Abhinav Imroz April 2024



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कविताएँ


रश्मि रमानी, इंदौर, मो. 91113 45259

ज़िन्दगी 

ज़िन्दगी सिर्फ़ एक लम्हे भर की ही थी

क्योंकि जो प्यार में जी वही ज़िन्दगी थी

और प्यार ? 

प्यार तो सिर्फ़ एक लम्हे भर में ही हो गया था ! 

फिर बाक़ी ज़िन्दगी ? 

वो तो फक़त वक्त़ गुज़ारा था.......

और ज़िन्दगी के सफ़र में जो साथ चले? 

वो सफ़र में मिले खुशमिज़ाज अजनबी थे

अपनी मंज़िल अपनी राह चले गये

गुज़रे वक्त़ के साथ

पता नहीं कहाँ गुज़र गये.....

सांप

समर्पित प्रेमियों की तरह

चंदन की महकती शाखाओं पर लिपटे हैं सांप

रातरानी की भी कामना है कि

सांप आराम करें उसकी गोद में

सांपों की चिकनी कोमल काया को

चाहिए स्पर्श केवड़े की मादकता का

ख़ुश्बुओं के सच्चे पारखी हैं सांप । 



सांप

जब भी दिखते हैं

मौत का भय सरकता है

पर

सांपों को नहीं होता कोई सरोकार

दुनिया जहान से

वे तो बस जो कुछ मिल जाये खाने को

उसी से संतुष्ट होकर

मगन अपनी दुनिया में

फूल और भंवरे

शमा परवाने तो समझ में आये

पर

पता नहीं क्यों 

अब तक 

सांपों को सही तरीके़ से 

समझा क्यों नहीं गया?


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कविताएँ

डॉ. निशा नंदिनी भारतीय

तिनसुकिया, असम, मो. 9435533394

खोखली दुनिया 

इस खोखली होती दुनिया में 

सब कुछ खोखला है 

नाते-रिश्ते सब सिमट चुके हैं । 

नहीं किसी को किसी की परवाह

ऊपरी आवरण से ढके

सब जी रहे झूठे दिखावे में । 

प्रेम-प्यार-अपनत्व-ममत्व

सब सिमट चुका है । 

दया, करुणा, सहानुभूति, सांत्वना

किताबी कहानियों में 

बंद हो चुकी है । 


पहले कटे तुम राष्ट्र से 

समाज से परिवार से 

स्थिति भयावह हो चुकी है अब

बच्चे मां-बाप से 

और मां-बाप बच्चों से 

कट चुके हैं । 

नारी सशक्तिकरण की 

बात करने वाले भूल चुके हैं 

नारी सशक्त होने से पहले 

एक माँ है, एक पत्नी है

एक बहन है, एक बेटी है । 


खून के रिश्ते खून से 

लथपथ हो चुके हैं । 

हाथी के दांत खाने के और 

दिखाने के और, 

सिर्फ और सिर्फ 

झूठे दिखावे पर जी रही है 

यह पागल दुनिया । 

संवेदनाएं काठ सी हो चुकी हैं । 

अब कोई मोम सा 

पिघलता नहीं है । 


कितना ही असत्य-झूठा 

साज-सिंगर कर लो

परत दर परत छुपा लो 

अपने आप को । 

पर अवसाद, उदासी, खिन्नता 

दुख, कुंठा, निराशा, व्यथा 

को किसी भी गर्त में 

छुपा ना सकोगे । 


यह आंखें बोलती हैं 

यह चेहरा बोलता है । 

निरपक्ष बोलता है

खुलकर बोलता है । 

सिर्फ साथ रहने से ही 

हम साथ नहीं हैं । 

साथ होने और साथ रहने में 

बहुत बड़ा अंतर है

जब यह अंतर मिटेगा 

तब धरती पर प्रेम पनपेगा । 


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कविताएँ


श्री देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

मड़वा, बस्ती,  मो. 7355309428

शब्द और शस्त्र...

मैं भी लड़ सकता हूँ

बंदूक पिस्तौल बम चला सकता हूँ

पर कभी इन्हें हाथ नहीं लगाया

न ही कभी चलाया

मैं एक सृजनकार हूँ

शब्द ही मेरे बन जाते हैं हथियार

अन्नाय और अत्याचार के विरुद्ध

लड़ने के लिए हो जाते हैं तैयार

कहते हैं शब्द में जितनी ताकत होती है

शस्त्र में कभी नहीं हो सकती

शब्द-शब्द रचकर बनता है साहित्य

साहित्य सें हमें मिलती है शिक्षा और

मिलते हैं सद्गुण संस्कार

जबकि शस्त्र उठाने से जीवन हो जाता बेकार....


शस्त्र सें युद्ध की होती है शुरुवात

शब्द सें प्रारंभ होती है सभ्यता की बात

एक हमें विनाश की तरफ ले जाएगा

दूजा हमें सृजन सिखाएगा

वर्षों से शब्द और शस्त्र में प्रतिद्वंद्विता है

जीत सदैव शब्द की हुई है

शस्त्र सदा ही हारा है

शब्द ही सत्य और सुंदर है

शब्द ही सृजन का आधार है

जबकि शस्त्र निराधार है...


कुछ समय तक शस्त्र प्रभावी रहेगा

जबकि शब्द रामचरितमानस, गीता, कुरान

और बाईबिल रचकर हमें सत्य, धर्म, न्याय 

और कर्त्तव्य का पाठ सिखाते रहेंगे

जबकि शस्त्र हमें उन्माद और

असत्य पथ पर अग्रसर करेंगे

हमें निर्णय लेना होगा कि...

हम शब्द के साथ रहकर

अपने और दूजों का जीवन सुंदर बनाएंगे 

या शस्त्र के साथ चलकर

हिरोशिमा और नागासा की की तरह

विनाश की जमीं तैयार करेंगे...


हर पल तुम्हें महसूस करता हूँ...

अब तो तुम अजनबी हो गई

आखिर क्यूँ! ऐसी मुझे सजा दे गई...


अब भी अपनी हर धड़कन में, 

तुमको हर सांस में

हर दिन हर रात में, हर पल 

तुमको महसूस करता हूँ 

दिल की गहराइयों से तुम्हें पुकारता हूँ 

शायद! मेरी आवाज और मेरा दर्द

तुमको मालूम न पड़ता हो

तुमको सुनाई न देता हो...


क्यूँ! तुम अजनबी हो गई

लगता है बिल्कुल ही मुझे भूल गई...


चारों पहर हर क्षण तुम्हारे वुजूद को

स्पर्श करना चाहता हूँ

ख्वाब में नहीं हक़ीक़त में साथ चाहता हूँ 

जब भी ठण्डी हवा बहती है 

लगता है तुम आकर मुझे छू लोगी

जब भी परेशान होता था 

मेरी समस्या का निदान तुम

झट हल कर देती थी 

मैं अवाक हैरान हो जाता था

इसीलिए तुम्हारी प्रीत का कायल था...


आखिर क्यूँ! हमारे पवित्र प्रेम को

तुम अचानक से भूल गई

मेरा सुख-चैन सच में तुम छीन ले गई...


मैंने तो तुम पर सर्वस्व किया था समर्पण

तुमने बेवफाई का क्यूँ! दिखाया दर्पण

क्या अब तुम्हारे प्रेम पर

मात्र भी नहीं रहा मेरा अधिकार

तुमने ही तो उस पवित्र देवी मंदिर में

मुझसे किया था प्रेम का इजहार

हमारी उस चाहत को 

तुमने क्यूँ कर दिया इंकार...


आखिर क्यूँ! तुम मुझसे इतनी दूर चली गई

आखिर क्यूँ! हमारे पावस प्रेम का

मुझे इतनी मुश्किल सजा दे गई...

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गीत





सूर्य प्रकाश मिश्र 

वाराणसी, मो. 09839888743




बड़ा पेड़ -छोटा पेड़ 

बड़े आम का छोटा पेड़ 

छोटे आम के बड़े पेड़ से 

ज़्यादा फलता है 

फिर भी पता नहीं क्यों 

मन ही मन उससे जलता है 

उसे बड़े पेड़ का वुजूद 

बहुत खलता है 


वह सोचता है 

बड़े पेड़ को लगती है ज्यादा भूख 

वह पी जाता है ज्यादा पानी 

और सोख लेता है 

छोटे पेड़ के हिस्से की 

हवा और धूप 


उसने सुना है 

जीने का हक सिर्फ उसी को है 

जो फलदार है 

वरना जीवन बेकार है 


वो मनाता है 

कब आयेगा वो पल 

जब उसकी नजरों से दूर होगा 

कभी -कभी फलने वाला 

ये बीता हुआ कल 


एक दिन बदली घिर आई 

फिर बड़े जोर की आँधी आई 

बड़ा पेड़ तन कर खड़ा रहा 

छोटा पेड़ बहुत घबराया 

पर बड़े पेड़ ने उसे धीरज बंधाया 

उसकी शाखों को 

टूटने से बचाया 


उस दिन 

छोटे पेड़ को समझ में आया 

फलदार का मतलब 

सुन्दरता की दुनिया 

और प्यार का मजहब 


उसे महसूस हुआ 

बड़ा पेड़ बहुत खूबसूरत है 

फलदार है 

उसके मन में 

ढेर सारा प्यार है 

वह काम का है 

बेकार नहीं है 

और किसी भी तरह 

नफरत का हकदार नहीं है 


 कौवा

बसन्ती के घर की मुँडेर पर 

रोज एक कौवा आता है 

बसन्ती का पति परदेशी है 

उसे लगता है 

वह परदेशी का हाल सुनाता है 

जो उसकी समझ में नहीं आता है 

लेकिन बदले में कौवा 

रोज रोटी का टुकड़ा पाता है 

और उड़ जाता है 


कई महीनों के बाद 

आया अच्छे दिनों का साया 

और बसन्ती का बसन्त 

घर लौट आया 

कौवा फिर सुबह सुबह आया 

उसने वही पुराना 

कांव -कांव का गीत सुनाया 

लेकिन आज बसन्ती को 

उसका गाना नहीं भाया 


उसने सोचा कौवा झूठा है 

कितना बेवकूफ बनाया 

कौवा गाते -गाते थक गया 

लेकिन रोटी का टुकड़ा नहीं पाया 


कौवा कई दिनों तक आता रहा 

टूटा दिल लेकर गाता रहा 

और खाली हाथ जाता रहा 

बसन्ती ने उसका दिल तोड़ दिया 

कौवे ने भी आना छोड़ दिया 


बसन्त फिर परदेश चला गया 

बसन्ती बीती बातें सोचती है 

और ये जानते हुए भी कि 

कौवा झूठ बोलता है 

उसकी बाट जोहती है 


लेकिन कौवा अब नहीं आता है 

वह कहीं और जाकर गाता है 

और रोटी के टुकड़े के बदले 

झूठ बोलकर 

फिर किसी विरहन का 

दिल बहलाता है

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संपादकीय

हिन्दी को वैश्विक स्तर पर पहुँचाने में अनेकानेक संस्थाओं का प्रयास शामिल है उनमें से कुछ लेखक भी हैं जो हिन्दी की भरपूर समर्पण भाव से सेवा कर रहे हैं । उनमें से एक हैं डॉ. अंजना संधीर, जो यू.एस. में 1995 से 2007 तक रहीं । उस दौरान उनका हिंदी प्रचार सराहनीय है उन्होंने अमरीका के विश्वविद्यालयों आदि में हिंदी प्रचार सेवा की, जिसका विवरण नीचे है; 

  • लर्न हिंदी एन्ड हिंदी फिल्म सोंग्सः RBC रेडियो न्यूयोर्क पर फिल्मी गीतों के माध्यम से हिंदी सिखाने का सफल जीवंत (Live) कार्यक्रम चलाया जिसमें गीतों का अर्थ समझाना, मुश्किल शब्दों को समझाना और हर हफ़्ते तीन नये शब्द हिंदी के सिखाना शामिल था ।
  • कोलंबिया विश्वविद्यालय की भाषा प्रयोगशाला में RBC रेडियो का उपहार दिया ताकि अन्य भाषाओं के साथ विद्यार्थी प्रयोगशाला में भारतीय रेडियो सुन सकें ।
  • कोलंबिया विश्वविद्यालय के 'मिडल ईस्ट लेंग्विज एन्ड कल्चर सेंटर' के हिंदी विभाग में हिंदी फिल्म क्लब की शुरूआत की। अपने घर से वीडीयो फिल्में ले जाकर विभाग में रखी ताकि विद्यार्थी हिंदी फिल्में क्लब से मुफ़्त में ले सकें और देखकर वापस दे सकें ।
  • हिंदी पढ़ने के साथ-साथ विद्यार्थियों को हर सेमिस्टर में एक बार शैक्षणिक यात्रा पर भारतीय बाज़ार 'जैक्सन हाइट्स' ले जाकर वहाँ पर भारतीय चीजों से परिचय करवाती व रेस्तराँ में भारतीय खाना कैसा होता है इसका परिचय करवाती व खाना मिलकर खाते। साथ ही में भारतीय कपड़े पहनना और भारतीय त्यौहार मनाने
  • सिखाए ।
  • प्रिंस्टन विश्वविद्यालय न्यूजर्सी, कोलंबिया विश्वविद्यालय न्यूयोर्क तथा स्टोनी ब्रूक स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ लोंग आयलेन्ड में एक दशक से ज्यादा विदेशी भाषा के रुप में हिंदी क्रेडिट कोर्स के रुप में पढ़ाई ।
  • सन् 1950 से अब तक अमरीका में हिंदी का इतिहास शोध कार्य किया ।
  • विश्व हिंदी सम्मेलन 2007 में अमरीकी हिंदी रचनाकारों की 250 प्रकाशित पुस्तकों की पुस्तक प्रदर्शनी का आयोजन किया जिसका विदेश मंत्री श्री आनंद शर्मा द्वारा उद्घाटन किया गया और पहली बार लोगों को पता चला कि अमरीका में भी हिंदी के रचनाकारों की इतनी पुस्तकें प्रकाशित हैं 
  • विश्व हिंदी सम्मेलन 2007 में अमरीका में हिंदी के विकास की सन् 1950 से 2007 तक की चित्रावली का आयोजन, प्रदर्शन किया। दुर्लभ तस्वीरें, संस्थाओं के आयोजन आदि की तस्वीरें, उसमें विवरण के साथ लगाई गई थीं । 
  • विश्व हिंदी सम्मेलन 2007 द्वितीय सत्र का संचालन किया । 
  • अमरीका के हिंदी के रचनाकारों की सन् 2006 से 2007 के दरम्यान प्रकाशित पुस्तकों का विश्व हिंदी सम्मेलन में विमोचन करवाया जिसमें 36 पुस्तकों का विमोचन हुआ अर्थात् 25 लेखकों की 36 पुस्तकें विमोचित हुईं। 
  • विदेशी युवकों को भारतीय संस्कृति से जोड़ने तथा उन्हें भारत यात्रा द्वारा भारतीय परिवेश दिखाने हेतु 'भारत यात्रा - 2006' में 16 युवा लड़के-लड़कियों के साथ अमरीका से भारत यात्रा पर मेजबान (Host) बन कर आई और दो हफ्ते की इस यात्रा में गुजरात के विभिन्न क्षेत्रों में छात्र घूमें तथा मुंबई भी देखी। यह भारत यात्रा न्यूयोर्क लाइफ इंश्योरेंस कंपनी द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित होती है। इसमें विजेता उस समय के गुजरात के मुख्यमंत्री व आज के भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी से मिले ।
  • अमरीका में देशी-विदेशी चैनलों पर हिंदी के कई कार्यक्रम, कवि सम्मेलनों का आयोजन किया। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पहली बार हिंदी कक्षा में वी. देसी टी.वी. चैनल की शुटिंग करवाई और छात्रों से बात-चीत करवाई । 
  • विश्व हिंदी समिति न्यूयोर्क की हिंदी पत्रिका 'सौरभ' की ओर से हर दिवाली व होली पर अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय हिंदी कवि सम्मेलनों का आयोजन व सफल संचालन किया तथा विभिन्न हिंदी समितियों को जोड़ने तथा एक करने का प्रयास किया। संस्था की तरफ से मुझे 'चार वेद' सम्मान स्वरूप दिये गए। 
  • महिलाओं की संस्था 'प्रगति' की हिंदी पत्रिका का संपादन किया । 
  • कौंसलावास न्यूयॉर्क द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में कविता पाठ तथा हिंदी से जुड़ी कॉन्फ्रेंस में वक्ता के रूप में भाग लिया। भारतीय कौंसलावास न्यूयॉर्क तथा भारतीय दूतावास वाशिंगटन डी.सी. के हिंदी कार्यक्रमों कार्यक्रम में विशेष भागीदारी ।
  • विश्व हिंदी सम्मेलन में कौंसल जनरल ऑफ इंडिया न्यूयॉर्क की विशेष तीन सदस्य समिति की एक सदस्य भी थी ।


अंजना संधीर

अहमादाबाद, मो. 09099024995

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कहानी


डॉ. कमला दत्त
Georgia, USA, Email : kdut1769@gmail.com

नासूर

वह देखती है, बस हर रोज़ से कहीं ज़्यादा ही भरी हुई है । लोग इतने पास-पास बैठे हैं कि वह हिल भी नहीं पा रही । बस का बीस मिनट का सफर उसे बेहद उकता देता है । आज वह बस के बाहर नहीं देख सकती, नहीं तो पास से गुज़रते हुए पेड़ ही गिनती, या मकानों के नम्बर मन-ही- मन दोहराती रहती । बहुत-सी निरर्थक बातें सोचती वह ऐसे ही वक्त काट लेती है । इधर वह बहुत-सी निरर्थक बातें जल्द जल्द इसी से करती रही है कि वक्त कुछ जल्दी कट जाये । फिर वह बड़े सोफियाना ढंग से सोचती है कि जिन्दगी बची ही कितनी है ! आधी के करीब तो कट गयी है, बाकी भी गुज़र जायेगी, पता ही नहीं चलेगा ! यहां आये दो साल हो चले हैं, फिर भी लगता है कि अभी जैसे कल ही आयी हो । 

वह सामने खड़े लड़के के कोट के बटन गिनना शुरू कर देती है एक दो, तीन, चार, छह, सात, और फिर सात, छह, चार, तीन, दो, एक । इस प्रकार न जाने कितनी बार उसके कोट के बटन वह ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर तक गिन गयी है । उसकी हिम्मत नहीं पड़ती कि मुँह उठा कर ऊपर देखे । हर शुरुआत से डरने लगी है । उसे लगता है, वह हर चीज़ से बेहद थक गयी है । कुछ भी नया वह इधर बिल्कुल नहीं कर पाती । किसी नये आदमी से मिलना भी नहीं चाहती । अब कहीं जाने पर देर तक बोल ही नहीं पाती । बस अपने में गुमसुम बैठी रहती है । 

वह जानती है कि वह लड़का उसकी तरफ देख रहा है । उसका हाथ आपसे - आप बालों पर चला जाता है । उन्हें ठीक करती है, पर उसकी तरफ देखती नहीं है, सोचती है, कहीं वह थोड़ी-सी उपेक्षा दिखाकर उसका ध्यान खींचने की कोशिश तो नहीं कर रही । उसे लगता है, उसने ऐसा करना तो इधर एकदम बन्द कर दिया है, सोचती है, वह लड़का अगर फिर कभी बस में मिला, तो क्या वह उसे पहचान पायेगी ? सोचती है, उसके कोट का पांचवां बटन नहीं है । फिर अपनी बेबकूफी पर खीजने लगती है । सोचती है, डिक जितना लम्बा होगा । फिर अपने को टोकती है कि वह क्यों फिर से डिक के बारे में सोच रही है ! सोचती है कि वह फिर कभी उस लड़के को पहचानने की कोशिश करेगी । 

बस एक झटके के साथ यूनियन के पास रुकी है । बस से उत्तर कर सड़क पार करते हुए उसकी साड़ी पिघली हुई बर्फ के कीचड़ में लिपट गयी है । साड़ी ऊंची करते हुए और कीचड़ से पैर बचाते हुए उसे अपनी टांगें नजर आ जाती हैं । बड़ा गुस्सा आता है कि वह बाकी इंडियन लड़कियों की तरह ड्रेस क्यों नहीं पहनती ! बड़ी इंडियानाइज्ड बनने की कोशिश करती है ! फिर सोचती है, ड्रेस में उसकी सूखी टांगें कैसी  लगेंगी ! डिक हमेशा कहता था - तुम यहां की ड्रेस क्यों नहीं पहनतीं ? पहले कहता था, तो हंस कर टाल देती थी । 

और फिर वह उसे एकदम बुरा लगने लगा था । पिछली बार उसने डाँट दिया था - क्या तुम्हें काली सूखी टाँगें देखने का बहुत शौक है ? वह एकदम चुप होकर रह गया था । 

उसे दस ब्लॉक का रास्ता तय करना है । वह सोचती है, किसी-न- किसी के बारे में कुछ सोचती हुई चलेगी । आज उसका मन नेमप्लेट्स पढ़ने को बिल्कुल नहीं कर रहा । इधर वह इस रास्ते से इतनी बार गुज़री है कि नेमप्लेट्स पर लगे नामों को क्रम से दोहरा सकती है । वह सोचती है किसी दिन किसीको उसके नाम से पुकार कर चौंका
देगी । 

जाने के पहले मिल कर भी नहीं गया । वह उसे खूब बुरा-भला कहना चाहती है । मन-ही-मन दोहराती है— उल्लू बुद्ध बेवकूफ ! तभी उसे लगता है, कोई बड़ी-सी बात कहनी चाहिए । वह मन-ही-मन कहती है- क़मीना ! और बड़ा हलका महसूस करती है । सोचती है, किसी दिन बैठ कर खूब बड़ी-बड़ी गालियां सोचेगी । 

आने के बाद डॉ० जॉनसन से मिलने गयी थी । कहने लगे - कमरा तुम्हें मेरे एक अमेरिकन स्टूडेन्ट के साथ शेयर करना पड़ेगा । मैंने डेस्क एलाट कर दिये हैं । उसे सोच कर अच्छा लगा, कोई अमेरिकन लड़का उसके साथ ऑफिस शेयर करेगा । फिर उसने अपने को टोका था, वह अच्छा लड़का क्यों सोच रही है ! अच्छा सा मिडिल-एज्ड आदमी हो सकता है । अच्छा सा बूढ़ा भी हो सकता है । यहां तो इतनी बड़ी-बड़ी उम्र के लोग पढ़ते हैं । फिर वह अपने पर झल्लायी थी, वह खुद क्या बूढ़ी हो गयी है कि कोई रूमानी बात सोच भी नहीं पाती !

कमरे में जाने पर एक चिट मिली थी, साथ में एक बड़े ब्राइट कलर का सिरेमिक का पीस : 'मैंने अपना डेस्क तुम्हारे डेस्क से बदल लिया है । मेरी टांगें लम्बी हैं, मेरे वाले में समाती नहीं । हमारे कमरे की बहुत-सी चीजें कॉमन हैं । तुम्हारी मेज के लिए एक छोटा-सा उपहार, उम्मीद है, तुम्हें पसन्द आयेगा । ' जब कि बाकी के सभी लोग अपने-आप में इतने खोये हुए थे, जैसे वहाँ थे ही नहीं, वह डिक की चिट पढ़कर बहुत भीग गयी थी । 

उस दिन वह कमरे में बैठी थी । नॉक कर वह अन्दर आया । एकदम हाथ बढ़ाकर बह बोला- मैं डिक हूं । उसने झिझकते हुए हाथ मिलाया था । कुछ देर उसे देखती रही थी । बहुत लम्बा । देखने में बहुत सुन्दर । उम्र में शायद उससे कहीं छोटा । ढेर सारे औपचारिक प्रश्न एक साथ - अमेरिका कैसा लगा ? सफर कैसा रहा? होमसिक तो नहीं ? कौन- कौन-सा कोर्स ले रही हो ? बायोकेमिस्ट्री ? अच्छा, वह किताब उठा लो । मैं ले चुका हूं । वह शेल्फ तक गयी थी । उसका हाथ किताब तक नहीं पहुंच पाया था । 

-अरे, तुम बड़ी छोटी हो ! वह शायद छह फीट चार इंच के लगभग था । उसका मन हुआ कि उचक कर देखें, कितने इंच की हील पहन- कर वह डिक के कंधे तक पहुंच सकती है । तभी उसे ध्यान आया था कि उसे हील पहनकर चलना ही नहीं आता । फिर वह उसे कैफेटीरिया ले जाता । उसे कुछ दिन के लिए लगा था कि सारी मनोटिनी दूर हो गई है । और घर भी अब उसे इतना याद नहीं आता था । फिर एक दिन यह पूछने पर कि क्या इंडियन लड़कों के साथ डेट पर जाती हो, उसने सिर हिला दिया था । उसके कहने पर कि मेरे साथ चलोगी, उसने एक बार फिर सहज भाव से सिर हिला भर दिया था । 

कहने लगा-तुम इतना कम क्यों बोलती हो ? उसने कहा था, घर पर लोग उसे नॉनस्टॉप कहते थे । वह इतनी उदास क्यों रहती है ? उसने कहा था कि कोर्स वर्क बड़ा मुश्किल है, डारमिटरी में कोई बोलता नहीं, खाना अच्छा नहीं लगता, घर की बहुत याद आती है । घर के नाम पर उसकी आंखें छलछला आई थीं । कहने लगा- तुम ओरियंटल लड़कियां रोती बहुत जल्दी हो । तुम अपने आप में थोड़ा कॉनफिडेंस क्यों नहीं लातीं ? इतनी बेचारगी से क्यों घूमती हो ? इतनी डरी-डरी क्यों रहती हो ? जब किसी से बात करती हो, तो लगता है, मानो अपने यहां होने का स्पष्टीकरण दे रही हो । 

लगता है, एग कैंपस की क्लासें खत्म हुई हैं । ढेर सारे स्टूडेंट्स सड़क पर आ गए हैं । उसके इर्द-गिर्द एक अच्छी-खासी भीड़ इकट्ठी हो गई है । वह एकदम तेज़ चलना शुरू कर देती है, जैसे भीड़ उसे धकेल रही हो । वह खुद हैरान है कि वह इतना तेज़ कैसे चल रही है ? इधर उसने तेज़ चलना एकदम बन्द कर दिया और अब जैसे हर चीज़ की रफ़्तार को कम करना चाहती है । पास से एक हिप्पी लड़का 'हे राम---हे राम' कहता हुआ गुज़र गया है । जब वह उसे पहली बार घुमाने ले गया था, तो वह सरक कर कार के एक कोने में बैठ गई थी । वह कहने लगा- इतनी दूर क्यों बैठी हो ?

वह थोड़ा पास सरक आई थी । रास्ते में जब उसने उसे चूमने की कोशिश की, तो वह बहुत घबरा गई थी । गुस्से में न जाने क्या-क्या कह गयी थी । और फिर वह कई दिनों तक कमरे में नहीं आया था । 

बाद में वह अपने आप से नाराज़ हुई थी । चूम लेता, तो कौन-सी आफत आ जाती ! रात को सोते वक्त उसने किसी के भी क़रीब होने की बात नहीं सोची ? बड़ी आइडियलिस्ट बनने की कोशिश करती है । उसने सोचा था कि, मिलने पर माफी मांग लेगी । पर जब वह कमरे में आया था और ज़ोर से उसने 'हेलो' कहा था, तो वह गुमसुम बनी कुरसी पर बैठी रही थी । कहने लगा- मैं तो तुम्हें चियर करने की कोशिश कर रहा था । अमेरिका में तो लड़के पहली डेट में ही ...! और उसने बहुत बड़ी प्लीज़ कह कर बात काट दी थी । कहने लगा- तुम्हें इतना अप्राकृतिक क्यों लगता है ? क्या हिंदुस्तान में बच्चे अब भी रुई में लपेट कर खिड़की में से ही फेंके जाते हैं ? वह देर तक हँसती रही थी । कहने लगा- चलो, तुम्हें हंसी तो आई ! वे कैफेटीरिया चाय पीने गये थे । 

बैठने के बाद उसने मेज़ के नीचे हाथ डाला था । उसका हाथ किसी के चिपकाये झूठे च्यूइंगगम से आ लगा था । वह एकदम छिः कह उठी थी । फिर वह उसे देर तक छिः का मतलब समझाती रही थी । कहने लगा - मेज़ के नीचे हाथ डालने का अर्थ हुआ, तुम चाहती हो, मैं नीचे से तुम्हारा हाथ पकड़ लूं ! उसने कहा था- लगता है, फ्रॉयड तुम्हारा करीब का रिश्तेदार रहा है !

दोनों देर तक हंसते रहे थे । 

-तुम्हारी उम्र कितनी है ? अरे, अमेरिका में लोग तुम्हें ओल्ड मेड कहेंगे !

उसने कहा था, इंडिया में भी कहते थे । 

- पर तुम लगती बहुत छोटी हो ! तुम्हारा कहने का मतलब है कि इतनी उम्र हो जाने पर भी तुम्हारा किसी से संबंध नहीं रहा उसने खीज कर कहा था -नहीं । 

- तुमने अब तक शादी क्यों नहीं की ?

उसने कहना चाहा था, हुई नहीं । वे दोनों कितना इकट्ठा घूमते ! बाद में उसने उसे कई बार चूमा था, पर वह पहले दिन की तरह नाराज़ नहीं हुई थी । वह कई बार उसे अपार्टमेंट चलने को कहता, पर वह इनकार कर देती । अपार्टमेंट जाने का अर्थ हुआ..

लैब की सभी लड़कियों में लिंडा उसे बहुत पसंद थी । फिर लिंडा ने उससे बोलना बंद कर दिया था । फर्न की बातों से पता चला कि लिंडा डाइवोर्स लेने वाली है और उसके आने के पहले डिक उसी से डेट किया करता था । 

फिर लिंडा ने लंच ऑवर में कमरे में आना शुरू कर दिया और खींच कर वह डिक को बाहर ले जाती । डिक उसे भी चलने को कहता, पर वह हर बार इनकार कर देती । फिर एक दिन डेट के लिए कहने लगा, तो उसने न कर दी । कहने लगा- तुम इतनी पोजेसिव क्यों हो ? आई रियली लव यू...आई ऐम नॉट गोइंग स्टेडी विद् हर । 

फर्न से पता चला था कि लिंडा शाम को डिक के अपार्टमेंट पर ही रहती है । फर्न ने समझाया था, अमेरिकन लड़कों को जीतने के लिए सेक्स पहले आता है । लिंडा हरदम कमरे में बनी रहती । अकेले होने पर डिक कहता- तुम समझती क्यों नहीं, मैं तुम्हें सचमुच पसंद करता हूँ । पर वह अपने आप में जानती थी, यह लूज़िंग बैटिल    है । वह डिक की जान-पहचान की लड़कियों की लम्बी लिस्ट में एक और नम्बर भर है । इधर डिक ने कमरे में आना बहुत ही कम कर दिया था । 

फाल में डॉ० जॉनसन ने कहा— एक और हिंदुस्तानी लड़का आने वाला है । जब शोमीर आया था, तो वह कितनी खुश हुई थी ! वे देर तक हिंदुस्तानी में बात करते रहे थे । उसकी टूटी-फूटी हिंदी उसे बहुत पसंद आई थी । वह उसे घुमाने ले गई थी । रजिस्ट्रेशन के लिए ले गई. थी । पढ़ाई के बारे में कितनी देर तक समझाती रहती थी । अपनी किताबें और जो कुछ डॉलर बैंक में इकट्ठे हुए थे, उसे दे डाले थे । उसे गर्म कपड़े खरीदने थे । लगा था कि वह वाकई बहुत गिर गई है । आज तक वह दोस्ती में पैसों को बीच में कभी नहीं लायी । थे ही कितने ! डिक कमरे में कम आने लगा था । वे दोनों बहुत क़रीब आ गए थे । उन्होंने सोच लिया था, वह अपार्टमेंट में मूव कर जाएगी । शाम का खाना वे दोनों मिल कर बनाया करेंगे और खाया करेंगे । इतनी जल्दी इतना क़रीब आने में शायद घरवालों के खतों का भी हाथ रहा था...' कोई अच्छा सा लड़का दिखे, तो शादी की बात चलाना । कर लेना । हमारी तरफ से पूरी इजाज़त है । '

उसे घरवालों पर खूब गुस्सा आता है । जब कॉलेज और यूनिवर्सिटी में थी, तो सती-सावित्री का पाठ पढ़ाते रहते थे. किसी से बोलो मत, यह मत करो, वह मत करो, अच्छी लड़कियाँ यह नहीं करतीं, वह नहीं करतीं । और जब आम-सी दिखने वाली लड़कियों की शादी नहीं हो पाती, तो खुद ढूंढ़ लो !

वह अपने आपको टोकती है, क्या वह अपने आपको बहलाने की कोशिश कर रही है ? क्या उसकी जान-पहचान का कोई लड़का उससे शादी कर लेता ? वह अपनी जान-पहचान के बहुत-से लड़कों को याद करने की कोशिश करती है । ड्रामे में हीरो का पाठ करने वाला लड़का किसी हिरोइन जैसी दिखने वाली लड़की से ही शादी कर सकता था । यह और बात है कि ड्रामे की हिरोइन, हिरोइन न दिखनेवाली लड़की वह थी । वह सोचती है, ड्रामे में नौकर का पार्ट करने वाला लड़का शायद उसे पसंद कर लेता । कितनी अजीब-अजीब निगाहों से देखता था.या यह उसका कोरा भ्रम ही था ?

आनेे के पहले मौसी का कहना, कि 'कोई अच्छा-सा लड़का जरूर ढूँढ़ लेना, ' और उसके टोकने पर कि 'अच्छा-सा आदमी, मौसी, उसे मौसी बस तीखी निगाहों से देख कर रह गई थी । मौसी की याद आते ही बहुत-से क़रीब के अन्य लोग भी याद आ रहे हैं । उसे लगता है कि सभी कुछ पीछे छूटता चला जा रहा है और कुछ देर बाद इतना पीछे छूट जाएगा कि वह कभी फिर लौटने पर भी कुछ नहीं पकड़ पाएगी । उसे लगता है, उसके इर्द-गिर्द खालीपन और वैक्यूम के अलावा कुछ भी नहीं, जिसे वह छोटी-छोटी चीजों से भरने की हरदम नाकाम कोशिश करती रहती है । खालीपन है कि बढ़ता ही जा रहा है । 

शोमीर के आने के बाद उसने सोचा था कि डिक को लेकर शादी की बात सोचना कितना पागलपन था ! कहां वह अमेरिकन और कहां वह इंडियन ! कोई साम्य ही नहीं ! फिर उसे ध्यान आया था, शोमीर और उसमें कितना साम्य है ? इतना भर कि वे दोनों हिंदुस्तानी हैं । और लोगों के बीच शोमीर की खामियाँ कितनी उभर आती हैं ! कितनी गलत अंग्रेज़ी बोलता है ! और जब उसने डरते-डरते उस दिन हाथ पकड़ा तो उसने सोचा था कि वह डिक की तरह एकदम बोल्ड हो कर चूम क्यों नहीं लेता ! पर इस सबके बावजूद उसने सोचा था, शादी के लिए कहेगा, तो एक दम मान जाएगी । वह अकेले रहते-रहते बहुत थक गयी है, उकता गई है । कहीं पार्टी पर जाती है, तो अकेली लावारिस जैसा महसूस करती है । डार्मीटरों में वीक एंड्स बड़ी मुश्किल से कटते हैं । 

उसे लगता है, शुरूआत अभी उस दिन हुई थी... लिंडा डिक को ढूंढ़ती हुई कमरे में आयी थी, तो शोमीर जाती हुई लिंडा की टांगों को लगातार देखता रहा था । वह बात कह रही थी, पर उसने सुना तक नहीं था । वह सोचती है, हिंदुस्तानी लड़के अमेरिकन लड़की को देख एकदम लार टपकाने लगते हैं । 

फिर लिंडा और शोमीर एक एक्सपेरिमेंट में इकट्ठे काम कर रहे थे । शोमीर ने कमरे में आना बिल्कुल बंद कर दिया था । डिक कमरे में ज्यादा दिखाई देता था । जब शोमीर और लिंडा को साथ देखती, उसका मन होता, उसे बालों से पकड़ कर झटक दे । ऐसा सोचते हुए वह एक दिन कितना हंसी थी कि उसकी विग हाथ में आ जाएगी ! फर्न से पता चला था कि वह अक्सर लिंडा के अपार्टमेंट में ही रहता है । 

फिर उन दिनों का एक दिन अच्छा-खासा आर्ग्युमेंट हो गया था । कहने लगा कि यहां आकर भी क्या हिंदुस्तानी लड़की के चक्कर में ही पड़ा रहूंगा ! उसका सब कुछ एकदम जड़ हो गया था । वह देर तक कुछ सोच ही नहीं पायी थी । बोल भी नहीं सकी थी । गुमसुम खड़ी रही थी । उसे लगा था, उसके नीचे की ज़मीन एकाएक बहुत नरम पड़ गयी है और वह एकाएक नीचे बहुत गहरे में धंस कर रह गई है । उसकी आंखों के सामने ढेर सारे सफेद चूहे घूम गए थे, जिन्हें वह रिसर्च के लिए एक झटके से गर्दन खींच कर मारती है । वे छटपटा भी नहीं पाते और उनकी लाल-लाल एकदम बाहर निकली हुई आंखें कितनी निरीह लगती हैं !

उसने अपने आपको धिक्कारा था कि उसने किसी के भी साथ अपने को जोड़ने की बात सोची ही क्यों ? फर्न ने समझाया था, आदमी चाहे इंडियन हो, या अमेरिकन, सेक्स पहले आता है । शोमीर से बातचीत एक- दम बंद कर दी थी । वह कहता रहा था - शादी के लिए इंडियन लड़कियां अच्छी हैं, पर एनजॉय करने के लिए अमेरिकन लड़कियां क्या बुरी हैं ।

डिक कमरे में ज्यादा रहने लगा था, पर उसने सोच लिया था, वह कोई शुरुआत नहीं करेगी । वह हर चीज से बेहद थक गयी थी । फिर वह बहुत ज़्यादा बीमार हो गयी थी । डिक देखने आता । बहुत कुछ कहता । लेकिन उसे लगता, उसका सभी कुछ मर गया है । वह किसी भी सिचुएशन में अब रिएक्ट नहीं कर पाती । एकदम इनसेंसिटिव हो गयी है । फिर वह ड्राफ्ट हो कर चला गया । मिल कर भी नहीं गया । उसने हर किसी से अपने आपको खींच लिया है । कछुए की तरह वापस शेल में लौट आयी है । उसे लगता है, बाहर उलझनें -ही-उलझनें हैं और किसी भी बात की फिर से शुरुआत करने के लिए हिम्मत एकदम चुक कर रह गयी है । 

कैसे उस दिन कमरे में बैठ अपनी जान-पहचान की उन लड़कियों की लिस्ट बनायी, जिन्होंने शादी नहीं की, पर ऐकेडेमिकली बहुत कुछ अचीव किया है । फिर उसे हंसी आयी" "शादी की नहीं, या हुई नहीं ? उसने लिस्ट टांगी नहीं और फाड़ कर फेंक दी थी । वह अपने आपसे दुखी हो रही थी कि उसने किसीसे भी इंटीमेट होने की बात सोची ही क्यों ! पहले की तरह एक सीमा तक अच्छे संबंध बनाये भी तो रख सकती थी । उसे लगता है, उसके दिमाग में कोई गहरी विकृति समा कर रह गयी है । 

इधर उसके पेट में एकाएक बहुत दर्द रहने लगा है । डॉक्टर के पास गयी थी । कहने लगा-अल्सर है । सभी फारेन स्टूडेंट्स को यहां आने पर अलसर का हो जाना मामूली बात है । उसे बड़ा गुस्सा आया था कि डॉक्टर उसे सभी फारेन स्टूडेंट्स की आम लिस्ट में क्यों डाल रहा है ! उसने हमेशा अपने को बाकी लोगों से अलग और थोड़ा अधिक सेंसिटिव माना है । उसे अलसर नहीं, कुछ और बड़ी-सी बीमारी होना चाहिए । यह और बात है कि सभी लोगों ने उसे आम करार दिया है । उसके दिमाग में अन्य ढेर सारी अजीब-अजीब बीमारियों के नाम आने लगते हैं । वह कैंसर और नासूर पर आकर रुक जाती है । वह सोचती है, उसके दिमाग में नासूर हो, तो कैसा रहेगा ? वह निहायत बेवकूफी भरे अपने सोचने के ढंग पर मन-ही-मन खुश होती है और एक दुःखमिश्रित प्रसन्नता की अनुभूति मन के किसी कोने में छिटक कर रह जाती है । 

वह घर पहुँच कर बड़े बोझिल मन से दरवाज़ा खोलती है । पलँग पर पड़ जाती है । उसका सिर बहुत भारी हो रहा है और पेट में लगातार बड़े ज़ोरों का दर्द हो रहा है । वह तीन-चार गोलियां एक साथ खाती है । उसे अपनी जान-पहचान के एक चीनी लड़के की याद आ रही है । कहता था-

जब मैं बहुत परेशान होता हूं, तो शीशे के सामने खड़ा होकर परेशान करने वाली बात को जोर-जोर से दोहराता हूं और हंसने की कोशिश करता हूं । इससे बाद में बड़ा ही हलका महसूस करता हूं । अचानक ही वह शीशे के सामने खड़ी होकर जोर-जोर से कहती है-कैंसर कैंसर और हंसने की असफल कोशिश करती है । उसे लगता है कि वह हंसना तो कभी का भूल गयी है, उसका सभी कुछ थम गया है और बेहद थक गयी है । 

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कहानी

डॉ. सुदर्शन प्रियदर्शिनी

Ohio 44147, 'U.S.A.' 

Email : sudershen27@gmail.com


वह सौन्दर्य वह ममता

भाग्य की विडम्बनाओं ने, उदर की ज्वाला ने आज मुझे सब्ज़ी वाला बना दिया है । कभी स्वप्न में भी मेरी आँकाक्षाओं के महल इस तरह धराशायी नहीं हुये थे परन्तु आज जब मैं गली-गली, मुँहल्ले-मुँहल्ले में और सड़क सड़क पर सब्ज़ी बेचता फिरता हूँ तो सोचता हूँ, यह सब क्या है? हालाँकि मैं जानता हूँ कि यह समय का क्रूर परिवर्तन है और उसके हाथों मेरे भाग्य पर ताण्डव नर्तन । जब भी मैं किसी गली से आवाज़ देता गुज़रता हूँ तो नारी समाज की पड़ोसिनों को बतलाने की आवाज़ या बाहर मिट्टी में खेल रहे उन माँओं के लालों की कर्णप्रिय ध्वनियों की पुकार कि सब्ज़ी वाला आ गया सुनकर मेरा रोम-रोम चीख उठता है, परन्तु विवशता और ग्लानि ने मुझे यह सब सहना सिखला दिया है और अब मुझे इसमें भी आकर्षण दृष्टिगोचर होता है । इसी में जीवन का आनन्द झलकता दीखता है । अब मैं सन्तुष्ट हूँ । मैं अपनी सब्ज़ी का ठेला अक्सर उस गली में ले जाता हूँ और स्वयं ही एक बड़े मकान के समक्ष जाकर आवाज देता हूँ- सब्ज़ी वाला.. आ गया सब्ज़ीयों वाला.. और कुछ क्षण ऊपर उस अट्टालिका की ओर निर्निमेष दृष्टि से देखता रहता हूँ । 

तभी मेरी तृषा मुझे साक्षात दृष्टिगोचर होने लगती है । उस मकान में प्रतिदिन एक सुन्दर युवती निकल कर आती है और मेरी सब्ज़ी के ठेले की सभी सब्ज़ीयों पर अपनी कोमल अँगुलियाँ रखकर भाव पूछती जाती है । उसकी गर्दन के साथ चिपटा हुआ वह सलोना आकर्षक बच्चा उसको सब्ज़ी भी नहीं लेने देता । वह उसके साथ ही चिपका रहता है शायद उसके अंतर में ममता की अग्नि बहुत प्रज्वलित है जो कभी शान्त ही नहीं होती । तब वह भोली नारी, उस बच्चे को चूम-चूम कर ... मेरे लाडले... मेरे बेटे कहकर, अपनी गोद से उतार देती है । तभी दूसरा बच्चा आकर मेरे ठेले से कभी गाजर, कभी मूली, कभी टमाटर और कभी कुछ और उठा लेता है और सतृष्ण नेत्रों से उस नारी की ओर देखता है । शायद सहमति लेने के लिये । 

तब वह थोड़ा मुस्कुरा कर और थोड़ी कठोरता से कहती है- राजे तुझे माँरुगी, तेरी आदतें बहुत बिगड़ती जा रही    हैं । और अक्सर जाते समय एक आना दो आने उस बच्चे की चीज़ के पैसे फेंक जाती है । मैं भी यह कहकर उन्हें वापिस कर देता हूँ कि क्या हुआ बच्चा है ले लिया तो क्या हुआ । मेरी सब्ज़ी के मूल्य में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा, आप रहने दीजिये । और वह कृतज्ञ नेत्रों से मेरी ओर देखकर, मन्द मुस्कान बिखेरकर सदैव की भाँति अपनी उस महलनुमा जेल में घुस जाती है । 

और मैं फिर सब्ज़ी वाला... चिल्लाता हुआ आगे बढ़ जाता हूँ परन्तु मेरे हृदय पटल पर उसकी सुन्दरता अंकित सी हो जाती है । उसकी लच्छेदार घुँघराली लटें बारीक कुंडल सी उसके माथे पर जैसे चूड़ियों की सी छवि बनकर बेल की तरह बिछे रहते और उसपर उसकी कोई गहन संदेश और गम्भीरता भरी लम्बी-लम्बी मछली सी आँखें, मेरे समक्ष मंडराती रहती हैं । 

जाने क्यों उस देवी को देखकर मन को एक अद्भुत सी शान्ति मिल जाती । मैं हैरान था क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि वह उसके बच्चे नहीं हो सकते । हाँ, उसके भाई बहन हो सकते हैं । कभी-कभी उसकी ममता को देखकर मुझे भ्रम भी होने लगता कि यह सब क्या है? मैं रात-रात और दिन में भी शहर का चक्कर लगाता हुआ इस प्रश्न में डूबा रहता जैसे मुझे इसके अतिरिक्त किसी विषय से लगाव ही नहीं रह गया था । 

हाँ! भाई बहनों से स्नेह होता है, पर वहाँ इतनी अद्भुत ममता नहीं होती । फिर अभी वह युवती है उसका यौवन अभी अपने पूर्ण उभार पर भी नहीं आया है । मैंने कभी किसी और को उस बंगलेनुमा कोठी में नहीं देखा । दिन पर दिन उसे देखकर, उसकी पागल ममता को परखकर मेरा मस्तिष्क बौरा जाता, पागल सा हो जाता । जब एक दिन उसने गहरे नीले रंग का सूट पहन रखा था तो उसका सौन्दर्य उसमें और उभरकर मानो बाहर बिखर रहा था । मेरे अन्दर कोई वासना की बू उत्पन्न हो रही हो, ऐसा नहीं था परन्तु मुझे बू उस देवी के सौन्दर्य को देखकर, उसकी ममता को परख कर एक अजीब तृप्ति और सुख मिलता था । मुझे लगता जैसे संसार की सारी ममता इस नारी में पैठ गई हो । मैंने और भी युवतियाँ देखी थीं परन्तु किसी को इतने नैसर्गिक आनन्द का पान करते हुये नहीं देखा था । मैं पागल हो गया था उस नारी की ममता पर । नारी ममता है, जननी है । पालन पोषण कारी भारत माता है । मेरा जी चाहता कि काश मैं मरकर उसकी कोख से जन्म लूँ तो मेरे हृदय में सारे अभाव और दुःख उस ममता को पाकर समाप्त हो जायेंगे और मैं हवा के झोंकों सा लहराता पक्षी जैसा उन्मुक्त माँ की ममता का गान करता फिरूँगा । दिन पर दिन वह मेरे लिये एक रहस्यमयी देवी बनती जाती थी । 

उस दिन रविवार का दिन था । सूर्यदेव टिमटिमाते तारे की तरह कभी कभी दृष्टिगोचर हो जाते थे अन्यथा बादलों की गड़गड़ाहट का साम्राज्य था । मैंने देखा एक खूसट सा लगभग 40-45 वर्ष का प्रौढ़ सा व्यक्ति उस घर की सीढ़ियों से उतर रहा था और वही बच्चे थे । 

मैं थर्रा उठा । मानवता की इस बेहयाई पर रो उठा, चीख उठा । उँह इतनी सुन्दर देवी इस खूसट के हाथों अपना सौंदर्य, अपना उभरता यौवन गला रही है । समाज ने उस युवती के साथ मानों बड़ा धोखा कर रखा था । यह नारी के भाग्य की विडम्बना ही तो थी । मेरा रोम-रोम चीख उठा और मेरा जी चाहा कि उस खूसट व्यक्ति का गला घोंट दूँ या अगर उस युवती के माँ-बाप मुझे कहीं दिखें तो खड़े-खड़े उनके गले पर छुरी चला दूँ जिन्होंने ऐसे हिंस्र पशु को एक देवी सौंप दी है... आह ! उसका सौन्दर्य मुझे अब दुगना होकर दृष्टिगोचर होने लगा । मेरे अन्दर जैसे कोई घाव रिसने लगा । अब मुझे ठीक समझ में आ गया था फिर भी उस खूसट को सब्ज़ी देकर अपने कर्त्तव्य पथ की ओर चल पड़ा और दूसरे दिन की प्रतीक्षा करने लगा । 

वही समय वही मैं, वही सब्ज़ी लेकर दूसने दिन जब मैं उस द्वार पर रुककर पुन: चिल्लाया... सब्ज़ी वाला तो वही नारी म्लान सी, गजगामिनी सी मेरी सब्ज़ी के ठेले की ओर बढ़ आई । वही दो बच्चे उसके साथ थे । एक अँगुलि के साथ और एक गोद में लिये वह सब्ज़ी की देखभाल कर रही थी । मैंने उसके मुन्ने को एक टमाटर पकड़ा कर कहा- बहिन जी, यह बच्चा बड़ा प्यारा है । कितना भोला सा है, बिल्कुल आप पर गया है, और उसके मुख पर एक लाली दौड़ गई । वह चुप रही, नारी जो थी । फिर मैंने कहा आपका भाई है क्या? उसने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे अपना सब कुछ बतला रही हो कि नहीं... बच्चे हैं, भाई-बहिन नहीं । मैंने फिर साहस किया- आपके पतिदेव कहाँ रहते हैं? क्या बाहर रहते हैं क्योंकि कभी दिखे नहीं । और वह जैसे बाहर की सारी हवा को एक ही साँस में अन्दर भरकर बोली- कल जो सब्ज़ी लेने आये थे वह मेरे पति हैं । 

वे आपके पति हैं? मैंने जोर देकर और हैरानी से पूछा । आप इतने हैरान क्यों हो गये? और उसने गोभी मेरी तराजू में डाल दी । मैंने तराजू के पिछले पलड़े में जानबूझ कर पाव का बाँट रख दिया । उसने गोभी का काफ़ी बड़ा फूल चढ़ाया था । वह ज़रा कठोर होकर बोली- सब्ज़ी वाले यह क्या कर रहे हो? पाव का बाँट क्यों रख रहे हो पीछे । मैंने गम्भीर होकर कहा, बस यही तो मेरी समझ में नहीं आया कि पाव और सेर का क्या मेल? आप और आपके पति... बस मैंने इतना ही कहा था कि उस कोमल गात से एक अप्रत्याशित सा उत्तर मिला- सब्ज़ी वाले तुम सब्ज़ी दो, घर के मामलों से तुम्हें क्या मतलब और वह चली गई, मैं देखता रह गया । 

उसके मिट्टी पर पड़े पगचिन्ह मुझे दीख रहे थे । मेरे मुँह से निकल गया ओह! यह बच्चे अवश्य इस खूसट की पहली वासना के प्रतिफल होंगे । और अब, वह पुतली सी यौवना कैसे उसके आलिंगन में अपने प्रेममय उन्मुक्त जीवन की सरसता को सौंपती होगी । मुझे उस नारी में दिव्यता के दर्शन हुये । यह नारी इन बच्चों पर अपनी ममता किस कदर उड़ेलती है । मुझे अपने जीवन का संघर्ष और वेदना याद हो आई । मैंने भी दो शादियाँ की थीं । मेरा बस होता तो न करता परन्तु समाज ने मुझे इस पाश में पुनः बाँध दिया था । मेरे भी दो बच्चे थे, परन्तु वह ममता के सागर में नहीं, जमीन की धूल, झिड़कियों और ईर्ष्या द्वेष की मिट्टी में बिलखते रहते थे । मेरी दूसरी पत्नी उस सौन्दर्य और उस ममता की पुतली की पाँव की कनिष्ठका को भी स्पर्श करने के योग्य न थी । मेरे हृदय से आह निकल गई । मेरे सच्चे हृदय के टुकड़ों की दुर्दशा आँखों के समक्ष घोर विकराल रुप धारण कर नाचने लगी । फिर मैंने देखा उस युवती के साथ के उन दोनों बच्चों को जो हरदम जीवन की सर्वोत्तम प्रसन्नता ममता में चहचहाते रहते हैं । मैं बौखलाता हुआ आगे बढ़ने लगा । मेरी प्रत्येक सब्ज़ी में जैसे मेरा भाग्य क्रूर बनकर नाचने लगा और मेरे समक्ष दो विपरीत जीवन के दो विभिन्न पहलू दृष्टिगोचर हुये । एक ओर घर की वह कठोरता, वैमनस्यता, ईर्ष्या और द्वेष दूसरी ओर वह पवित्र सौन्दर्य और ममता । 

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कहानी

रजनी शर्मा बस्तरिया

रायपुर, मो. 9301836811

नहीं उतारूंगी पायड़ी !

पांच-पांच पैसे के सिक्कों को जोड़कर उसने "माड़िन "को दिखाया । माड़िन की आंखे खुशी से चमक उठीं । पलकें पंड़की चिरई की आंखों सी झपकने लगी । 

मोंगरी मछरी सी चिकनी देह, कांधे पर गठान । इसी गठान ने साड़ी की ऊँगली पकड़ कर पूरे बस्तरिया अनावृत सौंदर्य का भार उठा रखा था । टखने, साड़ी, बांह, नाक ठुड्डी पर गोदने के टप्पे । मीलों नंगे पाँव चलने के कारण कभी न छूटे ऐसे मुरूम का आलता । और इनमें गिलेट को गला कर बनाई गई नाव आकार की "पायड़ी" । 

खिंडिक जोय तो बार!

(आग तेज करो!)

हव । (हाँ)

सरई पाना सूपा से माड़िन जोय (आग) तेज करने लगी । गिलेट पिघलने से पहले लाल सूर्ख पलाश के फूलों सरीखा लपलप करता । जैसे चूल्हे में आग उग आया हो । और आंच से माड़िन का चेहरा ललछौंवा हो गया । 

"धनोरा "कनखियों से उसके उतावलेपन को नाप रहा था । पर स्वांग रच रहा था सूत से पैरों के नाप लेने का! इन्हीं पैरों के गोदने के टप्पे पर ही तो वह रीझ गया था । सूत से नाप लेकर उसने सांचा बनाया । पिघलता गिलेट गोरस की धारा सी सांचे के पोर-पोर में समाने लगी । अहा -! धरती जैसे गट-गट बारिश का पानी पी रही हो । आखिर बस्तर बायले (महिला) माड़िन के पाँव में पायड़ी को सजाना है ! कोई हँसी-ठठ्ठा तो नहीं है ना?

माड़िन ने आज हुलकते हुए भात रांधा था । चिंगड़ी मछली की साग । कोठार पर ढे़की (धान कूट यंत्र) पर धान कूटती जा रही थी । 

कुड़िया के छज्जे के पटाव में गमछा अरछा कर । उसके पाँव लकड़ी के हत्थे पर पड़ते ही उधर ढ़ेकी का मुँह धान के साथ पटर-पटर करने लगता । गूँज उठता था "राग-छरना", धान कूटना । पायड़ी बनाने के सांचे ठंडे हुए नहीं कि माटी की हांडी में धनोरा ने उसे ठंडा करने डाल दिया । 

आले भात देस!

(खाना दो!)

पत्तल पर भात और चिंगड़ी मछरी परोस कर माड़िन पुनः चली ढ़ेकी पर । 

ढ़क-ढ़क ..…..

चांवल नाचने लगे झक-झक.... बीच-बीच में वह कनखियों से धनोरा को देखते जा रही थी । 

अठ्ठारह की थी जब ब्याह हुआ था । और वह मेटगुड़ा में आकर बसी थी । गढ़वा शिल्प (बेल मेटल) का शिल्पी धनोरा । झिटकी-मिटकी( बस्तर के अमर प्रेमी युगल) बनाता था । जाने क्या-क्या मूर्तियां गढ़ता था ? उसको मूर्ति गढ़ते देख माड़िन खुद को झिटकी समझने लगती । भात खतम होते ही वह बोल पड़ी । 

आले हिटाऊन देस!

(निकाल भी दो अब!)

धनोरा मन ही मन मुस्कुराया इतने बरस का साथ है । क्या वह नहीं जानता कि माड़िन क्यूं अधीर हो रही है?

पानी से मानो सफेद नाव निकली । अहा!! 

पायड़ी ।  

इसकी देह पर बारिक छेद साक्षात झरोखे सरीखे । जिनसे श्रमतपा पाँव बाहर की दुनिया देखते होंगे । बस्तर की धूल-माटी चखते होंगें । माड़िन को कितने दिनों से प्रतीक्षा थी कि वह भी जगार में अपने मुनुख (मरद) की बनाई पायड़ी पहन कर जाये । 

सोनारिन बार-बार हाथ मटका-मटका कर अपनी ककनी मड़ई में मंगली को दिखा रही थी । 

कितरो चो आसे?

कितने का है?

माड़िन के पूछने बस की देर थी कि सोनारिन बखान करने लगी । 

पिला घेनला । 

(बेटे ने खरीदा) । 

बात कितने में खरीदा? 

की हो रही थी और वह जवाब 

कौन खरीदा ?

का दे रही थी । मृतवत्सा (बाँझ) माड़िन अच्छे से समझ रही थी । बिहाव के इतने बरिस हो गये । आंगा देव के गुड़ी में कुकरी, सल्फी, महुआ के फूल चढ़ाये । पर गोद हरी नहीं हुई । मरही सागोन भी हरिया गई । गाछ पर भी मरकत हरापन छा गया । पर उसकी कोख !

और तो और पास के जंगलों की भी मसें भीग गई थीं, गबरू हो गया । पर वह?

सोनारपाल की मड़ई सज चुकी थी । मड़ई में शहरिया गहनों की झमा-झम आवक । सोनारिन-लकलक- दकदक । ईधर माड़िन और धनोरा भी अपने जाख (सामान) के साथ आसन जमा चुके थे ।  

माड़िन का मन आज हुलक रहा था । मन सरई पाना (सरगी के पत्तों) सा डोल रहा था । तालाब पर पानी भरना रोज का काम । घुटनों के ऊपर बरकी (साड़ी) कर पाँव पानी की थाल पर । मानो तालाब भी मरा जाता हो उसके पैरों की छांव के लिए । क्या पता इन पायड़ी वाले पाँवों की छाया एक लहर से होते दूसरे लहर तक पहुँचाने में क्या आनंद आता था? "पानी की पहचान पनिहारिनों से और पनिहारिनों की पायड़ियों से" । पानी भरने के बाद घंटो पानी से संवाद । 

ये पानी संवदिया ही तो थे । जो ऊबक-डूबक पाँवों की पायड़ियों की छवि एक गांव से दूसरे गांव बिना नागा पहुंचाते आ रहे हैं । 

इनके संवाद पानी में तैरते डोंगे की कुंडी भी खटखटाते थे । तो कभी जाल के बीच छलंग कर भाग जाते! तो कभी महुए के फूलों से चुहल करते । दोनो में दीपक, नमन, अर्ध्य में पगे अपने पूर्वजों को प्रणाम भी पहुँचाते थे । 

सच में यह देह भी एक रुख (वृक्ष) ही है । घाट पर बैठी माड़िन के पाँव जड़ होकर नदी का सत्व अवशोषित करते थे । तभी तो यह देह भरती है, और भाव झरते हैं । शांत नदी में ऊपर सूरज की आंच वाली कंबल, कभी गुनगुनी चादर । बीच में भुंई (धरती) अपनी दोहरी जिम्मेदारी निभाती । सूरज की आँच और पानी की शीत दोनों के बीच संतुलन सिर्फ और सिर्फ वसुधा ही कर सकती है । सफ्फा़क पानी में माड़िन के पाँव । पानी में पड़ती धूप माड़िन के चेहरे से ठिठोली करती । माड़िन निश्चिंत । जब यह पूरा जंगल, प्रकृति अपनी शै के फनकार, उस्ताद हैं । किसी का दखल किसी दूसरे के फन पर कभी भी नहीं रहा । सभी अपनी-अपनी शै के मालिक अपनी हुनर के खुद कद्रदान । तो कैसी आशंका?

होंठो पर मचलते बस्तरिया गीत गाते उसके पावों की पनडुब्बी पानी के भीतर डगर-मगर, ऊबक-डुबक । पाँवों की ऐड़ियों के ऊपर मोरपंखिया गोदने के टप्पे... । ये लहरें भी तो नदियों के पाँव ही होती होंगी न? जिससे ये सदियों तक को नाप लेती हैं । पर्वत, सागर, गढ़ और माड़ । ये बादलों की कुंडी भी खटखटा कर नन्हे बच्चों सी भाग आती हैं । जैसे शरारती बच्चे घर की घंटी बजाकर भाग जाएँ । 

बिच्छू -बाना, माड़ी- बाना के गोदने बचपन में ही गुदवा दिया गया था । पर उनमें रंग तो कैशोर्य आने पर ही भरता है । पाँव की ऐड़ी में गुदवाया गया साँप -बाना इसकी मारक तासीर के कारण ही पड़ा होगा । मोरपंखिया गोदने के ऊपर दूधिया पायड़ी । मिट्टी में मीलों चलने के कारण एड़ियां चिकनी । आखिर इस देह की कलई तो हवा, धूप, पानी मिट्टी ही किया करती होंगीं । तभी तो देहातीपन, निश्छलता, अल्हड़ता की मूल परत पर और कोई रंग अपना रंग नहीं जमा सकता!

तालाब पर पैर डुबो कर बैठी ही थी कि अचानक छपाक की आवाज आई । ध्यान भंग हुआ ।  

लेका (लड़का) पानी के भीतर से रेत वाली माटी निकाल रहा था । माटी से सनी काया और पानी में भीगे पाँवों कि आपस में न चाहते हुए भी सामना हो ही गया ।  

खिंड़िक गुच्च लेकी!

(जरा हट लड़की!)

काय काजे? 

(क्यूं)

यहाँ की मिट्टी अच्छी है । 

क्या करेगा?

सांचा बनाऊंगा । ढ़़ोकरा शिल्प के लिए । 

हाय-

क्या-क्या बनाता है तू?

सब कुछ!

धनोरा की पुष्ट भुजाएँ । माटी से सनी शिल्पी खुद अपने ही सांचों में जड़ा हुआ । माड़िन की उत्सुकता बढ़ने
लगी । 

क्या-क्या बनाता हैं जल्दी बता ना!

बोला ना ।  

सब ।  

धानमाला, चिपनी माला, खिपड़ी माला, नाग मोहरी, खिलवा, बांहटी, पायड़ी, तोड़ा । इतना सुनना था कि माड़िन का मन हुलकने लगा । वह भी झुकी और रेतीली माटी निकालने में मदद करने लगी । 

नदी कान धरे सुन रही थी ।  

लहरें चुप्प.. 

जाने कौन सी कहानियां पानी में लिखी जाती हैं? कौन सा नाम? कौन सी पाती? जिसकी मियाद क्या पानी के बुलबुलों की तरह होगी? या फिर नदी की तरह शाश्वत ।  

माड़िन के मन में छप सी गई धनोरा की छबि । मोंगरी मछरी सी फड़कती बाहें । त्वचा सांवल । पर इतनी चिकनी की पानी उस पर ठहर ही नहीं रहा । देव पात्र में तुलसी दल मिश्रित छलकता 

पानी । कीचड़ से सनी उसकी देह । 

उधर जाल अरझा था कि धनोरा का मन? आंगा देव ही जाने जाने !

नियती कौन सा शिल्प रचने जा रही थी । गढ़वा शिल्पी धनोरा और माड़िन के मन के सांचों पर? उसकी देह पर गोदने के टप्पे के अलावा कोई शृंगार नहीं था । 

धनोरा की शिल्पी नज़र माड़िन के पाँवों पर पड़ चुकी थी । झुके-झुके मन ही मन उसने पाँवों का नाप ले लिया
था । शिल्पकार वो भी गढ़वा? सुपात्र मिलने पर ही सही सांचे में ढ़ला गहना लकलक-दकदक करता है । धनोरा ने मन ही मन सोच लिया था कि इन पाँवों के लिए वह पायड़ी जरूर बनायेगा । नदी की थाल पर पतुरिया माड़िन के पाँव । 

अहा!! इन पाँवों की ओट से जब गोदने के टप्पे झांकेंगे तब कितना फबेगा? उसका मन महुआ-महुआ होने लगा । 

उसने कहा धर लेका !

(पकड़ लड़के!)

माटी के लोदों के अदान-प्रदान में झुकी दो पीठों पर सूरज का तवा बीच में श्रमतपा काया, नीचे शीतल पानी । यही तो सालद्वीप का शृंगार था । 

तू क्या करेगी माटी का?

बर्तन में पोता लगाऊंगी । 

(लीपूंगी)

चूल्हे में माटी के लेप लगे बरतन कम रचते हैं । उसके हाथों में आये माटी में उसे कुछ चीज दिखी । टटोला... मन पहले ही धड़-धड़ करने लगा । पीतल की मुंदरी! उसने सवालिया नजर उठाई ही थी कि उत्तर तुरही बाजा सा गू्ंजा । 

अब यह तेरा!

इतना कहकर वह आगे बढ़ गया । 

रात भर माटी का दिया बार माड़िन करवट बदलती रही । सोन मछरिया सी मुंदरी उसकी ऊंगली में दमकती
रही । 

अगले दिन पाट जात्रा में सोनारिन की गिद्ध नजर उसकी मुंदरी पर पड़ ही गई!

कोन दिला?

(किसने दिया?)

माड़िन चुप रही । ओंठों को मींच लिया । 

पाटजात्रा में दो दल नृत्य के लिए आ जुटे थे । एक दल लेकियों का दूसरा दल लेका (लड़कों) का । सोनारिन के शब्दों के घातक बाणों से तीखे गीत माड़िन के कानों तक आ पहुंचे थे । 

नाक चो फुल्ली लेकी कोन लेका दिल्लो? 

(नाक की लौंग किस लड़के ने दी?) माड़िन दल की मंगली ने जवाब दिया । 

माड़पारा जाऊन रेलो माड़िया लेका दिल्लो ।  

(माड़िया लड़के ने दिया है । )

अब दल के दूसरे सदस्य की बारी थी । हाथ का कंगन किसने दिया?

जवाबी गीत । 

(सोनारपाल के लड़के ने दिया)

एक बार लेकियों का दल झुकता तो दूसरी ओर लेकों का । अचानक उस दल में वही माटी से सनी पहचानी भुजाओं वाला लेका धनोरा भी नर्तक दल में शामिल हो गया । माड़िन के मन में बोड़ा फूटला । (मन खुशी से झूम उठा । )

महिला दल गीतों से प्रश्न पूछ रहा था । पर सोनारिन की डाह-?

उसने दूसरे के प्रश्न पूछने की पारी ही झपट ली । 

उसने पूछना शुरू किया चरम ईर्ष्या से । 

हाथ चो मुंदरी लेकी कोन लेका दिल्लो?

(अंगूठी किसने दी?)

सोनारिन जानती थी । यह भरी भीड़ में माड़िन को अपमानित करने का सही समय है । वह तो यथा नाम तथा गुण (सोनारिन) सरीखी गहनों से लदी रहती थी । तब भी माड़िन की शृंगार विहीन काया के आगे वह फीकी पड़ जाती थी । धनोरा ने कभी भी उसकी मिन्नतों के बावजूद उसके लिए गहने नहीं गढ़े । माड़िन के आते ही पाटजात्रा में सन्नाटा छा जाता था । और हो भी क्यूं न? बस्तर का देहाती, लापरवाह, निश्छल सौंदर्य सालद्वीप की रौनक जो है । 

आतुर होकर सोनारिन गीत के बोल दोहराने लगी । 

कोन लेका दिल्लो? 

(किस लड़के ने दिया?)

माड़िन नृत्य करते पसीने से नहा गई । मन के भावों का भी इतना विद्रुप प्रदर्शन होता है क्या? उसका चेहरा पलाश सा लाल, आँखे अपमान की आशंका से पनीली । मन सरई पाना (पत्ते) सा डोल रहा था । धड़कन महुआ के फूल सा गदबद...गदबद... । 

क्यूँ बताए ?

क्या करें? 

अचानक सामने लेका दल के नर्तक धनोरा से आंखें 

मिलीं । भरोसे वाली आँखों में आजीवन साथ देने का भाव तैरने 

लगा । आत्मविश्वास की पलकें स्थिर हो गईं । स्पष्ट संदेश था! आँखों का आँखों के लिए । 

बोल दे!

बता दे!

बस यही संवादहीन संप्रेषण धनोरा और माड़िन के मन के पुल पर चलकर पहुँचे । 

सोनारिन चीखी!

किसने दिया?

कोन लेका दिल्लो?

आंखों की चमक लिए उत्तर में गीत गूंजा...

पनारा पारा जाऊन रेलो पनारा लेका दिल्लो!

( पनारा लड़के ने दिया?)

सन्नाटा सा पसर गया । सोनारिन को धचका लगा । यह निपट देहाती, बस्तरिया माड़िन! उसमें इतने साहस कभी आ ही नहीं सकता कि वह भरे समाज में लड़के का नाम बता दे । क्या वो नहीं समझती कि ककवा (कंघा), मुंदरी (अंगूठी), रुमाल देने का अर्थ प्रणय निवेदन है । और ले-लेने का अर्थ सहमति! पर फुटु-फूट चुका था! घोषणा हो गई । यह नेहराग, द्वेषराग पर भारी पड़ा । और कांडाबारा (विवाह) का भी शंखनाद था । माड़िन और धनोरा का! सोनारिन चरकली । (चिढ़ गई) । 

कहाँ उसे अपने गहनों से लदी काया पर इतना घमंड था । कि धनोरा उसका ही होगा! वह जुरलो तोरई नार सी भुंई (जमीन) खाल्है बैठ गई । 

तीर कमान से निकल चुका था । आदिवासी समाज में लेकी की इच्छा सर्वोपरि होती है । 

रात खतम ...बात खतम!

अगले दो दिन बाद मड़ई में अपनी जाख (सामान के साथ) सभी पहुंचे थे । सोनारपाल की मड़ई सज चुकी थी । मड़ई में शहरिया गहनों की झमाझम आवक । ईधर माड़िन-धनोरा ने भी अपनी दुकान सजा ली थी । मंगली भी पास में धूप, जंगली हल्दी का गप्पा (टोकनी) लिए बैठी थी । 

दुकान क्या गमछे को बिछा कर चारों ओर पत्थरों की आंट (घेरा) । इस पर जुगजुगा रहे थे । खिपड़ी माला, धान माला चिपनी माला, बांहटी, नागमोहरी, सुता, खिलवां, तोड़ा, करनफूल, कीलिप, बुल्ली, ककनी, मुंदरी । 

सोनारिन सल्फी बांगा (मद्ध की गंज) लेकर बैठी थी । मांदर बाजा, तुरही बजने लगा । कुकड़ा लड़ाई (मुर्गा लड़ाई) भी आरंभ हो चुका था । सोनारिन की गंज पर गंज सल्फी बिकती जा रही थी । 

माड़िन धनोरा के गढ़वा शिल्प के साथ बैठी थी । पर धनोरा गायब! कहां गया होगा? उसको अंदाजा हो गया था । अपने दोस्तों के साथ सल्फी चखने गया होगा! जाने सोनारिन ने सल्फी में क्या मिलाया था? जो भी चख रहा था बिना चाखना के झूम रहा था, लहरा रहा था । वरना सल्फी का ऐसा लंपटिया तेवर कभी भी नहीं रहा सालद्वीप में । आयतू ने तो सीने में हाथ रख कर मसलते हुए कहा भी था ।  

रग-रगा लागे से । काय नुक्को । (जलन हो रही है । )

असली है । 

धनोरा के बनाये शिल्प, सल्फी रुख, झिटकी-मिटकी, बैला, हाथी, मछरी, सूपा जाने क्या-क्या ? जादू था उसके हाथों में । दोनों की दुनिया अब एक-दूसरे के ईर्द-गिर्द ही घूमती थी । 

सांझ हो गई । धनोरा ने खबर भिजवाया कि वह वापस गांव चली जाये मड़ई के बाद । वह जरा थेब(रूक) कर बाद में आयेगा! गप्पा में सारे शिल्पों को गमछे, सरईपाना से ढंक कर वह लौट पड़ी गांव की ओर । 

पग उठाते ही पायड़ी का दोलन । आज ये पायड़ी गजगामिनी हो गये थे । कच्ची पगडंडियों पर पाँवों के ऊपर झरोखे वाली 

पायड़ी । ये झरोखे पायड़ी का नदी, पहाड़, राह धूल से संवाद करवा रहीं थी । संवदिया जो हैं!

खिंडिक थेब री! 

(जरा रुक!)

सोमारी ने पुकारा । 

कहाँ परायसीस? 

(कहाँ भाग रही है?)

सांझ हो गई है । गांव वापस जाना होगा जल्दी । 

गांव में घर पहुंच कर संझा दीपक जलाकर, पटाव में पैसों को मोड़कर खोंचा । पैरों में पानी उड़ेला । पायड़ी की बुड़बुड़ होने 

लगी । आखिर उसको भी तो दुलारना, साफ करना था । उसके मुंह में भी माटी भर गया था । पैरों को पोता (बोरे) में रंमजा (रगड़ा) । डेहरी पर बैठकर अपनी बरकी (साड़ी) के आंचल से बड़ी नरमाई से पायड़ी को पोछने लगी । बिल्कुल वैसे ही जैसे लाहुन-लाहुन पाना, नरम-नरम पत्तियों का मुंह हवा पोंछ जाती है । रात हुई धनोरा देर रात को लड़खड़ाते आया । उसने कभी इतनी ज्यादा नहीं पी थी । ना ही उसके ऐसे लच्छन रहे थे । पर यह क्या? 

वह आते ही गिर पड़ा । 

काय होली? 

(क्या हुआ?)

कलेजा रग- रगाये से !

(कलेजा जल रहा है!)

काय काजे? 

(क्यूं?)

कोन जाने?

कोन लगे खादलीस? 

(कहाँ पर, किसके पास पिया?)

सोनारिन लगे ।  

(सोनारिन से)

जाने सोनारिन पिछले कई दिनों से गाँव के बाहर सल्फी बेचने जाया करती थी । यूरिया के पैकेट एक बार उसने उसके गप्पा में देखा भी था । 

माड़िन चीख पड़ी!

हुन मिरायला! 

(उसने मिलाया है यूरिया!)

धनोरा की आंखे ऊबल रही थीं । कनपटी की नस सन्न-

सन्न । माड़िन की आंखे अनहोनी आशंका से कातर हो गई । आंखें भर गई । पानी झरने लगा । वह उठ खड़ी हुई कि किसी को तो मदद के लिए बुला लाये । पर मूर्छित होते धनोरा की ऊंगलियां उसकी पायड़ी पे अरझ गईं । 

उसकी आँखे कुछ बोल रही थीं । अंतिम समय जी भर कर निहार लेना चाह रहा था । जाने क्या पश्चाताप करना चाह रहा था ? सारे भाव उसकी आंखों के कोरों से बहने लगे । 

आखिरी शब्द....

पायड़ी नी हिटाईबीस!

(पायड़ी कभी भी नहीं उतारना!)

गर्दन एक ओर लुढ़क गई । 

आया गो......

माँ रे.....

विलाप, आर्तनाद सुनकर पड़रू रंभानेे लगे । केले की गाछ थरथराने लगी । तोरई की नार अकबकाने लगी । कुकरी गदबदाने लगे । सब हैरान! उसकी आया (माँ) क्यूं रो रही ोहैं? भले ही वह इस गाँव, सोनारिन की नजरों में मृतवत्सा (बाँझ) थी । पर उन सबको तो माड़िन ने ही पाला था । अपनी जनी संतान की तरह । 

पूरा घर भाँय-भाँय । लोग जुट रहे थे । सिरहा बोला । 

बकरा-भात खिलाउके पड़े दे!

(बकरा-भात का भोज देना होगा)

अकाले होला ।  

(अकाल मृत्यु हुई है । )

माड़िन अकेली जान । कहाँ से जुटेगा पैसा? गढ़वा चिन्हों को बेचने में समय लगेगा! ओसार में बस दस काठा चाऊंर है और छत के पटाव में सुक्सी (सूखी मछलियों) की पोटली । अर्थी के चारों ओर सियान । दोनो में मंद (शराब) परोसा जा रहा था । सल्फी की कुछ बूँदें मृत शरीर पर रितोई गई । महुआ के फूल अर्पित करते समय माड़िन का आर्तनाद । गागना, बिलखना । 

गिद्ध सी सोनारिन आस-पास मँडरा रही थी । 

कुटिल मुस्कान, तिर्यक स्मित को दबाते हुए सोनारिन का प्रलाप । 

आया गो । (माँ रे!)

कसन होला? 

(कैसे हुआ?)

अब माड़िन की सब्र टूट चुका था । वह चीखी । 

तू चो काजे होला!

(तेरे कारण हुआ । )

सोमारिन ढोंढ़िया सांप सी पलटी । 

काय बोललीस ? 

(क्या बोली?)

हव । 

हाँ

तूने ही यूरिया मिलाया था ना सल्फी में । 

सोनारिन ने ककनी वाले हाथ मटका-मटका कर तेज़ आवाज़ में गोहार पारना, प्रलाप करना शुरू कर दिया । 

हुन वो मोचो माई असन रला । 

(वह तो मेरे भाई जैसा था । )

माड़िन दुःख से बौरा गई है! 

सोनारिन बोली ।  

आरोप से ध्यान हटाने का कु्त्सिक प्रयास करते बोली । 

अरे जल्दी उठाओ अर्थी! 

इतने में भी उसका जी नहीं भरा तो

वह बोली । 

राड़ी बायले के धरा री । 

(विधवा को संभालो भई!)

माड़िन बेसुध हुई जा रही थी । 

आंखें मूँदी जा रही थी । अर्द्धमूर्छित अवस्था में वह बार-बार बुदबुदाये जा रही थी । कि सोनारिन ने ही धनोरा को जहरीली शराब पिलाई । एक जोड़ी हाथ उसके कानों से खिलवां निकालने लगे । उसकी गुहार से किसी के कानों में जूं तक नहीं रेंगी । 

गले का सुतवां खींचा जाने लगा । 

किसी ने उसके गले से निकली, दारूण पुकार नहीं सुनी । 

कर्णफूल नोंचा गया । 

उसकी अरजी किसी के कानों तक नहीं पहुंची । 

ककनी (कंगन) निकाले गये । 

सोनारिन की करतूत कोई सुनने को तैयार नहीं । सोनारिन की तिर्यक स्मित । उसकी गिद्ध नजर अब पाँवों की पायड़ी पर । 

आले पायड़ी के बले हिटाहा!

(पायड़ी निकालो!)

अर्द्धबेहोश माड़िन चीख पड़ी

नहीं .. छूने नहीं दूंगी !

किसी को भी नही!

बही होलीस काय!

(पगली हो गई है क्या ?)

राड़ी बायले केब के पायड़ी पिंधूआय? 

(विधवा औरत कभी पायल पहनती हैं क्या?)

माड़िन रोने लगी । 

हिचकिया बंध गई । । उसको सोनारिन ने ही मारा है!

सोनारिन भेड़िये सी झपट कर आगे आई । और बरकी से अर्द्धमूर्छित माड़िन का मुंह ढांप दिया!

सियान कहने लगे । 

रहने दो! साल भर बाद जब बकरा-भात, जात-मिलानी तक उसका दुःख कम हो जायेगा । तो वह खुद ही निकाल देगी । 

किसके लिए आखिर पहनेगी वो? मंगदई ने हामी भरी ।  

पर सोनारिन कब हार मानने वाली । 

असन ने कसन होये दे?

(ऐसे में कैसे काम चलेगा?)

पायड़ी तो निकालनी ही होगी!!

ढोढ़िया सांप सी सोनारिन की बांहे, भुजाएं उसकी ओर बढ़ने लगी । मूंदी आंखों से भी माड़िन उसकी कुटिल मुस्कान को महसूस कर रही थी । 

सोनारिन मद में चूर... । 

आखिर अब तो तूझे पायड़ी विहीन करके ही मुझे सुख मिलेगा!

जीवन भर भट्टी में मैं तपती रही और गढ़ी जाती रही ये माड़िन । 

अब ना तो वो शिल्पी रहा तो फिर कैसा शिल्प? अब तो वह जीता-जागता सांचा तोड़ कर ही रहेगी ।  

तोड़ ही दूंगी इसे!

उसके हाथ आगे बढ़े ही थे कि जोरदार प्रहार उन्हीं पायड़ी वाले पैरों से उसके उपर हुआ । 

घुच्च.... हट.... दूर हट..... । 

माड़िन का लकलकाता चेहरा, आंसुओं से गीला । बाकटा खोसा (जूड़ा) खूल चुका था । साड़ी का आंचल जमीन में लोट रहा था । 

थेब...! 

रुक!! 

तूके आंगा देव चो किरिया (कसम) । 

सनसनाती सोनारिन कहां रुकने वाली?

वह फिर आगे बढ़ी । 

पस्त हौसलों और ध्वस्त मन ने एक पाँव से दूसरे पाँव को सहारा दिया । दोनों ने पाँवजोरी की । हाथों के सहारे पकड़ मजबूत 

हुई । यह पायड़ी आज माड़िन की देह से चिपक गई थी । उसने बिफरते हुए सोनारिन को धक्का दे ही दिया । 

वह चीखी । 

हुन चो नेसानी नी हिटाऊं आंय! (उसकी निशानी नहीं उतारूंगीं!)

अरे...... राड़ी बायले!

(अरे विधवा औरत!)

पर माड़िन की आंखों में आज भय कहां? वह तो धनोरा ने नेह अंजोर में बुकबुका रही थी । 

सोनारिन ने आखिरी दांव फेंका । राड़ी तुचो ना तो ईचका ना तो पिचका? 

(विधवा औरत न तो तेरे बाल ना ही बच्चे हैं?)

अब मंगली को गुस्सा आया । उसने सोनारिन को खींचा । 

सियान बोले । रहने भी दो । 

साल भर बाद निकाल देगी खुद । सोनारिन हांफने लगी । कपट की परत उधड़ गई । आखिर उसके ईर्ष्या वाले कलेजे में थोड़ी ठंडक तो पहुंच गई थी । जो उसकी देह से किश्तों में खिलवां, सूता, नागमोहरी, चिपनी माला सब उतरवा ही लिया था । 

पर ये पायड़ी! साल पर साल बीते । पर आज भी माड़िन पायड़ी वाले पाँवों से बस्तर के माड़, पहाड़, जंगल लांघती है । अपनी ही शर्तों पर । धनोरा के शिल्पों की टोकनी के साथ आपको मड़ई, मेले में दिख ही जायेगी!

देखियेगा कभी!

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साभार: अंतस की अनुगूंज

डॉ. मेधावी जैन

लघुकथा

दस्तक 

ठक, ठक, ठक

‘कौन है ?’

‘तुम्हारा मन... दुष्ट वाला नहीं, भलमनसाहत वाला।’

‘बोलो...’

‘बधाई, आजकल तुम तरक्की कर रही हो, नित नई सीढ़ियाँ चढ़ रही हो !’ 

मैं मुस्कराते हुए, ‘धन्यवाद ।’ 

‘देखो, मुझे दूर कहीं, अधिक दूर नहीं.. बस निकट भविष्य में, कहीं घमण्ड के चिन्ह दृष्टिगोचर हो रहे हैं । बस, तुम्हें सावधान करने आया हूँ । दुष्ट मन तुम्हें अहंकार का बुलावा भेजेगा, तुम मत जाना, क्योंकि वह तुम्हारी यात्रा बाधित करेगा और मैं जहाँ तक देख पा रहा हूँ, तुहारी यात्रा लंबी है, दूर तक है । जिसमें कई पड़ाव हैं । तुम सक्षम हो उन्हें पार करने में। कोई भीतरी कारण न उपजने देना ।’ 

‘बहुत-बहुत धन्यवाद । बिल्कुल मैं ध्यान रखूँगी ।’   

पायड़ी वाले पाँव......... 

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कहानी

स्नेह गोस्वामी

बठिंडा (पंजाब ), मो. 8054958004

मन के तार

दरवाज़े पर दस्तक हुई और चिरपरिचित तालियों की ध्वनि भी तैरती हुई पूरे वातावरण को आंदोलित करने
लगी । 

अरे भाई, घर वालो, कोई है कि नहीं घर में । दरवाज़ा खोलो, नहीं तो हथेली मारके तोड़ ही डालेगी मैं हाँ । 

आ री हूँ, आ री हूँ । सीमा घुटनों पर हाथ रख कर उठी और धीरे धीरे चलते हुए मुख्य द्वार पर पहुँचकर दरवाज़ा खोल दिया । 

दरवाज़ा खुलते ही उसे परे धकेलती हुई महंत और उसके पीछे पीछे ढोलकिया मंसूर घर में दाखिल हुए । 

आओ बैठो - सीमा ने बरामदे में पड़े मूढ़ों की ओर इशारा किया और रसोई में चली गयी । मंसूर इधर उधर ताक रहा था । 

मुए, यूँ गरदन घुम- घुमा कर क्या ताक रहा है । कभी दीवारें नहीं देखी क्या ?

कहते कहते चाँदनी ने खुद नज़रें घुमाईं । एक कोने में रखा है बड़ा-सा मिट्टी का पात्र जिसमें प्लास्टिक के असली दिखते सूरजमुखी के फूल लगे हैं । एक तरफ है बुकरैक जिसमें हिंदी अंग्रेजी की तीस चालीस किताबें करीने से सजी हैं । बुकरैक के साथ ही रखा गया है कलात्मक पाट में पाम का सुंदर सा पेड़ । बीचोबीच पड़ा है यह मूढ़ा सैट । साधारण पर कुछ खास दिखती सज्जा । सामने की दीवार पर हाथ से बनी पेंटिंग टंगी है । एक औरत सबको पीठ किए, कमर पर बच्चा और सिर पर भारी बोझ लिए, नंगे पाँव कंटीले रास्ते पर बढी चली जा रही है । अभी वह यह सब देखने में व्यस्त थी कि सीमा एक ट्रै में पानी, कुछ स्नैक और दूसरे हाथ में रूहआफजा का जग लिए आ पहुँची – लो आंटी, यह स्नैकस खाकर पानी पिओ फिर यह रुहआफजा तुम्हारे लिए । 

बिटिया तूने इस हालत में इतनी तकलीफ क्यों की । बस पानी पी कर हम चले जाते । वो क्या है न, हमारी रेखा गई थी मौहल्ले में चक्कर काटने । लगता है कोई अमिताभ बच्चन मिल गया होगा तो वहीं नैन मटक्का कर रही होगी । हम धूप में खड़े-खड़े थक गये थे । ऊपर से गर्मी के मारे बुरा हाल हो रहा था तो सोचा यहां दो घड़ी आराम कर लें । रेखा के आते ही चल पड़ेंगे । 

सही किया आपने, गरमी में धूप में तपना जरूरी है क्या, बीमार हो जाती आप । लीजिए शरबत पीजिए । 

जीती रहो बच्ची, अल्लाह तुझे हमेशा नज़रे बंद से बचाए । कृष्ण जी तेरे सारे दुख हर लें । मातारानी तेरी हर मुराद पूरी करे । जुग जुग जिओ । सुहाग बना रहे । गोदी में दो दो लाल खिलाए । 

आप इधर पंजाब की तो लगती नहीं । आपकी बोली तो यू पी वाली है । मेरठ सहारनपुर की ठेठ खड़ी बोली । 

सही पैचाना तूने । मैं तो रूड़की की हूँ । पैदा हुई तो बाप और चाचा तो उसी समय बाहर फेंक आने को थे । दादी नमक चटाने को तैयार पर माँ ने जैसे तैसे रो धो कर मुझे बचा लिया था । ऐसे ही कभी प्यार और कभी नफरत झेलती हुई मैं छ सात साल की हुई थी कि पङोस में किसी के घर बेटा पैदा हुआ । वहाँ ये खुसरे नाचने आए हुए थे । मैं भी धीरे से सरक गई थी उनका नाच देखने । उन्होंने पता नहीं कैसे मुझे पहचान लिया था । वे मेरे साथ मेरे घर आए थे । माँ बहुत रोई चिल्लाई । मुझे अपनी छाती से चिपका लिया पर बापू नहीं पसीजा । उसने मुझे उन लोगों के हवाले कर दिया । मैं उनके साथ जाना नहीं चाहती थी पर जाना पड़ा । उनके डेरे पर आकर मैं कई दिन तक रोती रही थी । दो दिन तो पानी तक नहीं पिया था फिर हार कर हालात से समझौता कर लिया । माँ मुझे सपना कहती थी और बाकी सब लोग सिप्पू । यहाँ डेरे पर माई ने नया नाम दिया चांदनी । अब तो यहीं नाम मेरी पहचान है । - उसकी आँखें नम हो आई थीं पर उसने ऊपर देखते हुए अपने आँसू सुखा लिए । 

मैं आप को बुआ बोलूँ । मैं भी रुड़की की हूँ । गणेश चौंक के साथ वाली गली में हमारा घर है । 

अरे वाह, क्यों नहीं भतीजी । आज से मैं तेरी बुआ । 

तब तक इन दोनों को खोजती हुई रेखा भी चली आई थी । 

ये मेरी भतीजी है रेखा । मैं साथ न रहूँ तो भी इसका ख्याल रखना । 

तेरा आठवां महीना है न । 

हां जी 

अपना ध्यान रखना । मैं आती जाती रहूँगी । उसने अपनी पोटली में से थोड़ा गुड़ और पाँच सौ रुपए उसकी हथेली पर रख सिर पर हाथ रख दिया । 

ये नहीं बुआ । मैं ये पैसे नहीं ले सकती । 

एक तरफ बुआ कहती है और दूसरी ओर शगुण से मना करती है । पगली जिंदगी में पहली बार रिश्ता बनाया है । किसी ने प्यार से बुआ कहा है तो उसका मान तो रखने दो । 

वह चली गई थी । सीमा कितनी देर तक दरवाज़ा पकड़े खड़ी उन्हें जाते हुए देखती रही फिर भीतर आकर पैसे आलमारी में रख दिए और गुड़ रसोई में । 

अगले दिन वह तीन बजे फिर आई । एक बहुत सुंदर कंबल लेकर । 

ले बिटिया ये तेरे लिए । 

नहीं बुआ, आज मैं यह सब नहीं लूंगी । अभी कल ही तो पाँच सौ का कङकता हुआ नोट देकर गई हो । 

उसने पोटली में से एक सिल्क का सूट निकाला – तो ये ले ले । 

बुआ कहा न, मुझे यह सब नहीं चाहिए । 

बिटिया तुझे लग रहा होगा, एक हिजड़े से ये सब ... । पर सच जानना, यह सब शुभ का है । बधाई में अगले ने अपनी खुशी से दिया है । इसे लेने में कोई दोष नहीं लगेगा । वहम न कर । 

मुझे असमंजस में देख उसने एक विकल्प दिया – ऐसा कर, तू मुझे सौ रुपए दे दे । पचास कंबल के और पचास सूट के । फिर तो तुझे कोई ऐतराज़ नहीं होगा । 

बुआ यह तो अकेला सूट ही सात आठ सौ का होगा । तू इतना सस्ता बेच रही है । 

हमारी बड़ी  महंत तो बीस रुपए में भी दे देती है । गरीब लोग बेटी की शादी के लिए या किसी फंक्शन में पहनने के लिए अक्सर खरीद कर ले जाते हैं । 

 सीमा ने चार सौ रुपए देकर दोनों चीजें खरीद ली थीं । शाम को सुधीर आए तो उसने उन्हें चांदनी की बातें बता कर सूट और कंबल दिखाए तो वे देर तक हंसते और मजाक बनाते रहे । भई वाह ये यू पी वालों की कैसे कैसे लोगों से रिश्तेदारियां हैं । 

चांदनी बुआ का घर में आना बदस्तूर जारी रहा । जब भी उन्हें कोई सुंदर व महंगा सूट या कंबल बधाई में मिलता वे उसे थामे दौङी चली आती और बिना दिए जाती ही नहीं । साथ ही लाती छिटपुट हिदायतों की पोटली जो उसने इधर उधर से सुन कर पूछ कर इकट्ठा की होतीं । अक्सर वह अपनी माँ को याद करके आँसू बहा लेती । कभी-कभी अपने भाई बहनों की बातें भी याद कर लेती । कभी कहती – तू अब मायके जाएगी तो मेरे घर जाकर उनका हाल पता कर आना । उन्हें मेरे बारे में मत बताना । उनके लिए तो मैं मर गई फिर थोड़ी  देर बाद कह बैठती –रहने दे, तू कहां ढूँढेगी उन्हें । मुझे तो गली मौहल्ला कुछ भी याद नहीं है । पिछले जन्म की बातें हैं वे सब । 

करते करते नौवां महीना बीत गया और नन्हें रिशु ने दुनिया में कदम रखा । वह अस्पताल में ही उसे देखने पहुँच गई थी । बलाएं ली थीं उसने मेरी और मेरे बेटे की और जिस दिन वह सवा महीने का हुआ, उस दिन दलबल के साथ आई थी वह घर । बेटे के लिए दो प्यारे से झबले और नरम सा तौलिया लेकर । छम-छम करती पाँव में घुंघरु बांध जी भर कर नाची थी वह मेरे आंगन में । रेखा बार-बार कहती – अम्मा थक जाओगी, बस करो अब । अब मैं नाचती हूँ । 

तो मरी तुझे मैंने कब रोका है, तू भी नाच । आज मैं बहुत खुश हूँ । नानी बन गई हूँ मैं नानी । 

और वह ठुमके लगाती हुई फिर से नाचने लग जाती । उसके साथ आई रेखा चमेली, और पारो नाच कर थक जाती तो बैठ कर गाने गाने लगती पर चांदनी के पैर तो मानो थकना भूल ही गए थे । एक गाना खत्म होता तो दूसरा छेड़ लेती । लगातार चार घंटे जम कर नाची थी वह । मेरी सासु माँ ने एक थाली भर गुड़ और उस पर ग्यारह सौ रुपए शगुण के रख कर उसे देने चाहे तो उसने हाथ जोड़ दिए थे – नहीं बहन जी ये मेरी बेटी का ससुराल है । सीमा को मैंने अपनी भतीजी बनाया है । मैं अपनी बेटी के घर से पैसे कैसे ले सकती हूँ । आप ये गुङ और एक रुपया शगुण दे दीजिए । उसने अपना आंचल फैला दिया था । सास जी ने उसकी झोली में गुड़ डाला तो उसने थाली से एक रुपया उठा कर माथे से लगा लिया था । हजारों दुआएं दी थी उसने पूरे परिवार को । 

वह तो उसने जिद करके चारों साथ आए लोगों को हजार हजार रुपए कपङों के नाम के थमा दिए पर बुआ ने लेने से साफ मना कर दिया था । पनीली आँखों से घर में छींटा देती हुई चाँदनी इस समय सचमुच इस परिवार की कोई बुजुर्ग ही दिख रही थी । 

उन लोगों के जाते ही सास जी ने पूछा था – बहु तुम तो जमना नगर की हो फिर ये रुड़की वाली कहानी ? 

कुछ नहीं माँ, अपनेपन को तरसती रूह को थोङा सा सुकून देने की कोशिश की है बस- आँसू पौंछते हुए सीमा ने कहा । 

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कहानी


डॉ. राजेश्वर उनियाल, 
Email : uniyalsir@gmail.com, मो. 9869116784, 8369463319


संक्रांति का ढोल 

दो घंटे से खड़े-खड़े जमनदास का माथा भुनभुनाने-सा लगा था । ऐसा नहीं था कि उसको मनरेगा के पैसा मिलने में देरी होने के कारण गुस्सा आ रहा हो, दरअसल सूरज ढलने लग गया था और उसके साथी मुन्ना, हरी और चैतु सभी हरिया के ठेके के बाहर उसकी प्रतिक्षा कर रहे थे । उन सभी दोस्तों की आपस में पिलाने-खाने की बारी लगी होती थी । आज जमनदास की बारी है । कहीं जमनदास पैसा लेकर सीधे घर ना भाग जाय, इसलिए उसके सभी मित्र सतर्क होकर उसकी बाट जोह रहे थे । 

जमनदास के पियक्कड़ मित्रों से अधिक उसकी प्रतीक्षा घर में उसकी पत्नी रामी कर रही थी । उसके तीन माह के छोटे पुत्र का ज्वर बढ़ता जा रहा था । कल उसने सरकारी अस्पताल जाकर डॉक्टर साहब को दिखाया भी था । डॉक्टर साहब ने कुछ दवाईयां तो दे दी थी, परंतु उन्होंने साफ कह दिया था कि अगर तबियत ज्यादा बिगड़ जाएगी, तो बाजार से ये दवाइयाँ अवश्य मँगवा देना । सुबह से तो घर में पैसा नहीं था, परंतु दोपहर में प्रधान जी ने संदेश भिजवाया कि मनरेगा का थोड़ा पैसा आ गया है, इसलिए जिसको बहुत आवश्यक हो, वह शाम को पंचायत ऑफिस में आकर पाँच सौ रुपए ले ले । बाकी पैसे दो-तीन दिन में उनके अकाउंट में आ जाएंगे । यह सुनकर जमनदास और रामी को कुछ सांत्वना-सी मिली । चलो पाँच सौ रुपए में बेटे के लिए दवाई तो आ जाएगी और अगर कुछ पैसे बचे तो कल के लिए दूध भी ले लेंगे । 

लेकिन यह जमनदास अभी तक पैसे लेकर घर क्यों नहीं आया ? कब वह आएगा, कब पैसे लाएगा और कब वह वह अपने बड़े बेटे को डॉक्टर साहब की पर्ची के साथ दवाई की दुकान में भेजेगी । क्या भरोसा, कहीं दुकान बंद हो गई तो ! इसी के साथ रामी को मन ही मन यह डर भी सता रहा था कि कहीं वह दोस्तों के साथ पीने तो नहीं बैठ गया होगा । नहीं नहीं ! जमनदास ऐसा नहीं कर सकता है । पहले की बात और थी । लेकिन उस दिन जब उसने अधिक पीने के कारण लड़ाई झगड़ा करने के बाद पुलिस थाने में सारी रात मार खाई, तो तब उसने घर आकर माँ भगवती की कसम खाई थी कि अब कभी नहीं पिऊँगा । अब ऐसा तो नहीं कि वह बिलकुल भी पीता न हो, पर वह कुछ समझदार अवश्य हो गया था । अब वह घर का भी ख्याल रखता था और आज तो उसका बेटा बीमार है । उसे पता है कि जब पैसे मिलेंगे, तो सबसे पहले उसे दवाई मंगानी है । लेकिन वह अब तक आया क्यों नहीं ? 

उधर पंचायत घर में अपने पैसों की प्रतीक्षा में जमनदास भी परेशान-सा हो रहा था । दरअसल पंचायत घर का कम्प्युटर बहुत धीमे चल रहा था । कई बार तो ग्राम पंचायत अधिकारी ने सभी को कल आने को कहा, परंतु जमनदास के गिड़गिड़ाने के कारण वह अपने काम में लगा रहा । उसने मन ही मन कम्प्युटर मशीन की ओर नज़र गढ़ाए हिसाब लगाया कि अगर उसने मुन्ना, हरी और चैतु को पिलाया भी, तो सौ डेढ़ सौ ही खर्च होंगे । फिर भी उसके पास दवाइयों के लिए तीन साढ़े तीन सौ रूपए तक तो बचेंगे ही । बाकी ठेके वाले हरिया का पुराना हिसाब किताब कल संक्रांद का ढ़ोल बजाकर चुकता कर दूंगा । हाँ, उसे बिना कारण के देरी होने की वजह से गुस्सा अवश्य आ रहा था । पर वह कर भी क्या कर सकता है । 

पहाड़ों में एक परंपरा है कि हर महीने की पहली तिथि जिसे संक्रांद या संक्रांति कहा जाता है, उस दिन ओजी अर्थात ढ़ोल वादक, प्रातःकाल सूर्योदय से पहले ही सारे गाँव में ढ़ोल बजाकर सभी के लिए मंगलकामनाएँ का आह्वान करते हैं । इसके बदले में उसे हर घर से अनाज या कुछ दक्षिणा मिलती है । पहले वह ओजी या दास इससे अपने परिवार का गुजर-बसर करता था । परंतु अब भले ही इस समुदाय के पास आय के अन्य कई साधन हो गए हों, परंतु उसने अपनी परम्पराओं और संस्कृति को नहीं छोड़ा है । कल भी संक्रांद है और उस पर भी मकर संक्रांति । हालांकि वर्षभर में बारह संक्रांति आती हैं, पर मकर संक्रांति का विशेष महत्व होता है । इसी दिन सूर्य भगवान का दक्षिणायन से उतरायण की ओर आगमन होता है । इसलिए वह अपनी परम्पराओं को निभाते हुए सारे गाँव में घर-घर जाकर ढ़ोल बजाएगा, भले ही कोई उसे कुछ दे ना दे । 

नहीं-नहीं हरिया भाई ऐसा मत करो । घर में मेरा बच्चा बीमार है, मुझे उसके लिए दवाई भी लेनी है । जमनदास ने गिड़गिड़ाते हुए कहा । 

तो, मैं क्या करूँ । तेरे बेटे के कारण अपने बच्चों को भूखा मार दूँ । मैंने आज के एक सौ सत्तर रूपए और पहले के तीन सौ रूपए जोड़कर चार सौ सत्तर रूपए ही लिए हैं । ये ले बाकी के तीस रूपए । ठेके के मालिक हरिया ने उसे समझाते हुए कहा । 

साहब दया कर दो । जमनदास ने लगातार गिड़गिड़ाते हुए कहा । 

चुपकर और यह कहकर हरिया अपनी दुकान बंदकर चला गया । हरिया के जाने के बाद जमनदास तो जैसे टूट ही गया हो । वह लड्खड़ाने भी लगा । उसे मुन्ना, हरी और चैतु ने भी स्वयं लड़खड़ाते हुए ही सही, पर किसी तरह से उसके घर तक पहुंचा दिया । लेकिन घर पहुँचने से पहले ही उन्हें उसके घर से किसी के रोने-धोने की आवाज आई । किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत जमनदास के तो होश ही उड़ने लगे । 

वही हुआ, जिसकी उसे आशंका थी । घर पहुँचते ही उसकी पत्नी रामी ने रोते-रोते बताया कि उसके बेटे ने पहले उल्टी की और फिर दवाइयों के अभाव में उसने दम तोड़ दिया । आज जमनदास को अपने से जितनी घृणा हो सकती थी, होने लगी । बीच-बीच में उसे यह डर भी सताने लगा कि कहीं शराब नहीं पीने की कसम टूटने के कारण माँ भगवती नाराज तो नहीं हुई । खैर कुछ देर तक पश्चाताप की आग में तपने के बाद उसने सांसारिक नियम निभाते हुए अपने मित्रों मुन्ना, हरी और चैतु के सहयोग से अपने बच्चे को सद्गति दी । 

जमनदास व रामी ने बेटे के दुख के कारण सारी रात मौन साधकर जमीन में बैठे-बैठे ऊँघते हुए बिताया । सुबह थोड़ी झपकी आ ही रही थी कि तभी परिस्थितियों से अनभिज्ञ मंमगाई पंडित जी की आवाज सुनाई दी – हे जमनदास ! अरे सूरज निकलने वाला है रे । तेरी संक्रांद कब आएगी । चल उठ और आज तो मकर संक्रांति है, जरा ढोल दमो तो बजा । अरे शगुन होता है बल शगुन । 

जमनदास ने ममगाई पंडित जी की चित परिचित शैली में जब यह सुना तो उसकी नज़र सीधे दीवार में लटके ढ़ोल की ओर गई । उसने अपने बड़े बेटे को भी उठाते हुए जैसे ही खड़े होकर दीवार से ढ़ोल उतारना चाहा, तो अब उसकी पत्नी बिफर सी गई – अरे निर्भगी आदमी । रात को तेरा बेटा मरा और तू उसका शोक मनाने के बजाय संक्रांति का ढ़ोल बजाएगा । धिक्कार हे तुझे । जो आदमी अपने बेटे के लिए दवाई तक तो नहीं ला सका, वह दूसरों का क्या कल्याण करेगा ? सीधा बोल ना कि तुझे आज भी पीने के लिए पैसा चाहिए, तू इसीलिए जा रहा
है । 

जमनदास कोई पढ़ा-लिखा तो नहीं था, पर वह माँ की ममता को अच्छी तरह से जानता था । मन तो उसका भी रोने को हो रहा था, पर वह जानता था कि इस समय वह धन कमाने के लिए नहीं, बल्कि अपनी उस परंपरा और अपने पूर्वजों की उस विरासत को बचाने जा रहा है, जिसे कि हजारों साल से उसके पूर्वजों ने अपनाया हुआ था । लोग पढ़ लिखकर सबसे पहले अपने धर्म, परम्पराओं और संस्कृति की ही तिलांजलि देते हैं । शायद ऐसा करके वह अपने को अभिजात वर्ग का भी समझने लगते हैं । पर यही कारण है कि आज वह अभिजात वर्ग, समाज के भीड़ में अपनी असली पहचान को खो रहा है । जबकि आज भी अगर हम ओजियों की इज्जत है, तो वह केवल इसलिए कि हमने हजारों बाधाओं और अपमानों को सहते हुए भी अपने कर्म को नहीं छोड़ा । यही कारण है कि संक्रांति की सुबह ममगाई पंडित जी भी भगवान से पहले मुझे याद करते हैं । वे जानते हैं कि इस लोक में ईश्वर का वास भी मेरे ढ़ोल बजने के बाद ही होगा, ताकि ईश्वर की कृपा से सारे गाँव, पहाड़, प्रकृति और सृष्टि का कल्याण हो सके । उसने अपनी पत्नी रामी को धैर्य बंधातते हुए कहा - 

सुनो रामी ! अगर भगवान ने मेरे कुकर्मों के कारण हमसे हमारा बेटा छीना है, तो वही भगवान हमारे इस ढ़ोल दमौ बजाने के स्वर से निकलने वाले तरंगों के आह्वान को सुनकर समस्त मानव समाज और सृष्टि के कल्याण का कारण भी बनते हैं । 

लेकिन लोग तो तुम्हें ओजी या दास समझकर तुम्हारी उपेक्षा करते है । रामी ने बिना उसकी ओर देखे उपेक्षित स्वर में कहा । 

हाँ रामी ! तुमने सही कहा । इसका मुख्य कारण यह भी है कि हमारे पूर्वजों ने हमें यह धरोहर तो थमा दी थी, उन्होंने हमें इसका पारंपरिक और व्यावहारिक ज्ञान तो दिया है, परंतु वे हमें इसका पौराणिक या वैज्ञानिक ज्ञान नहीं बता सके थे । इसलिए हम इस परंपरा को अपनाते तो रहे, इसका महत्व भी जानते रहे, परंतु हम इसकी व्याख्या तक नहीं कर सके । 

अब व्याख्या करने या इसके महत्व को विज्ञान सम्मत सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी जिस आभिजात वर्ग की थी, वह तो स्वयं अपने ही पूर्वजों की धरोहरों, परम्पराओं, संस्कृति व धर्म का मज़ाक उड़ाता है, इसलिए उससे इनके संरक्षण या संवर्धन करने की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है । वह तो इसको केवल एक जाति या विशिष्ट वर्ग की मजबूरी समझकर इसकी उपेक्षा करता रहा है । इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि हमारे बच्चे अब इस ज्ञान को छोड़कर अन्य व्यवसाय या रोजगार की ओर उन्मुख हो रहे हैं । कहने का अर्थ यह है कि अब वह देवत्व के कार्य को छोड़कर केवल कमाने-खाने में ही लगे हैं । 

 (थोड़ी देर रुकने के बाद जमनदास ने बात आगे बढ़ाते हुये कहा) - परंतु रामी ! जैसे हर तमस के बाद प्रकाश की किरणें दिखाई देती हैं, ठीक वैसे ही अब भगवान ने भी हमारी सुन ली है । अब हमारे इस ढ़ोल सागर पर भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अनुसंधान हो रहा है । अब इस विधा को अभिजात वर्ग भी अपनाने लगा है । सरकारें भी हमारी सुध लेने लगी है । इसलिए सृष्टि के कल्याण के सम्मुख अपने दुख की तिलांजलि देना ही सच्चा धर्म है । माना कि हमारा अबाजा है, इसलिए हम अपने चौक में ढ़ोल नहीं बजाएँगे, लेकिन जिनका सबाजा है, उनके लिए तो मुझे उनके चौक पर जाकर ढ़ोल बजाकर उनके लिए मंगलकामनाएँ करने दो । 

रामी अपने पुत्र का दुख मुझे भी है, लेकिन सोचो कि जब भगवान भोले भी माँ सती की क्षत विक्षिप्त देह को देखकर रुष्ट हुए थे, तो तब उन्होंने भी डमरू बजाकर ही तांडव नृत्य किया था । यह ढ़ोल भी तो भोले बाबा के डमरू का ही दूसरा रूप है । अभी वह कुछ और कहने वाला था कि तब तक उसे ममगाई पंडित जी की पुकार पुनः सुनाई दी । उसने अपने बड़े बेटे को दमौ देते हुये अपना ढ़ोल कंधे पर लटकाकर बजाना शुरू किया ही था कि तभी उसे रामी ने रोककर उससे कहा - 

ठीक है । मैं आज तक तुम्हें हर संक्रांद में एक थैला देकर भेजती थी । तब हमारा उद्देश्य अन्न धन कमाना था, लेकिन आज तुम अगर अपने पुत्र के शोक का बाद भी केवल अपनी संस्कृति के संरक्षण के लिए जा रहे हो, तो वादा करो कि आज तुम किसी से भी किसी प्रकार का कोई सहयोग नहीं लोगे । एक माँ की भावनाओं को समझते हुये जमनदास ने हामी भरते हुए अपने बड़े पुत्र के साथ संक्रांद का ढ़ोल बजाना प्रारंभ किया । 

अरे रे रे ! आज जमनदास को क्या हुआ । आज यह घर-घर जाकर इतनी ज़ोर-ज़ोर से ढ़ोल बजाते हुए मंगलाचार कर रहा है । धीरे-धीरे गाँव में खुसपुसाहट बढ़ने लगी कि रात को ही जमनदास का बेटा मरा उसका अबाजा होते हुए भी वह भोर होते हुए ही हमारे कल्याण की प्रार्थना करते हुए ही यह संक्रांद का शगुन बजा रहा है । यह देखकर सदैव पाँच रुपया देकर टरकाने वाले ममगाई पंडित जी ने भी जमनदास पर दया दिखाते हुए आज उसे सौ रुपया देना चाहा, पर पत्नी को दिये गए वचनों के कारण जमनदास ने उसे हाथ नहीं लगाया । ठेकेदार रौतेला जी ने तो दो हजार का नोट जबर्दस्ती उसकी जेब में डालना चाहा, पर संस्कृति के पुजारी ने रोते हुये उसे भी वापस कर दिया । सारे गाँव में घर-घर जाकर शगुन का ढ़ोल बजाकर जब जमनदास चेहरे पर उदासी के बादल लिए अपने घर की ओर लौट रहा था, तो उसने देखा कि रात में बेटे के दुख के कारण अकेले रोने वाले जमनदास के साथ आज पहली बार सारे गाँव के हर व्यक्ति की आँखें भरी हुई थी । जमनदास को उन छलक़ती हुई आंसुओं की बूंदों में उसे अपने ढ़ोल के स्वर के साथ छलक़ती हुई अमृत रस टपकती हुई नज़र आ रही थी । जिस अमृत रस को पाने के लिए कभी सागर मंथन हुआ था, मानो वह सागर आज उसके ढ़ोल के अंदर ही समा गया हो । 

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लघुकथा


नमिता सिंह 'आराधना' 

अहमदाबाद, ईमेल: nvs8365@gmail.com


सफलता की पहली सीढ़ी - असफलता

कुछ महीने पहले की बात है । तीन बार नृत्य प्रतियोगिता में असफल होने पर अपर्णा बेहद उदास थी । नृत्य में कुछ कर दिखाने का उसका सपना टूटने लगा था । उसे उदास देखकर उसकी माँ ने उसे समझाते हुए कहा था,"असफलता हमें परिपक्व बनाती है । सच मानो तो असफलता ही सफलता की पहली सीढ़ी है । " अपर्णा ने हैरानी से पूछा था ,"वो कैसे?" माँ ने उसे समझाते हुए कहा था," हर असफलता हमें अपनी कमियों को पहचानने और उन्हें सुधारने का मौका देती है बशर्ते कि हम अपनी सोच सकारात्मक रखें । असफलता ही हमें अपने गुणों को निखारने का मौका देती है । सफल शख्सियतों की खासियतों को समझो और अपने जीवन में अपनाओ । एक दिन सफलता जरूर मिलेगी । "

माँ की बातें सुनकर अपर्णा के मन में नई उम्मीदें जगीं और वह नए उत्साह के साथ एक बार फिर से प्रतियोगिता की तैयारी में लग गई थी । उसने बहुत बारीकी से चीजों को समझ कर अभ्यास करना शुरू किया । कई ख्याति प्राप्त व्यक्तियों के जीवनीओं का अध्ययन किया तो पाया कि उन्हें भी कई बार असफलता हाथ लगी थी, लेकिन वे बिना विचलित हुए अपना कार्य करते रहे थे और अंततः सफलता प्राप्त की । सही रास्ता दिखाने के लिए उसने मन ही मन माँ का धन्यवाद किया और जोर शोर से तैयारी में लग गई । आखिरकार उसकी मेहनत रंग लाई । 

इस बार अपर्णा ने नृत्य प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त किया था । पुरस्कार ग्रहण करने के लिए अपर्णा को मंच पर आमंत्रित किया गया । हाॅल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था । मंच पर आकर अपर्णा ने आयोजनकर्ताओं से अपनी माँ को स्टेज पर बुलाने की अनुमति चाही । उसने कहा,"अगर आयोजनकर्ताओं को आपत्ति ना हो तो मैं अपनी माँ को स्टेज पर बुलाना चाहूँगी क्योंकि मेरी इस सफलता के पीछे मेरी माँ का सबसे बड़ा हाथ है । जब मैं हिम्मत हार चुकी थी तो मेरी माँ ने ही मुझे फिर से हौसला दिलाया । मेरी माँ की सही सीख और निर्देशन के बगैर आज कामयाबी के इस शिखर पर पहुँच पाना मेरे लिए असंभव था । "

माँ के स्टेज पर आते ही पुरस्कार लेकर अपनी माँ के हाथों में देते हुए कहा ,"माँ इस पर मुझसे ज्यादा आपका हक है । " हॉल एक बार फिर से तालियों की दोगुनी गड़गड़ाहट से गूँज उठा । 

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संस्मरण


अखिलेश द्विवेदी 'अकेला'

नई दिल्ली, मो. 8178283436


संदीप तोमर

नई दिल्ली, मो. 83778 75009


तुम्हीं से मोहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई

तीसरा कौन ???

यह संस्मरण लिखते समय दो समस्याएं आयीं । पहली शीषर्क की और दूसरी यह कि कॉमरेड संदीप तोमर से मेरी पहली मुलाकात कब हुई थी । दरअसल हमारे सम्बंध करीब 18 वर्ष पुराने हैं । हमें जोड़ने के दो केंद्र थे । एक हिंदी अकादमी, दिल्ली और दूसरे भ्राता श्री किशोर श्रीवास्तव जी । 

वह समय 2002-03 का था जब किशोर जी 'हम-सब साथ,साथ' पत्रिका निकालते थे । उस पत्रिका में नवोदितों के लिए बहुत सामग्री होती थी । किशोर जी नवोदितों को छापते भी थे और प्रोत्साहित भी करते थे । 

वहीं दूसरी तरफ हिंदी अकादमी ,दिल्ली के सचिव श्री रामशरण गौड़ जी और उपाध्यक्ष श्री जनार्दन द्विवेदी जी नवोदित लेखकों के लिए बहुत सी प्रतियोगिताएं व कार्यशालाऐं आयोजित किया करते थे । उस समय ही मेरा परिचय नए लेखकों में अग्रणी श्री संदीप तोमर जो कि आलोचना व कहानी विधा में लिखते थे, उनसे हुआ । शायद मेरे पहले कहानी संग्रह 'टूटता तारा' की समीक्षा के विषय में बात हुई थी जो किशोर जी की पत्रिका में छपनी थी । 

तब संदीप जी पश्चिम विहार के सैय्यद गाँव में एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे । मेरे घर के समीप ही स्कूल था । हम स्कूल जाते तो घण्टों उनसे साहित्य पर चर्चा होती । सैय्यद गाँव चौक पर ही ओमप्रकाश जलेबी वाला गर्मागर्म जलेबी बनाता था । गर्मागर्म चर्चा और गर्मागर्म जलेबी । 

चर्चा गर्मागर्म इसलिए और हो जाती थी कि उस समय हम दोनों अविवाहित थे । मेरे और संदीप के जीवन में कुछ प्रेम प्रसंग भी चल रहे थे । यहाँ मैं उनकी चर्चा नहीं करना चाहता लेकिन घूम-फिरकर हमारी चर्चा इसी पर आ जाती-"तू मुझे सुना, मैं तुझे सुनाऊँ, अपनी प्रेम कहानी" । 

संदीप को बचपन में पोलियो हो गया था । उसकी वजह से उनका एक पैर पोलियोग्रस्त है । उनकी प्रेमिका तो उन्हें चाहती थीं किंतु माता-पिता पोलियोग्रस्त लड़के को दामाद के रूप में स्वीकार नहीं कर रहे थे । उस लड़की से मैं मिल चुका था । मेरी भी दिली इच्छा थी उसी से संदीप का विवाह हो । यह प्रेम-कहानी हम सभी साथियों में चर्चा का विषय रहती । 

कुछ ऐसी ही कहानी अपनी भी चल रही थी । मैं अकेले दिल्ली में रहता था । कई जगह शादी की बात चली और प्रेम-प्रसंग भी खूब चले किंतु बात शादी तक जाते-जाते अटक जाती । 

खैर, हमारी बातों का कोई अंत न होता । हम दोनों ठहरे किस्सा-गो । घण्टों बीत जाते पर जाते समय लगता कि बात अधूरी है । एक दिन योजना बनाई कि रात में संदीप मेरे घर रुकेंगे । मेरा घर लक्ष्मी पार्क में था जो उनके स्कूल से महज दो किलोमीटर दूर था । 

शाम को मेरे घर संदीप आये तो हमने उनका स्वागत किया । मैं घर में अकेले ही था । जलपान के बाद पूछा-

"क्या खाओगे?"

"पंडित ! तुम बनाओगे या होटल से लाओगे?"संदीप मुझे पंडित ही कहते थे । 

"जो कहो?"

"ऐसा करो, घर में बनाओ और वह चीज बनाओ जो जल्दी बन जाये । "

"तहरी बनाऊँ?"

"हाँ, यह ठीक रहेगा । "

मैं कपड़े उतारकर तहरी बनाने में जुट गया । संदीप से अकेले न बैठा गया । वह भी किचन के गेट पर कुर्सी डालकर बैठ गए । मुझे मालूम था कि उन्होंने मुझे होटल क्यों नहीं भेजा और जल्दी बनने वाली चीज क्यों बनाने की बात कही । वह समय ज्यादा चाहते थे ताकि हम दोनों आज जी भरकर बतिया सकें । 

आलू, गोभी, मटर, प्याज काटकर पहले मैंने लहसुन, अदरक, हरीमिर्च और जीरे का तड़का लगाया तो संदीप बोले-

"यार पंडित, तुम तो ऐसे खाना बना रहे कि होटल में क्या बनेगा?"

"बनने के बाद देशी घी डालकर खाओगे तो स्वाद देखना । "मैंने भूख बढ़ा दी थी । 

"तुम्हारी भाभी भी..... । "

फिर क्या था ? हम तय करके आये थे कि मिलकर एक पत्रिका निकालेंगे, उस पर विस्तृत चर्चा होगी किन्तु भाभी पर चर्चा शुरू हो गयी । भाभी के बाद अनुज वधु की चर्चा शुरू हो गयी । देशी घी की तहरी का स्वाद अपनी-अपनी संभावित घरवालियों की चर्चा करते हुए मानों बढ़ गया था । आये थे हरि भजन को, औटन लगे कपास । 

यहीं मन न भरा । आधी रात बीत गयी । संदीप को सीढ़ियां चढ़ने में समस्या थी ,फिर भी हम दोनों छत पर जा पहुँचे । गर्मी के दिन थे । दोनों गाँव की पृष्ठभूमि से थे । उन्मुक्त हवा, टिमटिमाते सितारे, पूरा खिला हुआ चाँद और उसकी खूब छिटककर बिखरी हुई चाँदनी । वह चंद्रमा में परम ज्योति को देख रहे थे और मैं अपनी भावी पत्नी की कल्पना करके कल्पनाओं में खोया था । खुले हुए आकाश के नीचे बैठे हम दो विरही एक-दूसरे की वेदना को समझते हुए हमने अपने-अपने चाँद को उस चाँद में देखकर न जाने कितनी कल्पनाएं की होंगी और नई-नई उपमाएं दी होंगी । किंतु हमारी परिस्थितियां और विसंगतियां राहु बनकर खुशियों में ग्रहण लगाने को आतुर
थीं । रात तो बीत गयीं पर बातें खत्म न हुईं । आज तक भी बहुत सी बातें अधूरी रह गयीं । 

उस समय हम लोगों ने मेरे संपादन में "प्रारंभ" नामक संयुक्त काव्य संकलन निकालने की योजना बनायी । इससे पहले हम लोग "मुक्ति" नामक काव्य संग्रह श्री मनोज 'कैन' जी के सम्पादन में निकाल चुके थे । नवोदित लेखकों में भाई शिवनाथ 'शीलबोधि', संजीव कुमार, महेश कौशिक, सौरभ भारद्वाज, ललित झा, मनोज कुमार 'मैथिल' ललित झा, अशोक कुमार 'ज्योति' (वह उस समय प्रभात प्रकाशन में थे) रमेश वर्णवाल, इरफान अहमद 'राही' ,लेखिकाओं में लक्ष्मी चौधरी, कल्पना वाजपेयी, सोनाली शुक्ला, संगीता अधिकारी, रामेश्वरी 'नादान' आदि मिलकर विभिन्न प्रतियोगिताओं व गोष्ठियों में भाग लेते थे । एक "युवाकृति" नामक पत्रिका निकाली
गई । जिसका प्रधान संपादक मुझे बनाया गया और कार्यकारी संपादक शिवनाथ 'शीलबोधि' बने । कनॉट प्लेस में मीटिंग हुई । मुझे प्रधान संपादक बनने के लिए संदीप जी ने प्रस्ताव रखा और शीलबोधि ने अनुमोदन किया । 

उन दिनों शीलबोधि दलित लेखक संघ में सक्रिय थे । वह प्रसंग जब शीलबोधि पर संस्मरण लिखूंगा तो विस्तार से लिखूँगा । मज़े की बात यह की संदीप तोमर जी उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे और मैं समाजवादी/प्रगतिशील विचारधारा का समर्थक था । किंतु हम सबमें विचारधारा का कोई टकराव न था । सिर्फ कभी-कभी मज़ाक हो जाया करता था । ललित झा संघ के दायित्वान कार्यकर्ता थे । राष्ट्र किंकर के संपादक व राष्ट्रवादी लेखक श्री विनोद बब्बर जी व संघ अधिकारी श्री अमरीष जी के कार्यक्रमों में मुझे ले जाते । मुझसे और ललित से संघ को लेकर बड़ी काट-छाँट होती । धीरे से संदीप ललित का पक्ष लेते किंतु हम सब विचारधारा को मित्रता पर हावी न होने देते । 

उस समय हम सबमें कोई ऐब न था । बाद में कई न्यूनताएँ आ गयीं थीं । समय बीता और हममें से कई मित्र विवाह के बंधन में बंध गए और कई लोगों की प्रेम कहानियां अधूरी रह गयीं । उनकी चर्चा फिर कभी । आज सिर्फ संदीप की बात करूंगा । 

संदीप और विवादों का चोली दामन का साथ रहा है । एक भयंकर विवाद मेरे घर पर हुए एक लोकार्पण समारोह में संदीप और किशोर जी के बीच हो गया । रंज की जब गुफ्तगू होने लगी, आप से तुम, और तुम से तू होने लगी । इस झगड़े के पीछे जो मूल वजह थी वह कोई और थी ! और वह वजह थी बलरामपुर, उत्तर प्रदेश से दिल्ली आये युवा कथाकार श्री दिलीप सिंह जो किशोर जी के बुलावे पर आये थे । वह "हम सब साथ-साथ" पत्रिका का कार्य देखने के लिए आये थे । तब किशोर जी कराला में रहते थे । वह दिल्ली का आउटर इलाका था । कुछ दिन सब ठीक-ठाक था । लेकिन किशोर जी और दिलीप जी की ज्यादा दिन पट नहीं पायी । दूर के ढोल सुहावने होते हैं । यह दोनों महानुभावों पर लागू होता है । मैं उस विवाद के केंद्र बिंदु पर नहीं जाना चाहता क्योंकि आज का विषय संदीप हैं । तो संदीप और मैं इस विवाद से ऐसे जुड़े कि किशोर जी के घर आते-जाते हमारी व संदीप की मित्रता दिलीप सिंह से भी हो गयी थी । किशोर जी व दिलीप जी दोनों की बात को सुनकर व विवाद मिटाने के उद्देश्य से मैं दिलीप को अपने घर ले आया । 

उसी समय "प्रारंभ" काव्य संकलन छपकर आ गया था । मेरे घर पर ही उसका लोकार्पण था । शायद पन्द्रह अगस्त का दिन था । "काव्य गंगा"के संपादक स्वामी श्यामानंद सरस्वती, डॉ. जय सिंह आर्य 'जय', किशोर श्रीवास्तव जी, नेताजी एम.बी.तिवारी जी, डॉ. एस. जे. तिवारी व शीलबोधि आदि आये थे । लोकार्पण के बाद किशोर जी व संदीप जी में पहले कहासुनी फिर झगड़ा होने लगा । झगड़े की वजह एक कवियित्री थीं जिनसे मेरे विवाह की बात चल रही थी लेकिन उनके माता-पिता ने मुझे यह कहकर रिजेक्ट कर दिया था कि वाजपेयी द्विवेदी से ऊँचे होते हैं सो निचले आशपति में लड़की नहीं ब्याहेंगे । किंतु बहस का विषय यह नहीं था । शुरू में बात उन कवियित्री महोदया की ही उठी थी किंतु संदीप में दिलीप सिंह की कसर भरी हुई थी । उन्हें लगता था कि बलरामपुर से पहले दिलीप को दिल्ली बुलाकर फिर उससे किनारा करके किशोर जी ने उचित व्यवहार नहीं
किया । 

मेरे लिए बड़ा धर्मसंकट खड़ा हो गया । दोनों मेरे अतिथि थे । सभी लोग परेशान हो उठे । अंततः दोनों लोगों को किसी तरह समझा बुझाकर वापस भेजा । किंतु संदीप जी ने किशोर जी के लघुकथा संग्रह "कटाक्ष" की समीक्षा लिखकर उसकी बखिया उधेड़ दी । इतना ही नहीं, उन पर कई लघुकथाएँ भी लिख डालीं । यह शीत युद्ध दिलीप सिंह के दिल्ली जाने के बाद भी बहुत दिनों तक चलता रहा । मेरे लिए संदीप जी और किशोर जी दोनों में किसी एक को चुनना बड़ा मुश्किल था । हालांकि बाद में न संदीप ने ही पहल करके किशोर जी से संबंध पुनः सामान्य कर लिए थे । 

इस बीच एक संदीप जी की और कुछ मेरी पुस्तकें प्रकाशित हुईं । संदीप ने मेरे उपन्यास 'वफ़ा' की भूमिका भी लिखी । लगभग मेरी सभी पांडुलिपियों को पहले संदीप ही पढ़ते थे । मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि संदीप में आलोचक के जन्मजात गुण हैं । 

हम लोग उन दिनों वरिष्ठ लेखक-लेखिकाओं के साक्षात्कार लेते थे । मैं भावपक्ष और संदीप कलापक्ष पर चर्चा करते । कभी-कभी हम ऐसे नितांत व्यक्तिगत और अटपटे प्रश्न पूछ लिया करते थे कि सामने वाला असहज हो जाता था । ऐसा ही मुझे एक प्रसंग याद आता है । केंद्रीय हिंदी निदेशालय की निदेशक व लेखिका श्रीमती पुष्पलता तनेजा का साक्षात्कार लेने की योजना बनी । 

मैंने अपनी बाइक पर संदीप को बिठा लिया । मैंने हेलमेट लगा रखा था किंतु संदीप ने नहीं लगा रखा था । मोतीबाग के पास एक ट्रैफिक के सिपाही ने मेरी बाइक रोक ली और चाबी निकालने लगा । संदीप उस सिपाही से भिड़ गये-

"शर्म नहीं आती तुम्हें, इस शरीफ आदमी ने एक विकलांग को लिफ्ट दे दी तो तुम उसका चालान काटोगे । इस देश में शिक्षकों का कोई सम्मान नहीं । अपने अफ़सर से मेरी बात करवाओ । " 

ठाकुर का पारा गर्म हो गया । एक तो राजनीतिक रसूख वाला व्यक्ति, ऊपर से क्षत्रिय खून । मैं संदीप के तेवर देखता रह गया । सिपाही घबरा गया । मैंने बहुत समझाया बुझाया तो देवता शांत हुए । 

कई बार पुस्तक मेले में या गोष्ठियों में मैं संदीप के साथ उनके ही स्कूटर पर चल पड़ता था । उनके स्कूटर में उसे बैलेंस करने के लिए पीछे दो पहिये अतिरिक्त लगे थे । जैसे छोटे बच्चों की साइकिल में लगे होते हैं । अगर उस स्कूटर में पीछे न होकर बगल में सीट लगी होती तो हम शोले फिल्म के जय और वीरू से कम नहीं थे । 

तो हम जा पहुँचे हिंदी निदेशालय के हेड आफिस । श्रीमती पुष्पलता तनेजा से पूछने वाले प्रश्नों को हम पहले से ही लिखकर ले गये थे । लेकिन संदीप ने उनसे अचानक ऐसा प्रश्न पूछ लिया कि श्रीमती तनेजा ही नहीं मैं भी चौंककर संदीप का मुँह ताकने लगे । 

प्रश्न यह था कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी अपने ब्रम्हचर्य की परीक्षा हेतु महिलाओं के साथ नग्न सोते थे । एक महिला और लेखिका होने के नाते आप उन महिलाओं की सहज यौन इच्छा के विषय में क्या कहेंगी जो गाँधी जी के साथ नग्न सोती थीं । क्या यह गाँधी जी द्वारा उन महिलाओं की यौन-इच्छा का हनन नहीं था?

श्रीमती पुष्पलता तनेजा पहले तो अटपटाई फिर उन्होंने सहज होते हुए उत्तर दिया कि इसमें इच्छाओं के हनन और दमन-शोषण जैसी कोई बात नज़र नहीं आती क्योंकि वह पहले से अपना मन बनाकर अपनी मर्जी से गाँधी जी के साथ लेटती थीं । 

यह साक्षात्कार जब किसी पत्रिका में छपने भेजा तो सम्पादक ने ऐसे प्रश्न हटा दिए थे । जिस बात पीआर संदीप को तिलमिलाहट भी हुई थी । 

मेरा आंचलिक उपन्यास "आँवें की आग" छपा तो संदीप ने उसकी समीक्षा लिखी थी । 

इस बीच हम दोनों के जीवन में बड़ा बदलाव आया । हम दोनों की प्रेमिकाओं ने घरवालों के दबाव में किसी अन्य से विवाह कर लिया । 

परम ज्योति और संदीप की मित्रता मैंने बड़े करीब से देखी थी । मित्रता के उन सात सालों में हुई मुलाकातों में कौन सा ऐसा दिन था जब संदीप ने बातों में परम ही चर्चा न हुई हो । मेरी कल्पना से विवाह की बात समाप्त हो चुकी थी । उस समय बिंदु से शादी की चर्चा चल रही थी लेकिन वह भी किसी तीसरे के कारण टूट गयी । हम दोनों कुछ दिन बहुत उदास और निराश रहे । विरह की कविताएं लिखते रहे । मैंने इस प्रेम कहानी के टूटने पर "बिंदु" उपन्यास लिखा । संदीप को भी बहुत ठेस लगी । उन्हें लगता था कि उनकी विकलांगता के कारण उनकी प्रतिभा और सामर्थ्य को नकार दिया गया । मुझे भी लगता था कि मैं अकेला हूँ । अगर मेरे माता-पिता या भरा-पूरा परिवार होता, आर्थिक सक्षमता होती तो मेरी प्रतिभा और संघर्ष को सम्मान मिलता । 

खैर, हमने इस निराशा को जीवन पर हावी नहीं होने दिया । हमने तय किया कि हम गरीब घर की कन्याओं से बिना दहेज लिए विवाह करके समाज में उदाहरण प्रस्तुत करेंगे । संदीप ने भी ऐसा ही किया और मैंने भी ऐसा किया । इन दोनों विवाहों की चर्चा साहित्य जगत के साथ समाज में भी हुई । शायद किसी पत्रिका ने छापा भी
था । शादी के बाद कुछ दिनों के लिए हम अपनी-अपनी गृहस्थी में ऐसे रम गये कि साहित्य पीछे छूटने लगा । हमारी मुलाकातें भी कम हो गयीं । उसी दौरान संदीप का कहानी संग्रह ”टुकड़ा-टुकड़ा परछाई” अवश्य प्रकाशित हुआ । 

बहुत दिनों बाद संदीप का फोन आया-"अरे पंडित,आज मैंने तुम्हारी एक कविता पढ़ी । कविता का शीर्षक है -या तुम मेरी कविता हो? क्या कल्पना की है यार ! हम लोग साहित्य से दूर होते जा रहे हैं । तुम जल्दी मुझसे मिलो । हम अगर अभी सचेत न हुए तो वह बहुत सा साहित्य बाहर नहीं आ पायेगा जो हम देश-समाज को दे सकते हैं । हम लोग एक नई योजना बनाते हैं । "

संदीप जल्दी से किसी के साहित्य की प्रसंसा नहीं करते । उनके मन का आलोचक हमेशा दोनों हाथों में तलवार लिये तैयार रहता है । संदीप की इस प्रशंसा से मेरे अंदर नई ऊर्जा का संचार हुआ । मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि विवाह के बाद हमने जो साहित्यिक पारी शुरू की वह संदीप से मिली प्रेरणा के कारण ही शुरू की । हमने दोबारा लिखना तो शुरू कर दिया लेकिन मुलाकात न हुई । 

यह शायद वर्ष 2010 के बाद का समय रहा होगा । मेरे परम् मित्रों में ललित झा की भी शादी हो गयी थी । उनका रुझान साहित्य को लेकर लगभग खत्म हो गया था । हाँ, मनोज कुमार मैथिल सक्रिय थे और लगातार कविताएं लिख रहे थे । संदीप ने एक मंच बनाया "लेखकों का अड्डा" और मैथिल ने “साहित्य नभ" मैंने सुझाव दिया कि "साहित्य नभ" के माध्यम से हम लोग युवा लेखकों को ज्यादा से ज्यादा जोड़ें । मैं, संदीप, ललित मिश्र व मैथिल की द्वारिका में मीटिंग हुई । संदीप और मैथिल कुछ वैचारिक मतभेद उभरे । यह मतभेद सोशल मीडिया के माध्यम से भी यदा-कदा दिखाई देते । कुछ दिन धक्का मारकर गाड़ी चली किंतु ज्यादा आगे तक न जा सकी । संदीप की आदतों में एक चीज और पकड़ में आयी कि वह सामने वाले को नकार देंगे तो नकार देंगे । फिर वह अपनी पर उतर आते हैं । अपनी पर उतरते ही वह व्यक्तिगत हो जाते हैं । 

खैर, उस मीटिंग के बाद मैं संदीप के घर जनकपुरी गया । मुझे यह देखकर आश्चर्य और प्रसन्नता हुई कि उन्होंने अपने कोचिंग कक्ष को बड़ी लाइब्रेरी के रूप बदल दिया था । छात्रों के लिए प्रचुर मात्रा में सामग्री थी । किन्तु मेरी नज़र तो अपने काम की पुस्तकें ढूंढ रही थी । ऐंजल चाय की ट्रे रख गयी थी । संदीप ने चाय पीने का आग्रह भी किया किंतु मैं पुस्तकों की खोजबीन में खोया रहा । नए-पुराने लेखकों की पुस्तकें, विभिन्न राजनीतिक विचारों के संग्रह, पौराणिक व अंग्रेजी साहित्य भी देखने को मिला किंतु मैं चौंका कार्लमार्क्स की सम्पूर्ण वाङ्गमय के सेट को देखकर । संदीप ने वामपंथी साहित्य का रैक अलग से बना रखा था जो अन्य से बड़ा था । 

"वामपंथ में ज्यादा रुचि ले रहे हो भ्राता श्री !" मैं वापस चाय की ट्रे को देखते हुए बोला । 

मेरी तिरछी निगाहें संदीप के चेहरे पर जम गयीं । 

"हाँ, आजकल वाम साहित्य पढ़ रहा हूँ । एक वैज्ञानिक सोच वाला साहित्य आप तभी लिख सकते हैं जब आप आधुनिक सोच रखते हों । " संदीप ने स्पष्ट कहा । 

"पहले तो आप राष्ट्रवाद पर जोर देते थे । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी जुड़े थे?" मैंने पूछा । 

"हाँ पंडित, लेकिन मुझे वहाँ निराशा हाथ लगी । लगा कि राष्ट्रवाद खोखला है । हमें सिर्फ जाति-धर्म के विषय में सोचना सिखाया जाता है । साहित्यकार एक पक्षीय नहीं हो सकता । "

"क्या वामपंथ एक पक्षीय नहीं है?" मैंने प्रतिवाद किया । 

संदीप अपने घर में कोई बहस नहीं चाहते थे । उन्होंने कहा- "चाय पियो यार...,पंथ-वन्थ कुछ नहीं । दोस्ती बड़ी चीज है । दारू-वारू पियो तो मंगवाऊं?"

मैं हंस पड़ा । 

"पूरे वामपंथी बन रहे हो । अब नास्तिक भी हो जाओगे?"

संदीप चुप ही रहे । उस दिन मैंने संदीप से यह नहीं बताया कि मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा रहा हूँ । मैंने भारतीय राष्ट्रवाद की कुछ पुस्तकें व उपन्यास संदीप की लाइब्रेरी से निकाले । 

"पंडित मैं जानता हूँ कि तुम्हें पुस्तकें पढ़ने का बड़ा चाव है । लेकिन तुम्हारी आर्थिक स्थिति तुम्हें नई पुस्तकें खरीदने की इजाज़त नहीं देती । मैं तुम्हें एक ऑफर देता हूँ कि तुम्हें जो भी पुस्तक पढ़नी हो उसे खरीद लिया करो । पढ़कर मेरी लाइब्रेरी में जमा कर दिया करो और पुस्तक का मूल्य मुझसे ले लिया करो । इससे मेरी लाइब्रेरी में अच्छी पुस्तक भी आ जायेगी और तुम पढ़ भी लोगे । सच कहता हूँ तुममें बहुत संभावनाएं हैं । तुम्हारे लेखन की गति देखकर मैं भी भयभीत रहता हूँ । इसी तरह लिखते रहे तो अपने समकक्षों को बहुत पीछे छोड़ दोगे । " इतना कहकर वह विचित्र सा मुँह बनाकर शरारत से मुस्करा देते हैं । 

हम दोनों जोरदार ठहाका लगाकर हंसते हैं । 

"मुझे भी तुम्हारे तर्कपूर्ण ज्ञान से बड़ी ईर्ष्या होने लगती है । तर्क वही दे सकता है जो ज्यादा पढ़ता हो !" मैंने
कहा । 

संदीप ने मुस्कराकर बात टाली । 

हम दोनों ने एक काव्य संकलन संपादित करने की योजना बनाई । 

उस दिन हमने "तिकड़ी" बनाने पर चर्चा की । आपको तिकड़ी सुनकर आश्चर्य हुआ होगा । उसका रहस्य यह है कि किसी जमाने में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश की तिकड़ी हुआ करती थी । संदीप स्वयं को राजेन्द्र यादव के रूप में देख रहे थे । मुझे कभी कमलेश्वर तो कभी मोहन राकेश बना देते । मोहन राकेश बनने पर मैं भड़क उठता । भाई मुझे पहले नहीं जाना । मैं कथाकार हूँ, कमलेश्वर ही बना दो । अब मोहन राकेश कभी मनोज मैथिल, कभी ललित मिश्र तो कभी दिलीप सिंह बनते । कोई स्थायी तीसरा न बन सका । अभी तीसरे की खोज जारी है । 

काव्य संकलन छपा । नाम रखा गया "महक अभी बाकी है" । उसमें मेहनत ज्यादा संदीप ने ही की थी । वह संपादक बने और मैं सहसंपादक बना । पुस्तक का लोकार्पण मुंडका में राजीव तनेजा जी के यहाँ हुआ । उन्होंने अपनी दुकान के फस्ट फ्लोर पर एक गोष्ठी हॉल बनवा रखा था । उसमें कुर्सियां और माइक डेस्क बनवा रखा
था । साहित्य के प्रति उनका समर्पण देखकर हम सब बहुत प्रसन्न हुए । उस कार्यक्रम में कई नए कवियों व कवियित्रियों से हमारा परिचय हुआ । 

इसके बाद मैथिल और आमोद राय जी की संस्था के माध्यम से नांगलोई चौक वाले कार्यालय में गोष्ठियां हुईं । वह समय हमारे साहित्य-उत्थान के लिए स्वर्णिम था । हमारी गोष्ठियों की चर्चा बड़ी दूर-दूर तक हुई । 

उस बीच संदीप का रुझान लघुकथाओं की ओर हुआ । छूट-पुट लघुकथाएं तो मैं भी लिखता था, छपी भी थीं लेकिन संदीप ने लघुकथा के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया । उन्होंने लघुकथाओं का इतिहास और आलोचना के क्षेत्र में काम किया और अपने घर में कई गोष्ठियां भी करवायीं जिनमें मैं भी शामिल हुआ था । वहीं मेरी भेंट अनिल शूर, सुरेंदर अरोड़ा जी, हरनाम शर्मा जी, अशोक यादव आदि से हुई । योजना बनी कि एक लघुकथाओं का संकलन निकाला जाये । मेरी रुचि कम थी किंतु संदीप ने पीछे पड़कर मुझसे करीब तीस-चालीस लघुकथाएं लिखवा लीं । महेंद्रगढ़ ,हरियाणा के अशोक यादव जी संपादन करेंगे ऐसा सुनने में आया । संदीप और मैं अशोक जी के स्कूल महेंद्रगढ़ एक साहित्यिक समारोह जो हरियाणा अकादमी के सौजन्य से हुआ था, में शामिल होने के लिए दिल्ली से गये थे । उसमें मेरे बड़े सुपुत्र अभय ने एक बड़ी ही क्रांतिकारी कविता पढ़ी जिसकी खबर अख़बार में भी छपी । संदीप और अशोक जी मुझे छेड़ते हुए कहते कि राष्ट्रवादियों के घर भगतसिंह पैदा हो गया । वह भगतसिंह को घोर वामपंथी कहते हैं । मैं झेंपते हुए कहता कि भगतसिंह का सम्मान पूरा देश और हर विचारधारा के लोग करते हैं, इसमें आश्चर्य कैसा ?

हमारी ट्यूनिंग ठीक थी । कभी-कभी हंसी-मजाक में राष्ट्रवाद और वामपंथ आ जाते । विचारधारा कभी मित्रता में बाधक न बनी । किंतु एक बार ऐसा समय आया जब सोशल मीडिया के कारण हम दोनों में बहुत खटास आ गयी । यह बात 2014-15 की होगी । 

हुआ यह कि संदीप अपने फेसबुक पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी पर कोई न कोई राजनीतिक कॉमेंट करते । उन दिनों मोदी जी के फैंस उन पर जान छिड़कते थे उनमें एक मैं भी था । मुझे बड़ा बुरा लगता लेकिन मैं उन पर कोई सख्त कॉमेंट न करता । बाकी बहुत से कॉमेंट लड़ने-झगड़ने वाले आते । संदीप उनसे जूझते रहते । कभी-कभी अकेले भी पड़ जाते । मुझे बड़ा बुरा लगता । मैं उन्हें समझाता-"क्यों नाहक राजनीति में पड़ते हो? अगर लिखना भी है तो कविता, लेख या लघुकथा के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करो । या फिर खुलकर राजनीति में आ जाओ । "

वह हंसकर कहते-"तुम नहीं समझोगे पंडित । "

सोशल मीडिया पर संदीप से उलझना पड़ जाये तो मैं अजीब स्थिति में पड़ जाता । हारकर एक दिन उन्हें अनफ्रेंड कर दिया और बातचीत बंद कर दी । लेकिन बंदा नाराज नहीं हुआ । एक दिन वाट्सअप पर मैसेज आया । फिर बातचीत शुरू हुई । उन्होंने "पाठशाला" नामक एक वाट्सअप ग्रुप बनाया । उसमें लघुकथाओं और साहित्य की कुछ विधाओं पर चर्चा होती थी । पर राजनीति से हम बाज न आते । एक सकारात्मक बात यह हुई कि संदीप, मैथिल और ललित के साथ मैं भी एक-दूसरे को कटाक्ष करते हुए या यूं कहूँ लक्ष्य करते हुए लघुकथाएं और कविताएं लिखते जो बड़ी चर्चित होतीं । उनमें कई बड़ी अच्छी रचनाएं निकलकर सामने आयीं । 

उसी बीच संदीप से फिर राजनीति पर बहस हुई और मैं फिर उनके वाट्सअप ग्रुप से लेफ्ट हो गया । 

संदीप से कभी घनिष्ठता तो कभी नाराजगी चलती रही । शायद वर्ष 2006-07 में हम वयोवृद्ध साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र जी का इंटरव्यू हम दोनों ले चुके थे । करीब 2016 में हम दोनों फिर मिश्र जी का साक्षात्कार लेने गये । वह “विश्वगाथा” पत्रिका में छपा भी । उस बीच हमारी बोलचाल बंद थी । लेकिन संदीप का फोन आया- "पंडित, हमने जो ड्रॉ. रामदरश मिश्र जी का इंटरव्यू लिया था वह छप गया है । "

"जल्दी वाट्सअप पर भेजो । " मैं बड़ा उत्साहित हुआ । 

संदीप का सम्पर्क कई पत्र-पत्रिकाओं में है । वह छपते भी रहते हैं । मुझे भी कहते रहते हैं कि पंडित यहाँ रचना भेजो-वहाँ भेजो । मैं इस मामले में बहुत सुस्त हूँ । किंतु संदीप मुझे सुस्त देखकर लगातार कोंचते रहते । 

एक बार होली के अवसर पर निहाल विहार कार्यालय में एक काव्यगोष्ठी हुई । बहुत दूर-दूर से कवि आये थे । शानदार गोष्ठी हुई। हमने फूल की पंखुड़ियों से होली खेली । जाते-जाते ठाकुर अड़ गया । बोला-"पंडित, हम ऐसे न जायेंगे । होली के अवसर पर बुलाया है तो ठाकुर बिना खाये-पिये जायेगा नहीं । "

"घर चलो । भोजन करके जाना । " मैं पिंकी को फोन करने लगा । 

"क्यों अनुजवधु को परेशान करते हो? किसी होटल में चलो । पैसों की कमी हो तो मैं फाइनेंस कर दूँगा । " वह आँख दबाकर बोले । 

"नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है । आज आप लोग मेहमान हैं । किंतु...?"

"किंतु-परंतु क्या ....?" संदीप मेरी दुविधा समझ गये । 

"तुम खाओगे क्या...?"

"ठाकुर हूँ । समझ जाओ क्या खाऊँगा? शेर घास नहीं 

खाता । "

मैथिल और ललित मिश्र भी थे । उन्हें लेकर निलोठी मोड़ के पास यादव ढाबा पर ले गया । वहाँ शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन मिलते थे । 

वेटर को बुलाकर कहा- "जिसे जो पसंद हो वह भोजन लगाओ । "

"ऐसे नहीं खाऊँगा । पीने के बाद खाऊँगा । आज मना नहीं कर सकते । आज हम मेहमान हैं । अतिथि देवो भव । यह मैं नहीं राष्ट्रवादी लोग ही कहते हैं!" इतना कहकर उन्होंने ललित और मैथिल की तरफ देखकर आँख मारी । 

मैं अजीब धर्मसंकट में पड़ गया । मैथिल और ललित भी मुस्कराने लगे । उनकी भी मौन सहमति थी । मुझे पता था कि संदीप का मकसद खाना-पीना कम मुझे खींचना ज्यादा था । 

मैंने वेटर को बुलाया और पीने की व्यवस्था करने को कहा । उसने सारी व्यवस्था बना दी । 

संदीप खुलेआम प्लास्टिक के ट्रांसपीरियंट गिलास में पीने लगे । मैंने घबराकर कहा-"क्या करते हो यार? लोग देख रहे हैं । कोई जानने वाला आ गया तो मेरी बड़ी फ़जीहत होगी । " मैंने प्लास्टिक के गिलासों को स्टील के गिलासों के अंदर डाल दिया ताकि वह दिखायी न दें । 

"यही तो राष्ट्रवादियों को ढ़कोसला है । हम वामपंथी जो काम करते हैं खुलेआम करते हैं । हा-हा-हा-हा... । "

मैथिल ने मेरे कान में कहा- "यह प्रैक्टिकल दिखा रहे हैं । "

उस दिन हम चारों में खूब बातें हुईं । जी-भरकर खाना-पीना हुआ । जिसे जो मन भाया, उसने वह खाया-पिया । संदीप ने बिल भरने का भरसक प्रयास किया लेकिन उस दिन मैंने उनकी एक न चलने दी । हम सब चिंतित थे कि संदीप घर कैसे पहुंचेंगे । लेकिन वह हम सबको आश्वस्त करके तिपहिया लेकर चलते बने । 

जैसी कि हम सबको आशंका थी कि इस घटना का उल्लेख भी संदीप किसी न किसी रचना में करेंगे । संदीप भला हमारी आशंका को खाली कैसे जाने देते । उन्होंने इस पर लघुकथा भी लिखी और कटाक्ष भी किया । 

हुआ यह कि उन्होंने मुझे फिर अपने "पाठशाला" वाले वाट्सअप ग्रुप में जोड़ दिया । हममें यह सहमति बनी कि अब इस ग्रुप में सिर्फ साहित्य की बातें होंगी । राजनीतिक चर्चा के लिए एक अलग ग्रुप बना लिया जाये । हम दोनों अपनी-अपनी विचारधारा के लोगों को जोड़ लें । उन्होंने अशोक यादव जी और कई वाम विचारकों को जोड़ा । मैंने भी भाजपा नेत्री बहन हेमलता वरुण, विहिप अधिकारी श्री ओंकार जी और मित्र मधुसूदन शर्मा जी को जोड़ा । बहस शुरू हुई जो बहुत नई-नई चीजों को सामने ला रही थी । वाम पक्ष से संदीप के अलावा कोई और ज्यादा देर ठहर न सका । संदीप जब अकेले पड़ने लगे तो व्यक्तिगत आक्षेपों पर आ गये । शाम गहराने लगी थी । ठाकुर अब ख़ूँख़ार होने लगा था । ग्रुप में एक महिला बहन हेमलता भी थीं । शायद झोंक में संदीप यह भूल गये थे । मैंने परेशान होकर ग्रुप ही डिलीट कर दिया । सार्वजनिक रूप से हार-जीत व अपने अहं को पोषित करने के चक्कर में कहीं सम्बंध न हार जायें । इसलिए मैंने कुछ दिनों के लिए फिर संदीप से दूरी बना ली । 

दिल्ली के वरिष्ठ साहित्यकार और संपादक श्री सुरजीत सिंह जोबन जी हर वर्ष साहित्यकारों के साथ किसी न किसी प्रसिद्ध सिक्ख धर्म के धार्मिक स्थल का टूर करते हैं और वहीं पर साहित्यिक कार्यक्रम भी करवाते हैं । 2017 की बात होगी । जोबन जी ने बताया कि हम लोग हिमाचल के पाऊंटा साहिब जा रहे हैं । वहीं पर गुरु गोविंद सिंह ने कई पुस्तकों की रचनाएँं की थीं और कवि दरबार लगाते थे । मेरी संदीप, यास्मीन मूमल(मेरठ) और नीतीश तिवारी(गुरुग्राम) से बात हुई । हम सब साथ जा रहे हैं, यह हम लोगों के लिए नया अनुभव था । 

वहाँ गुरुद्वारे की धर्मशाला में रहना और गुरुद्वारे में ही भोजन करना था । महिलाओं के रुकने का कमरा अलग था पुरुषों का अलग था । लेकिन नाश्ता व भोजन सबका साथ ही होता था । एक दिन तो ठीक था । दूसरे दिन संदीप का ठाकुर जाग उठा । कसमसाकर बोले- "यार पंडित, सब कुछ तो ठीक है लेकिन यहाँ भिखारियों की तरह दोनों हाथ फैलाकर रोटी मांगनी पड़ती है । भोजन भी तेज-मिर्च मसाले वाला नहीं मिलता । चलो बाहर खाते
हैं । "

"यार, हम समूह में आये हैं । अलग कहीं गये तो ठीक नहीं लगेगा । बाबा के दरबार में याचक बनकर ही हाथ फैलाकर मांगा जाता है । " मैंने समझाना चाहा । 

लेकिन वह ठहरा अक्खड़ आदमी । वामपंथी नास्तिक होते हैं । उन्हें किसी का अस्तित्व स्वीकार नहीं होता । संदीप का समर्थन यास्मीन ने भी किया । हमने गुरुद्वारे की बस में न जाने का निर्णय लिया । मजाक-मजाक में संदीप का पर्स मैंने छीन लिया और कहा कि आज हम सब जमकर खर्च करेंगे । पैसों की चिंता मत करना अपना ही माल है । 

"ठाकुर का दिल बहुत बड़ा है पंडित । रुपये खत्म हो जाएँ तो एटीएम कार्ड भी पर्स में है, पिन भी बता देता हूँ । "

उस दिन हम तीनों ने बाहर ही नाश्ता किया और होटल में खाना भी खाया । यह बात जोबन जी को अच्छी नहीं लगी लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं कहा । 

दूसरे दिन कवि सम्मेलन और सम्मान समारोह था । अंत में गुरुद्वारे के गर्भगृह में सरोपा देकर गुरुद्वारे की ओर से सबका सम्मान होना था । मैंने कहा-"कॉमरेड, गुरुद्वारे में सरोपा ग्रहण तो करोगे न?"

वह इतमीनान से बोले-"जानता हूँ, गुरु गोविंद सिंह सिक्ख धर्म के दसवें गुरु हैं । लोग उन्हें उसी रूप में मानते हैं, पूजते हैं । लेकिन मैं तो उन्हें इससे बढ़कर एक लेखक के रूप में सम्मान देता हूँ । उनकी कर्म स्थली में उनके नाम पर सरोपा न लेना एक गुरु, एक लेखक का अपमान होगा, और फिर मैं तो खुद एक सरकारी शिक्षक हूँ, मेरा तो कर्म ही शिक्षा देना है, फिर कवि और लेखक तो हूँ ही, एक बात और मेरी नास्तिकता इस सम्मान से अछूती नहीं है । " उस दिन संदीप का एक नया रूप मेरे सामने था, मेरा हृदय गदगद हो गया । 

हम सब गुरुद्वारे में रखे दशमेश गुरु के अस्त्र-शस्त्र और उनकी कलम देखकर बहुत उत्साहित हुए । मैं बड़ी देर तक खड़ा अपलक उनकी कलम को ही देखता रहा । 

मार्च 2018 में किशोर जी ने नेपाल की किसी संस्था के साथ नेपाल में ही कार्यक्रम करने का मन बनाया । मुझे जिम्मेदारी दी तो मैंने डॉ. जय सिंह आर्य व संदीप से बात की । दोनों चलने के लिए तैयार हो गये । इरफान के जिम्मे टिकट बुकिंग का कार्य था । लेकिन मुझे दिल्ली में उसी दिन कोई आवश्यक कार्य पड़ गया । मैं नहीं जा सका । संदीप मुझे बहुत दिनों तक कोसते रहे कि तुमने बहुत बुरा किया । अचानक धोखा दे दिया पंडित । तुम्हारे साथ रहने से मुझे विशेष प्रकार की संतुष्टि रहती है । मुझे ज्यादा झेल पाना सबके वस की बात नहीं । 

कुछ दिनों बाद किन्ही सूत्रों से मुझे ज्ञात हुआ कि संदीप की छोटी बेटी का ऑपरेशन होना है वह अस्पताल में भर्ती है । मैं अस्पताल तो न जा सका । उन्हें मैसेज भेजा- "ईश्वर बेटी को शीघ्र स्वस्थ करे । "

उत्तर आया- "कौन ईश्वर, कैसा ईश्वर? कोई ईश्वर मेरी बेटी को कैसे ठीक कर सकता है जिसका अस्तित्व ही नहीं है?"

इस नाजुक घड़ी में कौन उनसे बहस करे । उस दिन उन्हें पहली बार कामरेड कहा-

 "चलो, डॉक्टर को भी तो भगवान कहते हैं । डॉक्टरों के हाथों से चमत्कार हो और बेटी ठीक होकर शीघ्र घर
आये । मैं ऐसी कामना करता हूँ । "

कुछ दिनों बाद उनका सन्देश आया कि बेटी ठीक होकर घर आ गयी है । 

एक दिन समय निकालकर मैं हालचाल लेने उनके घर जा पहुंचा । वहाँ मेरा परिचय संदीप के ग्राउंड फ्लोर पर रह रहे एक उपन्यासकार मुकेश कुमार रॉय से हुआ । उन्होंने "पिघलते बर्फ की कहानी" नामक उपन्यास लिखा था । एक और सज्जन से मिलवाते हुए संदीप ने कहा- "इनसे मिलो, यह हैं हमारे होने वाले समधी साहब । "

मैं असमंजस में पड़ गया । मैंने सोचा संदीप के भाई साहब या किसी और सम्बन्धी के समधी होंगे । संदीप ने हंसकर कहा-"भाई मेरे बेटी है और इनके बेटा । यह मेरे इतने घनिष्ठ दोस्त हैं कि हमने तय किया है कि आगे चलकर हम दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल देंगे । "

मुझे सही अवसर मिला । मैंने भी चोट की । "ऐसे वायदे तो परम्परावादी लोग करते हैं । वामपंथी कबसे ....??"

"नहीं-नहीं, अगर हमारे बच्चे बड़े होकर एक-दूसरे को पसंद करेंगे तो हम शादी करेंगे । " संदीप ने हड़बड़ाकर गलती सुधारी । 

लेकिन वापस लौटते हुए मैं सोच रहा था कि संदीप कितना भी आधुनिक व वामी बन जायें । गाँव और जाति-धर्म के संस्कार इतनी आसानी से नहीं जाते । 

संदीप और मेरी दोस्ती का एक सिरा बलरामपुर से भी जुड़ता है । संदीप व मुझसे कभी अनबन हो जाती है या बोलचाल बंद हो जाती है तो दिलीप का फोन आयेगा । कम से कम आधे-पौने घन्टे बतियाएंगे । पुरानी यादें,गाँव-समाज और साहित्य के साथ संदीप की भी चर्चा अवश्य होती है । हम दोनों इस बात पर सहमत होते हैं कि संदीप से कोई वैचारिक असहमति हो सकती है लेकिन संदीप की साहित्यिक समझ पर कोई शक नहीं किया जा
सकता । यदा-कदा संदीप ने हम दोनों की सहायता की है । जब हम साहित्य से विमुख हो रहे थे तो संदीप ही हैं जो हमें फिर वापस उसी धारा में लेकर आये । हमें आपस में सम्बंध बनाकर रखने चाहिए । 

अभी पिछले दिनों उनकी शिवसेना और महाराष्ट्र की राजनीतिक समझ के विषय पर दिलीप से भी बहस हो
गयी । दिलीप बड़े आहत हुए । मैं संदीप के घर अचानक जा पहुँचा । बातों ही बातों में दिलीप की बात छेड़ी । घर-परिवार की बातें हुईं । संदीप मुझे कुछ खिन्न दिखे । न जाने क्या बात थी ?कुछ तो था जो वह मुझसे छिपा रहे
थे । 

मैंने कहा- "अपनी आत्मकथा का दूसरा भाग लिखना चाहता हूँ । "

उन्होंने मुझे कमलेश्वर और राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा दी । 

"लिखने से पहले इन्हें जरूर पढ़ना । "

संदीप मुझे बार-बार आगाह करते रहे- “लेखन में विविधता लाओ । कुछ बड़ा लिखो । कब तक तुम नवोदित बने रहोग ? अब हम बड़े हो गये हैं । मुझे देखो, तुमसे कम लिखकर भी नाम अधिक चर्चा में रहता है । “

चलते-चलते मैं मुड़कर पूछता हूँ- "हम साल में छः महीने तो बच्चों की तरह लड़ते-झगड़ते रहते हैं । क्या हम सचमुच बड़े हो गये हैं ?"

संदीप ने मुस्कुराकर कहा- "पंडित, यह बचपना बुढ़ापे तक बना रहना चाहिए । "

जोरदार ठहाका लगाकर मैं वापस चल पड़ा था । गली के आखिरी छोर पर मुड़ने से पहले मैंने एक बार फिर पीछे मुड़कर देखा संदीप अब भी मुझे आशा भरी निगाहों से अपलक जाते देख रहे थे । उनके इसी अपनेपन और अधिकार भावना की डोर से बंधा मैं बार-बार लौटकर उनकी तरफ खींचा चला जाता हूँ । 

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कहानी


डॉ. वीणा विज 'उदित', जालंधर, मो. 9682-639-631


कांटों की सेज (पुरुष विमर्श की कहानी)

"सत श्री अकाल पाबी जी! हाउ आर यू?"

पिछली कोठी की हमारी आंगन की साझी बाउंड्री दीवार जो चार फूट ऊंची है, उसके दूसरी ओर से जीत भाई साहब की आवाज़ सुनकर मैं चौंक गई । 

"सत श्री अकाल जी! कदों आए? "(कब आए) पूछते हुए मैंने हैरानगी दिखाई । इस पर वे बोले, 

" पाबी जी, अज कल विच आ जाइयो तुहाडे नाल कुज गल्ल करनी ए । "( आजकल में आईएगा कुछ बात करनी है आपसे) बात आगे ना बढ़ाते हुए मैंने कह दिया कि अच्छा आज ही आते हैं । 

मॉडल टाउन का नक्शा कुछ ऐसा बना है कि बीच में पार्क उसके चारों ओर आठ गलियां हैं जिनके मुहाने पर दुकानें ही दुकानें और हर गली अपने में चौबीस -पच्चीस घरों को संभालती चारों ओर फैली हुई हैं । इस पर घरों के आंगन की दीवारें आपस में जुड़ी हैं तो लोगों में प्यार मोहब्बत हो ही जाती है । समय मिलते ही दीवारों के आसपास खड़े होकर आपस में बतियाने से कुछ और नहीं तो आत्मीयता बनी रहती है । हमारा भी अपने पिछले घर वालों से काफी प्रेम- प्यार बना हुआ है । 

जीत भाई साहब के पिताजी जिन्हें हम अंकल जी कहते थे, उनके स्वर्ग सिधार जाने से आंटी जी अकेली पड़ गई थीं । उन्होंने दो किराएदार रखे और उन्हें घर की जिम्मेवारी सौंप कर स्वयं इंग्लैंड बेटे के पास चली गई थीं । बुढ़ापे में बहू से सेवा करवाने लेकिन कर्म का लेख कैसे टल सकता है? उनकी बहू कमल कौर बहुत अच्छी और रौनकी थी! सास के आने पर, कुछ समय बाद ही अचानक वह बीमार हुई और चल बसी थी । आंटी जी सुख लेने गई थीं, लेकिन कर्मों में सुख नहीं था । घर में बेटा और उसके दो बेटे थे । बहू की मृत्यु से बेटे की सुरताल में लयबद्ध बीतती जिंदगी का संगीत बेताल हो गया था या कहो संगीत की सुई अटक गई थी । गृहणी की कमी ने घर को पंगु बना दिया था । सो, मां को वहीं छोड़कर उनका बेटा कोई हल ढूंढने अपने घर वापस भारत आया था । 

सांझ गहरा गई थी जब हम जीत भाई साहब को उनके घर मिलने पहुंचे । उनके हाव-भाव में उनकी पत्नी का अफसोस तो था ही लेकिन उसके जाने से जीवन में चली आई असंतुष्टि अधिक लग रही थी । कारण --- बड़े बेटे की शादी कर दी थी कि बहू आकर घर को संभाल लेगी । पर इस नए युग की लड़की ने परिवार से अलग रहने की ज़िद ही पकड़ ली । वह बोली, 

" मेरे हंसने खेलने के दिन हैं, ना कि तुम्हारे परिवार की रोटी बनाने और दादी की सेवा करने के । "

जीत भाई साहब यह सुना रहे थे और बोले, 

" बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ" के तो खूब नारे लग रहे हैं लेकिन बेटियों को पारिवारिक शिक्षा कौन देगा? संस्कारों के नाम पर डब्बा ही गुल है! हमारा बेटा पराया हो गया । बच्चे की देखभाल और घर संभालने के लिए मेरे दोस्त ने यहां पंजाब में अखबार में मेरी शादी का विज्ञापन दे दिया था । उसके जवाब में कई चिट्ठियां और फोन आए 

हैं । मैं इसीलिए मजबूरी में पुनः शादी करने आया हूं । आपसे यही बात करनी थी मैंने । "

जीत भाई साहब की बातें सुनकर उनकी बीवी की मृत्यु का हमने अफसोस क्या करना था ? उल्टे हम उन्हें अग्रिम शुभकामनाएं देकर घर वापस आ गए थे । 

अगले दिन आंगन की दीवार के उधर से उन्होंने पुन: आवाज दी बोले, 

" भाभी जी एक रिश्ता जंच रहा है । जांच पड़ताल मेरे दोस्त ने करवा ली है । विधवा महिला है । इसका एक बेटा है जो दसवीं में पड़ता है (फोटो दिखाते हुए) हमारी उम्र में भी ज्यादा फर्क नहीं है आप भी जरा नजर मार लो !असल में घबराहट बहुत है, पर कहीं तो‌ विराम लगना है ना । 

मैंने फोटो पर नजर डाली तो पंजाब के पिंड (गांव) की पेंडू लगी । सुंदरता का मापदंड यही था कि सब अंग और नैन- नक्श सही थे । गेहुआ रंग था, जबकि जीत भाई साहब काफी गोरे चिट्टे हैं । मेरे चेहरे पर भावों का उतार- चढ़ाव न पाकर---- वे बोले, 

" सुंदर लड़कियों की फोटोस तो बहुत आई हैं । किसी को भी मेरी उम्र से गुरेज नहीं है । हर लड़की विलायत जाना चाहती है । पंजाब की यह भेड़ चाल है । इंग्लैंड के नाम पर सब की लार टपकती है । बड़ी लंबी लाइन है । भाभी जी, डरता हूं लड़कियों की नीयत से । मुझे सीधी सादी विधवा ठीक रहेगी । कम से कम घर तो संभालेगी । दो लड़कियां तो अपनी मां को ब्याहने आई थीं । मेरा मन बड़ा खराब हुआ यह देखकर । अब आप बताओ मेरा फैंसला कैसा है?"

मैं क्या कहती? सोचा व्यावहारिक दृष्टिकोण से वह ठीक ही सोच रहे हैं । एक पचास साल के पुरुष के साथ एक जवान लड़की कैसे ईमानदारी से निभा सकती है । फिर आजकल की हवा का रुख भी अपनी मर्जी से मोड़ लेते हैं लोग । वे पुनः बोले, 

"इस विधवा महिला के बेटे की मैट्रिक की परीक्षा होते ही उसे भी हम पेपर्स भेज कर वहीं बुला लेंगे जिससे यह भी चैन से वहां रह सकेगी हम सब के बीच । छोटा बेटा नमन कॉलेज जाता है यह भी एडमिशन ले लेगा वहीं । हमारे दो से तीन बेटे हो जाएंगे । घर फिर बस जाएगा । क्या कहते हो आप?

अब तो लगते हाथ मैंने भी कह दिया, " शुभ काम में देरी क्या करनी? फेरे लवो लांवा । ( शादी कर लो)"

यह फैसला होते ही उसी हफ्ते उनका छोटा बेटा आ पहुंचा था अपने डैडी की शादी की फोटोग्राफी करने । उधर उस विधवा का बेटा भी अपनी मां की शादी में खूब नाच रहा था डीजे के सामने । बहुत खुशहाल माहौल था । मैं सोच रही थी बीवी के मरने का गम तो एक पैग में ही भूल गया होगा । अब तो अगला पैग नई बीवी के आने की खुशी का--- खूब नशा ला रहा होगा! वैसे भी अतीत को भूलकर ही वर्तमान संवारा जा सकता है! यह सब रिश्ते खोखले होते हैं जो इंसान की जरूरतों से बंधे होते हैं । हमारे सांस्कृतिक मूल्यों के मानक कितने बदल गए हैं इस बदले जमाने के साथ-साथ । एक हफ्ते के भीतर ही पिछली कोठी की रौनक हवाई जहाज से विलायत चली गई और पिछला आंगन सूना हो गया था । मैं भी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई थी । 

वक्त की चाल बहुत तेज़ होती है कब दिन महीने में और महीने साल में गुज़र जाते हैं हमें पता ही नहीं चला कब जीत भाई साहब पुनः भारत आ गए थे और एक बार फिर से बाउंड्री वॉल के दूसरी तरफ से वही अपनत्व भरी आवाज आई, 

"पाबी जी की हाल है? सब ठीक है ना!"

"अरे तुसी इस बार जल्दी ही चक्कर लगा लया अपने देश दा?"उनके चेहरे पर परेशानी देखकर मैंने पूछा, 

" सब ठीक है ना अकेले ही आ गए हो साथ बीवी को नहीं लाए?"

"आराम से बैठ कर बातें होंगी, आप आने का कष्ट करना, मेहरबानी करके!"

वह मेरे को बहुत इज्जत देते थे तो मैं भी उसी शाम उनके घर पहुंच गई । उनका दोस्त उनके साथ बैठा था । 

उन्होंने बताया कि यही उनके लिए मेहनत करते रहे, और अब दुखी हैं मेरे साथ । मैंने आश्चर्य दिखाया तो वे बोले, "भाभी जी वह तो पता नहीं कहां दौड़ गई । "

"क्या बोल रहे हैं आप? यह कब हुआ और कैसे हुआ?"

वह बेचारे दुखी मन से अपना रोना रोने लगे, 

"भाभी जी मैंने तो उसके बेटे को भी बुला लिया था पेपर भेज कर । उससे पूछा कि क्या पढ़ना है किस कॉलेज में एडमिशन करवा दूं? बोला, " मैं पहले कोई जॉब करूंगा । उसकी मां ने भी कहा कि वह भी वॉलमार्ट में काम
करेगी । बेटा डॉलर शॉप में लग गया । दोनों खुशी-खुशी घर से जॉब करने जाते और हंसी-खुशी रहते रहे कुछ समय तक । फिर पता नहीं किस से दोस्ती-यारी कर ली और अचानक एक दिन दोनों गायब हो गए । बहुत ढूंढा । पुलिस की मदद भी ली, लेकिन पता नहीं चला । दोनों पक्के हो गए थे, मैंने ही तो उन्हें स्पॉन्सर किया था । ना मेरी कमल कौर मरती ना मैं इन झमेलों में पड़ता । "

इतना कहकर वे सिर धुनने लगे । उनके सपने टूट कर बिखर गए थे । बोले, 

" वक्त भी गंवाया, पैसा भी गंवाया । इन सबसे ज्यादा दिल को, भरोसे को बहुत चोट लगी है । "

वह माथे पर हाथ रखकर सर झुका कर बैठ गए थे । तमन्नाएं धूल में मिल गई थीं । इस नई चोट से कमल कौर के जाने का सदमा गहरा गया था और मैं बेचारे जीत भाई साहब को पुरुष विमर्श का शिकार हुआ देख रही थी । 

पुरुष विमर्श के बादल गहरा रहे हैं । 

हमारे दूध वाले ने भी बताया कि उसके भतीजे की अभी पिछले साल शादी हुई है इस शर्त पर कि लड़की का वीजा लग गया है लेकिन उसके पास टिकट के पैसे नहीं थे । तो शादी के बाद हमारा भतीजा उसकी टिकट खर्चेगा और वह वहां जाकर अपने पति को बुला लेगी । अब वह वहां पर है लेकिन अपने पति को नहीं बुला रही है । वह बेचारे हर दिन स्पॉन्सरशिप के पेपर्स का इंतजार करते रहते हैं । वह ना पेपर्स भेज रही है और ना ही फोन उठाती है । घर में कोहराम मच गया है । बेचारा हमारा भतीजा पछता रहा है । गहना- कपड़ा भी ले गई है! वह भी पुरुष विमर्श का शिकार हो गया है । 

हमारे समाज की चुनौतियां बहुमुखी हैं । । पिछली सदी से इस सदी में आते-आते इनका परिदृश्य बदल गया है । यह ऐसी चुभन दे रहा है जिससे दर्द की एक लहर चल रही है । जिन मूल्यों को समाज ने सदियों की यात्रा में गढ़ा था, उसके दायरे में मूल्यों के मानक बदल गए हैं । 

मेरी सखी श्रीमती अरोड़ा के घर मैं एक दिन गई तो क्या देखती हूं उनका बेटा जो मेडिकल कॉलेज में पढ़ता है, हॉस्टल से घर आया हुआ था और बहस रहा था कि उसे नई कार नहीं, पुरानी सी कार चाहिए । अरे ! यह क्या उल्टी गंगा बह रही है? मैं भी सुनकर हैरान हुई । वो बोला, "आंटी जितनी बढ़िया कर होगी उतनी ढेर गर्लफ्रेंड्स बन जाती हैं । मुझे नहीं चाहिए गर्लफ्रेंड । खूब उल्लू बन रहे हैं लड़के । मेरे एक दोस्त ने अपना लैपटॉप बेचकर अपनी गर्लफ्रेंड को डिजाइनर पर्स लेकर दिया और घर में पापा को फोन कर दिया कि उसका लैपटॉप चोरी हो गया है । पैसे जल्दी भेजें नए लैपटॉप के लिए । वो गर्लफ्रेंड खूब चालू है । तीन लड़कों के साथ इकट्ठा चक्कर चला रही है । तीनों आपस में ख़ार खाते हैं । एक ने तो दूसरे की अपने दोस्तों से पिटाई भी करवा दी है । मोबाइल में तीन-चार सिम रखती हैं और आपको क्या-क्या बताऊँ । एक और लड़का दिनेश है । वह नाम मात्र को हॉस्टल में रहता है । वैसे एक लड़की के साथ किसी गेस्ट हाउस में पड़ा रहता है । डॉक्टर क्या बनेगा? ख़ाक! पढ़ाई ही नहीं कर रहा! आंटी, बहुत बुरा हाल है लड़कों का । लड़कों की अक्ल ही मारी गई है । पिछले वर्ष तो एक लड़के ने अपनी गर्लफ्रेंड को दूसरे लड़के के साथ घूमते देखकर डिप्रेशन में गंगा में कूद कर जान ही दे दी थी । इसीलिए मुझे खटारा कार चाहिए । मैं अपनी रईसी की शान नहीं दिखाना चाहता । रईस लड़कों के पीछे पड़ जाती हैं यह लड़कियाँ । फिर ना जाने क्या करती हैं ये कि लड़के फूँस जाते हैं । "

यह सब सुनकर मैं तो हक्की-बक्की रह गई । अरोड़ा बहन जी का मुँह भी खुला का खुला रह गया था । यह जवान पीढ़ी किधर का रुख कर रही है? इस युवा विमर्श को रोकना ही होगा, जो शारीरिक आकर्षण से पीड़ित है । कोरोना काल का पुरुषों का रोना तो सबने सुना होगा और इसे मजाक में चुटकुले बनाकर खूब प्रचलित भी किया गया । लेकिन यह मजाक अब शनै:-शनै: सच्चाई बनता जा रहा है! पुरुष कमा रहा है और स्त्री खूब खर्च कर रही है । ब्यूटी पार्लर दिनों- दिन बढ़ते जा रहे हैं और महंगे होते जा रहे हैं! जहां लेडिस की लंबी लाइन लगी रहती है । कमाई वहां लुटाई जा रही है । पति लोग मजबूर हैं नारी वर्ग के समक्ष । 

मध्यवर्गीय परिवारों में आए दिन कलह-क्लेश बढ़ते जा रहे हैं । तलाक के लिए मोटी रकम मांग कर तलाक लिए जा रहे हैं । लड़की के मां-बाप साथ देते हैं और और खुशी से तलाक के पैसे लेते हैं । 

एक सभ्यता और संस्कृति के ढाँचे का सृजन होने के लिए पाप -पुण्य, अच्छे- बुरे, शालीन- अश्लील की कसौटियाँ तय की जाती हैं । यदि हम समकालीन परिस्थितियों से यह सब जोड़कर देखते हैं तो हमें परिवर्तन के घुमावदार मोड़ों और पड़ावों से गुज़र कर वर्तमान तक पहुँचना होगा । पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव एवं आधुनिकता का प्रभाव दृष्टिगत करना होगा ! हम किस-किस पड़ाव पर कितना ठहरेंगे? जहां नारी विमर्श, दलित विमर्श, सवर्ण विमर्श के नारे लग रहे हैं ---इन सब के आंचल में छिपी मर्मांतक कराहना को क्या कोई सुन नहीं पा रहा? जी हां "पुरुष विमर्श" भी तो आज यक्ष प्रश्न बनकर समकक्ष खड़ा है । 

हमें अपनी करवट बदलनी होगी । समानांतर खड़े रहने का साहस जुटाना होगा । पुरुष बेबस हो चीख पुकार का आश्रय न लेते हुए नशे, ड्रग्स और आत्महत्या की ओर मुखर हो रहा है । प्रतिदिन ऐसी खबरों से समाचार पत्र भरे होते हैं । गृह निर्मात्री गृह त्यागनी हो रही है । भोग विलास की लालसा सरल और सहज परिवारों को निगल रही है । युवा कन्याएँ एक साथ दो- चार युवा पात्रों को बेवकूफ बना रही हैं । उन्हें अंत में ड्रग्स का आदी या आत्महंता बनने को मजबूर कर रही हैं । आप" बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ" तो कहते ही हैं । वर्तमान परिदृश्य में "बेटा बचाओ नारी के चंगुल से" यही कहना शेष रह गया है । 

पंजाब में "बेटा बचाओ" के स्लोगन बहुतायत में लगने लगे हैं क्योंकि एक तरफ पंजाब के युवाओं को विदेश जाने की दौड़ में दिलचस्पी हद से भी अधिक है, और इसमें ट्रैवल एजेंट उनको ठग रहे हैं । वहीं स्कूल कॉलेज के युवा ड्रग्स के शिकार हो रहे हैं । विदेशी शक्तियों भारत के युवाओं को गोली मार के नहीं वरन उनको ड्रग्स का आदी बनाकर मार रही हैं । अब माता-पिता की ज़िम्मेदारी है कि वह अपने जवान होते हुए बेटों को कैसे इस जहर के सेवन से बचा कर रखें । 

पिछले दिनों सड़क पार बड़ी हवेली वालों के बेटे की शादी बहुत धूमधाम से हुई थी लेकिन अगले ही दिन पता लगा कि दुल्हन पहली रात को ही अपने घर वापस चली गई थी । उसने दूल्हे से कहा कि वह किसी और से प्यार करती है उसे तलाक चाहिए । अभी तो शादी रजिस्टर्ड भी नहीं हुई थी और वह तलाक मांग रही थी । और तलाक में पांच करोड़ मांग रही थी । 

उनकी इज्जत का फलूदा कर दिया था उसने । अभी तो शहनाई की आवाज हवा में रस घोल रही थी और मेहमानों की हंसी फिजा में गूँज रही थी । जबकि दूल्हा शर्मिंदगी में अपना सर धुन रहा था, कमरे से बाहर नहीं निकल रहा था । पुरुष विमर्श का शिकार होता पुरुष वर्ग बेचारा!!

नीता दीदी से मुलाकात हुई तो मालूम हुआ उनके बेटे ऋषि ने साफ-साफ कह दिया है कि वह शादी नहीं करना चाहता । उसके दो दोस्त भी यही फैसला कर के बैठे हैं । उन्होंने एक नई रट लगा ली है कि वे शादी नहीं करेंगे । आजीवन अविवाहित रहेंगे । 

एक्स्ट्रा मैरिटल संबंध भी सामाजिक मूल्यों को बिगाड़ रहे हैं । लीना ने बताया कि उसकी दो सहेलियां शादी करके पछता रही हैं । करुणा के पति के एक बड़ी उम्र की औरत के साथ संबंध बन गए हैं । रीमा के पति की उनकी सेक्रेटरी के साथ ऑफिस में खुल्लम खुल्ला संबंध बने हुए हैं और वह विदेश भी उसके साथ ही जाते हैं । एक ही रूम में ठहरते हैं । करुणा और रीमा दोनों अपने पतियों को उनके चंगुल से नहीं निकाल पा रहीं । सो लीना ने तो सोच लिया है, वह विवाह नहीं करेगी । उसे किसी के घर जाकर उसके बूढ़े माता-पिता की सेवा नहीं करनी है । वह ऐश करना चाहती है । 

भारतीय संस्कृति ने पश्चिमी सभ्यता और आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी सात्विक परिपाटी खो दी है । आधुनिकता ने परंपराओं की धज्जियां उड़ा दी हैं । आज का वर्तमान समाज नव सृजन की प्रसव पीड़ा से आंदोलित है । हमें पुरुष विमर्श के शिकार होते पुरुषों और परिवारों को बचाना होगा । 

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कहानी

नीलम कुलश्रेष्ठ

अहमदाबाद, गुजरात, मो. 09925534694, 

ईमेल : kneeli@rediffmail.com

 खिसकोली

``जीजी !तुमने अपनी बुक नहीं दी । मैं घर जाते हुये तुम्हारी सहेली को देती जाऊँगी । ``

-``जीजी !तुम अपनी पढ़ाई करो, मैं इन कपड़ों की तह लगाकर फटाफट रख दूँगी । `` वह आँगन की अरगनी [ आँगन में लम्बाई में बंधा तार ] पर से सूख गए कपड़े उतारकर पलंग पर ढेर लगाते हुए कहती । 

-``जीजी !तुमसे चूहेदान में रोटी लगानी भी नहीं आ रही, मैं लगा देतीं हूँ । ``बरामदे में ज़मीन पर बैठ वह चूहेदान को खोलकर बैठ जाती । उसके अंदर के लटकते तार के हुक में रोटी लगाते ही वह कोठरी [स्टोर ] में रखे बड़े बॉक्स के कोने की तरफ़ चूहेदान का खुला मुंह करके उसे वहीं रख देती । पंद्रह बीस मिनट बाद `खट `की आवाज़ सुनाई दे जाती, यानि चूहा फँस गया । 

-``रुको जीजी !मैं तुम्हारे बालों में तेल डाल देतीं हूँ । ``

-``जीजी !ये पीले रंग कलर का सलवार सूट तुम पर बहुत अच्छा लगेगा । ``

- ``तुम्हें कॉलेज के लिये देर हो रही है ?बस दो मिनट में रोटी बनातीं हूँ । ``

``तू रहने दे, पापा व भइया को तो टाइम से रोटी बनाकर दे दी .मैं दस मिनट से कह रह रही थी कि रोटी बना, तू सफ़ाई करना नहीं छोड़ रही थी । मैं कैंटीन में कुछ खा लूंगी । ``

``मैं आपको ऐसे कैसे जाने दूंगी ? आंटी जी मेरे कान खींचेंगी । आपको मैं गर्म रोटी खिलाना चाह रही हूँ । ``कहकर मुझसे पाँच छः बरस छोटी मेरी अभिवाभक नल से हाथ धो रसोई में जाकर रोटी बनाने में लग गई थी । मम्मी को अचानक मामा जी के घर जाना पड़ गया था । ख़ूब हल्दी पड़ी, ज़ोरदार तड़का लगाईं उसकी बनाई अरहर की दाल का स्वाद ज़ुबाँ पर महक गया था .सबसे जुदा था, वह स्वाद आज भी मेरी जिव्हा पर उसकी तरह उछल कूद करता रहता है । 

उसमें कितनी अनोखी वफ़ादारी थी । उसके पास बहुत गंभीर मुंह बनाये, बहुत आत्मविश्वास से खड़ी हो जाती, ``ठहर जाओ जीजी ! मैं  ढूँढती हूँ तुम्हारी किताब । पहले बताओ कि वह किस रंग की थी और तुम कहाँ कहाँ पढ़ने बैठीं थीं ?``

मैं कुछ सोचती सी बताती, ``उस बुक के कवर का रंग हलका पीला है. । मैं स्टडी टेबल पर थोड़ी देर पढ़ने बैठी थी । वहां मैंने देख लिया, वह बुक वहां नहीं हैं । फिर मैं डाइनिंग टेबल पर पढ़ने आ गई थी । ``

``फिर?``वह व्यग्रता से आगे की कार्यवाही करने को उतावली पूछती । 

``अब ये याद नहीं आ रहा कि मम्मी के पलंग के सिरहाने टिककर पढ़ने गई थी या छत पर । ``

वह सरपट छत पर दौड़ लेती । मैं रोकती, ``पहले पलंग पर तो देख ले । ``

``वहां तो मैंने अभी बिस्तर ठीक किया है । ``वह सीढ़ियां ऐसे झटपट चढ़ जाती जैसे सिलेटी रंग की देह पर काली धारियों वाली कोमल गिलहरी झटपट पेड़ पर चढ़ जाती है. थोड़ी देर में मेरी केमिस्ट्री की किताब लेकर हाज़िर, ``आपने पढ़ते हुये इस मुंडेर पर रख दिया होगा । किसी कॉपी या किताब के धक्के से ये दूसरी तरफ़ जा गिरी होगी । ``

``शाबाश मुन्नी !तू तो अलादीन का जिन्न है । ``वह मुस्करा भर दी थी । तब वह जान चुकी थी कि अलादीन का जिन्न क्या होता है । 

पैंतालीस बरस बाद भी फ़ुर्ती से लगभग भागती सी, घर भर के काम करती, मुन्नी की आवाज़ें कानों में उतनी ही स्पष्ट हैं जैसे तब थीं. वे आवाज़ें यानि मेरी उम्र का वह हिस्सा जो मुन्नी की मेरे जीवन को लगाई सीढ़ी के बिना खिसक नहीं पाता था.

तब उस मम्मी के आंगन में चिड़ियों की चहचहाअट से नींद खुलती थी । मुंडेर पर काले कौये `काँव `, `काँव `करते शोर मचाते रहते थे । अम्मा उनकी काँव काँव से घबरा कर बड़बड़ातीं, `ए आग लगौ !भाग इते से, वैसे ही मेहमान आते जा रहे हैं और कितने बुलावेगौ ?``

उन दिनों कैसी भ्रांति थी कि मुंडेर पर कौआ बोला और मेहमान आये । गिलहरियां खाने की तलाश में आँगन में सरपट दौड़तीं रहतीं थीं । यदि कोई आंगन से गुज़रे तो उसके कदमों की आहट से सरपट आंगन में दीवार से टिकी चारपाई पर चढ़ जातीं थीं । उनसे लगे छज्जे छज्जे चढ़ती चपलता से छत पर भाग जातीं थीं । वे वहां भी खाने की आस नहीं छोड़तीं थीं । मुँडेर से झांकतीं, उनकी काली चमकीली बिलकुल गोल आंखें हम पर टिकी रहतीं थीं । मुझे भी तब फ़ुर्तीली मुन्नी गिलहरी लगती थी । 

दरअसल शादी के बाद मैंने बड़ौदा आकर ये आकर्षक गुजराती शब्द सुना था -`खिसकोली `मतलब यहाँ गिलहरी को `खिसकोली कहते हैं । `खिसकोली `शब्द पहली बार सुनकर मुझे बिजली की तरह बिजली याद आ गई थी यानि ---`मुन्नी ` एकदम चुस्त, दुरुस्त । 

आज की बहुमंज़ली इमारतों के बीच वह आँगन अजनबी हो गया है । कैसे सब शहर के या दूसरे शहर के रिश्तेदार पड़ौसी या परिचित फ़ुर्सत में होते थे । उस आँगन में चारपाई या कुर्सियों पर बैठे घंटों गप्पें लगाते रहते थे । तब घर के पीछे का दरवाज़ा यदि खुला रह जाए तो कोई कुत्ता घुस आता था या कोई कीचड़ में अधलिपटा वराह दरवाज़े पर खाने की आस में अपनी थूथनी रगड़ता मिलता था । गायें तो अपने को महारानी समझतीं थीं क्योंकि लोग ख़ुद रोटी डालकर उन्हें सिर पर चढ़ाये हुये थे । वे साधिकार दरवाज़ा खोलकर अपना आधा धड़ दो पैरों के सहारे दरवाज़े के अंदर धंसा कर कचरे के डिब्बे में मुंह डालकर चपर चपर कचरा खाने लगतीं थीं । 

बंदर अमूनन नहीं आते थे लेकिन बन्दर व लंगूर का दल कभी कभी छत दर छत टहलता हमला कर देता था । सब सबसे पहले आँगन में अरगनी पर सूखते कपड़े उतारने भागते । एक डंडा ढूँढ़कर रख लिया जाता यदि कोई बंदर आंगन में उतर आया तो ? मानो कभी किसी बंदर या लंगूर ने कोई कपड़ा झपट लिया और उसे खिजाता सा मुंडेर पर बैठा रहता तो उसे उसके सामने केला या रोटी डालकर ख़ुशामद करनी पड़ती थी । वह दस नखरे दिखाकर कपड़ा छोड़कर अहसान से रोटी उठाता । कभी कभी तो कपड़ा फाड़ देता और रोटी या केला लेकर भाग जाता था । 

तब भालू व बंदरों के नाच दिखाने वाले कॉलोनी में आया करते थे । कभी अनाथालय वाले बाँसुरी या ड्रम बजाते चंदा मांगने आ जाते थे, कभी साधु बाबाबों का दल किसी बैल को शिवजी का नंदी बैल बताता आ जाया करता था । ये वो दिन थे जब हमें कुल जमा इन जानवरों को देखने ज़ू नहीं ले जाया जाता था । न ही धूप में बैठने के कारण कैल्शियम विटामिन डी थ्री गटकना पड़ता था । 

तब मुन्नी का परिवार गाँव से नया नया शहर आकर बसा था । उसकी माँ उसी आंगन में बरामदे की सीढ़ी पर बैठ गई थी । उसके साथ थी मुन्नी लाल रिबन में ऐंचक बेंचक दो चोटियाँ बनाये, मटमैली ढीली ढाली फ़्रॉक में बिटर बिटर सहमी सी हमें देखती अचकचाई सी, बेढब । तीन चार दिन में अपना काम समझ कर गंवई मुन्नी ने फ़ुर्ती से सारे घर का काम सम्भाल लिया था । 

दो महीने बाद ही जैसे उसने शहर के लिए अपने को ढाल लिया था, जैसे उसके पर निकल आये थे --`थैंकू `टैम [टाइम] ` शब्द उन पर टंग गए थे । छः महीने पूरे होते ही उसने हमको बुरी तरह चौंका दिया था । दरवाज़े पर सुबह सारे देहातीपन को झाड़ मुन्नी खड़ी थी - कंधे तक कटे बाल, अपने पतले दुबले छोटे कद के शरीर पर सलवार कुर्ता पहने . सुंदर तेरह चौदह बरस की लुनाई लिये हुए उजला .छोटा सा चेहरा, दोनों होठों में नीचे वाला होंठ थोड़ा मोटा, कुछ कहती सी काली बड़ी बड़ी आँखें । 

अब वह घर में आते ही अपनी जॉर्जेट चुन्नी को आंगन में रक्खी चारपाई पर टांग, साधारण कुर्ते सलवार में घर भर में घूमती, घर के सारे काम सरपट दौड़ती सम्भालती उसकी पतली दुबली साढ़े चार फ़ीट ऊंची देह. कोई काम बताओ तो वह मुस्तैद सी सामने आकर चेहरे पर बहुत गम्भीरता लिए हुए खड़ी हो जाती । उसका शरीर कुछ हुक्म सुनने की चाह में कुछ ऐसे हिलता जैसे वह किसी दौड़ प्रतियोगिता में दौड़ने को तैयार खड़ी है । टाँगे अकड़ी हुई एकदम तैयार कि रैफ़री की सीटी बजी, वह दौड़ लेगी .

शाम को कभी दौड़ती सी घर में घुसती ``जीजी !जीजी !बाहर जाकर देखो तुम्हारा मधु आइसक्रीम वाला आ गया । मैंने उससे पूछा था कि इतने दिन क्यों नहीं आये तो कह रहा था उसे बुखार हो गया था । ``

अपने लिये चोको बार मंगवाते हुए मैं कहती, `` मुन्नी !तू भी अपने लिए ऑरेंज चुस्की ले लेना । ``

हम दोनों अकेले होते तो उससे कहती, ``चल तू भी अपनी थाली लेकर साथ बैठ जा खाना खाने । ``

``नहीं जीजी !मैं यहीं ठीक हूँ । ``वह डाइनिंग टेबल के पास बैठने के लिये पट्टा रख रही होती .मैं जबरन प्यार में उसे डाइनिंग टेबल के दूसरी तरफ़ बिठा लेती । उसे अपनापन देने के लिये । आपसी दूरियाँ कम करने के लिए । 

मैं कोई चीज़ बाज़ार से लाती उसे ज़रूर दिखाती । वह ख़ुश होकर चहकती, `` वाह !जीजी !इस मोती की माला को पहनकर सुंदर लगोगी । ``

अब तो आश्चर्य होता है कि कैसे विश्वास भरे दिन थे । कुछ भी बाज़ार से लाओ ---सब कुछ मेज़ पर रख दिया जाता था । जब फ़ुर्सत मिलती आलमारी में रक्खा जाता था । 

उसकी माँ ने जब उसकी शादी तय की तो पता नहीं क्यों उसकी माँ को बुलाकर मैंने उसे बहुत डांटा था, ``मुन्नी की शादी करने की कोई उम्र है ?अभी से उसे तुम क्यों बाँध रही हो ?``

``हमारे यहाँ छोरियों की शादी जल्दी कर देवें हैं । अब गाँव में खाता पीता खेती वाला परिवार मिल रहा है, छोरा सीधा है तो सादी तय कर दी । ``

मम्मी ने मुझे हल्का सा झिड़का था, ``तू क्यों बीच में दादी बनकर सलाह दे रही है ? इनकी और भी बेटियाँ हैं । अच्छा है जितना जल्दी हो ठिकाने लगतीं जांयें । `` 

मुझे एक और धक्का लगा था कि बेटियाँ ठिकाने लगाने की चीज़ हैं । 

शादी के कुछ महीने बाद वह मिलने आई तो उसका उतरा चेहरा देखकर मैं हैरान थी कि वह सरपट घर में घूमती, पट पट बात करती गिलहरी कहाँ खो गई है । आँखों के नीचे स्याह दाग लिए, ये सूखे चेहरे वाली कौन है ?लग रहा था किसी ने उसके चेहरे की लुनाई किसी ने पोंछ दी है । 

एकदम उसने तोप सी दाग़ थी, ``मुझे अपना काला मोटा दूल्हा ना पसंद । `` 

``तो तुमने उससे शादी क्यों की थी ?``

``कैसी बात कर रही हो ?जहां माँ बाप सादी करेंगे तो वहां सादी करनी पड़ती है. और फिर तुम जानो गाँव में ढोरों के काम करने पड़ते हैं । ``

``ढोर ?``

``ही --ही --तुम ढोर नहीं जानतीं ? गाँव में गाय भैंस अपनी रखते हैं तो उन ढोरों की साफ़ सफ़ाई, जहाँ बंधे रहें उसकी सफ़ाई, ऊपर से गोबर उपले का काम । `` 

समझाने से क्या होता है, वह जब जब मिली ऐसे ही लुटी पिटी सी मिली । फिर तो मेरी शादी में वह विशेष रूप से गाँव से बुलाई गई थी । कोई भी मेरी शादी का एलबम खोलता तो द्वाराचार के समय किशोर का टीका करती मम्मी की बगल में आरती की थाली लिए बड़ी बड़ी आँखें तिरछी किये, कानों में जड़ाऊ मोतियों की बाली पहने मुन्नी की सुंदरता को देखकर ज़रूर पूछता, , ``ये सुंदर सी लड़की कौन है ? ``

माँ गर्व से बतातीं, ``हमारे यहाँ ये काम करती थी, हमारे परिवार के मेंबर की तरह रहती थी लेकिन अब इसकी शादी हो गई है । मैं इसे गाँव से बुलावाया था । ये बहुत भरोसे वाली लड़की है । ``

मेरी शादी के एक बरस बाद वह मिलने आई थी, ``और बता मुन्नी सारे दिन गाँव में क्या करती है ?``

``वही जो गाँव की दूसरी औरतें करतीं हैं । गाय, भैंस के काम, खेतों का काम फिर भी पेट भर रोटी नहीं मिलती थी इसलिए मैं कल्लू को सहर ले आईं हूँ । `` बात करते हुये उसकी ललक भरी दृष्टि मेरे कपड़ों व गहनों पर सरसरा रही थी । ऐसी सरसराती ललचाई उसकी नज़र मैंने पहले कभी नहीं देखी थी । 

`` कल्लू कौन ? ``मेरी हँसी निकल गई थी । 

``बिसका नाम तो देवीलाल है लेकिन मैं बिसके काले रंग के कारण कल्लू कहतीं हूँ । ``

``चल हट ऐसा थोड़े ही कहतें हैं । ``

``छ: महीने से हम यहीं हैं । उसने अपनी सायकल पंक्चर ठीक करने की दुकान खोल ली है । ``

`` वाह, अच्छा है जब मैं आगरा आया करूंगी तो तुमसे मिलना हो जाया करेगा । ``

``मैं तुम्हारे लिए चाय बनाऊं ?``

मुझे कुछ आश्चर्य हुआ, ``तू आज हमारी मेहमान है । मैं तेरे लिए चाय बनाउंगी, वैसे ये टाइम चाय पीने का थोड़े ही है ?``

``चाय तो मैं ही बनाऊँगी । जानती तो जीजी बरसों से मैंने खाना बनाने वाली गैस छुई तक नहीं है । ``वह एक क्षण के लिए उदास हुई और तेज़ी से रसोई में जा घुसी । 

गुसलखाने में मम्मी के कान ज़रूर हमारी बातों पर टिके होंगे इसलिये उनकी वहीं से आवाज़ आई थी, ``एक कप चाय मेरे लिए भी बना देना । ``

चाय की ट्रे डाइनिंग टेबल पर रखते हुये बोली, `` जीजी !याद है हम इस पर बैठ कर खाना खाते थे । आंटी जी व आपने कभी कितना प्यार दिया था । नया कोई आपके घर आता था तो वह यही समझता था कि मैं आपकी रिस्तेदार हूँ । ``

``हाँ, मुन्नी जीवन बदलता ही रहता है । मैं भी उन दिनों को बहुत याद करतीं हूँ । कभी मैंने सोचा था कि मैं गुजरात में बस 

जाऊंगी ? मैं जब आऊँ तो मिलने आती रहना । ``

`` क्यों नहीं जीजी! ?, ये भी कोई कहने की बात है ?`` 

गिलहरी या खिसकोली --उसकी जान में होता ही कितना दमखम है? शादी से पहले उस दिन कॉलेज में कोई छुट्टी थी . उस समय एक गिलहरी अपनी तेज़ी पर गर्व करती उस आंगन को अपना ही घर समझ, बरामदे में तेज़ी से भाग रही थी, मैं अपनी धुन में किताब लेकर आंगन की धूप में बैठने जा रही थी । सम्भलते सम्भालते मेरा पैर गिलहरी की गिलगिली नाज़ुक पीठ पर पड़ चुका था । कुछ पिच्च सा हुआ --गिलहरी दब चुकी थी --उसका तड़पता शरीर शांत हो गया था, अचरज से उसकी मृत आँखें ऊपर की तरफ़ फ़ैली हुईं थीं, आस पास खून के छींटे फ़ैल चुके थे । घर भर में शोर मच गया था ---``अरे ! नीली के पैर के नीचे आकर गिलहरी मर गई । `` मैंने अपनी नाक पर चुन्नी कसकर बाँध अखबार के कागज़ पर एक डंडी से गिलहरी की पिची मृत देह को खिसकाकर पिछवाड़े कचरे में फेंक दिया था । अब चुन्नी से सिर ढककर बरामदे के उस स्थान को पानी से धोया व उस पर गंगा जल के छींटे डाल दिये थे । गिलहरी के घर में इस तरह मरने से किसी को ऐसा करते हुए मैंने देखा था । आँखें बंद कर गायत्री मन्त्र पढ़ अपने को अपराध मुक्त समझ लिया तो क्या ?

---उस चपल यहाँ से वहाँ तेज़ी से सरपट सलवार कमीज़ में घर भर में दौड़ती, उस खिसकोली की गुलगुली पीठ पर अचानक क्या पड़ गया था ?---शहर की रईसी, उसकी चकाचौंध भरा सूट बूट वाला भारी भरकम निर्मम पाँव ?

मुन्नी के शहर बस जाने के बरस बाद सुना कि मुन्नी के पति का शहर में दिल नहीं लग रहा था .न ही ठीक से वह कोई धंधा जमा पा रहा था इसलिए वे दोनों गाँव लौट गए थे.मुन्नी के पति ने तो शहर से लौटकर खेती में दिल लगा लिया था लेकिन एक बच्चा होने के बाद भी मुन्नी कमरे में बंद हो आग लगाकर जलकर मर गई थी । 


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कहानी


शोभा रानी गोयल, जयपुर, मो. 9571220372


उसने क्या पाया ?

लंबा रास्ता पार करने के बाद एक ऊंची दीवारों से लैस बड़ी सी चार दीवारी दिखाई दी । इसके एक दीवार के कोने पर बड़ा सा लोहे का गेट था जिस पर बड़ी-बड़ी सलाखें लगी हुई थी । दुसरी तरफ खुला मैदान था जो एक कचरा गाह में तब्दील हो चुका था । यह पतझड़ का मौसम था । जहां धौरो में बंबडर उठा करता था । हमारी जिप्सी धूल उड़ाती हुई वहां आकर रुकी‌; एक सिपाही भागता हुआ आया और हमें सलाम थोकने लगा । वह हमें लोहे के गेट से अंदर ले गया । 

जब हम वहां पहुंचे तो अजीब सा लग रहा था । एक ऊंची टीन शेड के नीचे कुछ औरतें सिलाई कर रही थी । वहीं दूसरी ओर नीले कपड़े पहने कुछ मजदूरिन चटाई बना रही थी । हत्थे की चोट से सूत के धागे एक समुचित आकार ले रहे थे । रंग बिरंगी मनभावन डिजाइन वाली चटाई अक्सर फर्श पर बिछी हुई देखी थी । आज बनते हुए देख रही थी । सूत के धागे और पूराने कपड़े की लीर के संगम से बनी चटाई… कुछ औरते बड़े बड़े भगौनों में रंग उबाल रही थी । नीला, पीला, लाल, गुलाबी, केसरिया, स्लेटी…एक तरफ सफेद कपड़ों का ढेर था, दूसरी तरफ शोरगुल अधिक था । उड़ते हुए चेपों को देखकर मैंने काला चश्मा लगा लिया जबकि वे लोग निर्विकार भाव अपना कार्य कर रही थी । मुझे लगा यदि मैं देर तक यहां रुकी तो यह चेपें मुझे अंधा कर देंगे । 

सामने से एक लगभग 55-56 वर्ष का वर्दीधारी सज्जन आया । उसके कंधे पर तीन स्टार सजे थे । हाथ में डंडा और सर पर पुलिस टोपी जगमगा रही थी । वह मुझे रोबदार लगा । वह यहां का इंचार्ज था । हमे देखते ही बुलंद स्वर में बोला-”जयहिंद मैडम । आने में विलंब हुआ, इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूं । ”

“आपको पता था कि हम लोग विजिट पर आने वाले हैं फिर भी आप लेट है । यह तो सरासर लापरवाही है । ”-मैंने कलाई घड़ी दिखाते हुए थोडे से तल्ख स्वर में कहा । 

“सॉरी मैडम सॉरी, आइए, केबिन में चल कर बात करते हैं । ” मिस्टर रमन ने आग्रह किया । 

मैंने उचटती सी नजर फिर से उस जगह के चारों तरफ़ डाली और मिस्टर रमन के साथ पीछे-पीछे चल दी । चार कुर्सी और सुसज्जित टेबल से सजा केबिन जिसमें गांधी जी की तस्वीर और अन्य पुरानी रोल मॉडल की फोटो लगी थी । दीवारों का रंग पुराना हो गया था । एक हवलदार चाय ले आया । 

चाय पीकर मैं खुली जेल का मुआयना करने लगी । एक वृद्ध स्त्री कपड़े धो रही थी । मैंने उसे बुलाया । वह सकुचाती सी मेरे पास आई । 

“तुम यहां कब से हो?”

“पिछले सात बरस से ।, ”

“किस अपराध में…”

उसने सिर झुका लिया । 

मैंने पूछा-”तुम किस अपराध में यहां कैद हो?”

“उम्र कैद हुई है मैडम । ” शायद वह मेरी बात समझ नहीं पायी । 

“जुर्म क्या किया था । ” मैंने जोर देकर पूछा । 

वह सहज भाव से धीरे से बोली-”कत्ल । ”

मुझे जोर का झटका लगा । मैं पांच कदम पीछे हट गई । मेरे साथ आये अधिकारी ने मुझसे कहा-”यहां अधिकांश कैदी दफा तीन सौ दो के है यानी हत्या के वाद में मुजरिम करार दिया गया है । इन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली हुई है । ” 

“ये स्त्रियां है और स्त्रियां दया की मूरत होती है फिर यह सब हत्यारिन, मुजरिम, कातिल…कैसे हो सकती है? सब समझ के परे है । क्या ये स्त्रियां नारी जाति पर कलंक है या फिर कोई विडम्बना । चींटी को मारते हुए भी इनके हाथ सहम जाते हैं, इनके हाथ खून से कैसे रंगे हो सकते है । सिक्के का दूसरा पहलू क्या है?” मै अपनी ही रौ में बोलती चली गई । 

“ज्यादा भावुक मत होइए मैडम, हकीकत का सामना कीजिए । अभी-अभी नयी नौकरी ज्वाइन की है आपने, अभी तो बहुत कुछ देखने को मिलेगा; जो आपके लिए अविश्वसनीय होगा । ” साथी कर्मचारी ने कहा । 

मैंने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया । मैं आगे बढ़ गई । चारों तरफ कैदी महिलाएँ अपना काम कर रही थीं । कुछ बीच-बीच में अपने ग्रुप में बतियाँ रही थीं । कुछ जाने किस बात पर जोर से हंस-हँस कर लोटपोट हो रहीं थीं । एक महिला जो कम उम्र की लग रही थी वह गुरूवार की व्रत कथा पढ़ रही थी । कुछ दूर आगे चलकर देखा, एक सामान्य उम्र लगभग चालीस-बयालीस साल की महिला गीली मिट्टी में उँगली से कुछ उकेर रही थी । वह बार-बार अपनी एक लट को कान के पीछे ले जाती जो एक मिजाज़ी बच्चे की तरह बार-बार उसके गाल पर झूल रही थी । 

मैं उसके पास पहुंची-”क्या कर रही हो?” 

मेरी आवाज़ सुनकर पर वह एकदम सकपका गई और हकलाते हुए बोली- “जी, ज, जी मैडम, वो…”

“तुम घबरा क्यों रही हो? उसकी सांसे ऊपर नीचे हो रही थी । ” वह सिर झुका कर खड़ी रही, कुछ बोली नहीं । 

मैंने उस जगह पर नज़र डाली जहां पर वह अपनी उँगली से कुछ कर रही थी । एक फूल की आकृति के साथ एक पंक्ति लिखी थी-” कहां हो तुम?”

“यह तुमने किसके लिए लिखा है । ” मैंने उस पंक्ति की ओर इंगित किया । 

उसने सूनी आंखों से मुझे देखा और बुदबुदाने लगी मगर उसकी ध्वनि मेरे कानों तक नहीं पहुँची… मैं फिर पूछना चाह रही थी; तभी वहाँ कार्यरत एक महिला कांस्टेबल बीच में बोली-”मैडम, इसका तो यही काम है । जब भी फ्री होती है, मिट्टी में कुछ ना कुछ चित्रकारी करती रहती है । यदि मिट्टी ना मिले तो कागज रंगीन करती है । चित्रा बेहद खूबसूरत पेंटिंग बनाती है । ”

मेरी आंखों में कौतूहल तैर गया । “मैं चित्रा की पेंटिंग देखना चाहूंगी । ” मैंने उसकी तरफ मुस्कुराते हुए देखा । वह निर्विकार खड़ी थी । 

“मैडम जरूर देखना पहले जिस काम के लिए आए हैं वह तो कर ले” साथ आए पुलिस कर्मी ने कहा । 

पिछले सप्ताह खुली जेल को विजिट करने का आर्डर आया था । ऑर्डर देख मैं घबरा गई थी । हत्या और कत्ल के खूंखार कारावासी स्त्रियों को कैसे विजिट करूंगी? कैसे उनकी दिनचर्या नोट करूंगी? वहां का माहौल कितना खतरनाक होगा । गुस्से की भट्टी में सुलगते ये बंदीगृही कहीं मुझ पर ही हमला न कर दें । इन सब बातों से आशंकित होकर मैंने मना करना चाहा । 

कमिश्नर साहब ने कहा-”इस तरह की चुनौतियां हर रोज आएँगी कब तक भागोगी । यह वर्दी हमने तन पर सजाने के लिए नहीं; संघर्षों का सामना करने के लिए पहनी है । यदि आज इंकार करती हो तो वर्दी के साथ सही न्याय नहीं कर पाओगी । वैसे भी तुम अकेली नहीं हो तुम्हारे साथ एक कांस्टेबल महिला और एक पुलिसकर्मी भी साथ जाएँगे । ”

बचपन से ही पुलिस सेवा में जाने की तीव्र आकांक्षा के चलते मैंने इंस्पेक्टर की परीक्षा पास की थी । कड़ी ट्रेनिंग से गुज़रकर इस मुक़ाम पर पहुंची हूँ । फील्ड की नौकरी में रिस्क तो रहेगा ही । अब तो रोज़ यही करना है तो घबराना कैसा । मै सिर पर निडरता का जामा पहनकर, मन ही मन मुकाबला करने की सोचकर मैं यहां चली आयी-मन में चल रहे झंझावातों से उलट यहां दुसरी तस्वीर दिखाई दी । शांति और आपसी मेलजोल देखकर लगा ही नहीं कि ये लोग अक्षम्य अपराध के कैदी है । 

इस खुली जेल के बारे में विशेष जानकारी हासिल करने के भाव से मैं महिला कैदियों को बारीकी से परखने लगी । इन विकट अपराधियों को देखकर मन में एक ख्याल आया कि ये लोग इतने मुक्त भाव से विचर रही है, काम निपटा रही हैं । अपने आप में मग्न है । क्या यह कभी आपस में लड़ती-झगडती होंगी । कभी किसी चीज़ के लिए छीना-छपटी करती होंगी । मैंने विजिट करवाने आए वहीं के पुलिसकर्मी मिस्टर रमन से पूछा । 

“नहीं मैडम, इन सब औरतों में बहुत अधिक मेलजोल है । साथ में खाना बनाती है, साथ में खाती है । एक दूसरे के सुख दुख की साथी है । कोई एक बीमार हो जाएं तो सब लोग मिलकर उसकी तीमारदारी करती हैं । किसी के घर से कभी वार-त्यौहार पर कोई मिठाई या खाने की चीज आए तो सब मिलजुल कर खाती है । आपस में बड़ा ही प्रेम-भाव है । रात को सब मिलकर साथ में धारावाहिक अनुपमा देखती है । मैंने कभी इन लोगों को उलझते नहीं देखा । अब जब इन लोगों की अपनी दुनिया ही छीन गई तो भला भौतिक चीजों के लिए क्या छीना-झपटी करेगी मैडम । ” वह दार्शनिक अंदाज में बोला । 

मिस्टर रमन की बात सुनकर मन का डर जाता रहा । खुली जेल के एक हिस्से में गेहूं की फसल लहलहा रही थी । पौधों के ऊपर झूलती गेहूं की बालियां इस तरह प्रतीत हो रही थी मानो नर्तकी के पैर में घुंघरू बांध दिए हो । इन पौधों के बीच में पालक, बथुआ जैसा साग भी दिख रहा था । एक मेड़ पर टमाटर भी उगे हुए थे । “यह सब क्या है? क्या ये लोग खेती-बाड़ी भी करती हैं । ”- मैंने आश्चर्य से पूछा । 

“मैडम यहां का खाना यहां के उगे गेहूं से बने आटे से और साग सब्ज़ियों से ही बनता है । जेल‌ की इन‌ महिलाओं ने कड़ी मेहनत से इस वियाबान हिस्से को साफ कर खेती लायक बनाया है । आज यहां चमन हो रहा है । ” मिस्टर रमन ने अपनी शर्ट की कॉलर ठीक करते हुए कहा । 

“खेती के लिए पानी कहां से आता होगा”-साथी कर्मचारी ने पूछा । यह प्रश्न मेरे मन में भी उठ रहा था । 

“जहां चाह वहां राह, एक छोटा सा पोखर भी इन्हीं महिलाओं ने बना लिया है और उसी से…ये लोग कोई ना कोई तोड़ निकाल लेती है मैडम” अपनी शर्ट की काॅलर ठीक करते हुए रमन बोला । 

“यह महिला होकर फावड़ा भी चलाती है?” साथ आई कांस्टेबल महिला ने संशय से पूछा । 

“यह महिला शक्ति है मैडम, जो चाहे कर सकती है । चाहे तो पहाड़ को जमींदोज कर दे और चाहे तो विशाल समंदर को कच्चे घड़े मे कैद कर दे । यह तो मामूली से तालाब का काम था । ” मिस्टर रमन ने फिर दार्शनिकता के भाव से कहा । 

“ठीक है, ठीक है, ज्यादा बखान ना करो । मुझे भी पता है; हम महिलाएं क्या-क्या कर सकती हैं । ” मैंने उसे लगभग डाँटते हुए कहा । वह खिसियाकर रह गया । 

दोपहर होने को आई । मार्च की यह धूप चुभने लगी थी । एक महिला हमारे निकट आई और पूछने लगी -”मैडम जी आप लोग खाना यही खायेंगे?”

पूछने वाली महिला कैदी थी । साथी कर्मचारियों ने मिस्टर रमन की ओर देखा, मिस्टर रमन ने महिला कैदी को ताकीद किया । “खाना डेढ़ बजे तक तैयार हो जाना चाहिए । ” फिर वो मेरी ओर मुताखिब होकर बोला-”मैडम बाहर से क्या आर्डर करना । शुद्ध शाकाहारी खाना है; बिल्कुल घर जैसा । यह लोग बहुत अच्छा खाना बनाती है । खाने का जो बिल पास हो वह आप अपनी जेब में रख लेना । ” मैंने उसे आंखें तरेर कर देखा । वह झेंप गया । 

आड़ी-तिरछी बत्तीसी निकाल कर बोला-“मै तो मजाक कर रहा था । आप चाहे तो मैं खाना बाहर से आर्डर कर देता हूँ । ”

“नहीं रहने दो; जेल और यहां के वातावरण को समझने के लिए हमें यहां का खाना भी चखना होगा । यह हमारी रिपोर्ट का हिस्सा है । ” मैंने उसकी बात का जवाब दिया । 

वाकई में खाना बहुत ही स्वादिष्ट था । दाल, चावल, रोटी, सब्जी और रायता… सब ऑर्गेनिक फूड से बना था । कुछ क्षण आराम करने के पश्चात हम आगे बढे-एक स्थान पर एक छोटा सा राधा कृष्ण जी का मंदिर बना हुआ था । वहां लगे छोटे से यंत्र पर कृष्ण अमृतवाणी चल रही थी । कृष्ण कैदियों के भगवान थे । खुद उनका जन्म जेल की चारदीवारी में हुआ था । मिस्टर रमन ने बताया कि सुबह 8:00 बजे प्रार्थना सभा होती है जो कि लगभग पन्द्रह मिनट चलती है । नियमित रूप से प्रार्थना सभा में भाग लेने से कैदियों में एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है । जेल में बंद रहने से कैदियों के अंदर नकारात्मकता आ जाती है, उसे सकारात्मकता में बदलने के लिए प्रार्थना सभा आयोजित की जाती है और ये महिलाएँ यहाँ कुछ देर कीर्तन भी कर लेती है । यह जानकर सुखद अनुभूति हुई । 

नीली साड़ी पहने कुछ औरतें पैरदान बना रही थी । मैंने उस झुंड में से एक कैदी महिला को उंगली से इशारा
किया । वह आई और सिर झुका कर बोली-”जी मैडम । ”

“तुम्हारा नाम क्या है”

“ममता”

“क्या जुर्म किया है । ”

“हत्या की है”

 “किसकी?”

“अपने बेटे की”

“अपने बेटे का…”मैं बहुत भौचक्की रह गई । “अपने ही बच्चे को कौन मारता है । तुम्हारा नाम ममता और ऐसा घिनौना कृत्य । ”

“अगर बहन की इज़्जत पर हाथ डालेगा तो मरेगा ही ना; मैंने मार डाला उस पापी को…नाश पीटें को, न मरता तो मेरी बेटी का दुश्मन हो जाता और मेरी कोख लजाती । इसलिए मार डाला और मुझे इस बात का कोई अफसोस भी नहीं है । ” उसकी आंखों में खून उतर आया । 

अच्छा तुम जाओ किसी और को भेजों…दूसरी महिला कैदी उठकर मेरे पास आई । 

“तुम्हारा नाम क्या है”

“कृष्णा”

अच्छा बताओ! इस जेल की दिनचर्या क्या है? इस बार मैंने उससे उसका अपराध नहीं पूछा । 

“जेल की सुबह 5:00 बजे शुरू होती है । सब लोग अपने नित्य क्रम से फारिग होकर 8:00 बजे प्रार्थना सभा में आ जाते हैं । इसके बाद हम सब सुबह से शाम तक काम करते हैं । चाय नाश्ता से लेकर खाना बनाने तक हम सारे कार्य करते हैं । इसके अलावा अन्य घरेलू उत्पाद भी बनाते हैं और थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी भी कर लेते हैं । ”

मिस्टर रमन ने बताया-प्रत्येक कैदी को उसके द्वारा किए गए कार्य की ऐवज में मजदूरी भी दी जाती है । जिसे उसके अकाउँट में जमा किया जाता है । सजा पूरी होने के बाद यह पैसा उनके भविष्य में काम आएगा । 

“मगर यह तो उम्र कैदी है रिहा कैसे हो सकते हैं । ” साथ आयी महिला कांस्टेबल ने पूछा । 

“मैडम कभी कानून की किताब पढ़ना; पता चल जाएगा” मिस्टर रमन ने मुछों पर ताव देते हुए कहा । 

“खैर छोड़ो! यह बताओ कि यहां से किसी ने भागने की कोशिश नहीं की” साथी कर्मचारी ने पूछा । 

“अशोक के पेड़ की और उंगली दिखाते हुए वह बोला-देखो वह मचान, यहाँ से इनके ऊपर नज़र रखी जाती है लेकिन अचंभा इस बात का है कि यहाँ से कोई जाना ही नहीं चाहता । ” हाथ और आँख नचाते हुए मिस्टर रमन ने कहा । 

"अच्छा ठीक है मगर कभी किसी ने कोशिश तो की होगी" हिना इस वक्त बहस के मूड मे थी । 

यहां रह कर देख लीजिए, मैडम जी...

एकाएक मुझे चित्रा दिखाई दी । मैंने उसे पकड़ा-”मुझे तुम्हारी पेंटिंग देखनी है । ”

“चलिए मैडम” 

मैं उसके पीछे-पीछे चल दी । पेंटिंग क्या थी एक जीती जागती इश्क की बानगी थी । इन चित्रों की एग्जिबिशन लगाई जा सकती थी । स्त्री-पुरुष के प्रेमालाप करते हुए विभिन्न आकृतियां, कबूतर-कबूतरी की जोड़ी, शेर-शेरनी, हाथी और हथिनी सूँड़ से एक दूसरे को प्यार करते हुए, और जंगल के खूबसूरत दृश्य और इन सबमें झलक रही होती स्त्री पुरुष के अनोखे प्यार की कहानी । 

चित्रा की एक-एक पेंटिंग गहरे उतरती चली गई । मानो उसकी हर पेंटिंग जैसे कोई कविता सुना रही हो । एकाएक मैंने एक सवाल उस पर दाग दिया-तुमने किसी से प्यार किया है?

“टूट कर चाहा था मगर वो बेवफा निकला । ” उसके लबों से ज्यादा उसकी आंखों ने जवाब दिया 

“इश्क किसी का मुकम्मल कहाँ हुआ है? तभी तो अफसाने बनते हैं । ” मैंने उसकी एक पेंटिंग की ओर नज़र गाड़ते हुए कहा । माहौल में चुप्पी पसर गई । 

“तुम यहाँ कैसे आ गई?”मैंने उसे ऊपर से नीचे देखते हुए पूछा । 

वह अपलक मुझे देखती रही । फिर धीरे से बोली-मुझ पर हत्या करने का अपराध लगा है । 

“हत्या करने का अपराध या हत्या की है?”

मैंने नज़र उठा कर उसे देखा । उसकी आंखें गीली थी । गोरी चिट्टे चेहरे पर जेल की झाइयाँ उग आई थीं । उसके चेहरे पर उदासी तैर गई । मैंने उसके ज़ख्म छेड़ दिए, ठीक उसी तरह जैसे ठहरे हुए पानी में कँकर फेंक दिया जाता है । 

“तुमसे यह गुनाह कैसे हो गया?”मैंने उसे खामोश देखकर फिर पूछा । 

वह अपने हाथों की लकीरों को देखकर बोली-”शायद नसीब में लिखा था । ”

नसीब शब्द सुनकर मेरे होठों पर फीकी मुस्कान तैर गई “मैं तुम्हारी कहानी सुनना चाहती हूँं । ”

“आप यक़ीन नहीं करेंगी । ”

“तुम सुनाओ तो सही…यह बाद में तय होगा कि तुम सही हो या गलत हो”

मैं चित्रा बचपन में सबसे नटखट थी । बहुत शैतानी करती थी । ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जब मेरी शिकायत घर पर नहीं पहुँचती थी । पढ़ने-लिखने में अव्वल थी । इसलिए माता-पिता मेरी तरफ से निश्चिंत थे । कॉलेज में आने पर थोड़ी बहुत संजीदगी आ गई थी । मुझे पेंटिंग का जुनून था इसलिए मैंने फाइन आर्ट में दाखिला लिया । 

सौमित्र से मुलाकात कॉलेज में हुई । शिक्षकों का सबसे प्रिय विद्यार्थी था और विद्यार्थियों में सबसे चहेता दोस्त । सुंदर, सजीला और शांत स्वभाव का यह प्राणी कॉलेज की जान था । 

एक ही क्लास में रहने के कारण हम दोनों की जान-पहचान हुई । बातचीत शुरू हुई । प्यार हुआ, इकरार हुआ । साथ जीने-मरने की कसमें खायीं । कुछ बन जाने के बाद शादी करेंगे हम दोनों ने मिलकर तय किया । 

एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में हम दोनों आगरा गए । ताजमहल का मोमेंटो बनाना था । बहुत बारीकी से काम करना था । शाहजहां द्वारा निर्मित मुमताज की याद में मोहब्बत की निशानी एक जीती जागती मिसाल थी । यह मकबरा खुद प्रेमगाथा सुनाता था । कल-कल बहती यमुना नदी प्रेम धुन की सरगम गुनगुनाया करती थी । हवाएँ प्रणय निमंत्रण देती थी । इसके मुहाने पर पला प्रेम गलत कैसे हो सकता है । प्रेम कभी गलत नहीं हो सकता । गलत हम होते हैं जो मोहब्बत पर उँगली उठाते हैं । मेरे और सौमित्र के बीच प्रेम का पौधा लहलहा चुका था । 

वो दस दिन हमारे लिए यादगार बन गए । हम अपनी लक्ष्मण रेखा भी भूल गए । कहते हैं मैडम प्यार में सब जायज़ है । यह जायज़ कब नाजायज़ बन जाए पता कहाँ चलता है । 

हम दोनों प्रोजेक्ट पर काम करने लगे । मैंने मोमेंटो के साथ-साथ रिसर्च पेपर भी तैयार किया । मैंने इस प्रोजेक्ट पर बहुत मेहनत की थी । मुझे उम्मीद थी कि मैं कक्षा में टाॅप करुँगी । सर्दियों के दिन थे लौटते समय मुझे ठंड लग गई और मैं बीमार पड़ गई । मुझमें उठने की शक्ति भी नहीं बची थी । प्रोजेक्ट जमा करवाने की तारीख भी नज़दीक थी । 

सौमित्र ने फौन पर कहा-”तुम अपना ख्याल रखो मैं तुम्हारा प्रोजेक्ट सबमिट कर दूँगा” । प्रोजेक्ट सबमिट हो गया । परीक्षा भी हो गई । अब रिजल्ट का इंतज़ार था । सौमित्र ने बताया कि वह अपने भाई के पास कोलकाता जा रहा है कुछ दिन में लौट आएगा । 

रिजल्ट आने पर पता चला मैं लिखित एग्जाम में पास हो गई हूँ मगर प्रेक्टिकल में फेल हूँ । मेरे प्रोजेक्ट को ज़ीरो अंक मिले हैं । मैं समझ नहीं पाई ऐसा क्यों हुआ? मेरा प्रोजेक्ट तो बहुत अच्छा बना था । कहां तो मैं अव्वल आने के ख्वाब देख रही थी और यहां तो पास होने के लाले पड़ गए । मन बहुत बैचेन रहने लगा । 

मैं समझ नहीं पा रही थी; आखिर प्रोजेक्ट में क्या कमी रह गई । मेरा प्रोजेक्ट बहुत अच्छा था कुछ तो मार्क्स मिलते । ज़ीरो मार्क्स तो मैं डिजर्व नहीं करती थी । मैंने काॅलेज प्रशासन से अपने रिजल्ट और प्रोजेक्ट के बारे में पूछताछ की । तब सौमित्र के धोखे का पता चला । सौमित्र ने मेरा प्रोजेक्ट जमा न करवाकर उसकी जगह कोई और प्रोजेक्ट जिसमें कुछ उल्टी सीधी रेखाएं खींची हुई थीं उसे जमा करवा दिया । वो प्रोजेक्ट कहाँ गया किसी को भी नहीं पता था । सौमित्र तो खुद फेल हो गया था । 

मैं गुस्से में तमतमा गई । मेरा साल बर्बाद कर दिया । यदि वह खुद मेरा प्रोजेक्ट मांगता तो खुशी-खुशी दे देती । ऐसे सौ प्रोजेक्ट उस पर कुर्बान । मै फेल हो जाती; मगर मैं गुस्से में भुनभुनाते हुए सौमित्र के घर पहुँची । वहां पता चला कि सौमित्र ने अपने भाई के बिजनेस में हाथ बंटा लिया है और वह वहीं कोलकाता सेटल हो चुका है । मैं सीधे आसमान से ज़मीन पर गिरी । मेरे दिल टूट गया । दुनिया लुट गई और आत्मा तो पहले ही छली जा चुकी थी । यह ऐसा दर्द था जिसे मैं किसी को बता भी नहीं सकती थी । मेरा एक साल ज़ाया हो गया । 

समय एक सा नहीं रहता । मैंने उस बुरे समय से खुद को निकाला । वापस लय में लौटने लगी । फिर से कोर्स ज्वाइन किया । पढ़ाई कंप्लीट की । शुरू से मै पेंटिंग अच्छी बनाती थी । एक्जीबिशन में भाग लिया । खुद की पेंटिंग की एग्जिबिशन लगवाई । कागज़ पर हुबहूं लाइव उतारने का हुनर रखती थी इसके चलते मुझे मल्टीमीडिया कंपनी में नौकरी मिल गई । वक्त के साथ अतीत दफ़न हो गया । अब मैं एक पत्नी, बेटे की मां और कामयाब पेंटर बन चुकी थी । देश विदेश में मेरे बनाएँ कैप्चर प्रकाशित होते थे । पुरस्कृत भी होते । मेरे ब्लॉग को बड़ी तादाद में लोग पढ़ते थे । कुल मिलाकर सब अच्छा चल रहा था । 

एक दिन पता चला कि सामने वाले घर में सौमित्र का परिवार रहने आया है । धूंधली स्मृतियां फिर से ताजा हो गई । चौबीस साल पहले का ज़ख्म तब उभर आया, जब सौमित्र से आमना-सामना हुआ । वह खुद पर शर्मिंदा हो गया । उसने बताया कि उससे न जाने कैसे मेरा प्रोजेक्ट खो गया और यह सब बताने की हिम्मत वह नहीं कर पाया क्यूंकि उसे डर था उसे गलत समझा जायेगा । वह मेरे सामने आने की हिम्मत भी नहीं कर पाया था । मुझसे अपने किए की माफी मांगने लगा । मेरे मन में जो आया मैंने उससे कहा; मैंने उसे खूब खरी-खोटी सुनाई । इतने वर्षों के बाद इस धोखे का कोई औचित्य भी नहीं रह गया था मैडम । जब मन का भरा गुबार उस पर उडेल दिया तो दिल को चैन मिल गया । फिर एक दिन उसे माफ़ कर दिया । ज़िन्दगी जैसी चल रही थी, चलने दी । 

उस दिन मैं घर पर अकेली थी । कॉल-बेल की आवाज़ से मैंने दरवाज़ा खोला । सौमित्र खड़ा था । मैंने शिष्टाचार वश उसे अंदर बुला लिया । पता नहीं उस दिन उसने क्या सोचा कि वह वहीं पुराना प्रेम अध्याय खोलकर बैठ
गया । वह अतीत में दफ़न स्मृतियों को कुरेदने लगा । इसके साथ में वह मुझे यहां वहां छूने की कोशिश कर रहा 

था । मेरे मना करने पर जैसे उसने अपनी अना का प्रश्न बना लिया और मुझसे जबरदस्ती करने लगा । मैं उसकी गिरफ्त से छूटने का भरपूर प्रयास कर रही थी । वह पुराने दिनों का हवाला देने लगा । उसने मुझे अपनी गिरफ्त में कैद कर लिया । मै उसके सामने गिड़गिड़ा रही 

थी । छूटने का भरपूर प्रयास कर रही थी । वह आक्रामक हो रहा 

था । उस पर कोई जुनून सवार था । वह मुझे और कसता चला गया । मेरे हाथ में फल काटने के लिए रखा हुआ चाकू जाने कैसे हाथ में आ गया । मैंने आवेश में आकर उसके चेहरे से लेकर हर जगह उस पर ताबड़तोड़ हमला किया । कुछ पल में ही लहू की नदी बह निकली और वह वही पर ढेर….

चित्रा कहानी सुनाते-सुनाते रो पड़ी । मैंने उसे चुप करना उचित नहीं समझा, ज़िदगी की दुख भरी तासीर यदि आंसुओं में बह जाएं तो दिल में सुकून आ जाता है । मेरे मन में अभी भी एक सवाल ज़िदा 

था । जिसे पूछना मैंने लाज़मी समझा । तुमने किसके लिए लिखा-”तुम कहां हो । ”

वह कुछ देर तक खामोश रही । फिर धीरे से बोली-”मैंने सौमित्र के लिए ही लिखा है । ”

क्यों??? मैंने विस्मय नज़रों से प्रश्न तैरते शब्दों में पूछा । 

“मैंने जिस सौमित्र से प्यार किया था । यह वह सौमित्र नहीं था‌ । आगरा की गलियों में जब गायों के झुंड ने मुझ पर आक्रमण किया था; तब सौमित्र ही था जो बिना अपनी जान की परवाह किए ही उनसे भिड़ गया था और मुझे एक खरोंच तक नहीं आने दी । वो सौमित्र था जिसने मुझे आग की लपटों से बचाया था जो मेरी लापरवाही से लगी थी । मै उस सौमित्र को ढूंढ रही थी जो मेरी पलकों पर सपने संजोता था । कहता था आंसू की एक बिंदु को भी उसकी इजाज़त लेनी पड़ेगी । मेरे अधरों पर सदा खिलखिलाहट रहेगी । छोटी छोटी बातों का ख्याल रखने वाले सौमित्र को मै तलाशती हूं । कहां है वो? मै मेरे प्यार से लबरेज सौमित्र को ढूँढती हूँ । जिसे मैंने मारा था वो मेरा सौमित्र नही था कोई बहरूपिया था; छल था । ”

उसके मन को मैं महसूस कर रही थी । वह अपलक मेरी ही और देख रही थी । कुछ बातों को सिर्फ महसूस किया जा सकता है । 

“बेटा मिलने आता है?” मैंने असंख्य चुप्पी के कणों को तोडते हुए पूछा । 

“नहीं, मैं सबके लिए परायी हो गई । पति ने तलाक ले लिया और बेटे ने सब नाते तोड़ लिये । बस दुआ करती हूँ वे लोग जहां रहे; सुखी रहें । यहां कैदी महिलाएँ मुझे मान देती है, सम्मान करती है, प्यार करती है, मेरा ध्यान रखती है । यही मेरे लिए बहुत है । अब तो यही रहना 

है । यही जीना है, यही मरना है । हम सब के सुख-दुख सांझे है । यही मेरा घर है, और यही मेरा परिवार है । ” उसकी आवाज़ में नमी उतर आई । 

मैं उसे सघन अँधकार में छोड़ कर चली आई । बहुत दिन तक वह मेरे ज़ेहन से निकल न सकी । मै अक्सर उसके बारे में सोचती; प्यार में उसने क्या पाया । इंसान जब प्रेम में होता हैं तो खोने पाने के लिए रह ही क्या जाता है । कुछ लोगों के लिए प्यार खेल होता है और कुछ लोगों के लिए जीने की वजह…. जब प्यार में छल मिलता है तब वही प्यार श्राप बन जाता है । उसने प्यार में क्या पाया छल, खुशी या…. 

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आलेख

डॉ. अकेलाभाइ

सचिव, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी
मो. 9436117260, drakelabhai@gmail.com


मेघालय राज्य में नारी-शक्ति

डॉ. अकेलाभाइ ने पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्विद्यालय शिलांग से एम. ए. (हिंदी) एवं पीएच.डी. की उपाधियाँ ली हैं । पूर्वोत्तर भारत में विगत 35 वर्षों तक आकाशवाणी से संबद्ध रहते हुए हिंदी भाषा एवं नागरी लिपि का प्रचार-प्रसार खूब किया  है । इन्होंने हिंदी के लेखन एवं प्रकाशन तथा नागरी लिपि के प्रचार-प्रसार के लिए पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी की स्थापना की । अनेक साहित्यिक सम्मेलनों, संगोष्ठियों, कार्यशालाओं तथा नागरी लिपि प्रशिक्षण का सफलतापूर्वक आयोजन एवं संचालन किया है । इनकी अनेक रचनाएं प्रख्यात पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं । पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी के सचिव (मानद) के रूप में राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक हिंदी-सम्मेलनों के सफल आयोजक भी रहें हैं । सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा मौलिक लेखन के लिए भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार के साथ-साथ 60 से अधिक प्रतिष्ठित सम्मान एवं पुरस्कारों से सम्मानित हैं । 

-संपादक

भारत के प्रत्येक राज्य में सामाजिक ढाँचा पिता-प्रधान है, जबकि पूर्वोत्तर भारत के एक राज्य मेघालय में मातृ-सत्तात्मक समाज है । इस राज्य में खासी समाज की महिलाओं को जो सामाजिक अधिकार मिले हैं, वैसे अधिकार भारत के किसी भी अन्य राज्य या समुदाय की महिलाओं को प्राप्त नहीं हैं । 

मेघालय राज्य में मूलतः तीन जनजातियाँ निवास करती हैं, क्रमशः खासी, जयन्तिया और गारो । खासी और जयन्तिया समुदाय के मर्द-औरतों की शारीरिक बनावट गारो समुदाय से कुछ भिन्न है । इन तीनों जनजातियों की बोलियाँ एक दूसरे से भिन्न हैं । भाषा के आधार पर मेघालय राज्य की स्थापना 21 जनवरी 1972 को हुई थी तथा इसकी राजधानी शिलांग बनी । इस क्षेत्र में खासी और जयन्तिया जनजाति के लोग अधिक संख्या में हैं, जबकि गारो हिल्स जिले में गारो जनजाति की बहुलता है । 

इस राज्य की प्राकृतिक सुन्दरता विश्व-व्यापी है, उसी प्रकार यहां की महिलाएं भी परिश्रम, सुन्दरता, सरलता, सहजता और भोलेपन के लिए प्रसिद्ध हैं । खासी परिवार की सर्वेसर्वा घर की महिला होती है । खासी परिवार में सबसे छोटी बेटी को विरासत का सबसे ज्यादा हिस्सा मिलता है और उसी को माता पिता, अविवाहित भाई-बहनों और संपत्ति की देखभाल की करनी पड़ती है । छोटी बेटी को ‘खड्डोह’ कहा जाता है, वह एक ऐसी व्यक्ति बन जाती है जिसका घर परिवार के हर सदस्य के लिए खुला है । संपत्ति का अधिकार मां की सबसे छोटी बेटी का होता है । यह इस ‘खड्डोह’ पर निर्भर करता है कि वह अपनी मां की संपत्ति में से अपने भाई-बहनों को दे या न   दे । परंतु आज की परिस्थितियां बदल रही हैं और ‘खड्डोह’ अपने अन्य भाई-बहनों को भी मां की संपत्ति में से कुछ भाग देना स्वीकार कर रही है । वैसे भाई तो अपने विवाह के बाद ससुराल चला जाता है । यदि भाई का तलाक हो जाता है तब दूसरा विवाह होने तक भाई अपनी मां और बहन के साथ ही रहता है । यदि उसका अपना घर होता है तो ऐसी परिस्थिति नहीं आती है । आम तौर पर दुनिया भर के समाज पितृसत्तात्मक और पुरुष प्रधान होता हैं । लेकिन ऐसी जगह भी है, जहां महिलाओं को काफी अधिकार हैं और इसके लिए ज्यादा इधर उधर देखने की भी जरूरत नहीं । यह अनोखी जगह भारत के मेघालय राज्य में ही है । 

खासी समाज में महिला सर्वोपरि होती है और उसके निर्णय का सम्मान पुरुषों द्वारा किया जाता है । दहेज या किसी तरह का लेन-देन विवाह के समय नहीं होता है, जो इस समाज का सर्वश्रेष्ठ रिवाज है । संतान अपनी मां की उपाधि अपने नाम के साथ जोड़ती हैं । कुछ वर्षों पूर्व तक अस्पताल या विद्यालयों में सिर्फ मां का नाम पूछा जाता था, लेकिन अब मां के नाम के साथ-साथ पिता का नाम भी पूछा जाता है । इस राज्य में केन्द्र या प्रदेश सरकार के कार्यालयों में अधिकाशतः महिला कर्मचारियों को देखा जा सकता है । इस कारण यहां महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं । महिलाओं के लिए पर्दा या मात्र घर के कार्य में लगे रहना अनिवार्य नहीं है । यहां प्रेम-विवाह का प्रचलन अधिक है । इस कारण दहेज-प्रथा का प्रचलन बिल्कुल नहीं है । युवतियां अपने पसंद का वर ढूँढ़ने के लिए स्वतंत्र हैं । बच्चों का पालन-पोषण पति-पत्नी मिल-जुल कर करते हैं । चूँकि यह राज्य ईसाई बहुल है, अधिकतर शादियाँ गिरजा घरों में धार्मिक रीति द्वारा संपन्न कराई जाती हैं । 

हर कार्यालय में खासी महिलाओं को देखा जा सकता है और अपने पुरुष साथियों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर काम करते हुए पाया जाता है । नृत्य हो या संगीत, रेडियो हो या दूरदर्शन, घर हो या बाजार, मंच हो या सिनेमा, हर क्षेत्र में खासी महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक संख्या में कार्यरत हैं । अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में भी इनकी बराबरी नहीं । मेघालय की खासी महिलाएं हर वो काम करती हैं, जो अमूमन दुनियाभर में पुरुष करते हैं । यहां तक कि इस समुदाय के पुरुषों को शादी के बाद पत्नी के साथ ससुराल में जाकर रहना पड़ता है । वहां पर पुरुष घर का सारा काम करते हैं, जबकि बाहर के सारे कामों की ज़िम्मेदारी महिलाओं पर होती है । यहां के बाजार में दुकानों पर भी महिलाएँ ही काम करती हैं । यहां मातृसत्तात्मक परंपरा है । इसके तहत उपनाम(सरनेम) और संपत्ति माँ से बेटी के नाम की जाती है । आमतौर पर बच्चे का नाम पिता से जुड़ा होता है, लेकिन इस समुदाय में ऐसा नहीं   है । 

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि खासी समाज में महिलाओं का स्थान सर्वोपरि है । ग्राम पंचायत से लेकर संसद भवन तक मेघालय की महिलाओं को स्थान मिला है । कुमारी आगाथा सांगमा वर्षों तक ग्रामीण विकास राज्य मंत्री के पद शोभायमान रही हैं । शिलाँग की सुश्री अम्परीन लिंग्दोह मेघालय सरकार में शिक्षा मंत्री के पद पर आसीन रहकर इस राज्य में शिक्षा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । मेघालय सरकार में सुश्री रोशन वर्जरी गृह मंत्री के पद पर रहते हुए अपनी राज्य की शांति एवं व्यवस्था को बरकरार रखा है । इतना ही नहीं मेघालय राज्य की महिलाएँ अतिरिक्त उपायुक्त, न्यायाधीश, निदेशक, सचिव आदि कई पदों पर विराजमान हैं । कला एवं संस्कृति विभाग में सुश्री मैकडोर सिएम निदेशक पद पर कार्यरत हैं । इनके निर्देशन में सामाजिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक विकास में अपना योगदान देने वाली इन महिलाओं से देश की अन्य भागों की महिलाओं को शिक्षा लेनी चाहिए । कई खासी महिलाओं ने राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रचार में लगी हैं और हिंदी के क्षेत्र में कार्यरत हैं । हिंदी में पीएच. डी की उपाधि से सुशोभित हैं । लेडी कीन कॉलेज में डा. जीन एस. डखार और सेंट ऑन्थोनीज कॉलेज में डा. फिल्मिका मारबनियांग हिंदी व्याख्याता के पद पर कार्यरत रहकर हिंदी की सेवा कर रही हैं । आकाशवाणी में श्रीमती शाइनी खरपुरी, डा. जीन, कुमारी इबालारी कुरकालांग हिंदी आकस्मिक उद्घोषक के रूप में अपना योगदान दे रही हैं । श्रीमती लिली खरपरान, श्रीमती शिलबी पासाह, श्रीमती बेनी पासाह, श्रीमती नाजिया स्वेर, कुमारी गुलशन शाबोंग आदि कई खासी महिलाओं का योगदान हिंदी शिक्षक के रूप में समाज को मिल रहा है । अधिकांश महिलाएँ अपने-अपने स्व-रोजगार में लग कर अपना जीवन यापन कर रही हैं । श्रीमती नारीमन शडप आकाशवाणी में लगभग 10 वर्षों तक निदेशक के पद पर कार्यरत रहीं और गत वर्ष 30 नवम्बर को उन्होंने अवकाश प्राप्त किया । सम्प्रति विभिन्न केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार के कार्यालयों सैकड़ों महिलाओं का योगदान मिल रहा है । मेघालय का प्रमुख अंग्रेजी दैनिक शिलाँग टाइम्स के संपादक के पद पर श्रीमती पेटरिशिया मुखिम कार्यरत रहते हुए पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना योगदान दे रही हैं । इसी तरह कई खासी महिलाओं का योगदान अखबारों के संवादाता के रूप में मिल रहा है । शिलाँग के अधिकांश विद्यालयों में प्राचार्य और शिक्षक के रूप में खासी महिलाएँ कार्यरत हैं । 

मेघालय की महिलाओं में त्याग है, समर्पण है, पवित्र निष्ठा है, जो एक पुरुष को बरबस अपनी ओर आकर्षित करता है और इस क्षेत्र में सत्य की शोधक मनोवृत्ति भी है जो स्वार्थों से हटकर मानवीय कल्याण भाव से जुड़ी चेतना है, बुराइयों के विरुद्ध चुनौती भरा अनुशासन है, करुणा से भरी मानवीय संवेदना है, जो यहां आये सैलानियों का मन मुग्ध करता है । यह एक ऐसा राज्य जो अनायास ही सब का ध्यान आकृष्ट करता है । यही कारण है कि इस राज्य में महिलाएँ अत्यंत सुरक्षित महसूस करती हैं । विगत सत्ताईस वर्षों से हमारा घूमता आईना यह देख रहा कि सड़कों पर चलती हुई महिलाओं को कोई भी व्यक्ति छेड़-छाड़ नहीं करता है और न किसी महिला के लिए अभद्र भाषा प्रयोग करता है । 

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