Sahitya Nandini May 2024



 शोधलेख


सारिका आशुतोष मूंदडा, 
सहायक प्राध्यापक, मॉडर्न कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स,
साइंस एंड कॉमर्स, शिवाजीनगर, पुणे महाराष्ट्र  
E mail- sarikamoondransd@gmail.com
Phone Number- 9225527666


यतीन्द्र मिश्र के रचनाकर्म में भारतीयता का चिंतन

भारतीयता शब्द विविधता में एकता का परिचायक है । अतः स्वयं में बहुत कुछ समाविष्ट किए हुए हैं जैसे कि यहाँ की भाषाएं, बोलियाँ, साहित्य, कलाएं, सांस्कृतिकता, दार्शनिक परम्परा आदि । किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीयता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए आवश्यक होता है अपने अतीत की गौरवशाली परम्परा से जुड़े रहना एवं वर्तमान के लिए आवश्यक तत्वों को सहेजना, उनका संरक्षण करना । भारतीयता के परिप्रेक्ष्य में अगर ये बात की जाये तो भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से कलाओं का ज्ञान, साहित्य में मूल्यों का बोध, भिन्न –भिन्न संस्कृतियों के समावेशी निशान, भाषाओँ का समनव्य आदि मानकों पर हम भारतीयता के बोध को समझने की चेष्टा कर सकते हैं । 

संगीत व सिनेमा अध्येता यतीन्द्र मिश्र का कृतित्व हमें भारतीय दार्शनिक परम्परा का बोध कराता है । उनके प्रत्येक रचना कर्म में शब्द, कलाओं व संवेदनाओं के प्रति गहन चिंतन देखा जा सकता है । हमारे साहित्य में भक्तियुगीन संतों की वाणियों का महत्व सीधे-सीधे भारतीयता के अर्थ को संप्रेषित करता है । जब चारों ओर विषम वातावरण व्याप्त होने लगा था तो इन संतों ने ही अपने वचनों, आख्यानों द्वारा जन मानस में सौहार्द का वातावरण निर्मित करने में महती भूमिका निभाई । वर्तमान समाज भी ऐसी ही समस्याओं से जूझ रहा है और प्रत्येक समाज में उपस्थित संवेदनशील मन इन समस्याओं के समाधान ढूंढने की कोशिश में लगे रहते है, उसे अलग-अलग तरीकों व कलाओं के माध्यम से व्यक्त करते है । यतीन्द्र मिश्र के रचनाकर्म को मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित कर सकते हैं - काव्य एवं साक्षात्कार परक पुस्तकें । दोनों प्रकार के सृजन में भारतीय कलाओं के प्रति लगाव, संस्कृति के स्वर परिलक्षित होते हैं । 

अपने चार काव्य-संग्रहों ( यदा-कदा, अयोध्या तथा अन्य कवितायें, ड्योढ़ी पर आलाप, विभास ) में आपने अपने अतीत और वर्तमान के समाज व देश के बदलते स्वरुप पर गहरी चिन्तनात्मक दृष्टि डाली है । कविताओं के आस्वादन के लिए इतिहास का ज्ञान होना नितांत आवश्यक है । भारत का गौरवशाली इतिहास, लुप्त होती कलाएं, साम्प्रादायिकता, संवेदनहीनता, शब्दों की महत्ता, सांस्कृतिकता आदि कई विषय आपकी कविताओं के प्रतिपाद्य है जिनमें अपने देश के प्रति दायित्व बोध झलकता है । आप अपने समाज में कई समस्याओं को देखते हैं, प्रश्न उठाते हैं और उनके उत्तरों के लिए अपने पूर्वजों का द्वार खटखटाते हैं । ये पूर्वज अधिकांशत: भक्तिकालीन युग के संत है और उनमें भी विशेष रूप से समाधान के लिए आप कबीर की ओर देखते हैं, उनसे संवाद करते हैं और वारिस की तरह अधिकार से कहते हैं कि .....

दोस्त हमें तुम्हारी ढेरों चीजें चाहिए 

तुम्हारा तेवर और संशय 

तुममें मौजूद सूर्यदीप्त स्पष्टता 

और विचारों के धुप- छांही विन्यास में 

साखियों की सफ़ेद आभा सी सादगी 

और मित्रताओं के सहज – विनम्र परिसर में 

प्रतिरोध की असमाप्त उन्मुक्त आवाजाही । 

‘कबीर’ के रूप में भारतीय समाज के पास एक ऐसी धरोहर व दृष्टि व्याप्त है जो हमें तर्क करना भी सिखाती है, मानव होने का मर्म भी सिखाती है एवं सत्य के लिए घर फूंकना भी, कुल मिलाकर मानवीय मूल्यों के प्रति सजग बनाती है । यतीन्द्र मिश्र का एक काव्य संग्रह (विभास) कबीर के रंग में ही रंगा हुआ है । इस काव्य संग्रह की कविताओं में कवि जब कबीर की ओर उन्मुख हुए हैं तो उपरोक्त दृष्टियों का आना स्वाभाविक ही है लेकिन इन दृष्टियों को वर्तमान समय की नब्ज पर टटोलना काव्य को चिंतन के वृहत धरातल पर ले जाता 

है । कविताओं के शीर्षक भी कबीर की शब्दावली पर आधारित है जैसे – बानी, बाजार में खड़े होकर, जुलाहों के घर का पता, उलटबांसी, एक मैली चादर, अव्यक्त की डाल पर आदि । 

भारतीयता के बोध के लिए आवश्यक है कि यहाँ का परिवेश भाईचारे और सौहार्द भाव को सहेज कर रखे, वर्तमान परिवेश को समझते हुए कितनी सकारत्मक हैं ये पंक्तियाँ –

क्या फर्क पड़ता है इससे 

अयोध्या में पद की जगह कोई सबद गाए 

दूर ननकाना साहब में कोई मतवाला 

जपुजी छोड़ कव्वाली गाए....

फर्क तो आज यह भी कहीं नहीं दिखता ...

बात- बात में रदीफ़ काफिया मिलाने वाले 

हर चीज का फर्क पहचानने वाले 

शायद ही झगड़ते हो कभी इसलिए 

राम की पहुँच डागुरों की हवेली 

खां साहब की बंदिशों तक क्यों है 

समय निरंतर गतिशील है । अपनी इस गतिशीलता के साथ बहुत कुछ बदलता रहता है । अतीत की ओर जब दृष्टि डालते हैं और जब वर्तमान में लौटते हैं तो सहज ही ये महसूस होता है कि कितना कुछ बदल चुका है । हमने जाने कितनी कलाओं को तो खोया ही, साथ ही रिश्तों की बुनियाद को भी खोया । रिश्ते, रिश्तों में बसा स्नेह हमारी संस्कृति की बहुत बड़ी पहचान है, उस बुनियाद को, पहचान को कैसे पुन: पाया जाए, ये निम्न पंक्तियों के माध्यम से समझ सकते हैं ..........

पच्चीकारी की रंगीन दुनिया से 

निरपेक्ष रहकर 

मिटानी होगी धागों की आपसी गलतफहमियाँ 

और उनके बीच बढ़ी हुई दूरी 

एक बार नए सिरे से 

नाजुक धरातल पर बुना हुआ सहमेल 

रिश्तों की मज़बूत बुनियाद के बारे में 

बहुत कुछ सिखाता है हमें 

एक साहित्यकार का दायित्व वृहद् है । यतीन्द्र मिश्र अपने दायित्व के प्रति सजग हैं और ये भाव भी उनमें निरंतर बना हुआ है कि जो वर्तमान है, भविष्य का इतिहास होगा । वर्तमान में हम जो भी कर रहे हैं, इतिहास उसे अपने भीतर समा लेगा । इसी भाव के साथ वो ‘हड़प्पा’ कविता में कहते हैं कि हड़प्पा कहाँ लुप्त हुआ है ? हड़प्पा के समय के हथियार, शृंगार की वस्तुएं, बर्तन, कलाएं, भय, प्रेम, इर्ष्या सब कुछ जस का तस आज भी है हमारे पास, बस वह ऐतिहासिक समय बीत चुका है । तात्पर्य यह कि एक सभ्यता हम भी तो निर्मित कर रहे हैं, क्या हम अपने कार्यों और उसके परिणामों की ओर सजग हैं ? ये तो हमें ज्ञात ही है कि स्वयं के कार्यों का बोध और मूल्यांकन भारतीय दर्शन का अहम् तत्व है । 

भारतीयता का बोध संगीत व अन्य कलाओं में भी मुखर होता है, इनके बिना ये बोध अधूरा है । संगीत अध्येता यतीन्द्र मिश्र का काव्य संगीत व कलाओं से प्रेरित है, उनके कुछ काव्य के शीर्षक ही इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं जैसे कथकली का चेहरा, ढोल, बारामासा, तानसेन के बहाने, अष्टपदी, उस्ताद अलाउद्दीन खां 

आदि । इन काव्यों में भारतीय कलाओं के प्रति उनका अनुराग सहज ही संप्रेषित होता है । ‘अष्टपदी’ काव्य की ये पंक्तियाँ हमारी राष्ट्रीयता को कितने सुंदर रूप से व्यक्त करती हैं –

इसका उल्लेख आते ही 

तेरहवीं शताब्दी की याद आती है 

जयदेव आते हैं मन में 

और उड़ीसा का पुरातन भूगोल 

नाचता है अपनी हरीतिमा के साथ 

कृष्ण और राधा 

बांसुरी और मोरपंख 

दृश्य बनकर आते हैं गरिमामय 

आँखों के सामने 

भारतीय मूल्यों की छवि के रूप में राम सीता जनमानस के हृदय में युगों युगों से अंकित हैं । उनके प्रति आस्था में आज भी वही स्पंदन है । अयोध्या जनमानस की आस्था का क्रेंद हैं और अयोध्या कथा उस केंद्र की प्रकाशउर्मि .....

आज भी 

अंतर्ध्वनियां मर्यादा की 

कंपाती हैं 

सरयू के पवित्र जल को 

तिरती हिया आस्था 

वैदिक मन्त्रों सी, 

.....................

आदर्श हों राम 

अधिष्ठात्री हो सीता,

आने न पाए कोई कलुष, 

युगों-युगों तक 

अयोध्या कथा में 

हमारे भारतीय संस्कारों में सदैव सत्य की महत्ता पर बल दिया गया है । सत्य प्राप्ति के लिए परम सत्ता से सम्बन्ध स्थापित करने की चेष्टा के कई प्रयास हम अपने इतिहास में देखते हैं । इसके लिए आवश्यक है कि हम स्वयं को समझ सकें, तभी सही मायनों में एक बेहतर जीवन जी सकते हैं, ये भाव बोध भी ‘साधो’ कविता में कुछ इस प्रकार व्यक्त हुआ है ….

जीवन के उस एकांत को भी साधो, 

जो अनजाने ही फिसलकर छूट गया तुमसे 

......................................................

साधो वह सब कुछ जो जीवन को नया अर्थ देता है । 

साथ ही उसे भी, 

जो उस अर्थ को सार्थक करने वाला एक नया जीवन । 

काव्य के अतिरिक्त साक्षात्कार विधा में भी यतीन्द्र जी का गहन रचनाकर्म हमारे सम्मुख है । उनकी साहित्येत्तर सम्बंधित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है -- लता सुर गाथा, सुर की बारादरी, गिरिजा, अख्तरी : सोज और साज का अफ़साना, देवप्रिया । इन सारे व्यक्तित्वों का जब अध्ययन करते हैं तो एक बात जो सबमें समान रूप से उपस्थित है कि ये सब समाज के बदलते स्वरुप के साक्षी रहे हैं । इन्होने अपने -अपने दौर के संघर्षों को जीया, उस समय प्रचलित मान्यताओं के मध्य अपने लिए एक नयी राह बनायी । 

हमारे भारतीय परिवेश का जो अत्यावश्यक तत्व है वो है - धर्म निरपेक्षता या धार्मिक सहिष्णुता । यतीन्द्र जी की पुस्तकों में कला साधकों के संवाद के माध्यम से इन तत्वों का भी समावेश हुआ है । ‘सुर की बारादरी’ पुस्तक के माध्यम से हम धर्म निरपेक्षता का भाव स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । अपने मजहब के प्रति अत्यधिक समर्पित उस्ताद बिस्मिल्ला खां की श्रद्धा विश्वनाथ जी के प्रति भी अपार रही है । वे जब भी काशी से बाहर रहते, तब विश्वनाथ व बालाजी मंदिर की ओर मुंह करके बैठते, थोड़ी देर ही सही, मगर उसी ओर शहनाई का प्याला घुमा दिया जाता । गंगा के प्रति उनकी आस्था अपार है और वो कहते हैं कि -- “ बड़ी सुरीली है यह गंगा मईया ! बड़े नेमत की बात है कि अगर इसका पानी देह से लग जाए तो सुर ही सुर होगा भीतर । कोई किसी से झगड़ा नहीं करेगा, क्योंकि कोई बेताला, बेसुरा नहीं बचेगा । ” इसी प्रकार लता मंगेशकर ने अपने पिता के अलावा कई व्यक्तियों से संगीत के लिए आवश्यक बातें सीखी । जब वो उन दिनों को याद करती हैं तो बताती हैं कि किन व्यक्तियों से उन्होंने क्या सीखा तो हम स्पष्ट रूप से ये रेखांकित कर सकते हैं कि उन्होंने उस्ताद अमान अली खां भेंडी बाजार वाले से राग भूपाली, विट्ठल से मराठी वर्णमाला, मध्य-प्रदेश निवासी इंदिरा से हिंदी भाषा का ज्ञान, महबूब से उर्दू भाषा, गोनी दांडेकर से संस्कृत.......आदि ऐसे कई दृष्टांत हैं जिनमें हम भारतीय लोकतंत्र में समाहित धर्म निरपेक्षता, सहिष्णुता व उदारता का तत्व सरलता से देख सकते है । भारत जैसे विविध धर्मानुयायी वाले देश में इस तत्व की अहमियत को आसानी से समझा जा सकता है । वर्तमान परिवेश में देश में जिस तरह का माहौल है, वहां अपने इतिहास की उस घड़ी में ये महसूसना सुखद एहसास है कि लता मंगेशकर को ना केवल भारत में वरन विश्व में स्वर साम्राज्ञी के पद पर प्रतिष्ठित होने में धार्मिक उदारता की जो भावना थी, उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । 

हामरी संस्कृति का अन्य महत्वपूर्ण तत्व है - गुरु शिष्य परम्परा । हमारे समाज में इस परम्परा का बहुत महत्व रहा है । गुरु का सम्मान, उससे कुछ सीखने का भाव निष्ठा शिष्य में होनी चाहिए । वहाँ गुरु को भी अपने शिष्य के प्रति अपनी संतान सम व्यवहार रख उसे पूरी लगन से सिखाना चाहिए । सुशिक्षित नागरिक देश को उन्नति के पथ पर ले जायेंगे । लता जी, गिरिजा देवी, सोनल मानसिंह, बेगम अख्तर सभी ने अपने जीवन में गुरु के महत्व को स्वीकारा है । उन्होंने इस परम्परा की आवश्यकता को वर्तमान में भी स्वीकारा है । 

कला जगत के व्यक्तित्व अपने कार्य से सम्बद्धता के कारण साहित्य से भी जुड़े रहते हैं । लता जी, गिरिजा देवी व सोनल मानसिंह सबने अपने रचनाकर्म में हमारे भारतीय समाज के संतों की वाणी को स्थान दिया है । संत साहित्य और गायन कला तो सीधे सीधे सम्बद्ध होती ही है । सोनल मानसिंह जी ने अपने नृत्य में भी साहित्य का समावेश किया है, इस प्रकार भारतीय संस्कृति के तत्वों का सम्मिलन हम कलाकारों के जीवन के माध्यम से देख सकते हैं । 

कला का उद्देश्य केवल मनोरंजन तक ही सीमित नहीं है, वो समस्त भारतीयों को एक सूत्र में पिरोता है । भारत बहुभाषी देश है और इस भाषायी विविधता को पाटने में संगीत का वृहत योगदान है, गीतों के भावों के माध्यम से सारे देशवासी परस्पर जुड़ाव महसूस करते हैं । इस तथ्य को लता जी ने भी स्वीकार किया है और गीतों के माध्यम से शब्द भन्डार में भी वृद्धि होती है । इस बात को अपनी जिम्मेदारी मानते हुए लता जी ने सदैव शुद्ध उच्चारण को अपने गायन में महत्व दिया । गीतों के माध्यम से हमारे देश भारत की एकता का सूत्र मजबूत होने में सहायता मिलती है । कला का क्षेत्र है ही ऐसा कि वो अपने श्रोताओं, दर्शकों के समक्ष कला के माध्यम से इस तत्व को मजबूती से स्थापित करता है । यतीन्द्र मिश्र के रचनाकर्म में विविध साक्षात्कारों में इसकी झलक आसानी से देखी जा सकती है । 

भारतीयता की प्रकृति ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत को अपने भीतर समाहित किये है । सदा सबके कल्याण की भावना, आध्यात्म पर बल, त्याग, सहिष्णुता, सर्वधर्म समभाव इसके तत्व हैं । वर्तमान में भले ही हमें कभी ये महसूस हो कि हमारे ये आधार तत्व लुप्त हो रहे हैं, लेकिन ये तत्व हमारे जीवन से कभी विलुप्त नहीं हो सकते क्योंकि ये लुप्त होना वास्तव में हमारा दृष्टि भ्रम है । कभी कलाओं के माध्यम से, कभी लेखन के माध्यम से इन तत्वों को नयी कसौटी पर परखा जा सकता है । हमारे जीवन मूल्यों की जड़ें इतनी सशक्त हैं कि हर बार परिवर्तित होते परिवेश के लिए इनके पास पोषण की कभी कमी नहीं होती । यतीन्द्र मिश्र का रचना कर्म हमें इस बात की आश्वस्ति दिलाता है । वर्तमान की समस्याओं के समाधान के लिए हमें कहीं बाहर देखने की आवश्यकता नहीं है बल्कि हमें अपनी जड़ों की ओर ही देखना चाहिए चाहे वो साम्प्रदायिकता की बात हो, चाहे रिश्तों की दरकती बुनियाद की, चाहे विविध भाषाओँ के साहित्य के रूप में संरक्षित धरोहर में व्याप्त एक सी विचारधारा की या फिर मानवता शब्द में व्याप्त संवेदनशीलता की । 

प्रसिद्ध चिंतन व समाजविज्ञानी राधा कमल जी ने कहा था कि सामजिक, नैतिक तथा कलात्मक क्षेत्रों को भारतीयता तत्व दर्शनपरक सत्य और मूल्य प्रदान करती है । हम निश्चित ही ये महसूस कर सकते हैं कि यतीन्द्र मिश्र के काव्य में उपरोक्त तीनों क्षेत्र अपनी इसी विशिष्टता के साथ मुखरित होते हैं । यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यतीन्द्र मिश्र का रचना कर्म अपनी धरोहर से ना केवल सम्बद्ध होता है वरन उसके संरक्षण के लिए भी पथ प्रशस्त करता है । 

यतीन्द्र मिश्र

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संमरण एवं आलोचना

समीक्षक, भूपेन्दर सिंह रैणा, जलंधर

लेखक, वीणा विज 'उदित', जलंधर, मो. 96826 39631



"राहें मिल गुनगुनातीं" (काव्य संग्रह)


पुस्तक :-- रचनाकार :--वीणा विज

प्रकाशक-Matri Bharti Techonlogies (p) ltd.Ahmadabad Gujrat

वीणा विज 'उदित' उत्कृष्ट कवियित्री, कहानीकार, फिल्म/टी वी कलाकार और साहित्यकार हैॅ । मेरा सोभाग्य है कि समय समय पर अपनी नई कृतियां भेजती हैं, समय अभाव के कारण अब तक कोई चर्चा सांझी नहीं कर पाया । इस काव्य संग्रह की बात यहां से प्रारंभ करता हूं :--

"ख़्वाबों की 

ताबीर मुकम्मल न हुई तो 

अश्कों की राह बह कर 

निकलेंगे । " 

वीणा विज एक सकारात्मक सोच की जिंदादिल शख्सियत हैं । इनके काव्य-संग्रह की पहली पंक्तियां ही इनके जज़्बे का बयान करती हैं । 

आज जब हर तरफ उन्मादी शोर ज़हन तो क्या रूह को भी बेचैन कर रहा है, जहाँ हवा की सरगोशियां भी शोर की तरह लगती हैं, वही एकांत और खामोशियां खुद से मिलवा कर नवस्फूर्ति का आनंद देने लगते हैं । ऐसे में वीणा विज जी का कहन भी अकाट्य लगने लगता है

"हवा की सरसराहटों से कहो शोर ना करें 

मेरी खामोशियां मुझसे मिल गुनगुनाने लगी हैं । "

वीणा विज की संवेदनाओं की कवियित्री हैं । वे एहसासों के स्पंदन की बात कहती हैं, कविता का स्वरूप भी यही  है । अंतर्मन के भाव जब मुखर होकर कागज़ पर उतरने लगते हैं तो मौन को भी आवाज़ मिल जाती है___

"ढेरों जिज्ञासाएं समेटे

 विचार मग्न अन्वेषण की 

रंग बहारों से पूछते 

कौन से शब्द उकेरें

 भावों के कागज़ रंग के"

व्यक्ति का अपने अतीत से कुछ ऐसा आत्मीय रिश्ता होता है, कि बार-बार अतीत की ओर वह खींचता चला जाता है । स्मृतियां कभी मन को प्रफुल्लित कर देती है तो कभी कोई अनकही कसक जगा जाती हैं । । जो भी हो अतीत व्यक्ति को अपने होने का अहसास बड़ी शिद्दत से करता रहता है___

"ठहर जाती है कशमोकशे ज़िंदगी

 जब यादें दिल पर देती है दस्तक

 घने कुहासे छा जाते हैं एकदम 

हटाने से हटती नहीं धूल भरी परत । "

कहते हैं 'समय' बड़ा बलवान होता है, सच है समय जब तक साथ देता है हमें इसकी क़द्र नहीं होती और जब क़द्र होने लगती है समय रेत की मानिंद फिसलता दिखाई देता है । कुछ इसी तरह की छटपटाहट इन पंक्तियों में भी दिखाई देती है___

"वायु वेग से क्यों दौड़ते जा रहे हो "समय"

 तुमने कब चाल बदली भनक नहीं लगी___

शिकन और झुर्रियां आईने में दिखीं

ढेरों पड़ाव जिंदगी के कर लिए पार

 तन शिथिल-निढाल मंजिल पर पहुंच

 कब बनी ज़िंदगी "यादें" मालूम नहीं हुआ!!

वीणा जी जहाँ प्रकृति के तत्वों में जीवन के प्रत्येक क्षणों को अनुभव करती हैं, चाहे समंदर की उठती लहरें हों, अग्नि की प्रचंडता हो, वायु का वेग हो, आसमान की विशालता हो, या रेत का बवंडर, वे जीवन को आध्यात्म से जोड़कर इन्हीं पांच तत्वों में उसका सार तलाशती हैं । तभी तो लिखते हैं___

"वरेण्य सौंपती प्रकृति कर्म विचार

 पंचतत्वों से बंधा, यही जीवन का सार । । "

हमारा समाज कितना ही विकसित क्यों न हो गया हो किंतु मानसिकता आज भी विकसित नहीं हो सकी । समाज में पुरुष-स्त्री समानता के ढोल तो पीटे जाते हैं, किंतु वास्तविकता आज भी कड़वी है । कन्या-भ्रूण हत्याएं आज भी हो रही हैं । इस पर व्यथित कवियित्री भविष्य की लिंग असमानता पर चिंता व्यक्त करती हैं___

"नागफनी का फूल भी न था

 शहर की बाकी गलियां

 लेती थी सांसें 

मस्ती में जीती थीं

 श्राप था भ्रूण हत्या का 

शहर की उस वीरान गली को!" 

विषय से जुड़ी एक और मार्मिक कविता "अंतहीन उदीषा" ने समाज में लिंग समानता के बड़े-बड़े दावे झुठलाते हुए घरेलू हिंसा के बदलते ढंग और तेवरों पर कलम चलाई है । कविता पठनीय है, व विचारणीय भी । बदलते समाज ने बौद्धिकता के साथ ही संत्रास देने के नए ढंग भी अपनाएं हैं । जिससे एक स्त्री के प्रति न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ी हैं । 

वैसे तो वीणा विज जी ने अपने इस काव्य-संग्रह में बहुत से विषयों को छुआ है, जिनमें देश की वर्तमान स्थिति, देश प्रेम, सिख धर्म के प्रवर्तकों और सामाजिक ताने-बानों के साथ प्रकृति के कौतूहल से आकर्षित कुछ गीत भी है । 

वीणा विज जी की इस काव्य यात्रा में एक और सुनहरा वर्क है यह काव्य-संग्रह । 

इस संग्रह की बधाई के साथ आपके आने वाले संग्रह के लिए मैं अपनी शुभकामनाएं देता हूं । 



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संमरण एवं आलोचना




समीक्षक - श्याम सुन्दर अग्रवाल, कोटकपूरा (पंजाब)

सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

स्त्री के मन में उतर कर लिखने वाली लेखिका सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

बीसवीं सदी में पुस्तकों व पत्रिकाओं को पढ़ कर ही नए लोग साहित्य-लेखन में प्रवेश करते थे । पत्रिका या पुस्तक प्रकाशित करना/करवाना सबके लिए संभव नहीं होता था । इसलिए लेखक की रचना संपादक के पैमानों पर खरी उतरने के बाद ही प्रकाशित हो पाती 

थी । लेकिन 21वीं सदी में आम लोगों की पहले इंटरनैट तक पहुँच बनी और लेखक अपना ‘ब्लॉग’ बना लिखने लगे । इससे लेखक की रचनाएँ विश्वभर के पाठकों तक पहुँचने लगी । ‘फेसबुक’ के अवतरित होने पर ‘ब्लॉग’ कहीं पीछे छूट गया । ‘फेसबुक’पर अनेक लेखकों की रचनाएँ एक ही स्थान पर देखी जा सकती थीं । ‘फेसबुक’पर कई साहित्यक ग्रुप बने, इनमें लघुकथा विधा से संबंधित ग्रुप भी रहे । ‘फेसबुक’ पर सबकुछ व्यक्ति के अपने अधिकार में आ गया−लेखन, संपादन, प्रकाशन । ऐसे में लघुकथा विधा में बहुत बड़ी संख्या में नए लेखक/लेखिकाओं का उदय हुआ । गृहकार्यों में व्यस्त रहने वाली औरतें भी समय मिलते ही फेसबुक पर एक्टिव हो जाती रहीं । ‘फेसबुक’ लिखने की क्षमता रखने वाली स्त्रियों के लिए वरदान साबित हुआ । फेसबुक’ से निकले रचनाकारों में अधिकांश लेखिकाएँ ही रहीं । 

आगरा निवासी श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ भी ‘फेसबुक’ से निकली लेखिका हैं । उन्होंने अपना लघुकथा लेखन फेसबुक से ही प्रारंभ किया । वे वर्ष 2014 में लघुकथा-लेखन में सक्रिय हुईं । उन्होंने लघुकथा-लेखन को आसान कार्य नहीं समझा । निरंतर परिश्रम किया व आगे बढ़ीं । जिन रचनाकारों ने लघुकथा लेखन को आसान कार्य समझा वे अधिक समय तक यहाँ टिक नहीं पाए, शीघ्र ही लेखन-क्षेत्र से बाहर हो गए । जिनके लेखन में निरंतरता बनी रही उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है । सविता मिश्रा जी पिछले आठ वर्षों से निरंतर लेखनी चला रही हैं । वर्ष 2019 में उनका प्रथम लघुकथा संग्रह ‘रोशनी के अंकुर’ प्रकाशित हुआ जो काफी चर्चित रहा । अपने स्वभाव की तरह ही ‘अक्षजा’ जी की लघुकथाओं की भाषा व शैली अन्य रचनाकारों से हटकर है । उन्होंने विभिन्न विषयों पर कलम चलाई है, लेकिन पारिवारिक रिश्तों व सामाजिक सरोकारों को लेकर लिखी गई उनकी लघुकथाएँ अधिक प्रभावित करती हैं । उनके दूसरे लघुकथा संग्रह ‘टूटती मर्यादा’ की रचनाओं के बारे में बेझिझक कहा जा सकता है कि ये लेखिका के पहले लघुकथा संग्रह की रचनाओं से बेहतर हैं । सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ अपने लेखन में निरंतर सुधार ला रही हैं, यही एक श्रेष्ठ रचनाकार की पहचान है । मेरी ओर से ‘अक्षजा’ जी को उनके दूसरे लघुकथा संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाई एवँ हार्दिक शुभकामनाएँ । 


विधा- लघुकथा

लघुकथाकार - सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

प्रकाशक - वनिका पब्लिकेशन 

पृष्ठ – 152

कीमत – 250/-


आगरा, मो. : 09411418621

ई-मेल : 

2012.savita.mishra@gmail.com


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समीक्षा






समीक्षक, डॉ. मधु संधु (पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, 

गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर), मो. 8427004610

लेखक : पंकज सुबीर

प्रकाशक : शिवना प्रकाशन, सीहोर (म.प्र.)


जोया देसाई कॉटेज (कहानी संग्रह)

सबसे अपवित्र शब्द 'पवित्र' है ।

‘जोया देसाई कॉटेज’ कथाकार, ग़ज़लकार, व्यंग्यकार और संपादक पंकज सुबीर का सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह है । इससे पहले उनके ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’, ‘महुआ घटवारिन और अन्य कहानियाँ’, ‘कसाब डॉट गांधी एट यरवदा डॉट इन’, ‘चौपड़े की चुड़ैल’, ‘होली’, ‘प्रेम’, रिश्ते’, ‘हमेशा देर कर देता हूँ मैं’ कहानी संग्रह आ चुके  हैं । ‘ये वो सहर तो नहीं’, ‘अकाल में उत्सव’, ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क पे नाज़ था’ और ‘रूदादे सफर’ उनके उपन्यास हैं । ‘बुद्धिजीवी सम्मेलन’ उनका व्यंग्य संग्रह है । 

‘जोया देसाई कॉटेज’ में उनकी ग्यारह लंबी कहानियाँ संकलित हैं– ‘स्थगित समय गुफा के फलाने आदमी’, ‘ढोंड़ चले जै हैं काहू के संगे’, ‘डायरी में नीलकुसुम’, ‘खजुराहो’, ‘जाल फेंक रे मछेरे’, ‘जोया देसाई कॉटेज’, ‘जूली और कालू की प्रेमकथा में गोबर’, ‘रामसरूप अकेला नहीं जाएगा’, ‘उजियारी काकी हँस रही है’, ‘नोटा जान’, ‘हराम का अंडा’ । 

प्रथम कहानी ‘स्थगित समय गुफा के फलाने आदमी’ महामारी कोरोना को लिए है । कोरोना विश्व में आशंकाओं का अंधेरा, दहशत, मृत्यु भय, अंधकार ले कर आया था । जब मृतक शरीर संस्कार के लिए एक के ऊपर एक थप्पियाँ बना कर रखे जा रहे थे । कहानी तीन तरह के लोगों को लिए है । संक्रमण और मृत्यु भय से पराये हुये चतुर अपने, अनासक्त, निस्पृह, घमंडी, स्वार्थी और आत्मकेंद्रित लोग । दोगले, छद्म और ड्रामेबाज़ (अपने) प्रेस रिपोर्टर/ पत्रकार और बेनाम स्वयं सेवक- फलाने आदमी । इन अज्ञात, अपरिचित, संवेदनशील अजनबी फलाने आदमियों का कोई नाम नहीं होता । लेकिन मानवता इन्हीं के कारण जीवित है । पूरा विश्व इन्हीं से चल रहा है । एक स्थगित सी समय गुफा में रह रहे यह चार लोग ही असली नायकत्व लिए हैं । कहानी में कोरोना हो जाने के कारण पिता को छत के अलग कमरे में कर दिया जाता है । बाहर से ही खाने की थालियाँ, पानी, दवाइयाँ आदि अंदर कर दिये जाते हैं । पत्नी और बेटी नहीं जानती कि कब उनकी मृत्यु हो जाती है । उन की चिंता मृत शरीर से जल्दी से जल्दी छुटकारा पाने की है । वह समय जब सरकार निष्क्रिय और अपने अनासक्त थे, जब टी. वी. कवरेज के लिए नाटक, ढोंग किए जा रहे थे, तब अनाम समाजसेवक, यानी फलाने लोग ही मृत्युभय को फलांगते हुये आगे आते हैं । 

‘ढोंड़ चले जै हैं काहू के संगे’ में मित्रगण और सोशल मीडिया की गुलाबी आभासी मायानगरी के लोग नायक राकेश कुमार का व्यक्तित्व द्विखंडित कर देते हैं, उसे मनसा रुग्ण कर मनोचिकित्सक के पास पहुँचा देते हैं । 

‘डायरी में नीलकुसुम’ 35 वर्ष पुराने शुभ्रा के अविस्मरणीय किशोर प्रथम प्रेम की स्मृतियों की कहानी है । दलित विमर्श की कहानी है । दलित के दुख, लाचारी, पीड़ा, अपमान की कहानी है । अंधेरे और उजाले की अलग-अलग सच्चाइयों की कहानी है । माँ के यौन शोषण को देखकर भी दलित बेटा खून के घूँट पीने के लिए विवश है और बेटे के कारण माँ गाँव से निष्कासित हो जाती है । 

यह कह पाना कठिन है कि ‘खजुराहो’ और ‘जोया देसाई कॉटेज’ पंकज सुबीर की ऐतिहासिक कहानियाँ हैं या ऐतिहासिक रस की कहानियाँ हैं, प्रेम कहानियाँ हैं या पितृसत्ता के अधिनायकत्व की कहानियाँ हैं । खजुराहो मध्यप्रदेश का प्रमुख पर्यटन स्थल है और विश्व भर में उन मैथुन मूर्तियों वाले मंदिरों के लिए चर्चित है, जिनका निर्माण चंदेल राजाओं द्वारा दसवीं से बाहरवीं शताब्दी के मध्य करवाया गया था । ‘खजुराहो’ की सुजाता और नेहा एक होटल ‘हवेली’ में मिलती हैं । नेहा के कमरे में मैथुन रेखाचित्रों और वैसी ही शायरी या गद्यगीतों से भरी एक डायरी है । यहाँ स्त्रियाँ विवाहित होने के बावजूद दूसरे पुरुषों के साथ अपने सुख की तलाश कर रही हैं । देहात्मबोध उनके लिए प्रमुख है । यौनावेगों के कारण सारे तटबंध तोड़ स्त्री दरिया की तरह बहना चाह रही है । दरिया ड्राइवर कमर हसन हो या कोई और । इसे नारी विद्रोह भी कह सकते हैं और देह धर्मी पुरुषों की देन मनोरोगों से छुटकारा पाने का तरीका भी- “क्या होगा जब मेरे दरिया को पता चलेगा कि मैं दूसरे दरियाओं से भी गुजरती रही हूँ । शायद वह मुझे समाप्त ही कर देना चाहे । भूल जाएगा कि मैंने उसे कभी नहीं पूछा कि वह कहाँ कहाँ से गुजरता है । ” 

‘जोया देसाई कॉटेज’ में मांडवगढ़ के अंतिम बादशाह बाजबहादुर और उसकी प्रेमिका तथा रानी रूपमती (चरवाहे की बेटी) के ‘रानी रूपमती महल’ का ज़िक्र है । आदम खान के आक्रमण के समय बाजबहादुर हार कर खानदेश भाग गया और रानी रूपमती ने दुश्मन से बचने हेतु जहर खाकर जान दे दी । कहानी विदेश से अपने कारपोरेट पति के साथ आई उस उदास सी जोया की है, जो अपने को रूपमती ही मानती है और यहाँ उसे उसका बाज बहादुर यानी राहुल मिल जाता है । क्योंकि- “इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि साथ कितना रहा, फर्क इससे पड़ता है कि साथ कैसा रहा । प्रेम को समय से नहीं मापा जाता, एहसास से मापा जाता है । “ 

‘जाल फेंक रे मछेरे’ वैवाहिक संदर्भों में अर्थतन्त्र की कहानी है । सकीना बेटे ताहिर को अमीर घर में विवाह के लिए प्रशिक्षित कर रही है । चाहती है कि इंदौर की रहने वाली बिना बाप की इकलौती अमीर बेटी सबा से उसकी शादी हो जाये । बेटे को मछेरे की तरह जाल फेंकने में पारंगत करती है, जबकि इस जाल में लड़की नहीं उसकी माँ आ जाती है- “भाभी सोनमछरी लेने गया मछेरा खुद ही जाल में फंस गया है । ताहिर निकाह की बात कर रहा है-पर सबा से नहीं सबा की अम्मी से निकाह की बात कर रहा है । ” 

‘जूली और कालू की प्रेमकथा में गोबर’ कहती है कि कल के सामन्तीय शोषण का स्थान आज अफसरशाही ने ले लिया है । तब होरी या गोबर के दुख बहुत बड़े थे, पर थे केवल आर्थिक स्तर पर । आज होरी या गोबर पर होने वाले अत्याचार हर सीमा पार कर चुके हैं । कलेक्टर की कुतिया जूली किसान के देसी कुत्ते कालू के संसर्ग में आती है, इसलिए कालू को गोली मार दी जाती है । किसान का युवा बेटा गोबर इस प्रक्रिया का विरोध करता है, इसलिए गोबर की मुंहजोरी पर सबक सिखाने के लिए क्लेक्टर का पूरा स्टाफ उस पर जानलेवा अप्राकृतिक यौन हमले करता है । 

‘रामसरूप अकेला नहीं जाएगा’ में यान्त्रिकी ने आदमी की, उसके काम की अनिवार्यता समाप्त कर दी है । मशीनों ने खेतीहार मजदूरों को अलविदा कह दिया है, क्योंकि खेतों में फसलों की कटाई के लिए दैत्याकार मशीनें पहुँच चुकी हैं । विद्युतीय वाद्य यंत्रों ने मंदिर में झांझ, मंजीरा, नगाड़ा बजाने वालों की छुट्टी कर दी है । लांड्री, ड्राई क्लीन वालों के पास कपड़े धोने, सुखाने की ऑटो- मैटिक इलैक्ट्रिक मशीनें हैं । तरखान मशीनों की मदद से चुटकियों में अपना काम निपटा रहा है । चौकीदार का काम सी. सी. कैमरे कर रहे हैं । ऐसे में कामगार रामस्वरूप क्या करे ? कहानी मशीनीकरण की देन बेकारी और आदमी के फालतू हो जाने की बात करती है । 

‘उजियारी काकी हँस रही हैं’ निरंकुश पितृसत्ताक और नारी दमन की कहानी है । 15- 16 वर्ष की बच्ची ब्याहकर आती है । ससुराल में ‘जिमी स्वतंत्र होई बिगरहि नारी’ स्त्री अनुशासन का मूल मंत्र है । अवधारणा है कि ठोड़ी तक घूँघट निकालना, धीमें बोलना, हँसी की आवाज़ न निकालना अच्छे घर की बहुओं के लक्षण हैं । अगर वह ग्रुप फोटो में हँस दे तो कहा जाता है कि फोटो बिगड़ गई । अगर वह हम-उम्र भतीजे-भतीजियों के साथ खेल- बोल ले तो माना जाता है कि चरित्र बिगड़ गया । अगर वह सुंदर हैं, तो कुंठित पति उत्पीड़न का कोई वार खाली नहीं जाने देता, जबकि गैर कानूनी होते हुये भी दूसरी शादी करना पितृसत्ता में सामान्य घटना है । 75 की पत्नी का भी किसी काम से इंकार करना नरक का द्वार खटखटाना है । क्योंकि- “पत्नी का तो दायित्व है कि वह पति का काम करे । इसीलिए तो उसे ब्याहकर लाया गया था । ”

‘हराम का अंडा’ में संतान का इच्छुक जोड़ा डॉ. श्रेष्ठा के क्लीनिक में अपनी मेडिकल रिपोर्ट लेकर आता है और पत्नी में कुछ कमी होने के कारण डॉ. आई.बी.एफ. की बात करती है । पुरुष धर्म की आड़ लेकर इसे हराम कहता है । मूलत: वह जानता है कि इस प्रणाली पर लाख-सवा लाख खर्च करने की बजाय पचास हज़ार में दूसरी शादी कर बच्चा पाया जा सकता है । पुरुष सत्ता अपनी स्वर्ण अंगूठियों, चेन, घड़ी, मोबाइल पर बिना सोचे खर्च कर सकता है, लेकिन पत्नी के टेस्टों या आई. बी. एफ. पर खर्च करना उसकी मानसिकता में नहीं है । कहानी यह भी कहती है कि स्त्री उसके लिए सिर्फ एक कोख है, वंशफल तैयार करने का साधन है । 

‘नोटा जान’ किन्नर विमर्श लिए है । किन्नर जो समाज के लिए अभद्र, असभ्य और त्याज्य हैं । यहाँ ब्रजेश से बिंदिया बनी, मैट्रिक में स्कूल में डिस्टिकशन लेने वाली, बाहरवीं तक पढ़ाई करने वाली, देश की प्रथम किन्नर जनप्रतिनिधि रह चुकी, किन्नर मुखिया को नायकत्व दिया गया है । बताती है- जैसे ही समाज को पता चला कि वह किन्नर है, उसका शारीरिक यौन शोषण होने लगा । घर छोड़ वह किन्नर समाज में आ गई, लेकिन अनाम रह कर बेटे की तरह माँ- बाप बहनों की लगातार आर्थिक सहायता करती रही । न माँ- बाप ने कभी घर चलाने को कहा और न बहनों की कभी उससे मिलने की इच्छा हुई । उनके लिए वह सिर्फ नोटा का बटन हो गई, इंसान    नहीं । 

‘रूदादे-सफर’ उपन्यास की तरह ‘ढोंड़ चले जै हैं काहू के संगे’ कहानी का डॉक्टर और नायक संगीत में अतिरिक्त रूचि रखते हैं । ‘खजुराहो’ की डायरी’ काव्यात्मक, गद्य काव्य सी है । कहानीकार की हिन्दी में भूपाली/ सीहोरी बोली सहज रूप से घुल- मिल गई है । ‘ढोंड़ चले जै हैं काहू के संगे’ कहानी का शीर्षक ही स्थानीयता लिए है । शब्द-वबा (महामारी) अंग्रेज़ी के आम बोलचाल के शब्दों से कोई परहेज नहीं किया गया । 

सूत्रात्मता भाषा को शाब्दिक कौशल से, अर्थ- व्यंजना से, दूरगामी संदेशों से, गहन चिंतन से सम्पन्न कर रही   है । जैसे- 

प्रेम और बरसात जब तक एक ही गति से बरसते हैं, तभी तक अच्छे होते हैं, अन्यथा तो ये उदास ही करते हैं । 

प्रेम में होना ही तो बसंत में होना होता है । 

कहते हैं कि चंबल का पानी क्रोध को पोषित करता है । 

साँप कितना भी लहरा कर चलता हो, उसे सरकारी नौकरी के बिल में घुसा दीजिये, एकदम सीधा होकर चलने लगेगा । 

डॉलर, पॉन्डस, दीनारों के चक्कर में देश को छोड़कर चले गए लोग देशवासियों से अधिक देशभक्त हो चुके थे । 

आदतें छूटती नहीं हैं, बस होता यह है कि नयी आदतों के पीछे पुरानी आदतें छिप जाती हैं, दब जाती हैं । ज़रा कुरेदो तो राख  में से चिंगारी चमक उठती है । 

दुनिया का सबसे अपवित्र शब्द पवित्र है । 

उड़ना और बहना जीवन में बहुत ज़रूरी है, उड़े बिना पता नहीं चलता कि आकाश का विस्तार कितना है और बहे बिना पता नहीं चलता कि पृथ्वी की सीमाएँ कहाँ- कहाँ तक हैं । 

कहानी सब की ऐसी ही होती है, दुख और उदासी से भरी हुई, बस दुख के कारण बदल जाते हैं । 

बहुत सुंदर स्त्रियों के हिस्से में सुख नहीं आते । 

इन कहानियों में अपनों का परायापन और परायों की संवेदनशीलता/ मानवीयता है । मशीनीकरण, मित्रों और आभासी दुनिया से पगलाया, विसंगति का शिकार आम आदमी है । दलित विमर्श और प्रथम किशोर प्रेम है, किन्नर की वेदना है । देहात्मबोधों की, प्रेम की प्यासी आत्माओं की, निरंकुश यौनाकांक्षाओं की चर्चा हैं । अफसरशाही की दरिंदगी है । निरंकुश और वस्तुवादी पितृसत्ता है । 

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पुस्तक समीक्षा



समीक्षक - जसविन्दर कौर बिन्द्रा, नई दिल्ली

 मोबाइल- 9868182835, ईमेल- jasvinderkaurbindra@gmail.com

जीवन एक बहती धारा....

लगातार साहित्य लेखन से जुड़ी सुधा ओम ढींगरा अपने नवीन कहानी संग्रह 'चलो फिर से शुरू करें' के साथ पाठकों के सम्मुख उपस्थित हुई हैं । लंबे समय से प्रवास में रहने के कारण सुधा जी के साहित्य में प्रवासी भारतीयों को मुखर रूप से देखा जा सकता है । उनसे जुड़े पारिवारिक रिश्तों व अन्य समस्याओं को कहानी के केंद्र में रखकर, भारत व प्रवासी संदर्भों के बीच पुल का काम भी करती है और पाठकों को वहाँ के परिवेश से परिचित भी करवाती है, जिनकी जानकारी हमें यहाँ बैठे नहीं होती । सामान्यतः भारतीयों को लगता है कि विदेशों और विशेषकर अमरीका में बसने वालों को भला कोई तकलीफ या परेशानी कैसे हो सकती है!

'वे अजनबी और गाड़ी का सफर' कहानी हमें एक ऐसे विषय से अवगत करवाती है, जिसे अक्सर फिल्मों व अंतर्राष्टीय सीरियलों में देखा जाता है । दो भारतीय पत्रकार युवतियों ने एक चीनी युवती को यूरोपीय पुरुष के साथ रेलगाड़ी में जाते देखा परन्तु वह लड़की बहुत तकलीफ में प्रतीत हो रही थी । उन दोनों युवतियों ने किस होशियारी व सर्तकता से उस लड़की को ड्रग माफिया से मुक्त करवाया, वह कहानी पढ़ने से ही पता लगता है । इस कहानी को केवल 'एक्साइटिट' करने या आज के दौर की सनसनीखेज़ घटना के तौर पर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि वास्तव में यह कहानी हमें अपने और अमरीकी तंत्र व पत्रकारिता के बीच के अंतर को दर्शाती है । वहाँ एक युवती पत्रकार के एक मैसेज पर सिक्योरिटी ऑफिसर्ज़ द्वारा 'हयूमन ड्रग बॉम्ब' के तहत उठायी जा रही उस चीनी लड़की को उस पूरे गैंग से मुक्त करवा लिया गया । 

रेलगाड़ी अपनी गति से चलती रही, यात्री अपने-आप में व्यस्त बैठे रहें और एकदम सावधानी और सर्तकता से बिना कोई शोरगुल मचाए, हाय-तौबा किए, लड़की को बचा लिया गया, मैसेज करने वाली लड़की की तारीफ भी कर दी गई । यहाँ तक कि उसके अखबार के मुख्य संपादक को उसका प्रशंसात्मक पत्र तक भिजवा दिया गया । भारत में हमने ऐसा कभी होते देखा है, इतनी सजगता, इतनी सर्तकता, बिना देर किए कदम उठा लेना...! वास्तव में ऐसी बातें यूरोपीय व अमरीकियों से सीखने वाली हैं, गारंटी है, जो हम कभी नहीं सीख पाएँगे । 

अंधविश्वास केवल एशिया व भारत में ही सर्वोपरि नहीं, बाहर के देश भी इसके प्रभाव से मुक्त नहीं । वहाँ भी ग्रामीण क्षेत्र हमारे समान ही पिछड़े हुए, कई प्रकार के दुरावों व पाप-पुण्य के बीच उलझे हुए हैं । इसी कारण जब अगाध सुंदरी डयू स्मिथ ने गौरव मुखी को अपने जीवन के काले अतीत के बारे में बताया तो एक बार वह यकीन न कर पाया । उसे यह जानकर अत्यन्त हैरानी हुई कि डयू के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ, जैसाकि किसी भी सुंदर लड़की को जवान होने पर बुरी नीयत और दुश्कर्म से गुज़रना पड़ सकता है परन्तु माँ-बाप ने अपने धर्माधिकारी के चरित्र पर संदेह न किए जाने के अपने रूढ़िवादी और अंधविश्वासी व्यवहार को निभाया । जबकि डयू उस दुश्कर्म के कारण एच आई वी वायरस की लपेट में आ गयी । अपनी मेहनत व योग्यता के बल पर वह एक बड़ी कंपनी में उच्च पद पर पहुँच गयी, उसके पास सब कुछ था परन्तु उसकी सुंदर नीली आँखें उदास बेनूर थी, जिसके पीछे का रहस्य आज गौरव को समझ में आया था । इसलिए डयू उससे शादी नहीं करना चाहती थी क्योंकि वास्तविक जीवन में ऐसा करना संभव नहीं था । इस बीमारी का इलाज सारी उम्र करना पड़ता है । बाहर के देशों में ऐसी बीमारी के मरीज़ ज़्यादा है परन्तु इसके बाद भी वे जीवन में आगे बढ़ते हैं, समाज उन्हें उस प्रकार से नहीं दुत्कारता, जिस प्रकार का व्यवहार हमारे यहाँ परिवार व समाज द्वारा किया जाता है । 

'वह ज़िन्दा है...' कहानी हस्पताल की उस वास्तविकता को दर्शाती है, जिसमें अल्ट्रासाउंड करने वाली नर्स कीमर्ली ने जब एकदम सपाट तरीके से गर्भवती कविता से कह दिया कि 'मिसेज़ सिंह युअर बेबी इज़ डेड । ' ऐसा सुनते ही कविता के शरीर की गति वहीं रुक गई । फिर जो हुआ, वह बहुत ही दर्दनाक था । कविता के शरीर के गतिहीन हो जाने से मृत बच्चे को बहुत मुश्किल से उसके शरीर से बाहर निकाला गया । कविता की केवल साँसें से चल रही हैं जबकि वह अपना मानसिक संतुलन खो चुकी है क्योंकि दो बार गर्भपात हो जाने के बाद यह तीसरा मौका ही उसे माँ बना सकता था परन्तु नर्स द्वारा बिना किसी भावनात्मक अंदाज़ के, प्यार या फुसला कर कहने की बजाय सच को पत्थर की तरह उसके दिल पर दे मारा । जिसे कमज़ोर कविता सहन नहीं कर पायी । पति के कार को पार्क करके वापस आने तक के कुछ मिनटों में ही उस दंपत्ति की ज़िदगी उजड़ गयी । अब पति हस्पताल के मैनेजमेंट से मानवता की लड़ाई लड़ रहा है । उसका तर्क बस इतना ही है कि 'वह सच बोलने के खिलाफ नहीं पर सच को बोला कैसे जाए!' यह बात विदेशियों को हमसे सीखने की आवश्यकता है । कई बार भावनात्मक स्तर को सँभालने के लिए झूठ का सहारा भी लिया जा सकता है या उसे टाला जा सकता है । वास्तव में लेखिका दो भिन्न परिवेशों व परिस्थितियों को उनके दृश्टिकोणों द्वारा अपनी कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत करती है । इसे तुलना न भी कहा जाए तब भी लगता है, अच्छी बात, अच्छी सलाह जहाँ से भी मिले, उसे सीख लेने में कोई बुराई नहीं । इससे आगे बढ़ने में मदद मिलती है । 

'भूल-भुलैया' भी कुछ इसी प्रकार के अंतर को बयान करती है । भारतीयों के वट्सएप ग्रुपों में लगातार इस प्रकार संदेश आ रहे थे कि एशियाई लोगों को अकेले-दुकेले देख कर, अगवा कर लिया जाता है और उन्हें मॉल्स के बड़े ट्रकों में उठा ले जाकर, उनके मानवीय अंग निकाल लिए जाते है । इन संदेशों से घबरायी सुरभि ने जॉगिग करते हुए एक पार्क में उसका पीछा करते एक पुरुष-स्त्री को उसी गैंग का समझ लिया और अपने बचाव के लिए पुलिस को फ़ोन कर दिया । पुलिस ने आकर उसकी गलतफहमी दूर की कि ये सारी अफवाहें है और वे स्त्री-पुरुष उसकी सहायता के लिए उसके साथ-साथ आ रहे थे । जिस घटना के कारण ऐसी अफवाहें फैलने लगी, वह एक गलती के कारण घटी और तभी खत्म भी हो गई परन्तु उस एशियन महिला ने बात का बतंगड़ बना कर, अटेंशन लेने के लिए कुछ का कुछ बना दिया । यह कहानी केवल विदेशों में ही नहीं, कहीं भी रहते हुए ऐसे फैलने वाले और फॉरवर्ड किए जाने वाले संदेशों से सतर्क करती है । जिस डिज़ीटल मीडिया की सुख-सुविधा ने हमारा जीवन आसान किया है, उस पर बढ़ती निर्भरता हमें बेआराम करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही । 

भावनात्मक स्तर की बात करें तो संग्रह की बहुत सारी कहानियों में इसे प्रमुखता से देखा जा सकता है, जिसमें भारतीय पारिवारिक मूल्यों की अधिकता समायी हुई है । 

'कभी देर नहीं होती' में ददिहाल के लाडले नंदी को माँ और ननिहाल के प्रभाव में आनंद में बदलना पड़ा । ननिहाल की चालाकी और तेज़-तर्रार भरे व्यवहार के कारण आनंद और उसके छोटे भाई को बचपन से ही दादा-दादी के प्यार व ममत्व भरे माहौल से दूर होना पड़ा । सब कुछ समझने के बावजूद उसके पापा ने मम्मी और ननिहाल के आगे चुप्पी साध ली ताकि बच्चों की परवरिश पर कोई बुरा असर न पड़े । जब इतने वर्षों के बाद अमरीका के एक शहर में रहते हुए उसकी बुआ ने 'नंदी' कह कर पुकारा, तो वह इतने वर्षों के लंबे अंतराल के बाद उसी माहौल व अपनेपन से भर उठा । अंग्रेज़ी के दो शब्द हैं, जो संबंधों के लिए प्रयोग किए जाते हैं 'कनेक्ट' होना और 'रिलेशन' होना । परन्तु हम जानते हैं कि हर शब्द का अपना लहज़ा, टोन व संदर्भ तो होता ही है, उसकी अनुभूति भी अलग होती है । यहाँ कनेक्शन से अर्थ, संस्कारों से, भावनाओं से, अपने मूल से जुड़ा होना है, जिसमें वर्षों की दूरी भी कोई अर्थ नहीं रखती जबकि दूसरी ओर रिलेशनशिप में संबंध तब तक रहेगा, जब तक आप चाहें...! इसलिए रिश्तों में कनेक्शन होना चाहिए, रिलेशनशिप तो आती-जाती चीज़ है । 

ऐसा ही कुछ 'चलो फिर से शुरू करें' शीर्षक कहानी में भी देखा जा सकता है । विदेशी महिला से विवाह कर पुत्र माँ-बाप से अलग हो गया । माँ-बाप ने भी उसकी गृहस्थी में दखल देना ठीक न समझ, उससे दूरी बनाना उचित समझा । परन्तु जब उन्हें किसी परिचित द्वारा मालूम हुआ कि मार्था, कुशल को तलाक देकर, बच्चों को उसके पास छोड़ कर चली गई । इतना ही नहीं, वह उसके नाम पर तीन मिलियन का कर्ज़ ले, अपनी माँ के साथ चली गयी । यदि कुशल श्वेत अमेरिकन होता तो मार्था बच्चे साथ ले जाती परन्तु भारतीय अमेरिकन पिता के बच्चों को वह कभी स्वीकार नहीं करेगी । ऐसी मुश्किल स्थिति में कुशल को भुला दिए गए माँ-बाप ही याद आए क्योंकि उसे मालूम था कि उसके माँ-बाप ने उसे कभी भुलाया नहीं होगा । इसलिए उसने अपने पिता को फ़ोन किया और उनके पास अपने बच्चों को छोड़ कर, जीवन में एक नयी शुरूआत करने का संकल्प लिया । 

कॉलेज जीवन में ऐसे कई मित्र मिलते हैं, जिनसे सारी उम्र का नाता बन जाता है और कई बार ऐसी कुछ घटनाएँ भी घट जाती हैं, जिसकी कड़वाहट जीवन में घुल कर, परिवार को भी बदनाम कर देती है । 'कँटीली झाड़ी' में डिप्टी कमिश्नर की बेटी होने के घमंड में खोयी अनुभा ने कॉलेज में अपना रौब बनाए रखा । परन्तु जब उससे अधिक योग्य और सुंदर नेहा पर उसका यह रौब न चला तो उसने नेहा को बदनाम करने की कोशिश की । यहाँ तक कि शादी के बाद किसी परिचित के घर पर मिलने पर, अनुभा ने फिर से नेहा के ड्राईवर के साथ घर से भाग जाने की बात फैला कर, ससुराल में उसकी बदनामी करनी चाही । तब नेहा ने सभी को उसकी सारी सच्चाई से अवगत करवाया कि यह उसी के साथ घटा था । नेहा को समझ आ गया कि कुछ लोग इतने विषैले व कांटों भरे होते हैं कि उनसे न केवल बच कर रहना चाहिए बल्कि उन्हें उनकी औकात भी बता देनी चाहिए ताकि उनके खतरनाक कारनामों पर लगाम लग सके । इसी प्रकार कई बार पूजा व दीपक जैसे मित्र भी होते है, जिनकी शुरूआत लड़ाई से हुई हो परन्तु एक-दूसरे के संपर्क में आने और गलतफहमी दूर होने से दोनों ही एक-दूसरे के मददगार साबित हुए । परन्तु जीवन के लंबे समय में मित्र खो भी जाते हैं, फिर ऐसी स्थिति आ जाती है, जब 'कल हम कहाँ तुम कहाँ' । कोई कहीं भी रहें, मीठी याद बन कर अवश्य दिल में समाए रहते हैं । मन क्या है, इसका चेतन/अवचेतन उसे कहाँ से कहाँ पहूँचा सकता है । सदियों से इसे जानने-समझने की कोशिश धर्मग्रंथों, शास्त्रों व फिलॉसफी द्वारा की जा रही है । कई बार निकट के संबंधों को व्यक्ति सारी उम्र समझ नहीं पाता और कई बार दूर-देश में बैठे अपने बच्चों की दुख-तकलीफ को माँ-बाप अपने घर में बैठे महसूस कर, तड़पने लगते है । कई लोग, अपनों के अलावा दूसरों के दुख-दर्द या किसी आने वाले अनिष्ट को भांप लेते हैं । यह सब अबूझ पहेली समान है, जिसकी थाह पाना संभव नहीं, उस व्यक्ति के लिए भी नहीं, जिसे कुछ अप्रिय घटने का अंदेशा होने लगता है । माना जाता है कि सारा ब्रह्यांड एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है, इससे बाहर कुछ भी नहीं । इसलिए प्रकृति में कुछ भी घटने का भास, विशेषकर अप्रिय व दुखद घटने का एहसास संसार के कुछ जीवों को होने लगता है । कुछेक मनुष्यों को ऐसी अनुभूतियों का एहसास होना उनके अपने बूते की बात नहीं होती मगर कभी-कभार ऐसा होता है । ऐसी अनुभूतियों को लेकर दो कहानियाँ इस संग्रह में शामिल है । 'इस पार से उस पार' में सांची को ऐसा कुछ का एहसास अपने बचपन से ही होने लगा । उसने जब अपने परिवार व गली-मुहल्ले में एक-दो घटनाओं के बारे में घटने से पहले ही बता दिया परन्तु उसके परिवार वालों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया । बल्कि उसकी इस अनुभूति को हमेशा के लिए दबा देने की कोशिश की । बरसों बाद उसने फिर एक बार अपनी सखी अनुघा को फलां समय पर सड़क पार करने से चेतावनी देकर उसे बचा लिया । 

'अबूझ पहेली' नामक कहानी की मुक्ता धीर को 9/11 के हवाई जहाज़ हादसे के दृश्य कुछ दिन पहले से ही नज़र आने लगे थे । उसे बार-बार दिखायी दे रहे इस दृश्य की समझ नहीं आ रही थी । परन्तु उसका तन-मन उदास, क्लांत और निर्जीव महसूस कर रहा था । अपने पति व बेटे को बता देने के बावजूद, उसे स्वयं पर भी यकीन हो रहा था । परन्तु वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का हादसा सच में घट गया, उसके पति व बेटे को उसकी बात पर यकीन आ गया । परन्तु इतने बरसों बाद भी मुक्ता स्वयं इस पहेली को बूझ नहीं पायी कि उसे वे दृश्य कुछ दिन पहले कैसे दिखायी देने लगे थे । वास्तव में मनुष्य विज्ञान, मेडिकल, अंतरिक्ष व तकनीकी स्तर पर कितनी भी प्रगति कर लें, प्रकृति और मन के बहुत सारे रहस्यों को समझ पाना अभी भी उसके वश की बात नहीं है । 

सुधा ओम ढींगरा की सारी ही कहानियाँ उसके शीर्षक 'चलो फिर से शुरू करें' को ही सार्थक करती है । मानवीय जीवन उतार-चढ़ाव का ही नाम है । इसमें हिम्म्त रखकर, डट कर चलने वाले ही जीवन की बहती धारा को पार सकते हैं । 

पुस्तक : चलो फिर से शुरू करें (कहानी संग्रह) / लेखक - सुधा ओम ढींगरा / प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सीहोर, मप्र 466001 / प्रकाशन वर्ष - 2024 

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समीक्षा



समीक्षक  - ज्योति स्पर्शा, पटना, मो. 8210759758 

    सन्दीप तोमर, नई दिल्ली ,मो. 83778 75009


उपन्यासों की फेहरिस्त में “दीपशिखा” जुड़ने के मायने

पुस्तक-“दीपशिखा”

विधा: उपन्यास

रचनाकार- सन्दीप तोमर 

प्रकाशक: अद्विक प्रकाशन 

प्रकाशन वर्ष: 2023

पृष्ठ: 101

मूल्य : Rs. 230

आधुनिक काल में विकसित गद्य विधाओं में उपन्यास का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है । 

हिन्दी उपन्यास से ही उपन्यास की नई विधा “लघु उपन्यास” का जन्म हुआ । लघु उपन्यास के विषय में इसकी आधारगत संरचना को देखकर इसे लम्बी कहानी से जोड़ा जाता है । जबकि लघु उपन्यास, उपन्यास और कहानी से नितान्त भिन्न है । यह भिन्नता न केवल उसके आकार में है अपितु वह उसके प्रकार में भी है । उपन्यास या लम्बी कहानी तथा लघु उपन्यास में कथानक, पात्र और कथ्य की दृष्टि से स्थूल रूप में कोई भेद नहीं किया जा सकता और न ही इनके बीच कोई स्पष्ट रेखा खींची जा सकती, परन्तु लघु उपन्यास जो संवेदनशीलता, सांकेतिकता एवं गठन में अपना निजी और स्वतंत्र रूप लेकर चलता है । वह उसे उपन्यास और लम्बी कहानी से भिन्न रूप प्रदान करता है । 

हिन्दी साहित्य में लघु उपन्यास के विकास में अनेक कारण व परिस्थितियां रही हैं । ऐसी ही एक परिस्थिति है- फ्रायड का मनोविश्लेषणवाद, जिसको आधार बनाकर अनेक रचनाएँ हुई हैं । फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद ने व्यक्ति और समाज को समझने की नयी दृष्टि दी । इस दृष्टि ने उपन्यास विधा से लघु उपन्यास विधा की विकास यात्रा को गति प्रदान की- ‘‘इस युग की यह नव संचेतना मनोविश्लेषण का आधार लेकर चली । इसी के परिणामस्वरूप उपन्यास साहित्य में नवीन भावबोध का जन्म हुआ, जिससे सम्पूर्ण उपन्यास को नई व मौलिक दिशाएं मिली । “

अनेक स्थितियाँ और वातावरण लघु उपन्यास विधा के लिए हिन्दी उपन्यास के विकास के क्रम में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं । लघु उपन्यास की एक विशेषता ये रही कि अब उपन्यासों के विषयों में विविधता का समावेश हुआ । मजदूर, किसान, अपवंचित वर्ग, दलित चेतना उपन्यास के माध्यम से समाज में नवचेतना का संचार कर रही थी । इसी के साथ नारी-विमर्श को नया आयाम भी लघु-उपन्यास ने दिया । मित्रो मरजानी, विराज बहू, चितकोबरा, जैसी रचनाओं ने समाज को, मानव मन को अलग तरीके से सोचने के लिए उद्वेलित किया, इस प्रकार लघु उपन्यास, उपन्यास से ही विकसित पर उससे भिन्न एक मौलिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ । ’’

हिन्दी साहित्य के कुछ लघु उपन्यासों के चरित्र बोल्ड मिलते हैं जैसे कृष्णा सोबती की मित्रो मरजानी’ की मित्रो एक ‘बोल्ड’ चरित्र है । हिन्दी साहित्य जगत में नारी प्रधान उपन्यासों की नायिकाएं देह की बात नहीं करतीं यद्यपि देह को भोगने की कामना उनमें जरूर है, इस रूप में उषा प्रियंवदा ‘रूकोगी नहीं राधिका’ की राधिका को नारी अस्तित्व के प्रति सचेत स्वरूप में देखा जा सकता है या फिर शिवानी की ‘कृष्णकली’ की कृष्णकली भी हो, राधिका या कृष्णकली दोनों ही मित्रों के मुकाबले नहीं ठहरती । यदि पुरुष लेखकों की बात की जाए तो- ऐसा माना जाता है कि “पुरूष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परन्तु अधिक सत्य नहीं, विकृति के अधिक निकट पहुंच सकता है, परन्तु यथार्थ के अधिक निकट नहीं । पुरूष के लिए नारीत्व अनुमान है, परन्तु नारी के लिए अनुभव । ’’ पिछले समय प्रकाशित हुए संदीप तोमर के उपन्यास “एस फॉर सिद्धि” ने इस सिद्धांत को सिरे से झूठलाया । नारी मन की पड़ताल और उसके भोगे यथार्थ पर अपनी कलम चलने वाले संदीप तोमर का नया उपन्यास “दीपशिखा” मनोविश्लेषणवाद पर एक सशक्त रचना के रूप में हमारे सामने उपस्थित है । 

उनका उपन्यास “दीपशिखा” 2023 ई0 में अद्विक प्रकाशन से प्रकाशित हुआ । संदीप तोमर पर कभी बोल्ड लेखन तो कभी आत्मकथ्य के आरोप लगातार लगते रहे लेकिन वे लगातार विधिधता के साथ अपना लेखन करते रहे हैं, बोल्डनेस की बात की जाये तो कृष्णा सोबती कृत ‘मित्रो मरजानी’, महेन्द्र भल्ला कृत एक ‘पति के नोट्स’, राजकमल चौधरी का ‘मछली मरी हुई’, मृदुला गर्ग का ‘चितकोबरा’ तथा मनोहर श्याम जोशी का ‘कुरू-कुरू स्वाहा’ सभी तरह-तरह के आरोपों का शिकार रहे । मेरी समझ से साहित्य में श्लील-अश्लील का प्रश्न ही सिरे से ख़ारिज कर दिया जाना चाहिए । साहित्य को कला की दृष्टि से ही देखा और समझा जाना चाहिए । 

‘दीपशिखा’ कथाकार संदीप तोमर का स्त्री-पुरुष संबंध और नैतिकता के प्रश्नों से जूझता एक मर्मस्पर्शी उपन्यास है । संदीप तोमर ने जीवन और जगत की जो समझ अपने गहन जीवनानुभव और स्व अध्ययन से अर्जित की है, उसकी निष्पत्तियाँ इस उपन्यास में सहज अभिव्यक्त हुई हैं । 

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि मनुष्य जाति का सबसे महत्वपूर्ण परंतु सबसे उलझा हुआ प्रश्न स्त्री-पुरुष संबंध पर ही केंद्रित है । समाज के विकास की प्रक्रिया में अनेक सांस्कृतिक, नैतिक आध्यात्मिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक प्रश्न भी इस एक प्रश्न के साथ ही समाहित हो जाते हैं । काम को आदिम ऊर्जा के रूप में देखा जाता है जो समस्त जगत में व्याप्त है । फ्रायड के मनोविश्लेषण में इदम्, अहम् और पराऽहम् तीन स्तर का जिक्र है, ये तीनों ही अपने अपने स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, फ्रायड व्यक्तित्व निर्माण में इनकी उपयोगिता को महत्वपूर्ण मानते हैं । इदम् के नकार से दमित ऊर्जा का आवेग कई गुना बढ़ता है, इस आवेग को अलग-अलग प्रकार से नियोजित करने के चलते अलग-अलग प्रकार के व्यक्तित्व का जन्म होता है । इसी से प्रतिहिंसा और करुणा दोनों ही उपजती है । दीपशिखा के भूमिकाकार ऋषभदेव शर्मा ने भी भूमिका में लिखा है – “इदम् का गुरुत्वाकर्षण इतना उद्दाम होता है कि व्यक्ति के सारे जीवन को अपने मोहपाश में बाँध लेता है । दूसरी ओर मनुष्य के भीतर इस गुरुत्वाकर्षण के विपरीत विविध उदात्त वृत्तियों की संभावना भी सदा बनी रहती है । “

 काम ऊर्जा जब दैहिक भूख का अतिक्रमण करके चेतना के उच्च स्तरों की ओर प्रवाहित होने लगती है तो विशेषज्ञ, विद्वान, वैज्ञानिक, खिलाड़ी, योद्धा, और संतों का उद्गम होता है । बकौल भूमिका- “किस्सा-कोताह के इस जगत में जितना भी मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक वैभव दिखाई देता है, उसकी जड़ में कहीं न कहीं इदम् की ऊर्जा ही विद्यमान रहती है । इसके साथ युगों से संयम, इंद्रियनिग्रह, नैतिकता, शुचिता और न जाने कौन-कौन सी धारणाएँ जुड़ी रही हैं । देशकाल के अनुसार शरीर-संबंध और नैतिकता के समीकरण बदलते रहे । लेकिन यह तय है कि देह का नकार जितना अधिक प्रबल होता है, कभी न कभी उसकी प्रतिक्रियात्मक ऊर्जा का विस्फोट भी उतना ही घनघोर होता है । इसलिए व्यक्तित्व को विखंडित होने से बचाने के लिए धर्मशास्त्रों से लेकर विज्ञान तक में इस बात पर ज़ोर है कि काम को स्वीकारना, समझना और औदात्य की दिशा में नियोजित करना विश्व के स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी है । इस देशकाल में ऐसा नहीं होता तो वह युग अपराध, लंपटता, क्रूरता, आतंक, भय और रोग से भर उठता है । “

संदीप तोमर अपने संक्षिप्त से कलेवर वाले इस लघु उपन्यास ‘दीपशिखा’ में युग-युग से चले आ रहे स्त्री-पुरुष संबंधों की दैहिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक बारीकियों पर प्रश्नों के एक काल्पनिक वृत्त के सहारे विचारोत्तेजक मंथन करते प्रतीत होते हैं । इस उपन्यास में कहीं न कहीं व्यक्ति और उसकी अभिव्यक्ति की स्वीकृति और उसकी परिणतियों के पक्ष भी विवेचित-विश्लेषित हुए हैं । 

‘दीपशिखा’ को पढ़ते समय बार-बार वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ का तो स्मरण आता ही है, साथ ही साथ वे ओशो की तरह प्रवचन की मुद्रा में खड़े दिखाई देते हैं । उपन्यास का केंद्रीय चरित्र उमंग भी बार-बार सिग्मंड फ्रायड से भी प्रेरित प्रतीत होता है । इस कथाकृति में उपन्यासकार गहनता के साथ भगवती चरण वर्मा कृत ‘चित्रलेखा’ के पाप-पुण्य के द्वंद्व को सामने रखते हैं, गले ही पल वे दिनकर कृत ‘उर्वशी’ में प्रतिपादित सनातन पुरुष और सनातन स्त्री के सनातन चरित्रों को रेखांकित करते दीख पड़ते हैं । मानव अस्तित्व के साथ जुड़े अनेक अनुत्तरित प्रश्नों पर अपना मंतव्य रखने की दृष्टि के साथ संदीप तोमर ने सामंत युग की कथाभूमि का चयन किया है । कथासूत्र को संयोगों, दुर्घटनाओं, प्रतिशोधों और भावात्मक प्रतिक्रियाओं के सहारे इस प्रकार विकसित किया है कि आरंभिक पृष्ठों में ही उपन्यास के फलागम का संकेत मिल जाने के बावजूद पाठक रुचि और जिज्ञासा के साथ निरंतर आगे पढ़ता है और बढ़ता रहता है । उपन्यासकार की ये खूबी है कि वे पाठ-निर्माण के लिए विवरणों, एकालापों और संवादों का तो सुंदर संयोजन करते ही हैं, रोचकता और जिज्ञासा बनाए रखने के लिए- अथवा कहें कि पाठक को घटनाचक्र के साथ बाँधे रखने के लिए - पूर्वदीप्ति, स्मृति और स्वप्न की तकनीक का भी बहुत समर्थ प्रयोग करते हैं । एक सफल किस्सागो के रूप में संदीप तोमर इसलिए भी आश्वस्त करते हैं कि उन्हें पाठकीय रुचि के कथांशों को पिटारे में बंद रखने की कला बखूबी आती है । किसी कुशल सपेरे की तरह वे बार-बार इशारा तो करते हैं कि पिटारे में दुर्लभ और दिव्य सफ़ेद साँप है लेकिन उसकी झलक अंत तक नहीं लगने देते । मंदन की यही तकनीक उन्हें एक अच्छा शैलीकार भी बनाती है । उनका कथा-विन्यास भारतीय आख्यायिकाओं की तरह का प्रतीत होता है, कथासूत्र सीधे एक दिशा में न चलकर तीनों कालों में आवाजाही करता है । वे कथा स्थितियों और घटनाओं की सेटिंग बदलकर पाठक एकरसता से ग्रसित होने से बचा ले जाते हैं, और पाठक एक अलग ही आनंद में डूबता, गोते लगाता रहता है । 

‘दीपशिखा’ के रचनाकार के जितने भी प्रश्न हैं वह उमंगाचार्य के रूप में वह इन सारे प्रश्नों से जूझता दिखाई देता है । कथानक की बात करें तो कथाकार सामंत-युगीन समाज में प्रेम को आधार बनाकर कहानी रचता है, जहाँ विरह है, विक्षोभ है, राजनीति है, कुटिलता है, धोखें हैं, नारी-दमन है, आक्रोश है, बदला लेने की भावना है लेकिन इन सबके साथ दो केन्द्रीय पात्रों का संवाद है । कथा का पूरा सार इस बात पर है कि इस उपन्यास में आचार्यत्व के शिखर पर विराजमान सर्वश्रेष्ठ वैद्य उमंगाचार्य अपनी पूर्व प्रेमिका दीपशिखा के सम्मुख अधूरे प्रेम की पूर्णता हेतु प्रस्ताव रखता है, इस घटनाचक्र को पढ़ते हुए दो पौराणिक प्रसंगों का स्मरण यहाँ होता है- एक प्रसंग उर्वशी का है जो अभिशप्त है कि पति और पुत्र में से एक को चुने, वह पति के साथ रहना चुनती है । दूसरा प्रसंग शैव्या का है- जिसके हाथों में पुत्र का शव है, स्वयं पति उसे अग्नि देने से पहले श्मशान का कर माँगता है । शैव्या के पास आधी बची साड़ी है जिसे देने को वह प्रस्तुत है । इस उपन्यास में उमंगाचार्य व्याधि-ग्रस्त शिशु की प्राणरक्षा के लिए शुल्क के रूप में विधवा दीपशिखा से देहसुख की माँग करता है । लंबे तर्क-वितर्क, संकल्प-विकल्प और शास्त्रार्थ के अंत में दीपशिखा पुत्र-प्रेम के समक्ष विवश हो ‘पुत्र के उपचार के लिए माँ का देहत्याग’ का विकल्प चुनती है । लेखक बड़ी कुशलता के साथ यहाँ अंत को खुला छोड़ देता है । वह पाठक पर भरोसा रखता है, स्वतः ही विभिन्न विकल्प पाठक के जेहन में आते हैं, पाठक पर लेखक का यह भरोसा आत्मविश्वास का प्रतीक है । 

यद्यपि उपन्यास की कथा भूमि सामंतकालीन है लेकिन जनता और सत्ता के प्रश्नों को भी लेखक ने बार-बार उठाया है जो उनकी आर्थिक-राजनैतिक और सामाजिक समझ का आभास कराता है । लेखक का यह समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण उन्हें अपने समय के लेखकों से अलग करता है । 

संदीप तोमर की कहानी कहने की विशिष्ट शैली है- वे चित्रात्मक खाका खींचते हैं । उपन्यास में दीपशिखा केन्द्रीय चरित्र उमंगाचार्य से अधिक सशक्त पात्र है, जिसके माध्यम से कथाकार ने पुरातन संस्कृति की वाहक नारी-स्मिता का जो चित्र खींचा है, यह इतना सघन और ठोस है मानो इस संस्कृति का एक सबल पक्ष हमारे सामने चाक्षुष-प्रत्यक्ष हो गया हो । दरअसल सामाजिक संरचना में आए बदलाव के कारण जो समाज निर्मित होता है, उसमें आधुनिकता का समावेश होता है । हर लेखक अपने युग संस्कृति तथा परिवेश से अछूता नहीं रह सकता । संदीप तोमर ने भी उसी प्रक्रिया के चलते इस अनूठे कथानक का चयन किया, इस प्रकार दीपशिखा समय तथा संस्कृति और लेखकीय व्यक्तित्व से निर्मित पात्र है जो माँ होने के अर्थ और पुत्र के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित है । 

अलग-अलग किस्सों को इतनी महीनता और सुंदरता के साथ बुनने के लिए लेखक निश्चित रूप से स्नेह और बधाई के पात्र हैं । अस्तु यह कुशल शिल्पकार की एक उत्कृष्ट कृति है । दीपशिखा एक पौप्रारकाशनार्णिथक पात्र जैसी प्रतीत होती है जो पुरातन नारी का प्रतिनिधित्व करते हुए, जीवन को जीवन की जद्दोजहद को दृढ़ता से उमंगाचार्य के सम्मुख रखती है । आशा की जानी चाहिए कि ‘दीपशिखा’ का साहित्य जगत में खुले मन से स्वागत होगा और यह कृति लेखक संदीप तोमर को उपन्यासकार के रूप में प्रभूत यश अर्जित कराएगी । 



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समीक्षा


समीक्षक - अजित कुमार राय, कन्नौज, मो. 9839611435


लेखक -  डॉ. उषारानी राव, मो. 98455 32140


समाज में समास - चिह्न बनती एक काव्य - कृति

उषारानी राव एक संवेदनशील और चैतन्य रचनाधर्मी हैं । उनका प्रबन्ध काव्य "कविता की आंच में पिघलता अंधेरा" उनके इसी सजग समाज - प्रेक्षण का परिणाम है । समाज में व्याप्त अस्पृश्यता ऊंच नीच की भावना से उपजा एक विषम रोग है जो मनुष्य को मनुष्य से अलग करता है । गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि समासों में मैं द्वन्द्व समास हूँ । अर्थात् ईश्वर संयोजक भूमिका का नाम है । विभेद और विभाजन का आधार घृणा है । सामाजिक समरसता, समभाव और सद्भाव प्रेम मूलक मनोभाव हैं । भक्ति काल एक व्यापक सांस्कृतिक जागरण का काल है और पंद्रहवी शताब्दी में कन्नड़ साहित्य में कनक दास कबीर और रैदास की तरह ही ऊंचे संत हुए हैं जो संवेदना की तरलता और आत्म मंथन की प्रखरता से सिरजे हुए भक्त हैं । कीर्तन के द्वारा समाज के हृदय - परिवर्तन की यह अद्भुत साधना है । स्वयं यह कृति भी एक तंबूरा है, जिसके माध्यम से कवियित्री समता का सामगान गाती हुई अपनी लय प्राप्त करती है । 

तातप्पा जंगल से लकड़ियों का गट्ठर सिर पर लादे अपने पुत्र चिन्नू के साथ लौट रहे हैं । धूप तेज होने लगी थी और उनके भीतर अपनी औकात की सोच गहराती जा रही है कि पहाड़ और राई का कहीं मेल होता है भला!

धरती का निरादर कर

आकाश का सपना देख रहे हैं लोग । 

पगडंडियों की कंकरीली चुभन को

भूल जाते हैं ये राजमार्गों पर चलने वाले । 

कलप - कलप कर तातप्पा फुसफुसाते जाते हैं । यह मध्ययुगीन मनोवृत्ति का सूचक है । यद्यपि वे एक आधुनिक पात्र हैं । यह आज के लाउड थिंकिंग वाले दलित विमर्श की तरह उच्छेद मूलक मनोभाव न होकर समाज के वैषम्य को मिटा कर बन्धुत्व की स्थापना करता है । पूरी जमात का दर्द उनकी आवाज़ में उमड़ चला था । जन्म के गुण सूत्र से मनुष्य की अवमानना काफी पीड़ा दायी होती है । तातप्पा की धुंधली आंखों में पीढ़ियों के भविष्य की धुंधली सी तस्वीर उभरती है और ऋण पर टिकी ज़िन्दगी किसी गहरी खाईं में उतरती चली जाती है लेकिन वे अपने समय को लांघकर लोक कवि के भावलोक में पहुँच जाते हैं और अज्ञात में छलांग लगा लेते हैं । कुला - कुला कहने वाली द्विदृष्टि एक भ्रम है और मानवता की मुक्ति के लिए प्रेम ही प्रेम का मार्ग बने । यह सूत्र दिया था कनक दास ने । इस प्रकार तातप्पा

चिन्नू का हाथ पकड़ कर

उतरते चले गए कवि की चेतना में । 

इस तरह हताशा के समुद्र में डूब रहे तातप्पा को प्राणस्पर्शी ध्वनि दल ने बचा लिया था । कीर्तन मंडली स्वेद - गीत गा रही है और क्लांत पांवों से पसीने की नदी मृत्तिका में उतरती चली जाती है । महा परिधि में लघुता की पहचान का छोर वृत्तों का एक अनन्त वृत्त बनाता चला जाता है । पुतलियों में तेज वलय नाच उठा और अट्टहास कर रहा जातिवाद का संत्रास । ध्यान रहे, दलित विमर्श भी इस जातिवाद को पुष्ट ही करता है । कनक दास ने अपनी कृति 'धान्य चरितम्' में मड़ुवा ( रागी ) और चावल के विसंवाद द्वारा इस तथ्य का बोध कराया है । रागी को लगता है कि अभाव के दिनों में वह कृषक और श्रमिक वर्ग का पेट भर कर उन्हें बलिष्ठ बनाता है और मनुष्य की गरिमा को स्थापित करता है और दूसरी ओर श्रेष्ठता - ग्रंथि से पीड़ित चावल अपनी पावनता का ढिंढोरा पीटते नहीं थकता कि आस्वाद्य धवल अक्षत देवताओं के लिए भी ग्राह्य है । दोनों ही पुत्रों का विवाद लेकर पृथ्वी राजा राम के दरबार में जाती है और फिर राम आदेश देते हैं कि दोनों को अलग अलग पोटली में बंद कर रख दिया जाए । छ: महीने बाद दोनों पोटली मंगाई जाती है और फिर दोनों राख हो चुके होते हैं और कान्ति खोकर व्यर्थता - बोध को प्राप्त होते हैं । अहंकार अंकुरित होने लायक भी नहीं छोड़ता । राम ने कहा कि दोनों की समाज में अपनी भूमिकाएं हैं और उनके बीच में एक रचनात्मक सामंजस्य स्थापित होना चाहिए । समाज को जोड़ने में अपनी हिस्सेदारी निभाते हुए दोनों में साहचर्य और सहकार की भावना विकसित करनी चाहिए । दोनों के सामर्थ्य की अपनी सीमाएँ हैं और आपसी कटुता छोड़ कर जीवन के महत्तर अभिप्राय को जीना चाहिए । आत्मा की कोई जाति नहीं होती । सारे घटों में जब एक ही ज्योति जल रही है, तब भेद कैसा? सबके शरीर में एक ही सर्वभूतान्तरात्मा विद्यमान है तो कौन ब्राह्मण और कौन शूद्र? राम के समझाने पर दोनों ही अपनी आँखों में पश्चात्ताप के आंसू लेकर लौट जाते हैं । 

किन्तु तातप्पा की भाव - समाधि जब टूटती है, तो वे यथार्थ जगत में लौट आते हैं, जहाँ ये प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं । वही पुरानी प्रतिस्पर्धा, प्रतिशोध और संघात । वही घात - प्रतिघात बार बार जीवित हो उठता है । कोई भूरा बाल साफ करने का नारा देता है तो कोई सनातन धर्म को ही मिटाने चल पड़ता है । एक असम्भव स्वप्न भूमि का आश्रय लेकर अनर्गल प्रलाप जारी है । दूसरीओर अभिजन को भी समझना चाहिए कि उनकी सारी चमक - दमक उन असंख्य श्रमिक हाथों पर ही टिकी है । किन्तु 

शासन के कर्ण रंध्रों से होकर

कोई कनखजूरा चिपक गया है मस्तिष्क में,

कर दिया है खोखला उसने चेतना को । 

पृथ्वी भी वर्णों के अज्ञातवास की पीड़ा सदियों से झेल रही है । इस पीड़ा की बारंबारता ईश्वर के नूतन अवतार की राह बना रही है । या कि अब हर व्यक्ति को राम और कृष्ण बनना पड़ेगा । किन्तु यहाँ तो जुगनुओं का साम्राज्य है । वंचितों के जीवन का सूर्य कब चमकेगा! जब तक बेरोजगारी है, जब तक क्रीमीलेयर को आरक्षण अनेक स्तर पर प्राप्त है, यह वैमनस्य कैसे मिटेगा? और क्या राजनीति इसे मिटने देगी? सामाजिक सद्भाव और सदाशयता कैसे विकसित हो? कवियित्री ने अपनी ओर से कोई समाधान नहीं दिया है । क्योंकि यथार्थ जीवन वैमनस्य और वैषम्य से भरा हुआ है । लेकिन जातिगत संत्रास के अतिरिक्त और भी सत्ताएँ हैं । सर्वत्र माधुर्य, समन्वय और सह अस्तित्व ही समस्या का समाधान है । घृणा के द्वारा घृणा को हम अपदस्थ नहीं कर सकते । प्रेम ही मार्ग हो सकता है । कनक दास कबीर की तरह मुखर विरोध करने के कायल नहीं हैं । वे दादू, नानक और रैदास की तरह प्रशांत और स्निग्ध योग सूत्र के समर्थक हैं । अब जन के तिलकोत्सव में अभिजन आशीर्वचनों के लिए आमंत्रित हों और जन भी छोटा भाई बनने का बड़प्पन दिखाएं । भाषा की प्रकृति प्रकृति की भाषा से निर्दिष्ट है और उसमें प्रासादिकता वर्तमान है । कहीं - कहीं शैथिल्य भी है और अभिव्यक्ति अस्फुट रह गई है । कुल मिलाकर इस पांच सर्गों वाले खण्ड काव्य में उद्देश्य की पवित्रता सिद्ध है और यह उपादेय तो है ही, उत्तर और दक्षिण भारत को जोड़ने वाला एक समास चिह्न भी है । इसमें सांस्कृतिक परंपरा के दायरे में ही प्रगतिशील चेतना का विन्यास संलक्ष्य है । 

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प्रकाशनार्थ रिपोर्ट

राजकमल चौधरी सम्मान से सम्मानित हुए कथाकार शंकर


"सादतपुर साहित्य समाज से मुझे आत्मीयता मिलती है । यह अपनी ज़िन्दगी को पहचानने की तरह है । मैं इतनी देर आजकल रुकता नहीं । यह सम्मान उन विष्णु चंद्र शर्मा ने प्रारम्भ किया था जो कभी 'कवि' नाम की पत्रिका बनारस से निकालते थे । वही उस पत्रिका के सब कुछ थे । दो आने की यह पत्रिका उस समय की पहचान थी । " दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजित राजकमल चौधरी सम्मान समारोह में अध्यक्ष की हैसियत से वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने यह उद्गार व्यक्त किये । उन्होंने कहा : इस सम्मान का एक विशिष्ट अर्थ है । इतनी संक्षिप्ति और खुलापन सम्मानित होते लोगों में मैंने कम पाया है । शंकर ने जब लिखना शुरू किया होगा, तब वे शंकर ही रहे होंगे । प्रेमचंद भी अपने मॉडलों से अलग थे । प्रेमचंदीयत को ढूँढना आसान नहीं है । शंकर के रचनाकार ने अच्छी चीजों को ग्रहण करना सीखा है । उन्हें पढ़ते हुए यह पता नहीं चलता कि रचना का शिल्प क्या है । मुझे उम्मीद है कि साहित्य शंकर की साधना से बहुत दिनों तक समृद्ध होता रहेगा । अच्छी बात है कि शंकर संपादकों के उस रोग से मुक्त हैं जो अपने लिए कुछ चाहते रहते हैं । 

प्रारम्भ में मित्र निधि के सदस्य हीरालाल नागर ने वक्ताओं का स्वागत किया और बताया कि यह सम्मान अब तक इब्बार रब्बी, पंकज बिष्ट और विजेंद्र को प्रदान किया जा चुका है । निधि के अध्यक्ष महेश दर्पण ने बताया : यह सम्मान हर दूसरे वर्ष प्रदान किया जाता है । एक बार कथाकार को और एक बार कवि को । यह चौथा राजकमल चौधरी सम्मान कहानीकार और 'परिकथा' के संपादक शंकर को प्रदान किया जा रहा है । उनका चयन इस बार के निर्णायक वरिष्ठ आलोचक जनकीप्रसाद शर्मा ने किया है । निधि की ओर से ही अब रमाकांत कहानी पुरस्कार भी आयोजित किया जाएगा । 

राजकमल चौधरी के सुपुत्र नीलमाधव चौधरी ने राजकमल जी की दो मैथिली कविताएं - 'मित्र राग' और 'चेतना बोध' हिंदी अनुवाद सहित सुनायीं । उन्होंने बताया कि कभी इन रचनाओं का पाठ कवि ने रेडियो पर किया था । 

जानकी प्रसाद शर्मा ने राजकमल चौधरी की कहानी 'पत्थर के नीचे दबे हाथ' को पढ़ते हुए ग़ालिब की याद आने का स्मरण किया और कहा कि एक बड़े रचनाकार में कितनी परंपराएं समाहित होती हैं! उन्होंने कहा: इस सम्मान के चयन के लिए रचनाकार का चयन करना मेरे लिए किसी सख्त इम्तेहान की तरह ही था । आज की सम्मान संस्कृति के सामने राजकमल के नाम पर प्रारम्भ यह सम्मान एक ऐसी शख्सियत ने शुरू किया जो खुद एक मयार हैं । शंकर ने प्रगतिशील आंदोलन की विरासत से प्रेरित होकर लेखन आचरण की शुचिता का संस्कार ग्रहण किया । प्रलोभनों के समय में यह मुश्किल काम है । उन्होंने शंकर की पहिये, जगो देवता जगो, खोह आदि कहानियों का उल्लेख करते हुए उन्हें आज का एक उल्लखनीय रचनाकार और ऐसा संपादक बताया जो युवा रचनाकारों को सामने लाने में रुचि रखता है । 

सम्मान स्वीकार वक्तव्य में शंकर का कहना था : पहली बार मुझे यह कोई सम्मान आज मिला है । कुछ ही पुरस्कार हैं हिंदी में जिन्हें विरल विशिष्ट माना जा सकता है । राजकमल चौधरी सम्मान ऐसा ही है । वह लीक से हटकर चलने वाले रचनाकार थे । 'मछली मरी हुई' और 'मुक्ति प्रसंग' जैसी रचनाएं इसका प्रमाण हैं । दरअसल लेखक अपनी कहानियों में ही कह देता है, इसलिए मुझे अलग से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है । मेरी इच्छा रही है कि कम लिखूँ, लेकिन चेखव की भांति लिख सकूं । चेखव की कहानियों को शंकर ने बेहद चुस्त बताते हुए , गैरज़रूरी चीजों से बचने में माहिर बताया । उन्होंने कहा: लंबी कहानी रचना सामर्थ्य की पहचान नहीं है । मैंने अपने लिए छोटी कहानी लिखने की राय बनाई । मुझे तरक्कीपसंद उर्दू कहानियां अच्छी लगती हैं । उनकी कहन मज़बूत और ज़बान रावानगीभरी होती है । 

हरियश राय ने कहा : शंकर जी का चुनाव इस सम्मान की प्रतिष्ठा का प्रतीक है । शंकर गुपचुप तरीके से समर्पित भाव से काम करते हैं । वह अच्छी कहानी की अवधारणा के साथ ही कहानियों पर भी ईमानदारी से कम करते हैं । सेल्यूट और इम्तेहान जैसी शंकर की कहानियों पर चर्चा करते हुए हरियश राय ने उन्हें नई पीढ़ी के प्रति समर्पित एक उल्लेखनीय संपादक बताया । 

वरिष्ठ आलोचक राजकुमार शर्मा ने अंत में आज के समय लेखन को संकट में बताया : आज लेखन को ही अप्रासंगिक करने की कोशिशें की जा रही हैं । इससे सर्जनात्मक कार्यों के लिए कठिनाई हो रही है । आज ज़रूरत है उन्हीं की ज़मीन पर जवाब देने की । महाभारत में युधिष्ठिर शरशैया पर लेटे भीष्म से धर्म के वास्तविक रूप के बारे में पूछते हैं । धर्म वास्तव में व्यक्तिगत आस्था की चीज़ है । धर्मध्वजी उसका उपयोग जिस प्रकार करते हैं, लगता है वे धर्म के व्यापारी हैं । हमारे यहां तुलसी सदृश सनातनी परंपरा के कवि भी धर्मध्वजियों की निंदा करते हैं । ये जो नई वास्तविकता पैदा हो रही है...सत्ता की सीढ़ियों वाली...यह सब आज के लेखन में आना चाहिए । आज वैज्ञानिकों में भी अंधविश्वास बढ़ रहा है, लेखकों को इस सबके लिए तैयार होना चाहिए । आज एक रचनाकार के नाम पर सम्मान शंकर को मिला है । शंकर ऐसे संपादक हैं जो अपने आप को प्रोजेक्ट नहीं करता । 

इस समारोह में आनंद प्रकाश, अब्दुल बिस्मिल्लाह, रामकुमार कृषक, मदन कश्यप, गौरीनाथ, योगेंद्र आहूजा, राकेश रेणु, प्रेम तिवारी, राधेश्याम तिवारी, बलराम अग्रवाल, काजल पांडेय, प्रताप अनम, सुषमा जगमोहन, अरविंद कुमार सिंह, रचना त्यागी, अमरेंद्र मिश्र, अवधेश श्रीवास्तव, कमलेश भट्ट कमल, आनंद क्रान्तिवर्धन, अशोक मिश्र, गजेंद्र रावत और मो. साबिर सहित साठ रचनाकारों ने भाग लिया । बताया गया कि आगामी समारोह 2025 में होगा । तब वरिष्ठ आलोचक आनंद प्रकाश किसी कवि का चयन इस सम्मान हेतु करेंगे । 

रपट : हीरालाल नगर

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रिपोर्ट


युवावर्ग में साहित्य के प्रति रुचि कम होना चिंताजनक: धर्म पाल साहिल

फगवाड़ा, हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार डा.धर्म पाल साहिल ने इस बात पर चिंता व्यक्त की है पंजाब में युवावर्ग साहित्य से विमुख होता जा रहा है । आज अगर नये साहित्यकारों की गिनती की जाए तो बहुत कम लोगों का नाम सामने आता है । यह बहुत ही दुखद एवं चिंता की बात है कि युवा पीढ़ी साहित्य से विमुख होने लगी है । कभी पंजाब में हिन्दी भाषा में लिखने वाले साहित्यकारों की गणना गर्व से की जाती थी जिनमें सर्वश्री उपेंद्रनाथ अश्क, मोहन राकेश, जगदीश चंद्र, वीरेंद्र मेंहदीरत्ता, यशपाल, सुदर्शन  आदि साहित्यकारों के नाम प्रमुख हैं । आज सुरेश सेठ, हरमहेंद्र सिंह बेदी,मोहन सपरा,तरसेम गुजराल,डा. केवल धीर,अजय शर्मा ,सैली बलजीत,डा. जवाहर धीर, डॉक्टर मनोज प्रीत,आदि बड़ी आयु के साहित्यकारों के बाद नई पीढ़ी में बहुत कम लोग दिखाई देते हैं जो लिख रहे हों । ये विचार दोआबा साहित्य एवं कला अकादमी के कार्यालय में पधारे वरिष्ठ लेखक डा. धर्म पाल साहिल ने व्यक्त किए । दोआबा अकादमी के अध्यक्ष डा. जवाहर धीर ने कहा कि पंजाब अहिंदी भाषा का प्रदेश होने के कारण यहां की सरकारों ने हिंदी भाषा को प्रोत्साहन ही नहीं दिया । इस अवसर पर उपस्थित चर्चित कवि दिलीप कुमार पाण्डेय ने इस बात पर दुःख व्यक्त किया कि पंजाब जैसे प्रदेश में युवा पीढ़ी साहित्य के प्रति विमुख दिखने लगी है । इस अवसर पर नरेश कुमार और राहुल कुमार भी उपस्थित रहे । 

चित्र - लेखक धर्म पाल साहिल डा.जवाहर धीर व दिलीप पांडेय को अपनी पुस्तकें भेंट करते हुए । 

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नामवर कवि डॉ.  सुरजीत पातर को समर्पित शोक सभा का आयोजन

प्रेस रिलीज 12 मई 2024

डॉ. सुरजीत पातर का देहांत पंजाबी साहित्य और भाषा के लिए बड़ी क्षति-डॉ. दर्शन सिंह ’आशट’

पटियाला, 12 मई, आज पंजाबी साहित्य सभा (पंजी.) पटियाला द्वारा भाषा विभाग, पंजाब पटियाला के लेक्चर हाल में पंजाबी के नामवर कवि डॉ. सुरजीत पातर को समर्पित शोक सभा का आयोजन किया गया। इस शोक सभा में साहित्य सभा के अध्यक्ष और साहित्य अकादेमी बालसाहित्य पुरस्कार विजेता डॉ. र्शन सिंह ’आशट’ ने सम्बोधित करते हुये कहा कि डॉ. सुरजीत पातर का देहांत पंजाबी साहित्य और भाषा के लिए बड़ी क्षति है। डॉ.’आशट’ ने कहा कि पातर पंजाबी शायरी का वह सुनहरी पृष्ठ है जिसकी आभा कभी कम नहीं हो सकती। उनकी कल्म सदैव नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करती रहेगी।’’

इस शोक सभा में शिरोमणिं संस्कृत साहित्यकार डॉ. महेश गौतम, पंजाबी विद्वान डॉ. गुरबचन सिंह राही,भाषा विभाग के पूर्व सहायक निदेशका कंवलजीत कौर, रिसर्च अफसर डॉ. सुखदर्शन सिंह चाहल, रंगकर्मी मनपाल टिवाणा और डॉ. सुरजीत पातर के नजदीकी रिश्तेदार और पंजाबी मासिक पत्रिका ’अणु’ के सम्पादक सुरेन्द्र कैले लुधियाना भी विशेष तौर पर शामिल हुये। मंचाचीन शख्सियतों के अलावा बड़ी संख्या में शामिल हुये साहित्यकारों ने अलग अलग तरीके से डॉ. पातर के प्रति शोक प्रकट किया गया और दो मिनट का मौन भी धारण किया गया।

डॉ. आशट ने इस मौके पर बताया कि भविष्य में डॉ. सुरजीत पातर के संदर्भ से कुछ और कार्यक्रमों की योजना तैयार करने का प्रयत्न भी किया जायेगा। इस अवसर पर सभा के जनरल सचिव देवेन्द्र पटियालवी, कहानीकार बाबू सिंह रैहल, लघुकथाकार योगराज प्रभाकर के अलावा अन्य साहित्यकार भी शामिल हुये।

फोटो कैप्श्न: डॉ. सुरजीत पातर नमित शोक सभा में शामिल सभा के अध्यक्ष डॉ. दर्शन सिंह ’आशट’ डॉ. महेश गौतम, गुरबचन सिंह राही और कंवलजीत कौर आदि।

रिपोर्ठ  देवेन्द्र पटियालवी जनरल सचिव पंजाबी साहित्य सभा पंजी. पटियाला

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रिपोर्ट

भव्यता से मना तुलसी साहित्य-संस्कृति अकादमी न्यास का वार्षिकोत्सव एवं पं. हरप्रसाद पाठक- स्मृति साहित्य पुरस्कार समिति का रजत जयंती समारोह

कुल 66 साहित्यकार हुए सम्मानित एवं पुरस्कृत

3 कलाकारों को मिला प्रतिभा सम्मान । 

5 रक्तदाताओं को प्राप्त हुआ तुलसी सेवा सम्मान

मथुरा, तुलसी साहित्य संस्कृति अकादमी न्यास के वार्षिकोत्सव एवं पं. हरप्रसाद पाठक -स्मृति साहित्य पुरस्कार समिति के रजत जयंती समारोह के उपलक्ष्य में दोनों संस्थाओं के संयुक्त तत्वावधान में भव्यता के साथ साहित्यकार सम्मान समारोह एवं पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम सम्पन्न हुआ । इस अवसर पर तुलसी साहित्य-संस्कृति अकादमी न्यास के तत्वावधान में ब्रज कला तारिका सुश्री सिमरन अरोड़ा द्वारा चित्रकला प्रदर्शनी भी लगाई गई,जिसे दर्शकों ने खूब सराहा । 

यह समारोह 24 सितंबर 2023को ब्रजभूमि मथुरा के सुप्रसिद्ध महाविद्यालय अमरनाथ गर्ल्स डिग्री कॉलेज, भूतेश्वर,मथुरा के सौजन्य से महाविद्यालय के मातृ कृपा प्रेक्षागृह में आयोजित हुआ । 

प्रथम सत्र का शुभारम्भ कार्यक्रम के अध्यक्ष अनेक राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त शिक्षाविद डॉ अनिल वाजपेयी, मुख्य अतिथि वरिष्ठ बाल साहित्यकार श्री भगवती प्रसाद द्विवेदी, विशिष्ट अतिथि लखनऊ से पधारीं वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती स्नेहलता ने माँ सरस्वती के साथ स्व.पं.हरप्रसाद पाठक ब्रह्मलीन योगीराज पं. श्री श्याम सुन्दर चतुर्वेदी 'श्याम', ब्रह्मलीन संत श्री ब्रजसंभारी दास एवं स्व. श्रीमती मायादेवी चतुर्वेदी की चित्र छवि पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्ज्वलन कर किया । 

 ब्रजकला तारिका सुश्री सिमरन अरोड़ा द्वारा चित्रकला प्रदर्शनी आयोजित की गई जिसे दर्शक मुग्ध हो गए । 

 तत्पश्चात माँ सरस्वती की नृत्यमयी वन्दना डिग्री कॉलेज की छात्रा प्रियंका एवं साथियों ने प्रस्तुत की । अकादमी का परिचय न्यास के अध्यक्ष आचार्य नीरज शास्त्री एवं समिति का परिचय समिति के सचिव डॉ. दिनेश पाठक शशि ने प्रस्तुत किए । 

 प्रथम सत्र में सर्वप्रथम वरिष्ठ शिक्षाविद् डॉ अनिल वाजपेयी को अकादमी के अध्यक्ष आचार्य नीरज शास्त्री ने शिखर सम्मान से अलंकृत किया । मुख्य अतिथि वरिष्ठ बाल साहित्यकार श्री भगवती प्रसाद द्विवेदी को डॉ दिनेश पाठक'शशि' द्वारा तथा वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती  स्नेहलता को समिति द्वारा सम्मानित किया गया तुलसी हिंदी सेवी सम्मान, ब्रजकला तारिका सुश्री सिमरन अरोड़ा को तुलसी कला साधिका सम्मान तथा मथुरा के चित्रकार श्री आकाश सिंह व‌ श्री अभिषेक सिंह को तुलसी प्रतिभा सम्मान प्रदान किए गये । 

 मानवता की सेवा के लिए रक्तदान को सदैव तत्पर रहने वाले इंजीनियर आकाश राघव, श्री मोहित पांडेय व श्री कार्तिक चौधरी को तुलसी सेवा सम्मान से सुशोभित किया गया । मथुरा के कलमकार डॉ योगेश कुमार को तुलसी सचेतन कविता सम्मान प्रदान किया गया । 

न्यास के तत्वावधान में द्वितीय सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार डॉ राजेन्द्र मिलन ने की । इस सत्र में भव्य कवि सम्मेलन हुआ । दर्शकों एवं श्रोताओं की तालियों से प्रेक्षागृह गुंजायमान हो उठा । 

 इस अवसर पर आचार्य नीरज शास्त्री द्वारा संपादित 'हिंदुत्व के दिव्य प्रकाश तुलसी और मानस' के साथ ही नैतिक बाल कहानियां, दृश्यांतर,संस्मृति, नव इतिहास रचाना है,दो दूनी चार, जीवन है अनमोल, मथुरा जनपद के कीर्तिशेष साहित्यकार, अज्ञात आदि पुस्तकों का लोकार्पण हुआ । युवा ज्योतिष रत्न मानव वशिष्ठ द्वारा रचित पुस्तक ' ज्योतिष मार्गदर्शन ' आकर्षण का केंद्र बनी रही । 

आचार्य नीरज शास्त्री ने एक बार पुनः हिंदी भवन बनाने की मांग प्रशासन से करते हुए कहा -" हिंदी भवन हमारी प्राथमिकता है । मैं अपनी अंतिम सांस तक मथुरा में हिंदी भवन के निर्माण के लिए प्रयास करता रहूंगा । हिंदी भवन के निर्माण के लिए मैं किसी भी स्तर तक जाऊंगा और हिंदी भवन के निर्माण होने तक निरंतर अपने प्रयास जारी रखूंगा । 

 कार्यक्रम के अध्यक्ष वरिष्ठ शिक्षाविद् डॉ अनिल वाजपेयी जी ने कहा -" आचार्य नीरज शास्त्री जी हिंदी भवन के लिए जो प्रयास कर रहे हैं, उनमें वह निश्चित ही सफल होंगे और एक दिन निश्चित ही मथुरा में हिंदी भवन होगा, ऐसा मेरा विश्वास है । मैं सदैव आचार्य नीरज शास्त्री जी के साथ हूं । 

 कार्यक्रम में श्री जय प्रकाश पचौरी ( सादाबाद), घुमक्कड़ कवि गाफिल स्वामी, डॉ धनंजय कुमार तिवारी, डॉ सोमकांत त्रिपाठी ,मूलचंद निर्मल,नीरज बेनीवाल, अनुराग मिश्र, राहुल प्रजापति , डॉ रामसेवक ( निदेशक- विद्या भारती प्रकाशन विभाग), श्रीमती पूनम शास्त्री, अनुज चतुर्वेदी'अनुभव', मानव वशिष्ठ, सुभाष गुप्त,हरि दत्त चतुर्वेदी 'हरीश', हर्ष पंडित, पाठक आदि का योगदान विशेष सराहनीय रहा । 

आभार तुलसी साहित्य-संस्कृति अकादमी न्यास के अध्यक्ष आचार्य नीरज शास्त्री ने व्यक्त किया । कार्यक्रम का सफल संचालन श्री अनुराग मिश्र ने किया । 

–निवेदक आचार्य नीरज शास्त्री, अध्यक्ष - तुलसी साहित्य-संस्कृति अकादमी न्यास, मो.9259146669

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यात्रा-संस्मरण

अजित कुमार राय, कन्नौज, मो. 98396 11435

एकदा नैमिषारण्ये.....

कल दस बजे सुबह हम लोग नैमिषारण्य के लिए रवाना हुए । यह इस पावन तीर्थ भूमि के लिए प्रथम प्रयाण था । मार्ग में पुष्पित पलाश के अग्नि वृक्ष और असंख्य शुक - शावकों सरीखे हरित पल्लवों से लदे पानीदार पीपल के छाया द्रुम वसन्त के वैभव को परावर्तित कर रहे थे । कार की प्रगति - लय में परंपरा गत पेड़ सड़क के ऊपर बुलन्द दरवाजा जैसा वितान तान रहे थे । बीच - बीच में नंगाझोरी के दंश झेल रहे पेड़ों के अस्थि कंकाल, लाल या कत्थई किसलयों से आच्छादित विटप और कुछ आकाश पद्म जैसे आरक्त कुसुमों से अलंकृत वृक्ष पौराणिक तपोभूमि के पथ पर खड़े ऋषियों जैसे प्रतीत हो रहे थे । वैसे अब नैमिषारण्य भी अरण्य कहाँ रहा! अब आरण्यक संस्कृति संकटग्रस्त हो गई है । यद्यपि जंगल शहरों तक फैल गए हैं । वेदव्यास जी की तपोभूमि और दिगम्बर शुकदेव जी की कथा भूमि में पहुँच कर देखा कि प्राचीनता का पानीदार पुष्कर कैसे मलिन हो गया है । भगवान् विष्णु का सुदर्शन चक्र भी इस पतित प्रवाह को काटने में असमर्थ हो रहा है । इस चक्र कुंड में पानी कहाँ से आता है, यह कोई नहीं जानता । हम लोग ललिता देवी के शक्ति पीठ पर भी गए । कहते हैं कि पिता दक्ष के यज्ञ में आत्माहुति देने के बाद प्रलयंकर शंकर जी ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने के पश्चात् शिवा के शव को कन्धे पर लेकर घूमते रहे । यह बिम्ब कोरोना काल में भी दिख जाता था । प्रणय की ऐसी वामपंथी साधना किसी भी ताजमहल से बहुत ऊंची है । तो सती का हृदय यहाँ टूट कर गिर गया था । ललित भावलोक के अंश से ललिता देवी का प्रादुर्भाव हुआ । वैसे यह समूची भागवत भूमि विष्णु पुरम् की संज्ञा पा सकती है । अपनी बसाई कालोनी का मैंने यही नामकरण किया था । मुझे वास्तव में शान्ति वैवस्वत मनु और शतरूपा की अनन्त तपोभूमि में ही जाकर मिली । वहाँ पीपल और कैंथा के पेड़ के पड़ोसी विशालकाय वटवृक्ष की शीतल छाया में शान्ति बरस रही थी । परम्परा और आधुनिकता का संगम आज सभी सांस्कृतिक शहरों में लक्षित किया जा सकता है । शक्तिपीठों में मनुष्य की कामनाओं की भीड़ ने शायद शान्ति भंग कर दिया है । विराटता - बोध कराते विश्वमूर्ति भगवान् विष्णु की विशाल मूर्ति की छाया में बने मंदिर में भी उसी शान्ति का अनुभव हुआ । कपि समूह से घिरे हुए हनुमान गढ़ी की चढ़ाई का फलागम प्रकृति परिसर की वासन्तिक सुषमा थी । बड़े ललछौंहे मीठे बेर भी आस्वाद्य थे । वे शबरी के बेर की याद दिला रहे थे । मंदिरों में आस्था का अर्थशास्त्र भी अद्भुत था । किन्तु मैं तो आत्मदान के चरम प्रतीक दधीचि की हड्डियों से बने वज्र से संरक्षित सांस्कृतिक अस्मिता का दर्शन करने दधीचि कुंड चला गया, जो वहाँ से आट किमी दूर है । वहाँ तैर रही रंगीन मछलियों को बिस्कुट खिलाने का आस्वाद ही कुछ अलग था । मिश्री के बड़े बड़े क्रिस्टल के बड़े बड़े ढेर मन में मिठास घोल रहे थे, जिसे चुभलाते हुए हम गोमती नदी के देवदेवेश्वर घाट पर पहुँच गए । तब जाकर लगा कि हां, मुझे भी इन्हीं तटवर्ती निकुंजों में तपस्या करनी चाहिए । ध्यान के लिए इससे उपयुक्त जगह क्या होगी! फिर हम लोगों ने नदी में नौकायन  किया । फिर हंसते - खिलखिलाते घर लौट आये । किन्तु मैं तो अब तक उसी घाट पर बैठा हूँ । 

–अजित कुमार राय, कन्नौज

समकालीन लोकप्रिय साहित्य में राष्ट्रीय पहचान 

सहित का भाव ही साहित्य है । शब्द और अर्थ के साहचर्य से काव्य का निर्माण होता है । किन्तु भामह की इस परिभाषा में अतिव्याप्ति दोष है । शब्द और अर्थ का संश्लेष तो निबन्ध, नाटक, कहानी और उपन्यास में ही नहीं, इतिहास और समाज शास्त्र में भी होता है । कवि भावों का इतिहास - स्रष्टा होता है । कविता जीवन और जगत की आलोचना भी है और आत्मसत्य की लयाभिव्यक्ति भी । वह एकालाप भी है और समवेत गान भी । कविता वृत्तियों का उदात्तीकरण करती है । इस विश्रृंखल विश्व को कला कोई संगठित अर्थ दे सके तो वही उसकी सार्थकता भी है और मूल प्रयोजन भी । हम संकीर्ण सांस्कृतिक राष्ट्रवादी एप्रोच के बजाय राष्ट्र गीत को विश्व नागरिक बन कर गाएं और भारतीय आत्मा को विश्वात्मा में विसर्जित कर दें । समूची वसुधा हमारा वृहत्तर परिवार बन जाए । इस वैदिक प्रार्थना को चरितार्थ कर हम अपनी भारतीय मानसिकता का परिचय देते हैं । गौरतलब है कि परिवार नामक संस्था विश्व को भारत की महत् देन है । यह ऋषि और कृषि - संस्कृति आज संकटग्रस्त है । नन्दी और नान्दी दुआर से गायब हैं । पहले हर घर में नहीं तो मुहल्ले में रामायन का पाठ होता था । अब फिल्मी गानों ने उसकी जगह ले ली है । रामचरितमानस ने विश्व में हमारी राष्ट्रीयता की पहचान निर्मित की है । मर्यादा के उच्चतम मानदंडों की स्थापना की दृष्टि से मानस विश्व साहित्य में बेजोड़ ग्रन्थ है । इसमें आर्य और अनार्य संस्कृति के बीच सम्बन्धों का एक सेतुबंध ही नहीं, वरन् क्लास और मास की कविता के बीच भी एक पुल बांधा गया है । सामाजिक सम्बन्धों का एक स्पेक्ट्रम यहाँ संलक्ष्य है । कविता में सांगीतिक तत्त्व का अभिनिवेश और आरण्यक संस्कृति के प्रामाणिक अनुभव - संस्थान से उपजे प्राकृतिक परिदृश्य के कोमल और कठोर दोनों ही रूपों के संश्लिष्ट बिम्ब ---- भारतीय साहित्य की विशिष्ट वैश्विक पहचान है । इन दोनों ही तत्वों को कामरेड साहित्य ने क्षति ग्रस्त किया है । किन्तु आत्मगौरव के बोध को यथार्थ - दर्शिता से सन्तुलित भी किया है । 

समकालीनता एक कालिक संज्ञा है और साथ ही तर्कसंगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सूचक भी । प्रस्तुत विषय के चार अनुषंग हैं । लोकप्रिय साहित्य न तो लोक साहित्य है, जिसके स्रष्टा का नाम प्रायः गुमनाम होता है और न ही वह अभिजात साहित्य जो जन जन का कंठहार न बन कर मुट्ठी भर सुजन लोगों को सम्बोधित होता है और आम आदमी की चर्चा भी खास बनने के लिए और खास लोगों के बीच ही करता है । आम आदमी की समस्याओं को आम बोलचाल की भाषा में सादगी से स्वर देने वाले कथा - सम्राट मुंशी प्रेमचंद से अधिक लोकप्रिय कौन भारतीय कथाकार हो सकता है? प्रेमचंद मूलतः ग्राम - चेतना के कथाकार और ग्राम जीवन के भाष्यकार हैं । और गांधीजी के अनुसार भारत की आत्मा गाँव में निवास करती है । वैसे आज नागरिक सभ्यता के आघात से ग्राम - संस्कृति बिखर गई है और सह अस्तित्व, सहकारिता और निष्कपट प्रेम, जो सारी अशिक्षा, गरीबी और दुर्दशा को एक सम्बल प्रदान करता था, गाँव से विदा हो गया । गाँव के शहरीकरण के साइड इफेक्ट्स पर भोजपुरी कवि अंजोर जी की टिप्पणी देखें -----

गाँव जब से शहर हो गइल, / तब से दूधो जहर हो गइल । 

सनातन संस्कृति में राजनैतिक वैमनस्य के कीटाणु या जीवाणु संक्रमित हो कर उसे विषाक्त बना चुके हैं । आज के बाजारवादी समाज के संक्रमण शील यथार्थ को सम्बोधित करते हुए कुमार अम्बुज कहते हैं ------

एक विराट पण्यशाला / जहाँ मिल रही हैं वस्तुएँ / और छूट रहे हैं लोग । 

आज ज्ञान और धर्म, यहाँ तक कि आत्मा भी बिकाऊ माल में तब्दील हो चुकी है । विपर्यय आज की वास्तविकता है । मोबाइल के माध्यम से हम अमेरिका में बैठे मित्र के तो करीब हैं, किन्तु पास बैठे परिवार के लोग कोसों दूर हो गए हैं । इन्दिरा गान्धी का भारत गुट निरपेक्ष देशों के गुट का अध्यक्ष था, जब रूस और अमेरिका में शीतयुद्ध चल रहा था । सन् 1990 में मनमोहन सिंह आर्थिक उदारीकरण के सूत्रधार बने । आज साहित्य भी साधारणीकरण के बजाय भावों के उदारीकरण का शिकार हो गया है । कविता भावों का निवेश है, विचारों का उपनिवेश नहीं । आज सूचना प्रौद्योगिकी के कारण यातना के दृश्यों को भी अनुरंजक पदार्थ के रूप में परोसा जाता है । हम निरन्तर बर्बर घटनाओं के मेले में हैं, किन्तु संवेदना रहित द्रष्टा बन गए हैं । अब हिंसा उत्तेजित नहीं करती, बल्कि नवीनतम रोमांच बनकर प्रस्तुत होती है । हिन्दी के सबसे लोकप्रिय गजलकार दुष्यन्त कुमार कहते हैं ------

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, / मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए । / कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता, / एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों । 

जी -- 20 के देशों की अध्यक्षता करते हुए भारत ने पृथ्वी के पर्यावरण, शान्ति, संयम और समन्वय का संदेश दिया । भारत में हर महाभारत की वल्गा योग के हाथों में रही है । वरना जयप्रकाश के अनुसार आज नृ - केन्द्रिक संसार के उत्कर्ष का समय है और विडम्बना यह है कि इस समय को रचने वाली शक्तियां नृ - घातक रूप धारण कर चुकी हैं । इस आसुरी वृत्ति के संहार के लिए नृसिंह को अपने नाखून तराशने होंगे । स्त्री विमर्श के नाखूनों को तराशते हुए अनीता वर्मा कहती हैं -----

स्त्रियों के नाखून / खूबसूरती से तराश दिए गए हैं, / जिन पर मीठी पालिश चढ़ी है । 

बिना कोई मीठी पालिश चढ़ाए मैं कहना चाहता हूँ कि रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंशराय बच्चन, वीरेन्द्र मिश्र, गोपाल दास नीरज, हरि ओम पवार ने लोकप्रिय कविता का प्रतिमान रचा है । वीरेन्द्र मिश्र आज के आणविक युद्धों की विडम्बना को भेदते हुए कहते हैं ------

कन्धे पर धरे हुए खूनी यूरेनियम, / हंसता है तम । / युद्धों के मलवे से उठते हैं प्रश्न / और गिरते हैं हम । 

थोड़ा सा और गिरें तो कुछ लोग अरुन्धती राय, सलमान रुश्दी, तस्लीमा नसरीन और ' सीता' के प्रणेता अमीष के बेस्टसेलर लेखन को भी लोकप्रिय साहित्य की संज्ञा से अभिहित कर सकते हैं । वैसे कई विदेशी लेखकों की किताबों की लाखों प्रतियाँ बिक जाती हैं । यहाँ तो हजारों की संख्या में बिकना भी एक कठिन चुनौती है । जबकि विश्व की एक चौथाई आबादी भारत में ही रहती है । तो क्या यह सांस्कृतिक दारिद्र्य का सूचक है! शिव के त्रिशूल पर अवस्थित काशी में बैठ कर जयशंकर प्रसाद अपनी कामायनी में कश्मीरी शैवागम के प्रत्यभिज्ञा दर्शन को प्रतिफलित करते हुए बड़े जीवन - चक्रों को हाथ में लेकर एक व्यापक सभ्यता - मीमांसा में प्रवृत्त होते हैं । निराला ने "राम की शक्ति पूजा" के माध्यम से श्रीलंका में संघर्ष रत साकेत के राम के दुर्गा के आराधन के साधन से उत्तर प्रदेश को बंगाल की दुर्गा पूजा से भी जोड़ देते हैं । अजातशत्रु अयोध्या, जो युद्ध से सदा विरत रहती है । आन्तरिक ऊर्जा को अर्जित करने के कारण यह कविता की शक्ति पूजा भी बन जाती है और यही निराला की पहचान भी है । कविता के सहस्रार चक्र से यहाँ असीम ऊर्जा का स्राव होता है । 'तोड़ती पत्थर' और 'भिक्षुक' निराला की पहचान नहीं हैं । हां, भिक्षु भारत की पहचान हो सकता है । हम भूख को 'उपवास' का अर्थ प्रदान करने के कायल हैं । रामचरितमानस में सदियाँ बोलती हैं और अशोक वाजपेयी कहते हैं -----

मैं उठाता हूँ एक शब्द / और किसी पिछली शताब्दी का / वाक्य - विन्यास विचलित होता है । 

–अजित कुमार राय कन्नौज

गहरे भावलोक का यात्री....

मदन जी मसृण भावों के विरल गीतकार हैं । उनके गीत नवगीत की सीमाओं का स्पर्श करते हैं । वे लोकजीवन और नागरिक बोध के बीच मनुष्यता का उत्खनन करते हैं । उनके गीतों में भावात्मक अन्विति की प्रभावशाली उपस्थिति है, जिसके कारण उनके गीत सहज संप्रेष्य बन पड़े हैं । उन्होंने परिमाण की दृष्टि से कम लिखा है और उसमें बहुत सारे गीत सामान्य विवक्षा मात्र हैं । किन्तु गुणात्मक रूप से कुछ गीतों में नये काव्य - बोध का स्तर विस्मित करता है । उनके उपनाम ने उनके मूल नाम को अपदस्थ कर दिया था । अर्थात् मदन ने अनिल को विस्थापित कर दिया था । यह उनके कवित्व की शक्तिमत्ता का प्रमाण है । आकस्मिक नहीं है कि प्रणय की स्निग्ध संवेदना उनके गीतों को जीवन्त बना देती है और 'करिहांव' शब्द बार बार उनके गीतों में लौटता है । नारी के नितम्ब तो सदा से कवियों के आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, किन्तु मनुष्यता के कमर का झुक जाना वर्तमान की त्रासदी को व्यक्त करता है । उनकी कविता लोकजीवन से अपना रस ग्रहण करती है -----

बारे से सूरज के ललछौंहे पांव रे! / राम नाम जपन लगे, जागि गए गाँव रे!! / घरन -- घरन चकियन के घरर -- घरर गीत रे! / बैठि के निकारि रहीं बहुएं नवनीत रे!! / बिन नाचे, नांच नचै बइठो करिहा रे!

गौरतलब है कि ये अधुनातन गाँव नहीं हैं, जहाँ भोर में विहाग और जतसार के गीत गूंजते हों । अब तो चक्की में भी कोई आटा पिसाने नहीं जाता । अब सीधा पतंजलि का पैकेट आता है तो घर में तो सत्तू पीसने के लिए भी जांत मौजूद नहीं हैं और अब भोर में जगता ही कौन है! और जग भी जाए तो मोबाइल उसकी प्रतीक्षा कर रहा है, जहाँ हम अमेरिका में बैठे मित्र के तो पास हैं लेकिन अपने पास बैठे अपनों से बहुत दूर । यह सूचना - क्रान्ति और अन्तर्जाल - युग की विडम्बना है । खैर, मदन जब अपने मूल अवतार में होता है तो भोर - भैरवी राग गाने का निषेध करता है -----

मन के पंछी अभी उनींदे, भोर भैरवी राग न गाओ । / सपनों के शावक क्रीड़ा रत, अरुणोदय! थोड़ा रुक जाओ । । 

अभी आलिंगन में गुंफित सपने प्रियतम से अपने मन की बात भी नहीं कह पाए हैं और स्मृतियाँ सिरहाने बैठी
हैं । गजरे की गंध कोलाहल मचा रही है । ऐसे में नयनों के काजल सौन्दर्य - बोध को रेखांकित करते हैं । कलियाँ अपने घूंघट हटाने को उद्यत हैं । यह परिवेश कैसे दुर्घटनाओं को आमंत्रित करता है -----

जल रहे हैं ये शहर, ये गाँव, बोलो क्या करें? / हर गली में हादसों की छांव, बोलो क्या करें? / कोहरे की कई पर्तों में लिपट सूरज चला, / धूप के सहमे हुए हैं पांव, बोलो क्या करें?

मांसल सौन्दर्य से संस्फूर्त्त रोमानी भावबोध कब यथार्थ के उत्ताप में पर्यवसित हो जाता है, पता ही नहीं
चलता । यह गीत अमरनाथ श्रीवास्तव के गीत की याद दिलाता है -----

इस तरह मौसम बदलता है, बताओ क्या करें! / शाम को सूरज निकलता है, बताओ क्या करें!! / यह शहर वह है कि जिसमें आदमी को देखकर, / आइना चेहरे बदलता है, बताओ क्या करें!

हर कवि कहीं न कहीं से प्रभाव ग्रहण करता है । इसलिए मौलिकता की चर्चा बेमानी है । यहाँ धूप का दुपट्टा ओढ़े हुए सड़क पसीना पोंछ रही है तो तप्त धरा से उठते हुए रेतीले गुबार के बिम्ब भी हैं । सिन्दूरी संध्या के द्वार पर सुधियों का मनका जपते हुए कवि अपने ढलते हुए समय का आभास प्राप्त करता है ----

ढुलक रहे खपरैलों पर दिन, निबिया के घर सोई रातें,

स्वप्न अंधेरों के आंगन में सूनेपन से करता बातें । । 

भैया मदन जी हमारे घर को सूना करके चले गए और नीम की छांव भी छिन गई । दो दशक पहले उन्होंने ही कन्नौज की कवि - मंडली और खासकर सुलभ जी से मेरा परिचय कराया था । वह एक अनूठा गृहप्रवेश था मेरा । दोनों ही काव्य - मनीषियों के साथ मैं सर्वाधिक सहज महसूस करता था और उन दोनों ने कोरोना काल में भी घर आना नहीं छोड़ा । मदन जी मेरी अनुपात हीन प्रशंसा करते थे और जिससे नाराज होते थे, उसकी अनुपात हीन आलोचना भी करते थे । दोनों की छाया मेरे सिर से हट गई, ठीक ओजोन पर्त की तरह । उनका निर्व्याज प्रेम बहुत याद आता है । 

–अजित कुमार राय, कन्नौज

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