Sahitya Nandini Febuary 2024

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समीक्षा

सुश्री सुमन सिंह चंदेल

झारू और जीवंत व्यक्ति की खूबसूरत दास्तां :
कुछ आँसूं कुछ मुस्कानें ( सन्दीप तोमर )


पुस्तक: कुछ आँसूं कुछ मुस्कानें (आत्मकथा)

रचनाकार: सन्दीप तोमर 

प्रकाशक: इंडिया नेटबुक

प्रकाशन वर्ष:2021

मूल्य: 350/.

आत्मकथा लिखना बेहद जोख़िम भरा काम है । पंजाबी लेखिका अजीत कौर का कथन है - "आत्मकथा लिखना अंगारों पर चलने जैसा है । " बावजूद इसके लेखक अपनी निजी दुनिया के द्वार, उसकी तमाम खिड़कियाँ पाठकों के लिए खोल देते हैं । इन खिड़कियों को खोलने के पीछे उनकी कोई मंशा तो होती ही होगी? शायद वे अपने जिए जीवन में कुछ तो इतना महत्वपूर्ण मानते होंगे कि अपने बारे में बताकर देश-दुनिया को कुछ चेताना कुछ सीख देना चाहते हों, या मात्र सनसनी पैदा करना उनका उद्देश्य होता है? दोनों ही बातें अपनी-अपनी जगह सही प्रतीत होती हैं ये भी सच है कि विवाद या सनसनी पैदा करने के लिए भी आत्मकथाएं हमेशा से लिखी जाती और छपती रही हैं, उका भी उदेश्य भले ही विवाद और सनसनी रहा हो लेकिन लेखक की निजी ज़िंदगी की मुकम्मल तस्वीर तो नज़र आती ही है । पाठक लेखक के संघर्षों, विफलताओं और उपलब्धियों से रूबरू होता है बाज़दफा लेखक के बारे में पहले से बनी राय भी बदल जाती है । 

लेखक को कोई एक कृति उसे बदनामी दिलाती है तो किसी कृति विशेष से वह नेकनामी भी बटोर लेता है । ये बदनामियां मंटो के हिस्से भी आईं और इस्मत चुग़ताई को भी इसने नहीं बख्शा । 'चितकोबरा' की लेखिका के रूप में चर्चित वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग ने भी बहुत बदनामियाँ कमाई । साहिर के प्रेम में पगी अमृता ने भी बदनामी और नेकनामी का स्वाद खूब चखा । ऐसा ही एक लेखक है- “सन्दीप तोमर” जिसने अपने उपन्यास “थ्री गर्लफ्रेंड्स” से आपबीती का तमगा पाया तो “एस फॉर सिद्धि” जैसे उपन्यास की रचना करके बोल्ड लेखन का तमगा हासिल किया, फिलहाल जिक्र करना चाहूंगी, हाल ही में प्रकाशित उनकी कुछ आँसूं कुछ मुस्कानें (यात्रा-अंतर्यात्रा का अनुपम शब्दांकन) का । वैसे इस यात्रा-अंतर्यात्रा का अनुपम शब्दांकन शब्द का सुझाव भूमिकाकार का है जो किताब के फ्लेवर के एकदम अनुरूप प्रतीत होता है । मुझ जैसी पाठिका से पूछा जाए तो मैं इसे संस्मराणत्मक कोलाज कहना अधिक पसंद करुँगी । पारंपरिक आत्मकथाओं की तरह इसमें कथा वृतांत लेखक के जन्म से क्रमानुसार आगे नहीं बढ़ता, इसमें तिथियों के क्रमवार ब्योरे नहीं हैं । परिवार के किसी एक सूत्र को पकड़कर लेखक अपनी कथा सुनाने का उपक्रम नहीं करता, यहाँ सिलसिलेवार जीवन गाथा लिखने के परम्परागत तरीके को ध्वस्त करते हुए लेखक जब जिस बात की महत्ता को जरुरी समझता है, वह पूरा का पूरा वाकया स्वतः प्रस्तुत हो जाता है । किसी एक सिरे को लेकर लेखक उसमें गांठ लगाकर तुरंत ही दूसरे सिरे को हाथ में पकड़ लेता हैं और सहज ही उन सिरों को आपस में जोड़ ऐसा कोलाज बनाता है कि हमें लगने लगता है कि जो कुछ पल पहले अटपटा सा था, वह ही तो आवश्यक था, स्मृतियों की जब जिस डोर की जरुरत है लेखक उसे पकड़कर रंग-बिरंगी कालीन बिछा देता है उसकी गांठे पाठक को आंसुओं का अहसास कराती हैं तो मुलामियत से पाठक आनंदित हो मुस्कुरा उठता है । इस तरह विविध जीवन स्मृतियों से तैयार की गयी कालीन में पीड़ा के पैबंद भी साफ नजर आते हैं तो मन को सुकून देने वाले पल भी आते हैं । पाठक लेखक और उसके जीवन में घटने वाले प्रसंगों पर पूरे मन और आग्रह के कभी हँसता है तो कभी रोता है । कभी सुखद स्मृतियों की चुलबुली यादें उसे गुदगुदाती हैं तो कहीं दुख और अवसाद की घाटी में वह खुद को भी डूबा हुआ पाता है । इस लेखक की यह बड़ी खूबी है कि वह अपनी कथा के प्रवाह में पाठकों को इस तरह बहा ले जाता है कि पाठक सब कुछ भूलकर उसके साथ बहता चला जाए, यानी लेखक एक कटपुतली का खेल दिखाने वाले मंदारी की तरह हर डोर को खुद के इशारे से चलाते हुए जब मन होता है पाठक के आँसू पोछने लगता है । निःसंदेह सन्दीप की किस्सागोई में पाठक इतना रम-बस जाता है कि चाहकर भी पुस्तक रखने की ज़हमत वह नहीं उठा पाता । पाठक इस स्मृति-कथा में शामिल होकर, उनकी उँगली पकड़कर कोलंबस हुआ जाता है । 

एक स्मृति कथा की एक खूबी यह भी है कि उसमें सिर्फ सन्दीप नहीं है बल्कि वह थोड़ा कम ही है लेकिन इसमें सन्दीप से जुड़े वो तमाम लोग हैं जिनसे उसका या उससे जिनका भी जीवन किसी न किसी रूप में प्रभावित हुआ है । यहाँ उनके उपन्यास थ्री गर्ल्सफ्रेंड्स की नायिकाओं की उपस्थिति भी है । सन्दीप से जुड़े हुए घर-परिवार, उसकी दुनिया के लोग हैं और उसमें स्त्रियां भी हैं, जो कभी प्रेमिका, कभी बहन तो कभी मां के रूप में उपस्थित हैं तो कभी एक निर्मल मन सखी के रूप में हैं । स्त्री मन या सख्य भाव वाले पुरुष भी अनायास ही इस स्मृति यात्रा में शामिल हो गये हैं । खुद लेखक अपनी इस कथा के विषय में कहता है-

“ताकि लिखा जा सके

वो लम्हा, जब समझ आये

मेरे “मैं” होने के असल मायने,

और मेरी पीड़ा बन जाए

पूरे ब्रह्माण्ड की गाथा

उसी गाथा के साथ हूँ

मैं को “मैं” होने के लम्हों की मानिंद । “

 आत्मकथात्मक या संस्मराणत्मक गाथाएं अक्सर बहुत नीरस होती हैं, पाठक उसकी बोझिलता से घबरा उठता है, यहाँ लेखक ने इस बात का बड़ा ख्याल रखा है कि पाठक स्वयं से कोई राय न बनाये, उसने बड़े सलीके से गंभीर से गंभीर प्रसंग में भी कुछ ऐसे रोचक प्रसंग जोड़ दिए है कि पाठक का मुस्करा देता है और पुस्तक के पन्नों से गुज़रते हुए कब आखिरी सफ़े़ तक पहुंच जाता है, यह उसे पता ही नहीं चलता । 

सुभाष नीरव की लिखी भूमिका को पढ़कर ही इस स्मृति गाथा के फ्लेवर का अंदाज़ा लग जाता है । बानगी देखिए - " सन्दीप तोमर की यह यात्रा-अंतर्यात्रा भावात्मक और सांसारिक जीवन के उन पहलुओं पर भरपूर प्रकाश डालती है जो उनकी रचना-यात्रा में निर्णायक रहे । तमाम विरोधाभासों के बीच से यह लेखक अपनी जिजीविषा, अपनी सादगी, आदमीयत और रचना-संकल्प को नहीं टूटने देता । जीवन-स्थितियों के साथ-साथ वह अपने दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है और लेखन की रचनात्मक बेकली और तत्कालीन लेखकों की ऊँचाइयों-नीचाइयों से भी परिचित कराता है । इसके साथ-साथ वह परिवेशजन्य उन स्थितियों को भी पाठक के सामने रखता है जिन्होंने उनकी संवेदना को झकझोरा । " 

फिर लेखक भी कहता है "भरपूर परिवार के होते हुए भी, मैं इस पहचान वालों की दुनिया में अजनबी बना रहा । कहने को मेरे आस-पास सब अपने थे लेकिन शायद साथ कोई भी न था, ये सफ़र अकेले ही तय करना होता है ।" 

अलग-अलग उप शीर्षकों में सिमटी इस कथा का प्रारंभ “मेरे सरोकार मेरे अल्फाज” से होता है, वे अपने परिवार से अपनी आपबीती का आगाज़ करते हैं । फिर उसमें बहुत से दिलचस्प किस्से जुड़ते चले जाते हैं । वे लिखते हैं- जब मैं पैदा हुआ, तो कच्चा घर टूटकर पक्का बन चुका था, बिजली का कनक्शन भी आ गया था । मैं मुश्किल से एक बरस का था, घुटनों के बल चलना छोड़कर, चारपाई पकड़ तेजी से दौड़ता था, शायद ये पहले साल के साथ ही चलने का आखिरी साल भी था, जीवन हमेशा के लिए ठहर सा गया था । माँ ने घर पर ही रखकर हाथ में कलम थमाई, जो आज तक हाथ में है, छूटती ही नहीं । “

वह "पिता, माँ, रिश्तेदारों के अलावा बहनों-भाइयों और उनसे जुड़े मददगार मित्रों, शिक्षिक, सहपाठियों आदि को भी समेटता चलता है । 

बात अगर साफगोई और उसके साथ ही बेबाकी की करें तो उसपर यह अफसाना पूरी तरह से खरा उतरता है । आत्मकथा का लेखक यह गुर जानता है कि कितना छिपाना है और कितना बताना है । सन्दीप से इस बात की पड़ताल की जा सकती है कि उन्होंने कितना छिपाया है लेकिन बात जब बेबाकी से लिखने की आती है तो वह अपने माता- पिता आदि के बारे में भी बड़ी तटस्थता लेकिन आत्मीयता के साथ लिखते हैं । बानगी देखिये- “पिताजी ने बहुत गुस्सा किया, एक छोटे से खटोले पर मुझे लगभग पटकते हुए पिताजी ने कहा- “#%#%#%#” । उस वक़्त पता नहीं चला कि ये कौन सी भाषा थी और ये कौन सा गुस्सा था? एक बच्चे के प्लास्टर के भीगने की चिंता दूसरे बच्चे के अस्तित्व, उसके बालमन को आहत करने का सबब कैसे बनी- आज तक समझ नहीं पाया । आज जब ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ तब महसूस हो रहा है मानो सब कुछ चलचित्र की तरह आँखों के समाने चल रहा था, तब मेरी उम्र मात्र ६ या ७ साल रही होगी.... । 

ये मात्र एक घटना है जब घर से ही मन आहत हुआ.. कितनी ही बार उस माँ के मुँह से भी ऐसे शब्द सुनता-जिसने मेरे इलाज में अपनी उम्र और जवानी का एक बड़ा हिस्सा फूँक दिया, एक तरफ उनका त्याग, समर्पण, और पानी की तरह अपने इलाज पर पैसा बहाते देखता दूसरी तरफ ##%#%# जैसे शब्द सुनता तो समझ नहीं पाता कि क्या सही है और क्या गलत है?”

सन्दीप अपने पेरेंट्स की खूबियों के साथ ही खामियों का जिक्र भी करते हैं । उनकी नजरों में न तो वे अतिमानव हैं और ना ही खलनायक या कोई मुजरिम । पेरेंट्स सबके ही अति-साधारण होते हैं, बस संघर्ष के तरीके उन्हें समाज में विशिष्ट बनाते हैं । 

जब कोई लेखक अपनी आत्मकथा लिखता है तो प्रायः वह अपने समकालीन कथाकारों पर भी लिखता है और वह लिखा हुआ कभी-कभी विवादास्पद भी हो जाता है । मृदुला जी ने भी अपने कुछ समकालीन हिंदी और हिंदीतर लेखकों को अपने किस्सों में शामिल किया है, लेकिन यहाँ वह सब बड़ी उदारता और शालीनता के साथ आया है । वह उनके व्यक्तित्व के सकारात्मक पक्षों पर बात करते हुई उनके विरोधाभासों पर मुस्करा कर निकल जाते हैं । अपने लेखन में हुए पदार्पण पर वे लिखते हैं- “साहित्य में पदार्पण जिसकी मार्फ़त हुआ, वह अब साहित्य की दुनिया में न के बराबर थी, उसके विवाहोपरांत मिलना-जुलना तो छूट ही गया था लेकिन छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में उसकी अनुपस्थिति भी खलने लगी थी । “ स्पष्ट है कि वे हर किसी के योगदान को भूलते नहीं हैं । वे कहते हैं- “ये जो रूहानी रिश्ते होते हैं इन्हें कोई नाम कैसे दे सकता है, कौन साहिर हैं, कौन अमृता और कौन इमरोज? अपनी-अपनी जगह हर कोई साहिर हैं, हर कोई अमृता लेकिन इमरोज तो एक है । ... वो एक रूह दूसरी रूह में अमृता को खोजने लगे तो उसे खुद इमरोज हो जाना होगा, और इमरोज हो जाना यानि ये भूल जाना कि यहाँ लेने का भाव नहीं, उद्देश्य सिर्फ देना हो, करीब होने और दूर होने के मायने ही शून्य हो जाएँ और वह रूह दूसरी रूह से कहे-

अच्छा चलो तुम अमृता हो जाओ

और मैं बना रहूँ अदना सा इमरोज । 

 बचपन के गमज़दा दिनों का अवसाद पाठकों को भी दुख और तकलीफ़ से भर देता है लेकिन लेखक का उनसे उबर कैरियर पर फोकस करना, प्रेम में टूटने से उबरना, विकलांगता को अपने जीवन की बाधा न बनने देना राहत के सुखद झोंके की तरह लगता है । 

कुछ रिश्ते खून के होते हैं, कुछ कागज़ के तो कुछ मन के । मन और प्रेम का रिश्ता सबसे ज्यादा मजबूत होता है, पचास से भी कम उम्र के जीवन में लेखक के पास खून के रिश्तों के अलावा ऐसे रिश्तों की कमी नहीं है जिनके बल पर वह अपने दुख-अवसाद और परेशानियों के गह्वर से बाहर निकल आते हैं । 

फिर इन सबके बीच में “एक लेखक की मौत” कथा भी है जो विचलित करती है लेकिन साहस भी देती है कि हारना या मरना कोई विकल्प नहीं है । अपनी लड़ाई हर हाल में जारी रखनी चाहिए । 

एक सजग और संवेदनशील लेखक द्वारा लिखी गई इस बेमिसाल कथा को पढ़कर अच्छा लगा, बस एक सवाल मन में उठता रहा कि प्रेम पर लिखने वाले इस लेखक ने बहुत कुछ लिखते हुए क्यों अपनी निजी प्रेम कथा को कम विस्तार दिया है? 'एक अपाहिज की डायरी’ में उनके पारिवारिक और सामाजिक संघर्ष की बहुत सी झलकियाँ मिली थीं, जिन्हें इस रचना में बहुत कम स्थान मिला है हालाकि उसमें कुछ नये आयाम और अध्याय भी जुड़े हैं । साहित्य के एक चर्चित युवा लेखक की आपबीती को पढ़ना स्वयं को समृद्ध करना है । 

परिचय

सुमन सिंह चंदेल, मो.  8126228658

जन्म : उत्तर प्रदेश के एक गांव में

शिक्षा : एम. ए. ( चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय) 

सम्प्रति: शिक्षण

मुज़फ्फरनगर, उत्तर प्रदेश

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समीक्षा

सुश्री वंदना गुप्ता, ई-मेल - rosered8flower@gmail.com

डॉ. रेनू यादव, ई-मेल - renuyadav0584@gmail.com


‘काला सोना’ मेरी नज़र में 

पुस्तक – काला सोना 

लेखक – रेनू यादव

विधा – कहानी

संस्करण – प्रथम, 2022

प्रकाशन – शिवना प्रकाशन, सीहोर (म.प्र.)

कहानियों का अपना एक वृहद् संसार है । हर जीवन एक कहानी है । हमारे आसपास ही घूम रही है लेकिन वहाँ से सन्दर्भ को उठाकर कहानी के रूप में प्रस्तुत करने की कला सबको नहीं आती । इस कला में केवल कथाकार ही माहिर होते हैं । रेनू यादव एक उभरती हुई कथाकार हैं । इनका पहला कथा संग्रह “काला सोना” शिवना प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है । 

किसी भी लेखक के लिए प्रथम संग्रह चुनौतीपूर्ण होता है । उसे कथाकार के रूप में स्वीकृति मिलेगी अथवा नहीं । इस सम्भावना को रेनू यादव ने एक सिरे से नकार दिया है । उनके पास न केवल कथ्य है अपितु भाषा और शिल्प भी है । जिस क्षेत्र विशेष की कहानियाँ हैं वहीं की बोली को उन्होंने प्रधानता प्रदान की है । इसके अतिरिक्त कहीं भी दोहराव नहीं है । मुख्य स्वर स्त्री स्वर है लेकिन विषय भिन्न हैं । पाठक सोचता है नया क्या देंगी, सब तो कहा जा चुका लेकिन लेखिका नया देती हैं, समाज का वो चेहरा दिखाती हैं । 

पहली ही कहानी ‘नचनिया’ के माध्यम से उन्होंने स्त्री-विमर्श नहीं अपितु पुरुष-विमर्श का डंका बजाया है । पुरुष के लिए जीवन सहज नहीं होता जैसे स्त्री के लिए नहीं होता । पुरुष के सर पर घर परिवार की जिम्मेदारी होती है जिसके लिए उसे कभी कभी वो कार्य करना पड़ता है जो समाज की निगाह में स्वीकार्य नहीं । ऐसे ही विषय को इस कहानी में उठाया है जहाँ नचनिया का नाच तो समाज देखना चाहता है, उसे पाना भी चाहता है लेकिन उसकी हकीकत से वाकिफ नहीं होता । कभी कभी विवशता में पुरुष को भी स्त्री का रूप धर ये स्वांग करना पड़ता है तो ऐसे में उसके घरवालों को, समाज को वो स्वीकार्य होगा अथवा नहीं इस प्रश्न का उत्तर कहानी पढ़कर ही जाना जा सकता है । 

शीर्षक कहानी ‘काला सोना’ समाज के घिनौने चेहरे को ही नहीं उकेरती बल्कि गरीबी के कारण अपनी पत्नी, बेटियों तक का सौदा कैसे होता है ? अफीम की खेती के साथ शोषण की खेती जो होती है उसे प्रस्तुत करना ही कला है और उसमें रेनू यादव सिद्धहस्त हैं । इस कहानी में बिखराव की तमाम संभावनाएँ थीं लेकिन कहीं नहीं भटकीं बल्कि देह विमर्श पर न अटककर मुद्दे को गहनता से उठाया है जो वास्तव में स्त्री-विमर्श को इंगित करता है । 

‘मुखाग्नि’ कहानी वास्तव में स्त्री-विमर्श को अगले पायदान पर ले जाने वाली कहानी है । एक जवान की पत्नी का जीवन कैसा होता है उसे तो कहानी इंगित करती ही है साथ ही उसकी विधवा होने पर भी अपने विवेक का साथ न छोड़ स्वयं निर्णय लेने में कैसे सक्षम होती है ? उसका बखूबी चित्रण लेखिका करती हैं । जब अपने पति को मुखाग्नि देने के लिए, शोषण के खिलाफ खड़े होने के लिए वो पितृसता के खिलाफ खड़ी हो जाती है और पुत्र न होने पर पुत्री के हाथों मुखाग्नि देने के निर्णय लेती है । दीनहीन से सक्षम स्त्री का सफ़र तय करती हैं इनकी स्त्रियाँ अर्थात् स्त्री पात्र । 

‘छोछक’ कहानी समाज में व्याप्त दहेज़ प्रथा, बेटी के पिता होने की विडंबना का चित्रण है । ‘कोपभवन’ कहानी पुरुष-विमर्श का एक और रूपक रचती है साथ ही समलैंगिक संबंधों की, जिसकी शहरों में भी सहज स्वीकृति नहीं, वहीं गाँव में उनका क्या भविष्य होता है उसको तो दर्शाती ही है, साथ ही स्त्री विमर्श का स्वरूप भी प्रस्तुत कर देती है जहाँ एक लड़की को फुटबाल की भाँति एक से दूसरे पाले में जब डाला जाता है तब प्रतिकार के पायदान पर चढ़कर वो अपने लिए जमीन खड़ी कर लेती है, ये भी उभरकर सामने आता है । 

‘टोनहिन’ कहानी के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीति पर लेखिका प्रहार करती हैं साथ ही कैसे लिंगभेद के कारण एक स्त्री का जीवन अभिशप्त हो जाता है सहजता से प्रस्तुत करती हैं । हमारा समाज कितना भीरु है इस कहानी को पढ़कर जाना जा सकता है । टोना-टोटके पर विश्वास है, इंसान पर नहीं और जब किसी को इतना मजबूर कर दिया जाए कि उसके लिए जीने का विकल्प ही न बचे तब जिस चीज से समाज डरता है उसे ही हथियार भी बनाया जा सकता है, इस कहानी को पढ़कर समझ आता है । भय से बड़ा कोई भूत नहीं होता मानो ये कहानी इसी पंक्ति को सार्थक कर रही है । 

इस समाज में जाने कितनी विकृतियाँ कुरीतियाँ हैं जिनसे अक्सर शहरी दुनिया अनजान ही रहती है । एक लड़की विधवा हो जाए तो जैसे वो मनुष्य की श्रेणी में ही नहीं आती । उसे जहाँ चाहे जैसे चाहे हांक दिया जाए और वो गूंगी गाय सी चल दे, यही समाज चाहता है और करता भी है । विधवा का विवाह अपने स्वार्थ हेतु पाँच वर्ष के बच्चे से भी करने से नहीं हिचकता । ये समाज कितना संवेदनहीन है, इसका चेहरा इस कहानी में भी नज़र आता है लेकिन लेखिका ने कमजोर स्त्री को सशक्त स्त्री में कैसे परिवर्तित किया है, यह कहानी पढ़कर ही जाना जा सकता है, जहाँ अपने निर्णय वह स्वयं लेती है और समाज की बनायी लक्ष्मण-रेखाओं को लांघ जाती है । इसका दर्शन कहानी चउकवँ राड़ कहानी के माध्यम से होता है । 

‘डर’ कहानी कोरोनाकाल के भय का एक ऐसा चेहरा है जिसमें कल्पना और यथार्थ दोनों ही एक दूसरे में गड्डमड्ड होते नज़र आते हैं । ‘खुखड़ी’ कहानी स्त्री-सशक्तिकरण का सफ़र तय करती एक ऐसी स्त्री की कहानी है जहाँ उसका कोई अस्तित्व ही नहीं, जैसा कि हमारी पुरखिनों ने जीवन जीया लेकिन एक स्त्री को गुमान दो पर ही होता है या तो मायके पर या पति पर, ऐसे में पति के लिए जिस स्त्री का महत्त्व ही न हो, उनका जीवन कितना दुश्वार होता है, हम जानते हैं, वह कौड़ी कौड़ी के लिए मोहताज हो जाती हैं । ईया के माध्यम से ऐसी ही स्त्री का चित्रण किया है जहाँ उसकी दुश्वारियों, तकलीफों की कोई इन्तहा ही नहीं है लेकिन एक स्त्री को अपने मायके से प्राप्त वस्तु पर कितना अधिकार होता है और उसका सदुपयोग वह कैसे करती है कि मरने से पहले आने वाली पीढ़ी को भी एक शिक्षा और दिशा दे जाती है, इस कहानी के माध्यम से प्रस्तुत कर लेखिका ने दिखावटी नहीं अपितु वास्तविक स्त्री विमर्श किया है । 

‘मुंहझौंसी’ कहानी स्त्री पीड़ा का आईना है जहाँ पाठक ये सोचने को विवश हो जाता है आखिर स्त्री के जीवन में पीड़ा का कोई अंत है भी अथवा नहीं ? उस पर एक स्त्री केवल भोग्या भर है, केवल देह, जब ऐसी मानसिकता हो, वहाँ कीड़े मकोडों-सी ज़िन्दगी के मध्य यदि छल के दलदल में कोई स्त्री फंस जाए उसका क्या हश्र होता है ? इस कहानी को पढ़कर जाना जा सकता है । अपने बदले के लिए भी स्त्री की देह का उपयोग किया जाता है, उसे तेज़ाब फेंक झुलसा दिया जाता है । वहीं लोभ का चेहरा भी ये कहानी उकेरती है जहाँ सहानुभूति भी महज आवरण भर होती है, ऐसे में स्त्री टूट जाती है लेकिन यही लेखिका के लेखन की खूबसूरती है उनके स्त्री पात्र टूटते नहीं बल्कि सहजता से खड़े होते हैं और समाज की कुरीतियों से लड़ जाते हैं, अपना एक मुकाम बनाते हैं । 

सभी कहानियाँ ग्रामीण परिवेश का चित्रण हैं जहाँ आज भी अशिक्षा, गरीबी, लाचारी का बोलबाला है । साथ ही पितृसत्ता की जड़ें कितने गहरी हैं कि उनसे आज भी स्त्री मुक्त नहीं हो पा रही । केवल वही स्त्रियाँ आगे बढ़ पा रही हैं जो कुछ जागरूक हो गयीं और अपने निर्णय स्वयं लेने हेतु समाज से लड़ गयीं । यही है वास्तविक स्त्री-विमर्श का स्वरूप । लेखिका को कहानियों हेतु साधुवाद । 


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समीक्षा

श्री केतन यादव, शोधार्थी इलाहाबाद विश्वविद्यालय

 ईमेल - yadavketan61@gmail.com

दातापीर : कब्रिस्तान से झाँकता एक नया संसार'

उपन्यास - दातापीर (2022) 

लेखक - हृषिकेश सुलभ

प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, 

नई दिल्ली 

मूल्य - रु 250

उपन्यास के लगभग अंत में अमीना कहती है, “यह कबरगाह है साबिर । यहाँ आने के बाद सिरफ़ मुर्दे रुक जाते  हैं । दूसरे लोग रुकने के लिए नहीं आते । वे लौट जाने के लिए आते हैं । ” यह उपन्यास एक ऐसी जगह की गाथा है जहाँ से हम गुज़रते तो हैं पर कल्पना नहीं कर पाते कि मुर्दों के बीच भी कोई जिंदगी पल सकती है । ऐसी जगह पर हृषिकेश सुलभ ठहरते हैं और हिंदी को इस नये संसार से परिचित कराते हैं । मुझे याद नहीं है कि इस तरह की पृष्ठभूमि पर हिंदी में अन्य कोई उपन्यास लिखा गया है । आज हम जिस कठिन समय में जी रहे हैं जब लगातार देश का एक अल्पसंख्यक समुदाय टार्गेट पर, वह किसी राजनीति साध्य का दशकों से प्रिय साधन बना हुआ है, उसका चरित्र वर्षों से आक्रांत उन्मादी दंगा-फसाद वाला ही लगभग दिखाया गया है ऐसे समय हृषिकेश जी उनके जीवन की प्रेम कहानी चुनते हैं । वास्तव में प्रेम हिंसा के विरुद्ध सबसे सशक्त कार्रवाई है । जो स्थान उपन्यास में वर्णित है वही लेखक का वास्तविक पता भी है - पीरमुहानी, मुस्लिम कब्रिस्तान के पास, कदमकुआँ । मानो लेखक ने वहीं पड़ोस से एक कहानी चुन लिया । उपन्यास पढ़ कर लगता है कि यह सारे पात्र लेखक के आस-पास के हैं और शायद ही इसमें से कोई घटना कल्पित हो । हिंदी साहित्य में लेखक अमूमन उच्च वर्ग और मध्य वर्ग की कहानी तक ही ठहर जाते हैं । एक अलग तरह की आभिजात्यता और एक मध्यवर्गीय जीवन, मध्यवर्गीय संघर्ष ही दिखता है हर जगह । मज़े की बात यह है कि अक्सर निम्न वर्ग की कहानी भी उनके मध्यवर्गीय जीवन पर आ कर खत्म होते दिखाई देती है । 'दातापीर' एक अति निम्नवर्गीय जीवन के संघर्ष, प्रेम, वियोग, धोखे आदि की महागाथा है । एक जीवन उनके यहाँ भी घटित होता है जिससे हम अपरिचित रह जाते हैं । वरिष्ठ कथा समीक्षक वीरेंद्र यादव ने 'दातापीर' के मुस्लिम पात्रों की पड़ताल एक पसमांदा मुसलमान के रूप में की है जिनकी जिंदगी वर्तमान में राजनीतिक विमर्श के मुख्य केंद्र में है । आज जब बहुसंख्यकवाद के इस समय में अल्पसंख्यक जीवन एक प्रश्न के रूप में हमारे सामने है उस समय लेखक ने उस समुदाय के लोगों के बारे में कहने के लिए ऐतिहासिक कथा नहीं रची बल्कि एक आम कहानी के माध्यम से उनके संपूर्ण जीवन संघर्ष को दिखा दिया । शास्त्र की जगह लोक को चुना है और पुन: लोक सफल रहा है । क्यूँ कि उसमें व्यापक जन-सरोकार हैं, उनमें व्यापक जन-जीवन है । 

कथाकार एवं सफल रंग निर्देशक, नाट्य समीक्षक हृषिकेश सुलभ हिंदी से जिस अछूते संसार का परिचय करा रहे हैं वह बहुत मामलों में अलग एवं महत्वपूर्ण है । बहुत ही सामान्य कविता जैसी भाषा में रचा गया यह गद्य बहुत सहज एवं तीक्ष्ण है । यह बात मुझे स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है कि यह उपन्यास पढ़ते समय मैं दो बार रोया । एक तो समद और ज़ूबी के प्रेम के त्रासद अंत के वृतांत में और दूसरी बार अमीना के वियोग वर्णन के समय उपन्यास खत्म करने के साथ एक रिक्तता मन में भर जाती है । उपन्यास के सारे पात्र अपने से लगने लगते हैं । एक ऐसा साधारणीकरण होता है कि उन पात्रों सा जीवन न होते हुए भी उनका जीवन हमारा जीवन हो जाता है, उनकी वेदना उनकी त्रासदी हमारी अपनी हो जाती है । वेब सीरीज और शॉर्ट वीडियोज के इस दौर में जब अच्छी कहानी सुनने के लिए ऑडियो स्टोरी और पढ़ने के किंडल जैसे ई प्लेटफॉर्म हैं ऐसे तकनीकी और भागते हुए समय में ढाई सौ पेज का यह उपन्यास व्यवस्थित साहित्य का महत्व भी बता रहा है । क्यूँ कि चाह कर भी उन शॉर्ट वीडियोज और वेब सीरीज में इतनी सघनता से यह सब कुछ नहीं दिखाया जा सका है । दूसरी बात यह कि फिल्म और सीरीज ऐसी पटकथा पर बनी भी है तो श्मशान की कब्रिस्तान की नहीं । 'मसान' मूवी के माध्यम से जिस तरह हाशिए पर पड़े अछूत लाश फूँकने वाले इंसानों की जिंदगी दिखाई गयी है वैसे ही 'दातापीर' उपन्यास से प्रेरणा ले कर कब्रिस्तान के जीवन पर फिल्म बनाई जा सकती है । 'दातापीर' उपन्यास नाटक के रूप में भी सफल होगा अपनी बुनावट और कसावट के कारण । 

कब्रों के मध्य बसे इस उपन्यास में बेवा रसीदन की लाचारी है, अमीना को प्रेम मिला धोखा है उसकी टीस है, साबिर के निर्णयहीनता की मजबूरी है, मुँहफट चुन्नी के नखरे हैं, चुन्नी के आशिक बबलू की आवारागर्दी है, फजलू के सीमित जीवन का अंत है, सत्तार मियाँ की ढीठाई है, समद और जूबी के प्रेम कहानी की त्रासदी है, पैसे रोटी की जुगत है, गांजा और पाउच है, चोरी-चमारी, खस्सी खाल का व्यापार, माँस गोदाम की दुर्गंध, पीरमुहानी कब्रिस्तान से गांधी मैदान और वहाँ सुल्तानगंज के इलाके, पीर मजार मंगता फकीरी, राधे का टी स्टाल, बबीता की बहादुरी, रसीदन के नाना की फ़कीरी, सुर्खी चूने के झरे हुए किराए के मकान हैं, शहनाई है और एक शहनाई बजाने वालों के खानदानी पेशे आदि दृश्यों संदर्भों के व्यापक चित्र हैं । 

उपन्यास में जगह-जगह मीर और खुसरो की पंक्तियाँ हैं । हज़रत 'दातापीर' मनिहारी थे । घूम-घूम कर चूड़ियाँ पहनाते थे । बहुत अच्छा गाते थे । 'दातापीर' अक्सर ब्याह के गीत गाते थे । उपन्यास में खुसरो के लोकगीत का जिक्र है (हरे हरे बाँस कटावो मोरे अंगना...) जिसे शारदा सिन्हा ने भोजपुरी लोकगीत के रूप में आवाज़ दिया है उसके बोल कुछ बदल कर यूँ हैं ‘हरे हरे हरे बाबा बँसवा कटहईया, ऊँचे ऊँचे मड़वा छवईहा हो । ’ उपन्यास में बिहार के लोकगीतों और लोकप्रतीकों की भी छुटपुट मगर गहरी पड़ताल है । बिहार में शराबबंदी और उसकी अवैध तस्करी का भी जिक्र आता है । रसीदन के पति नसीर मियाँ की मौत के बाद सत्तार मियाँ पहले रसीदन पर डोरे डालता है और छद्म सुरक्षा महसूस करवाता है फिर उनकी दोनों बेटियों विशेषकर उपन्यास में बार-बार बड़ी बेटी अमीना पर गंदी नज़र डालता है । विडंबना यह है कि समद और ज़ूबी का प्रेम सफल नहीं होता, साबिर और अमीना नहीं मिल पाते, बेवा रसीदन और साबिर की दो खालाओं का अकेलापन है पर ठरकी सत्तार की अंत में फिर शादी हो जाती है । उपन्यास में एक ओर हिंदु-मुस्लिम सौहार्द कौमी एकता का चित्रण है जैसे - “आज भी इस मोहल्ले में उसे बेटी-बहिन की हैसियत मिली हुई थी । लोगों के घर में उसका आना-जाना था । होली-दीवाली में कई घरों से उसके लिए पूआ-पूरी और मिठाई मिलती थी । छठ के पहले इस सड़क की सफ़ाई और सजावट का ज़िम्मा फजलू और साबिर के ऊपर ही रहता । ” तो दूसरी तरफ बबलू और चुन्नी के प्रेम संबंध के प्रकरण के माध्यम से साम्प्रदायिक धार्मिक तनाव का चित्रण है - “...आजकल दिन-रात साला हिंदू-मुसलमान लगा हुआ है, सो हम समझा रहे हैं । हमको तो डर है कि किसी दिन पकड़ा गया बबलुआ तो भारी तूफ़ान मचेगा । ”

उपन्यास में ज़ूबी और समद के प्रेम का अलग वर्णन है । समद का मीर की शाइरी पर पीएचडी करना, प्रेमी समद की सफलता के लिए ज़ूबी का दरगाह-दरगाह मिन्नतें पूरा करना, ज़ूबी के पिता द्वारा उसकी जबरन शादी, निकाह के समय ज़ूबी का निकाह कुबूल न करना और जुझंलाए पिता द्वारा पुत्री की हत्या और इस कथा की परिणति समद का समदू फ़कीर बन जाना सब कुछ बहुत हृदयभेदी लगा । “ज़ूबी ने ख़ामोश नज़रों से समद को देखा । सुबह के साफ़-शफ़्फ़ाफ़ आसमान में मानो किसी हीरक तारे ने एक पतली लकीर खींच दी × × × × × × ज़ूबी को समद हमेशा एक उदास नज़्म की तरह लगते । ऐसी नज़्म जिसमें पाने से ज़्यादा खोने की हक़ीक़त दर्ज हो । ” रसीदन अपने मृत नाना से बहुत प्रेम करती है । मृत फ़कीर नाना बार-बार संकट के समय उसके स्वप्न में प्रगट होते हैं और वह उनसे बात करने लगती है । दूसरी तरफ समदू फ़कीर का प्रेमोपदेश रसीदन सहित चुन्नी की जिंदगी पर भी प्रभाव डाल देता - “मुहब्बत बड़ी शै है बाजी... सबको नसीब नहीं होती । ... अल्ला ताला की रहमत है मुहब्बत । नसीबों वाली है लड़की । ...कोसो मत उसे । .. बाजी, उसे पैदा करने की क़ीमत मत वसूलो उससे । ”

साबिर की माँ की मौत साबिर के पैदा होते ही हो गई थी । अपने मृत माँ-बाप की तस्वीर लेने ननिहाल जाता है और वहाँ से उसके जीवन में एक अप्रत्याशित परिवर्तन शुरू हो जाता है । साबिर ननिहाल जा कर काम की बोझ तले वह बन जाता है जो वह नहीं बनना चाहता है । धीरे-धीरे अमीना से उसकी दूरी बढ़ जाती है । यहाँ यह घटना बिल्कुल 'आषाढ़ के एक दिन' की तरह सी कुछ-कुछ हो जाती है । खुद्दार अमीना अपनी मजबूरी और अपनी दशा दिनों बाद लौटे साबिर से नहीं कहती है । दुःख में वह सूख कर काँटा हो जाती है । जिस तरह 'आषाढ़ के एक दिन' में मल्लिका अपनी माँ का जीवन दुहराती है ऐसे ही यहाँ अमीना रसीदन का जीवन जीने लगती है । रसीदन का फजलू के इलाज में व्यस्त होने के कारण अमीना कब्र खोदने और मैय्यत के व्यवस्था तक का काम करने को मजबूर हो जाती है । रसीदन और अमीना के आँखों के सामने फजलू बुरी तरह प्राण त्यागता है और उन दोनों को अपने बेटे-भाई की कब्र खोदनी पड़ती । यह हृदयविदारक त्रासदी स्तब्ध कर देती है । इस प्रकार 'दातापीर' प्रेम की त्रासद परिणति भी है । आम मुस्लिम पात्रों की जीवन से बुनी हुई कहानी प्रेमचंद के 'ईदगाह' की तरह गैर मुसलमान पाठकों को उनके करीब ले आती है उनके प्रति संवेदनशील बनाती है । 'दातापीर' पढ़ कर मन और नम होता है, उदार होता है और एक गहरे रिक्तता से भर जाता है । मन होता है साबिर को खींच कर अमीना के सामने ला कर खड़ा कर दिया जाए और उसके साथ पाठक ही न्याय कर दे ।                 

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समीक्षा

सुश्री नीलम कुलश्रेष्ठ, अहमदाबाद, मो. 09925534694 


सुश्री तृप्ति अय्यर, अहमदाबाद, मो . 9825006983

 "नागफनी के कांटे `जीवन और इसके दंश"

डॉ. सुधा श्रीवास्तव जी को मैं अहमदाबाद रहने आने से बरसों पूर्व से जानती थी क्योंकि इनकी कुछ रचनाएं साहित्य की मुख्यधारा से जुड़कर चर्चित हो चुकीं थीं । डॉ. अंजना संधीर ने जो `स्वर्ण कलश गुजरात `गुजरात की 41 महिला कथाकारों की कहानियों का संग्रह सम्पादित किया है उसमें गुजरात की तीन वरिष्ठतम कहानीकारों आशा टंडन, कांति अय्यर में सबसे अधिक साहित्यिक योगदान सुधा जी का है । सुधा जी अस्मिता, महिला बहुभाषी साहित्यिक मंच की अध्यक्ष हैं । 

सन 2018 में हम मुम्बई जाकर बस गए थे । सन 2018 में मुझे मुम्बई से अहमदाबाद आना था गुजरात हिंदी साहित्य अकादमी के तीन पुरस्कर लेने । सुबह स्टेशन से मैं सीधे सुधा जी के घर पहुँच गई थी । उन्होंने पहुँचते ही प्याले में काढ़ा पकड़ा दिया,``बारिश के दिन हैं, बीमारी का डर रहता है । इसे तुरंत पी जाओ । ``

कार्यक्रम के बाद हॉल से लौटते समय इतनी बारिश थी कि गाड़ी ड्राइव करना सबके बस की बात नहीं होती है । वो ऐसे मौसम में, घनघोर बरसते पानी में गाड़ी ड्राइव करती निशा चंद्रा व मुझे लेकर सही सलामत घर आ गईं थीं । 

और एक दिल को छूने वाली याद है- जब हम लोग मुम्बई से पूना रहने चले गए थे, मैं वहां से सन 2019 में अहमदाबाद में आयोजित जूही मेले में वक्ता की तरह आमंत्रित थी । तब बुखार में भी सुधा जी मुझे गुजरात विद्द्यापीठ में अपने नई पुस्तकें भेंट करने चलीं आईं थीं । मैंने भावविह्वल हो उनका हाथ चूम लिया था, बस ये शब्द बमुश्किल मेरे मुंह से निकले थे, ``आप बुखार में क्यों चलीं आईं ?``

ऊपरवाले की असीम मेहरबानी हुई कि हम इसी वर्ष अहमदाबाद वापिस आ गये थे । उन्होंने कभी आग्रह नहीं किया कि मैं इनकी पुस्तकों की समीक्षा करुं, न मैंने कभी इस बात पर ध्यान दिया । 

हुआ ये कि डॉ. प्रभा मुजुमदार के घर सन 2023 की अंतिम गोष्ठी में सुधा जी ने अपनी पुस्तक `नागफनी के कांटे `का अनौपचारिक विमोचन किया था और बताया कि वे कुछ पुराने कागज़ छांटकर, पुरानी रचनाओं का ढेर लेकर उन्हें फेंकने जा रहीं थीं क्योंकि उन्हें लगा ये बहुत पहले लिखी बेकार रचनाएं हैं । राहुल प्रकाशन के प्रकाशक राकेश त्रिपाठी जी उनके घर बैठे थे उन्होंने कहा आप इन्हें क्यों फेंक रहीं हैं,मैं इन्हें पुस्तक रुप में प्रकाशित करुंगा । और इस तरह प्रकाशित हुई ये किताब । मैंने ये वाक्या सुना तो फिर मेरा दिल भर आया कि किसी रचनाकार का अपनी रचनाओं को फेंकने का मन कैसे बन गया ? क्या उनकी 83 की उम्र होने के कारण ?

इसकी प्रस्तावना लिखी है एच. के. आर्ट्स कॉलेज के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. गोवर्धन बंजारा जी ने इस उम्र में जो हमारी प्रेरणा हैं, मैंने सोचा कि इस पुस्तक की तीन कहानियों की समीक्षा मैं लिखूँ व कविताओं की तृप्ति अय्यर लिखेंगी । इस समीक्षा को लिखने में मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे मैं अभिलेगार में कोई कृति की जानकारी सरंक्षित कर रहीं हूँ । समीक्षा मेल करने के लिए मैंने पत्रिका चुनी `अभिनव इमरोज़ `क्योंकि आदरणीय देवेंद्र बहल जी वयोवृद्ध साहित्यकारों को उतना ही सम्मान देते हैं जितना नवांकुर या युवा रचनाकारों को . --नीलम कुलश्रेष्ठ ]

भाग --1 [तीन कहानियाँ ]

नीलम कुलश्रेष्ठ

इस पुस्तक में तीन कहानियाँ हैं... 'नागफनी के कांटे', 'शब्द' और 'प्रतिज्ञा' तीन कहानियाँ जिसे किसी भी औरत के सम्पूर्ण जीवन का कोलाज यानी एक साधारण गृहणी से लेकर एक चेतन मनुष्य बनने की यात्रा । ये गृहणी हर भारतीय घर में मिलती है । जैसे प्रथम कहानी की नायिका --

``मैं गेंहू बीनना छोड़कर उठ गई । एक हाथ में गेंहूँ से निकली दो चार कंकड़ियां दबीं थीं और मैं अपने गाउन को देख रही थी । थोड़ा मैला हो गया था । पर ठीक है कपड़े बदलने बैठी तो अतिथि का अनादर होगा । ``

अब गृहणी चाहे प्रोफ़ेसर हो, अफ़सर हो या अध्यापिका हो या क्लर्क । मैं मानतीं हूँ कि गेंहू बीनने का ज़माना अब नहीं रहा लेकिन घर के कामों की कोई सीमा नहीं होती । 

ये विवाहित स्त्री के जीवन का प्रथम चरण है जिस पर पति के दोस्त, उसके कार्यस्थल के सहयोगी या पड़ौसी भी लाइन मारते रहते हैं, शायद वो मछली फंस ही जाये । यहाँ मामला इसलिए गंभीर है कि वो और कोई नहीं पति के बॉस हैं मिस्टर शर्मा जो अपनी पत्नी के साथ घर आकर घुसपैठ करतें हैं और पति की पोस्टिंग कहीं और है । नायिका संशय में झूलती है कि वह इनका अकेले होटल में चाय पीने का प्रस्ताव ठुकराए या नहीं । यदि ठुकराती है तो कहीं ये नाराज़ होकर पति का प्रमोशन न रोक दें । बॉस धीरे धीरे केंचुल छोड़कर बाहर आते हैं और बताते हैं कि सिस्टम है अपनी पत्नी द्वारा अपने बॉसेज़ को खुश रखने का । प्रोफ़ेसर नायिका का उत्तर क्या होगा 

दूसरा चरण हैं --वह आरम्भिक विवाहित वर्षों में उसे बच्चों के लालन पालन में सिर उठाने की फ़ुरसत नहीं होती । बच्चों को थोड़ा बड़ा करने पर अक्सर 19-20 वर्ष बाद जब उसे होश आता है तो पता लगता है कि पतिदेव एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं --[ ये संख्या अलग लोगों के लिए अलग हो सकती है ] स्त्रियों से प्रेम की पींगें बढ़ा रहे हैं । तब उसे समझ में आता है जब पति ने उससे 19-20 वर्ष पहले प्रणय निवेदन किया था उसके अवचेतन ने पति प्रणय निवेदन का नकलीपन पहचान लिया था ? और क्यों उसका दिल आनंद विभोर नहीं हुआ था?क्यों उसे ये पति का पौरुष आन्दोलित नहीं कर गया था ? आँखें खुलने की इस तकलीफ़ को कोई `शब्द `बयान नहीं कर सकता, मेरे ख्याल से । 

जो नौकरीपेशा होतीं हैं, उनके पास तो कोई लक्ष्य होता है लेकिन जो कुछ अपना कार्य नहीं करतीं उन्हें ये बात जानकर जीवन निरर्थक लगने लगता है । 

स्त्री जीवन का तीसरा पड़ाव है कि जब वह पूरी तरह चेतन प्राणी बन जाती है या कहना चाहिए मनुष्य की तरह जीने का निर्णय करती है । जब उसे समझ आता है कि वह घर पड़ी कोई फ़ालतू चीज़ नहीं है । होता ये है कि पति गुस्से में खाने की थाली फेंकते है तो वह दीवार से टकरा जाती है । उसे भी समझ में आता है कि बरसों से वह थाली कटोरी की तरह थिरक रही है । पति के दोस्तों के लिए, रिश्तेदारों के लिए, उसके लिए सिर्फ़ उसका अस्तित्व थाली कटोरी के बीच झूल रहा है । 

शादी के बाद जितने भी वर्षों बाद जिस स्त्री की आँखें खुलती है कि वे सबके नखरे सहते सहते क्या से क्या हो गई है ?तो रात में दब्बू जीने वाली नायिका एक मालकिन की तरह नौकर को इस तरह हिदायत देती है..."देखो रात के दस बजे तक साहब आएं तो मैं सो जाउंगी, मुझे मत जगाना । खाना, जो सुबह बना था, वही रक्खा है । दूसरा नहीं बनेगा । साहब खाने को कहें तो परोस देना, वरना तुम भी खाकर सो जाना ।"

धन्यावद प्रकाशक राकेश त्रिपाठी जी को जिन्होंने इन सशक्त कहानियों को कचरा बनने से रोक लिया । सुधा जी को बधाई । कभी उनसे पूछूँगी कि साहित्य की मुख्य धारा से जुड़कर  वह उससे दूर क्यों होती चलीं गईं ?

भाग --2 [कवितायें ]

तृप्ति अय्यर

ईश्वर कि बनाईं गई इस सुंदर और अद्भुत दुनिया मे, ऐसे तो हर जीव का अपना एक अलग ही महत्व है । किन्तु, इस महत्वपूर्ण स्पर्धा में मनुष्य कुछ विशिष्ट भावनाओं, खासियतों और सभ्यताओं कि वजह से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । आसान नहीं है मनुष्य जीवन का निर्वहन करना । सुख दुःख, आशा निराशा, सफलता असफलता जैसी अनेक अनिश्चिताओं से भरा हुआ है मनुष्य जीवन । संक्षिप्त में, मनुष्य जीवन में कभी फूल है तो कभी काँटे........ इसी फिलोसॉफी को अपने सृजन में समाविष्ट किया है आदरणीय लेखिका डॉ. सुधा श्रीवास्तव जी ने । 

इस संग्रह में आदरणीय लेखिका डॉ. सुधा श्रीवास्तव जी ने अपनी पुस्तक में कविताओं के सफर को क्षुधित मन शीर्षक वाली कविता से शुरू किया है । 

लड़खड़ाता उदास मन,

गिरते पड़ते न जाने 

कितनी ही गहराइयों और ऊंचाईयों पर 

आशा और आस्था का दामन थामे 

कभी हवा के पंख लगाकर गगन विहार 

तो कभी उसी विहार को अवरूद्ध करतीं 

विरुप हवाएं सांय सांय से अट्टहास करतीं....!

कुण्ठित मन की इस दिशाहीन भटकन का उत्तरदाई कौन है??? के यक्षप्रश्न से जो मन का सफर गुज़रता है, वह ... ओ मन क्या हुआ है?? किसकी तपन ने आ छुआ है कि प्रश्न श्रृंखला से होता हुआ मानो मनुष्य और तथाकथित समाज के हर पहलू को आईना दिखाने का कार्य करता है । 

'शुष्क नीरव, भ्रमित मेरे भाव सारे,

जा पड़े किसके दुआरें,

किस ग्रहण ने छू लिया है?

किस तपन ने आ छुआ है....` जैसी अनेक पंक्तिओं ने, सचमुच मेरे मन को छू लिया । 

'वेदना' लघु काव्य, जिसमें कम से कम शब्दों में.....

'ठोक गया कील तीखी, गहराई मापकर... `,जैसा गुढार्थ भर कथन हो या फिर, 

अजानी थाप लघु काव्य में भावुक हृदय कि, सेमल के गद्दे के साथ तुलना..... हर भाव जैसे कि, हम सबने हमारे जीवन में कभी न कभी तो महसूस किया ही होगा.....

``कैसे लिखूं बौराया गीत...?.. एक प्रश्न के उत्तर में, कई प्रश्नो से यथार्थ करता हुआ गीत... 

' क्षीण घ्राण शक्ति, दम घोंटती हवाएं, 

रोमांच शून्य जड़ शरीर, 

सोमरस विचुम्बित, बहका हुआ पागल संगीत......`

जैसे की शब्द संयोजन पाठकों को विचार करने के लिये बाध्य कर देंगे । 

जहां, `रक्षा कर एकता की` और `आशादीप` जैसी रचनाएं मन मस्तिष्क को शौर्य रस से भर देती है...... वहीं, बाहर के द्वार पर बैठो मनमीत ---`जैसे गीत में आपने भग्न ह्रदय कि भावनाओं को जो शाब्दिक रूप दिया है वह मन को अति भावुक कर देता है । 

अंग्रेजी भाषा की कटाक्षपूर्ण महिमा हो या समानता जैसे बहुचर्चित विषय पर रचना... या आधुनिक कुंड`लियां जैसी अनोखी रचना में आपने जो सांप्रत समाज में फैली हुई विषमताओं को काव्य में ढाला है.... वह पढ़ते ही बनता है । 

``अहम से भरा हुआ यह मनुष्य जीवन.... `ओफ्फ ! कितना सही आंकलन किया है आपने अहम् का...! और वह अहम से 

जो प्रश्न पुछा है आपने...` दूसरों को दग्ध करके, क्या नहीं हम दग्ध होते? ओ अभागे हठी अहम्..!`.... वाकई सोचने पर मजबूर करता है । 

अभिशप्त दर्द का वह दर्जी, शायद हम सबको चाहिए हमारे जीवन में......

और पुस्तक की आख़िरी रचना-एक ग़ज़ल जिसमें प्रेम भरे दिल कि गुजारिश है`....

`प्यार के मौसम में तुम आओ तो करें कुछ मनमानी,

ये हदबंदी हटा लो.

करो खामोश कुछ बातें

ज़िन्दगी का क्या भरोसा?

वह नजदीकियों की गुज़ारिश और वह खामोश बातें.` 

इश्क की इंतेहा दर्शातें है । 



पुस्तक:- नागफनी के काँटे ( कहानियां एवं कविताएं) 

लेखिका:- डॉ. सुधा श्रीवास्तव 

मूल्य २००/- 

प्रकाशक :- राहुल प्रकाशन, अहमदाबाद 

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समीक्षा

डॉ. रेनू यादव

पूर्वराग में लिपटी परमात्मा पद्मावती का अस्तित्व :
एक प्रश्न चिन्ह


“पेम घाव दुख जान न कोई । 

जेहि लागे जानै पै सोई” । 11/1 । 

अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ.115

लौकिक हो अथवा पारलौकिक, प्रेम की पीड़ा भुक्तभोगी ही जान सकता है । दार्शनिक ओशो के अनुसार, “प्रेम शक्तियों का निकास बनता है । प्रेम बहाव है । क्रिएशन, सृजनात्मक है प्रेम, इसलिए वह बहता है और तृप्ति लाता है” । - ओशो. संभोग से समाधि की ओर. पृ. 70

एक शोधार्थी के अनुसार, “प्रेम संपर्क है, संवाद है और संवेदनात्मक शिरकत है” । 

https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/ 10603/206996/12/9_chapter%204.pdf 

जैसा कि हम जानते हैं कि सर्वप्रथम भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में श्रृंगार-रस का उल्लेख प्राप्त होता है । रसराज श्रृंगार के दो भेद हैं – नायक नायिका के परस्पर मिलन एवं प्रेम को संयोग-श्रृंगार तथा नायक-नायिका के विछोह के पश्चात् हृदय में उत्पन्न वियोग को वियोग-श्रृंगार कहा जाता है । वियोग श्रृंगार की चार अवस्थाएँ हैं – पूर्वराग, मान, प्रवास और करूण । कवि विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में इसे तीन प्रकार का बताया है – कुसुम राग, नीली राग तथा मंजिष्ठा राग” । 

https://books.google.co.in/books?id=M2EAf21iLIIC&pg=PT90&lpg=PT90&dq=साहित्य+में+पूर्वराग&source=bl&ots=NdaZ8kNR4i&sig=ACfU3U3oCF3_yn3WgB3bzGUj1HfMKTJ8iQ&hl=en&sa=X&ved=2ahUKEwjy6qahv_gAhUHuY8KHTduCyo4ChDoATABegQICBAB#v=onepage&q=साहित्यजज्%20में%20पूर्वराग&f=false

केशवदास, भिखारीदास, कन्हैयालाल पोद्दार, रामदहिन मिश्र ने भी इन्ही तीनों भेदों को स्वीकृति प्रदान की है । आचार्य मम्मट, भानुदत्त, पंडितराज के अनुसार पाँच प्रकार है – अभिलाष हेतुक, विरस हेतुक, ईर्ष्या हेतुक, प्रवास हेतुक, शाप हेतुक । मतिराम और हरिऔध ने पूर्वाराग, मान, प्रवास तीन ही भेद माने हैं । 

समागम के पूर्व अर्थात् मिलन से पहले का वियोग पूर्वराग, ‘प्रिय अपराध जनित कोप को मान कहा जाता है, जो कि प्रणयमान तथा ईर्ष्यामान दो प्रकार का होता है’ - 

http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/33418/8/08_chapter%204.pdf 

नायक अथवा नायिका दोनों में से किसी एक के प्रवासगमन के पश्चात् वियोग को प्रवास तथा नायक नायिका दोनों में किसी एक की मृत्यु अथवा कोई ऐसी आपदात्मक कारण जिसके कारण मिलन सम्भव ही न हो ऐसी स्थिति में उत्पन्न अदम्य वियोग करूण कहलाता है । 

वियोग श्रृंगार के इन चारों भेदों में से पूर्वराग को पूर्वानुराग भी कहा जाता है । पूर्वराग आश्रय के हृदय में उत्पन्न वह एकल व्याकुल दशा है जिसमें आलम्बन को प्रेम का भान ही नहीं होता । इसे आधुनिक समाज में एकतरफा प्रेम भी कहा जाता है । इसमें पूरी सम्भावना होती है कि आलम्बन प्रेम का भान होने पर प्रेम स्वीकारने से इंकार कर दे । यह अंधेरे में चलाये गए तीर के समान है जो लगे तो लगे अन्यथा लगे बिना ही कहीं बिला जाय । भारतीय साहित्य संग्रह के अनुसार “पूर्वराग पुं. (कर्म.सं.) साहित्य में किसी के प्रति मन में उत्पन्न होने वाला वह प्रेम जो बिना प्रिय को देखे केवल उसका गुण या नाम सुनने, चित्र आदि देखने से होता है” । 

https://www.pustak.org/index.php/dictionary/word_meaning/पूर्व-राग 

‘श्रृंगार मंजरी’ के अनुसार “पूर्वानुराग को ही पूर्वराग भी कहा जाता है । साक्षात् मिलन या समागम के पूर्व जो प्रेम होता है, वही पूर्वराग है । 

https://books.google.co.in/books?id=M2EAf21iLIIC&pg=PT90&lpg=PT90&dq=साहित्य+में+पूर्वराग&source=bl&ots=NdaZ8kNR4i&sig=ACfU3U3oCF3_yn3WgB3bzGUj1HfMKTJ8iQ&hl=en&sa=X&ved=2ahUKEwjy6qahv_gAhUHuY8KHTduCyo4ChDoATABegQICBAB#v=onepage&q=साहित्यजज्%20में%20पूर्वराग&f=false 

ग्रंथ ‘श्रृंगार मंजरी’ में गिरिधर पुरोहित पूर्वराग के लक्षण बताते हुए लिखते हैं - 

देखत ही द्युति दंपतिहिं, उपजि परत अनुराग । 

बिनु देखें दुख पाइये, सोइ पूरब अनुराग । । 46 । । 

https://books.google.co.in/books?id=M2EAf21iLIIC&pg=PT90&lpg=PT90&dq=साहित्य+में+पूर्वराग&source=bl&ots=NdaZ8kNR4i&sig=ACfU3U3oCF3_yn3WgB3bzGUj1HfMKTJ8iQ&hl=en&sa=X&ved=2ahUKEwjy6qahv_gAhUHuY8KHTduCyo4ChDoATABegQICBAB#v=onepage&q=साहित्यजज्%20में%20पूर्वराग&f=false 

कुलपति मिश्र ने इसके चार हेतु निर्धारित किए हैं – प्रत्यक्ष-दर्शन, चित्र-दर्शन, स्वप्न-दर्शन, श्रवण । भोज ने अपने ग्रंथ ‘सरस्वती-कण्ठाभरण’ में इन्हीं लक्षणों को महत्त्व दिया है । अर्थात् मिलन से पूर्व प्रत्यक्ष दर्शन, चित्र दर्शन, स्वप्न में दर्शन तथा प्रेमी के रूप-गुण आदि को सुनने के पश्चात् आलम्बन के हृदय में जब प्रेम उत्पन्न हो तथा उस प्रेम को पूरित करने हेतु तीव्र उत्कंठा एवं व्याकुलता के फलस्वरूप विरह-वियोग उत्पन्न हो तो पूर्वराग अथवा पूर्वानुराग की स्थिति कही जाती है । 

पूर्वराग में प्रत्यक्ष-दर्शन श्रवण, चित्र एवं स्वप्न दर्शन के पश्चात् भी हो सकता है, जो पूर्वानुराग और मिलन के मध्य में आता है, उसे सुरतानुराग भी कहा जा सकता है । इसके लक्षण बताते हुए रसलीन ‘रस प्रबोध’ में लिखते हैं – 

जाहि बाति सुनि कै भई तन मन की गति आन । 

ताहि दिखाये कामिनी क्यौं रहि है मो प्रान । । 965 । । 

http://kavitakosh.org/kk/वियोग_श्रृंगार_/_रस_प्रबोध_/_रसलीन 

पूर्वानुराग के मध्य में अति व्याकुलता की स्थिति को वृष्ठानुराग कहते हैं, जिसके लक्षण हैं - 

आप ही आग लगाई दृग फिरि रोवति यहि भाइ । 

जैसे आगि लगाइ कोउ जल छिरकत है आइ । । 957 । । 

http://kavitakosh.org/kk/वियोग_श्रृंगार_/_रस_प्रबोध_/_रसलीन 

“पूर्वानुराग की पहली दशा है - स्मरणदशा अभिलाषा । ‘मोहि इहै चहिए’ कथन नायक-नायिका की अभिलाषा को सपाट रूप से सीधे व्यक्त कर देता है । 

https://books.google.co.in/books?id=M2EAf21iLIIC&pg=PT90&lpg=PT90&dq=साहित्य+में+पूर्वराग&source=bl&ots=NdaZ8kNR4i&sig=ACfU3U3oCF3_yn3WgB3bzGUj1HfMKTJ8iQ&hl=en&sa=X&ved=2ahUKEwjy6qahv_gAhUHuY8KHTduCyo4ChDoATABegQICBAB#v=onepage&q=साहित्यजज्%20में%20पूर्वराग&f=false 

आचार्य धन्ञ्जय ने अपने ग्रंथ दशरूपक में पूर्वराग के स्थान पर अयोग श्रृंगार की कल्पना की है । “अयोग मूलतः पूर्वराग या मिलने से पहले की घड़ियाँ हैं और आचार्य जी ने इसकी दस अवस्थाएँ भी गिना दी – अभिलाषा, चिंता, स्मृति, गुणकथन उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, ज्वर, जड़ता और यहाँ तक मरण को भी इसी में शामिल कर लिया है” । - बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ. 52.

प्राचीन काल से राजा-रानी की कहानियों, मिथकों एवं धर्मग्रंथों तथा सिनेमा में पूर्वराग दृष्टिगत होता है । पूर्वराग के अनेक उदाहरणों में से सबसे पहला और प्रसिद्ध उदाहरण देवी पार्वती का है, जिसमें देवी पार्वती हर जन्म में बिन देखे शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए तप करती हैं और अंततः शिव को प्राप्त भी करती हैं । दूसरा प्रसिद्ध उदाहरण रूक्मिणी का है, जो कृष्ण द्वारा दिए गए बिना किसी वचन के बिन देखे कृष्ण के प्रेमाधीन हो विवाह के दिन भी कृष्ण की प्रतीक्षा करती रहीं और आश्चर्य की बात यह है कि श्रीकृष्ण को पता चलते ही वह पूर्वराग वाली प्रेमिका को विवाह मंडप से भगा भी ले जाते हैं । पूर्वराग के मुद्दे से भारतीय सिनेमा भी अछूता नहीं रहा । ‘सिर्फ तुम’ इसका प्रमाण है । 

 यदि भगवत्भक्ति की बात करें तो भगवत्भक्ति का आधार ही पूर्वराग है । भक्ति साहित्य में मिलन भी पूर्वराग में कल्पना का एक अंग है । साहित्य में यत्र-तत्र-अन्यत्र की चर्चा अगर छोड़ दें तो कुछ अपवादों को छोड़ कर पूरा का पूरा सूफी साहित्य पूर्वराग पर लिखा गया है । असाइत कृत ‘हंसावली’ में राजकुमार के द्वारा पाटण की राजकुमारी को स्वप्न में देखकर, पुहकर रचित ‘रसरतन’ में नायक सोम का राजकुमारी रम्भा को स्वप्न में देखकर स्वप्न-दर्शन प्रेम, मुल्ला दाउद कृत ‘चान्दायन’ में नायक लोर अथवा लोरिक का नायिका चन्दा का, दामो या दामोदर कवि द्वारा रचित ‘लखमसेन पद्मावती कथा’ में राजा लक्ष्मणसेन और राजकुमारी पद्मावती का, कुतुबन कृत ‘मृगावती’ में नायक राजकुमार और मृगावती का, मंझन कृत ‘मधुमालती’ में नायक और नायिका मधुमालती का प्रथम दर्शनजन्य प्रेम, गणपति कृत ‘माधवानल-कामकन्दला’ में नायक माधव का कामकन्दला का नृत्य-कला पर मुग्ध होकर प्रेम, उसमान द्वारा रचित ‘चित्रावली’ में सोते समय नायक-नायिका शिवमंदिर में साक्षात्कार का प्रसंग और प्रेम प्रसिद्ध है । किंतु इन सबमें पद्मावत का अपना एक विशिष्ट स्थान है । 

पद्मावत् में नायक-नायिका के हृदय में पूर्व-राग की उत्पत्ति पद्मावत में यदि आध्यात्मिक पक्ष को छोड़ दिया जाय तो यह विशुद्ध मांसल प्रेम अथवा प्रणय-काव्य कहा जा सकता है । इस आधार पर कहा जा सकता है कि पद्मावत में समस्त घटनाओं का हेतु कामवासना है, जिसकी शुरूआत पूर्वराग से होती है । इस ग्रंथ में चार पात्रों में पूर्वराग उत्पन्न हुआ है –चित्तौड़गढ़ के राजा रत्नसेन, सिंघलगढ़ की राजकुमारी पद्मावती, दिल्ली का शाह अलाउद्दीन खिलजी और कुंभलनेर के नरेश देवपाल । 

 यह कहना गलत न होगा कि पूर्वराग ‘वन साइडेड लव’ में प्रत्यक्ष दर्शन ‘टर्निंग प्वांइट’ का काम करता है, जो कि पद्मावत् में रत्नसेन, पद्मावती, अलाउद्दीन के साथ दर्शाया गया है किंतु देवपाल के लिए यह संभव नहीं हो सका । राजा रत्नसेन और पद्मावती के हृदय में पूर्वराग उत्पन्न करने वाला माध्यम हीरामन तोता तथा अलाउद्दीन के हृदय में उत्पन्न करने वाला माध्यम राघव-चेतन बनता है । 

राजा रत्नसेन के हृदय में पूर्वराग - 

चित्तौड़गढ़ के राजा चित्रसेन के पुत्र रत्नसेन के लिए एक ज्योतिषि ने भविष्यवाणी किया था कि इसकी जोड़ी उत्तम पदार्थ पद्मावती रूपी हीरे के साथ लिखी है, इनके मिलने से चाँद और सूर्य जैसा योग होगा । - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 73 

जिसकी सत्यता पाट प्रधान रानी चम्पावती की पुत्री पद्मावती जिसे शिव लोक की मणि माना गया था, वह दीपक बन सिंहल द्वीप में उत्पन्न हुई, जिसे जायसी ने सूर्य की कला से भी श्रेष्ठ माना है, के माध्यम से प्रमाणित होती है । सिंहलद्वीप के सात खण्डों वाले धवलगृह में निवास करने वाली पद्मावती के साथ दैव द्वारा प्रदत्त ज्योति के समान महापंडित सुनहरे रंग वाला हीरामन तोता भी रहता था, जिसके नेत्रों में रत्न और मुख में माणिक और मोती लगे हुए दिखाई देते थे । पद्मावती और हीरामन साथ-साथ वेदशास्त्र पढ़ते थे जिसे सुनकर ब्रह्मा भी सर हिलाने लगते थे । पद्मावती के सौन्दर्य की पराकाष्ठा कहानी के प्रारंभ में ही पता चल जाती है कि उसे पाने के लिए योगी, यति और सन्यासी भी तप साधते थे । 

देखा जाय तो सुआ हीरामन द्वारा राजा रत्नसेन के हृदय में प्रेमानुराग उत्पन्न करना स्वाभिमान और अपमान-बोध के कारण है । हीरामन सुआ के द्वारा पद्मावती को ‘सूर्य’ का उपदेश अर्थात् पुरूषसंसर्ग का उपदेश देते हुए राजा गंधर्वसेन चक्रवर्ती ने सुन लिया, जिससे वे विचलित हो गये कि सुआ वेदपाठ के बहाने कामभाव की शिक्षा प्रदान कर रहा है इसलिए उन्होंने उसे नाऊ-बारी के हाथों मारने का आदेश दे दिया । उस समय पद्मावती ने उसे बचा लिया किंतु अपमान-बोध के कारण और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए वह वन में प्रस्थान कर गया । जहाँ उसे बहुरूपिये बहेलिए ने बंदी बना लिया और उसे बेचने के लिए सिंघलगढ़ के बाज़ार जा पहुँचा । 

 इधर चित्तौड़गढ़ के बंजारों के साथ एक गरीब ब्राह्मण भी व्यापार के लिए सिंहल-द्वीप पहुँचा, जिसने सुनहरे सुआ (जो वेदादि ग्रंथों का ज्ञाता था) को खरीद लिया और उनसे चित्तौड़ के तत्कालीन राजा रत्नसेन ने एक लाख मूल्य देकर मस्तक पर टीका, कंधे पर जनेऊ, व्यास जैसे कवि, सहदेव जैसे पण्डित एवं लाल और काले दो कण्ठ वाले सुग्गा को खरीदा । ‘बनिजारा खण्ड’ में हीरामन अपना परिचय देते हुए कहता है, 

“चतुर बेद हौं पंडित हीरामन मोहि नाँउ । 

पद्मावति सों मेरवौं सेव करौं तेहि ठाउँ । । 7/8 । । 

अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ.79

और वह सूर्य (रत्नसेन) से चन्द्र (पद्मावती) की कहानी कहकर उसके मन में प्रेम का ग्रहण लगाने लगा । - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 81 

‘नागमति सुआ खण्ड’ में रानी नागमति अपने पति को खो देने की विचार से आशंकित हो जाती है और किसी भी साक्षी के अभाव में सुआ को धाय द्वारा मारने का आदेश देती है किंतु रानी के आदेश के विपरीत धाय ने उसे बचा लिया और एक बार फिर से सुआ रत्नसेन के हृदय में प्रेम उत्पन्न करने के लिए तत्पर हो गया । ‘राजा सुआ संवाद खण्ड’ में “पदुमावति राजा कै बारी । पदुम गंध ससि बिधि औतारी । 3 । / ससि मुख अंग मलैगिरि रानी । कनक सुगंध दुआदस बानी । / हँहि जो पदुमनि सिंघल माहाँ । सुगँध सुरीप सो ओहि की छाहाँ । । 9/2 । । - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ.91. कहकर हीरामन सुआ अपना परिचय देता है साथ ही पद्मावती का वर्णन भी करता है, जिसे सुनते ही रत्नसेन लाल हो जाते हैं 9/5 - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ.-93 

“तुई सुरंग मूरति वह कही । चित्त महँ लागि चित्र होइ रही । 

जनु होई सुरूज आइ मन बसी । सब घट पूरि हिएँ परगसी” । । 9/5 । 

अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 93

उनका हृदय पद्मावती से मिलने के लिए व्याकुल हो जाता है - 

“किरिन करा भा प्रेम अँकुरू । 

जौं ससि सरग मिलौ होई सूरू । 

सहसहुँ कराँ रूप मन भूला । 

जहँ जहँ दिस्टि कँवल जनु फूला । 

तहाँ भँवर जेऊँ कँवला गंधी । 

भै ससि राहु केरि रिनि बंधी । 

तीनी लोक चौदह खंड सबै परै मोहि सूझि । 

प्रेम छाँड़ि किछु औरू न लोना जौं देखौं मन बूझि । । 9/5 । 

अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 93

अर्थात् “सूर्य की किरण और चन्द्रमा की कला में प्रेम का अंकुर उत्पन्न हो गया है । यदि वह चन्द्र आकाश में भी हो तो मैं सूर्य के समान आकाश मार्ग से जाकर उससे मिलूँगा । अपनी सहस्रों किरणों से मेरा मन उस पर मोहित हुआ है । जहाँ जहाँ देखता हूँ वहाँ वहाँ वही कमल फूला हुआ दिखाई पड़ता है (मेरी सहस्र किरणों वाली दृष्टि को सर्वत्र पद्मावती ही दिखाई दे रही है ) । और कमल की गंध से लुभाने वाले भौंरे की भाँति मैं भी वहाँ मँडराता हूँ । अब तो चन्द्रमा और राहु के परस्पर ऋणबन्धी सम्बन्ध की तरह उसकी और मेरी भी ऋणबन्धिता हो गई है । 

तीन लोक औऱ चौदह खँडों में जो सब मुझे दिखाई दे रहा है, उसमें जब मैं विचार कर देखता हूँ तो प्रेम को छोड़ कर और कुछ सुन्दर नहीं है” । - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 94

राजा रत्नसेन सुरतानुराग के लिए व्याकुल हो जाते हैं उस पर से सुआ के द्वारा पद्मावती के नख-शिख सौंदर्य (कस्तूरी से काले केश, जिन पर नागराज वासुकि भी बलि जाता है, मलयगिरि रूपी शरीर, मेघों में खिंची बिजली अथवा कसौटी में खिंची कंचन रेखा रूपी माँग, ज्योति द्वितीया के चन्द्रमा के समान ललाट, ताने हुआ धनुष की भाँति भौंहें, लाल कमल पर मँडराते हुए भौरों के समान नेत्रों में काली पुतलियाँ अथवा नेत्र जल से भरे समुद्र में लहरों का माणिक्य अथवा क्रीड़ा करते हुए खंजन पक्षी रूपी नेत्र, आकाश में अनगिनत नक्षत्रों की भाँति बरौनियाँ, शुक्र भी जिसके नाक में बेसर बनकर सुशोभित हो अथवा जिसके सामने सुग्गा भी लजाकर पीला पड़ जाए ऐसी नासिका, लाल गुल दुपहरिया (बन्धूक पुष्प) जैसे अधर, मिस्सी के गहरे श्याम रंग में सुशोभित होते हुए दशन अथवा दाँत जो सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रों, रत्नों, हीरे, माणिक्य और मोतियों को भी ज्योति प्रदान करते हैं, अमृत वचन बरसाती रसना जिसने कोकिल और चातक के भी स्वरों को ग्रहण कर लिया, पराग और अमृत के रस को सानकर कत्थे की सुरंग टिकिया बाँधे अथवा एक नारंगी के दो अनमोल खंडों के समान लाल-लाल कपोल, बाएँ कपोल पर तिल जिसे देखते ही देखने वाले के शरीर के तिल तिल में आग लग जाती है, सीपियों जैसे दो कान, मोरनी अथवा कबूतर के ग्रीवा से ली गयी अथवा क्रौंच पक्षी की ग्रीवा के समान ग्रीवा, केले के खम्भों के समान भुजाएँ और लाल कमल के समान हथेलियाँ, सुवर्ण दण्ड के समान कलाई, सोने के लड्डू के समान हृदय रूपी में थाल में सुशोभित दोनों कूच, चन्दन के पत्र की भाँति पेट, काली नागिन की भाँति रोमावली, नाभिकुंड बनारस, मलयगिरि चन्दन से सँवारी गई पीठ, बर्र की कमर से भी पतली कमर अथवा कमलिनी के दो टुकड़ों में टूट जाने पर बीच में बचे पतले तार की भाँति कमर, समुद्र के भँवर की भाँति घूमी हुई तथा मलय की सुगन्ध से पूरित नाभि कुण्ड, कटि भाग की शोभा बढ़ाने वाले नितम्ब, केले के खम्भों को उलटकर रखे हुए जंघाएँ, देवता द्वारा हाथों-हाथ उठा लेने वाले चरन कमल तथा जहाँ जहाँ चरण कमल पड़ते हैं देवता अपना सर रख देते हैं, चाँद और सूर्य की भाँति उज्ज्वल दोनों पैरों के चूड़े, नक्षत्रों तथा तारों की भाँति अनवट और बिछिया का वर्णन सुनकर उन्हें वृष्ठानुराग की स्थिति में पहुँचा देता है, जिससे मूर्च्छित हो जाते हैं । 

मुर्च्छा समाप्ति पर राजा का हाथ में किंगड़ी, सिंगी चक्र और कमण्डलु, सिर पर जटाएँ, शरीर पर भस्म रमा, मेखला बाँधकर गले में जोगपट्ट, कन्धे पर बाघम्बर धारण कर कथरी पहने तन से बेसुध और मन से बावले की भाँति रटते हुए जोगी वेश में घर से निकलने की तैयारी करना, राजमहल में अनेक लोगों का समझाना, उनकी माता रतन रतन कहते हुए सुग्गा द्वारा बहका ले जाने का दुख व्यक्त करना और रानियों का रो रो कर प्राण देना, हाथ की चूड़ियाँ फोड़कर खलिहान भरना, उनकी प्रिय रानी जिसे अपने प्रेम पर अति गर्व था उसका संसार की सबसे खूबसूरत नायिका होने का घमण्ड चूर-चूर होना और बेवश होकर “भवै भलेंहि पुरूषन्ह कै डीठी । जिन्ह जाना तिन्ह दीन्हि न पीठी । 12/6 । - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ.127 कहकर प्रार्थना करना, उनके विलाप से भी राजा का मन नहीं पसीजना और रानी को “तुम्ह तिरिआ मति हीन तुम्हारी । मूरूख सो जो मतै घर नारी । 12/7 । - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ.127 कहते हुए चल देना तथा रानी का खंडिता नायिका बनकर रह जाना पूर्वराग में प्रबल उत्कर्ष दर्शाता है । 

पद्मावती के हृदय में पूर्वराग 

हीरामन की युक्ति के अनुसार अपने योग से धरती-आकाश को जीतने वाले राजा रत्नसेन माघ मास के शुक्ल पक्ष में वसन्त पंचमी के दिन कंचन पर्वत पर स्थित शिव मंडप में पद्मावती के दर्शन के लिए पहुँच जाते हैं तथा दूसरी ओर स्वयं पद्मावती यौवन की पीड़ा “जोबन भर भादौं जस गंगा । लहरैं देइ समाइ न अंगा” । 18/3 । - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 163 से कामोद्दीप्त रहती है । ऐसे में हीरामन सुआ के द्वारा रत्नसेन का जोगी वेश में उसे प्राप्त करने का संदेश {यौवन के गहरे समुद्र से बाँह पकड़कर खींचने वाले सूर्य के समान प्रकाशमान रत्नसेन स्वयं उसके प्रेमावेश में उसके दर्शन के लिए जोगी का वेश धारण कर सोलह सहस्र राजकुमारों (जिन्होंने जोगी वेष धारण कर रखा है) के साथ महादेव के मठ में पहुँच चुका है} “सुरूज परस दरस की ताईं । चितवे चाँद चकोर की नाईं । 19/4 । - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 171) सुनकर वह और भी काम भाव से दग्ध हो जाती है । 

 “हीरामन जौं कही रस बाता । 

सुनि कै रतन पदारथ राता । 

जस सूरूज देखत होइ ओपा । 

तस भा बिरह काम दल कोपा । 19/5 । 

अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ.171-172

किंतु पद्मावति राजा रत्नसेन के समान तत्काल प्रेम में विह्वल और भावुक नहीं होती बल्कि वह प्रेम में अनुरक्त होने के पश्चात् भी अपने पिता (जिनके भय से स्वर्ग में इन्द्र भी काँपते हैं) के विषय में सोचती है तथा अपनी विशिष्टता से रत्नसेन की तुलना करते हुए बौद्धिकता का परिचय देती है कि उसके योग्य वर भला संसार में कहाँ है ? सुग्गा के लाख प्रशंसा के बावजूद भी अपने हृदय में राजा की स्तुति समेटे वह अपनी दिनचर्या में खो जाती   है । सामान्यतः प्रत्येक वर्ष की भाँति इस वर्ष भी बसंत-पंचमी को उपवन में विहार करते हुए महादेव के मठ पहुँचती है । आश्चर्य की बात है कि जायसी ने यहाँ पद्मावती को देव-दर्शन के लिए भेजा है किंतु स्वयं पद्मावती के दर्शन से देवताओं के भी धड़ में प्राण नहीं जान पड़ता । तत्पश्चात् सखियों द्वारा बताये गए मठ के पूर्व द्वार पर ठहरे हुए जोगी जो संभावित था कि हीरामन के द्वारा जिसकी प्रशंसा सुनी थी वही हो, उसके दर्शन के लिए जाती है । जोगी के विषय में जैसा सुनी थी वैसा ही वहाँ उन्हें सूर्य के समान तेजस्वी पाती है । किंतु जोगी यानी कि राजा रत्नसेन की दृष्टि पद्मावती पर पड़ते ही वे मुर्च्छित हो जाते हैं और बड़े ही धैर्य के साथ वह उनके हृदय पर लिख वापस महल लौट जाती है - 

“तब चंदन आखर हियँ लिखे । 

भीख लेइ तुइँ जोगि न सिखे । 

बार आइ तब गा तैं सोई । 

तैसे भुगुति परापति होई । 

अब जौं सूर अहै ससि राता । 

आइहि चढ़ि सो गँगन पुनि साता” । 20/13 । 

अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 186

चेतना वापसी के पश्चात् राजा अपने हृदय पर चंदन से लिखा संदेश देख कर विलाप में डूब गए और वे स्वयं को एवं देवताओं को कोसने लगें । उनके रक्त के आँसू के ढ़ेर लग गए । तत्पश्चात् शिव-पार्वती के मार्गदर्शन के अनुसार वे स्वर्ग के समान सिंहलगढ़ के सात खंड, उस गढ़ के भीतर नौ ड्योढ़ियाँ (नौ इन्द्रिय द्वार), जिसके पाँच कोतवाल (पंच प्राण), दसवाँ गुप्त (अगम् और टेढ़ा) द्वार (ब्रह्मरन्ध्र), गढ़ के नीचे अथाह कुंड में छिपी सुरँग से चोर की भाँति सेंध लगा पद्मावती को प्राप्त करते हुए पहुँचते हैं । (अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 205) 

दूसरी ओर सूरतानुराग के पश्चात् पद्मावती की अति दारूण दशा हो जाती है । वह पीउ पीउ करते हुए पपीहा की भाँति व्याकुल होकर रत्नसेन को सोने की स्याही से पत्र “हौं पुनि अहौं ऐसि तोहिं राती” - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 224 लिखकर प्रेम की अभिव्यक्ति करती है । किंतु यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रेम में विह्वल होने के पश्चात् भी वह अपनी बुद्धिमत्ता परित्याग नहीं करती और रत्नसेन की परीक्षा लेती है । परीक्षा में सफल होने के पश्चात् ही उन्हें उड़न्त छाल पर बैठकर सिद्द बनाने के लिए बुलाती है । 

अलाउद्दीन के हृदय में पूर्वराग

जिस प्रकार राजा रत्नसेन और पद्मावती के हृदय में पूर्वराग उत्पन्न करने वाला माध्यम हीरामन तोता होता है उसी प्रकार शाह यानी अलाउद्दीन के हृदय में प्रेम उत्पन्न करने वाला माध्यम राघव-चेतन है । हीरामन तोता की भाँति कुटिल राघव-चेतन को भी देश निकाला दिए जाने पर अपमान-बोध के कारण बदले की भावना से अलाउद्दीन के हृदय में पूर्वराग की उत्पत्ति करता है । 

संदर्भानुसार यक्षिणीपूजक व्यास की भाँति कवि और सहदेव की भाँति पण्डित राघव चेतन और कुछ अन्य ब्राह्मणों से राजा रत्नसेन ने अमावस के दिन पूछा कि दोयज कब है ? इस पर अन्य पण्डितों ने ‘कल’ यानी दूसरे दिन का समय बताया किंतु राजा का विश्वास प्राप्त करने के लिए राघव ने सबकी दृष्टि जादू से बाँध कर अमावस्या के दिन ही दोयज दिखा दिया । जब दूसरे दिन ठग-विद्या का भेद खुला तब राघव को राजा द्वारा देश निकाला दे दिया गया । किंतु यह बात बुद्धिमती पद्मावती को पता चलते ही उसने राज्य को अनहोनी से बचाने के लिए कुटिल किंतु ज्ञानी यक्षिणीपूजक ब्राह्मण को वापस बुलाया । निष्कलंक चन्द्रमा के समान उसने झरोखे से नौ रत्न कोर जड़े कंगन देते हुए उसे राज्य में रूकने के लिए कहा । किंतु उसके सौन्दर्य-दर्शन से राघव मुर्च्छित हो गया और राजा से अपमान का बदला लेने के लिए अलाउद्दीन खिलजी (अल्दीन अब्बुल मुजफ्फर मुहम्मद शाह अल सुल्तान) के दरबार दिल्ली चला गया । शाह के दरबार में पेश होने पर वह हस्तिनी, सिंहनीं, चित्रिणी, पद्मिनी स्त्रियों में भेद बताते हुए बारह बानी कुंदन जैसी शुद्ध और चमकीली और चन्द्रबदनी पद्मावती का वर्णन करते हुए कहता है - 

“पदुमिनी सिंघल दीप की रानी । 

रतनसेनि चितउर गढ़ आनी । 

कँवल न सरि पूजै तेहि बाँसा । 

रूप न पूजै चंद अकासाँ । 

जहाँ कँवल ससि सूर न पूजा । 

केहि सरि देउँ औरू को पूजा” । 39/4 । 

अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 475

ऐसा दिव्य-दर्शन का वर्णन सुनकर शाह को मुर्च्छा आ गई । मुर्च्छा समाप्त होने पर “तब अलि अलाउद्दीन जग सुरू । लेउँ नारि चितउर कै चुरू” । 41/20 । - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 505 अर्थात् “तब मैं जगत में अलावल अलाउद्दीन सच्चा शूर (या सूर्य) हूँ, जब चित्तौड़ को नष्ट करके उस बाला को प्राप्त करूँ । - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 506 का प्रण लेता है । तत्पश्चात् शाह ने राघव को पान सरोपा, दस नर हाथी, सौ घोड़े, कंगन की जोड़ी, तीस करोड़ मूल्य के रत्न, एक लाख दीनारें देने के पश्चात् पद्मावती को प्राप्त करने के बदले चित्तौड़ का सिंहासन का वचन देकर सरजा बलवान पुरूषसिंह के हाथों रत्नसेन को पद्मावती को सौंपने के लिए पत्र लिखकर भेजा । 

रत्नसेन का पत्र सुनकर भड़कना और शाह से युद्ध करना और युद्ध के दौरान शाह द्वारा चित्तौड़गढ़ को घेर लेना, चित्तौड़गढ़ में राजा का युद्द के लिए अंतिम प्रयास और रानियों का जौहर करने का निर्णय करना और उसकी सूचना शाह तक पहुँचना, पद्मिनी के खो देने के भय से शाह का संधि का प्रस्ताव और सम्मान देकर राजा को परास्त करने की कुटिल सोच में पड़ना, चित्तौड़गढ़ के पाँच रत्न हंस, अमृत, पारस पत्थर नग, सोनहा पक्षी, शार्दुल के बदले संधि का प्रस्ताव रखना, संधि की स्वीकृति और राज्य में शाह के स्वागत की तैयारी करना, शाह का चित्तौड़गढ़ में आना, शाह का बसंती फुलवारी, मंदिर आदि देखना, भोज के समय उसका मन न लगना और शतरंज के खेल में दर्पण को अपने पैरों की ओर रखना ताकि झरोखे में आते ही पद्मावति की झलक देख सके आदि प्रयोजन पूर्वराग में कुटिलता के साथ व्याकुलता को दर्शाता है । यहाँ आश्चर्य की बात है कि पद्मावति अपनी बुद्धमत्ता का प्रयोग न करके सखियों के कहने पर जिज्ञासावश रात्रि समय में शाह को देखने पहुँच जाती है और उसी समय शाह उसे दर्पण में देख लेता है - 

“विहँसि झरोखे आइ सरेखी । 

निरखि साहि दरपन महँ देखी । 

होतहि दरस परस भा लोना । 

धरती सरग भएउ सब सोना । 46/18 । 

अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ.617

वह पद्मावती को देखते ही मुर्च्छित हो जाता है और होश आने के पश्चात् राघव के द्वारा पूछने पर उसने बताया कि 

“अति विचित्र देखेऊँ सो ठाढ़ी । 

चित कै चित्र लीन्ह जिय काढ़ी । 46/21 । 

 अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ.621

फिर क्या था ऐसी अनुपम सुन्दरी को वह बल के बजाय छल से पाने के लिए अनेक षड़यंत्र गढ़ने लगा । 

देवपाल के हृदय में पूर्वराग

कुंभलनेर के नरेश देवपाल के हृदय में सांकेतिक रूप से पूर्वराग दर्शाया गया है । जिसने शाह द्वारा रत्नसेन को बन्दी बना लिए जाने पर सुअवसर देखते हुए अपनी दूती को पद्मावती के हृदय में परपुरूष यानी अपने प्रति प्रेम जागृत करने हेतु भेजा और दूती प्रेम जागृत करने का पूरा प्रयास भी करती है - “भोग विलास केरि यह वेरा । मानि लेहि पुनि को केहि केरा” । 49/12 । - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ.646 

वह उसे यौवन की महत्ता स्पष्ट करते हुए परुपुरूष की ओर यौवन का रसपान करने लिए प्रेरित करती है- 

“रस दोसर जेहि जीभ बईठा । 

सो पै जान रस खट्टा मीठा । 

भँवर बास बहु फूलन्ह लेई । 

फूल बास बहु भँवरन्ह देई । 

तैं रस परस न दोसर पावा । 

तिन्ह जाना जिन्ह लीन्ह परावा । 

एक चुरू न रस भरै न हिया । 

जौ लहि नहिं भरि दोसर पिया” । 49/14 ।  –अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 648

यह सुनते ही पद्मावति भड़क उठती है और अपने सतित्व का परिचय देते हुए उसे अपने दासियों द्वारा पिटवाकर वापस लौटा देती है । जब राजा रत्नसेन शाह के बंधन से बंधनमुक्त होकर वापस लौटते हैं तब पद्मावाती उन्हें सारी कथा सुनाती है, जिससे वे क्रोधित हो देवपाल से युद्ध करने पहुँच जाते हैं और वे देवपाल का वध करके विजय तो प्राप्त कर लेते हैं किंतु देवपाल से युद्ध ही उनके अंत का कारण बनता है । अनेकों उपचार के बाद भी घाव ठीक न होने के कारण उनकी मृत्यु हो जाती है । 

पूर्वराग की दुखान्तक परिणति 

राजा रत्नसेन और देवपाल के बीच होने वाले युद्ध में देवपाल का वध हो जाता है किंतु राजा रत्नसेन अपने मृत्यु पर विजय प्राप्त नहीं कर पातें । अन्ततः पद्मावती और नागमति एक साथ अपने पति के साथ भाँवर लेते हुए सति हो जाती हैं । हालांकि शाह चित्तौडगढ़ पर आक्रमण करने आ ही रहा होता है लेकिन पद्मावती के सति होने के बाद वहाँ पहुँचता है और पद्मावती के सती होने की कथा सुनकर उसकी मुट्ठी भर राख उड़ाते हुए ‘पिरिथमी झूठी’ - अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 712 कहते हुए अफसोस व्यक्त करता है । जिसका परिणति चित्तौड़गढ़ के ध्वस्त होने के रूप में होती है । बादल के साथ साथ समस्त सैनिक शहीद हो जाते हैं तथा वहाँ की सारी औरतें जौहर कर लेतीं हैं । 

संदेह, जिज्ञासा और प्रश्नों के चक्रव्युह में परमात्मा पद्मावती का अस्तित्व 

इस ग्रंथ में चित्तौड़गढ़ को तन, राजा रत्नसेन को मन, सिंघलगढ़ को हृदय, पद्मिनी को परमात्मा या बुद्धि, नागमति को दुनिया धंधा, हीरामन को शुक गुरू, राघव चेतन को शैतान, अलाउद्दीन को माया कहा गया है । यह ग्रंथ न सिर्फ पाठक के हृदय में प्रश्न जागृत करता है बल्कि परंपरागत आध्यात्मिक आलोचना पर भी प्रश्न उठाता है - 

पहला प्रश्न प्रतीकों की हेरा-फेरी से उठता है कि यदि मनुष्य के दैहिक संवेदनाओं वाले अंश को निकाल दिया जाय और आध्यात्मिक रूप से तथा सूफ़ी सिद्धांतों के अनुरूप देखें तो रत्नसेन-पद्मावती (आत्मा-परमात्मा, सूर्य-चन्द्र) के मिलन तक सटिक बैठता है किंतु उसके बाद कहानी में आत्मा-परमात्मा का भाव समाप्त हो जाता है, राजा रत्नसेन मात्र बर्चस्ववादी सत्ता का वहन करने वाले एक पति और रानी पद्मावती भारतीय संस्कारों में ढ़ली पतिव्रता पत्नी बन कर रह जाती है । उनके मिलन से पूर्व आध्यात्मिक एवं योग-साधना के अनुसार भी उल्टे प्रतीक की कल्पना एवं संयोग दृष्टिगत होता है कि यदि पद्मावती परमात्मा है तो उसे सूर्य होना चाहिए और रत्नसेन को चन्द्र । किंतु यहाँ रत्नसेन सूर्य है और पद्मावती चन्द्र । यही नहीं कवि अलाउद्दीन और देवसेन को भी सूर्य की संज्ञा दी गई है ! यदि हठयोग के सिद्धांत पर रत्नसेन सूर्य है और पद्मावती चन्द्र तो अलाउद्दीन भी सूर्य कैसे हो सकता है ? तथा देवपाल भी उससे कम नहीं ! फिर सबके साथ हठयोग के सिद्धांत का क्या औचित्य ? यदि औचित्य है भी तो परमात्मा सर्वव्यापक है, वह मात्र किसी एक जीव के दायरे में कैसे बँध सकता है अथवा किसी एक जीव से कैसे प्रेम कर सकता है ? पद्मावती परमात्मा ने अपने प्रकाश से अलाउद्दीन और देवपाल को वंचित क्यों रखा ?

दूसरा प्रश्न परमात्मा पद्मावती के अलौकिक सौन्दर्य का अतिशयोक्तिपूर्ण आलोक से है, जिसे देखते ही रत्नसेन, अलाउद्दीन और राघव-चेतन मुर्च्छित हो जाते हैं, यहाँ तक कि देवताओं के धड़ में भी प्राण नहीं रहते । आश्चर्यजनक है कि पद्मावती के आस-पास के लोग जीवित कैसे रह गयें ? पद्मावति के जिन स्वरूप का वर्णन हीरामन सुआ करता है, वह बिल्कुल एक नारी के सौंदर्य का वर्णन है न कि परमात्मा का आलोक ! यदि परमात्मा के आलोक का आरोपण कर भी दिया जाय तो जिन शब्दों में हीरामन सुआ पद्मावती का वर्णन रत्नसेन से करता है तो वह गुरू माना जाता है किंतु उन्हीं शब्दों में वर्णन करने वाला राघव-चेतन शैतान कैसे ? जिस परमात्मा को प्राप्त करने के लिए ‘जीव’ या ‘आत्मा’ राजा रत्नसेन जोगी बन बैठा उसी परमात्मा को प्राप्त करने को इच्छुक अलाउद्दीन ‘माया’ कैसे ? कहानी का अंत करने में राजा देवपाल कहानी का मुख्य हिस्सा होते हुए अमान्य कैसे रह गया ? परमात्मा से प्रेम क्या पुरूष ही कर सकते हैं स्त्री नहीं ! नागमति परमात्मा पद्मावती की भक्त क्यों नहीं बन पायी ? यदि पद्मावति परमात्मा है तो उसे नागमति से सौतियाडाह क्यों ? विवाह से पूर्व यदि पद्मावती परमात्मा का स्वरूप है तो विवाहोपरांत मात्र पतिव्रता भारतीय स्त्री कैसे बन गयी ? 

देखा जाय तो सूफ़ियों ने स्त्री को महत्व तो दिया है लेकिन यदि समस्त कथाक्रम को ध्यान में रखा जाय तो उनके लिए नारी सौंदर्य वह अप्राप्य वस्तु है जिसे पाने के लिए नर अनेक बाधाओं को पार करते हुए उस तक पहुँचता है और पाने के बाद सोने के पिंजरे में जड़ देता है । जिस नारी रूपी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए वह जोगी बन जाता है उसे प्राप्त करने के पश्चात् निरा भोगी बन जाता है । जिस नारी में परमात्मा दिखायी देता है, विवाहोपरांत उसी नारी की सलाह की कोई जरूरत नहीं होती अथवा उसके सुझाव को महत्त्व नहीं दिया जाता ! लैंगिक आकर्षण और परमात्म-प्रेम गड्ड-मड्ड होकर स्त्री की बौद्धिकता घर के अंदर सिर्फ भोग-विलास तक सीमित हो जाती है, चौखट के बाहर वह ‘तुम्ह तिरिआ मति हीन तुम्हारी’ बन कर रह जाती है । सिमोन द बोउवार के अनुसार, “पुरूष जब नारी को अपनी संपत्ति के रूप में प्राप्त करता है, तो उसकी इच्छा रहती है कि नारी केवल देह ही रहे । पुरूष नारी के शरीर में नारी के व्यक्तित्व का विकास नहीं देखना चाहता । वह अपने में सीमित रहे, संसार में अन्य किसी से संलग्न न रहे । वह जिस कामना को जाग्रत करती है, उसे तृप्त करे” । 

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परमात्मा पद्मावति का स्वरूप उस समय और अधिक संदिग्ध हो जाता है जब वह एक आम इंसान की भाँति काम भावना में दग्ध हो जाती है । आत्मा यानी जीव के आने के पुर्व से ही उसके अंदर कामभावना का दीप प्रज्वलित रहता है और रत्नसेन का आगमन जलती अग्नि में घी के समान कार्य करता है, जिसे परमात्मा का जीव से मिलने की तीव्र उत्कंठा कही गयी है । मिलन यानी विवाह के पश्चात् चित्तौड़गढ़ में आने पर उसका परमात्मापन का भारतीय पतिव्रता नारी के रूप में परिवर्तित होना उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता    है । सुहागरात की सेज पर आत्मा-परमात्मा का मिलन अश्लीलता की सारी हदें तोड़ता हुआ नज़र आता है । जिसमें जायसी स्त्री-भेद हस्तिनी, सिंहिनी, चित्रिणी, पद्ममिनी बताते हुए पद्ममिनी नायिका के भोग को उत्कृष्ट साबित करते हैं साथ ही पुरूष को संतुष्ट करना स्त्री का परम कर्तव्य है, जैसे सिद्धांतों पर बल देते हैं । रामकुमार वर्मा के अनुसार, “जायसी ने अपने ‘पद्मावत’ की कथा में आध्यात्मिक अभिव्यंजना रखी है... पर जायसी इस आध्यात्मिक संकेत को पूर्ण रूप से नहीं निबाह सके और अधिकांश में पद्मावत में चित्रित प्रेम का स्वरूप अलौकिक न होकर लौकिक हो गया है” । 

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इतना ही नहीं आत्मा परमात्मा का भोग कर वापस दुनिया-धंधा यानी नागमति के पास लौट आता है और अपने शब्द जाल में दुनियाँ-धंधा को फँसाते हुए उसका भी उपभोग करता है । भोग उपभोग की कहानी यहीं समाप्त नहीं होती बल्कि सौतियाडाह का रूप ले लेती है । आत्मा परमात्मा के पास जब वापस लौटती है तब दुनियाँ-धंधा से ईर्ष्या करते हुए परमात्मा आत्मा से कहती है - 

“सुरूज हँसा ससि रोई डफारा । 

 टूटी आँसु नखतन्ह कै मारा । 

रहै न राखे होइ निसाँसी । 

तहँवहि जाहि जहाँ निसि बासी । 

हौं कै नेहु आनि कुँव मेली । 

सींचै लाग झुरानी बेली” । 35/10 । ।  

— अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. पृ. 435

जीव या आत्मा के लिए दुनियाँ-धंधा और परमात्मा में सौतियाडाह व्यंग्य तथा कलह के माध्यम से इतना बढ़ जाता है कि विवाद सुलझाने के लिए आत्मा को दखलअंदाजी करनी पड़ जाती है । ऐसी स्थिति में आत्मा को बेहद सशक्त और परमात्मा को कमजोर बनना आध्यात्मिक काव्य के हित में दृष्टिगत नहीं होता । आदर्शवाद के नाम पर शब्दाम्बरों की आड़ लेकर अलौकिक एवं उदात्त प्रेम में लिपटे परमात्मा का ऐसा अनावरण पूरे सूफी काव्य को संदेह के घेरे में खड़ा कर देता हैं । मेरी वोल्स्टनक्राफ़्ट के शब्दों में कहें तो, “प्रेम, जैसा कि प्रतिभाशाली व्यक्तियों की लेखनी ने दर्शाया है, का अस्तित्व इस धरा पर नहीं है अथवा यह मात्र उन तीव्र, आवेशपूर्ण कल्पनाओं में जीवित है, जिसने ऐसे खतरनाक चित्र खींचे हैं । खतरनाक इसलिए कि वे कामी पुरूषों को, जो विशुद्ध इन्द्रियलोलुपता को भावुकता के आवरण में ढँक लेते हैं, न केवल एक कपटपूर्ण बहाना उपलब्ध कराते हैं, बल्कि साथ ही वे इस पाखण्ड को व्यापक बनाते हैं, और सद्गुण की प्रतिष्ठा को हीन कर देते हैं । 

वोल्सटनक्राफ़्ट, मेरी. स्त्री-अधिकारों का औचित्य-साधन. पृ. 109

इतना ही नहीं, इस अलौकिक गाथा का अंत राम और कृष्ण की भाँति स्वेच्छा से मृत्यु का वरण करने से होता है । जिसके प्रकाश से संसार प्रज्ज्वलित है ऐसे परमात्मा का अपने प्रिय जीव के साथ सति करने में जायसी थोड़ा भी नहीं हिचकिचातें । उसके बावजूद भी अलाउद्दीन की शक्ति बची रह जाती है और परमात्मा के नगर को पूजने के बजाय ध्वस्त करने की आवश्यकता पड़ जाती है ! डॉ. शिवकुमार मिश्र, “पद्मावत की त्रासदी यह नहीं है कि जीव भस्म हो गया और मुट्ठी भर क्षार बची रही । बल्कि सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जीव के साथ ब्रह्म भी मर गया । प्रेम तो जीवन का सार हैं । अगर वह नहीं बचा तो बचा क्या” ? 

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कहना गलत न होगा कि यह ग्रंथ अलौकिक गाथा में परमात्मा रूपी पर्दे के पीछे छुपकर नैतिकता की दुहाई देते हुए विशुद्ध लौकिक प्रणय-काव्य है और संस्कारों का चोला पहन कर परमात्मा के आवरण में छुप कर कामुकता को तुष्ट करना कवि और आलोचकों के लिए आसान रहा है । यदि यह ग्रंथ विशद्ध प्रणय-ग्रंथ के रूप में मान्य होता तो यह एक बेहतरीन ग्रंथ होता किंतु उसे आध्यात्मिक आवरण ने अनगिनत सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है । समासोक्ति-अन्योक्ति अथवा अलौकिक और ऐतिहासिकता का मिश्रण रूपी ग्रंथ के अंत को प्रक्षिप्त अंश कहना हमारे उस संस्कारी मानसिकता को दर्शाता है जहाँ कामभाव की स्वीकृत्ति मन में तो है पर सार्वजनिक स्तर पर स्वीकार करने की हिम्मत नहीं होती । यह वर्चस्ववादी सत्ता का नारी के सौन्दर्य और उसकी बौद्धिकता को भोग-उपभोग कर अपने कामुक भावनाओं को तुष्ट करना तथा उसे अपनी जायदाद समझ कर अपनी जिन्दगी ही नहीं बल्कि पूरे राज्य को दाँव पर लगाने की कथा है । 

रामकुमार वर्मा के अनुसार, “जायसी ने अपने ‘पद्मावत’ की कथा में आध्यात्मिक अभिव्यंजना रखी हैं । सारी कथा के पीछे सूफी सिद्धांतों की रूपरेखा है” । 

http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/206996/12/9_chapter%204.pdf जैसे कथन पर पुनः विचार करने की आवश्यकता है । भारतीय परम्परा के अनुसार भी पद्मावती परकीया नायिका ही थी, जिससे विवाह करके रत्नसेन ने स्वकीया बना लिया और अपने पति के वियोग में तड़पने वाली नायिका के दुःख की अवहेलना करते हुए उसे दुनिया-धंधा का नाम दे दिया गया, जो स्वकीया होते हुए भी परकीया की भाँति चर्चित रही । दुनियाँ-धंधा के ईर्ष्या-द्वेष को सार्वजनिक किया गया और परमात्मा के ईर्ष्या-द्वेष संबंधी उदाहरणों पर टिप्पणी करने पर बड़ी ही चालाकी से बच जाया गया । यह एकांगी दृष्टि वर्चस्ववादी सत्ता का न सिर्फ अपनी सुविधानुसार नायिका के चयन का अधिकार एवं उसके प्रेम को रेखांकित कर इतिहास बदलने की दृष्टि को दर्शाता है बल्कि भक्तिकालीन साहित्य में स्त्री के प्रति उपेक्षात्मक दृष्टि पर पर्दा डालने का प्रयास नज़र आता   है । यह सोचनीय है कि यदि यही प्रेम नागमति को किसी पुरूष परमात्मा से होता तो क्या नागमति दुनिया-धंधा भी रह पाती ? क्या सूफ़ी संत फिर भी किसी प्रेम-गाथा का उत्कृष्ट रूप तैयार करतें ? क्या नारी सम्मान की पात्र होती या पूर्वराग को महत्त्व दिया जाता ? अथवा यदि ये सभी प्रश्न सूफ़ीज्म के विरोध में हैं... तो क्या परमात्मा स्त्री अपने सभी जीवों से समान प्रेम करते हुए साहित्य के इतिहास इसी रूप में होती ? 

इन सारे प्रश्नों को एक शोधार्थी ने अपने शोध में तर्क-वितर्क के साथ प्रस्तुत भी किया है किंतु वह शोध कहीं न कहीं गुमनामी के अंधेरे में खोया पड़ा है । 

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राजा रत्नसेन और पद्मावती के मिलन को अलौकिक मिलन साबित करने के पश्चात् कथा को आगे बढ़ाना जायसी की सबसे बड़ी भूल थी, लेकिन यदि जायसी अलाउद्दीन का प्रसंग छोड़ देते तो शायद यह ग्रंथ उतना उत्कृष्ट एवं चर्चित भी न होता । फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी लेखक तत्कालीन परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना नहीं लिख सकता, जायसी के साथ भी यही हुआ । वर्चस्ववादी मानसिकता के प्रभाव में भक्ति का आवरण ओढ़ काव्य-रचना की गयी और उसी मानसिकता से अब तक इसका मूल्यांकन होता आया है तथा विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाया भी जाता है । इसमें कोई संदेह नहीं कि सामाजिक, सांस्कृतिक, प्रेमाख्यान आदि दृष्टि से यह ग्रंथ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, लेकिन इन सबके साथ इस ग्रंथ पर पुनर्विचार करने की भी अत्यंत आवश्यकता है कि यह ग्रंथ विशुद्ध लौकिक प्रेम-काव्य है अथवा आध्यात्मिक प्रेमाख्यान ?

संदर्भ-ग्रंथ –

  • अग्रवाल, वासुदेवशरण. पद्मावत. लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद. सं. 2018
  • शुक्ल, आ. रामचन्द्र. प्रस्तावना, योगेन्द्र प्रताप सिंह. पद्मावत. लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद. सं. प्रथम, 2017.
  • डॉ. नगेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास. मयूर पेपरबैक्स, नोएडा. सं. प्रथम 1973, तैतीसवां 2007. 
  • ओशो. संभोग से समाधि की ओर. डायमंड पाकेट बुक्स (प्रा.) लि., नई दिल्ली. 2005.
  • बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. हिन्दी बुक सेन्टर, नई दिल्ली. प्रथम, 2018
  • वोल्सटनक्राफ़्ट, मेरी. स्त्री-अधिकारों का औचित्य-साधन. अनु. मीनाक्षी. राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली, पहला 2003.
  • https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/ 10603/206996/12/9_chapter%204.pdf 
  • http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/ 10603/33418/8/08_chapter%204.pdf 
  • https://books.google.co.in/books?id=M2EAf21iLIIC&pg=PT90&lpg=PT90&dq=साहित्य+में+पूर्वराग&source=bl&ots=NdaZ8kNR4i&sig=ACfU3U3oCF3_yn3WgB3bzGUj1HfMKTJ8iQ&hl=en&sa=X&ved=2ahUKEwjy6qahv_gAhUHuY8KHTduCyo4ChDoATABegQICBAB#v=onepage&q=साहित्यजज्%20में%20पूर्वराग&f=false 
  • https://www.pustak.org/index.php/dictionary/word_meaning/पूर्व-राग
  • http://kavitakosh.org/kk/वियोग_श्रृंगार_/_रस_प्रबोध_/_रसलीन
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समीक्षा

अहमदाबाद में रामदरश मिश्र जी का जन्म शताब्दी कार्यक्रम

इसे चमत्कार ही कहेंगे कि कोई सुप्रसिद्ध लेखक अपने जन्म शताब्दी वर्ष में जीवित हो । श्री रामदरश मिश्र जी के जीवन का कुछ भाग गुजरात में बीता है । वे सहज व एक सच्चे इंसान भी हैं इसलिये इस कार्यक्रम में विद्वानों ने उन्हें 18 जनवरी 2024 को दिल से याद किया । 

रामदरश मिश्र के जन्म शताब्दी वर्ष की निमित्त गुर्जर भारती, गांधीनगर एवं हिंदी विभाग भाषा साहित्य भवन गुजरात विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वधान में गुजरात में रामदरश मिश्र कार्यक्रम की मिश्र जी के शिष्य ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त शिष्य रघुवीर चौधरी जी ने अध्यक्षता की । डॉ. नेहा पारीख ने प्रार्थना कर इस कार्यक्रम का प्रारंभ किया । 

 भाषा साहित्य भवन की निदेशक दर्शना बहन व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. निशा रम्पाल ने सबका स्वागत किया व कहा हम धन्य है कि आज इतने बड़े साहित्यकार लेखक विद्वान यहां उपस्थित है । डॉ. आलोक गुप्त गुर्जर भारती के अध्यक्ष हैं उन्होंने रामदरश जी के साहित्य की चर्चा करते हुए कहा कि वे हम सबके गुरु हैं और ये कार्यक्रम उनके महत्व को दर्शाता है । गुर्जर भारती के मंत्री ईश्वर सिंह चौहान ने शाब्दिक स्वागत करते हुए कहा कि इस कार्यक्रम का आयोजन हमारे लिए गौरव की बात है क्योंकि गुर्जर भारती एवं संस्थापक डॉ.महावीर सिंह चौहान से रामदरश मिश्र जी का गहरा नाता था, वे गुर्जर भारती के स्तंभ थे । 

रामदरश मिश्र के शिष्य घनानंद शर्मा जी ने अपने संस्मरण में उनसे सम्बंधित साहित्यिक व उनसे अपने निजी संबंधों की बातें बताईं । भंवरलाल गुर्जर जी ने अपने भाषण में कहा कि रामदरश जी की गुजरात के साथ अनेक यादें हैं उनकी कविताएं सरल है परंतु अति महत्वपूर्ण है । वे हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है । डॉक्टर गोवर्धन बंजारा ने उनके उपन्यास 'दूसरा घर' की समीक्षा का पठन किया । 

असिस्टेंट प्रोफेसर राजेंद्र परमार ने इस कार्यक्रम को सुचारू रूप से संचालित करते हुए अपने विद्यार्थियों एवम पी.एचडी.के शोधार्थियों द्वारा रामदरश मिश्र जी की रचनाओं का पाठ करवाया । तजाकिस्तान से यहां हिन्दी पढ़ रही छात्रा मारज़ोना ने भी अपने हिन्दी प्रेम को अभिव्यक्त करते हुए उन की कविता का पाठ कर सबको अचंभित कर दिया । सुप्रसिद्ध साहित्यकार नीलम कुलश्रेष्ठ ने बनारस से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'सोच विचार' में रामदरश मिश्र जी की पत्नी की दिसंबर में देहांत के बाद उनकी लिखी कविता 'सरस्वती जी के जाने के बाद' का पाठ किया । डॉ. रमेश बहादुर सिंह ने अपनी विशिष्ट कथन शैली में रामदरश जी के साथ अपने गुरू प्रेम को अभिव्यक्त किया । इस कार्यक्रम की विशेष बात ये थी कि गुजरात के गणमान्य साहित्यकार व अलग नगरों से आये प्रोफ़ेसर्स उपस्थित थे. उनके शिष्य भावभीने स्वर में बता रहे थे कि उन्हें गुजरात से गए बहुत वर्ष हो चुकें हैं लेकिन वे आज भी उनसे सम्पर्क में हैं । 

डॉ. रधुवीर चौधरी जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि रामदरश जी के साहित्य पर गंभीर चर्चा होनी चाहिए वे हिन्दी के ही नहीं भारतीय साहित्य के बड़े महत्वपूर्ण रचनाकार हैं । गुजरात के साहित्य जगत ने भी उनसे बहुत कुछ सीखा है । गुजरात में उन्हें जैसे शिष्य मिले वैसे अन्यत्र नहीं मिले । प्रेस रिलीज़... ईश्वर सिंह चौहान 





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प्रकाशनार्थ समाचार: 

अमिताभ बच्चन ने ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ कोसराहा

!! किताब को देर तक देखते रहे, प्रयागराज को शिद्दत से किया याद !!

प्रयागराज । बालीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन ने इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की पुस्तक ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ की जमकर सराहना की है । उन्होंने कहा कि यह किताब प्रयागराज के लोगों को रेखांकित करते हुए इतिहास को समेटने का काम करती है । इम्तियाज़ ग़ाज़ी के इस काम ने साबित कर दिया है इस तरह के ऐतिहासिक काम करने का सिलसिला हमेशा से इलाहाबाद से ही शुरू होता रहा है । 

उन्होंने ने किताब की एक प्रति पर अपने हस्ताक्षर करके श्री ग़ाज़ी को सप्रेम वापस भेजा है । 

प्रयागराज के मशहूर फोटोगा्रफर कमल किशोर कमल एक आयोजन में भाग लेने के लिए मुंबई गए हुए हैं । इम्तियाज़ ग़ाज़ी ने अपनी किताब ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ की दो प्रतियां उन पर ‘सप्रेम भेंट’ लिखकर कमल किशोर के हाथों अमिताभ बच्चन को भिजवाया था । रविवार को कमल किशोर ने अमिताभ बच्चन के ‘जलसा’ स्थित आवास पर मुलाकात कर किताब भेंट की । अमिताभ बच्चन किताब लेकर काफी देकर उसके एक-एक पेज का देखते रहे और अपने उपर छपे आलेख को भी देखा । इसके बाद उन्होंने किताब की प्रशंसा करने के साथ ही पुराने इलाहाबाद को बड़ी शिद्दत से याद किया । कहा कि- ‘इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने बहुत ही ऐतिहासिक कार्य किया है । इस तरह के काम करने का अपना इतिहास इलाहाबाद शहर का रहा है । मेरे बाबूजी ने भी बहुत दिनों तक इलाहाबाद में रहकर ऐतिहासिक रचनाकर्म किया । इलाहाबाद एक जागता हुआ शहर है, वहां रहने वाले लोग बहुत ही जिन्दादिल होते हैं । वहां का संगम, आनंद भवन और अन्य चीज़ें बहुत ही आकर्षित करती हैं । 

गौरतलब है कि इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की पुस्तक ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ में मशहूर 106 लोगों का विवरण प्रकाशित हुआ है, जिनमें अमिताभ बच्चन, मोहम्मद कैफ़, शम्सुरर्हमान फ़ारूक़ी, अमरकांत, नीलकांत, ज़ियाउल हक़, डॉ. जगन्नाथ पाठक, केशरीनाथ त्रिपाठी, न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त, न्यायमूर्ति गिरिधर मालवीय, रेवतीरमण सिंह, सलीम इक़बाल शेरवानी, डॉ. नरेंद्र सिंह गौर, पद्मश्री राज बवेजा, डॉ. प्रकाश खेतान, डॉ. कृष्णा मुखर्जी और डॉ. आलोक मिश्र आदि शामिल हैं । 


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