Abhinav Imroz May 2024




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कविताएँ

धर्मपाल महेंद्र जैन
22 फैरल एवेन्यू, टोरंटो, कनाडा
फोन 001 416 225 2415, Email : dharmtoronto@gmail.com


आकाश में

स्कायलाइन से 

सिमटता हुआ शहर देखते हुए 

बहुत-सी चीज़े ग़ायब हो गई हैं- 

मसलन विदा में नम 

तुम्हारी सायास मुस्कुरातीं आँखें । 

हमारी ख़ामोशी को 

गर्म कॉफी परोसती बिंदास लड़की । 

बेसुरे हॉर्न सुन-सुन कर 

बेहोश हो रही सड़क । 

यहाँ सहयात्रियों से बात करने की 

मनाही नहीं है पर 

आदमी से बात करने के लिए

आदमी के पास बचा ही क्या है!

और मेरा पड़ोसी वैसे भी संदिग्ध है 

क़िताब पीछे से आगे पलट रहा है । 

मैं सोचता हूँ 

यह आकाश इतना ख़ाली क्यों है 

भूमाफ़िया क्या सोचते होंगे 

इतनी ख़ाली ज़गह के बारे में । 

एयर कैनेडा का कैप्टन 

शब्दों को आधा खाते हुए 

इतनी ज़ल्दबाजी में बोलता है 

कि उसे ही शायद समझ आता हो । 

आकाश में कितना ही उड़ लें हम 

मन में धरती ही बसी होती है । 


समझ

बढ़ता वृत, फैलती परिधि लगातार 

सब ठीक ही तो चल रहा था । 

कुछ मनचले आये 

अचानक ग़ायब हो गया केंद्र

वे नहीं समझते थे त्रिज्या

उन्हें बड़ी लकीरों को 

छोटा बनाना आता था । 

वे कटते-काटते रहे

संकीर्ण होते देश को समझते रहे 

विकासगामी और विशाल!

भयावह सच

खुली आँखों से 

वीभत्स सपने देखते दिन 

बहुत लंबे हो गए । 

यह कैसा सपना है!

सायरन का तीखा आलाप 

थमता ही नहीं कि 

मिसाइलें बरसने लगती हैं 

शून्य में उठती हैं लपटें 

नीली लपट, 

लाल-लाल चिनगारियों के साथ 

बस सिर्फ धुआँ काला होता है । 

तेज़ी से आते हुए ग्रेनेड को 

धरती पर गिरने से पहले

पकड़ना चाहता था वह बच्चा । 

बच्चे को चीख़ बनते देख 

धरती फटने के सिवाय 

और क्या कर सकती थी! 

ग़ुबार में कहीं ठिठका बच्चा

जिंदा जलकर यहाँ गिरा है । 

क्षण-क्षण नष्ट होती सृष्टि 

उजाड़-सी लगती है । 

सच कितना भयावह है । 

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कविता



आरती स्मिथ
दिल्ली, मो. 83768 36119


रो रहा है बरगद

जब जब गुज़रती है हवा

छूकर मुझे

पूछता है बरगद

तुम्हारी ख़ैर ख़बर 


पूछता है

क्यों बिछ गई है

स्याह चादर

गुलाबी आँखों पर?


क्यों भूल गया है 

समय मुस्कुराना?


पूछता है

उन पलों की गवाही का मतलब

...

और

ठिठके मौन की सिसकी सुन

रो पड़ता है धार- धार

हैरां है आसमान

हैरां हैं

उड़ते फिरते परिंदे

हैरां हैं

वे फल

वे पत्ते

जो शाख पर अब तक हैं बचे हुए

इंतज़ार की गवाही देने के लिए


क्या पता

कल जब तुम यहाँ से गुज़रो

तो

एक बार फिर सिसके बरगद

शून्य में टंगे इंतज़ार की

अंतहीन विवशता पर

उन पलों की त्रासदी पर

जो सुख बुनते बुनते

दुख और पीड़ा के पर्याय बन गए


रो रहा है

बरगद

सुखद पलों की त्रासद परिणति पर

और....

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कविता

रश्मि रमानी
इंदौर, मो. 9827261567



यातना

एक लड़का पढ़ रहा है

इतिहास की किताब

और

हैरान हो रहा है यह जानकर कि 

चंद मूर्खताओं और अहं की कुछ टकराहटों के चलते

मिट्टी में मिल गईं अनगिनत जानें बेवजह

वह चकित है यह सोचकर 

कि क्या अपने ही भाई मारकर

सुनी जा सकती हे जय-जयकार

जनता जनार्दन की ?


क्या अनगिनत छल-कपट करने पर भी 

कोई नहीं कहता कुछ 

अपनी आत्मा तक सो जाती है गहरी नींद


जिंदगी की ज़रूरतों और वक्त की 

अफरा-तफरी ने 

लड़के को पकड़ा दी है बन्दूक 

अब मोर्चे पर खड़ा है एक सैनिक 

तैयार है वह गोली दागने को

और याद है उसे सिर्फ़ इतना 

कि बस दुश्मन की जान लेना है

फिर चाहे वह अपने जैसा इंसान ही क्यों न हो । 


कभी-कभी उसे महसूस होता है

मौत यहीं-कहीं है

कई बार तो बिल्कुल सामने 

और यह चौंक पड़ता है 

सिर्फ़ एक पत्ते की सरसराहट भर से


सैनिक जानता है कि

जब फटेंगे गोले

और बिखर जाएगा तेज़ प्रकाश

तो कभी याद नहीं आएगा

धूप का वह रोशन टुकड़ा 

जो आँगन में चला आता था

दोस्त की तरह अपना घर समझकर


कभी-कभी फौजी याद करते हैं

उन घटनाओं, दुर्घटनाओं और इत्तेफाकों को 

जो घटते हैं उनकी ज़िन्दगी में

अनायास, अचानक

तब वे महसूस करते हैं

जिन्दगी मौत के कितने पास 

या

फतह कितनी दूर थी

युद्ध ने कैसे बदरंग कर दी थी 

सारी कल्पनाएँ 

मिटा दी थी तमाम उम्मीदें


आधी रात के सन्नाटे को चीरते सायरन के शोर

और 

हवाई जहाज़ों की गड़गड़ाहट में 

गुम हो गई थी उनकी प्रार्थनाएँ 

धूल भरी आँधियों से जूझना 

और खून से लिथड़ी बर्फ को देखना 

किसी बुरे दिन की यातना से कम नहीं 

और हर सैनिक को गुज़रना ही होता है 

इस यातना से 

कभी-कभी एक बार 

तो कई बार 

बार-बार । 


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कहानी

आशुतोष आशु ‘निःशब्द’
गुलेर, काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश, मो. 94180 49070

चुनाव 

“भाया बड़े मिलनसार हैं । मृदुभाषी, सद्गुणों की खान हैं…”, रामलुभाया खुश था आज । 

छह महीने पहले की बात है । रामलुभाया ने छोरी का ब्याह ले रखा था । पैसे-लत्ते की कमी थी, सो किसी ने सलाह दी - ‘माल रोड की बगल में एक पुराना बंगला है । विधायक सा’ब घर है उहाँ । वहाँ कुछ फ़रियाद करो । देखो दस-पाँच हजार की कुछ इमदाद हो जाए । ’ 

तब से रामलुभाया कोठी के तीन चक्कर लगा आया था । बात बनती न बनी । 

पहली दफे जब जब गया… तब कुत्ते ने भौंक कर भगा दिया । बीवी की संदूकची से निकाल कर एक गमछा ले गया था । साहेब के सामने नंगे सिर जाना उनका अपमान होगा । सोचा तो यही था । मगर कौन जानता था कि उसके सिर यूँ बीतेगी कि कुत्ते से बचकर भागने की जद्दोजहद में करमजली का गमछा भी भेंट चढ़ जावेगा । 

विधायक के घर से सौ मीटर दूर खड़े तीनसौ साल पुराने बरगद की ओट में खड़े रहकर रामलुभाया ने कुत्ते को गमछा तार-तार करते देखा । 

‘कीड़े पड़ें नासपिटे के’, इत्तीभर गाली देकर भीगी आँखों से रामलुभाया किसी तरह प्राण बचाकर लौटा । ‘जान बची सो लाखों पाय’, यही सोचकर लौट आया था । 

दूसरी दफे दरबान ने बाहर धकिया दिया । कुसूर केवल इतना था कि अबकी बार रामलुभाया कुत्ते से छिपता-छिपाता चोरों की तरह गेट की बगल से घुसने की फ़िराक में था । अब दरबान को थोड़ी न पता था कि पिछली दफे रामलुभाया पर क्या बीती थी । और इससे पहले कि यह गरीब कुछ बता पाने की हालत में आता, तबतक इस दफे भी बीत चुकी थी । 

‘मुई इस गरीबी का कोई खसम-गोसाईं नहीं’, यही सोचकर लंगड़ाता हुआ रामलुभाया घर लौट आया । ड्योढ़ीदार ने पीठ पर जमकर धौल जमाए थे । शराब पीकर लुगाई के ऐसे ही धौल जमाता रहा रामलुभाया । 

‘इस जीवन के दुष्कर्मों का फल इसी जनम में कटैगा’, तसल्ली मान ली कि कोई हाड़ न टूटा । पेशियों में ऐंठन है, वो भी सुबह होने तक कट जाएगी । रात को लुगड़ा पीकर सोता रहा था गरीब । 

और तीसरी दफे… ‘तीसरी दफे जो हुआ वो किसी गरीब पर न बीते’, रामलुभाया माथा पकड़े सोच में डूबा था । 

दिनभर दिहाड़ी न पड़ी थी । घर पर होनेवाले कुड़म आए थे । उस रोज वो उसे कुड़म कम, कड़म ज्यादा जान पड़े । हर बात में एक ऐसी गाँठ पिरी थी कि उनके कहे का कोई सिरा न मिलता था । बारातियों की आवभगत को लेकर उनकी मांगे सुनकर रामलुभाया के माथे बल पड़ गए । सिर चक्करघिरनी के माफ़िक गर्रर से घूम गया । कुड़मों के चले जाने पीछे उसने हिम्मत जुटाकर फिर साहेब के यहाँ जाने का मन पक्का किया । 

कुर्ते पर उसके तीन जेब । दो खाली - केवल हाथ धरने के काम कीं । ऊपर के खीसे में दस रुपये का तुड़ा-मुड़ा
नोट । खीसे में हाथ डाल टटोलकर देखा । बात बने न बने, लुगड़े का जुगाड़ हो ही जाएगा आजरात । 

तहमते की गांठ कसकर तीसरी बार जो निकला, इरादे पक्के ही थे । 

ड्योढ़ीदार ने देखते से घुड़की दी । हाथ जोड़कर विनती की - “बाबा तुम ओहदेदार हो । हम गरीबन का कौन माई-बाप? दो बार आस टूटी है । बिटिया का ब्याह सर पर है । बड़े-बूढ़ों की सलाह पर विधायक साहेब से मिलना चाहिता हूँ । एक बार अंदर का ठौर दिखा देयो मायबाप । ” घुटनों के बल बैठकर रामलुभाया ने दरबान के पैरों पर माथा टेक दिया । 

आत्मा ने बहुत कचोटा उस रोज । बामन जात होकर दर-दर माथा टेकने पर मजबूर रामलुभाया । पितर देखते होंगे तो लाख लानतें भेजते होंगे । भले समय बरदेसरी संभाल ली होती तो यह दिन देखना न पड़ता, मगर… ‘होइ है सोइ जो राम रची राखा । ’

पैरों में गिरे रामलुभाया के ऊपरी खीसे पर दरबान की नजर पड़ी । खीसे से पकड़कर ही उसने रामलुभाया को ऊपर उठा लिया । 

चर्रर्र की आवाज़ से खीसे की उधड़न सुनाई दे गयी । दोनों हाथों से बायीं ओर की छाती संभालते हुए उसने दिल की अनगिनत तंदें उधड़ती महसूस कर लीं । 

दस का नोट दरबान के हाथ से ऐसे चिपका, मानो मुआ नोट पैदा ही उसके हाथ लकीरों में हुआ था । कुत्ते की तरह एक टांग उठाकर पिछवाड़े पर लात हनते हुए मरे काठ की चरचराहट भरी उसकी आवाज़ रामलुभाया के कानों में पड़ी - “जा मर!” 

लात का जोर खाकर रामलुभाया के क़दमों ने उसे तीन-चार कदम आगे धकेल दिया । गनीमत रही कि इस बार वह गेट के इस पार आकर गिरा था, उस पार नहीं । सिके हुए पिछवाड़े को पसीने से ठंडे पड़े हाथों से सहलाते हुए रामलुभाया ने रीढ़ सीधी की । सामने आलीशान पुराने जमाने का महल खड़ा था । 

साहेब बरामदे में टांग पर टांग चढ़ाए चा-पत्ती के बागानों से हुई कमाई का हिसाब देख रहे थे । मुन्शी बरामदे के सिर पर खड़ी बौहड़ के पैंदे में अड़ी एक थम्मी को टेक लगाए किसी को चारों खाने चित्त कर देने वाली भाषा में नसीहत सुना रहा था - “बेटी तुम जने थे या साहेब?” सामने मिर्चू हलवाई खड़ा था । 

‘हलवाई तो बस नाम का ही रह गया है, दिहाड़ी लगाता है । थोड़ी-बहुत जमीन थी । सब्जी-तरकारी उगाकर कुछ गुजर-बसर कर रहा था; तीन मरले में होता ही क्या है ! पिछली बरसात में उसे भी लाला के यहाँ गहन देकर बिटिया का ब्याह रचाया था । अब लाला पैसे लेकर भी जमीन छोड़ने को राजी नहीं । साहेब के यहाँ गुहार लगाने आया होगा’, रामलुभाया सोच रहा था । इतने में फिर से कर्कश बकैती ने जिगर में जहर घोल दिया - 

“बिटिया तुम ब्याहो और जमीन छुड़ावें साहेब? ई कौन सी नयी इमरती तलने आए हो हलवाई जी?”

साहेब ने खंगारा देकर मुन्शी को चुप कराया । मगर मुंशी के शब्दों ने रामलुभाया के जिगर में सुईसाड़ घुसेड़
दिया । 

बिना गुहार लगाए, मन मसोस कर पंडित जी अपना-सा मुंह लेकर चुपचाप घर लौट आए । कुछ गैरत सचमुच बाकी थी शायद; या फिर पिछवाड़े पर पड़ी लात ने रीढ़ सीधी कर दी थी… अपने मन की केवल रामलुभाया जानता था । 

‘जैसे-तैसे बिटिया ब्याह लेगा, मगर किसी का एहसान मत्थे न लेगा’, रामलुभाया अपनी धुन का पक्का निकला । 

ठाठ से न सही, मगर बिटिया ब्याह लगाई । धाम में लूण-मिर्च की कमी खूब खली । पर क्या फर्क पड़ता है जी - ‘लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात / दुल्हा-दुल्हन मिल गए, फीकी पड़ी बारात’, संत कबीर चोखी बात बोल गए, यही सोचकर रामलुभाया ने मन पक्का किया था - ‘मिहणे मारने वालों को भी तो कछु काम चाहि न!’ 

आज इलेक्शन की रैली थी । हलके के विधायक फिर चुनावों में आ खड़े हैं । रामलुभाया ने साहेब के किस्से सुन रखे थे । 

कोट की जेबों में नोटों की गड्डियां दबा कर चलते हैं । लेक्सन में ब्याह-शादी आ जावे तो बिटिया जनने वाला सुअर्ग का अधिकारी हो जाता है । साहेब राशन-पानी की कमी नहीं रहने देते । 

रामलुभाया ने ईश्वर को मत्था टेका - ‘अपनी बिटिया टैम रहते ब्याह दी । वर्ना आज आत्मा पर दूसरी चोट हो जाती । एहसान में जमीर बिक जाए, वोट नहीं बिकना चाहिए । वोट बिके तो देश का बेड़ा गर्क हो जाता है । 

‘एक-अकेले की तो जैसे-तैसे कट जाई, पूरा देश नर्क में नहीं झोंका जा सकता । ’ 

सामने साहेब हाथ बांधे खड़े थे - “क्यों रे रामलुभाया, उस रोज बिन बोले ही कोठी से मुड़ आया था रे तू । देख आज मैं तेरे पास खुद चलकर आया हूँ”, कहते हुए उन्होंने कोट की अंदरूनी जेब में हाथ डाला । पांच-पांचसौ से के दो कड़क नोट निकले । 

“कभी कोई तकलीफ हो तो मुझे बताना”, कहते हुए साहेब ने रामलुभाया की हथेली पर नोट धरते हुए उसके हाथ बांध दिए । 

रामलुभाया ने साहेब की पीठ देखी । 

“भाया बड़े मिलनसार हैं । मृदुभाषी, सद्गुणों की खान । ” रामलुभाया खुश था आज । महीने भर के लुगड़े का जुगाड़ हो गया । 

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संस्मरण

डॉ. बानो सरताज
यवतमाल (महाराष्ट्र). मो. 9423418497


श्रीपत राय : मेरे भाई साहब !

1966-67 में उर्दू में मुख्तसर अफसाने लिखने से मेरे लेखन का आरंभ हुआ । एक दो अफसाने हैदराबाद की पत्रिका 'सबा' में प्रकाशित हुए | उन दिनों उर्दू के प्रसिद्ध अफ़साना- निगार इक़बाल मतीन साहब 'सबा' का अफसानवी हिस्सा देखते थे । उन्होंने मेरे अफ़सानों की नोक-पलक दुरुस्त करके प्रकाशित किया तथा समय-समय पर मेरा मार्गदर्शन किया । 

मैं ने हिन्दी में एम.ए किया और बड़े शौक (शान) से नाम के आगे जोड़ लिया । एक तो तब नाम ही लंबा-चौड़ा    था । उस पर आगे एम. ए (हिन्दी) भी जुड़ गया । इक़बाल मतीन साहब ने मीठी डांट पिलाई, 'यह भी कोई नाम है? सरताज बानो शबनम, एम.ए (हिन्दी), नाम मुख्तसर हो तो अच्छा लगता है । एतराज़ न हो तो 'बानो सरताज' कर लो... । और हां, क्या मेरी एक दो कहानियों का हिन्दी में अनुवाद कर दोगी ? "

बानो सरताज तो मैं आसानी से बन गई पर हिन्दी में अनुवाद! टेढ़ी खीर थी । मैं अपने आप को इस योग्य नहीं समझती थी । यों तो क़लम हाथ में 13-14 वर्ष की आयु में ही ले लिया था पर आत्मविश्वास की कमी थी । मैं हिन्दी की दीवानी थी फिर यह वो ज़माना था जब एम.ए. करने वाले विषय को थोड़ा बहुत जान ही लेते थे, भाषा की बारीकियों को भी समझ लेते थे । मरता क्या न करता? मैं ने हामी भर ली । बहुत संभल और पर्याप्त (बल्कि कुछ अधिक) समय लेकर उनकी एक कहानी को हिन्दी का जामा पहना दिया । 

श्रीपत राय जी उन दिनों कहानी निकाल रहे थे । इक़बाल मतीन ने कहानी उन्हें भेज दी, उन्होंने छाप दी । इकबाल मतीन ने मुझे एक और कहानी भेजी, मैंने अनुवाद किया, श्रीपत राय जी ने कहानी में स्थान दिया । इकबाल मतीन साहब ने एक और ....................

और फिर मेरे जीवन का वह हसीन दिन आया जब मुझे श्रीपत राय जी का पत्र प्राप्त हुआ । कुछ ऐसा संबोधन, कुछ ऐसे वाक्य कि मेरे संपूर्ण शरीर में सिहरन दौड़ गई, मैं भावुक होकर रो पड़ी । पति देव ने घबरा कर मेरे हाथ से पत्र ले लिया कि पता नहीं किस ने क्या लिख दिया ? दर-अस्ल उन दिनों मेरी यह हालत थी कि किसी अफसाने की कोई राई भर भी प्रशंसा करता तो महीना भर इतराती फिरती और कोई छोटी सी भी गलती निकालता तो दो महीनां कुढ़ती रहती । 200 नहीं तो 20 बार कहानियां लिखना छोड़ देने का निश्चय करती । पतिदेव ने पत्र पढ़ा और बोले- अजीब लड़की हो ! यह रोने वाली बात है?' मैंने फ़ौरन कहा, "नहीं यह तो मेरे लेखकीय जीवन की पहली सौगात है । ' और ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी । 

क्या लिखा था श्रीपत राय जी ने? बस इतना ही इक़बाल मतीन की कहानियां छाप रहा हूँ । तुम्हारी हिन्दी बहुत अच्छी है । तुम हिन्दी में क्यों नहीं लिखती बानो?"

इधर श्रीपत राय जी ने मुझे हिन्दी में खींच लिया उधर इक़बाल मतीन उन्हें इलज़ाम देते रह गए- पर श्रीपत राय जी जब दिशा-निर्देश करने पर तैयार थे तो मेरा रुकना क्या वाजिब होता ?

'लावारिस' पहली कहानी थी जो मैं ने कहानी के लिए भेजी । पोस्ट करने के बाद मूर्खों की भांति दूसरे दिन से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी । पतिदेव मेरी दशा देख क हंसते थे । अन्तत: पत्र आया, संक्षिप्त हतोत्साहित करने वाला कहानी मिली, पढ़ ली । काफी कुछ इसलाह की ज़रूरत है । अभी व्यस्त हूं । समय मिलने पर फिर पढ़ूंगा । ' मेरा सारा उत्साह झाग की तरह बैठ गया । बार-बार कहानी पढ़ती और ढूंढती कि इस में कहां ग़लती है ? श्रीपत राय जी कहां इसलाह देंगे? भाई साहब ने मुझे तो दो चार पंक्तियां लिखी । इकबाल मतीन साहब के पत्र में मेरी कहानी की प्रशंसा की और उन्होंने मुझे लिखा, श्रीपत राय जी ने लिखा है, बानो ने मुझे एक बहुत अच्छी कहानी भेजी हैं ला-वारिस' । पढ़ने-पढ़ते मेरे आंसू निकल आए. फिर मुझे उन का प्राप्त हुआ....... पत्र

कहानी

[हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कथा - पत्रिका ]

संपादकीय कार्यालय

२/४३, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002

11-04-1965


प्रिय बनो,

30-02-1965 का पत्र मिल गया था । दुबारा पढ़ने पर कहानी में ज्यादा इसलाह की गुंजाइश या जरूरत नहीं दिखायी थी । इस लिए मैं ज्यादा कुछ किया नहीं । अगले माह नामे में कहानी शाया कर रहा हूँ । 

तुम्हारा एक और खत मेरे पास इलाहबाद से redirect होकर आया है । ममता कालिया को पता है: c/o इलाहाबाद प्रेस, रानी मंडी, इलाहाबाद - ३ । इनको लिखकर इजाज़त हासिल कर सकती हो । चाहो तो मेरा हवाला दे सकती हो । 

राम मेरे लड़के की मानिंद मेरे साथ यहीं रहता है । उसकी कहानी के अनुवाद की अनुमति मैं दे रहा हूँ । उसको मैंने तुम्हारा खत दिखा दिया था । उम्मीद है बख़ैर हों दुआयों, 

श्रीपत राय 

दूसरी कहानी जो मैं ने भेजी वह थी 'उजड़ी कोख का बोझ' । तब तक मेरे संबोधन 'भाई साहब' को स्वीकार कर उन्होंने मुझे अपनी बहन बना लिया था । कभी बहन कहते कभी बेटी । आग्रह कर के मुझ से राखी मंगवाते फिर मनीऑडर से साड़ी के लिए राशि भेजते । लेखन-संबंधी मेरा मार्गदर्शन करते । यह कहानी भी उन्हें पसंद आई । पत्र में लिखा:

कहानी

[हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कथा - पत्रिका ]

संपादकीय कार्यालय

2/43, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002


प्रिय बानो,

राखी के लिए मैं कितना ममनून हूँ यह लफ़्ज़ों में नहीं बता सकता । मौत के क़रीब पहुँचते-पहुँचते इन्सान भाई बहन, बेटा, बेटी, पोता-पोती सबके लिए इतना लालायित क्यों हो जाता है यह मैं नहीं जानता । मेरी कोई छोटी बहन नहीं है तो तुमने वह जगह लेकर मेरे दिल में कितनी बड़ी जगह बना ली है, जानती हो ? मैं भी कहाँ की भावुकता में जा फँसा ? तुम अज़ीज़ हो, इतना काफ़ी नहीं है?

मेरा अपना परिवार बहुत बड़ा है । मैं सारे परिवार का बुजुर्ग और सरपरस्त हूँ । तुम्हें उस बड़े परिवार में शामिल परिवार करके बड़ी खुशी हो रही है । 

तुम्हारी कहानी ‘उजड़ी कोख का बोल’’ मुझे अच्छी लगी - कहीं इसलिए तो नहीं कि तुम्हारे अंदर अपनी छोटी बहन की शबीह देख रहा हूँ । अपने एक खत में तुमने कुछ इसी किस्म की शंका का इज़हार किया था मैं कमज़ोर इन्सान हूँ लेकिन बददयानत नहीं हूँ । इस कहानी को छाप रहा हूँ । बस अफ़सोस यह है कि जब तुम्हें चमकाने का वक़्त आया तब ‘कहानी’ को बंद करना पड़ रहा है । इसे अपनी बदनसीबी के सिवा और क्या कहूँ । 

ज़िन्दगी कहीं तो ख़त्म होती है । तो फिर यह मुकाम ही क्यों नहीं ? बक़ै़दे हयात हूँ भगवान से प्रार्थना है कि तुम्हारी रक्षा कुछ दिन और कर सकूँ । राखी की लाज रख सकूँ । 

दुआयों, 

भाई साहब

और हाँ, छोटी बहन नाचीज़ नहीं होती । 

भाई साहब मुझे लिखते, दिल्ली आकर मुझ से मिलो । मेरी हिम्मत न होती । मैं परदे वाले खानदान में पली-बढ़ी थी । पत्रों द्वारा संपादकों-लेखकों से बात कर लेती थी पर प्रत्यक्ष मिलना वह भी बाबाए-अफसाना मुंशी प्रेम चंद के सुपुत्र तथा स्वयं में एक संस्था - श्रीपत राय जी से ना बाहर ना मैं उनके सामने खड़े होने के योग्य स्वयं को न समझती थी पर धीरे-धीरे भाई साहब ने मेरे मन का संकोच दूर किया । मुझे स्वयं को नाचीज समझने से रोका । मुझ में आत्मविश्वास जगाया यहां तक कि मैं उन के सामने पहुंच गई । सामना हुआ तो मैं उन्हें देखती रह गई । वह शफीक, मुजस्सम स्नेहमूर्ति जिस ने न जाने कितनों को कहानीकार बनाया था, मुझे ज़रा भी अजनबी न लगा । मैंने अभिवादन किया तो मेरे सिर पर हाथ रख कर बोले," बानो हो तुम! तुम बिल्कुल वैसी ही हो जैसा मैं सोचता था..... छोटी सी, मोटी सी, प्यारी सी. फिर पतिदेव से बोले " नौशाह मियां! बेटी के समान मेरी छोटी बहन को मुझ से मिलाने का शुक्रिया । "

उस के बाद हम जब भी दिल्ली गए भाई साहब के घर ही क़याम किया । मेरी कहानी 'तीसरे रास्ते के मुसाफिर' मैंने उन के घर में बैठ कर लिखी थी । 'एकला चलो रें' में तो उन्होंने बहुत से परिवर्तन कराए । दोनों कहानियां धर्मयुग में प्रकाशित हुई । पहली कहानी को अचला नागर ने दूरदर्शन के लिए चुना और वह नेशनल नेटवर्क से प्रसारित हुई... श्रीपतराय जी ने जिस प्रकार मुझे कहानी लेखन की बारीकियां समझाई इस संदर्भ में मैं अपनी कहानी 'शिकार' का उल्लेख करना चाहूंगी । एक बार हम ने कश्मीर का प्रोग्राम बनाया और वापसी में दिल्ली रुकने का । भाई, साहब को सूचित भी कर दिया । पर योग कुछ ऐसा हुआ कि मुझे मुंबई की एक उर्दू काफ्रेंस का निमंत्रण मिला । हम ने जम्मू से मुंबई आरक्षण करा लिया पर मुंबई से दिल्ली का आरक्षण न मिल सका विवश होकर हम मुंबई-दिल्ली ट्रेन के जनरल डिब्बे में चढ़ गए । (विमान प्रवास करने की उस समय हमारी हैसियत नहीं थी ।) दिल्ली, भाई साहब ने मुझे रोक लिया । काज़ी साहब (मेरे पति) को वापस भेज दिया भाई साहब सबेरे प्रेस जाते तो मुझ से कह जाते । दिन भर में 10 पृष्ठ लिख कर रखना । मुंबई से दिल्ली की जनरल डिब्बे की यात्रा के अनुभवों पर मैं नें 'शिकार' कहानी लिखी । वह कहानी उन्होंने मुझ से 4 बार लिखवाई और अंत में ओ. के. करते हुए कहा," बानो, मैं तुम्हारी निरीक्षण- शक्ति का कायल हो गया । इस बार तुम ने बहुत तगड़ा शिकार किया है । "

सरस्वती प्रेस

प्रेमचन्द साहित्य के एकमात्र अधिकृत प्रामाणिक प्रकाशक व्यवस्थापक : श्रीपत राय

2/43, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002

फोन: 27272


प्रिय बानो,

पत्र मिल गया । बड़ी ख़ुशी हुई यह जान कर कि दौराने क़याम दिल्ली तुमने जो कहानी लिखी वह धर्मयुग में प्रकाशित हो गयी है । तुम्हारे अन्दर लिखने की सलाहियत तो थी ही, और है । 

मैं 27-28 जनवरी तक दिल्ली छोड़ रहा हूँ । । अब यहाँ तनो - तनहा रहना मुनासिब नहीं है । अब इलाहाबाद ज़रूर आना और मेरे साथ ही रहना । 4-6 दिन का वक़्त हाथ में लेकर आना । अपनी भावज का साथ तुम्हें हर तरह से ख़ुशगवार लगेगा । 

काज़ी साहब को दुआ

दुआयों 

भाई साहब

उर्दू के प्रभाव से मैं छोटी कहानियां लिखना पसंद करती जबकि भाई साहब मुझे लम्बी कहानियां लिखने के लिए प्रेरित करते:

नयी दिल्ली 27-12-84


प्रिय बानो,

तुम्हारा खत मिल गया था । यहाँ सब ख़ैरियत है । 10-1-85 यह ख़त शुरु किया था कि कुछ लोग आ गये । और उसके बाद इसे मुकम्मल करने की नौबत नहीं आयी । जिं़न्दगी इतनी मसरुफ और बेमानी कभी न थी । 

तुम्हारे अन्दर लिखने की सलाहियत और शरूर तो है । अगर लम्बी कहानी लिखो तो अपने जज़्बात का बेहतर इज़हार कर 

सकोगी । मेरे पास होतीं तो ज़रूर कुछ अच्छा लिखा लेता । लेकिन इतनी दूर बैठकर ज़्यादा कुछ करना मुमकिन नहीं है । 

अपना हाल तफ़सील से लिखो । उसमें से शायद कोई सूरत निकले जिसके सहारे कोई सलाह दी जा सके । 

दुआयों  

भाई साहब

फिर मैंने 'उसके लिए' कहानी लिखी । चंद्रपुर जिले के के वरोरा शहर में मैगासेसे पुरस्कार- प्राप्त बाबा आमटे का स्थापित किया 'आनन्दवन है जहां कुष्ठ - रोगियों का पुनर्वसन किया जाता है । उन्हें स्वयं रोज़गार द्वारा आदर और सम्मान से जीने का प्रशिक्षण दिया जाता है । मैं एक बार नागपुर से चंद्रपुर आ रही थी । वरोरा बस स्टैंड पर बस रुकी तो एक सज्जन चढ़े और मेरे पीछे की खाली सीट पर बैठ गए । बाहर उन की पत्नी खड़ी थीं जो एक गृहिणी और फ़िक्रमन्द मां की भूमिका को सार्थक करते हुए निर्देश दिए जा रही थीं, "मेरी अनुपस्थिति में सब का ख्याल रखना अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना । बिटिया को संभालना । बहुओं पर अधिक रोक-टोक न 

करना । चिन्टू बहुत शैतान होता जा रहा है, उस पर निगाह रखना वरना खुद को नुकसान पहुंचा लेगा ड्राईवर ने बस स्टार्ट की तो उस ने कहा, 'मिलने तो आया करोगे ना' और मेरे कान खड़े हो गए । अर्थ तक उसे एक साधारण गृहिणी समझ कर मैंने उस पर नज़र भी नहीं डाली थी पर इस वाक्य ने मुझे बे-साख्ता पलट कर देखने पर मजबूर कर दिया । वह अन्य महिलाओं से निश्चित ही कुछ अलग थी । साड़ी के आंचल, जिस से उस ने आधा चेहरा छुपा रखा था, को पकड़ीं उस की उंगलियों के पोर गायब थे । बस धक्का खाकर आगे बढ़ी और आवाज़ आई. "कभी-कभी आते रहना" । उस का वह वाक्य मेरे दिल में तराज़ू बन गया । 

न जाने उस वाक्य में क्या था जो मुझे बेचैन कर रहा था - मैं सोचती रही और इस नतीजे पर पहुंची कि उस की आवाज़ में किनारों पर सिर पटकती लहरों की बेचैनी और नैराश्य था जो यह कहता है कि हम जान गए हैं कि हम कितने भी सिर पटक लें, किनारा हमारा नहीं होने वाला । वह सज्जन उसे, आनंदवन में पहुंचाने आए थे । वह पति को विदा करने नहीं आई, पति उसे अपनी ज़िंदगी से खारिज करके जा रहा था । मैं बहुत दिनों तक इस घटना से विचलित रही फिर 'उसके लिए ' कहानी लिखी । बड़े मनोयोग से लिखी गई मेरी यह कहानी तीन पत्रिकाओं से वापस आ गई । मैंने बहुत निराश होकर भाई साहब को लिखा, " आप कहते हैं, इक़बाल मतीन साहब कहते हैं कि मेरी कहानियों--- दर्द भरे अफ़साने है वह दर्द जो इंसानियत के रिश्ते से एक दिल से दूसरे दिल में उतर जाता है....क्या दर्द, उसी को सहन करना चाहिए जिस के भाग्य में लिखा है । उस दर्द को बांटना क्या हमारा काम नहीं हैं? भाई साहब का जवाब आया:

दिल्ली


प्यारी बानों

तुम्हारे दोनों ख़त और कहानी मिली । मेरा ख़त जरूर कहीं सैर-सपाटे के लिए निकल गया था और भूल-भटक कर तुम्हारे पास पहुँच गया । चलो, पहुँचा तो सही । 

कहानी बहुत दर्दनाक है, पर अच्छी है । ऐसी कहानी आज के किसी चमक-दमक वाले पत्र में शायद ही छप सकें । इसे तो अपने पास ही रखना होगा । आज गंभीर साहित्य की बड़ी दुर्दशा है । 

उम्मीद है कि काज़ी साहब का तबादल रुक होगा । नौकरी की यही मजबूरी सबसे ज़्यादा काटती है । 

ख़त लिखना

दुआयों 

भाई साहब 


मेरी यह कहानी फिर कहीं प्रकाशित हुई या नहीं, मुझे याद नहीं । भाई साहब तो मुझे निखारने संवारने को तैयार थे पर मैं ही अपनी ज़िंदगी के बुरे दौर से गुज़र रही थी इतनी हताश इतनी निराश हो गई थी कि लेखन को गंभीरता से नहीं ले सकी । एकाध कहानी लिखती फिर महीनों क़लम कहानी लिखने के लिए हाथ में न लेती । हां कुछ मिक़ाले ( आलेख) अवश्य लिखे जिस के विषय में जान कर ' 'दोनों हाथों में लड्डू' की संज्ञा देकर भाई साहब ने मेरा उत्साह बढ़ाया:

सरस्वती प्रेस

2/43, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

दूरभाष : 271725


प्रिय बानो,

तुम्हारे दोनों पत्र मिल गये हैं । अब तो तुम्हारे दोनों हाथों में मोदक है । लेखन एक हाथ में, मक़ाला - नवी सी दूसरे में । इंसान को इससे ज़्यादा और क्या चाहिए मुझे इन्तिहाई खुशी होती है । अपने ही बच्चों को फलते-फूलते देखकर । इसी तरह तन-देही से काम में लगी रहो । दिल भी खुश रहेगा, फ़िजा भी शादाब । 

तुम्हारी भाभी पिछ‌ले माह से यहीं हैं । 14 नवंबर को सीमा को बेटी पैदा हुई । बड़ी प्यारी है । मेरे देखने में तुम्ह‌री तरह है । यह महज मेरा क़यास हो सकता है । 

काज़ी साहब आख़िर कब तक छुट्टी, लिए बैठे रहेंगे ? यह तो उन पर बुरी गुज़री । मुझे उनकी अक्सर याद आती
है । वैसा ख़ुलूस, वैसी साफगोई और साफ़बीनी बड़ी मुश्किल से मिलती है । उन्हें मेरी दुआ । 

दुआयों 

भाई साहब


जैसे सूखे हुए फूल किताबों से बरामद होकर स्मृतियों को ताज़ा कर देते हैं वैसे ही भाई साहब के बहुत से पत्र अर्थात एक शफीक भाई के बहन को लिखे पत्रों की संपदा, आज मेरे जीवन की बहुत ही मूल्यवान पूंजी है । 

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कहानी


देवी नागरानी
मुंबई, ईमेल: dnangrani@gmail.com.


बीता हुआ कल

सन्नाटे की उस शिला पर खड़ी शैली खुद हैरान, ठगी हुई सिर्फ़ शून्य को देख सकती थी । यह वही जगह थी, उसका अपना ससुराल । घर में परिवार के नाम पर थे उसके पति राहुल, उनकी माताजी रोचना देवी और वह    खुद । दो बरस बाद परिवार में खुशियाँ खिल उठीं जब घर का वंशज रोहित अपनी माँ शैली व् दादी रोचना देवी की गोद में किलकारियां भरने लगा । 

शैली अपने बेटे के लालन पालन में मुग्ध सी हो गई और यहीं उसने भूतकाल की ज़मीन पर भविष्य के बीज    बोए । वही भविष्य उसका ‘आज’ बन कर उसके सामने खड़ा है । वह खुद सोच की गहराइयों में गुम-सुम, अपने बीते हुए कल की परछाइयों से आती उन सिसकती आवाज़ों को सुन रही है । 'बहू आओ यहाँ मेरे पास आकर बैठो । लाओ रोहित मुझे दे दो । ’ दशहरे के अवसर पर पंडाल की उस भीड़ में अपने पास कुछ जगह बनाते हुए रोचना ने अपनी बहू शैली को आवाज़ दी । "मम्मी मैं यहीं पीछे खड़ी हूँ, रोहित इनके पास है । " कहकर शैली आगे बढ़ गयी और तारीकियों के साये में घिरी रोचना बहू को जाते हुए देखती रही । उसे न जाने क्यों आभास होने लगा कि वह जब भी अपनी बहू को पास लाने की कोशिश करती है, वह उतने ही वेग से उससे दूर चली जाती है । यादों की उन खाइयों में उसके साथ रह जाती हैं सिर्फ़ कुछ वेदनात्मक अहसास जो एकान्त में उसे कचोटते । उस नाज़ुक रिश्ते की चुभन को कम करने के लिए वह कुछ अनदेखे आँसू बहा लेती । 

यादों की उन खाइयों में रोचना को अपना बीता हुआ कल याद आया जब वह राजीव माथुर की पत्नी बनकर इस घर में आई । घर में परिवार के नाम पर थे उसके पति राजीव, उनकी माताजी ज्ञानेश्वरी देवी और वह खुद । सुहागरात को राजीव ने उसे घर की सम्पूर्ण जानकारी देते हुए एक जवाबदारी को बेहद विश्वास के साथ सौंपते हुए कहा –“आज से मेरी माँ तुम्हारी माँ है, और वह तुम्हारी जवाबदारी है । माँ ने पिता के बाद संघर्षों के पहाड़ों का सामना करते हुए इस समस्त परिवार की जवाबदारियों का निर्वाह करते हुए, आज मुझे और इस परिवार को सँभालते हुए इस वर्तमान में खड़ा किया है । मैं चाहता हूँ कि अब तुम उन्हें इस घर में, अपनी दिल में वह स्थान दो जो आज की पीढ़ी देने से चूक जाती है । उनका सम्मान मेरा अपना सम्मान होगा रोचना!” और रोचना ने बात को गाँठ बाँधकर अपने आचरण से माँ को स्नेह आदर का दर्जा देते हुए तन मन से उनका बढ़पन बरक़रार रखा । आज अपने अतीत के झरोखे से उन पलों की खलाओं में बस निहारती रही । 

यह दर्द भी अजीब है, अपने इज़हार के ज़रिये ढूँढ ही लेता है, वरना एकांत के इस कोहरे की घुटन में जीना मुहाल होता । "माँ हम ‘माल' जा रहे है, आप भी हमारे साथ चलिए!" सुनते ही रोचना के दिल की दहलीज़ पर आशा के दिए झिलमिलाने लगे । हर्षो-उल्लास की भावनाएँ मन ही मन में लिए वह बहू-बेटे के साथ माल पहुंची । पर वहाँ पहुँचकर शैली एक ट्रॉली लेकर दुकानों की भूल भुलैया में खो गई और साथ देने के लिये बेटा राहुल भी चला गया । काफी देर तक राह जोहती रही रोचना, पर कोई पीछे मुड़कर देखने नहीं आया । बस एक बार फिर उस शोर में वह एकल भीड़ का हिस्सा बनकर रह गयी । यह पहली बार नहीं हुआ था, पहले भी कई बार वे उसे भीड़ में यूं अकेला छोड़कर घंटों ग़ायब हो जाते । इस बार-बार के छलावे से उचाट होकर रोचना उनके आने के इंतज़ार में एक बेंच पर बैठ जाती और ख्यालों में अपनी उदासियों को झूठे दिलासों से बहलाती । उस दिन जब वह घर लौटी तो तन के साथ-साथ उसका मन भी बीमार सा हो गया । 

मन कहाँ किसी का खाली बैठता है, साथ देने के लिये सोचों के खज़ाने लुटा देता है । रोचना का मस्तिष्क भी तेज़ रफ्तार से उसके चोट खाये हुए मन की उलझनों से जुड़ा रहता । उसे पता ही नहीं पड़ा कि वह उन उलझी हुई सोचों की सेज पर कब सो गई । जब आँख खुली तो एक शफ़ाक़ सोच उसके साथ थी । अब उसे बाहर जाने की बजाय घर की तन्हाई में पड़े रहना ज़्यादा गवारा लगा । जब कभी भी बेटा आकर साथ चलने के लिये कहता तो वह साथ न जाने का कोई न कोई बहाना बताकर घर में रह जाती । कम से कम अनचाही चोट के आघात से तो बची रहती । 

"माँ कभी हमारे साथ भी बाहर चला करो, हमेशा घर में बैठी रहती हो । " एक दिन बेटे राहुल ने आकर कहा । जवाब में रोचना का फिर एक नया बहाना दोहराया । अब शैली को अहसास हुआ जा रहा था कि उसकी सास जो उसकी हाँ में हाँ मिलाने के लिए हमेशा आतुर रहती थी, जाने किस कारण बहुत कहने पर भी उनके साथ कहीं आती जाती नहीं । 

एक दिन शैली ख़ुद सास के पास जाकर उनको साथ चलने के लिए अनुरोध करने लगी । लेकिन रोचना का मन अब एकांत में ठहराव पाने लगा था । वह मन की भावनाओं में हलचल के उतार-चढ़ाव से किनारा करने की आदी होने लगी थी । इसलिए शैली की ओर देखते हुए शांत स्वर में कहने लगी- 

"नहीं बेटे तुम और राहुल दोनों हो आओ । मैं तुम दोनो के पीछे चलते-चलते बहुत थक जाती हूँ । " सूनी आँखो से अपने बेटे राहुल, जो उसी वक़्त आकर शैली के पीछे खड़ा, उसकी ओर निहारते हुए कहा । रोचना को ऐसे लगा जैसे वह अपने आप से बात करती रही, ख़ुद कहती रही, ख़ुद सुनती रही । “माँ चलिये न!” अब राहुल ने शैली के सुर में सुर मिलाया । "बेटे न जाने क्यूँ इस चार दीवारी में मुझे सुकून सा मिलता है । " और अपनी सोच की भीड़ में गुम सुम रोचना अपने आप सिमटती चली गई । शायद वह बखूबी जान गई थी कि बाहर की भीड़ में अकेली पड़ जाने से घर में अकेला रहना बेहतर है । 

सपनों का भव्य भवन पलकों में सजाये रखने की हद तक तो सब ठीक है, खुली आंखें सिर्फ टूटे हुए सपनों के बोझ को ढोती है । इन टूटे हुए सपनों के दर्द से खुद को बचा पाना, उस अन्तःहीन पीढ़ा से गुज़रना मुश्किल है । 

ज़िन्दगी नामुराद ही सही, पर हर किसी को दुबारा मौका देती है । ये अलग बात है कि कोई पदचाप सुन लेता है तो कोई दस्तक भी नहीं सुनता । लेकिन अब उन अनकहे शब्दों की गूँज शैली के दिल पर दस्तकदेती रही । वह इतनी भी नासमझ नहीं थी, जो बात की गहराई में लिपटे नंगे सच को न जान पाती । अपने आचरण की उपज के बोए बीजों के कोंपल देख रही थी, अपने नादान रवैये की उपज को देख रही थी, जो लहलहाने की बजाय, सूखकर, मुरझाकर, कुम्हला रही थी । ये भाव नागफनियों की तरह उसकी आँखों में, उसके ज़ेहन में उग रहे थे । अब वह जब कभी भी अपने पति और नन्हे बचे के साथ शॉपिंग माल में जाती, तो उसका मन उसे इस क़दर कचोटता कि वह उस डंक से खुद को बचा न पाती । अपनी ही सोच के तानों से बुने हुए जाल में वह फंसती जा रही थी । उसे आभास होने लगा जैसे उसकी सास रोचना अब उसकी आवाज़ सुनती ही नहीं या सुनना नहीं चाहती । उसके मन के चक्रव्यूह में घुसना शैली के लिये मुश्किल हुआ जा रहा था ।  

एक दिन रोचना ने एक थैले में कपड़े और ज़रूरत का सामान रखते हुए शैली से कहा- "बहू आज मैं अपनी सहेली कान्ता के घर कीर्तन के लिए जा रही हूँ, दो दिन उसके पास रहकर लौटूँगी." 

शैली ने खाली नज़रों से उनकी ओर देखा पर उसके कुछ कहने के पहले रोचना ने अपने कपड़ों का थैला उठाया और थके हारे क़दमो से घर के बाहर जाने लगी । शैली को लगा जैसे वह अपना भविष्य दरवाज़े से बाहर जाता हुआ देख रही है । अपने मन में मची हलचल के उत्तर चदाव भी वह महसूस कर रही थी । समय के परिवर्तन के साथ जीवन मूल्यों में जो बदलाव आया उसका असली स्वरुप उसके सामने था । काल चक्र शायद इसी को कहते हैं, जहाँ कुछ पुराना मिटता है वहीँ कुछ नया पनपता है । यह सब परिवर्तन का एक हिस्सा है । अगर इन्सान अपने बड़ों में अपना भविष्य देखे तो शायद बेहतर समाज के निर्माण में कोई एक नयी ईंट लगे । सहरा की तपती चट्टान पर गर आज का वृद्ध बैठा हुआ है तो सच मानिये, जवानों के गुलशन का रास्ता भी कल इसी सहरा से होता हुआ गुजरेगा । गुज़रा हुआ कल 'आज' बनकर हमारे सामने अगर खड़ा है तो वही आज जब आनेवाले बीते हुए कल में तब्दील होगा तो इतिहास खुद को दोहराएगा । अपनी सोच के चक्रव्यूह से जैसे शैली अचानक जाग उठी । 

"माँ रुकिए, में आपको कार में छोड़कर आती हूँ । " अधखुले अधर कहकर भी कह न पाये । उसकी धीमी आवाज़ रोचना के कानों तक न पहुँच पाई । इस एकाकी दुख ने उसके कलेजे में खलल पैदा कर दिया, जहां घुटन के सिवा कुछ न था । उस घुटन का धुआँ धीरे धीरे उसके अस्तित्व को घेरता रहा । धुंध के इस चक्रव्यूह को वह तोड़ना चाहती थी । पर रोचना ने अपने आपको इस क़दर शांत और एकाकी माहौल में ढाल लिया था कि उसे परिवार की हलचल में भी सन्नाटा लगने लगा । उसे तन्हाई से लगाव हो गया था और वह अकेले रहने के मौक़े को तलाशती, बहू से दूर, अपने बेटे से भी दूर, जहाँ उसकी आँखे कभी उनमें अपनेपन की आस न टटोले, जो उसे कहीं भी, किसी भी जगह अकेला छोड़कर चले जाने की हिमाकत कर सकते हैं । 

यह सिलसिला कई महीने चलता रहा । रोचना आए दिन अकेली कभी कीर्तन में चली जाती, कभी बाहर बगीचे में घंटो जा बैठती और कुदरत की सुंदरता की अनुपम छवि के साथ घुलमिल जाती । अब शैली को सास का इस तरह घर में होकर भी न होना खलने लगा । उसकी गैर मौजूदगी और भी ज़्यादा खलने लगी । उसे अहसास हुआ कि वह सास को कभी भी अपनी माँ समझ नहीं पाई । यही सोच शायद दूरियां बढ़ाने में मददगार हुईं । हालांकि रोचना हमेशा घर के काम में, रसोई में उसका हाथ बंटाया करती, गैर मौजूदगी में खाना बनाकर रखती । काम वह अब भी करती रही और हो जाने पर अपने कमरे में अकेली पड़ी रहती । घर में इन्सान हो और न हो, कोई आस-पास हो और न हो, तो कैसा महसूस होता है? शैली को इस बात का पूरी तरह आभास हुआ । अपनी नदानियों का नतीजा सामने सर उठाकर उसका मुंह चिढ़ा रहा था । 

एक दिन अचानक वह अपनी सास रोचना के कमरे में चली गई, जो उस वक़्त कीर्तन पर जाने की तैयारी में लगी हुई थी । "माँ आज मैं भी आप के साथ कीर्तन में चलूंगी । " 

और रोचना उसकी नम आवाज़ सुनकर चौंकी । सर उठाकर उपर देखा, शैली का पूरा अस्तित्व भीगा भीगा सा
था । वह चुनरी के कोने को लपेटते हुए जवाब की प्रतीक्षा में खड़ी रही । कुछ सोचकर रोचना ने कहा ‘अच्छा बहू, मुझे रोहित के कपड़े ला दो, मैं उसे तैयार करती हूँ और तुम जाकर जल्दी तैयार हो आओ । समय हो गया है । ’ 

कीर्तन स्थान पर पहुंच कर रोचना ने एक उचित स्थान ग्रहण किया तो बिल्कुल पास में ही शैली भी बैठ गयी । अपने बेटे रोहित को सास के पास बिठाने की कोशिश की तो रोचना ने झट से पोते को बाहों में लेकर अपनी गोद में बिठा लिया । 

शून्य का अर्थ वही जानता है जो उसके सही स्थान का मूल्यांकन कर पाता है । फिर तो एक अनकही, अनसुलझी उलझन ने जैसे निशब्दता में खुशगवार समाधान पा लिया । 

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धर्मा फॉर लाइफ ने जैन साहित्य और समाज में महान भारतीय महिलाओं के योगदान का उत्सव मनाया

6 अप्रैल, 2024 की सुनहरी दोपहर में, ट्यूलिप फाउंडेशन की इकाई, धर्मा फॉर लाइफ, बौद्धिक प्रवचन और उत्सव का केंद्र बन गई । "नारीत्व का विकास" पर पैनल चर्चा में शिक्षा, भारतीय अडमिंस्ट्रेटिव सर्विस, चिकित्सा और सहस्राब्दी संस्कृति के विविध दृष्टिकोण शामिल थे । आज के समाज में नारीत्व की यात्रा के बारे में एक विचारोत्तेजक संवाद में पैनलिस्ट्स में डॉ. रेखा जैन (डीयू से पूर्व अर्थशास्त्र प्रोफेसर), श्रीमती धीरा खंडेलवाल (पूर्व आईएएस), डॉ. शालिनी जैन (स्त्री रोग विशेषज्ञ), श्रीमती दिव्यांशी जैन डागर (मिलेनियल और विचारक), और डॉ. मेधावी जैन (संस्थापक, धर्मा फॉर लाइफ) शामिल थीं । 

डॉ. रेखा जैन ने सती अनुसूया, सुकन्या, मंडन मिश्र की पत्नी उभया भारती जैसे ऐतिहासिक उदाहरणों के साथ-साथ व्यक्तिगत कहानियों के माध्यम से 'स्त्री शक्ति' के विभिन्न प्रकारों को खूबसूरती से समझाया । श्रीमती खंडेलवाल ने एक महिला के जीवन के चार स्तंभों पर गहराई से चर्चा की: करियर, रिश्ते, आत्म-प्रेम और वित्तीय स्वतंत्रता । डॉ. शालिनी जैन ने संतुलित नारीवाद की वकालत के साथ साथ विवाह, मातृत्व, पोषण, शाकाहार, टीकाकरण और समग्र प्रथाओं पर प्रकाश डालते हुए ब्राह्मी और सुंदरी जैसी ऐतिहासिक हस्तियों के बारे में विस्तार से बताया । श्रीमती दिव्यांशी जैन डागर ने नारीवाद की परिभाषा का विस्तार करते हुए इसमें पुरुषों द्वारा सामना किए गए संघर्षों और भावनात्मक कल्याण को प्राथमिकता दी और विचार, भाषण, अभिव्यक्ति और आत्म-पहचान की स्वतंत्रता पर जोर दिया । डॉ. मेधावी जैन ने सृजन, विनाश और महिलाओं के जीवन साथी चुनने के अधिकार जैसी अवधारणाओं पर प्रकाश डालते हुए दुर्गा स्तुति से पांच शिक्षाएं साझा कीं । नारी स्वतंत्रता पर उनकी हृदयस्पर्शी कविताएँ और उनके भाव अत्यंत प्रेरणादायक थे । 'धर्मपत्नी' के शाब्दिक अर्थ की खोज के साथ-साथ उन्होंने जैन दर्शन में 'स्त्री मोक्ष' के विषय पर भी विचार किया । दूसरे सत्र के बाद इंटरैक्टिव प्रश्नोत्तरी हुई, जिसमें उपस्थित लोगों को पैनलिस्टों के साथ जुड़ने, स्पष्टीकरण मांगने और विचार साझा करने का मौका मिला । 

कार्यक्रम प्रतिष्ठित लेखिका श्रीमती वंदना यादव की समापन टिप्पणियों के साथ एक उच्च नोट पर संपन्न
हुआ । उन्होंने दिन भर की चर्चाओं का कुशलतापूर्वक सारांश प्रस्तुत किया । कार्यक्रम का समापन स्वादिष्ट सात्विक जैन रात्रिभोज के साथ हुआ, जिससे उपस्थित लोगों को आरामदायक सेटिंग में अपनी बातचीत जारी रखने का मौका मिला । 

इंटरनेशनल स्कूल फॉर जैन स्टडीज के संस्थापक डॉ. शुगन चंद जैन और डॉ. जय कुमार उपाध्याय जी जैसे वरिष्ठ विद्वान इस अवसर पर उपस्थित थे । धर्मा फॉर लाइफ के प्रयास को आशीर्वाद देने के लिए सभ्या प्रकाशन के संस्थापक मानद श्री देवेन्द्र बहल भी उपस्थित थे । 

व्याख्यान और पैनल चर्चा न केवल दिलचस्प थी बल्कि आकर्षक भी थी । अनेक उत्साहपूर्ण चर्चाएँ हुईं । उपस्थित लोगों को अपने प्रभाव क्षेत्र में लैंगिक समानता और सशक्तिकरण के लिए प्रेरित किया गया । धर्मा फॉर लाइफ द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम प्राचीन भारतीय जैन साहित्य और समाज में महिलाओं के योगदान पर एक शानदार सफलता थी, जिसने इसमें भाग लेने वाली सभी महिलाओं ने उपस्थित श्रोतागणों पर एक अमिट छाप छोड़ी । 

इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निस्संदेह कुछ भी नहीं है. लेखन को साधना मानने वाले मेधावी उपनिषदों के इस भाषा को पूर्ण रूप से चरितार्थ करती है. लिखते तो बहुत हैं पर शायद ही कोई अपने लेखन को स्वयं की खोज का माध्यम बनाता है. मेधावी के द्वारा मृत्यु की मीमांसा पूर्णतया नया आयाम खोलती है. वह शरीर की मृत्यु की नहीं अपितु अंतरात्मा के हनन की बात करती है. इतनी कच्ची उम्र में वह सांसारिक कर्म और लेखन साधना के बीच तारतम्य बनाए रखती है. आत्मानुसंधान में जुटी बाहरी जगत से नाता नहीं तोड़ती. मेधावी में उस कर्म योगी की झलक मिलती है जो जानता है कि कर्म फल से बचने के लिए निष्क्रियता पर आसक्ति सत्य से दूर करती है. उसका यही गुण उसे लोक वासना से दूर रखता है ।

प्रो. रेखा जैन, (रिटायर्ड) डिपार्टमेंट ऑफ़ इकोनॉमिक्स, दिल्ली विश्वविद्यालय 

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कहानी

सूर्य प्रकाश मिश्र
दुर्गाकुण्ड, वाराणसी, मो. 09839888743 


तालाब के किनारे 

रूबी, जरा टिफिन का डिब्बा दे देना बेटी । अब्बा की आवाज अनवर के कानों से टकरायी । लगता है झोले में टिफिन का डिब्बा रखना भूल गये थे, अब बेटी को आवाज दे रहे थे । जब से कोर्ट सुबह की हो गई थी, सुबह जल्दी ही मची रहती थी । हर काम में हड़बड़ी । ऐसे में सुबह -सुबह खाना पीना ढंग से नहीं हो पाता था । अब्बा बाहर का कुछ खाते नहीं थे या यूँ कहिये कि इतनी आमदनी ही नहीं थी कि खरीद कर खाने की हिम्मत कर सकें । एक अदना सा टाइपराइटर और उसके भरोसे छ: लोग । सबसे बड़ा अनवर, उसके बाद तीन बहनें । भला हो मुंशी खूबचन्द का, जो उन्होने अपने वकील साहब से कहके बस्ते के पास ही छोटी सी जगह का बन्दोबस्त कर दिया था । बोले, लो मियां ये छोटी मेज सम्हाल लो, समझ लो खुदा की रहमत से मिली है । जितनी मेहनत करोगे उतनी बरकत होगी और अब्बा ने अपनी जगह सम्हाल ली थी । अभी तक निभाते भी आ रहे थे । बचपन में अनवर कभी कचहरी जाता था तो हाकिम को आता -जाता देख सोचा करता, मैं भी हाकिम बनूँगा । क्या ठसके से बैठे रहते हैं, हर आदमी सलाम बजाता है । बड़े वकील साहब भी कितने अदब से बात करते हैं । उसे अपने अब्बा का कोने में बैठ कर, टाइपराइटर पर उंगलियाँ चलाना बिलकुल भी नहीं भाता । 

उसने अब्बा से कहा भी, अब्बा आपको कोई भी सलाम नहीं करता । सब कायदे से बोलते भी नहीं हैं । इसीलिये तो कहता हूँ, बेटा तू मेहनत से पढ़ और अब्बा फिर टाइपराइटर पर उंगलियाँ चलाने लगते । धुन ऐसी लगी कि अनवर हर दर्जे में अव्वल आने लगा और ज़हीन विद्यार्थियों में शुमार होने लगा । वकील साहब का काम अच्छा होने और स्वयं मीठे स्वभाव का होने के कारण रहमत मियां को काम की कमी न थी । आमदनी के साथ - साथ परिवार भी बढ़ता रहा । वक्त जरूरत के लिये अम्मी भी सिलाई का काम कर लेती थीं । अनवर के बड़ा होते ही अम्मी चाहने लगी थीं कि बेटा वकालत कर ले फिर काला कोट पहन कर कचहरी जाया करे । अब्बा को थोड़ी राहत तो मिले । लेकिन अनवर तो ख्वाबों में उड़ा करता । उसके अब्बा भी सोचा करते, काश अनवर सचमुच हाकिम बन जाता । फिर उनकी उंगलियाँ तेजी से टाइपराइटर पर चलने लगतीं । अनवर को घर के कामों से पूरी तरह छूट थी । सब्जी भाजी तो अब्बा कचहरी से लौटते हुए लेते आते । मुहल्ले की चक्की से किलो -दो किलो आटा और छोटे मोटे सामानों के लिये पंसारी की दूकान का चक्कर बहने लगा लिया करतीं । शहर छोटा सा था । हाँ, कॉलेज में बी॰ ए ॰ के बाद वकालत पढ़ने की भी सुविधा होने से बाहर नहीं जाना पड़ा । नहीं तो ख्वाब, ख्वाब ही रह जाते । 

शहर के बीचों बीच एक तालाब था । जो कभी शहर के किनारे रहा होगा । लेकिन आबादी बढ़ने और मकानों के लगातार बनते जाने के कारण बीच में आ गया था । तालाब के किनारे दो पत्थर के बेंच बने थे । जो कभी बहुत खूबसूरत रहे होंगे परन्तु अब धूल से अंटे थे और टूट भी गये थे । बगल में एक शिलापट्ट लगा था, जिस पर शायद बनवाने वाले का विवरण लिखा हो । अनवर को यहाँ आकर बैठना बहुत अच्छा लगता था । पढ़ने से जब कभी थकावट महसूस होती, वह आकर धूल झाड़कर एक बेंच पर बैठ जाता । सोचा करता जाने शिलापट्ट पर क्या लिखा है । पर इतनी धूल रहती थी कि साफ करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता । धीरे -धीरे यहाँ आना, रोज की दिनचर्या में शामिल होकर कब आदत बन गया पता ही नहीं चला । अब कभी अगर न जा पाये तो खाली -खाली लगने लगता । एक दिन वहाँ बैठा -बैठा कौवे को पानी छूकर उड़ते देख रहा था तो लगा कि बगल के बेंच पर भी कोई बैठा है । एक लड़की थी, जो खामोशी से बैठ कर पानी की लहरों को एकटक देखे जा रही थी । शाम का वक्त था । सूरज लाल हो चला था । कुछ बच्चे तालाब की सीढ़ियों पर बैठे फिल्म का कोई सीन सुनाकर ठहाका लगा रहे थे । एक धोबी सूखने के लिये फैलाये गये कपड़े समेटने में लगा था । उसने कनखियों से लड़की की तरफ देखा, लगा इसे इससे पहले कभी नहीं देखा है । यूँ अकेले एक लड़की का बैठना अजीब सा लगा । शाम गहराने लगी तो अनवर उठ खड़ा हुआ । कुछ कदम चलने के बाद उसने देखा कि लड़की भी उठ कर जा रही है । वह उसे दूर जाते और नजरों से ओझल होने तक देखता रहा । घर जाते समय मन रोज जैसा न था । वह अगले दिन बेसब्री से शाम होने का इन्तजार करता रहा । रोज कि अपेक्षा कुछ जल्दी ही बेंच पर अपनी जगह जाकर बैठ गया । लग रहा था कि बहुत देर हो रही है, वह अब आई कि तब आई उसे अपने आप पर बहुत हँसी आई । अरे कोई होगी, एक दिन आ गई तो अब रोज थोड़े ही आयेगी । पता नहीं कौन थी । मन कुछ मायूस सा होने लगा । तभी लगा कोई आ रहा है । सचमुच वही कल वाली लड़की थी । अपनी उसी जगह पर आकर बैठ गई । अनवर से थोड़ी ही दूर । उसने चेहरा सामने कि ओर रखते हुए कनखियों से देखा ताकि कोई समझ न सके कि वह देख रहा है । दोनों अपने -अपने बेंचों के दूसरे किनारों पर बैठे रहे, तालाब कि तरफ देखते हुए । बीच -बीच में किसी न किसी बहाने से एक दूसरे को भी देख लेते जैसे अचानक निगाह चली गई हो । शाम गहराने पर चले जाना और अगले दिन उसी वक्त पर आकर बैठ जाना, कई रोज तक चलता रहा । एक दिन अनवर बेंच कि तरफ बढ़ ही रहा था कि पीछे से एक कुत्ते को दौड़ाते हुए कई कुत्ते आये । झटका लगने से अनवर गिर पड़ा । खिलखिला कर हँसने की आवाज आई । अनवर को बहुत गुस्सा आया । झेंपा -झेंपा सा उठा और धूल झाड़कर बेंच पर बैठे बिना ही घर की तरफ चल पड़ा । क्या बदतमीजी है, ऐसे भी कोई हँसता है भला । अगला दिन बड़ी उहापोह में बीता । लेकिन वह शाम को तालाब के किनारे नहीं गया । रात भी बड़ी बेचैनी में गुजरी । तभी अम्मी ने आवाज लगाई, अनवर आज अब्बा फिर टिफिन भूल गये हैं । बेटा जरा कचहरी तक हो आना । जाने का मन नहीं था लेकिन टिफिन वाला झोला लेकर चल पड़ा । उसे दूर से ही अब्बा अपने टाइपराइटर पर जूझते हुए दिखाई दिये । लेकिन ये क्या, वहाँ तालाब वाली लड़की भी खड़ी दिखाई दी । शायद अब्बा से ही कुछ बात कर रही थी । वह तेज कदमों से अब्बा के बस्ते की तरफ बढ़ा । नजदीक जाने पर लड़की, लगता है पहचान गई । लगी हँसने जैसे पुराना किस्सा याद आ गया हो । अनवर ने अब्बा की मेज पर टिफिन वाला झोला रख दिया और बोला आज फिर आप खाना भूल कर चले आये हैं । अम्मी ने भेजा है । आओ बेटा, अब्बा लड़की की तरफ मुखातिब होकर बोले, ये मेरा बेटा अनवर है । वकालत की आखिरी साल की पढ़ाई कर रहा है । और बेटा ये अफसाना है हाकिम की स्टेनो टाइपिस्ट है । मुरादाबाद से आई है । अपने पीछे के मुहल्ले में, अपने अब्बू और अम्मी के साथ रहती है । बड़ा खयाल रखती है हमारा । कभी -कभी टिफिन भी साथ -साथ कर लेते हैं हम लोग । जबरदस्ती कैंटीन में ले जाती है । कहती है आप भी तो मेरे अब्बा जैसे ही हैं । अनवर ने हाथ जोड़ दिये । हाथ तो अफसाना ने भी जोड़े लेकिन चेहरे की हँसी अनवर को मुँह चिढ़ाती रही । अनवर ने मिजाज की खिसियाहट को मन में ही दबा लिया । अब्बा शाम को घर लौटे तो घर में अफसाना के किस्से शुरू हो गये । उसके दो भाई अपने परिवारों के साथ पुश्तैनी धन्धा संभालते हैं । अफसाना के पढ़ने का और खास कर नौकरी करने का तो बड़ा विरोध हुआ । लेकिन वह डटी रही । बड़ी नौकरी से पहले ये स्टेनो का काम मिला तो पकड़ लिया । पहली बार लड़की को अकेले कैसे भेज दें इसलिए उसके अब्बा और अम्मी भी साथ आये । बहुत अच्छी लड़की है । कभी किसी से रूखा नहीं बोलती न ही किसी का दिल दुखाती है । और तो और कभी किसी से दस्तूरी भी नहीं लेती । आगे की तैयारी में लगी हुई है । अल्लाह बड़ी अफसर बनाये, अब्बा ने हाथ उठाकर खुदा से दुआ मांगी । एक दिन घर ले आओ, अम्मी बोलीं । पर घर की हालत सोच कर उनकी बातों में वो दबाव नहीं महसूस हुआ । अब्बा बोले, हाँ किसी दिन उसको वालिद के साथ बुलाऊंगा । अपना अनवर हाकिम बन जाता तो, अब्बा की बातों में हसरतों का समुंदर उमड़ने लगा । अम्मी की आँखों में भी उसकी झलक दिखने लगी । अनवर वहाँ से उठ गया । पर ये बातें उसका भी दिल गुदगुदा गईं । अगले दिन वह फिर उसी समय बेंच पर जाकर बैठ गया । अफसाना आई मुस्कुराती हुई । हँसी उड़ाने का अंदाज बिलकुल वैसा ही । लेकिन ये क्या, अनवर को उसकी हँसी चुभने की बजाय प्यारी लगने लगी । जी चाहा कहे, ऐसे ही हँसती रहिये । दोनों, रोज अपनी -अपनी जगह आकर बैठ जाते । धीरे -धीरे बातों का दायरा बढ़ने लगा । पढ़ाई लिखाई, देश विदेश, खेल राजनीति, समाज की रवायतें, अगड़ापन पिछड़ापन और न जाने क्या क्या । इसके साथ ही व्यक्तिगत जीवन की बातें भी की जाने लगीं । पसन्द नापसन्द, खाना पहनना और तमाम बातों में भी हिस्सेदारी हो गई । सारी दूरियाँ कम हो गईं । यहाँ तक कि बेंच पर बैठने की भी । हाँ अलग -अलग बेंचों पर बैठने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा । हँसी मज़ाक भी चलने लगे । इस दौरान अनवर ने अम्मी अब्बा की बात का ज़िक्र भी कर दिया । अफसाना ने बात टालकर कैरियर की बातें शुरू कर दी । वह उसकी भी हौसला आफजाई करती रहती । शहर छोटा सा ही था । घूमने फिरने की कोई खास जगह भी नहीं । बस एक होटल, मानसरोवर और दो सिनेमा हाल । एक दिन अफसाना को चिढ़ाने वाले अंदाज़ में अनवर ने कहा, चलो मानसरोवर चलें । अफसाना ने कुछ जानने के अंदाज़ में देखा, पूछा क्यूँ ?

वैसे ही । वैसे ही क्या, मानसरोवर में क्या है ?

हंस -हंसिनी मानसरोवर में ही तो जाते हैं । ये कैसा मज़ाक है, अफसाना चिढ़कर बोली । अनवर को चिढ़ाना, मज़ाक करना नहीं आता था । उसने सोचा चलो चिढ़ी तो सही । वरना रोज़ कुत्तों के धक्के वाली बात लेकर मुझ पर हँसती है । अब अनवर कभी -कभी मानसरोवर चलने की बात कहकर उसे चिढ़ाने लगा । इधर सालाना इम्तिहान आने वाले थे । अनवर जी जान से पढ़ाई में लगा हुआ था । पढ़ाई में अव्वल आने के साथ -साथ कुछ और भी मिल जाने की चाहत, दिन रात की मेहनत के बावजूद, उसे थकने नहीं दे रही थी । अफसाना भी किसी इम्तिहान की तैयारी में जुटी हुई थी । नौकरी और पढ़ाई के बोझ से कुछ थकी -थकी सी रहती थी । फिर भी दोनों ने तालाब के किनारे बैठना बंद नहीं किया । भले वक्त में थोड़ी सी कमी जरूर आ गई थी । दोनों बातों से, आँखों से एक दूसरे की हौसला आफजाई किया करते थे । एक शाम अफसाना ने बताया, वह अपने अब्बा और अम्मी के साथ तीन चार दिन के लिए मुरादाबाद जा रही है । किसी रिश्तेदार के यहाँ शादी है । अब्बा अम्मी का जाना जरूरी है । तुम्हारे भैया क्यों नहीं आकर लिवा ले जाते हैं उन्हें ?

अरे,आजकल धन्धे में जरा तेजी है, आना नहीं चाहते । फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी । बोली, तुम्हें तो लग रहा है जैसे मेरे शौहर हो । फिर गुमसुम सी हो गई । मेरा जाना अच्छा नहीं लग रहा है न तुम्हें । अनवर ने हाँ में सिर हिलाया । माहौल भारी हो चला । अनवर ने धीरे से कहा, चलो न मानसरोवर चलें । अफसाना झेंप गई । अनवर ठहाका लगाकर हँसने लगा । अफसाना ने कहा, वह शादी में शामिल होकर, अब्बा अम्मी को छोडकर अकेली आना चाहती है । जिससे पढ़ाई की तैयारी ढंग से हो सके । अब्बा अम्मी भी यहाँ के इंतज़ाम से मुतमईन हैं । अगले दिन अफसाना अपने माता पिता के साथ मुरादाबाद चली गई । दिन भर अनवर का मन नहीं लगा । पढ़ाई से भी दिल उचट सा गया । शाम का इंतज़ार करता रहा । ये जानते हुए भी कि अफसाना नहीं मिलेगी फिर भी शायद मिल जाये की आस लगाये । वह निश्चित समय पर तालाब के किनारे गया, बैठा रहा । लेकिन रोज की अपेक्षा जल्दी चला आया । तीन दिन बीत गये यही करते -करते । चौथे दिन शाम को मोबाइल पर अफसाना का मैसेज आया, "मानसरोवर में मिलना जरूर जरूर जरूर " । पढ़ कर वह चकरा गया, उसने मज़ाक समझा । कहाँ तो तीन दिन तक एक बार भी बात नहीं किया और अब ये मैसेज । शायद चिढ़ाने के लिये उसी का हथियार उसी पर । लेकिन जरूर शब्द तीन बार, समझ नहीं पाया । वह अकेली आ रही है, हो सकता है सुविधा के लिये आज होटल में रहना चाहती हो । फिर कल से नियमित हो जायेगी । इस समय कौन घर के झाड़ू झंझट में पड़े । पहले अनवर ने फोन से बात करना चाहा लेकिन चिढ़ाया जाना सोच कर रुक गया । वह होटल मानसरोवर गया । उसने एक कमरा बूक कराया मिस्टर एवम मिसेज रहमान के नाम से । आने का स्थान मुरादाबाद, मकसद रिश्ते के लिये बात करना । कुछ एडवांस जमा करा दिया । शहर छोटा होने के कारण होटल में ज्यादा आमदरफ्त नहीं थी । रिसेप्सिनिस्ट की आँखों में सामान के लिये सवाल देख कर अनवर ने बता दिया थोड़ी देर में मैडम आयेंगी । अभी तो सिर्फ बात टालनी थी । अफसाना के आने पर देखा जायेगा, बहाना तो बनाना ही पड़ेगा । वह घर गया अम्मी से बता कर आया कि एक दोस्त के यहाँ जा रहा है । खाने खिलाने का प्रोग्राम है । देर रात तक आयेगा और अगर ज्यादा देर हो जाये तो घबराना मत जैसा भी होगा फोन से बता देगा । अनवर होटल के कमरे में आकर लेट गया । अब तो अफसाना के आने पर ही तय होगा कि वह यहाँ सिर्फ खाना ही खायेगी या रात भर रुकेगी भी । होटल वाले पूछेंगे तो कह देगा, जिनको आना था उनका प्रोग्राम बदल गया है सुबह आयेंगे । तब तक उनकी बेटी यहाँ रूकेंगी । अपने खाने के बारे में भी अफसाना के आने के बाद ही प्रोग्राम बनायेगा । कमरे में नीले बल्ब की रोशनी फैली हुई थी । वह अफसाना के बारे में सोचने लगा । खूबसूरत, तहजीबदार, जिन्दगी जीने का जज्बा, बिलकुल वैसी ही जैसी वो चाहता है । या शायद उसे चाहता है इसीलिये उसकी हर चीज अच्छी लगती है । सोचते -सोचते उसकी आँखें झप गईं । अचानक उसकी नीद खुल गई । उसने देखा नीले बल्ब की रोशनी कुछ और तेज हो गई थी । उसके बगल में अफसाना सोई हुई थी । उसकी साँसें तेज -तेज चल रही थीं । वह कुछ बोल नहीं रही थी । उसकी आँखों में अजीब सी चमक थी । शरीर से भीनी -भीनी खुशबू उठ रही थी । अनवर ने इस बात की तो कल्पना ही नहीं की थी । उसका अपने दिमाग से नियन्त्रण हटने लगा । अच्छे बुरे की समझ खत्म होने लगी । सही गलत की हद से बाहर जाने लगा । वह बढ़ चला अजीब से रास्ते पर । उसकी आँखें मुँदने लगीं और सुनाई देने लगीं अफसाना की तेज -तेज साँसें, जो एक रात में ही पूरी जिन्दगी जी लेना चाहती थी । वह उड़ता रहा अंजान ऊंचाइयों तक और गोते लगाता रहा असीम गहराइयों तक । अफसाना और अनवर पोर -पोर तक एक दूसरे को जान चुके थे । सारी बन्दिशें, सारे दायरे घुल चुके थे । हर सीमा खत्म हो चुकी थी । रात कब बीत गई पता ही नहीं चला । सुबह के वक्त नीद लग गई । 

दिन के शोर शराबे से नीद खुली । देखा अफसाना बगल में नहीं थी । रात की सारी बातें जेहन में फिर से ताजा हो उठीं । अजीब सा महसूस होने लगा । सोचा अफसाना बाथरूम गई होगी । उसकी निगाहों का सामना कैसे    करेगा । लेकिन कुछ देर बाद उठकर देखा तो बाथरूम बाहर से बन्द था । कमरे की सिटकिनी भी अन्दर से बन्द थी, कहाँ गई वो ?फिर इस कमरे में आई कैसे, न कोई फोन न कमरे का नम्बर पूछना । अनवर का दिमाग चकराने लगा । अचानक निगाह नीचे फर्श पर पड़े ताजा अख़बार पर गई, जो दरवाजे के नीचे से होटल वालों ने सरकाया होगा । मोटे -मोटे अक्षरों में पहले पेज पर ही छपा था, "मुरादाबाद से आने वाली बस का भीषण एक्सीडेंट, चार मरे बीस घायल । मरने वालों में स्थानीय कोर्ट की कर्मचारी भी शामिल । "

अनवर के पैरों तले से जमीन खिसक गई । वह होटल से निकलकर बदहवास घर की तरफ भागा । अम्मी ने बताया उसे बार -बार फोन किया गया लेकिन मोबाइल बन्द था । उसने देखा मोबाइल तो ऑन था । भाग कर पोस्टमार्टम हाउस पहुँचा । अब्बा को रोते हुए देखा । तमाम और लोग भी पोस्टमार्टम हाउस पर खड़े थे । अफसाना के अच्छे व्यवहार व नेकनीयती की चर्चा कर रहे थे । अफसाना के घर वालों को भी फोन से बता दिया गया था । उसके दोनों भाई रात ही रात यहाँ आ गये थे । अनवर ने अपने मोबाइल पर मैसेज देखा, उसमें कोई मैसेज नहीं पड़ा था । वह सबकी नजर बचाकर कोने में जाकर रो लेता था । पोस्टमार्टम के बाद शरीर बाहर    आया । उसने अफसाना को आखिरी बार देखा । चेहरा देखना चाहता था पर कह नहीं पाया । उसे छूना चाहता था पर छू नहीं पाया । उसके भाई उसे लेकर चले गये । 

अनवर बदहवास सा रहने लगा । तालाब के किनारे तो दूर वह उस तरफ जाने से भी बचने लगा । अब्बा -अम्मी का मुँह देखकर फिर से जीना सीखने लगा । हाकिम भी बन गया । वक्त के साथ उसकी जिन्दगी बदल गई । 

इस वाकये को गुजरे एक जमाना बीत गया है । लेकिन शाम ढले, तालाब के किनारे, उस बेंच पर लोगों को अब भी कोई परछाई बैठी हुई दिखाई दे जाती है । जो यकीनन किसी लड़की की ही लगती है । 

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आलेख

डॉ. चेतना उपाध्याय
कुंदन नगर, अजमेर, मो. 98281 86706


" करवा किट्टी का औचित्य" 

हम हिंदुस्तानी महिलाएं दीर्घकाल से ही पारिवारिक धुरी के रूप में अपनी पारिवारिक सांस्कृतिक धरोहर को आगामी पीढ़ी में पोषित करते हुए अपनी परंपराओं का पालन बखूबी करती आ रही है । हमने अपनी सांस्कृतिक मर्यादाओं का पालन सदैव से ही पुरुषों के सहयोग से किया है । समय अनुसार थोड़े बहुत परिवर्तन हुए हैं जो आगे भी होना स्वाभाविक ही है । मगर हमारी परंपराओं की आध्यात्मिक एवं सामाजिक महत्ता सदैव सर्वोपरि रही    है । और उसे अक्षुंण रहना भी चाहिए । क्योंकि अधिकतम परंपराओं का अपना ठोस वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक धरातल है । जो कि हमें सदैव अपनी पारिवारिक एकता को सकारात्मक रूप में जोड़े रखने में मददगार सिद्ध होता है । साथ ही हमें अपनी पारिवारिक भूमिका में गौरवान्वित होने का सुखद अवसर भी प्राप्त होता है ।

हमारी अधिकतम परंपराएं हमारे आपसी रिश्तों में गुंथी हुई सी है । जो कि हमारे रिश्तों को मजबूती से बांधे रखने में सहयोगी होती है । रिश्ता चाहे माता-पिता, पति-पत्नी, सास-बहू, भाई-बहन, माँ-बेटा, ससुर-जवांई, देवरानी- जेठानी, ननद-भाभी, चाची, ताई, मामा, मौसी, बूआ, चाचा, दादा-दादी, नाना-नानी, कोई सा भी क्यों ना हो । 

‌हमारे अधिकतम पर्व हमारे इन्हीं रिश्तो के इर्द-गिर्द मजबूती से गुंथे हुए रहते हैं । एवं इन रिश्तों की मर्यादाओं को कर्मठता से निर्वाह करते हुए उनकी मिठास को कायम रखते हैं । हमारी भारतीय संस्कृति पारिवारिक एकता को बरकरार रखते हुए इन परिवारों से बनने वाले समाज में भी एकता, भाईचारा बरकरार रखने के लिए भी अनेकानेक पर्व-, उत्सव, त्यौहार, हमें प्रदान करती है । जैसे होली, दीपावली, दशहरा, गुरु पूर्णिमा, जन्मोत्सव, विवाह उत्सव, विभिन्न लोक देवताओं के मेले व अनेकानेक परंपराओं से जुड़े सामूहिक मेले, इत्यादि हमें अपनी सामाजिक गरिमामयी भूमिका को जीने व उनकी मिठास को बरकरार रखने के अवसर देती हैं, ,,,और लगातार देती रहती हैं । 

‌मगर इन दिनों कुछ अजीब सा गड़बड़ झाला सा भूचाल आया हुआ महसूस हो रहा है । हमारे समाज, परिवार, रिश्ते सभी व्यापारवाद, बाजार बाद से प्रभावित हो कलुषित होते जा रहे हैं । हमारे चरित्र व व्यक्तित्व में भी वह स्थिरता नहीं रही जो हमें अपने पैरों पर मजबूती से खड़े रहने का हौसला दे सके । हम बाजारवाद की आंधी में बहे चले जा रहे हैं । 

‌हम व्यक्तिवादी स्वार्थ के चलते छल कपट करते अपने गरिमामयी रिश्तों की मर्यादा भूल सब कुछ गड़बड़ करते जा रहे हैं । पारिवारिक पर्व, सामाजिक पर्वों में गोते खा रहे हैं । सामाजिक पर्व अनेकानेक समूह में, छोटे-छोटे समूहों में डूबते उतरते जा रहे हैं । हम दिन प्रतिदिन एकाकी और नितांत एकाकी होते हुए अपनी विलासिताओं का भोंडा प्रदर्शन करते हुए खुशियों को खोजने का पाने का प्रयास करते हुए, दिखावा मात्र कर पा रहे हैं । 

‌‌ अभी जब कुछ ही समय में पति-पत्नी के आपसी सौहार्द का प्रतीक करवा चौथ पर्व आने को है । महिलाओं में बाजारों में अच्छा खासा उबाल सा दिखाई दे रहा है । होटेल करवा चौथ उत्सव का आमंत्रण दे रहे हैं । गली मोहल्ले की महिलाएं अपनी शान बिखरने को उतावली सी हो रही है । व्हाट्सएप समूह में, " करवा किट्टी " आयोजन हेतु आमंत्रण मिल रहे हैं । उसमें होगा मस्ती, भरपूर मस्ती भरा माहौल, ड्रेस कोड के तहत फलां रंग के फलां परिधान,,,, नख से शिख तक अनूठा शृंगार, हाऊजी, रस्सा कशी, चेयर रेस और अनेकानेक रंगारंग प्रतियोगिताएं । तरह-तरह के उपहार । देर रात चंद्र दर्शन, पति पूजन, पश्चात फलां हलवाई /कैटरर/ होटल का स्वादिष्ट भोजन और उसके पश्चात मस्ती भरे माहौल से देर रात अपने घरों को लौटना । 

‌मस्ती भरा समां करवा चौथ पर्व की मूल भावना को पछाड़ कहां से कहां आ गया । माना, ,,,हम इस तरह जिंदा- दिली से जी रहे हैं । पुरानी महिलाओं की तरह घुटन भरी जीवन शैली से दूर बहुत दूर यह मस्ती भरा माहौल वर्तमान जीवन की पहचान बन गया है । युवा प्रौढ़ सभी दौर की महिलाएं आज अपने पारंपरिक लबादे को छोड़ इस मस्ती भरे माहौल में शामिल होने को उत्सुक है । 

‌संचार साधनों द्वारा बाजारवाद हमारे व्यक्तिगत रिश्तों की मिठास कायम करने को आतुर हुआ जा रहा है । हम अपनी सुमधुर सांस्कृतिक परंपराओं में आधुनिकता का छौंका लगाते "करवा चौथ " पर्व के औचित्य को भी रसातल में पहुंचा रहे हैं । 

 अब समस्या यह कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर आगामी पीढ़ी तक किस रूप में पहुंचेगी । कुछ कहा नहीं जा सकता । करवा चौथ पर्व जो पति-पत्नी के मध्य आपसी प्रेम, सौहार्द अपनत्वभरी विशिष्ट अनुभूति को महसूस करने, अपनत्व का एहसास बनाए रखने को हुआ करता है । हमारी पारिवारिक एकता को संबल प्रदान करने की सशक्त भूमिका में होता है । 

 आज हम इसे घर परिवार से बाहर पाने के प्रयास में अपने पैरों पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार रहे ? पति-पत्नी के नितांत व्यक्तिगत पलों को सर्वजनिकता में कहीं धूमिल तो नहीं कर रहे ? पत्नी के एक दिन उपवास करने मात्र से पति की उम्र बढ़ाने का कोई सीधा सीधा औचित्य नहीं है, यह सत्य है । इसे दकियानूसी करार देकर इसे त्याग दिया जाए तो यह भी ठीक है । क्योंकि जिन परंपराओं में हमें ठोस वैज्ञानिक तथ्य / कारण नहीं दिखाई देता उन्हें छोड़ना भी समाज हित में ही होता है । 

चूंकि इस पर्व में वैज्ञानिकता का अभाव होते हुए भी मात्र मनोवैज्ञानिकता का प्रभाव है । जिसे नकारा नहीं जा सकता । मानव एक सामाजिक प्राणी है । जो की मन बुद्धि संस्कार से प्रेरित हो अपने दैनिक जीवन का निर्वाह करता है । हिंदुस्तानी संस्कृति मनोवैज्ञानिक तर्कों को आध्यात्मिकता से पोषित करते हुए परोसने का कार्य करती है । सनातन काल से चली आ रही संस्कृति की ताकत है जो अक्षुंण रूप में हमें अपने पूर्वजों से प्राप्त हुई है । और हमारे परिवारों की गरिमा को बरकरार रखने में कामयाब हुई है । 

आज हम मस्ती भरे माहौल में इन पर्व उत्सव की गरिमामय भीनी भीनी महक पीछे, कहीं बहुत पीछे, छोड़ रहे हैं । हमारी आगामी पीढ़ी इस मस्ती भरे रंगारंग कार्यक्रमों की चकाचौंध में इस करवा चौथ पर्व की असली खुशबू कैसे महसूस कर पाएगी ? जब हम बाजारवाद की आंधी से खुद को बचा नहीं पा रहे तो, आगामी समय कहीं इस अनूठे पावन पर्व के औचित्य पर ही प्रश्नवाचक चिन्ह ना खड़ा कर दे । 

हमें थोड़ा रुक कर, ठहर कर इस दिशा में भी सोचना चाहिए । 

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आलेख

कृष्णलता यादव
गुरुग्राम, मो. 9811642789

ओल्ड इज़ गोल्ड

पक्षियों के कलरव, भँवरों की गुंजन, कलियों की चटखन और तितलियों की आवाजाही के सम्मिलन से भोर की वेला खुशनुमा होती है । इसके स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछाए जाते हैं । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि दिन के शेष भाग की अनदेखी की जाए । वास्तव में कालचक्र का हर पल महत्वपूर्ण होता है । जीवनचक्र पर भी यही बात लागू होती है । 

शैशव हो या बचपन, यौवन हो या वृद्धावस्था, उम्र का हर पड़ाव गरिमापूर्ण होता है । शैशव की किलकारी मोहक होती है तो बचपन की शरारतें रोमांचक । यौवन का तो कहना ही क्या । पुरातन का खंडन, नूतन का मंडन, नई सोच, नई समझ, नए दायित्व और नई योजनाएँ, यानी समय की रफ्तार के साथ कदमताल करती है यह  अवस्था । जोशो-जुनून से भरपूर यह आयुवर्ग अपनी पहचान बनाने की कवायद करता चलता है । 

 कालचक्र घूमता रहता है और फिर आती है वृद्धावस्था अर्थात धीमी रफ्तार का जीवन-चरण । यह चरण ‘जीवन की सांझ’ के नाम से जाना जाता है । इस दौर से गुजरने वालों की शारीरिक क्षमता प्रायः घट जाती है, चिड़चिड़ापन स्वभाव का स्थायी भाव बन जाता है । उनके प्रति बरती गई थोड़ी-सी भी लापरवाही भारी पड़ती है । एक-दूसरे के प्रति शिकवे-शिकायतों का पिटारा भरने लगता है । यदि दुर्योग से पिटारा लबालब हो जाता है, तो बुजुर्गों को वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा दिया जाता है । इस स्थिति से बचने के लिए रिश्ते-नातेदारों को बुढ़ापे की बारहखड़ी ध्यान से पढ़नी होती है । 

 उन्हें ध्यान रखना होता है कि जीवनसंध्या की वेला से गुजर रहे उनके परिजनों ने भी यौवन की बहार देखी है, मस्ती के नगमे गाए हैं, पसीना बहाया है, संघर्ष-पथ अपनाया है, ख्वाब सजाए हैं और दायित्व निभाए हैं । परिवार रूपी बगिया को नेह-नीर से सींचा है, संस्कारों की खाद डाली है, अभाव में भावों के कमल खिलाए हैं, प्रेरक संस्मरण सुनाकर नाती-पोतों को सबल बनाया है । इसलिए बुजुर्गों के प्रति श्रद्धाभाव रखना बनता है । आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है । भावात्मक रिक्तियाँ भरनी होती हैं और सबसे बढ़कर संवाद का बिरवा हरा रखना होता है ताकि मन का गुबार बाहर आ सके । ‘आप क्या जानें, आप चुप ही रहें,’ जैसी टिप्पणियों से बचना होता है । नई पीढ़ी को समझ लेना चाहिए कि बुजुर्गों के मुखमंडल पर उभरी रेखाओं में अनुभवों के मानचित्र खिंचे हैं । उनमें जीवन के रंग हैं, ढंग हैं । वे जीवन की दुर्गम राहों से गुज़र चुके हैं । वे जीवन के मेलों-झमेलों से सुपरिचित हैं । अतः बुजुर्गों को फालतू सामान की तरह घर के एक कोने तक सीमित रखना उचित  नहीं । उनके अनमोल-अनतोल सुझाव व राय नई पीढ़ी को भटकने से बचा सकते हैं । शायद इसी कारण ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ की उक्ति होठों पर तैर जाती है । पुनः पुनः कहा जा सकता है कि ओल्डएज रूपी गोल्ड को सहेजने की आवश्यकता होती है ताकि जीवन-संध्या रुपहली-सुनहली बनी रहे । सच तो यह है कि बुजुर्ग लोग चलती-फिरती पाठशाला सम होते हैं । सम्मान-सत्कार रूपी फीस चुका कर यहाँ पर हर विषय का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता  है । ऐसी सुविधा भला और कहाँ ? 

बुजुर्गों को भी रिश्तों के खत मनोयोग से पढ़ने होते हैं । परिजनों से तालमेल बिठाना होता है यह ध्यान में रखकर कि परिवर्तन प्रकृति का अटल नियम है । इसलिए जब-तब अतीत के पन्ने खोलकर अतीत को श्रेष्ठ व वर्तमान को निकृष्ट सिद्ध करने की कोशिश करने से बचें । साँप की केंचुल की तरह रूढ़िगत परम्पराएँ व मान्यताएँ त्यागनी होती हैं । नए जमाने की नई चुनौतियों व दायित्वों से मुठभेड़ करने के लिए अतिरिक्त समय व शक्ति की आवश्यकता होती है । अतः नई पीढ़ी की विवशताओं को समझना बनता है । बुजुर्गों को ध्यान रखना चाहिए कि जीवन की जो पारियाँ वे खेल चुके, अगली पीढ़ियों को भी वे पारियाँ खुलकर खेलने के अवसर मिलें । बात-बात पर टोका-टोकी और हरदम अपनी आवश्यकताओं का राग अलापने से बचना होता है । सकारात्मकता, क्षमाशीलता व सहनशीलता की बैंतें साथ रखकर स्वाभिमान से जीना होता है । 

सार यह कि पारस्परिक समझदारी से काम लिया जाए तो पीढ़ियों का अंतराल चुभन पैदा नहीं करता और रिश्तों के ताने-बाने की मज़बूती कायम रहती है । तो आइए –  विवेक का आसव पिएँ-पिलाएँ, जीवन-संध्या सुहानी बनाएँ । 

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कहानी


महेश कुमार केशरी

बोकारो झारखंड, मो. 90319 91875


धूप के रेशे मुलायम हैं

बाबा मैं तुम्हारी तरह ऐसे ही मजबूत कट्टे बनाऊँगा । जैसे तुम बनाते हो । 

जैसे तुम्हारे बनाये कट्टे फायर करते समय नहीं फटते । ठीक ऐसे ही कट्टे मैं भी बनाऊँगा बाबा । बिल्कुल तुम्हारी तरह तुम्हारे बाद !

करमजीत कार के स्टेयरिंग वाले पाईप को काटकर तराशते हुए अपने बाप गुलाब सिंह की तरफ देखते हुए बोला ।

हाँलाकि, गुलाब सिंह, करमजीत के सामने ही कट्टे बनाने का काम करता है । लेकिन, उसका लड़का बड़ा होकर कट्टे बनायेगा । उसके बाद उसकी तरह । ये बात सुनकर गुलाब सिंह के कान खड़े हो गये थें । उसके सीने में लगा जैसे किसी ने बर्छा मार दिया हो । ये बात इस छोटे से मात्र तेरह साल के लड़के के मुँह से सुनकर उसे बेहद अचरज हुआ था । लेकिन वो सोच रहा था कि आखिर करमजीत भी कट्टा बनायेगा । उसको भी पुलिस दबिश देकर खोजेगी ? उसे भी जँगलों में महीनों रहकर रात बीतानी पड़ेगी । पाईप मोड़ते - मोड़ते उसके हाथ वहीं कहीं जम गये । कबसे कट्टा बना रहा है, वो । यादों के धुँधलके में कहीं वो गहरे उतरता जाता है । पैतन पुर गाँव जहाँ उसका जन्म हुआ था । बचपन से ही वो इस माहौल में पला-बढ़ा । उसके पिताजी भी कट्टे ही बनाते थें । कोई तीन चार सौ लोग रहते हैं । उस गाँव में | सबका यही व्यवसाय है । कट्टा बनाने का । लीगल तरीके से यहाँ कुछ नहीं होता । सब कुछ पर्दे के पीछे से होता है । बहुत कम मेहनत और बहुत कम लागत में जाता है, कट्टा । फिर इसे बाहर ले जाकर बेचने का भी टेंशन नहीं है । दूर-दराज के अपराधी किस्म के लोग अपनी सुविधा के अनुसार उससे कट्टे खरीदकर ले जाते हैं । 

खासकर, छोटे - मोटे दूर-दराज के इलाकों में इसकी बहुत डिमांड रहती है । और चुनाव के समय तो इन देशी कट्टों की माँग बहुत बढ़ जाती है । नेता लोग भी अपने गुर्गों की मदद से यहाँ इस गाँव से माल ले जाते हैं । चुनावों में दबिश देने के लिये । बूथ कैप्चरिंग के लिये । लेकिन, पैतनपुर से इन नेताओं का केवल चुनाव तक ही नाता रहता है । चुनाव के बाद वो इधर झाँकते भी नहीं । इस कट्टे वाले धंधे में एक तो युवाओं में खासा पैशन दिखता है । इतना पैशन की पूछो ही मत ? एक किशोरावस्था की बनैली क्रूरता उनके आँखों में दिखाई देती है । जिसे देखकर वो डर जाता है । एक ऐसा पैशन जिसे उसने करमजीत के आँखों में अभी अभी देखा है । 

एक ऐसा पैशन जिसका इस्तेमाल वहाँ के नेता इन युवाओं और किशोरों का कार के स्टेयरिंग वाले पाईप की तरह कट्टा बनाने में करते हैं । हाथ युवाओं का जलता है । और ये नेता युवाओं को एक सपना दिखाकर उसमें अपना हाथ सेंकते हैं । एक क्रूर हिंसक सपना । ऐसा सपना जो कभी पूरा नहीं हो सकता । नशाखोरी और हिंसा ने इस पैतन पुर को अपनी गिरफ्त में ऐसे कसा है । जैसे अजगर, आदमी को अपने जबड़े में कसता है । गुलाब सिंह को लगा कि उसके बेटे करमजीत को भी कोई बहका रहा है । कोई ऐसा सब्जबाग दिखा रहा है । जिसमें करमजीत कल को उस क्षेत्र का कोई रसूखदार आदमी बन जायेगा । या कोई भाई वाई टाइप का आदमी ! लेकिन, करमजीत एक कट्टे बनाने वाले का बेटा है । उसको कोई कैसे सब्ज- बाग दिखा सकता है ? लेकिन हो भी तो सकता है । आखिर, छोटे - छोटे बच्चे ही तो अपराधियों के सॉफ्ट टारगेट होते हैं । बिल्कुल कार के पाईप की तरह | जिनसे कट्टा बनता है । लचीले और नाजुक !

उन्हें केवल तपाना भर होता है । फिर अपने हथौड़े से ठोंक- पीटकर मन चाहा आकार ले लो । आखिर जिन राज्यों में शराब बैन है । वहाँ के अपराधी, बच्चों का सहारा लेकर ही तो शराब एक जगह से दूसरे जगह तस्करी करते हैं । पुराना माड्यूल बदल गया । आज कल पुलिस भी तो इन तस्करों और अपराधियों की सारी टेक्नीक समझ गयी है । फिर थोड़े से पैसों के लालच में ये युवा भटक जाते हैं । ये वही समय होता है । जब ये बच्चे हाथ से बेहाथ हो जाते हैं । आज कल जो स्मगलरी होती है । उसमें इन युवाओं को ही तो टारगेट किया जाता है । नशा करने वाला भी युवा । नशा बेचने और खरीदने वाले भी युवा | फिर आज कल तो बेब सीरीज का जमाना है । उसने नेट- फिलीक्स पर कुछ बेब - सीरीज देखीं हैं । गालियों से नहाते संवाद । फूहड़ पटकथा और घटिया संवाद । बात-बात में गाली-गलौज । छोटी - छोटी बात पर ठाँय से पिस्तौल चलती है । और आदमी ढ़ेर हो जाता है । बंदूक का साम्राज्य । हर तरफ दिखाई देता है । फिर इस देश में ऐसी फिल्में क्यों बन रहीं हैं । और अगर बन रहीं हैं तो फिर सेंसर बोर्ड का अब क्या काम बचा है ? पता नहीं चलता । फिल्मों में अब संवाद और नायक केवल बँदूक से बात करता है । और उसकी बात सुनी भी जा रही है । ठेका नहीं मिलता है तो बंदूक चल जाती है । सामाजिक दायरा कितना विकृत होकर सामने आ रहा है । इन फिल्मों में | एक ही औरत के तीन तीन लोगों से संबंध हैं । ससुर से भी पति से भी, और बेटे से भी ! सामाजिक संबंधो की बखिया उधेड़ती आज की ऐसी बेब सीरीजें युवाओं के अंदर एक जहर भर रहीं हैं । फिर आज का युवा भी तो इन चीजों से बहुत इंस्पायर हो रहा है । और, इन बेब- सीरीजों में सबसे बड़ी चीज जो दिखाई जा रही है,  उसमें इन दबंगों को राजनीतिक तौर पर भी सत्ता का संरक्षण प्राप्त है । 

बात-बात में गाली-गलौज । छोटे - बड़े को तरजीह ना देना । समाज का पूरा - ताना बाना बिखर गया है । इन बेब सीरीजों से । इन बेब - सीरीजों को देखकर ही तो युवा ड्रग्स ले रहें हैं । जैसे किसी फिल्म में टुन्ना भईया को ड्रग्स लेते दिखाया गया है । और सबसे ज्यादा खराब बात इन बेब- सीरीजों में नायक का खलनायक हो जाना है । किसी भी राह चलती लड़की का दुप्पटा खींच लिया जाना । उसे सरेआम छेड़ा जाना । उसका सामूहिक बलात्कार । और नायक के रूप में आज का युवा अपने आपको टुन्ना की जगह पाता है । बहुत खुश है । आज का युवा अपने आपको उस खलनायक के रूप में देखकर । उसे टुन्ना भईया की तरह का बॉस बनना है । पूरा जिला उसका है । उसके पास पावर है । तो वो सब कुछ हासिल कर सकता है । यहाँ नायक किसी अपने पर भी विश्वास नहीं    करता । बस उसे गद्दी चाहिए । चाहे जैसे मिले । बाप को मारकर भी । 

गिलास के गिरने की आवाज से गुलाब सिंह की तँद्रा टूट जाती है । वो हो - हो की आवाज से बिल्ली को भगा देता है । लेकिन, बिल्ली अभी खिड़की पर खड़ी है । वो उठकर खिड़की तक जाता है । सामने गुरविंदर को देखकर वो चौंक जाता है । वो किसी लड़के से खड़ा होकर हँस-हँस कर बातें कर रहा है । उसके हाथ में एक पैकेट है । काले रँग की पॉलीथीन । उसका दिल फिर से बैठने लगता है । गुरविंदर, उसके सगे भाई लखविंदर का बेटा है । वो पिछले साल जेल से होकर आया है । ड्रग्स बेचने के आरोप में । उस पर खालीस्तानी होने का आरोप भी लगा था । पाकिस्तानियों और आतंकवादियों से उनके संबंध होना भी बताया जा रहा था । पुलिस कह रही थी । बाहर देश से ये जो अफीम, कोकिन और हीरोईन आती है । वो हमारे दुश्मन मुल्क पाकिस्तान से आती है । ठीक है । ये बात भी समझ आती है । जगविंदर के साथ एक और लड़का पकड़या था । वो, माजीद  था । एक पाकिस्तनी लड़का । पेशावर से था शायद, माजीद । जैसा कि गुरविंदर बता रहा था । उम्र कोई बीस-बाईस साल थी । उसका बाप कसाई था, रहमत शेख । दो - दो शादियाँ कर रखीं थी उसके बाप ने । वो उसकी सगी माँ को बहुत मारता - पीटता था । उसके आठ आठ भाई बहन थें । किसी तरह उसने सातवीं पास की । उसका बाप पाकिस्तान में एक बार इमरान खान की तहरीर सुनने गया था । फिर उसी रैली में गोली लगने के कारण उसका बाप मर गया था । एक तो छोटी उम्र । फिर, आठ - आठ लोगों की जिममेदारियाँ सिर पर । एक अकेला माजीद भला अकेले क्या-क्या करता ? लोग मँहगाई से उस देश में पहले ही बदहाल थें । साग - सब्जी खरीदने के पैसे तो पास में होते नहीं थें । गोश्त कौन खरीदता ? ऐसा नहीं था कि माजीद बेवकूफ़ था । वो अखबार पढ़ता था । चीजों को समझता था । उसने अखबारों में ही पढ़ा था  कि कुछ सालों पहले देश के पूर्व प्रधानमंत्री जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर मामले थें वो देश छोड़कर अभी लंदन में रह रहा है । और अब अपने मुल्क में इमरान खान के अपदस्थ होते ही वापसी की तैयारी में है । चुनाव नजदीक आ रहें हैं, वहाँ । ऐसा तो उसके खुद के देश में भी हो रहा है । यहाँ के नामचीन भगौड़े बैकों का पैसा लेकर लंदन, यू. के., अमेरिका, यूरोप में बिजनेस को सेटल कर रहें हैं । आखिर जो दूसरे मुल्क में हो रहा है । वो तो उसके देश में भी हो रहा है । 

पड़ौसी देश का पूर्व भगोड़ा या देश निकाला प्रधानमंत्री सोने की थाली मे बैठकर मेवों का आनंद ले रहा है । वो जो एक भ्रष्टाचारी है । माजीद जैसे लाखों लोग जो मेहनत करते हैं । सरकार को टैक्स भरते हैं । उनके टैक्स के पैसों से ही ये सरकारें भ्रष्टाचार करती हैं । बड़ी बड़ी गाड़ियों में घूमतीं हैं हैं । फॉरेन देशों में हवाई यात्रायें करतीं हैं । बावजूद इसके कि वो सफेदपोश हैं । और माजीद जैसे लोग जरायमपेशा ! क्या जो लोग हथियार, या ड्रग्स बेचते हैं  वो इक्के-दुग्गे लोग हैं । सारे काम इन सफेदपोश और बड़े लोगों की इच्छा-शक्ति और सत्ता के संरक्षण के बिना आखिर कैसे हो सकता है ? इसको ऐसे समझना चाहिए कि हमारे देश के उन हिस्सों में जहाँ शराब बैन है । वहाँ शराब बिकती है । स्थानीय थाना को सेट कर लिया जाता है । आबकारी को उनका हिस्सा जाता है । इसका एक बड़ा नेटवर्क है । सियासतदानों से लेकर अफसरशाह सब के सब बिके होते हैं । तभी इतनी तादात में शराब बनती और बिकती है । कभी जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिये दीपावली और दशहरे में दुकानों में दबिश दी जाती है । छोटे- छोटे पॉलीथीन और ताड़ी बेचने वालों को पकड़कर जेल में बंद कर दिया जाता है । अखबार का कॉलम भरने के लिये  कमीशन खाने वाला अधिकारी ही अपने जिले के अफसरों को डाँटता फटकारता है । साल में दस लोगों भी नहीं पकड़े जाते । आखिर, जेल मैनुअल और उसकी डायरी को मेंटेंन भी तो करना होता है । यहाँ हर बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है । थोड़ा बहुत गुलाब सिंह भी राजनीति समझता है । वो देख रहा है, कि इधर कुछ सालों में हमारे देश से क ई उधोगपति गायब हो गये हैं । बैंकों से बड़ा - बड़ा कर्जा लेकर । हजार, दो पाँच हजार करोड़ लेकर कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका । क्या ये सब बिना मिली भगत के होता है ? क्या बड़े - बड़े एम. पी., एम. एल. ए., मिनिस्टर से उनकी कोई साँठ गाँठ नहीं है ? बिना साँठ- गाँठ के बैंक इनको इतना बड़ा बड़ा कर्जा दे देती है । नहीं एक बहुत बड़ी लॉबी होती है, इनकी । मिनिस्टरों से बड़ा बड़ा करार होता है, इनका । बाहर के देशों में ये उद्योगपति इन मिनिस्टरों के लिये बैंकों में इनके नाम से पैसे जमा करवा देते हैं । उनके बच्चों के लिये शॉपिंग मॉल, जिम, कॉम प्लेक्स बनवा देते हैं । इन पैसों से इन मिनिस्टरों के लिये विदेशों में जन समर्थन जुगाड किया - करवाया जाता है । ताकि, उनकी राजनीति वहाँ भी चमकायी जा सके । उधोगपति वहाँ भी अपनी जमीन ले सकें । कारखाने लगा सकें । अपना व्यवसाय विदेशों तक फैला सकें । उनका प्रोडक्ट विदेशों में भी जोर-शोर से बिके । उसकी आमदनी लगातार बढ़ती जाये । फिर वहाँ की सरकार में वे एक मुकाम हासिल करें । अपने लोगों के लिये लॉबिंग करें । चुनाव में सरकार को फंड दिये जाते हैं । जो करोड़ो रुपये के रूप में होते हैं । ये पैसे उधोगपति सत्ता में बैठे सरकार और विपक्ष दोनों को बारी-बारी से देती है । अनुकूल -प्रतिकूल परिस्थितयों को देखकर । सरकारें आती-जाती रहतीं हैं । जनता वही रहती है । जो उनके प्रोडक्ट खरीदती है । 

गुलाब सिंह का छोटा भाई संतन विकलांग है । उसका एक हाथ नहीं है । घर में बैठे-बैठे उसका मन नहीं लगता  था । सोचा कोई छोटा-मोटा कुटीर उधोग ही लगा ले । इसके लिये कुछ बैंकों से कर्जा ले ले । वो कई बैंकों के चक्कर लगाता रहा । लेकिन हाल वही था । जब तक हाथ पर कुछ रखोगे नहीं फाईल आगे नहीं बढ़ती । आज कल गुलाब सिंह के बनाये कट्टों पर संतन पॉलिश करने का काम करता है । 

सरकार इन उघोगपतियों के प्रत्यर्पण की बात करती है । लेकिन, लंदन और दूसरे देशों के प्रत्यार्पण कानूनों का मसौदा और उसकी जटिलतायें भी अलग अलग हैं । जो चीज हमारे देश में अपराध है । जरूरी नहीं कि दूसरा देश भी उसे अपराध मान ले । बैंकों से पैसे लेकर भागे लोग उस देश में जाकर वहाँ अपने शॉपिंग मॉल्स, खोलते हैं । कारखाने लगाते हैं । वहाँ काम लंदन, यू. के., और अमेरीकियों को मिलता है । अब कोई आदमी बाहर से आकर उनके देश के लोगों को काम देगा । उसके देश को कमाई देगा । तो कौन सा ऐसा देश है, जो हमारे देश की बात मानेगा । और उन उधोगपतियों को हमारे सुपुर्द कर देगा ? सभी अपने- अपने स्वार्थ से जुड़े हैं । 

हमारे देश के लोग नहीं चाहते कि हमारे देश में बड़ी-बड़ी कंपनियाँ लगें । लोगों को रोजगार मिले । बेकारी खत्म हो । दर असल दुनिया के सभी मुल्कों में रोजगार एक प्रमुख समस्या के रूप में उभरकर सामने आयी है । एक ही देश के दो राज्यों के भीतर बाहरी-भीतरी की लड़ाई छिड़ी हुई है । कुछ सालों पहले आस्ट्रेलिया में एक आई. टी. के एक छात्र की हत्या हो गई थी । उस देश के लोगों को लगता है कि भारतीय छात्र उनकी नौकरियाँ खाते जा रहें हैं । 

विदेशों में भारतीय छात्रों पर हाल के वर्षों में हमले बढ़े हैं । इसका कारण केवल और केवल रोजगार का छिन जाना है । अपने देश में भी महाराष्ट्र में बिहारियों और यू. पी. के लोगों को मारा और भगाया जा रहा है । सब प्राथमिकता सूची में आगे रहना चाहते हैं । अपने लोगों को सब जगह काम मिलना चाहिए । दूसरे लोग हाशिये पर धकेल दिये जाते हैं । 

फिर, माजीद या जगविंदर जैसे लोग थोड़ा बहुत हेर-फेर कर लेते हैं । तो इन सरकारों का क्या जाता है ? ये तो जीने और खाने के लिये हेर-फेर करते हैं । पैकेट इधर-उधर कर देते हैं । लेकिन, ये सत्ता में फेर बदल या हेर - फेर नहीं करते ? चुनाव के बाद विधायकों को खरीदकर विपक्षी पार्टी अपना सरकार बनवाती है । ये लोकतंत्र की हत्या नहीं तो और क्या है ? वकील पैसे लेकर अपराधी को बचाता है । बनिया अनाज में कंकर - पत्थर मिलाता है । ग्वाला दूध में पानी मिलाता है । सब अपने अपने स्तर से हेर- फेर करते हैं । अपनी- अपनी सुविधा के अनुसार । फिर देश के इस पार और उस पार सियासतदान एक तरफ हमारी कौम को खतरा है  तो दूसरी तरफ हमारी कौम को खतरा है का राग अलापते हैं । और शिक्षा, मँहगाई, बेरोजगारी के मुद्दे पर चुप्पी साध लेते हैं । दोनों देशों की सेनायें और जनता आपस में लड़ती और मरती रहती है । कभी देखा है इस पार के या उस पार के किसी नेता के बच्चे या नेता को मरते हुए । उनके लिये तो वी. वी.आई. पी. सुरक्षा की व्यवस्था होती है । किसी हँगामे में सिक्यूरिटी फोर्सेज नेताजी को सुरक्षित बाहर लेकर निकल जाती है । अखबार के पृष्ठ पर किसानों और मजदूरों के बच्चे जो या तो फोर्सेज में या सेना में होते है, मारे जाते हैं । सरहद पर या वी. वी. आई. पी. की सुरक्षा में गोली खाने के लिये । 

" अजी सुनते है । आज शाम का खाना नहीं बनेगा क्या ? जाओ जाकर जँगल से लकड़ियाँ बीन लाओ । " लाड़ो ने हाँक लगाई तो गुलाब सिंह की तँद्रा फिर से एक बार टूटी । 

उसने पाईप को आग पर गर्म करने वाले पँखे को बंद किया और चल पड़ा जँगल की ओर लकड़ियाँ चुनने । 

थोड़ी देर बाद वो एक बोरे में थोड़े से पत्ते चुनकर जँगल से ले आया । पैतन पुर छोटा सा गाँव है । लेकिन उसके गाँव घर में उज्जवला का अबतक कोई कनेक्शन नहीं आया है । राशनकार्ड भी नहीं बना है, उसका । सिगड़ी में आग सुलग रही थी । उसने पतीली चढ़ाई चाय बनाने के लिये । उस आग में उसको अपना भविष्य भी धू-धू करके जलता दिखने लगा था । उसमें उस आग से आँख मिलाने का ताव नहीं बचा था । क्या करेगा जब उसका बच्चा भी अपराधी बन जायेगा ?

उसके दादा-पड़दादा आजादी के आँदोलन में स्वतंत्रता सेनानियों के लिये तलवार, फरसा, गँडासा और भाला बनाते थें । अंग्रेजों से लड़ाई के लिये । लेकिन उन दिनों दूसरे लोग या विदेशी हमारे दुश्मन थें । अब अपने लोग
हैं । जो सत्ता में बराबर की भागीदारी रखते हैं । लेकिन, हमारे हक की बात कभी नहीं करते । 

फिर, कौन अपने और कौन बेगाने लोग ? जो अपने हैं, घोटाले कर रहें हैं । हमारे हिस्से का सब कुछ सफेदपोश बनकर हमारे ही सामने खा जा रहें हैं । भेंड़ों का शिकार कुछ भेंडिये कर रहें हैं । भेंड़ों का एक भरा पूरा झुंड़ है । भेंडिये, शेर की तरह भेंड़ के पुट्ठों को नोच खाना चाहते हैं । और भेंड़ों का झुंड असहाय होकर एक-दूसरे को ताक रहा है । इससे भले तो ब्रिटिशर थें । कम से कम आजादी के इतने दिनों के बाद भी बने पुल - पुलिया, साबुत बचे हैं । यहाँ तो उदघाट्न के दो दिन बाद ही पुल - पुलिया गिर जा रहें हैं । क्या हुआ आजादी के छिहत्तर सालों के बाद भी ? विकास, गुलाब सिंह के गाँव का रास्ता जैसे भटक सा गया है । उसके गाँव में आज भी पक्की सड़क नहीं बनी है । चापाकल तो हैं, लेकिन उनमें पानी नहीं आता । सिस्टम की तरह विकास भी अंधा हो गया है !

"बाबा काम हो गया क्या ? कार वाली पाईप समेट कर रख दूँ ? "

करमजीत सिगड़ी पर चढ़ी चाय को देखते हुए बोला । 

" हूँ, हाँ बेटे, कार की पाईप बाद में रखना । इधर आ मेरे पास आकर बैठ । " करमजीत वहीं पास में आकर जमीन पर बैठ गया । 

" बेटा, कोई भी बाप ये नहीं चाहेगा कि उसका बेटा बड़ा होकर कट्टा बनाये । कल से ये कट्टा बनाने का मैं छोड़   दूँगा । क्या करूँगा, तुम्हें अपराधी बनाकर ! कल बाहर चला जाऊँगा । तुझे और तेरी अम्मा को भी साथ ले चलूँगा | चेन्नई तेरे मामा के पास । तेरा मामा वहीं पोर्ट पर काम करता है । वहीं कोई काम खोज लेंगें । ना तो अब कट्टा बनाऊँगा ना ही बेचूँगा | अब कभी इस गाँव में नहीं लौटेंगें 

हम । तुझे अपने सामने खत्म होते हुए नहीं देख सकता, बेटा । "

और गुलाब सिंह ने अपने बेटे करमजीत को अपने से चिपटा लिया । वो लगातार रोये जा रहा था । 

करमजीत को अब भी ये समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ क्या है ? लेकिन; क्या इतने भर से ये समस्या खत्म हो जानी थी ? उस गाँव में जब सैकड़ों की संख्या में गुलाब सिंह जैसे लोग

थें । सैकड़ों की संख्या में करमजीत सिंह और सीमा के उस पार माजीद जैसे लड़के थें ?  

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श्रद्धांजलि

मिनाक्षी मैनन
होशियारपुर (पंजाब), मो. 9417477999


इमरोज़ फरवरी विशेषांक से प्रेरित इमरोज़ को
भावभिनी श्रद्धांजलि

इंकार कहा है मुझे

कि अमृता की हस्ती थी

कुछ इस कदर रौशन कि

दीवानावार चाहते उसे

मरते दम तक इमरोज़।

लेकन ‘इमु’ बन के,

खुद की हस्ती मिटा के,

बख़्श दे जो इश्क को नया मुकाम,

ऐसे इन्द्रजीत भी तो, 

नहीं पैदा होते हर रोज ।

किसी से प्यार, महोब्बत इश्क हो जाना कोई बड़ी बात नहीं । ये किस्सा आम है। पर अपने वुजुद की चादर को महबूब की चाहत के रंग में रंग लेने वाले रंगरेज विरले ही होते हैं ।

सारी दुनिया जानती है कि ‘वो’ उसकी पीठ पर ‘साहिर’ लिखा करती थी, लेकिन वो पल, दिन, महीने इमरोज की रूह पर उन हरफ़ों के ‘अमृता’ के नाम से दर्ज करते रहे । उसकी पीठे जैसे एक कैनवस हो गई थी जिस पे उकेर रहा था वक्त, रूहदारियों की एक अजब-गजब दास्तान। न तो वो ऊँगलियाँ ही महसूस कर पाईं साहिर लिखते हुए और न ही वो कैनवस ही जान सका कि स्कूटर तो किसी मंजिल पर रूक जाएगा पर ये जो रंग बिखर रहे थे उस पे, वो तो एक ऐसी तस्वीर बना देंगे कि रहती दुनिया तक हैरत से तकेगा ज़माना उस को । अचरज में आ जाएगी पूरी ख़ुदाई भी कि किसी जादुई गर्दिश में थे वो सितारे उस वक्त जब 26 जनवरी 1926 को इन्द्रजीत ने जनम लिया और इश्क का एक लासानी संविधान उसकी कुंडली में दर्ज हुआ ।

अमृता के कमरे की परिक्रमा करके यह कहना कि लो, धूम ली दुनिया, यह शायद कोई दीवाना उन से पहले या उनके बाद न कह पाया होगा न ही निभा पाया होगा । अपने महबूब को अपनी दुनिया, अपना सब कुद कह तो देते हैं लोग, पर सांस-सांस पर ये जीना, जिस्म मिट जाने के बाद तक भी निभाना और इन्तज़ार करना सांसों की नदी के उस पार जा कर मिलने का क्योंकि उसने कहा था ‘‘मैं तैनूं फेर मिलांगी-’’ मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन सा भी लगता है ऐसी सोने जैसे खरी महोब्बत कर पाना जो इमरोज़ साहिब निभा गए ।

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आलेख

डॉ. रामनिवास वर्मा

गांधीनगर, गुजरात, मो. 99784 05694


पाती भारत माता के नाम

परम पूज्यनीया भारत माता,

सादर शुभ अभिनंदन चरण वंदन !

हे मां ! आपकी कुशलता की कामना करती हूं । आपके असीम भौगौलिक विस्तार एवं महानतम संस्कृति का साक्षी समय रहा है । आपके अध्यात्म, धर्म, दर्शन और वैभव का कोई सानी न था, न हुआ है । कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर मौसम अलग रंग अलग वेशभूषा, भाषा है, फिर भी एकता भाईचारा प्रेम है । यही हमारी भारतीयता है । 

विदेशी आपकी एक झलक पाने को लालायित रहे हैं । वे आज भी भारतीय संस्कृति, वैदिक सनातन धर्म और दर्शन को जानने सीखने को प्रयासरत हैं । 

हे मां ! आज भारत आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, तकनीकी, विज्ञान, खेलकूद आदि क्षेत्रों में प्रगति कर रहा   है । खान-पान, रहन-सहन भी बदल गया है । विविध पकवान उपलब्ध हैं, किंतु स्वाद पहले सा नहीं है । तन को विविध परिधानों से सजाते हैं, लेकिन मन की सुंदरता पहले सी नहीं है । 

अनेक विधाओं में शिक्षा ले रहे हैं किंतु संस्कार, सदाचार और जीवन जीने का व्यवहारिक ज्ञान गुम हो चला है । आज गुरुकुल के जैसी शिक्षा आधुनिक शिक्षण संस्थानों में नहीं है । इसलिए आज जीवन मूल्यों में गिरावट है । समूचे भारतवर्ष को एक राष्ट्र के रूप में देखने और आपसी सौहार्द भाव में कमी आई है । 

'वसुधैव कुटुंबकम्' के पथ पर जाति, वर्ण भेद के कांटे बिछा दिए हैं । (कृण्वंतो विश्वमार्यम् ) सारे विश्व को श्रेष्ठ बनाने की कामना, सर्वेषाम् मंगलम् भवतु" प्राणी मात्र के कल्याण का भाव दिलों से धूमिल हो रहा है । पूर्वजों द्वारा बताए "संगच्छध्वम् संवदध्वम् संवोमनांसि जानतां" के सुंदर समरसता भाव को आज हम भूल गए हैं । 

संस्कार संस्कृति की भाषा देववाणी संस्कृत भारत की भाषा रही है । संस्कृत भाषा ने अपनी बेटी हिंदी भाषा को उत्तराधिकारिणी बनाया । स्वतंत्रता के आठ दशक पूरे होने को हैं, लेकिन हिंदी भाषा भारत के जन-जन की भाषा होकर भी राष्ट्रभाषा नही बन पाई है । 

मां ! भारत की गौरव गाथा आप जानती हैं, ये वही भूमि है, जिसका गान देवता करते आए हैं । " गायन्ति देवाः किल गीतिकानि" देव भी भारत -भू पर जन्म लेने को तरसते हैं । 

मां! आपको कष्ट तो होता होगा, आज भारत - भू के कुछ लोग अपने आचरण और व्यवहार से समाज और राष्ट्र की एकता को विखंडित कर रहे हैं । जाति धर्म, लिंग भेद के आधार पर सांप्रदायिकता, असहिष्णुता फैला कर व्यक्ति को व्यक्ति से दूर कर रहे हैं । 

आपकी नारायणी स्वरुपा बहन बेटियों माताओं पर जुल्म ढाए जा रहे हैं । समाज का ये दूषण बच्चों के दिलों में भी नकारात्मक ऊर्जा भर रहा है | बच्चे बड़ों जैसी हरकतें कर रहे हैं । 

अब मानव देश, काल और परिस्थिति अनुसार आचरण नहीं करता । आज आत्म संयम, वाणी, तन, मन संयम सब लुप्तप्राय है । छल , कपट, दंभ ने मानव को मानव का शत्रु बना दिया है । सेवा, परोपकार, त्याग, समर्पण की जगह लोगों के मन में सत्ता व पद का अहंकार है । देशहित, देशप्रेम की जगह अब व्यक्तिगत हित ने ली है । जनप्रतिनिधि जाति, धर्म भाषा के आधार पर राष्ट्र को विभाजित करने में लगे हैं । 

संकीर्ण मानसिकता, स्वार्थपरकता समाज व राष्ट्र का स्वरूप बिगाड़ रही है । हे माता ! | मुझे याद आता है बचपन वाला छब्बीस जनवरी, पंद्रह अगस्त का पर्व तब दिलों में जो राष्ट्रप्रेम था, आज वो दिखाई नहीं देता । 

हम भौतिक विकास में इतना लीन हो गए हैं कि आत्मविकास को भूल रहे हैं । मानवीय मूल्यों को खो चुके हैं । मानव अब मानव का व्यापार करने में लगा है । आपको भी ये सब देखकर कष्ट तो होता होगा । कोई मां नहीं चाहती उसके बच्चे एक दूजे से नफरत करें, एक दूजे का नुकसान करें । अपने स्वर्ग से सुन्दर घर को अशांत करें । 

शास्त्रों में कहा गया है 'कुपुत्रो जायेत् क्वचिदपि माता कुमाता न भवति' ; । आप मां हैं, अपने बच्चों को सद् बुद्धि दें, हे भारत माता ! |

आपकी लाड़ली पुत्री, 

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उपन्यास अंश

अशोक गुजराती
मुंबई, मो. 9971744164

युक्तिवाद

 निशीथ के पिताजी नगर के सम्मानित व्यक्ति थे । वे आरडीजी महिला महाविद्यालय की प्रबंधन समिति के वरिष्ठ सदस्य थे । उस कालेज में हिन्दी की प्राध्यापिका का पद रिक्त था । उसके लिए अनु का आवेदन लगा दिया गया । सीताबाई कला महाविद्यालय में शाम को लॉ के क्लासेस चलते थे । अंजल ने वहां द्वितीय वर्ष में प्रवेश ले लिया । 

समय अब तेज़ी से गुज़रने लगा । उभय प्रेमी अपनी धुन में विभोर थे । नूतन सांसारिक गतिविधियां तो थीं ही, मानसिक एवं दैहिक प्यार के अनजाने रहस्य उन नवोदितों को एक अलग ही आनंद में डुबोये हुए थे । नया परिवेश, नये परिचय, नया साथ उनको अपने प्रवाह में बहा रहा था । उनको बस एक ही इंतज़ार ने बेचैन किया हुआ था कि आय के साधन अविलंब उपलब्ध हो जाएं । इसकी ख़ातिर वे इस-उस स्कूल, कालेज में साक्षात्कार देने में लगे हुए थे । 

और हो गया । अंजल की नौकरी अभी अधर में ही थी लेकिन अनु का महिला म । वि । में चयन हो गया । अर्धांगिनी ने आधा सहारा दे दिया था । ज़रा निश्चिंतता की सांस ली दोनों ने । 

अंजल को नौकरी नहीं मिलनी थी, नहीं मिली । उसकी न कहीं जान-पहचान, न कोई सिफ़ारिश ही थी । वह अपनी लॉ की पढ़ाई करता रहा । अनुभूति कालेज जाती रही । गृहस्थी चल रही थी पर अंजल अंदर ही अंदर घुलता जा रहा था । उसके स्वाभिमान को यह सह्य नहीं था कि पुरुष चारदीवारी में बैठे और स्त्री कमाकर लाये । 

आख़िर उससे न रहा गया । वह पशेमान होकर अनु से एक रात बोला, ‘मुझसे, अनु, यह बर्दाश्त नहीं हो रहा । तुम कमा रही हो और मैं निठल्ला बैठा हूं ... ’

‘अरे! इसमें इतना हतोत्साहित होने की क्या आवश्यकता है । क्या आप और मैं विभक्त हैं? परिस्थितियों ने मुझे अवसर दे दिया । यदि आपको देती तब क्या मैं यूं ही कलपती?’ उसने अंजल की डबडबायी पलकों को चूम लिया । 

‘पता नहीं ... स्त्री अर्जन करे, मैं इसका पक्षधर हूं पर असल में मुझे ऐसे बैठे-ठाले ज़िन्दगी बिताने से उज़्र और ऊब का अहसास हो रहा है । ’ अंजल ने ख़ुद को ज़ब्त करते हुए अपने संताप की व्याख्या की । 

अनु ने उसकी उंगलियां अपनी में जकड़कर दिलासा दिया । फिर कहा, ‘मैंने निशीथ भैया से इस बाबत ज़िक्र किया था । उन्होंने और चाचाजी ने असमर्थता जतायी कि जहां-जहां वे कुछ दख़ल रखते हैं, वहां हिन्दी प्रवक्ता का पद ही ख़ाली नहीं है । मैं मौन रह गयी कि उन्होंने मेरे लिए जो किया, वह क्या कम है । । ?’

‘नहीं ... नहीं ... अब उनसे मत कहना । उनके पहले ही हम पर इतने अहसान हैं ... मज़े की बात ये है कि हमारे विषय की कोई ट्यूशन भी नहीं लगाता । घर की मुर्गी दाल बराबर । और फिर हिन्दी में फ़ेल हो जाता है । ’ अंजल के अधरों पर मुस्कान खेल गयी । 

अनु ने बुरे में भी अच्छा विचारा- ‘जो हो रहा है, वह शायद क़ुदरत का एक इशारा ही है । आपको वैसे भी अध्यापन से अरुचि है । यह साल बीता रे बीता कि आप वकालत शुरू कर पायेंगे । ’

‘मैं भी यही सोच रहा था । कल मैं यहां के प्रसिद्ध वकील मोहन देशमुख से मिल आता हूं । वे मुझे सहायक रख लेंगे तो मैं कोर्ट की अंदरूनी कारगुज़ारियों से वाबस्ता हो पाऊंगा । ’

‘सही है । इस बहाने आपका प्रैक्टिकल ट्रेनिंग भी हो जायेगा । आप उनके वेतन के प्रश्न को नकार देना । मुफ़्त में कार्य करना पड़े, तब भी यह अनुभव भविष्य में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा । आपका निश्चित ही आत्म-विश्वास बढ़ेगा और आप अपना व्यक्तिगत कार्यालय खोल सकेंगे । ’

अंजल अगले ही दिन मोहन देशमुख से मिला । उनकी तीक्ष्ण दृष्टि ने अंजल की प्रबुद्धता परख ली । उन्होंने उसे अपना सहायक नियुक्त कर लिया । पगार थोड़ी ही दे पाऊंगा, यह कहा । अंजल ने सौजन्यता से कुछ भी लेने से इन्कार कर दिया । इस तरह उसकी नई पारी का आगाज़ हो गया । 

अंजल बेरोज़गार नहीं रहा लेकिन बेवेतन तो था ही । अनु इसकी भरपायी अपनी तनख़्वाह से कर रही थी । वकालत की दुरुह एवं जटिल तफ़सीलें आये दिन सीखने को मिलने से उसका चित्त शांत व स्थिर होने लगा । उसका हीनता-बोध भी कमती हो गया । उसके अंतर्मन से नाकारेपन का बोझ हटने को था । कुंठा लुप्तप्राय होकर उसका बर्ताव सामान्य पति-सा होता गया । 

उनकी जीवन-चर्या उसी पुराने ढर्रे पर चल निकली । परीक्षाएं हुईं, जिसमें अनु की अतिरिक्त आय हुई पर व्यस्तता भी बढ़ी । अंजल ने पर्याप्त परिश्रम किया । उसका इम्तहान हुआ, परिणाम आया । अविश्वसनीय । एलएल । बी । में वह गोल्ड मेडालिस्ट घोषित हुआ था । देशमुख वकील ने उसे ख़ास तौर पर बधाई ही न दी, अपना विश्वस्त बनाकर उसके मना करने पर भी वेतन देना शुरू कर दिया । 

यह उनकी बेहतरी के लिए नया आयाम साबित हुआ । उन्होंने बैंक में एसआइपी खोल ली । यह एक साल उनके पास था, धन अपनी आवश्यकता हेतु उनको ताक रहा था । योजना यही थी कि वर्षांत पर निजी वकालत का काम अपने ज़मीनी-तल के फ़्लैट के सामने के कमरे में प्रारंभ किया जाये । 

यह भी हो गया । मोहन देशमुख से उद्घाटन करवाया, निशीथ के पिताजी ने आशीर्वचन कहे । चाय-नाश्ते के साथ छोटे-से कार्यक्रम का आयोजन किया गया । कुछ परिचित, चन्द दोस्त और कई सारे पड़ासियों को निमंत्रित किया गया । 

अंजल एवं अनुभूति के नाम से कार्ड भेजा गया था । इन नामों से उनके भिन्न धर्म की कोई कल्पना नहीं कर सकता था । अंजल (बड़ी आंखों वाला) हिन्दू नाम ही लगता है । इसमें और एक आश्चर्यजनक परिवर्तन अंजल ने कर लिया था । स्त्रियां विवाह के पश्चात पति का वंश-नाम धारण कर लेती हैं । कोई-कोई मध्य में अपना भी जोड़ लेती हैं । अंजल ने हलफ़नामा दाख़िल कर अपने नाम के आगे पत्नी का वंश-नाम लगाया और नयी परिपाटी डाली- अंजल पूनीवाला । यह सच्चाई और कि ऐसा सरनेम चन्द बोहरों, पारसियों तथा मुसलमानों में भी होता    है । 

धीरे-धीरे अंजल की वकालत फलने-फूलने लगी । अर्थात् मोहन देशमुख का इसमें ‘सिंह-हिस्सा’ था । वे अपनी अति व्यस्तता के चलते फ़ौजदारी के कुछ मुक़दमे अंजल को अंतरित करते रहे । इसका भरपूर फ़ायदा अंजल ने उठाया । 

तभी एक निहायत ग़रीब युवती अंजल के निवास-स्थान को ढूंढते हुए आयी । उसकी मां काशीबाई की मालकिन श्रीमती सहाय का किसीने ख़ून कर दिया था । पुलिस ने उसकी मां को गुनाहगार मानकर हथकड़ी लगा दी थी । अंजल उसके साथ पुलिस चौकी गया और अपनी जेब से ज़मानत देकर उसे छुड़ाया । 

बस । यहां से अंजल को वह राह सुझायी दी, जिस पर वह चलना चाहता था । वह दीन-हीनों की निशुल्क सेवा करने का प्रण लिये था । इस केस ने उसकी प्रतिज्ञा को मज़बूती प्रदान की । जैसा कि उसने सोच रखा था, सक्षम से फ़ीस लेनी है; धनाढ़्य से और अधिक लेकिन विपन्नों से अल्प अथवा बिलकुल नहीं । यहां तो उसने ख़ुद आर्थिक मदद की थी । 

श्रीमती सहाय विधवा थीं । उनके पति सरकारी अफ़सर रहे थे । उन्होंने ख़ूब कमाया । अपनी आलीशान कोठी खड़ी की । एक बेटा था- सुभाष । वह ज़्यादा पढ़ा नहीं । आवारागर्दी करने लगा । पिता ने उसकी पसन्द से तसले बनाने का कारख़ाना लगा दिया । वह घाटे में चलता रहा । बारहा वह पिता से पैसे मांगता ही रहता- कोई न कोई कारण बताकर । उसको जुए और शराब की लत थी । 

तंग आकर मां-बाप ने इलाज के तौर पर उसकी शादी कर दी । कुछ महीने वह ठीक रहा । नीम पर चढ़े करेले की बेल की मानिन्द उसकी पत्नी बेहद झगड़ालू थी । उसकी ज़िद पर सुभाष अलग रहने चला गया । अलबत्ता अपना ख़र्च पिता से ही लेता रहा । पिता इकलौते बेटे के व्यवहार से इतने क्षुब्ध हुए कि दिल की बीमारी पाल ली । उसी में उनका सेवा-निवृत्ति के एक वर्ष पश्चात ही देहावसान हो गया । अब सुभाष मां से मुद्रा की उगाही करने लगा । 

यह सारा कच्चा-चिट्ठा अंजल को काशीबाई द्वारा मालूम हुआ । वह इन्स्पेक्टर से मिला और अपना शुबहा ज़ाहिर किया । उसको एक बार घटना-स्थल पर ले चलने का अनुरोध किया । 

काशीबाई उनकी कोठी में दस सालों से मुलाज़िम थी । परिसर में ही पीछे की तरफ़ उसका क्वार्टर था । वह भी विधवा थी । घर में वह और उसकी बेटी दो ही सदस्य थे । मालकिन की तबीयत कम-ज़्यादा होती रहती थी । अतएव बेल लगा ली गयी थी, जिसका बटन मालकिन के बेड के सिरहाने ही था । उसके दबाते ही काशीबाई की खोली में घण्टी बज उठती थी । दिन हो या रात, कितने ही बजे हो, वह अविलंब श्रीमती सहाय की सेवा में उपस्थित हो जाती थी । 

यानी वह चौबीस घण्टों की सेविका थी । वैसे सुबह सात से रात में नौ तक, अपने खाने-पीने का समय छोड़कर, वह कोठी में ही तैनात रहती थी । मालकिन को उठकर दरवाज़ा खोलना-बंद करना न पड़े इसलिए एक चाबी सदा उसके पास रहती थी । दूसरी चाबी बेटे को दे रखी थी । 

जब इन्स्पेक्टर के साथ अंजल कोठी पर गया, उसने ख़ास-ख़ास जानकारी दी- ‘काशीबाई का कहना है कि वह नौ बजे रात को अपने क्वार्टर पर चली गयी थी । सवेरे सात बजे आयी तो श्रीमती सहाय का ख़ून से लथपथ शव पलंग के नीचे पड़ा था । उसीने कोठी के फ़ोन से पुलिस को सूचना दी । ’ इन्स्पेक्टर ने शव का स्थान बताया । उघड़ी अलमारियां दिखायीं, जो ख़ाली पडी थीं, कपड़े-लत्ते नीचे बिखरे हुए थे । सेफ़ के पट पूरे खुले थे । अर्थात् नक़दी और गहने कोई चुरा ले गया था । 

‘मतलब चोर आया था । आपने काशीबाई के क्वार्टर और समूचे परिवेश को छान मारा है । ’ अंजल ने इन्स्पेक्टर के मन की शंका स्वयं ही व्यक्त कर दी । 

‘लगता ऐसा ही है क्योंकि किसीने कोठी के आख़िरी कमरे की खिड़की का कांच फोड़ा और हाथ डालकर उसे खोल लिया था । हम आये तब भी वह खुली ही थी । ’ इन्स्पेक्टर ने अपना क़यास स्पष्ट किया । 

‘चलिए, ज़रा मुझे भी उस खिड़की के दर्शन करा दीजिए । ’ अंजल ने आग्रह किया । 

इन्स्पेक्टर ने जैसा चित्रित किया था, लगभग दृश्य वैसा ही था । अंजल ने क़रीब जाकर खिड़की के पट खोले और बाहर झांका । मुस्कराते हुए पलटा- ‘मैंने चोर को पकड़ लिया, इन्स्पेक्टर!’

‘कौन है ... कहां है?’ इन्स्पेक्टर भौंचक उसे देखता रहा । 

अंजल ने उसका कंधा थपथपाते हुए पूछा, ‘चोर बाहर से ही आया होगा न साहब?’

‘ऑफ़कोर्स!’

‘तब तो उसने कांच भी बाहर से ही फोड़ा होगा ... ’

‘इसमें भला क्या शक है । ’

‘तब साहब, टूटे कांच के टुकड़े कहां गिरेंगे?’

‘अ ... अंदर । ’ इन्स्पेक्टर ने अंजल का लोहा मान लिया- ‘लेकिन कांच के टुकड़े बाहर पड़े हैं । तो क्या किसीने भीतर से कांच फोड़ा है । । ?’ 

‘करेक्ट! यह किसीने भ्रम में डालने के उद्देश्य से जान-बूझकर किया है । ’ अंजल ने खुलासा किया- ‘यदि चोर बाहर से कांच फोड़ता, उस आवाज़ को सुनकर श्रीमती सहाय फ़ौरन बेल बजाकर काशीबाई को बुला लेतीं । है कि नहीं?’

‘बिलकुल । मेरे ख़याल से ऐसा दो ही व्यक्ति कर सकते हैं- काशीबाई या श्रीमती सहाय का बेटा । मुख्य दरवाज़े की चाबी दोनों के पास रहती थी । इन्स्पेक्टर ने अपनी अक्ल की घोड़ी दौड़ायी । 

अंजल ने उसकी तारीफ़ की- ‘आपका अनुमान एकदम सही है । मैंने श्रीमती सहाय के बेटे सुभाष का अतीत खंगाल लिया है । उसे दारू और जुए का व्यसन है । बाप ने लगा दिया कारख़ाना औंधा पड़ा है । आये दिन अपनी मम्मी से पैसे मांगता रहता है । हो सकता है, श्रीमती सहाय ने ना-नुकुर की हो और ग़ुस्से और नशे की हालत में उसने मां पर वार कर दिया हो । ’

इन्स्पेक्टर ने गर्दन हिलायी- ‘हां । ऐसा ही हुआ होगा ... लेकिन वह नक़दी और गहनों की चोरी क्यों करेगा । वही अकेला वारिस है । उसे ही सब मिलना है । ’ 

अंजल ने सोचा, संगत का असर बुद्धि पर भी होता है । फिर कहा, ‘आपका तर्क बराबर है पर उसने चोरी का यह नाटक भी चकमा देने के इरादे से रचा हो तो ... ’

अंजल ने निर्णय ले लिया कि उसे अब क्या करना है- ‘इन्स्पेक्टर साहब, आपको एक सहायता करनी होगी । इस रहस्य पर से जल्द ही पर्दा उठ जायेगा । मैं अदालत से श्रीमती सहाय के बेटे सुभाष का तलाशी वारंट निकलवाता हूं । यह बात आप अपने तक रखिए । आप उसके घर की तलाशी लेंगे तो सारा माल-असबाब वहीं मिल सकता है । ’

‘ठीक है । आप वारंट बनवाइए, मैं इस कार्य को चुपचाप अंजाम दूंगा । ’

‘शुक्रिया साहब । ’

अगले दिन अंजल ने माननीय न्यायाधीश महोदय के चेंबर में व्यक्तिगत मुलाक़ात के लिए अपना कार्ड भेजा, यह लिखकर कि आवश्यक गोपनीय काम है । अनुमति मिल गयी । अंजल ने वास्तविक अपराधी के विषय में अपने शक का कारण विस्तार से बयान किया और उस तक ख़बर पहुंच गयी तो वह सावधान होकर चोरी के माल को कहीं और स्थानांतरित कर सकता है, यह अंदेशा भी प्रकट किया । उसके निवेदन को जज साहब ने पूरा सम्मान दिया और लिखित आदेश दे दिया । उसके पश्चात गुपचुप वारंट बना लिया गया । 

सुभाष के आवास की जामा तलाशी हुई और वाश रूम के ऊपर छिपायी समस्त क़ीमती वस्तुएं तथा नोटों की गड्डियां बरामद हो गयीं । 

न्यायालय में जब अंजल ने प्रतिवादी के वकील को सामने देखा तो उसकी सांस अंदर की अंदर और बाहर की बाहर रह गयी । जी हां, सुभाष के वकील और कोई नहीं, नामी अधिवक्ता मोहन देशमुख ही थे । अंजल के गुरु । उसे लगा, अब मेरी छुट्टी हो गयी ... मैं क्या तो लड़ पाऊंगा अपने ही श्रद्धेय से । ज्यों अर्जुन के सम्मुख कौरव की सेना की अगुआई द्रोणाचार्य कर रहे हों ... एक पल के लिए, मात्र एक पल के लिए वह उधेड़बुन में फंसा किन्तु तुरंत ही उससे छुटकारा पा लिया । स्वयं को सहेजा और युद्ध हेतु तत्पर हुआ । 

कचहरी की औपचारिकताएं पूर्ण होते ही अंजल ने प्रारंभ किया । उसने खिड़की के टूटे कांच बाहर की तरफ़ बिखरे होने का सत्य विश्लेषित किया । उसने आगे कहा, ‘इसका अर्थ है भीतर से कांच फोड़ा गया था । मुख्य दरवाज़े की चाबी काशीबाई एवं सुभाष के पास थी लेकिन ग़ायब हुए नोट व गहने सुभाष के निवास से ज़ब्त किये गये हैं । निस्संदेह वही हत्यारा है । ’

मोहन देशमुख ने कई दलीलें दीं । पति-पत्नी घर पर नहीं थे तब किसीने साज़िश के तहत सुभाष के यहां चोरी का माल लाकर छिपा दिया था; हत्या की रात सुभाष अपनी पत्नी के साथ सेकिंड शो देखने गया था (साक्ष्य में टिकट प्रस्तुत किये), जबकि हत्या का समय रात दस बजकर पांच मिनट का पोस्ट-मार्टम की रिपोर्ट में दर्ज़ है; कोई बेटा अपनी मां का क़त्ल कैसे कर सकता है ... इत्यादि । 

अंजल ने काशीबाई की दीर्घ काल की सेवा; कोठी के परिसर अथवा उसके क्वार्टर पर चोरी का माल न मिलना, जिसकी तलाशी पुलिस ने पहुंचने के थोड़ी देर बाद ही ले ली थी; काशीबाई जैसी उम्र-दराज़ औरत के लिए सुभाष के घर तक जाकर सारा माल छिपाना असंभव है और विशेष यह कि उसीने पुलिस को फ़ोन करके बुलाया आदि तर्क दिये । 

जज ने उस दिन के वास्ते अदालत बर्ख़ास्त कर दी । अगली तारीख़ दे दी गयी । 

कोर्ट रूम के दरवाज़े से निकलते-निकलते देशमुख बोले, ‘ठीक जा रहे हो, अंजल । लगे रहो । मुझसे भय मत खाना । अपनी दुश्मनी कोर्ट के भीतर । कार्रवाई समाप्त होते ही हम वही पुराने दोस्त हैं, रहेंगे । 

अंजल यह सुनकर इतना द्रवित हुआ कि हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘मैं तो आपका शिष्य हूं । आपके आशीर्वाद से ही साहस जुटा पा रहा हूं । ’

अगली तारीख़ पर गर्मागर्म बहस होती रही । जहां सिनेमा के टिकट का मुद्दा अंजल ने काट दिया कि आप रात को साढ़े दस बजे भी जाकर टिकट ख़रीद सकते हैं या पूर्वनियोजित पहले से भी लेकर रख सकते हैं । तीसरा नुक़्ता था कि बेटा अपनी मां की हत्या नहीं कर सकता । अंजल ने कहा, ‘सही है मगर सुशील पुत्र के संदर्भ में ... दारू का नशा और मां द्वारा पैसा न देने से उभरा क्रोध एक जुआरी से कुछ भी करवा सकता है । समाज में ऐसी वारदातें होती रही हैं । जिसके मकान से चुरायी चीज़ें पकड़ी गयीं, उसे चोर साबित करने के वास्ते और क्या सुबूत चाहिए?’

मोहन देशमुख ने अंजल की दलीलों का तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया- ‘समाज में ऐसी घटनाएं भी विरल नहीं हैं, जब लम्बे वक़्त तक सेविका अथवा सेवक रहे व्यक्ति ने एक दिन लालच में ऐसा ही कृत्य कर डाला । चोरी का माल अन्य स्थान पर और फिर मौक़ा मिलते ही सुभाष के घर तक ले जाना संभव इस प्रकार हो गया कि काशीबाई का कोई चाहने वाला ज़रूर होगा, जिसने इस प्रकरण में उसे प्रेरित ही नहीं किया, बल्कि पूरी सहायता भी की ... ’ अंजल ने इस लांछन पर एतराज़ जताया, जो न्यायमूर्ति ने मान्य कर लिया । 

देशमुख आगे बोले, ‘पुलिस को फ़ोन काशीबाई के अलावा कोई और कर भी नहीं सकता था, उसने अपने अपराध पर पर्दा डालने के लिए यह करना ही था । जैसा कि मेरे क़ाबिल दोस्त ने अर्ज़ किया है, यह समूचा काण्ड पूर्व-नियोजित था ... ’

‘हां था । ’ अंजल ने फट से प्रत्युत्तर सौंपा- ‘अन्यथा खिड़की का कांच फोड़ना; नक़ली चोरी का नाटक रचना; सिनेमा के टिकट लेकर रखना; हथियार साथ लाना फिर उसे ग़ायब करना और सबसे ख़ास कि अपना वाहन कोठी के बाहर ही पार्क करना कि कहीं काशीबाई सतर्क न हो जाये- यह ऐन उस घड़ी तो सुभाष को सूझना नहीं  था । ’

जज महोदय उस दिन की कार्यवाही ख़त्म करते हुए बोले, ‘अंजल ने जो खिड़की के बाहर बिखरे कांच के टुकड़ों से निष्कर्ष निकाला, वह सही है । तब चाबी जिनके पास थी, उनमें से असली मुज़रिम कौन? । । आगामी पेशी पर अचूक साक्ष्य लाइए कि दोनों में से किसकी यह कारस्तानी है । ’

अंजल न्याय-पालिका से मिले अंतराल में काशीबाई से मिलने उसके क्वार्टर पर गया । काशीबाई की बेटी सुमित्रा उस समय काशीबाई के बाएं हाथ की तेल से मालिश कर रही थी । काशीबाई ने अंजल का स्वागत किया- ‘आइए वकील साहेब । ’ फिर सुमित्रा से बाली, ‘अग सुमी, साहेबा करता चहा ठेव (सुमी, साहब के लिए चाय बना) । ’ 

अंजल ने सहज ही पूछ लिया, ‘काशीबाई, आपके हाथ को क्या हुआ, जो सुमित्रा से उसकी मालिश करवा रही थी ... ’ 

‘क्या बताऊं वकील साहेब,’ काशीबाई की हताशा-भरी आवाज़ दबी-दबी-सी निकली- ‘दो साल पहले बारिश से हुए कीचड़ पर फिसलने से मेरी हड्डी टूट गयी थी । सरकारी अस्पताल वाले डॉक्टर ने जोड़ी भी, प्लास्टर भी लगाया लेकिन हाथ कोहनी से टेढ़ा ही रहा । उससे मैं झाड़ू तक उठा नहीं सकती, ना कोई काम कर सकती हूं । इतना लुंज-पुंज हो गया है । ’

अंजल काशीबाई के कथन के उत्तर में आश्चर्य से इतना ही कह पाया- ‘क्या!’ और उठकर चलने को हुआ- ‘मैं जा रहा हूं । ज़रूरी काम याद आ गया ... ’

काशीबाई ने उसे रोकने का प्रयत्न किया- ‘अरे! अरे! वकील साहेब, चहा बन गयी है, पीकर जाइए । ’

अंजल ने हाथ हिलाकर ‘शुक्रिया, अगली बार .. ’ बोलते-बोलते दरवाज़ा पार किया और स्कूटर को किक मारकर यह जा, वह जा.. 

अंजल ने निश्चय कर लिया कि आज अदालत में इस केस को निपटा ही देना है । उसने सबसे पहले फ़िंगर-प्रिंट्स का ज़िक्र किया । चूंकि काशीबाई उस कोठी में सारे काम करती थी, उसकी उंगलियों के निशान हर जगह पाये जाना स्वाभाविक है । दूसरी ओर, सुभाष उस कोठी में कभी-कभार आता था । उसके इतने ज़्यादा निशानात- विशेषतः अलमारी एवं सेफ़ पर -पाये गये हैं । काशीबाई रोज़ाना अलमारी को अपने हाथों से छूती होगी लेकिन उसके कम क्यों हैं?’

मोहन देशमुख ने जवाब दिया कि निशान मिटाये भी जा सकते हैं । फिर सुभाष तो बेटा ही था, वह क्यों न अलमारी या सेफ़ को स्पर्श करता?

इसके बाद अंजल अपनी वाली पर आ गया- ‘वकील साहब उस आदमी को बचाने का प्रयास कर रहे हैं, जिसके बारे में दुनिया जानती है कि वह जुआरी और शराबी है । कारख़ाने को घाटे में ले गया । बाप की दौलत उड़ा रहा है । इसके बजाय वे एक दरिद्र औरत को बिना किसी आधार के चरित्रहीन कह चुके हैं । वह निष्काम सेवा करती रही जबकि सुभाष की गंदी नज़र मां को रास्ते से हटाकर सारी ज़ायदाद हड़पने की थी । दिखाऊ चोरी की नौटंकी उसको महंगी पड़ी । उस बिगड़ी हुई औलाद को वकील साहब सिर्फ़ इसलिए बचा रहे हैं कि उससे मोटी रक़म बतौर फ़ीस के उनको मिलने वाली है ... ’

देशमुख को ग़ुस्सा आ गया । वे उठकर अंजल की बग़ल में आकर खड़े हुए और कुछ बोलने को होंठ खोले ही थे कि अंजल ने उनकी तरफ़ घूमकर पुनः आक्रमण किया- ‘आपको शर्म आनी चाहिए मि । देशमुख!’ उद्विग्न देशमुख असह्य आक्रोश के मारे कांपने लगे । 

अंजल जारी रहा- ‘धन की ख़ातिर आप एक मासूम को फांसी लगवाने पर आमादा हैं । किसी बदचलन, अपनी मां के क़ातिल को बचाने के लिए ... थू है आपके पेशे पर, आपकी सिद्धांतहीनता पर ... ’ 

जज साहब ने ऑर्डर-ऑर्डर कहने अपना गैवल (जज के इस्तेमाल की लकड़ी की छोटी हथौड़ी) पकड़ा हाथ ऊपर उठा लिया था । 

अंजल को रोक पाना मुश्किल लग रहा था- ‘उसने मां को मारा, आप मां-सी एक स्त्री को बेवजह मार रहे हैं, केवल पैसों की लालच में ... थू!’ 

देशमुख लाल-भभूका हो गये । अपनी क्रोधाग्नि को क़ाबू में करने में असमर्थ । तैश में आकर अपना बायां हाथ अंजल को थप्पड़ मारने के लिए आवेश में ऊंचा किया । तभी जज का स्वर गैवल (मैलेट) की खटखट के साथ उनके कानों पर दस्तक दे गया- ‘ऑर्डर! ऑर्डर!’

देशमुख का उठा हुआ हाथ वहीं रुक गया । उन्हें कोर्ट की शालीनता स्मरण हो आयी । 

उसी पल आश्चर्यजनक रूप से अंजल झुका और उसने देशमुख के चरण छू लिये- ‘सर मुझे माफ़ कर दीजिए । ’ वह जज की दिशा में पलटा- ‘मान्यवर, आप भी । मैं इतना नालायक़ नहीं कि अपने ही प्रणम्य तथा अदालत की इस तरह अवमानना करूं ... ’

देशमुख उसे विस्मय से घूरते रह गये । 

‘जी हां । ’ अंजल ने मुलायमत से कहा, ‘मेरा मन्शा इतना ही साबित करना था कि जब खब्बू यानी लेफ़्ट-हैंडर अत्यधिक कुपित होता है तो वह अपने बाएं हाथ से वार करता है, दाहिने से नहीं । ’

देशमुख का रोष अब तक शांत हो चुका था । असमंजस में थे पर प्रकृतिस्थ । बोले, ‘इससे क्या सिद्ध होता है?’

अंजल की सूरत पर स्मित फैल गया- ‘यही कि आपके जैसा ही सुभाष भी खब्बू है और पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट के अनुसार श्रीमती सहाय के सिर पर बाईं ओर से आघात किया गया है । ’ वह जज से मुख़ातिब हुआ- ‘माननीय जज साहब, मेरे मुवक्किल काशीबाई का बायां हाथ टूटा, टेढ़ा और एकदम अशक्त है । वह उससे आपका ‘हैमर’ भी नहीं उठा सकती । ’

मोहन देशमुख अपनी दीख रही पराजय से बग़ैर विचलित हुए प्रसन्नता से बोले, ‘वेल डन माय ब्वाय । कांग्रैट्स!’ 

एक ख्याति-प्राप्त वकील को न्याय-पालिका में मात देना अंजल के पक्ष में जाना ही था । ख़ासकर उसे तिकड़म से चंगुल में फांसना । इसका उसे बेहिसाब लाभ मिला । इससे भी बेहतर, वह जो महत्वाकांक्षा पाले था, वह पूर्ण    हुई । जनता में कोई ऐसी विशेषता पंख लगाकर हर-सू उड़ी-उड़ी जाती है । यह ख़ासियत ही थी अंजल की, जो पूरे शहर में चर्चा के केन्द्र में अदेर आ गयी । अख़बारों ने इसमें जो छौंक लगाया, वह अंजल के भविष्य की बुनियाद बनने जा रहा था । यही कि एक ठो वकील ऐसा भी है, जो निर्धनों के लिए वरदान-सा है । वह उनसे कोई फ़ीस लिये बिना उनकी नैया पार लगाने की जी-जान से कोशिश करता है । 

अनु के लिए यह गर्व का विषय था कि उसका चुनाव ग़लत नहीं था । इस ख़ुशी में उसने इज़ाफ़ा किया, यह सूचना देकर कि वह गर्भवती है । तमाम हालात अंजल की क़ामयाबी का निमित्त बन रहे थे । 

(प्रलेक प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य लेखक के उपन्यास ‘शहतीर’ का एक महत्वपूर्ण अंश) 

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लेख 



डॉ. कृष्ण भावुक




मुहब्बत, बग़ावत और वक्ते- हाज़िर का शाइर 'साहिर'

'साहिर' लुधियानवी का नाम उन गिने-चुने उर्दू शाइरों में गिना जाता है, जिन्होंने हिन्दी फ़िल्मी गीतों को आम नग्मों के स्तर से उठा कर श्रेष्ठ और स्तरीय साहित्यिकता के गुणों से सम्पन्न किया है । जिस समकाल (वक्ते- हाज़िर) में कोई भी दूसरा शाइर अंग्रेज़ों जैसे क्रूर और अमानवीय आचरण करने वाले प्रशासकों पर कटाक्ष करने और भारतीय सामाजिक जीवन का कोढ समझे जाने वाली वेश्याओं पर कटाक्ष या व्यंग्य करने की दिलेरी और हिम्मत दिखाने तक की बात भी नहीं सोच सकता था, उस समय इन्हीं की शाइरी में ऐसे सभी प्रगतिशील विचार मिलने लगे थे । इस आलेख में विश्व भर में मक़बूल हो चुके इस शाइर का पहले निजी जीवन का कुछ परिचय प्रस्तुत करना समुचित रहेगा । 

परिचय :

'साहिर' लुधियानवी (जन्म सन् 1922 - मृत्यु 1982) का मूल नाम अब्दुल हई था । इनके वालिद एक जागीरदार थे, जिन्होंने कुल 11 निकाह किए थे । अभी साहिर कमसिन ही थे कि उनके वालिद - वालिदा के दाम्पत्य सम्बन्ध कलहों से तलाक़ तक जा पहुँचे । उनकी कोई भी सन्तान न थी, इसीलिए उनके वालिद ने अपने वली अहद के रूप में अब्दुल हई के लिए अनेक ख़्वाब अपनी आँखों में सँजोए हुए थे । जब अदालत में 10 सौतेली माताओं का दंश सहने वाले साहिर ने अपने वालिद की बजाय अपनी वालिदा के साथ ही अपने रहने का फ़ैसला सुनाया, तो उनके वालिद की तमाम उम्मीदों पर गोया पानी ही फिर गया । कैफी आजमी ने साहिर के परिचयपरक लेख में लिखा था, "अब साहिर के वालिद को उनसे क्या दिलचस्पी रह सकती थी ? 'ख़ून और रूह के रिश्ते रोज़-बरोज़ झोल खाते चले गए । यहाँ तक कि साहिर ने जब पढ़ना शुरु किया, तो उनके वालिद ने अपनी बड़ी तौहीन महसूस की कि इतने बड़े जागीरदार का बेटा इस्कूल क्यों जाता है ? और जब उन्होंने यह सुना कि उनका वलीअहद अब्दुल हई 'साहिर' हो गया है और शे'र कहता है, तो गुस्सा नफ्रत में बदल गया । " - ( कैफी आज़मी का लेख, उर्दू की पुस्तक 'साहिर और उसकी शाइरी, स्टार पब्लिकेशन्स, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 16 )

लुधियाना के मैजिस्ट्रेट के कानों तक जब इस नवोदित शाइर की बेपनाह मश्हूरी की ख़बर पहुँची, तब वह गाहे-बगाहे उसे अपनी मोटर भेज कर उसकी रचनाएँ सुनने के लिए बुलाने लगे थे । अब जाकर वालिद के पिदराना खुलूस में भी उबाल आने लगा और वे अपने बेटे की यही उपलब्धि लोगों को बड़े फ़ख़ से बतलाने लगे । फिर भी बेटे से दूरी पहले की ही तरह से बनी रही । साहिर की शिक्षा केवल उनकी वालिदा और मामाओं की बदौलत आगे बढ़ती रही । 

1. मुहब्बत :

लुधियाना के सरकारी कॉलेज की एक घटना ने साहिर के जीवन और शाइरी पर खासा असर डाला है । वहाँ उनका इश्क़ एक प्रतिभाशाली छात्रा से हो गया था (जोकि सुनी-सुनाई बात और पंजाबी में रचित सुप्रसिद्ध आत्मकथा 'रसीदी टिकट' के आधार पर अमृता प्रीतम ही थी । उसी इश्क़ के कारण उस समय के प्रिंसिपल उग्रसेन ने एक 'एक्शन कमेटी' बुला कर साहिर को कॉलेज से निकाल दिया था । कहते हैं कि कमेटी के सदस्यों के सामने पूछताछ के समय साहिर के साथ ही उसकी वह प्रिया भी बुला कर खड़ी की गई थी । बातों के मध्य उसी ने साहिर की ओर कुछ इस तरह से प्रेमपूर्वक निहारा कि इसने भी फ़िलबदीह (तुरन्त ) एक शे'र कह डाला, जिससे उसके एक आशुकवि भी होने का पुख्ता सुबूत मिला । शे'र इस तरह था :-

फिर न कीजे मेरी गुस्ताख़निगाही का गिला,

देखिए आपने फिर प्यार से देखा मुझ को । 

यही शे'र आगे चलकर साहिर द्वारा रचे एक फ़िल्मी गीत का भी हिस्सा बना था । इससे एक आम नतीजा यह निकाला जा सकता है, कि अपने जीवन में सफल-असफल प्रेम करने वाले शाइर हमेशा आशिकों - माशूकों के हाव-भाव, नाज़ो - अदा आदि की यथार्थपरक अक्कासी करने में प्रेमशून्य कवियों से कहीं आगे बाजी ले जाया करते हैं । साहिर ही आगे चलकर एकपक्षी प्रेम करने वाले युवकों के भ्रम को आत्मकथात्मक अंदाज़ में इस खूबसूरती शब्दों की माला में पिरो सके थे :-

मैं जिसे प्यार का अंदाज़ समझ बैठा हूँ,

वो तबस्सुम वो तकल्लुम तिरी आदत ही न हो !

नज़्म 'हिरास', पुस्तक 'साहिर और उसकी शाइरी', पृष्ठ 31. 'कभी-कभी' शीर्षक नज्म भी इसी नाम वाली हिंदी फिल्म में अभिनेता अमिताभ बच्चन के स्वर में कुछ पंक्तियों में गाई और कुछ में केवल पढ़ी (तह्तुल्लफ़्ज़) जा कर इतनी अधिक मक्बूल हो चुकी है, कि इसके कुछ शब्द ही कहीं से सुन लेने पर श्रोता के अधर स्वयमेव ही अगली पंक्तियों को गुनगुनाना आरम्भ कर देते हैं । इश्क़ की नाकामी, मायूसी, उदासी और इन सबसे उपजी तटस्थता की भावनाओं की इससे बेहतर प्रवाहमयी पंक्तियों में अक्कासी खोजने पर कहीं भी नहीं मिलेगी :-

मगर ये हो न सका, अब ये आलम है,

कि तू नहीं तिरा ग़म नहीं, तिरी जुस्तजू भी नहीं । 

गुज़र रही है कुछ इस तरह जिंदगी जैसे,

इसे किसी के सहारे की आर्जू भी नहीं ।  

-वही, नज़्म 'कभी कभी', पृष्ठ 23.

इस गाने की कुछ फ़िल्मी पंक्तियों में हमेशा की ही तरह से 'कहन' की स्थिति और जनता की बोधगम्यता के अनुसार कुछ कटौती - बढ़ौती भी की गई है । फैज़ अहमद 'फ़ैज़' ने तो ज़माने में मुहब्बत के सिवा अन्य दुखों के भी होने का राग तो बहुत बाद में अलापा था, साहिर के क़लम ने अपनी नज़्म 'फ़नकार' में ही प्रसिद्ध हुए अपने मनोवैज्ञानिक मिस्टर फ्राइड से कार्ल मार्क्स की बरतरी को स्थापित करते अंदाज़े-बयाँ की बेहतरी का यह एक पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत कर दिया था :- 

तेरे रुखे-रंग के फ़सानों के एवज़ 'भूक

चंद अशियाए-ज़रूरत की तमन्नाई है । '  

पुस्तक वही, नज़्म 'फ़नकार', पृष्ठ 27.

इसी गीत के अंत में ये पंक्तियाँ तो हिंदी गीतकार श्री भवानीप्रसाद मिश्र की लोकप्रिय गेय रचना 'गीतफ़रोश' की बरबस याद कराने वाली हैं :

आज इन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ,

मैंने जो गीत तिरे प्यार की खातिर लिखे ।  

वही, नज़्म वही, पृष्ठ वही

अगर आशिक़ भी आशिक़ की यह दिली तमन्ना है कि अगर उसकी महबूबा उसकी ओर कभी गलतंदाज़ नज़रों से देखे, तो फिर उसे भी उसकी गुस्ताख़निगाही का क़तई कोई गिला कभी नहीं होना चाहिए । इन अग्रलिखित पंक्तियों ने महबूबा के अन्तर्द्वन्द्व, बातिनी कशमकश आदि को मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाते हुए इश्क़ की तारीख में गोया एक नया बाब ही जोड़ दिया है :-

न मैं तुमसे कोई उम्मीद रक्खूँ दिलनवाज़ी की, 

न तुम मेरी तरफ देखो ग़लत-अंदाज़ नज़रों से, 

न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से, 

न ज़ाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज़ नज़रों से ।  

वही, नज़्म 'खूबसूरत मोड़', पृष्ठ 38.

किसी भजन - सरीखी टेक की तरह से ही इस नज्म के बोल यों शुरु होते हैं :- 'चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों !' इस नज्म को थोड़े-बहुत शाब्दिक परिवर्तन के साथ हिंदी चलचित्र 'गुमराह' में श्री महेन्द्र कपूर ने गाकर दुनिया भर में मश्हूरो-मारूफ और कालजीवी कर दिया है । कितनी ही फ़िल्मों और धारावाहिकों में अभिनेताओं के द्वारा इन लाइनों की खूबसूरती को 'कैश' कराते हुए संवादों में वैचारिक गहराई लाई जाती रही    है :-

वो अफ़साना जिसे अंजाम (मूल पाठ 'तक्मील) तक लाना न हो मुम्किन, उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा । 

मेरे पास 'साहिर और उसकी शाइरी' नामक उर्दू पुस्तक की सुरक्षित प्रति में शुद्ध शब्द 'छोड़ना' के स्थान पर मुद्राराक्षस की कृपा से ग़लत शब्द 'मोड़ना' छप गया है । 'साहिर' ने 'खूबसूरत मोड़' शीर्षक नज़्म में इन सुन्दर पंक्तियों को समेटा था और अपनी प्रेमिका पार्श्वगायिका सुधा मल्होत्रा से प्रेम-सम्बन्ध छोड़ने की ओर संकेत करते हुए यह नज़्म उन्हीं की उपस्थिति में एक महफ़िल में सुनाई भी थी । उस संगीत - महफ़िल के तुरन्त बाद दोनों ही अलग-अलग अपनी-अपनी कार में चले गए थे । 

किसी शाइर (शायद बशीर बद्र ) ने कभी ये शे'र कहे थे, “ये मेरी आँखों से आँसू नहीं निकलते हैं/ये मोतियों की तरह सीपियों में पलते हैं/ये एक पेड़ है, आ इससे लिपट के रो लें हम / यहाँ से तेरे मेरे रास्ते बदलते हैं !"

मार्क्सवादी चिन्तक ख़्वाजा अहमद अब्बास के अनुसार 'साहिर' ने आम परिभाषा के फ़िल्मी गाने बहुत ही कम लिखे हैं । इसकी अपेक्षा ऐसे गाने ही अधिक लिखे हैं, जोकि उनकी अपनी पौद (पीढ़ी) की तमन्नाओं, नाकामियों और तकय्युन (विश्वास) की नुमाइंदगी कर सकें । - वही, पृ. 53.

सय्यद सज्जाद ज़हीर ने लखनऊ के एक मुशायरे में साहिर की 160 मित्रों वाली लम्बी नज़्म 'परछाइयाँ' सुनी थी, जिसे सुन कर श्रोताओं पर एक लम्बी ख़ामोशी को तारी होते देखा था । कथा और संवाद की शैली में साहिर ने इस 'क्लासिक' नज़्म में अपनी साम्यवादी दृष्टि और जीवन-दर्शन को मानो समेट कर रख दिया है । उसने साफ शब्दों में कहा है कि न तो उसकी प्रेमिका अपने प्रेम को सफल देखने के लिए अपेक्षित संघर्ष कर सकी थी और न ही वे स्वयं स्वतन्त्रतासेनानियों की तरह फाँसी पा कर अपनी देशभक्ति को पुष्ट कर सके थे । यह कहते हुए साहिर शायद फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' की ही तरह से ही 'कूए-यार' से निकल कर 'सूए-दार' तक जाने का अर्मान अपने सीने में कहीं दबाए हुए थे, अन्यथा यह कभी न लिखते :-

मैं दारो-रसन तक जा न सका,

तुम जिहद की हद तक आ न सकीं, 

चाहा तो मगर अपना न सकीं । 

हम तुम दो ऐसी रूहें हैं,

जो मंजिले-तस्कीं पा न सकीं । 

-पुस्तक वही, 'लंबी नज़्म 'परछाइयाँ', पृ. 92.

इस शाइर के यहाँ आशावादी स्वर सर्वत्र बरक़रार रहा है । 

हमारा प्यार हवादिस की ताब ला न सका,

मगर उन्हें तो मुरादों की रात मिल जाए,

हमें तो कशमकशे मर्गे-बेअमाँ मिली,

उन्हें तो झूमती, गाती ह्यात मिल जाए । 

- पुस्तक वही, वही, वही, पृष्ठ 93.

एक अन्य गीत में इन्होंने इसी जीवन-दृष्टि का प्रमाण देते हुए गाया है, 

'रात जितनी भी संगीन होगी, सुब्ह उतनी ही रंगीन होगी, 

ग़म न कर गर है बादल घनेरा, किसके रोके रुका है सवेरा !'

- जाँनिसार 'अख़्तर का आलेख, पुस्तक वही, पृ. 123. 

अन्य गीत में भी इसी स्वर्णिम विहान (Golden Dawn) की ओर एक और संकेत देखें :-

रात के राही, थक मत जाना, सुबह की मंज़िल दूर नहीं । 

धरती के फैले आंगन में पल दो पल है रात का डेरा,

ज़ुल्म का सीना चीर के देखो, झाँक रहा है नया सवेरा । 

-वही, गीत 'रात के राही', पृ. 143.

हिन्दी फ़िल्म 'फिर सुबह होगी' के एक गीत में भी सारी जनता के ग़म समाप्त हो जाने का विश्वास दिलाते हुए 'साहिर' की घोषणा है कि यही सारा विष तो आज तक जनता की रगों में खून की तरह से घुसा हुआ मिलता है बीतेंगे कभी तो दिन भूक के और बेकारी के, :-

टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारादारी के, 

जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी । 

वो सुबह कभी तो आएगी'

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फाँकेगा, 

मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीक न माँगेगा. 

हक़ माँगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी । ....वो सुबह... 

फ़ाक़ों की चिताओं पर जिस दिन इंसाँ न जलाए जाएँगे, 

सीनों के दहकते दोज़ख़ में अर्मां न जलाए जाएँगे,

'ये नरक से भी गंदी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जाएगी, 

वो सुबह कभी तो आएगी'

-(पुस्तक वही, गीत 'वो सुबह कभी तो आएगी', पृ. 137)

2. बग़ावत :

'साहिर' आरम्भ से ही मार्क्सवादी विचारों के लेखक रहे थे । जब वे पहली बार मुंबई पहुँचे, तब कार्पोरेशन के चुनाव का समय 

था । एक प्रमुख राजनीतिक दल के कुछेक पिट्ठू गुर्गे एक चुनावी बूथ पर बेतरह हुड़दंग मचा रहे थे । वे अपने दल के प्रबल विरोधी लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता श्री भोगले से अपने नेता की टक्कर से बौखलाए हुए थे और कम्युनिस्टों पर पत्थर फेंक रहे थे । उस समय उनके समर्थक मज़दूर- वोटरों पर अपने दल के नेता के लिए वोटें डालने के लिए अनुचित दबाव डाल रहे थे । यद्यपि साहिर की तबियत उस दिन कुछ ख़राब थी, तथापि उसने वह सारा 'तमाशा' केवल मौन साध कर देखने की अपेक्षा कम्युनिस्टों की पंक्ति में जाकर खड़े होना ही मुनासिब समझा । उनके मित्र कैफ़ी आज़मी के ही अनुसार वे उनके साथ मिल-जुल कर शाम साढ़े छह बजे तक अनेक काम निपटाते रहे, चारों ओर दौड़ते-भागते रहे और उन्होंने टैक्सी में बैठने और ऑमलेट खाने के अपने दोनों शौक भी पूरे न किए । इनके मार्क्सवादी विचारों की तर्जुमानी करने वाली अनेक नज़्में और ग़ज़लें तो हैं ही, इनकी लिखी एक छोटी-सी नाटिका 'एक तम्सील' (शीर्षक 'कहते हैं इसे पैसा, बच्चो !) में उन्होंने एनाउंसर (उद्घोषक) के मुँह से ये शब्द कहलवाए थे :-

लेकिन इन सब ईजादों पर पैसे का इजारा होता रहा,

दौलत का नसीबा चमक उठा, मेहनत का मुकद्दर सोता रहा । 

- (नाटिका, 'कहते हैं जिसे पैसा बच्चो !', वही, पृष्ठ 157)

रचना में 'पैसा हमें चाहिए' की निरन्तर गुहार लगाती हुई औरतों और बच्चों में से चाहे कुछेक बच्चों को कुछ पैसे भीख में मिल जाते हैं, परन्तु शेष सभी को निराश खाली हाथ ही वापस लौटना पड़ता है । अन्त में नाटिका का उद्घोषक देश के युवा सपूतों को इन शब्दों में सम्बोधित करता है:-

लेकिन इन भीक के टुकड़ों से, कब भूक का संकट दूर हुआ, 

इंसान सदा दुख झेलेगा, अगर ख़त्म न ये दस्तूर हुआ । 

जंजीर बनी है कदमों की, वो चीज़ जो पहले गहना थी, 

भारत के सपूतो ! आज तुम्हें बस इतनी बात ही कहना थी, 

जिस वक़्त बड़े हो जाओ तुम, पैसे का राज मिटा देना, 

अपना और अपने जैसों का जुग-जुग का कर्ज चुका देना । -

 ( नाटिका वही, पृष्ठ 158-159)

यहाँ 'वो चीज' और कुछ नहीं, उसी धन की यह एक सशक्त प्रतीक है, जिसकी शत्रुता करना मुंशी प्रेमचन्द ने अपने समस्त साहित्य का लक्ष्य क़रार दिया था । 

यहाँ 'साहिर' की दो प्रसिद्ध नज़्मों पर विचार किए बिना यह समीक्षा अधूरी ही रहेगी । पहली है वेश्याओं के जीवन के दर्द और उनकी बदबूदार तंग कोठरियों में बहने वाला 'मांस का दरिया' (वेश्या - जीवन पर आधारित श्री कमलेश्वर की एक कहानी का शीर्षक) दिखाना लाज़िमी है । इनकी नज़्म 'चकले' में दिलकश नीलामघरों, पुरपेच गलियों, बेख्वाब बाजारों, गुमनाम राहियों पर पहली बार कैमरा इस कला कौशल से 'फोकस' किया गया है, कि हमारे मुँह से बरबस दाद निकल जाती है । इसी नज़्म की एक पंक्ति है- 'सनाख़्वाने तक्दीसे-मश्रिक कहाँ हैं ?' इसका अर्थ है - पूर्व की पवित्रता के प्रशंसक लोग कहाँ हैं ? फ़िल्मी गाने मे इसकी बदल दी गई पंक्ति है, 'जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं ?' इतनी सशक्त नज़्म में इस शाइर के जीवन और अनुभवों की सभी 'तल्ख्यिाँ' और 'परछाइयाँ' समेट कर रख दी गई हैं । इस नज्म में नारी जाति की अपमानित होती जा रही अस्मिता, विदेशी शासकों की निर्दयता, दीनों-हीनों के शोषण आदि को शानदार और जानदार ढंग से बेनकाब किया गया है । 'साहिर' का यह आह्वान शाइरी के इतिहास में बेमिसाल है :-

मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी, 

यशाधा की हमजिंस, 

राधा की बेटी, 

पयम्बर की उम्मत, 

जुलैखा की बेटी... 

ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ, 

ये कूचे, ये गलियाँ, 

ये मंज़र दिखाओ, 

सनाख्वाने तक्दीसे-मश्रिक को लाओ, 

सनाख़्वाने तक्दीसे-मश्रिक कहाँ हैं ?

-वही, वही, पृ. 76.

यहाँ एक शाइर और गीतकार के नाते साहिर की बेपनाह मक्बूलियत और एक कलाकृति का बुलन्दपाया दर्जा रखने वाली उनकी नज़्म 'ताजमहल' की चर्चा करना अत्यन्त लाज़िमी है । यह एक ऐसा बेमिसाल यादगारी नमूना है, जिसके सम्बन्ध में सैंकड़ों कवियों की ही तरह से पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने भी एक कविता रची थी । साहिर ने देखा कि विश्व भर के शिल्पियों और स्थपतियों आदि कलाकारों के द्वारा आगरा के इस स्मारक में अनेक देशों की कलाओं के माध् यम से कितनी ही सभ्यताओं का किया गया संगम सराहा जाता रहा है, किन्तु किसी भी रचनाकार ने कभी इस अनुपम स्मारक के तले दबे प्रेमियों के प्रेम के मकबरे पर किसी ने भी आज तक दृष्टिपात नहीं किया था । उन्होंने उपेक्षित रह जाने वाले निर्धन प्रेमियों का भरपूर प्रतिनिधित्व करते हुए पहली बार इस स्मारक के निर्माण पर ही प्रश्न - चिह्न लगाया था और बुलन्द स्वर में कहा था :-

'इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर

हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक !'

-वही, नज्म 'ताजमहल', पृष्ठ 79)

यहाँ अनेक सालों तक इसके निर्माण में हाथ बटाने वाले मजदूरों के शोषण की व्यथा-कथा के साथ गुमनाम और अनजान रह जाने वाले लाखों प्रेमी जोड़ों के दिली घावों पर मर्हम लगाने का काम किया गया है । स्वयं एक जागीरदाराना घराने में पर्वरिश पाने के बावजूद साहिर ने अपने देश, समाज और संसार में जिस तरह से पाक इश्क़ की बेहुरमती, अवहेलना तथा विरोध की दीवारों को जैसे स्वयं देखा और भोगा था, उसी को समेटते हुए इस नज्म में कहा है :-

अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है,

कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके, 

लेकिन उनके लिए तरहीर का सामान नहीं, 

क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़्लिस थे । 

- (वही, नज़्म 'ताजमहल', पृष्ठ 79 ) 

वास्तव में सारी समस्या ही तश्हीर अर्थात् 'प्रचार' की है, आजकल की बाज़ारवादी भौतिकतावादी सभ्यता के क़दमों की आहट को साहिर ने आज से बहुत पहले ही भाँप कर प्रमाण दे दिया था कि हर सच्चा कवि सदैव त्रिकालदर्शी ही हुआ करता है । ऐसी संक्रान्त दृष्टि के स्वामी थे साहिर, शब्दों के जादूगर ! कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू !

3. वक्ते - हाजिर की प्रासंगिकता :

यह भला कैसे सम्भव था कि साहिर जैसे संवेदनशील रचनाकार का दिल अंग्रेज़ों की क्रूरता और अमानवीयता से कभी भी विचलित न होता । यही कारण है कि उनकी शाइरी में गाहे-बगाहे उन पर भी अचूक निशाने साधे गए हैं, छींटाकशी की गई है । वे अपनी दीर्घतम नज़्म 'परछाइयाँ' में ही कहते हैं :-

जुनूँ की ढाली हुई एटमी बलाओं से

ज़मीं की खैर नहीं, आस्माँ की खैर नहीं । 

-वही, वही, पृष्ठ 95

इनकी एक नज़्म का नाम है 'दौरे अहद के हसीनो !' इसके व्यंग्यपूर्ण शीर्षक के साथ ही इसमें आज तक भारत में सालों से चले आ रहे 'परिवरवाद' के नासूर पर भी सांकेतिक भाषा में नश्तर लगाते हुए यहाँ की दुरवस्था की अच्छी-ख़ासी जो शल्य-चिकित्सा इस शाइर द्वारा की गई है, वह इतना पानी गंगा में बह जाने के बाद भी आज बेहद प्रासंगिक और समय-संगत विषय बना हुआ है :-

वो हसीं वो नूरजादे, वो खुल्द के शहज़ादे, 

जो हमारी क़िस्मतों पर रहे हुक्मराँ हमेशा; 

जिन्हें मुज़महिल दिलों ने अब्दी पनाह जाना,

थके-हारे काफ़िलों ने जिन्हें खिज्रे-राह जाना । 

-- वही, 'दौरे अहद के हसीनो !, पृ.66-67.

आज के जीवन में भी मानव के मन में घोर निराशा का साम्राज्य छाया हुआ है, जिसका मुख्य कारण किसी भी देश की आर्थिक दुरवस्था भी मानी जाती रही है । प्रसिद्ध फ़िल्मी अभिनेत्री नर्गिस ने लिखा है, कि जब मुंबई में पाकिस्तानी शाइर फैज़ अहमद 'फ़ैज़' के सम्मान में आर. के. स्टूडियो में एक दावत दी जा रही थी, तब उसके समीप साहिर बैठे हुए थे और संयोगवश वह उन्हीं की गीत - पंक्ति 'तंग आ चुके हैं कशमकशे जिंदगी से हम' गुनगुना रही थी । उस समय उसने पहली बार साहिर को देखा था और वे भी उसे देख कर चौंक उठे थे । 

नर्गिस ने अपने अंग्रेज़ी लेख में गुरुदत्त द्वारा निर्देशित हिन्दी फ़िल्म 'प्यासा', विशेषकर उसके साहिर द्वारा लिखे गीतों की बहुत प्रशंसा की है । केवल जॉनी वाकर द्वारा गाए एक गीत 'सर जो तेरा चकराए' के बारे में अपनी नापसंदी का अवश्य इज़हार किया है । वास्तव में तेलमालिश करने वाले एक निम्नवर्गीय आदमी द्वारा गाया वह गीत उसके व्यवसाय के सर्वथा अनुकूल था और स्थितिगत हास्य रस की भी सृष्टि करने वाली एक विशिष्ट रचना थी । फिर साहिर की प्रशंसा करते हुए नर्गिस ने यह भी कहा है, "फ़िल्मी गीतकारों में 'साहिर' का दर्जा बहुत बुलन्द है । उनके अश्आर सुनकर यों लगता है, जैसे वो शाइर के दिल की आवाज़ और उनकी जाती जिंदगी के गहरे जज़्बात का इज़हार हों । मुझे बाज़ दूसरे शाइरों की तख़्लीक़ात पसंद हैं, लेकिन साहिर के यहाँ तख़्लीकी तसव्वुर - आफ्रीनी का उंसुर बेहद नुमायाँ है । उसकी नज़्में बराहे-रास्त दिल को छूती हैं । " - वही, नर्गिस के विचार, पृ. 127

कुल मिला कर सामाजिक सरोकारों की यथार्थपरक अक्कासी करने वाले इस मुतरन्निम (सुरीले) शाइर की कलात्मक रचनाओं की अभिव्यक्तियों को इन्हीं के इस शेर के द्वारा समेटा जा सकता है, जो उन्होंने अपने जीवन के सुखद और दुःखद अनुभवों को श्रेय प्रदान करते हुए कहा था :-

'दुनिया ने तत्रिबातो हवादिस की शक्ल में

जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं । '

'साहिर' को पढ़ने के बाद अगर आपके दिलो-दिमाग़ में बस यही दो पंक्तियाँ गूँजती रहें, तो समझो कि आपने उनकी शाइरी की रूह का दीदार कर लिया है :-

1. जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं ?

2. कहाँ हैं, कहाँ हैं मुहाफ़िज़ खुदी के ?

- नज़्म 'चकले' । 

–पटियाला, मो. 9815165210

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धरोहर

कमला सिंधवी, दिल्ली

इतना बदल गई मैं

बचपन, फिर स्कूल से कालेज में पांव रखने वाली छात्रा । पता ही नहीं चला, कब बचपन साथ छोड़ गया और कब मेरा किशोर मन आकाश को बांहों में भरने के लिए आतुर हो उठा । कभी मन सपने बुनने लगता तो कभी   सन्नाटे । कभी बादल-सा बरस पड़ता तो कभी स्पर्श-कातर-सा उदास बोझिल हो टुकड़ों-टुकड़ों में बंट-सा जाता । कुछ वर्ष इसी उड़ते और उड़-उड़कर गिरने की मन:स्थिति में बीते और एक दिन सपनों के ताने-बाने में खोई मैं दुल्हन बन गई । 

पति ने जीवन को मधुरिमा से भर दिया । मेरा दाम्पत्य जीवन की माधुरी और शाश्वत प्रेम के आसव से छलक उठा । दिन बीतने लगे और एक दिन मन के किसी झरोखे से मातृत्व ने झांका । नये अंकुर की संभावना ने तन को स्पन्दित कर दिया और मन को स्निग्ध । मैं मां बन गई । 

समय का पाखी पंख लगाकर उड़ने लगा । मेरा बेटा, देखते ही देखते पंद्रह साल का किशोर हो गया । हम तीन प्राणियों का यह छोटा-सा परिवार एक सुखी परिवार है । कहीं कोई कसक नहीं, तनाव नहीं । पति आज भी मुझे उतना ही प्यार करते हैं, जितना पिछले पंद्रह वर्षों में करते आये हैं । बेटा मेरी बात सुनता है । मुझे मानता है । मुझे और क्या चाहिए !

आजकल मैं कुछ अस्वस्थ रहने लगी हूं । शायद पैंतीस-चालीस की यह उम्र हर औरत को थोड़ा-बहुत रुग्ण बना देती है । मुझे पिछले कुछ दिनों से बुखार चल रहा है । पति आशीष, शहर के सबसे बड़े डाक्टर मिश्रा से मेरा इलाज करा रहे हैं । हमारे परिवार के डाक्टर मेहरा भी काफी अच्छे डाक्टर हैं, पर आशीष को चैन ही नहीं पड़ता । जब तक हर दूसरे-तीसरे दिन डाक्टर मिश्रा आकर मुझे देख न लें । मेरा बेटा आदित्य स्कूल से आते ही मेरे पास आ जाता है । मेरे कमरे में बैठ कर ही अपना होमवर्क करता है । 

आज मैं अपने को कुछ स्वस्थ अनुभव कर रही हूं । बुखार भी नहीं है । डाक्टर मिश्रा कल ही मुझे देखकर गये हैं पर आशीष ने आज फिर उन्हें आने के लिए कह दिया है । मैंने सोचा है कि आज आशीष के आते ही कहूंगी कि अब डाक्टर मिश्रा के आने की जरूरत नहीं है । डॉ.क्टर मेहरा ही देख जाया करेंगे । बार-बार डाक्टर मिश्रा को बुला- कर इतनी बड़ी फीस देकर फिजूलखर्ची करने से क्या फायदा । अब तो मैं स्वस्थ हूं । यही सब सोचते-सोचते मैं सो  गई । 

आदित्य के स्कूल से आने पर मेरी नींद टूटी । मेरे पास आकर मेरा माथा छू कर देखते हुए वह बोला – “ममी, आज आपकी तबियत काफी ठीक लग रही है । दो-चार दिनों में बिल्कुल ठीक हो जायेंगी आप । " मैंने मुस्कराते हुए उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा- "हां बेटा, मौसमी बुखार था, उतर गया । तुम्हारे पापा तो बस यूं ही नर्वस हो गये । आज डाक्टर मिश्रा के आने पर उनसे पूछूंगी, मैं कब से बाहर आना-जाना शुरू कर सकती हूं । " सुन कर आदित्य बोला- "ममी, आज तो डाक्टर मिश्रा को बुलाने की कोई खास जरूरत मुझे नहीं लगती । अब तो आप पहले से बहुत ठीक हैं । आज तो डाक्टर मेहरा का आना ही काफी होगा । जिन दिनों आपकी तबियत ज्यादा खराब थी, उन दिनों तो डाक्टर मिश्रा को बार-बार बुलाना ठीक था । पर अब तो यह एक तरह से फिजूलखर्ची ही होगी । क्यों ममी, आपकी क्या राय है ?"

मैंने कहा - " मैं भी यही सोच रही थी बेटा, कि तेरे पापा तो रुपये पानी की तरह बहाने पर तुले हुए हैं । इनका वश चले तो जरा-सा सिरदर्द हुआ नहीं कि तुरंत बुला लें डाक्टर मिश्रा को । आज हम दोनों उनके आने पर उनसे झगड़ा करेंगे । "

आदित्य के कमरे से जाने के बाद मैं मन ही मन मुस्कराते हुए सोचती रही- 'मेरा बेटा अभी से कितना समझदार हो गया है, कितनी समझदारी की बातें करता है, फिजूलखर्ची को बुरा समझता है, यथार्थ- वादी भी है । अपने पापा की तरह कोरा भावुक नहीं । मुझसे साफ-साफ बात कर लेता है । कुछ भी मन में नहीं रखता-' और सोचते-सोचते न जाने आंख वापस कब लग गई । 

दिन फिर पाखी बन कर उड़ने लगे । आदित्य छब्बीस साल का सुंदर युवक बन गया । उसे अच्छी नौकरी मिल गई । मैं और आशीष अपनी बढ़ती उम्र के साथ अपने को पूर्ण अनुभव करने लगे । मैं स्वयं सास बन कर बहू को दुलारने-सजाने और पोते को खिलाने के सपने देखने लगी । और एक दिन एक सुंदर-सी दुल्हन बहू बनकर मेरे आंगन में आ गई । हंसी-खुशी में दिन बीतने लगे । 

आजकल मैं फिर बीमार हूं । वही मौसमी बुखार - खास कुछ नहीं । आशीष और आदित्य आज भी मेरा इलाज उन्हीं डाक्टर मिश्रा से करवा रहे हैं । आदित्य आज भी ऑफिस से आते ही सीधा मेरे कमरे में आता है, वहीं बैठकर चाय पीता है । बहू मेरे पथ्य-परहेज का पूरा ध्यान रखती है । मेरी सेवा में कोई त्रुटि नहीं होने देती । 

/अब बुखार उतर गया है । मैं अपने को काफी स्वस्थ अनुभव कर रही हूं । केवल कमजोरी शेष रह गई है । मेरे मना करने पर भी आशीष ने आज शाम को फिर डाक्टर मिश्रा को मुझे देखने आने को कह दिया है । आशीष अभी तक ऑफिस से लौटे नहीं हैं । बहू रसोई में शाम की चाय का इंतजाम करवा रही है । आदित्य ऑफिस से आते ही सीधा मेरे पास आया है । मेरे माथे को हाथ से छूकर बोला है “ममी, आज आपकी तबियत काफी ठीक लग रही है । दो-चार दिनों में आप बिल्कुल ठीक हो जायेंगी । " मैंने मुस्कराते हुए उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा - "हां बेटा, मौसमी बुखार था, उतर गया । आज डाक्टर मिश्रा के आने पर उनसे पूछूंगी कि मैं कब से बाहर आना-जाना शुरू कर सकती हूं । '

सुनकर आदित्य बोला- “ममी, आज तो डाक्टर मिश्रा को बुलाने की कोई खास जरूरत मुझे नहीं लगती । अब तो आप पहले से काफी ठीक हैं । आज तो डाक्टर मेहरा का आना ही काफी होगा । जिन दिनों आप ज्यादा बीमार थीं उन दिनों तो डाक्टर मिश्रा को बार-बार बुलाना ठीक था, पर अब तो यह एक तरह की फिजूलखर्ची ही होगी । क्यों ममी, आपकी क्या राय है ? पापा तो यूं ही बड़ी जल्दी घबरा जाते हूं । शायद घबराहट के कारण ही उन्होंने डाक्टर मिश्रा को आज फिर आने के लिए कह दिया । " मैं क्षण-भर आदित्य को देखती रही । पर धीरे से बोली- "हां बेटा, डाक्टर मिश्रा को मेरे लिए अब बुलाना फिजूलखर्ची ही है । आज तो डाक्टर मेहरा को भी बुलाने की जरूरत नहीं है । मैं अब ठीक हूं । " आदित्य ने शायद मेरे वाक्यों में छिपे व्यंग को, मेरे कहने के ढंग की उदासीनता को समझा नहीं, तभी तो हर रोज की तरह मुझसे इजाजत लेकर कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में चला गया । 

थोड़ी देर बाद आशीष ऑफिस से आकर ज्यों ही मेरे कमरे में आये कि लगभग चीखते हुए मैंने उनसे कहा - "किसने कहा था तुमसे आज डाक्टर मिश्रा को बुलवाने के लिए ! मुझे नहीं चाहिए डाक्टर- वाक्टर ! मेरे लिए फिजूलखर्ची करने की किसी को कोई जरूरत नहीं है । " और मेरी आंखें छलछला आईं । आशीष कुछ भी समझ नहीं पाये और अवाक् से मेरा मुंह देखते रह गये । जरा देर बाद, उनके बार-बार पूछने पर मैंने उन्हें सारी बात बता दी और यह भी कह दिया कि आदित्य के मुंह से डाक्टर मिश्रा को न बुलवाने की बात सुनकर मेरे मन को कितनी चोट पहुंची है । सुनकर आशीष इस विषय में नहीं बोले । केवल इतना ही कहा, तुम्हारा मन अभी ठीक नहीं है, कुछ देर सो जाओ, फिर बातें करेंगे । " और वे नहाने के लिए चले गये । 

मैं छत की कड़ियों को निरुद्देश्य-सी निहारती हुई सोचने लगी- 'आदित्य ने मुझसे डाक्टर मिश्रा को न बुलवा कर डाक्टर मेहरा को बुलवाने के लिए क्यों कहा ? क्या यह ब्याह के बाद बदल गया है ? क्या उसकी बहू ने उसके कान भर दिए हैं कि ममी के इलाज के लिए रोज डाक्टर मिश्रा को बुलवाने की क्या जरूरत है ? देखते नहीं, पैसा पानी की तरह बहा जा रहा है ? क्या आदित्य अब मेरा न होकर केवल बहू का हो गया है ? क्या मुझ पर खर्च होने वाला रुपया उसे चुभने लगा है ? हे भगवान! मैं क्या करूं ?'

दूसरे ही क्षण मुझे लगने लगा कि एकाएक मन बहुत भावुक और संवेदनशील हो उठा है । जीवन एकाकी-सा, खाली-सा लगने लगा, मानों जीवन का चैतन्य कहीं खो रहा है, परिवार से मेरा संबंध विच्छेद हो रहा है । लगता है, मृत्यु के महायज्ञ में अब इस बूढ़े शिथिल देह की आहुति पड़ने में अधिक विलंब —और मैंने आंखें बंद कर लीं । 

आशीष गुसलखाने से लौटे और मेरे पास आकर बैठ गये । मैंने आंखें खोलीं और लगभग रोते हुए बोली - "सुनो जी, मेरा बेटा ही जब मेरा नहीं रहा, बहू के कहने में आकर उसने ही जब नजर बदल ली, तो अब मेरे लिए इस जीवन में क्या शेष रह गया है । बंद कर दो ये दवाइयां और मुझे पड़े-पड़े मरने दो । "

आशीष बड़ी गंभीरता से बोले – “रानी, मेरी बात सुनो ! तुम्हार बेटा जरा भी नहीं बदला है । यह केवल तुम्हारा भ्रम है । रही बहू की बात, सो उसे क्यों दोष दे रही हो ? याद करो, आज से दस- बारह साल पहले की बात, जब तुम इसी तरह बीमार पड़ी थीं । इसी तरह तुम्हारे बेटे ने तुम्हें डाक्टर मिश्रा को न बुलाकर डाक्टर मेहरा को बुलवाने के लिए कहा था । और भी दो-चार बार इस तरह का अवसर आया है । कई बार गाड़ी में पेट्रोल की बात पर ही उसने तुमसे कहा था- 'ममी, अपनी गाड़ी में पेट्रोल की फिजूलखर्ची बहुत होती है । आप भी ध्यान नहीं रखतीं । जब मुझे गाड़ी स्कूल छोड़ने जाये तभी आपको खरीदारी के लिए जाना चाहिए । क्या फायदा बेकार गाड़ी के चक्कर लगवाने में । ' तब बेटे की बात सुनकर तुम्हारे चेहरे पर शिकन तक नहीं आती थी । तब कहां थी तुम्हारी बहू उसके कान भरने के लिए ! आज भी बहू ने उसके कान नहीं भरे हैं, और न ही वह बदला है । हां, तुम अवश्य बदल गई हो । दोष तुम्हारा भी नहीं है । तुम्हारे दृष्टिकोण का है । तब तुम केवल मां थीं, आज सास भी हो । बस दृष्टिकोण के इसी अंतर ने तुम्हें मथ डाला है । तुम तो जानती हो, आदित्य बचपन से ही तुमसे बहुत खुलकर और साफ-साफ बातें करता रहा है । फिजूलखर्ची उसे आरंभ से ही नापसंद रही है । जो उसके मन में आया है, तुमसे बिना भेदभाव के उसने सदैव कह दिया है । आज भी बचपन की उसकी यह आदत गई नहीं है । इसीलिए कहता हूं, तुम अपना दृष्टिकोण बदल डालो, तुम्हारा बेटा तुम्हें फिर वही दस साल पहले वाला बेटा लगने लगेगा । "

मैं अपलक-सी आशीष को निहारती रही-- सचमुच, सास बनते ही मेरे दृष्टिकोण में कितना अंतर आ गया था । पर क्यों ? 

कैसे ? किसलिए ? 

साभार: प्रथम संस्करण, 1985

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धरोहर

बलराज मेनरा, दिल्ली

वह

जब उसकी आँखें खुलीं वो वक़्त से बेख़बर था । 

उसने दायाँ हाथ बढ़ाकर बेड-टेबिल से सिगरेट का पैकेट उठाया और सिगरेट निकालकर लबों में थाम लिया । 

सिगरेट का पैकेट फेंककर उसने फिर हाथ बढ़ाया और माचिस तलाश की । 

माचिस खाली थी । 

उसने खाली माचिस कमरे में उछाल दी । 

खाली माचिस छत से टकराई और फ़र्श पर आन पड़ी । 

उसने टेबिल लैम्प रोशन किया । 

बेड-टेबिल पर चार-पाँच माचिस उल्टी-सीधी पड़ी हुई थीं । 

उसने बारी-बारी सबको देखा । 

सब खाली थीं । 

उसने लिहाफ उतार फेंका और कमरे की बत्ती रोशन की । 

दो बज रहे थे । 

फ़र्श बर्फ़ हो रहा था । 

अभी दो बजे हैं, मैं वक्त से बेख़बर था, मैं समझ रहा था सुबह होने को है

आज ये बेवक़्त नींद कैसे खुल गई?

एक बार आँख खुल जाए फिर आँख नहीं लगती । 

उसने कमरा छान मारा । 

किताबों की अलमारी, वेस्ट-पेपर बास्किट, पतलून की जेबें, जेकिट की जेबें - माचिस कहीं न मिली । 

कमरे की बुरी हालत हो गई थी । 

किताबें उल्टी-सीधी पड़ी हुई थीं, कपड़े इधर-उधर बिखरे पड़े थे, ट्रंक खुला हुआ था । 

कोई आ जाए इस समय ?

रात के दो बजे - कमरे की ये हालत ?

सिगरेट उसके लबों में काँप रहा था । 

सुलगते सिगरेट और धड़कते दिल में कितनी मुमासलत' है । 

माचिस कहाँ मिलेगी ?

माचिस न मिली तो कहीं...

तो कहीं ...

कहीं मेरा धड़कता दिल ख़ामोश न हो जाए?

आज ये बेवक्त नींद कैसे खुल गई ?

मैं वक़्त से बेख़बर था- एक बार आँख खुल जाए, फिर आँख नहीं लगती । 

माचिस कहाँ मिलेगी ?

उसने चादर कंधों पर डाल ली और कमरे से बाहर आ गया । 

दिसम्बर की सर्द रात थी, स्याही की हुकूमत और ख़ामोशी का पहरा । 

किसी एक तरफ़ कदम उठाने से पहले वो चंद लम्हे सड़क के वस्त' में खड़ा रहा । जब उसने कदम उठाए वो रास्ते से बेख़बर था । 

रात काली थी, रात ख़ामोश थी और दूर-दूर, ताहद्देनज़र कोई दिखाई नहीं दे रहा था । लैम्प-पोस्टों की मद्धम रोशनी रात की स्याही और ख़ामोशी को गहरा कर रही थी और चौराहे पर उसके क़दम रुक गए । 

यहाँ तेज़ रोशनी थी कि दूधिया ट्यूबें चमक रही थीं लेकिन ख़ामोशी ज्यूँ-की-त्यूँ थी कि सारी दुकानें बंद थीं । 

उसने हलवाई की दुकान की जानिब क़दम बढ़ाए । 

मुमकिन है भट्ठी में कोई कोयला मिल जाए, दहकता कोयला, दमबलब' कोयला । हलवाई की दुकान के चबूतरे पर कोई लिहाफ़ में गठड़ी बना सो रहा था । 

वो भट्ठी में झाँका ही था कि चबूतरे पर बनी गठड़ी खुल गई । कौन है ? क्या कर रहे हो?

मैं भट्ठी में सुलगता हुआ कोयला ढूँढ़ रहा हूँ । 

पागल हो क्या? भट्ठी ठंडी पड़ी है । 

तो फिर ?

फिर क्या ? घर जाओ । 

माचिस है आपके पास?

माचिस ?

हाँ, मुझे सिगरेट सुलगाना है । 

तुम पागल हो । जाओ, मेरी नींद खराब मत करो, जाओ । 

तो माचिस नहीं है आपके पास ?

माचिस सेठ के पास होती है वो आएगा और भट्ठी गर्म होगी, जाओ तुम । 

वो फिर सड़क पर आ गया । 

सिगरेट उसके लबों में काँप रहा था । 

उसने कदम बढ़ाए । 

चौराहा पीछे रह गया, तेज़ रोशनी पीछे रह गई । क्या-क्या कुछ न पीछे रह गया । 

उसके क़दम तेज़ी से बढ़ रहे थे । 

लैम्प-पोस्ट, लैम्प-पोस्ट, लैम्प-पोस्ट, अनगिनत लैम्प-पोस्ट पीछे रह गए । 

धीमी रोशनियों वाले लैम्प-पोस्ट जो रात की स्याही और ख़ामोशी को गहरा करते हैं । 

यकायक उसके क़दम रुक गए । 

सामने से कोई आ रहा था । 

वो उसके करीब पहुँचकर रुक गया । 

माचिस है आपके पास ?

माचिस ?

मुझे सिगरेट सुलगाना है । 

नहीं, मेरे पास माचिस नहीं है । मैं इस इल्लत से बचा हुआ हूँ । 

मैं समझा... । 

क्या समझे?

शायद आपके पास माचिस हो ?

मेरे पास माचिस नहीं है, मैं इस इल्लत से बचा हुआ हूँ और अपने घर जा रहा हूँ... तुम भी अपने घर जाओ । 

उसने कदम बढ़ाए । 

सिगरेट उसके लबों में काँप रहा था । 

वो धीमे-धीमे क़दम बढ़ा रहा था कि थक गया । 

वक़्त से बेख़बर, उसके थके-थके क़दम उठ रहे थे । 

लैम्प-पोस्ट आता, मद्धम रोशनी फैली हुई दिखाई देती और फिर स्याही । फिर लैम्प - पोस्ट, मद्धम रोशनी और फिर स्याही । 

वो लबों में सिगरेट थामे, धीमे-धीमे क़दम उठा रहा था । 

उसकी दूर, अंदर फेफड़ों तक धुआँ खेंचने की तलब शदीद हो गई थी । 

उसका बदन टूट रहा था । 

शबख़्वाबी+ का लिबास और चादर में उसे सर्दी लग रही 

थी । 

वो काँप रहा था और काँपते कदमों से धीमे-धीमे बढ़ रहा था, वक्त से बेख़बर, लैम्प - पोस्टों से बेख़बर । 

एक बार फिर उसके कदम रुक गए । 

उसकी नज़रों के सामने ख़तरे का निशान था । 

सामने पुल था, मरम्मत - तलब पुल । 

हादसों की रोकथाम के लिए सुर्ख कपड़े से लिपटी हुई लालटेन सड़क के बीचों-बीच एक तख़्ते के साथ लटक रही थी । 

उसने लालटेन की बत्ती से सिगरेट सुलगाने के लिए कदम बढ़ाए ही थे कि- 

कौन है ?

वो खामोश रहा । 

स्याही की एक अनजानी तह खोलकर सिपाही उसकी तरफ़ लपका । क्या कर रहे थे?

कुछ नहीं । 

मैं कहता हूँ क्या कर रहे थे?

आपके पास माचिस है?

मैं पूछता हूँ क्या कर रहे थे और तुम कहते हो, माचिस है...कौन हो तुम? मुझे सिगरेट सुलगाना है, आपके पास माचिस हो तो....

तुम यहाँ कुछ कर रहे थे?

मैं लालटेन की बत्ती से सिगरेट सुलगाना चाहता था...आपके पास माचिस हो

तुम कौन हो ? कहाँ रहते हो?

मैं

कहाँ रहते हो?

माडल टाउन । 

और तुम्हें माचिस चाहिए... माडल टाउन में रहते हो... माडल टाउन कहाँ है? 

उसने घूमकर इशारा किया । 

दूर-दूर, ताहद्देनज़र, स्याही फैली हुई थी । 

चलो मेरे साथ थाने तक... माडल टाउन...? माडल टाउन यहाँ से दस मील के फ़ासले पर है... माचिस चाहिए ना । थाने में मिल जाएगी । 

सिपाही ने उसका बाजू थाम लिया । 

वो सिपाही के साथ चल पड़ा । 

थाना उसी सड़क पर था जो ख़त्म होने को न आती थी । 

वो सिपाही के साथ थाने के एक कमरे में दाखिल हुआ । 

कमरे में कई आदमी एक बड़ी मेज़ के गिर्द बैठे हुए थे । 

सिगरेट पी रहे थे । 

मेज पर सिगरेट के कई पैकेट और कई माचिसें पड़ी हुई थीं । 

साहिब ये शख़्स पुल के पास खड़ा था । कहता है माडल टाउन में रहता हूँ और माचिस की रट लगाए हुए है । 

क्यूँ बे ?

अगर आप इजाजत दें तो आपकी माचिस इस्तेमाल कर लूँ...मुझे अपना सिगरेट सुलगाना है । 

कहाँ रहते हो?

माडल टाउन । क्या आपकी माचिस ले सकता हूँ?

कौन हो तुम?

मैं अजनबी हूँ । क्या मैं माचिस ..

माडल टाउन में कब से रहते हो?

तीन माह से । माचिस... I

माचिस... माचिस का बच्चा... अजनबी...जाओ अपने घर... वरना बंद कर दूँगा... माचिस ...

जब वो थाने से बाहर आया तो बुरी तरह थक चुका था । 

उसने उस नख़त्म होने वाली सड़क पर धीमे-धीमे चलना शुरू कर दिया । 

उसकी नाक सूँ सूँ करने लगी थी और उसका बदन टूटने लगा था । 

सिगरेट पीना एक इल्लत है । 

मैंने ये इल्लत क्यों पाल रखी है । 

माचिस कहाँ मिलेगी ?

न मिली तो । 

वो वक़्त से बेख़बर था, लैम्प-पोस्टों से बेख़बर था, सड़क से बेख़बर था, अपने बदन से बेख़बर था । 

वो गिरता पड़ता बढ़ रहा था । 

उसके लगजिश जदः ' क़दमों में नशे की कैफियत थी । 

पौ फटी और वो दम भर को रुका । 

दम भर को रुका और सँभला

सँभला और उसने कदम-कदम बढ़ाना ही चाहा कि....

सामने से कोई आ रहा था और उसके कदम लगजिश खा रहे थे । 

वो उसके करीब आकर रुका । 

उसके लबों में सिगरेट काँप रहा था । 

आपके पास माचिस है?

माचिस ?

आपके पास माचिस नहीं है ? 

माचिस के लिए तो मैं...

वो उसकी बात सुने बिना ही आगे बढ़ गया । 

आगे, जिधर से वो खुद आया था । 

उसने कदम बढ़ाया । 

आगे, जिधर से वो आया था ।  

• मुमासलत - समानता 2. वस्त-बीच 3. दमबलब- दम तोड़ता 4. शबख़्वाबी- सोने 5. लगुज़िशजदः - लड़खड़ाते


साभार: वसुधा, अंक 53, जनवरी-मार्च 2002

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आलेख

बी. डी. कालिया ‘हमदम’
पंचकूला, मो. 9876141912

आयुष्मान भवः

प्रेम चन्द सरकारी सेवा से निवृत होने के पश्चात परिवार के साथ जीवन का भरपूर आनन्द ले रहे थे । वे खूब शिक्षित थे, विश्वविद्यालय से । स्नात्कोत्तर की डिग्री प्राप्त कर चुके थे । उन्हें पुस्तके, पत्रिकाएं पढ़ने का शौक था । काव्य / शायरी में विशेष रूचि रखते थे । नामवर शायरों / कवियों के शेर, रचनाएं कण्ठस्त थीं । उन्हों ने खुद भी कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं और अपना उपनाम "दीवाना" रख लिया था । क्या नाम और क्या उपनाम "मै तो दीवाना मेरा दर्द न जाने कोई” । 

अपने सेवा काल में भी वे कवि सम्मेलनों / मुशायरों में नामवर शायरों / कवियों को सुनने का शौक रखते थे । वे शहर की कवि गोष्ठियों में भी शिरकत करते रहते और काव्य पाठ का अवसर मिलते ही अपनी रचना, अपना शे'र दाग देते-पढ़ डालते । वे निस्सन्देह काव्य प्रबन्ध, छन्द, शिल्प से अपरिचित थे लेकिन तुकान्त / काफ़ियों के प्रयोग से कविताएं, गज़ले कहने का निरन्तर प्रयास करते रहते । काव्य सृजन के लिये कोई लाइसैन्स थोड़े ही लेना पड़ता है । यह तो मानव का जन्म - सिद्ध अधिकार है । काव्य सृजन का बीज तो उन में बड़ी देर के बाद अंकुरित हुआ । आख़िर कला, काव्य सृजन के लिये कोई आयु तो निर्धारित नहीं होती । यह निर्झर तो क्या जाने कब फूट पड़े और रचना कार आनन्द प्रवाह से धन्य हो जाए । 

प्रेम दीवाना जी तो शायरी के दीवाने हो ही चुके थे । घर में उठते-बैठते, खाते-पीते, चर्चा करते या फिर यात्रा करते भी वे तुक बन्दी की लगाम से शेर को घसीटते रहते । दीवाना जी के परिवार के सदस्य भी, उन की इस आयु में काव्य सृजन विस्फोट से चकित हो रहे थे, आश्चर्य ग्रस्त हो गए थे लेकिन उन्हें इस प्रक्रिया से शौक से रोकने, हटाने का साहस भी नहीं कर पा रहे थे । वे सब इस बात से प्रसन्न थे कि प्रेम जी इस दीवानगी में मस्त-व्यस्त रहते थे, आनन्दित रहते थे प्रेम दीवाना जी किसी योग्य गुरु-मार्ग दर्शक की भी तलाश में थे  जो उन्हें काव्य प्रबन्ध, विशेषकर ग़ज़ल की कला, हुनर में, मार्गदर्शन से इस क़दर दक्ष बना दे कि वे त्रुटि रहित, गुणात्मक, परिपक्कव कलाम कह कर सूर, तुलसी गालिब, मीर जैसे शायरों की शायरी से टक्कर ले सकें, अपना उच्चस्थान बना सकें, अत्यन्त लोक प्रिय हो जाएं । यह उन का स्वप्न / ख्वाब हो सकता है लेकिन यह स्वप्न / ख्वाब भी तो शायर का जन्म सिद्ध अधिकार है । उन की इस कल्पना पर आप चाहें तो कहकहा लगा सकते हैं । वे कभी कभी शायर / कवियों को घर पर भी आमंत्रित करते, दा'वत भी देते रहते । निरन्तर तलाश के बावजूद, इस व्यवस्ता और स्वार्थ सिद्धि के दौर में किसी गुरू-उस्ताद ने उन का हाथ नहीं थामा । प्रेम दीवाना जी इस अभाव पर अक्सर कह देते कि जो प्रभु इच्छा, हम तो इस पथ पर निकल पड़े हैं, अब न तो रूकेंगे और न ही वापिस लौटेंगे । 

प्रेम दीवाना जी कवि भी थे और स्वयं के गुरू भी उन के लिये यह शे'र काफी सार्थक प्रतीत होता है

राहबर कोई नहीं हम को मिला है राह में 

क्या ग़ज़ब है फिर भी देखो कारवां चलता रहा

प्रेम दीवना जी काफी ग़ज़लें कह चुके थे, कविताएं लिख चुके थे और अब वे अपने काव्य संग्रह के प्रकाशन की फ़िराक़ में थे । कुछ संगी-साथी - तमाशीबीन भी उनको निरन्तर उक्साते रहते और कहते रहते कि दीवाना जी आप बहुत अच्छा कलाम कहते है, अब देर किस बात की, छाप दो आप अपना ग़ज़ल संग्रह - काव्य संग्रह और हो जाए फिर उस का शानदार विमोचन -एक शानदार दा' वत । यह कवि / शायर की सब से बड़ी कमज़ोरी है कि वह प्रशंसा पुष्प की गंध से फूला नहीं समाता और काव्य संग्रह के प्रकाशन के लिये अंगड़ाई लेने लगता है, आतुर हो उठता है और अब यही होने जा रहा था । दीवाना जी ने इस कार्य के लिये उचित राशि अलग निकाल कर शगुन नुमा / लिफाफे में रख ली थी । ग़ज़लें, कविताएं पॉलिश की जा रही थीं । यथा शक्ति, यथा सम्भव परिमार्जित की जा रही थीं । प्रकाशकों के साथ सम्पर्क बनाया जा रहा था । यारों, हमदमों की टोली निरन्तर साथ जुटी रहती, घर में भी और बाहर भी, ऐसा क्यों न हो, आख़िर उन सब को प्रति दिन लड्डू, जलेबी, समोसे आदि की दावत निशुल्क मिल रही थी । इस दौड़-धूप में दीवाना जी को लगा कि तबीयत काफी नासाज़ है और वे हस्पताल में डॉक्टर से चैक-अप करवाने के लिये गये । डाक्टर ने जब कुछ टैस्ट करवाए तो उन्हें संदेह हुआ कि बीमारी गम्भीर है, उन्होने कुछ और टेस्ट करवाए जिस के फलस्वरूप डा. ने उन्हें कैंसर का रोगी पाया । यह खबर सुनकर दीवाना जी के परिवार के सदस्य सकते में आ गए और घर में अफरा तफरी मच गई । इलाज शुरू हुआ, लेकिन धीरे धीरे स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था । डाक्टर ने उन के बेटे को बताया कि कैंसर आखरी चरण का है और उपचार में समय लगेगा स्थिति चिन्ता जनक है और प्रभु इच्छा, भगवान् की कृपा से ही रोगी ठीक होगा । परिवार के सदस्य दिन रात दीवाना जी के उपचार में, देखभाल में झूझ रहे थे । अब यार - बार, तमाशबीन न जाने कहां गायब / लोप हो गए । उपचार पर खर्च दिन प्रति दिन बड़ रहा था लेकिन परिवार के सदस्य दीवाना जी के उपचार और देखभाल में किसी प्रकार की कमी नहीं आने दे रहे थे । दीवाना जी की सेहत काफी कमज़ोर - दुर्बल होती जा रही थी । बीमारी के ठीक होने का कोई संकेत नहीं मिल रहा था । हस्पताल में बैड पर लेटे लेटे कभी - कभी अपने काव्य संग्रह के प्रकाशन के बारे सोचते तो सोचते-सोचते निराश हो जाते- उन्हें लगा कि अब काव्य संग्रह का प्रकाशन किसी भी हालत में सम्भव नहीं है । बीमारी से लाचार उन्हें जीवन की अन्तिम यात्रा के संकेत मिलने शुरू हो गए थे । परिवार के सदस्य भी लाचार, चिन्तित, असहाय महसूस कर रहे थे । एक दिन उन के बेटे ने दिवाना जी से पूछ ही लिया, "पिता जी हम आप को खुश - प्रसन्न देखना चाहते हैं । आप ही बताएं कि आप किस प्रकार से  प्रसन्न नज़र आ सकते हैं । आप की कोई इच्छा हो तो बताएं हम उसे तुरन्त पूरा करना चाहेंगे । बेटे के मुख पर निराशा की सिलवटों में असहाय मुस्कान देख कर दीवाना जी कहने लगे, "बेटा, आप ने मुझे हर प्रकार का सुख, आनन्द दिया है । मैं बड़ा भाग्यशाली हूं कि मुझे आप जैसा बेटा और प्रेम आसक्ति परिवार मिला है । यह सब तो मेरे पिछले जन्म के अच्छे कर्मों का ही फल हो सकता है" । फिर भी पिता जी कोई इच्छा" बेटे ने दोहराया दीवाना जी कहने लगे "बेटे मेरी अलमारी में मेरा अप्रकाशित काव्य संग्रह पड़ा है और उस के साथ रंगीन लिफाफे मेंकुछ राशि भी रखी है यदि तुम उस काव्य संग्रह को प्रकाशित करवा दो और फिर नीरज जी की संस्था “संजीवनी" के माध्यम से उस का विमोचन भी करवा दो तो मेरे मन का बोझ हलका हो जाएगा और मुझे खुशी भी मिल जाएगी । 

बेटा घर आया, काव्य संग्रह का मसौदा उठाया और राशि का लिफाफा भी लिया और नीरज जी के घर जा कर प्रकाशन एवं विमोचन की सम्पूर्ण योजना तैयार की । बीस दिन के अन्दर ही काव्य संग्रह प्रकाशित हो गया । दीवाना जी की हालत काफी खराब हो चुकी थी नीरज जी हस्पताल पहुंचे और दीवाने जी को उन के काव्य संग्रह की प्रति भेंट की । काव्य संग्रह का मुख्य आवरण देखते ही दीवाना जी के अधरों पर मुस्कान नृत्य करने लगी । प्रसन्नता बे-साख़्ता अंतर्मन में उतर गई । दीवाना जी बोल उठे "नीरज जी! इस काव्य संग्रह के प्रकाशन से मैं धन्य हो गया हूँ, मैं अमर हो जाऊंगा । इस के प्रकाशन में आप के सहयोग का धन्यवाद करने के लिये मैं शब्द कहां से ढूंढ कर लाऊं । मेरे पास शब्द नहीं हैं जो आप के अहसान का मूल्य चुका सकें और दीवाना जी भावुक हो गए । 

आफ्रीन ! साहित्य प्रेम, अदब का शौक़ और दीवानों की दीवानगी । ऐसा लग रहा था कि जानलेवा बीमारी कैसर की गोद में बैठे हुए भी प्रेम दीवाना ने जिन्दगी के कुछ पल वास्तव में जी लिये । दीवाना जी की आँख खुशी के आँसुओ से भीग गई थी । वे कुछ संभल कर पुनः । कहने लगे "नीरज जी मुझ पर थोड़ी सी कृपा और कर दीजिये । अब आप अपनी संस्था संजीवनी के तत्वाधान में इस पुस्तक का विमोचन भी करवा दीजिये । विमोचन समारोह शानदार हो, ऐसा लगे कि जश्ने - दीवाना समारोह का आयोजन किया जा रहा है । इस पर जितनी राशि खर्च होगी वह मैं आप को भेंट कर दूंगा । नीरज जी विमोचन का प्लान पहले से ही तैयार कर के लाए हुए थे जिसे सुन कर दीवाना जी आश्चर्य चकित भी हुए और आत्म विभोर भी । उसी समय आमंत्रित कवियों-साहित्य प्रेमियों की सूची फाइनल हो गई । नगर के प्रसिद्ध साहित्यकार, विद्वान, काव्य पारखी श्री अभिमानी प्रसाद पुखराज को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित करने पर दोनों की सहमति हो गई । स्थान, तिथि, समय सब निश्चित हो गए । नीरज जी साहित्य को समर्पित, मूल्यों के पक्षधर, समाज सेवी के तौर पर शहर में जाने जाते थे । दीवाना जी ने बेशक आयोजन पर खर्च आने वाली राशि बिना किसी सीमा या शर्त के, देने की पेशकश कर दी थी, फिर भी नीरज जी ने अपने रसूरव से नगर के ब्राइट स्कूल का हाल निःशुल्क बुक करवा लिया । 

रविवार को हाल साहित्य प्रेमियों, गण मान्य व्यक्तियों, श्रोताओं से भरा हुआ था । सब के लिये जल पान की उचित व्यवस्था कर दी गई । अतिथि मंच पर आसीन हो गए - कवि 'साबिर' ने मंच संचालन की ज़िम्मेदारी सम्भाल ली जिसे उन्होंने बड़ी कुशलता से निभाया । नीरज जी ने आमंत्रित कवियों, श्रोताओं का स्वागत किया और दीवाना जी का परिचय देते हुए, उनके कैंसर से पीढ़ित होने बारे में भी सूचित कर दिया । मंच संचालक एक एक करके वक्ताओं को आमंत्रित करते रहे और सभी वक्ताओं ने दीवाना जी के काव्य संग्रह की भूरि-भूरि प्रशंसा की, जो समय और दीवाना जी की पीढ़ा ग्रस्त स्थिति के अनुकूल थी । उन की रचनाओं को सराहा, दाद के पुष्प बरसाए । कार्यक्रम के अन्तिम चरण में मुख्यतिथि को दीवाना जी और उन के काव्य संग्रह पर अपने विचार रखने के लिये आमंत्रित किया गया । भाषा पितामा पुखराज ने सभा को सम्बोधित करते हुए अपने भाषण में पुस्तक पर चर्चा आरम्भ की । उन्होने कहा कि इस काव्य संग्रह में रचनाएं तो काफी हैं लेकिन काव्य–प्रबन्ध, छन्द– बहर की पालना का अभाव बहुत अखरता है । दीवाना जी शायद इन सुत्रों-गुणों से परिचित नहीं है । कहीं-कहीं भाषा का दोष भी परीशान करने लगता है । विचारों की अभिव्यक्ति साधारण है । कला पक्ष और भाव पक्ष की दृष्टि से काव्य संग्रह काफी कमज़ोर लगता है और........

नीरज जी मुख्यतिथि के भाषण से दुखी हो रहे थे । वे सोच रहे थे कि दीवाना जी अपने तसव्वुरात में दुल्हा बने बैठे होंगे, और इस आयोजन को शादी के आयोजन से कम नहीं आँक रहे होंगे, लेकिन मुख्यतिथि की टिप्पणी तो कवि और उसके काव्य संग्रह की आत्मा को चूर-चूर कर रही है । "नीरज" जी ने तुरन्त "पुखराज" जी की कमर में चुटकी भरी और फुसफसाय... "दीवाना जी हस्पताल में जीवन की आखरी सांसे ले रहे हैं और आप उन पर आलोचना के तीर चला रहे हैं । श्रीमान जी ! हमें तो काव्य संग्रह की प्रशंसा ही करनी चाहिये ताकि दीवाना जी अपनी अन्तिम इच्छा पूर्ति पर कुछ राहत महसूस कर सकें । पुखराज जी सृजन कम करते हैं मगर आलोचना अधिक । अपनी आलोचना द्वारा अपना पांडित्य प्रदर्शन करने के आदी हैं । चुटकी की तीव्र चुभन से मुक्त होते ही पुखराज जी कहने लगे- "सो, तो हम दीवाना जी के काव्य संग्रह पर चर्चा कर रहें हैं । मेरे विचार में उन के पास विचारों, अनुभवों का ख़जाना हैं । वे शायरी से अथाह प्रेम करते हैं, मानव मूल्यों के पक्षधर हैं । उनकी सोच बेदार है । उन के अन्दर प्राकृतिक रिद्म का धारा प्रवाह है यह काव्य संग्रह साहित्य की अनमोल धरोहर हैं । भगवान् उन्हें लम्बी आयु दे, स्वस्थ रखें ताकि वे साहित्य को अपनी सेवाएं प्रदान करते रहें । 

आयोजन समाप्त हुआ तो नीरज जी को एक तरफ ले जा कर पुखराज जी ने उन का हाथ पकड़ कर कहा "मेरा भाषण कैसा रहा, क्या मैंने काव्य संग्रह पर ठीक, उचित विचार रखे हैं । "

नीरज जी बोले " महोदय । आप अतुल्य हैं, विलक्षण प्रतिभा  स्वामी हैं । आप की कला का कोई ओर-छोर नहीं । लेकिन साहित्य पितामह ! शादी हो या पुस्तक विमोचन, ऐसे पर्व पर बधाई ही दी जाती है, फूल ही बरसाए जाते हैं, लेकिन आप ने तो पहले कटु आलोचना के बाण से रचनाकार - लेखक प्राणी को क्षत-विक्षत कर दिया, निष्प्राण कर दिया और फिर औपचारिक शब्दों से कह दिया......

शुभ आशिष.......आयुष्मान भवः  






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