Sahitya Nandini April 2024



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शोध पत्र


डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह

सेवानिवृत्त प्राध्यापक, धर्म समाज संस्कृत महाविद्यालय, 
मुजफ्फरपुर-842001, मो. 9931268188


अस्मिता एवं उसके परिप्रेक्ष्य तथा नारी-विमर्श

‘अस्मिता’ शब्द ‘अस्मि’ में ‘तल्’ और ‘टाप्’ प्रत्यय के योग से बना है जिसका अर्थ होता है मन का यह भाव या मनोवृत्ति कि मेरी एक विशिष्ट और पृथक् सत्ता है; अर्थात् मैं हूँ । अभिमान, अहंकार या घमण्ड आदि । सांख्यदर्शन के अनुसार अहंकार से अभिमान होता है - अभिमानोऽहङ्कारः। 1 संशुद्ध सत्त्वभूमिवाले अहंकार से सात्त्विक, राजस् अहंकार से राजस तथा तामस अहंकार से तामस गुण अभिव्यक्त होता है- सात्त्विकमेकादशकं प्रवर्तते वैकृतादहङ्कारात् । 2 योगदर्शन में अस्मिता की विशेष चर्चा है । इसके अनुसार यह पंचक्लेशों में से एक है । अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश-ये पंचक्लेश हैं ।3 अविद्या के कारण जड़़ चित्त और चेतन पुरुष चिति में भेद ज्ञान नहीं रहता है । अविद्या से उत्पन्न हुआ चित्त और चिति में अविवेक अस्मिता क्लेश कहलाता है । विवेक के न रहने से अस्मिता क्लेश से उत्पन्न हुई चित्त में सुख की वासना का नाम राग है और राग से उत्पन्न हुए दुःख के संस्कारों का नाम द्वेष है । दुःख के भय से भौतिक शरीर को बचाये रखने की वासना का नाम अभिनिवेश क्लेश है । अर्थात् क्लेशों से कर्म की वासनाएँ उत्पन्न होती हैं जिनके सुख और दुःख-दो फल हैं । 

योग के आठ अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि हैं । सम्प्रज्ञात समाधि की चार भूमियाँ हैं-वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत ।4 अस्मितानुगत सम्प्रज्ञात समाधि की चौथी अवस्था है जिसमें अहंकार के रज और तम के दब जाने पर सत्त्व के प्रकाश में उसके कारण चित्त का साक्षात्कार ‘अस्मि’ वृत्ति से होता है । इस सत्त्व के प्रकाश में चित्त में प्रतिबिम्बित चैतन्य की स्पष्ट प्रतीति होती है और योगी इसी अवस्था को आत्म-स्थिति समझकर इसी में आसक्त हो जाते हैं और शरीर-त्याग के बाद भी इसी अवस्था में कैवल्य जैसे आनन्द को भोगते रहते हैं । इसे प्रकृतिलय कहते हैं । ऋग्वेद में आनन्द की इस स्थिति को अमृत कहा गया है-

यत्रानन्दाश्च मोदाश्च मुदः प्रमुद आसते । 

कामस्य यत्राप्ताः कामास्तत्र माममृतं । 

कृधीन्द्रायेन्दो परिस्रव । । 5

किन्तु सांख्यदर्शन के अनुसार आनन्द का प्रकट हो जाना मुक्ति नहीं है । 6 आनन्द आत्मा का धर्म नहीं है, अन्तःकरण का धर्म है । वस्तुतः प्रकृतिलय की अवस्था में भी अस्मिता बनी रहती है । 

आधुनिक मनोविज्ञन में अस्मिता को अहंभाव या इगो से अभिहित किया जाता है । अस्मिता की स्थिति ईड और सुपर इगो के मध्य है जिसमें मनोभावों का उद्रेक स्वपक्ष में होता है । 

यही अस्मिता जब समाज और राजनीति से जुड़ती है तब उसके कई परिप्रेक्ष्य बनने लगते हैं यथा-बाल अस्मिता, युवा अस्मिता, वृद्ध अस्मिता, नारी अस्मिता, पुरुष अस्मिता, दलित अस्मिता, जनजातीय अस्मिता, कृषक अस्मिता, श्रमिक अस्मिता, अल्पसंख्यक अस्मिता इत्यादि के परिप्रेक्ष्य । कभी-कभी अपनी पृथकता के बावजूद एक अस्मिता के परिप्रेक्ष्य दूसरी अस्मिता के परिप्रेक्ष्य के सहयोगी या विरोधी बनकर उसकी गति को तीव्र या कुन्द करते रहते हैं । अस्मिता और उनके विविध परिप्रेक्ष्यों की तर्कयुक्त विवेचना विमर्श (वि/मृश्=स्पर्शनादि$घ´्) कहलाती है, चाहे वह धारा-सभाओं में हो या किसी संस्था या संगठन के मंच पर हो या किसी व्यक्ति के लेखन का विषय हो । 

अस्मिता के विविध परिप्रेक्ष्य हिन्दी साहित्य की प्रायः सभी प्रमुख विधाओं में न्यूनाधिक मात्रा में अभिव्यक्त हुए हैं और हो रहे हैं । चूँकि अस्मिता और उसके विमर्श का सम्बन्ध देश-काल और परिस्थिति सापेक्ष होता है, इसलिए विमर्श की आधार-भूमि भी एक-सी नहीं रहती, उनमें भी परिवर्तन होते रहते हैं । उदाहरणस्वरूप, नारी अस्मिता के परिप्रेक्ष्य को लें । प्राचीनकाल में नारी ‘क्षेत्र’ कहलाती थी-क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान् । 7 उससे उत्पन्न संतति पर उसका वैसा अधिकार नहीं होता था जैसा कि पुरुष का, क्योंकि वीर्यसेचन पुरुष ही करता है-‘भर्तुः पुत्रं विजानन्ति’ । क्षेत्ररूपी यह स्त्री अधिक से अधिक पुत्रों को उत्पन्न कर महीयसी पद को प्राप्त तो करती थी, किन्तु उसे स्वतंत्र रहने का अधिकार न था । यहाँ तक कि आनन्द के विषयों में लीन होने के समय भी उन्हें पति के वश में रहने को कहा गया । 8 किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्त्री ‘क्षेत्रमात्र’ नहीं है, उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व है, संतति पर उसका भी अधिकार है । एक या दो संतति उत्पन्न कर वह सम्मानित होती है, अधिक संतति उत्पन्न करनेवाले दम्पति को दण्डित करने का विधान बनाया जा रहा है । वह कानून बनाने वाली धारा-सभाओं की सम्मानित सदस्या है, वह कार्यपालिका और न्यायपालिका के आसनों को सुशोभित कर रही है, वह खदानों में पसीने बहा रही है तो अन्तरिक्ष की सैर भी कर रही है । उपर्युक्त परिप्रेक्ष्यों के सम्बन्ध में आज हम प्राचीन या आधुनिक समाजशास्त्र, नृशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, विधि शास्त्र इत्यादि के मानकों और साहित्य-सृजन के आलोक में विमर्श कर उनकी युक्तियुक्तता या अयुक्तता को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं । 

भारतीय संदर्भ में हम देखते हैं कि ऋग्वैदिक काल के बाद से स्त्रियों की दशा विविध कारणों से लगातार बद से बदतर होती गयी, जीवन के संवदेनशील मुद्दों पर भी वे असूर्यम्पश्या बनकर रह गयीं या बना दी गयीं । यह सिद्ध किया गया कि स्त्रियाँ स्वाभाविक रूप से पुरुषों को दूषित कर देती हैं-‘स्वभाव एष नारीणां नराणामिह दूषणम्’9 इसलिए पुरुष को सावधान किया गया कि वह माता, बहन और पुत्री के साथ भी एकांतवास करने से परहेज करे-‘मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् । ’10 पुरुषों के लिए नारी महाभारत के गालवोपाख्यान की ययाति-पुत्री माधवी की तरह है जो भिन्न-भिन्न नरों से एक पुरुष (गालव) की इच्छानुसार पुत्र उत्पन्न करती गयी, किन्तु उसकी अपनी कोई भावना या संवेदना किसी एक के प्रति न थी या उत्तर-मध्यकाल के नायक द्वारा निर्देशित सहेट-स्थल पर बिहरने वाली कृष्णाभिसारिका या शुक्लाभिसारिका नायिकामात्र थी । ‘पावक-झर-सी’ झमकने वाली इस नारी के लिए आज व्यापक विश्व है, अनन्त आकाश है, लोकतांत्रिक संविधान है, वह पुरुषों के भाग्य से बँधी कोई पुत्तलिका मात्र नहीं है जिसे जब चाहें, ज्वाल-वसंत मनाने के लिए चिता पर रख दी जाय । राजा राममोहन राय के नारी जागरण विषयक उद्घोष से भारतीय नारी-जीवन को नयी दिशा और नयी गति मिली । लम्बी लड़ाई के बाद सती प्रथा का अंत बंगाल में 1818 और सम्पूर्ण भारत में 1829 में हुआ, पर्दा प्रथा के चीथड़े-चीथड़े उड़ाये जाने लगे और कुलाँचे भरती हुईं बालिकाएँ विद्यालयों की ओर मुखातिब हुईं । 1815 में राजा राममोहन राय ने ‘आत्मीय सभा’ की स्थापना की जिसमें पहली बार सार्वजनिक रूप से ‘स्त्री के लिए शिक्षा का महत्त्व’ विषय पर विमर्श किया गया । तदुपरान्त राजा राममोहन राय, आचार्य केशवचन्द्र सेन, महादेव गोविन्द रानाडे, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ज्योतिराव फुले, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानन्द प्रभृति महापुरुषों के उद्योग से भारतीय नारी समाज में जागृति की नयी लहर-सी आ गयी । उन्नीसवीं सदी की इस सुधारवादी चेतना का प्रभाव ‘नये चाल’ में ढल रही हिन्दी भाषा के साहित्य पर व्यापक रूप से पड़ा । जनवरी 1874 में भारतेन्दु ने ‘बालाबोधिनी’ पत्रिका निकाली11 जिसका मोटो ही था-‘नर नारी सम होहिं । ’ इस पत्रिका के मुख-पृष्ठ पर स्त्रियों की दशा में सुधार से सम्बद्ध दोहे लिखे होते थे । फरवरी 1882 को ‘एक अज्ञात हिंदू औरत’ की आत्मकथा ‘सीमंतनी उपदेश’ का प्रकाशन लुधियाना के मुंशी कन्हैयालाल अलखबारी ने करवाया जिसका पुनर्प्रकाशन 106 वर्षों बाद 1988 में डॉ. धर्मवीर के सम्पादन में हुआ । कुल 80 पृष्ठों की इस पुस्तक में 23 अध्याय हैं, किन्तु इसे हिन्दी क्षेत्र में स्त्री अस्मिता-विमर्श की शुरुआत करने की अधिकारिणी मानी जा सकती है । पुस्तक में पद्य और गद्य दोनों का प्रयोग हुआ है । पद्य में दस हजार वर्षों से चली आ रही भारत की स्त्रियों की दयनीय दशा का वर्णन प्रार्थना शैली में किया गया है । गद्य में भारत को अज्ञानता से मुक्ति दिलाने के लिए ईश्वर से प्रार्थना की गयी है । एक पद्यात्मक अध्याय में यह वर्णित है कि हिन्दू औरतें पुरुषों के पाँवों की जूती बनकर रह गयी हैं । वे जिस जेल में बंदी हैं उसे ही स्वर्ग मान बैठी हैं । भारतीय स्त्रियों की कमजोरी है उसका आभूषण-प्रेम । इसके मोह में अमीर, गरीब और मध्यमवर्गीय-सभी महिलाएँ फँसी हुई हैं । वे गहनों पर तो हजारों रुपये खर्च कर देती हैं, किन्तु पाँव की रक्षा के लिए जूती नहीं खरीदतीं । स्त्रियों की दयनीय दशा के कई कारण गिनाये गये हैं, यथा-शादी न हो पाना, विधवा हो जाना, वृद्ध पुरुष से शादी होना, बच्चे से शादी होना, गरीबी आदि । इस क्रम में लेखिका का क्रांतिकारी विचार व्यक्त होता है कि पति द्वारा रोज पीटे जाने से तो अच्छा है कि स्त्री शादी ही न करे । स्त्रियों का बच्चों के प्रति अनावश्यक मोह भी निन्दनीय है । पति यदि परायी स्त्री से संबंध रखे तो उनको भी चाहिए कि वे अन्य पुरुष-मित्र बना लें । लेखिका ने सतीप्रथा का कड़ा विरोध किया है । 12 लगभग 140 वर्ष पूर्व लिखी गयी यह पुस्तक नारी विमर्श के क्षेत्र में आज भी प्रासंगिक है । 

रामेश्वरी देवी नेहरू के सम्पादन में ‘स्त्री-दर्पण’ नामक पत्रिका का प्रकाशन 1902 (प्रयाग) से शुरू हुआ जो स्त्री चेतना के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है । इसकी विशिष्टता यह थी कि इसमें स्त्रियाँ स्वयं अपने विचारों को कविता, कहानी, नाटक, लेख आदि के माध्यम से व्यक्त करती थीं । इसमें पुरुष लेखकों की रचनाएँ भी छपती थीं । बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यह धारणा दृढ़ होने लगी कि स्त्री विषयक मुद्दों और समस्याओं को जितनी प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और सम्प्रेषणीयता से कोई स्त्री लेखिका प्रस्तुत कर सकती है उतना पुरुष लेखक नहीं, का प्रारम्भिक रूप ‘स्त्री-दर्पण’ में देखा जा सकता है । जुलाई 1915 अंक के सम्पादकीय में तो यह स्पष्ट ही कर दिया गया है कि भारतीय स्त्री को मनुष्योचित पद दिलाना ही शुरू से इस पत्रिका का लक्ष्य रहा है । 13

राजेश्वरी श्रीमती सुरथ कुमारी देवी के सम्पादन में ‘आर्य महिला’ त्रैमासिक का सम्पादन काशी से 1918 ई. में शुरू हुआ । इस पत्रिका में स्त्री-शिक्षा पर बल, बाल-विवाह का विरोध तथा स्त्री-पुरुष समानता का अनुमोदन था, किन्तु यह सती-प्रथा को महिमा-मंडित भी करती थी तथा विधवा पुनर्विवाह पर जोर देते हुए भी इस धारणा से अनुप्राणित थी कि यदि विधवाओं का पुनर्विवाह न हो तो उन्हें विधवा आश्रम में ही रहना चाहिए । अतः स्वतंत्र स्त्री-चेतना के मार्ग में इस पत्रिका को पूर्णतः रूढ़िमुक्त नहीं माना जा सकता । 

‘स्त्री-धर्म-शिक्षक’ का प्रकाशन 1909 से 1916 तक प्रयाग से मासिक पत्रिका के रूप में हुआ । इसकी सम्पादिका श्रीमती यशोदा देवी थीं । यह पत्रिका स्त्री-शिक्षा के प्रचार-प्रसार को अनिवार्य मानती थी तथा पुरुष जाति के दृष्टिकोण में स्त्री जाति के प्रति बदलाव की अपेक्षा करती थी । 

सुदर्शनाचार्य, बी. ए. तथा श्रीमती गोपाल देवी ने 1910 से 1929 तक कानपुर से ‘गृहलक्ष्मी’ नामक मासिक पत्रिका निकाली जिसका उद्देश्य स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा देना था । तब स्त्री-शिक्षा की परिधि में परिवार, पति और संतति की समुचित देखभाल जैसे विषय भी अन्तर्भुक्त थे । 

इनके अतिरिक्त ‘सरस्वती’, ‘मर्यादा’, ‘प्रभा’, चाँद जैसी हिन्दी की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ भी प्रकाशित हो रही थीं जो नारी अस्मिता के अभिज्ञान को काल के भाल पर गम्भीरतापूर्वक रेखांकित कर रही थीं । सच तो यह है कि द्विवेदीयुगीन कवियों और लेखकों के लिए स्त्री-शिक्षा कोई आश्चर्यजनक वस्तु नहीं रह गयी थी, उनमें बाल-विधवाओं के प्रति व्यापक सहानुभूति दिखलायी पड़ती है, उनकी दृष्टि में बाल-विधवाओं के अश्रुपात के तीव्र बहाव में सामाजिक मूल्यों के बड़े-बड़े स्तम्भ टूट-टूट कर बह गये । लेखकों ने दहेज जैसी कुप्रथा का डटकर विरोध किया, किन्तु देश के महान् विचारकों का समर्थन होते हुए भी वे नारी के प्रति करुणा ही व्यक्त कर सके, उसके ‘आँचल में दूध और आँखों में पानी’ वाली स्थिति का चित्रण कर उसे सहानुभूति ही दे सके, उसके व्यक्तित्व में वह दृढ़ता न दे सके जिससे कि वह अपने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक अधिकारों के लिए कटिबद्ध हो सके । खुशी की बात यह है कि तब नारी के अन्तःकरण में अस्मिता बोध का आविर्भाव होने लगा था । 

सिद्धि हेतु स्वामी गये यह गौरव की बात

पर, चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात । 14

गुप्तजी की यशोधरा को इस बात का दुःख है कि उसके स्वामी ने उसे महत्कार्य की सिद्धि के मार्ग में विघ्नस्वरूपा समझा, उन्होंने उसके व्यक्तित्व को हीनदृष्टि से देखा और चोरी-चोरी पलायन कर 

गये । यशोधरा का सारा चिन्तन देहरी के भीतर ही रह जाता है, क्योंकि कवि आदर्शों और मर्यादा का पक्षधर है । फिर भी उनकी धारणा आधुनिक स्त्री-विमर्श का पूर्वाभ्यास है, जिसमें आगामी विमर्श के अनेक सूत्र मौजूद हैं । 15

छायावाद-युग ‘विजयिनी मानवता हो जाय’16 के उद्घोष का युग था । भारतीय स्वातंत्र्य आन्दोलन में महात्मा गाँधी का पर्दापण हो चुका था । अहिंसा, सत्याग्रह, राजनीतिक समानता, अछूतोद्धार, हिन्दू-मुस्लिम एकता, धार्मिक समन्वय, ग्रामोद्धार, जमीन्दारी प्रथा का विरोध आदि के स्वर गूँजने लगे थे । सामान्य जन-समुदाय स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने लगा था । स्त्री-समुदाय में भी इन आन्दोलनों की धूम मची हुई थी । श्रीमती एनी बेसेंट, कस्तूरबा, अवन्ती बाई, आनन्दी बाई, सरोजनी नायडू प्रभृति महीयसी नारियाँ उनके लिए आलोक स्तम्भ का काम कर रही थीं । छायावाद अरविन्द, रवीन्द्र और महात्मा गाँधी के विचारों का काल था, किन्तु हिन्दी के कवियों की दृष्टि में नारी अब भी श्रद्धा की पात्र थी । 

नारी, तुम केवल श्रद्धा हो

विश्वास रजत नग-पग तल में;

पीयूष-स्रोत-सी बहा करो

जीवन के सुन्दर समतल में । 17

काश, जीवन को सिर्फ सुन्दर समतल पर ही चलना होता; पथरीले, कंकड़ीले पथ उसके तलवे की चमड़ी नहीं उधेड़ते । चिलचिलाती धूप में इलाहाबाद के पथ पर निराला की मजदूरनी पत्थर कूट रही है, उसके सामने अट्टालिका प्राकार है, विषमता-बोध से उत्पन्न रोष उसके पत्थर कूटने की गति को तो बढ़ा देता है, किन्तु अट्टालिका प्राकार पर एक हल्की चोट भी नहीं दे पाता है, मन का आक्रोश मनमें ही रह जाता है । कल्पना के सुकुमार कवि पंत की दृष्टि में तो स्त्री ‘देवि, माँ, सहचरि, प्राण’ ही है, कोई स्वतंत्र व्यक्तित्ववाली मानवी नहीं । महादेवी तो ‘नीर भरी’ बदली ही हैं जो उमड़-घुमड़ कर मिट जाती है । अलबत्ता, ‘शृंखला की कड़ियाँ’, ‘अतीत के चलचित्र’ आदि गद्य रचनाओं में उनका नारी विषयक आक्रोश और विरोध प्रमुखता से व्यक्त हुआ है । 

इस कालखण्ड में प्रेमचन्द अपने उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से अस्मितामूलक बहुत-से परिप्रेक्ष्य को विमर्श में लाने का प्रयास करते हैं । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-‘‘प्रेमचन्द शताब्दियों से पददलित, अपमानित और निष्पेषित कृषकों की आवाज थे, पर्दे में कैद, पद-पद पर लांछित और असहाय नारी जाति की महिमा के जबरदस्त वकील थे; गरीबी और बेकसी के महत्त्व के प्रचारक थे । 18 किन्तु ‘सेवासदन’ की सुमन, ‘गबन’ की जालपा और ‘निर्मला’ की निर्मला अपनी-अपनी परिस्थितियों के हाथ का खिलौना बनकर रह गयी हैं, उनमें नारी अस्मिता का भावोद्रेक नहीं होता, वे करुणा की मूर्ति बनी रहती हैं । सुमन और जालपा तो आश्रम की शरण ले लेती हैं और निर्मला बीमार होकर मर जाती है । इनके विपरीत ‘कर्मभूमि’ की मुन्नी अस्मिता की भाव-भूमि पर कहीं अधिक उदग्र खड़ी है । मुन्नी का गोरों ने अपमान किया तो वह पागल-सी हो गयी, भीख माँगती फिरती थी । एक दिन उसने दो गोरों पर छुरी से हमला कर दिया जिससे वे दोनों मर गये; फलतः वह गिरफ्तार कर ली गयी । अमरकांत और उसके मित्रों के सहयोग से वह अदालत द्वारा आरोपमुक्त हो जाती है । उसे जब यह बताया जाता है कि उसका पति उसे लेने आया है, उसे अब बिरादरी का भय नहीं है तब वह पति से मिलने को भी तैयार नहीं होती है । वह जानती है कि वह पतिता है जिसके मोह में उसके पति तथा बच्चे का सत्यानाश हो जाएगा । 19 वह गोरों द्वारा अपने पर हुए बलात्कार के कारण अपने को कलंकिता एवं पतिता मानने लगी, इस पर मन्मथनाथ गुप्त लिखते हैं-‘‘ ‘असामाजिक’ उपसंहारों से बचाने के लिए ही मुन्नी को अपने पति से मिलने नहीं दिया जाता । जब मुन्नी का पति उसे लेने के लिए तैयार है, उस हालत में एक गाँव की लड़की को इस दार्शनिक तबीयत का चित्रित करना कहाँ तक उचित हुआ है, यह विचार्य है । 20  सच तो यह है कि मुन्नी जैसी स्त्रियों का अन्तःकरण अभी तक धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों और अन्ध-परम्पराओं से मुक्त नहीं हो सका था और समाज भी तब उतना उदार न था, इसलिए बाहर से तो वे क्रांतिकारी प्रतीत होती थीं, किन्तु भीतर-ही-भीतर सामाजिक वर्जनाओं से सहमी हुई थीं । 

प्रसादजी ने ‘ध्रुवस्वामिनी’ में सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ा है और धार्मिक मान्यताओं की सप्रमाण पुनर्व्याख्या की है । ध्रुवस्वामिनी कायर, क्लीव और डरपोक पति की हत्या के बाद चन्द्रगुप्त से पुनर्विवाह कर लेती है जो हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुकूल है । प्रसाद विधवा-विवाह विषयक समस्या को उठाते ही नहीं, उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं । 21 किन्तु वे विधवा के नैसर्गिक न्याय को उद्घाटित न कर उसका धर्मशास्त्रीय आधार सफलतापूर्वक खोज लेते हैं । प्रश्न यह है कि यदि धर्मशास्त्रीय आधार न मिलता तो वैधव्य प्राप्त युवती ध्रुवस्वामिनी का क्या होता?

आधुनिक मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण से प्रभावित होकर जैनेन्द्र कुमार नारी-कुण्ठा की परत-दर-परत उघारते चले जाते हैं । अचेतन मन की अंधेरी गुफा में नारी लेखकीय ज्ञान की साधन बनकर रह गयी है । 

उत्तर-छायावाद युग में मुख्यतः दो प्रवृत्तियाँ उभड़ीं-प्रगतिवाद और प्रयोगवाद । प्रगतिवाद को प्रायः द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत का अनुयायी माना गया । नारी यहाँ शोषित, दलित, उपेक्षित किसान-मजदूर आदि की श्रेणी में परिगणित की गयी, जो जमींदार, सामंत, सेठ-साहूकार और शासक वर्ग से शोषित-पीड़ित हो रही है । उसकी वस्तुता की चर्चा तो खूब की गयी, किन्तु बीइंग की उपेक्षा हो गयी । 

प्रयोगवाद के मूल में भी समाजशास्त्रीय दर्शन है, किन्तु वह वैयक्तिकता से एवं अहंवाद से अत्यधिक प्रभावित
है । उस पर मार्क्स के स्थान पर फ्रायड और डारविन का प्रभाव अधिक पड़ा है;22 गोर्की के स्थान पर डी.एच. लारेन्स और टी. एस. इलियट का प्रभाव अधिक पड़ा है । प्रयोगवादी कवि और लेखक अपनी वैयक्तिक कुरूपता का प्रकाशन मध्यवर्गीय नर-नारी की दुर्बलता के चित्रण द्वारा करते हैं, अपनी यथार्थवादिता और ईमानदारी दिखाने के लिए यौन-वर्जनाओं एवं कुंठित वासनाओं का चित्रण करते हैं जो उनके मन की नग्न एवं अश्लील मनोवृत्तियों का यथार्थ चित्रण ही होता है । 

प्रगतिवाद और प्रयोगवादकालीन राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ऐसा जलजला आया कि मानव अस्मिता पर ही प्रश्न लग गया । देश करो या मरो का उद्घोष कर चुका था तो विश्व द्वितीय विश्वयुद्ध का नगाड़ा बजा चुका था । जापान का हिरोशिमा और नागासाकी शहर परमाणु बम के प्रहार से मुर्दों का टीला बन चुका था, जीवन की कोई लकीर न बची थी । मानव अस्मिता की कौन कहे, मानव अस्तित्व ही संकटापन्न हो गया था, अतः संशय अनिश्चितता, आक्रोश और भय के माहौल में नये सिरे से मानव अस्तित्व पर विमर्श शुरू हुआ । यही वह समय है जब अस्तित्ववाद की धमनियों में मंद-मंद प्रवाहित हो रहे रक्त में उबाल आ गया था । कामू, काफ्का, सार्त्र जैसे चिंतकों के विचार विश्व में गूँज पड़े-अस्तित्व अर्थात् मैं हूँ अर्थात् मैं स्वतंत्र हूँ, मेरा अस्तित्व अर्थात् मेरी स्वतंत्रता है । समाज, राष्ट्र, संस्थाएँ, रीति-रिवाज, सिद्धांत और परम्पराएँ-सभी व्यक्ति के लिए नरकतुल्य हैं, किन्तु उस नरक का रहना आवश्यक है, क्योंकि इसी के बीच व्यक्ति का विकास होगा । किन्तु पुरुष अस्तित्वादियों ने नारी का अच्छा चित्र उपस्थित नहीं किया । उनकी दृष्टि में नारी कुलटा, विश्वासघातिनी, मिथ्याभाषिणी, वेश्या, चोरनी इत्यादि ही बनी रही । इसके विरुद्ध नारी के परिप्रेक्ष्य में सिमोन द बुवा ने कहा-‘मैं एक स्त्री हूँ’ और उसका अगला विवेचन इसी पर आधृत होगा । वह मानती हैं कि स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि उसे बना दिया जाता है । इसलिए यदि कोई पुरुष यह कहता है कि ‘तुम ऐसा सोचती हो, क्योंकि ‘तुम एक स्त्री हो’ तो उसका उत्तर है-‘मैं ऐसा सोचती हूँ’ क्योंकि यह सच है । ’ यदि पुरुष के लिए पुरुष होना सही है तो स्त्री के लिए स्त्री होना भी सही है, वह गलत कदापि नहीं है । इस चिन्तन से स्त्री के स्वत्वबोध में वृद्धि हुई और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उसकी भागीदारी बढ़ी । 

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद 1949 ई. में श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी की ‘नई नारी’ का प्रकाशन हुआ । इसमें कुल दस निबन्ध हैं जिनमें से अधिकतर पूर्व में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके थे, वे निबंध हैं-‘मीरा नाची रे’, ‘मालिनी के तट पर’, ‘सीता और द्रौपदी’, ‘पंचकन्या’, ‘जंजीरें और दीवारें’, ‘वेश्या बनाम सती’, ‘नारी जागरण और विवाह-बन्धन’, ‘सतीत्व का भारतीय आदर्श’, ‘कॉलेज की लड़कियाँ’ और ‘तीर देती जा रानी’ । इन शीर्षकों से ही स्पष्ट है कि लेखक नारी अस्मिता विषयक परिप्रेक्ष्यों को व्यापक फलक पर विमर्श के केन्द्र में लाते हैं और नई नारी की अपनी परिकल्पना को प्रस्तुत करते हैं । कालेज की लड़कियाँ स्वतंत्रता के इस युग में समझने लगी हैं कि पति और पत्नी के अर्थ क्या है? पत्नी कामुकता की सहेली, बच्चे की दाई और भोजन बनाने वाली रसोइया का नाम नहीं है । वे पुरुषों से समानता की अपेक्षा रखती हैं, पुरुषों की संगिनी बनना पसंद करती हैं, पत्नी बनना नहीं । वे स्त्री-पुरुष के कर्तव्य को परस्परावलम्बित मानती हैं । अतः कॉलेज की लड़कियाँ निश्चय ही गुलाम मनोवृत्ति को नष्ट कर पूर्ण स्वतंत्रता का उद्घोष करेंगी । 23

स्वातंत्र्योत्तर काल में संवैधानिक और कानूनी अधिकारों, मानवाधिकार, शिक्षा और जन-जागरण के परिणामस्वरूप नारी सशक्तिकरण की ओर बढ़ रही है । वह परम्परा, रीति-रिवाज और धार्मिक बंधनों से हटकर अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है । नारी की इस संघर्ष-यात्रा को मंजुला भगत, राजी सेठ, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा, प्रभा खेतान, उषा किरण खान, सुधा सिन्हा, बिन्दु सिन्हा, मृदुला सिन्हा, मृदुला गर्ग प्रभृति के उपन्यासों और कहानियों में सशक्त अभिव्यक्ति मिली है । इस संघर्ष-यात्रा में इनकी नायिकाएँ कभी सफल होती हैं तो कभी टूट भी जाती हैं, लेकिन अपने मानवी रूप को विस्मृत नहीं करती हैं । मैत्रेयी पुष्पा का कथन है-‘हम न तो देवी हैं न ही राक्षसी, न साध्वी, न कुलटा, हम जो भी हैं उसी रूप में देखा जाए । पुरुष के नजरिए से नहीं, बल्कि मनुष्य के नजरिए से । 21वीं सदी में औरत स्वयं तय करेगी कि उसे अपना जीवन कैसे चलाना है । अपने शरीर को किसे सौंपना है, माँ बनना है या इस महिमामय गरिमा के मिथ से वंचित रहकर भी जिया जा सकता है, लड़की पैदा हो या लड़का, एक हो या दो । ये या ऐसी सारी बातें वर्जनाओं और भय से मुक्त होकर स्वयं तय करेगी । 24 वस्तुतः स्त्री को आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ-साथ सामाजिक स्वतंत्रता भी चाहिए । उषा प्रियंवदा के ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ की नायिका सुषमा कॉलेज में लेक्चरर है, होस्टल की वार्डन है, लेकिन फिर भी अकेलापन, संत्रास, ऊब और घुटन की शिकार है । कई सामाजिक परम्पराएँ, रूढ़ियाँ और मान्यताएँ उसकी मानसिक यंत्रणा के कारण हैं । 

सच तो यह है कि पुरुष या स्त्री-दोनों की अपनी-अपनी नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ और वैयक्तिक एवं सामाजिक अपेक्षाएँ हैं जो कभी-कभी एक-दूसरे से मेल खाती हैं और कभी-कभी बेमेल हो जाती हैं । दोनों की प्रवृत्तियों और अपेक्षाओं में सामंजस्य न होना अनेक प्रकार की समस्याओं का कारण बनता है । उदाहरणस्वरूप, मानव की नैसर्गिक प्रवृत्ति है संतति उत्पन्न करना । इसके लिए नर-नारी में मैथुन-सम्बन्ध परस्पर सहमति से होना आवश्यक है, किन्तु एक की सहमति के अभाव में भी मैथुन-सम्बन्ध होता है और संतति भी उत्पन्न होती है । ये दोनों स्थितियाँ कई मानसिक, सामाजिक, कानूनी समस्याओं को जन्म दे सकती हैं । कभी-कभी स्त्री गर्भधारण और प्रसव-सम्बन्धी पीड़ा से बचने या अन्य कारणों से संतान उत्पन्न नहीं करती है, किन्तु संतान की इच्छा रखती है, क्योंकि यह उनकी नैसर्गिक प्रवृत्ति और वैयक्तिक एवं सामाजिक अपेक्षा है । फलतः किराये की कोख लेकर संतान प्राप्त करती है । कोख बेचनेवाली और खरीदने वाली स्त्री मानसिक यंत्रणा और कुंठा का शिकार बन रही हैं । कोख बेचनेवाली या खरीदनेवाली स्त्री कोई यंत्र नहीं है, वस्तुमात्र नहीं है, उसमें भावना है, संवेग है, संवेदना है । भीष्म साहनी के ‘माधवी’ नाटक में माधवी तीन-तीन पुरुषों को उनके साथ मैथुन कर एक-एक पुत्र उत्पन्न करके दे देती है । उसके लिए शुल्क तो लेती है, किन्तु संतति के प्रति उत्पन्न नैसर्गिक वात्सल्यजन्य सम्मोह उसके घुटन का कारण बन जाता है । इसी तरह समलैंगिक जोड़े को कानूनी मान्यता देना, जो कि मनोविज्ञान की दृष्टि में यौन-विकृति है, आज स्त्री-विमर्श के सामने चुनौती बनकर उभड़ रहा है । ज्यों ही कोई पुरुष समलैंगिक या स्त्री समलैंगिक जोड़ा संतति के लिए सरोगेसी पद्धति का सहारा लेता है, कोई-न-कोई स्त्री जाने-अनजाने अपनी अस्मिता को दावँ पर लगा ही देती है । विमर्श के इस नये आयाम पर हर दृष्टि से विचार होना चाहिए, क्योंकि कोख बेचनेवाली मजबूर स्त्रियों के गर्भ से एक नया बाजार जन्म ले रहा है जो आगे चलकर वेश्या-मंडी से किंचित् अधिक भयावह न हो जाय!

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य की प्रायः सभी प्रमुख विधाओं में स्त्री-अस्मिता विषयक विमर्श को काफी संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया गया है जिसका नारी-स्वातंत्र्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण अवदान है । 

संदर्भ-सूचीः-

  1. सांख्यदर्शन: 2ः16.
  2. वही; 2ः18.
  3. अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः -योगदर्शन: 2ः3.
  4. वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् सम्प्रज्ञातः  -योगदर्शन: 1ः17.
  5. ऋग्वेद: 9ः3ः424.
  6. नानन्दाभिव्यक्तिर्मुक्तिर्निर्धर्मक्वात् –सांख्यदर्शन: 5ः74.
  7. मनुस्मृतिः 9ः33.
  8. अस्वतंत्राः स्त्रियः कार्याः पुरुषैः स्वैर्दिवानिशम् । 
  9. विषयेषु च सज्जन्त्यः संस्थाप्या आत्मनो वशे । । -वही; 9ः2.
  10. वही; 2ः213.
  11. वही; 2ः215.
  12. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र; प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1969, पृष्ठ-45.
  13. एक अज्ञात हिन्दू औरतः सीमंतनी उपदेशः संपा. डॉ. धर्मवीर; शेष साहित्य प्रकाशन, नोएडा, 1988.
  14. रामेश्वरी देवी नेहरू (संपादिका)ः स्त्री-दर्पण; प्रयाग, अंक-जुलाई 1915, सम्पादकीय । 
  15. मैथिलीशरण गुप्तः यशोधरा, चिरगाँव, झाँसी
  16. प्रभाकर श्रोत्रियः राष्ट्रकवि का स्त्री-विमर्श, पृ.-104; किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010.
  17. रत्नशंकर प्रसाद, संपादक-प्रसाद ग्रंथावली, खण्ड-1, कामायनी, श्रद्धा सर्ग, पृ.-469; लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1985.
  18. वही; कामायनी, लज्जा सर्ग, पृष्ठ-516.
  19. डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदीः हिंदी साहित्य: उसका उद्भव और विकास; यू. सी. कपूर एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, देहली, सं. 2009 वि., पृष्ठ-266.
  20. प्रेमचन्दः कर्मभूमिः भाग-1; पृष्ठ-74; हिन्द पॉकेट बुक्स, दिल्ली, 1986ई.
  21. मन्मथनाथ गुप्तः प्रेमचन्द व्यक्ति और साहित्यकार, पृष्ठ-317, सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद, 1961 ई-जयशंकर प्रसादः धु्रवस्वामिनी; भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद । 
  22. डॉ. जयकिशन प्रसाद खण्डेलवाल; हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ; पृष्ठ-489, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा, नवम सं. 1974.
  23. डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह; बदलते संदर्भ में ‘श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी की ‘नई नारी’; पृष्ठ-132-133. समीक्षा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, 2003.
  24. मासिक हंस, अंक-जनवरी 1997 में मैत्रेयी पुष्पा का कथन, पृष्ठ-83. 

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अभिव्यक्ति विश्वम् द्वारा आयोजित एकल कहानी पाठ

(डॉ. रेनू यादव की कहानी ‘बाइज्ज़त बरी’ का पाठ)

दिनांक 31 मार्च, 2024 को लखनऊ में अभिव्यक्ति विश्वविश्वम् द्वारा आयोजित ‘साहित्य संवाद’ में डॉ. रेनू यादव का एकल कहानी पाठ का आयोजन किया गया । इस कार्यक्रम में कहानीकार डॉ. रेनू यादव ने ‘बाइज्ज़त बरी’ का पाठ किया । अभिव्यक्ति विश्वविश्वम् की अध्यक्ष तथा अभिव्यक्ति अनुभूति संपादक सुप्रसिद्ध साहित्यकार पूर्णिमा वर्मन ने कहानी पर अपने विचार प्रकट किया तथा कहानी में निहित प्रेम, व्यवसाय, कार्पोरेट सेक्टर, भ्रष्टाचार तथा स्त्री-विमर्श आदि तत्वों पर चर्चा करते हुए कहानी को मनोवैज्ञानिक कहानी की संज्ञा दी । कहानी पाठ के पश्चात् लेखिका और बौद्धिक श्रोताओं के बीच बातचीत हुई तथा श्रोताओं ने कहानी को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझा और अपने विचार प्रकट किए ।


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समीक्षा


हरिशंकर राढ़ी

समीक्षक संपर्क : वसंतकुंज एन्क्लेव (बी-ब्लॉक),
नई दिल्ली, मो. 09654030701, Email: hsrarhi@gmail.com


मनोरंजक व्यंग्य : राइट टु गाली

इसमें संदेह नहीं कि वर्तमान साहित्य में व्यंग्य लेख सर्वाधिक पढ़े जा रहे हैं । लगभग हर पत्र-पत्रिका में व्यंग्य के नियमित स्तंभ निकल रहे हैं । लोगों के पास समय कम है, पुस्तकों एवं पत्रिकाओं के बेहतर विकल्प के रूप सोशल मीडिया, यू-ट्यूब आदि आ गए हैं । फिर भी, व्यंग्य पढ़े जा रहे हैं । इनकी लोकप्रियता बढ़ रही है और प्रचुर मात्रा में व्यंग्य लिखे जा रहे हैं । लोकप्रियता और प्रसार के साथ व्यंग्य लेखन के रूप, भाषा-शैली एवं उद्देश्यों में विविधता आई है । व्यंग्य मूलतः विसंगतियों की व्यंजनात्मक-शल्यात्मक भाषायी अभिव्यक्ति है; इसलिए अपने-अपने स्तर एवं तरीके से व्यंग्यकार इन पर प्रहार करते हैं । व्यंग्य एक गंभीर कर्म है, किंतु हास्य आ जाने से यह चुटीला और मनोरंजक भी हो जाता है । मनोरंजक एवं मजेदार व्यंग्य के रूप में इन दिनों वीरेंद्र नारायण झा के एक संग्रह ‘राइट टु गाली’ से गुजरना हुआ । 

वीरेंद्र नारायण झा के इस संग्रह में कुल 46 व्यंग्य हैं, जो विविध विषयों पर केंद्रित हैं । इनमें राजनीति, समाज, व्यक्ति, लेखक, विकास, लोक आदि सब कुछ है । वे किसी एक विषय पर टाइप्ड होकर न तो दुहराने का काम करते हैं और न एक विषय पर अँटके रहते हैं । विषय की विविधता से किसी भी संग्रह की पठनीयता बढ़ती है । देखा जाए तो एक बात या अंदाज हर रचना में समन्वित है, और वह है लेखक का मूड । ऐसा लगता है कि संग्रह के सारे व्यंग्य खिलंदड़ अंदाज में, मौज लेते हुए लिखे गए हैं । इस खिलंदड़ी या मौजपने के अंदाज में कहीं लेखक गहरी बातें कह जाता है, तो कहीं सतह पर ही रह जाता है । लगभग हर व्यंग्य में महसूस होता है कि लेखक आँखों-देखा दृश्य प्रस्तुत कर रहा है, किसी स्थिति की कमेंट्री कर रहा है । यही इस संग्रह की विशेषता है; कोई इससे आनंदित होगा तो कोई इसे अनपेक्षित के अपेक्षित होने का दस्तावेज़ मानेगा । 

संग्रह का नामकरण इसके प्रतिनिधि व्यंग्य ‘राइट टु गाली’ पर हुआ है । ‘राइट टु गाली’ व्यंग्य एक उच्च न्यायालय के इस निर्णय को आधार बनाकर लिखा गया है कि राजनीतिक भाषणों में प्रयोग किए गए अपशब्दों एवं गालियों को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । अर्थात् गाली देना या अपशब्दों का प्रयोग हमारा संवैधानिक अधिकार बन गया है । अपने यहाँ की विडंबना यही है कि जो काम दंडनीय अपराध नहीं है, वह हमारा अधिकार है । ऐसी विसंगतियाँ व्यंग्य की विषयवस्तु हैं और होनी चाहिए । हर कार्य केवल न्यायालय या संविधान में प्रदत्त अधिकारों के आधार पर नहीं हो सकता । कुछ सामाजिक और नैतिक मर्यादाएँ होती हैं, जिनके पालन से समाज सभ्य बनता है । यदि उन मर्यादाओं का पालन नहीं किया जा सकता तो हमें एक विचलित समाज के लिए तैयार रहना होगा और यह एक व्यंग्यकार को स्वीकार्य नहीं है । इस लेख में लेखक भारत में गालियों की परंपरा को बड़े मजेदार ढंग से निशाने पर लेता है, चाहे वह गाली गुस्से-भड़ास वाली हों या फिर शादी-ब्याह-मज़ाक वाली । 

संग्रह के दूसरे व्यंग्य ‘हारिए न हिम्मत, बिसारिए न जनता नाम’ में लेखक एक पराजित नेता द्वारा पराजय की औपचारिक स्वीकार्यता के बहाने व्यंग्य करता है । वोटबल से पराजित नेता हार स्वीकार कर लेता है, किंतु हिम्मत नहीं हारता । उसकी अंदरूनी खबर लेते हुए व्यंग्यकार व्यंग्य करता है- “आपने चुनाव हारा, पैसा हारा, पद हारा, समय हारा...लेकिन हिम्मत तो नहीं हारी न । प्रतिष्ठा-मर्यादा नहीं हारी । दाँव-पेंच नहीं हारे न । चालें तो नहीं हारीं न । तिकड़म लड़ाने-भिड़ाने तथा जोड़-तोड़ करने के अवसर तो नहीं गँवाए न । अल्लाताला ने चाहा तो आप फिर से वही सब करेंगे जो पहले से करते आए हैं । ” जाहिर है कि बात-बात में ही लेखक ने भारतीय राजनीति के जनप्रतिनिधियों एवं नेताओं का वास्तविक चरित्र चित्रण दबी-छिपी भाषा में कर दिया । जो नहीं होना चाहिए, उसका शाब्दिक गुणगान इस ढंग से करना कि वह उन्हें लपेटे में ले ले, यह व्यंग्य से ही संभव हो सकता है । ऐसा प्रयोग ही किसी वाक्य को व्यंग्य बनाता है । हाँ, इस व्यंग्य में लेखक ने कुछ नेताओं के नाम ले लिए हैं, ऐसा किया जाना व्यंग्य की धार को कमजोर करता है । क्योंकि एक स्वस्थ व्यंग्य व्यक्ति नहीं, प्रवृत्तियों पर होता है, इसलिए बेहतर होगा कि बात संकेतों में कही जाए । व्यंग्य का पाठक इतना समझदार होता है कि वह संकेतों को समझ लेता है । यदि वह नहीं समझ पाता तो वह कुछ भी हो सकता है, लेकिन व्यंग्य का पाठक नहीं । 

‘बहारों पत्थर बरसाओ’ व्यंग्य में भी कुछ वैसी ही तासीर है, जैसी उपरोक्त व्यंग्य में थी । ‘बहारों फूल बरसाओ’ वाले फिल्मी गीत के मुखड़े में किंचित परिवर्तन करके व्यंग्य पैदा करने की कोशिश की गई है । इस व्यंग्यलेख का प्रांरभ ही इसी गीत से होता है । इसमें बिहार राज्य के एक प्रमुख राजनीतिक दल एवं भाजपा में हुए किसी संघर्ष को निशाने पर लिया गया है, जिसमें इन दोनों दलों के कार्यकर्ताओं ने एक दूसरे पर पत्थर बरसाया । किसी गीत की पैरोडी से हास्य पैदा करना एक पुरानी प्रथा रही है । वैसे वीरेंद्र नारायण झा अपने तमाम व्यंग्य एवं अन्य रचनाओं में गीतों का यथाप्रसंग प्रयोग करते हैं । इस संग्रह में वे फिल्मी गीतों का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं, जिसका अभिप्राय व्यंग्य पैदा करना होता है । यहाँ उनके द्वारा प्रयुक्त गीतों से हास्य का वातावरण बनता है, पाठक का मूड हलका होता है; किंतु शायद व्यंग्य को वह धार नहीं मिल पाती जिसकी अपेक्षा की जाती है । 

राष्ट्रीय स्तर पर अगड़े-पिछड़े, दलित-शोषित अर्थात् जाति आधारित राजनीति को लेखक ‘मैं दलित प्रेमी, तू दलित प्रेमी’ शीर्षक व्यंग्य में रगड़ने का प्रयास करता है । अंदरूनी तौर पर जाति के नाम पर घृणा की राजनीति करने वाले बाहरी तौर पर सामाजिक समन्वय एवं दलित प्रेमी होने का स्वाँग करते हैं । यह तथ्य कहीं छिपा नहीं है । वोट को परमलक्ष्य मानते हुए दलित-शोषित जातियों के कुछ लोगों को अपना चेहरा बनाकर ये राजनीति की रोटियाँ सेंकते हैं । तमाम वर्ग ऐसे हैं कि अपनी जाति के किसी एक व्यक्ति के किसी दल की सरकार में उच्च पद पर देखकर सबकी प्रगति मान लेते हैं, जबकि उनका सामाजिक-आर्थिक स्तर वहीं का वहीं रह जाता है । लेखक इसी मानसिकता पर चोट करता है, इसी की बखिया उधेड़ना चाहता है । वह देश के सर्वोच्च पद पर चुनाव के माध्यम से बात शुरू करता है, आगे जाकर व्यंग्य में दलित राजनीति की परतें उघड़ती भी हैं, किंतु सर्वोच्च पद की ओर संकेत करके प्रारंभ कुछ अटपटा कर देता है । 

राजनीति से अलग लेखक आज के समाज पर भी गहन दृष्टिपात करता है । वह आज के फेसबुकिया समाज पर भी तंज कसता है तो मानवशक्ति प्रदर्शन पर । यह आज का सच है समाज का एक बड़ा वर्ग फेसबुक और सोशल मीडिया के सहारे जी रहा है । वह इस आभासी दुनिया में इस तरह खो गया है, मानो उसे असली दुनिया का कोई भान ही नहीं है । वह अपनी हैसियत फेसबुक पर अपने मित्रों की संख्या से तय कर रहा है । मित्रता निवेदन देना और स्वीकार करना उसके लिए खुशी एवं आवश्यकता के सामान बन गए हैं, यह जानते हुए भी कि फेसबुक मित्र जीवन में शायद ही किसी काम आएँ । लेखक फेसबुक का हिंदी अनुवाद ‘मुखपोथी’ करता है, जो मनोरंजक है । बड़े से लेकर छोटे लोग इस पोथी में घुसे पड़े हैं । अब फेस ही प्रमुख हो गया है, आंतरिक गुण कहीं गुम हो गए हैं । लेखक का महीन तंज देखिए- “उनको मानो नई फ्रेंडशिप के लिए किसी का रिक्वेस्ट मिल गया हो । तुरंत एक्सेप्ट करते हुए कहा- हाँ जी, साहित्य कभी समाज का दर्पण हुआ करता था, आज फेसबुक में इसका तर्पण हो गया है । ” फेसबुकिया साहित्य ही असली हो रहा है, असली साहित्य कहीं इसके पीछे दुबक गया है । 

अन्य व्यंग्यकारों की तरह वीरेंद्र नारायण झा भी धार्मिक विसंगतियों, पाखंडों और बाहरी दिखाओं पर प्रत्यंचा चढ़ाते हैं । यह सच है कि आज धार्मिक विचारधारा एवं सामूहिक आयोजनों से अधिक दिखावा कहीं नहीं है; और न तो इससे अधिक वैमनस्य दूसरा कोई बढ़ा रहा है । इस संग्रह में इस विषय पर वे प्रश्न उठाते हैं । व्यंग्य ‘दस दिवसीय नाटक’ में देवी दुर्गा के महिषासुर वध प्रसंग के बहाने आज के महिषासुरों पर वैचारिक प्रहार किया गया है । अब केवल महिषासुर वध का नाटक किया जा रहा है, जबकि तमाम महिषासुर खुले घूम रहे हैं । न तो अंदर के रावण का वध हो रहा है और न महिषासुर का!

संग्रह में कई विसंगतियों को भी उठाया गया है । ‘फूल दिवस पर कूल समाचार’ व्यंग्य में एक ट्रेन के पटरी से उतर जाने, किंतु किसी के हताहत न होने के समाचार पर तंज किया गया है । दुर्घटना में किसी के मरने, गंभीर रूप से घायल होने के बजाय केवल कुछ लोगों को मामूली चोटें आने का समाचार है । गोया मरना या गंभीर रूप से घायल होना जरूरी हो और मामूली चोट आना कोई अच्छा समाचार हो । वैसे यह समाचार केवल बहाना है । इसमें व्यापक चर्चा राजनीति और नेताओं से प्रभावित रेलों की है । वजह यह है कि अपने देश में शायद ही कोई चीज हो जो राजनीति से प्रभावित न होती हो । 

वैसे संग्रह में विषयों की विविधता तो है, किंतु अधिकांश राजनीति, चुनाव, सरकारी फैसले एवं राजनैतिक विचारों पर केंद्रित है । अन्य विषयों में पुलिस, साहित्यकार और रोजमर्रा के विषय हैं । यदि समग्रता में बात की जाए और एक दृष्टि से व्यंग्य रचनाओं को देखा जाए तो कहा जा सकता है कि लेखक ने व्यंग्य लिखने के बजाय पाठकों से बतियाने का प्रयास किया है । रचनाओं की भाषा बातचीत की है और यत्र-तत्र संबोधन का प्रयोग किया गया है । ऐसा लगता है कि लेखक अपने पाठकों के साथ बैठा गपशप कर रहा है और बीच-बीच में चुटीली टिप्पणियाँ करता जा रहा है और अपना दृष्टिकोण देता जा रहा है । इसीलिए वह कई बार प्रथम पुरुष का प्रयोग करता है और किसी लोकप्रिय फिल्मी गीत की पंक्ति को अपने कथन का आधार बना लेता है । संग्रह के व्यंग्यों में अलग दृष्टिकोण है, मनोरंजन है, प्रच्छन्न आलोचना है । हाँ, इन्हें चिंतनपरक व्यंग्य नहीं कहा जा सकता । व्यंग्य में एक शल्यदर्शन भी होना चाहिए, उसी से व्यंग्य गंभीर और मारक बनता है । रचनाओं के शीर्षक गंभीर हों तो व्यंग्य अच्छा संकेत देता है । इस संग्रह के शीर्षक न तो हलके हैं और न गंभीर । इन्हें मध्यम श्रेणी का कहा जा सकता है । हाँ, संग्रह के व्यंग्य निराश नहीं करते और खुद को पढ़वा ले जाते हैं । 

संग्रह मंे प्रूफ एवं वर्तनी की गलतियाँ मिलती हैं । ये बहुत अधिक तो नहीं हैं, फिर भी हैं और नज़र आने लायक हैं । प्रकाशक को चाहिए कि साहित्यिक कृतियों के साथ प्रूफ का अन्याय न होने दे । साहित्यिक कृतियाँ विद्यार्थियों एवं सामान्य पाठकों के लिए मानक का कार्य करती हैं । वे यहाँ से भाषा का अवचेतन संस्कार लेते
हैं । 


पुस्तक का नाम : राइट टु गाली (व्यंग्य संग्रह), लेखक : वीरेंद्र नारायण झा, प्रकाशक : इंडिया नेटबुक्स प्रा0 लि0, सी 122, सेक्टर -122, नोएडा (उ0प्र0) 201301, पृष्ठ : 140, मूल्य : रु 300/ (पेपर बैक)

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समीक्षा

हरिशंकर राढ़ी, समीक्षक संपर्क : नई दिल्ली, मो. 09654030701


यात्रा वृत्तांत : सब तो अपने हैं

यात्रा वृत्तांतों का अपना एक अलग स्वाद और अलग मिज़ाज होता है । वे एक साथ संस्मरण, भ्रमण एवं कथा का आनंद देते हैं । सूचना-प्राप्ति यानी किसी स्थान के भ्रमण की योजना बनाने में भी लाभदायक होते हैं, हालाँकि तकनीक और व्लॉगर्स के प्रभुत्व के इस काल में यात्रा वृत्तांतों की सूचनात्मक उपयोगिता कम हुई है । कारण यह है कि पूरी यात्रा का विवरण व्लॉगर्स से मिल जाता है, और यह दृश्य या लगभग जीवंत होने के कारण अधिक उपयोगी होता है । पुस्तकों की घटती पठनीयता भी एक समस्या है । फिर भी साहित्य की नवीन लोकप्रिय विधाओं में यात्रा-संस्मरणों को बहुत महत्त्व प्राप्त है । हाँ, यात्रा वृत्तांत और यात्रा संस्मरण के बीच का सूक्ष्म अंतर समझा जाना आवश्यक है । आज व्लॉगिंग और अन्य तकनीकी दृश्य-श्रव्य माध्यमों की बहुलता एवं लोकप्रियता के दौर में शुष्क यात्रा वृत्तांत अपनी उपयोगिता भले खो रहे हों, यात्रा संस्मरण अपनी उपयोगिता बनाए हुए हैं । 

यात्रा वृत्तांतों के क्रम में इधर डॉ. ओम प्रकाश शर्मा ‘प्रकाश’ की पुस्तक ‘सब तो अपने हैं’ पढ़ने का अवसर मिला । यात्रा वृत्तांतों के ऐसे शीर्षक प्रायः नहीं मिलते । अधिकतर लेखक यात्रा संबंधित लेखों या संग्रहों का नामकरण स्थानों या घुमक्कड़ी प्रवृत्ति से जोड़कर रखते हैं । डॉ. ओम प्रकाश शर्मा का यात्रा वृत्तांत इस दृष्टि से कुछ अलग लगा । दूसरे, यात्राओं को बड़े परिप्रेक्ष्य से जोड़ने पर एक मीठा सा-एहसास यह हुआ कि मानो पूरा विश्व अपना ही है । कुछ भौगोलिक सीमाएँ हैं जो हम मनुष्यों ने ही कुछ सुविधा तो कुछ स्वार्थ के लिए बनाई है । समूचा विश्व एक ही प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है, उसके रूप अलग-अलग हो सकते हैं । यह प्रकृति की विविधता ही है, जो विश्व को इतना संुदर बनाती है । एक हम हैं कि अपने संकीर्ण विचारों से इसे बाँट देते हैं, वरना सब तो अपने ही ही हैं । 

संग्रह में कुल दस यात्रा वृत्तांत हैं, जिनमें तीन योरोपियन देशों से और सात भारतीय । वैसे, विदेशों के यात्रा वृत्तांत का विस्तार अधिक है और तीन देशों के बहाने अनेक क्षेत्रों को वृत्तांत में सम्मिलित किया गया है । लेखक को वृत्तांत समाप्त करने की जल्दी नहीं है । वह स्थानों के वर्णन के साथ अपने विचार भी देता चलता है और छोटी-मोटी बातों का भी जिक्र करता है । छोटे अनुभवों से पाठक लेखक से जुड़ता है, बशर्ते छोटी बातें इतनी न हों कि समय और लेखन का बड़ा हिस्सा खा जाएँ । छोटी बातों से उन पाठकों का लाभ ज्यादा होता है जो भविष्य में ऐसी किसी यात्रा की योजना बना रहे होते हैं । 

पहला यात्रा वृत्तांत ‘ठंड में योरोप’ है जिसमें हेग-नीदरलैंड का वर्णन है । लेखक ने यह यात्रा सन् 2015 में की, जिसका प्रांरभ ही बहुत अच्छा नहीं रहा । कम किराए के कारण उसने रशियन एअरलाइन्स में सुबह पाँच बजे का टिकट बुक कर लिया । सावधानीवश चार घंटे पहले दिल्ली विमानतल पर वह पहुँच गया तो पता चला कि फ्लाई तीन घंटे विलंब से है । बिना किसी पूर्व सूचना के उड़ान में यह देरी कष्टदायी तो थी ही, ऊपर से विमान कंपनी द्वारा यात्रियों को कोई खास अल्पाहार भी नहीं दिया गया । क्रम यहीं नहीं रुका, उड़ान को मास्को में उतारा गया, जहाँ से यात्रियों को अलग-अलग शहरों के लिए अलग-अलग उड़ानों से अलग-अलग समय पर भेजा जाना था । कंपनी की तरफ से वहाँ भी कोई व्यवस्था नहीं । लिहाज़ा लेखक को वहाँ भी कष्ट उठाना पड़ा । अम्सटर्डम में तो इमिग्रेशन वालों ने बिना किसी ठोस कारण के देर तक रोककर रखा । यह सब ऐसे अनुभव हैं, जो किसी भी नए यात्री के काम आ सकते हैं । 

लेखक हेग में अपने मित्र के यहाँ ठहरा, जिन्होंने उसका ध्यान तो रखा ही, घूमने-फिरने की व्यवस्था भी की । हेग अतंरराष्ट्रीय न्यायालय के लिए प्रसिद्ध है, इस बात का लेखक को पूरा भान है । वह न्यायालय को फिर से देखने की बात करता है । हेग अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का वह विस्तार में वर्णन करता है । वहाँ के भारतीय स्टोर, बस ड्राइवर और अन्य प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन बडी आत्मीयता से करता है । नीदरलैंड के अनेक स्थलों एवं दृश्यों को वह अपनी आँखों में समेटता है और पन्नों पर उतार देता है । नीदरलैंड के ट्यूलिप्स विश्वप्रसिद्ध हैं, जिनका वर्णन वह बड़ी शिद्दत से करता है । 

पुस्तक का दूसरा वृत्तांत हेग से एबरडीन का है । लेखक यह यात्रा बस से करन चाहता है, लेकिन करनी पडती है हवाई जहाज से । हवाई यात्रा के बजाय बस या ट्रेन से यात्रा की चाह रखने वाला व्यक्ति शान-ओ-शौकत और दिखावे के स्थान पर प्रकृति और जमीन को महत्त्व देना चाहता है । जो दृश्य एवं अनुभूतियाँ जमीनी यात्रा में मिलती हैं, वे आसमानी में कहाँ? यह बात अलग है कि हर जगह जमीनी यात्रा भी संभव नहीं हो पाती । डॉ. शर्मा अम्सटर्डम से लंदन तक की यात्रा, वहाँ के विमानतल का विस्तार से वर्णन करते हैं । एबरडीन स्कॉटलैंड का छोटा-सा, सुंदर-सा शहर है । इसके बाद वे वहाँ का कदम-दर-कदम का वृत्तांत बताते हैं, वहाँ का इतिहास बताते हैं, विभिन्न स्थलों का वर्णन करते हैं और एडिनबरा पर विस्तार से लिखते हैं, जिससे वहाँ न गए व्यक्ति को भी पूरी जानकारी हो जाती है । 

तीसरा अध्याय हेग से ज्यूरिक्ख के विषय में है । इस यात्रा का बड़ा हिस्सा लेखक मजबूरन विमान से करता है, किंतु कुछ हिस्सा अनिवार्यतः बस से जाना है । ज्यूरिक्ख स्विट्जरलैंड का प्रसिद्ध नगर है । लेखक बस-यात्रा की बुकिंग से लेकर पूरी व्यवस्था की पूरी जानकारी देता है । ज्यूरिक्ख पहुँचकर वह अपने किसी आत्मीय के यहाँ ठहरता है । इसके आगे वह ज्यूरिक्ख और राजधानी बर्न का पूरा विवरण देता है । निःसंदेह स्विट्जरलैंड दुनियाभर के सैलानियों के लिए एक बड़ा आकर्षण है । हर सैलानी कभी-ना-कभी वहाँ जरूर जाना चाहता है । किंतु बहुत-से पर्यटक जाकर, फोटो खींचकर और उछल-कूदकर आ जाते हैं । इस लेखक का चेतन मन और बौद्धिक स्तर भिन्न है । वह जहाँ जाता है, उस स्थान को देखना और पूरी तरह समझना चाहता है । इसलिए यह कहा जा सकता है कि इस यात्रा वृत्तांत में वर्णित स्थानों के विषय में बहूपयोगी जानकारी मिल जाती है, वह भी रोचक ढंग से । 

आगे के सात वृत्तांत भारत के हैं जिनमें पहला लेह का है । लेह-लद्दाख भी पर्यटकों के लिए एक बड़ा रोमांचकारी स्थल है । यहाँ की जलवायु, भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक सुंदरता, ऑक्सीजन की कमी और एकांत बहुत ही मनोहारी है । जो लेह-लद्दाख की यात्रा कर चुके हैं, वे ही इस सौंदर्य एवं रोमांच को जान सकते हैं । डॉ. शर्मा लेह यात्रा मार्च महीने में करते हैं, जो बहुत अनुकूल नहीं होता । लद्दाख क्षेत्र में अतिशय ठंड पड़ती है और हिमपात होता है । यहाँ की यात्रा मई से अगस्त तक सर्वोत्तम होती है । लेह को जोड़ने वाली सड़कें छह माह तो बंद ही रहती हैं, इसलिए वे सड़कमार्ग के बजाय विमान से यात्रा करते हैं । उनके कोई परिचित लेह में सेना में कमांडिंग ऑफिसर हैं, जिनके बुलावे और आतिथ्य में वे लेह जाते हैं । लेह विमानतल से पूरे समय वे उन्हीं के निर्देशन एवं आतिथ्य में यात्रा पूरी करते हैं । दो दिन के पूरे जलवायु अनुकूलन के बाद उनका स्थानीय भ्रमण शुरू होता है, जिसका वे विस्तार से वर्णन करते हैं । उनकी पूरी यात्रा लेह के आसपास की ही है, लद्दाख के अन्य क्षेत्रों की नहीं
है । 

बैंगलुरू और मैसूर की यात्रा लेखक ने सुपरफास्ट ट्रेन से की । यहाँ उसने बैंगलोर का किला, टीपू का महल, चामुंडेश्वरी देवी का मंदिर, श्रीरंगपट्टण आदि स्थलों का भ्रमण किया । इनके सौंदर्य, इतिहास एवं महत्त्च का भी वह पूरा वर्णन करता है । अगली यात्रा में वह नीलगिरि में बसे ऊटी एवं आसपास का वृत्तांत लिखता है । 

माजुली या माजौली का वर्णन वह विश्व के सबसे बड़े द्वीप के रूप में करता है । पूर्वोत्तर भारत के प्राकृतिक सौंदर्य का वह विधिवत साक्षात्कार कराता है । जोरहाट, काजीरंगा की यात्राओं के बाद वह पुणे की यात्रा करवाता है और अंततः मित्रों के साथ जिम कार्बेट पार्क की यात्रा के साथ यात्रा वृत्तांतों का यह संग्रह संपन्न होता है । कुल मिलाकर देखा जाए तो लेखक में केवल घुमंतू प्रवृत्ति ही नहीं, दृश्यों एवं सूचनाओं को ठीक से प्रस्तुत करने की कला है । 

पुस्तक की स्वलिखित भूमिका बस डेढ़ पृष्ठों की है । वह भूमिका के प्रारंभ में स्पष्टतः कह देता है- “मैं भूमिका लिखने या लिखवाने में ज्यादा विश्वास नहीं करता, क्योंकि प्रमुख तो रचना ही है । ” यह कथन आश्वस्तिपरक
है । इन दिनों किसी भी पुस्तक की किसी प्रसिद्ध लेखक-संपादक से भूमिका लिखवाने का चलन जोरों पर है । संभवतः पुस्तकों के लेखक यह सोचते है कि कोई बड़ा लेखक भूमिका लिख देगा तो पुस्तक का महत्त्च बढ़ जाएगा । संकोच में आकर भूमिका लेखक को बचते-बचाते भी उसकी बड़ाई करनी पड़ जाती है और कृति को बड़ा बताना पड़ जाता है, भले ही वह किसी काम की न हो । इस प्रकार डॉ. शर्मा ने स्वयं पर विश्वास जताते हुए भूमिका के आग्रह में न पड़कर अपने लिखे पर विश्वास रखते हैं । यह प्रशंसनीय है । 

पुस्तक का भौतिक रूप अच्छा और आकर्षक है । हंस प्रकाशन ने इसे सुरुचिपूर्ण ढंग से छापा है । हाँ, अक्षरों का आकार कुछ मोटा अवश्य है; सामान्य होता तो बेहतर होता । भ्रमणशील पाठकों के लिए कुल मिलाकर संग्रह उपयोगी है । 

पुस्तक का नाम : सब तो अपने हैं (यात्रा वृत्तांत), लेखक : डॉ. ओम प्रकाश शर्मा ‘प्रकाश’, प्रकाशक : हंस प्रकाशन, बी- 336/1, गली नं. 3 दूसरा पुस्ता, सोनिया विहार, नई दिल्ली- 110094, पृष्ठ संख्या : 207, मूल्य : रु 595/ (सजिल्द)


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केदारनाथ अग्रवाल की 113वें जयन्ती का आयोजन

1 अप्रैल, 2024 को प्रगतिशील हिंदी कविता के गौरव पुरुष केदारनाथ अग्रवाल के 113 वें जन्मदिन का आयोजन ‘केदार स्मृति न्यास’ और ‘भगवत प्रसाद मेमोरियल’ एवं ‘प्रगतिशील लेखक संघ इकाई’, बाँदा के तत्वाधान में भगवत प्रसाद मेमोरियल कॉलेज, बाँदा के आयोजित किया गया । इस आयोजन की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध कला समीक्षक एवं कथाकार प्रयाग शुक्ल ने की तथा कार्यक्रम के मुख्य अतिथि चर्चित आलोचक एवं कला समीक्षक ज्योतिष जोशी एवं विशिष्ट वक्ता सुपरिचित कथाकार एवं आलोचक कवि डॉ. रेनू यादव रहीं । इस अवसर प्रयाग शुक्ल ने कहा कि केदारनाथ अग्रवाल जन और प्रकृति की, सौंदर्य और कला के कवि थे उन्होंने कविता के नए सौंदर्य मूल्य की निर्मिति की है । अतिथि वक्ता ज्योतिष जोशी ने कहा केदार जी ने नदी हवा पहाड़ धूप फूल दिन और रात के अद्भुत गतिशील जीवंत बिंब दिए हैं जो विश्व जमीन है । इस से हिंदी कविता की समृद्धि हुई है । अपने विशिष्ट वक्तव्य में डॉ. रेनू यादव ने जमीन से जुड़े केदारनाथ अग्रवाल की परंपरा पर बात करते हुए उनके परंपरा का निर्वाहन करने वाले कवियों पर विस्तार चर्चा की और कहा कि केदारनाथ अग्रवाल आज भी प्रासंगिक हैं एवं प्रगतिशील कवियों में अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं । न्यास के सचिव नरेंद्र पुंडरीक ने कहा कि केदार की कविता धरती की गंध की कविता थी । वह आदमी के पसीने की गंध की कविता थी । जिसमें आदमी के जीवन और श्रम का संघर्ष था तो उनकी खुशी भी थी, जो उसके श्रम से निर्मित थी । कार्यक्रम के दूसरी कड़ी में केदार न्यास की आजीवन न्यासी एवं नृत्य गुरु श्रद्धा निगम की पुस्तक "जीवन की खिड़कियाँ" का विमोचन किया गया । पुस्तक पर डॉ. अंकिता तिवारी तथा डॉ. रेनू यादव ने विस्तार से अपनी बात रखी । इस आयोजन की तीसरी कड़ी कविता-पाठ थी । कला समीक्षक एवं ख्यातिलब्ध कवि प्रयाग शुक्ल ने बाहर से आए हुए अतिथियों के कविता-पाठ की अध्यक्षता की और मुख्य अतिथि चर्चित गजलकार विनोद कुमार सोनकिया रहे । न्यास के सचिव नरेंद्र पुंडरीक ने आयोजन की पीठिका प्रस्तुत की । अतिथियों का स्वागत केदार न्यास के आजीवन न्यासी राम लखन कुशवाहा ने किया । कार्यक्रम का संचालन चर्चित आलोचक डॉक्टर शशिभूषण मिश्रा ने किया । इस अवसर पर नगर के केदारनाथ अग्रवाल के प्रेमियों की बड़ी संख्या में उपस्थिति रही जिन्होंने केदारनाथ अग्रवाल की छायाचित्र पर माला अर्पित करके उन्हें अपनी श्रद्धांजलि दी । इस अवसर पर सुधीर सिंह, न्यास की आजीवन न्यासी डॉ. सबीहा रहमानी, छाया सिंह, लक्ष्मी द्विवेदी, डॉक्टर अंकित तिवारी, कथाकार उमा पटेल, कामरेड रामचंद्र सरस, आनंद किशोर लाल ने केदारनाथ अग्रवाल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर अपने विचार व्यक्त कर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की । अंत में भागवत प्रसाद मेमोरियल के निर्देशक अंकित कुशवाहा ने अतिथियों के प्रति आभार व्यक्त किया । 


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समीक्षा



निशा चंद्रा, अहमदाबाद, मो. 9662095464

डॉ. अंजना संधीर


प्रवासी मन की कथाएं

(अमरीकी परिवेश की कहानियां)

अंजना संधीर.... नाम ही काफ़ी है । 

अंजना संधीर... एक ऐसा नाम जो किसी परिचय का मोहताज़ नहीं । 

अंजना संधीर-अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखिका । आदरणीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी की गुजराती पुस्तक ' आंख आ धन्य छे' का हिन्दी में अनुवाद किया । कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित ।  1995 से 2007 तक अमरीका में हिंदी प्रचार कार्य । मुझे लगता है कि मैं विषय से हट रही हूँ । क्योंकि यदि मैं अंजना जी की उपलब्धियां लिखने बैठी तो बाकी सब छूट जायेगा । छूट जाएगी इस किताब की समीक्षा जो मेरे हाथ में है...

'प्रवासी मन की कथाएँ ' : उन्नीस कहानियाँ, सभी अमेरिकी परिवेश की कहानियां हैं । 

पहली कहानी अंशु जौहरी जी की 'तीन हफ्ते' है । पिक्चर हॉल के बाहर खड़े मलिन कपड़ों में ब्लैक के टिकट बेचता और एयरपोर्ट पर स्वच्छ कपड़ों में सजा-धजा कस्टम ऑफिसर । कोई फर्क नहीं था दोनों में । लैपटॉप पर ड्यूटी भरने की गलत माँग परंतु नायिका का अड़े रहना कि वह गलत बात नहीं मानेगी, उसी बीच एक सोलह साल का लड़का ,जो कितने ही उपकरणों से लैस था । उसका यह पूछना, 

'आप कब से खड़ी हैं?'

'कुछ देर हो गई '

' दीदी ने कहा था, कस्टम वाले परेशान करें तो ये दे देना

उसने पचास डॉलर का नोट दिखाया । 

और थोड़ी देर बाद उसने देखा, उस लड़के ने कस्टम ऑफिसर को पचास डॉलर का नोट पकड़ाया और आनन- फानन में बाहर । तीन हफ्ते के लिए आई है वह अपने देश, ना जाने अभी कितनी वक्र रेखाएं मिलेंगी......

विषम परिस्थिति में फंसे आम आदमी की मुश्किल और रिश्वत खोरी पर लिखी एक रोचक कहानी । 

 डॉ. अनिल प्रभा कुमार जी की लिखी कहानी ' तीन बेटों की माँ ' एक ऐसी कहानी है, जिसे पढ़कर दर्द भी सिसकी भर उठे, मौन भी चित्कार कर । कैसी विडंबना है कि तीन बेटों की माँ सत्या के लिए एक भी बेटे के घर में जगह नहीं है । आजकल भारत में मुश्किल से माँ के लिए जगह होती है फिर यह तो अमेरिका था । बहू अमला के रात दिन के व्यंग्य वाण सत्या के दिल को छलनी किये रहते हैं । कहानी में सबसे ज्यादा व्यथित वह दृश्य कर देता है जब सत्या एक महीने के लिए भारत जाती है और वापिसी पर देखती है अमला का ऐसा रुप, जिसकी उसने कल्पना तक नहीं की थी । अमला पहले ही अपने पति प्रकाश से कह चुकी थी कि अब वह उसकी माँ को अपने घर में नहीं रहने देगी और जब देखती है सत्या वापिस आ गयी है । वह उसका सारा सामान घर के बाहर ड्राइव -वे पर फेंक देती है । बैग के अन्दर कुछ टूटने की आवाज आयी ,शायद रुहअफ़ज़ा की बोतल थी । प्रकाश ने वापिस उसी गाड़ी में सामान रख दिया ,जिसमें कुछ देर पहले वह माँ को एयरपोर्ट से लाया था । यह कहानी यह सोचने के लिये मजबूर कर देती है कि क्या यह दिन देखने के लिए ही माँ-बाप पुत्र जन्म की आशा रखते हैं । 

एक बेहद मार्मिक, दर्द में लिपटी कहानी.......

डॉ. कमला दत्त की कहानी ' धीरा पंडित, केकड़े और मकड़ियां' एक लड़की के मानसिक उत्पीड़न की कहानी है । बिल्कुल सत्य प्रतीत होती कहानी । एक ऐसी कहानी जो हमारे आसपास एक ना एक लड़की में दिख जाती है । एक ऐसी लड़की की कहानी जिसमें लड़का धीरा से शादी करके अमेरिका चला जाता है और बरसों उसे वहां नहीं बुलाता । और जब धीरा अचानक अमेरिका पंहुच जाती है तो यह देखकर हैरान रह जाती है कि उसके पति का एक अमेरिकी महिला से बरसों से संबंध था । मानसिक विक्षिप्तता, असीम कष्ट, ड़ॉ.जसिकी का इलाज और उनके साथ के संवाद सिर्फ़ और सिर्फ़ अंतर्मन की व्यथा को व्यक्त करती कहानी है । 

डॉ. सुधा ओम ढींगरा जी की कहानी ' कैसी विडंबना ' भी भारतीय संस्कृति पर एक प्रहार है कि कैसे हमारे बच्चों के संस्कार मर गये हैं । जमीन जायदाद के लिये रिश्ते नाते सब भूल गए हैं । रानी के तीन तीन भाई माँ-बाप से जमीन जायदाद अपने नाम करा के उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं और रानी ने जब अपने भाईयों से बात करनी चाही तो उन्होंने दो टूक जवाब दे दिया कि 'इतना ही बुरा लग रहा है,तो तुम अपने साथ ले जाओ, आखिर तुम्हारे भी तो माँ बाप हैं ' और जायदाद में से किसी हिस्से की उम्मीद मत रखना । तुम्हें तुम्हारी शादी में तुम्हारा हिस्सा मिल चुका है । 

वहीं अमेरिकन प्रसिल्ला अपने सास ससुर को नर्सिंग होम में भी नहीं छोड़ना चाहती । कहानी का सार यह है कि हम अपनी संस्कृति, संस्कार भूलते जा रहे हैं और अमेरिकन हमारी संस्कृति अपना रहे हैं । ये कैसी विडंबना है । एक बहुत अच्छी कहानी । 

कहानियाँ और भी हैं । पद्मश्री सुनीता जैन जी की, उषा प्रियंवदा जी की, सुषम बेदी जी की, सौमित्र सक्सेना जी की, डॉ. इला प्रसाद जी की, डॉ. भूदेव शर्मा जी की । इसके अलावा और भी लेखक-लेखिकाओं की । सभी कहानियाँ अमेरिकी परिवेश में जीती हुई देह में भारतीय मन की कसक से भरी हुई हैं । प्रत्येक सृजन में दो संस्कृतियों का समन्वय है । मानवीय चेतना के ताप हैं । निखरता संवरता शिल्प है । अलग अलग बिखरे रंग हैं, जिन्हें समेट कर एक पूर्ण इंद्रधनुष का रूप दिया अंजना संधीर जी ने । जिंदगी के उतार चढाव को कलम की नोक पर रख कर कुछ पुरानी यादें बिछुड़े देश की लिखी गयीं । उन सुप्त ख़ामोशियों को आवाज दी अंजना संधीर जी ने । दुनिया की तल्ख सच्चाईयों को एक ज़िल्द में बांध कर हमें परोसा है अंजना संधीर जी ने । इसके लिए अंजना जी बधाई की पात्र हैं । उनके लिए मैं जितना लिखूँगी, कम होगा.......

इसलिए अपनी बात यहीं रोक कर आपको कहानियों के कुछ पात्र, कुछ पंक्तियों के साथ छोड़े जा रही हूँ । पढ़िए और खो जाइए कहीं सुनहरे बालों में....कहीं मेहंदी भरी हथेली में.........

मेरी दृष्टि बार बार पास रखे पीले फूलों पर अटक जाती थी । इतने सारे पीले गुलाबों में एक भी लाल गुलाब नहीं । बार बार मुझे यह एहसास सिहरा जाता था कि पास रखे यह फूल जो अभी पूरी तरह खिल भी नहीं पाये हैं, कुछ देर बाद एक निर्जीव शरीर के निकट 

होंगे । क्या यह गंध उस सुप्त देह को और मीठी नींद सुला सकेगी.. –डॉ. पुष्पा सक्सेना 

तब वह ग्यारह बरस की रही होगी । क्लास में जैनी ने सब ल़डकियों से पूछा था, तुम में से कौन कौन वर्जिन है? नेहा को वर्जिन का मतलब ही नहीं पता था । घर आकर उसने माँ से पूछा था । 'मम्मी वर्जिन क्या होता है? इस से पहले की मम्मी कुछ कहती, मम्मी की सहेली बोल उठी, 

माय गाॅड कितने प्रिकेरियस बच्चे हैं, मुंह से दूध निकला नहीं कि वर्जिनिटी के सवाल उठने लगे........ — सुषम बेदी 

करवट बदलते ही उसे लगा, पार्वती वहीं कमरे में लाल दुशाले में लिपटी पड़ी है । पसीने और घूंघट से फैली बिंदी, मेहंदी की बासी गंध भरी हथेली, सुबकियों में उठता गिरता वक्ष । पार्वती!कोई और नाम नहीं हो सकता था । विभा,अर्चना, संध्या, निशा.. डॉ. सुनीता जैन 

कभी कभी अयाचित, अप्रत्याशित विचारों के बीज मन में अंकुरित होने लगते । ऐसे क्षणों में किसी संगी के लिए मन लालायित हो उठता, पर घर में किसी का ध्यान इस पर ना था.....

–डॉ शालिग्राम शुक्ला 

अंत में बस इतना कहूँगी......

'कुछ ज़ख़्म खरीदे हैं 

कुछ दर्द के हैं तोहफ़े 

एक उम्र बिताई है 

घाटे के सौदे में.... –निशा चन्द्रा

प्रवासी मन की कथाएं, (अमरीकी परिवेश की कहानियां), सम्पादक-डॉ. अंजना संधीर, प्रकाशक- विकल्प प्रकाशन, कीमत- साढ़े सात सौ रुपए.


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समीक्षा


युवा लेखिका, इंदौर, मो. 9993095904


सरल और सहज शब्दों में लिखा गया खूबसूरत काव्य संग्रह - 'सपनों का चाँद'

पत्र लेखन की दुनिया में नलिन खोईवाल एक सुपरचित नाम है, लेकिन आज वे एक अच्छे कवि के रूप में भी खास पहचान बना रहे हैं । हाल ही में उनका काव्य संग्रह 'सपनों का चाँद' प्रकाशित हुआ । हालांकि इसके पहले उनके धरती का स्वर्ग बेटियाँ, गागर-गागर से महासागर गद्य संग्रह आ चुके हैं । इन्होंने क्षितिज पत्रिका का संपादन भी किया । इसके अलावा एक पुस्तक 'पिचर पिचर टू द ओसियन' आ चुकी है, जो अंग्रेजी भाषा में है । इसके पूर्व पत्र लेखन संग्रह 'किस्मत कनेक्शन' आ चुका है । ये सारे प्रकाशन इस बात के द्योतक हैं कि लेखक ने शुरुआत अवश्य अखबारों में लिखी 'पत्र संपादक के नाम' चिट्ठियों से की, लेकिन अब वे साहित्य की कई विधाओं में भी लिख रहे है और वह भी हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में । 

लेखन में 37 वर्षों का अनुभव बहुत मायने रखता है और जिसकी शुरुआत पत्र लेखन से हो, उसकी बात ही निराली । समाज के प्रति जिसकी पैनी नजर होगी और जो दबंगता के साथ सच कहने का साहस रखता है, जो व्यवस्था पर लगी घुन पर चोट करने से हिचकिचाता नहीं है और बड़े ओहदों पर नौकरशाहों से लेकर जनप्रतिनिधियों से पूछने की हिमाकत रखता हो, वही एक सच्चा पत्र लेखक होता है । 

नलिनजी की भाषा पर गहरी पकड़ है शब्दों के वे बड़े कारीगर हैं । इनकी लेखनी में हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, अरबी, फारसी शब्दों की भरमार होती है और जिसे भाषा की गहरी समझ है, वही इतना सुन्दर लेखन कर सकता है । नलिनजी सरल, सहज और बोधगम्य शब्दों में बात कहने की कला बखूबी जानते हैं । यदि कोई बात गद्य में कहना है तो उसका फ्लो अलग होगा और उसे पद्य में कहना है तो उसका लहजा दूसरा होगा । यह वही बता सकता है, जो दोनों के व्याकरण और अर्थशास्त्र की गहरी समझ रखता हो । नलिनजी इस मायने में बीसे हैं । हालाँकि उनकी रोजी-रोटी का साधन प्रबंधन पैशे से चलता है, लेकिन वे लेखन में पूरी तरह से गूँथ गए हैं और मंझ भी गए है । 

यहाँ बात हो रही है काव्य संग्रह 'सपनों का चाँद' की जैसा इसका शीर्षक है, वैसी ही इसमें रचनाएं भी हैं । 101 चयनित और श्रेष्ठ कविताओं का गुलदस्ता है 'सपनों का चाँद ' । इस संग्रह की अधिकांश कविताएँ तुकान्त या गेय है, मतलब जिसे गाया जा सकें । सामाजिक परिवेश से जुड़े विषयों पर कविताएँ हैं, जैसे-माँ, मित्र,पत्नी, स्त्री, प्रकृति, पर्यावरण, देश, शिक्षा, स्वास्थ्य, भाषा, गुरु, शिष्य आदि पर सरल और सहज शब्दों में लिखी कविताएं हैं, जिसे सामान्य पाठक भी आसानी से समझ सकता है । लेखक ने बहुत भारी भरकम साहित्यिक या क्लिष्ट शब्दों का कहीं प्रयोग नहीं किया है । कविताओं में बहुत अधिक बिम्ब और प्रतीक नहीं हैं, लेकिन शिल्प और कथ्य जबरदस्त है और यही इस कविता संग्रह की विशेषता है । हर कविता में रवानगी है और वह पाठक के दिल में सीधे उतरती है । कोई भी रचना बोझिल नहीं है और ना ही बहुत अधिक लम्बी-चौड़ी । कुछ कविताएं तो मुक्तक जितनी छोटी है । 

अधिकांश कविताएं प्रेम और सौंदर्य में भीगी है । प्रेम के मायने दो विपरीत व्यक्ति के प्रति आकर्षण नहीं होकर बल्कि देश के प्रति, समाज के प्रति और प्रकृति के प्रति प्रेम है । कविताओं में तंज भी है और व्यंग्य भी, तो व्यवस्था के प्रति गहरी चोट भी है, लेकिन कहने का सलीका अलहदा है, अगर कहीं आक्रोश भी है, तो उसमें भी भाषा की मर्यादा है । जैसे हवा है जहरीली, बाहर मत निकल क्या ज़िंदगी को दांव पर लगाएगा, घर में बैठ तो उत्सव मनाएगा, गर निकला बाहर तो, बेवजह मारा जाएगा, ये सोचा ना था । प्रेम में भीगी एक कविता है-"बेटियाँ होती नहीं पराई वे तो बसती है आंगन की तुलसी में फूल की खुशबू में और चिड़ियों की चहक में । " जिन्दादिली पर देखें यह कविता- 'आफतों से यूं न डर, हिम्मत रख कुछ यत्न कर अम्न के फूल खिलेंगे, खुशबू से महकेगा घर । यानि कि कोई भी कविता बोझिल नहीं है और ना ही वे रातोंरात सब कुछ बदलने की बात कहती
हैं । नारी शक्ति पर केंद्रित रचनाएं खूबसूरत बन पड़ी हैं । 

कविताओं में उपमा भी है तो अलंकार भी, तो कहीं विशेषण भी, लेकिन वहीं जहां बहुत जरूरी हो । किसी भी रचना को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि लेखक अपना भारी-भरकम ज्ञान पाठकों पर थोप रहा हो । इन बेहतरीन कविताओं के मर्म को पढ़कर ही इन्हें अच्छी तरह से महसूस किया,समझा और परखा जा सकता हैं । 

गौरतलब है कि नलिनजी को कई पुरस्कार मिल चुके हैं, जिसमें राष्ट्रीय तुलसी सम्मान, राजेन्द्र माथुर स्मृति श्रेष्ठ पत्र लेखन, राष्ट्रीय साहित्यायन पुरस्कार आदि शामिल हैं । कुल मिलाकर 'सपनों का चाँद' एक पठनीय प्रकाशन है । सुन्दर कवर पृष्ठ है । भाषागत या प्रूफ की गलतियां बिल्कुल भी नहीं है । कवर पृष्ठ रंगीन है, लेकिन पूरी पुस्तक श्वेत-श्याम है । 

160 पृष्ठों की पुस्तक को श्वेतवर्णा प्रकाशन ने प्रकाशित किया है । कीमत है- 249 रुपए । 

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समीक्षा

समीक्षक, डॉ. धर्मपाल साहिल, मो. 9876156964



लेखक, नीरू मित्तल ‘नीर’

वर्तमान का जीवंत सृजन है 'कोहरे से झाँकती धूप' की कहानियाँ 

सुप्रसिद्ध कथाकार एवं कवयित्री नीरू मित्तल 'नीर' का नव-प्रकाशित कथा संग्रह 'कोहरे से झाँकती धूप' में शामिल 16 कहानियों को पढ़ने का सुअवसर मिला । ज्वलंत समस्याओं तथा सामाजिक विसंगतियों-विद्रूपताओं पर आधारित ये कहानियाँ 'कथन एवं कहन' की दृष्टि से पाठक को अभिभूत करती हैं । 

इनमें पहाड़ी गांवों की महिलाओं की व्यथा कथा है, शहर-शहर, गाँव-गाँव एवं घर-घर पाँव जमा चुका नशा, प्रवासी मजदूरों का शोषण, फैलते डेरावाद/धार्मिक स्थलों द्वारा आम गरीब लोगों की ज़मीनों पर जबरदस्ती कब्जे, जात-पात का दर्प, बेमेल विवाह, दहेज के कारण बेटियों का ओवरऐज होना तथा माँ-बाप द्वारा बोझ-मुक्त होने हेतु मक्खी निगलना, रिश्तों में बढ़ते फासले, उनमें स्वार्थपरकता, युवाओं की प्रतिभा को नज़रअंदाज कर अपनी इच्छा थोपते अभिभावक, धार्मिक सद्भावना की कमी तथा असहिष्णुता, औरत के अस्तित्व पर कुंडली मार बैठे वर्जनाओं के नाग, पुस्तकों व कृतियों की उपेक्षा, ऐसा बहुत कुछ है जिसे लेखिका ने यथार्थ के स्तर पर पूरी बेबाकी और दिलेरी से कहने की ज़ुर्रत दिखाई है । इन कहानियों में चित्रित संसार इसी समाज का वह रूप है जिसे हम देख कर भी अनदेखा कर रहे हैं या उसका इस प्रकार से नोटिस नहीं ले रहे जिस शिद्दत से उनकी और हमारी तवज्जो होनी चाहिए या जिस ढंग से लेखिका ने उनकी भयावह स्थिति के दर्शन कराकर पाठकीय सोच को झंझोड़ने का प्रयास किया है । इन कहानियों का पाठ करते हुए पाठक को लगातार यह एहसास होता रहता है कि अरे! यह सब कुछ तो हमारे परिवारों में, हमारे गली-मोहल्ले में, आस-पड़ोस के समाज में घटित हो रहा है । कहानियों के पात्र हमारे इर्द-गिर्द से उठकर इन कहानियों में संवाद रचाने लगते हैं, कहानियों को जीवंतता प्रदान करते लगते हैं । 

लेखिका की कहन शैली अत्यंत रोचक है, कहानी तीव्र गति से अपने क्लाइमेक्स की ओर बढ़ती है । ऐसा नहीं होना चाहिए के स्थान पर ऐसा होना चाहिए का सार्थक संदेश देती है । कुछ कहानियों की प्रतीकात्मक पेशकारी कहानी को और भी प्रभावशाली तथा हृदयग्राही बनाने में सक्षम है । कहानी बिंदिया, थिरकते पाँव, मक्खी, दरकती दीवारें, लकड़बग्घा आदि इस श्रेणी में रखी जा सकती हैं । लेखिका पात्रों का मनोविश्लेषण तथा उनके व्यवहार की गहरी परतों को उघाड़ने में सक्षम है । 

लेखिका ने आम बोलचाल की भाषा के साथ-साथ प्रवासी मजदूरों तथा पंजाबी भाषा का सटीक उपयोग करते हुए सांस्कृतिक जीवंतता का परिचय दिया है । नपे-तुले सटीक शब्दों में वार्तालाप कहानियों को गति प्रदान करता
है । मजदूर, रिक्शेवाले, पुलिसवाले, विद्यार्थी, पति-पत्नी, लेखक, दिव्यांग, पहाड़ी औरत, जमींदार, बेरोजगार, विवाह योग्य युवतियाँ, उनके माता-पिता, प्रवासी कामगार, नौकर, दलित आदि पात्रों का चरित्र चित्रण पाठक के मन पर अमिट छाप अंकित करता है । सभी कुछ एकदम व्यवहारिक, कुदरती महसूस होता है, कहीं भी कृत्रिम या काल्पनिक प्रतीत नहीं होता । 

संग्रह की प्रत्येक कहानी अपने विषय तथा ट्रीटमेंट के चलते साउद्देश्यपूर्ण और सार्थक संदेश देने वाली रोचक कहानी है, लेकिन दरकती दीवारें, बिंदिया, हारा हुआ फैसला, मजबूर दिशाएं, लकड़बग्घा, थिरकते पाँव, धागा विश्वास का आदि कथाओं ने विशेष रूप से साहित्यिक संतुष्टि कराते हुए मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ी
है । इन्हें प्रस्तुत कहानी संग्रह की ही नहीं हिंदी कथा जगत की श्रेष्ठ कहानियों में शुमार किया जा सकता है । 

दरकती दीवारें एक मुकम्मल कहानी होते हुए भी एक उच्च कोटि के उपन्यास के मूल तत्व रखती है, इस कथानक पर आधारित उपन्यास की रचना की जा सकती है । कविता की भांति कहानी में भी अनकहे, अनदेखे, अनसुने, अन-महसूसे को शब्दों के माध्यम से मूर्त रूप में प्रस्तुत करना नीरू मित्तल 'नीर' की कहानी कला की खूबी है । कहानी संग्रह का शीर्षक 'कोहरे से झाँकती धूप' प्रतीकात्मक है तथा संग्रह की सभी कहानियों के केंद्रीय भाव को समेटे हुए है । पाठक इन कहानियों के माध्यम से विभिन्न सामाजिक परिदृश्यों के प्रतिबिंब भी देख सकेंगे तथा इन कहानियों के नेपथ्य में गूंजती कराहटों, सिसकियों, आहटों की प्रतिध्वनियाँ भी सुन सकेंगे । नीरू मित्तल 'नीर' को उत्कृष्ट कहानियों के सृजन हेतु मुबारकबाद देता हूँ तथा सुधी पाठकों से इस संग्रह को पढ़ने की सिफारिश भी करता हूँ । 

शुभकामनाओं सहित 

पुस्तक: कोहरे से झाँकती धूप, लेखिका: नीरू मित्तल ‘नीर’ , प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 112, मूल्य 150/- रुपए (पेपर बैक) 


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समीक्षा

समीक्षक - मल्लिका मुखर्जी, बहुभाषी लेखक एवं अनुवादक, 
अहमदाबाद, मो. 97129 21614

लेखक, मधु सोसि ‘मेहुली’


“बेतरतीब बाँस का जंगल”- कहानी संग्रह

साहित्य समाज को आईना दिखाता है और समाज को जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इस संग्रह में शामिल आपकी पंद्रह कहानियाँ इस तथ्य को सिद्ध करती हैं । प्रत्येक कहानी की पृष्ठभूमि इतनी अलग और विषय इतना ज्वलंत! कहानी के छह मूल तत्वों में खरी उतरती हर कहानी, उतनी ही चित्रात्मक है जितनी कि यह वर्णनात्मक है । हर घटना ही नहीं बल्कि हर किरदार की एक तस्वीर मन में उभरने लगती है । लेखिका मधु सोसी जी ने कठिन से कठिन और सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों को सरल भाषा में प्रस्तुत किया है । 

पहली कहानी ‘भँवर’ पढ़कर गहरे भँवर में फँसने की पीड़ा महसूस हुई । शीर्षक जितना उपयुक्त है, कहानी उतनी ही प्रासंगिक है । भले ही अपनी बेटियों को जीवन सागर में तैरना सिखाते हों, लेकिन भँवर में फँस गई तो संभलने की राह दिखा नहीं पाते । बेटी अगर जीवन के भँवर में फँस गई तो उसके बचने का कोई उपाय नहीं होता । एक पढ़ी-लिखी, डॉक्टर बेटी का अगर यह हाल है तो पिता पागल की तरह यही कहेगा न कि ठीक ही तो कहते हैं लोग बेटी के जन्म पर रोते हैं लोग । सत्य यही है कि समाज बदल रहा है, लेकिन बहुत धीमी गति से । 

कहानी ‘फास्ट बॉलर’ का अंत मेरे लिए अनएक्सपेक्टेड था । आराधना की बड़ी से बड़ी गलती को माफ़ कर देने वाले पति अरविन्द की एक परम पुरुष की छवि उभर रही थी कि अंत अचानक भीतर तक बींध गया! 

कहानी "स्वयंसिद्धा" में लेखिका खुद एक सूत्रधार की भूमिका में है । ट्रेन यात्रा के दौरान वे दो महिला यात्रियों की बातचीत सुन रही हैं । पहली महिला जो अपने सात आठ महीने के बेटे के साथ यात्रा कर रही है वह दूसरी महिला को बताती है कि सास ससुर और पति की मर्जी से तीन कन्या भ्रूण की गर्भ में हत्या करने के बाद यह बेटा उन्हें मिला है । दूसरी महिला जो अपनी 5 साल की बेटी के साथ यात्रा कर रही है, वह बेटी की जिद से परेशान है । मायके के एक परिवार में बेटे के जन्म के बाद ही इस बेटी की जिद ने विकराल रूप ले लिया क्योंकि अब सारे रिश्तेदार उस बेटे को दुलार रहे हैं । इन दो महिला यात्रियों के बीच की बातचीत पाठकों को उतना ही विचलित करती है जितना लेखिका को । कहानी का अप्रत्याशित अंत जानने के लिए कहानी पढ़नी होगी । 

"एक रिपोर्टर की मौत" में कहानी की नायिका रिपोर्टर नगमा समाज के एक ऐसे चरित्र के किरदार में है जो दर्शाता है कि समाज के हर कार्य क्षेत्र में इस तरह की बेईमानी मौजूद है । चाहे साहित्य हो, गीत हो, संगीत हो, कला हो या विज्ञान । किसी की रचना चुराना, किसी की धुन चुराना, किसी का प्रोजेक्ट चुराना, किसी की थीसिस चुराना, किसी की खोज चुराना, कोई क्षेत्र अछूता नहीं है । ऐसी चोरी के पीछे क्या मनोदशा होती है, यह समझना मुश्किल है, लेकिन अभ्यास कहता है कि ऐसी चोरी की जड़ें बचपन के धरातल में ही धँसी मिलती है । 

“तराना बर्क” पढ़ने के बाद तो शब्द ही खो गए । बिनीता खत्तर की कहानी उफ़! अपने बचपन के भयानक दौर का एहसास होते ही दोनों बहनों की रक्षा के लिए सतर्क हो जाना । यह कहानी यथार्थ के करीब नहीं संपूर्ण यथार्थ ही है । तराना बर्क के “मी टू” अभियान पर दुनिया के कई पुरुषों ने यही कहा कि तब क्यों इस बात को सार्वजनिक नहीं किया? मैं तो यही कहूंगी कि पहले इन बातों को सार्वजनिक नहीं किया जाता था, इसलिए तो स्त्रियाँ ऐसे ही चुपचाप अपनी शोषित जिंदगी गुजार देती थीं । वर्तमान समय में जब महिलाओं ने इसे सार्वजनिक करने का साहस जुटाया तो बदलाव यह आया कि यौन शोषण या बलात्कार के बाद जहाँ भी यह डर पनपा कि घटना सार्वजनिक हो सकती है, वहीं पीड़िता को जान से मार दिया गया!

‘एक नन्हें फ़रिश्ते की कब्र पर’ में, राहुल की व्यथा कि हम अपने मृतकों को सम्मानजनक अंतिम प्रणाम क्यों नहीं कर सकते । अपने पिता की मृत्यु की खबर पाकर न्यूयॉर्क निवासी बेटा राहुल अपने पिता के अंतिम संस्कार के लिए दिल्ली आता है और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ अपने पिता के शव को लेकर गढ़ गंगा पहुँचता है । 

भारी बारिश के कारण उसके पिता की अधजली लाश को गंगा में फेंक दिया जाता है, जहाँ पानी कम होने के कारण और भी अधजली लाशें पड़ी हुई दिखाई देती हैं । वह इस बात से हैरान है कि जिस पिता के शरीर पर एक खरोंच भी आती तो वे आहत हो जाते, ऐसे पिता का शव इतनी गंदगी में फेंक दिया गया! ठीक वैसा ही दूसरा अनुभव उसे अहमदाबाद के मोक्षधाम में होता है, जहाँ बारह साल कम उम्र के बच्चों को दफनाया जाता है । वहाँ गंदगी भरी जगह पर चीलें उड़ रही थीं । 

उनके घर पर भागवत गीता का पाठ करने आए नित्यानंद शास्त्री से भी राहुल सवाल पूछता है कि आत्मा अमर है और शरीर नश्वर है, फिर भी क्या मृत शरीर को कूड़े कचरे में फेंक कर इस तरह उसका निरादर किया जाना चाहिए? तब शास्त्री जी कहते हैं, 'यह सामाजिक प्रश्न है, आध्यात्मिक नहीं । '

राहुल की नजर के सामने न्यूयॉर्क के पास एक खूबसूरत बगीचे वाला और खास किस्म के फूलों से सजा ईसाइयों का कब्रगाह आ जाता है । वह निर्णय लेता है कि देश की सरकार को एक पत्र लिखेगा कि उनकी विकास योजनाओं में श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों के लिए कोई स्थान है? यहाँ से यह कहानी एक व्यंग्यात्मक मोड़ लेती है । इस पर मैं कुछ अपने विचार रखना चाहती हूँ । मधु जी से अनुरोध है कि इसे अन्यथा न लिया जाए । 

भारत सरकार और अमेरिकी सरकार के बीच कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है । अमेरिकी सरकार में राष्ट्रीय महत्व के विषय ही केंद्र के पास रहते हैं और बाकी सारे विषय राज्यों के अधीन है । जबकि हमारे देश की सरकार में केंद्र के पास जिनका राष्ट्रीय महत्व नहीं है, ऐसे बहुत से विषय भी हैं । इस कारण हमारी सरकार उन विषयों पर खास ध्यान नहीं दे पाती है । ऐसे में जैसे शास्त्री जी ने कहा कि यह एक सामाजिक समस्या है, तो देश के नागरिक होने के नाते हमारा सामाजिक दायित्व बनता है कि इस दिशा में हम अपनी भूमिका अदा करें । इस बारे में बात करते हुए मैं गुजरात की जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता मित्तल पटेल के बारे में बताना चाहूँगी । 

स्नातक होने के बाद मित्तल यूपीएससी की तैयारी कर रही थीं, तब उन्होंने पत्रकारिता पाठ्यक्रम में दाखिला लिया, क्योंकि उन्हें लगा कि यह उनकी पढ़ाई में मददगार होगा । 'चरखा' नामक संस्था से उन्हें फ़ेलोशिप मिली और उन्होंने दक्षिण गुजरात में गन्ना श्रमिकों की स्थितियों पर शोध करना शुरू किया । इस क्षेत्र में वास्तविक शोध के इरादे से वे नवंबर 2004 में वह गन्ना मजदूरों के कैंप में रहने चली गईं । डेढ़ महीने तक उनके बीच रहीं, और वहां असली 'भारत' देखा । फिर वे गुजरात में बसे बंजारा समुदाय के लोगों से मिलने लगीं और मानवता के स्तर से नीचे जीवन यापन कर रहे इन बेसहारा लोगों के मानवाधिकार, शिक्षा, उनके पारंपरिक व्यवसाय और आवास के लिए काम करने लगीं । 

2010 में देश में बंजारा जातियों के अधिकारों की लड़ाई के लिए ‘विचरता समुदाय समर्थन मंच’ का गठन किया । उनकी कोशिशों से आज गुजरात के पचास लाख की आबादी वाले बंजारा समुदाय की जिंदगी में क्रांतिकारी बदलाव आ चुका है । ज्यादातर के वोटर आईडी कार्ड, राशन कार्ड, बन चुके हैं । उनके बच्चे हॉस्टल में रहकर पढ़ रहे हैं । पिछले दो साल में मित्तल पटेल ने बनासकांठा जिले में अलग अलग सूखाग्रस्त गाँवों के सरपंच और गाँव लोगों के साथ मिलकर 87 तालाब खुदवाए हैं । 

इतना ही नहीं वे कुछ सेवानिवृत्त वन अधिकारियों और गाँववासियों के पूर्ण सहयोग से बनासकांठा के हर गाँव में वृक्षारोपण का काम कर रही हैं । इस काम के लिए उन्होंने गाँव के श्मशान के आसपास का इलाके को चुनती
हैं । इन हरे-भरे जंगलों में सभी प्रकार के पेड़-पौधे होने के कारण हर समय विभिन्न प्रकार के पक्षियों को भोजन मिलता रहता है । 

नारीवाद का दूसरा पक्ष कहानी “बेतरतीब बाँस का जंगल” में शशिकला सब्बरवाल का पात्र बखूबी प्रदर्शित करता है । साहित्य के लगभग सभी रस इस कहानी में आ गए । हमारे समाज में यह बहुत पुरानी मान्यता है कि बेटी अगर गोरी-चिट्टी और सुंदर हो तो योग्य लड़कों के माता-पिता माँगकर उसे ले जाते हैं । इसी मान्यता के चलते शशिकला सब्बरवाल की चारों सुंदर बेटियों की शादी अच्छे घरों में हुई थी । 

 स्वार्थ के लिए इस मान्यता को उलटते हुए, शशिकला अपने बेटे की शादी एक संभ्रांत परिवार की सांवली लड़की सोनिया से तय करती है । अपनी एक बेटी के विरोध जताने पर माँ शशिकला का जवाब, ‘सुंदर लड़की नाल ब्याह कराके, बेटे को हाथ से जाने दूँ?’ उनकी कुटिलता को प्रदर्शित करता है । उनकी अपनी मान्यता थी कि सुंदर पत्नी अपने पति को अपने चंगुल में रखती है, लेकिन उन्हें अपनी पुत्रियों द्वारा अपने पतियों को अपने चंगुल में रखने पर कोई आपत्ति नहीं थी । नारी तेरे कितने रूप!

‘रेन फॉरेस्ट’, ‘यू टर्न’, ‘मत बरसों इंदर राजा जी’, ‘डब्ल्यू.टी.सी. (मीनारों की भांति), ‘ट्री हाउस’, ‘हिंडोला’, ‘बदलाव’, ‘भानुमति बनाम धन्नो’ इन सभी कहलियों में भी समाज में व्याप्त बुराइयों का सटीक चित्रण है । ये कुछ कहानियाँ मैं पाठकों की प्रतिक्रिया के लिए छोड़ती हूँ । 

अस्त-व्यस्त या बिखरे हुए बाँस के जंगल को यदि समाज कहा जाए तो ये कहानियाँ बाँस के पौधे पर खिले हुए पुष्पों के समान हैं । अब हम कहेंगे कि किसी पौधे पर पुष्प खिले तो बसंत आ गया । लेकिन ये कहानियाँ सुहावने मौसम को नहीं बल्कि समाज में व्याप्त प्रदूषण को परिभाषित करती हैं । है न विरोधाभास? सच तो यह है कि बाँस के पुष्पित होने की परिणति उसकी मृत्यु के रूप में होती है । बाँस के पौधे के पुष्पित होने के फलस्वरूप पौधे का हवाई भाग और भूमिगत भाग पूरी तरह से मर जाते हैं और ऐसी स्थिति में इनका पुनर्जीवन केवल बीजों के माध्यम से ही संभव हो पाता है । 

अर्थात ये कहानियाँ समाज में व्याप्त दूषणों को खुलेआम उजागर करती है और ये संदेश देती है कि जिस प्रकार बाँस के पौधे के पुष्पित होने पर वह पौधा मर जाता है, उसी प्रकार हमारे संकीर्ण सामाजिक जंगल में जहाँ जहाँ दकियानूसी परंपराओं, कुरीतियों, रूढ़ियों के दूषण रूपी पुष्प खिलते हैं, समाज का उतना हिस्सा मरने लगता है । 

अब समय आ गया है कि ऐसे दूषित समाज का अंत हो ताकि समाज को पुनरुद्धार मिल सके । हम सभी को बीज बनकर इस यज्ञ में अपना योगदान देना होगा । चाहे वह परोक्ष रूप से मधु जी की तरह लिखकर हो या प्रत्यक्ष रूप से मित्तल पटेल की तरह कार्य को अंजाम देकर हो । 

ऐसी हृदय विदारक कहानियों से हमारा परिचय कराने के लिए मैं आदरणीय मधु जी को हार्दिक बधाई देती हूँ । आपकी कलम भविष्य में भी चलती रहे और हम सभी को आपकी महत्वपूर्ण समाजोपयोगी रचनाएँ पढ़ने का अवसर मिलता रहे । 


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समीक्षा

समीक्षक , वंदना गुप्ता, दिल्ली, मो. 9868077896

लेखक, पंकज सुबीर

‘जोया देसाई कॉटेज’

किस्सागोई का जीवन में हमेशा महत्त्वपूर्ण स्थान रहा । पूर्व में किस्सागोई के माध्यम से ही कहानियाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करती थीं । जो अनपढ़ थे वे भी इसी माध्यम से कहानियों की दुनिया में प्रवेश करते थे । आज के दौर में जब अधिकतर पढ़े लिखे हैं, संचार के अनेक माध्यम हैं, ऐसे में इस विधा को बचाए रखना और बनाए रखना सहज नहीं लेकिन साहित्यिक जगत में एक किस्सागो हैं जिन्होंने अपना लेखन अधिकतर किस्सागो के रूप में ही किया । उनकी कहानियों की यही विशेषता रही जिसमें आपको एक ऐसा किस्सागो देखने को मिलेगा जो कहानियों में कई बार पात्रों के नाम भी नहीं देता । नाम न देकर वे जैसे सिद्ध करना चाहते हैं, ये घटना अथवा ये कहानी किसी एक को लक्षित करके नहीं कही गयी है । ऐसा किसी के भी साथ घटित हो सकता है । इस प्रकार कथा को वे एक बड़ा परिवेश देते हैं । उसका आकार वृहद् हो जाता है । 

किस्सागोई अंदाज़ में लिखित संग्रह है ‘जोया देसाई कॉटेज’ जिसके लेखक हैं पंकज सुबीर । इस संग्रह में कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं । जैसे जीवन विविध रंगी है वैसे ही कहानियां भी विविध रंगी हैं । अभी हम सभी महामारी के दौर से गुजरे हैं और उसी को केंद्र में रखते हुए मनुष्य की संवेदना और असंवेदना का दिग्दर्शन कहानी कराती है । एक महामारी ने जैसे रिश्तों पर पड़े समस्त परदे उठा दिए । हम जो कहते हैं तेरे बिना हम रह नहीं सकते, तुम्हारे लिए अपनी जान दे देंगे, ये कोरे शब्द मुंह चिढ़ाते प्रतीत होते हैं । मनुष्य कितना असंवेदनशील प्राणी है उसका दर्शन कहानी कराती है । अपनों से ही अपने डरने लगे लेकिन दूसरी ओर, कुछ संवेदनशील लोगों ने मिसाल कायम की, अपनी जान की परवाह न करते हुए उन शवों को ठिकाने लगाया, उन्हें उनकी अंतिम मंजिल पर पहुंचाया । मनुष्य की असंवेदनशीलता वहां सबसे अधिक दृष्टिगोचर होती है जब पिता को हाथ न लगाने वाली बेटी उसकी चिता के साथ खड़ी होकर मीडिया के माध्यम से जनता की संवेदना ग्रहण करती है । जिसे ये ज्ञात न हो, पिता कितने दिन पहले मृत्यु को प्राप्त हो गया, वो ही बेटी अपने पति के लिए इस प्रकार की बाइट देती है । इस कहानी के माध्यम से लेखक यही कहना चाहते हैं कितने असंवेदनशील होते हैं मनुष्य, जो लाश को भी भुनाने से नहीं चूकते । क्या वास्तव में हम मनुष्य हैं का प्रश्न ‘स्थगित समय गुफा के वे फलाने आदमी’ कहानी छोड़ती है । 

डायरी में नीलकुसुम कहानी जाति भेद का उदाहरण है जिसमें शुभ्रा देखती है कितना अंतर है हकीकत में । एक तरफ वे अछूत हैं दूसरी तरफ उन्हें भोगने में अछूतपन कहाँ चला जाता है । 

‘ढ़ोंढ चले जै हैं काहू के संगे’ कहानी बाल मनोविज्ञान के साथ बड़े होते मनुष्य के मनोविज्ञान को परिलक्षित करती है जहाँ बाल्यकाल का परिवेश जब मर्ज़ी के बिना जबरदस्ती छुड्वाया जाता है उसका विपरीत प्रभाव किस उम्र में आकर परिलक्षित हो सकता है, उसका यथार्थ सम्मुख उपस्थित करती है । साथ ही सोशल मीडिया ने कैसे मनुष्य को मनुष्य का दुश्मन बना दिया है जिसका दुष्प्रभाव एक मनुष्य को कैसे विक्षिप्त कर सकता है, उसके जीवन की आहुति ले सकता है, प्रत्येक पहलू को रेखांकित करती है । 

‘हराम का अंडा’ कहानी इनफर्टिलाइजेशन की समस्या पर आधारित है जहाँ एक धर्म विशेष में कैसे इस प्रक्रिया द्वारा प्राप्त एग को हराम का अंडा साबित कर दिया जाता है । कैसे धर्म की अफीम में जकड़ा मनुष्य पढ़ लिखकर भी अनपढ़ सिद्ध होता है उसे कहानी परिभाषित करती है । 

‘नोटा जान’ कहानी एक किन्नर द्वारा गुप्त रूप से अपने परिवार के पालन पोषण करने के रूप में उभरती है जहाँ वो नगर पालिका का चुनाव भी जीतती है लेकिन पुनः अपने पेशे में वापस आना पड़ता है । कैसे उसका पेशा ही न केवल उसका अपितु उसके परिवार के पालन पोषण में सहायक सिद्ध होता है उसका दर्शन कहानी कराती है । लेखक ने यहाँ एक नवीन धारणा प्रस्तुत की है और कहानी का अंत कहता है जैसे लेखक स्वयं इस कहानी में एक पात्र के रूप में उतरे हैं और एक तर्कसंगत दृष्टिकोण समाज के सम्मुख रखा है । 

‘रामस्वरूप अकेला नहीं जाएगा’ कहानी आज विकास की दौड़ में भागती दुनिया की हकीकत प्रस्तुत करती है । कैसे पहले मशीनों ने मनुष्य को प्रतिस्थापित किया और उसके बाद आज टेक्नोलॉजी मनुष्य को प्रतिस्थापित कर रही है, उसका कटु स्वरूप सामने रखती है । ये मनुष्य को सोचना होगा वो कैसे भविष्य का निर्माण कर रहा है जहाँ कल संभव है जिसका वो अविष्कार कर रहा है वही टेक्नोलॉजी उससे उसकी रोजी ही न छीन ले, का सन्देश कहानी देती है । भविष्य की दुनिया का भयावह दर्शन कहानी कराती है । 

शीर्षक कहानी ‘जोया देसाई कॉटेज’ एक स्त्री की चाहतों की कहानी बनकर उभरती है । ‘जुली और कालू की प्रेम कथा में गोबर’ आज भी गोदान से आगे के यथार्थ को प्रस्तुत करती है जिसमें लेखक कहना चाहते हैं होरी की किस्मत कभी नहीं बदलती फिर वो बीसवीं सदी हो या इक्कीसवीं । 

‘जाल फेंक रे मछेरे’ कहानी एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसका भरा पूरा परिवार है । प्रेम है लेकिन अपनी अदम्य इच्छाओं, लालसाओं के चलते कैसे स्वयं ही अपने पुत्र के जीवन में आग लगा देती है । अपनी जेठानी फरीदा के रहन सहन से इर्ष्या करती स्त्री है सकीना । उसकी एक ही लालसा है किसी भी प्रकार अपना स्तर उच्च करना । अपने बेटे ताहिर को एक पैसेवाली आसामी की लड़की से विवाह के लिए जबरदस्ती राजी करती है । सस्पेंस अंत में खुलता है जब सब कुछ हाथ से निकल जाता है, जब ताहिर बताता है वो लड़की से नहीं उसकी माँ से विवाह करना चाहता है क्योंकि माँ भी अत्यधिक सुन्दर थी और उम्र भी उसकी ज्यादा न थी । सकीना चाहती थी लड़की से विवाह के बहाने उसकी तमाम जायदाद इन्हें मिल जायेगी इसलिए बार बार वहाँ भेजती है । इस कहानी को पढ़ते हुए एक तो बीच में ही अंदेशा हो जाता है जब ताहिर बार बार वहां जाता है कि कहीं ऐसा न हो बेटी के स्थान पर माँ को न पसंद कर ले । दूसरी बात, इस कहानी को पढ़ते हुए तेजेंद्र शर्मा की कहानी मलबे की मालकिन ध्यान में आती है उसमें भी लड़का बेटी के स्थान पर माँ को पसंद करता है और उससे विवाह करना चाहता है । एक ही प्लाट पर दो कहानियाँ सामने आती हैं लेकिन दोनों का ट्रीटमेंट एक दूसरे से जुदा है । तेजेंद्र शर्मा की कहानी में माँ अपनी बेटी के लिए उस लड़के को चुनती है किन्तु लड़के द्वारा जब कहा जाता है वो लड़की से नहीं माँ से विवाह करना चाहता है क्योंकि उसकी निगाह में लड़की अभी बच्ची है जबकि माँ मैच्योर । पंकज सुबीर की कहानी में एक माँ स्वयं अपने पुत्र को उस घर में भेजती है क्योंकि लालच में अंधी हो जाती है । सबके द्वारा समझाने पर भी किसी की नहीं सुनती । लड़की की माँ बहुत तेज है । किसी से सम्बन्ध नहीं, ऐसी वार्ताएं भी उसे अपने पथ से नहीं डिगाती जो यही सिद्ध करता है लालच की पट्टी ने सकीना के सोचने समझने की शक्ति ही समाप्त कर दी । इस कहानी में लड़की और उसकी माँ, केवल पात्र रूप में हैं लेकिन उनकी कहीं उपस्थिति दर्ज नहीं होती । कहीं पता नहीं चलता उन्होंने कैसे ताहिर को फंसाया या वो खुद फंसा । केवल उनकी अदृश्य उपस्थिति है । इस प्लाट पर पहले भी कई कहानियां लिखी जा चुकी हैं लेकिन सबका ट्रीटमेंट अलग ही रहा है । 

यदि एक पंक्ति में कहा जाए तो पंकज सुबीर की कहानी 'खजुराहो' महिला ओर्गज्म पर बात करती है । प्रमुख बात ये है सांकेतिक रूप से कहानी बुनी गयी है । जो कहा गया है संकेतों में कहा गया है । ये पंकज सुबीर के लेखन की खूबी है जब भी वो किसी ऐसे विषय पर कहानी लिखते हैं संकेतों के माध्यम से अपनी बात कहते हैं और वो पाठक तक प्रेषित भी होती है । 

पंकज सुबीर ने इस कहानी को सार्वभौमिक सत्य की भांति प्रस्तुत किया है जहाँ एक स्त्री सुजाता द्वारा यही सिद्ध किया जा रहा है । इस विषय पर अक्सर फेसबुक पर खूब चर्चा हुई है । स्त्री पुरुष की बुनावट ऐसी है जहाँ पुरुष के धैर्य की परीक्षा होती है । स्त्री क्या चाहती है, कैसे ओर्गाज्म तक पहुँचती है, इसे समझना किसी स्कूल में नहीं सिखाया जाता न ही किसी पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता । यही कारण है स्त्रियाँ अधिकतर असंतुष्ट रहती हैं लेकिन इस कारण दस में से नौ स्त्रियाँ या अधिकतर स्त्रियाँ मनोरोगी हो जाती हैं, ऐसा कहना भी उचित नहीं क्योंकि कहानी में स्वयं सुजाता मान रही है उस स्तर तक हर पुरुष नहीं पहुँच सकता । ‘दस हजार में कोई एक इस खेल का एक्सपर्ट होता है और एक हजार में कोई एक इस खेल को ठीक ठाक खेलना जानता है’ - जब सुजाता स्वयम मानती है तो इसका अर्थ यही निकलता है । स्त्री फोर प्ले भी चाहती है लेकिन पुरुष केवल प्ले, यही अंतर है और उसी को कहानी में ढाला है जहाँ मुख्य प्रश्न ये उठाया गया है क्योंकि स्त्रियों को पवित्रता और अपवित्रता के खाँचे में बांटा गया है । पुरुष तो ऐसा नहीं मानता और जब जो चाहता है प्राप्त कर लेता है लेकिन स्त्री के लिए अनेक लक्ष्मण रेखाएं हैं । अतः स्त्रियों को स्वयं ये लक्ष्मण रेखाएं तोडनी होंगी । प्रश्न उठता है यदि सभी स्त्रियाँ ऐसा करने लगीं तो समाज किस ओर जाएगा क्योंकि कहानी में केवल और केवल स्त्री की दैहिक संतुष्टि को ही टारगेट किया गया है । 

पंकज सुबीर की ये कहानी केवल यही कहना चाहती दिख रही है यदि अपने खजुराहो को स्त्रियाँ प्राप्त करना चाहती हैं तो नैतिकता का लबादा उतारें और दरिया में कूद जाएँ, अवश्य कहीं न कहीं किनारा मिल जाएगा लेकिन इसे सार्वभौमिक सत्य के रूप में भी नहीं स्वीकारा जा सकता क्योंकि इसका उत्तर भी कहानी स्वयं दे रही है । संभव नहीं जिससे सम्बन्ध बनाए जाएँ वो स्त्री को उसके विस्फोट तक पहुंचा सके । ऐसे में ट्राय ट्राय एंड ट्राय अगेन का फार्मूला ही चलता रहेगा जब तक वो स्थिति नहीं आती क्योंकि कहानी के अनुसार ऐसे चांस हजार में एक हैं । अतः एक निष्कर्ष देते हुए सावधान न करते हुए भी कर रही है कहानी, जैसे कह रही हो - यात्री अपने माल की स्वयं रक्षा करें अर्थात अपने रिस्क पर आगे बढ़ें । 

एक स्थान पर सुजाता कहती है ‘शुरू के एक दो साल दोनों को सब मिलता है बाद में एक शरीर में एक दो साल से ज्यादा कुछ खोजने लायक नहीं होता’ तो यहीं प्रश्न उठता है एकरसता क्यों आने दी जाए । इसका उपाय तो दोनों को करना होता है । किसी एक पर सारा दारोमदार नहीं डाला जा सकता । लेकिन इस कहानी में जैसे पूर्णतः पुरुष को स्त्री असंतुष्टि का दोषी दिखाया गया है । ये कहकर छूट नहीं ली जा सकती कि पुरुष बाहर खोज लेता है लेकिन स्त्री कहाँ जाए । यहीं आकर दोनों को सम्मिलित प्रयास करने होते हैं ताकि संबंधों में जीवन्तता नयापन बना रहे । सबसे बड़ी समस्या ओर्गाज्म पर पहुंचना ही नहीं होती क्योंकि अधिकतर स्त्रियों को तो ओर्गाज्म के विषय में ही ज्ञात नहीं होता लेकिन इस तथ्य को कहानी में पूरी तरह छोड़ दिया गया है । यदि इस तथ्य का भी कहानी में समावेश किया गया होता तो कहानी का फलक और व्यापक हो जाता । 

कहानी सिम्पल है । नेहा अपनी कंपनी की ओर से हवेली होटल का सर्वे करने आयी है और बराबर के रूम में रहने वाली सुजाता से संवाद हो रहा है । नेहा के रूम में एक डायरी रखी है जिसे नेहा पढ़ती है और सुजाता उसके विषय में बात करती है । जब नेहा डायरी पढ़ रही है पाठक को तभी इल्म होने लगता है कहानी कहीं न कहीं इसी मुद्दे पर आधारित है जब पवित्रता का सम्बन्ध आरम्भ होता है । रेखाचित्रों और शायरी के माध्यम से ज्ञात हो जाता है डायरी लिखने वाली कौन होगी यानि कोई स्त्री है, उसका भी अंदाज़ा पाठक को होने लगता है । साथ ही मियां के विषय में भी सुजाता द्वारा बताये जाने पर आईडिया हो जाता है उसका यहाँ क्या रोल होगा. ‘हर मनोरोगी स्त्री के मन के रोग का कारण देह होती है’ पंक्ति को सार्वभौमिक सत्य की भांति प्रस्तुत किया गया है जो स्वीकार नहीं किया जा सकता । सब स्त्रियों के जीवन में केवल देह के कारण मनोरोगी बन जाना कारण नहीं हो सकता । हाँ, इसे यदि अधिकतर या कुछ स्त्रियों तक सीमित किया जाता, तब स्वीकार्य होता । 

कुल मिलाकर कहानी एक ऐसे मुद्दे पर बात कर रही है जिस पर समाज बात नहीं करना चाहता । सबसे मुख्य बात ये है स्त्री की यौनिकता पर बात कैसे हो सकती है जबकि उसे मनुष्य का दर्जा भी समाज नहीं देता । ऐसे में इस मुद्दे को उठाया जाना साहस का काम है । 

कुल मिलाकर सम्पूर्ण संग्रह में मानव जीवन के हलंत विसर्ग उपस्थित हैं । पंकज सुबीर के लेखन की ये विशेषता है वे अपनी कहानियों में अछूते विषय लेकर अवश्य उपस्थित होते हैं । छुआछूत, मानवीय मनोविज्ञान, विकास, लालच, प्रेम, धर्म आदि सभी संवेदनशील मुद्दों का कहानियों में समावेश है । लेखक की अपने विषय पर पूर्ण पकड़ है । कहानियाँ पाठक को अपने साथ बहा ले जाने में सक्षम हैं । एक बैठक में पाठक कहानियाँ पढ़ जाता है । पठनीयता इन कहानियों का बड़ा गुण है । भाषा और शैली लेखक की अपनी गढ़ी हुई है जिससे पाठक परिचित हैं ही । एक पठनीय कहानी संग्रह के लिए पंकज सुबीर बधाई के पात्र हैं । 

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उनतीसवाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान निशान्त को 

वर्ष 2023 के डॉ. देवीशंकर अवस्थी सम्मान के लिए कवि, आलोचक निशान्त को चुना गया है जिन्होंने विशेष रूप से पिछले कई दशकों की कविता पर अन्तर्दृष्टि, विवेक और सहानुभूति से विचार किया है ।  निशान्त को उनकी पुस्तक ‘कविता पाठक आलोचना’ के लिए उनतीसवाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान दिया जायेगा ।  चयन-समिति ने यह निर्णय सर्वसम्मति से लिया ।  इस वर्ष की चयन समिति में मृदुला गर्ग, सुधीरचन्द्र, पुरूषोत्तम अग्रवाल, अशोक वाजपेयी ओर कमलेश अवस्थी शामिल हैं ।   

यह सम्मान 5 अप्रैल 2024 को दिल्ली में साहित्य अकादेमी के सभागार में एक विशेष आयोजन में दिया
जायेगा ।  इस अवसर पर ‘आलोचना और पाठक’  विषय पर परिचर्चा भी होगी । 

डॉ. कमलेश अवस्थी, संयोजक-सदस्य सम्मान चयन समिति

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समीक्षा


समीक्षक, शैलेन्द्र शैल, द्वारका, नई दिल्ली, मो. 98110 78880


'देवताओं का मौन' : राजीव मुद्गल

राजीव मुद्गल की पुस्तक "देवताओं का मौन" हाल ही में पढ़ा । वे साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता लेखिका चित्रा मुद्गल और यशस्वी संपादक और कहानीकार अवधनारायण मुद्गल के पुत्र हैं । राजीव नव वेदान्त के आध्यात्मिक चिंतक हैं । वे सत्य के साधक और वेदांत के मूल ज्ञान की अविकृत व्याख्या के प्रचारक हैं । उन्होंने सत्य की खोज में जीवन के कई वर्ष जंगल, पहाड़ और आश्रमों में बिताए । मैं इस महत्वपूर्ण पुस्तक के बारे में कुछ बातें साझा करना चाहता हूं । इस पुस्तक में सत्य, अध्यात्म और दर्शन पर गंभीर और गहन विमर्श है । इसे हम एक कहानी या उपन्यास की तरह नहीं पढ़ सकते । इसे ठहर ठहर कर पढ़ना होगा । हम हर वाक्य को समझ कर, उसमें समाहित अर्थ को आत्मसात कर ही आगे बढ़ सकते हैं । वे भूमिका में लिखते हैं कि आधुनिकता और बदलते समय का प्रकाश क्या है । मुखौटों के पीछे का चेहरा क्या है । और आपकी अस्तित्व की खोज जिसके ऊपर आपने अनगिनत आवरणों और मुखौटों से सत को ढंक दिया है, उसे कैसे आप अनावृत करेंगे । पुस्तक कई प्रकरणों में लिखी गई है । पहले ही प्रकरण में लिखते हैं कि ईश्वर के अस्तित्व पर आज प्रश्नचिन्ह लगा है और स्वयं मनुष्य के अपने अस्तित्व पर भी । क्या ईश्वर एक मेटाफर भर है । साहित्य काफ़ी नहीं है क्योंकि वेदान्त ही है जिससे हम अंधविश्वासों और रूढ़िवादिता को मारकर दौड़ा सकते हैं । वे लिखते हैं कि जिस सभ्यता का साहित्य जीवन्त है और जागृत है, वही सनातन है । आज हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि झूठ में जीने की आदत पड़ गई है हमें । वेदान्त के महत्व को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं कि समय आ गया है कि वेदान्त को फिर से घर घर लाया जाए । इसके लिए हमें खुद अपनी आने वाली पीढ़ी को इसका ज्ञान सौंपना होगा । वे यह भी कहते हैं कि आज के इस युग में हमें आत्मकेंद्रित नहीं आत्माकेंद्रित होना होगा । इस गंभीर पुस्तक के लिए इसके लेखक बधाई के पात्र हैं और साथ ही प्रलेक प्रकाशन भी । 

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"तिरोहिता" कुमुद रामानन्द बंसल का ताज़ा कहानी संग्रह है । कुमुद ने विविध विधाओं में बीस पुस्तकें लिखी हैं और कई पुस्तकें संपादित की हैं । इस संग्रह में सात कहानियां शामिल हैं । ये मुख्यतः प्रेम से पगी कहानियां हैं जिनके मूल में महज़ आकर्षण नहीं, समर्पण की भावना प्रवाहित है । ये हमारी उन आत्मीय संवेदनाओं को रेखांकित करती हैं जिनसे जीवन का ताना-बाना बुना है और हमें कहीं भीतर तक छूती हैं । पहली कहानी 'ब्लैक फारेस्ट'को पढ़ कर लगता है कि यह लेखिका के स्वानुभूत अनुभवों पर आधारित है । पर उन्होंने भूमिका में लिखा है कि यह उनकी एक मित्र की आपबीती का बयान करती है । वास्तव में यह हममें से किसी की भी कहानी हो सकती है । इसकी नायिका कालिंदी कहती है कि वह देह ही नहीं अध्यात्म की पगडंडी पर भी चलना चाहती है । उसकी कोमल भावनाओं का केंद्र (मैं प्रेमी शब्द जानबूझ कर नहीं लिख रहा) निकुंज कहता है 'कालिंदी जीवन में जितनी कम अपेक्षा रखेंगे, उतनी ही निराशा कम होगी ' । यह जीवन का कटु सत्य है । 'परिवर्तन 'कहानी दो सहेलियों के आपसी संबंधों पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक कहानी है । इसमें एक सहेली दूसरी को अपनी कविताएं सुनाती है, जिन्हें कहानी में बड़ी सुंदरता से पिरोया गया है । 'कविताएं सुनाते हुए मिलि यादों का समंदर बन गई । ज्वार -भाटे आते जाते रहे । समंदर के पानी में खारापन था तो मोती भी थे ' वास्तव में अधिकांश कहानियां बीते हुए कल की कहानियां हैं जिनमें आने वाले कल के लिए आशा का संदेश है । नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा की कहानियों के संदर्भ में एक जगह लिखा है -Remembrance of things past यह बात कुमुद की कहानियों में भी लक्षित होती है । एक बात और -सभी कहानियां स्त्रियों को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं । वे सभी कहीं न कहीं तिरोहिता हैं । शायद इसीलिए संग्रह का नाम भी यही रखा गया है । इस पठनीय कहानी संग्रह के लिए कुमुद को बहुत बहुत बधाई । 



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प्रकाशनार्थ साहित्यिक खबर

 सिद्धेश्वर द्वारा सम्पादित पुस्तक " साहित्य डॉट कोरोना "
एक जीवंत दस्तावेज है : डॉ उपेंद्रनाथ पांडेय 

पटना : 21/03/24 । वरिष्ठ कवि,चित्रकार और साहित्यकार सिद्धेश्वर द्वारा कोरोना काल की त्रासदियों पर आधारित, साहित्य की विविध विधाओं की रचनाओं को समेटे 182 पेज की पुस्तक " साहित्य डॉट कोरोना " एक जीवंत दस्तावेज है और आज के साहित्य-जगत के लिए एक अनमोल उपहार भी । जिसका मुखपृष्ठ ही बहुत आकर्षक एवं विचारोत्तेजक है, जिस पर स्वयं सिद्धेश्वर की कलाकृति है । उनके संपादन में प्रकाशित इस पुस्तक की रचनाओं को पढ़ते हुए हमें कोरोना काल की तस्वीर चलचित्र की भांति उभरने लगते हैं । इस पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत है, उनके सजग, सतर्क, समर्थ और सुरुचिपूर्ण सम्पादन के साथ सभी नवोदित और स्थापित रचनाकारों को पत्रिका के साथ जोड़ने का सराहनीय प्रयास, जो यदा -कदा ही देखने को मिलती है । समकालीन कविता, शायरी, ग़ज़ल, गीत, लघुकथा, लघु कहानी, कहानी हमारा ध्यान अपनी ओर खींचने में कामयाब है । साहित्य जगत के लिए, अंतरराष्ट्रीय स्तर की यह पुस्तक, सिद्धेश्वर एवं ऋचा वर्मा जी का एक अभिनंदनीय अवदान है । 

छँद:शाला एवं भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में आयोजित कवि सम्मेलन के मंच पर, साहित्य डॉट कोरोना पुस्तक का लोकार्पण करते हुए, बिहार सरकार , राजभाषा विभाग के अ. प्रा. विशेष सचिव, एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ उपेंद्रनाथ पांडेय एवं मुख्य अतिथि दार्शनिक कवि राश दादा राश ने उपरोक्त उदगार व्यक्त किये । 

मुख्य वक्ता चर्चित गीतकार डॉ विजय गुंजन ने कहा कि भावि पीढ़ी के लिए यह ऐतिहासिक दस्तावेज है । युवा लेखिका राज प्रिया रानी ने कहा कि आज इस साहित्यिक मंच पर एक बार फिर गौरवमय पल दस्तक देने जा रहा है । साहित्य शिल्पीकारों द्वारा एक नया कालखंड जोड़ा जा रहा है । प्रतिष्ठित कवि कलाकार सिद्धेश्वर के व्यक्तित्व और कृतित्व से आज कोई भी अनभिज्ञ नहीं है । सिद्धेश्वर एवं ऋचा वर्मा द्वारा संपादित साझा संकलन साहित्य डॉट कोरोना उन भयावह दिनों को याद दिलाने आया है जो हम सब ने पल पल घुट- घुट कर बिताए थे । उन बीते दिनों के कुंठन , बेबसी त्रासदी की अलग-अलग कहानी उनके आंसू उनके बेचैन रिश्ते सब इस पुस्तक में प्रस्तुत किए गए हैं । सभी प्रतिष्ठित कलमकारों का संवेदनशील दस्तावेज लिखित पुस्तक के के रूप में हमारे पास मौजूद है । इसमें शामिल सभी कविगण, लघुकथाकारो ने उस त्रासदी में मिले अनुभव और आप बीती को शब्दों से वर्णित किया है जो ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुका है । सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई एवं साधुवाद देती हूं । 

कोरोना डॉट साहित्य की उप संपादक ऋचा वर्मा ने कहा कि कोरोना को साहित्यकारों की दृष्टि से देखने का यह एक विनम्र प्रयास है । रचनाओं की शैली की विविधताओं के बावजूद मुझे आशा है कि यह पुस्तक एक ऐतिहासिक दस्तावेज साबित होगी । क्योंकि इसकी सारी रचनाए कोरोना काल और उसके उत्पन्न परिस्थितियों का बहुत ही सटीक चित्रण करती है । 

 अपनी संपादकीय वक्तव्य में सिद्धेश्वर ने कहा कि इस सदी की सबसे भयावक काल को समझने में हमारे द्वारा संपादित इस पुस्तक की विविध रचनाएं कालजयी साबित होगी, ऐसा पूरा विश्वास है । इस पुस्तक को प्रकाशित कर हमारे दिल को तसल्ली इतनी भर है कि साहित्य के प्रदूषित वातावरण में हमने भी एक छोटा सा तुलसी का पौधा लगाकर साहित्यिक पर्यावरण संरक्षण में अपने-अपने स्तर से प्रयास किया है जो इसमें शामिल रचनाकारों के सहयोग के बिना संभव था ही नहीं । इसलिए मैं सभी रचनाकारों के प्रति भी हार्दिक आभार प्रकट करता हूं । 

 मंच पर आसीन एमके मधु, मधुरेशनारायण ने भी अपने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किये । 

 लोकार्पण के दूसरे सत्र में एक यादगार काव्य संध्या का भी आयोजन किया गया । इस कवि गोष्ठी में डॉ पूनम श्रेयसी डॉ उपेंद्र नाथ पांडेय, नंद कुमार ,, डॉ विजय गुंजन, एकलव्य केसरी, सुनील कुमार, अभिलाषा सिंह,ऋचा वर्मा, मधुरेशनारायण, सिद्धेश्वर , राज प्रिया रानी, पुष्प रंजन, दीक्षित अग्रवाल, हजारी सिंह, आदि की उपस्थिति भी महत्वपूर्ण रही । —प्रस्तुति : बीना गुप्ता ( जनसंपर्क अधिकारी ) : भारतीय युवा  साहित्यकार परिषद । / पटना बिहार/Emai । :beenasidhesh.art@gmai । .com, । संपर्क : 78701 78555


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