से लेकर खिज़ां तक । 

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कहानी

श्री श्यामल बिहारी महतो, 
बोकारो, झारखंड, फ़ोन नं 6204131994


दीपावली बम्पर गिफ्ट

'आखिर उसने जो कहा, कर ही डाला ' 

मंच, मंच पर हमने नेताओं का रूप बदलते, पार्टी बदलते और नीति बदलते भी देखा है । लेकिन यह आदमी तो जरा भी नहीं बदला । लोग क्या कहेंगे, लोग क्या सोचेंगे - एक पल भी नहीं 

सोचा । अपने भाव, अपनी विचारों को खुला रूप देते, सार्वजनिक करते हुए उन्हें ज़रा भी संकोच नहीं हुआ । ज़रा भी सोचा -विचारा नहीं उसने । डंके की चोट पर, एक दम से खुला-खुला ! "आओ बुढ़वा खेलें होली । अपने रंग हजार । जीवन एक बार ही मिलता है -बार-बार नहीं । जितना हो सके, हंसी -खुशी से जी लो । यह दुनिया एक मुसाफिरखाना है । एक सराय है । रैन बसेरा । जीने के लिए जो सांसें मिली है, उसे पूरा पूरा जी लो । यह जीवन भी एक सराय ही है । यहां कोई अपना कोई पराया नहीं । पैसा हैं तो प्यार है, पावर है तो सब हैं, पास-पास ! क्योंकि पैसा है तो प्रेम है । पैसा नहीं तो सब तरफ विरानी, उजाड़ ! मलाल ! ऐसे जीवन से अच्छा है, प्रेम के साथ दो पल जी लो - जी उठोगे" यह किसी महान संत का विचार या किसी दार्शनिक की कही बातें नहीं थी । बल्कि अपने ही गांव के शंभू काका का कथन था । 

वह एक बुजुर्ग सम्मेलन था । खुला मंच था । हर किसी को अपनी बात रखने की खुली छूट दी गई थी । और कहने वाले भी कहने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे थे । किसी ने जीवन की तरक्की में आई रूकावटों का रोना रोया, कोई पेंशन लागू न होने पर रूदन विलाप किया तो कोई मंहगाई पर भस्म कर देने वाली विचारों से सरकार को श्रद्धांजलि देकर उत्तर गया । लेकिन शंभूवा काका एक दम निराले निकले । उसकी एक एक बात निराली थी । बातों से लगता जैसे कोई युवा किसी वार्षिक सम्मेलन में अपने जीवन के सपनों को सार्वजनिक कर रहा हो "सोचता हूं फिर सांघा बिहा (दूबारा शादी) कर लूं" कह लोगों को चौंकाया था । उसने कहना जारी रखा"काफी दिन हो गए शादी किए । जब हमारी शादी हुई थी, बाराती पैदल और दुल्हा गरूगाडी (बैलगाड़ी) पर होता । तब तिलक-दहेज नहीं होता था, दुल्हन ही दहेज है, कहा जाता था । पहले वरमाला भी नहीं होता, दुल्हे का द्वार लगी होती थी । शादी के पहले लड़का लड़की को देख नहीं पाता था । अब वरमाला के साथ ही लड़के को लड़की सौंप दी जाती है "देखा- देखी कर लो, संग संग नाच लो, फोटो सोटो खिंचवा लो" यह देख मेरा भी जिया ललचा उठा है । और इसी के साथ फिर सांघा करने को, मेरा मन मचलने लगा है । पहले बेरोजगार था, एक साइकिल और एक गाय तिलक दहेज के रूप में लड़की के साथ भेज दिया गया था । अब रोज़गार में हूं । नौकरी है, अच्छी खासी सेलरी है, घर है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, यार दोस्तों के बीच अच्छी पकड़ है, किसी चीज की कोई कमी नहीं है । बस रात को उल्लू की तरह जागता रहता हूं । पहली वाली तो बेवफा निकली, लोक छोड़ परलोक में जा बसी । उसकी याद में आंसू बहाता रहता हूं । मुझे रोता देख एक दिन उसने आकर कहा"मेरी याद में कब तक आंसू बहाते रहोगे, दूसरी कर लो, तुम्हें तकलीफ़ होती होगी । मैं मान गया । अब मन फिर बाप बनने को उकसा रहा है । तिलक दहेज नहीं चाहिए, सिर्फ एक जोड़ी कपड़े में लड़की विदा कर दो..!"वह एक पल को रूका था । सभा स्थल में खुसर फुसर होने लगी थी"किस सनकी पागल को माइक थमा दिया गया है, जो मन में आ रहा है, बके जा रहा है..!"

"कल और आज का फर्क बता रहा है..!"कोई बोल उठा । 

"हमें तो लग रहा है, यह सभा को संबोधित नहीं, अपनी दूसरी शादी का प्लान बता रहा है..!"

"पर बोल तो अच्छा रहा है..!"उस पर लोग बोलने शुरू कर दिए थे । 

पर शंभूवा काका का रेडियो बंद नहीं हुआ था । विविध भारती की तरह उसने खुद को चालू रखा"बुजुर्गों ने भी फ़रमाया है कि यह दुनिया एक सराय है । एक मुसाफिर खाना है । जब तक जीवन है जीते ही जाना है । यही नहीं, लोगों को बीच-बीच में शादी-बिहा करते रहना चाहिए, जैसे पहले के बुढ़े- बुजुर्ग किया करते थे और जैसे आज के नेता लोग बीच- बीच में पार्टी बदलते रहते हैं और लड़कियां दोस्त ! फिर हम पीछे क्यों रहें? आखिर उम्र ही क्या हुई है मेरी ! पचपन का हूं पर दिल तो बचपन का है, अच्छी खासी सेलरी है और क्या चाहिए.आज की लड़कियों को ? पैसे वाला हो तो आज की लड़कियां बुढ़ा-सुढ़ा, काला- गोरा और ठिगना भी नहीं देखती और सीधे हां कर झपट लेती है - जैसे बाज़ कबूतरों पर झपटता हैं..!" 

"कर लो ! कर लो !"कुछ ने उकसाने वाली आवाज लगाई । 

"तशेड़ी, नशेड़ी, गंजेड़ी, चार पांच लाख तिलक पा रहा है..!" शंभूवा काका कहते रहे "माना कि वे कुंवारे हैं, अरे, तो हमें भी कुंवारे समझ लो न, घंटा भी फर्क नहीं पड़ेगा । बोलो, कोई मेरा दोबारा बिहा करवा सकते हैं, कोई दूर द्रष्टा ! कोई महानुभाव है ! बिहा सिर्फ मेरे साथ होगा, हमारे घर परिवार के साथ नहीं । जीवन भर का साथ मैं दूंगा । हमारे घर परिवार से उसका कोई लेना देना नहीं रहेगा । परिवार का किसी तरह का भार उस पर पड़ने नहीं दूंगा । खाना भी उसे बनाना नहीं पड़ेगा । बर्तन भी मांजने नहीं पड़ेंगे । लेकिन लड़की किसी जाति की नहीं होनी चाहिए - बस सिर्फ लड़की होनी 

चाहिए । वह फेसबुक, वाटसअप, ट्विटर और इंस्टाग्राम वगैरह में सिर्फ चैटिंग करने का काम करेगी, हमेशा ऑनलाइन रहेगी और ऑनलाइन खाना मंगवा कर मुझे खिलाएगी और खुद भी खाएगी । सप्ताह में एक दिन हम किसी पार्क में घूमने जायेंगे, फोटो शूट करेंगे और फिर किसी दिन किसी नदी में नहाते, किसी झरने के नीचे अपनी कोमल देह को सहलाते-नहलाते वो फोटो शूट करेंगी..! फिर उसे फेसबुक पर अपलोड करेंगी । इंस्टाग्राम में चेपेंगीं और हर साल हम शादी की सालगिरह मनायेंगे, जो अभी तक हमने पहली के साथ नहीं मनाए थे..! क्या कहा आपने ? पहली शादी के बारे बताऊं, और बेटा-बेटी के बारे भी बताऊं, ठीक है तो सुनिए..

चालीस साल पहले बिना तिलक दहेज के मेरी शादी हुई थी । तब मेरी उम्र यही कोई बारह साल की होगी, और हाई स्कूल तेलो में वर्ग आठ में पढ़ता था । मूंछ दाढ़ी अभी निकली नहीं थी और हाथ में मोबाइल नहीं कॉपी किताबें होती थी । आज तो पैदा होते ही बच्चों के हाथ में मोबाइल आ जाता है और कितने तो मोबाइल के साथ ही पेट से निकल आते हैं जैसे महाभारत का कर्ण कवच कुंडल पहने पैदा हुआ था । हमारे भी तीन बेटे पैदा हुए । जैसे किसी युग में तीन भगवान पैदा हुए थे, ब्रह्मा, बिष्णु और महेश ! तब से कइयों युग गुजर गये लेकिन अब धरती पर भगवानों ने पैदा होना बंद कर दिया । अब वे सिर्फ स्वर्ग और नरक का काम देखते हैं । हालांकि हमारे तीनों बेटे बड़ी सरलता से पैदा हुए । किसी ने हस्पताल का मुंह नहीं देखा और न आज के बच्चों की तरह किसी हस्पताल का नाम उनके नामों के साथ जुड़ा ! पर सभी के साथ कुसराइन ( गांव में बच्चा पैदा कराने वाली चमारिन) नाम जरूर जुड़ा हुआ था । अपने लालन पालन में भी उन तीनों ने कोई मुश्किल पैदा होने नहीं दी और तीनों जर्मन शेफर्ड की तरह पले -बढ़े ! बड़े हुए तो, एक-एक कर हमने तीनों की शादी कर दी, तब भी वो नहीं बदले, तब भी वो तीनों जर्मन शेफर्ड की तरह आज्ञाकारी बने रहे । लेकिन मेरे नहीं- अपनी-अपनी पत्नियों के ! तभी से उनकी सोच बदली थीं- हमारे प्रति । अपने बाप के प्रति । बाप के जीवन और ज़िन्दगी के प्रति । साल भर पहले की बात है । छः माह पहले पत्नी मर चुकी थी । बाहर कड़ाके की ठंड पड़ रही थी । मैं अपने कमरे में कंबल ओढ़े गठरी बने बैठा हुआ था । तभी सुबह आंगन में आग के अलाव को घेरे तीनों जर्मन शेफर्ड बेटों के बीच गुफ्तगू हो रही थी । शुरुआत बड़े ने की । कह रहा था "रिटायर होने के पहले अगर बाप किसी कारण वश मर जाता है, तो बाजार चौक की वो दस डिसमिल वाली जमीन मैं लूंगा । उस पर मैं एक शानदार "शंभू मार्केट" प्लेस बनाऊंगा और सभी किराए पर लगा दूंगा । यही मेरा रोजी रोजगार होगा .. ।"

"नहीं, नहीं, ऐसा नहीं होगा.. ।"मांझिल ने एतराज जताया"उसमें मेरा भी हिस्सा होगा । बाप के मरने के बाद मिलने वाले सारे पैसे हम दोनों बांट लेंगे .. ।"

"आप दोनों तो बड़े मतलबी निकले । जमीन में दोनों का हिस्सा, रूपए भी दोनों बांट लेंगे और मैं क्या बाबा का घंटा बजाऊंगा । मैं क्या पेड़ की खोंढर से पैदा हुआ हूं !"छोटका छटांक भर उछल पड़ा था । 

"अरे छोटे, नाराज़ काहे होते हो । तुम्हारे लिए नौकरी तो हम दोनों छोड़ ही रहे हैं । तुम मज़े से नौकरी करना.. ।"

"नहीं, नहीं, भले पैसे मत देना, लेकिन मार्केट में दो कमरा मुझे भी चाहिए..!"

"ठीक है, मंजूर.. ।"बड़ा बोला । 

"ठीक है .. ।", मंझिला भी सहमत । 

"तो फिर ठीक है, तब मुझे एतराज नहीं ।"

तीनों ने मेरी उसी दिन तेरहवीं पार कर दिया । 

"आज के श्रवण !" भीड़ से किसी ने कहा । 

"तभी मैंने निश्चय कर लिया, जर्मन शेफर्ड बेटों की सोंच और उनके हसीन सपनों पर सुतली बम लगाने का...!" शंभूवा काका कहते चले गए"काम पर मैंने अपना और बेटों के प्लान के बारे में अपने कुछ ख़ास दोस्तों को बताए । कुछ ने मज़ाक में लिया और कुछ ने बेहद गंभीरता से । 

"ग़ज़ब की कुंठित चाहत, बाप अभी मरा नहीं और घर में जलाने के समान आ गये ..!" एक साथी ने कहा— 

"आज कोई अपना नहीं, सबका सपना मनी-मनी !" दूसरा बोला । "शंभू दा, जिंदगी तो वही है, जो अपनी मर्ज़ी से जिया जाए, कौन क्या कहता है, क्या सोचता है, कान देने की जरूरत नहीं..!"तीसरे ने जीवन के लॉजिक बताया । 

उस दिन के बाद से ही मैंने रातों को सोना कम कर दिया और जागना शुरू कर दिया । कहीं ऐसा न हो जिस छत के नीचे की कड़ी से बेटों के लिए कभी झूले लगा दिए करते थे, क्या पता किसी दिन उसी कड़ी से बेटे बकरे की भांति मुझे टांग दें ..!" शंभूवा काका की बातों ने एक समा-सा ही बांध दिया था । कहिए तो कुछ-कुछ सहमा सा दिया था । जो लोग शुरू में उनकी बातों से उकता कर जाने को उठे थे, पुनः अपनी जगह पर दिल थाम कर बैठ गए थे । शाम होनी अभी बाकी थी । उनका भी और उस सभा की भी । 

जीवन की ढलान पर शंभूवा काका के अंदर एक तुफान सा उठा था । समाज की गोष्ठी - बैठकों में जाते रहता था । उसने कहना जारी रखा "बहुत दिनों से मन में एक विचार बार बार आ रहा था । तीनों बेटा पुतोहू को एक बड़ा सा दीपावली बम्पर गिफ्ट दूं  लेकिन जैसा गिफ्ट अभी तक उन्हें कहीं मिला ही ना हो । उस दिन समाज की मीटिंग से शाम को रामगढ़ से घर लौट रहा था । गोला चौक में दो स्त्री - पुरुष के बग़ल में एक लड़की गाड़ी के इंतजार में खड़ी थीं । पता चला पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य वृद्धि के विरोध में सवारी गाड़ियां दिन भर रोड़ पर नहीं चलीं । और शाम हो चली थी । पर गाड़ियों का अब भी पता नहीं था । तीनों परेशान दिखे । मैंने गाड़ी रोक दी और बाहर निकल आया । पूछा- "क्या बात है..?"

"हमें बहादुरपुर जाना है और कोई गाड़ी मिल नहीं रही है.. ।"लड़की ने बताया । 

"मैं उधर ही जा रहा हूं, फुसरो, चाहो तो मेरे साथ आप लोग चल सकते हैं ।"

"डेढ़ दो घंटे से खड़े हैं, एक भी गाड़ी नहीं आई..!"स्त्री ने आदमी की ओर देखा । 

"और रूकना ठीक नहीं है..!" आदमी का मुंह धीरे से खुला । 

"मां, आओ, इन्हीं के साथ चलते हैं..!"लड़की बोली और गाड़ी के बग़ल में आकर खड़ी हो गई । मैंने गेट खोल दिए । वह आगे मेरे बगल की सीट पर आकर बैठ गई । मां बाप दोनों पीछे की सीट पर समा गये । मैंने गाड़ी आगे बढ़ा दी । पहली बार मैंने लड़की का अवलोकन किया । गौर से देखा । अंदर से महसूस किया । मासूम लगी । वह आगे देख रही थी । सूनी मांग ! पर आंखों में सपनों की उड़ान बाकी !

लड़की विधवा थी और पेट से भी थी । कुदरत का करिश्मा कहिए या जीवन का संयोग । घंटा भर पहले मीटिंग में विधवा विवाह पर मेरे ज़ोरदार भाषण को लोगों ने तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किए थे । मैं कह रहा था"हर विधवा स्त्री को, एक और ज़िन्दगी जीने का अवसर मिलना चाहिए । एक ही जिन्दगी में उसका सब कुछ खत्म नहीं हो जाता..!"अपनी ही कही बातें याद आ रही थीं मुझे । 

"आप क्या करते हैं..?"अचानक से वह पूछ बैठी । 

"नौकरी..!" 

"घर कहां हुआ..?" 

"मुंगो गांव..!"

"पत्नी क्या करती है?" 

"वह चल बसी, इस दुनिया में नहीं है..!" 

वह चुप हो गई । एक बार उसने मुझे देखा और कुछ पल मूँड़ी गड़ाए बैठी रही । शायद कुछ सोचने लगी थी । मेरे बारे, अपने बारे या फिर समय की विडंबना पर । 

बहादुरपुर आ गया था । सामने विशाल शिव मंदिर था । बुढ़ा बाबा का एक और घर ! मैंने गाड़ी रोक दी और बाहर निकल आया । पूर्णिमा का चांद आसमान पर उग आया था । इक्का दुक्का लोग आ जा रहे थे । जैसे शाम को लोग टहलने को निकले हों । सबकी अपनी धुन अपनी चाल ! 

"बाहर, आ जाओ!"मैंने लड़की से कहा । वह बेधड़क गाड़ी से नीचे उतर आई । आगे बढ़ कर मैंने उसका हाथ थाम लिया । वह सहजता के साथ मेरे सामने खड़ी हो गई । निरखने सा भाव-मुंद्रा ! ऊपर-नीचे ताकने लगी । 

उसकी कोमल हथेलियों को सहलाते हुए मैंने कहा"मेरे साथ, हमारे घर चलोगी? मैं भी जीवन में अकेला हूं, अब तुम भी अकेली हो गई हो । शायद इसी लिए जीवन के मोड़ पर किस्मत ने हम दोनों को मिलाया है । उम्र में भले बड़े हूं पर बूढ़ा नहीं हूं । आखिरी सांस तक साथ दूंगा । कभी किसी चीज़ की कमी होने नहीं दूंगा..!" 

"मैं, .. मेरे पेट में बच्चा पल रहा है...!"वह हकलाई थी । 

"सब कुछ देख, समझ कर ही मैंने यह प्रस्ताव रखा है"बच्चा, तुम्हारे नयनों का तारा होगा और मैं तुम दोनों का माली.- शंभू माली.. शंभू नाम है मेरा !"

"मैं फूलमती, फूलमती महतो.!"उसने मेरी आंखों में झांका । जहां उसे एक पूरा जीवन मंडल विराजमान नजर आया । तब उसने मां बाप की ओर देखा, हमें गाड़ी से उतरे देख वे दोनों भी उतर गए थे और अचंभित भाव पूर्ण नजरों से हम दोनों को देख रहे थे.."

"फिर क्या हुआ...?"भीड़ ने पूछा । 

"क्या आप लड़की को साथ लेते आए..?" 

"लड़की के माता पिता ने क्या कहा..?" 

"तभी उसकी मां आगे बढ़ी थी ..!"सवालों के जवाब समेटते हुए शंभूवा काका ने कहा -"पहले तो उसने बेटी के सर पे हाथ रखा और मंदिर के अंदर चली गई । लौटी तो उसके हाथ में कागज से लिपटी सिंन्दुर की पुड़िया थी । पुड़िया उसने मेरे हाथ पर रख दी और बेटी से कहा -"यह सिंन्दुर मांग में भर लो बेटी ! बुढ़ा बाबा घर का है, सदा जगमगाती रहोगी..!" 

"शादी के छः माह बाद ही तुम्हारी किस्मत में छेद हो गई । अब उसी किस्मत ने तुम्हें एक मौका फिर दिया है, जाओ बेटी, इस फ़रिश्ते के साथ सदा खुश रहना !"बाप ने फूलमती के सर पर हाथ रख दिया था..!

"घर में स्वागत हुआ या आफ़त आई...!" कोई ने बीच में फिर पूछ बैठा । 

"धमाका हुआ ! जर्मन शेफर्ड बेटों के सपनों पर सुतली बम फट गया ..!"शंभूवा काका ने जैसे जीत की डफ़ली बजाते हुए कहा था" बहादुरपुर से छूटे तो हम सीधे बोकारो मॉल में जा घुसे । फूलमती की वेश भूषा भी तो बदलनी थी । नये परिधानों में वह सचमुच की फूलकुमारी लग रही थी । खुद का नया रूप देख खुद से शर्मा गई और देर तक मुझसे लिपटी रही । रास्ते में हमने एक होटल में खाना खाये । घर पहुंचे तो रात काफी हो चुकी थी और सभी अपने अपने कमरे में गहरी नींद सो रहे थे । हमने किसी को जगाया नहीं और हमेशा की तरह किसी ने उठ कर हमसे पूछा नहीं कि"खा कर आ रहे हो, या खाना भी है..!"हमेशा की तरह हमने अपने पास की चाबी का इस्तेमाल किया । पहले गाड़ी अंदर की फिर फूलमती को बाहों में लिए अंदर अपने कमरे में समा गए । लगा बहुत बड़ी जंग जीतकर लौटा हूं । सोए तो दोनों यही दुआ कर रहे थे कि इस रात की फिर सुबह न हो । लेकिन फिर सूरज उगा, फिर सुबह हुई, और ऐसी सुबह हुई, कि बहुतों के सालोंसाल की नींद उड़ा दी । कौवे छत की मुंडेर से उड़ गए और मैनों ने डाल बदलने से मना कर दिया । 

सुबह सबसे पहले फूलमती ही उठी । शौचालय से निवृत्त होकर मुझे उठाया । आंगन में जर्मन शेफर्ड पुत्रों को अपनी पत्नियों के संग खड़े पाया । बड़ा पुत्र दहकते अंगारों सी आंख किए आगे बढ़ आया"पापा, यह आपने क्या कहर बरपाया ? बुढ़ापे में दूसरी शादी कर लाया..!" 

बड़े का शह पाकर मांझिल भी बढ़ आया -

"लोग क्या कहेंगे ज़रा भी न सोचा, खुद को जवान समझा, क्या है यह लोचा..?"

तभी छोटा फुसफुसाया "खाने को बप्पा को कोई नहीं पूछता था । आज बप्पा ने हम सबके खाने में ज़हर मिलाया..!" 

"कल तक बप्पा को कोई पूछ नहीं रहा था । आज बप्पा का किसी को साथ पाना बहुत अखर रहा है । जाओ तीनों मिल बना लो शंभू मार्केट । लगा दो किराए पर, हम चले अपनी राह..!"कह साबुन तौलिया लिए मैं बॉथरूम में जा घुसा और फूलमती मुर्झाए सूरजमुखी पौधों को पानी देने लगी..!".."शाबाश काका..!" भीड़ से कोई बोल उठा । 

“शंभूवा काका की जय हो"

 शंभूवा काका के जीवन का रंग देखकर भीड़ में सभी"हो, हो, हो, ..!"कर सब हंसने लगे । 

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कहानी

श्री सुधीर कुमार सोनी, रायपुर (छत्तीसगढ़) मो. 9826174067

तीन पुरानी कमीजें 


"अपना ध्यान रखा कर बेटा, समय पर खाना खा लिया कर । तेरे बारे में सोचती रहती हूँ, रात को नींद भी नहीं आती" । माँ ने फोन से बात करते हुए छोटे भाई से कहा । 

"बहू कैसी है रे.....कौन सा महीना... तीसरा, अच्छे से खाना खाने और फल खाने के लिए कहना । अच्छा रखती हूँ" इतना कहकर माँ ने फोन रख दिया । 

माँ छोटे भाई से बात करी थी जिसने दिल्ली में अपना छोटा सा कारोबार जमा लिया था । छोटा भाई पवन और पिता के बीच मतभेद हो गए थे, जिसकी वजह से वह घर छोड़कर चला गया था । लगभग एक साल तक उसका कोई भी पता नहीं चला । फिर पड़ोस के ही एक मित्र जिससे दिल्ली में उसकी मुलाकात हो गई थी । उसने पता-ठिकाना और उसका फोन नम्बर माँ को बताया था । 

"क्या माँ बनने वाली है रीना ?" मैंने माँ से पूछा—

"हाँ तीसरा महीना चल रहा है । पता नहीं क्या होगा, जचकी कहाँ होगी ?"माँ यह कहते हुए सोच में पड़ गई थी । परेशानी उसके चेहरे में साफ नज़र आ रही थी । 

"उसकी सास यहाँ से चली जाएगी, नहीं तो वो यहाँ लाकर जचकी करवा लेगा ।" मैंने माँ से कहा । 

"यहाँ तो उसे ला नहीं सकते, ना ही जचकी होने पर अस्पताल जा सकते हैं ।" माँ ने कहा । पिता के साथ मतभेद होने पर हम उसके विषय में घर में चर्चा भी नहीं कर सकते थे । पिताजी का व्यवहार भी ऐसा ही था । एक आदर्श पिता की छबि से वे कोसों दूर थे । हम सभी भाई सिर्फ जरूरत की ही बातें उनके साथ किया करते थे । 

मेरा अपना भी शहर में व्यापार था, जिसमें उपयोग होने वाले सामान के लिए बहुत दिनों से मैं दिल्ली जाने की सोच रहा था । बच्चे छोटे हैं, और पिताजी का दुकान में बैठना नहीं हो पाता । मेरे जाने से दुकान चार-पाँच दिन बन्द करना पड़ेगा यही सोचकर मैं नही जा पा रहा था । बहुत जरूरी होने पर आखिर मैंने जाने की सोच लिया । गोंडवाना एक्सप्रेस का रिजर्वेशन मिलने पर मैं दिल्ली की यात्रा पर निकल पड़ा । बहुत दिनों बाद मैं लम्बी और दिल्ली की यात्रा कर रहा था । 

अकेले यात्रा में मुझे बोर न लगे इसलिए कुछ पत्रिकाएं मैंने रख ली थी पढ़ने के लिए, लेकिन दिन में ट्रेन में हो रहे शोर के कारण नहीं पढ़ पाया और रात में एक दो पेज ही पढ़ा था कि मुझे नींद आने लगी । मैं अपने ऊपर की बर्थ में जाकर लेट गया । 

सुबह उठा तो देखा पलवल स्टेशन पर गाड़ी खड़ी थी । पंद्रह मिनट के बाद गाड़ी रवाना हुई । गाड़ी करीब एक घंटे लेट हो चुकी थी । साढ़े आठ बजे के बाद ही गाड़ी निजामुद्दीन स्टेशन पहुंची, वहाँ से उतरकर मुझे नई दिल्ली जाना था । मैंने ऑटो को आवाज दी और पहाड़गंज चौराहे की लिए उसे तय कर लिया । वह कुछ ज्यादा पैसे माँग रहा था, थकान की वजह से मैंने कोई मोलभाव नहीं किया । बीस मिनट के बाद ऑटो वाले ने एक चौक में रोका और कहा" बाबूजी यह सामने रहा वृहन महाराष्ट्र मंडल" उसने पहाड़गंज चौराहे पर थाने के सामने अपनी ऑटो रोकी थी । 

जेब से पैसे निकाल कर मैंने ऑटो वाले को दिए और सूटकेस लेकर सड़क पार किया ही था कि एक स्कूटर मेरे सामने आकर रुकी । स्कूटर वाले ने अपना हेलमेट निकाला तो मैंने देखा कि मेरा छोटा भाई पवन मेरे सामने था । 

"आप" उसने मेरे पाँव छुए और मुझसे लिपट गया । मेरी आँखों मे आँसू थे । मेरी गोद में खेला मेरा छोटा भाई जिससे तीन साल बाद मिल रहा था । हम दोनों ने अपनी-अपनी आँखों को पोछा । 

"आप यहाँ आए मुझे बताया भी नहीं, माँ से तो बात होती है । माँ ने भी नहीं बताया"उसने नाराजगी जताई"और यहाँ कहाँ जा रहे हैं ?

"महाराष्ट्र भवन में ठहरने के लिए मुझे राजेश ने बताया था ।"मैंने मित्र का नाम लिया । 

"चलिए घर चलते हैं"उसने अधिकार से कहा । मुझसे कहा भी नहीं गया कि मैं घर में नहीं ठहरूँगा । मैं उसकी स्कूटर के पीछे बैठ गया । स्कूटर स्टार्ट करके उसने अपने घर की तरफ स्कूटर को बढ़ा दिया । लगभग पाँच-सात मिनट बाद किसी वजह से उसने स्कूटर रोकी तो मैंने पूछा" घर कहाँ है ?"

"लक्ष्मी नगर में, यमुना पार"उसने जवाब दिया । 

इतनी भीड़, चारों तरफ गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ और आदमियों का दौड़ता हुआ हुजूम । यह शहर थकता नहीं है । अब हम दरियागंज की सड़क पर थे । मेरा जाना पहचाना स्थान है । थोड़ी देर बाद हम यमुना पुल पार कर रहे थे । एक जगह बाएँ तरफ एक बोर्ड लगा था जिसमें लिखा था"यहाँ हाथी बिकते हैं" पढ़कर मुझे हँसी आ गई । कुछ समय पश्चात चौक से बाएँ तरफ भाई ने स्कूटर मोड़ दी । थोड़े दूर पर उसका ऑफिस और दुकान थी । उसने दिखाया मुझे अपने व्यापार से सम्बंधित सामान वहाँ रखा था । दो मिनट बाद एक चार मंजिल के फ्लैट के पास भाई ने स्कूटर खड़ी की । हम ऊपर चढ़े, प्रथम मंजिल पर ही उसका फ्लैट था । दरवाजा एक महिला ने खोला । 

"बड़े भैया आएं हैं"भाई ने मेरी ओर इशारा करते हुए कहा । बहू ने चरण स्पर्श किए । सदा सुखी रहो का एक रटा रटाया सा आशीर्वाद मैंने दिया । उसने सिर ढँक लिया । 

"मम्मी जी कैसी हैं ?"

"ठीक है, थोड़ा नरम गरम चलता रहता है । इतना कहकर मैंने अपना सामान एक किनारे रख सोफे पर बैठ गया । 

"आप मुँह-हाथ धो लीजिए, मैं चाय- नाश्ता बनाती हूँ ।" कहकर बहू किचन में चली गई । मैं बाथरुम में फ्रेश होने और नहाने चला गया । बीस मिनट बाद मैं बाहर निकला तो बहू बोली" भाई साहब कुछ कपड़े हैं तो दे दीजिए, धोबी आता ही होगा वह इस्तरी करके ला देगा । धोने का हो वह भी निकाल दीजिए ।"बहू ने कहा और वह फिर किचन में चली गई । 

"मैं दुकान से आता हूँ । आप नाश्ता कर लीजिए, मैंने अभी थोड़ी देर पहले ही किया है"कहकर भाई दुकान चला गया । मैंने इस्तरी करने वाले कपड़े निकाल कर एक टेबल में रख दिए । बहू ने नाश्ता चाय लाकर रखा । नाश्ता करते हुए उसने घर का हालचाल पूछा, मैंने भी घर की स्थिति से अवगत करा दिया । थोड़ी देर आराम करने के बाद मैं भी भाई की दुकान जो घर के पास ही थी चला गया । दुकान में ग्राहकों का आना-जाना लगा था और वह उनसे बात करने में व्यस्त था । मैं पास ही घूमने के लिए निकल गया, फिर बस में बैठकर पहाड़गंज दुकान का सामान खरीदने के लिए चला गया । घूमकर मैं सात बजे शाम को लौटा । घर आया तो भाई ने चिंता जताई"कहाँ चले गए थे आप ?"मुझे लग रहा था कहीं रास्ता भटक न जाओ । ‘

"कहीं नहीं बस आसपास गया था । दुकान का कुछ ज़रूरी समान खरीदा है"। मैंने संक्षेप सा जवाब दिया । 

"रात के कितने बजे खाते हैं भाई साहब ? अभी थोड़ी देर हैं ।"

"कोई जल्दी नहीं, नौ बजे ही खाना होता है रात का ।"

मैं बाथरूम चला गया । हाथ - मुँह धोकर बाहर निकला । हाल में भाई टी वी में समाचार देख रहा था, मैं भी बैठ कर देखने लगा । देखते-देखते साढ़े आठ बजे गए । बहू ने हम दोनों के लिए खाना परोस दिया । 

खाना खाकर मैं थोड़ी देर बाहर टहलने चला गया । 

आधे घंटे बाद घर पहुंचा । रात के पौने दस बज रहे थे । भाई से थोड़ी चर्चा के बाद मैं हॉल में सो गया । नींद खुली तो देखा घड़ी साढ़े पाँच बजा रही थी । इस समय मैं सुबह की सैर में निकल जाता हूँ, अब यहाँ उठा तो दरवाजे के खुलने बंद होने से कहीं इनकी नींद न टूट जाए यह सोचकर मैं बिस्तर पर पत्रिका लेकर पढ़ते बैठा रहा । पौन घंटे बाद बहू ने मुझे जागा देखा तो कहा "भाई साहब चाय बना कर लाऊँ या ब्रश करने के बाद पियेगें"

"चाय पीकर ही फ्रेश होने के लिए जाऊँगा । "कहकर निश्चिंत बैठा रहा । सुबह के करीब साढ़े छै बज रहे थे । थोड़ी देर भाई अखबार लेकर आ गया । 

"नींद लगी रात को, कि करवट बदलते रहे"भाई ने पूछा और अखबार मेरे हाथ में दिया । 

"नींद तो अच्छी लगी । सीधे सुबह साढ़े पाँच ही उठा, जिस समय सुबह टहलने जाता हूँ ।"इतना कहकर मैं अखबार पढ़ने लगा । भाई भी अंदर का पेज लेकर पढ़ रहा था । बहू ने चाय लाकर दिया । हम दोनों ने चाय पी । भाई और मैंने अखबार पढ़कर यूँ ही घर परिवार की बातें करते रहे । थोड़ी देर बाद मैं मंजन करने और नहाने के लिए बाथरूम चला गया । 

आधे घंटे बाद मैं बाथरूम से बाहर निकला । मैं कल के पहने हुए कपड़े में ही डायरी लेकर बैठ गया । मैं लिखकर लाया था कि कौन कौन सा सामान जो दुकान की जरूरत का है उसको देखने लगा । 

थोड़ी देर बाद बहू ने नाश्ता लगा दिया । नाश्ता करके मैं उठा और बहू से पूछा"मेरे कपड़े कहाँ रखें हैं ।"

"हाल की आलमारी में रखा है भाई साहब आप निकाल लीजिये । आलमारी खुली है ।"

मैंने अलमारी खोला तो देखा भाई के पेंट शर्ट और कमीज रखीं हैं । मैंने अंदाजा लगाया कि करीब पचास साठ की गिनती से भी ज्यादा कमीजें टी शर्ट और पैंट से आलमारी भरी हुईं हैं । मैं देखकर अवाक रह गया । सभी कमीजें एक से सुंदर चेक वाली थी । लगा अपनी उन पुरानी कमीजों की जगह तीन नई कमीजें या कोई भी तीन कमीज रख लूँ, तो भी पता नहीं चलेगा । पता चलने पर गलती से रख लिया भी कहा जा सकता है । मैंने अपनी एक कमीज पहनी और तीन कमीजें जो करीने से जमी हुई रखी थी उसमें से निकालकर अपने सूटकेस में रख ली । काफी दिनों से मैंने कोई कपड़े नहीं बनवाया था, क्योंकि दुकान में काफी लागत लगी हुई थी । मंझला भाई मुझे अक्सर चार-पांच कमीजें, जो बिलकुल नई सी रहती लाकर दे देता है । उसे कपड़ों का बहुत शौक है । वह बैंक में नौकरी करता है । 

सूटकेस को एक किनारे रखा और भाई से कहा"मैं जरा बाहर होकर आता हूँ ।"घर से बाहर निकलकर मैं सीधे चौराहे पर पहुँच कर गुरुद्वारे के पास जाकर खड़ा हो गया । सोचने लगा कि मैंने जो तीन कमीजें बिना बताए रख लिया है वह सही है या गलत है । मैं बड़ा भाई हूँ चाहूँ तो हक से भी मांग सकता हूँ । ऐसा न लगे बहू को कि बड़े भाई होकर मौका देखकर चोरी करके कपड़े ले गए । में बहुत असमंजस में था । काफी देर तक मैं घूमता रहा और विचारों में उलझा रहा । अंत में मैंने निर्णय किया कि घर पहुँचता हूँ और तीनों कमीजों को धीरे से जाकर आलमारी में वापस रख दूंगा । जब यह विचार कर रहा था मैं तो उस समय गुरुद्वारे के ठीक सामने खड़ा था । 

मैं वापस भाई के घर लौटा । शाम को सुरज डूबे हुए काफी समय हो गया था । दरवाजा बहू ने खोला"भाई साहब आप कहाँ चले गए थे, ये फिकर कर रहे थे । आप फ्रेश हो लीजिए । मैं खाना लगा देती हूँ । ये पड़ोसी होटल वाले के साथ किसी काम से गए हैं ।"बहू इतना कहकर रसोई कमरे में चली गई । 

मैं हाल में जाकर आलमारी खोला और अपने बैग से तीनों कमीज निकालकर उसमें रख दिया । रखने के बाद मैंने आलमारी बंद किया तो मुझे हल्का लगा । इतना हल्का जैसे मैं मजे से पानी में तैर रहा हूँ । खाना खाकर मैं सो गया । 

सुबह उठा और भाई से बोला"मैं वापस जा रहा हूँ । आगरा में एक मित्र से मिलना है ।"

अखबार पढ़ना छोड़ भाई ने आश्चर्य से कहा"आपकी तो कल की टिकट है, वह भी दोपहर की फिर आप आज सुबह कैसे जा रहें हैं ?"

"एक मित्र मेरी नौकरी के दिनों का साथी है, उसकी तबियत ठीक नहीं है । उससे मिलकर फिर वहीं से निकल जाऊँगा ।"

मैंने झूठ कह दिया मुझे बहुत पश्चाताप हो रहा था । मैंने कहा "जो भी गाड़ी सुबह की होगी मैं निकल जाऊँगा । अगले महीने फिर एक काम से आना है ।"मैं अपनी तैयारी में जुट गया । मुझे मालूम था कि हो सकता है मुझे साधारण बोगी में बिना रिजर्वेशन के बैठ कर जाना पड़ सकता है । मैं अपना सूटकेस उठाकर बाहर निकला और रेल्वे स्टेशन पहुँच गया । 

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आलेख

डॉ. निशा नंदिनी भारतीय, तिनसुकिया, असम, मो. 9435533394


गुणों पर चर्चा से लाभ

मनुष्य का मस्तिष्क दो तरह से कार्य करता है । एक सकारात्मक रूप में दूसरा नकारात्मक रूप में । इन दोनों में नकारात्मक मस्तिष्क अधिक सक्रिय रहता हैं । एक साधारण व्यक्ति अपने पूरे दिन में अपने नकारात्मक मस्तिष्क को अधिक सक्रिय रखता है इसलिए पूरे दिन की बातचीत में 75% बातें लोगों की बुराई तथा अवगुणों को लेकर होती है । इस तरह मनुष्य का मस्तिष्क और अधिक नकारात्मक होता जाता है । उसके मन मस्तिष्क में सदैव बुराइयां चलती रहती हैं । ऐसा व्यक्ति अपने आपको भूल कर सदैव दूसरों का मूल्यांकन करने में लगा रहता है । ऐसे लोग किसी के रूप-रंग,व्यवहार या पृष्ठभूमि के आधार पर उसके बारे में धारणा बना लेते हैं । इससे उन्हें बात करने का एक मुद्दा मिल जाता है । 

अगर हम सिर्फ हर किसी की अच्छाइयों और गुणों को ढूंढे और उन्हीं की चर्चा करें तो हम कई प्रकार से लाभान्वित हो सकते हैं । 

सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि हमारा सकारात्मक मस्तिष्क सक्रिय होगा । हमारा मन-मस्तिष्क सदैव सकारात्मक ऊर्जा से भरा रहेगा । सकारात्मक सोच हमें अपने जीवन के बारे में बेहतर निर्णय लेने और दीर्घकालिक लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करने में मदद कर सकती है । इससे हम यह महसूस करेंगे कि हमारा शरीर और दिमाग काम के साथ-साथ अपने व्‍यक्तिगत संबंधों के प्रति भी ज्‍यादा सजग हो गया है । 

सकारात्मक सोच के माध्यम से व्यक्ति का विकास होता है और नकारात्मक सोच के कारण वह विनाश को प्राप्त होता है । ज्ञानेंद्रियों के द्वारा व्यक्ति को वातावरण से तरह-तरह के विचार मिलते हैं और इन विचारों पर सोचकर वह निश्चय करता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं । 

दूसरा लाभ यह है कि जब हम दूसरों के गुणों या अच्छाइयों पर चर्चा करेंगे तो हम बात कम करेंगे । हमारा मन शांत होगा क्योंकि लोग निंदा रस में ज्यादा आनंद लेते हैं । 

विशेषज्ञों का कहना है कि मौन रहने से व्यक्ति अधिक समझदार और उत्पादक बनने की ओर अग्रसर होता है । इससे उसके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य दोनों में सुधार हो सकता है । 

कम बोलने से हमें आत्मकेंद्रित व्यक्तित्व की प्राप्ति होती है । कम बोलना या मौन एक शक्ति नियंत्रण की साधना है । कम बोलकर हम दूसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण को महत्व देते हैं और उनसे सीखने के इच्छुक होते हैं । 

और तीसरा लाभ यह है कि हम किसी की अच्छाइयों पर चर्चा करके निंदा रस से बचेंगे । निंदा और किसी का अपमान करने से हम पाप के भागीदार बनते हैं । इसको करने वाला इंसान अक्सर अपने मूल काम को भूल जाता है और बाकी लोगों से पीछे रह जाता है । ऋग्वेद में कहा गया है कि दूसरों की निंदा करने से दूसरों का नहीं बल्कि खुद का ही नुकसान होता है । निंदा से ही मनुष्य की बर्बादी की शुरुआत होती है । 

किसी व्यक्ति द्वारा स्वयं के अहं को तुष्ट करने के क्रम में दूसरे के चरित्र का नकारात्मक चित्रण ही निंदा कहलाता है । ऐसे लोगों को निंदक कहा जाता है । संत कबीर का निंदक दूसरा था जो आज का निंदक नहीं है आज के निंदक का उद्देश्य सुधार करना नहीं वरन अपयश करना होता है । उसका काम किसी की बुराई करके अपने मन की ईर्ष्या,कुंठा और प्रतिशोध की भावना को शांत करना है । 

निंदा करने की वजह से व्यक्ति स्वयं की बुराई नही देख पाता है । जब निंदा करना एक आदत बन जाती है,तब इंसान हर वक़्त दूसरों में कमियाँ और बुराई ढूंढ़ने लगता है । उसका सकारात्मक नजरिया धीरे-धीरे नकारात्मक हो जाता है । निंदा करने से किसी को कुछ नहीं मिलता केवल स्वयं की हानि होती है इसलिए गुणों पर चर्चा करने से हम निंदा रस से बच सकते हैं । 

चौथा और सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि जब हम किसी के गुणों पर चर्चा करेंगे । तब हम उन गुणों को अपने अंदर भी देखना चाहेंगे । इस तरह हमारे अंदर सुधारात्मक प्रवृत्ति जागृत होगी । हम दूसरों के व्यक्तित्व से प्रेरणा ले सकेंगे । 

हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम सदैव दूसरों की अच्छाई या गुणों को ही देखेंगे बुराई को नहीं और सदैव अच्छाइयों की चर्चा करेंगे । जीवन में जिससे भी मिलेंगे उसके अंदर अच्छाइयों को ढूंढेंगे । 

अपने परिवार के लोगों की अच्छाइयों को ढूंढकर उसपर चर्चा करेंगे । इस तरह हम अपने अंदर सुधार करके अपने परिवार व रिश्तों को टूटने से भी बचा सकते हैं । अंत में... 

करो गुणों की चर्चा आत्म सुधार होगा । 

आत्म सुधार करके जीवन सफल होगा ।  


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कहानी

सुश्री पूजा गुप्ता, मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश), मो. 7007224126


"नकाब के अंदर"


अभी हम हवन करके उठे थे हवन 

में मेरे साथ मेरे पति राकेश दोनों 

पुत्र लव एवं कुश भी बैठे थे । वह 

शांति हवन हमने बाबूजी के लिए 

रखा था । सभी रिश्तेदार मित्र एवं परिचित भी इस अवसर पर आए हुए थे । पूजन हवन के पश्चात भोज का आयोजन किया गया था । हलवाई अपने सहयोगियों के साथ पकवान खीर पूरी मिठाइयां तैयार कर रहा था । 

हमारे द्वारा हाथ जोड़कर आग्रह करने के पश्चात लोग पंक्तिबद्ध होकर भोजन हेतु बैठने लगे । तभी एक बुजुर्ग ने सलाह दी कि सर्वप्रथम बाहर इकट्ठे भिखारियों को पेट भर भोजन करना चाहिए । बाबूजी की आत्मा की शांति के लिए भूखे व भिखारियों को तृप्त करने हेतु पत्तले लगाकर ले जाई जाने लगी, तत्पश्चात बैठे हुए सभी लोगों के लिए भोजन परोसा जाने लगा । अंदर भंडार में मेरी व मेरे पति की बहनें, भाभियां रखी हुई भोज्य सामग्री निकाल कर देने एवं अफसोस ज़ाहिर करने आई महिलाओं को भोजन परोसने का कार्य कर रही थीं । पुरुष वर्ग में भी भाई-भतीजे लग गए थे । भोजन की महक मेरे नाक में प्रवेश करती, ना जाने कितना कुछ बीता हुआ याद दिला रही थी । 

इस तरह के भोजन बाबूजी को कितने पसंद थे । वह खाने के लिए मांगते हुए कभी-कभी तो गिड़गिड़ाने की हद तक उतर आते थे । मगर राकेश ने उन्हें ये सब देने से या तो मना कर रखा था या देते तो बहुत थोड़ा-सा, जिससे बाबूजी कभी संतुष्ट नहीं हो पाते थे । इतनी सारी सामग्री औरों को खिलाकर क्या अब हमें सुख प्राप्त हो सकेगा या बाबूजी की आत्मा को तृप्ति मिल सकेगी? यही सब सोच कर मैं बेचैन हो उठी । जो हुआ वह सब सही था या गलत, इसकी विवेचना करने का वक्त अभी कहां था? मगर मन भी गुजरे वक्त को किसी जिद्दी बच्चे की भांति बार-बार धकेल कर नजरों के सामने ला खड़ा करता था । मैं विवश-सी वही रखी चटाई पर बैठ गई । छोटी बहन सुप्रिया ने मुझे गुमसुम-सा बैठा देखा तो वह भी समझी कि मैं अपने पितातुल्य ससुर की मृत्यु पर अफसोस कर उदास हो उठी हूं । वह मुझे समझाने लगी, "धैर्य रखो दीदी, ऐसे कैसे चलेगा? उधर जीजा जी भी बेहाल हो रहे हैं और इधर आप ऐसे बैठी हैं । बाबूजी तो देवतुल्य पुरुष थे, लेकिन अच्छे व्यक्तियों को भगवान के घर में भी जरूरत रहती है ना । उठो और अपनी संपूर्ण संवेदना, श्रद्धा के साथ उन्हें विदा करो । " सुप्रिया के साथ-साथ अनु भी मुझे समझा रही थी । अनु मेरी रिश्ते की ननंद थी । मैं स्वयं को रोक न सकी, रुंधे कंठ से बिलख उठी । जो ये कह रही है, क्या वही मैं भी सोच रही हूं? मेरे अफसोस का कारण तो कुछ और ही था । बाबूजी की ऐसी मुक्ति की कामना मैंने कभी नहीं की थी । उधर राकेश ऐसे व्यवहार कर रहे थे, जैसे अपने पिता के श्रवण कुमार एक वही थे । अभी मेरे दोनों जेठ भी आए हुए थे । उनमें से बड़े व उनकी पत्नी प्रिन्सिपल थे । दोनों मिलकर शहर में अपना बड़ा सा स्कूल चला रहे थे । ३०-४० लोगों का स्टाफ था और बड़ी सी इमारत शहर के बीचो-बीच जेठानी के पिता की दी हुई जमीन पर बनी हुई थी । छोटे जेठ दूसरे शहर में एक निजी बहुराष्ट्रीय कंपनी में इंजीनियर थे । कंपनी की दी हुई गाड़ी-बंगला एवं समस्त सुविधाएं उपलब्ध थी । जेठानी नहीं आ सकी थी, कारण बच्चों की परीक्षाएं निकट थी । राकेश श्वेत धोती-कुर्ता पहने कई लोगों से घिरे बैठे थे । लोग मातम मनाने के लिए आ रहे थे । वे थोड़ी देर रुककर हमें सांत्वना देते, फिर भोजन करके चले जाते । 

किसी को भी पता न था कि सत्य क्या है? राकेश के पिता कैसे मरे? उन्हें क्या हुआ था? मृत्यु पूर्व क्या वाक्या घटा था । जो राकेश के द्वारा बताया जा रहा था, वे उसे ही सच मान रहे थे । सच की कोई गुंजाइश नहीं थी । 'होनी को कौन टाल सका है? अमरफल खाकर कौन आया है? सुनते-सुनते मेरे कान पक गए । क्या इस छलावे, मुंहदेखी कहने वालों की दुनियाँ में कुछ लोग भी ऐसे नहीं है, जो खरी-खरी कह सके कि राकेश तुमने अपने पिता को कितना तरसाया? उनके साथ क्या-क्या सुलूक किया । जब जानते थे कि उनकी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति इस लायक नहीं थी तो उन्हें कुंभ में ले जाने की क्या आवश्यकता थी? वहां वे कैसे मृत्यु को प्राप्त हुए? क्या आज पिता और पुत्र के मध्य शाश्वत विश्वास, स्नेह और सहानुभूति की उष्मा को पैसे एवं स्वार्थ का घुन चट कर गया है? सामान्य परिस्थितियों में मृत्यु का होना और बात है, मगर छलपूर्वक मृत्यु ला दिया जाना एक घनघोर अपराध । परिवार-समाज के लिए एक व्यक्ति का होना, ना होना, उसका जीवन-मृत्यु बहुत कुछ मायने रखता है, सुख-दुख का कारण बन सकता है । मैं अन्तर्यात्रा करती मौन बैठी थी । 

क्या मैं भूल सकती हूं वह सब? मन-ही-मन मैं स्वयं को इस गुनाह में शामिल मान रही थी । ना मानती तो अपराधबोध से क्यों ग्रसित होती? लेकिन राकेश के तो वे जनक थे । उनके सुख-दुख की परवाह, उन्हें मुझसे अधिक होनी चाहिए थी । राकेश की रगों में उनका ही रक्त दौड़ रहा था । मेरे दोनों जेठ तो और भी निश्चिंत व दायित्वमुक्त थे । माता-पिता के प्रति बच्चों का कोई कर्तव्य भी बनता है, वे तो सोचना समझना भी नहीं चाहती थे । कोई कैसे इतना संस्कारहीन हो सकता है? बाबूजी कितने संस्कार वाले थे उनकी तपस्या ही बेकार चली गई । अम्मा जी यानी मेरी सास की मृत्यु पूर्व तक तो सब कुछ ठीक था । अम्मा स्वयं इतनी सक्षम थी कि बाबूजी के साथ-साथ अपनी भी परिचर्या कर लेती थी । यह सब तो अम्मा के दिवंगत होने के बाद हुआ । पत्नी की मृत्यु के पश्चात बाबूजी को न जाने क्या हुआ कि वे मानसिक एवं शारीरिक रूप से अस्वस्थ ही रहने लगे । कभी स्वाद लेकर खाते-पीते, तो कभी थाली फेंक देते । कभी धीमे-धीमे बड़बड़ाते तो कभी अवसादग्रस्त हो दो-दो दिन तक पड़े रहते । अनियमित दिनचर्या, रखरखाव की कमी से जल्द ही वे बीमार, चिड़चिड़े और कमजोर हो गए थे । तन्द्रा में पड़े-पड़े उलजलूल बातें करते, चिल्लाते भी रहते । 

बुढ़ापा यूं भी शारीरिक बल को परास्त कर देता है, ऊपर से बाबूजी की ऐसी अजब स्थिति थी । अम्मा के हाथ की कढ़ी का स्वाद उन्हें हरदम याद आता, तो कभी छोले-भटूरे की याद में लार टपकाते वे मौका पाते ही रसोई घर में पहुंच जाते और कांपते-हांफते बनाने के आधे-अधूरे प्रयास करने लग जाते । सच कहा है कि बूढ़े और बच्चे बराबर होते हैं । बाबूजी की पाचन शक्ति को जानते हुए भी हम अक्सर उनकी उचित-अनुचित मांग नकार देते थे । ऐसे समय बाबूजी की बेबसी भरी दृष्टि मैं क्या भूल पाऊंगी? कभी-कभी मैं पिघल जाती तो बाद में गंदगी और बदबू से दो-चार होना ही पड़ता । डॉक्टर की जरूरत पड़ जाती, साथ ही राकेश शंकालु हो मुझसे ही तकरार पर उतारू हो जाते और साफ-सफाई के लिए मदद के वक्त झुंझलाते- झल्लाते बाबूजी के साथ-साथ मुझे भी कोसते । 

कितने अफसोस की बात है कि जिन बाबूजी ने अपने बेटों व परिवार के लिए अपना स्नेह, प्यार एवं समस्त पैसा रुपया कमाई खर्च कर दिया, उन्हें हम सबके बीच खुशी के पलों में शरीक तक करना किसी को गवारा न था । एक बार तो बाजार से मंगाकर कुछ खा-पी लेने पर बाबूजी की चाय में राकेश ने दस्त लगने वाली गोलियां ही मिला दी थी, जिसके कारण वे खाट से लग गए एवं कुछ भी अंट-शंट ना खाने के लिए बार-बार माफी मांगते रहे थे । 

राकेश मेरे पति थे, उनके विरोध की कल्पना मेरे अंदर बैठी भारतीय संस्कारी नारी कैसे कर सकती थी । मगर राकेश के अंदर छिपी शैतानियत को अनुभव कर मैं कांप जाती । क्या इसी दिन के लिए बाबूजी ने अपने बच्चों को पिट्ठू चढ़ाया होगा । चलना, बोलना और दुनियांदारी को समझने की शक्ति का अनुभव कराया होगा । क्या ये व्यक्ति यही सब कुछ बूढ़े, आसक्त बीमार या अचेत होने पर मेरे साथ भी कर सकता है? तब मुझे राकेश अनजाने, अजनबी, क्रूर व हिंसा के पुतले दिखते । मेरे मन में उमड़ते-घुमड़ते विचारों के चलते पति के प्रति प्रेम, प्यार व मान-सम्मान धीरे-धीरे नफरत में बदलने लगा । कल को हमारे बेटे लव व कुश हमारे साथ यही सब या इससे भी बढ़कर करने लगे तो क्या होगा? मैं चिंता में रहने लगी । मगर राकेश में हैवानियत के साथ-साथ धूर्तता भी कम न थी । जो भी करते प्रायः बेटों से छिपकर ही करते थे । 

मेरे दोनों जेठों को रुपया-पैसा मकान के साथ ही बाबूजी की भी दरकार ना थी, अतः बाबूजी हमारे ही होकर रह गए थे और अपनी समस्त चल-अचल संपत्ति राकेश के नाम ही लिख दी थी । अभी परिचितों-स्वजनों के सामने घर के सब लोग ऐसा दिखावा कर रहे थे कि बाबूजी के जाने का सबसे अधिक गम उन्हीं को हो रहा है । लेकिन मन-ही-मन सब निश्चिंत थे कि चलो अच्छा हुआ, बाबूजी की मुक्ति हुई । मगर मुक्ति का सवाल बड़ा पेचीदा है । हम सब तो बाबूजी सहित कुंभ के मेले में स्नान के लिए गए थे । लोग तो आँख मूँद कर मान लेते हैं कि तीर्थ क्षेत्र में हुई अकाल मृत्यु भी मोक्ष के लिए काफी है । मगर इंसानियत के नाते सोच कर देखिए कि एक वृद्ध जिसके भीतर अदम्य जिजीविषा मौजूद है, जो अच्छा खाना-पीना एवं परिवार की खुशियों के बीच रहकर उन्हें महसूस करता हुआ जीवित रहना चाहता है, वह अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाए, यह क्या गहन अपराध नहीं? क्या इसकी कोई सजा मुकर्रर कर सकते हैं आप? क्या समाज का ढांचा अब इतना चरमरा गया है कि कोई पिता अपने पुत्र पर भी विश्वास ना करे । आने वाले समय में नैतिकताबोध सिर्फ क्या किस्से-कहानियों में बचेगा या अपवाद स्वरूप कहीं नज़र आएगा? आप यह तो मानते होंगे कि प्रत्येक इंसान के अंदर दैवीय एवं आसुरी शक्ति का वास होता है । यह हमारे ऊपर निर्भर होता है कि हम किसको जगाए रखते हैं । अपने निर्दोष निष्कलुष मन की दैवीय शक्ति के सामने अपने अच्छे-बुरे प्रत्येक कर्म का लेखा-जोखा सभी को देना होता है । इसलिए मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे में ईश्वर के समक्ष हम खड़े होते हैं । 

तभी सुप्रिया ने आकर मेरी तन्द्रा भंग कर दी ।" दीदी जरा सुनना तो..."

पश्चाताप और ग्लानि से भरे अपने विचारों में व्यवधान आते ही मैं घबरा उठी, नहीं... नहीं... मैंने तो कुछ नहीं 

किया । किया तो राकेश ने है, बाबूजी का हाथ नदी की गहरी धारा में राकेश ने छोड़ा था । मैं तो लव और कुश के साथ तट पर थी । बाबूजी की वे कातर निगाहें एवं फैली हथेलियां क्या कभी भूली जा सकती है? 

"बेटा मुझे छोड़कर ना जाओ..." उनके अंतिम शब्द-रात दिन मुझे दिग्दिगंत से आते महसूस होते हैं । कनपटियां घमघमाती है । क्या राकेश को कुछ महसूस नहीं होता? सिर हिलाते हुए इनकार किया जा रही हूं, "बाबूजी बच जाएंगे, देखना वे आएंगे एक दिन । ऐसा नहीं हो सकता । वे जीवित है । यह शांतिपाठ किसलिए? भोज क्यों कर रहे हो? हमारे घर पर किसी की मृत्यु नहीं हुई है । " 

सुप्रिया ने मुझे झकझोर कर चिंतातुर स्वरों में राकेश को पुकारा । राकेश आकर आग्नेय नेत्रों से मुझे तकते हुए डपते," क्या उल्टा-सीधा बके जा रही हो? फिर मेरा हाथ थामकर मेरे आंचल को व्यवस्थित करते हुए स्नेह प्रदर्शन करने लगे और भीतर बाबूजी के कमरे में ले जाकर बैठा दिया । क्या मैंने बाबूजी के स्थान की प्रतिपूर्ति की है? क्या मेरे लव और कुश, जिन्हें मैंने अपने हृदय से लगाकर पल-पल बड़ा किया है । रक्त, मज्जा, आंचल की धार से सींचा है, क्या वे भी राकेश की तरह एक दिन मुझसे तंग आकर कहीं किसी कुम्भ में मुझे मोक्ष प्रदान कर देंगे? मैं भयभीत-सी बाबूजी के बिस्तर पर सिकुड़ी बैठी हूं । राकेश ने द्वार की कुंडी बाहर से बंद कर दी । बाहर बाबूजी की मुक्ति का अनुष्ठान चल रहा था । मैं सोच रही हूं, बहुत से लोगों के दो चेहरे होते हैं एक नकाब पर, दूसरा उसके भीतर । जो इंसान को संस्कारहीन बना देते है । अदम्य शांति ऊपर बरसती रहती है और भीतर असली चेहरा वीभत्सता का पर्याय होता है । 

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कविता

भोर नए वर्ष की

पुलकन से भर गई

भोर नए वर्ष की......

किन्नरियाँ सूर्य की 

गुनगुना उठी भजन

जीवन के वेद के सूक्त का

हुआ सृजन 

पग पग पर नव छवियाँ

उभरी उत्कर्ष की....

संकल्पित प्राण ले 

बढ़ रहे नवल चरण

भेद रहीं दृष्टियां 

घनी भूत आवरण

यत्र-तत्र होने लगीं

सभायें हर्ष की.....


पं. गिरिमोहन गुरु ‘नगरश्री’

नर्मदापुरम् (म.प्र.)



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कहानी

श्री दीपक गिरकर, कथाकार, इंदौर, मो. 9425067036


तूफ़ान थम गया था

आज आशुतोष के सामने मानो कॉलेज के पुराने दिन और यादें डायरी के पन्नों की तरह फड़फड़ाने लगीं । कल्पना सत्रह साल की अल्हड़ किशोरी थी । लम्बा छरहरा बदन, गोरा रंग, आकर्षक चेहरा, सलीक़े से कढ़े बाल और हिरन जैसी बड़ी-बड़ी आँखें । जब वह हँस रही थी तो उसके गालों में डिम्पल पड़ रहे थे । कॉलेज की चमचमाती यूनिफॉर्म पहने वह बेहद सुंदर लग रही थी । उसकी देह में, आँखों में, मुस्कान में ऐसा जादुई आकर्षण था कि जो भी उसे देखता अभिभूत हुए बिना न रहता । उसकी आँखों में एक अजीब सा आमंत्रण, अजीब सा खिंचाव था । उसकी मुस्कान ने आशुतोष के दिल में अजीब सी हलचल मचा दी थी । समय अपने पंख लगाये गुज़रता जा रहा था और इसी गुज़रते वक्त के साथ आशुतोष, कल्पना और अमन तीनों की दोस्ती धीरे धीरे गहरी होती गई, कॉलेज में भी तीनों हमेशा साथ ही होते थें, पूरे बैच में तिकड़ी बहुत फेमस हो गई थी । अपने यौवन और शोख अदाओं के बल पर कल्पना आशुतोष के दिलोदिमाग़ में पूरी तरह उतर गई थी । कल्पना जब खिलखिलाकर हँस पड़ती तो ऐसा लगता जैसे मंदिर में झूलती छोटी छोटी घंटियां खनखना उठी हों । कल्पना के काले-लम्बे बाल नागिन की तरह थे । आशुतोष कॉलेज के दिनों में उन बालों से खेला करता था और उसे एक पारलौकिक सुख की अनुभूति हुआ करती थी । तब उन बेजान बालों में भी उसे कितना रोमांस अनुभव होता था । आशुतोष की चाय खत्म हो चुकी है, किन्तु विचारों का प्रवाह थम नहीं रहा है… 

कल्पना, आशुतोष की बेहद अज़ीज़ दोस्त, जो बाद में आशुतोष की पत्नी बन गयी थी, की मुस्कराहट से आशुतोष को बेहद सुकून मिलता था । दोनों की लव मैरिज हुई थी । शादी के बाद वे कश्मीर घूमने गए थे । वहां कल्पना किसी चंचल हिरणी सी कुलाचें भरने लगी थी । खुशी जैसे उसके अंग अंग से फूट रही थी । कश्मीर की सुन्दर प्राकृतिक छटा देखकर कल्पना का मन आनंद से सराबोर हो गया था । शादी के चंद साल ख़ुशनुमा गुज़रे । अंकुर व अखिल के आने से जीवन की बहार में चार चाँद लग गए । कल्पना शादी के पहले से ही नौकरी कर रही थी । आशुतोष के परिवार में सभी कल्पना को बहुत पसंद करते थें । ऑफ़िस में भी कल्पना ने अपने काम से सभी का मन जीत लिया था । यही कारण था कि बॉस ने उसे एक काम के सिलसिले में दिल्ली भेजा था । वहाँ दिल्ली ऑफ़िस में उसकी मुलाक़ात अमन से हुई । अमन भी कल्पना की ही कंपनी में दिल्ली में पदस्थ था । अमन कल्पना को देखता ही रह गया । आज गहरे गुलाबी रंग की सिन्थेटिक साड़ी में कल्पना बेहद खूबसूरत लग रही है । दो बच्चे होने के बाद गदबदी भी हो गई है । कल्पना दिल्ली तीन दिन के लिए गई थी लेकिन वह दिल्ली में सात दिन रही और इन सात दिनों में अमन कल्पना के साथ ही रहा । कल्पना दिल्ली से लौट आयी थी लेकिन यह कल्पना आशुतोष की कल्पना नहीं थी । वह पूरी तरह से अमन के प्यार में रंग चुकी थी । 

अमन ने अपना स्थानांतरण कल्पना और आशुतोष के शहर में ही करवा लिया था । कुछ दिनों से कल्पना के रंगढंग बदल गए थे । आजकल वह अपने ऑफिस में सजधज कर जाने लगी । कल्पना की और अमन की नजदीकियां बढ़ने लगीं । किसी अनजानी सी डोर मे बंधी वह धीरे-धीरे अमन की ओर खींचती जा रही थी । और अमन उसकी ओर । एक दिन जब कल्पना बाथरूम में नहाने गई थी तब आशुतोष ने उसके मोबाइल में अमन का एक मैसेज पढ़ लिया था - "कल्पना, तुमने अपने पंख क्यों सिकोड़ रखे हैं? क्यों डरती हो उड़ने से? निरभ्र, अनंत आकाश है तुम्हारे सामने । बंधनों को खोलने की कोशिश तो करो । "

एक दिन कल्पना के ऑफिस में अमन की हरकत ने आशुतोष को झकझोर दिया । अमन के हाथ में कल्पना का हाथ था और वह कल्पना के बहुत पास था । इतना पास कि आशुतोष को देखते ही दोनों चौक गए और छिटक कर दूर खड़े हो गए । आशुतोष के लिए यह अप्रत्याशित था । आशुतोष के क्रोधित चेहरे का बदलता रंग कल्पना से छिपा नहीं रहा था । आशुतोष उलटे पाँव लौट आया । उसका चेहरा क्रोध और अपमान से लाल हो चला था । आशुतोष को ऐसी उम्मीद नहीं थी । आशुतोष का चेहरा अचानक स्याह पड़ गया और देखते ही देखते उस पर बेचारगी के भाव चस्पा हो गया था । जाने, कब, कहां और कैसे आशुतोष का सबसे बेस्ट फ्रेंड अमन आशुतोष और कल्पना के बीच आ खड़ा हुआ था । आशुतोष को कल्पना कभी बेवफ़ा लगती तो कभी बेचारी । वह अजीब मानसिक दौर से गुज़र रहा था । खोया-खोया सा । उसे लगता कल्पना उससे दूर होती जा रही है और अमन एक शिकारी की तरह उसका शिकार कर रहा है । जाने कितने दिन आशुतोष और कल्पना के बीच एक सन्नाटा पसरा रहा । 

आशुतोष और कल्पना के बीच एक ख़ामोशी का रिश्ता बनता चला जा रहा था । आशुतोष समझ नहीं पा रहा था कि कल्पना के मन में क्या चल रहा था । आए दिन घर में छोटी-छोटी बातों पर चखचख होनी शुरू हो गई । कल्पना के चेहरे के भाव बदलने लगे थे । आशुतोष को अमन की मौजूदगी घाव पर नमक का काम करती है । आशुतोष एक सप्ताह के लिए ऑफिस के काम से मुंबई गया था लेकिन उसका काम तीन दिनों में ही पूरा हो गया तो वह अचानक अपने शहर लौट आया । उस दिन बाहर का मौसम अचानक बिगड़ गया था । बादल गरज रहे थे । बिजली कड़क रही थी । भयंकर तूफ़ान आया था । इस तूफ़ान ने भारी तबाही मचाई थी । इस तूफ़ान की वजह से बहुत नुक़सान हुआ था । यही नहीं, इस तूफ़ान ने बर्बादी का आलम दिखाया था । ये ऐसी क़यामत थी जिसे इससे पहले न देखा था और न ही सुना था । इस तूफ़ान से आशुतोष के सपनों का महल भरभराकर धराशायी हो गया था । कभी कभी जीवन में कुछ ऐसा घटित होता है जिसका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता । दरवाजे की घंटी पर बड़ी देर तक हाथ रखने पर भी जब दरवाजा नहीं खुला तो आशुतोष को फिक्र होने लगी । ‘आज इतवार है । कल्पना ऑफिस नहीं गयी होगी । दरवाजे पर ताला भी नहीं है । इस का मतलब कहीं बाहर भी नहीं गयी है । तो फिर इतनी देर क्यों लग रही है उसे दरवाजा खोलने में?’ आशुतोष सोचने लगा । 

आशुतोष ने जोर से दरवाजा ठोकना शुरू किया । तब भी दरवाजा नहीं खुला । उसे अमन के जोरदार ठहाके की आवाज सुनाई पड़ी । कंधे पर बैग उठाए आशुतोष अनमना सा खड़ा था कि खटाक से दरवाजा खुला । कल्पना आशुतोष को देखकर हैरान रह गई । उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई । उस के माथे पर पसीना आ गया । उस का घबराया चेहरा और घर में आशुतोष की गैरमौजूदगी में अमन को देख आशुतोष का माथा ठनका । गुस्से में आशुतोष की त्योरियां चढ़ गईं । घबराहट के मारे आशुतोष की धड़कनों की गति असामान्य हो गयी । रक्त रगों में तेजी से दौड़ने लगा था, साँस अंदर ही छूट गयी, हाथ-पैर फूलने लगे । पूछा, ‘‘अमन यहाँ क्या कर रहा है ?’’ किसी तरह इतने शब्द कहने को मुँह खुला, "मेरा ख्याल है तुम दोनों यहाँ से चले जाओ । अमन बिना कुछ कहे वहां से चला गया । कल्पना ने एक भी शब्द मुंह से नहीं निकाला । एक लंबी और गहरी ख़ामोशी धुएँ की तरह हल्के-हल्के पूरे कमरे में फैल गई । आज आशुतोष खून का घूँट पीकर रह गया । भरोसे की वह नींव जिस पर आशुतोष का रिश्ता खडा था अचानक से भराभराकर गिर गई । इस घटना से आशुतोष का मन व्याकुल होकर विक्षोभ और निराशा में डूब गया । अपने अस्तित्व को उसने कुचला हुआ महसूस किया । आज आशुतोष की आँखों से विश्वास की पट्टी हट चुकी थी लेकिन बहुत देर हो चुकी थी । 

आशुतोष और उसके दोनों बेटे कल्पना के लिए तड़प रहे थे । कल्पना अमन के ख्यालों में खोई खोई सी रहती । कल्पना का प्यार और आशुतोष का एकाकीपन समांतर रेखाओं पर विचरण कर रहा था । समय की रेल चल रही थी । दोनों पटरियाँ थरथरा रही थी । पर अलग-अलग, समानांतर, दिशा एक पर अलगाव विलक्षण । एक साल तक जब कल्पना अमन की खुमारी में थी तो दोनों बेटे आशुतोष की धड़कन बन गये थें । तीनों को बस एक ही डर सता रहा था कि कल्पना उनकी दुनिया से अलग न हो जाए । वह हाथ झटक रही थी और बाप-बेटे उसे कस कर अपनी ओर खींच रहे थे । इस अदृश्य रस्साकस्सी में सबके हाथ छिल गये थें । समय बीतता गया, आशुतोष और कल्पना के बीच दूरियाँ बढ़ती गईं । आशुतोष को लगता जैसे कल्पना उसकी दुनिया से दूर चली जा रही है और उसमें उसे रोकने की ताकत बची ही नहीं है । कल्पना के लगातार उपेक्षित व्यवहार से वह तिलमिला उठा था । अब कहने सुनने के लिये कुछ शेष नहीं बचा था । आशुतोष के मन में अनेकों प्रश्न उठ रहे थे । अन्त में उससे रहा नहीं गया और एक दिन अकेले में उसने उसकी कलाई ज़ोर से पकड़ कर, उसकी आँखों में झाँकते हुए बहुत ही अपनापन से पूछ बैठा : “कल्पना सच बताओ, आख़िर माजरा क्या है? तुम क्या चाहती हो?" 

"मैं अब अमन के साथ रहना चाहती हूँ । " 

"क्या बक रही हो कल्पना, होश में तो हो?" मानों सातवें आसमान से गिरा था आशुतोष । कल्पना ने इतना कड़वा सच कहा कि आशुतोष के हाथ पाँव फूल गए । वह कुर्सी से खड़ा हुआ तो पैर लड़खड़ा गए और धम्म से फिर बैठ गया । साँसें धोंकनी के समान चलने लगीं जैसे अभी मीलों दौड़ कर आया हो । पसीने से तरबतर हो गया । भूल जाना . . . कितना आसानी से कह दिया था कल्पना ने पर क्या ये इतना आसान था आशुतोष के लिए । कल्पना अमन के यहां रहने चली गयी थी और आशुतोष चाय का खाली प्याला हाथ में थामे बुत बना बैठा था । इस अप्रत्याशित प्रहार से आशुतोष एकदम बौखला गया था । उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कल्पना उसे और बच्चों को यों छोड़ चली जायेगी । एक ही झटके में उस ने सारे रिश्तेनाते तोड़ दिए थे । कल्पना के जाने के बाद आशुतोष के दो तीन महीने बहुत कठिनाई से बीते । उसे रह-रह कर कल्पना याद आतीं । वह बिस्तर पर लेटे कल्पना की यादों में डूबता-उतरता रहा । घर के कोने-कोने से जुडी कल्पना की स्मृतियाँ परेशान करती है उसे । उसे लगता कल्पना यहीं कहीं है । वह जानता है कि झूठ है यह सब । मनुष्य का चरित्र कितने बाह्य आवरणों से ढका हुआ होता है । यह उसे अमन के चरित्र से समझ में आया । उसे रह रह कर अपने कमजोर वजूद पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों नहीं वह कानूनी रूप से अलग हो जाता । क्यों आज भी इस रिश्ते की लाश को ढो रहा हूँ? अंत में वह मन में एक टीस दबाए नियति के आगे नतमस्तक हो गया । आशुतोष ने स्वयं को मानसिक रूप से मजबूत किया और समस्या समाधान के लिए उसने दृढ़ता-पूर्वक मन ही मन एक निर्णय ले लिया कि कल्पना को तलाक देना ही एकमात्र रास्ता है । 

वक्त कब रेत की भांति आशुतोष के हाथों से फिसलता गया उसे पता ही न चला । उसका मन बुझ-सा गया था । विश्वासघात और नफ़रत की आग में तो आशुतोष कुछ दिन जला था । कोर्ट ने आशुतोष और कल्पना के रिश्ते पर डिवोर्स की मुहर लगा दी थी । समय सब से बड़ा डाक्टर होता है । जीवन अपने अपने रास्ते पर चल पड़ा था । आशुतोष ने तब से अकेले ही दोनों बच्चों की परवरिश की थी । उस ने अपने बच्चों को कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी । 

समय अपनी गति से गुजर रहा था । दो सालों के बाद आज आशुतोष ने अपने कमरें को अच्छे से देखा होगा…..कमरे का हर सामान कल्पना की याद दिला रहा था और पता नहीं क्यूँ आज उसका मन बहुत बेचैन हो रहा था । दो वर्षों में ही अमन का मन कल्पना से भर चुका था । अमन ने कल्पना को छोड़ दिया था । बारिश की बूंदें, आशुतोष को कल्पना से जुड़े अनगिनत स्मृतियों से रूबरू करवा रही थी । कल्पना को बारिश में भीगना अच्छा लगता था । तूफ़ान थम गया था । अब शान्ति थी । सन्नाटा । भयंकर सन्नाटा । आवाज़ थी तो बाहर नीम के सूखे पत्तों के हिलने की . . . सुर्र . . . सुर्र और उसमें लय मिलाती कल्पना की सिसकियों की आवाज़ । कल्पना के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे । कल्पना की आँखों से पानी गंगा की तरह बह रहा था उसकी हिचकियाँ बंध गई । कल्पना का मन पश्चाताप और ग्लानि से भर उठा । वह बड़बड़ाने लगी आशुतोष, प्लीज मुझे माफ़ कर दो… दूर क्षितिज में इन्द्रधनुष अपनी सतरंगी छटा बिखेर रहा था । 

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कविता

दिसम्बर
खुले नीले आसमान पर -
झीनी सुफे़द बदली का -
चंदोवा हौले हौले छाने लगा ।
हल्की ठंडी बयार रह रह कर ,-
धूप की तेज़ किरणों की चुभन-
की तपिश को , सहलाती सी -
शीतल छुवन से ,- सर्दियों की ,-
अगवानी के लिए तैय्यार सी करती-
नए साल का आग़ाज़ कर रही है !!
साल के ये चंद महीने , पतझड़ के बाद-
आते वसंत का इंगित कर ,-
नव जीवन, नई आस जगा जगा जाते हैं !!
सुश्री प्रभा कश्यप डोगरा, पंचकूला (हरियाणा)

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कविताएँ


सुश्री रश्मि रमानी, इंदौर, मो. 98272 61567

कभी-कभी 

कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है 
अगर मिल जायें गधे के सिर से ग़ायब सींग
तो
लगा दूँ तमाम दुनिया के तानाशाहों के सिर पर
और लोग लें मजा सांडों के लड़ने का
बेवजह सींग भिड़ाने का।
कभी-कभी
सोचती हूं पानी में गयी भैंस के सामने
बजाऊं बीन
और करूं उसकी मनुहार
'हे श्यामल सुंदरी
पगुराना बंद कर
ढेर सारा दूध दे गाढ़ा - गाढ़ा 
ताकि काले, सूखे बच्चे पियें भरपेट
तेरे दूध की तरह दूधिया और देह की तरह
मज़बूत बनें।' 
कभी-कभी 
परेशान होती हूँ कि
कहाँ से लाऊं नौ मन तेल
जिसे देख राधा नाचे! 
अभी तो बचा है छटांक भर तेल 
जिसमें क्या छौंकूं? किसे चुपडूं? 
कभी-कभी 
शेरों को बनाकर जंगल का चौकीदार 
मिमियाती बकरियों की दहाड़ सुनना चाहती हूं। 
कभी-कभी 
मन करता है
कोल्हू के बैल को खोल कर 
कर दूं आज़ाद 
छोड़ दूँ पड़ोसी के खेत में चरने
बरसों बाद ख़ूब खेले- खाये
चैन से बैठकर करे जुगाली। 
मैं जानती हूँ 
ऐसा कुछ कभी नहीं होगा
पर 
शेख़चिल्ली बनने में बुरा भी तो क्या है? 

बीते बरस की आख़िरी रात

रोज रात को बत्ती बुझाकर
एक-एक कर बीते बरस के सारे दिन 
डूबते चले गए अँधेरे में 
और अब! 
बीते बरस की आख़िरी रात 
पल भर बाद
आकाश की ओर निहारती 
घड़ी की सुईयाँ
जैसे ही ढाँप लेंगी एक दूसरे को 
गुज़रते वक़्त की तरह 
लरजती मेरी हथेली 
छुप जाएगी तुम्हारे मजबूत हाथों में
जुगनू की तरह।
सिर्फ़ एक लम्हे के अँधेरे में
मुझे मिल जाएगी इतनी रोशनी 
कि ज़िन्दगी भर पढ़ती रहूंगी 
एक अन्तहीन कहानी
नक्षत्रों की छाँव में
सलामत रहेगा एक अनूठा एहसास
जो शुरू तो होता है
नए साल की रोशनी में
पर 
ख़त्म नहीं होता कभी
बीते बरस की रात की तरह ।


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कविता

सुश्री दलजीत कौर, चंडीगढ़, मो. 9463743144

योद्धा
किसी ने नहीं कहा
जीवन में
युद्ध है अनवर्त
अंदर -बाहर
मुखरित रही भावनाएँ
प्रेम -स्नेह,लोभ -मोह
पर युद्ध
मुख्य रहा सदा
किसी ने नहीं कहा
मिट्टी का बुत नहीं
योद्धा होना है तुम्हें
वजूद की ख़ातिर
आसमान की ख़ातिर
ज़मीन की ख़ातिर
हक़ की ख़ातिर
किसी ने नहीं कहा
बिना युद्ध
कुछ नहीं मिलता
अधिकार भी नहीं
कर्त्तव्य का पाठ पढ़ा
छीन लिया जाता है
हर हक़
किसी ने नहीं कहा
योद्धा हो तुम
लड़ना है युद्ध
सपनों के लिए
अपनों के लिए
अभिव्यक्ति के लिए
हंसी के लिए
सत्य के लिए
ज़रूरी है युद्ध
और सत्य है
योद्धा होना





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